कितना खाती है यह व्हेल?

ह तो अंदाज़ा था कि व्हेल जैसे विशाल प्राणी की भूख भी विशाल होगी। लेकिन कितनी विशाल? हाल ही में शोधकर्ताओं ने पता लगाया है कि बलीन व्हेल की खुराक अनुमान से तीन गुना अधिक है। इनके मुंह में कंघीनुमा छन्ना होता है, जिसे बलीन कहते हैं। यह समुद्र में तैरते हुए पानी के साथ अंदर आए अपने शिकार (छोटे-छोट क्रस्टेशियन जंतु और प्लवक) को छानकर ग्रहण करने में मदद करता है।

इस अध्ययन ने एक विरोधाभास को भी दूर कर दिया है। क्रस्टेशियन जंतुओं का जितनी मात्रा में ये व्हेल भक्षण करती हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि यदि व्हेल न हों तो इन नन्हें जंतुओं की आबादी बढ़ेगी। लेकिन वास्तव में शिकार के चलते समुद्रों में व्हेल की संख्या में गिरावट के बाद क्रस्टेशियन की संख्या में भी तेज़ गिरावट देखी गई है।

शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ये व्हेल समुद्र में पोषक तत्वो का संवहन भी करती हैं: वे समुद्र के पेंदे से भोजन ग्रहण करती हैं और ऊपरी सतह पर आकर अपशिष्ट उत्सर्जित करती हैं, जिससे समंदर में पोषक तत्वों का चक्रण होता रहता है। यह क्रस्टेशियन्स के लिए पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत होता है। इसलिए व्हेल के जाने पर क्रस्टेशियन्स को पोषण मिलना भी बंद हो गया।

युनिवर्सिटी ऑफ हॉपकिंस मरीन स्टेशन के पारिस्थितिकीविद मैथ्यू सावोका यह पता लगाना चाहते थे कि व्हेल के पेट में कितना प्लास्टिक चला जाता है? लेकिन पहले उन्हें एक अधिक बुनियादी सवाल का जवाब पता लगाना पड़ा: व्हेल की कुल खुराक कितनी है? क्योंकि अब तक इस सम्बंध में मोटे-मोटे अनुमान ही लगाए गए थे।

सवोका और उनके दल ने ड्रोन, इको-साउंडिंग उपकरण और सक्शन कप ट्रैकिंग डिवाइस की मदद से 321 व्हेल पर नज़र रखी। नौ वर्ष (2010-19) चले इस अध्ययन में उन्होंने अटलांटिक, प्रशांत और दक्षिणी महासागर की सात व्हेल प्रजातियों का भोजन सम्बंधी डैटा जुटाया। पूरी प्रक्रिया काफी कठिन थी।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित निष्कर्षों के अनुसार बलीन व्हेल अनुमान से तीन गुना अधिक भोजन गटकती हैं। उदाहरण के लिए, उत्तरी प्रशांत की ब्लू व्हेल एक दिन में औसतन 16 टन छोटे क्रस्टेशियंस खा जाती है – लगभग दो ट्रक भरकर। इसी प्रकार से, धनुषाकार सिर वाली व्हेल प्रतिदिन लगभग 6 टन जंतु-प्लवक खाती है। इस आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि बीसवीं सदी में बड़े पैमाने पर व्हेल का शिकार शुरू होने से पहले दक्षिणी महासागर की बलीन व्हेल प्रति वर्ष लगभग 43 करोड़ टन क्रस्टेशियन्स खा जाती थीं।

अध्ययन में विशेष रूप से यह भी देखा गया कि व्हेल अनुमान से अधिक लौह जैसे पोषक तत्वों का उत्पादन और मिश्रण करती हैं। परिणामस्वरूप समुद्री खाद्य शृंखला की बुनियाद – प्रकाश संश्लेषक प्लवक – की संख्या में वृद्धि होती है। जिसका अर्थ है व्हेल के लिए अधिक क्रस्टेशियन्स और शिकार के लिए अधिक मछलियां उपलब्ध होना। इसके अलावा प्रकाश संश्लेषण अधिक होने से वातावरण में से कार्बन डाईऑक्साइड भी अधिक अवशोषित होगी।

यह अध्ययन ध्यान दिलाता है कि व्हेल का शिकार महासागरों को प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों तरह से प्रभावित करता है और पारिस्थितिकी काफी पेचीदा मामला है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फफूंद की साजिश

दि आपको किसी ऊंची जगह पर छोटे, सफेद बीजाणुओं से घिरी मृत मक्खी दिखे तो समझ जाइए कि यहां मौत का जाल बिछा हुआ है। ऐसी मक्खी पर एक फफूंद (कवक) का हमला हुआ था जिसने मक्खी के मस्तिष्क पर काबू किया और मक्खी को किसी ऊंची जगह पर जाकर बैठकर मरने को मजबूर किया ताकि फफूंद अपने बीजाणुओं को बिखराकर अधिक से अधिक स्वस्थ मक्खियों को संक्रमित कर सके। इससे भी विचित्र बात यह है कि नर मक्खियां उस फफूंद संक्रमित मृत मादा मक्खी के साथ संभोग करने की कोशिश भी करती हैं।

