मल-जल के विश्लेषण से नशीली दवाइयों की निगरानी

चीन में वैज्ञानिक और पुलिस मिलकर नशीली दवाइयों के उपयोग व उनकी रोकथाम की निगरानी करने के लिए मल-जल (सीवेज) के नमूनों की जांच का सहारा ले रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह तरीका काफी कारगर हो सकता है और अन्य देशों में भी अपनाया जा सकता है। इस तरीके में किया यह जाता है कि मल-जल के नमूनों में नशीली दवाइयों और उनके विघटन से बने रसायनों की जांच की जाती है।

उदाहरण के लिए, चीन के दक्षिणी शहर ज़ोंगशान में नशीली दवाओं के सेवन को कम करने के लिए चलाए जा रहे एक कार्यक्रम की सफलता को जांचने के लिए इस तरीके का उपयोग किया गया है। इस विधि को मल-जल आधारित तकनीक कहा जा रहा है। ज़ोंगशान पुलिस द्वारा इसकी मदद से नशीली दवाइयों के एक निर्माता को गिरफ्तार भी किया गया है।

वैसे बेल्जियम, नेदरलैंड, स्पेन और जर्मनी जैसे कई अन्य देशों में भी इस तकनीक के अध्ययन चल रहे हैं। किंतु इन देशों में इस तकनीक का उपयोग मात्र आंकड़े इकट्ठे करने के लिए किया जा रहा है जबकि चीन में इन आंकड़ों के आधार पर नीतिगत निर्णय किए जा रहे हैं और कार्रवाई की जा रही है। इस सम्बंध में चीन के राष्ट्रपति ज़ी जिनपिंग का कहना है कि नशीली दवाइयों के खिलाफ युद्ध उनके देश के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मामला है।

इस तकनीक के विभिन्न अध्ययनों में मल-जल में किसी नशीली दवा या उसके विघटन से बने पदार्थों के विश्लेषण से उभरी तस्वीर और अन्य विधियों से दवाइयों के उपयोग की तस्वीर काफी मिलती-जुलतीरही हैं। मसलन, 2016 में युरोप के आठ शहरों में किए गए एक अध्ययन से पता चला था कि मल-जल में उपस्थित कोकेन और दवाइयों की जब्ती से प्राप्त आंकड़ों के बीच समानता थी। अलबत्ता, ऐसा लगता है कि कुछ दवाइयों के संदर्भ में दिक्कत है। जैसे मेट-एम्फीटेमिन्स के विभिन्न स्रोतों से प्राप्त आंकड़े मेल नहीं खाते। बहरहाल वैज्ञानिक सहमत हैं कि मल-जल परीक्षण नशीली दवाइयों के उपयोग का ज़्यादा वस्तुनिष्ठ तरीका है।

इस संदर्भ में यह बात भी सामने आई है कि इस तकनीक का उपयोग ड्रग्स-विरोधी अभियानों के मूल्यांकन हेतु भी किया जा सकता है। जैसे, पेकिंग विश्वविद्यालय के पर्यावरण रसायनज्ञ ली ज़ीक्विंग और उनके दल ने चीन के विभिन्न स्थानों के मल-जल में दो नशीली दवाइयों – मेथ-एम्फीटेमिन और किटेमीन – का मापन किया था। यह मापन इन दवाइयों के खिलाफ चलाए गए अभियान के दो वर्ष पूरे होने पर एक बार फिर किया गया। पता चला कि मेथ-एम्फीटेमीन का उपयोग 42 प्रतिशत तथा किटेमीन का उपयोग 67 प्रतिशत कम हुआ था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गोताखोरों के अध्ययन में नैतिक नियमों का उल्लंघन

प्रैल माह में इंडोनेशिया के बजाऊ समुदाय पर हुए अध्ययन ने मानव के चलते हुए विकास का एक आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत करके दुनिया भर के लोगों का ध्यान खींचा। इस समुदाय के पुरुष मछली और जलीय जीवों का शिकार करने के लिए अपना अधिकतर समय पानी के अंदर व्यतीत करते हैं। 2015 में इलार्डो ने 59 बजाऊ व्यक्तियों के अध्ययन के आधार पर पाया कि अन्य लोगों की तुलना में बजाऊ समुदाय के लोगों के स्पलीन बड़े होते हैं। ये बड़े स्प्लीन लंबे गोतों के दौरान अतिरिक्त रक्त कोशिकाएं मुक्त करके हाइपॉक्सिया (ऑक्सीजन की कमी) को संभालने में मदद करते हैं। शोधकर्ताओं ने इसके लिए ज़िम्मेदार एक जीन की पहचान भी की है।

लेकिन सेल में प्रकाशित इस अध्ययन ने इंडोनेशिया में अलग तरह की हलचल पैदा की है। यहां के कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि यह “हवाई शोध”का एक उदाहरण है जिसमें समृद्ध देशों के वैज्ञानिक स्थानीय नियमों और ज़रूरतों की परवाह नहीं करते।

इंडोनेशियाई अधिकारियों के अनुसार शोध दल ने स्थानीय समीक्षा बोर्ड से नैतिक अनुमोदन प्राप्त नहीं किया और बिना अनुमति डीएनए नमूने देश से बाहर ले गया। एक शिकायत यह भी है कि अध्ययन में शामिल एकमात्र स्थानीय शोधकर्ता के पास विकास या आनुवंशिकी में कोई विशेषज्ञता नहीं थी।

लेकिन टीम के प्रमुख, कोपेनहेगन विश्वविद्यालय सेंटर फॉर जियोजेनेटिक्स के निदेशक एस्के विलरस्लेव के अनुसार टीम के पास इंडोनेशिया के सम्बंधित मंत्रालय से अध्ययन करने की अनुमति थी और डेनमार्क नैतिकता समिति से भी नैतिक मंज़ूरी मिली थी। उन्हें यह बताया गया था कि मंत्रालय से मिली अनुमति में सभी स्थानीय अनुमतियां भी शामिल हैं। लेकिन वास्तव में टीम को इंडोनेशिया के एक नैतिक पैनल से भी अनुमोदन लेना चाहिए था; चिकित्सा विज्ञान शोध सम्बंधी अंतर्राष्ट्रीय दिशानिर्देश भी स्थानीय अनुमोदन की मांग करते हैं।

इस अध्ययन में शामिल रही इलार्डो ने मंत्रालय के साथ एक सामग्री स्थानांतरण समझौता भी संलग्न किया था। लेकिन नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ रिसर्च एंड डेवलपमेंट, जकार्ता के अध्यक्ष सिस्वान्टो ने बताया कि टीम को मानव डीएनए के हस्तांतरण के लिए इस संस्था से मंज़ूरी लेनी चाहिए थी। इलार्डो का कहना है कि यह बात पहले ही बता देना चाहिए था।

