इंडोनेशिया में पाया जाने वाला एक तोता है तनिम्बार कोरेला जिसे गोफिन्स कॉकेटू भी कहते हैं (जीव वैज्ञानिक नाम है Cacatua goffiniana)। एकदम सफेद रंग का यह तोता सचमुच एक कारीगर है। यह अपने पसंदीदा फलों को फोड़कर खाने के लिए तमाम किस्म के औज़ार भी बनाता है। और अब पता चला है कि यह अपने काम की योजना भी बनाता है और उस हिसाब से औज़ार साथ लेकर चलता है। इससे पहले मनुष्य के अलावा मात्र एक और जंतु में ऐसा व्यवहार देखा गया है – कॉन्गो घाटी में चिम्पैंज़ियों की एक आबादी में।
सफेद तोते में यह खोज विएना के पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने की है। उन्होंने इस सफेद तोते को उसके प्रिय भोजन काजू का ललचावा दिया। उन्होंने एक पारदर्शी डिब्बे में एक काजू (साबुत, छिलके सहित) एक प्लेटफॉर्म पर रख दिए। फिर एक पर्दा लगाकर उसे ओझल कर दिया। 10 तोतों को वह डिब्बा दिखाया गया और उन्हें दो में से एक औज़ार चुनने का विकल्प दिया गया – एक छोटी नुकीली छड़ और एक अपेक्षाकृत लंबी लचीली स्ट्रॉ।
15 बार किए गए परीक्षणों में अधिकांश पक्षियों ने दोनों औज़ारों का इस्तेमाल किया। उन्होंने नुकीली छड़ को अपनी चोंच में पकड़ा ओर डिब्बे में उपस्थित एक सुराख में से उसे अंदर डालकर पर्दे में छेद किया। लेकिन वह छड़ छोटी थी और काजू तक नहीं पहुंच सकती थी। तो पक्षियों ने उसे छोड़कर लंबी वाली स्ट्रॉ उठा ली जिसकी मदद से उन्होंने काजू को प्लेटफॉर्म से गिराकर उस ट्रे में लुढ़का दिया जहां से वे उसे पा सकते थे।
अब शोधकर्ता यह देखना चाहते थे कि क्या ये पक्षी समझते हैं कि उन्हें इस काम को अंजाम देने के लिए दोनों औज़ारों की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिए शोधकर्ताओं ने डिब्बे को एक सीढ़ी के ऊपर या एक उठे हुए प्लेटफॉर्म पर रख दिया। अब इस तक पहुंचने के लिए तोतों को वे औज़ार साथ लेकर जाना पड़ता – चाहे तो उड़कर या चाहे तो सीढ़ियां चढ़कर।
तोतों को अपना काम पूरा करने के लिए दो बार सीढ़ी चढ़ना नहीं रास आया। हालांकि कुछ ने ऐसा ही किया लेकिन कई पक्षियों ने अन्य युक्तियां खोज निकालीं। जैसे एक तोते ने जल्दी ही ताड़ लिया कि वह नुकीली छड़ को स्ट्रॉ के अंदर पिरोकर दोनों को एक साथ लेकर जा सकता है और डिब्बे पर पहुंचकर उन्हें वापिस अलग-अलग करके इस्तेमाल कर सकता है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि अंतत: चार पक्षियों ने यह तरीका खोज निकाला। विभिन्न कारणों से अन्य पक्षी कामयाब नहीं रहे।
कुल मिलाकर इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि ये पक्षी भावी कार्य की एक मानसिक छवि बना लेते हैं जिसके बारे में माना जाता था कि ऐसा करना उनके लिए असंभव है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.sci.news/images/enlarge5/image_6589_1e-Goffins-Cockatoo.jpg
एक अनुमान के मुताबिक 2020 से 2030 के बीच कृषि में एंटीबायोटिक औषधियों का उपयोग 8 प्रतिशत बढ़ जाएगा जबकि इसे कम करने के उपाय जारी हैं। कृषि में एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल मनुष्यों को संक्रमित करने वाले बैक्टीरिया में प्रतिरोध पैदा होने का एक प्रमुख कारण माना जाता है।
यह सही है कि पशुओं में संक्रमण के उपचार के लिए एंटीबायोटिक आवश्यक हैं लेकिन देखा जा रहा है कि इनका उपयोग पशुओं की वृद्धि को तेज़ करने तथा भीड़-भाड़ वाले और अस्वच्छ दड़बों में उन्हें संक्रामक रोगों से बचाने के लिए भी किया जाता है।
