डरावनी
फिल्मों से लेकर सांस्कृतिक चित्रणों में चमगादड़ को हमेशा से एक निराधार भय से
जोड़कर दिखाया गया है। और अब कोविड-19 महामारी का मुख्य रुाोत होने के कारण चमगादड़ और भी बदनाम
हुए हैं। ऐसे में हो सकता है कि चमगादड़ों को खत्म करने के प्रयास किए जाएं। तब
चमगादड़ों का संरक्षण करना कठिन हो जाएगा, साथ
ही उनसे मिलने वाले महत्वपूर्ण लाभों की रक्षा करना भी मुश्किल हो जाएगा। संभावना
तो यह भी है कि चमगादड़ों के खात्मे से नई परेशानियों खड़ी हो जाएं।
वास्तव
में चमगादड़ों की कुछ रोगाणुओं के प्रति बहुत आक्रामक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है,
जिसकी वजह से वायरस और भी घातक रूप में विकसित हो जाते हैं।
ऐसे में मनुष्यों में यदि इस तरह का कोई वायरस प्रवेश कर जाता है तो यह जानलेवा बन
सकता है।
लेकिन
यहां चमगादड़ों से मिलने वाले लाभों पर बात करना भी आवश्यक है। चमगादड़ हमारे जंगलों
को पुनर्जीवित करते हैं और उर्वरक प्रदान करते हैं। ये 300 से अधिक प्रजातियों की फसलों का परागण करते
हैं। ककाओ, कपास,
मकई और अन्य पौधों को कीटों से बचाते हैं। कम विकसित देशों
में कीटों का सफाया करते हैं। जब अमेरिका के कृषि क्षेत्रों में कीटों का सफाया
करने वाले चमगादड़ों की संख्या में कमी हुई थी तब कृषि क्षेत्रों में वाइट-नोज़ सिंड्रोम से
शिशु रुग्णता और मृत्यु दर में तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि कीटों से निपटने के
लिए हानिकारक कीटनाशकों का छिड़काव बढ़ा था। चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले कीटनाशक
प्रतिरोधी मच्छरों का भी भक्षण करते हैं।
भविष्य
में सार्स और एबोला के जोखिम को कम करने के लिए चमगादड़ों को नुकसान पहुंचने से
रोगों का खतरा बढ़ सकता है। पूर्व में इस तरह के असफल प्रयास पेरू,
युगांडा, मिस्र,
ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में किए जा चुके हैं।
लेकिन
अभी भी यह सवाल बना हुआ है कि आने वाली महामारियों को कैसे रोका जा सकता है।
चमगादड़ों के संरक्षण की आवश्यकता है, साथ
ही उनके क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को कम करके संक्रमण से बचा जा सकता है।
उदाहरण के लिए जंगलों के कम होने से फलभक्षी चमगादड़ों का प्रवास बांग्लादेश के
खजूर के पेड़ों पर हुआ और देखते ही देखते वहां निपाह वायरस का संक्रमण शुरू हो गया।
लेकिन अपने मूल निवास में रहते हुए चमगादड़ों द्वारा पालतू जानवरों में वायरस के
फैलने की संभावना न के बराबर है।
ऐसे
में बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक वास की बहाली से हम चमगादड़ों का संपर्क मनुष्यों
और पालतू जानवरों से कम कर सकते हैं। इसके अलावा हम कृत्रिम आवास और देशी फलों के
वृक्षों को विशेष रूप से उनके लिए लगा सकते हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात
यह है कि उनके व्यापार को सीमित या समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। यह मनुष्यों
से चमगादड़ों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क को रोकने का सबसे आसान तरीका
है।
सौभाग्य से हमारे पास इस तरह के वायरसों से निपटने के कुछ नए तरीके सामने आ रहे हैं। आधुनिक जीनोम अनुक्रमण विधियों से चमगादड़-वायरस सम्बंध के रहस्यमयी क्षेत्र में कुछ रास्ता साफ हुआ। हालांकि टीकों और आधुनिक तकनीकों पर काम करने के साथ यह भी आवश्यक है कि हम चमगादड़ों को संरक्षित करने, उनकी उपस्थिति को स्वीकार करने और उनसे मिलने वाले लाभों के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं ताकि स्वास्थ्यप्रद भविष्य संभव हो सके।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/blogs/cache/file/52212421-B891-4E87-B186500307C69CA9_source.jpg?w=590&h=800&FA38BC9D-BDDE-44EE-A1FB0FCF3C387FAF
‘सिर में भूसा भरा
है क्या?’ ऐसे ताने अक्सर यह जताने वाले
होते हैं कि मस्तिष्क नहीं है। सही भी है अगर मस्तिष्क नहीं है तो शरीर मुर्दे के समान
बिस्तर पर पड़ा रहता है जैसा अक्सर ब्रोन डेथ के मामले में होता है। मस्तिष्क हमारी
चेतना, विचार, स्मृति, बोलचाल, हाथ-पैरों की गति
और हमारे शरीर के भीतर अनेक अंगों के कार्य को नियंत्रित करता है। कुछ लोगों को लगता
है कि उनका मस्तिष्क जानकारियों से ठूंस-ठूंस कर भरा है और उसका इंच भर हिस्सा भी निकालकर
अलग कर दिया जाए तो मस्तिष्क कार्य नहीं कर सकेगा। तो ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए
जिसके पास आधा मस्तिष्क हो। तो क्या वह सामान्य क्रियाकलाप कर सकेगा या ज़िंदा भी बचेगा?
