जीव विज्ञान में अमूर्त का महत्व – डॉ. अश्विन साई नारायण शेषशायी

अमूर्तिकरणएक बहुअर्थी शब्द है। एक मायने में इसका मतलब होता है कि वास्तविक घटनाओं और वस्तुओं की बजाय उनका प्रतिनिधित्व करने वाले विचारों का प्रस्तुतीकरण। ऑक्सफोर्ड अंग्रेज़ी शब्दकोश अमूर्तिकरण की परिभाषा कुछ इस तरह देता है: किसी चीज़ पर उसके अंतर्सम्बंधों या गुणधर्मों से स्वतंत्र विचार करना। एक दूसरे अर्थ में, इसका आशय चंद उदाहरणों के आधार पर किसी अवधारणा का सामान्यीकरण भी होता है। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि कतिपय रचनाओं का आसान सारतत्व निकालना।

प्रचलित संस्कृति में अमूर्तिकरण का सम्बंध प्राय: आधुनिक कला के साथ जोड़ा जाता है। यह कला रंगों और रेखाओं की एक दृश्य भाषा में व्यक्त होती है, जो वास्तविक दुनिया को छूती भी है और नहीं भी छूती है। शुद्ध या अमूर्त गणित अवधारणाओं के साथ खेलता है जो प्राय: अजीबोगरीब लगती हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उनका हमारे आसपास की दुनिया से कुछ लेनादेना नहीं है। यह अलहदा बात है कि ये अवधारणाएं कभीकभी उच्च टेक्नॉलॉजी का सूत्रपात करती हैं। अर्थ शास्त्र में इंसानों के लोभ और कमज़ोरियों तथा समय व स्थान के साथ इनमें होने वाले परिवर्तनों की वजह से उत्पन्न उथलपुथल को अक्सर अमूर्त गणितीय समीकरणों का रूप दिया जाता है। ये समीकरण बाज़ारों को चलाते हैं, गिराते और उठाते हैं।

जीव विज्ञान का सम्बंध वास्तविकता से है और यह जीवन के अचरजों के साथ सख्त वैज्ञानिक ढंग से काम करता है। क्या अमूर्तिकरण का जीव विज्ञान से कुछ भी लेनादेना हो सकता है? मैं नहीं जानता कि लोग जानकारी के लिए कितनी बार कोरा (Quora) जैसे ढुलमुल स्रोतों का सहारा लेते हैं। बहरहाल जीव विज्ञान में अमूर्तिकरण को गूगल सर्च करें तो वह आपको एक कोरा पेज पर पहुंचा देता है, जहां यह कहा गया है कि जीव विज्ञान में कोई अमूर्तिकरण नहीं होता क्योंकि सब कुछ ठोस वास्तविकता है। अब यदि जीव विज्ञान से आशय जीवन के अध्ययन से है, और अमूर्तिकरण में यह भी शामिल है कि किसी पेचीदा समष्टि के हिस्सों को अलगअलग करना और उन्हें आसान तरीके से निरूपित करना जो जीवन की बहुस्तरीय वास्तविकता का प्रतिनिधित्व कर सकें और नहीं भी कर सकें, तो अमूर्तिकरण जीव विज्ञान का मुख्य हिस्सा हो जाता है।

आणविक नृत्य का समंवय

जैविक तंत्र निहित रूप से पेचीदा होते हैं। प्रत्येक कोशिका हज़ारों किस्म के रसायनों की खिचड़ी होती है जो परस्पर टकराते हैं और क्रिया करते हैं। और यह सब एक सघन आणविक दीवार के अंदर भरे अत्यंत गाढ़े घोल में चलता है। जीव विज्ञान इस सवाल का जवाब देने का प्रयास करता है कि अणुओं के इस सुसंयोजित थैले में कैसे जीवन पैदा होता है और कैसे उसके कुछ रूपों में चेतना का संचार होता है। यदि हम इसमें यह और जोड़ दें कि आणविक विलयनों की एक विशाल विविधता है जिसे कुछ सामान्य सूत्र आपस में जोड़े रखते हैं, जिसका उपयोग हमारे आसपास मौजूद विविध जीव जीवन की रचना के लिए करते हैं, तो सवाल की विशालता स्वत: स्पष्ट हो जाती है। इस जटिलता को देखते हुए, यदि किसी को लगता है कि जीवन की व्याख्या उसकी समस्त बारीकियों के साथ करने के लिए एक वैज्ञानिक रूप से मान्य एकीकारक सिद्धांत प्रतिपादित किया जा सकता है, तो वह थोड़ी ज़्यादा ही मांग कर रहा है। एकमात्र सिद्धांत जो इसके नज़दीक आता है वह है जैव विकास का ढांचा किंतु यह कैसे काम करता है, इसकी बारीकियों का खुलासा अभी होना है और हम समाधान के निकट भी नहीं पहुंचे हैं।

यह स्पष्ट है कि जीवन के अध्ययन का एकमात्र तरीका अमूर्तिकरण का है। जीव विज्ञान के विभिन्न उपविषय जीवन को विभिन्न बिंबों में प्रस्तुत करते हैं। जेनेटिक विज्ञानी के लिए, जीवन के अध्ययन का मुख्य औज़ार यह समझ है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सूचनाओं का संचार कैसे होता है और इस सूचना की विषयवस्तु में उत्परिवर्तनों का व्यवहारगत परिणाम क्या होता है। स्वयं जेनेटिक सामग्री को कई हज़ार अक्षरों के खंडों में अमूर्त रूप दिया जा सकता है जिनमें से प्रत्येक खंड एक जीन का प्रतिनिधित्व करता है। या इस सामग्री को और भी छोटे खंडों के रूप में देखा जा सकता है जो कुछेक अक्षरों से मिलकर बने हों।

दूसरी ओर, ज़रूरी नहीं कि सूचनाओं के संचार में रुचि रखने वाली किसी जैवरसायनविद की रुचि सजीव के व्यवहार और जीन्स से उसके सम्बंधों में हो। हो सकता है कि उसे लगे कि वर्णमाला के अक्षरों के रूप में जेनेटिक पदार्थ का निरूपण बहुत सरलीकरण है। इसकी बजाय वह शायद यह अध्ययन करने का आग्रह करे कि डीएनए को बनाने वाले अलगअलग परमाणु कोशिका के अन्य रसायनों के साथ कैसे अंतर्क्रिया करते हैं।

जीव विज्ञान में रुचि रखने वाले वैज्ञानिकों का एक समूह सिद्धांतविद है। उनके हिसाब से कोशिका के अंतर चल रहे आणविक नृत्य को या शायद शिकारियों और उनके शिकार के बीच चल रही इकॉलॉजिकल अंतर्क्रियाओं को भी चंद गणितीय समीकरणों में बांधा जा सकता है। इन समीकरणों का उपयोग नईनई जीव वैज्ञानिक परिकल्पनाएं विकसित करने में किया जा सकता है और फिर उन परिकल्पनाओं की प्रायोगिक जांच की जा सकती है।

