पृथ्वी पर कुल कितनी चींटियां हैं?

चींटियों को गिनना रात में तारे गिनने जैसा काम है। लेकिन छह शोधकर्ताओं ने यह काम कर दिखाया है। और उनके आंकड़ों के मुताबिक पूरी पृथ्वी पर तकरीबन 20 क्वाड्रिलियन (20,000,000,000,000,000) चींटियां हैं। अधिकांश लोगों के लिए यह संख्या कल्पना से परे होगी लेकिन हिंदी में कहें तो 1 क्वाड्रिलियन का मतलब होता है 1 करोड़ शंख या 1 पद्म (नाम तो सुना ही होगा)। इतनी चींटियों का बायोमास 1.2 करोड़ टन के करीब है। यह सभी जंगली पक्षियों और स्तनधारियों के मिले-जुले वज़न से अधिक है। इस संख्या का मतलब यह भी है कि पृथ्वी पर हर मनुष्य के लिए 25 लाख चींटियां हैं।

चींटियां हमारे पारिस्थितिक तंत्र की महत्वपूर्ण इंजीनियर हैं। वे मिट्टी को यहां-वहां करती हैं, बीजों को फैलाती हैं, जैविक पदार्थों का पुनर्चक्रण (री-सायकल) करती हैं। दुनिया भर में चींटियां किस तरह से फैली हैं यह समझने के लिए कुछ शोध हुए हैं, लेकिन पृथ्वी पर कुल कितनी चीटियां रहती हैं इसका कोई ठीक-ठीक अनुमान नहीं था।

इसलिए शोधकर्ताओं ने विभिन्न भाषाओं में उपलब्ध तकरीबन 12,000 रिपोर्ट्स को खंगाला (इनमें बल्गेरियाई और इन्डोनेशियाई जैसी भाषाएं भी शामिल थीं)। इसमें से उन्होंने उन 489 अध्ययनों का डैटा लिया जो चींटियों को इकट्ठा करके गिनने के गहन तरीकों पर केन्द्रित थे।

विश्लेषण के उपरांत शोधकर्ता आश्चर्यचकित रह गए कि चींटियां उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में सर्वाधिक संख्या में रहती हैं। खास तौर से सवाना और नमी वाले जंगलों में इनकी बहुलता थी।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि ये अनुमान पूर्व में लगाए गए अनुमानों से दो से 20 गुना अधिक है। और इस अनुमान के सटीक होने की संभावना अधिक है, क्योंकि इसकी गणना दुनिया भर में पकड़ी गई चींटियों की वास्तविक संख्या के आधार पर की गई है। इसके पूर्व के अनुमान इस मान्यता के आधार पर लगाए गए थे कि पृथ्वी पर चीटियों की संख्या कुल कीटों की एक प्रतिशत है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इस अध्ययन की एक सीमा यह रही कि उनके पास हर जगह का समान रूप से वितरित डैटा नहीं था। अधिकतर डैटा भूमि की ऊपरी सतह का डैटा था; पेड़-पौधों पर बसने वाली, और ज़मीन में गहराई पर रहने वाली चीटियों का डैटा कम था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जबड़े ने सुलझाई गिबन की गुत्थी

गिबन छोटे शरीर और लंबी बाहों वाले, पेड़ों पर छलांग लगाने वाले कपि हैं जो उत्तरपूर्वी भारत, पूर्वी  बांग्लादेश और दक्षिणपूर्वी चीन से लेकर इण्डोनेशिया के कई द्वीपों में पाए जाते हैं। लेकिन इनके उद्विकास की कहानी को समझना वैज्ञानिकों के लिए मुश्किल रहा है। अब, दक्षिण-पश्चिमी चीन के एक गांव के पास मिले एक जीवाश्म से बात कुछ पकड़ में आई है। इस जीवाश्म में ऊपरी जबड़े का हिस्सा और सात अलग-अलग दांत हैं। इससे इस पूर्व निष्कर्ष की पुष्टि हुई है कि सबसे पहले ज्ञात गिबन लगभग 70 से 80 लाख साल पहले इस इलाके में रहते थे।

चीन के कुनमिंग नेचुरल हिस्ट्री म्यूज़ियम ऑफ ज़ुऑलॉजी के पुरा-मानवविज्ञानी ज़्युपिंग जी और उनके साथियों का कहना है कि यह जीवाश्म और इस क्षेत्र व इसके पास के क्षेत्र से मिले 14 दांत युआनमोपिथेकस शाओयुआन नामक एक प्राचीन हाइलोबैटिड प्रजाति के हैं। हाइलोबैटिड्स कपियों का एक कुल है जिसमें वर्तमान गिबन्स की लगभग 20 प्रजातियां और पूर्वोत्तर भारत से इण्डोनेशिया तक के उष्णकटिबंधीय जंगलों में पाए जाने वाले सियामांग गिबन शामिल हैं।

2006 में वाई. शाओयुआन के बारे में पता चलने के बाद जी और उनके दल का मानना था कि यह एक प्राचीन गिबन है। लेकिन इसकी पुष्टि के लिए अतिरिक्त जीवाश्मों की आवश्यकता थी।

लगभग एक दशक पूर्व एक स्थानीय निवासी को वाई. शाओयुआन का ऊपरी जबड़े का हिस्सा मिला था। इस जबड़े में चार दांत और दाढ़ का कुछ हिस्सा था। इसकी मदद से शोधकर्ता यह समझ सके थे कि यह एक शिशु गिबन का जबड़ा है जो 2 वर्ष की उम्र के पूर्व ही मर गया था।

आधुनिक कपियों और प्राचीन प्राइमेट्स के जीवाश्मों की तुलना करने पर पाया गया कि वाई. शाओयुआन सबसे प्राचीन ज्ञात गिबन है। ये नतीजे दो साल पूर्व की एक रिपोर्ट को झुठलाते हैं जो कहती है कि उत्तरी भारत में हाइलोबैडिट कुल की लगभग 1.3 करोड़ वर्ष पुरानी दाढ़ मिली थी। शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में मिला जीवाश्म कैपी रगनेगेरेंसिस प्रजाति का है जो दक्षिण एशियाई प्राइमेट्स के विलुप्त हो चुके समूह का है, और वह वर्तमान कपियों का करीबी सम्बंधी नहीं था।

वर्तमान प्राइमेट्स के पूर्व में किए गए डीएनए विश्लेषण से पता चलता है कि हाइलोबैटिड्स अफ्रीका में अन्य कपियों से लगभग 2.2 करोड़ से 1.7 करोड़ वर्ष पूर्व अलग हो गए थे। लेकिन यह अभी एक रहस्य ही है गिबन के पूर्वज युरेशिया कब पहुंचे। एशिया में वाई. शाओयुआन के साक्ष्य मिलने और अफ्रीका या उसके आसपास के क्षेत्रों में हाइलोबैडिट्स की उत्पत्ति के बीच लगभग एक करोड़ वर्ष का अंतर है।

