डोडो की वापसी के प्रयास

त्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार के चलते मॉरीशस द्वीप पर पाए जाने वाले डोडो पक्षी पूरी तरह विलुप्त हो गए थे। अब, कोलोसल बायोसाइंस नामक बायोटेक कंपनी ने डोडो पक्षी को वापस अस्तित्व में ले आने की महत्वाकांक्षी घोषणा की है। इस काम के लिए उन्हें 22.5 करोड़ डॉलर की धनराशि मिली है। कोलोसल बायोसाइंस की यह योजना जीनोम संपादन तकनीक, स्टेम-कोशिका जैविकी और पशुपालन की तकनीकों में परिष्कार पर निर्भर करती है।

लेकिन इसमें कितनी सफलता हासिल होगी यह निश्चित नहीं है और कई वैज्ञानिकों को लगता है कि निकट भविष्य में तो यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

डोडो की महत्वाकांक्षी वापसी का सफर उसके निकटतम जीवित सम्बंधी, चमकीले पंखों वाले निकोबार कबूतर (कैलोएनस निकोबारिका) से शुरू होगा। पहले निकोबार कबूतर से उनकी विशिष्ट आद्य जनन कोशिका यानी प्रायमोर्डियल जर्म सेल (PGC) को अलग किया जाएगा और उन्हें प्रयोगशाला में संवर्धित किया जाएगा। PGC वे अविभेदित स्टेम कोशिकाएं होती हैं जो शुक्राणु और अंडाणु बनाने का काम करती हैं। फिर, CRISPR जैसी जीन संपादन तकनीकों की मदद से PGC में डीएनए अनुक्रम को संपादित किया जाएगा और इसे डोडो के डीएनए अनुक्रम की तरह बना लिया जाएगा। इन जीन-संपादित जनन कोशिकाओं को फिर एक सरोगेट पक्षी प्रजाति के भ्रूण में डाला जाएगा।

इससे ऐसा शिमेरिक (मिश्र) जीव बनने की उम्मीद है जो डोडो के समान अंडाणु व शुक्राणु बनाएगा। और इन अंडाणुओं और शुक्राणुओं के निषेचन से संभवत: डोडो (रैफस क्यूकुलैटस) जैसा कुछ पैदा हो जाएगा।

लेकिन यह प्रक्रिया जितनी सहज दिखती है वास्तव में उतनी है नहीं। सबसे पहले तो शोधकर्ताओं को ऐसी परिस्थितियों का पता लगाना होगा जिसमें निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाएं प्रयोगशाला में अच्छी तरह पनप सकें। हालांकि चूज़ों के साथ इसी तरह का काम किया जा चुका है लेकिन अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के लिए उपयुक्त परिस्थितियां पहचानने में समय लगेगा।

इसके बाद एक बड़ी चुनौती होगी निकोबार कबूतरों और डोडो के डीएनए के बीच अंतरों को पहचानना। डोडो और निकोबार कबूतर के साझा पूर्वज लगभग 3 करोड़ से 5 करोड़ साल पहले पाए जाते थे। इन दोनों पक्षियों के जीनोम की तुलना करके उन अधिकांश डीएनए परिवर्तनों की पहचान की जा सकती है जिन्होंने उनके बीच अंतर पैदा किया था। डोडो परियोजना की सलाहकार बेथ शेपिरो की टीम ने डोडो के जीनोम का अनुक्रमण कर लिया है, लेकिन अभी ये परिणाम प्रकाशित नहीं हुए हैं।

डीएनए अनुक्रम में सटीक अंतर पता करने के लिए डोडो का उच्च गुणवत्ता का जीनोम उपलब्ध होना महत्वपूर्ण होगा। दरअसल प्राचीन जीवों के जीनोम छिन्न-भिन्न हालत में मिलते हैं और इनका विश्लेषण करके डीएनए के छोटे-छोटे खंडों का अनुक्रमण किया जाता है और फिर उन्हें एक साथ जोड़ कर पूरा जीनोम तैयार किया जाता है। ज़ाहिर है, इस तरह तैयार जीनोम की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं होती और इनमें कई कमियां और त्रुटियां रह जाती हैं।

इसलिए दोनों पक्षियों के बीच डीएनए के हरेक अंतर का पता लगाना संभव नहीं लगता। पूर्व में किए गए रैटस मैक्लेरी और रैटस नॉर्वेजिकस नामक दो चूहा प्रजातियों के जीनोम की तुलना के परिणामों के आधार पर लगता है कि डोडो जीनोम में गैप (अधूरी जानकारी) उन डीएनए क्षेत्रों में अधिक मिलेगी जिनमें डोडो और निकोबर कबूतर के अलग होने के बाद सबसे अधिक परिवर्तन हुए थे।

अब यदि शोधकर्ता जीनोम में हर बारीक अंतर पता भी कर लेते हैं तो निकोबार कबूतर की जनन कोशिकाओं में ऐसे हज़ारों परिवर्तनों शामिल करना आसान काम नहीं होगा। बटेर के जीनोम में सिर्फ एक आनुवंशिक परिवर्तन करने में शोधकर्ताओं को काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

एक सुझाव है कि डीएनए परिवर्तन सिर्फ उन खंडों तक सीमित रखा जाए जो प्रोटीन का निर्माण करवाते हैं। इससे ज़रूरी संपादनों की संख्या थोड़ी कम की जा सकती है।

एक और बड़ी समस्या है इतना बड़ा पक्षी, जैसे एमू (ड्रोमाईस नोवेहोलैंडिया), खोजना जो डोडो जैसे अंडे को संभाल सके। डोडो के अंडे निकोबार कबूतर के अंडे से बहुत बड़े होते हैं। इसलिए निकोबार के अंडों में डोडो की वृद्धि नहीं की जा सकती। मुर्गियों के भ्रूण अन्य पक्षियों की जनन कोशिकाओं के प्रति काफी ग्रहणशील होते हैं। पूर्व में शिमेरिक मुर्गियां तैयार की गई हैं जो बटेर के शुक्राणु पैदा कर सकती हैं, लेकिन अंडाणु बनाने में अब तक सफलता नहीं मिली है। इस लिहाज़ से लगता है कि जनन कोशिकाओं को एक पक्षी से दूसरे में स्थानांतरित करना कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा, खास तौर से तब जब इन जनन कोशिकाओं में जीन संपादन के ज़रिए व्यापक परिवर्तन कर दिए गए हों।

सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि इतने प्रयास क्या वास्तविक डोडो जैसा कुछ दे पाएंगे? बहरहाल, कोलोसल बायोसाइंस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी इन बाधाओं को स्वीकार करते हैं, और कहते हैं कि डोडो बने या न बने लेकिन इस काम से अन्य पक्षियों के संरक्षण के प्रयासों में मदद मिलेगी। ये प्रयास पक्षी संरक्षण के लिए कई नई प्रौद्योगिकियां देंगे। अन्य विशेषज्ञों का कहना है कि येन केन प्रकारेण डोडो बन भी जाए तो डोडो के शिकारी तो आज भी मौजूद हैं। तो खतरा तो मंडराएगा ही। इसलिए यदि इतना पैसा उपलब्ध है तो उसे अन्य जीवों को विलुप्त होने से बचाने के प्रयास में लगाया जाना बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2023/02/Bringing-back-the-dodo-20230201.jpg

चूहों में बुढ़ापे को पलटा गया

क दशक पूर्व जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के शिन्या यामानाका को ऐसे प्रोटीन्स की खोज के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था जिनकी मदद से वयस्क कोशिकाओं को वापिस उनकी प्रारंभिक स्थिति (स्टेम कोशिकाओं) में तबदील किया जा सकता है। अब दो शोधकर्ता दलों ने दावा किया है कि ये प्रोटीन्स सिर्फ कोशिकाओं को नहीं बल्कि पूरे जीव को उसकी प्रारंभिक स्थिति में ला सकते हैं – यानी बुढ़ापे को पलट सकते हैं। .

इनमें से एक दल एक बायोटेक कंपनी में कार्यरत है और उसने तथाकथित यामानाका फैक्टर को जीन-उपचार की तकनीक से बूढ़े चूहों में प्रविष्ट कराया और उनके जीवनकाल को थोड़ा लंबा करने में सफलता पाई। दूसरे दल ने जेनेटिक इंजीनियरिग की मदद से चूहे विकसित किए और बुढ़ापे के लक्षणों को पलटा।

दोनों ही मामलों में लगता है कि यामानाका फैक्टर्स ने चूहों के एपिजीनोम को बदल दिया। एपिजीनोम डीएनए और प्रोटीन्स में होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को कहते हैं जो जीन्स की अभिव्यक्ति को बदल देते हैं – उसे ज़्यादा युवावस्था जैसा बना देते हैं। गौरतलब है कि इस प्रक्रिया में डीएनए के क्षारों में या उनके क्रम में परिवर्तन नहीं होता।

इससे पहले भी कई समूहों ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे तैयार किए हैं जो वयस्क होने पर खुद यामानाका फैक्टर्स बनाने लगते हैं और बुढ़ापे के कुछ लक्षणों को पलटने में सक्षम होते हैं। अब जो प्रयोग किए गए हैं उनका मकसद मनुष्यों के लिए कुछ उपचार खोजना है।

इसी संदर्भ में रीजुविनेट बायो नामक कंपनी के शोधकर्ताओं ने उक्त यामानाका फैक्टर्स के जीन्स से युक्त एक वायरस को चूहों में इंजेक्ट किया। देखा गया कि इसके बाद ये चूहे 18 सप्ताह तक जीवित रहे जबकि शेष चूहे मात्र 9 सप्ताह। शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स में बताया है कि इन चूहों में डीएनए मिथायलेशन का पैटर्न अपेक्षाकृत युवा चूहों जैसा हो गया था। डीएनए मिथायलेशन एपिजेनेटिक परिवर्तन का एक प्रकार है। वैसे कुछ अन्य अध्ययनों में पाया गया था कि यामानाका फैक्टर्स कैंसर को बढ़ावा देते हैं लेकिन इस अध्ययन में ऐसा कुछ नहीं देखा गया।

दूसरा अध्ययन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डेविड सिन्क्लेयर के दल द्वारा सेल में प्रकाशित किया गया है। कहते हैं कि सिन्क्लेयर पिछले दो दशकों में कई वृद्धावस्था रोधी विवादास्पद हस्तक्षेपों के प्रणेता रहे हैं। सिन्क्लेयर का दल वृद्धावस्था के सूचना सिद्धांत के आधार पर काम कर रहा था। इस सिद्धांत में कहा जाता है कि हम बूढ़े इसलिए होते हैं क्योंकि समय के साथ एपिजेनेटिक चिंह खत्म होते जाते हैं। सिन्क्लेयर का मत है कि हमारी कोशिकाओं में डीएनए मरम्मत की व्यवस्था ही इसके लिए ज़िम्मेदार होती है।

तो इस दल ने जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे चूहे विकसित किए जिनमें यह गुण था कि उन्हें एक विशिष्ट औषधि देने पर वे एक एंज़ाइम बनाते थे जो उनके जीनोम को 20 जगह काट देता है। इन्हें फिर उक्त व्यवस्था द्वारा निष्ठापूर्वक दुरुस्त कर दिया जाता है। परिणाम यह होता है कि कोशिका के डीएनए मिथायलेशन और जीन अभिव्यक्ति में व्यापक परिवर्तन होते हैं। इन चूहों में जो एपिजेनेटिक पैटर्न था वह अपेक्षाकृत बुज़ुर्ग चूहों का था और उनकी सेहत भी बिगड़ गई – उनके बाल झड़ गए, रंग उड़ गया और उनमें दुर्बलता के कई लक्षण नज़र आने लगे।

