जब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक
आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना
है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर
गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से
फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह
रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका
होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम
जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।
फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते
हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का
ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस
स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने
टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित
दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।
वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक
नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम
देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक
पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1
इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी
लंबे इंतज़ार के बाद।
इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने
नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं
और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर
किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।
COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान
पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का
लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95
करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।
COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका
निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का
बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी
पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।
टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के
लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका
निर्यात रोक ना सके।
अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0703NID_Procesing_COVID_Samples_online.jpg?itok=kmbFiq0l
हीरा तराश रॉबर्ट फिलिप्स ने 2018 में अपने 90वें जन्मदिन पर
इतिहास की एक अनमोल धरोहर युनाइटेड किंगडम को लौटाने का फैसला लिया था। यह धरोहर
प्रसिद्ध समारक स्टोनहेंज के केंद्र में स्थित एक शिला का 91 सेंटीमीटर लंबा
बेलनाकार हिस्सा है। और अब इस हिस्से का विश्लेषण कर पुरातत्वविदों ने इस बात की
पुष्टि की है कि स्मारक की सबसे बड़ी शिला का पत्थर लगभग 25 किलोमीटर दूर स्थित
जंगल मार्लबोरो डाउंस से लाया गया था।
स्टोनहेंज का निर्माण अनुष्ठान स्थल के रूप में लगभग 3000 ईसा पूर्व शुरू हुआ था। यह बड़ी और छोटी शिलाओं को एक वृत्त में जमा कर बना है। इस स्मारक में 25 टन वजनी, 52 विशाल सिलिका शिलाएं हैं जिन्हें सारसेन्स कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना था कि सारसेन्स शिलाएं मार्लबोरो डाउंस से लाई गईं थी। जबकि स्टोनहेंज के केंद्र में स्थित अन्य छोटी शिलाएं, जिन्हें ब्लूस्टोन्स कहा जाता है, लगभग 150 किलोमीटर दूर वेल्स के विभिन्न स्थलों से लाईं गई थीं।
दरअसल 1958 में फिलिप्स एक ऐसे दल का
हिस्सा थे जो स्टोनहेंज की तीन सारसेन्स शिलाओं को फिर से खड़ा करने का काम कर रहा
था। जब शिला क्रमांक 58 को उठाया गया तो पता चला कि वह टूट चुकी थी। इसे जोड़ने के
लिए उन्होंने शिला के बीच में एक सुराख किया और धातु के बोल्ट की मदद से कस दिया।
सुराख से जो टुकड़ा निकला था उसे फिलिप्स ने अपने पास रख लिया था।
चूंकि अब जब स्टोनहेंज के अवशेषों को किसी
भी तरह की क्षति पहुंचाना प्रतिबंधित है, तो जब फिलिप्स ने यह टुकड़ा लौटाया तो ब्राइटन
युनिवर्सिटी के पुरातत्वविद और भूगोलविद डेविड नैश और उनके साथियों को सारसेन्स
शिलाओं के मूल स्थान के बारे में पता लगाने का महत्वपूर्ण साधन मिल गया।
शोधकर्ताओं ने पोर्टेबल एक्स-रे स्पेक्ट्रोमीटर की मदद से सभी 52 सारसेन्स शिलाओं की रासायनिक संरचना पता की, उन्हें नुकसान पहुंचाए बगैर। शिलाओं में 99 प्रतिशत से अधिक सिलिका के अलावा एल्यूमीनियम, कार्बन, लोहा, पोटेशियम और मैग्नीशियम सहित अन्य तत्व मौजूद थे। सभी 52 में से 50 शिलाओं की रासायनिक रचना एकदम समान थी, जिससे लगता है कि सभी शिलाएं एक ही जगह से लाई गईं थी।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक्स-रे
स्पेक्ट्रोमेट्री से भी अधिक बारीकी से रासायनिक पहचान के लिए फिलिप्स द्वारा
लौटाए टुकड़े के आधे हिस्से को चूर-चूर किया और इसका रासायनिक विश्लेषण किया। इसकी
तुलना उन्होंने दक्षिणी और पूर्वी इंग्लैंड के 20 विभिन्न क्षेत्रों से लिए गए
चट्टान के नमूनों से की। उन्होंने पाया कि सारसेन्स शिला का वह टुकड़ा वेस्ट वुड
चट्टानी क्षेत्र के नमूने से पूरी तरह से मेल खाता है। यह क्षेत्र मार्लबोरो डाउंस
के दक्षिण पूर्व में स्थित है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन के नतीजे साइंस
एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित किए हैं।
कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि तुलना के लिए अधिक इलाकों के नमूने लिए जाने चाहिए थे। लेकिन यह खुशी की बात है कि लंबे समय से शोध का केंद्र बने ब्लूस्टोन शिलाओं के इतर सारसेन्स शिलाओं का अध्ययन किया गया। शोध के मामले में सारसेन्स शिलाएं लंबे समय से उपेक्षित थीं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Stonehenge_1280x720.jpg?itok=SWPf9JJW
मैकजी
एक सरिसृप जीव विज्ञानी यानी हर्पेटोलॉजिस्ट हैं। वे दक्षिण-पूर्वी युनाइटेड स्टेट्स में पाई जाने वाली
यैरोस कंटीली छिपकली का अध्ययन करती हैं। हर्पेटोलॉजिस्ट लोग छिपकली को पकड़ने के
लिए आम तौर पर जिस शब्द का उपयोग करते हैं वह है ‘नूसिंग’। लेकिन मैकजी,
जो कि एक अश्वेत वैज्ञानिक हैं,
को इस शब्द का उपयोग काफी बेचैन करता है।
वास्तव
में ‘नूसिंग’ शब्द का उपयोग
अमेरिका में 19वीं
और 20वीं
सदी में गोरे लोगों द्वारा अश्वेत लोगों को घेरकर मारने के लिए किया जाता था।
मैकजी अपने साथियों को समझाने की कोशिश कर रही हैं कि इस कार्य के लिए ‘लैसोइंग’ शब्द ज़्यादा माकूल
होगा। लैसो डोरी को कहते हैं और छिपकली-गिरगिटों को इसी की मदद से पकड़ा जाता है।
मैकजी
ही नहीं, कई अन्य शोधकर्ता भी
विज्ञान को ऐसे शब्दों व नामों से छुटकारा दिलाने की बात कर रहे हैं जो घिनौने
लगते हैं या नस्लवादी विचारों का महिमामंडन करते हैं। इसी सम्बंध में एक वैज्ञानिक
समिति एक शोध पत्रिका का नाम बदलने पर विचार कर रही है जो एक नस्लवादी वैज्ञानिक
के नाम पर रखा गया था। इसी तरह कोल्ड स्प्रिंग हार्बर लेबोरेटरी (सीएसएचएल) और अन्य संस्थान भी
अपने कैंपस की इमारतों का नाम बदलने पर विचार कर रहे हैं जो नस्लवादी सोच रखने
वाले लोगों के नाम पर रखे गए थे।
वास्तव
में मई माह में मिनियापोलिस के श्वेत पुलिस अधिकारी द्वारा एक अश्वेत व्यक्ति
जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या से पूरे अमेरिका में आक्रोश देखने को मिला। इसके
परिणामस्वरूप देश भर में संस्थागत नस्लवाद के विरोध में प्रदर्शन हुए। ऐसे में
विज्ञान क्षेत्र में भी श्वेत श्रेष्ठतावाद को खत्म करने की पहल की जा रही है।
इसके अंतर्गत ऐसी इमारतों, पत्रिकाओं,
पुरस्कारों तथा जीवों के नामों की छानबीन की जा रही है
जिनमें नस्लवाद झलकता है। यहां तक कि ऐसी बड़ी-बड़ी हस्तियों को भी जांच के दायरे में लाया
जा रहा है जिन्होंने अश्वेत लोगों की मनुष्यता को कमतर बताने के प्रयास किए और
वास्तविक भेदभाव, वंध्याकरण या
नरसंहार की वैचारिक बुनियाद तैयार की।
गौरतलब
है कि इस तरह की पहल नाज़ी जर्मनी और दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के पतन के
बाद भी की गई थी। उस समय भी नाज़ी जर्मनी का समर्थन करने वाले वैज्ञानिकों के
पुरस्कार छीन कर उनको संस्थानों से भी बाहर कर दिया गया था। हालिया विरोध प्रदर्शन
के काफी पहले से ही नस्लवादी सोच वाले वैज्ञानिकों के नाम पर रखे गए इमारतों,
पत्रिकाओं के नाम आदि का निरंतर विरोध किया जा रहा है।
मिशिगन विश्वविद्यालय की इतिहासकार एलेक्ज़ेंड्रा मिन्ना स्टर्न के अनुसार अपने
कैंपस में विविध और सशक्त माहौल प्रदान करने वाले विश्वविद्यालयों ने अपनी इमारतों
के नामों पर पुन: विचार
करने का समर्थन किया है।
ऐसे
ही कुछ प्रयत्नों के तहत 20वीं
सदी के प्रमुख जेनेटिक विज्ञानी क्लेरेंस कुक लिटिल का नाम मिशिगन विश्वविद्यालय (यू.एम.) की साइंस बिल्डेंग
से हटा लिया गया है। लिटिल ने यूजेनिक्स जैसे विचार का समर्थन किया था और वे
तम्बाकू उद्योग को तंबाकू और कैंसर के सम्बंध के प्रमाणों को झुठलाने में मदद करते
रहे थे। इसी तरह साउथ कैरोलिना विश्वविद्यालय ने महिला चिकित्सक छात्रावास से जे. मैरियन सिम्स का नाम
नाम भी हटा दिया है। गौरतलब है कि सिम्स ने अपने शोध के दौरान गुलाम बनाई गई
महिलाओं पर बगैर एनेस्थेशिया के प्रयोग किए थे। सीएचएसएल ने तो नोबल विजेता जेम्स
वॉटसन के नाम पर रखे गए स्कूल ऑफ बायोलॉजिकल साइंस का नाम भी बदल दिया है। इस
संस्था के बोर्ड के 75 प्रतिशत
सदस्यों, 133 छात्रों और 1 भूतपूर्व छात्र ने वॉटसन को नस्लवाद से
जुड़ा पाया। वॉटसन ने एक समाचार पत्र के माध्यम से अश्वेत लोगों को बुद्धिहीन बताया
था। उस समय संस्थान ने वॉटसन को कुलपति के पद से हटाते हुए सभी पुरस्कार छीन लिए
थे और अब स्कूल का नाम भी बदल दिया है।
यू.के. के प्रसिद्ध कैंब्रिज
विश्वविद्यालय ने उस रंगीन कांच की खिड़की को हटा दिया है जिसका नाम मशहूर बायो-सांख्यिकीविद
रोनाल्ड फिशर के नाम पर था। फिशर 20वीं सदी के मशहूर सांख्यिकीविद रहे हैं और यूजेनिक्स के
मुख्य समर्थक रहे हैं। हालांकि विश्वविद्यालय ने उनके वैज्ञानिक आविष्कारों की
सराहना की है लेकिन विभिन्न समुदायों के बीच मज़बूती बनाए रखने के लिए उनके नाम को
हटा दिया गया है। युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के अधिकारी भी यूजेनिक्स के समर्थक
फ्रांसिस गाल्टन और गणितज्ञ कार्ल पियरसन के नाम पर रखे गए इमारतों के नाम बदलने
पर विचार कर रहे हैं।
यह
पहल केवल कैंपस तक ही सीमित नहीं है। जिनेवा के निवासियों ने नगर पालिका की ग्रैंड
कौंसिल को कार्ल वोग्ट के नाम पर रखे गए एक मोहल्ले का नाम बदलने का प्रस्ताव
सौंपा है। गौरतलब है कि कार्ल वोग्ट चार्ल्स डार्विन के विकासवादी सिद्धांत से
काफी प्रभावित थे लेकिन वे श्वेत और अश्वेत लोगों के बीच खोपड़ी की साइज़ में
अपरिवर्तनीय अंतर के मुखर समर्थक भी रहे हैं। वे अश्वेत लोगों को शारीरिक रूप से
मनुष्यों की तुलना में बंदरों के अधिक करीब मानते थे। अमेरिकन सोसाइटी ऑफ
इक्थियोलॉजिस्ट और हरपेटोलॉजिस्ट अपने प्रमुख जर्नल कोपिया का नाम बदलने पर
विचार कर रहे हैं। यह नाम नस्लवादी विचार रखने वाले वैज्ञानिक एडवर्ड कोप के नाम
पर रखा गया था। इसके अलावा कई प्रतियोगिताओं, जैसे
वार्षिक लीनियन गेम्स, का नाम भी बदला जा
रहा है जो कार्ल लिनियस के नाम पर आयोजित किए जाते हैं। कार्ल लीनियस ने जीवों के
वर्गीकरण की एक प्रणाली विकसित की थी। इसमें होमो सेपियन्स को नस्ल के आधार पर इस
तरह वर्गीकृत किया था कि अश्वेत लोगों को नकारात्मक सामाजिक गुणों से विभूषित किया
था। इसी पहल के चलते कुछ शोधकर्ता कई प्रजातियों के आपत्तिजनक नामकरण को भी बदलने
की कोशिश में हैं।
इन नामों को बदलने की प्रक्रिया का विरोध भी जारी है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि इस तरह से नाम बदलने से आमजन का विज्ञान में सार्वजनिक विश्वास कम होगा। वैज्ञानिक प्रगति का मूल्यांकन न केवल वैज्ञानिक उपलब्धि से होता है बल्कि सामाजिक स्वीकृति भी महत्वपूर्ण होती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Racist_names_1280x720.jpg?itok=iElJjbix
घोड़ों
के बारे में भी कई मिथक हैं। जैसे कई घुड़सवार कहते हैं कि वे ‘तुनकमिजाज़’ घोड़ी की बजाय ‘अनुमान योग्य’ बधिया घोड़े पसंद
करते हैं, जबकि वास्तव में
दोनों के व्यवहार में कोई अंतर नहीं होता। और अब जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस
में प्रकाशित एक नया अध्ययन बताता है कि संभवत: घोड़ों के प्रति हमारे पक्षपाती विचारों की
जड़ें प्राचीन समय में हैं। सैकड़ों प्रचीन घोड़ों के कंकालों के डीएनए विश्लेषण के
आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि कांस्य युगीन युरेशियाई लोग नर घोड़ों को वरीयता
देते थे।
संभवत: मनुष्य ने घोड़ों को
पालतू बनाने का काम युरेशियन घास के मैदानों पर लगभग 5500 साल पहले किया था। उससे पहले शायद वे घोड़े
का शिकार भोजन के लिए करते थे। शोधकर्ताओं को मनुष्यों के हज़ारों साल पुराने आवास
स्थलों के पास से बड़ी संख्या में घोड़े दफन मिले थे। लेकिन सिर्फ हड्डियों को देखकर
घोड़े के लिंग का पता लगाना मुश्किल था।
इसलिए
पॉल सेबेटियर विश्वविद्यालय के पुरा-जीनोम वैज्ञानिक एन्तोन फेजेस और उनके साथियों ने 268 प्राचीन घोड़ों की
हड्डियों के डीएनए का विश्लेषण किया। ये हड्डियां लगभग 40,000 ईसा पूर्व से 700 ईसवीं के दौरान की थीं जो युरेशिया के
विभिन्न पुरातात्विक स्थलों से बरामद हुई थीं। इनमें से कुछ घोड़ों को सोद्देश्य
दफनाया गया था, जबकि शेष अन्य को
ऐसे ही कचरे के ढेर में छोड़ दिया गया था।
अध्ययन
में शोधकर्ताओं को सबसे प्राचीन स्थलों पर मादा घोड़ों और नर घोड़ों की संख्या में
संतुलन देखने को मिला जिससे लगता है कि शुरुआती युरेशियन मनुष्य दोनों लिंग के
घोड़ों का समान रूप से शिकार करते थे। यहां तक कि बोटाई शिकारी-संग्रहकर्ता समुदाय,
जो लगभग 5500 साल पहले मध्य एशिया में घोड़ों को पालतू बनाने वाले प्रथम
लोग थे, भी घोड़ों के किसी एक
लिंग को प्राथमिकता नहीं देते थे।
लेकिन
लगभग 3900 साल
पहले घोड़ों के चयन में भारी बदलाव आया। इस समय के बाद से,
युरेशिया की कई संस्कृतियों की पुरातात्विक खोज में काफी
संख्या में नर घोड़े मिले। मादा घोड़ों की तुलना में नर घोड़ों की संख्या तीन गुना
अधिक थी। इनमें दोनों तरह के घोड़े थे – जिन्हें सोद्देश्य दफनाया गया था या यूं ही कचरे के ढेर में
छोड़ दिया गया था। लेकिन नर घोड़े ही बहुतायत में क्यों?