आनुवंशिक साक्ष्य यह भी इंगित करते हैं कि वर्तमान गिबन प्रजातियों के साझा पूर्वज लगभग 80 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी पर रहते थे, इसी समय वाई. शाओयुआन भी पृथ्वी पर निवास करते थे। तो हो सकता है कि इसके बाद के सभी गिबन्स के पूर्वज वाई. शाओयुआन हों, या यह भी हो सकता है कि आधुनिक गिबन के पूर्वज और वाई. शाओयुआन निकट सम्बंधी हों।

जर्नल ऑफ ह्यूमन इवॉल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि दांत की चबाने वाली सतह पर बने उभार और गढ्डों के निशान और दांतों व जबड़े की अन्य विशेषताएं काफी हद तक वर्तमान गिबन की तरह हैं। इसके अलावा वाई. शाओयुआन के अश्मीभूत दांत की कुछ विशेषताएं आधुनिक गिबन के दांतों की विशेषताओं की पूर्ववर्ती लगती हैं।

दाढ़ के आकार के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि वाई. शाओयुआन का वज़न लगभग छह किलोग्राम था, यह भी आधुनिक गिबन्स के समान है। इनके दाढ़ की संरचना इंगित करती है कि यह भी वर्तमान गिबन की तरह मुख्यत: फल खाता था।

बहरहाल के. रगनेगेरेंसिस के विकास की कहानी अभी अस्पष्ट ही है क्योंकि इसका केवल एक ही दांत मिला है, जिसके आधार पर पुख्ता तौर पर कुछ कहना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवजगत: कुछ लुका-छिपी बेहतर होती हैं

केकड़ों से लेकर इल्लियों तक कई सारे जीव अपने शिकारियों से बचने के लिए छद्मावरण (या छलावरण) की रणनीति अपनाते हैं। अब, एक नवीन अध्ययन में पाया गया है कि शिकारियों से इस लुका-छिपी में कुछ छद्मावरण अधिक प्रभावी होते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ कैंपिनास के व्यवहार और संवेदना पारिस्थितिकीविद जोआओ विटोर डी अलकैंतारा वियाना विभिन्न छद्मावरण रणनीतियों की तुलना करना चाह रहे थे। लेकिन इस विषय पर बहुत साहित्य उपलब्ध नहीं था। इसलिए उन्होंने और उनके दल ने वर्ष 1900 से लेकर जुलाई 2022 तक इस विषय पर प्रकाशित वैज्ञानिक शोधपत्रों को तलाशा। शोधकर्ताओं ने इनमें से 84 ऐसे अध्ययनों को चुना जिनमें कम से कम एक छद्मावरण रणनीति की बात की गई थी और यह देखा गया था कि शिकारी को छद्मावरणधारी शिकार को खोजने में कितना समय लगा, या छद्मावरणधारी शिकार पर शिकारियों ने कितनी बार हमला किया। टीम ने अपना विश्लेषण उन अध्ययनों तक सीमित रखा जिनमें छद्मावरणधारी शिकार की तुलना गैर-छद्मावरणधारी शिकार से की गई थी। ऐसे गैर-छद्मावरणधारी शिकार कृत्रिम थे।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने शिकार और शिकारियों के प्रकार और विभिन्न तरह की छद्मावरण रणनीतियों के आधार पर समूह बनाए। मसलन, किसी शिकार जीव के शरीर का रंग या पैटर्न पृष्ठभूमि से मेल खाए, या वह किसी ऐसी चीज़ जैसा नज़र आए जिसमें शिकारी की कोई रुचि न हो (जैसे किसी टहनी, या पत्ते, पक्षी की बीट या किसी मकड़ी की छोड़ी हुई त्वचा जैसा दिखना)। इस दूसरी रणनीति को स्वांग रचना कहा जाता है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में शोधकर्ता बताते हैं कि छद्मावरण आम तौर पर शिकारियों के लिए अपने शिकार को ढूंढना मुश्किल बना देता है। इससे शिकारी द्वारा शिकार को ढूंढने में लगा समय लगभग 62 प्रतिशत तक बढ़ जाता है, और शिकारी द्वारा हमले की संभावना 27 प्रतिशत तक कम हो जाती है।

लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि शिकार कैसा है। उदाहरण के लिए, छद्मावरण से इल्लियों को उनके पंखों वाले वयस्क रूप (तितली या पतंगा) की तुलना में अधिक लाभ मिलता है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि पतंगे और तितलियां उड़ सकती हैं और उनके पास अपने शिकारी से बचने के अन्य अनुकूलन हैं।

ब्रिमस्टोन मॉथ का टहनी जैसा दिखता कैटरपिलर

स्वांग रचने की रणनीति शिकार के शिकारी से बच निकलने में विशेष प्रभावी दिखी, इस रणनीति की मदद से शिकारी द्वारा शिकार खोजने के समय में लगभग 300 प्रतिशत की वृद्धि दिखी। इसका एक उम्दा उदाहरण है ब्रिमस्टोन मॉथ (ओपिस्टोग्रैप्टिस ल्यूटोलाटा) का कैटरपिलर, जो टहनी जैसा दिखता है। इस कैटरपिलर और मुर्गियों पर हुए एक अध्ययन में पता चला था कि यदि किसी मुर्गी का सामना हाल ही में किसी टहनी से हुआ हो तो उसे स्वांगधारी कैटरपिलर को ढूंढने में ज़्यादा समय लगता है।

लेकिन अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि इस पर बारीकी से पड़ताल की ज़रूरत है कि स्वांग सबसे प्रभावी रणनीति है। यदि वास्तव में यही बात है तो अन्य अड़चनों – जैसे आकार, सरकने या चलने की ज़रूरत – की जांच करके देखना दिलचस्प होगा क्योंकि सभी जीवों में यह रणनीति विकसित नहीं होती। शोधकर्ताओं का कहना है कि स्वांग रचने की रणनीति विकसित होने की संभावना उन जीवों में अधिक है जहां शिकार जीव और जिसकी उसे नकल करना है दोनों का आकार बराबर हो। यह रणनीति हमेशा कारगर नहीं होगी।

एक दिक्कत यह है कि विभिन्न अध्ययनों में नियंत्रण के तौर पर लिए गए गैर-छद्मावरणधारी जीव बहुत अलग-अलग तरह के थे। इसलिए उन पर शिकारियों की प्रतिक्रिया कम-ज़्यादा हो सकती है। इसके अलावा, अध्ययन में अधिकतर डैटा उत्तरी गोलार्ध के अध्ययनों से था। दक्षिणी गोलार्ध के जीवों की छद्मावरण रणनीतियों की समझ के बिना हमारी समझ अधूरी है।

फिलहाल शोधकर्ता इसी अध्ययन को एक अलग तरह से करना चाहते हैं – वे देखना चाहते हैं यदि शिकारी छद्मावरण करें तो उन्हें कितना फायदा होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऊंचाई पर सांस लेने में मददगार कोशिका