हेनरी के जन्म के
कुछ ही घंटों के पश्चात मां मोनिका जोन्स यह समझ गई थी कि उनका नवजात बेटा एक दुर्लभ
और गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित है। हेनरी के मस्तिष्क का एक तरफ का हिस्सा
असामान्य रूप से बड़ा था और उसे प्रतिदिन सैकड़ों मिर्गी जैसे दौरे पड़ते थे। दवाएं भी
बेअसर लग रही थी। फिर डॉक्टरों के सुझाव से अनेक ऑपरेशन का दौर साढ़े तीन माह की उम्र
में प्रारंभ हुआ और 3 साल का होते-होते
हेनरी आधा मस्तिष्क विहीन हो गया।
मस्तिष्क के ऑपरेशन
की प्रक्रिया कोई नई नहीं है। 1920 में पहली बार मस्तिष्क
का ऑपरेशन किया गया था जिसमें मस्तिष्क का कैंसर युक्त हिस्सा निकालकर अलग कर दिया
गया था। उसके बाद कई ऑपरेशन किए जा चुके हैं। यह ज्ञात है कि यदि किसी बच्चे का आधा
मस्तिष्क बीमारियों के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाता है तो ऑपरेशन करके निकाल देने
पर भी वह भला चंगा होकर पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना जैसे सामान्य कार्य कर लेता है। आधे मस्तिष्क को सही तरीके से कार्य
करता देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं।
मोटे तौर पर आधे मस्तिष्क
वाले ऐसे मरीज़ों में से 20 प्रतिशत तो वयस्क
होकर सामान्य रोज़गार भी प्राप्त कर लेते हैं। शोध पत्रिका सेल रिपोट्र्स में प्रकाशित
एक हालिया शोध से पता चलता है कि आधे मस्तिष्क में पुनर्गठन के कारण कुछ व्यक्ति पहले
की तरह ठीक हो जाते हैं।
कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट
ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत संज्ञान वैज्ञानिक डॉरिट किलमैन कहते हैं कि मस्तिष्क बहुत
ही लचीला यानी अपने कार्य को पुनर्गठित करने में सक्षम होता है। यह मस्तिष्क की संरचना
में अचानक उत्पन्न हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकता है। कुछ मामलों में नेटवर्क खो चुके
हिस्से के कार्य को शेष मस्तिष्क पूरी तरह अपना लेता है।
उपरोक्त अध्ययन को
आंशिक रूप से एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा वित्त पोषित किया गया। श्रीमती जोन्स और
उनके पति ने यह संगठन ऐसे मरीज़ों की मदद के लिए बनाया था जो मिर्गी जैसे दौरे रोकने
के लिए ऑपरेशन कराने के इच्छुक थे। अध्ययन के निष्कर्ष बड़े बच्चों में भी आधा मस्तिष्क
निकालने के संदर्भ में उत्साहवर्धक हैं।
सेरेब्राम मस्तिष्क
का सबसे बड़ा भाग है। यह वाणि, विचार, भावनाएं, पढ़ने, लिखने और सीखने तथा
मांसपेशियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। इसका दायां भाग शरीर के बार्इं ओर की
मांसपेशियों और बायां भाग शरीर के दार्इं ओर की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है।
यद्यपि सेरेब्राम के दोनों भाग (हेमीस्फीयर) दिखने में एक जैसे दिखते हैं किन्तु कार्य
में एक-से नहीं होते। इसका बायां भाग उन कार्यों को भी करता है जिनमें तर्क लगते हैं
जैसे विज्ञान और गणित की समझ। जबकि दायां भाग अन्य कार्यों के अलावा रचनात्मक और कला
से सम्बंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। सेरेब्राम के दोनों आधे भाग कार्पस केलोसम
से जुड़े हुए होते हैं। मस्तिष्क का यह भाग ऊपर से सपाट न होकर कई दरारों एवं उभारों
से मिलकर बनता है और अखरोट जैसी संरचना वाला होता है। राइट हेंडेड व्यक्तियों में सेरेब्राम
का बायां भाग प्रभावी होता है तथा मुख्य रूप से भाषा की समझ, बोलने को नियंत्रण करता है।