इंडोनेशिया के संस्थानों ने उचित सहयोग की कमी, स्थानीय लोगों को शोध में न रखना, छोटे प्राइवेट संस्थानों के शोधकर्ता को शामिल करने जैसी समस्याओं का भी उल्लेख किया है। इन सब समस्याओं से विदेशी अनुसंधान को लेकर चिताएं झलकती हैं। भारत में भी कई विदेशी संस्थान शोध कार्य करते हैं। और कई बार ऐसी दिक्कतें सामने आती हैं। लिहाज़ा कोई प्रोटोकॉल बनाया जाना ज़रूरी लगता है। (स्रोत फीचर्स)

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मुंबई की आर्ट-डेको इमारतें विश्व धरोहर – जाहिद खान

किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति तथा सांस्कृतिक, प्राकृतिक व ऐतिहासिक धरोहर से होती है। यह धरोहर न सिर्फ उसे विशिष्टता प्रदान करती है बल्कि दूसरे देशों से उसे अलग भी दिखलाती है। हमारे देश में हर तरफ ऐसी सांस्कृतिक, प्राकृतिक और ऐतिहासिक छटाएं बिखरी पड़ी हैं। प्राचीन स्मारक, मूर्ति शिल्प, पेंटिंग, शिलालेख, प्राचीन गुफाएं, वास्तुशिल्प, ऐतिहासिक इमारतें, राष्ट्रीय उद्यान, प्राचीन मंदिर, अछूते वन, पहाड़, विशाल रेगिस्तान, खूबसूरत समुद्र तट, शांत द्वीप समूह और आलीशान किले।

इनमें से कुछ धरोहर ऐसी हैं, जिनका दुनिया में कोई मुकाबला नहीं। ऐसी ही अनमोल धरोहर दक्षिण मुंबई की विशेष शैली में बनीं 19वीं सदी की दर्जनों विक्टोरिया गॉथिक और 20वीं सदी की आर्ट डेको इमारतें हैं जिन्हें अब विश्व विरासत का दर्जा मिल गया है। युनेस्को की विश्व विरासत समिति ने हाल ही में बाहरीन की राजधानी मनामा में हुई अपनी 42वीं बैठक में विक्टोरिया गॉथिक और आर्ट डेको इमारतों को अपनी विश्व धरोहर सूची में शामिल कर लिया है। एलिफेंटा और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस स्टेशन के बाद मुंबई को यह तीसरा विश्व गौरव मिला है। इस घोषणा के साथ ही भारत में विश्व धरोहर स्थलों की सूची में 37 स्थान हो जाएंगे। यही नहीं, सबसे अधिक 5 धरोहर स्थलों के साथ महाराष्ट्र पहला राज्य हो जाएगा। ओवल ग्राउंड के साथ यह परिसर मियामी (अमेरिका) के बाद विश्व का एकमात्र ऐसा इलाका है, जहां समुद्र तट पर अन्य विक्टोरियन गॉथिक इमारतों के साथ बड़ी तादाद में बेहतरीन आर्ट डेको इमारतें मौजूद हैं। इनकी संख्या तकरीबन 39 होगी। युनेस्को के इस फैसले के साथ ही मुंबई की पहचान अंतर्राष्ट्रीय फलक पर और भी मज़बूती के साथ दर्ज हो गई है।

विक्टोरिया गॉथिक और आर्ट डेको इमारतों को विश्व धरोहर की फेहरिस्त में शामिल करने के लिए केंद्र और राज्य सरकार बीते चार साल से लगातार कोशिश कर रही थीं। युनेस्को को प्रस्ताव तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने साल 2012 में ही भेज दिया था। कोशिश अकेली सरकार की नहीं थी, बल्कि इसमें मुंबई के नागरिक भी जुड़े हुए थे। सही बात तो यह है कि उन्होंने ही इसकी सर्वप्रथम पहल की थी। यूडीआरआई, काला घोड़ा एसोसिएशन, ओवल कूपरेज रेसिडेंट्स एसोसिएशन, ओवल ट्रस्ट, नरीमन पॉइंट चर्चगेट सिटिज़न एसोसिएशन, हेरिटेज माइल एसोसिएशन, फेडरेशन ऑफ रेसिडेंट्स ट्रस्ट, आब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन और एमएमआर हेरिटेज कंज़र्वेशन सोसायटी जैसे संगठनों ने इसके लिए जमकर मेहनत की और बाकायदा एक अभियान चलाया। युनेस्को की समिति जब इन स्थलों का दौरा करने मुंबई आई तो जानीमानी वास्तु रचनाकार आभा नारायण लांबा और नगर विकास विभाग के प्रधान सचिव नितिन करीर ने मुंबई का पक्ष मज़बूती से रखा। आभा नारायण लांबा ने मुंबई के दावे का शानदार डोज़ियर बनाया और चौदह साल तक लगातार कोशिश करती रहीं कि ये इमारतें विश्व धरोहर में शामिल हो जाएं। अंतत: ये कोशिशें रंग लार्इं और अंतर्राष्ट्रीय स्मारक और स्थल परिषद की सिफारिश पर विक्टोरिया गॉथिक और आर्ट डेको इमारतों को विश्व विरासत की फेहरिस्त में शामिल कर लिया।

विश्व धरोहर सूची में किसी जगह का शामिल होना ही ये बताता है कि उस जगह की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितनी कीमत होगी। युनेस्को की सूची में शामिल होने के बाद निश्चित तौर पर मुंबई में पर्यटकों की संख्या और बढ़ेगी।

आर्ट डेको इमारतों की बात करें, तो ये इमारतें मुंबई के वास्तुकला का अलंकार हैं। आर्ट डेको इमारतें (बॉम्बे डेको) दरअसल, युरोप और अमेरिका में 1920 और 1930 के दशक में फैले स्थापत्य आंदोलन की देन हैं। दक्षिण मुंबई में चर्चगेट स्टेशन और मंत्रालय के बीच स्थित अंडाकार क्रिकेट ग्राउंड ओवल मैदान के नाम से मशहूर है। ओवल मैदान के दाहिनी ओर करीब एक ही शैली में कतार से आर्ट डेको या मुंबई डेको शैली में बनी 125 से अधिक इमारतें हैं। इनका निर्माण प्रथम विश्व युद्ध खत्म होने के बाद साल 1920 से 1935 के बीच हुआ। उस समय मुंबई के नवधनाढ्यों द्वारा बनवाई गई इन इमारतों की शृंखला ओवल मैदान के किनारे तक ही सीमित नहीं रही। समुद्री ज़मीन पाटकर एक ही शैली की ये आर्ट डेको इमारतें मरीन ड्राइव पर भी बनाई गर्इं। ये आज भी नरीमन पॉइंट से गिरगांव चौपाटी तक खड़ी दिखाई देती हैं। इस शैली की इमारतों को विभिन्न वास्तुकारों ने डिज़ाइन किया था। आर्ट डेको इमारतों में रीगल सिनेमा, रजब महल, इंडिया इंश्योरेंस बिल्डिंग, न्यू एम्पायर सिनेमा, क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया, इंप्रेस कोर्ट, सूना महल, ओशियाना, इरोस सिनेमा और मरीन ड्राइव की कई रिहाइशी इमारतें शामिल हैं। कुछ आर्ट डेको इमारतें मुंबई के उत्तरी क्षेत्र में भी हैं।