तिब्बत के पठारों की ऊंचाई पर अधिकतर लोगों को सांस लेने में दिक्कत होती है, सिरदर्द होता है, लेकिन भारी भरकम याक वहां दौड़ भी लगा ले तो उसे कोई परेशानी नहीं होती। अब, शोधकर्ताओं ने याक में एक ऐसी नई कोशिका खोजी है जो इन बैलनुमा प्राणियों को ठंडी और कम ऑक्सीजन वाली जगहों पर भी इतना फुर्तीला रहने में मदद करती है।

काफी समय से वैज्ञानिक यह तो जानते हैं कि याक, कुछ मनुष्यों और कुत्तों में कुछ ऐसे आनुवंशिक अनुकूलन होते हैं जो उन्हें बहुत अधिक ऊंचाई पर मज़े से जीवित रहने में मदद करते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में बताया गया है कि याक के फेफड़ों में कुछ विशेष कोशिकाएं भी होती हैं जो उन्हें अधिक ऊंचाई पर अतिरिक्त फुर्ती देती हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने याक के डीएनए की तुलना उनके उन करीबी सम्बंधी मवेशियों के डीएनए से की जो कम ऑक्सीजन वाले स्थानों के लिए अनुकूलित नहीं थे। तुलना में उन्हें डीएनए के ऐसे हिस्से मिले जहां से उद्विकास के दौरान ये प्राणि अलग-अलग राह पर निकल गए थे। ये अंतर किसी जीन के कार्य में ऐसे फेरबदल की ओर इशारा करते हैं जिसने याक को उसके अल्प-ऑक्सीजन पर्यावरण के अनुकूल होने में मदद की।

जब शोधकर्ताओं ने याक के फेफड़ों की प्रत्येक कोशिका में जीन के कार्य का अध्ययन किया तो उन्हें रक्त वाहिनियों के अस्तर में एक बिल्कुल ही अलग तरह की कोशिका मिली। फेफड़ों की अन्य कोशिकाओं से तुलना करने पर देखा गया कि इन कोशिकाओं में दो परिवर्तित जीन बहुत अधिक सक्रिय थे। शोधकर्ताओं को लगता है कि याक के फेफड़ों की ये कोशिकाएं उनकी रक्त वाहिनियों को मज़बूत और अधिक तंतुमय बनाती है, जो हवा में अपेक्षाकृत कम ऑक्सीजन में भी सांस लेने को सुगम बनाता है।

शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की विशिष्ट कोशिकाएं ऊंचाई पर पाए जाने वाले एंटीलोप और हिरणों में भी पाई जाएंगी। लेकिन ये कोशिकाएं मनुष्यों में मिलना संभव नहीं है; क्योंकि याक, एंटीलोप और हिरण लाखों वर्षों से अत्यधिक ऊंचाई पर रह रहे हैं और वहीं विकसित हुए हैं, जबकि मनुष्य तो महज़ 30,000 वर्षों की छोटी-सी अवधि से वहां रह रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या सपनों को रिकॉर्ड कर सकते हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पिछली एक सदी में मानव जीव विज्ञान पर हमारी समझ काफी बढ़ी है। अलबत्ता, सपनों को समझने में प्रगति काफी धीमी रही है। सपनों की जैविक प्रणाली हमारे लिए अस्पष्ट सी है; एकमात्र निश्चित बात यह है कि अधिकांश मनुष्य सपने देखते हैं।

नींद की जो अवस्था यादगार सपने देखने से जुड़ी है, उसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद कहा जाता है। इस चरण में व्यक्ति की आंखें तेज़ी से हरकत करती रहती हैं। नींद के इस चरण में जाग जाएं, तो लोग अक्सर बताते हैं कि वे इस वक्त सपना देख रहे थे। शोधकर्ताओं के लिए REM एक पहेली है क्योंकि इसे मापना मुश्किल है।

साइंस में प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट इस महत्वपूर्ण सवाल को संबोधित करती है: सपने में जो कुछ घटता है क्या REM का उससे कुछ सम्बंध है? क्या आंखों की गति में सपने के बारे में कोई जानकारी होती है जिसका विश्लेषण करके अर्थ निकाला जा सके?

लेकिन उस सवाल में जाने से पहले सपनों के अर्थ निर्धारण पर कुछ बात कर ली जाए। बीसवीं सदी की शुरुआत में सिग्मंड फ्रॉयड के सिद्धांत हावी थे, जो सपनों में दिखने वाली छवियों के प्रतीकात्मक अर्थ निकालने पर केंद्रित थे। 1952 में REM नींद की खोज हुई और इसने सपनों को मनोविश्लेषण से अलग दिशा में आगे बढ़ाया।

REM नींद में मस्तिष्क उतना ही सक्रिय पाया गया जितना कि पूरी तरह से जागृत अवस्था में होता है। लेकिन शरीर निष्क्रिय था, सो रहा था। REM नींद सभी स्तनधारियों और पक्षियों में देखी गई है। मिशेल जौवे ने दर्शाया है कि बिल्ली के ब्रेन स्टेम में क्षति पहुंचाने से वह स्वप्नावस्था की शारीरिक गतिहीनता से मुक्त हो जाती है। सपने में तो वह बिल्ली अन्य बिल्लियों के साथ आवाज़ें निकालते हुए लड़ती-भिड़ती है, लेकिन जागने पर लड़ना बंद कर देती है।

मस्तिष्क तरंगों की रिकॉर्डिंग (ईईजी) से इस बारे में नई समझ मिली है। इन रिकॉर्डिंग ने बताया है कि REM नींद और जागृत अवस्था के बीच बहुत कम अंतर है। एक दिलचस्प प्रयोग में तंत्रिका वैज्ञानिक मैथ्यू विल्सन ने भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढते हुए एक जागृत चूहे के मस्तिष्क की गतिविधि को रिकॉर्ड किया। कुछ ही समय बाद जब चूहा REM नींद में था तब उन्हें उसके मस्तिष्क में उसी तरह की मस्तिष्क तंरगें दिखीं – तो क्या वह सपने में भी भूलभुलैया से निकलने का रास्ता खोज रहा था?