मॉडल जीव का चुनाव

पिछले एकाध दशक में जीव वैज्ञानिकों का एक नया वर्ग उभरा है जिन्हें सिस्टम्स बायोलॉजिस्ट या तंत्रगत जीव वैज्ञानिक कहते हैं। इन जीव वैज्ञाविकों में भी एक उपसमूह ऐसा है जो कोशिका में आणविक नेटवक्र्स को सामाजिक नेटवर्क्स के समान देखता है। दो अणु ठीक उसी तरह अंतर्क्रिया करते हैं जैसे (उदाहरण के लिए) फेसबुक पर दो मित्र करते हैं। प्रत्येक अणु नेटवर्क में एक नोड बन जाता है और दो नोड्स के बीच अंतर्क्रिया एक किनोर बन जाती है। इन नेटवर्क्स में अंतर्क्रियाओं में काफी विविधता हो सकती है। जैसे यह हो सकता है कि हज़ारों कोशिकीय रसायनों के बड़े पैमाने के नेटवर्क में सारी अंतर्क्रियाएं बराबरी की हों या यह भी हो सकता है कि कुछ बड़े पैमाने की अंतर्क्रियाओं के अलगअलग महत्व हों। यह भी संभव है कि किसी नेटवर्क में दसबीस अणु ही शामिल हों। इन नेटवर्क का विश्लेषण सांख्यिकीय विधियों से किया जा सकता है और इनकी व्याख्या जीव वैज्ञानिक नज़रिए से की जा सकती है।

इनमें से कोई भी रास्ता संपूर्ण नहीं है। एक मायने में यह उस परिस्थिति के समान है जहां चार अंधे व्यक्ति एक हाथी के बारे में अलगअलग राय बनाते हैं। चतुर जीव वैज्ञानिक वह है जो इन विभिन्न रास्तों का एकीकरण कर सके और यह समझाने के लिए परिकल्पना विकसित कर सके कि जीवन का कोई छोटा हिस्सा कैसे काम करता है। इसी वजह से अंतर्विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जा रहा है। इसके लिए एक ही सवाल के विभिन्न नज़रियों को समझने की क्षमता ज़रूरी है बल्कि यह भी ज़रूरी है कि आप विविध रवैयों के प्रति खुला दिमाग रखें।

जीवन की विस्तृत विविधता जीव वैज्ञानिक के लिए एक चुनौती है। हम नहीं जानते कि इनमें से अधिकांश जीवों का अध्ययन प्रयोगशाला में कैसे करें। किसी भी जीव के जीव विज्ञान की वैज्ञानिक खोजबीन के लिए प्राय: उसके साथ जेनेटिक छेड़छाड़ करनी पड़ती है। अक्सर हमें पता नहीं होता कि यह कैसे करें। ज़ाहिर है, हम मनुष्यों के जीव विज्ञान का अध्ययन तो करना चाहते हैं किंतु किसी मनुष्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग करना संभव नहीं है। तकनीकी कारण तो हैं ही, साथ में नैतिकता से जुड़े कारण भी हैं।

इसलिए ढेर सारे जीव वैज्ञानिक अनुसंधान में हमने बड़ी संख्या में जीवरूपों का अमूर्तिकरण करके कुछ काम करने योग्य मॉडल जीवों का निर्माण किया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि जीवन के अधिकांश रूपों में कुछ साझा सूत्र हैं और एक तरह के जीवों के अध्ययन से अन्य जीवों की आणविक प्रक्रियाओं को समझा जा सकता है; एकदम बारीकियों में नहीं, तो भी मोटे तौर पर तो समझा ही जा सकता है।

मॉडल जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम मॉडल जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरियाभक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये झुंड में और काफी रफ्तार से संख्यावृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। अंतत: बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किंतु जीवन के सबसे निचले से लेकर सबसे ऊपरी स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरियाभक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।

अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (. कोली) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।

गैरमनुष्य केंद्रित दृष्टि

मानव कोशिकाएं संरचना के लिहाज़ से ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया से बहुत भिन्न होती हैं, इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज़्यादा पेचीदा कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। खमीर यानी यीस्ट एककोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहुकोशिकीय हैं। लिहाज़ा, बहुकोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई (फलमक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए। इनके साथ फेरबदल करना और अध्ययन करना अपेक्षाकृत आसान है।

इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की ज़रूरत। इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुर्इं बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।

ऐसे भी मौके आते हैं जब हमें मनुष्य की कोशिकाओं की ज़रूरत पड़ती है, और किसी चीज़ से काम नहीं चलता। विज्ञान के अनुसंधान और नैतिकता के क्षेत्र यह समझने के प्रयास में जुटे हैं कि यह काम प्रभावी ढंग से कैसे किया जा सकता है। अलबत्ता, यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि मॉडल जंतु मात्र ऐसे औज़ार हैं जिनका उपयोग यह समझने में किया जाता है कि मनुष्य के शरीर कैसे काम करते हैं। तथ्य तो यह है कि मनुष्य इस धरती पर जीवन का एक अत्यंत छोटासा अंश हैं और मॉडल तंत्रों का अध्ययन प्राय: उन जंतुओं को समझने के लिए ही किया जाता है ताकि जीवन को पूरे विस्तार में समझा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मां के बिना ज़्यादा सहयोगी गुबरैले शिशु

ज़्यादातर कीट अंडे देने के बाद उन्हें छोड़ देते हैं। किंतु कालेनारंगी रंग की, छोटीसी खोदक भृंग (गुबरैला) अपने अंडों को छोड़ती नहीं बल्कि अपने बच्चों की तब तक देखभाल करती है जब तक वे स्वयं भोजन जुटाने लायक ना हो जाएं। किंतु शोधकर्ताओं ने हाल ही में आयोजित वैकासिक जीव विज्ञान पर हुई द्वितीय कांग्रेस में बताया है इसकी संतान जन्म से ही खुद अपना भोजन जुटाने में समर्थ हो सकती हैं।

युरोप के जंगलों और उत्तरी अमेरिका के दलदली इलाकों में पाई जाने वाली खोदक भृंग का भोजन ज़मीन में दबे मृत चूहे या पक्षी होते हैं। इन्हीं के नज़दीक मादा अंडे देती है। वयस्क भृंग शव के ऊपर के बाल या पंख को हटाकर उनका नर्म गोला बना लेते हैं और इन्हें अंडों के साथ रख देते हैं। जब अंडे से बच्चे निकलते हैं तो मांभृंग शव में सुराख कर देती है और नवजात लार्वा को भोजन देती है।  

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय की वैकासिक जीव वैज्ञानिक रेबेका किलनर ने प्रयोगशाला में इन भृंगों के परिवारिक माहौल में बदलाव करके उनमें शारीरिक और व्यावहारिक बदलाव का अध्ययन किया। उन्होंने भृंगों को दो समूहों में रखा। एक समूह में अंडे देने के तुरंत बाद मां को उस समूह से हटा दिया गया। दूसरे समूह में उन्होंने ऐसा कोई बदलाव नहीं किया। लगातार 30 पीढ़ियों तक इस प्रयोग को दोहराने के बाद उन्होंने पाया कि मांविहीन समूह के नवजात लार्वा आकार में बड़े थे और उनके जबड़े मज़बूत थे। किलनर का कहना है कि आम तौर पर भृंगमाता मृत शरीर के आसपास की मिट्टी हटाने और शव में छेद करने का काम करती है। पर जब नवजात लार्वा को खुद ये काम करने पड़ा तो सिर्फ वही लार्वा भोजन तक पहुंच पाए जिनके जबड़े बड़े थे। इसलिए वे जीवित भी रह पाए। इस तरह उनकी संतानों के जबड़े बड़े होते गए।