ऐसे लोग जिनका हेमिस्फेरोक्टोमी
(सेरेब्राम का आधा हिस्सा निकाल देने का ऑपरेशन) हुआ हो, सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते और व्यवहार करते हैं। पर मेग्नेटिक
रेसोनेन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की रिपोर्ट बताती है कि उनके मस्तिष्क का आधा भाग बचपन
में ही निकाल दिया गया था। यह ज्ञात होते ही ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सामान्य
कार्य करना असंभव है। खास कर जब इसकी तुलना ह्मदय जैसे किसी अंग से की जाए।
क्या ह्मदय को दो
बराबर हिस्सों में बांटने पर वह कार्य कर पाएगा? बिलकुल नहीं। आप अपने मोबाइल को अगर दो हिस्सों में बांट दे
तो यह काम नहीं करेगा। इस प्रकार मस्तिष्क के बहुत से कार्य ऐसे हैं जहां सेरेब्राम
के दोनों भाग मिलकर कार्य करते हैं जैसे चेहरे की पहचान। परंतु हाथ हिलाने जैसे कार्य
मस्तिष्क के एक भाग से होते हैं। एक मधुर संगीत के लिए गायक और अनेक वाद्य यंत्रों
की जुगलबंदी ज़रूरी है। लगभग ऐसा ही मस्तिष्क के भागों का कार्य है। इस सबकी बजाय शोधकर्ताओं
ने पाया कि सामान्य कनेक्शन की तुलना में आधे बचे मस्तिष्क ने बचे हुए कनेक्शन को मज़बूत
किया और तंत्रिकाओं के बीच बेहतर तालमेल एवं संवाद बैठाया। यह बिल्कुल उस परिस्थिति
के जैसा था जहां युगल गीत के कार्यक्रम में जोड़ीदार की अनुपस्थिति में एक ही गायक ने
महिला एवं पुरुष दोनों की आवाज निकालकर गाना गाया हो। वैसे ही मस्तिष्क के भाग भी मल्टीटाÏस्कग यानी बहु-कार्य करने लगे थे।
शोधकर्ताओं के लिए
ये परिणाम उत्साहजनक हैं और वे अभी भी इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं।
लगभग 200 बच्चों में मस्तिष्क के ऑपरेशन
करने वाले बाल न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अजय गुप्ता कहते हैं कि मस्तिष्क परिस्थितियों के
अनुसार अपने को ढालने में बेहद कामयाब रहता है। अक्सर हेमिस्फेरेक्टोमी के ऑपरेशन्स
4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चों में बेहद सफल रहे हैं क्योंकि
बड़े होने से पहले उनका मस्तिष्क कमियों की पूर्ति कर लेता है। यद्यपि दौरे पड़ने वाले
वयस्क मरीज़ों में मस्तिष्क का ऑपरेशन अंतिम उपाय ही माना जाता है।
बच्चों में भी ये ऑपरेशन बेहद गंभीर होते हैं। मस्तिष्क के निकले हुए हिस्से में तरल भरने से लगातार सिर दुखने जैसी अवस्था बनी रहती है। ऑपरेशन के बाद बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं और एक तरफ के हाथ-पैर पर नियंत्रण नहीं रह पाता है। इसके अलावा एक तरफ का दिखना बंद हो सकता है तथा आवाज़ किस दिशा से आ रही है यह बोध भी नहीं हो पाता है। बच्चे की शिक्षा के दौरान पढ़ने, लिखने और गणित पर ज़्यादा ध्यान देना होता है। वयस्क होते-होते ऐसे बच्चे मस्तिष्क के द्वारा मल्टी टास्किंग अपनाने के कारण सामान्य हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/SRECiGdPSyaum7JeLPaQfQ-650-80.jpg
विश्व
स्तर पर कोविड-19 के कारण कई देशों में लॉकडाउन लगने व इस
कारण बढ़ते आजीविका संकट व अन्य समस्याओं को ध्यान में रखते हुए भारत सहित विश्व के
कई वरिष्ठ वैज्ञानिकों ने इस वैश्विक संकट का सामना करने के लिए कुछ महत्वपूर्ण
वैकल्पिक सुझाव दिए हैं।
आठ
वरिष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों ने प्रतिष्ठित इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च
में एक समीक्षा लेख कोविड-19 पेंडेमिक
– ए रिव्यू ऑफ दी करंट एविडेंस