सपनों का डैटाबेस

सपनों का अध्ययन करने का एक अन्य तरीका रहा सपनों का वृहत डैटाबेस संकलित करना। सपनों के संग्राहक केल्विन हॉल ने 50,000 सपनों के विश्लेषण से निष्कर्ष निकाला था कि अधिकांश सपने सरिएलिस्ट (असंगत-यथार्थवादी) पेंटिंग जैसे नहीं होते, और उनका काफी हद तक पूर्वानुमान किया जा सकता है। हो सकता है कि सपने देखते समय बच्चे मुस्कराएं क्योंकि बच्चों के सपनों में जानवरों को देखने की अधिक संभावना होती है, लेकिन वयस्कों के सपने बहुत सुखद नहीं होते और अक्सर उनमें चिंता के क्षण होते हैं।

हम महत्वपूर्ण चीज़ों के बारे में चिंतित होते हैं; ऐसी चीज़ें जिन्हें सुलझाना है। फ्रांसिस क्रिक और ग्रेम मिचिसन द्वारा प्रस्तावित एक सिद्धांत के अनुसार सपने देखना घर की साफ-सफाई-व्यवस्थित करने जैसा काम है – दिन भर की घटनाओं की छंटाई। छंटाई करते समय कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं (चिंता के संभावित स्रोत) को यादों के रूप में सहेजा जाता है, और बाकी को रद्दी मानकर छोड़ दिया जाता है।

क्या चलते हुए सपनों से कुछ आउटपुट मिल सकता है जिसे रिकॉर्ड किया जा सके? जवाब परस्पर विरोधी हैं। कुछ अध्ययनों से संकेत मिलते हैं कि आंखों की गति या दिशा या आवृत्ति सपने में दोहराई गई मानसिक प्रक्रिया से मेल खाती है। इलेक्ट्रोऑक्युलोग्राफ की मदद से सोते हुए प्रतिभागियों की आंखों की गतिविधियों को रिकॉर्ड किया गया, जिसमें यह दर्ज किया गया कि आंखों की गति मुख्य रूप से या तो खड़ी (ऊपर-नीचे) या आड़ी (दाएं-बाएं) होती है। जिन प्रतिभागियों ने बताया कि वे अपने सपने में ऊपर की ओर देख रहे थे उनकी आंखों की गति ऊपर-नीचे वाली देखी गई। दूसरी ओर, अन्य अध्ययनों ने REM का श्रेय मस्तिष्क की बेतरतीब गतिविधियों को दिया है।

अभ्यास रणनीतियां

जागते समय आंखों की गति आवश्यक है। खुले मैदान में चूहा अक्सर अपनी आंखों को ऊपर की ओर घुमाता है, और आसमान से शिकारी पक्षियों के खतरे को भांपता है। पैदल चलने वाले लोग आने-जाने वाली गाड़ियों को देखने के लिए दाएं-बाएं देखते हैं। इन दोनों स्थितियों में आंखें उसी दिशा में घूमती हैं जिसमें सिर घूमता है। मस्तिष्क निगरानी रखता है कि आपका सिर किस दिशा की ओर है। इसके लिए वह हेड डायरेक्शन (HD) तंत्रिका कोशिकाओं का उपयोग करता है। चूहों की हेड डायरेक्शन कोशिका में इलेक्ट्रोड लगाकर यह दर्शाया गया है कि जब सिर गति कर रहा होता है तो ये कोशिकाएं सक्रिय होती हैं।

मैसिमो स्कैनज़िएनी ने सोते हुए चूहों में REM और HD कोशिका गतिविधि दोनों को रिकॉर्ड किया। उल्लेखनीय रूप से, उन्होंने दिखाया कि REM नींद में चूहों की आंखों की गति दिन में आसमान पर नज़र रखने के समान ऊपर-नीचे थी। HD कोशिकाओं ने भी इसी गति के संकेत दिए, हालांकि सोते समय सिर नहीं हिल रहे थे। ऐसा लगता है कि सपना किसी शिकारी पक्षी से बचने के बारे में था। क्या इन अध्ययनों का उपयोग मनुष्यों के लाभ के लिए किया जा सकता है? जिन लोगों ने अचानक, तीव्र आघात का अनुभव किया हो वे पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (PTSD) से पीड़ित होते हैं। कोई सैनिक जो अपने पीछे हथगोला फटने से दहल गया हो, भले ही उस विस्फोट से वह चोटिल न हुआ हो, उसे बार-बार ऐसे ही बुरे सपने आ सकते हैं और वर्षों तक चिंता सता सकती है। वह हर रात सपने में क्या ‘देखता’ है, इसकी बेहतर समझ उसे इससे उबारने की बेहतर रणनीतियां दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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भारत की खोज में जंतुओं ने समंदर लांघा था – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हॉलीवुड की एनिमेशन फिल्मों में नाचते, गाते, शरारत करते लीमर ज़रूर दिखेंगे। ये सिर्फ मैडागास्कर द्वीप पर ही पाए जाते हैं जो प्रकृतिविदों के लिए हमेशा से दिलचस्प जंतुओं का आवास स्थल रहा है।

मैडागास्कर में पाए जाने वाले कई जंतुओं का सम्बंध दूरस्थ भारत (दूरी 3800 कि.मी.) में पाए जाने वाले वंशों से दिखता है, बनिस्बत अफ्रीका के जंतुओं से जबकि अफ्रीका यहां से महज 413 कि.मी. दूर है। यह प्रकृतिविदों के लिए एक ‘अबूझ पहेली’ रही है।

प्राणि वैज्ञानिक फिलिप स्क्लेटर हैरान थे कि लीमर और सम्बंधित जंतु व उनके जीवाश्म मैडागास्कर और भारत में तो पाए जाते हैं लेकिन मैडागास्कर के निकट स्थित अफ्रीका या मध्य पूर्व में अनुपस्थित हैं। 1860 के दशक में उन्होंने प्रस्तावित किया था कि किसी समय भारत और मैडागास्कर के बीच एक बड़ा द्वीप या महाद्वीप मौजूद रहा होगा, जो दोनों स्थानों के बीच सेतु का कार्य करता था। समय के साथ यह द्वीप डूब गया। इस प्रस्तावित जलमग्न द्वीप को उन्होंने लेमुरिया नाम दिया था।

स्क्लेटर की इस परिकल्पना ने हेलेना ब्लावात्स्की जैसे तांत्रिकों को आकर्षित किया, जिनका यह मानना था कि यही वह स्थान होना चाहिए जहां मनुष्यों की उत्पत्ति हुई थी।

देवनेया पवनर जैसे तमिल धार्मिक पुनरुत्थानवादियों ने भी इस विचार को अपनाया और इसे एक तमिल सभ्यता की संज्ञा दी। साहित्य और पांडियन दंतकथाओं में यह समुद्र में जलगग्न सभ्यता के रूप में वर्णित है। वे इस जलमग्न महाद्वीप को कुमारी कंदम कहते थे।

महाद्वीपों का खिसकना

स्क्लेटर के विचारों ने तब समर्थन खो दिया जब एक अन्य ‘हैरतअंगेज़’ सिद्धांत – महाद्वीपीय खिसकाव या विस्थापन – ने स्वीकृति प्राप्त करना शुरू किया। प्लेट टेक्टोनिक्स नामक इस सिद्धांत के अनुसार बड़ी-बड़ी प्लेट्स – जिन पर हम खड़े हुए हैं (या चलते-फिरते हैं, रहते हैं) – पिघली हुई भूमिगत चट्टानों पर तैरती हैं और एक-दूसरे के सापेक्ष ये प्रति वर्ष 2-15 से.मी. खिसकती हैं। तकरीबन 16.5 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना नामक विशाल भूखंड दो हिस्सों में बंट गया था – इसके एक टुकड़े में वर्तमान के अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका थे और दूसरे टुकड़े में भारत, मैडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका थे।

