चींटियों के प्यूपा ‘दूध’ देते हैं

चींटियों और उनकी कॉलोनी का अवलोकन शोधकर्ताओं के लिए हमेशा ही रोमांचक रहा है। देखा गया है कि वे अपनी बांबी की सफाई, खाद्य-भंडारण, पशुपालन और खेती जैसे कार्य तक करती हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने पहली बार देखा है कि चींटियों के प्यूपा दूध जैसा तरल पदार्थ स्रावित करते हैं, जिससे कॉलोनी की चींटियां पोषण लेती हैं। यह खोज प्यूपा के कॉलोनी में योगदान के बारे में बनी धारणा को तोड़ती है और चींटियों द्वारा शिशु-पालन का एक तरीका प्रस्तुत करती है।

गौरतलब है कि चींटियों, तितलियों, मच्छरों वगैरह कई कीटों के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं होती हैं। अंडे में से इल्ली या लार्वा निकलता है। एक समय बाद यह लार्वा प्यूपा में बदल जाता है। प्यूपा निष्क्रिय होता है – न कुछ खाता-पीता है और न ही चलता-फिरता है। इसके आसपास एक खोल चढ़ी होती है। कॉलोनी की बाकी चींटियां ही प्यूपा को इधर-उधर सरकाती हैं। कुछ दिनों बाद यह खोल फटती है और अंदर से वयस्क कीट निकलता है।

इसी निष्क्रियता की वजह से, प्यूपा को अब तक कॉलोनी के लिए फालतू माना जाता था लेकिन ताज़ा शोध बताता है कि ऐसा नहीं है।

रॉकफेलर युनिवर्सिटी की जीवविज्ञानी ओर्ली स्निर इस बात का अध्ययन कर रहीं थी कि क्या चीज़ है जो चींटियों की कॉलोनी को एकीकृत रखती है। इसके अध्ययन के लिए उन्होंने क्लोनल रैडर (ऊसेरिया बिरोई) चींटियों के जीवन चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को अलग-अलग रखकर उनका अध्ययन किया। शोधकर्ता यह देखकर हैरान थे कि प्यूपा के उदर से दूध जैसे सफेद तरल की बूंदें रिस रही थीं, और प्यूपा के आसपास जमा हो रहीं थी। प्यूपा इस तरल में डूबकर मर गए। लेकिन जब तरल उनके आसपास से हटा दिया गया तो वे बच गए थे।

सवाल यह था कि यह तरल जाता कहां हैं। यह पता करने के लिए शोधकर्ताओं ने प्यूपा में खाने वाला नीला रंग प्रविष्ट कराया और देखा कि वह रंग कहां-कहां जाता है। पाया गया कि तरल पदार्थ के स्रावित होते ही वयस्क चींटियां इसे पी जाती हैं। और तो और, वे लार्वा को प्यूपा के पास ले जाकर इसे पीने में मदद करती हैं। नेचर पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि एक मायने में वयस्क चींटियां पालकीय देखभाल दर्शा रही हैं – प्यूपा के आसपास तरल जमा होने से रोककर और लार्वा को पोषण युक्त तरल पिलाकर। यदि व्यस्क चींटियां और लार्वा इस तरल का सेवन न करें तो इसमें फफूंद लग जाती है और प्यूपा मर जाते हैं। और लार्वा की वृद्धि और जीवन इस तरल पर उसी तरह निर्भर होता है, जिस तरह स्तनधारी नवजात शिशु मां के दूध पर।

शोधकर्ताओं के अनुसार यह एक ऐसा तंत्र है जो कॉलोनी को एकजुट रखता है, चींटियों के विकास की अवस्थाओं – लार्वा, प्यूपा और वयस्क – को एक इकाई के रूप में बांधता है।

शोधकर्ताओं ने तरल की आणविक संरचना का भी परीक्षण किया। उन्हें उसमें 185 ऐसे प्रोटीन मिले जो सिर्फ इसी तरल में मौजूद थे, साथ ही 100 से अधिक मेटाबोलाइट्स (जैसे अमीनो एसिड, शर्करा और विटामिन) भी इसमें पाए गए। पहचाने गए यौगिकों से पता चलता है कि यह दूध निर्मोचन द्रव से बनता है जब प्यूपा में परिवर्तित होने के दौरान लार्वा अपना बाहरी आवरण त्यागते हैं।

शोधकर्ताओं ने चींटियों के पांच सबसे बड़े उप-कुलों की प्रजातियों में भी पाया कि उनके प्यूपा तरल स्रावित करते हैं। इससे लगता है कि इस तरल की चींटियों के सामाजिक ढांचे के विकास में कोई भूमिका होगी।

शोधकर्ता अब देखना चाहते हैं कि इस तरल के सेवन का वयस्क चींटियों और लार्वा के व्यवहार और शरीर विज्ञान पर क्या असर पड़ता है। हो सकता है कि लार्वा बड़े होकर रानी चींटी बनेंगे या श्रमिक चींटी यह इस बात पर निर्भर करता हो कि उन्हें कितना दूध सेवन के लिए मिला।

अन्य शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि इस तरल का चींटियों के आंतों के सूक्ष्मजीव संसार और भोजन को पचाने में क्या योगदान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धनेश पक्षियों का आकर्षक कुनबा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

हाल ही में नागालैंड में हुए धनेश (हॉर्नबिल) उत्सव में भारत की आगामी जी-20 अध्यक्षता के प्रतीक चिन्ह (लोगो) का आधिकारिक तौर पर अनावरण किया गया। नागालैंड का यह लोकप्रिय उत्सव वहां की कला, संस्कृति और व्यंजनों को प्रदर्शित करता है। यह हमारे देश के कुछ सबसे बड़े, सबसे विशाल पक्षियों के कुल की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है।

विशाल धनेश (Buceros bicornis) हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत और पश्चिमी घाट में पाया जाता है। यह अरुणाचल प्रदेश और केरल का राज्य पक्षी है। पांच फीट पंख फैलाव वाले विशाल धनेश का किसी टहनी पर उतरना एक अद्भुत (और शोरभरा) नज़ारा होता है।

धारीदार चोंच वाला धनेश (Rhyticeros undulatus), भूरा धनेश (Anorrhinus austeni) और भूरी-गर्दन वाला धनेश (Aceros nipalensis) साइज़ में थोड़े छोटे होते हैं, और ये केवल पूर्वोत्तर भारत में पाए जाते हैं। उत्तराखंड का राजाजी राष्ट्रीय उद्यान पूर्वी चितकबरे धनेश (Anthracoceros albirostris) को देखने के लिए एक शानदार जगह है। मालाबार भूरा धनेश (Ocyceros griseus) का ज़ोरदार ‘ठहाका’ पश्चिमी घाट में गूंजता है। सबसे छोटा धनेश, भारतीय भूरा धनेश (Ocyceros birostris), भारत में थार रेगिस्तान को छोड़कर हर जगह पाया जाता है और अक्सर शहरों में भी देखा जा सकता है – जैसे चेन्नई में थियोसोफिकल सोसाइटी उद्यान।

धनेश की बड़ी और भारी चोंच कुछ बाधाएं भी डालती हैं – संतुलन के लिए, पहले दो कशेरुक (रीढ़ की हड्डियां) आपस में जुड़े होते हैं। नतीजा यह होता है कि धनेश अपना सिर ऊपर-नीचे हिलाकर हामी तो भर सकता है, लेकिन ‘ना’ करने (बाएं-दाएं सिर हिलाने) में इसे कठिनाई होती है। मध्य और दक्षिण अमेरिका के टूकेन की भी चोंच बड़ी होती हैं। यह अभिसारी विकास का एक उदाहरण – दोनों ही पक्षियों का भोजन एक-सा है।