अब, एक ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि यह फफूंद हवा में एक प्रेम-रस छोड़ती है जो मक्खियों को आकर्षित करके संक्रमण की संभावना बढ़ाता है।

पूर्व में कुछ शोधकर्ताओं ने नर घरेलू मक्खी को ऐसी मादा मक्खी के शव के साथ संभोग की कोशिश करते हुए देखा था, जो एंटोमोफथोरा म्यूसके नामक फफूंद के संक्रमण से मारी गईं थीं। लगता तो था कि इस तरह की कोशिश फफूंद को फैलने में मदद करती है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि क्या फफूंद नर मक्खियों को आकर्षित करने में कोई भूमिका निभाती है।

कोपेनहेगन युनिवर्सिटी के वैकासिक पारिस्थितिकीविद हेनरिक डी फाइन लिश्ट और एंड्रियास नौनड्रप हैनसेन ने जांच की कि क्या यह आकर्षण लैंगिक है और क्या फफूंद इसके लिए ज़िम्मेदार है।

इसके लिए उन्होंने मादा मक्खियों को फफूंद से संक्रमित किया और उनके मरने के ठीक बाद उन्हें एक-एक करके पेट्री डिश में रखा। और हर बार उन्होंने पेट्री डिश में एक स्वस्थ नर भी छोड़ा और देखा कि क्या नर मृत मादा के पास गया, कितनी देर मादा के नज़दीक रहा, और क्या उसने संभोग करने की कोशिश की? नियंत्रण के तौर पर उन्होंने एक अलग पेट्री डिश में असंक्रमित मादाएं रखीं जिन्हें ठंड से मारा गया था।

बायोआर्काइव्स में प्रकाशन-पूर्व नतीजों के अनुसार नर मक्खी ने स्वस्थ मादा की तुलना में संक्रमित मादा से संभोग करने की कोशिश पांच गुना अधिक की। नर का साधारण-सा संपर्क भी उसे संक्रमित करने के लिए पर्याप्त होता है हालांकि कभी-कभी ज़ोरदार संभोग बीजाणुओं का गुबार हवा में उड़ाता है।

इसके बाद, एक अन्य प्रयोग में शोधकर्ताओं ने स्वस्थ नर मक्खी के सामने दो मृत मादा मक्खी रखी – एक संक्रमित और दूसरी सामान्य। इस स्थिति में, नर ने अधिक बार संभोग की कोशिश की (बनिस्बत उस स्थिति के जब कोई मादा संक्रमित नहीं थी) लेकिन वे संक्रमित और असंक्रमित मादा में फर्क नहीं कर पाए। इस आधार पर नौनड्रप का अनुमान है कि फफूंद कोई रसायन छोड़ती है जो नर को संभोग के लिए उकसाता है।

अब शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या नर फफूंद के बीजाणुओं की ओर आकर्षित होते हैं? इसके लिए उन्होंने चार नर मक्खियों को एक छोटे प्रकोष्ठ में रखा। इस प्रकोष्ठ में दो अपारदर्शी पेट्री डिश थीं – एक में फफूंद के बीजाणुओं से सना कागज़ था और दूसरी में नहीं। प्रत्येक पेट्री डिश के ढक्कन में मक्खी के अंदर जाने के लिए एक छोटा सुराख था। 43 बार ऐसा हुआ कि चारों मक्खियां बीजाणु युक्त पेट्री डिश में गईं, जबकि चारों मक्खियां बीजाणु रहित पेट्री डिश में गई हों ऐसा मात्र 17 बार हुआ।

शोधकर्ताओं का अनुमान था कि नर मक्खी को फफूंद की तेज़ गंध आकर्षित करती है। अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने मक्खी के एंटीना के सिरे पर एक इलेक्ट्रोड लगाकर दर्शाया कि फफूंद की महक के झोके से मस्तिष्क में विद्युत प्रवाह शुरू हो जाता है।

यह जानने के लिए कि फफूंद कौन से रसायन छोड़ते हैं, शोधकर्ताओं ने मृत मक्खियों से कई रसायनों पृथक किए। उन्होंने पाया कि स्वस्थ मक्खियों की तुलना में संक्रमित मक्खियों में कहीं अधिक रसायन मौजूद थे, और इनमें से कई रसायनों की उपस्थिति और प्रचुरता इस बात पर निर्भर करती थी कि मक्खी कितने समय से संक्रमित है। पूर्व में यह देखा जा चुका है कि इनमें से कुछ रसायन, जिन्हें मिथाइल-शाखित एल्केन्स कहा जाता है, नर घरेलू मक्खी को यौन-उत्तेजित करने में भूमिका निभाते हैं। लेकिन शोधकर्ता फफूंद के ऐसे आकर्षक रसायन की पहचान नहीं कर पाए हैं। यदि इन्हें प्रयोगशाला में बनाया जा सका तो ये घरेलू मक्खियों को फंसा कर मारने में उपयोगी हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बार्नेकल्स चलते भी हैं!