इस संदर्भ में कई देशों में सरकारों ने एंटीबायोटिक उपयोग को कम करने के लिए नियम भी बनाए हैं। जैसे यूएस व युरोप में वृद्धि को गति देने के लिए एंटीबायोटिक का उपयोग वर्जित है लेकिन दिक्कत यह है कि कंपनियां इन्हें बीमारियों की रोकथाम के लिए बेचती रह सकती हैं।
शोधकर्ताओं के लिए अलग-अलग देशों में कृषि सम्बंधी एंटीबायोटिक उपयोग का अनुमान लगाना मुश्किल रहा है क्योंकि अधिकांश देश ऐसे आंकड़े सार्वजनिक नहीं करते हैं। कई देश अपने आंकड़े विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (WOAH) को देते हैं। यह संगठन इन आंकड़ों को महाद्वीप के स्तर तक जोड़ देता है। इसके अलावा, 40 प्रतिशत देश तो इस संगठन को भी आंकड़े नहीं देते।
लिहाज़ा 229 देशों के राष्ट्र-स्तरीय अनुमान लगाने के लिए स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के थॉमस फान बेकेल, रान्या मूलचंदानी व अन्य ने अलग-अलग सरकारों, खेत सर्वेक्षणों और वैज्ञानिक प्रकाशनों से आंकड़े जुटाए। इन आंकड़ों के साथ उन्होंने दुनिया भर के खेतिहर पशुओं की संख्या को रखा और 42 देशों के एंटीबोयोटिक बिक्री के आंकड़ों को रखा। इसके आधार पर उन्होंने शेष 187 देशों के आंकड़ों की गणना की।
टीम की गणना बताती है कि अफ्रीका में एंटीबायोटिक का उपयोग WOAH द्वारा दी गई रिपोर्ट से दुगना है और एशिया में 50 प्रतिशत अधिक है। कुल मिलाकर अध्ययन दल का अनुमान है कि वर्ष 2030 तक दुनिया भर में प्रति वर्ष पशुओं के लिए 1 लाख 7 हज़ार 5 सौ टन एंटीबायोटिक्स का उपयोग होगा जबकि 2020 में यह आंकड़ा 1 लाख टन से कम था।
वैसे शोधकर्ताओं ने चेताया है कि जो 42 देश अपने आंकड़े साझा करते हैं, उनमें से अधिकांश उच्च आमदनी वाले देश हैं। लिहाज़ा उनके द्वारा एंटीबायोटिक का उपयोग तथा उपयोग का मकसद दुनिया के सारे देशों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।
पिछले नवंबर में सूक्ष्मजीवी प्रतिरोध को लेकर 39 देशों का एक सम्मेलन ओमान (मस्कट) में आयोजित किया गया था। इसमें रूस और भारत जैसे प्रमुख कृषि उत्पादक शामिल थे। मंत्री स्तर के इस सम्मेलन में उपस्थित देशों ने संकल्प लिया कि वर्ष 2030 तक वे सूक्ष्मजीव-रोधी दवाइयों का खेतिहर उपयोग 30-50 प्रतिशत तक कम करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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अमेरिका स्थित बंदरों की आयातक और बंदर अनुसंधान आपूर्तिकर्ता संस्था चार्ल्स रिवर लेबोरेटरीज़ ने हाल ही में कंबोडिया से बंदरों के आयात पर रोक लगा दी है। यह निर्णय यूएस डिपार्टमेंट ऑफ जस्टिस द्वारा जारी किए गए समन के बाद लिया गया है जिसमें कंबोडिया के एक तस्कर गिरोह को दोषी ठहराया गया है। एजेंसी का दावा है कि कंबोडिया के जंगलों से बड़ी संख्या में साइनोमोगलस मैकाक (प्रयोग में प्रयुक्त जंतु) को अवैध रूप से पकड़कर निर्यात किया जा रहा था जबकि कहा जा रहा था कि ये बंदी अवस्था में प्रजनन से पैदा हुए हैं। चार्ल्स रिवर संस्था के अनुसार यह समन कंबोडियाई आपूर्तिकर्ता से प्राप्त कई शिपमेंट से सम्बंधित है। गौरतलब है कि संयुक्त राज्य अमेरिका दुनिया भर में जानवरों का सबसे बड़ा आयातक है; ज़्यादातर औषधि और जैव प्रौद्योगिकी कंपनियों द्वारा अनुसंधान के लिए इनको अमेरिका लाया जाता है। अमेरिकी सरकार के आंकड़ों के अनुसार, साइनोमोगलस मैकाक, जो एक लुप्तप्राय जीव है, वर्ष 2022 में देश में आयात किए गए लगभग 33,000 प्रायमेट्स का 96 प्रतिशत है। तथ्य यह है कि अमेरिका में लगभग दो-तिहाई साइनोमोगलस जंतु कंबोडिया से ही आयात किए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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एक हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण बैलीन व्हेल के प्रवास को समझने का प्रयास किया है। इसके लिए उन्होंने व्हेल की त्वचा के छोटे टुकड़ों का इस्तेमाल किया है। यह तकनीक व्हेल के संरक्षण में मददगार साबित हो सकती है जो अभी शिकार से तो सुरक्षित हैं लेकिन संकटग्रस्त हैं। वास्तव में व्हेल की इस प्रजाति (Eubalaena australis) को ट्रैक करना मुश्किल है लेकिन शोधकर्ताओं ने व्हेल की त्वचा के कुछ नमूने तटीय प्रजनन क्षेत्रों से उनकी त्वचा के सूक्ष्म हिस्से को भेदकर प्राप्त किए।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस नमूने में कार्बन और नाइट्रोजन समस्थानिकों का विश्लेषण किया और इसका मिलान पिछले 30 वर्षों में दक्षिणी महासागर में मैप किए गए समस्थानिक अनुपात से किया। व्हेल जो क्रिल और कोपेपोड खाती हैं उनमें यही समस्थानिक होते हैं। ये लगभग 6 महीने बाद व्हेल की नवीन त्वचा में पहुंच जाते हैं। त्वचा में समस्थनिकों के अनुपात में व्हेल की पिछली यात्राएं रिकॉर्ड हो जाती हैं। टीम ने पाया कि समुद्र का मध्य अक्षांश व्हेल के लिए भोजन का एक महत्वपूर्ण इलाका रहा है। ऐसा लगता है कि दक्षिणी महासागर के कुछ हिस्सों में, व्हेल भोजन के लिए दक्षिण की ओर प्रवास कम कर रही हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिका के आसपास के इलाकों में क्रिल की आबादी कम कर दी है जिसके चलते उस ओर व्हेल का प्रवास भी कम हो गया है। (स्रोत फीचर्स)
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निरंतर हो रहे जलवायु परिवर्तन से गुलाबी पैरों वाले कुछ गीस (कलहंसों) ने उत्तरी रूस में एक ठिकाना बना लिया है। यह स्थान उनके पारंपरिक ग्रीष्मकालीन प्रजनन क्षेत्र से लगभग 1000 किलोमीटर उत्तर पूर्व में है। विशेषज्ञों के अनुसार यह घटना इस तथ्य की ओर संकेत देती हैं कि कुछ प्रजातियां, थोड़े समय के लिए ही सही, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के साथ अनुकूलन कर सकती हैं। गौरतलब है कि प्रत्येक वसंत ऋतु में लगभग 80,000 कलहंस (एन्सेर ब्रैचिरिन्चस) नॉर्वे के स्वालबार्ड द्वीपसमूह में प्रजनन के लिए डेनमार्क, नेदरलैंड और बेल्जियम से उत्तर की ओर प्रवास करते हैं। स्वीडन और फिनलैंड में कुछ हज़ार पक्षियों के देखे जाने के बाद वैज्ञानिकों ने 21 पक्षियों को जीपीएस ट्रैकर लगाए। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ट्रैकर लगे आधे पक्षी उत्तरी रूस के एक द्वीपसमूह नोवाया ज़ेमल्या के उत्तर-पूर्व की ओर उड़ गए। इस क्षेत्र में शोधकर्ताओं ने नई प्रजनन आबादी पाई जिसमें लगभग 3-4 हज़ार पक्षी शामिल हो सकते हैं। नोवाया ज़ेमल्या का वर्तमान वसंत तापमान अब स्वालबार्ड के दशकों पहले रहे तापमान के समान है। ऐसी संभावना है कि पक्षियों ने अपने नए प्रजनन क्षेत्र चुन लिए हैं। (स्रोत फीचर्स)
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माना जाता है कि बैक्टीरिया में गुणसूत्रों को पैकेज नहीं किया जाता और वे कोशिका द्रव्य में खुले पड़े रहते हैं। लेकिन बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक अध्ययन में 2 बैक्टीरिया प्रजातियों में गुणसूत्रों के कुछ हिस्सों के आसपास हिस्टोन नामक प्रोटीन लिपटे होने की रिपोर्ट दी गई है। अन्य जीवों में भी हिस्टोन गुणसूत्रों के पैकेजिंग में मदद करते हैं लेकिन व्यवस्था बिलकुल अलग होती है। जैसे केंद्रकीय (यूकेरियोटिक) जीवों में हिस्टोन डीएनए के आसपास नहीं लिपटा होता बल्कि डीएनए हिस्टोन के आसपास लिपटा होता है।