लंबे वृक्षों को प्राथमिकता

धनेश अपने घोंसले बनाने के लिए ऊंचे पेड़ पसंद करते हैं। इन पक्षियों और जिन पेड़ों पर ये घोंसला बनाते हैं उनके बीच परस्पर सहोपकारिता होती है। बड़े फल खाने वाले धनेश लगभग 80 वर्षावन पेड़ों के बीजों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। धनेश की आबादी घटने से कुछ पेड़ (जैसे कप-कैलिक्स सफेद देवदार – Dysoxylum gotadhora) के बीजों की मूल वृक्ष से दूर फैलने में 90 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो वनों की जैव विविधता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करती है।

दक्षिण पूर्व एशिया के विशाल तौलांग वृक्ष का ज़िक्र लोककथाओं में इतना है कि इस वृक्ष को काटना वर्जित माना जाता है। यह हेलमेट धनेश (Rhinoplax vigil) का पसंदीदा आवास है। इसके फलने का मौसम और धनेश के प्रजनन का मौसम एक साथ ही पड़ते हैं। पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान बीजों को फैलाने में धनेश के महत्व पर ज़ोर देता है, जिसके अनुसार इसके बीज धनेश द्वारा खखारकर फैलाए जाते हैं। एक कहावत है, “जब बीज अंकुरित होते हैं, तब धनेश के चूज़े अंडों से निकलते हैं।”

शिकार के मारे

दुर्भाग्य से, अवैध कटाई के लिए नज़रें लंबे पेड़ों पर ही टिकी होती हैं। इसलिए धनेश की संख्या में धीमी रफ्तार से कमी आई है, जैसा कि पक्षी-गणना से पता चला है। रफ्तार धीमी इसलिए है कि ये पक्षी लंबे समय तक (40 साल तक) जीवित रहते हैं। इनका बड़ा आकार इनके शिकार का कारण बनता है। सुमात्रा और बोर्नियो के हेलमेट धनेश गंभीर संकट में हैं क्योंकि इनकी खोपड़ी पर हेलमेट जैसा शिरस्त्राण, जिसे लाल हाथी दांत कहा जाता है, बेशकीमती होता है। सौभाग्य से, विशाल धनेश का शिरस्त्राण नक्काशी के लिए उपयुक्त नहीं है।

दक्षिण भारत में धनेश की आबादी बेहतर होती दिख रही है। मैसूर के दी नेचर कंज़र्वेशन फाउंडेशन ने डैटा की मदद से दिखाया है कि प्लांटेशन वाले जंगल धनेश की आबादी के लिए उतने अनूकूल नहीं हैं जितने प्राकृतिक रूप से विकसित वर्षावन हैं, हालांकि कभी-कभी सिल्वर ओक के गैर-स्थानीय पेड़ पर इनके घोंसले बने मिल जाते हैं। धनेश का परिस्थिति के हिसाब से ढलने का यह स्वभाव भोजन में भी दिख रहा है; वे अफ्रीकन अम्ब्रेला पेड़ के फलों को खाने लगे हैं। ये पेड़ हमारे कॉफी बागानों में छाया के लिए लगाए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ी आबादी ने किया विशाल जीवों का सफाया

करीबन दो हज़ार साल पहले मानव जितने बड़े लीमर और विशाल एलिफेंट-बर्ड मेडागास्कर में विचरते थे। इसके एक हज़ार साल बाद ये यहां से लगभग विलुप्त हो गए थे। अब एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि इस सामूहिक विलुप्ति का समय मेडागास्कर में मानव आबादी में उछाल के साथ मेल खाता है, जब मनुष्यों के दो छोटे समूह आपस में घुले-मिले और पूरे द्वीप पर फैल गए।

वर्ष 2007 में शोधकर्ताओं के एक दल ने मलागासी लोगों की वंशावली समझने के लिए मेडागास्कर आनुवंशिकी और नृवंशविज्ञान प्रोजेक्ट शुरू किया था। यद्यपि मेडागास्कर द्वीप अफ्रीका के पूर्वी तट से मात्र 425 किलोमीटर दूर स्थित है, लेकिन वहां बोली जीने वाली मलागासी भाषा 7000 किलोमीटर दूर तक हिंद महासागर क्षेत्र में बोली जाने वाली ऑस्ट्रोनेशियन भाषाओं के समान है। ऑस्ट्रोनेशियन भाषा समूह में मलय, सुडानी, जावानी तथा फिलिपिनो भाषाएं शामिल हैं। अलबत्ता, लंबे समय से यह एक रहस्य रहा है कि कौन लोग, कब और कैसे मेडागास्कर पहुंचे? और इन आगंतुकों ने कैसे बड़े पैमाने पर जीवों के विलुप्तिकरण को प्रभावित किया।

यह समझने के लिए मेडागास्कर आनुवंशिकी और नृवंशविज्ञान परियोजना के तहत शोधकर्ताओं ने 2007 से 2014 के बीच द्वीप के 257 गांवों से लोगों के लार के नमूने, संगीत, भाषा और अन्य समाज वैज्ञानिक डैटा एकत्र किया। 2017 में शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि आधुनिक मलागासी लोग पूर्वी अफ्रीका के बंटू-भाषी लोगों और दक्षिण-पूर्व एशिया में दक्षिणी बोर्नियो के ऑस्ट्रोनेशियन-भाषी लोगों से सबसे अधिक निकट से सम्बंधित हैं।

हालिया अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने लार का आनुवंशिक विश्लेषण किया और कंप्यूटर मॉडल की मदद से मलागासी वंशावली तैयार की और अनुमान लगाया कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी आबादी कैसे बदली।

शोधकर्ताओं ने पाया कि आधुनिक मलागासी आबादी सिर्फ चंद हज़ार एशियाई लोगों की वंशज है, जिन्होंने लगभग 2000 साल पहले अन्य समूहों के साथ घुलना-मिलना बंद कर दिया था।

हालांकि यह रहस्य तो अब भी है कि एशियाई लोग वास्तव में मेडागास्कर कब पहुंचे? लेकिन ये लोग 1000 साल पहले तक मेडागास्कर में फैल चुके थे। करंट बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि इस आगंतुक आबादी ने यहां की लगभग इतनी ही बड़ी अफ्रीकी आबादी के साथ घुलना-मिलना शुरू किया था, और लगभग 1000 साल पहले विशाल जीवों के विलुप्तिकरण के समय इनकी आबादी बढ़ने लगी थी।

पुरातात्विक प्रमाण बताते हैं कि मेडागास्कर की आबादी में विस्फोट के साथ लोगों की जीवनशैली भी बदली थी। पहले, मनुष्य वन्यजीवों के साथ रहते थे और शिकार वगैरह करते थे। लेकिन इस समय वे बड़ी बस्तियां बनाने लगे थे, धान उगाने लगे थे, और मवेशी चराने लगे थे।

इन सभी के आधार पर शोधकर्ताओं को लगता है कि जनसंख्या वृद्धि, जीवनशैली में परिवर्तन और गर्म व शुष्क जलवायु के मिले-जुले प्रभाव ने संभवतः विशाल जीवों का सफाया शुरू कर दिया था।

अन्य शोधकर्ता मानव आबादी में बढ़त और जीवों के विलुप्तिकरण के समय से तो सहमत हैं लेकिन उनका मानना है कि जीवों के विलुप्तिकरण में बदलती जलवायु की भूमिका इतनी अधिक नहीं रही। इसके अलावा वर्तमान आबादी के डैटा की मदद से इतिहास के बारे में कुछ कहने की अपनी सीमाएं हैं। यदि कब्रगाहों में से प्राचीन लोगों के डीएनए खोज कर उनका विश्लेषण किया जाता तो लोगों के मेडागस्कर पहुंचने और उनके स्थानीय लोगों से घुलने-मिलने के समय के बारे में कुछ पुख्ता तौर पर कहा जा सकता था।