बार्नेकल्स मज़बूती से चिपकने के लिए जाने जाते हैं। ये आम तौर पर चट्टानी तटों या नावों/जहाज़ों के पेंदे पर चिपके दिखते हैं। लंबे समय से ऐसा माना जाता रहा है कि बार्नेकल्स ज़रा भी नहीं चलते, एक ही जगह स्थिर रहते हैं। लेकिन एक नए अध्ययन में इस बात की पुष्टि हुई है कि बार्नेकल्स की कम से कम एक प्रजाति, जो समुद्री कछुए की पीठ पर रहती है, वह कछुए की पीठ पर उस स्थान की ओर थोड़ा सरकते हैं जहां से से भोजन आसानी से पकड़ सकें।

चेलोनिबिया टेस्टुडिनेरिया मुख्यत: समुद्री कछुओं की पीठ पर रहते हैं, और कभी-कभी अन्य समुद्री जीवों जैसे मैनेट और केकड़ों की पीठ पर भी सवारी करते हैं। जब ये लार्वा अवस्था में होते हैं तो स्वतंत्र रूप से तैरते रहते हैं। लेकिन वयस्क होने पर ये किसी सतह पर चिपक जाते हैं, और माना जाता था कि आजीवन चिपके रहते हैं। लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में शोधकर्ताओं ने देखा कि कई महीनों की अवधि में सी. टेस्टुडिनेरिया बार्नेकल जंगली समुद्री हरे कछुओं की पीठ पर अपनी जगह से खिसकते हैं, और अक्सर धारा के विपरीत सरकते हैं।

2017 में, अन्य वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में ऐक्रेलिक सतह पर 15 बार्नेकल के सरकने की गति पर नज़र रखी। एक साल के अवलोकन में उन्होंने पाया कि बार्नेकल अपनी पकड़ बनाने वाली सीमेंट ग्रंथि से स्राव के बढ़ते स्राव के माध्यम से स्थान परिवर्तन करते हैं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी में प्रकाशित नतीजों के अनुसार शोधकर्ताओं का अनुमान है कि बार्नेकल भोजन के लिए खिसकते हैं, क्योंकि वे उस तरफ आगे बढ़े जहां जल प्रवाह अधिक था। गौरतलब है कि बार्नेकल छन्ना विधि से भोजन प्राप्त करते हैं, इसलिए इन्हें वहीं ज़्यादा भोजन मिलने की संभावना होती है जहां पानी का बहाव अधिक हो।

प्रयोग के दौरान बार्नेकल बहुत धीमे और बहुत कम दूरी तक खिसके थे – उन्होंने 3 महीनों में औसतन 7 मिलीमीटर दूरी तय की, सिर्फ एक बार्नेकल साल भर में 8 सेंटीमीटर आगे सरका। लेकिन वैज्ञानिकों का कहना है कि स्थिर माने जाने वाले जीवों में इतनी गति देखा जाना भी एक उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

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कीटों में सबसे लंबी जीभ वाली प्रजाति मिली

शोधकर्ताओं ने मेडागास्कर द्वीप पर पंतगे की एक नई प्रजाति का विवरण दिया है जिसकी जीभ अब तक देखे गए किसी भी पतंगे से अधिक लंबी है। इस पतंगे का नाम ज़ेंथोपन प्रैडिक्टा है और यह आर्किड के बहुत लंबे और संकरे फूलों से मकरंद चूसता है।

इस पतंगे का इतिहास बड़ा दिलचस्प है। चार्ल्स डार्विन ने इस तरह के जीव के अस्तित्व की भविष्यवाणी तब कर दी थी जब उन्होंने पहली बार एंग्रैकम सेस्क्विपेडेल नामक ऑर्किड का डील-डौल देखा था (जिसे देखकर उनके मुंह से निकला था, “अरे! कौन सा कीट इससे मकरंद चूस सकता है?”)। इसके लगभग 2 दशक बाद, 1903 में, वास्तव में ऐसा पतंगा मिला था। लेकिन तब से ही इसे एक्स. मॉरगेनी नामक प्रजाति की उप-प्रजाति ही माना जाता रहा है, जो मुख्य द्वीप पर पाया जाता है। लेकिन अब नहीं।