ओवल मैदान के बार्इं ओर विक्टोरियन गॉथिक शैली की पुरानी बेहद खूबसूरत इमारतें हैं। इन इमारतों को सर गिल्बर्ट स्कॉट, जेम्स टिबशॉ और ले. कर्नल जेम्स फुलर जैसी हस्तियों ने डिज़ाइन किया था। इनका निर्माण ज़्यादातर 19वीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ था। फोर्ट क्षेत्र की विक्टोरियन शैली की इमारतों का वैभव चमत्कृत कर देने वाला है। इन इमारतों में मुंबई हाई कोर्ट, मुंबई विश्वविद्यालय, एलफिंस्टन कॉलेज, डेविड ससून लाइब्रोरी, छत्रपति शिवाजी वास्तु संग्रहालय, पुराना सचिवालय, नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट, पश्चिम रेल मुख्यालय, क्रॉफर्ड मार्केट, सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज व एशियाटिक लाइब्रोरी और महाराष्ट्र पुलिस मुख्यालय प्रमुख हैं। 19वीं सदी की ये इमारतें ओल्ड बांबे फोर्ट की दीवारों से घिरी हुई थीं। बाद में दीवारें गिरा दी गर्इं, लेकिन इलाके के नाम के साथ फोर्ट शब्द जुडा रह गया। 11वीं सदी में विकसित युरोपियन शैली की इन इमारतों में गॉथिक शैली का वास्तुशिल्प है। इमारतों में लेसेंट खिड़कियां और दागे हुए कांच का भरपूर इस्तेमाल किया गया है, जो इन्हें बेहद आकर्षक बनाता है। मुंबई में हर साल आने वाले लाखों पर्यटक इन्हें देखकर कहीं खो से जाते हैं। 

युनेस्को द्वारा विश्व विरासत में शामिल कर लिए जाने के बाद कोई भी जगह या स्मारक पूरी दुनिया की धरोहर बन जाता है। इन विश्व स्मारकों का संरक्षण युनेस्को के इंटरनेशनल वर्ल्ड हेरिटेज प्रोग्राम के तहत किया जाता है। वह इनका प्रचारप्रसार करती है, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा पर्यटक इन स्मारकों के इतिहास, स्थापत्य कला, वास्तु कला और प्राकृतिक खूबसूरती से वाकिफ हों। विश्व विरासत की सूची में शामिल होने का एक फायदा यह भी होता है कि उससे दुनिया भर के पर्यटक उस तरफ आकर्षित होते हैं। अब केंद्र सरकार और महाराष्ट्र सरकार की सामूहिक ज़िम्मेदारी बनती है कि वे दक्षिण मुंबई की इन शानदार इमारतों को सहेजने और संवारने के लिए एक व्यापक कार्य योजना बनाए। न सिर्फ सरकार बल्कि हर भारतीय नागरिक की भी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह अपनी अनमोल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहर को सहेज कर रखे। इनके महत्व को खुद समझे और आने वाली पीढ़ियों को भी इनकी अहमियत समझाए। एक महत्वपूर्ण बात और, जो भी विदेशी पर्यटक इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों को देखने आए, उन्हें यहां सुरक्षा, अपनत्व और विश्वास का माहौल मिले। वे जब अपने देश वापिस लौटकर जाएं, तो भारत की एक अच्छी छवि और यादें उनके संग हों। (स्रोत फीचर्स)

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एयर कंडीशनर में परिवर्तन से ऊर्जा बचत की उम्मीद – आदित्य चुनेकर

र्जा मंत्रालय देश में एयर कंडीशनिंग का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री सेल्सियस करने की योजना बना रहा है। इससे क्या हासिल होगा तथा इसमें और क्या किया जा सकता है? डिफॉल्ट से आशय है कि यदि आप छेड़छाड़ नहीं करेंगे तो एयर कंडीशनर 24 डिग्री सेल्सियस पर काम करेगा।

सलाह क्या है?

उर्जा मंत्रालय (एमओपी) ने घोषणा की है कि वह एयर कंडीशनर निर्माताओं और हवाई अड्डों, होटल, शॉपिंग मॉल और सरकारी भवन जैसे प्रतिष्ठानों को यह सलाह जारी करने वाला है कि वे एयर कंडीशनिंग का डिफॉल्ट तापमान 24 डिग्री सेल्सियस पर सेट रखें।

मंत्रालय के अनुसार, एयर कंडीशनर (एसी) के तापमान की सेटिंग में एक डिग्री की वृद्धि से बिजली की खपत में 6 प्रतिशत की कमी आती है। इसके अलावा, यह दावा भी किया गया है कि यदि सभी उपयोगकर्ता एसी की तापमान सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस पर रखते हैं, तो भारत में बिजली की खपत 20 अरब युनिट कम हो जाएगी। यह भारत की कुल बिजली खपत का लगभग 1.5 प्रतिशत है। लेकिन यह सलाह वास्तव में काम कैसे करेगी?

सबसे पहले, 24 डिग्री सेल्सियस के डिफॉल्ट तापमान सेटिंग के महत्व पर चर्चा करते हैं। अपने घरों के अंदर लोग किस तापमान पर आराम महसूस करते हैं यह व्यक्तिगत पसंद का मामला है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) की राष्ट्रीय भवन संहिता (एनबीसी) विभिन्न तापमान सेटिंग्स की सलाह देता है जिससे विभिन्न प्रकार की इमारतों में रहने वालों को ऊष्मीय आराम प्राप्त होता है। एनबीसी के अनुसार, लोग केंद्रीय वातानुकूलित इमारतों में 23-26 डिग्री सेल्सियस पर, मिश्रित शैली की इमारतों में 26-30 डिग्री सेल्सियस पर और गैरवातानुकूलित इमारतों में 29-34 डिग्री सेल्सियस पर आराम महसूस करते हैं। मिश्रित शैली इमारतों में, एसी आवश्यकता अनुसार चालूबंद किया जाता है। हालांकि तापमान की ये सीमाएं मात्र संकेतक के रूप में हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि लोग 26-32 डिग्री सेल्सियस पर आराम महसूस करते हैं। इसलिए, 24 डिग्री सेल्सियस गर्मी से राहत के लिए एक ठीकठाक सीमा है तथा इससे भी ऊंचा तापमान निर्धारित किया जा सकता है।

क्या हासिल होगा?