लार्वा के व्यवहार को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने दोनों समूह (मां वाले, और मां विहीन) से विभिन्न अनुपात में लार्वा को एक साथ शव के पास छोड़ा। उन्होंने पाया कि जिस समूह में सभी लार्वा मां विहीन समूह से थे वे भोजन तक पहुंच पाए। किलनर का कहना है कि वे नहीं जानते कि लार्वा यह कैसे कर सके, हो सकता है मिलजुलकर काम करने से उन्हें कामयाबी मिली हो। इसके विपरीत जिस समूह में सारे लार्वा मां वाले समूह से थे वे भोजन तक नहीं पहुंच पाए। देखा गया कि वे शव तक पहुंचने के लिए एकदूसरे से प्रतिस्पर्धा कर रहे थे।

मां विहीन समूह के लार्वा में सहयोग का एक और संकेत दिखाई दिया सभी लार्वा अंडों से एक साथ और जल्दी बाहर निकल आए। किलनर का कहना है कि शव को भेदने के लिए एक खास संख्या में लार्वा की ज़रूरत पड़ती है, अत: यदि अंडों से निकलने का समय एक होगा तो वे मिलजुलकर बेहतर काम कर सकेंगे।

जॉर्जिया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव वैज्ञानिक एलन मूरे का कहना है कि इस अध्ययन से पता चलता है कि परिस्थिति बदलने पर परिवार में कैसे अलगअलग तरह के समाजिक सम्बंध विकसित हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या डायनासौर जीभ लपलपा सकते थे? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पृथ्वी से डायनासौर का अस्तित्व 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व समाप्त हो गया था। किंतु जीव वैज्ञानिकों और जीवाश्म वैज्ञानिकों के प्रयासों से हम इनके बारे में बहुत कुछ जान पाए हैं। और ये डायनासौर अब भी हमारे बीच विज्ञान की रोचक कथाओं और एनीमेशन फिल्मों के रूप में जीवितहैं।

सभी डायनासौर प्रजातियों में सबसे बड़ा और मांसाहारी डायनासौर टायरेनोसौरस रेक्स (टी.रेक्स) रहा है। इसे आतंकी छिपकलियों का राजाभी कहा जाता है। इसमें बड़े आकार के सिर द्वारा, बेहद मज़बूत जांघों और ताकतवर पूंछ का संतुलन किया जाता था। 2011 में प्रकाशित एक शोध से यह ज्ञात हुआ है कि इनमें शरीर की बनावट और उसका संतुलन इतना गज़ब का था कि अपनी विशाल काया के बावजूद टी. रेक्स 20 से 40 किलो मीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकते थे। टी. रेक्स की अगली टांगों में दोदो उंगलियां भी थी। परंतु अगली टांगें कमज़ोर थी। टांगों की कमज़ोरी की भरपाई उन्होंने जबड़ों की बेहतर पकड़ से कर ली थी। इस तरह टी. रेक्स बेहद सफल शिकारी रहे होंगे।

पर कई पिक्चरों और मॉडल्स में उनकी लपलपाती जीभ दिखाई जाती है। तो क्या वे अपनी जीभ से बर्फ के गोलों और लालीपॉप्स को चूस या चाट सकते थे, जैसे हम करते हैं। क्या वे आइसक्रीम के कोन के किनारों से बहतीटपकती आइसक्रीम को चाटने का मज़ा ले सकते थे?

वैज्ञानिकों को लगता है कि टी. रेक्स ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि उनकी जीभ काफी हद तक निचले जबड़े से जुड़ी हुई थी। हाल ही में एक नए शोध ने डायनासौर के चित्रकार एवं मॉडल बनाने वाले विशेषज्ञों की कला में खामियों की विवेचना की। एनिमेटर्स प्राय: टी. रेक्स को आधुनिक छिपकलियों के समान जीभ लपलपाते दिखाते हैं। किंतु वैज्ञानिकों को लगता है कि यह चित्र गलत है।

सरिसृप परिवार में सांप एवं कई छिपकलियां जीभ बाहर निकालकर अनेक कार्यों को अंजाम देते हैं। सभी सांपों में तो जीभ काफी लंबी तथा सिरे से द्विशाखित होती है। शिकार की गंध के कण हवा से पकड़कर लपलपाती जीभ उन्हें ऊपरी जबड़ों के समीप स्थित गंध संवेदी अंग जेकबसंस आर्गन में ले जाती है। कुछ गंध संवेदी तंत्रिकाएं इस अंग से मस्तिष्क में संदेश पहुंचा कर शिकार की पहचान बताने में मदद करती है।

केमेलियॉन जैसे गिरगिट में तो जीभ बेहद लंबी, चूषक युक्त और चिपचिपी भी हो गई है। कुछ दूर बैठे शिकार पर अचानक हमला कर उसे पकड़ने का कार्य हाथपैर के बजाय बहुत लंबी जीभ से ही बहुत कुशलता से संपन्न होता है। जीभ की मांसपेशियां ही शिकार को खींचकर जबड़ों के हवाले कर देती हैं।

कुछ रेगिस्तानी छिपकलियों में तो जीभ मुंह से बाहर निकलकर आंखों की साफ सफाई और गर्मी में थूक को माइस्चेराइज़र्स की तरह लगाने में मददगार होती है।

लेकिन भले ही उपरोक्त सभी आधुनिक सरिसृप जीभ को हवा में लहराने और अनेक कार्य करने में माहिर हैं परंतु भीमकाय टी. रेक्स ऐसा नहीं कर सकते थे। जीभ और होंठ जैसे नरम अंग जीवाश्म नहीं बन पाते और जीवाश्मीकरण की प्रक्रिया में बेहद आसानी से नष्ट हो जाते हैं। इसलिए वैज्ञानिकों को जीवाश्मित जीभ तो नहीं मिली परंतु जीभ को आकार देने वाली निचले जबड़े की छोटी एवं मज़बूत हड्डियों के समूह हयॉड (Hyoid) का अध्ययन अवश्य किया गया है। वैज्ञानिकों ने डायनासौर्स की हयॉड के साथ ही पक्षियों और मगरमच्छ जैसे डायनासौर के निकटतम रिश्तेदारों में भी जीभ लपलपाने की प्रवृत्ति को देखा। डायनासौर्स एवं मगरमच्छों की हयॉड हड्डियों की समानता के आधार पर वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकाला की डायनासौर्स की जीभ मगरमच्छों के समान ही निचले जबड़े के तालू में दृढ़ता से जुड़ी हुई होगी और इसका बाहर निकलना संभव नहीं रहा होगा।

कशेरुकी जीवाश्म शास्त्र की विशेषज्ञ, जैक्सन स्कूल ऑफ जियोलॉजी एवं टेक्सास विश्वविद्यालय की प्रोफेसर जूलिया क्लार्क के अनुसार अधिकांश लोग डायनासौर्स की शरीर रचना और उनकी जीवन शैली को शायद नहीं समझ पाते और उन्हें लपलपाती जीभ वाला दिखा देते हैं। चित्रकारों के मन में यह गलत धारणा बनी हुई है कि डायनासौर्स वर्तमान छिपकलियों जैसे ही थे। वास्तव में पृथ्वी पर उनके अब तक के सबसे नज़दीकी रिश्तेदार पक्षी एवं मगरमच्छ परिवार के सदस्य हैं। खास करके आधुनिक पक्षियों में तो जीभ असाधारण रूप से विविधता से भरी एवं गतिशील है। जीभ को अनेक कार्य एवं दिशाओं में मोड़ने की खूबी का मुख्य कारण जटिल हयॉड हड्डी है जो जीभ के अगले सिरे तक आधार देने का कार्य करती है।