कई आकारिकीय और आनुवंशिक परीक्षणों के आधार पर वैज्ञानिकों का तर्क है कि पतंगे का यह संस्करण मुख्य भूभाग की प्रजाति (एक्स. मॉरगेनी) से बहुत अलग है और इसे एक स्वतंत्र प्रजाति का दर्जा मिलना चाहिए।

जंगली पतंगों और संग्रहालय में सहेजे गए नमूनों की डीएनए बारकोडिंग करते हुए शोधकर्ताओं ने पाया कि दोनों तरह के पतंगों के मुख्य जीन अनुक्रम में 7.8 प्रतिशत फर्क है। इस फर्क के चलते, मॉरगेनी पतंगे प्रेडिक्टा की अपेक्षा अन्य मुख्य द्वीप उप-प्रजातियों के अधिक निकट हैं। डीएनए बारकोडिंग जीवों में अंतर पहचानने की तकनीक है।

लेकिन जीभ के मामले में प्रेडिक्टा पतंगे बाज़ी मार लेते हैं। ज़ेंथोपन प्रेडिक्टा की सूंड औसतन 6.6 सेंटीमीटर लंबी पाई गई है। शोधकर्ताओं को प्रेडिक्टा का एक ऐसा सहेजा गया नमूना भी मिला है, जिसकी सूंड पूरी तरह फैलाने पर 28.5 सेंटीमीटर लंबी थी। यह किसी पंतगे में देखी गई सबसे लंबी जीभ है। (स्रोत फीचर्स)

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एक मछली में नर गर्भधारण करता है

नाम है सीहॉर्स यानी समुद्री घोड़ा लेकिन है मछली। अन्य विशेषताओं के अलावा यह स्तनधारियों का एकमात्र समूह है जिसमें नर गर्भधारण करता है और बच्चों को जन्म भी देता है। ताज़ा अनुसंधान से पता चला है कि नर समुद्री घोड़े में जो संतान थैली होती है वह दरअसल गर्भनाल (आंवल) का काम करती है। इस संतान थैली में एक समय पर 100 शिशु समुद्री घोड़े पाए जा सकते हैं।

इस अनुसंधान का नेतृत्व सिडनी विश्वविद्यालय की वैकासिक जीव विज्ञानी कैमिला विटिंगटन ने किया। उनका शोध दल यह समझना चाहता था कि जब शिशु इस संतान थैली में होते हैं तो उन्हें पोषण कहां से और कैसे प्राप्त होता है। इस बात की संभावना तो काफी समय पहले जताई गई थी कि यह संतान थैली आंवल के समान काम करती है। प्रमाण अब मिला है।

नर समुद्री घोड़ा पितृत्व की ओर अपना पहला कदम मादा के आसपास नृत्य से शुरू करता है जिसमें नर और मादा अपनी पूंछों को जोड़ते हैं, रंग बदलते हैं और एक सहारे को पकड़कर चक्कर लगाते हैं। इसके बाद मादा का अंडोत्सर्ग अंग नर की थैली के सुराख की सीध में आ जाता है और मादा अपने अंडे नर की थैली में जमा कर देती है। इतना हो जाने के बाद नर थोड़ा हिल-डुलकर अंडों को व्यवस्थित कर लेता है। लगभग 6 सप्ताह बाद नर प्रसव पीड़ा से गुज़रता है और सैकड़ों शिशुओं को पानी में धकेल देता है। बड़े होने पर वे अपने रास्ते चले जाते हैं और नर चंद घंटों में फिर से गर्भधारण के लिए तैयार हो जाता है।

लेकिन सवाल तो यह था कि इन विकसित होते शिशुओं को पोषण और ऑक्सीजन कहां से मिलती है। इसे समझने के लिए विटिंगटन के दल ने सीहॉर्स हिप्पोकैम्पस एब्डोम्नेलिस की संतान थैली का अध्ययन 34 दिन की गर्भावस्था के दौरान समय-समय पर किया। उन्होंने देखा कि जैसे-जैसे भ्रूण बड़े होते जाते हैं, संतान थैली की दीवार पतली होती जाती है और उसमें असंख्य रक्त वाहिनियां निकलने लगती हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसा स्तनधारियों की आंवल में होता है। गर्भावस्था के अंतिम दौर में तो संतान थैली अत्यंत पतली हो गई थी और उसकी अंदरुनी सतह पर खूब सिलवटें बन गई थीं। इसकी वजह से अंदरुनी सतह का क्षेत्रफल खूब बढ़ गया। प्रसव के 24 घंटे के अंदर यह थैली अपनी पूर्व अवस्था में आ गई।