बहरहाल, मेडागास्कर में विशाल जीवों के विलुप्तिकरण में मनुष्यों की भूमिका को समझना वर्तमान समय में ज़रूरी है, विशेष रूप से जब आज हाथी और गैंडे जैसे जीव खतरे में हैं। वास्तविक कारणों को जानकर हम इन जीवों के संरक्षण के बेहतर प्रयास कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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वन्य जीवों की घटती आबादी – सुदर्शन सोलंकी

वैश्विक स्तर पर 1970 से 2018 के बीच 48 वर्षों में वन्य जीवों की आबादी में 69 फीसदी की कमी हुई है। यह जानकारी विश्व प्रकृति निधि (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) द्वारा जारी लिविंग प्लेनेट रिपोर्ट 2022 से पता चली है। इस रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण अमेरिका और कैरिबियाई क्षेत्रों में वन्य जीव आबादी में सबसे बड़ी गिरावट हुई है; यहां पिछले पांच दशकों में करीब 94 फीसदी की गिरावट हुई। दक्षिण अफ्रीका में करीब 66 फीसदी व एशिया-प्रशांत में 55 फीसदी की कमी दर्ज की गई। चिंताजनक और चौंकाने वाली बात यह है कि दुनिया भर में नदियों में पाए जाने वाले जीवों की आबादी में करीब 83 फीसदी की कमी आई है।

डब्ल्यूडब्ल्यूएफ यह रिपोर्ट हर दो वर्ष में प्रकाशित करता है। इसकी स्थापना वर्ष 1961 में हुई थी। इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड के ग्लैंड में है। निधि का मुख्य उद्देश्य प्रकृति का संरक्षण करना और पृथ्वी पर विविधता को होने वाले खतरों को कम करना है। लिविंग प्लेनेट इंडेक्स (एलपीआई) पिछले 50 वर्षों से स्तनधारी जीवों, पक्षियों, सरीसृपों, मछलियों और उभयचरों की आबादी की निगरानी कर रहा है। दुनिया भर में 5230 प्रजातियों की 31,821 आबादियों के निरीक्षण के आधार पर निष्कर्ष मिला है कि खास तौर से ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में कशेरुकी प्राणियों की आबादी में तेज़ी से गिरावट दर्ज हुई है। धरती की 70 फीसदी और ताज़े पानी की 50 फीसदी जैव विविधता खतरे में है।

भारत में करीब 12 फीसदी स्तनधारी वन्य जीव समाप्ति की कगार पर है। वहीं पिछले 25 वर्षों में मधुमक्खियों की करीब 40 फीसदी आबादी खत्म हो चुकी है।

वैश्विक स्तर पर वन्य जीवों की तेज़ी से घटती आबादी के लिए उनके आवासों की कमी, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और विभिन्न बीमारियां प्रमुख कारण हैं।

जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी सेवाओं सम्बंधी अंतरसरकारी मंच (आईपीबीईएस) की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित और विकासशील देशों में रहने वाले अधिकांश लोग भोजन, दवा, ऊर्जा, मनोरंजन और मानव कल्याण से सम्बंधित कार्यों में लगभग 50 हज़ार वन्य जीव प्रजातियों का हर दिन उपयोग करते हैं।

दुनिया भर में जंगल वातावरण से 7.6 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं जो मनुष्य द्वारा पैदा हुई कार्बन डाईऑक्साइड का 18 फीसदी है। इस तरह जंगल धरती को 0.5 डिग्री सेल्सियस ठंडा रखते हैं। यह विडंबना ही है कि इसके बावजूद प्रति वर्ष हम 1 करोड़ हैक्टर जंगल नष्ट कर रहे हैं।

यदि वन व वन्य जीव नहीं होंगे तो जल, वायु व मृदा से मिलने वाले संसाधन नष्ट हो जाएंगे और इनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। हाल के दशकों में मानव ने अपनी आवश्यकताओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का बहुत अधिक दोहन किया है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े-बड़े जंगल खत्म होने की कगार पर है। कुछ वन्य प्राणियों की प्रजातियां विलुप्त हो गई और कुछ विलुप्ति की कगार पर हैं। वनों को काटकर हम न सिर्फ वन्य जीवों के आवास खत्म कर रहे हैं बल्कि वनों से मिलने वाली विविध संपदा भी खो रहे हैं।

मानव गतिविधियों के कारण भूमि पर पाए जाने वाले वन्य जीवों के अलावा जलीय जीवों के प्राकृतवास पर भी खतरा उत्पन्न हुआ है। जहाज़, स्टीमर आदि से ईंधन के रिसाव, विनाशकारी मत्स्याखेट, गहरे ट्रालरों का उपयोग एवं मूंगा चट्टानों के दोहन से समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र तबाह हो गया है।

स्पष्ट है मानवीय गतिविधियों के कारण पूरी दुनिया में वन्य जीवों की संख्या कम हो रही है। प्रकृति में जितने भी विनाशकारी परिवर्तन हो रहे हैं, वे सभी मनुष्य की ही देन हैं। तापमान का चरम पर जाना, चक्रवाती तूफान एवं कहीं सूखा तो कहीं मूसलाधार बारिशें, जिसके कारण बाढ़ जैसी विपदाओं का आना इत्यादि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से हो रहा है जो वनों व वन्य जीवों की घटती आबादी का कारण है।

लुप्तप्राय पौधों और जानवरों की प्रजातियों की उनके प्राकृतिक निवास स्थान के साथ रक्षा करना ज़रूरी है। सबसे प्रमुख चिंता का विषय यह है कि वन्य जीवों के निवास स्थान की सुरक्षा किस प्रकार की जाए जिससे वन्य जीव और मनुष्य के बीच एक संतुलित तालमेल बना रहे, जीवन फलता-फूलता रहे। (स्रोत फीचर्स)

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भौंरे खेल-खिलवाड़ करते हैं

ब भी खेलकूद की बात आती है, हमें बच्चों का ख्याल आता है। लेकिन क्या खेल सिर्फ मनुष्य के बच्चे खेलते हैं? हाल का एक अध्ययन बताता है कि प्रयोगशाला में भौंरे लकड़ी की छोटी-छोटी गेंदों को सिर्फ मज़े के लिए इधर-उधर लुढ़काते हैं। इससे समझ में आता है कि भौंरों का संरक्षण और कृत्रिम छत्तों में उनके साथ अच्छा सलूक ज़रूरी है।

जानवरों में, खेल मस्तिष्क के विकास में मदद करता है: जैसे, लोमड़ी के बच्चों में लड़ने का खेल खेलना सामाजिक कौशल सीखने में मदद करता है, और शिकार आसपास न हो तो भी डॉल्फिन और व्हेल उछलते-कूदते रहते हैं और गोल-गोल घूमते हैं। 2006 में हुए एक अध्ययन ने बताया था कि युवा ततैया (पॉलिस्टस डोमिनुला) लड़ने का खेल खेलते हैं।