डायनासौर एवं मगरमच्छ परिवार के सदस्यों में हयॉड एक जोड़ीदार छोटी, सरल एवं छड़ के समान संरचनाएं भर हैं। उपरोक्त दोनों ही जीवों में हयॉड उनकी पेशियों तथा संयुक्त करने वाले ऊतकों से पूरी लंबाई में आधार से जुड़ी रहती है। उड़ने वाले टाइरोसौरस एवं आधुनिक पक्षियों में भी हयॉड हड्डी एक समान लगती है। परंतु वैज्ञानिकों को लगता है कि टाइरोसौरस तथा डायनासौर का उद्विकास बिल्कुल भिन्न हुआ है। हवा में उड़ने वाले टाइरोसौरस की लपलपाती जीभ भोजन के नए प्रकार के कारण रही होगी। वैसे भी आधुनिक मगरमच्छों की काटने तथा निगलने की प्रवृत्ति में लपलपाती जीभ का कोई खास कार्य नहीं रह जाता है। इसलिए डायनासौर एवं मगरमच्छ अपने नज़दीकी रिश्तेदारों और कज़िन्स के समान जीभ को लपलपाकर चाटने की प्रक्रिया को अंजाम नहीं दे सकते थे। (स्रोत फीचर्स)

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मल भक्षण मोल चूहिया में मातृत्व जगाता है

एक नए अध्ययन से पता चला है कि रेगिस्तानी नग्न मोल चूहों के समाज में श्रमिक अपने बच्चों की देखभाल करने के लिए अपनी रानी का मल खाते हैं।

रेगिस्तानी मोल चूहे (Heterocephalus glaber) पूर्वी अफ्रीका के रेगिस्तान में भूमिगत कॉलोनी में रहते हैं। कुछ प्रजनन करने वाले नर चूहों के अलावा, कॉलोनी के शेष सदस्य अपना सारा समय भोजन के लिए कंद की तलाश, शिकारियों से बचाव और रानी के बच्चों की देखभाल में व्यतीत करते हैं। रानी के बच्चों की देखभाल करने के इस व्यवहार ने जीव विज्ञानियों का ध्यान आकर्षित किया। आम तौर पर मादा स्तनधारियों में हार्मोन में होने वाले बदलाव मादा को अपने बच्चों की देखभाल करने को प्रवृत्त करते हैं। लेकिन इस रेगिस्तानी मोल में हार्मोन उत्पादन करने वाले सहायक प्रजनन अंग रानी के अलावा अन्य मादाओं में कभी विकसित नहीं होते। तो सवाल यह है कि फिर उनमें मातृत्व भावना कैसे पैदा होती है?

प्रोसीडिंग्स आफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, यह व्यवहार इन मोल चूहों के कुछ अजीब पहलुओं से सम्बंधित हो सकता है। जैसे मलभक्षण यानी कोप्रोफेजी। शोधकर्ताओं ने ये निष्कर्ष प्रयोगशाला में रेगिस्तानी मोल चूहों की कॉलोनी के अध्ययन के आधार पर निकाले हैं। इस शोध कार्य में प्रजननहीन मादाओं के एक समूह ने गर्भवती रानी के मल का भक्षण किया जबकि दूसरे समूह ने ऐसी रानी के मल को खाया जो गर्भवती नहीं थी। तीसरे समूह ने एक गैरगर्भवती रानी के मल का सेवन किया जिसमें एस्ट्रोजेन हार्मोन मिलाया गया था। यह हारमोन मातृत्व व्यवहार शुरू करने के लिए जाना जाता है। देखा गया कि जिन मोल चूहों को गर्भवती रानी या हारमोन युक्त मल का सेवन करवाया गया था उनके मलमूत्र में अन्य चूहों की तुलना में ज़्यादा एस्ट्रोजेन पाया गया। अर्थात मोल रानियां अन्य मादा मोल चूहों में मल के माध्यम से मातृत्व जगाती हैं। यह रणनीति जंतु जगत में अद्वितीय प्रतीत होती है। (स्रोत फीचर्स)

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चींटी को वशीभूत करने वाला परजीवी – कीर्ति विपुल शर्मा

कल्पना कीजिए एक छोटीसी चींटी के बहुत छोटेसे दिमाग को एक परजीवी कृमि ने पूरी तरह काबू में कर लिया है। अब चींटी एक चलतीफिरती लाश भर है। अपनी सुरक्षा के प्रति लापरवाह वह चरने वाले जंतु द्वारा खाए जाने के इंतज़ार में घास पर बैठी है। हाल ही में वैज्ञानिकों की टीम ने चींटी के दिमाग को परजीवी कृमि द्वारा नियंत्रित करने की आश्चर्यजनक घटना का खुलासा किया है।

उत्तल लेंस के समान दिखने वाला तथा 1 से.मी. से भी छोटा लेंसेट लीवरफ्लूक (Dicrocoelium dendriticum) भेड़ और अन्य मवेशियों में पाया जाने वाला एक परजीवी कृमि है। समशीतोष्ण भागों में पाया जाने वाला यह कृमि अपना जीवन चक्र तीन जीवों में पूरा करता है: कोई मवेशी, घोंघा और चींटी।

वयस्क लीवरफ्लूक मवेशियों की पित्त वाहिनी में रहकर अंडे देता है। ये अंडे पित्त के साथ छोटी आंत से होते हुए मवेशी के मल के साथ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। अब कोई घोंघा उस मल को खा ले तो ये अंडे उसके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। यहां अंडे फूटते हैं और लार्वा निकलते हैं जो उसके श्वसन अंगों में चिपचिपे पदार्थ से बनी स्लाइम बॉलके साथ शरीर से बाहर आ जाते हैं। चींटियां स्लाइम बॉल को अपना भोजन बना लेती हैं। चींटियों के शरीर में ये लार्वा रूपांतरित होकर उनके मस्तिष्क में पहुंच जाते हैं। यहां पहुंचकर वे चींटियों के स्वभाव में परिवर्तन कर देते हैं।

अब जैसा नाच यह परजीवी नचाता है वैसा नाच चींटी नाचती है। हालात इतने बुरे हो जाते हैं कि वशीकृत चींटी आत्मघाती हो जाती है। वह पौधों के ऊपरी भाग, जैसे घास या फूलों की पंखुड़ी के सिरे पर बैठ जाती है और अपने पैने जबड़ों से पौधे को कसकर पकड़ लेती है। पकड़ इतनी मज़बूत होती है कि तेज़ बारिश और हवा में भी चीटीं गिरती नहीं। पौधों के ऐसे हिस्से पर बैठने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि घास के साथसाथ चरने वाला कोई पशु उसे भी खा लेगा। पशु की पाचन क्रिया से चींटी का शरीर पच जाता है और उसके अंदर के परजीवी (जो चींटी की आंत में बैठे हैं) पशु की आहारनाल से होते हुए अंतत: पित्त वाहिका में पहुंच जाते हैं। वहां विकसित हो कर वे वयस्क बन जाते हैं और प्रजनन करके अपना जीवन चक्र फिर से शुरू कर देते हैं। 