फेजेस का कहना है कि सामाजिक और टेक्नॉलॉजिकल परिवर्तनों के
कारण मनुष्यों में एक खास ‘लिंग’ के प्रति झुकाव हुआ।
कांस्य
युगीन कलाकृतियों में हमेशा पुरुषों को महिलाओं से अलग तरीके से विभूषित,
चित्रित किया गया, और
दफन किया गया है। जबकि ऐसा व्यवहार इसके पूर्व नवपाषाण युग में नहीं दिखाई देता।
कई शोधकर्ता इन संकेतों की व्याख्या इस तरह करते हैं कि दूरस्थ जगहों पर व्यापार
करने और धातु उत्पादन ने पुरुषों का वर्चस्व बढ़ाया जिसके कारण नई सामाजिक व्यवस्था
बनी। जैसे-जैसे
धातुकर्मियों, योद्धाओं और शासकों
के बीच वर्ग विभाजन हुआ, पुरुषों और महिलाओं
के बीच भेद भी बढ़ा। यदि समाज अधिक पुरुष-पक्षी हो तो संभव है कि वे इस तरह की
धारणाओं को अपने वफादार घोड़ों पर भी लागू करेंगे – और मानने लगेंगे कि नर घोड़े अधिक शक्तिशाली
या सक्षम होते हैं।
कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि एक संभावना यह भी हो सकती है कि मादा घोड़ों को प्रजनन के उद्देश्य से जीवित रखा गया हो और नर घोड़ों को छोड़ दिया गया हो जिसके कारण वे अधिक दिखाई देते हैं – खासकर प्राचीन कचरे के ढेरों में। इस पर फेजेस कहते हैं कि यदि ऐसा है तो (नदारद) मादा घोड़ों के अवशेष मानव बस्तियों के आसपास कहीं तो मिलना चाहिए, लेकिन वैज्ञानिक अब तक उन्हें खोज नहीं पाए हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Bronze_Age_Horses_1280x720.jpg?itok=KvuIiV0i
कोरोनाकाल
में लोगों में सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा की चिंता बढ़ी है,
जो शायद उचित भी है। मास्क लगाना,
एक-दूसरे
से दूर-दूर
रहना, बार-बार साबुन या सैनिटाइज़र से हाथ धोना वगैरह
लोगों की आदतों में शुमार होता जा रहा है। प्रचार-प्रसार भी खूब हो रहा है। सारे साबुनों के
विज्ञापनों में अचानक वायरस और खास तौर से कोरोनावायरस को मारने की क्षमता का बखान
जुड़ गया है। एक खबर यह भी है कि अब ऐसे कपड़े भी बनेंगे जो कीटाणुओं का मुकाबला
करेंगे। कपड़ों की धुलाई में विसंक्रमण की बात जुड़ गई है। यह भी कहा जा रहा है कि
पंखों के कुछ ब्रांड सूक्ष्मजीवों को टिकने नहीं देते। कुछ रियल एस्टेट ठेकेदारों
ने कोरोना-मुक्त
मकान का भी वादा कर दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि जिन सतहों को बार-बार स्पर्श किया
जाता है, जैसे मेज़,
दरवाज़ों के हैंडल, लिफ्ट
के बटन वगैरह, उन्हें दिन में पता
नहीं कितनी बार विसंक्रमित (डिस-इंफेक्ट) करना चाहिए।
उपरोक्त
में से कई तो शायद वर्तमान आपात काल में ज़रूरी कदम कहे जा सकते हैं। लेकिन क्या
होगा यदि यह सनक समाज पर हमेशा के लिए हावी हो जाए? इस
सवाल का जवाब कई मायनों में महत्वपूर्ण है और जवाब के लिए हमें थोड़ा इतिहास में
झांकना होगा।
दरअसल,
बीमारियों का आधुनिक कीटाणु सिद्धांत (जर्म थियरी) बहुत पुराना नहीं है। सबसे पहले यह धारणा
उन्नीसवीं सदी में प्रस्तुत की गई थी कि कुछ बीमारियां कीटाणुओं के संक्रमण के
कारण पैदा होती हैं। कीटाणुओं में बैक्टीरिया, फफूंद,
वायरस, प्रोटोज़ोआ वगैरह शामिल
हैं। वैसे यह रोचक बात है कि कीटाणुओं को रोग का वाहक या कारक मानने को लेकर समझ
भारत तथा मध्य पूर्व में दसवीं सदी से ही प्रचलित थी। लेकिन वास्तविक रोगजनक
सूक्ष्मजीवों को पहचानने व उनके उपचार का काम बहुत बाद में शुरू हुआ। इसमें पाश्चर,
फ्रांसेस्को रेडी, जॉन
स्नो, रॉबर्ट कोच वगैरह का योगदान महत्वपूर्ण रहा
था।
कीटाणु
सिद्धांत के मुताबिक कुछ रोग ऐसे हैं जो शरीर में रोगजनक कीटाणुओं के प्रवेश के
कारण पैदा होते हैं। इनके इलाज के लिए सम्बंधित कीटाणु पर नियंत्रण करने की ज़रूरत
होती है। टीका भी इसी सिद्धांत की देन है। इस सिद्धांत ने स्वच्छता और रोग का
परस्पर सम्बंध भी दर्शाया। चूंकि ये कीटाणु हवा और पानी के माध्यम से व्यक्तियों
के बीच फैल सकते हैं, इसलिए बीमार व्यक्ति
को अलग-थलग
रखना, हवा-पानी की शुद्धता वगैरह बातें सामने आती
हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी पहचाने गए जो दो व्यक्तियों के बीच स्पर्श के ज़रिए सीधे भी
फैल सकते हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी हैं जिनके प्रसार के लिए किसी तीसरे जंतु की
ज़रूरत होती है। बरसों के अनुसंधान के आधार पर आज हम कई कीटाणुओं,
उनके प्रसार के तरीकों, मध्यस्थ
जीवों वगैरह की पहचान से लैस हैं। इस समझ ने हमें इन रोगों के उपचार के अलावा
रोकथाम में भी सक्षम बनाया है।
इन
रोगों में शामिल हैं चेचक, टीबी,
टायफाइड, मलेरिया,
रेबीज़, कुष्ठ,
एड्स, फ्लू,
हैज़ा, प्लेग,
और अब कोविड-19। इनमें से अधिकांश रोगों के लिए हमारे पास दवाइयां उपलब्ध
हैं, और कई की रोकथाम के लिए टीके भी उपलब्ध
हैं। इसके अलावा, खास तौर से जल-वाहित तथा जंतु-वाहित रोगों के लिए
रोकथाम के अन्य उपाय (जैसे
मच्छरदानी, मच्छरनाशी रसायनों
का छिड़काव, पानी का उपचार वगैरह) भी उपलब्ध हैं। इस
प्रगति का एक परिणाम यह हुआ कि इन रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत कम हो गई।
लेकिन
इस तरीके (खास
तौर से कीटाणुओं को मारने वाली दवाइयों यानी एंटीबायोटिक के उपयोग) को लेकर चिकित्सा
जगत व साधारण लोगों के बीच भी एक जुनून पैदा हुआ। इनका उपयोग इस कदर बढ़ा कि ये
लगभग ‘ओवर
दी काउंटर’ दवाइयां
हो गर्इं। हर छोटे-मोटे
बुखार के लिए, सर्दी-ज़ुकाम,दस्त
वगैरह के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां देना आम बात हो गई। डॉक्टर तो लिखते ही थे,
आम लोगों ने मेडिकल स्टोर्स से खरीदकर इनका उपयोग शुरू कर
दिया। यह भी हुआ कि खुराक पूरी होने से पहले ठीक लगने लगा तो दवा बंद कर दी।
इस
तरह के बेतहाशा, अंधाधुंध उपयोग का
एक परिणाम यह हुआ कि सम्बंधित कीटाणु उस दवा के खिलाफ प्रतिरोधी हो गया। आज हमारे
पास बहुत कम एंटीबायोटिक बचे हैं जो असरकारक हैं। और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित
कई संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि यही हाल रहा तो शीघ्र ही हम उस ज़माने में
पहुंच जाएंगे जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं।
तो
आज की स्थिति इस किस्से का क्या लेना-देना है? बहुत कुछ। यह तो
हमने देखा ही कि एंटीबायोटिक दवाइयों के अतिरेक ने कैसे हमें 200 साल पीछे घसीट दिया
है। लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी ने हमें कई नई समस्याओं में उलझा दिया
है। सूक्ष्मजीव विज्ञान ने सूक्ष्मजीवों के बारे में और उनसे हमारे सम्बंधों के
बारे में एकदम चौंकाने वाली नई समझ प्रदान की है। पिछले कई वर्षों के अनुसंधान के
दम पर हम यह समझ पाए हैं कि सूक्ष्मजीव और रोग पर्यायवाची नहीं हैं। लाखों-करोड़ों सूक्ष्मजीव
प्रजातियों में से बहुत ही थोड़े से हैं जो रोगजनक हैं। शेष या तो उदासीन हैं या
लाभदायक हैं। जी हां, बैक्टीरिया,
वायरस वगैरह लाभदायक सम्बंध में हमारे साथ रहते हैं।
मनुष्य
के शरीर के ऊपर (त्वचा
पर) तथा
पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र तथा
अन्य स्थानों पर रहने वाले सूक्ष्मजीव-संसार के अध्ययन ने दर्शाया है कि ये हमारे लिए कितने
महत्वपूर्ण हैं। ये पाचन में मददगार होते हैं, शरीर
की जैव-रासायानिक
क्रियाओं के सुचारु संचालन में सहायता करते हैं और (चौंकिएगा मत) हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करते हैं।
और हाल में यह भी देखा गया है कि हमारी नाक का सूक्ष्मजीव-संसार हमें कई तरह के संक्रमणों व एलर्जी
से बचाता है। यदि इस सूक्ष्मजीव-संसार में थोड़ी भी गड़बड़ी हो जाए तो समस्याएं शुरू हो जाती
हैं।
कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जोनाथन आइसन ने बताया है कि हैंड सैनिटाइज़र
का उपयोग हमारी त्वचा के सूक्ष्मजीव-संसार को अस्त-व्यस्त कर सकता है, जिसके
चलते रोगजनक सूक्ष्मजीवों को वहां पनपने का मौका मिल सकता है। आइसन के मुताबिक
हैंड सैनिटाइज़र्स एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ाने में भी योगदान दे सकते हैं।
वायरसों
की बात करते हैं, क्योंकि वे ही आजकल
सेलेब्रिटी हैं। यह समझना ज़रूरी है कि कई वायरस लाभदायक असर भी दिखाते हैं। इनमें
वे वायरस शामिल हैं जिन्हें बैक्टीरियोफेज यानी बैक्टीरिया-भक्षी कहते हैं। चिकित्सा में इनके उपयोग
की वकालत की जा रही है और इसमें कुछ सफलता भी मिली है। कुछ वायरस ऐसे भी हैं जो
गंभीर संक्रमण पैदा कर सकते हैं। जैसे हर्पीज़ का वायरस। लेकिन ऐसा कम लोगों में
होता है कि यह वायरस गंभीर रोग का कारण बन जाए। जब यह सुप्तावस्था में होता है तो
यह हमारे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को लिस्टेरिया से होने वाले फूड-पॉइज़निंग से और
ब्यूबोनिक प्लेग से लड़ने को तैयार करता है।
2016 में पीडियाट्रिक्स
में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया था कि जो बच्चे 1 वर्ष से कम उम्र में झूलाघर में रहते हैं,
उनमें आगे के बचपन में आमाशय फ्लू का प्रकोप कम होता है।
इसी प्रकार से, कुछ अध्ययनों ने
दर्शाया है कि बचपन में रोगजनक सूक्ष्मजीवों (खासकर वायरसों) से संपर्क बच्चों को कई तकलीफों से बचाता
है।
हैंड
सैनिटाइज़र्स ही नहीं, कई घरों में
इस्तेमाल की जाने वाली डिशवॉशिंग मशीन को लेकर किए गए अध्ययनों में पता चला है कि
इनका सम्बंध बच्चों में दमा तथा एलर्जी के बढ़े हुए खतरे से है। संभवत: ऐसी तकनीकों के कारण
बच्चों का लाभदायक बैक्टीरिया से संपर्क कम हो जाता है। अध्ययनों से यह भी पता चला
है कि घरेलू डिसइंफेक्टेंट क्लीनर्स उपयोग करने का असर बच्चों के वज़न पर पड़ता है
क्योंकि ऐसे क्लीनिंग एजेंट्स का उपयोग उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को
प्रभावित करता है।
तो
यदि हमने अपने परिवेश से वायरसों व अन्य सूक्ष्मजीवों का पूरा सफाया करने की ठान
ली, तो हम ऐसे निशुल्क लाभों से हाथ धो
बैठेंगे।
ट्रिक्लोसैन
नामक एक रसायन का उपयोग साबुनों में तो होता ही है, इसे
विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे कपड़ों,
पकाने के बर्तनों, खिलौनों
वगैरह में जोड़ दिया जाता है। यूएस में साबुन में इसके उपयोग पर प्रतिबंध है। पाया
गया है कि यह रसायन हारमोन के संतुलन में गड़बड़ी पैदा करता है और दमा व एलर्जी का
कारण भी बनता है। आजकल साबुन में चांदी के नैनो कण जोड़कर उन्हें ज़्यादा शक्तिशाली
बनाने के विज्ञापन भी देखने को मिलते हैं। यह भी सूक्ष्मजीव संसार पर प्रतिकूल असर
डाल सकता है।
तो
ये थे कीटाणु-दैष
के कुछ प्रत्यक्ष परिणाम। लेकिन इसके कुछ परोक्ष परिणाम भी हैं,
जिन पर गौर करना ज़रूरी है। इसकी सबसे पहली बानगी हमें यूए
के एक प्रमुख राजनेता की टिप्पणी में सुनाई पड़ी थी। एक रिपब्लिकन सांसद स्टीव
हफमैन ने ओहायो सीनेट की स्वास्थ्य समिति की बैठक में कहा,
“क्या अश्वेत लोग इसलिए कोरोनावायरस से ज़्यादा संक्रमित हो
रहे हैं क्योंकि वे अपने हाथ ठीक से धोते नहीं हैं?” उनकी
यह टिप्पणी स्वास्थ्य को व्यक्तिगत आचरण का मामला बना देती है और सार्वजनिक
स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ओझल कर देती है।
हमारे
शहर की हवा प्रदूषित होगी, तो बात मास्क की
होगी, प्रदूषण कम करने की नहीं। गंदा,
संदूषित पानी सप्लाय होगा तो हम ‘सबसे शुद्ध पानी’ वाले आर.ओ. और बोतलबंद पानी की बात करेंगे,
सबको साफ पेयजल की उपलब्धता की नहीं। व्यक्ति बीमार होगा तो
वह निजी स्वास्थ्य सेवा की लूट-खसोट के लिए आसान शिकार हो जाएगा,
लेकिन हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ व सुगम बनाने
की कोशिश नहीं करेंगे। बीमार व्यक्ति की परिस्थितियों का ख्याल किए बगैर यही सवाल
पूछा जाएगा कि उसने हाथ धोए या नहीं, मास्क
लगाया या नहीं। यानी कीटाणुओं के प्रसार को रोकने की ज़िम्मेदारी निजी हो जाएगी।
और
बात शायद यहीं न रुके। यूएस में अश्वेत लोगों को उनकी अपनी तकलीफों के लिए जवाबदेह
ठहराने की कोशिश का अगला कदम होगा कि उन्हें शेष लोगों के लिए एक खतरा घोषित कर
दिया जाएगा। यूएस की बात जाने दें, हमारे अपने देश में
भी कई समूह या समुदाय ऐसे होंगे जिन्हें पूरे समाज के लिए खतरा घोषित कर दिया
जाएगा। एक नए किस्म का विभाजन व अलगाव पैदा होगा। और इसकी शुरुआत सोशल मीडिया (जिसे एंटी-सोशल मीडिया कहना
बेहतर है) पर
हो भी चुकी है।
इतिहास
में देखें तो पता चलता है कि कीटाणु या संदूषण का डर हमेशा से ‘गैर’ के डर से जुड़ा रहा
है। इसी का एक विस्तार सामाजिक स्तर पर भी होता है – इसे व्यवहरागत प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं।