शोधकर्ताओं का कहना है कि स्तनधारियों की आंवल और यह संतान थैली एक-सी भूमिका अदा करते हैं लेकिन ये रचनाएं सर्वथा अलग-अलग ऊतकों से निर्मित होती हैं। इस मायने में यह अभिसारी विकास का एक उम्दा उदाहरण है – एक ही समस्या के लिए एकदम अलग-अलग ढंग से एक ही समाधान तक पहुंचना। जैसे चमगादड़ों और पक्षियों में उड़ने से सम्बंधित रचनाएं बिलकुल अलग-अलग ऊतकों से बनी होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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वैम्पायर चमगादड़ सहभोज करते हैं

क नए अध्ययन में पता चला है कि मादा वैम्पायर चमगादड़ रात का भोजन अपने साथियों के साथ करना पसंद करती हैं। इसके लिए वे रात को शिकार के दौरान एक विशेष ध्वनि निकालती हैं। लगता है कि इससे उनको रक्तभोज हासिल करने के दौरान समय और उर्जा बचाने में मदद मिलती है। यह वैम्पायर चमगादड़ों में आपसी सामाजिक सहयोग को समझने में मदद कर सकता है।

गौरतलब है कि वैम्पायर चमगादड़ बड़े-बड़े समूह में गुफाओं या खोखले पेड़ों में रहते हैं। समूह में मां-बेटी के जोड़े, युवा नर और अस्थायी नर होते हैं जो संभोग के लिए इन समूहों में शामिल होते हैं। ओहायो स्टेट युनिवर्सिटी के इकॉलॉजिस्ट गेराल्ड कार्टर बताते हैं कि चमगादड़ जीवों के व्यवहार का अध्ययन करने के लिए एक बेहतरीन मॉडल है। खास तौर से इसलिए कि ये छोटी और बंद जगहों में रहते हैं और अपने सम्बंधियों और असम्बंधित दोस्तों के साथ घनिष्ठ सम्बंध बनाते हैं।

कार्टर द्वारा पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि मादा वैम्पायर चमगादड़ जमघट जमाने के दौरान अपने सबसे अच्छे साथियों के साथ समय बिताती हैं। यहां तक कि दोनों अपने मुंह का भोजन एक-दूसरे को देते हैं। इन सम्बंधों का अध्ययन करने के लिए कार्टर ने स्मिथसोनियन ट्रॉपिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट के शोधकर्ता साइमन रिपरगर द्वारा तैयार किए गए सेंसर की सहायता से चमगादड़ों की निगरानी की ताकि यह पता लगाया जा सके कि चमगादड़ एक-दूसरे से कितना करीब हैं।     

कार्टर की टीम ने टॉले, पनामा के एक खोखले पेड़ में रहने वाले 200 चमगादड़ों के समूह में से 50 मादा चमगादड़ों को पकड़ा। इनमें से 23 चमगादड़ों को पहले शोधकर्ता पकड़कर उनका अवलोकन कर चुके थे जबकि 27 पूरी तरह जंगली थे। चमगादड़ों पर बहुत ही सावधानी से सेंसर लगाए गए जो हर दो सेकंड में उनकी स्थिति का डैटा प्रसारित करते थे। इससे यह जानने में मदद मिली कि ये चमगादड़ कितना समय एक-दूसरे के साथ समय बिताते हैं। टीम ने भोजन तलाश के 586 मामले दर्ज किए।

प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित डैटा के अनुसार चमगादड़ आम तौर पर भोजन की तलाश में अपना बसेरा अलग-अलग समय पर छोड़ते हैं, भोजन के लिए वे एक साथ मिलते हैं और फिर अलग-अलग रास्ते पर निकल जाते हैं। पूर्व में शोधकर्ताओं का मानना था कि यदि वे मिलकर भोजन की तलाश कर रहे हैं तो वापस भी एक साथ ही आएंगे। लेकिन देखा गया कि भोजन की तलाश में निकलने और अपने पसंदीदा साथियों की तलाश करने की प्रक्रिया काफी जटिल है जिसके लिए उच्च स्तर के सामाजिक सहयोग की आवश्यकता होती है।

इसके बाद टीम ने चमगादड़ों के रक्त के पसंदीदा स्रोत ‘पशुओं के झुंड’ पर रात के समय अध्ययन किया। इन्फ्रारेड कैमरा और माइक्रोफोन की मदद से रिपरगर द्वारा बनाए गए विडियोज़ में चमगादड़ों के आपसी संपर्क के 14 मामले देखने को मिले। इन अवलोकनों को सेंसर द्वारा प्राप्त डैटा के साथ देखने पर महत्वपूर्ण परिणाम सामने आए। इससे यह जानने में मदद मिली कि जब चमगादड़ एक साथ होते हैं तो क्या करते हैं।

