तिलचट्टा जल्द ही अजेय हो सकता है

खिरकार जिस दिन का हम सबको डर था वह जल्द ही आ सकता है। एक हालिया अध्ययन से मालूम चला है कि तिलचट्टे धीरे-धीरे अजेय होते जा रहे हैं। अध्ययनों के अनुसार कम से कम जर्मन तिलचट्टा (Blattella germanica) लगभग हर तरह के रासायनिक कीटनाशकों के प्रति तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहा है।

गौरतलब है कि सभी कीटनाशक एक समान क्रिया नहीं करते। कुछ तंत्रिका तंत्र को नष्ट करते हैं, जबकि अन्य बाहरी कंकाल पर हमला करते हैं और उन्हें अलग-अलग अवधि तक छिड़कना होता है। लेकिन तिलचट्टे सहित कई कीड़ों ने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया है। तिलचट्टे का जीवन लगभग 100 दिनों का होता है, इसलिए प्रतिरोध तेज़ी से फैल सकता है। सबसे ज़्यादा प्रतिरोधी काकरोचों का प्रतिरोधी जीन अगली पीढ़ी को मिल जाता है।

जर्मन तिलचट्टे में प्रतिरोध का परीक्षण करने के लिए, शोधकर्ताओं ने 6 महीनों तक इंडियाना और इलिनॉय में कई इमारतों में तीन अलग-अलग तिलचट्टा कॉलोनियों का चयन किया किया। उन्होंने तिलचट्टों की आबादी पर तीन अलग-अलग कीटनाशकों – एबामेक्टिन, बोरिक एसिड और थियामेथोक्सैम – के खिलाफ प्रतिरोध स्तर की जांच की। एक उपचार में उन्होंने 3-3 महीने के दो चक्रों में एक-के-बाद-एक तीनों कीटनाशकों का उपयोग किया। अन्य उपचार में, शोधकर्ताओं ने पूरे 6 महीनों तक कीटनाशकों के मिश्रण का उपयोग किया। अंतिम उपचार में केवल एक रसायन का उपयोग किया गया जिसके प्रति तिलचट्टों की आबादी में कम प्रतिरोध था।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अलग-अलग उपचारों के बावजूद, अधिकतर तिलचट्टा आबादियों में समय के साथ कोई कमी देखने को नहीं मिली। ठीक यही स्थिति तब भी रही जब कई कीटनाशकों का मिलाकर इस्तेमाल किया गया। अक्सर कीट नियंत्रण में इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। इन परिणामों से यह अनुमान लगाया गया कि तिलचट्टे तीनों रसायनों के खिलाफ तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं। एक सकारात्मक बात यह दिखी कि यदि तिलचट्टों में निम्न स्तर का प्रतिरोध है तो एबामेक्टिन उपचार कॉलोनी के एक बड़े हिस्से को मिटा सकता है।

अगर इन निष्कर्षों को मान लिया जाए तो मात्र रसायनों से तिलचट्टों के प्रकोप का मुकाबला करना असंभव हो सकता है। शोधकर्ताओं के सुझाव में एकीकृत कीट प्रबंधन का उपयोग करना होगा। रसायनों के साथ-साथ पिंजड़ों, सतहों की सफाई या वैक्यूम से खींचकर इनको खत्म किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चट्टान भक्षी ‘कृमि’ नदियों के मार्ग बदल सकते हैं

अठारवीं सदी में शिपवर्म (एक प्रकार का कृमि) ने लोगों को काफी परेशान किया था। जहाज़ों को डुबाना, तटबंधों को खोखला करना और यहां तक कि समुद्र की लहरों से बचाव करने वाले डच डाइक को भी खा जाना इस कृमि की करामातें थी। लकड़ी इनकी खुराक है। शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसे शिपवर्म की खोज की है जिसका आहार लकड़ी नहीं बल्कि पत्थर है। मीठे पानी में पाया जाने वाला यह मोटा, सफेद, और कृमि जैसा दिखने वाला जीव एक मीटर तक लंबा हो सकता है। शोधकर्ताओं ने इस प्रजाति (Lithoredo abatanica) को पहली बार 2006 में फिलीपींस स्थित अबाटन नदी के चूना पत्थर में अंगूठे की साइज़ के बिलों में देखा था। लेकिन इस जीव का विस्तार से अध्ययन 2018 में किया गया।

चट्टान को चट करने वाला यह शिपवर्म लकड़ीभक्षी शिपवर्म से काफी अलग है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सभी शिपवर्म वास्तव में कृमि नहीं बल्कि क्लैम होते हैं। इनमें दो सिकुड़े हुए कवच रूपांतरित होकर बरमे की तरह काम करते हैं। लकड़ी खाने वाले कृमि के कवच पर सैकड़ों तेज़ अदृश्य दांत होते हैं वहीं चट्टान खाने वाले कृमि में दजऱ्न भर मोटे, मिलीमीटर साइज़ के दांत होते हैं जो चट्टान को खरोंचने में सक्षम होते हैं।

लकड़ीभक्षी समुद्री शिपवर्म में विशेष पाचक थैली होती है जहां बैक्टीरिया लड़की को पचाते हैं। अन्य शिपवर्म की तरह चट्टान खाने वाले शिपवर्म भी कुतरे हुए पदार्थ को निगलते ज़रूर हैं लेकिन इसमें पाचक थैली और बैक्टीरिया का अभाव रहता है। चट्टान के चूरे से इन्हें कोई पोषण नहीं मिलता। पोषण के लिए वे पिछले सिरे से चूसे गए भोजन के भरोसे रहते हैं जिसे गलफड़ों में उपस्थित बैक्टीरिया पचाते हैं। बहरहाल, लकड़ीभक्षी और चट्टानभक्षी शिपवर्म में एक समानता है। दोनों काफी नुकसान कर सकते हैं। लकड़ीभक्षी ने तो जहाज़ों और लकड़ी से बनी अन्य रचनाओं को तहस-नहस किया था और दूसरा चट्टान को खोखला कर नदी के रास्ते को भी बदल सकता है। लेकिन इसका एक उजला पक्ष भी है। कृमि द्वारा बनाई गई दरारें केकड़ों, घोंघों और मछलियों के लिए बेहतरीन घर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक पौधे और एक पक्षी की अजीब दास्तान – डॉ. किशोर पंवार

जैव विविधता पर तरह तरह के खतरों और मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रजातियों के ह्यास के बीच हाल में संरक्षणवादियों के लिए दो अच्छी खबरें आई है। गुड़हल की जाति के एक विलुप्त माने जा रहे पौधे को पुन: खोज लिया गया है और रेल समूह के एक पक्षी में विकास की एक दुर्लभ घटना देखी गई है।

एक समाचार यह है कि हिबिस्काडेल्फस वूडी नाम का एक पौधा शायद विलुप्त नहीं हुआ है। वनस्पतिविदों ने हवाई द्वीप पर पाए जाने वाले इस दुर्लभ फूलधारी पौधे को एक बार पुन: खोज लिया है और ऐसा संभव हुआ है एक ड्रोन की सहायता से। गौरतलब है कि ड्रोन बहुत छोटे विमान होते हैं जिन्हें सुदूर संचालन से चलाया जाता है। इनका उपयोग जासूसी कार्य के अलावा प्रकृति के अध्ययन में किया जाता है।

हिबिस्काडेल्फस वूडी हवाई द्वीप के पहाड़ों की खड़ी चट्टानों के मुहाने पर उगता है। यहां उगने के कई फायदे हैं। एक तो भूखी भेड़ें ऐसी चट्टानों पर चढ़कर इसे नहीं खा सकती, और न ही वे लोग यहां पहुंच पाते हैं जो कीमती पौधों को पैरों तले रौंद डालते हैं। हिबिस्काडेल्फस वूडी हमारे जाने पहचाने गुड़हल यानी जासौन की जाति का है। इस पौधे को अंतिम बार 2009 में देखा गया था। अप्रैल 2019 में ड्रोन की मदद से की गई नई खोज का मतलब है कि मात्र एक दशक की अवधि में यह विलुप्त प्रजातियों की सूची से बाहर आ चुका है। हिबिस्काडेल्फस वूडी को ग्रीन हाउस में उगाने के प्रयास बार-बार हुए परंतु सफलता नहीं मिली। कलम लगाना, टिप कटिंग करना और पर-परागण द्वारा भी इसे उगाना संभव नहीं हो पाया था।