इसका मतलब यह होता है कि ‘नफरत’ की यह प्रतिक्रिया
संक्रमण के विचार मात्र से सक्रिय हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हम उन सब
लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह पालने लगते हैं जो हम से भिन्न या ‘असामान्य’ हैं। कुछ समुदायों
या आप्रवासियों को बदनाम करना इसी का हिस्सा होता है। ‘गैर से द्वैष’ वैसे तो कई सामाजिक परिस्थितियों में देखा
जा सकता है, लेकिन कीटाणु-द्वैष इसके लिए एक
नया मंच प्रदान कर रहा है।
वर्तमान महामारी के दौर में शायद कुछ सख्त उपाय ज़रूरी हों, लेकिन यदि हमें स्वास्थ्य की सामान्य समस्या या अगली महामारी से निपटना है तो अपनी स्वास्थ्य सेवा को सुदृढ़ व समतामूलक बनाना होगा ताकि वह सबकी पहुंच में हो। इसके अलावा प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने के लिए काढ़ा-वाढ़ा पीने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन पर्याप्त पौष्टिक भोजन के महत्व को अनदेखा करने से काम नहीं चलेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/width-640,height-480,imgsize-416286,resizemode-1,msid-75707659/is-a-germs-gender-really-germane.jpg
25 मई मिनीपोलिस पुलिस
ने जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत अमरीकी को धर दबोचा और एक पुलिसकर्मी डेरेक
चाउविन ने जॉर्ज की गरदन पर लगभग 9 मिनट तक अपना घुटना बलपूर्वक रखे रखा, जिससे जॉर्ज की मौत हो गई। पुलिस द्वारा की
गई इस हत्या को लोगों ने खुद अपनी आंखों से देखा और इसका वीडियो वायरल हुआ।
लेकिन
जॉर्ज फ्लॉयड की प्रारंभिक शव परीक्षा रिपोर्ट के बारे में पूरी दुनिया के लोगों
को इस तरह जानकारी दी गई कि उन्हें लगे कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं देखा था और उनमें
खुद पर संशय पैदा हो जाए।
इस
तरह किसी व्यक्ति की बातों, अनुभवों, और फैसलों को झुठलाकर, अपने आप पर संशय पैदा करके आत्मविश्वास या
समझ में कमी लाने या उसका मनौविज्ञान बदल देने को गैसलाइटिंग कहते हैं। गैसलाइटिंग
एक तरह का भावनात्मक खिलवाड़ है। गैसलाइटिंग शब्द 1938 के नाटक, और उसके बाद आई एक फिल्म से आया है, जिसमें एक वहशी पति अपनी पत्नी को पागलखाने
भेजने के लिए एक साज़िश रचता है। वह अपने घर में गैसलाइट की रोशनी कम कर देता है, और जब उसकी पत्नी रोशनी कम होने की बात
कहती है तो वह जानबूझकर उसकी बात से इन्कार कर देता है, फिर इसे उसके पागलपन के सबूत के तौर पर
उपयोग करता है।
अमेरिका
में व्याप्त अश्वेत-विरोधी
हिंसा को सुनियोजित गैसलाइटिंग की तरह देखा जा रहा है। जब आवासीय योजनाओं का ऋण ना
चुकाने पर किसी अश्वेत के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है तो उनकी साख को
ढाल बनाकर सफाई पेश की जाती है; जब
अश्वेत युवाओं को अकारण रोककर खानातलाशी की जाती है तो कहा जाता है कि पूरी
प्रक्रिया रैंडम है और कहा जाता है कि यह उनकी सुरक्षा के लिए ही किया जा रहा है।
और, जब पुलिस द्वारा अश्वेत लोगों की हत्या की
जाती है तो उनके चरित्र, और
यहां तक कि उनकी शारीरिक बनावट को ज़िम्मेदार ठहराकर, हत्यारों को रिहा कर दिया जाता है। राज्य-स्तरीय मृत्यु
प्रमाण पत्र के राष्ट्रीय डैटाबेस के एक विश्लेषण में पाया गया था कि कानून के
अनुपालन में की गई हत्याओं में से आधी से भी कम हत्याएं दर्ज की जाती हैं। इसके
अलावा, पुलिस
द्वारा की गई बर्बरता से हुई मौत के वास्तविक कारण की बजाय कहा जाता है कि मृत्यु ‘दुर्घटनावश’ या ‘अज्ञात’ कारण से हुई। जबकि
मौत का वास्तविक कारण नस्लवाद होता है।
जॉर्ज
के मामले में भी 29 मई
को लोगों से कहा गया कि जॉर्ज की शव परीक्षा में ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है जो
यह बताती हो कि मृत्यु दम घुटने की वजह से हुई, और कहा गया कि मृत्यु नशे और पहले से मौजूद दिल की बीमारी
से हुई है। यहां स्पष्ट कर दें कि ये कारण ऑटोप्सी करने वाले चिकित्सक ने नहीं दिए
थे बल्कि चिकित्सकीय जानकारी की राजनैतिक व्याख्या करने वाले आरोप पत्र के हैं।
मानक
चिकित्सीय जांच के तहत फ्लॉयड के स्वास्थ्य और शरीर में विष की उपस्थिति की जांच
भी की गई थी। ये सामान्य परीक्षण हैं जो मृत्यु के कारण के बारे में नहीं बताते
लेकिन फिर भी सुर्खियों में बने हुए हैं। आरोप पत्र में फ्लॉयड की मृत्यु के लिए
उसे रही ह्रदय-धमनी
रोग की दिक्कत और उच्च रक्तचाप की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, जो वास्तव में लंबी अवधि में स्ट्रोक और
दिल का दौरा पड़ने के जोखिम को बढ़ाती है ना कि कुछ मिनटों में। अन्य चिकित्सक बताते
हैं कि एस्फिक्सिया – यानी
घुटन – में
हमेशा शरीर परसंकेत दिखाई पड़ें, ऐसा
ज़रूरी नहीं है।
इस
तरह लोगों के सामने मृत्यु के वास्तविक कारणों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, और उन्हें इसे आंखों देखी हत्या के साथ
सामंजस्य बैठाने छोड़ दिया गया। रिपोर्ट में जॉर्ज की पुरानी बीमारियों की भूमिका
को बढ़ा-चढ़ाकर
पेश किया गया, नशीले
पदार्थों के बारे में अनावश्यक ज़िक्र किया गया लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा गया
कि यदि उस दिन पुलिस वाला जॉर्ज की गर्दन को घुटने से दबाकर न रखता तो जॉर्ज जीवित
होता।
अलबत्ता, राजनैतिक दबाव के चलते, 1 जून को लोगों के
सामने जॉर्ज की शव परीक्षा की दो रिपोर्ट आर्इं। एक उस शव परीक्षा की रिपोर्ट थी
जो जॉर्ज के परिवार ने एक निजी चिकित्सक से करवाई थी। दूसरी रिपोर्ट सरकारी थी।
दोनों में ही इसे हत्या बताया गया था।
स्पष्ट
है कि आरोप पत्र में मृत्यु के कारणों के बारे में भ्रम पैदा किया गया और लोगों को
अपनी आंखों देखी वास्तविकता पर संदेह करने को उकसाया गया। उसमें अश्वेत लोगों के
प्रति व्याप्त धारणाओं को पुष्ट करने की कोशिश की गई।
चिकित्सा
विज्ञान लंबे समय से पीड़ितों की बजाय सत्ताधारी उत्पीड़कों के पक्ष में उपयोग किया
जाता रहा है। अश्वेत मांओं की प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के लिए उन्हें ही
दोषी ठहराया जाता है, और
कोविड-19 की
वजह से मरने वालों में अश्वेत अमरीकियों की अधिक संख्या के लिए उनके हार्मोन