रिपरगर ने जाने-माने सामाजिक कॉल और भोजन के लिए विशिष्ट आवाज़ भी रिकॉर्ड की जो पहले नहीं सुनी गई थी। ऐसा लगता है कि ये ध्वनियां चमगादड़ों को अपनी कॉलोनियों को छोड़ने के बाद एक-दूसरे की पहचान करने में मदद करती हैं और यहां तक कि भोजन के लिए संकेत देने में मदद करती हैं। सामाजिक सहयोग में इन ध्वनियों की भूमिका और गहन अध्ययन से ही स्पष्ट हो पाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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गिद्धों पर नया खतरा

कुछ वर्षों पहले गिद्धों पर एक संकट आया था और गिद्धों की आबादी तेज़ी से घटी थी। 1990 के दशक में यह एक सामान्य अवलोकन था कि भारत में करोड़ों गिद्ध थे। इनके चलते जानवरों के शव तत्काल ठिकाने लग जाते थे। फिर अचानक गिद्धों की आबादी घटने लगी और काफी शोध के बाद पता चला था कि इसका कारण डिक्लोफेनेक नामक एक दवा थी। यह दवा पशुओं को दर्द निवारक के तौर पर दी जाती थी और इसके अवशेष इन पशुओं में जमा हो जाते थे। पशुओं के शव खाने पर डिक्लोफेनेक गिद्धों के शरीर में पहुंच जाती थी और उनके गुर्दों को नष्ट कर देती थी।

इस समस्या के मद्देनज़र भारत में 2006 में डिक्लोफेनेक के पशुओं में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कई देशों ने भारत का अनुसरण किया था। इससे परिस्थिति में थोड़ा ठहराव तो आया लेकिन नुकसान तो हो ही चुका था – देश के लगभग 90 प्रतिशत गिद्ध मारे जा चुके थे। अब दो ताज़ा अध्ययनों ने एक नए खतरे की ओर इशारा किया है। इन अध्ययनों का निष्कर्ष है कि गिद्धों की मौत निमेसुलाइड खाने से भी हो सकती है। निमेसुलाइड भी एक लोकप्रिय दर्द निवारक दवा है।

पर्यावरण समूह अब कोशिश कर रहे हैं कि सराकर निमेसुलाइड के पशुओं में उपयोग पर प्रतिबंध लगा दे। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के उप निदेशक विभु प्रकाश के अनुसार निमेसुलाइड का घातक प्रभाव चिंताजनक है। चिंता की बात यह भी है कि कई सारी दर्द निवारक दवाइयां गिद्धों के लिए जानलेवा पाई गई हैं। जैसे एसिक्लोफेनेक और कीटोप्रोफेन जैसी दवाइयां घातक साबित हो चुकी हैं और कई देशों में प्रतिबंधित हैं। लेकिन ज़्यादा चिंताजनक बात यह है कि ये प्रतिबंध सिर्फ पशुओं में इनके उपयोग पर लगाए गए हैं और बाज़ार में दवाइयां मिलती रहती हैं।

निमेसुलाइड के विरुद्ध कार्रवाई की मांग सबसे पहले 2016 में उठी थी जब कई गिद्धों के शवों में यह दवा पाई गई थी। यह चिंता तब गहरा गई जब सलीम अली सेंटर फॉर ऑर्निथोलॉजी एंड नेचुरल हिस्ट्री के सुब्रामण्यन मुरलीधरन की रिपोर्ट एन्वायरमेंटल साइन्स एंड पॉल्यूशन रिपोट्स में प्रकाशित हुई।

अब पर्यावरणविद अन्य दर्द निवारक दवाइयों की पैरवी कर रहे हैं। एक है टॉलफेनेमिक एसिड जो पशुओं में उपयोग की जाती है और एक रिपोर्ट के अनुसार यह गिद्धों के लिए सुरक्षित है। इसी प्रकार से, मेलोक्सीकैन भी सुरक्षित पाई गई है। (स्रोत फीचर्स)

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सार्स जैसे वायरस बार-बार आते हैं

पिछले दो दशकों में वैश्विक स्तर पर मात्र दो नए कोरोनावायरस उभरे हैं: सार्स-कोव (2003 में सार्स) और दूसरा सार्स-कोव-2 (कोविड-19)। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शायद ये चमगादड़ों से छलकने वाले ऐसे ही वायरसों की एक तुच्छ बानगी भर हैं। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि हर वर्ष लगभग 4 लाख लोग सार्स सम्बंधी कोरोनावायरस से प्रभावित होते हैं जो किसी बड़ी बीमारी का रूप नहीं लेते हैं। इस परिणाम को लेकर काफी अगर-मगर हैं लेकिन इसे एक चेतावनी के रूप में लेना चाहिए क्योंकि इससे पता चलता है कि जंतु-जनित संक्रमण काफी आम हो सकते हैं।        