वर्तमान अध्ययन में क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के व्यवहार पारिस्थितिकीविद लार्स चिटका और उनके साथी देख रहे थे कि कैसे भौंरे (बॉम्बस टेरेस्ट्रिस) लकड़ी की गेंदों को खास जगह पर पहुंचाने का जटिल व्यवहार अपने साथियों से सीखते हैं। (यदि भौंरे गेंद को सही जगह पर पहुंचा देते थे, तो मीठे पेय का इनाम दिया जाता था।) इस अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने देखा कि कुछ भौंरे गेंदों को तब भी सरकाते रहे जब उन्हें कोई इनाम नहीं मिला। ऐसा लग रहा था कि भौंरों को गेंदों के पास लौटना, उनके साथ खेलना और उन्हें लुढ़कना अच्छा लग रहा था।

भौंरो के इस व्यवहार को तफसील से समझने के लिए दल की एक साथी समदी गालपायगे ने भौंरो के लिए एक सेटअप तैयार किया। एक-मंज़िला कमरे के एक छोर पर एक छत्ता था जिसके एकमात्र द्वार से बाहर निकलने पर रास्ते में क्रीड़ा कक्ष पड़ता था। कमरे के दूसरे छोर पर भौंरों के लिए पराग और मीठा पानी रखा गया था। क्रीड़ा कक्ष को दो भागों में बांटा गया था, हरेक भाग में भौंरों से थोड़ी बड़ी साइज़ की लकड़ी की गेंदें थी। गेंदें अपने आप नहीं लुढ़कती थीं, इसलिए भौंरो को उनके साथ खेलने के लिए तिकड़म भिड़ाना पड़ता था।

पहले प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने कक्ष के एक भाग में गेंदों को इस तरह रखा कि वे अचर रहें और दूसरे भाग की गेंदें लुढ़काने पर लुढ़क सकती थीं। भोजन तक पहुंचने के लिए भौंरो को इस क्रीडा कक्ष – और गेंदों के बीच – से होकर जाना पड़ता था। प्रयोग में देखा गया कि भौरों ने कक्ष के उस भाग से जाना ज़्यादा पसंद किया जहां गेंद लुढ़क सकती थीं – इस भाग में उन्होंने औसतन 50 प्रतिशत अधिक बार प्रवेश किया। लगता है कि भौंरो को मात्र गोल चीज़ें नहीं, बल्कि लुढ़कने वाली चीज़ें अच्छी लगती हैं।

प्रत्येक भौंरे ने गेंद कितनी बार लुढ़काई इसकी गणना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि कुछ ही भौंरो ने केवल एक या दो बार गेंद लुढ़काई, लेकिन बाकियों ने दिन में करीब 44 बार तक गेंदों को लुढ़काया था। बार-बार गेंद को लुढ़काना दर्शाता है कि उन्हें ऐसा करने में आनंद आ रहा था।

इस बात की पुष्टि करने के लिए शोधकर्ताओं ने भौंरो के साथ एक नए सेट-अप में प्रयोग किया। पिछले डिज़ाइन की तरह इस छत्ते से निकल कर भोजन तक पहुंचने के लिए भी भौंरो को क्रीडा कक्ष से होकर गुज़रना पड़ता था। लेकिन इस प्रयोग में, पहले 20 मिनट के लिए क्रीडा कक्ष का रंग पीला रखा गया था और उसमें गेंदें रखी गई थीं। फिर इसकी जगह कक्ष को गेंद-रहित नीले रंग का कर दिया गया। पीले रंग का सम्बंध गेंदों के साथ जोड़ने के लिए शोधकर्ताओं ने छह बार बारी-बारी नीले-पीले रंग के कक्षों की अदला-बदली की। अंत में, शोधकर्ताओं ने गेंदें हटाकर भौंरो को पीले या नीले रंग का कक्ष चुनने का विकल्प दिया।

एनिमल विहेवियर में शोधकर्ता बताते हैं कि लगभग 30 प्रतिशत अधिक भौंरो ने पीले रंग का कक्ष चुना; संभवतः इसलिए कि उन्हें गेंद लुढ़काने में मज़ा आ रहा था। शोधकर्ताओं ने गेंद-युक्त और गेंद-रहित कक्षों के रंग पलटकर प्रयोग दोहराया, तो भी ऐसे ही परिणाम मिले।

अध्ययन से यह भी पता चला कि युवा भौंरो ने गेंद को अधिक लुढ़काया। पक्षियों और स्तनधारियों में भी युवा जंतु अधिक खेलते हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि खेलने से जीवों के विकासशील मस्तिष्क को लाभ मिलता होगा – जैसे, मांसपेशियों के समन्वय को मज़बूत करने में। भौंरो का मस्तिष्क भी जीवन के शुरुआती दिनों (भोजन के लिए छत्ते से बाहर निकलने के पहले के समय) में नए कनेक्शन बनाने में अधिक सक्षम होता है। तो अगला सवाल यह है कि क्या गेंद लुढ़काने से भौंरो की फूलों से मकरंद प्राप्त करने की क्षमता में सुधार होता है?

वैसे, इस अध्ययन पर कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि हो सकता हैं गेंदें भौंरो के छत्ते के रख-रखाव सम्बंधी व्यवहार को उकसा रही हों – जैसे, छत्ते से मृत भौंरों की लाशों और अन्य मलबे को हटाना। वाकई भौंरे खेलने का आनंद ले रहे हैं यह दर्शाने के लिए खेल के अधिक उदाहरण देखने से मदद मिलेगी।

और भले ही भौंरे प्रयोग में खेल रहे हों, लेकिन अध्ययन से यह स्पष्ट नहीं है कि वे प्राकृतिक परिस्थितियों में भी ऐसा करेंगे या नहीं। संभव है कि प्रयोगशाला में भौंरो के पास खेलने के अधिक मौके होते हैं क्योंकि यहां वे शिकारियों से सुरक्षित होते हैं और उन्हें भोजन इकट्ठा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जंगलों में कठिन प्रतिस्पर्धा होती है और वहां सिर्फ मनोरंजन के लिए खेलने-लुढ़काने के लिए वक्त मिलना मुश्किल है।

बहरहाल, यदि वे खेलते हैं, तो कीटों में नैतिक लिहाज़ से भी इसे देखना महत्वपूर्ण हो सकता है। जानवरों के चारे के लिए कीटों को पाला जा रहा है, और उनकी भलाई सुनिश्चित करने के कोई नियम नहीं हैं। औद्योगिक उद्देश्य से जब मधुमक्खियों को ट्रक में भरकर एक जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है तो वे तनावग्रस्त हो जाती हैं, और बीमारियों की चपेट में आने और कॉलोनी के ढहने की संभावना होती है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि उनके निष्कर्ष जंगली कीटों के लिए और अधिक सहानुभूति पैदा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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जंतु बोलने लगे थे, जब कोई सुनने वाला न था

जीव जगत में बातूनी जीवों की बात करें तो मनुष्यों के अलावा तोता-मैना, डॉल्फिन का ख्याल उभरता है। कछुओं का ख्याल नहीं आता। लेकिन कछुए भी खट-खट, घुरघुराने और खिखियाने जैसी ध्वनि की मदद से संवाद करते हैं। और अब, कछुओं और अन्य शांत माने जाने वाले जानवरों की ‘आवाज़’ रिकॉर्ड करके वैज्ञानिकों ने पाया है कि भूमि पर विचरने वाले सभी कशेरुकी जीवों में आवाज़ विकसित होने का 40 करोड़ साल पुराना साझा इतिहास है।

ये नतीजे दर्शाते हैं कि जानवरों ने अपने विकास के दौरान बहुत पहले से ही आवाज़ निकालना शुरू कर दिया था – शायद तब से जब उनके कान ठीक तरह से विकसित भी नहीं हुए थे। और इससे लगता है कि कानों का विकास इन ध्वनियों को सुनने के लिए हुआ होगा।