फिर लगभग 11.5 करोड़ साल पूर्व मैडागास्कर और भारत एक साथ इससे टूटकर अलग हो गए थे। लगभग 8.8 करोड़ साल पहले, भारत उत्तर की ओर बढ़ने लगा और इसने रास्ते में कुछ छोटे-छोटे भू-भाग (द्वीप) छोड़ दिए जिससे सेशेल्स बना। यह टूटा हुआ हिस्सा लगभग 5 करोड़ साल पहले युरेशियन भू-भाग से टकराया जिससे हिमालय और दक्षिण एशिया बने।

लगभग 11.5 करोड़ साल पहले डायनासौर का राज था। इस समय तक कई जीव रूपों का विकास भी नहीं हुआ था। भारत और मैडागास्कर में पाए जाने वाले डायनासौर के जीवाश्म काफी एक जैसे हैं, और ये अफ्रीका और एशिया में पाई जाने वाली डायनासौर प्रजातियों के समान नहीं हैं जो गोंडवाना के टूटने का समर्थन करता है। भारत और मैडागास्कर दोनों जगहों पर लैप्लेटोसॉरस मेडागास्करेन्सिस के अवशेष पाए गए हैं।

आणविक घड़ियां

आणविक घड़ी एक शक्तिशाली तकनीक है जिसका उपयोग यह पता लगाने के लिए किया जाता है कि जैव विकास के दौरान कोई दो जीव एक-दूसरे से कब अलग हुए थे। यह तकनीक इस अवलोकन पर आधारित है कि आरएनए या प्रोटीन अणु की शृंखला में वैकासिक परिवर्तन काफी निश्चित दर पर होते हैं। जैसे दो जीवों के हीमोग्लोबिन जैसे प्रोटीन में अमीनो एसिड में अंतर आपको यह बता सकता है कि उनके पूर्वज कितने वर्ष पहले अलग हो गए थे। आणविक घड़ियां अन्य साक्ष्यों (जैसे जीवाश्म रिकॉर्ड) से काफी मेल खाती हैं।

दक्षिण भारत और श्रीलंका में मीठे पानी और खारे पानी की मछलियों के सिक्लिड परिवार के केवल दो वंश हैं – एट्रोप्लस (जो केरल की एक खाद्य मछली है, जहां इसे पल्लती कहा जाता है) और स्यूडेट्रोप्लस। आणविक तुलना से पता चलता है कि एट्रोप्लस के निकटतम सम्बंधी मैडागास्कर में पाए जाते हैं, और इनके साझा पूर्वज 16 करोड़ वर्ष पहले अफ्रीकी सिक्लिड्स से अलग हो गए थे। चौथे तरह के सिक्लिड दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं, इस प्रकार ये गोंडवाना के छिन्न-भिन्न होने का समर्थन करते हैं।

एशिया, मैडागास्कर और अफ्रीका में जीवों के वितरण में भारत एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। गोंडवाना के जीव भारत से निकलकर फैले। कुछ अन्य जीव यहां आकर बस गए। उदाहरण के लिए, मीठे पानी के एशियाई केंकड़े (जेकार्सिन्यूसिडी कुल)अब समूचे दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाते हैं लेकिन उनके सबसे हालिया साझा पूर्वज भारत में विकसित हुए थे। सूग्लोसिडे नामक मेंढक कुल सिर्फ भारत और सेशेल्स में पाया जाता है।

गढ़वाल के एचएनबी विश्वविद्यालय, पंजाब विश्वविद्यालय और जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने गुजरात की वस्तान लिग्नाइट खदान से प्राप्त जीवाश्म में प्रारंभिक भारतीय स्तनधारी – चमगादड़ की एक प्रजाति, और प्रारंभिक युप्राइमेट – एक आदिम लीमर की पहचान की है। ये लगभग 5.3 करोड़ वर्ष पूर्व के जीवाश्म हैं, जो भारत-युरेशियन प्लेट्स के टकराने (या उससे ठीक पहले) का समय है।

लीमर्स के बारे में क्या? मैडागास्कर बहुत बड़ा द्वीप है, यहां विविध तरह की जलवायु परिस्थितियां हैं। साक्ष्य बताते हैं कि अफ्रीका से समुद्र पार करके एक पूर्वज प्राइमेट यहां आया था। कोई बंदर, वानर या बड़े शिकारी इसे पार नहीं कर सके थे, इसलिए यहां दर्जनों लीमर प्रजातियां फली-फूलीं।

भारत में लोरिस पाए जाते हैं, जो लीमर के निकटतम सम्बंधी हैं। ये शर्मीले, बड़ी और आकर्षक आंखों वाले निशाचर वनवासी हैं। माना जाता है कि ये भी समुद्री रास्ते से अफ्रीका से यहां की यात्रा में जीवित बच गए। सुस्त लोरिस ज़्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों में पाए जाते हैं, और छरहरे लोरिस कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु के सीमावर्ती क्षेत्र में पाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्रों में परागण

भूमि पर तो परागण का काम मधुमक्खियां और पक्षी करते हैं। लेकिन समुद्र के अंदर परागण की यह महत्वपूर्ण क्रिया कौन सम्पन्न करता है? आम तौर पर समुद्र में पौधों में परागण जीवों की मदद के बगैर होता है। नर और मादा पौधे अपने शुक्राणु और अंडाणु पानी में छोड़ देते हैं और पानी की हिलोरों से अंडाणु और शुक्राणु संयोग से मिल जाते हैं।

अपवादस्वरूप, पूर्व में छोटे जलीय कृमि और क्रस्टेशियन को समुद्री घास के परागणकर्ता के रूप में पहचाना गया था। और अब एक नया परागणकर्ता मिला है: लाल शैवाल के बीच तैरने वाला लगभग 4 से.मी. लंबा क्रस्टेशियन जिसे आइसोपॉड कहते हैं। लाल शैवाल के शुक्राणु आइसोपॉड के शरीर पर चिपक जाते हैं। यह जब भोजन के लिए किसी अन्य पौधे पर जाता है तो निषेचन भी हो जाता है।

दरअसल फ्रांस की राष्ट्रीय शोध एजेंसी में मिरियम वेलेरो युरोप में लहरों के पानी से बने पोखरों में पनपने वाली लाल शैवाल ग्रेसिलेरिया ग्रैसिलिस की आनुवंशिकी का अध्ययन कर रही हैं। ग्रेसिलेरिया में मादा शैवाल अपने अंडाणु पानी में नहीं छोड़ती, बल्कि उन्हें कीप के आकार के तंतुओं के अंदर रखती है। और नर शुक्राणु किसी तरह उन तक पहुंचते हैं जबकि शुक्राणुओं में तैरने में सहायक पूंछ भी नहीं पाई जाती।

वेलेरो ने देखा कि शैवाल पर अक्सर आइसोपोड्स (इडोटिया बाल्थिका) रेंगते रहते हैं। उनका अनुमान था कि ये ही लाल शैवाल का परागण करते होंगे। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर आइसोपॉड के शरीर पर शुक्राणु चिपके भी दिखे।