रूम एयर कंडीशनर का उपयोग घरों, छोटी दुकानों और छोटे कार्यालयों में किया जाता है। इस तरह के एसी के सभी निर्माता नए डिफॉल्ट सेट करने पर सहमत हैं। फिलहाल, अधिकांश एसी पहली बार चालू करने पर 18-20 डिग्री सेल्सियस से शुरू होते हैं। उसके बाद कभी भी चालू करने पर अंतिम बार सेट किए गए तापमान पर चालू होते हैं। इस सलाह के बाद, एसी हमेशा 24 डिग्री सेल्सियस पर चालू होंगे। चालू करने के बाद उपयोगकर्ता तापमान को बढ़ा या घटा सकते हैं। लेकिन अगली बार चालू करने पर सेटिंग वापिस डिफॉल्ट पर आ जाएगी। यानी यदि कोई उपभोक्ता एसी का उपयोग 20 डिग्री सेल्सियस पर करना चाहे तो हर बार एसी चालू करने के बाद उसे 20 डिग्री सेल्सियस पर लाना होगा। उम्मीद की जाती है कि इससे उपभोक्ता डिफॉल्ट तापमान के प्रति जागरूक होंगे और शायद वे अपना व्यवहार बदलकर थोड़े ऊंचे तापमान सेटिंग से काम चलाने लगेंगे। हालांकि, जो उपभोक्ता पहले से ही 24 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर एसी का उपयोग कर रहे हैं, उन पर इसका विपरीत असर हो सकता है और हो सकता है कि वे अब कम तापमान पर एसी सेट करने लगें। इस समस्या का एक समाधान यह हो सकता है कि अगली बार का डिफॉल्ट तापमान केवल तभी सेट हो जब अंतिम तापमान सेटिंग 24 डिग्री सेल्सियस से कम रही हो। यदि एसी का उपयोग 24 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा की सेटिंग पर किया गया है, तो वह उसी तापमान सेटिंग से शुरू हो सकता है।

क्रियान्वयन एजेंसी, ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई), हर 4-5 महीने में क्रियान्वयन के सर्वेक्षण की योजना बना रही है और फिर इस प्रणाली को अनिवार्य बना दिया जाएगा। इस सर्वेक्षण में लोगों के व्यवहार को समझने और आदर्श डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो आराम और बिजली में बचत दोनों सुनिश्चित करे।

सेंट्रल एसी सिस्टम पर असर

हवाई अड्डे, होटल, अस्पताल और बड़े कार्यालय सेंट्रल एयर कंडीशनिंग सिस्टम का उपयोग करते हैं। इन अनुप्रयोगों में बचत की संभवाना और निश्चितता अधिक होती है क्योंकि इन स्थानों पर तापमान सेटिंग बहुत कम (18-21 डिग्री सेल्सियस) निर्धारित होती है। केंद्रीय रूप से नियंत्रित होने की वजह से इनमें डिफॉल्ट तापमान को नियंत्रित करना और बनाए रखना तुलनात्मक रूप से आसान है। ऊर्जा मंत्रालय की प्रेस विज्ञप्ति से यह बात स्पष्ट नहीं है कि सरकार इन प्रतिष्ठानों के साथ डिफॉल्ट तापमान सेटिंग की सूचना देने और निगरानी करने की क्या योजना बना रही है। इसके क्रियान्वन के लिए जापान का कूल बिज़कार्यक्रम एक अच्छा उदाहरण हो सकता है। 2005 की गर्मियों में, जापान सरकार ने पुस्तकालयों और सामुदायिक केंद्रों जैसे सभी कार्यालयों और सार्वजनिक इमारतों से एयर कंडीशनर को 28 डिग्री सेल्सियस पर रखने को कहा था। कर्मचारियों को आराम से रहने के लिए सूट और टाई के बजाय आरामदेह ड्रेस कोड की अनुमति थी। प्रारंभ में, अभियान की आलोचना इस आधार पर की गई कि रूढ़िवादी जापानी लोग कभी भी अनौपचारिक वस्त्रों में कार्यालय नहीं जाएंगे। लेकिन जापानी सरकार ने अभियान को जारी रखा। निरंतर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित होते रहे और प्रधानमंत्री समेत वरिष्ठ कैबिनेट नेताओं ने अनौपचारिक वस्त्रों में साक्षात्कार देकर उदाहरण प्रस्तुत किए। इस अभियान का अब तेरहवां वर्ष है। 2011 में, भूकंप और सुनामी के बाद जापान के परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने के कारण बिजली की कमी की समस्या का समाधान करने के लिए सुपर कूल बिज़अभियान शुरू किया गया। निजी क्षेत्र ने भी सरकार के उदाहरण का पालन किया है और कई कार्यालयों के साथसाथ शॉपिंग मॉल में थर्मोस्टैट को 28 डिग्री सेल्सियस पर सेट किया गया। कर्मचारी अब टीशर्ट और शॉर्ट्स में कार्यालय जा सकते हैं। कार्यालय में तापमान कम करने के लिए पर्दों और रंगीन शीशों का उपयोग किया जाने लगा। टोकियो समाचार और मेट्रो सिस्टम में हर सुबह बिजली की अपेक्षित मांग और आपूर्ति पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है। 2011 में, इस अभियान ने टोकियो क्षेत्र में लगभग 12 प्रतिशत बिजली बचाई। भारत में भी स्थानीय परिवेश के अनुकूल एक अभियान इसी तरह के परिणाम प्राप्त करने के लिए तैयार किया जा सकता है।

और क्या हो सकता है?

एयर कंडीशनर के लिए उच्च डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करना बिजली की खपत को सीमित करने के लिए एक अच्छी पहल है। हालांकि, इससे और अधिक करने की जरूरत है। भारत में लगभग 4-5 प्रतिशत घरों में ही एसी हैं। बढ़ती आय, बढ़ते शहरीकरण और बढ़ते तापमान के साथ इसमें वृद्धि की उम्मीद है। इन एसी को चलाने के लिए लगने वाली बिजली हेतु महत्वपूर्ण संसाधनों की ज़रूरत होगी और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक, पर्यावरणीय और जलवायु परिवर्तन सम्बंधी मुद्दे भी उठेंगे। बड़ी समस्या तो यह है कि व्यस्ततम समय में एसी की बिजली खपत में वृद्धि होती है जिसकी वजह से ऐसे ऊर्जा संयंत्रों की आवश्यकता बढ़ जाएगी, जो व्यस्ततम समय में सर्वोच्च मांग की पूर्ति कर सकें। इस समस्या का तकाज़ा है कि एसी का उपयोग कम करने के मामले में नीतिगत हस्तक्षेप किए जाएं।

सबसे अच्छी नीति वह है जो एसी की आवश्यकता को या तो कम या बिलकुल खत्म कर दे। उच्च ऊष्मारोधक गुणों वाली निर्माण सामग्री और हवा की अच्छी आवाजाही वाली बिल्डिंग डिज़ाइन से अंदर के तापमान को कम रखा जा सकता है। नीतियों का उद्देश्य यह होना चाहिए कि लोग ऐसी तापमान रोधी डिज़ाइन व निर्माण के तरीकों को अपनाएं। इसके लिए जागरूकता अभियान चलाने के अलावा ऐसी ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता के बेहतर क्रियान्वन का लक्ष्य भी होना चाहिए जिसमें तापमान रोधी डिजाइनों का उपयोग शामिल हो।