कई साल पहले एरिज़ोना विश्वविद्यालय के वैकासिक पारिस्थितिकीविद जॉन वियन्स और उनके साथी झुओ चेन ने ध्वनि सम्बंधी (एकूस्टिक) संचार के विकास की शुरुआत पता करने का काम किया था – मूल रूप से उन ध्वनियों के बारे में जो जानवर फेफड़ों का उपयोग करके मुंह से निकालते हैं। वैज्ञानिक साहित्य खंगाल कर उन्होंने उस समय तक ज्ञात सभी ध्वनिक जानवरों का एक वंश वृक्ष तैयार किया था। उनका निष्कर्ष था कि इस तरह की ध्वनि निकालने की क्षमता कशेरुकी जीवों में 10 से 20 करोड़ वर्ष पूर्व कई बार स्वतंत्र रूप से उभरी थी।

लेकिन ज्यूरिख विश्वविद्यालय के वैकासिक जीवविज्ञानी गेब्रियल जोर्गेविच-कोहेन का ध्यान कछुए पर गया। हालांकि वियन्स और चेन ने पाया था कि कछुओं के 14 कुल में से केवल दो ही आवाज़ें निकालते हैं, लेकिन जोर्गेविच-कोहेन कछुओं के बारे में अधिक जानना चाह रहे थे। उन्होंने दो साल में 50 कछुआ प्रजातियों की ‘वाणि‌’ को रिकॉर्ड किया।

कछुओं की आवाज़ रिकॉर्ड करने के दौरान उन्हें तीन अन्य जीवों में भी ध्वनि के बारे में पता चला, जिनके बारे में माना जाता था कि वे आवाज़ नहीं निकालते: सिसीलियन नामक एक टांगविहीन उभयचर; तुआतारा नामक एक छिपकली जैसा सरीसृप; और लंगफिश, जिसे थलचर जानवरों का निकटतम जीवित रिश्तेदार माना जाता है।

53 कछुआ प्रजातियों में से मुट्ठी की साइज़ का दक्षिण अमेरिकी वुड कछुआ (राइनोक्लेमीस पंक्टुलेरिया) आवाज़ के लिहाज़ से सेलेब्रिटी साबित हुआ। इस कछुए ने 30 से अधिक आवाज़ें निकाली, जिसमें चरमराते दरवाज़े जैसी आवाज़ शामिल है जिसका उपयोग नर कछुए मादा को बुलाने/रिझाने के लिए करते हैं। सिर्फ युवा कछुओं में चीखने, रोने की आवाज़ें भी सुनी गईं। सामान्य तौर पर, कुछ ध्वनियां आक्रामक व्यवहार से सम्बंधित थीं (जैसे काटने की ध्वनि) जबकि अन्य ध्वनियां नए कछुओं (या जीवों) से मिलने पर अभिवादन जैसी प्रतीत हो रहा थीं। इनके साथ अक्सर सिर हिलाना भी देखा गया।

ध्वनि संचार पर मौजूदा डैटा में इस नए डैटा को जोड़ने पर लगभग 1800 प्रजातियों का एक व्यापक वैकासिक वृक्ष तैयार किया गया। नेचर कम्यूनिकेशंस में शोधकर्ता बताते हैं कि इस इस वैकासिक वृक्ष की प्रत्येक शाखा पर ऐसे जानवर मौजूद थे जो ध्वनियां निकालते थे। इससे लगता है कि ध्वनिक संचार तकरीबन 40 करोड़ साल पूर्व भूमि पर रहने वाले जानवरों और लंगफिश के साझा पूर्वज में सिर्फ एक बार विकसित हुआ था।

वैज्ञानिकों का कहना है कि यह काम मनुष्यों में संचार का विकास का पता लगाने में मदद कर सकता है। लेकिन ये निष्कर्ष बहस भी छेड़ सकते हैं। जैसे शोधकर्ताओं ने मान लिया है कि कई शांत प्रजातियों में सुनी गईं आवाज़ें अन्य जानवर सुनते हैं व उन पर प्रतिक्रिया देते हैं। लेकिन यह भी हो सकता है कि इन पर कोई ध्यान तक न देता हो।

शोधकर्ता इस दिशा में काम कर रहे हैं। वे रिकॉर्ड कर रहे हैं कि कैसे कछुए और अन्य शांत प्रजातियां इन ध्वनियों का उपयोग करती हैं। वे अन्य मछलियों की ध्वनियों के साथ भूमि पर पाए जाने वाले कशेरुकी जीवों और लंगफिश की आवाज़ की तुलना भी करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या ध्वनि विकास का वृक्ष और भी प्राचीन हो सकता है। क्या आवाज़ निकालने की हमारी क्षमता मछलियों के साथ साझा होती है? यदि हां, तो ध्वनिक संचार हमारे अनुमान से भी कहीं पहले विकसित हो गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अकेले रह गए शुक्राणु भटक जाते हैं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

क अध्ययन से पता चला है कि सांड के शुक्राणु तब अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ते हैं और निषेचन कर पाते हैं जब वे समूह में हों। यह जानकारी मनुष्यों में निषेचन को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। भौतिक विज्ञानी चिह-कुआन तुंग और सहकर्मियों ने फ्रंटियर्स इन सेल एंड डेवलपमेन्ट बायोलॉजी में बताया है कि कृत्रिम प्रजनन पथ में मादा के अंडे को निषेचित करने के लिए शुक्राणुओं के समूह अधिक सटीकता से आगे बढ़ते हैं बनिस्बत अकेले शुक्राणु के। ऐसा नहीं है कि मादा जननांग पथ में शुक्राणुओं के समूह तेज़तर गति से तैरते हों। लेकिन वे सही दिशा में सटीकता से आगे बढ़ते हैं।

र्दिष्ट स्थान पर पहुंचने के लिए दो बिंदुओं के बीच की सबसे छोटी दूरी एक सीधी रेखा होती है। पर वास्तव में अकेले शुक्राणु सीधी रेखा में न तैरकर घुमावदार रास्ता अपनाते हैं। किंतु, जब शुक्राणु दो या दो से अधिक के समूह में एकत्रित होते हैं, तो वे सीधे मार्ग पर तैरते हैं। समूह की सीधी चाल तभी फायदेमंद हो सकती है जब वे अंडाणु की ओर जा रहे हों। पूरी प्रक्रिया के अध्ययन हेतु शोधकर्ताओं ने एक प्रयोगात्मक सेटअप विकसित किया जिसमें बहते तरल पदार्थ का उपयोग किया गया था।

दरअसल, शुक्राणु गर्भाशय में पहुंचकर अंडवाहिनी से आ रहे अंडाणु की ओर जाते हैं। इस यात्रा के दौरान शुक्राणुओं को म्यूकस (श्लेष्मा) के प्रवाह के विरुद्ध तैरना और रास्ता बनाना होता है। तुंग और उनके सहयोगियों ने प्रयोगशाला में मादा जननांग की कृत्रिम संरचना वाला उपकरण बनाया। उपकरण एक उथला, संकीर्ण, 4-सेंटीमीटर लंबा चैनल था जो प्राकृतिक म्यूकस के समान एक गाढ़े तरल पदार्थ से भरा था जिसके बहाव को शोधकर्ता नियंत्रित कर सकते हैं।

शुक्राणु स्वाभाविक रूप से आगे ऊपर की ओर तैरने लगते हैं। अलबत्ता, प्रयोग में शुक्राणु के समूहों ने म्यूकस के प्रवाह में आगे बढ़ने में बेहतर प्रदर्शन किया। अकेले शुक्राणुओं के अन्य दिशाओं में भटक जाने की संभावना अधिक थी। कुछ अकेले शुक्राणु तेज़ तैरने के बावजूद, लक्ष्य से भटक गए।