चींटी और परजीवी के इस आश्चर्यजनक रिश्ते को समझने की कोशिश में वैज्ञानिकों की एक टीम ने माइक्रोसीटी नामक तकनीक का उपयोग करके संक्रमित चींटियों के मस्तिष्क का त्रिआयामी चित्र प्राप्त किया। संरचनाओं को स्पष्ट देखने के लिए अंदरूनी भागों को रंजकों द्वारा रंगीन करके भी अवलोकन किए गए।

इस तरह प्राप्त कुछ चित्रों को देखने पर पता चला कि चींटी के मस्तिष्क पर नियंत्रण करने के लिए तीन लार्वा प्रयासरत थे। अंत में केवल एक लार्वा अपने चूषक की मदद से चींटी के मस्तिष्क पर चिपक पाया। चिपकने वाला स्थान भी वह था जो चींटी के चलनेफिरने एवं जबड़ों की गतिविधियों को नियंत्रित करता है। वैज्ञानिकों का मत है कि मस्तिष्क के सही केंद्र से चिपकने के बाद परजीवी चींटी को चरने वाले पशुओं द्वारा खा लिए जाने के लिए मजबूर कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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गोरैया और मनुष्य का साथ कैसे हुआ

हां-जहां मुनष्य रहते हैं, गोरैया भी रहती है। वैसे जीव वैज्ञानिकों का कहना है कि गोरैया एक पालतू जीव नहीं है किंतु मनुष्य के निकट रहती है। और वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास करते रहे हैं कि गोरैया और मनुष्य के इस साथ का राज़ क्या है।

आम तौर पर देखी जानी वाली घरेलू गोरैया (Passer domesticus) अंटार्कटिका महाद्वीप के अलावा पृथ्वी के हर हिस्से में पाई जाती है। नन्ही सी यह चिडि़या आम तौर पर घरों के आसपास, गलियों में फुदकती और मनुष्यों द्वारा छोड़े/फेंके गए भोजन को चुगते हुए दिख जाएगी। इसका हमारा साथ इतना पुराना है कि प्राचीन साहित्य में भी यह नज़र आती है।

ओस्लो वि·ाविद्यालय के मार्क रैविनेट और उनके साथियों ने गोरैया के इस व्यवहार की छानबीन जेनेटिक दृष्टि से की है और कुछ आश्चर्यजनक परिणाम प्रकाशित किए हैं। अपने अध्ययन के लिए उन्होंने युरोप और मध्य-पूर्व में पाई जाने वाली विभिन्न गोरैया प्रजातियों को पकड़ा। इनमें 46 घरेलू गोरैया, 43 स्पैनिश गोरैया, 31 इटालियन गोरैया और 19 बैक्ट्रिएनस गोरैया थीं। इन सभी के रक्त के नमूने लिए गए।

रक्त के नमूनों से डीएनए प्राप्त किया गया और फिर प्रत्येक के डीएनए में क्षारों का अनुक्रम पता लगाया गया। जब उन्होंने घरेलू गोरैया और बैक्ट्रिएनस गोरैया के डीएनए अनुक्रमों की तुलना की तो पता चला कि उनके दो जीन्स में प्रमुख रूप से अंतर होते हैं।

एक जीन तो वह था जो घरेलू गोरैया को मंड को पचाने की क्षमता प्रदान करता है। यह जीन एक एंज़ाइम एमायलेज़ का निर्माण करवाता है। यह एंज़ाइम मनुष्यों के अलावा उसके पालतू जानवर कुत्ते में भी पाया जाता है। इस जीन व उसके द्वारा बनाए गए एंज़ाइम की बदौलत घरेलू गोरैया अनाज के दानों को खाकर पचा सकती है।

दूसरा परिवर्तन ऐसे जीन में देखा गया जो खोपड़ी का आकार निर्धारित करता है। इस परिवर्तन की वजह से घरेलू गोरैया अनाज के सख्त दानों को फोड़ सकती है। अपने अध्ययन के परिणाम प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी-बी में प्रकाशित करते हुए शोधकर्ताओं ने कहा है कि वे इन जीन्स और गोरैया के व्यवहार में परिवर्तन की जांच और बारीकी से करना चाहते हैं।

जेनेटिक विश्लेषण से एक बात और सामने आई है कि घरेलू गोरैया और बैक्ट्रिएनस गोरैया एक-दूसरे से करीब 11,000 साल पहले अलग हुई थीं। यह नव-पाषाण युग का प्रारंभिक काल था और लगभग इसी समय मध्य-पूर्व में खेती की शुरुआत हुई थी। अर्थात विकास की दृष्टि से एक नया पर्यावरणीय परिवेश उभर रहा था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टापुओं पर निवास का विचित्र असर

हा जा रहा है कि जंतुओं के अलगथलग टापुओं पर रहने से उनकी साइज़ पर अजीबोगरीब असर होता है। और एक नए अध्ययन से पता चला है कि यह असर मनुष्यों पर भी होता है।

देखा गया है कि सायप्रस पर रहने वाले हिप्पोपोटेमस घटकर सीलायन के आकार के हो गए हैं। इसी प्रकार से, इंडोनेशिया के एक टापू फ्लोर्स पर हाथियों के जो जीवाश्म मिले हैं, वे बड़े सूअर की साइज़ के थे। दूसरी ओर, वहीं रहने वाले चूहे बिल्ली के बराबर हो गए थे। ये सब तथाकथित टापू प्रभाव के उदाहरण हैं। टापू प्रभाव अलगअलग साइज़ के जंतुओं पर अलगअलग असर डालता है। जब भोजन और शिकार का अभाव होता है तो बड़े जीव सिकुड़ने लगते हैं और छोटे जीव बड़े होने लगते हैं। अब प्रिंसटन विश्वविद्यालय के जोशुआ एकी, सेरेना टुक्सी और उनके साथियों द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि टापू प्रभाव मनुष्यों को भी नहीं बख्शता।

इन शोधकर्ताओं ने फ्लोर्स टापू पर रहने वाले रैम्पासासा पिग्मी लोगों का अध्ययन किया। इनका औसत कद मात्र 145 से.मी. होता है। पहले एक प्रतिष्ठित पुरामानव वैज्ञानिक ने सुझाव दिया था कि शायद पिग्मी लोगों में कुछ जेनेटिक लक्षण पुरामानव हॉबिट से आए हैं। उनका ख्याल था कि हॉबिट एक आधुनिक मानव था। चूंकि हॉबिट की ऊंचाई कम होती थी इसलिए ऐसा मत बना था कि उनके जेनेटिक लक्षण पिग्मी लोगों में आने के परिणामस्वरूप पिग्मी लोगों की ऊंचाई भी कम होती है।

शोधकर्ताओं की टीम इसी परिकल्पना को परखना चाहती थी। इसके लिए उन्होंने पिग्मी लोगों के डीएनए के नमूने प्राप्त किए। गौरतलब है कि इसकी अनुमति उन्होंने पिग्मी लोगों से ले ली थी। इन डीएन नमूनों के क्षार अनुक्रम का विश्लेषण करने पर पता चला कि इनमें और हॉबिट में कोई समानता नहीं है बल्कि पिग्मी लोग पूर्वी एशियाई लोगों के ज़्यादा करीब हैं। इनके पूर्वज फ्लोर्स टापू पर 50,000 से लेकर 5000 वर्ष पूर्व तक पूर्वी एशिया और न्यू गिनी से पहुंचे थे।