अध्ययन में इकोहेल्थ अलायन्स के पीटर डज़ाक और एनयूएस मेडिकल कॉलेज, सिंगापुर के शोधकर्ता लिन्फा वांग और अन्य ने सार्स सम्बंधी कोरोनावायरस की वाहक 23 चमगादड़ प्रजातियों के आवासों का एक विस्तृत नक्शा तैयार किया। फिर उन्होंने इस मानचित्र पर उन स्थानों को चिंहित किया जहां मनुष्य भी बसे हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि लगभग 50 करोड़ लोग ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जहां भविष्य में कोरोनावायरस चमगादड़ों से छलककर मनुष्यों में आ सकते हैं। 

इस नक्शे की मदद से सार्स या कोविड वायरस के उभरने की संभावना देखकर भावी प्रकोप को रोकने के उपाय किए जा सकते हैं। और तो और, इसकी मदद से वायरस की उत्पत्ति के स्रोत का भी पता लगाने में मदद मिल सकती है।

शोधकर्ता एक कदम और आगे गए। कोविड-19 उभरने से पहले किए गए कुछ सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई थी कि दक्षिण एशिया के कुछ लोगों में सार्स-सम्बंधित कोरोनावायरस की एंटीबॉडीज़ मौजूद थीं। लोगों के चमगादड़ों के संपर्क में आने की संभावना और रक्त में एंटीबॉडी कितने समय तक बनी रहती हैं, इनके मिले-जुले विश्लेषण के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि हर वर्ष लगभग 4 लाख लोग सार्सनुमा वायरस से संक्रमित होते हैं।

डज़ाक के अनुसार चमगादड़ों से हमारा संपर्क कल्पना से कहीं अधिक है। गुफाओं के आसपास रहने का मतलब है कि आप वायरस के निरंतर संपर्क में हैं। लोग गुआनो खाद निकालते हैं, चमगादड़ों का शिकार करते हैं और उनको खाते हैं। वैसे इस अध्ययन में  वन्यजीव व्यापार और अन्य जीवों के ज़रिए चमगादड़ से मनुष्यों में वायरस के प्रवेश करने की संभावना पर तो चर्चा ही नहीं की गई है।

वैसे इन नतीजों पर शंकाएं भी व्यक्त की गई हैं। एक आपत्ति तो यह है कि इस अध्ययन के परिणामों की वि·ासनीयता की रेंज बहुत अधिक है: 1 से लेकर 3.5 करोड़ अदृश्य संक्रमण प्रति वर्ष। इसके अलावा, एंटीबॉडी से प्राप्त डैटा चंद हज़ार लोगों का था और इसमें फाल्स पॉज़िटिव भी हो सकते हैं। 

कई संक्रमण इसलिए पता नहीं चलते क्योंकि वे अल्प-कालिक होते हैं और आगे नहीं फैलते। शायद ये वायरस व्यक्ति से व्यक्ति में संचरण के लिए पर्याप्त कोशिकाओं को संक्रमित नहीं कर पाते हों या ये मनुष्यों की प्रतिरक्षा को मात देने में सक्षम न हों। ये थोड़े-से लोगों को ही संक्रमित कर पाते हैं।  

एक कारण यह भी हो सकता है कि इन वायरसों से होने वाली बीमारियां पहचानी न गई हों। वैसे भी हल्के-मध्यम लक्षणों के चलते लोग शायद ही  अस्पताल जाएं। फिर भी यह अध्ययन भविष्य में वायरस के फैलने के जोखिमों को चिंहित करने की दिशा में छोटा मगर अच्छा प्रयास है। इस अध्ययन से एक बात तो साफ है कि जीवों से मनुष्यों में वायरस के छलकने-फैलने की घटनाएं जितनी मानी जाती थीं उससे कहीं अधिक होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विष्ठा प्रत्यारोपण से चूहों का दिल जवान होता है

ह तो जानी-मानी बात है कि बुढ़ापे के साथ दिमाग धीमा होने लगता है, आप भूलने लगते हैं और नए हुनर सीखने में परेशानी महसूस करते हैं। लेकिन अब चूहों पर किए गए प्रयोगों ने उम्मीद की एक धुंधली सी किरण दिखाई है। इस शोध ने दर्शाया है कि युवा चूहे के आमत के बैक्टीरिया (मल के रूप में) बूढ़े चूहों को देने पर बुढ़ाते दिमाग के कुछ लक्षण पलटे जा सकते हैं।

वैज्ञानिकों का मत है कि हमारी आंत में बसने वाले बैक्टीरिया हमारे मूड से लेकर आम तंदुरुस्ती तक हर चीज़ को प्रभावित करते हैं। और आंतों का यह सूक्ष्मजीव संसार उम्र के साथ बदलता रहता है। लेकिन इसका असर भलीभांति परखा नहीं गया था।