अपने अनुमान की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने अपरागित मादा शैवाल लीं और इन्हें पानी से भरी टंकियों में नर शैवाल के साथ रखा। फिर कुछ टंकियों में आइसोपॉड छोड़े। पाया गया कि आइसोपॉड्स वाले लाल शैवाल प्रजनन में लगभग 20 गुना अधिक सफल रहे। ये नतीजे साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

वेलेरो का अनुमान है कि इससे दोनों को ही लाभ पहुंचता होगा। अधिकांश इडोटिया रंग में लाल शैवाल जैसे होते हैं। तो आइसोपोड्स को शिकारियों से छिपने में मदद मिलती होगी। दूसरी ओर आइसोपॉड्स शैवाल पर उगने वाले एक-कोशिकीय शैवाल को खाते हैं। देखा गया है कि आइसोपॉड्स द्वारा ऐसे एक-कोशिकीय शैवाल के भक्षण से लाल शैवाल स्वच्छ रहती है और तेज़ी से वृद्धि करती है।

लेकिन सवाल है कि समुद्र में जीवों द्वारा परागण इतना दुर्लभ क्यों है? संभवत: यह पानी की भौतिकी के कारण है – पानी हवा से बहुत अधिक सघन है। ज़ाहिर है, मकरंद से जो ऊर्जा मिलेगी, वह एक फूल से दूसरे फूल तक यात्रा करने में लगने वाली ऊर्जा से अधिक नहीं होगी।

अन्य शोधकर्ता चेताते हैं कि उक्त अध्ययन सिर्फ यह बताता है कि आइसोपोड प्रयोगशाला में शैवाल को परागित कर सकते हैं; इससे यह नहीं कहा जा सकता कि प्रकृति में भी वे इसे इतनी ही कुशलता से कर पाते हैं। हो सकता है शैवाल के शुक्राणु को फैलाने में लहरें ही अधिक प्रभावी हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मधुमक्खियों को दर्द होता है

धुमक्खियों के डंक से बचने के लिए हम कई बार उन्हें मारने-भगाने की कोशिश करते हैं। लेकिन क्या ऐसा करने पर उनको दर्द महसूस होता है? जब हमारे शरीर पर कहीं चोट लगती है तो शरीर की तंत्रिका कोशिकाएं हमारे मस्तिष्क को संदेश भेजती हैं जिससे हमारा मस्तिष्क हमें दर्द का एहसास कराता है। कीटों में इस तरह का कोई जटिल तंत्र नहीं है जिससे उनको दर्द का एहसास हो सके। लेकिन एक हालिया अध्ययन से मधुमक्खियों और अन्य कीटों में भावनाओं के प्रति चेतना के साक्ष्य मिले हैं।

पूर्व में किए गए अध्ययन बताते हैं कि मधुमक्खियां और भौंरे काफी बुद्धिमान एवं चतुर प्राणी हैं। वे शून्य की अवधारणा को समझते हैं, सरल हिसाब-किताब कर सकते हैं और अलग-अलग मनुष्यों (और शायद मधुमक्खियों) के बीच अंतर भी कर सकते हैं।

ये प्राणी भोजन की तलाश के मामले में आम तौर पर काफी आशावादी होते हैं लेकिन किसी शिकारी मकड़ी के जाल में ज़रा भी फंसने पर ये परेशान हो जाते हैं। यहां तक कि बच निकलने के बाद भी कई दिनों तक उनका व्यवहार बदला-बदला रहता है और वे फूलों के पास जाने से डरते हैं। क्वींस मैरी युनिवर्सिटी के वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख लार्स चिटका के अनुसार मधुमक्खियां भी भावनात्मक अवस्था का अनुभव करती हैं।

मधुमक्खियों में दर्द संवेदना का पता लगाने के लिए चिटका ने जाना-माना तरीका अपनाया – लाभ-हानि के बीच संतुलन का तरीका। जैसे दांतों को लंबे समय तक स्वस्थ रखने के लिए लोग दंत चिकित्सक की ड्रिल के दर्द को सहन करने को तैयार हो जाते हैं। इसी तरह हर्मिट केंकड़े बिजली के ज़ोरदार झटकों से बचने के लिए अपनी पसंदीदा खोल को त्याग देते हैं लेकिन तभी जब झटका ज़ोरदार हो।

इसी तरीके को आधार बनाकर चिटका और उनके सहयोगियों ने 41 भवरों (बॉम्बस टेरेस्ट्रिस) को 40 प्रतिशत चीनी के घोल वाले दो फीडर और कम चीनी वाले दो फीडर का विकल्प दिया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इन फीडरों को गुलाबी और पीले हीटिंग पैड पर रखा। शुरुआत में तो सभी हीटिंग पैड्स को सामान्य तापमान पर रखा गया और मधुमक्खियों को अपना पसंदीदा फीडर चुनने का मौका दिया गया। अपेक्षा के अनुरूप सभी मधुमक्खियों ने अधिक चीनी वाले फीडर को चुना।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने अधिक चीनी वाले फीडरों के नीचे वाले पीले पैड्स को 55 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जबकि गुलाबी पैड्स को सामान्य तापमान पर ही रखा। यानी पीले पैड्स पर उतरना किसी गर्म तवे को छूने जैसा था लेकिन इसके बदले अधिक मीठा शरबत भी मिल रहा था। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब चीनी से भरपूर गर्म फीडर और कम चीनी वाले ठंडे फीडरों के बीच विकल्प दिया गया तो मधुमक्खियों ने गर्म और अधिक मात्रा में चीनी वाले फीडर को ही चुना।

चीनी की मात्रा बढ़ा दिए जाने पर मधुमक्खियां और अधिक दर्द सहने को तैयार थीं। इससे लगता है कि अधिक चीनी उनके लिए एक बड़ा प्रलोभन था। फिर जब वैज्ञानिकों ने गर्म और ठंडे दोनों पैड्स वाले फीडरों में समान मात्रा में चीनी वाला शरबत रखा तो मधुमक्खियों ने पीले पैड्स पर जाने से परहेज़ किया, जिसके गर्म होने की आशंका थी। इससे स्पष्ट होता है कि वे पूर्व अनुभवों को याद रखती हैं और उनके आधार पर निर्णय भी करती हैं।

अध्ययन दर्शाता है कि क्रस्टेशियंस के अलावा कीटों और मकड़ियों में भी इस तरह की संवेदना होती है। इस अध्ययन को मानव उपभोग के लिए कीटों की खेती में बढ़ती रुचि और शोध अध्ययनों में कीटों की खैरियत के मामले में काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि मधुमक्खियां भी वैसा ही दर्द महसूस करती हैं जैसा मनुष्य करते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार यह अध्ययन इस क्षमता का कोई औपचारिक प्रमाण प्रदान नहीं करता है। दरअसल, कीटों में दर्द संवेदना का पता लगाना थोड़ा मुश्किल काम है। पूर्व में हुए अध्ययन फल मक्खियों के तंत्रिका तंत्र में जीर्ण दर्द के अनुभव के संकेत देते हैं लेकिन कीटों में दर्द सम्बंधी तंत्रिका तंत्र होने को लेकर संदेह है।     