अब शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या एपिजेनेटिक बदहाली के इन लक्षणों को पलटाया जा सकता है। उन्होंने एक वायरस के साथ यामानाका फैक्टर्स दिए और देखा कि बुढ़ाते चूहों की दृष्टि सुधर गई थी। कई अन्य मामलों में यामानाका फैक्टर्स ने एपिजेनेटिक सुधार किए थे। इसके आधार पर सिन्क्लेयर का मत है कि बुढ़ापे को आगे-पीछे कर सकते हैं और कुछ इलाज उभर सकता है।

बहरहाल, जैसा कि हमेशा होता है, पूरे मामले में कई अगर-मगर हैं। एक तो यही कि जो एपिजेनेटिक परिवर्तन किए गए थे वे कुदरती नहीं थे। पता नहीं कुदरती परिवर्तन किस तरह होते हैं और उनका क्या असर होता है। दूसरा कि चूहे और मनुष्य बहुत अलग-अलग हैं। तीसरा कि बुढ़ाना एक पेचीदा प्रक्रिया है और ये प्रयोग उसका सरलीकरण करते हैं। इन सारे अगर-मगर के बावजूद शोधकर्ता आगे बढ़कर मनुष्यों पर प्रयोग करने को उत्सुक हैं। बंदरों पर जांच तो शुरू भी हो चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg6801/abs/_20230112_on_aging_mice.jpg

दवा कारखाने के रूप में पालतू बकरी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत और कई विकासशील देशों के गांवों में पालतू बकरी (कैपरा हिर्कस) मिलना आम है। पालतू बनाए जाने के समय (लगभग 10,000 साल पहले) से ही बकरियों ने मानव समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक भूमिका निभाई है। यह भी कहा गया है कि मनुष्यों का शिकारी-संग्राहक जीवन शैली से कृषि आधारित बस्तियों में बसने में बकरियों का पालतूकरण एक महत्वपूर्ण कदम था।

खाद्य और कृषि संगठन (FAO) का अनुमान है कि दुनिया में लगभग 1000 नस्लों की 83 करोड़ बकरियां हैं। भारत में 20 से अधिक प्रमुख नस्लों की 15 करोड़ बकरियां हैं। राजस्थान में बकरियों की संख्या सबसे अधिक है – यहां पाई जाने वाली मारवाड़ी बकरी सख्तजान है और रेगिस्तानी जलवायु के अनुकूल है। एक और सख्तजान नस्ल है उस्मानाबादी जो महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तरी कर्नाटक के शुष्क क्षेत्रों में पाई जाती है।

उत्तरी केरल की मलाबारी बकरी (जिसे टेलिचेरी भी कहा जाता है) एक ऐसी नस्ल है जिसके मांस में वसा कम होती है और वह खूब संतानें पैदा करती है। ऐसे ही गुण पंजाब की बीटल बकरी में भी होते हैं। पूर्वी भारतीय ब्लैक बंगाल बकरी बांग्लादेश के ग्रामीण गरीबों की आजीविका में महत्वपूर्ण योगदान देती है। ये 2 करोड़ वर्ग फुट से अधिक चमड़ा प्रदान करती हैं जिसका उपयोग अग्निशामकों के लिए दस्ताने बनाने से लेकर फैशनेबल हैंडबैग और चमड़े के अन्य सामान बनाने में होता है। चूंकि कई किसानों के पास मवेशी पालने के लिए जगह या धन की कमी है, इसलिए बकरियों को ‘गरीब आदमी की गाय’ उचित ही कहा जाता है।

भारत के पहाड़ी क्षेत्रों में जंगली बकरियों की बहुत कम आबादी है, जिनसे पालतू बकरियां या भेड़ें विकसित हुई हैं। इनमें मार्खोर और हिमालयी और नीलगिरी ताहर शामिल हैं।

समुद्री यात्राओं के स्वर्ण युग में इन यात्राओं के ज़रिए भारतीय बकरियों के जीन दुनिया के सभी इलाकों में फैले। भारत से युरोप जाने वाले जहाजों पर लदी बकरियां महीने भर लंबी यात्रा के दौरान लोगों के लिए दूध और मांस उपलब्ध कराती थीं। उत्तर प्रदेश की जमुनापारी बकरियों को पसंद किया गया क्योंकि वे आठ महीने के स्तनपान काल के दौरान 300 किलोग्राम दूध देती हैं। इंग्लैंड में कभी, उच्च वसा वाला दूध देने वाली बकरियों की नस्ल, एंग्लो-न्युबियन, विकसित करने के लिए जमुनापारी बकरियों का वहां की स्थानीय नस्ल के साथ संकरण कराया गया था।

औषधि का निर्माण

बकरियां लगभग दो साल में प्रजनन शुरू कर देती हैं और भरपूर दूध देती हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि बकरियों ने चिकित्सकीय प्रोटीन उत्पादन के लिए जैव प्रोद्योगिकी कंपनियों का ध्यान आकर्षित किया है।

इसमें पहली सफलता एट्रीन (ATryn) के साथ मिली है – यह बकरी से उत्पादित एंटीथ्रॉम्बिन-III अणु का व्यावसायिक नाम है। एंटीथ्रॉम्बिन रक्त को थक्का बनने से मुक्त रखता है, और इस प्रोटीन की कमी (जो आम तौर पर वंशानुगत होती है) से पल्मोनरी एम्बोलिज़्म जैसी गंभीर समस्याएं पैदा हो सकती हैं। इससे पीड़ित व्यक्तियों को सप्ताह में दो बार एंटीथ्रॉम्बिन इंजेक्शन की आवश्यकता होती है, जो आम तौर पर दान किए गए रक्त से निकाला जाता है।

ट्रांसजेनिक बकरियों, जिनमें मानव एंटीथ्रॉम्बिन जीन की एक प्रति रोपी जाती है, की स्तन ग्रंथियों की कोशिकाएं दूध में यह प्रोटीन स्रावित करती हैं। ऐसा दावा है कि एक बकरी उतना एंटीथ्रॉम्बिन बना सकती है जितना 90,000 युनिट मानव रक्त से प्राप्त होता है।