जब शोधकर्ताओं ने अपने उपकरण में म्यूकस के प्रवाह को चालू किया, तो कई अकेले शुक्राणु बहाव के साथ बह गए। जबकि शुक्राणु समूहों की बहाव के साथ नीचे की ओर बहने की संभावना बहुत रही।

सांड के शुक्राणुओं पर किए गए इन प्रयोगों से वैज्ञानिकों को लगता है कि परिणाम मनुष्यों पर भी लागू होंगे। दोनों प्रजातियों के शुक्राणुओं के आकार समान होते हैं। तुंग कहते हैं, बहते तरल पदार्थ में शुक्राणु का अध्ययन उन समस्याओं पर प्रकाश डाल सकता है जो स्थिर तरल पदार्थों में नहीं दिखते। एक आशा यह है कि इससे मनुष्यों में बांझपन या निसंतानता के कारणों को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वर्ष 2023 के ब्रेकथ्रू पुरस्कारों की घोषणा

हाल ही में ब्रेकथ्रू प्राइज़ फाउंडेशन ने 2023 के ब्रेकथ्रू पुरस्कारों की घोषणा की है। यह पुरस्कार हर वर्ष मूलभूत भौतिकी, गणित और जीव विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए दिया जाता है। प्रत्येक क्षेत्र के विजेताओं को 30 लाख डॉलर की पुरस्कार राशि प्रदान की जाती है।

इस वर्ष जीव विज्ञान में तीन ब्रेकथ्रू पुरस्कार दिए गए हैं। एक पुरस्कार अल्फाफोल्ड-2 के लिए डेमिस हैसाबिस और जॉन जम्पर को दिया गया है। अल्फाफोल्ड-2 एक कृत्रिम बुद्धि (एआई) आधारित सिस्टम है जिसने लंबे समय से चल रही प्रोटीन संरचना की समस्या को हल किया है। प्रोटीन्स सूक्ष्म मशीनें हैं जो कोशिकाओं को उचित ढंग से चलाने का काम करते हैं। प्रोटीन अमीनो अम्लों की शृंखला होते हैं लेकिन उनके कामकाज के लिए उनका सही ढंग से तह होकर एक त्रि-आयामी रचना अख्तियार करना ज़रूरी होता है। प्रोटीन की इस त्रि-आयामी रचना को समझना उनके कामकाज को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। और यह काफी मुश्किल काम रहा है।

डीपमाइंड नामक कंपनी में अपनी टीम के साथ काम करते हुए हैसाबिस और जम्पर ने एक डीप-लर्निंग सिस्टम तैयार किया जो बड़ी ही सटीकता और तेज़ी से मात्र अमीनो अम्लों के क्रम के आधार पर प्रोटीन के त्रि-आयामी मॉडल का निर्माण करने में सक्षम है। इस वर्ष डीपमाइंड द्वारा अब तक 20 करोड़ प्रोटीन संरचनाओं को डैटाबेस में जोड़ा जा चुका है। इसकी मदद से प्रोटीन संरचना का निर्धारण करने में लगने वाला समय – कुछ घंटों से लेकर महीनों और वर्षों तक का – बच सकेगा। भविष्य में दवाइयां तैयार करने से लेकर सिंथेटिक बायोलॉजी, नैनोमटेरियल्स और कोशिकीय प्रक्रियाओं की बुनयादी समझ विकसित करने में इस डैटाबेस से काफी मदद मिलेगी।       

जीव विज्ञान में एक पुरस्कार एक नई कोशिकीय प्रक्रिया की खोज को मिला है। कोशिकीय प्रक्रिया के बारे में अभी तक हमारी समझ यह थी कि कोशिका का अधिकांश कार्य झिल्ली से घिरे उपांगों यानी ऑर्गेनेल में सम्पन्न होता है। एंथनी हायमन और क्लिफोर्ड ब्रैंगवाइन ने इस संदर्भ में एक सिद्धांत प्रस्तुत किया है। यह सिद्धांत झिल्ली की अनुपस्थिति में प्रोटीन और अन्य जैव-अणुओं के बीच कोशिकीय अंतर्क्रियाओं के संकेंद्रण पर टिका है। शोधकर्ताओं ने ऐसी तरल बूंदों के निर्माण की बात की है जो प्रावस्थाओं के पृथक्करण से बनती हैं। यह एक तरह से पानी में बनने वाली तेल की बूंदों के समान है। ये बूंदें अस्थायी संरचनाओं के समान होती हैं जो अपने अंदर के पदार्थ को कोशिका के जलीय वातावरण की आणविक उथल-पुथल से अलग-थलग रखती हैं। इस खोज के बाद इन दोनों वैज्ञानिकों व अन्य शोधकर्ताओं ने यह दर्शाया है कि ये झिल्ली रहित तरल संघनित क्षेत्र कई कोशिकीय प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जैसे, संकेतों का आदान-प्रदान, कोशिका विभाजन, कोशिका के नाभिक में केंद्रिका की स्थिर संरचना और डीएनए का नियमन। इस खोज से भविष्य में एएलएस जैसे कई तंत्रिका-विघटन रोगों की चिकित्सा में काफी मदद मिलने की संभावना है।

जीव विज्ञान में तीसरा ब्रेकथ्रू पुरस्कार नारकोलेप्सी नामक तंत्रिका-विघटन रोग पर नए विचार प्रस्तुत करने के लिए इमैनुएल मिग्नॉट और मसाशी यानागिसावा को दिया गया है। नार्कोलेप्सी एक तंत्रिका-विघटन से जुड़ा निद्रा रोग है जिसमें पूरे दिन व्यक्ति उनींदा-सा रहता है और बीच-बीच में अचानक नींद के झोंके आते हैं।

दोनों वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से काम करते हुए बताया है कि नार्कोलेप्सी रोग का मुख्य कारण ऑरेक्सिन (या हाइपोक्रेटिन) नामक प्रोटीन है। यह प्रोटीन आम तौर पर जागृत अवस्था का नियमन करता है। जहां कुछ जीवों में नार्कोलेप्सी उत्परिवर्तन के कारण होता है जो उन तंत्रिका ग्राहियों को प्रभावित करता है जो ऑरेक्सिन से जुड़ते हैं वहीं मनुष्यों में यह स्वयं की प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा ऑरेक्सिन बनाने वाली कोशिकाओं पर हमला करने की वजह से होता है।

इस खोज ने नार्कोलेप्सी के लक्षणों को दूर करने के साथ-साथ नींद की दवाइयों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

गणित का ब्रेकथ्रू पुरस्कार डेनियल ए. स्पीलमन को मिला है जिन्होंने न केवल गणित बल्कि कंप्यूटिंग, सिग्नल प्रोसेसिंग, इंजीनियरिंग और यहां तक कि क्लीनिकल परीक्षणों के डिज़ाइन जैसी अत्यधिक व्यवहारिक समस्याओं पर एल्गोरिदम और समझ विकसित करने में बहुमूल्य योगदान दिया है। स्पीलमन और उनके साथियों ने कैडीसन-सिंगर समस्या का समाधान प्रस्तुत किया। यह समस्या क्वांटम मेकेनिक्स में उत्पन्न हुई थी लेकिन आगे चलकर कई गणितीय क्षेत्रों, जैसे रैखीय बीजगणित, उच्चतर-आयाम ज्यामिति, यथेष्ट मार्ग का निर्धारण और सिग्नल प्रोसेसिंग जैसी प्रमुख अनसुलझी समस्याओं जैसी साबित हुई।

मूलभूत भौतिकी का ब्रेकथ्रू पुरस्कार क्वांटम सूचना के क्षेत्र में काम कर रहे चार अग्रिम-अन्वेषकों को मिला है।