कुल जीवों में से कम से कम 60 प्रतिशत कीट हैं। ऐसे में इन्हें अनदेखा करना उचित नहीं है। आधुनिक विज्ञान मूलत: मानव-केंद्रित है जो अकशेरुकी जीवों को अनदेखा करता आया है। उम्मीद है कि इस अध्ययन से रवैया बदलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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जीवों में तापमान नियंत्रण काफी देर से अस्तित्व में आया

नियततापी (एंडोथर्म) जीव उन्हें कहते हैं जो अपने शरीर का तापमान आंतरिक प्रक्रियाओं के द्वारा नियंत्रित करते हैं। यह स्तनधारियों, पक्षियों के अलावा कुछ विलुप्त डायनासौर की खासियत है। इस तरह तापमान का नियमन करने के लिए उन्हें अधिक ऊर्जा लगती है, लेकिन यह विशेषता उन्हें जाड़ों और रात के समय भी सक्रिय रहने में मदद करती है। इसके विपरीत, एक्सोथर्मिक (बाह्यतापीय) जीव ऐसा नहीं कर सकते; इनके शरीर का तापमान वातावरण के तापमान के अनुसार बदलता रहता है। जीवाश्म विज्ञानी इस बात से तो सहमत हैं कि प्रारंभिक कशेरुकी जीव बाह्यतापीय थे। लेकिन संशय इस बात पर है कि जीवों में तापमान नियमन की क्षमता कब विकसित हुई।

आम तौर पर देखा गया है कि नियततापी जीवों में हड्डियां तेज़ी से बढ़ती हैं और उनके शरीर पर बाल या पिच्छ (फेदर) पाए जाते हैं। इसलिए नियततापिता का निर्धारण करने के लिए जीव वैज्ञानिक इन्हीं गुणधर्मों का अध्ययन करते आए हैं। लेकिन ये गुणधर्म नियततापिता के सटीक संकेतक नहीं हैं और संभवत: इनका प्रादुर्भाव अन्य कारणों से हुआ था।

अब शोधकर्ताओं के एक दल ने इसी काम के लिए एक सर्वथा नई विधि का उपयोग किया है। यह है आंतरिक कान में पाई जाने वाली अर्धवृत्ताकार नलिकाएं (सेमीसर्कुलर कैनाल्स)। ये तीन नलिकाएं होती हैं जो जीव को अपनी स्थिति भांपने तथा संतुलन बनाए रखने में मदद करती हैं। जीवाश्म वैज्ञानिक इनकी मदद से प्राचीन जीवों में विचरण के पैटर्न का अनुमान लगाते आए हैं।

नेशनल म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीवाश्म विज्ञानी रोमन डेविड के दल ने इनकी मदद से नियततापिता के निर्धारण का प्रयास किया है। जीवाश्म नमूनों के अध्ययन के दौरान डेविड का ध्यान अर्धवृत्ताकार नलिकाओं की साइज़ और संरचना में विविधता  पर पड़ा। खास तौर से उनका ध्यान इस बात पर गया कि शरीर के आकार के हिसाब से अन्य कशेरुकियों की तुलना में स्तनधारियों की अर्धवृत्ताकार नलिकाएं छोटी होती हैं। जैसे, व्हेल (एक स्तनधारी) आकार में व्हेल-शार्क (एक मछली) से बड़ी होती है लेकिन अर्धवृत्ताकार नलिकाओं के मामले में व्हेल-शार्क बाज़ी मार लेती है। दरअसल जीव जगत में सबसे बड़ी अर्धवृत्ताकार नलिकाएं व्हेल-शार्क की होती हैं।

इसके अलावा उनका ध्यान नलिकाओं के अंदर भरे तरल (एंडोलिम्फ) पर भी गया। एंडोलिम्फ का गाढ़ापन तापमान के साथ बदलता है। जैसे तेल गरम होने पर पतला और ठंडा होने पर गाढ़ा हो जाता है। डेविड का अनुमान था कि एंडोलिम्फ के गाढ़ेपन और अर्धवृत्ताकार नलिका के आकार के बीच कोई सम्बंध है, और दोनों नियततापिता का संकेत दे सकते हैं।

इस परिकल्पना को जांचने के लिए डेविड और उनकी टीम ने अल्पाका, टर्की और छिपकली समेत 277 जीवित प्रजातियों की कान की अर्धवृत्ताकार नलिकाओं का अध्ययन किया। देखा गया कि नियततापी जीवों का एंडोलिम्फ पतला था और उनकी अर्धवृत्ताकार नलिकाएं छोटी और पतली थी। दूसरी ओर, बाह्यतापीय जीवों का एंडोलिम्फ गाढ़ा था और अर्धवृत्ताकार नलिकाएं बड़ी और मोटी थी।

नियततापिता कब विकसित हुई यह जानने के लिए उन्होंने इस जानकारी को जीवाश्मित नमूनों पर लागू किया। चूंकि ये नलिकाएं नरम ऊतकों से बनी होती हैं, इसलिए अक्सर ये जीवाश्मित नहीं हो पाती; लेकिन ये जिस खोखली हड्डी के अंदर होती हैं वे जीवाश्मित हो जाती हैं। और इन खोखली हड्डियों की मदद से नलिकाओं के आकार-आकृति का अनुमान लगाया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने 64 विलुप्त प्रजातियों की जांच की। इनमें स्तनधारी, 23 करोड़ वर्ष पूर्व के स्तनधारी-समान पूर्वज और उसके भी पूर्व के गैर-स्तनधारी पूर्वज शामिल थे।

नेचर में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ट्राएसिक काल के अंत में, लगभग 23 करोड़ वर्ष पूर्व, छोटी और पतली अर्धवृत्ताकार नलिकाओं वाले जीव अस्तित्व में आए थे, इसी समय गैर-स्तनधारी पूर्वज से स्तनधारी-समान पूर्वज विकसित हुए थे। और यह परिवर्तन अपेक्षाकृत रूप से अचानक, 10 लाख से भी कम वर्षों में, हुआ था। अर्थात यदि छोटी व पतली अर्धवृत्ताकार नलिकाओं को नियततापिता का लक्षण माना जाए तो यह सबसे पहले स्तनधारी जीवों में लगभग 23 करोड़ वर्ष नज़र आई होगी। यह पूर्व में लगाए गए अनुमान से 2 करोड़ वर्ष बाद का समय है। वैसे एक बात पर ध्यान देना ज़रूरी है – यह नहीं कहा जा रहा है कि अर्धवृत्ताकार नलिकाएं नियततापिता या तापमान नियंत्रण में कोई भूमिका निभाती हैं। आशय सिर्फ यह है कि ये पतली-छोटी नलिकाएं और नियततापिता साथ-साथ प्रकट होते हैं और छोटी नलिकाओं को नियततापी जीवों का द्योतक माना जा सकता है।

अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक क्रमिक विकास की बजाय ऐसे अचानक परिवर्तन की बात को साबित करने के लिए अधिक अध्ययन की आवश्यकता है। बहरहाल नियततापिता के भावी अध्ययनों में अर्धवृत्ताकर नलिका का अध्ययन महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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विलुप्ति का खतरा सबसे अनोखे पक्षियों पर है

वैसे ही दुख की बात है कि आने वाले समय में पृथ्वी से हर वर्ष हज़ारों प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। लेकिन उससे भी ज़्यादा दुख की बात है कि हाल ही में किए गए दो स्वतंत्र अध्ययनों से पता चला है कि विलुप्ति का सबसे अधिक खतरा उन पक्षियों पर है जो अपने पारिस्थितिकी तंत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जिनका स्थान शायद कोई और नहीं ले सकता।

एक अध्ययन के मुताबिक आकर्षक चोंच वाले टूकन पक्षी दक्षिण अमेरिका के वर्षा वनों में उन बड़े-बड़े बीजों और फलों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो अन्य पक्षियों के लिए संभव नहीं है। दुर्भाग्यवश, टूकन के साथ-साथ गिद्ध, आईबेसिस और अन्य अनोखी प्रजातियों की विलुप्ति की आशंका सबसे अधिक है। ऐसा हुआ तो आबादियां अधिक एकरूप होने लगेंगी।

एक अन्य अध्ययन का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन के कारण कई प्रजातियां ठंडे क्षेत्रों की ओर प्रवास करेंगी जिसके चलते एक जैसी प्रजातियों की संख्या में वृद्धि होने की संभावना बढ़ सकती है। युनिवर्सिटी ऑफ मोंटाना के पारिस्थितिकीविद जेडेडिया ब्रॉडी इस संकट के लिए मानव क्रियाकलापों को ज़िम्मेदार मानते हैं।

प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र विभिन्न भूमिकाएं निभाने वाले अनेकों जीवों पर निर्भर होता है। पक्षियों का उदाहरण लिया जाए तो हम देखेंगे कि कुछ पक्षी बीजों को फैलाने में मददगार होते हैं तो कुछ मृत जीवों को खाकर पुनर्चक्रण में सहायक होते हैं। पक्षियों में लंबी और नुकीली चोंच, लंबे पैर आदि विशेषताएं विभिन्न प्रकार की भूमिकाओं को अंजाम देने में सहायक होती हैं। ऐसे में एक पारिस्थितिकी तंत्र में यदि एक ही तरह की प्रजातियां हों तो वे विभिन्न भूमिकाओं को अंजाम नहीं दे पाएंगी।

कुछ पक्षियों में प्रमुख विशेषताओं के गायब होने का पता लगाने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड की एमा ह्यूजेस ने कई वर्षों तक लगभग 8500 पक्षियों की चोंच के आकार, निचले पंजों और पंख की लंबाई, और संग्रहालय में रखे शरीर के नमूनों के आकार का मापन किया और प्रजातियों के बीच समानताओं और अंतरों को समझने के लिए सांख्यिकी तकनीकों का उपयोग किया। इस अध्ययन में सॉन्गबर्ड जैसे पक्षी आकार के आधार पर एक ही समूह में आ गए। दूसरी ओर एल्बेट्रास जैसे विशाल पक्षी, छोटे हमिंगबर्ड और आईबेसिस अपनी लंबी गर्दन तथा घुमावदार चोंच के चलते थोड़े अलग से दिखे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उन प्रजातियों को अपनी सूची में से अलग किया जिनके विलुप्त होने की संभावना इंटरनेशनल युनियन फॉर कंज़रवेशन की रेड लिस्ट के अनुसार ज़्यादा थी। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सबसे जोखिमग्रस्त प्रजातियां वे हैं जो शरीर के आकार और पारिस्थितिकी भूमिका में अनोखी हैं। जब शोधकर्ताओं ने सबसे अधिक से सबसे कम जोखिमग्रस्त प्रजातियों को सूचीबद्ध करना शुरू किया तो सबसे पहले टूकन, हॉर्नबिल, हमिंगबर्ड और अन्य अनोखी प्रजातियां बाहर हुईं जबकि एक जैसे पक्षी (फिंचेस, स्टारलिंग्स वगैरह) लिस्ट में बने रहे।

इस संदर्भ में कौन-से क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित होंगे, इसका पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने 14 प्रमुख प्राकृतवासों या बायोम (जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्र) में रहने वाले पक्षियों का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि प्रजातियों का एकरूपीकरण 14 में से 12 क्षेत्रों को प्रभावित करेगा और इसका सबसे अधिक प्रभाव जलमग्न घास के मैदानों और उष्णकटिबंधीय जंगलों में होगा। सबसे अधिक संकटग्रस्त क्षेत्रों में वियतनाम, कंबोडिया और हिमालय की तराई के साथ-साथ हवाई जैसे द्वीप भी शामिल हैं। ब्रॉडी के अनुसार कुछ मामलों में इन प्रजातियों द्वारा निभाई जाने वाली अद्वितीय पारिस्थितिक भूमिकाओं को निभाने में सक्षम कोई और नहीं है।

सेन्केनबर्ग बायोडाइवर्सिटी एंड क्लाइमेट रिसर्च सेंटर की पारिस्थितिकीविद एल्के वोस्केम्प द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में एकरूपीकरण के एक और चालक की पहचान की गई है: जलवायु परिवर्तन के कारण पक्षियों के इलाकों में परिवर्तन। वोस्केम्प और उनकी टीम ने 9882 पक्षियों के वर्तमान इलाकों का पता लगाया। इसके बाद उन्होंने जलवायु मॉडल का उपयोग करते हुए यह अनुमान लगाया कि वर्ष 2080 तक इन प्रजातियों का मुख्य आवास कहां होगा। अंत में टीम ने यह पता लगाया कि यह परिवर्तित वितरण पक्षियों के समुदायों को कैसे बदलेगा।

जैसा कि शोधकताओं का अनुमान था, उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र में सबसे अधिक प्रजातियों के गायब होने की संभावना है – वे या तो विलुप्त हो जाएंगी या अन्य इलाकों में चली जाएंगी। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन इलाकों में कुछ बाहरी पक्षियों का आगमन भी अवश्य होगा लेकिन अधिक संभावना यही है कि अधिकांश पक्षी निकटता से सम्बंधित होंगे और उनमें उस इलाके में रहने के लिए ज़रूरी गुण पाए जाएंगे।     

उत्तरी अमेरिका और युरेशिया में पक्षी प्रजातियों में वृद्धि होगी क्योंकि पक्षी गर्म से ठंडे इलाकों की तरफ प्रवास करेंगे। लेकिन इन इलाकों में भी नए पक्षी मौजूदा प्रजातियों से निकटता से सम्बंधित होंगे।

उपरोक्त दोनों ही अध्ययन संकेत देते हैं कि विश्व में पक्षियों में एकरूपता आएगी जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए एक बड़ा झटका होगा। पूर्व में किए गए कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है ऐसा समरूपीकरण उभयचरों और स्तनधारियों में भी हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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