हाल ही में एफडीए द्वारा अनुमोदित सेटुक्सिमैब नामक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी औषधि का निर्माण क्लोन बकरियों में किया गया है। इसे बड़ी मात्रा में (प्रति लीटर दूध से 10 ग्राम) बनाया जा सकता है। फिलहाल यह मालूम नहीं है कि यह ‘औषधि’ सुरक्षा और प्रभावकारिता सम्बंधी नियामक बाधाओं को पार कर पाएगी या नहीं। अब देखना यह है कि क्या अन्य मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के अधिक मात्रा में उत्पादन के लिए बकरियों का इस्तेमाल दवा कारखानों के रूप में किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/w0g5g2/article66441325.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/ERGOV_14-8-2015_15-37-31_ER15GOAT2.JPG

क्या खब्बू होना विरासत में मिलता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यदि किसी व्यक्ति की मां खब्बू यानी बाएं हाथ से काम करने वाली हो, तो ज़्यादा संभावना होती है कि वह भी खब्बू हो।

म इन्सान दो पैरों पर चलते हैं यानी दोपाए हैं और अपने दो हाथों का उपयोग करते हैं। दोपाएपन का विकास हमारे पूर्वजों – प्रायमेट्स –  में लगभग 40 लाख पहले शुरू हो गया था। प्रायमेट जीवों ने न सिर्फ हमें हमारे रक्त समूह की सौगात दी, बल्कि दो पैर और दो हाथ भी दिए हैं। प्रायमेट्स में कई ऐसे लक्षण पाए जाते हैं जो उन्हें कम विकसित स्तनधारियों से अलग करते हैं। जैसे पेड़ों पर रहने (जैसा कि बंदर करते हैं) के लिए हुए अनुकूलन, बड़े मस्तिष्क, बेहतर दृष्टि संवेदना, उंगलियों के सामने आ जाने वाला (सम्मुख) अंगूठा जिसके चलते चीज़ों पर पकड़ बेहतर बनती है, और कंधों की ज़्यादा लचीली गतियां।

चार हाथों से दो तक

जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के डॉ. तेत्सुरो मात्सुज़ावा लिखते हैं कि प्रायमेट्स के साझा पूर्वज पेड़ों पर चढ़े और उन्होंने अपने ज़मीनी पूर्वजों के चार पैरों से चार हाथ विकसित किए। यह वृक्ष-आधारित जीवन के लिए एक अनुकूलन था। इससे उन्हें पेड़ के तने और शाखाओं पर बढ़िया पकड़ बनाने में मदद मिलती थी। इसके बाद किसी समय प्रारंभिक मानव पूर्वज पेड़ों से उतरे और ज़मीन पर दो पैरों से लंबी-लंबी दूरियां तय करने लगे। इस तरह हमने अपने प्रायमेट पूर्वजों से विकास के दौरान चार हाथों से दो पैर और दो हाथ बना लिए।

यूएस के मिसौरी विश्वविद्यालय के मानव वैज्ञानिक कैरोल वार्ड बताते हैं कि कैसे हम मनुष्य इस दुनिया में जिस ढंग से विचरते हैं, वह किसी भी अन्य प्राणि से भिन्न है। हम ज़मीन पर दो पैरों पर सीधे खड़े होकर चलते हैं लेकिन एकदम अनोखे ढंग से: पहले एक पैर, फिर दूसरा पैर, अपने शरीर को एकदम सीधा रखकर गतियों के एक विशिष्ट क्रम में। लिहाज़ा, यह समझना एक बड़ी बात है कि हम इसी तरह क्यों चलते हैं और हमारा वंश (होमो) अपने वानर-सदृश पूर्वजों से इतना दूर कैसे निकल गया।

मानव मस्तिष्क हमारे सबसे निकट सम्बंधी – चिम्पैंज़ी – से लगभग तीन गुना बड़ा है। इसके अलावा हमारे मस्तिष्क के सेरेब्रल कॉर्टेक्स नामक हिस्से में चिम्पैंज़ी के उसी हिस्से के मुकाबले कोशिकाओं की संख्या दुगनी है। गौरतलब है कि सेरेब्रल कॉर्टेक्स याददाश्त, एकाग्रता और सोच-विचार में प्रमुख भूमिका निभाता है। यानी हम वनमानुषों से ज़्यादा स्मार्ट हैं।

तो क्या यह जीन्स में है

अब सवाल आता है हाथों के इस्तेमाल में वरीयता यानी हैंडेडनेस का। लगभग 10 प्रतिशत लोग वामहस्त (खब्बू) हैं। यह कैसे हुआ? यह आज भी गर्मागरम बहस का मुद्दा है। हो सकता है कि इसमें कुछ जेनेटिक अंश हो: आपके खब्बू होने की संभावना आपकी मां के खब्बू होने से ज़्यादा जुड़ी होती है बनिस्बत आपके पिता की स्थिति से। यदि आपके माता-पिता दोनों खब्बू हों तो आपके खब्बू होने की संभावना 50 प्रतिशत हो जाती है। पाकिस्तान के सरगोधा विश्वविद्यालय के एक दल ने जरनल ऑफ इंडियन एकेडमी ऑफ एप्लाइड सायकोलॉजी (JIAAP) में बताया है कि खब्बू सहभागी दाहिने हाथ वाले (दक्षिणहस्त) सहभागियों की तुलना में अधिक बुद्धिमान होते हैं।

लंदन विश्वविद्यालय के डॉ. क्रिस मैकमेनस ने 2019 में एक विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित किया था: ‘हाफ ए सेंचुरी ऑफ हैंडेडनेस रिसर्च: मिथ्स, ट्रुथ्स, फिक्शन्स, फैक्ट्स; बैकवर्ड्स बट मोस्टली फॉरवर्ड्स’। यह लेख ब्रेन एंड न्यूरोसाइंस एडवांसेज़ नामक जरनल में प्रकाशित हुआ था। उन्हें उम्मीद है कि जीन अनुक्रमण और मस्तिष्क स्कैनिंग तकनीकों में हर तरक्की के साथ हम आने वाले वर्षों में हैंडेडनेस के बारे में और अधिक जान पाएंगे।