इसके बाद एसी की दक्षता में सुधार की बात आती है। बीईई में पहले से ही एसी के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम भारतीय बाज़ारों में एसी को 1 सितारा (सबसे कम ऊर्जा दक्षता) से 5 सितारा (सबसे ज़्यादा ऊर्जा दक्षता) तक रेटिंग देता है। 1 स्टार से कम ऊर्जा दक्षता वाला एसी बेचा नहीं जा सकता। दक्षता स्तर की स्टार रेटिंग समयसमय पर संशोधित होती रहती है लेकिन इनमें आगे सुधार भी किया जा सकता है। यह भी देखा गया है कि जब बीईई स्टार रेटिंग को संशोधित करता है, तो बाज़ार कम रेटिंग वाले मॉडल्स की ओर चला जाता है। वर्तमान 5 सितारा रेटेड मॉडल संशोधन के आधार पर 4 या 3 सितारा मॉडल में बदल जाते हैं और कुछ ही 5 सितारा मॉडल शेष रह जाते हैं। जिस तरह एलईडी बल्ब के मामले में किया गया था, थोक खरीद जैसी नीतियां के द्वारा अत्यधिक कुशल मॉडल को प्रोत्साहित करके इस मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है। अंत में, बीईई को रेटिंग शुदा मॉडल्स में मानकों के अनुपालन की जांच करके परिणाम मीडिया में प्रकाशित करना चाहिए। इससे कार्यक्रम की विश्वसनीयता और दृश्यता बढ़ेगी।

एसी के अलावा, छत के पंखे और रेफ्रिजरेटर जैसे अन्य उपकरण भी हैं जो भारत की कुल आवासीय बिजली खपत में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। यह खपत वर्ष 2000 से अब तक तीन गुना हो गई है। 70 प्रतिशत से अधिक घरों में गर्मी से राहत के लिए छत के पंखों का उपयोग किया जाता है। यह भारत की कुल आवासीय बिजली खपत का लगभग 18 प्रतिशत है। भारत में बेचे जाने वाले अधिकांश छत के पंखे, सबसे कुशल पंखों की तुलना में दो गुना अधिक बिजली खर्च करते हैं। वर्ष 2009 में बीईई द्वारा छत के पंखों में दक्षता रेटिंग की शुरुआत की गई और उसके बाद से इसे कभी संशोधित नहीं किया गया। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर और फ्रॉस्ट फ्री रेफ्रिजरेटर की रेटिंग को अब तक 3-4 बार संशोधित किया जा चुका है। रेफ्रिजरेटर एक खामोश पियक्कड़ है जो किसी भी घर में 25-50 प्रतिशत बिजली की खपत कर जाता है। कुछ मामलों में एक अक्षम रेफ्रिजरेटर घर के वार्षिक बिजली बिल को 4-5 हज़ार रुपए तक बढ़ा सकता है। हालांकि, एसी की तुलना में उसकी खपत के बारे में जागरूकता कम होती है। इन उपकरणों की दक्षता में सुधार लाने और उनमें बिजली की खपत को कम करने के उद्देश्य से नीतियां बनाने के लिए उनका उपयोग पैटर्न और वास्तविक बिजली खपत के डैटा की आवश्यकता होगी। प्रयास (ऊर्जा समूह) ने स्मार्ट मीटर का उपयोग करके कुछ घरों की वास्तविक बिजली खपत और चयनित उपकरणों की निगरानी करने की एक पहल शुरू की है। यह डेटा emarc.watchyourpower.org पर देखा जा सकता है। इस डैटा का उपयोग विभिन्न उपकरणों की बिजली की खपत के बारे में जन जागरूकता बढ़ाने के साथसाथ इन उपकरणों की दक्षता में सुधार के लिए मानक और लेबलिंग जैसे कार्यक्रमों की बुनियादी तैयार करने के लिए किया जा सकता है।

भारत में एसी के लिए डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करना देश में भविष्य में बिजली की खपत को कम करने के लिए एक अच्छा कदम है। इससे उपभोग के बारे में सामान्य जन जागरूकता को बढ़ावा मिलेगा जिसके परिणामस्वरूप अन्य उपकरणों का भी तर्कसंगत उपयोग हो सकता है। बिजली की खपत को घटाने के प्रयासों को न केवल एसी पर बल्कि अन्य घरेलू उपकरणों, जैसे छत के पंखों और रेफ्रिजरेटरों पर भी लक्षित करना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन और आत्महत्या का सम्बंध

हाल ही में हुए शोध में सामने आया है कि जलवायु परिवर्तन (बढ़ता हुआ तापमान) लोगों की आत्महत्या की प्रवृत्ति को उतना ही प्रभावित करता है जितना कि आर्थिक मंदी लोगों को आत्महत्या करने के लिए उकसाती है।

मानसिक स्वास्थ्य और ग्लोबल वार्मिंग के बीच सम्बंध पर व्यापक रूप से शोध नहीं हुए हैं। किंतु हाल ही के शोध में अमेरिका और मेक्सिको में पिछले दशक में हुई आत्महत्याओं और तापमान का विश्लेषण किया है। विश्लेषण में पाया गया कि औसत मासिक तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ने के साथ अमेरिका में आत्महत्या की दर में 0.7 प्रतिशत और मेक्सिको में 2.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

शोध में मौसम में बदलाव, गरीबी के स्तर (आर्थिक स्तर) को ध्यान में रखा गया था। यहां तक कि मशहूर लोगों की आत्महत्या की खबरों का भी ध्यान रखा गया था जिनकी वजह से ज़्यादा लोग आत्महत्या कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि सारी परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए भी किसी क्षेत्र में गर्म दिनों में ज़्यादा आत्महत्याएं हुर्इं।

अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मार्शल बर्क और उनके साथियों का कहना है कि यह पता करना काफी महत्वपूर्ण है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या की दर में फर्क पड़ता है या नहीं क्योंकि विश्व भर में अकेले आत्महत्या के कारण होने वाली मृत्यु के आंकड़े अन्य हिंसक कारणों से होने वाली मृत्यु की कुल संख्या से ज़्यादा हैं। विश्व स्तर पर यह मृत्यु 10-15 प्रमुख कारणों में से एक है। यह विश्लेषण नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि जलवायु परिवर्तन के कारण आत्महत्या दर में मामूली बदलाव भी विश्व स्तर पर बड़ा बदलाव ला सकता है, खासकर अमीर देशों में जहां वर्तमान आत्महत्या दर वैसे ही अधिक है। दुनिया भर में हाल ही के हफ्तों में उच्च तापमान दर्ज किया गया है। जो संभवतः जलवायु परिवर्तन के कारण हुआ है।

इस प्रकार के अध्ययन बढ़ते तापमान और आत्महत्या के बीच कोई कार्यकारण सम्बंध नहीं दर्शाते पर समय के साथ और अलगअलग स्थानों पर परिणामों में उल्लेखनीय स्थिरता दिखी है। यह बात भारत के संदर्भ में हुए शोध में भी दिखी है जो कहता है कि पिछले 30 सालों में भारत में 60,000 आत्महत्याओं और तापमान बढ़ने के बीच सम्बंध है।