इसी असर को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने 3-4 माह के चूहों की विष्ठा के नमूने लिए (3-4 माह चूहों की जवानी होती है) और इन्हें 20 माह उम्र के चूहों में प्रत्यारोपित कर दिया (20 माह के चूहे वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में आते हैं)। तुलना के लिए कुछ चूहों को उनकी ही उम्र के चूहों की विष्ठा दी गई थी (यानी युवाओं को युवाओं की तथा बूढ़ों को बूढ़ों की)।

शोधकर्ताओं ने सबसे पहले तो यह देखा कि युवा चूहों का सूक्ष्मजीव संसार पाने वाले बूढ़े चूहों का सूक्ष्मजीव संसार युवाओं के समान हो गया था। उदाहरण के लिए युवाओं की आंत में बहुतायत से पाए जाने वाले एंटरोकॉकस बैक्टीरिया बूढ़ो में भी प्रचुर हो गए।

और तो और, दिमाग पर भी असर देखा गया। दिमाग का हिप्पोकैम्पस नामक हिस्सा सीखने तथा याददाश्त से सम्बंधित होता है। युवा विष्ठा पाने के बाद बूढ़े चूहों में भी यह हिस्सा भौतिक व रासायनिक रूप से युवा चूहों जैसा हो गया। यह भी देखा गया कि युवा विष्ठा पाए बूढ़े चूहे भूलभुलैया वाली पहेलियां सुलझाने में भी बेहतर हो गए और भूलभुलैया के रास्तों को याद रखने में भी निपुण साबित हुए। युनिवर्सिटी कॉलेज कॉर्क के तंत्रिका वैज्ञानिक जॉन क्रायन और उनके साथियों द्वारा नेचर एजिंग नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित परिणामों के मुताबिक हमउम्र चूहों की विष्ठा के ऐसे कोई असर नहीं हुए।

शोधकर्ताओं ने बताया है कि कुछ चीज़ें नहीं बदलीं। जैसे इस उपचार के बाद बूढ़े चूहे ज़्यादा मिलनसार नहीं हुए थे। आंतों के कई बैक्टीरिया वैसे के वैसे बने रहे। वैसे अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इस टीम ने अभी प्रामाणिक रूप से यह नहीं दर्शाया है कि आंतों का सूक्ष्मजीव संसार किस हद तक बदला और क्या स्थायी रूप से बदल गया। वैसे क्रायन ने चेताया है अभी तुरंत मनुष्यों पर छलांग लगाने का वक्त नहीं आया है क्योंकि ऐसे अन्य अध्ययनों के परिणाम मिश्रित रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर आपसी युद्ध में चेहरे पर काटते थे

ब जीव अपने लिए प्रणय-साथी, अधिकार क्षेत्र या स्थान के लिए एक-दूसरे से लड़ते हैं, तो नज़ारा दर्शनीय व डरावना होता है। हाल ही में वैज्ञानिकों को इस बात के सबूत मिले हैं कि टायरेनोसॉरस रेक्स जैसे डायनासौर भी ऐसा ही करते थे, और इस लड़ाई में वे एक-दूसरे के चेहरे पर काटते थे।

शोधकर्ताओं ने विभिन्न तरह के डायनासौर (थेरापॉड) की 528 जीवाश्मित खोपड़ियों का विश्लेषण किया। इनमें से 122 खोपड़ियों पर उन्हें काटने के गहरे निशान और ठीक हो चुके घावों के निशान मिले। ये निशान लगभग 60 प्रतिशत वयस्क डायनासौर में दिखाई दिए, लेकिन किसी भी कम उम्र डायनासौर में नहीं दिखे। पैलियोबायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि इससे पता चलता है कि डायनासौर एक-दूसरे को तभी काटते थे जब वे किशोरावस्था पार कर जाते थे (यानी यौन परिपक्वता पर पहुंच जाते थे)। लगभग इसी समय वे अपने लिए प्रणय-साथियों की तलाश में होते थे या अपना सामाजिक प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिश कर रहे होते थे।

काटने के निशान की जगह से पता चलता है कि लड़ाई में डायनासौर अधिकतर प्रतिद्वंदी को थोड़ा बाजू से काटते थे, जिसमें दोनों डायनासौर थोड़ा सिर झुकाकर अपने प्रतिद्वंद्वी की खोपड़ी या निचला जबड़ा दबोचते थे।

शोधकर्ताओं ने उन छोटे आकार के डायनासौर की खोपड़ी की भी जांच की, जिनसे आज के सभी पक्षी विकसित हुए हैं। लेकिन इनमें से किसी भी डायनासौर के चेहरे पर काटने के निशान नहीं थे। इससे लगता है कि अपने वंशज पक्षियों की तरह इन डायनासौर ने भी मादाओं के लिए हिंसक तरीके से लड़ना बंद कर दिया था, और इसकी बजाय वे मादाओं को अपने चमकदार पंखों से लुभाने लगे थे। (स्रोत फीचर्स)

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