दरअसल, हिस्टोन गुणसूत्रों को सहारा देता है और उन पर उपस्थित जीन्स की अभिव्यक्ति को नियंत्रित करता है। मान्यता थी कि बैक्टीरिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती। लेकिन बैक्टीरिया जीनोम के अधिकाधिक खुलासे के साथ हिस्टोन से सम्बंधित जीन्स मिलने लगे थे और लगने लगा था कि बैक्टीरिया में हिस्टोन जैसा कुछ होता होगा।
मज़ेदार बात यह है कि विविध केंद्रकीय कोशिकाओं में हिस्टोन की संरचना और कार्य में काफी एकरूपता होती है, गोया हिस्टोन पर जैव विकास का कोई असर ही नहीं हुआ है। इस एकरूपता को देखते हुए यह विचार स्वाभाविक है कि शायद इसका कोई विकल्प ही नहीं है।
इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के टोबियास वारनेके और एंतोन थोचर ने दो बैक्टीरिया प्रजातियों का अध्ययन करने की ठानी। ये दो प्रजातियां थी – एक रोगजनक लेप्टोसोरिया इंटरोगैन्स और दूसरी डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस। डेलोविब्रियो बैक्टीरियोवोरस एक ऐसा बैक्टीरिया है जो दूसरे बैक्टीरिया में घुसकर उसे अंदर ही अंदर पचा डालता है।
शोधकर्ताओं ने बैक्टीरियोवोरस से हिस्टोन प्रोटीन को पृथक करके उसकी संरचना का विश्लेषण किया – स्वतंत्र स्थिति में भी और डीएनए के साथ अंतर्क्रिया करते हुए भी। देखा गया कि बैक्टीरिया का हिस्टोन न तो आर्किया के समान व्यवहार करता है और न ही केंद्रकयुक्त कोशिकाओं के समान। बैक्टीरिया का हिस्टोन दो-दो की जोड़ी में डीएनए के आसपास लिपटा होता है जबकि केंद्रक युक्त कोशिकाओं में हिस्टोन साथ आकर एक स्तंभ सा बनाते हैं और डीएनए इसके इर्द-गिर्द लिपटा होता है।
वैसे तो अभी इस अवलोकन को वास्तविक कोशिका में देखा जाना बाकी है लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इस तरह आसपास लिपटा हुआ हिस्टोन बैक्टीरिया द्वारा यहां-वहां बिखरे डीएनए के खंडों को अर्जित करने से बचाव करता होगा।
बेल्जियम स्थित कैथोलिक विश्वविद्यालय के जेराल्डीन लैलू ने देखा है कि जब यह बैक्टीरिया कोशिका के अंदर न होकर स्वतंत्र विचरण कर रहा होता है तब इसका डीएनए काफी सघनता से पैक किया हुआ होता है। उक्त अवलोकन शायद इस घनेपन की व्याख्या कर सकता है।
उपरोक्त अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने हज़ारों बैक्टीरिया के जीनोम्स के सर्वेक्षण में पाया कि आम मान्यता के विपरीत लगभग 2 प्रतिशत बैक्टीरिया-जीनोम्स में हिस्टोन-नुमा प्रोटीन के जीन्स होते हैं यानी काफी सारे बैक्टीरिया में हिस्टोन की उपस्थिति संभव है। (स्रोत फीचर्स)
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कहावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।
यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।
सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।
शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।
लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।
शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।
चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल के दशक में कीटनाशकों के उपयोग, कीटों के आवास स्थलों के विनाश जैसी मानव गतिविधियों के कारण कीटों की संख्या में काफी गिरावट हुई है। लेकिन एक अध्ययन में पाया गया है कि कुछ मधुमक्खियों और तितलियों की संख्या में कमी उन जगहों पर भी हुई है, जो सीधे तौर पर इन्सानों से अछूती हैं।