सैकड़ों हजारों साल के विकास ने इस पौधे में कुछ विलक्षण गुण उत्पन्न किए हैं। जैसे इसका फूल नलिकाकार है जो उम्र बढ़ने के साथ पीले से गहरा लाल हो जाता है। इसके फूल की रचना वहीं के एक स्थानीय परागणकर्ता हनीक्रीपर नामक पक्षी की चोंच से एकदम मेल खाती है।

इसे पुन: खोजे जाने पर वनस्पति शास्त्री केन वुड का कहना है कि प्रजातियों का विलुप्तिकरण कभी भी एक सटीक विज्ञान नहीं रहा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कहां और कैसे खोज रहे हैं। केन वुड ने अपना सारा समय नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन में विलुप्तप्राय वनस्पतियों की खोज में बिताया है। वे अक्सर हवाई द्वीपों की कवाई पहाडि़यों की दरारों पर हेलीकॉप्टर से बाहर लटकते हुए ऐसी प्रजातियों को बचाने में लगे रहते हैं जिनके मुश्किल से 5-10 प्रतिनिधि ही बचे हैं। इनमें से कुछ स्थान ऐसे हैं जहां पर वे और उनके साथी स्टीलमैन रस्सियों और हेलीकॉप्टर की सहायता से भी नहीं पहुंच पाए थे। 2016 में ड्रोन विशेषज्ञ बेन नायबर्ग ने नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन के साथ कवाई द्वीप की दुर्गम घाटियों में ऐसे स्थानों पर ड्रोन की सहायता से ऐसी दुर्गम घाटियों पर खोजबीन में मदद की। 2019 की फरवरी में एक धूप भरे दिन ड्रोन कैमरे से उन्होंने एक पौधे के झुंड को खोजा जो केलालू घाटी की खड़ी चट्टानों की दरारों से 700 फीट नीचे था। इससे और नीचे पहुंचने के लिए 800 फीट के नीचे उन्होंने वहां अपना ड्रोन उड़ाया और एक पौधे के समूह को अपने मॉनिटर पर देखा। उन्होंने पाया कि हिबिस्काडेल्फस वूडी वहां जीता-जागता खड़ा है।

यह पहला मौका था जब किसी प्रजाति को खोजने के लिए ड्रोन का उपयोग किया गया। इनका मानना है कि इन जगहों पर कुछ और नई प्रजातियां या ऐसी प्रजातियां भी मिल सकती हैं जिन्हें विलुप्त मान लिया गया है।                  

दूसरी अच्छी खबर एक पक्षी के बारे में है जो करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार साल पहले विलुप्त हो गया था पर फिर नए अवतार में प्रकट हुआ है। इसका नाम है व्हाइट थ्रोटेड रेल। यह मुर्गी के आकार का पक्षी है। यह जैव विकास की एक विलक्षण और दुर्लभ घटना है। ज़ुऑलॉजिकल जर्नल ऑफ लिनियन सोसायटी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार किस्सा यह है कि व्हाइट थ्रोटेड रेल मेडागास्कर का मूल निवासी है। मगर ये प्रवास करके अलग-अलग दीपों में समुदाय बनाकर रहते थे और संख्या बढ़ने पर ये आसपास के द्वीपों पर माइग्रेट हो जाते थे। इनमें से कई उत्तर और दक्षिण के दीपों पर चले गए जो समुद्र का तल बढ़ने से पानी में डूब कर समाप्त हो गए। जो कुछ अफ्रीका में गए थे वहां उन्हें शिकारियों ने खा लिया। वे पक्षी जो पूर्व की ओर गए वे मारीशस, रीयूनियन द्वीप और अलडबरा द्वीप पर पहुंचे। अलडबरा एक छल्ले के आकार का कोरल द्वीप है जो आज से लगभग 4 लाख वर्ष पूर्व बना था। यहां भोजन प्रचुरता से उपलब्ध था और मारीशस के द्वीपों की तरह यहां पर भी कोई शिकारी नहीं था। अत: ये रेल इस प्रकार विकसित हुए कि अपनी उड़ने की क्षमता खो बैठे।

फिर करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार वर्ष पूर्व एक बड़ी बाढ़ के दौरान अलडबरा द्वीप समुद्र में डूब गया था। परिणामस्वरूप यहां की सारी वनस्पतियां तथा कई जंतु मारे गए। इनमें उड़ान-विहीन रेल भी शामिल थे। शोधकर्ताओं ने 1 लाख साल पुराने जीवाश्मों का अध्ययन किया है। यह वह समय था जब हिम युग के कारण समुद्र के तल में गिरावट आई थी। जीवाश्म से पता चला कि यह द्वीप पुन: न उड़ पाने वाले रेल पक्षी समुदाय से बस गया था। द्वीप के डूबने के पूर्व और द्वीप के वापिस उभरने के बाद के रेल पक्षियों के जीवाश्म की हड्डियों की तुलना से पता चलता है कि ये दोनों पक्षी मैडागास्कर से उड़कर यहां पहुंचे थे और दोनों बार इन्होंने उड़ने की क्षमता गंवाई।

इसका अर्थ यह है कि मेडागास्कर की एक ही प्रजाति ने न उड़ने वाली रेल की दो उप-प्रजातियों को अलडबरा में कुछ हजार वर्षों के अंतराल पर जन्म दिया। प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जूलियन ह्रूम कहते हैं कि ये विशिष्ट जीवाश्म इस बात के अकाट-प्रमाण हैं कि इन द्वीपों पर रेल के दोनों समुदाय मेडागास्कर से ही आए थे, और यहीं आकर अलग-अलग समय पर दो न उड़ने वाले रेल बन गए। यह दोनों घटनाएं दर्शाती है कि जैव विकास के दौरान एक ही गुण का बार-बार प्रकट होना कोई अनहोनी नहीं है। जैव विकास की भाषा में इसे इटरेटिव विकास कहते हैं। इटरेटिव विकास उसे कहते हैं जब वही या मिलती जुलती रचनाएं एक साझा पूर्वज से अलग-अलग समय पर विकसित हों। इसका अर्थ यह है कि एक ही पूर्वज से शुरू करके एक-से जीव वास्तव में दो बार अलग-अलग समय अथवा स्थान पर इस धरती पर विकसित हुए हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चंद हज़ार सालों के अंतराल पर एक ही पूर्वज प्रजाति से दो उप-प्रजातियां निकली हैं और वे सचमुच अलग-अलग उप प्रजातियां हैं। यह किसी उप प्रजाति का पुनर्जन्म नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गिद्धों की कमी से खतरे की घंटी – मनीष वैद्य

ध्यप्रदेश के आबादी क्षेत्रों में गिद्धों की तादाद में बड़ी कमी दर्ज की गई है। पूरे प्रदेश में एक ही दिन 12 जनवरी 2019 को एक ही समय पर की गई गिद्धों की गणना में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं।

इन आंकड़ों पर गौर करें तो ऊपर से देखने पर मध्यप्रदेश में गिद्धों की संख्या बढ़ी हुई नज़र आती है लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और बयान करती है। पूरे प्रदेश में दो साल पहले हुई गणना के मुकाबले ताज़ा गणना में आंकड़े यकीनन बढ़े हैं। लेकिन इनमें सबसे ज़्यादा गिद्ध सुरक्षित अभयारण्यों में पाए गए हैं। दूसरी तरफ गांवों, कस्बों और शहरों के आबादी क्षेत्र में गिद्ध तेज़ी से कम हुए हैं। गिद्धों के कम होने से पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट के साथ किसानों के मृत मवेशियों की देह के निपटान और संक्रमण की भी बड़ी चुनौती सामने आ रही है।

इस बार 1275 स्थानों पर किए गए सर्वेक्षण में प्रदेश में 7906 गिद्धों की गिनती हुई है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इसमें 12 प्रजातियों के गिद्ध मिले हैं। इससे पहले जनवरी 2016 में 6999 तथा मई 2016 में 7057 गिद्ध पाए गए थे। ऐसे देखें तो गिद्धों की तादाद 12 फीसदी की दर से बढ़ी है। पर इसमें बड़ी विसंगति यह है कि इसमें से 45 फीसदी गिद्ध प्रदेश के संरक्षित वन क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूरे प्रदेश के आबादी क्षेत्र में गिद्धों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है।

जैसे, मंदसौर ज़िले में गांधी सागर अभयारण्य में गिद्धों को साधन सम्पन्न प्राकृतिक परिवेश हासिल होने से इनकी संख्या बढ़ी है। बड़ी बात यह भी है कि एशिया में तेज़ी से विलुप्त हो रहे ग्रिफोन वल्चर की संख्या यहां बढ़ी है। ताज़ा गणना में यहां 650 गिद्ध मिले हैं। दूसरी ओर, श्योपुर के कूनो अभयारण्य में 242 गिद्धों की गणना हुई है जो दो साल पहले के आंकड़े 361 से 119 कम है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में भी 2016 के आंकड़े 811 के मुकाबले मात्र 567 गिद्ध मिले हैं। सर्वाधिक गिद्ध रायसेन ज़िले में 650 रिकॉर्ड किए गए हैं।