खब्बू फायदे में

खेलकूद में हम देख ही सकते हैं कि खब्बू खिलाड़ी दाहिने हाथ वालों पर हावी हैं। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में लगभग 20 प्रतिशत उच्च स्तरीय बल्लेबाज़ खब्बू हैं। और ओपन-एरा विंबलडन प्रतियोगिता में 23 प्रतिशत बढ़िया खिलाड़ी खब्बू हैं। क्रिकेट में गौतम गंभीर और सौरभ गांगुली, टेनिस में राफेल नडाल और मार्टिना नवरातिलोवा, फुटबॉल में लियोनल मेसी। कहना न होगा कि महात्मा गांधी दोनों हाथों में निपुण (एम्बीडेक्स्ट्रस) थे, और आइज़ेक न्यूटन भी। इस फेहरिस्त में आप भी कई नाम जोड़ सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://live-production.wcms.abc-cdn.net.au/75bd792e05d073040d124757649a4228?impolicy=wcms_crop_resize&cropH=1112&cropW=1976&xPos=40&yPos=276&width=862&height=485

कुछ कैनरी पक्षी खाने में माहिर होते हैं

कैनरी के लिए बीज खाना सीखना एक कठिन काम हो सकता है। लेकिन शोधकर्ताओं ने पिछले हफ्ते सम्पन्न हुई सोसायटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में बताया कि इनमें से कुछ पक्षी अपने साथी पक्षियों की तुलना में काष्ठ फलों की सख्त खोल को तोड़ने में चार गुना अधिक तेज़ होते हैं और उनके अंदर मौजूद पौष्टिक गरी तक पहुंच जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने 90 कैनरी पक्षियों का बाज़ार में मिलने वाले उनके भोजन या सन के बीज खाते हुए वीडियो बनाया। इन बीजों की साइज़ सेब के बीज औैर तिल के बीच थी, और इनकी खोल सख्त थी। इस सबमें पक्षियों के लिए सबसे कठिन काम था बीजों को चोंच में सही जगह पर सही तरीके से रखना ताकि चोंच बड़े करीने से इसे फोड़ सके – बीज की खोल फूटकर छिटक जाए और गरी चोंच में बनी रहे।

फुर्तीली कैनरियों को बीज को चोंच में सही स्थिति में रखने और इसे फोड़ने में 4 सेकंड या उससे भी कम समय लगा, और इनमें से कुछ कैनरी ने लगभग 80 प्रतिशत बार सफलतापूर्वक बीज फोड़ लिए। लेकिन अन्य कैनरियों को केवल 40 प्रतिशत बार ही सफलता मिली।

आप इस अध्ययन का वीडियो यहां देख सकते हैं:

https://www.science.org/content/article/some-canaries-are-superstar-seed-crackers-watch-their-tricks?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_

शोधकर्ताओं के अनुसार जल्दी खाना जीवित रहने का एक ज़रूरी कौशल है: कोई पक्षी भरपेट खाने में जितना अधिक समय लगाएगा, उतना ही अधिक समय तक वह खुले में रहेगा, और उतना ही अधिक उसे शिकारियों का खतरा होगा और उसके पास उतना ही कम समय प्रजनन और अपने बच्चों की देखभाल के लिए बचेगा। शोधकर्ताओं का कहना है कि सबसे कुशल पक्षी जानते थे कि उनकी चोंच में बीज कहां है।

अब, आगे के अध्ययन में शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या यह समझ सीखी गई है या उन्हें विरासत में मिली है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg6785/abs/_20220112_on_bird.jpg

मधुमक्खियों के लिए टीका!

हाल ही में जॉर्जिया की एक बायोटेक कंपनी को मधुमक्खियों के लिए टीके की सशर्त स्वीकृति प्राप्त हुई है। इस टीके से वायरस और अन्य रोगजनकों को नियंत्रित करने में मदद मिलेगी जो मधुमक्खियों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। यह कीटों के लिए विश्व का पहला टीका है।

डेलन एनिमल हेल्थ नामक कंपनी द्वारा विकसित टीका मधुमक्खियों को अमेरिकन फाउलब्रूड जैसे बैक्टीरिया से सुरक्षा प्रदान करता है। फिलहाल इस बैक्टीरिया से निपटने के लिए मधुमक्खियों की संक्रमित कॉलोनियों को जला दिया जाता है या एंटीबायोटिक्स का उपयोग किया जाता है।

गौरतलब है कि विश्व भर में मधुमक्खियों के करोड़ों छत्ते हैं लेकिन अन्य जीवों के विपरीत उनके लिए पर्याप्त स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं है। इस टीके की मदद से अब मधुमक्खियों की प्रतिरोध क्षमता में सुधार की संभावना है।

टीके की बात आते ही लगता है कि सिरिंज की मदद से रोगजनक का मृत/दुर्बलीकृत संस्करण मधुमक्खी के शरीर में इंजेक्ट किया जाएगा। लेकिन ऐसा नहीं है – वास्तव में यह टीका भोजन के रूप में दिया जाएगा। टीके को रॉयल जैली में मिला दिया जाएगा जो रानी मधुमक्खी को खिलाई जाती है। इसे निगलने पर यह टीका उनके अंडाशय में जमा हो जाएगा और नई पीढ़ी की इल्लियां प्रतिरक्षा के साथ पैदा होंगी।   

वैज्ञानिकों का मानना रहा है कि कीटों में एंटीबॉडी नहीं होती, इसलिए उनमें प्रतिरक्षा विकसित होना संभव नहीं है। एंटीबॉडी एक प्रकार के प्रोटीन होते हैं जिनकी मदद से कई जंतु बैक्टीरिया और वायरस को पहचानकर उनसे लड़ते हैं। अलबत्ता, एक बार यह समझ लेने के बाद कि कीट भी प्रतिरक्षा हासिल कर सकते हैं और अगली पीढ़ी को दे सकते हैं, वैज्ञानिकों ने इस दिशा में काम करना शुरू किया।