रिसेप्टर्स या थक्का जमाने वाले कारक में अंतर को दोष दिया जा रहा है।
चिकित्सकों
को ध्यान रखना चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान कभी वस्तुनिष्ठ नहीं रहा है। इस पर हमेशा
सामाजिक, राजनीतिक
और कानूनी प्रभाव रहा है और रहेगा। आपराधिक न्यायिक मामलों को चिकित्सकीय जांच
नियंत्रित करती है; ज़हर
के बारे में पड़ताल रोगी की आजीविका पर प्रभाव डालती है; दूसरी ओर, ठीक तरह से किए जाएं तो वैज्ञानिक परीक्षण
लिंगभेदी और नस्लवादी रूढ़ियों को खत्म कर सकते हैं।
चिकित्सा
का क्षेत्र गैसलाइटिंग के लिए एक योग्य जगह है। सफेद कोट और स्टेथोस्कोप की
कथित ताकत और वैधता की आड़ में निदान और निष्कर्ष में वास्तविकता को छुपाने की ताकत
है। यह बात जॉर्ज के मामले में स्पष्ट नज़र आई है।
ज़रूरत है कि चिकित्सक इस पर आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://fivethirtyeight.com/wp-content/uploads/2020/06/RTS3B7KV-16×9-1.jpg?w=575
कोविड-19 महामारी ने तमाम
किस्म की गैर-वैज्ञानिक
धारणाओं को जन्म दिया है। अमेरिका में इस बात ने काफी ज़ोर पकड़ा है कि कोविड-19 की वजह से मरने
वालों में अश्वेत लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा इसलिए है क्योंकि उनमें ऐसे जीन्स
पाए जाते हैं, जो उन्हें
कोरोनावायरस के प्रति दुर्बल बनाते हैं। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान
के प्रोफेसर क्लेरेंस ग्रेवली ने मामले का विश्लेषण किया है। प्रस्तुत है उसका
सार।
वैसे
तो कोविड-19 पर
हमारी समझ अभी भी काफी कम है फिर भी इस महामारी से जुड़े एक तथ्य को अनदेखा नहीं
किया जा सकता है। एक अनुमान है कि 27 मई
तक कोविड-19 से
मरने वाले अफ्रीकी-अमेरिकी
लोगों की तादाद श्वेत-अमेरिकी
लोगों की तुलना में 2.4 गुना अधिक थी। इस
असमानता पर रोष स्वाभाविक था। इसके सही कारण (व्यवस्थागत असमानता और उत्पीड़न के चलते
जैविक क्षति) पर
ध्यान देने की बजाय कुछ लोगों ने इसका पूरा दोषारोपण अफ्रीकी अमरीकियों में
उपस्थित एक अज्ञात जीन पर कर दिया जो उन्हें संक्रमण के प्रति दुर्बल बनाता है।
वास्तव
में यह नस्लवादी विचार राजनेताओं, वैज्ञानिकों,
चिकित्सकों और अन्य लोगों से आता है कि कालापन लोगों को
निहित रूप से रोगों के प्रति दुर्बल बनाता है। ऐसे विचार वैज्ञानिकों ने लैंसेट
और हेल्थ अफेयर जैसी कई प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित भी किए हैं।
जीव
विज्ञान का नस्लीय दृष्टिकोण न केवल गलत है बल्कि हानिकारक भी है। यदि अन्य
प्राइमेट्स से तुलना की जाए तो मनुष्यों में बहुत ही कम आनुवंशिक विविधता नज़र आती
है। कारण यह है कि मनुष्य हाल ही में अस्तित्व में आए हैं। जितनी विविधता दिखती है
वह जेनेटिक नहीं बल्कि भौगोलिक कारणों से है। त्वचा के रंग के जीन और रोगों के
प्रति दुर्बल बनाने वाले जीन्स में कोई सम्बंध नहीं है।
तो
फिर हम ‘श्वेत’ और ‘अश्वेत’ लोगों में रक्तचाप,
मधुमेह या कोविड-19 जैसी समस्याओं की
संभावना में अंतर की बात कैसे करते हैं? कारण
यह है मानव जीव शास्त्र मात्र जीनोम नहीं है। वास्तव में हमारा वातावरण,
हमारे अनुभव और रोगों से संपर्क का हमारे शारीरिक विकास पर
गहरा प्रभाव पड़ता है जो हमारी आनुवंशिक संभावनाओं को साकार रूप देता है। सुनियोजित
नस्लीय भेदभाव शारीरिक बनावट को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि जीनोम। स्वस्थ
भोजन तक सीमित पहुंच, विषैले प्रदूषकों से
संपर्क, पुलिस की हिंसा का
डर या नस्लीय भेदभाव के ज़ख्म किसी की भी उच्च रक्तचाप,
मधुमेह और कोविड-19 जैसी गंभीर
जटिलताओं से ग्रस्त होने की संभावना को बढ़ा सकते हैं।
बदकिस्मती
से, यह दृष्टिकोण जीव विज्ञान में गायब ही रहा
है। जैसे 2006 में हुआ तांग और
सहयोगियों द्वारा ह्यूमन जेनेटिक्स में प्रकाशित एक पेपर को देखिए। इस पेपर
में शोधकर्ताओं ने पारिवारिक रक्तचाप कार्यक्रम के डैटा का विश्लेषण किया। इस
कार्यक्रम में यह देखने की कोशिश की गई थी कि क्या मेक्सिकन अमरीकियों और अफ्रीकी
अमरीकियों में बॉडी मॉस इंडेक्स और रक्तचाप के आधार पर जेनेटिक वंशावली का
पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इस अध्ययन का निष्कर्ष था कि अफ्रीकी और गैर-अफ्रीकी मूल के
लोगों के बीच आनुवंशिक अंतर रक्तचाप को प्रभावित करते हैं,
हालांकि पर्यावरणीय कारक शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण हों।
तांग
के अध्ययन ने भी इस निराधार धारणा को हवा दी कि अफ्रीकी मूल के लोगों में रक्तचाप
की समस्या होने की संभावना ज़्यादा है। और कोविड-19 से होने वाली
मृत्यु दर में यह धारणा काफी महत्वपूर्ण हो गई है।
वेंडरबिल्ट
युनिवर्सिटी में रसायन विज्ञान की प्रोफेसर रेना रॉबिन्सन बताती हैं कि अफ्रीकी
अमरीकी लोगों में संभवत: ऐसे
जेनेटिक कारक हैं जो उनको नमक के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं। यह रक्तचाप के
लिए व्यापक रूप से फैलाई गई एक निराधार व अब खंडित संकल्पना है। इसमें कहा जाता है
कि अटलांटिक दास व्यापार के दौरान कुछ ऐसी परिस्थितियां विकसित हुर्इं जिसने गुलाम
अफ्रीकियों में नमक को बनाए रखने वाले जीनोटाइप को पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखा। गौरतलब है कि ह्रदय रोग और
नस्ल के सम्बंधों के लिए आनुवंशिक कारक खोजने के लिए अरबों डॉलर खर्च किए गए थे
लेकिन कोई नतीजा सामने नहीं आया।
तांग
के अध्ययन में दो सामान्य त्रुटियां नज़र आती हैं जिनके चलते नस्लीय-आनुवंशिक सोच टिकी
हुई है।
पहली,
इस अध्ययन में अफ्रीकी जेनेटिक समूह और रक्तचाप के बीच
सांख्यिकी रूप से कोई महत्वपूर्ण सम्बंध नहीं पाया गया। लेकिन तांग ने फिर भी यह
निष्कर्ष निकाला जो उनके आंकड़ों से नहीं निकला था। वैज्ञानिक शोध के प्रस्तुतीकरण
में यह समस्या बहुत बिरली नहीं है।
और
दूसरी यह कि यदि उनकी टीम ने आनुवंशिक वंश और रक्तचाप के बीच सम्बंध पाया भी तो
उन्होंने अकारण मान लिया कि इसका कारण कुछ अज्ञात जेनेटिक अंतर है जो
1.
उच्च रक्तचाप के प्रति संवेदनशीलता को बढ़ाता है;
और
2.
वह अफ्रीकी मूल के लोगों में ज़्यादा पाया जाता है।
इन
धारणाओं का न तो उन्होंने कोई परीक्षण किया और न ही इस वैकल्पिक संभावना पर विचार