यदि गिद्धों की कुल संख्या में से मंदसौर अभयारण्य और रायसेन के आंकड़ों को हटा दें तो शेष पूरे प्रदेश में गिद्ध कम ही हुए हैं। नगरीय या ग्रामीण क्षेत्र में, जहां गिद्धों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वहां इन कुछ सालों में गिद्ध कम ही नहीं हुए, खत्म हो चुके हैं। दरअसल वन विभाग ने जंगल और आबादी क्षेत्र के गिद्धों के आंकड़ों को मिला दिया है। इस वजह से यह विसंगति हो रही है।

दरअसल बीते दो सालों में यहां गिद्धों की तादाद तेज़ी से कम हुई है। इंदौर में तीन साल पहले तक 300 गिद्ध हुआ करते थे, अब वहां मात्र 94 गिद्ध ही बचे हैं। उज्जैन और रतलाम ज़िलों में तो एक भी गिद्ध नहीं मिला। इसी तरह देवास ज़िले में भी मात्र दो गिद्ध पाए गए हैं। धार, झाबुआ और अलीराजपुर में भी कमोबेश यही स्थिति है। इंदौर शहर को देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है। लेकिन शहर की यही स्वच्छता अब गिद्धों पर भारी पड़ती नज़र आ रही है। बीते मात्र दो सालों में इंदौर शहर और ज़िले से 136 गिद्ध गायब हुए हैं। कभी यहां के ट्रेचिंग ग्राउंड पर गिद्धों का झुण्ड जानवरों के शवों की चीरफाड़ में लगा रहता था। अब वहां गंदगी के ढेर कहीं नहीं हैं। मृत जानवरों को ज़मीन में गाड़ना पड़ रहा है। अब गणना में ट्रेंचिंग ग्राउंड पर सिर्फ 54 गिद्ध मिले हैं। दो साल पहले तक यहां ढाई सौ के आसपास गिद्ध हुआ करते थे।

इसी तरह चोरल, पेडमी और महू के जंगलों में भी महज 40 गिद्ध ही मिले हैं जहां कभी डेढ़ सौ गिद्ध हुआ करते थे। गिद्ध खत्म होने के पीछे पानी की कमी भी एक बड़ा कारण है। ट्रेंचिंग ग्राउंड के पास का तालाब सूख चुका है और एक तालाब का कैचमेंट एरिया कम होने से इसमें पानी की कमी रहती है और अक्सर सर्दियों में ही यह सूख जाता है। शहर से कुछ दूरी पर गिद्धिया खोह जल प्रपात की पहचान रहे गिद्ध अब यहां दिखाई तक नहीं देते। गणना के समय एक गिद्ध ही यहां मिला।

इन दिनों गांवों में भी कहीं गिद्ध नज़र नहीं आते। कुछ सालों पहले तक गांवों में भी खूब गिद्ध हुआ करते थे और किसी पशु की देह मिलते ही उसका निपटान कर दिया करते थे। अब शव के सड़ने से उसकी बदबू फैलती रहती है। ज़्यादा दिनों तक मृत देह के सड़ते रहने से जीवाणु-विषाणु फैलने तथा संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है।

देवास के कन्नौद में फॉरेस्ट एसडीओ एम. एल. यादव बताते हैं, “करीब 75 हज़ार वर्ग किमी में फैले ज़िले में 2033 वर्ग कि.मी. जंगल है। कुछ सालों पहले तक जंगल में गिद्धों की हलचल से ही पता चल जाता था कि किसी जंगली या पालतू जानवर की मौत हो चुकी है। जंगलों में चट्टानों तथा ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर इनका बसेरा हुआ करता था। इन्हें स्वीपर ऑफ फॉरेस्ट कहा जाता रहा है। मृत पशुओं के मांस का भक्षण ही उनका भोजन हुआ करता था। ये कुछ ही समय में प्राणी के शरीर को चट कर देते थे। लेकिन अब ज़िले के हरे-भरे जंगलों में भी इनका कोई वजूद नहीं रह गया है।”

सदियों से गिद्ध हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण सफाईकर्मी रहे हैं। ये मृत जानवरों के शव को खाकर पर्यावरण को दूषित होने से बचाते रहे हैं। लेकिन अब पूरे देश में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का ही सवाल खड़ा होने लगा है। इनमें सामान्य जिप्स गिद्ध की आबादी में बीते दस सालों में 99.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। 1990 में तीन प्रजातियों के गिद्धों की आबादी हमारे देश में चार करोड़ के आसपास थी जो अब घटकर दस हज़ार से भी कम रह गई है। पर्यावरण के लिए यह खतरे की घंटी है।

दरअसल पालतू पशुओं को उपचार के दौरान दी जाने वाली डिक्लोफेनेक नामक दवा गिद्धों के लिए घातक साबित हो रही है। इस दवा का उपयोग मनुष्यों में दर्द निवारक के रूप में किया जाता था। अस्सी के दशक में इसका उपयोग गाय, बैल, भैंस और कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी किया जाने लगा। इस दवा का इस्तेमाल जैसे-जैसे बढ़ा, वैसे-वैसे गिद्धों की आबादी लगातार कम होती चली गई। पहले तो इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन जब हालात बद से बदतर होने लगे तो खोज-खबर शुरू हुई। तब यह दवा शक के घेरे में आई। वैज्ञानिकों के मुताबिक डिक्लोफेनेक गिद्धों के गुर्र्दों पर बुरा असर डालता है। इस दवा से उपचार के बाद मृत पशु का मांस जब गिद्ध खाते हैं तो इसका अंश गिद्धों के शरीर में जाकर उनके गुर्दों को खराब कर देता है जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है। खोज में यह बात भी साफ हुई है कि यदि मृत जानवर को कुछ सालों पहले भी यह दवा दी गई हो तो इसका अंश उसके शरीर में रहता है और उसका मांस खाने से यह गिद्धों के शरीर में आ जाता है।

कई सालों तक इस दवा के उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञ और संगठन मांग करते रहे तब कहीं जाकर इस दवा के पशुओं में उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन आज भी तमाम प्रतिबंधों को धता बताते हुए यह दुनिया के कई देशों में बनाई और बेची जा रही है। इससे भी खतरनाक बात यह है कि कई कंपनियां इन्हीं अवयवों के साथ नाम बदलकर दवा बना रही हैं। इसी वजह से गिद्धों को बचाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी सफल नहीं हो पा रही हैं। अब जब गिद्धों की आबादी हमारे देश के कुछ हिस्सों में उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बची है तब 2007 में भारत में इसके निर्माण और बिक्री पर रोक लगाई गई। लेकिन अब भी इसका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। कुछ दवा कंपनियों ने डिक्लोफेनेक के विकल्प के रूप में पशुओं के लिए मैलोक्सीकैम दवा बनाई है। यह गिद्धों के लिए नुकसानदेह नहीं है।

विशेषज्ञों के मुताबिक संकट के बादल सिर्फ गिद्धों पर ही नहीं, अन्य शिकारी पक्षियों बाज़, चील और कुइयां पर भी हैं। कुछ सालों पहले ये सबसे बड़े पक्षी शहरों से लुप्त हुए। फिर भी गांवों में दिखाई दे जाया करते थे पर अब तो गांवों में भी नहीं मिलते। कभी मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से चार तरह के गिद्ध मिलते थे।

गिद्धों को विलुप्ति से बचाने के लिए सरकारें अब भरसक कोशिश कर रही हैं। संरक्षण के लिहाज़ से गिद्ध वन्य प्राणी संरक्षण 1972 की अनुसूची 1 में आते हैं। देश में आठ खास जगहों पर इनके ब्राीडिंग सेंटर बनाए गए हैं। हरियाणा के पिंजौर तथा पश्चिम बंगाल के बसा में ब्रीडिंग सेंटर में इनके लिए प्राकृतिक तौर पर रहवास उपलब्ध कराया गया है। पिंजौर में सबसे अधिक 127 गिद्ध हैं।

दो साल पहले भोपाल में भी केरवा डेम के पास मेंडोरा के जंगल में प्रदेश का पहला गिद्ध प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया है। वन अधिकारियों के मुताबिक यहां गिद्धों की निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं और उनकी हर हलचल पर नज़र रखी जाती है।

हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए गिद्धों को सहेजना बहुत ज़रूरी है। हमारे देश में किसानों के पास बीस करोड़ से ज़्यादा गायें, बैल, भैंस आदि पालतू मवेशी हैं। इन्हें पशुधन माना जाता है। लेकिन जब इनकी मृत्यु हो जाती है तब इन्हें जलाया या दफनाया नहीं जाता है, बल्कि गांव किनारे की क्षेपण भूमि में मृत देह को रख आते हैं। गिद्धों के अभाव में मृत मवेशियों की देह सड़ती रहती है। गिद्धों की कमी के कारण मांस खाने वाले कुत्तों की तादाद बढ़ने से रैबीज़ जैसे रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है।

पारसी समुदाय में शवों को डोखमा (बुर्ज) में खुला छोड़ दिया जाता है। जहां गिद्ध जैसे बड़े पक्षी उन्हें नष्ट करते हैं। पारसी धारणा के मुताबिक शव को दफनाने से ज़मीन तथा जलाने से आग दूषित होती है। इसलिए इस समाज के लोगों के लिए तो गिद्धों का होना बहुत ज़रूरी है। अब गिद्धों की कमी के चलते बुर्जों पर सौर उर्जा परावर्तक लगाए जा रहे हैं।

गिद्धों के संरक्षण के लिए सरकारों के साथ समाज को भी आगे आना पड़ेगा। तेज़ी से कम होते जा रहे गिद्धों के नहीं रहने से बढ़ते प्रदूषण पर सोचने भर से हम सिहर उठते हैं। गिद्धों का रहना हमारे पर्यावरण की सेहत के लिए बेहद ज़रूरी है। उनके बिना प्रकृति की सफाई कौन करेगा। किसान चाहें तो खुद अपने मवेशियों को डिक्लोफेनेक देने से रोक सकते हैं। इसके विकल्प के रूप में मैलोक्सीकैम दवा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसके अलावा गिद्धों के प्राकृतिक आवास तथा घोंसलों को भी संरक्षित कर सहेजने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हम अगली पीढ़ी को सिर्फ किताबों और वीडियो में दिखाएं कि कभी इस धरती पर गिद्ध रहा करते थे। (स्रोत फीचर्स)

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कौआ और कोयल: संघर्ष या सहयोग – कालू राम शर्मा

न दिनों भरी गर्मी में कौओं को चोंच में सूखी टहनी दबाए उड़कर पेड़ों की ओर जाते देखा जा सकता है। कौओं की चहल-पहल अप्रैल से जून के बीच कुछ अधिक दिखाई देती है। अगर आप इन दिनों पेड़ों पर नज़र डालें तो दो डालियों के बीच कुछ टहनियों का बिखरा-बिखरा सा कौए का घोंसला देखने को मिल सकता है।

पिछले दिनों मुझे मध्यप्रदेश के कुछ ज़िलों से गुज़रने का मौका मिला तो पाया कि पेड़ों पर कौओं ने बड़ी तादाद में घोंसले बनाए हैं। दिलचस्प बात यह लगी कि कौओं ने घोंसला बनाने के लिए उन पेड़ों को चुना जिनकी पत्तियां झड़ चुकी थीं और नई कोपलें आने वाली थीं। जब पत्तियां झड़ जाएं तो पेड़ की एक-एक शाखा दिखाई देती है। जब पत्तियां होती हैं तो कई पक्षी वगैरह इसमें पनाह पाते हैं मगर वे दिखते नहीं। पीपल के पेड़ पर अधिकतम घोंसले दिखाई दिए। एक ही पीपल के पेड़ पर सात से दस तक घोंसले दिखे।

दरअसल, कौए ऐसे पेड़ को घोंसला बनाने के लिए चुनते हैं जिस पर घने पत्ते न हो। एक वजह यह हो सकती है कि कौए दूर से अपने घोंसले पर नज़र रख सकें या घोंसले में बैठे-बैठे दूर-दूर तक नज़रें दौड़ा सकें। घोंसला ज़मीन से करीब तीन-चार मीटर की ऊंचाई पर होता है। नर और मादा मिलकर घोंसला बनाते हैं और दोनों मिलकर अंडों-चूज़ों की परवरिश भी करते हैं।

कहानी का रोचक हिस्सा यह है कि कौए व कोयल का प्रजनन काल एक ही होता है। इधर कौए घोंसला बनाने के लिए सूखे तिनके वगैरह एकत्र करने लगते हैं और नर व मादा का मिलन होता है और उधर नर कोयल की कुहू-कुहू सुनाई देने लगती है। नर कोयल अपने प्रतिद्वंद्वियों को चेताने व मादा को लुभाने के लिए तान छेड़ता है। घोंसला बनाने की जद्दोजहद से कोयल दूर रहता है।

कौए का घोंसला साधारण-सा दिखाई देता है। किसी को लग सकता है कि यह तो मात्र टहनियों का ढेर है। हकीकत यह है कि यह घोंसला हफ्तों की मेहनत का फल है। अंडे देने के कोई एक महीने पहले कौए टहनियां एकत्र करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रत्येक टहनी सावधानीपूर्वक चुनी जाती है। मज़बूत टहनियों से घोंसले का आधार बनाया जाता है और फिर पतली व नरम टहनियां बिछाई जाती हैं। कौए के घोंसले में धातु के तारों का इस्तेमाल भी किया जाता है। ऐसा लगता है कि बढ़ते शहरीकरण के चलते टहनियों के अलावा उन्हें तार वगैरह जो भी मिल गए उनका इस्तेमाल कर लेते हैं।

कोयल कौए के घोंसले में अंडे देती है। कोयल के अंडों-बच्चों की परवरिश कौए द्वारा होना जैव विकास के क्रम का नतीजा है। कोयल ने कौए के साथ ऐसी जुगलबंदी बिठाई है कि जब कौए का अंडे देने का वक्त आता है तब वह भी देती है। कौआ जिसे चतुर माना जाता है, वह कोयल के अंडों को सेहता है और उन अंडों से निकले चूज़ों की परवरिश भी करता है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पाया है कि कोयल के पंख स्पैरो हॉक नामक पक्षी से काफी मिलते-जुलते होते हैं। स्पैरो हॉक जैसे पंख दूसरे पक्षियों को भयभीत करने में मदद करते हैं। इसी का फायदा उठाकर कोयल कौए के घोंसले में अंडे दे देती है। उल्लेखनीय है कि स्पैरो हॉक एक शिकारी पक्षी है जो पक्षियों व अन्य रीढ़धारी जंतुओं का शिकार करता है। वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसमें नकली कोयल और नकली स्पैरो हॉक को एक गाने वाली चिड़िया के घोंसले के पास रख दिया। देखा गया कि गाने वाली चिड़िया उन दोनों से डर गई।

तो कोयल कौए के घोंसले पर परजीवी है। कोयल माताएं विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों के घोंसलों में अपने अंडे देकर अपनी ज़िम्मेदारी मुक्त हो जाती है। कौआ माएं कोयल के चूज़ों को अपना ही समझती है। आम समझ कहती है कि परजीविता में मेज़बान को ही नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन परजीवी पक्षियों के सम्बंध में हुए अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के परजीवी की उपस्थिति से मेज़बान को भी फायदा होता है। तो क्या कोयल और कौवे के बीच घोंसला-परजीविता का रिश्ता कौए के चूज़ों को कोई फायदा पहुंचाता है? ऐसा प्रतीत होता है कि कोयल के चूज़ों की बदौलत कौए के चूज़ों को शरीर पर आ चिपकने वाले परजीवी कीटों वगैरह से निजात मिलती है।

स्पेन के शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया है कि कोयल की एक प्रजाति वाकई में घोंसले में पल रहे कौओं के चूज़ों को जीवित रहने में मदद करती है। टीम बताती है कि ग्रेट स्पॉटेड ककू द्वारा कौए के घोंसले में अंडे दिए जाने पर कौए के अंडों से चूज़े निकलना अधिक सफलतापूर्वक होता है। अध्ययन से पता चला कि केरिअन कौवों के जिन घोसलों में कोयल ने अंडे दिए उनमें कौवे के चूज़ों के जीवित रहने की दर कोयल-चूज़ों से रहित घोंसले से अधिक थी। और करीब से देखने पर पता चला कि कोयल के पास जीवित रखने की व्यवस्था थी जो कौवों के पास नहीं होती। जिन घोंसलों में कोयल के चूज़े पनाह पा रहे थे उन पर शिकारी बिल्ली वगैरह का हमला होने पर कोयल के चूजे दुर्गंध छोड़ते हैं। यह दुर्गंध प्रतिकारक रसायनों के कारण होती है और शिकारी बिल्ली व पक्षियों को दूर भगाने में असरकारक साबित होती है। अर्थात पक्षियों के बीच परजीवी-मेज़बान का रिश्ता जटिल है।