शोधकर्ताओं ने ट्विटर पर 60 करोड़ से अधिक संदेशों का भी विश्लेषण किया और पाया कि उच्च तापमान के दिनों में लोग मायूस शब्दों (जैसे अकेलापन, उदासी, उलझे हुए) वगैरह का उपयोग अधिक करते हैं। मानसिक स्वास्थ्य सामान्य से गर्म दिनों के दौरान बिगड़ता है। एक संभावना यह हो सकती है कि जब शरीर गर्म परिस्थितियों में खुद को ठंडा करता है तो मस्तिष्क में रक्त प्रवाह में फर्क पड़ता हो।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यदि मौजूदा कार्बन उत्सर्जन को कम नहीं किया जाता है तो जलवायु परिवर्तन के कारण अमेरिका और कनाडा में साल 2050 तक 9,000 से 40,000 तक अतिरिक्त आत्महत्या होने की आशंका है। यह बेरोज़गारी के कारण होने वाली आत्महत्या में 1 प्रतिशत की वृद्धि से भी ज़्यादा है। शोध यह बताते हैं कि तापमान बढ़ने से हिंसा बढ़ती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टूरेट सिंड्रोम विवश कर देता है – सीमा

ये हिचकियां निकालना बंद करो।

मैं नहीं कर सकती।

क्यों नहीं कर सकती?

क्योंकि ये हिचकियां नहीं, टूरेट सिंड्रोम है।

इन डायलॉग ने आपको हालिया रिलीज़ फिल्म हिचकी की याद दिला दी होगी। हिचकी फिल्म के आने से पहले मैं इस शब्द से वाकिफ नहीं थी। आप में से कइयों के लिए भी ये शब्द अनसुना रहा होगा। फिल्म देखी तो टूरेट सिंड्रोम के बारे में और जानने का मन हुआ। कंप्यूटर खोला और जुट गई नेट से जानकारी इकट्ठा करने में। आप भी टूरेट सिंड्रोम के बारे में जानना चाहेंगे

टूरेट सिंड्रोम यह नाम फ्रांसीसी चिकित्सक, जॉर्ज गिलेस डे ला टूरेट के नाम पर रखा गया है, जिन्होंने पहली बार 19वीं सदी में इस बीमारी के लक्षणों का विवरण दिया था।

टूरेट सिंड्रोम एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। इसमें इंसान के मस्तिष्क के तंत्रिका नेटवर्क में कुछ गड़बड़ी हो जाती है जिससे वे अनियंत्रित हरकतें करते हैं या अचानक आवाज़ें निकालते हैं। इन्हें टिक्स कहा जाता है। बांह या सिर को मोड़ना, पलकें झपकाना, मुंह बनाना, कंधे उचकाना, तेज़ आवाज़ निकालना, गला साफ करना, बातों को बारबार कहने की ज़िद करना, चिल्लाना, सूंघना आदि टिक्स के प्रकार हैं।

टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्तियों में टिक्स के पहले अजीबसी उत्तेजना होती है और टिक्स हो जाने के बाद थोड़ी देर के लिए राहत मिलती है। पर कुछ देर बाद फिर वही उत्तेजना पैदा होने लगती है। इन लक्षणों पर उन लोगों का कोई नियंत्रण नहीं रहता।

टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति के बौद्धिक स्तर या जीवन प्रत्याशा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। लेकिन अपनी अनियंत्रित हरकतों के कारण उन्हें कई बार शर्मिंदगी और अपमान का सामना करना पड़ता है जिससे उनका रोज़मर्रा का कामकाज और सामाजिक जीवन बहुत ज़्यादा प्रभावित होता है।

टूरेट सिंड्रोम के कारणों के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। शोध के अनुसार, मानव के मस्तिष्क के बेसल गैंग्लिया वाले हिस्से में गड़बड़ी के कारण टूरेट सिंड्रोम के लक्षण विकसित होते हैं। बेसल गैंग्लिया शरीर की ऐच्छिक गतिविधियों, नियमित व्यवहार या दांत पीसने, आंखों की गति, संज्ञान और भावनाओं जैसी आदतों को नियंत्रित करने में मदद करता है।

कुछ अन्य शोध के अनुसार टूरेट सिंड्रोम के मरीज़ों में बेसल गैंग्लिया थोड़ा छोटा होता है और डोपामाइन तथा सेरोटोनिन जैसे रसायनों के असंतुलन के कारण भी यह समस्या उत्पन्न होती है। यह व्यक्ति के आसपास के वातावरण से भी प्रभावित होता है।

टूरेट सिंड्रोम में बिजली का झटका जैसा लगता है लेकिन यह सनसनाहट ज़्यादा देर तक नहीं रहती है बल्कि आतीजाती रहती है। डॉक्टर अभी भी निश्चित तौर पर यह नहीं समझ पाए हैं कि आखिर ऐसा क्यों होता है। टूरेट सिंड्रोम के आधे मरीजों में अटेंशन डेफिसिट हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर (यानी एकाग्रता का अभाव और अति सक्रियता) के लक्षण दिखाई देते हैं जिसके कारण ध्यान देने, एक जगह बैठने और काम को खत्म करने में परेशानी होती है। टूरेट सिंड्रोम के कारण चिंता, भाषा सीखने की क्षमता में कमी (डिसलेक्सिया), विचारों और व्यवहार को नियंत्रित करने की क्षमता में कमी आदि समस्याएं भी हो सकती हैं। तनाव, उत्तेजना, कमज़ोरी, थकावट या बीमार पड़ जाना इस सिंड्रोम को और गंभीर बना देते हैं।

यह आनुवंशिक है यानी यदि परिवार में किसी व्यक्ति को टूरेट सिंड्रोम हो तो उसकी संतानों को भी टूरेट सिंड्रोम होने की संभावना रहती है। लेकिन टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित एक ही परिवार के व्यक्तियों में इसके लक्षण अलगअलग हो सकते हैं।

अमूमन कई बच्चों में ये टिक्स उम्र के साथ अपने आप चले जाते हैं पर लगभग 1 प्रतिशत बच्चों में ये स्थायी रूप में रह जाते हैं। लड़कियों की तुलना में लड़कों में ये ज़्यादा होते हैं।

वैसे तो टूरेट सिंड्रोम का कोई इलाज नहीं है, लेकिन टिक्स को नियंत्रित किया जा सकता है। दवाइयों को प्राथमिक उपचार के रूप में दिया जाता है। किंतु इन दवाइयों से थकावट, वज़न बढ़ना, संज्ञान सुस्ती जैसे दुष्प्रभाव भी हो सकते हैं। दवाइयों के अलावा व्यवहारगत उपचार भी दिया जाता है जिससे टिक्स के प्रभाव और तीव्रता को कम किया जाता है।