किया कि जैविक गुणधर्मों पर सामाजिक-सांस्कृतिक अंतरों का असर हो सकता है।
तांग
का अध्ययन सामने आने के कुछ समय बाद ही युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की एमी नॉन ने
पारिवारिक रक्तचाप कार्यक्रम के आकड़ों पर दोबारा बारीकी से विचार किया। उन्होंने
इस बार विश्लेषण में आनुवंशिक वंश और रक्तचाप के साथ-साथ शैक्षिक वर्षों (जो व्यवस्थित नस्लीय भेदभाव का एक जाना-माना परिणाम है) को भी शामिल किया। अमेरिकन
जर्नल ऑफ पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित इस विश्लेषण की रिपोर्ट के अनुसार शिक्षा
के प्रत्येक अतिरिक्त वर्ष के साथ रक्तचाप में औसतन 0.51 मि.मी. मर्क्यूरी
की कमी देखने को मिली। जबकि आनुवंशिक वंश से इसका कोई सम्बंध नहीं था।
कोविड-19 महामारी के दौर में इस अध्ययन से पता चलता है कि आनुवंशिक वंश का असर केवल हमारी मान्यताओं के कारण होता है। यदि हम किसी को ‘श्वेत’ या ‘अश्वेत’ के रूप में वर्गीकृत करते हैं तो इसके परिणामस्वरूप हम वही जैविक अंतर पैदा कर देते हैं जिसको हम मानना चाहते हैं। यह हमारे डीएनए में किसी गहरे अंतर के कारण नहीं बल्कि हमारी सामाजिक संरचनाओं और व्यवहार पर निर्भर करता है जो कुछ को तो महत्व देता है और अन्य को तुच्छ समझता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.newyorker.com/photos/5e90a41cb1814300082a929d/16:9/w_2784,h_1566,c_limit/Taylor-blackplague.jpg
वैज्ञानिकों
ने एक ऐसे जीन का पता लगाया है जिसका उत्परिवर्तित रूप तो कैंसर का कारण बनता है
लेकिन उसका सामान्य रूप व्यक्ति को अपने शरीर की ज़्यादा चर्बी को जलाकर छरहरा बने
रहने में मदद करता है।
यह
देखा गया है कि कुछ लोग खूब खाएं, जो मर्ज़ी खाएं,
तो भी मोटे नहीं होते। आम तौर पर जब मोटापे की बात होती है
तो ध्यान इस बात पर होता है कि व्यक्ति क्या व कितना खाता है। लेकिन सेल
नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित नया शोध बताया है कि मोटापे और छरहरेपन का नियंत्रण
जेनेटिक स्तर पर भी होता है।
ब्रिटिश
कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक विज्ञानी जोसेफ पेनिंजर और उनके साथियों ने
मोटापे के जेनेटिक आधार खोजने के प्रयास किए। इसके लिए उन्होंने एस्टोनिया के
जीनोम सेंटर में उन लोगों की जीनोम सम्बंधी जानकारी को खंगाला जो सबसे दुबले-पतले बताए गए थे।
इसमें से उन्होंने उन लोगों को छांटकर अलग कर दिया जिनके बारे में कहा गया था कि
उनमें भूख न लगने (एनोरेक्सिया) या ऐसी किसी अन्य
दिक्कत थी जिसकी वजह से वे दुबले रह जाते हैं।
शेष
छरहरे लोगों में उन्होंने जेनेटिक समानता के चिंह खोजना शुरू किया। इस संदर्भ में
एक खास जीन ने उनका ध्यान आकर्षित किया – एक एंज़ाइम एनाप्लास्टिक लिम्फोमा काइनेज़
यानी ALK का
जीन। यह तो पहले से पता था कि डीएनए के इस खंड का उत्परिवर्तित रूप कैंसर से
सम्बंधित है। लेकिन मज़ेदार बात यह थी कि किसी ने नहीं सोचा था कि इसका सामान्य रूप
क्या काम करता है।
तो
पेनिंजर और उनके साथियों ने उत्परिवर्तित फल मक्खी और उत्परिवर्तित चूहों का
निर्माण किया। वे यह दर्शाना चाहते थे कि जो जीन मनुष्यों को छरहरा रखता है वह
मक्खियों और चूहों में भी वैसा ही असर दिखाता है। देखा गया कि ALK जीन की उपस्थिति की वजह से ये उत्परिवर्तित मक्खियां और
चूहे दुबले बने रहते हैं, हालांकि वे कम तो
बिलकुल नहीं खाते।
शोधकर्ताओं
का मत है कि ALKजीन मस्तिष्क पर क्रिया करता है जिसके असर
से मस्तिष्क वसा कोशिकाओं को ज़्यादा वसा जलाने का निर्देश देता है। चूंकि यह जीन
मक्खियों, चूहों और मनुष्यों,
सबमें कारगर होता है, इसलिए
ऐसा लगता है कि यह जैव विकास के इतिहास में बहुत समय से मौजूद रहा है। यह दुबलेपन
के अनुसंधान में नया अध्याय जोड़ सकता है।
वर्तमान में भी ऐसी दवाइयां उपलब्ध हैं, जो कैंसरकारी ALK की क्रिया को बाधित करती हैं। यानी ALK को औषधियों के लिए एक उपयुक्त लक्ष्य माना जाता है। तो हो सकता है कि इसके आधार पर हमें छरहरे बने रहने के लिए गोली मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://acenews.pk/wp-content/uploads/2019/01/dna2.jpg
हाल
ही में मोन्टाना के सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले ने जीवाश्म विज्ञानियों को राहत
दी है। कोर्ट ने फैसले में कहा है कि जीवाश्म कानूनी रूप से सोने-चांदी जैसे खनिजों
से भिन्न हैं। इन पर आधिपत्य उसका होगा जिसकी भूमि पर वे मिले हैं,
ना कि भूमि के नीचे के खनिज भंडार मालिकों का।
दरअसल,
मामला पूर्वी मोन्टाना के भूभाग में साल 2006 में प्राप्त
डायनासौर के दो जीवाश्मों से जुड़ा है। मरे दम्पति ने पूर्वी मोन्टाना में सेवरसन
बंधुओं से ज़मीन खरीदी थी। उन्होंने निजी जीवाश्म खोजियों के साथ मिलकर उस भूखंड से
टायरानेसौरस रेक्स के कंकाल सहित कई बड़ी खोजें कीं। जिसमें सबसे अनोखी खोज थी
डायनासौर के कंकालों की एक जोड़ी, जिसे देखने पर लगता
है कि वे दोनों लड़ते हुए मारे गए थे।
ज़मीन
बेचते समय सेवरसन बंधु ने उक्त भूमि के नीचे दबे खनिज पर दो तिहाई मालिकाना हक
अपने पास रखा था। इसलिए इस खोज के बाद उन्होंने इन जीवाश्म पर आंशिक मालिकाना हक
का दावा किया। गौरतलब है कि यूएस के कुछ प्रांतों में भूमि का स्वामित्व और उसके
नीचे दबे तेल, गैस या अन्य खनिजों
का स्वामित्व अलग-अलग
लोगों या संस्थाओं का हो सकता है। इस मामले में संघीय जिला अदालत ने मरे दम्पति के
पक्ष में फैसला सुनाया। लेकिन सेवरसन बंधु की याचिका पर तीन सदस्यों की एक अदालत
में दो सदस्यों ने कहा कि जीवाश्म पर अधिकार खनिज मालिकों का है। पुन: सुनवाई की गुहार
लगाने पर अदालत ने सुनवाई के पहले मामला मोन्टाना सुप्रीम कोर्ट भेज दिया। शीर्ष
अदालत ने पिछले फैसले को पलटते हुए कहा कि उसमें ‘जीवाश्म’ और ‘खनिज’ को एक श्रेणी में रखने की गलती की गई थी।
शब्दों के सामान्य और व्यावहारिक अर्थ के अनुसार मरे दम्पति की भूमि पर प्राप्त
डायनासौर के जीवाश्म खनिज नहीं हैं।
यह
फैसला वैज्ञानिकों के लिए एक जीत है। वैज्ञानिकों की चिंता थी कि यदि जीवाश्मों को
खनिज अधिकारों के साथ जोड़कर देखा जाएगा तो खुदाई करने की अनुमति प्राप्त करना