अब आम लोग महसूस करने लगे हैं कि पिछले बीस-पच्चीस बरसों में कौओं की तादाद घटी है। अधिकतर ऐसा एहसास लोगों को श्राद्ध पक्ष में होता है जब वे कौओं को पुरखों के रूप में आमंत्रित करना चाहते हैं। घंटों छत पर खीर-पूड़ी का लालच दिया जाता है मगर कौए नहीं आते।

कौओं को संरक्षित करने के लिए उनके प्रजनन स्थलों को सुरक्षित रखना होगा। कोयल का मीठा संगीत सुनना है तो कौओं को बचाना होगा।

जब पक्षी घोंसला बनाते हैं तो वे सुरक्षा के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हैं। पिछले दिनों मैं एक शादी के जलसे में शामिल हुआ था। बारात के जलसे में डीजे से लगाकर बैंड व ढोल जैसे भारी-भरकम ध्वनि उत्पन्न करने वाले साधनों की भरमार थी। मैंने पाया कि जिन कौओं ने सड़क किनारे पेड़ों पर घोंसले बनाए थे वे इनके कानफोड़ू शोर की वजह से असामान्य व्यवहार कर रहे थे। कौए भयभीत होकर घोंसलों से दूर जाकर कांव, कांव की आवाज़ निकाल रहे थे। दरअसल, पक्षियों को भी खासकर प्रजनन काल में शोरगुल से दिक्कत होती है। इस तरह के अवलोकन तो आम हैं कि अगर इनके घोंसलों को कोई छू ले तो फिर पक्षी उन्हें त्याग देते हैं। फोटोग्राफर्स के लिए भी निर्देश हैं कि पक्षियों के घोंसलों के चित्र न खींचें। कैमरे के फ्लैश की रोशनी पक्षियों को विचलित करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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5 करोड़ वर्ष में मछलियों के नियम नहीं बदले

म जब कभी समुद्री जीवन से जुड़ा कोई वीडियो या खबर देखते हैं तो अक्सर मछलियां एक झुंड में तैरती नज़र आती हैं। लेकिन हाल ही में पश्चिमी अमेरिका से प्राप्त एक पत्थर के टुकड़े (जीवाश्म) से मालूम चला है कि मछलियां आज से नहीं, 5 करोड़ वर्षों से तैरने के उन्हीं नियमों का पालन करती आ रही हैं।

लगभग 5 करोड़ वर्ष पूर्व एक झील में मछलियों का एक झुंड अचानक से एक चट्टान के नीचे दब गया। संरक्षण के कारण स्पष्ट नहीं हैं किंतु संरक्षित मछलियों के जीवाश्म की मदद से वैज्ञानिक प्रारंभिक सामाजिक व्यवहार को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के नोबुकी मिज़ुमोटो और उनके सहयोगियों ने इस पत्थर के पटिए में 257 विलुप्त हो चुकी मछलियों (Erismatopteruslevatus) के जीवाश्म पाए जो एक घने झुंड में थे। शोधकर्ताओं ने प्रत्येक मछली के उन्मुखीकरण और स्थिति का विश्लेषण किया। इसके आधार पर एक मॉडल तैयार किया जिससे यह पता चल सकता था कि स्लैब में संरक्षित क्षण के फौरन बाद प्रत्येक जीव की स्थिति क्या होने की अपेक्षा है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी-बी में प्रकाशित परिणामों के अनुसार प्राचीन मछलियां आजकल की मछलियों के समान ही दो नियमों का पालन करती थीं। कोई भी मछली अपने सबसे करीबी साथियों को दूर धकेलती थी ताकि टक्कर से बचा जा सके। वहीं वह दूर की मछलियों को आकर्षित करती थी,ताकि झुंड सघन बना रहे। आधुनिक झुंड की तरह, जीवाश्म समूह की आकृति लंबी थी जो शिकारियों को दूर करने में मदद करती है। (स्रोत फीचर्स)

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बोत्सवाना में हाथियों के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में बोत्सवाना में हाथियों के शिकार पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया गया है। इस फैसले से वहां के संरक्षणवादी काफी हैरान हैं। बोत्सवाना के पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और पर्यटन मंत्रालय द्वारा 22 मई को जारी किए गए बयान के अनुसार यह फैसला ‘सभी हितधारकों के साथ व्यापक और विस्तृत विचार-विमर्श’ के बाद लिया गया है।

एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संगठन के मुताबिक बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 1,30,000 है, जो पूरे अफ्रीका में पाए जाने वाले हाथियों की संख्या की एक तिहाई है। दूसरी ओर, सरकारी अनुमान के मुताबिक 2018 में बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 2 लाख 37 हज़ार थी। अफ्रीका में हाथी दांत की तस्करी के चलते पिछले एक दशक में लगभग एक तिहाई हाथी खत्म हो गए। लेकिन बोत्सवाना लंबे समय से जानवरों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल रहा और हाथी दांत की अवैध तस्करी और शिकार से बचा रहा। हालांकि कुछ अपवाद भी सामने आए थे। सितंबर 2018 मेंएलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संस्था ने अपने एक हवाई सर्वेक्षण में यह बताया था कि बोत्सवाना में 87 हाथियों का शिकार हुआ था, लेकिन बाद में बोत्सवाना के वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों ने कहा कि एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स ने संख्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था।

साल 2014 में तत्कालीन संरक्षणवादी राष्ट्रपति इयान खामा ने हाथियों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया था, जिसकी परिवीक्षा अवधि पांच साल थी। वर्तमान राष्ट्रपति, मोगवीत्सी ई.के. मासीसी ने पिछले साल प्रतिबंध के आर्थिक और अन्य प्रभावों पर चर्चा करने के लिए एक समिति बनाई थी। इस समिति में स्थानीय सदस्य, हाथियों के संरक्षण से प्रभावित समुदाय के लोग, संरक्षण कार्यकर्ता और शोधकर्ता शामिल थे। उनके अनुसार प्रतिबंध को इसलिए हटाया गया क्योंकि देश मे हाथियों की संख्या बढ़ने लगी थी, हाथियों के शिकारियों की आजीविका प्रभावित हो रही थी, और प्रतिबंध से हाथी-मानव टकराव और संघर्ष बढ़ रहा था।

नेशनल जियोग्राफिक के अनुसार, सूखे के कारण हाथी पानी की तलाश में उन इलाकों में आने लगे थे जिनमें वे पहले कभी नहीं आते थे। जिसके कारण हाथियों का मनुष्यों से संपर्क बढ़ा। फलस्वरूप मनुष्यों, फसलों और संपत्ति को खतरा बढ़ा है।

सरकारी बयान में यह भी कहा गया है कि शिकार व्यवस्थित और नैतिक तरीके से किए जाएंगे, हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसका क्या अर्थ है और यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा।

वाइल्डलाइफ डायरेक्ट की सीईओ पौला कहुम्बु ने समिति के इस फैसले पर ट्वीट करते हुए कहा है कि हाथियों के शिकार करने से मनुष्य और हाथियों के बीच संघर्ष कम नहीं होगा क्योंकि कोई भी शिकारी गांव में हाथियों का शिकार करने नहीं जाएगा, उन्हें तो शिकार के लिए बड़े-बड़े दांतों वाले हाथी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि शिकार की वजह से हाथी तनावग्रस्त होकर कहीं अधिक खतरनाक बन जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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फसलों के मित्र पौधे कीटों से बचाव करते हैं – एस. अनंतनारायणन

बड़े पैमाने पर खेती करने से फसल को खाने वाले कीटों की आबादी में बहुत तेजी से इज़ाफा होता है, खासतौर पर तब जब फसल एक ही प्रकार की हो। कीटों की संख्या बहुत बढ़ जाने पर किसानों को कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ती है। साथ ही कीटनाशक छिड़काव के नुकसान भी होते हैं। कीटनाशक प्रदूषणकारी तो हैं ही इसके अलावा ये मिट्टी में रहने वाले उपयोगी जीवों और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इनके कारण कीटों के प्रति पौधों की अपनी रक्षा प्रणाली गड़बड़ा जाती है। और तो और, कुछ समय बाद कीटनाशक कीटों पर भी उतने प्रभावी भी नहीं रहते।