पिग्मी डीएनए के विश्लेषण से यह भी पता चला कि इनमें एक जीन का प्राचीन संस्करण मौजूद है जो एक एंज़ाइम का कोड है। यह एंज़ाइम मांस और समुद्री भोजन के वसा अम्लों को विघटित करने में मदद करता है। इसके अलावा पिग्मी जीनोम में वे जीन भी बहुतायत से पाए गए जो कद को छोटा रखने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। 

टीम का मत है कि इस विश्लेषण से लगता है कि टापू पर प्राकृतिक चयन की जो प्रक्रिया चली उसने छोटे कद के जीन्स को तरजीह दी। मतलब यह पर्यावरण के दबाव में विकास का उदाहरण है। इसी तरह के एक अन्य अध्ययन में पता चला है कि अंडमान द्वीपसमूह के टापुओं पर भी प्राकृतिक चयन ने छोटे कद को तरजीह दी है। लगता है कि अन्य जंतुओं के समान मनुष्य भी प्राकृतिक चयन का दबाव झेलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जैव-विकास को दिशा देकर संरक्षण के प्रयास

स्ट्रेलिया वह महाद्वीप है जहां स्तनधारियों की आबादी में सबसे तेज़ गिरावट दर्ज की जा रही है। यहां जो स्तनधारी निवास करते हैं उनमें मार्सुपियल बड़ी तादाद में हैं। मार्सुपियल प्राणियों की विशेषता यह होती है कि इनकी संतानें पैदाइश के समय पूर्ण विकसित नहीं होतीं और उन्हें शरीर से बाहर एक थैली में पाला जाता है। इस थैली को मार्सुपियम कहते हैं।

ऐसा एक जोखिमग्रस्त मार्सुपियल प्राणि उत्तरी क्वोल (Dasyurus hallucatus) है। यह गिलहरी के बराबर होता है। इसके साथ दिक्कत यह हुई है कि यह ज़हरीले मेंढकों को पहचान नहीं पाता और उन्हें खा जाता है। यह मेंढक एक टोड (Rhinella marina) है जिसे ऑस्ट्रेलिया के कृषि अधिकारियों ने करीब 80 वर्ष पहले यहां छोड़ा था। इस टोड को वहां एक अन्य जीव – गुबरैलों – पर नियंत्रण पाने के मकसद से छोड़ा गया था। ये गुबरैले ऑस्ट्रेलिया की गन्ने की फसल को बहुत नुकसान पहुंचा रहे थे।

उत्तरी क्वोल को लगा कि यह बढ़िया भोजन है लेकिन यह टोड ज़हरीला था। अपने भोजन को न पहचान पाने के चक्कर में क्वोल की आबादी आज मात्र 25 प्रतिशत रह गई है। मेलबोर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ता एला केली और बेन फिलिप्स को अपने अनुभव से यह पता था कि क्वोल आबादी में कुछ क्वोल ऐसे भी हैं जो इस ज़हरीले टोड को नहीं खाते। तो केली और फिलिप्स ने सोचा कि क्यों न इन होशियार क्वोल का यह प्राणरक्षक गुण सभी क्वोल में पहुंचा दिया जाए ताकि वे इस ज़हरीले भोजन से बचने की क्षमता से लैस होकर अपनी रक्षा कर सकें।

अपने विचार को परखने के लिए उक्त वैज्ञानिकों ने टोड-प्रभावित क्षेत्रों से कुछ ऐसे क्वोल लिए जो ज़हरीले टोड से बचकर रहते थे। फिर वे एक टोड-मुक्त टापू से कुछ क्वोल लेकर आए और इन दो आबादियों के बीच प्रजनन होने दिया। इनकी संतानों को भोजन के रूप में उसी ज़हरीले टोड की टांगें दी गर्इं तो पता चला कि अधिकांश शिशु क्वोल टोड की टांग से दूर ही रहे।

केली और फिलिप्स का मत है कि इस प्रयोग से स्पष्ट हो जाता है कि टोड से कतराने का गुण जेनेटिक है और उसे संकरण के ज़रिए अन्य क्वोलों में भी पहुंचाया जा सकता है। अब वे बड़े पैमाने पर इस परीक्षण को प्राकृतिक परिस्थिति में करने की योजना बना रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता? – कालू राम शर्मा

हाल ही में एक स्कूली बच्ची ने सवाल पूछा था कि क्या यह सही है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बनता? बातचीत के दौरान यह बात भी उठी कि ऊंटनी का दूध काफी मीठा होता है इसलिए उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। सवाल पश्चिम निमाड़ के एक स्कूल की बच्ची ने पूछा था जहां राजस्थान से लाए गए ऊंट सिर्फ ठंड की शुरुआत में दिखाई देते हैं।

ऊंट शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला स्तनधारी पालतू पशु है। इसका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेती और बोझा ढोने में किया जाता रहा है। वैसे इन इलाकों में ऊंट के मांस, बाल और खाल के अलावा ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल भी आम है जहां ये बहुतायत से मिलते हैं। कई देशों, खासकर अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों के समुदायों के जीवन में ऊंट अहम भूमिका अदा करते हैं। शुष्क क्षेत्र की प्रतिकूल जलवायु के प्रति अनुकूलन के चलते ऊंटों का इस्तेमाल परिवहन में तो किया ही जाता है साथ ही जब ऊंटनी बच्चे जनती है उस दौरान इनका दूध भी मिल जाता है। ऊंटों का मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है। बहरहाल ऊंटनी के दूध की बात करते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि दूध एक कोलायडल विलयन है जिसमें वसा, लेक्टोस शर्करा, कैसीन (एक प्रकार का प्रोटीन), पानी, खनिज तत्व (कैल्शियम, फास्फोरस) प्रमुख हैं।

ऊंटनी का दूध

ऊंटनी का दूध सफेद, अल्पपारदर्शक, सामान्य गंध लिए स्वाद में थोड़ा नमकीन और हल्का-सा तीखापन लिए होता है। बताया जाता है कि रेगिस्तानी इलाकों में इसके दूध का इस्तेमाल ऊंट-पालक चाय, खीर, घेवर बनाने में करते हैं। गड़रियों से यह पूछने पर कि क्या ऊंटनी का दूध जल्दी खराब हो जाता है और इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, उन्होंने बताया कि यह सही नहीं है। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र बीकानेर ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि ऊंटनी का दूध 9 से 10 घंटे तक बिना उबाले रखने पर खराब नहीं होता। अगर बराबर मात्रा में पानी मिला दिया जाए तो यह 12-13 घंटे तक खराब नहीं होता।

दुनिया भर में सालाना 53 लाख टन और भारत में लगभग 21 हज़ार टन ऊंट के दूध का उत्पादन होता है। एक ऊंटनी प्रतिदिन लगभग ढाई से दस लीटर तक दूध देती है। बेहतर पोषण और प्रबंधन के चलते इसे 20 लीटर तब बढ़ाया जा सकता है।