अपने बीबी84 प्रोटोकॉल के आधार पर चार्ल्स एच. बेनेट और गाइल्स ब्रासार्ड ने क्वांटम क्रिप्टोग्राफी की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने उन उपयोगकर्ताओं के बीच गुप्त संदेश भेजने का एक व्यावहारिक तरीका तैयार किया जो शुरू में कोई गुप्त जानकारी साझा नहीं करते थे। ई-कॉमर्स में आम तौर पर उपयोग की जाने वाली विधियों के विपरीत इस जानकारी को असीमित कंप्यूटिंग शक्ति वाले भेदिए भी प्राप्त नहीं कर सकते। पूर्व में उन्होंने क्वांटम टेलीपोर्टेशन की खोज के साथ क्वांटम इन्फॉर्मेशन प्रोसेसिंग के नए विज्ञान को भी जन्म दिया।

डेविड डॉच ने क्वांटम कम्प्यूटेशन की नींव रखी। उन्होंने ट्यूरिंग मशीन के क्वांटम संस्करण को परिभाषित किया। यह एक असीम क्वांटम कंप्यूटर है जो क्वांटम मेकेनिक्स के सिद्धांतों का उपयोग करते हुए किसी भी भौतिक प्रणाली की सटीक अनुकृति तैयार कर सकता है। डॉच के अनुसार इस प्रकार का कंप्यूटर कुछ क्वांटम गेट्स के नेटवर्क के समान है। यह एक तरह के लॉजिक गेट्स हैं जो कई क्वांटम स्थितियों को एक साथ समायोजित करने में सक्षम हैं। उन्होंने ऐसा पहला क्वांटम एल्गोरिदम तैयार किया जिसने सभी समकक्ष पारंपरिक एल्गोरिदम्स को पीछे छोड़ दिया।     

पीटर शोर ने सबसे पहला उपयोगी कंप्यूटर एल्गोरिदम तैयार किया। उनका एल्गोरिदम किसी भी पारंपरिक एल्गोरिदम से कहीं अधिक तेज़ी से बड़ी संख्याओं के गुणनखंड पता लगाने में सक्षम था। उन्होंने क्वांटम कंप्यूटरों में त्रुटि-सुधार की तकनीकें डिज़ाइन कीं जो पारंपरिक कंप्यूटरों की अपेक्षा बहुत मुश्किल काम है। इन विचारों ने न केवल वर्तमान में तेज़ी से विकसित हो रहे क्वांटम कंप्यूटरों के लिए रास्ता खोला बल्कि उन्होंने मूलभूत भौतिकी के क्षेत्र में भी अग्रणि भूमिका निभाई। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन के नए रूपों से सीखना – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

म जिस भूगर्भीय युग में जी रहे हैं, उसे एंथ्रोपोसीन कहा जाता है। यह नाम मनुष्य और उनकी गतिविधियों द्वारा डाले गए वैश्विक प्रभाव के कारण दिया गया है। एंथ्रोपोसीन युग में एक उल्लेखनीय बदलाव यह हुआ है कि अन्य प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में तेज़ी से वृद्धि हुई है।

अलबत्ता, जलवायु परिवर्तन की वास्तविकता के प्रति शंकालु लोग कहते रहे हैं कि शोधकर्ताओं द्वारा प्रकाशित विलुप्ति की दर में काफी विसंगतियां हैं। ऑनलाइन पत्रिका येल एनवायरनमेंट 360 कहती है कि प्रतिदिन 24 से 150 प्रजातियां लुप्त हो रही हैं। संख्या 24 हो या 150, आंकड़ा चिंताजनक है। वास्तव में पिछले 400 वर्षों में जानवरों की लगभग 1000 प्रजातियों की विलुप्ति दर्ज की गई है।

पृथ्वी पर पाए जाने वाले सभी जीवों और पौधों की पूरी सूची हमारे पास नहीं है। हमें अब भी नई प्रजातियां मिल रही हैं और दर्ज हो रही हैं। दी हिंदू के 3 मार्च, 2021 के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट में पश्चिमी घाट में मेंढकों की पांच नई प्रजातियां मिलने की खबर थी।

भारत में, कुछ समूहों (भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलुरु, दिल्ली विश्वविद्यालय, केरल वन अनुसंधान संस्थान आदि) ने नई प्रजातियों की खोज में शानदार योगदान दिया है।

नई प्रजातियों की तलाश

नई प्रजातियां खोजना बहुत मेहनत का काम हो सकता है। जैव विविधता हॉटस्पॉट वाले क्षेत्रों में कई नई प्रजातियां मिली हैं, जो सांपों और मच्छरों के लिए अतिउत्तम जगह हैं लेकिन मनुष्यों के लिए बहुत अनुकूल नहीं हैं।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण (ZSI), कोलकाता के वैज्ञानिकों ने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के नारकोंडम द्वीप से एक तरह की छंछूदर की एक नई प्रजाति खोजी है। इसे क्रोसिड्युरा नारकोंडेमिका नाम दिया गया है। यह छछूंदर इसके अलावा कहीं और नहीं पाई जाती। नारकोंडम एक छोटा सा द्वीप है और इस पर एक सुप्त ज्वालामुखी है। लगभग पूरे द्वीप पर घना जंगल फैला है।

शेक्सपीयर की एक रचना में छछूंदर ने अयोग्य और बदमिज़ाज जीव का दर्जा हासिल किया था। लेकिन यह जानवर एकांतप्रिय है। ये आकार में छोटे होते हैं; हाल ही में खोजी गई छछूंदर लगभग 10 से.मी. लंबी है और इसका दिल एक मिनट में 1000 बार धड़क सकता है।

ऐसी खोजें किस तरह उपयोगी हो सकती हैं? कुछ छछूंदर प्रजातियां ज़हरीली होती हैं, स्तनधारियों में यह गुण होना बहुत ही असामान्य बात है। कुछ अध्ययन बताते हैं कि इस विष में मौजूद रसायन स्वास्थ्य पेशेवरों की रुचि का विषय हो सकते हैं।

जीवों के तेज़ी से हो रहे विलुप्तिकरण ने यथासंभव अधिकाधिक प्रजातियों के जीनोम का अनुक्रमण करने को गति दी की है। उम्मीद है कि वैज्ञानिक प्रगति की बदौलत ‘जुरासिक पार्क’ जैसा नज़ारा हम देख सकेंगे, जिसमें कम से कम कुछ विलुप्त जीवों को वापस जीवन दिया जा सकेगा। अधिक पेशेवर स्तर पर, जीनोम की तुलना करना मनुष्य के स्वास्थ्य को बेहतर करने के सुराग दे सकता है। पूरी तरह से अनुक्रमित जीनोम की नियमित अपडेटेड विकिपीडिया सूची में 100 पक्षी और 150 स्तनधारी हैं। और भी कई होने चाहिए।

इसलिए, यह जानना सुखद है कि भारतीय प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण की प्रयोगशालाओं ने निकोबार द्वीप समूह के एक और दुर्लभ और स्थानिक स्तनधारी जीव – निकोबर वृक्ष छछूंदर – का माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम अनुक्रमण हाल ही में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित किया है। वृक्ष छछूंदर वास्तव में छछूंदर नहीं हैं; ये काफी हद तक गिलहरी जैसी है। इन्हें एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा और हेपेटाइटिस संक्रमण के अध्ययन के लिए अच्छा मॉडल माना जाता है। उम्मीद करते हैं कि भारतीय प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण जल्द ही निकोबार वृक्ष छछूंदर का पूरा जीनोम अनुक्रमित कर लेगा। (स्रोत फीचर्स)

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क्या कुत्तों की तरह भेड़िए भी इंसानों से जुड़ सकते हैं?