कीटों पर काबू पाने के संदर्भ में यूके के कुछ पर्यावरण विज्ञानियों ने मालियों/बागवानों के काम करने के तौर-तरीकों की ओर ध्यान दिया। उन्होंने गौर किया कि मालियों ने टमाटर के पौधों को सफेद फुद्दियों (Greenhouse Whitefly) से बचाने के लिए उनके साथ फ्रेंच मैरीगोल्ड (गेंदे) के पौधे लगाए थे। ये फुद्दियां टमाटर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के बारे में प्लॉस वन पत्रिका में बताया है। उनके अध्ययनों में यह जानने की कोशिश की गई थी कि कैसे गेंदे के पौधे टमाटर के पौधों की कीटों से सुरक्षा करते हैं और वे यह भी समझना चाहते थे कि क्या यह तरीका टमाटर के अलावा अन्य फसलों के बचाव में मददगार हो सकता है।

अधिकतर ग्लासहाउस के आस-पास पाई जाने वाली यह सफेद फुद्दी आकार में छोटी और पतंगे जैसी होती है। ये अपने अंडे सब्जियों या अन्य फसलों की पत्तियों पर नीचे की ओर देती हैं। अंडों से निकले लार्वा व्यस्क होने तक और उसके बाद भी पौधों से ही अपना पोषण लेते हैं। इसके लिए वे पत्तियों की शिराओं में छेद कर पौधों के रस और अन्य पदार्थ तक पहुंचते हैं। कीटों द्वारा रस निकालने की प्रक्रिया में कुछ रस पत्तियों की सतह पर जमा हो जाता है जिसके कारण पत्तियों पर फफूंद भी पनपने लगती है, जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को बाधित कर देती है। और जब लार्वा व्यस्क कीट बन जाते हैं तब ये पौधों में वायरल संक्रमण फैलाते है। इस तरह ये कीट पौधे को काफी प्रभावित करते हैं।

फसलों पर गेंदे व अन्य पौधों के सुरक्षात्मक प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने अलग-अलग समय पर और फसलों को सुरक्षा के अलग-अलग तरीके उपलब्ध करवाकर प्रयोग किए। पहले प्रयोग में शोधकर्ताओं ने शुरुआत से ही टमाटर की फसल के साथ गेंदे के पौधों को लगाया। और बाद में उन पौधों को भी लगाया, जो सफेद फुद्दियों को दूर भगाते थे। इनके प्रभाव की तुलना के लिए उन्होंने कंट्रोल के तौर पर एक समूह में सिर्फ टमाटर के पौधे लगाए। वैज्ञानिक यह भी देखना चाहते थे कि क्या किसान गेंदे के पौधों का उपयोग रोकथाम के लिए करने के अलावा क्या तब भी कर सकते हैं जब फुद्दियों की अच्छी-खासी आबादी पनप चुकी हो। इसके लिए गेंदे के पौधे थोड़े विलंब से लगाए गए जब सफेद फुद्दियां फसलों पर मंडराने लगीं थी। तीसरे प्रयोग में टमाटर के साथ उन पौधों को लगाया गया जो सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करते थे, ताकि यह पता किया जा सके कि कीटों को टमाटर के पौधों से दूर आकर्षित करने पर कोई फर्क पड़ता है या नहीं।

अध्ययन में पाया गया कि गेंदे के पौधों की मौजूदगी ने सफेद फुद्दियों को फसल से निश्चित तौर पर दूर रखा। सबसे ज़्यादा असर तब देखा गया जब गेंदे के पौधे शुरुआत से ही फसलों के साथ लगाए गए थे। और जब गेंदे के साथ अन्य कीट-विकर्षक पौधे भी लगाए गए तब असर कमतर रहा। और तब तो लगभग कोई असर नहीं हुआ जब सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले अन्य पौधे फसल के आसपास लगाए गए थे जो एक मायने में कीटों के लिए वैकल्पिक मेज़बान थे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उस प्रभावी घटक को गेंदे के पौधे से पृथक किया। यह लिमोनीन नाम का एक पदार्थ है। लिमोनीन नींबू कुल के फलों के छिलकों में पाया जाता है। गेंदे के पौधे से निकले रस में काफी मात्रा में लिमोनीन मौजूद पाया गया।

इसके बाद उन्होंने टमाटर की क्यारियों में गेंदें के पौधों की बजाए लिमोनीन डिसपेंसर को रखा। लीमोनीन डिस्पेंसर एक यंत्र होता है जो लगातार लीमोनीन छोड़ता रहता है। पाया गया कि लिमोनीन भी सफेद फुद्दियों को फसल से दूर रखने में प्रभावी रहा। यानी यह गेंदे का क्रियाकारी तत्व है। और आपात स्थिति यानी जब अचानक काफी संख्या में सफेद फुद्दिया फसल पर मंडराने लगी तब भी डिस्पेंसर गेंदे के पौधे लगाने की तुलना में अधिक प्रभावी रहा। लेकिन यह पता लगाना शेष है कि फसलों की सुरक्षा के लिए गेंदें के कितने पौधे लगाए जाएं या कितने लिमोनीन डिस्पेंसर लगाए जाएं।

गेंदे के अलावा, कई अन्य पौधे हैं जो सफेद फुद्दियों और अन्य कीटों को फसल से दूर भगाने में मददगार हैं। यानी कुछ पौधे और उनसे निकले वाष्पशील पदार्थ के डिस्पेंसर कीटनाशकों की जगह इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसके कई अन्य फायदे भी है। पहला, कीटनाशक के छिड़काव में लगने वाली लागत की बचत होगी। दूसरा, रासायनिक कीटनाशकों के उत्पादन में लगने वाली ऊर्जा की बचत होगी। तीसरा, कीटनाशकों के कारण मिट्टी, पानी और पौधों में फैल रहा प्रदूषण कम होगा। और चौथा, कीट कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं लेकिन वे पौधों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल नहीं कर पाएंगे।

प्रतिरोध हासिल करने की प्रक्रिया यह है कि जब कोई जीव किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण मारे जाते हैं तो कभी-कभार कुछ जीव उस परिस्थिति के खिलाफ प्रतिरक्षा के कारण जीवित बच जाते हैं। यह प्रतिरक्षा उन्हें संयोगवश हुए किसी उत्परिवर्तन के कारण हासिल हो चुकी होती है। फिर ये जीव संतान पैदा करते हैं और संख्यावृद्धि करते हैं। कुछ ही पीढि़यों में पूरी आबादी प्रतिरोधी जीवों की हो जाती है। जब इन कीटों का सफाया करने की बजाए दूर भगाने की विधि का उपयोग किया जाता है तो कुछ कीट फिर भी दूर नहीं जाते और उन्हें भोजन पाने व प्रजनन करने में थोड़ा लाभ मिलता है। शेष कीट दूर तो चले जाते हैं लेकिन मरते नहीं हैं। अत: प्रतिरोधी कीट अन्य कीटों के मुकाबले इतने हावी नहीं हो पाते कि पूरी आबादी में प्रतिरोध पैदा हो जाए। आबादी में दोनों तरह के कीट बने रहते हैं।

वर्ष 2015 में स्वीडन और मेक्सिको सिटी के शोधकर्ताओं ने ट्रेंड्स इन प्लांट साइंस पत्रिका में बताया था कि कैसे उन पौधों को फसलों के साथ लगाना कारगर होता है, जो फसलों पर मंडराने वाले कीटों के शिकारियों को आकर्षित करने वाले रसायन उत्पन्न करते हैं। उनके अनुसार जंगली पौधे अक्सर वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़ते हैं जिनकी गंध अन्य पौधों को इस बात का संकेत देती है कि उनकी पत्तियों को खाने वाला या नुकसान पहुंचाने वाला जीव आस-पास है। ऐसी ही एक गंध, जिससे हम सब वाकिफ हैं, तब आती है जब किसी मैदान या बगीचे की घास की छंटाई की जाती है। वाष्पशील कार्बनिक यौगिक कई किस्म के होते हैं और इससे पता चल जाता है कि खतरा किस तरह का है। जैसे यदि पौधों को शाकाहारी जानवरों द्वारा खाया जा रहा है तो पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़कर उस शाकाहारी जानवर के विशिष्ट शिकारी को इसका संकेत देते हैं।