पदार्थ गाय बकरी भेड़ उंटनी भैंस मनुष्य
पानी(ग्राम) 87.8 88.9 83.0 88.8 83.3 88.2
ऊर्जा (किलोजूल) 76 253 396 264 385 289
प्रोटीन (ग्राम) 3.2 3.1 5.4 2.0 4.1 1.3
वसा (ग्राम) 3.9 3.5 6.4 4.1 5.9 4.1
लैक्टोस (ग्राम) 4.6 4.4 5.1 4.7 5.9 7.2
कैल्सियम (मि. ग्रा.) 115 100 170 94 175 34

यह सही है कि ऊंटनी के दूध का दही आम तौर पर उन इलाकों में भी नहीं बनाया जाता जहां ऊंट का दूध आसानी से उपलब्ध होता है। बाड़मेर में स्कूली शिक्षा में कार्यरत शोभन सिंह नेगी के अनुसार ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल दही बनाने में नहीं होता। उन्होंने बताया कि रेगिस्तानी इलाके में गाय-भैंस के दूध, दही, छांछ और घी का इस्तेमाल आम बात है। मगर ऊंटनी के दूध से दही बनाने का रिवाज़ नहीं है। कारण कि गाय-भैंस के दूध के माफिक ऊंटनी के दूध का दही नहीं जमता।

वैसे, राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में ऊंटनी के दूध से दही तो 2002 में ही बना लिया गया था लेकिन ऊंटनी के दूध से दही पतला बनता है। इसीलिए इसे ड्रिंकिंग कर्ड कहा गया है। केंद्र के वैज्ञानिक डॉ. राघवेंद्र सिंह के अनुसार दही बनाने में दूध में मौजूद कुल ठोस पदार्थ, खनिज एवं कैसीन की माइसेलर संरचना की अहम भूमिका होती है जिसके कारण दही ठोस रूप धारण करता है।

तो पहले माइसेलर सरंचना को समझा जाए। दूध में एक प्रमुख प्रोटीन कैसीन होता है। कैसीन एक बड़ा अणु होता है और इसकी एक विशेषता होती है। इसके कुछ हिस्से पानी के संपर्क में रहने को तत्पर रहते हैं जबकि अन्य हिस्से पानी से दूर भागने की कोशिश करते हैं। इन्हें क्रमश: जलस्नेही और जलद्वैषी हिस्से कहते हैं। तो पानी में डालने पर कैसीन के अणु गेंद की तरह व्यवस्थित हो जाते हैं। इन गेंदों में जलस्नेही हिस्से बाहर की ओर (गेंद की सतह पर) और जलद्वैषी हिस्से गेंद के अंदर की ओर जमे होते हैं। दूध में कैसीन इसी रूप में पाया जाता है। इस तरह बनी सूक्ष्म गेंदों को माइसेल कहते हैं। दूध में कैसीन के ये माइसेल पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो निलंबित रहते हैं। इसी के चलते अन्यथा अघुलनशील कैसीन पानी में घुला रहता है।

कैसीन माइसेल की एक और विशेषता है। इनकी सतह पर थोड़ा ऋणावेश होता है। समान आवेश एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं। इसलिए ये माइसेल एक-दूसरे से दूर-दूर रहते हैं, आपस में चिपकते नहीं।

दही बनने की प्रक्रिया में इन केसीन माइसेल की अहम भूमिका है। केसीन के ये गेंदाकार माइसेल तापमान, अम्लीयता और दबाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। आम तौर पर दूध से दही जमाने के लिए हम जामन का इस्तेमाल करते हैं। जामन में मौजूद बैक्टीरिया, लैक्टोस शर्करा को लैक्टिक अम्ल में बदलते हैं। जामन मिले दूध में ये बैक्टीरिया बढ़ते जाते हैं और दूध की अम्लीयता बढ़ने लगती है। अम्लीयता बढ़ने के कारण दूध खट्टा होने लगता है। इसके अलावा, अम्लीयता में यह परिवर्तन कैसीन माइसेल को प्रभावित करता है। अम्लीयता बढ़ने पर कैसीन माइसेल की बाहरी सतह का ऋणावेश कम होने लगता है। अम्लीयता का एक ऐसा स्तर आता है जब माइसेल की बाहरी सतह पर मौजूद ऋणावेश पूरी तरह समाप्त हो जाता है और माइसेल्स को एक-दूसरे से दूर रखने वाला बल समाप्त हो जाता है और ये आपस में चिपकने लगते हैं। कैसीन माइसेल्स का आपस में चिपककर ठोस रूप धारण करने को ही दही जमना कहते हैं। वैसे दूध में केसीन के माइसेल्स को इस तरह परस्पर चिपकाने के लिए पशुओं, वनस्पतियों व सूक्ष्मजीवीस्रोतों से प्राप्त विभिन्न एंज़ाइम भी कारगर होते हैं।

अब देखते हैं कि क्या कारण है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बन सकता? ऊंटनी के दूध के एंज़ाइम संघटन को लेकर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊंटनी के दूध से दही तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक कि इसमें बकरी, भेड़ या भैंस का दूध नहीं मिलाया जाता। ज़ाहिर है कि गाय, भैंस या बकरी के दूध में ऐसा कुछ है जो दही जमने के लिए ज़िम्मेदार है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि  दि इसमें बछड़े से प्राप्त रेनेट अधिक मात्रा में मिलाया जाए तो ऊंटनी के दूध से भी दही जमाया जा सकता है। (रेनेट बछड़े के पेट में मौजूद थक्केदार दूध को कहते हैं। इसका उपयोग चीज़ बनाने में किया जाता है। इसमें रेनिन नामक एंज़ाइम काफी मात्रा में पाया जाता है।) ऊंटनी के दूध से दही जमाने के सारे अध्ययन ऐसे ही एंज़ाइमों की मदद से किए गए हैं।

एक प्रयोग में उत्तरी केन्या से ऊंटनी के दूध के 10 नमूने लेकर उनमें बाज़ार में मिलने वाले बछड़े का रेनेट पावडर मिलाया गया। देखा गया कि गाय के दूध की बनिस्बत ऊंटनी के दूध का दही जमने में दो से तीन गुना अधिक समय लगता है। ऊंटनी और गाय के दूध से दही बनने की प्रक्रिया का अध्ययन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप द्वारा भी किया गया। पता चला कि गाय और ऊंटनी दोनों के कैसीन माइसेल गोलाकार ही होते हैं। किंतु गाय के कैसीन माइसेल पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे जबकि ऊंटनी के दूध के माइसेल अपेक्षाकृत एक ही जगह पर समूहित रूप में दिखाई देते हैं।ऊंटनी के कैसीन कण तुलनात्मक रूप से साइज़ में बड़े भी थे। दही जमते दूध के इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में अवलोकन से पता चला कि गाय के दूध में कैसीन माइसेल्स का एकत्रीकरण लगभग 60 से 80 फीसदी तक हुआ।ऊंटनी के दूध में उतने ही समय में बहुत कम माइसेल का एकत्रीकरण दिखाई दिया। एक मत है कि माइसेल के शीघ्र एकत्रीकरण की वजह से ही गाय/भैंस के दूध से दही जम पाता है।

कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने दूध की अम्लीयता के स्तर और कैल्शियम आयनों के प्रभाव का अध्ययन भी किया। देखा गया कि ऊंटनी के दूध के अम्लीयता-स्तर और तापमान बढ़ाकर उसमें कैल्शियम आयन मिलाने पर जमने के समय में कमी तो आती है मगर अंतर फिर भी बना रहता है। कैल्शियम आयन के असर को देखते हुए यह सिफारिश की गई है कि दही जमाने के लिए ऊंटनी के दूध में कैल्शियम की अतिरिक्त मात्रा मिलाई जा सकती है। लेकिन यहां यह जोड़ना आवश्यक है कि कैल्शियम लवण मिलाने के साथ-साथ रेनेट का उपयोग तो करना ही होगा और कैल्शियम लवण भी काफी अधिक मात्रा में मिलाने पर ही वांछित परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

वैसे एक मत यह भी बना है कि गाय-भैंस के दूध और ऊंटनी के दूध में उपस्थित कैसीन की माइसेलर संरचना में कुछ अंतर हैं जिनकी वजह से अम्लीयता बढ़ने पर भी ऊंटनी का दूध ठोस रूप में जम नहीं पाता।

संक्षेप में, दुनिया भर की कई प्रयोगशालाओं में किए गए कई प्रयोगों के परिणामों से स्पष्ट है कि ऊंटनी के दूध से दही जमाना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता। कोई एक स्पष्ट जवाब तो नहीं मिला है किंतु प्रयोगों के आधार पर कुछ परिकल्पनाएं ज़रूर प्रस्तुत की गई हैं।

जैसे एक परिकल्पना ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स की संरचना पर आधारित है। जैसा कि ऊपर बताया गया था, गाय/भैंस के दूध की तुलना में ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स बड़े होते हैं। एक मत यह है कि जब बड़े मायसेल्स के समूहीकरण की बारी आती है तो वे आपस में उतनी निकटता से नहीं जुड़ पाते और इसलिए दही ठोस नहीं बन पाता। कुछ प्रयोगों से माइसेल की साइज़ और जमने के समय में सम्बंध देखा गया है।

एक अवलोकन यह है कि दूध में कैसीन की मात्रा का भी दही जमने की क्रिया पर असर होता है। ऊंटनी के दूध में कैसीन की मात्रा 1.9-2.3 प्रतिशत के बीच होती है जबकि गाय के दूध में 2.4-2.8 प्रतिशत। एक संभावना यह है कि कैसीन की कम मात्रा के कारण ऊंटनी के दूध से दही नहीं जम पाता।

कुछ रोचक प्रयोग इस बात को लेकर भी किए गए हैं कि दही जमने की प्रक्रिया पर इस बात का भी असर पड़ता है कि दही जमाने के लिए एंज़ाइम किस प्रजाति के प्राणि से लिए गए हैं। जैसे भेड़ से प्राप्त एंज़ाइम ऊंटनी के दूध को जमाने में ज़्यादा कारगर पाया गया, बनिस्बत गाय से प्राप्त एंज़ाइम के। इन प्रयोगों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला तो यह है कि अलग-अलग प्रजातियों में इन एंज़ाइम की संरचना व क्रिया में अंतर होता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन ही अलग प्रकार का होता हो या उसकी माइसेलर संरचना भिन्न होती हो।

दही जमने की क्रिया के पहले चरण में कैसीन माइसेल की सतह पर उपस्थित कैसीन के अणुओं का जल-अपघटन होता है। यह देखा गया है कि 80 प्रतिशत अणुओं का जल-अपघटन होने के बाद ही माइसेल्स के एकत्रीकरण और दही जमने की क्रिया शुरू होती है। ऊंटनी के दूध में यह स्थिति आ ही नहीं पाती। इसका कारण यह हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन की संरचना कुछ ऐसी है कि उनका जल-अपघटन मुश्किल से होता है।

ऊंटनी के दूध से दही जमने में समस्याएं हैं, मगर हम अभी यह नहीं जानते कि इसका ठीक-ठीक कारण क्या है। तब तक ऊंटनी के दूध के अन्य व्यंजनों का लुत्फ उठाने में क्या बुराई है? आजकल ऊंटनी के दूध से बने उत्पादों का पुष्कर और रेगिस्तानी इलाके में जोधपुर, बीकानेर में काफी चलन है। ऊंटनी के दूध से पनीर बनाया जाने लगा है। इसके दूध की चाय और आइस्क्रीम भी आकर्षण के केंद्र हैं। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में इस दूध से आइस्क्रीम, रबड़ी और दही भी बनाए जा रहे हैं। ऊंटनी के दूध में मुल्तानी मिट्टी और नारियल का तेल मिलाकर साबुन भी राजस्थान में मिलते हैं। विदेशी पर्यटक इनका खूब इस्तेमाल करते हैं। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि ऊंटनी का दूध डायबिटीज़ के रोगियों के लिए काफी काम का है। (स्रोत फीचर्स)

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घोड़ा फुर्र-फुर्र क्यों करता रहता है? – अरविंद गुप्ते

ह सब जानते हैं कि घोड़े समय-समय पर नाक से फुर्र-फुर्र की आवाज़ निकालते हैं। किंतु वे ऐसा क्यों करते हैं इसके बारे में जानकारों की अलग-अलग राय है। कुछ लोग मानते हैं कि वे केवल अपनी नाक साफ करने के लिए ऐसा करते हैं – जैसा इंसान करते हैं। कुछ अन्य लोग मानते हैं कि यदि घोड़ा दुखी या नाराज़ हो तो वह ऐसी आवाज़ करता है। तीसरा समूह मानता है कि घोड़ा खुश होने पर फुर्र-फुर्र करता है।

हाल में फ्रांस के रेने विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयास किया है। कुछ घोड़े हमेशा समूहों में खुले चरागाहों में रहते हैं जबकि सवारी के काम आने वाले घोड़े हमेशा संकरे अस्तबलों में अकेले रहते हैं। खुली हवा में रहने वाले घोड़े अधिक बार फुर्र-फुर्र की आवाज़ करते हैं। अध्ययन में शामिल 48 घोड़ों को अस्तबल से चारागाह में ले जाया गया और उनके फुर्र-फुर्र करने की संख्या गिनी गई। यह देखा गया कि अस्तबल की तुलना में खुली हवा में घोड़े अधिक बार फुर्र-फुर्र करते हैं। इसके विपरीत, खुली हवा में रहने वाले घोड़े अस्तबल में रखे जाने पर कम बार फुर्र-फुर्र करते थे। घोड़ों के ‘मूड’का एक अन्य लक्षण उनके कानों की स्थिति होती है। खुश होने पर उनके कान सामने की ओर झुके होते हैं।

इससे पहले एक अध्ययन घोड़ों की एक-दूसरे को पहचानने की क्षमता पर किया गया था। समूह में रहने वाले 24 घोड़ों को इस अध्ययन में शामिल किया गया। एक घोड़े के सामने से उसके अपने समूह के एक परिचित घोड़े को एक अवरोध के पीछे से निकाला गया। दस सेकंड के बाद उस घोड़े को उसी या किसी दूसरे घोड़े की हिनहिनाहट की रिकार्डिंग सुनाई गई। जब आवाज़ उस घोड़े की आवाज़ से मेल नहीं खाती थी जिसे उसने देखा था तो प्रयोग वाला घोड़ा चौंक गया और आवाज़ की दिशा में अधिक समय तक देखता रहा, मानो कह रहा हो कि मैंने इसे देखा तो था लेकिन इसकी आवाज़ को क्या हुआ? इससे यह संकेत मिलता है कि हर घोड़े की हिनहिनाहट अलग होती है और वे एक दूसरे को आवाज़ से पहचान लेते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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