वर्ष 2015 में डेलाइल फ्राइटेक और उनके सहयोगियों ने उस विशिष्ट प्रोटीन की पहचान की जो संतानों में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा कर सकता है। यानी छत्ते की रानी मधुमक्खी की मदद से पूरे छत्ते की आबादी में प्रतिरक्षा विकसित की जा सकती है क्योंकि एक छत्ते में सारी संतानें एक ही रानी मधुमक्खी की होती हैं। वैज्ञानिकों का पहला लक्ष्य अमेरिकन फाउलब्रूड रोग था। इसके कारण मधुमक्खी के लार्वा भूरे होकर छत्ते में दुर्गंध उत्पन्न करने लगते हैं। यह मधुमक्खियों की कॉलोनियों को खत्म करने में भी सक्षम है।

यह टीका महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि खाद्य प्रणाली में मधुमक्खियां परागणकर्ता की महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण कई फसलों के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन कुछ समय से जलवायु परिवर्तन, कीटनाशकों, प्राकृतवासों के नष्ट होने और बीमारियों के कारण इनकी आबादी में कमी आई है। इस टीके को सशर्त अनुमोदन देने से कंपनियों को मधुमक्खियों के लिए टीके बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा। खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/news/976/cpsprodpb/A867/production/_128211134_gettyimages-538390424.jpg

मच्छर के खून से संक्रमण का सुराग

कोई मच्छर आपका खून चूसे तो काफी तकलीफदायक होता है और कभी-कभी बीमारी की सौगात भी साथ लाता है। लेकिन हर चीज़ का एक सकारात्मक पक्ष भी होता है। वैज्ञानिकों ने पाया है कि रक्तपान कर चुके मच्छर के खून का विश्लेषण करके पता लगाया जा सकता है कि उसने जिस व्यक्ति (अथवा जानवर को) काटा था उसके शरीर में कौन-कौन से संक्रमण मौजूद थे। वैसे यह रोग निदान की तकनीक तो साबित नहीं होगी लेकिन इससे किसी क्षेत्र में संक्रमणों का अध्ययन करने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा इस तरीके की मदद से यह भी पता चल सकेगा कि किसी क्षेत्र में कौन-सा संक्रमण फैलने की आशंका है।

ऐसा नहीं है कि इस तरह का अध्ययन पहली बार किया गया है। लेकिन वे सभी स्वयं व्यक्ति के खून में एंटीबॉडीज़ की उपस्थिति पर टिके थे। एंटीबॉडीज़ शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र बनाता है और ये शरीर में कई महीनों तक टिकी रह सकती हैं। लेकिन हाल के अध्ययन में ब्रिसबेन स्थित क्यू.आई.एम.आर. बर्गहॉफर मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट की कार्ला विएइरा ने मच्छरों की मदद ली।

विएइरा ने अपना अध्ययन रॉस रिवर वायरस पर केंद्रित किया था। यह वायरस ऑस्ट्रेलिया और कुछ द्वीपों का स्थानिक है और काफी दुर्बलताजनक बीमारी का कारण बन सकता है। विएइरा और उनके साथियों ने 2021 और 2022 में ब्रिसबेन के बगीचों से करीब 55,000 मच्छर पकड़े। इनमें से जिन मच्छरों ने हाल ही में रक्तपान किया था, उनमें से शोधकर्ताओं ने लगभग 2-2 मिलीलीटर खून निचोड़ा और उसमें रॉस रिवर वायरस की एंटीबॉडी की जांच की। इसके अलावा शोधकर्ताओं ने उस खून में से डीएनए के खंडों का अनुक्रमण करके यह भी पता किया कि किसी मच्छर ने किस मेज़बान (मनुष्य अथवा जानवर) का खून पीया था।

अध्ययन के प्रारंभिक नतीजों में बताया गया है कि पकड़े गए मच्छरों में से 480 खून से लबालब थे। इनमें से आधे से ज़्यादा ने मनुष्यों का खून पीया था जबकि शेष ने अन्य जानवरों का (जैसे 6 प्रतिशत गाय, 9 प्रतिशत कंगारू वगैरह)। मनुष्यों का खून पी चुके मच्छरों से प्राप्त नमूनों में आधे से ज़्यादा में रॉस रिवर वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी पाई गई।

इसी प्रकार के एक अन्य अध्ययन में मच्छरों द्वारा जानवरों के चूसे गए खून के नमूनों में कोविड वायरस और एक परजीवी (टॉक्सोप्लाज़्मा गोंडी) के विरुद्ध एंडीबॉडी मिलीं।

ऐसा लगता है कि यह तकनीक बीमारियों के प्रसार के अध्ययन में काफी उपयोगी साबित हो सकती है। लेकिन इसकी कुछ सीमाएं भी हैं। जैसे आंकड़ों से यह पता नहीं चलता कि जिस जानवर का खून मच्छर ने पीया था वह मच्छर पकड़े जाने के स्थान से कितना दूर था।

इसके अलावा एक दिक्कत यह है कि मच्छरों के खून में एंडीबॉडी मिलने के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि उतने ही अनुपात में संक्रमण भी आबादी में मौजूद है क्योंकि हो सकता है कि कई मच्छरों ने एक ही व्यक्ति को काटा हो। एक परेशानी यह बताई गई है कि खून पी चुका (चुकी) मच्छर को पकड़ना मुश्किल होता है क्योंकि खून पीने के बाद वह किसी अंधेरे स्थान में बैठकर उस खून को पचाती है। बहरहाल यह रोग प्रसार के संदर्भ में एक नई तकनीक तो है ही, जिसमें यह समस्या नहीं होगी कि आप एक-एक व्यक्ति के खून का नमूना एकत्रित करते फिरें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.nature.com/original/magazine-assets/d41586-022-04125-1/d41586-022-04125-1_23749622.jpg