देखा गया है कि पिछले 15 सालों में, दक्षिण-पूर्वी यूएस के एक जंगल में मधुमक्खियों की आबादी में 62.5 प्रतिशत की और तितलियों की आबादी में 57.6 प्रतिशत की कमी आई है। इसके अलावा, मधुमक्खियों की प्रजातियों की संख्या (विविधता) में भी 39 प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।
करंट बायोलॉजी में प्रकाशित इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ओकोनी राष्ट्रीय वन के तीन जंगलों में वर्ष 2007 से 2022 के बीच पांच बार कीटों का सर्वेक्षण किया था। इन जंगलों में मनुष्यों की आवाजाही अपेक्षाकृत कम थी और यहां चीनी प्रिवेट जैसे घुसपैठिए पौधे भी नहीं थे।
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन यहां मधुमक्खियों और तितलियों के अस्तित्व को खतरे में डाल रहा है। गौरतलब है कि जलवायु परिवर्तन और गर्माती धरती के पीछे भी मनुष्य का ही हाथ है। इसके अलावा, एक संदेह घुसपैठिए कीटों पर भी है, खासकर स्माल कारपेंटर मधुमक्खियों और पत्तियां कुतरने वाली मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट के लिए ये कीट ज़िम्मेदार हो सकते हैं।
शोधकर्ताओं के अनुसार, यही प्रजातियां सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं। इसका संभावित कारण हो सकता है कि या तो लकड़ी पर छत्ता बनाने वाली और पत्ती कुतरने वाली घुसपैठी मधुमक्खियों ने इन मधुमक्खियों को उनकी जगह से खदेड़ दिया होगा, या उनके छत्ते उन्हें बढ़ते तापमान से बचा नहीं पाए होंगे। बहरहाल, कारण जो भी हो, स्थिति चिंताजनक है। (स्रोत फीचर्स)
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प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।
डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।
डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।
डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।
डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।
उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।
जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।
ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।
इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।
बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)
प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।
इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”
सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।
जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।
डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।
समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adh1493/full/_20230210_on_fish.jpg
एज़्टेक लोगों द्वारा हमिंगबर्ड को एक नाम दिया गया था ह्यूतज़िलिन यानी ‘सूर्य की किरण’। मूलत: अमेरिकी महाद्वीप के इस पक्षी की साढ़े तीन सौ प्रजातियों के इंद्रधनुषी रंगों ने अक्सर कवियों और आभूषण डिज़ाइनरों की कल्पना को पंख लगाए हैं।
हमिंगबर्ड आकार में छोटे होते हैं: मधुमक्खी हमिंगबर्ड बमुश्किल 5 सेंटीमीटर लंबी होती है और इसका वज़न 2 ग्राम होता है। वे अपने पंखों को एक सेकंड में 50 बार तक फड़फड़ा सकती हैं, जिसके कारण एक गुनगुनाहट (हम) जैसी आवाज़ पैदा होती है और यही आवाज़ उनके नाम को परिभाषित करती है। वे फूल से रस चूसते हुए शानदार ढंग से मंडरा सकती हैं, और यहां तक कि उल्टी दिशा में (पीछे की ओर) भी उड़ सकती हैं। वे मकरंद के लिए नलीनुमा फूल, जो चमकीले लाल या नारंगी रंग के होते हैं, जैसे लैंटाना और रोडोडेंड्रोन, को वरीयता देती हैं।