मेक्सिको सिटी के शोध पत्र के अनुसार पौधों की कई विशेषताएं जो कीटों से सीधे-सीधे प्रतिरोध प्रदान करती थीं वे पालतूकरण (खेती) की प्रक्रिया में छूटती गर्इं, क्योंकि वे क्षमताएं कुछ ऐसे गुणों की बदौलत होती थीं जो मनुष्य को अवांछित लगते थे। जैसे कड़वापन, अत्यधिक रोएं, कठोरता या विषैलापन। इनके छूट जाने के पीछे एक और कारण यह है कि यदि यह प्रतिरोध अभिव्यक्त होने के लिए पौधे के काफी संसाधनों की खपत होती है जिसकी वजह से पैदावार कम हो जाती है। सब्जि़यों के मामले में शायद यही हुआ है।

प्लॉस वन में प्रकाशित शोध पत्र यह भी कहता है कि टमाटर जैसी फसलों की सुरक्षा के लिए लगाए गए पौधे आर्थिक महत्व की दृष्टि से भी लगाए जा सकते हैं। जैसे वे खाने योग्य हो सकते हैं या सजावटी उपयोग के हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो लोग इन्हें लगाने में रुचि दिखाएंगे। यह समाज और पर्यावरण दोनों के लिए फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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फ्रोज़न वृषण से शुक्राणु लेकर बंदर शिशु का जन्म

ह तो एक जानी-मानी टेक्नॉलॉजी बन चुकी है कि किसी स्त्री के अंडाशय को अत्यंत कम तापमान पर संरक्षित रख लिया जाए और बाद में उसे सक्रिय करके अंडाणु उत्पादन करवाया जाए। यह तकनीक उन मामलों में उपयोगी पाई गई है जब किसी स्त्री को कैंसर का उपचार करवाते हुए अंडाशय को क्षति पहुंचने की आशंका होती है। मगर पुरुषों के वृषण को इस तरह संरक्षित करके शुक्राणु उत्पादन की तकनीक का दूसरा सफल प्रयोग हाल ही में पिटसबर्ग विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। यह प्रयोग साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

इस प्रयोग में 5 रीसस बंदरों के वृषण के ऊतक निकालकर कम तापमान पर सहेज लिए गए। जब वृषण निकाले गए थे तब ये सभी बंदर बच्चे थे और इनके वृषण ने शुक्राणु निर्माण शुरू नहीं किया था। इसके बाद इन बंदरों को वंध्या कर दिया गया। इसके बाद जब ये बंदर किशोरावस्था में पहुंचे तब बर्फ में रखे वृषण-ऊतक निकालकर उन्हीं बंदरों के वृषणकोश में प्रत्यारोपित कर दिए गए, जिनसे ये निकाले गए थे।

आठ से बारह महीने बाद इन प्रत्यारोपित ऊतकों की जांच करने पर पता चला कि इनमें शुक्राणु का उत्पादन होने लगा है। इन शुक्राणुओं की मदद से 138 अंडों को निषेचित किया गया। इनमें से मात्र 16 ही ऐसे भ्रूण बने जिनका प्रत्यारोपण मादा बंदरों में किया जा सकता था। इनमें से भी मात्र एक ही गर्भावस्था तक पहुंचा और जीवित जन्म हुआ।

यह सही है कि 138 निषेचित अंडों से शुरू करके मात्र एक शिशु का जन्म होना बहुत कम प्रतिशत है लेकिन यह बहुत आशाजनक है कि अविकसित वृषण की स्टेम कोशिकाओं को सहेजकर रखा जा सकता है और वे बाद में विभेदित होकर शुक्राणु का उत्पादन कर सकती हैं। अब अगला कदम मनुष्यों के लिए इस तकनीक की उपयोगिता की जांच का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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क्या सीखते हैं हम जंतुओं पर प्रयोग करके – डॉ. सुशील जोशी

किसी ने एक सवाल पूछा था कि चूहों पर इतने प्रयोग क्यों किए जाते हैं। परंतु उस सवाल में उलझने से पहले यह देखना दिलचस्प होगा कि जंतुओं पर प्रयोग किए ही क्यों जाते हैं। वैसे इस संदर्भ में आम लोगों के मन में यह धारणा है कि जंतुओं पर प्रयोग इंसानों की बीमारियों के इलाज खोजने के लिए किए जाते हैं। यह धारणा कुछ हद तक सही है किंतु पूरी तरह सही नहीं है। तो चलिए देखते हैं कि मनुष्यों ने जंतुओं पर प्रयोग करना कब शुरू किया था, किस मकसद से ये प्रयोग किए जाते हैं और किन जंतुओं पर किए जाते हैं।

कुछ आंकड़े

सबसे पहले यह देखते हैं कि आजकल प्रयोगों में कितने जंतुओं का उपयोग होता है। कई कारणों से इस सम्बंध में कोई पक्का या विश्वसनीय आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। एक कारण तो यह है कि जंतुओं पर प्रयोग करने को लेकर अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून और व्यवस्थाएं हैं। कुछ देशों में सारे जंतु प्रयोगों की रिपोर्ट देनी होती है तो कुछ देशों में कोई रिपोर्ट देना ज़रूरी नहीं है। कुछ देशों में जंतु कल्याण कानून लागू है और इन देशों में सिर्फ उन जंतुओं के बारे में रिपोर्ट देनी पड़ती है जो इस कानूनी में शामिल हैं। फिर ‘प्रयोग में जंतु का उपयोग’ की परिभाषाएं भी अलग-अलग हैं – जैसे किसी देश में प्रयोग के लिए जंतुओं को प्रयोगशाला में रखना भी प्रयोग माना जाता है, तो किसी देश में प्रयोग होने का सम्बंध जंतु की चीरफाड़ से माना जाता है।

बहरहाल, ब्यूटी विदाउट क्रुएल्टी नामक संस्था के मुताबिक हर साल दुनिया भर में 11.5 करोड़ जंतु प्रयोगशालाओं में मारे जाते हैं। अमरीकी कृषि विभाग के एनिमल एंड प्लांट हेल्थ इंस्पेक्शन सर्विस (जंतु एवं वनस्पति स्वास्थ्य निरीक्षण सेवा) की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016 में अमरीका में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाओं में लगभग 8,20,000 जंतुओं पर प्रयोग किए गए थे। किंतु इनमें सिर्फ वही जंतु शामिल हैं जो अमरीका के एनिमल वेलफेयर कानून में शामिल हैं। माइस, चूहे, मछलियां वगैरह इस कानून में कवर नहीं होते। इसके अलावा इस आंकड़े में उन 1,37,000 से अधिक जंतुओं को भी शामिल नहीं किया गया है जिन्हें प्रयोगशालाओं में रखा गया था किंतु वे किसी प्रयोग का हिस्सा नहीं थे। एक अनुमान के मुताबिक, यदि अन्य जंतुओं को भी जोड़ा जाए, तो अकेले अमरीका में प्रयोगों में इस्तेमाल किए गए जंतुओं की संख्या 1.2-2.7 करोड़ तक हो सकती है। एक शोध पत्र के मुताबिक दुनिया भर में प्रयोगों में प्रति वर्ष करीब 11 करोड़ जंतुओं का इस्तेमाल किया जाता है। भारत के बारे में अलग से कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।

मकसद

यह तो सही है कि आजकल जंतु प्रयोग दवाइयों के विकास या सौंदर्य प्रसाधनों की जांच के लिए किए जाते हैं। किंतु ऐसा भी नहीं है कि सारे जंतु प्रयोग मात्र इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किए जाते हैं। कई जंतु प्रयोग मूलभूत जीव वैज्ञानिक प्रक्रियाओं को समझने के लिए भी किए जाते हैं।

ऐतिहासिक रूप से जंतु प्रयोगों का मूल मकसद जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में समझ बढ़ाने का रहा है। प्रयोगों में जंतुओं का उपयोग मूलत: इस समझ पर टिका है कि सारे जीव-जंतु विकास के माध्यम से परस्पर सम्बंधित हैं। विकास की दृष्टि से देखें तो कुछ जंतु परस्पर ज़्यादा निकट हैं जबकि कुछ अपेक्षाकृत अधिक भिन्न हैं। जैसे यदि हम आनुवंशिकी का अध्ययन करना चाहते हैं तो कोई भी जीव इसमें सहायक हो सकता है क्योंकि विकास की लंबी अवधि में पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों के हस्तांतरण की विधि एक-सी रही है। किसी प्रक्रिया या परिघटना के अध्ययन के लिए जिस जीव को चुना जाता है उसे ‘मॉडल’ कहते हैं। कभी-कभी कोई जीव किसी रोग विशेष या परिघटना विशेष का मॉडल भी होता है।