राजहंस कैसे कीचड़ से भोजन छान लेता है

गुलाबी पंखों और लंबे डग भरने वाले फ्लेमिंगो (राजहंस) अन्य मामलों में भी बाकियों से अलग हैं। वे कीचड़ में से छोटे-छोटे झींगों, कीड़े-मकोड़ों और अन्य जीवों को छानने (या चुनने) में इतने माहिर हैं कि वे कम भोजन वाले उन इलाकों, जिनमें नमक के मैदान, क्षारीय झीलें और गर्म पानी के झरने शामिल हैं, में भी जीवित रहते हैं, जहां से अधिकांश पक्षी पलायन कर जाते हैं।

पिछले हफ्ते सोसाइटी फॉर इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की वार्षिक बैठक में फ्लेमिंगो की खानपान की आदतों पर प्रस्तुत एक नवीन अध्ययन में बताया गया कि इस सफलता का कारण तरल यांत्रिकी में उनकी महारत है। वे पानी की भौतिकी की मदद से भोजन मुंह तक पहुंचाते हैं।

जॉर्जिया युनिवर्सिटी के विक्टर ओर्टेगा-जिमेनेज़ और उनके साथियों ने नैशविले चिड़ियाघर में चिली फ्लेमिंगो के पानी में चलने और खाने के व्यवहार का अध्ययन परिष्कृत इमेजिंग तकनीकों और कंप्यूटर प्रोग्राम की मदद से किया। फिर अपने अनुमानों की जांच उन्होंने फ्लेमिंगो के सिर के त्रि-आयामी मॉडल पर की।

उन्होंने पाया कि फ्लेमिंगो चोंच को गोल-गोल घुमाकर पानी में भंवर पैदा करते हैं जिससे भोजन उनकी पहंुच में आ जाता है। उदाहरण के लिए, राजहंस पैर पटकते हैं और छोटे गोले में चारों ओर घूमते हैं जिससे कीचड़ ऊपर उछलता है। फिर वे अपनी चोंच को पेंदे से सटाते हैं और अपने मुंह को बार-बार खोलते-बंद करते हैं जैसे पटर-पटर बात कर रहे हों, फिर तालाब के पेंदे से जीभ सटाकर अपनी जीभ को अंदर-बाहर खींचते हुए सक्शन पैदा करते हैं। बीच-बीच में, वे अचानक अपना सिर उठाते हैं जिससे एक भंवर पैदा होता है, जो भोजन को ऊपर उनके मुंह की ओर उठाता है। और आखिर में, जैसे ही फ्लेमिंगो आगे बढ़ते हैं, वे अपनी चोंच से पानी की सतह को पीछे की ओर फेंकते हैं, जिससे पानी में भंवर बन जाता है जो भोजन को ठीक उनकी चोंच के सिरे पर ले आता है। और भोजन सीधे पेट में पहुंचने को तैयार होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg6089/abs/_snowflamingoshavemasteredfluiddynamics.jpeg

कैरेबियन घोंघों का संरक्षण, मछुआरे की चिंतित

रानी घोंघा अपनी आकर्षक खोल (शंख) और स्वादिष्ट मांस के लिए प्रसिद्ध है। सदियों से इन्हें इनके मांस के लिए पकड़ा जा रहा है। इनके मांस की सबसे अधिक खपत संयुक्त राज्य अमेरिका में होती है। अमरीकी सरकार के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया एक अध्ययन बताता है कि इस आपूर्ति के लिए इनका अतिदोहन रानी घोंघो को विलुप्ति की ओर धकेल सकता है।

इस अध्ययन पर सार्वजनिक राय लेने के बाद अब इस बात पर विचार किया जा रहा है कि इन कैरेबियाई प्रजातियों को संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत जोखिमग्रस्त जीवों की सूची में शामिल किया जाए या नहीं।

इस कदम का कई देशों के मछुआरे विरोध कर रहे हैं – उनकी चिंता है कि इस तरह सूचीबद्ध करने से यूएस को घोंघे का मांस निर्यात करना मुश्किल हो जाएगा, जो उनका सबसे बड़ा बाज़ार है।

अध्ययन पर अंतर-सरकारी संगठन, कैरेबियन रीजनल फिशरीज़ मैकेनिज़्म, की मत्स्य विज्ञानी मैरेन हेडली का कहना है कि हमें नहीं लगता है कि इस समय संकटग्रस्त प्रजाति अधिनियम के तहत इन प्रजातियों को सूचीबद्ध करना उचित है, या इनकी रक्षा के लिए यही सर्वोत्तम विकल्प है। प्रजातियों को जोखिमग्रस्त सूची में शामिल करने से पड़ने वाले संभावित आर्थिक प्रभाव का हवाला देते हुए उनका कहना है कि हमारा उद्देश्य मत्स्य-संसाधनों का बेहतर प्रबंधन होना चाहिए।

ये घोंघे समूचे कैरबियाई सागर में समुद्री घास के झुरमुटों में रहते हैं। बहामास के तट पर पकड़े गए घोंघों की खोल का विशाल ढेर इनके अतिदोहन का गवाह है। ये तो गनीमत है कि इनमें से कुछ प्रजातियां अपनी कुछ खासियत की वजह से कभी-कभी शिकारी गोताखोरों से बच जाती हैं। कुछ घोंघे दुर्गम समुद्री इलाकों में या बहुत गहराई में रहने की वजह से सुरक्षित बच जाते हैं। वहीं वयोवृद्ध घोंघे, जो 35 सेंटीमीटर तक लंबे हो जाते है, उम्र के साथ उनकी खोल पर उगने वाले शैवाल या प्रवाल की वजह से शिकारियों से ओझल रहते हैं।

इनके अतिदोहन के कारण 1975 में फ्लोरिडा में घोंघे पकड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। इनकी घटती आबादी के कारण अन्य देशों ने भी इस पर प्रतिबंध लगाने का कदम उठाया। और 1992 में वन्य जीवों और वनस्पतियों की संकटग्रस्त प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि (CITES) द्वारा घोंघों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को नियंत्रित किया गया। घोंघे के निरंतर अतिदोहन से चिंतित CITES ने 2003 में होंडुरास, हैती और डोमिनिकन गणराज्य से घोंघे के आयात पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी।

यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) द्वारा की गई समीक्षा के अनुसार, वर्तमान में हर जगह इनकी संख्या कम है, और शेष स्थानीय आबादी में जीन प्रवाह बनाए रखने के लिए लार्वा पर्याप्त रूप से नहीं फैल रहे हैं। हालांकि बहामास, जमैका और कुछ अन्य स्थानों में घोंघे अभी फल-फूल रहे हैं, लेकिन आने वाले सालों में होने वाला दोहन इन्हें विलुप्ति की ओर ले जा सकता है। इन्हें संकटग्रस्त की सूची में डालने से भविष्य में अन्य देशों में इनके आयात पर प्रतिबंध को उचित ठहराया जा सकेगा, और घोंघा पालन के बेहतर प्रबंधन की राह आसान हो जाएगी। 2018 में अमेरिका ने 3.3 करोड़ डॉलर के घोंघे का मांस का आयात किया था। इसलिए इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करना एक स्पष्ट संदेश देगा कि यह प्रजाति खतरे में है।

लेकिन इससे सभी सहमत नहीं है। प्यूर्टो रिको विश्वविद्यालय के मत्स्य जीवविज्ञानी रिचर्ड एपलडॉर्न का कहना है कि उन्हें घोंघों की स्थिति उतनी भयानक नहीं लगती। जैसे, उनका कहना है कि उपरोक्त अध्ययन में इस बात का ध्यान नहीं रखा गया है कि घोंघे प्रजनन से पहले इकट्ठे होते हैं, इसलिए आबादी का फैलाव और घनत्व भ्रामक दिख सकता है। उनके अनुसार, घोंघे पकड़ने वाले समुदायों के ज्ञान को शामिल करने से बेहतर सर्वेक्षण हो सकता है। ऐसा ज़रूरी नहीं कि कुशल वैज्ञानिक घोंघे गिनने में भी माहिर हों।

कुछ देशों का कहना है कि वे घोंघों के शिकार का प्रबंधन करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। बेलीज़ मत्स्य विभाग के मौरो गोंगोरा ने बताया कि उनके देश में 15,000 लोग घोंघों से लाभान्वित होते हैं, खासकर तटवर्ती छोटे गांवों के मछुआरे, और यहां की घोंघो की आबादी अच्छी तरह से प्रजनन कर रही है। चूंकि हम घोंघों के महत्व को पहचानते हैं इसलिए हम इनके बेहतर प्रबंधन के भरसक प्रयास कर रहे हैं।

लेकिन इस पर एनओएए का कहना है कि कई कैरेबियाई देशों में संरक्षण सम्बंधी नियम-कायदों की कमी है। इनकी आबादी में गिरावट को रोकने के लिए अधिक कदम उठाने की ज़रूरत है।

जमैका के मत्स्य पालन निदेशक स्टीफन स्मिकले का कहना है कि घोंघों के अवैध और अनियंत्रित शिकार से निपटने के लिए अमेरिकी सरकार के अधिक समर्थन की ज़रूरत है। इन्हें संकटग्रस्त सूचीबद्ध करने से वित्तीय मदद को बढ़ावा मिल सकता है। और इससे त्वरित संरक्षण और आबादी सुधार प्राथमिकता बन जाएगी।

अधिक वित्तीय सहयोग से कृत्रिम परिवेश में अंडों को सेकर घोंघों के उत्पादन को बढ़ाने में मदद मिल सकती है। लेकिन ऐसा करना एक बहुत गंभीर घाव की महज़ मलहम-पट्टी करने जैसा होगा। प्राकृतिक प्रजनन के माध्यम से घोंघो की आबादी में सुधार करना ही एकमात्र स्थायी तरीका है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://en.wikipedia.org/wiki/Aliger_gigas#/media/File:Strombus_gigas_Duclos_in_Chenu_1844_pl_1.jpg

नर ततैया भी डंक मारते हैं

क जापानी कीटविज्ञानी मिसाकी त्सूजी को जब एक नर ततैया ने डंक मारा तो वे हैरान रह गईं। क्योंकि माना जाता है कि सिर्फ मादा ततैया और मधुमक्खियां ही दर्दनाक डंक मार सकती हैं। दरअसल वे जिस अंग से डंक मारती हैं वह अंडे देने के अंग (ओविपॉज़िटर) का परिवर्तित रूप होता है। इसलिए आम तौर पर माना जाता है कि नर डंक नहीं मार सकते।

इस अनुभव के बाद जिस ततैया, एंटरहाइंचियम गिबिफ्रॉन्स, ने डंक मारा था त्सूजी ने उसका बारीकी से अवलोकन किया। करंट बायोलॉजी में वे बताती हैं कि ततैया ने डंक मारने के लिए अपने नुकीले, दो कांटों वाले जननांग का उपयोग किया था।

यह जानने के लिए कि क्या नर ततैया के छद्म डंक उन्हें उनके शिकारियों से बचाते हैं, शोधकर्ताओं ने ए. गिबिफ्रॉन्स नर ततैया को उनके शिकारी (वृक्ष मेंढक) के साथ रखा। जब-जब मेंढक ने ततैया पर हमला किया ततैया ने अपने पैने शिश्न से पलटवार किया। नतीजतन मेंढक ने लगभग एक तिहाई दफा ततैया को बाहर थूक दिया। तुलना के तौर पर जिन नर ततैया के छद्म डंक हटा दिए गए थे वे मेंढक का भोजन बन गए थे।

जीव जगत में ऐसा पहली बार देखा गया है जब नर जननांग द्वारा रक्षात्मक भूमिका निभाई जा रही हो। शोधकर्ताओं को लगता है कि इसी तरह की रणनीति अन्य ततैया में भी पाई जाती होगी। शोधकर्ता आगे इसी का अध्ययन की तैयारी में हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg3707/abs/_20221219_on_wasp_genitalia_frog.jpg