उनके पंखों के विश्लेषण से पता चलता है कि उनके हाथ की हड्डियां बहुत लंबी होती हैं लेकिन बांह की हड्डियां बहुत छोटी होती हैं जो निहायत लचीले बॉल-एंड-सॉकेट जोड़ के माध्यम से शरीर से जुड़ी होती हैं। यह जोड़ आधा फड़फड़ाने के बाद पंखों को घुमाने के काबिल बनाता है, जिससे उनमें फुर्तीलापन आता है और पीछे की ओर उड़ना संभव हो पाता है।
समानताएं
भारत में सनबर्ड्स या शकरखोरा पाई जाती हैं। हालांकि यह हमिंगबर्ड्स की सम्बंधी नहीं हैं, लेकिन अभिसारी विकास में ये दोनों पक्षी कई विशेषताएं साझा करते हैं। सनबर्ड्स को नेक्टेरिनिडे कुल में रखा गया है। हालांकि थोड़ी बड़ी सनबर्ड थोड़े समय के लिए मधुमक्खियों की तरह मंडरा भी सकती हैं, और सुर्ख, नलीदार फूलों पर जा सकती हैं। वे जंगल के अंगार सरीखे रंग वाले (पीले-नारंगी) फूलों की महत्वपूर्ण परागणकर्ता हैं।
अलबत्ता खाते समय उन्हें बैठना पड़ता है। हमिंगबर्ड की तरह वे कीट पकड़ सकती हैं, खासकर अपने बच्चों को खिलाने के लिए। भारत में आम तौर पर बैंगनी सनबर्ड दिखने को मिलती हैं। इनके बड़े व चमकीले नर का रूप-रंग मार्च में अपने प्रजननकाल में शबाब पर होता है।
एक ही जगह रुककर उड़ने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होती है। द्रव्यमान के हिसाब से देखें, तो कशेरुकियों में, हमिंगबर्ड्स की चयापचय दर (प्रति मिनट कैलोरी खपत) अधिकतम होती है। इस ऊर्जा का अधिकांश भाग मकरंद से मिलता है। उनके पाचन तंत्र द्वारा तेज़ी से शर्करा उपभोग यह सुनिश्चित करता है कि वे ऊर्जा हाल ही में गटके गए मकरंद से लेते हैं।
इसके अलावा, समान साइज़ के स्तनधारियों की तुलना में उनके फेफड़े हवा से ऑक्सीजन अवशोषित करने में 10 गुना बेहतर होते हैं।
विरोधाभास देखिए कि मनुष्यों में अत्यधिक व्यायाम रक्त शर्करा के स्तर में वृद्धि करता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि त्वरित तौर पर ऊर्जा की आवश्यकता के लिए आपका शरीर ग्लूकोनियोजेनेसिस का सहारा लेता है – ग्लूकोनियोजेनेसिस यानी मांसपेशियों के प्रोटीन जैसे संसाधनों को ग्लूकोज़ में परिवर्तित करना। इसका एक नकारात्मक परिणाम यह होता है कि आप इतनी मशक्कत के बाद भी न तो मांसपेशियां बना पाते हैं और न ही वसा कम कर पाते हैं।
हमिंगबर्ड में अति गहन गतिविधियां करने पर क्या होता है? हाल ही के जीनोम अध्ययनों से पता चला है कि विकास के दौरान, हमिंगबर्ड में जब मंडराने की गतिविधि उभरने लगी तब ग्लूकोनियोजेनेसिस के लिए ज़िम्मेदार एक प्रमुख एंज़ाइम का जीन उनमें से लुप्त हो गया। प्रयोगशाला में संवर्धित पक्षी कोशिकाओं से इस जीन को हटाने पर इन कोशिकाओं की ऊर्जा दक्षता में वृद्धि दिखी।
नकल और नृत्य
तोते और कुछ सॉन्गबर्ड की तरह, हमिंगबर्ड भी किसी अन्य की आवाज़ निकाल (मिमिक्री कर) सकते हैं। जब हमिंगबर्ड के जोड़े को अलग-थलग पाला गया, तो इन दोनों द्वारा गाया गया गीत उनकी प्रजातियों द्वारा गाए जाने वाले मानक गीत से तनिक-सा अलग था।
गौरतलब बात यह है कि वे कान तक पहुंचने वाली ध्वनि और अपनी मांसपेशियों की हरकत का तालमेल बैठा सकते हैं – यानी नृत्य कर सकते हैं।
टफ्ट्स युनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट अनिरुद्ध पटेल ने सिद्धांत दिया है कि आवाज़ की नकल करने के लिए गले की मांसपेशियों को नियंत्रित करने की क्षमता के लिए पहले ध्वनियों के साथ लय में थिरकने की क्षमता होना ज़रूरी है। हालांकि, हमिंगबर्ड हम मनुष्यों की तरह जोड़े या समूहों में नृत्य नहीं कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/7rgglu/article66549484.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_17istb_Vervain_hummi_2_1_LT9LVIII.jpg