अलास्कलन हस्की और मटमैला भेड़िया

1970 के दशक के अंत में पुरातत्वविदों ने उत्तरी इस्राइल में 12000 वर्ष पुराना एक प्राचीन गांव खोज निकाला था। इस गांव के लोग अपने प्रियजनों को घर के नीचे दफनाया करते थे। इस खोजबीन में उन्होंने एक कब्र का खुलासा किया था जिसमें दफन की गई महिला का हाथ एक कुत्ते के सीने पर रखा हुआ था। यह खोज मनुष्यों और कुत्तों के बीच एक शक्तिशाली भावनात्मक सम्बंध का संकेत देती है।

अलबत्ता, शोधकर्ताओं के बीच इस सम्बंध की शुरुआत को लेकर काफी मतभेद है। एक बड़ा सवाल है कि क्या यह सम्बंध कई हज़ारों वर्षों के दौरान उत्पन्न हुआ जिसमें कुत्ते दब्बू और मानव व्यवहार के प्रति अधिक संवेदनशील होते गए या इस जुड़ाव की शुरुआत कुत्तों के पूर्वजों यानी मटमैले भेड़ियों के साथ ही हो चुकी थी?

एक हालिया अध्ययन से लगता है कि वयस्क भेड़िए भी कुत्तों के समान मनुष्यों से जुड़ाव बनाने में सक्षम हैं। और तो और, कुछ परिस्थितियों में तो वे मनुष्यों को सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में भी देखते हैं।

इस नए अध्ययन में स्ट्रेंज सिचुएशन टेस्ट (अनजान परिस्थिति परीक्षण) नामक प्रयोग का इस्तेमाल किया गया है। मूलत: इसे मानव शिशुओं और उनकी माताओं के बीच लगाव का अध्ययन करने के लिए तैयार किया गया था। इसमें इस बात का मापन किया जाता है कि किसी अजनबी व्यक्ति या माहौल से सामना होने पर जो तनाव पैदा होता है, वह देखभाल करने वाले से पुन: मुलाकात होने पर किस तरह बदलता है। ऐसी स्थिति में अधिक अंतर्क्रिया मज़बूत बंधन को दर्शाती है।

भेड़ियों पर ऐसा प्रयोग करना एक मुश्किल कार्य था, इसलिए शोधकताओं ने शुरुआत शिशु भेड़ियों से की। स्टॉकहोम युनिवर्सिटी की पारिस्थितिकीविद क्रिस्टीना हैनसन व्हीट और उनके सहयोगियों ने 10 दिन पहले पैदा हुए 10 मटमैले भेड़ियों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने कई दिनों तक बारी-बारी से 24 घंटे इन शावकों के साथ बिताए और समय-समय पर उनको बोतल से दूध भी पिलाया।   

जब ये भेड़िए 23 सप्ताह के हुए तब देखभालकर्ता एक-एक करके उन्हें एक खाली कमरे में ले गया। इसके बाद वह कई बार इस कमरे के भीतर आना-जाना करता रहा। इस प्रक्रिया के दौरान भेड़िए को कभी-कभी तो कमरे में बिलकुल अकेला छोड़ दिया जाता और कभी एक नितांत अजनबी के साथ छोड़ दिया जाता। शोधकर्ताओं ने यही प्रयोग 23 सप्ताह उम्र के 12 अलास्कन हस्की नस्ल के कुत्तों के साथ भी किया, जिन्हें उसी तरह पाला गया था।

इस अध्ययन में वैज्ञानिकों को भेड़ियों और कुत्तों में बहुत ही कम अंतर दिखा। जब देखभालकर्ता ने कमरे में प्रवेश किया तो दोनों ने ‘अभिवादन व्यवहार’ के पांच-बिंदु पैमाने पर 4.6 स्कोर किया जो किसी मनुष्य के पास रहने की इच्छा को ज़ाहिर करता है। हालांकि, किसी अजनबी के प्रवेश करने पर कुत्तों में यह व्यवहार गिरकर 4.2 हो गया और भेड़ियों में 3.5 पर आ गया। इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकशित रिपोर्ट के अनुसार इससे पता चलता है कि भेड़िए और कुत्ते दोनों अनजान व्यक्ति और परिचित व्यक्ति के बीच अंतर करते हैं। अंतर करने की इस क्षमता को टीम लगाव का संकेत मानती है। प्रयोग के दौरान कुत्ते और भेड़िए, दोनों ही अजनबी की तुलना में देखभालकर्ता से शारीरिक संपर्क करने में भी एक जैसे ही दिखे। 

इसके अलावा, परीक्षण के दौरान कुत्तों ने ज़्यादा चहलकदमी नहीं की। जबकि भेड़ियों में थोड़े समय चहलकदमी देखी गई। चहलकदमी करना तनाव का द्योतक होता है। विशेषज्ञों के अनुसार मनुष्यों द्वारा पाले गए भेड़ियों में भी मनुष्य की उपस्थिति में बचैनी सामान्य है। यह भी देखा गया कि कमरे से अजनबी व्यक्ति के बाहर निकलने और देखभालकर्ता के अंदर आने पर भेड़ियों की चहलकदमी थम गई। ऐसा व्यवहार भेड़ियों में पहले कभी नहीं देखा गया था। व्हीट के अनुसार यह व्यवहार इस बात का संकेत है कि भेड़िए देखभालकर्ता मनुष्यों को सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में देखते हैं। कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस व्यवहार को सच मानें तो इस तरह का लगाव कुत्तों और भेड़ियों में एक समान ही है। अर्थात यह व्यवहार उनमें मनुष्यों द्वारा पैदा नहीं किया गया है बल्कि यह मानव चयन का एक उदाहरण है।

विशेषज्ञों का मत है कि चहलकदमी में परिवर्तन के प्रयोग को अन्य जंगली जीवों पर भी आज़माया जा सकता है जिससे यह साबित हो सके कि कोई जीव अपनी देखभाल करने वाले को मात्र भोजन प्रदान करने वाले के रूप में देखता है या फिर उसे एक सुकून और सुरक्षा के स्रोत के रूप में देखता है।

वैसे इस अध्ययन को लेकर शोधकर्ताओं में काफी मतभेद है। वर्ष 2005 में स्ट्रेंज सिचुएशन टेस्ट को कुत्तों और भेड़ियों के लिए विकसित करने वाली एट्वोस लोरांड युनिवर्सिटी की मार्था गैकसी इस अध्ययन से संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने इसी तरह के एक अध्ययन में कुत्तों और भेड़ियों के बीच काफी अंतर पाया था – भेड़िए अजनबी और देखभालकर्ता के बीच अंतर नहीं कर पाए थे। निष्कर्ष था कि भेड़ियों में विशिष्ट मनुष्यों से लगाव बनाने की क्षमता नहीं होती।     

गैकसी इस नए अध्ययन में कई पद्धतिगत समस्याओं की ओर भी इशारा करती हैं। जैसे, कमरा जानवरों के लिए जाना-पहचाना था, कुत्तों की एक ही नस्ल ली गई थी और भेड़ियों ने इतनी चहलकदमी भी नहीं की थी कि उनके व्यवहार का निर्णय किया जा सके, वगैरह। 

व्हीट का कहना है कि वे भी कुत्तों और भेड़ियों को एक समान नहीं मानती हैं लेकिन भेड़ियों में लगाव सम्बंधी व्यवहार के कुछ संकेतों के आधार कहा जा सकता है कि उनमें मनुष्यों से जुड़ाव बनाने का लक्षण पहले से मौजूद था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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