‘मॉडल’ जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम ‘मॉडल’ जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरिया-भक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये वायरस बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। ये काफी रफ्तार से संख्यावृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किंतु जीवन के सबसे ‘निचले’ से लेकर सबसे ‘ऊपरी’ स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरिया-भक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।

अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (E. coli) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक सजीव कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।

लेकिन ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया मनुष्य से बहुत भिन्न होते हैं। इनकी कोशिकाओं में केंद्रक तथा अन्य कोशिकांग नहीं होते। इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज़्यादा पेचीदा केंद्रक-युक्त कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। अलबत्ता, खमीर यानी यीस्ट एक-कोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहु-कोशिकीय हैं। किसी बहु-कोशिकीय जीव का जीवन कहीं अधिक पेचीदा होता है। बहु-कोशिकीय जीवों में अलग-अलग कोशिकाएं अलग-अलग काम करने लगती हैं, उनके बीच परस्पर संवाद और सहयोग की ज़रूरत होती है। लिहाज़ा, बहु-कोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई (फल-मक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए।

यहां यह कहना ज़रूरी है कि कई वैज्ञानिकों ने मनुष्य की शरीर क्रियाओं के अध्ययन के लिए स्वयं पर भी प्रयोग किए हैं। ऐसे वैज्ञानिकों में ब्रिटिश वैज्ञानिक (जिन्होंने आगे चलकर भारत की नागरिकता ले ली थी) जे.बी.एस. हाल्डेन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। हाल्डेन ने कई खतरनाक प्रयोग स्वयं पर किए थे।

इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की ज़रूरत। इसके लिए ऐसे जीवों का चयन करना होता है जिनमें वह बीमारी या तो कुदरती रूप से होती हो या कृत्रिम रूप से पैदा की जा सके। इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुर्इं बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।

बड़े जंतुओं पर प्रयोग

बड़े जंतुओं पर प्रयोग कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं। छोटे जंतुओं (जैसे वायरस, बैक्टीरिया, फल-मक्खी, कृमि वगैरह) पर प्रयोग बुनियादी जीवन क्रियाओं के संदर्भ में उपयोगी होते हैं क्योंकि बुनियादी स्तर पर ये क्रियाएं लगभग एक समान होती हैं। किंतु यदि विशेष रूप से किसी बीमारी या ऐसे गुणधर्म का अध्ययन करना हो जो मनुष्यों के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है तो ऐसे जंतु का चयन करना होता है जिसे वह बीमारी होती हो या उस गुणधर्म विशेष के मामले में कुछ समानता हो। जैसे यदि आप दर्द की प्रक्रिया को समझना चाहते हैं तो जंतु ऐसा होना चाहिए जिसे दर्द होता हो। इस दृष्टि से बड़े जंतुओं पर प्रयोग महत्वपूर्ण हो जाते हैं।

उदाहरण के लिए एंतोन लेवॉज़िए ने गिनी पिग (एक किस्म का चूहा) पर प्रयोगों की मदद से ही यह स्पष्ट किया था कि श्वसन एक किस्म का नियंत्रित दहन ही है। इसी प्रकार से भेड़ों में एंथ्रेक्स का संक्रमण करके लुई पाश्चर ने रोगों का कीटाणु सिद्धांत विकसित किया था जो आधुनिक चिकित्सा की एक अहम बुनियाद है। जंतुओं पर प्रयोगों से ही पाचन क्रिया की समझ विकसित हुई थी और यह स्पष्ट हुआ था कि पाचन एक भौतिक नहीं बल्कि रासायनिक प्रक्रिया है।

जंतुओं पर प्रयोगों ने हमें मनुष्य की शरीर क्रियाओं को समझने में बहुत मदद की है। इसके अलावा संक्रामक रोगों को समझने व उनका उपचार करने की दिशा में भी जंतु प्रयोगों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जैसे 1940 में जोनास साल्क ने रीसस बंदरों पर प्रयोग किए थे और पोलियो के सबसे संक्रामक वायरस को अलग किया था जिसके आधार पर पहला पोलियो का टीका बनाया गया था। इसके बाद अल्बर्ट सेबिन ने विभिन्न जंतुओं पर प्रयोग करके इस टीके में सुधार किया और इसने दुनिया से पोलियो का सफाया करने में मदद की। इसी प्रकार से थॉमस हंट मॉर्गन ने फल-मक्खी ड्रोसोफिला पर प्रयोगों के माध्यम से यह स्पष्ट किया था कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुणों का हस्तांतरण करने वाले जीन्स गुणसूत्रों के माध्यम से फैलते हैं। आज भी फल-मक्खी भ्रूणीय विकास और आनुवंशिकी को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण मॉडल जंतु है।

माउस (Mus musculus) एक प्रकार का चूहा होता है और इस पर ढेरों प्रयोग किए जाते हैं। दरअसल विलियम कासल और एबी लेथ्रॉप ने माउस की एक विशेष किस्म विकसित की थी। तब से ही माउस कई जीव वैज्ञानिक खोजों के लिए मॉडल जंतु रहा है।

गिनी पिग (Cavia porcellus) एक और चूहा है जिसने वैज्ञानिक खोजों में योगदान दिया है। जैसे, उन्नीसवीं सदी के अंत में डिप्थेरिया विष को पृथक करके गिनी पिग में उसके असर को देखा गया था। इसी आधार पर प्रतिविष बनाया गया था। यह टीकाकरण की आधुनिक विधि के विकास का पहला कदम था।

कुत्तों पर किए गए शोध से पता चला था कि अग्न्याशय के स्राव का उपयोग करके कुत्तों में मधुमेह पर नियंत्रण किया जा सकता है। इसके आधार पर 1922 में इंसुलिन की खोज हुई और इसका उपयोग मनुष्यों में मधुमेह के उपचार में शुरू हुआ। गिनी पिग्स पर अनुसंधान से पता चला था कि लीथियम के लवण मिर्गी जैसे दौरे में असरकारक हैं। इसके परिणामस्वरूप बाईपोलर गड़बड़ी के इलाज में बिजली के झटकों का उपयोग बंद हुआ। निश्चेतकों का आविष्कार भी जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से ही संभव हुआ है और अंग प्रत्यारोपण की तकनीकों का विकास भी हुआ है।

जंतु का चयन

यह तो सही है कि विकास के ज़रिए सभी जंतु परस्पर सम्बंधित हैं और कई गुणधर्म साझा करते हैं। मगर कुछ जंतु मनुष्य के ज़्यादा करीब हैं। मनुष्य की शरीर क्रिया या रोगों को समझने के लिए ऐसे ही जंतुओं के साथ प्रयोग करने की ज़रूरत होती है। अध्ययनों से पता चला है कि हमारे सबसे करीबी जीव चिम्पैंज़ी हैं। मनुष्य और चिम्पैंज़ी के जीनोम में 98.4 प्रतिशत समानता है। शरीर क्रिया की दृष्टि से देखें तो चूहे जैसे कृंतक (कुतरने वाले जीव) भी हमसे बहुत अलग नहीं हैं। चिम्पैंज़ी पर प्रयोग करना काफी मुश्किल काम है। एक तो इनकी आबादी बहुत कम है, और ऊपर से इनका प्रजनन भी काफी धीमी गति से होता है और इन्हें पालना आसान नहीं है। और सबसे बड़ी बात है कि अधिकांश देशों में चिम्पैंज़ी तथा अन्य वानर प्रजातियों को सख्त कानूनी संरक्षण प्राप्त है। इसलिए चूहे, माउस, गिनी पिग वगैरह सबसे सुलभ मॉडल जीव बन गए हैं।

विकल्प

कई शोधकर्ताओं ने जंतु प्रयोगों की समीक्षाओं में बताया है कि पिछले कई वर्षों में नई-नई औषधियां खोजने के मसकद से किए गए जंतु प्रयोग निष्फल रहे हैं। जंतुओं पर प्रयोगों से प्राप्त जानकारी प्राय: मनुष्यों के संदर्भ में लागू नहीं हो पाती है। विकल्प के तौर पर कई सुझाव आए हैं और कई प्रयोगशालाओं में जंतु प्रयोगों को कम से कम करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। जैसे आजकल कंप्यूटरों की मदद से कई रसायनों के प्रभावों के बारे में काफी कुछ जाना जा सकता है। कोशिकाओं और प्रयोगशाला में निर्मित ऊतकों पर अध्ययन ने भी नए-नए मॉडल उपलब्ध कराएं। और इनके अलावा आजकल प्रयोगशालाओं में विकसित कृत्रिम अंगों का उपयोग भी किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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