व्यवहारगत उपचार में टिक्स के पैटर्न और आवृत्ति की निगरानी की जाती है और उन उद्दीपनों को पहचानने की कोशिश की जाती है जिनसे टिक्स उत्पन्न होते हैं। इसके बाद टिक्स को संभालने के विकल्प सुझाए जाते हैं (उदाहरण के लिए, गर्दन के झटके को कम करने के लिए ठुड्डी को नीचे करते हुए गर्दन को सीधा खींचना)। ऐसे उपाय टिक्स के कारण पैदा हुई उत्तेजनाओं से मुक्ति पाने में मददगार होते हैं। मरीज़ और उसके परिवार की काउंसलिंग की जाती है ताकि वे समाज और घर में भागीदार बन सकें।

पर सबसे ज़्यादा ज़रूरत है संवेदनशीलता की, टूरेट सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति के साथ सामान्य व्यवहार करने की। हमारी संवेदनशीलता उन्हें एक सामान्य जीवन जीने में मदद कर सकती है। यह बात सिर्फ टूरेट के मामले में नहीं बल्कि हर भिन्नसक्षम व्यक्ति के मामले में लागू होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनैतिकता के निर्यात पर रोक का प्रयास

नैतिकता का निर्यात यानी एथिकल डंपिंग शब्द युरोपीय आयोग ने 2013 में गढ़ा था। इसका आशय यह है कि कई देशों के शोधकर्ता नैतिक मापदंडों के चलते जो शोध अपने देश में नहीं कर सकते उसे किसी अन्य देश में जाकर करते हैं जहां के नैतिक मापदंड उतने सख्त नहीं हैं। यह स्थिति प्राय: विकसित सम्पन्न देशों और निर्धन देशों के बीच उत्पन्न होती है। अब युरोपीय संघ ने इस तरह के अनैतिकता के निर्यात पर रोक लगाने का फैसला किया है।

वैसे युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित शोध के संदर्भ में अनैतिकता के निर्यात की बात 2013 में ही शुरू हो गई थी किंतु उस समय इस संदर्भ में स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं होने के कारण प्रतिबंध को लागू नहीं किया जा सका था। अब आयोग ने दिशानिर्देश तैयार कर लिए हैं और युरोपीय संघ द्वारा वित्तपोषित सारे अनुसंधान प्रोजेक्ट्स में इन्हें लागू किया जाएगा।

युरोपीय आयोग के नैतिकता समीक्षा विभाग का कहना है कि इस तरह से अन्य देशों में जाकर शोध के ढीलेढाले मापदंडों का उपयोग करने से वैज्ञानिक अनुसंधान की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। खास तौर से यह स्थिति जंतुओं पर किए जाने वाले अनुसंधान के संदर्भ में सामने आती है। इसके अलावा, कई मर्तबा यह भी देखा गया है कि जिन देशों में अनुसंधान किया जाता है, वहां के लोगों को पर्याप्त जानकारी देने के मामले में भी लापरवाही बरती जाती है। अनुसंधान में भागीदारी के जो मापदंड युरोप में लागू हैं, उनका पालन प्राय: नहीं किया जाता। दिशानिर्देशों में यह भी कहा गया है कि शोध परियोजनाओं में इस वजह से जानकारी छिपाना या कम जानकारी देना उचित नहीं कहा जा सकता कि वहां के लोग या स्थानीय शोधकर्ता उसे समझ नहीं पाएंगे। इसके अलावा एक मुद्दा यह भी है कि अन्य देशों में शोध करते समय वहां के नियमकानूनों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए।

अलबत्ता, कई लोगों का कहना है कि इस तरह की सख्ती से अन्य देशों में अनुसंधान करना मुश्किल हो जाएगा और इससे न सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान का बल्कि उन देशों का भी नुकसान होगा।(स्रोत फीचर्स)

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चीन में जच्चा-बच्चा का विशाल अध्ययन

चीन में 6 वर्ष पूर्व एक महत्वाकांक्षी शोध परियोजना शुरू की गई थी। इस परियोजना के अंतर्गत लक्ष्य यह है कि 50,000 नवजात शिशुओं और उनकी मांओं को शामिल किया जाएगा और इनका अध्ययन बच्चों की उम्र 18 वर्ष होने तक निरंतर किया जाएगा। इस तरह एक ही समूह का लंबे समय तक अध्ययन करना कोहर्ट अध्ययन कहलाता है और ऐसे समूह को कोहर्ट कहते हैं।

वर्ष 2012 तक इस कोहर्ट में 33,000 बच्चे और उनकी मांओं को शामिल किया जा चुका था। और 2020 तक 50,000 जच्चा-बच्चा का लक्ष्य हासिल करने की योजना है। इसके अलावा अब अध्ययन में पांच हज़ार नानियों को शामिल किया जाएगा। इन सारे बच्चों का जन्म गुआंगज़ाउ महिला व बाल चिकित्सा केंद्र में हुआ है। इस बात का ध्यान रखा जा रहा है कि उन्हीं बच्चों और माओं को शामिल किया जाए जो आने वाले कई वर्षों तक गुआंगज़ाउ में रहने का इरादा रखते हैं।

अध्ययन के दौरान अब तक कोई 16 लाख जैविक नमूने एकत्र किए जा चुके हैं। इनमें मल, रक्त, आंवल के ऊतक और गर्भनाल वगैरह शामिल हैं। शोधकर्ता इन बच्चों और उनकी मांओं में कई बातों की जांच करेंगे। जैसे एक प्रमुख जांच बच्चों के शरीर के सूक्ष्मजीव जगत की होगी और यह देखने की कोशिश की जाएगी कि उम्र के साथ प्रत्येक बच्चे का सूक्ष्मजीव जगत कैसे विकसित होता है। यह देखने की भी कोशिश की जा रही है कि शरीर में सूक्ष्मजीव जगत पर किन बातों का असर पड़ता है, जैसे बचपन में दी गई दवाइयां, या यह कि प्रसव सामान्य ढंग से हुआ था या ऑपरेशन से वगैरह। इन आंकड़ों के आधार पर बीमारियों के बारे में समझ बनने की उम्मीद है। इसके साथ ही इन परिवारों की जीवन शैली से जुड़ी बातों पर भी ध्यान दिया जाएगा।

कुछ निष्कर्ष तो उभरने भी लगे हैं और शोधकर्ता दल ने इन्हें प्रकाशित भी किया है। जैसे आम तौर पर गर्भवती स्त्री को प्रोजेस्टरोन नामक दवा दी जाती है ताकि समय-पूर्व प्रसव को टाला जा सके। इस अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती गर्भावस्था (14 सप्ताह तक) में यह दवा देने से कोई फायदा नहीं होता बल्कि नुकसान ही हो सकता है। प्रोजेस्टरोन देने से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि प्रसव सिज़ेरियन ऑपरेशन से करना होगा। इसके अलावा प्रसव-उपरांत अवसाद की आशंका में भी वृद्धि होती है।

यह देखा गया है कि बच्चे में कुछ कोशिकाएं मां से आती हैं और ये अनिश्चित समय तक जीवित रह पाती हैं। अध्ययन में यह देखने की कोशिश की जाएगी कि ये कोशिकाएं कैसे लंबे समय तक जीवित रहती हैं और क्या भूमिका अदा करती हैं। चूहों पर अध्ययन में देखा गया है कि ये उनके बच्चों को संतानोत्पत्ति के समय कुछ सुरक्षा प्रदान करती हैं।

वैसे तो ऐसे कोहर्ट अध्ययन पहले भी किए गए हैं किंतु इतने विशाल पैमाने पर पहली बार किया जा रहा है। गुआंगज़ाउ महिला एवं बाल चिकित्सा केंद्र में वैज्ञानिक और प्रोजेक्ट के निदेशक, ज़िउ किउ का कहना है कि इस अध्ययन से आंकड़ों का एक अकूत भंडार तैयार होगा जो दुनिया भर के वैज्ञानिकों के लिए खुला रहेगा। इस तरह के आंकड़ों से स्वास्थ्य और बीमारी को समझने की ज़बर्दस्त संभावनाएं हैं।(स्रोत फीचर्स)

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क्या मनुष्यों की ऊपरी आयु की सीमा आ चुकी है?