मुश्किल हो सकता है और जो जीवाश्म पहले प्राप्त हो चुके हैं उनके मालिकाना हक पर
भ्रम पैदा हो सकता है।
हालांकि
2019 में
ही मोन्टाना विधायिका ने एक कानून पारित कर दिया था जिसके तहत कहा गया था कि
जीवाश्म पर अधिकार भू-स्वामियों
का होगा। अब कोर्ट का यह फैसला हक की इस जंग का अंतिम वार रहा।
इंडियाना
युनिवर्सिटी के जीवाश्म विज्ञानी डेविड पॉली कहते हैं कि हालांकि यह फैसला अन्य
राज्यों पर लागू नहीं होता लेकिन यह फैसला इस मायने में अहमियत रखता है कि यदि ऐसे
मुद्दे फिर उठे तो इस फैसले को नज़ीर के तौर पर पेश किया जा सकता है।
इस फैसले से उक्त जीवाश्म की बिक्री का रास्ता साफ हो जाएगा जिसका अनुबंध मरे दम्पति ने एक म्यूज़ियम से किया है। इससे वैज्ञानिकों को एक और बड़ी राहत मिलेगी कि डायनासौर के जीवाश्म निजी संग्रहकर्ताओं के हाथ में जाने से बच जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/dinos_1280p.jpg?itok=7S4vTPnM
मैंने
पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान महामारी के लिए
ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी
प्रवृत्ति कम होती जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश
सारे ज्ञात कोरोना-पॉज़िटिव
प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर,
हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएंगे,
जिसका परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की
जांच नहीं हो पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।
वायरस
बड़ी आबादी तक पहुंचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह
से तमाम परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी,
वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी,
जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन
किया जाएगा।
दूसरी
ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों वाले संक्रमण पैदा करेंगे,
जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद होने वाले क्वारेंटाइन से
बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की कई पीढियों,
जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में
प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।
जहां
वायरस सम्बंधी सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी
रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं
वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि
चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम
ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना संभव नहीं
है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके
द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित
व्यक्ति में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं,
जो सरल हो, न कि वह जो
वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा प्रासंगिक हो।
चूंकि
आप उग्रता में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते, इसलिए
इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूं। यदि किसी
परिकल्पना को सिद्ध करने या उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो,
तो लोग उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं,
क्योंकि उसके आधार पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता।
महत्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक
महत्व रखती है या नहीं बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोध पत्र प्रकाशित कर
पाएंगे।
अलबत्ता,
विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और भारतीय परिदृश्य से
भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही है। यद्यपि संक्रमण बढ़
रहा है, लेकिन समय के साथ
मृत्यु दर लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से,
हालांकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है,
लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।
यही
भारत में भी दिख रहा है। दरअसल, भारत में रोगी
मृत्यु दर (यानी
कोविड-19 के
मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले से ही कम थी। और यह दर लगातार कम हो रही है,
हालांकि प्रतिदिन कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष
है।
मैंने यहां भारत में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्राफ उस दिन से शुरू किया है जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु का आंकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।
अब
यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी,
तो हम कह सकते हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19 साधारण
फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है, यह
सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि
ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।
दूसरी
शर्त यह है कि केस-मृत्यु
दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में केस-मृत्यु दर मृत्यु दर
को कम करके आंकती है। 35 दिन
का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन
दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों से यह भी सुना है कि अब सघन
देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही है।
टीके
के परीक्षण और बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध
नहीं हो पाएगा। और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महंगा साबित हो।
भारत
जैसे विशाल देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह शायद एक-दो सालों में संभव न
हो।
लेकिन इन दोनों चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा। इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए लेकिन लक्षण-रहित व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित होती है तो चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/height-450,width-600,resizemode-4,imgsize-200519,msid-75397580/coronavirus-updates-india-records-28380-confirmed-cases-death-toll-rises-to-886.jpg