हाल ही में किया गया एक सांख्यिकीय अध्ययन बताता है कि मनुष्यों की आयु की ऊपरी सीमा अभी नहीं आई है हालांकि आज तक का रिकॉर्ड 112 वर्ष है। साइन्स शोध पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन इटली के राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान द्वारा संग्रहित आंकड़ों के आधार पर किया गया है।

सेपिएन्ज़ा विश्वविद्यालय की एलिसाबेटा बार्बी और उनके साथियों ने पाया कि इटली की नगर पालिकाएं अपने बाशिंदों के काफी व्यवस्थित रिकॉर्ड रखती हैं। इसलिए उन्होंने अपने अध्ययन में इन्हीं आंकड़ों का उपयोग किया।

पूर्व के अध्ययनों में देखा जा चुका है कि उम्र बढ़ने के साथ व्यक्ति की अगले एक वर्ष में मृत्यु की संभावना बढ़ती जाती है। उदाहरण के लिए 50 वर्ष की उम्र में अगले एक साल में व्यक्ति की मृत्यु होने की संभावना 30 वर्ष की उम्र के मुकाबले तीन गुनी हो जाती है। उम्र के सातवें और आठवें दशक के बाद अगले एक वर्ष में मृत्यु की संभावना हर 8 वर्षों में दुगनी हो जाती है। और यदि आप 100 वर्ष की उम्र पर पहुंच गए हैं तो मात्र 60 प्रतिशत संभावना रहती है कि आप अपना अगला जन्म दिन देख पाएंगे।

इस तरह के रुझानों के बावजूद कम से कम मक्खियों और कृमियों में एक और बात देखी गई है। इन जंतुओं में एक उम्र पार करने के बाद मृत्यु की संभावना बढ़ना रुक जाती है। अब तक मनुष्यों में इस बात की जांच नहीं की जा सकी थी। बार्बी व उनके साथियों ने इटली के राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान के आंकड़ों में से उन लोगों के आंकड़े लिए जो 2009 से 2015 के बीच कम से कम 105 वर्ष के थे। इनकी कुल संख्या 3836 थी। आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर देखा गया कि 105 वर्ष की उम्र के बाद मत्यु की संभावना नहीं बढ़ती। कहने का मतलब है कि 106 वर्ष के किसी व्यक्ति की 107 की उम्र में मरने की संभावना उतनी ही होती है जितनी 111 वर्षीय व्यक्ति के 112 वर्ष की उम्र में मरने की।

आंकड़ों से एक बात और पता चली जन्म के वर्ष के आधार पर देखें तो सालदरसाल 105 साल जीने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह इस बात का संकेत है कि यदि मनुष्यों की आयु की कोई उच्चतम सीमा है तो हम उस सीमा तक अभी नहीं पहुंचे हैं। वैसे कई अन्य वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह निष्कर्ष उतना पक्का नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

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पोलियो ने फिर सिर उठाया

बात भारत की नहीं, कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र की है। अलबत्ता, कहीं की भी हो मगर यह बात अंतर्राष्ट्रीय चिंता का विषय है कि पोलियो ने फिर से बच्चों को लकवाग्रस्त किया है।

कॉन्गो प्रजातांत्रिक गणतंत्र (संक्षेप में कॉन्गो) में पोलियो के कारण 29 बच्चे लकवाग्रस्त हो चुके हैं और गत 21 जून को एक और मामला सामने आया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने इसे अत्यंत चिंताजनक घटना घोषित किया है जो पोलियो उन्मूलन के हमारे प्रयासों को वर्षों पीछे धकेल सकती है।

कॉन्गो में उभरे नए मामले पोलियो उन्मूलन के प्रयासों के सबसे कठिन हिस्से की ओर संकेत करते हैं। कॉन्गो में पोलियो के ये मामले उस कुदरती वायरस के कारण नहीं हुए हैं, जो अफगानिस्तान, पाकिस्तान और शायद नाइजीरिया में अभी भी मौजूद है। कॉन्गो में लकवे के नए मामले ओरल पोलियो वैक्सीन (दो बूंद ज़िंदगी की) में इस्तेमाल किए गए दुर्बलीकृत वायरस के परिवर्तित रूप के कारण सामने आए हैं। वैक्सीन का यह दुर्बलीकृत वायरस प्रवाहित होता रहा और इसमें विभिन्न उत्परिवर्तन हुए और अंतत: इसने फिर से संक्रमण करने और लकवा पैदा करने की क्षमता अर्जित कर ली है।

वास्तव में मुंह से पिलाया जाने वाला पोलियो का टीका काफी सुरक्षित और कारगर माना जाता है और यही पोलियो उन्मूलन के प्रयासों का केंद्र बिंदु रहा है। इसकी एक खूबी है जो अब परेशानी का कारण बन रही है। टीकाकरण के बाद कुछ समय तक यह दुर्बलीकृत वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता रहता है। इसके चलते उन लोगों को भी सुरक्षा मिल जाती है जिन्हें सीधे-सीधे टीका नहीं पिलाया गया था। मगर कई बार यह वायरस इस तरह से बरसों तक पर्यावरण में मौजूद रहकर उत्परिवर्तित होता रहता है और फिर से संक्रामक रूप में आ जाता है।

टीके से उत्पन्न पोलियो वायरस सबसे पहले वर्ष 2000 में खोजा गया था। इसकी खोज होते ही, विश्व स्वास्थ्य सभा ने घोषित किया था कि कुदरती वायरस के समाप्त होते ही मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को बंद कर देना चाहिए। फिर 2016 में पता चला कि टीका-जनित पोलियो वायरस अब कहीं अधिक घातक हो चला है और यह कुदरती वायरस की अपेक्षा ज़्यादा लोगों को लकवाग्रस्त बना रहा है। उसके बाद से इसे एक वैश्विक समस्या मानते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन के पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम ने पोलियो उन्मूलन की रणनीति में कई बदलाव किए हैं और देशों को प्रसारित किए हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि बदली हुई रणनीतियां कामयाब होंगी।(स्रोत फीचर्स)

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