शीर्षक से लिखा है। इन वैज्ञानिकों में डॉ. प्रणब चटर्जी, नाजिया नागी, अनूप अग्रवाल, भाबातोश दास, सयंतन बनर्जी, स्वरूप सरकार, निवेदिता गुप्ता और
रमन आर. गंगाखेड़कर शामिल हैं। सभी आठ वैज्ञानिक
प्रमुख संस्थानों से जुड़े हैं। यह समीक्षा लेख वैश्विक संदर्भ में लिखा गया है व
विकासशील देशों की स्थितियों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है।
ऊपर
से आए आदेशों पर आधारित समाधान के स्थान पर इस समीक्षा लेख ने समुदाय आधारित, जन-केंद्रित उपायों में अधिक विश्वास जताया है। लॉकडाउन आधारित
समाधान को एक अतिवादी सार्वजनिक स्वास्थ्य का कदम बताते हुए इस समीक्षा लेख ने कहा
है कि इसके लाभ तो अभी अनिश्चित हैं, पर इसके दीर्घकालीन नकारात्मक असर को कम
नहीं आंकना चाहिए। ऐसे अतिवादी कदमों का सभी लोगों पर सामाजिक, मनौवैज्ञानिक व
आर्थिक तनाव बढ़ाने वाला असर पड़ सकता है जिसका स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
अत: ऊपर के आदेशों से जबरन लागू किए गए
क्वारंटाइन के स्थान पर समुदायों व सिविल सोसायटी के नेतृत्व में होने वाले
क्वारंटाइन व मूल्यांकन की दीर्घकालीन दृष्टि से कोविड-19 जैसे
पेंडेमिक के समाधान में अधिक सार्थक भूमिका है।
आगे
इस समीक्षा लेख ने कहा है कि ऊपर से लगाए प्रतिबंधों के अर्थव्यवस्था, कृषि व मानसिक
स्वास्थ्य पर प्रतिकूल दीर्घकालीन असर बाद में सामने आ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय
पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी के तकनीकी व चिकित्सा समाधानों पर ध्यान केंद्रित करते हुए
स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को मज़बूत करने व समुदायों की क्षमता मज़बूत करने के जन
केंद्रित उपायों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। इन वैज्ञानिकों ने कोविड-19 की विश्व स्तर की प्रतिक्रिया को कमज़ोर और अपर्याप्त बताते
हुए कहा है कि इससे वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की तैयारी की कमज़ोरियां सामने आई
हैं व पता चला है कि विश्व स्तर के संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी अभी
कितनी अधूरी है। इस समीक्षा लेख ने कहा है कि कोविड-19 का
जो रिस्पांस विश्व स्तर पर सामने आया है वह मुख्य रूप से एक प्रतिक्रिया के रूप
में है व पहले की तैयारी विशेष नज़र नहीं आती है। शीघ्र चेतावनी की विश्वसनीय
व्यवस्था की कमी है। अलर्ट करने व रिस्पांस व्यवस्था की कमी है। आइसोलेशन की
पारदर्शी व्यवस्था की कमी है। इसके लिए सामुदायिक तैयारी की कमी है। ऐसी हालत में
खतरनाक संक्रामक रोगों का सामना करने की तैयारी को बहुत कमज़ोर ही माना जाएगा।
इन
वैज्ञानिकों ने कहा है कि अब आगे के लिए विश्व को संक्रामक रोगों से अधिक सक्षम
तरीके से बचाना है तो हमें ऐसी तैयारी करनी होगी जो केवल प्रतिक्रिया आधारित न हो
अपितु पहले से व आरंभिक स्थिति में खतरे को रोकने में सक्षम हो। यदि ऐसी तैयारी
विकसित होगी तो लोगों की कठिनाइयों व समस्याओं को अधिक बढ़ाए बिना समाधान संभव
होगा।
इस
समीक्षा लेख में दिए गए सुझाव निश्चय ही महत्वपूर्ण है व इन पर चर्चा भी हो रही
है। मौजूदा नीतियों को सुधारने में ये सुझाव महत्वपूर्ण हैं। जन-केंद्रित, समुदाय आधारित नीतियां अपनाकर बहुत-सी हानियों और क्षतियों से बचा जा सकता है।
जर्मनी
के इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल माइक्रोबॉयोलॉजी एंड हाइजीन के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डा. सुचरित भाकड़ी ने हाल ही में जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल को
एक खुला पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने कोविड-19 के
संक्रमण से निबटने के उपायों पर अति शीघ्र पुन: विचार
करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बहुत घबराहट की
स्थिति में जो बहुत कठोर कदम उठाए गए हैं उनका वैज्ञानिक औचित्य ढूंढ पाना कठिन
है। मौजूदा आंकड़ों पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि किसी मृत व्यक्ति में
कोविड-19 के वायरस की उपस्थिति मात्र के आधार पर इसे
ही मौत का कारण मान लेना उचित नहीं है।
इससे
पहले वैश्विक संदर्भ में बोलते हुए उन्होंने कहा कि कोविड-19 के
विरुद्ध जो बेहद कठोर कदम उठाए गए हैं उनमें से कुछ बेहद असंगत, विवेकहीन और खतरनाक
हैं जिसके कारण लाखों लोगों की अनुमानित आयु कम हो सकती है। इन कठेर कदमों का विश्व
अर्थव्यवस्था पर बहुत प्रतिकूल असर हो रहा है जो अनगनित व्यक्तियों के जीवन पर
बहुत बुरा असर डाल रहा है। स्वास्थ्य देखभाल पर इन कठोर उपायों के गहन प्रतिकूल
प्रभाव पड़े हैं। पहले से गंभीर रोगों से ग्रस्त मरीज़ों की देखभाल में कमी आ गई है
या उन्हें बहुत उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। उनके पहले से तय ऑपरेशन टाल दिए
गए हैं व ओपीडी बंद कर दिए गए हैं।
येल
युनिवर्सिटी प्रिवेंशन रिसर्च सेंटर के संस्थापक-निदेशक
डॉ. डेविड काट्ज़ ने न्यूयार्क टाइम्स
में 20 मार्च 2020 को
प्रकाशित लेख इज़ अवर फाइट अगेंस्ट कोरोना वायरस वर्स देन द डिसीज़? में कहा है कि “मेरी गहन चिंता है कि सामाजिक व आर्थिक स्तर पर एवं
सार्वजनिक स्वास्थ्य पर बहुत गंभीर प्रभाव पड़ रहा है और सामान्य जीवन लगभग समाप्त
हो गया है, स्कूल
व बिज़नेस बंद हैं,
अनेक अन्य बड़े प्रतिबंध हैं – इसका
कुप्रभाव लंबे समय तक ऐसा नुकसान करेगा जो वायरस से होने वाली मौतों से बहुत
ज़्यादा होगा। बेरोज़गारी,
निर्धनता और निराशा से जन स्वास्थ्य पर बहुत बुरा प्रभाव
पड़ेगा।”
सेंटर
फॉर इन्फेक्शियस डिसीज़ रिसर्च एंड पॉलिसी, मिनेसोटा विश्वविद्यालय के निदेशक मिशेल टी. आस्टरहोम ने वाशिंगटन पोस्ट में 21 मार्च 2020 के फेसिंग कोविड-19 रिएलिटी – ए
नेशनल लॉकडाउन इज़ नो क्योर में कहा है कि “यदि
हम सब कुछ बंद कर देंगे तो बेरोज़गारी बढ़ेगी, डिप्रेशन आएगा, अर्थव्यस्था
लड़खड़ाएगी। वैकल्पिक समाधान यह है कि एक ओर संक्रमण का कम जोखिम रखने वाले व्यक्ति
अपना कार्य करते रहें,
व्यापार एवं औद्योगिक गतिविधियों को जितना संभव हो चलते
रहने दिया जाए लेकिन जो व्यक्ति संक्रमण की दृष्टि से ज़्यादा जोखिम की स्थिति में
हैं वे सामाजिक दूरी बनाए रखने जैसी तमाम सावधानियां अपना कर अपनी रक्षा करें।
इसके साथ स्वास्थ्य व्यवस्था की क्षमताओं को बढ़ाने की तत्काल ज़रूरत है। इस तरह हम
धीरे-धीरे प्रतिरोधक क्षमता का विकास भी कर
पाएंगे और हमारी अर्थव्यवस्था भी बनी रहेगी जो हमारे जीवन का आधार है।”
जर्मन
मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. फ्रेंक उलरिक
मोंटगोमेरी ने कहा है,
“मैं लॉकडाउन का प्रशंसक नहीं हूं। जो कोई भी इसे लागू करता
है उसे यह भी बताना चाहिए कि पूरी व्यवस्था कब इससे बाहर निकलेगी। चूंकि हमें
मानकर यह चलना है कि यह वायरस तो हमारे साथ लंबे समय तक रहेगा, अत: मेरी चिंता है कि हम कब सामान्य जीवन की ओर लौट सकेंगे।”
वर्ल्ड
मेडिकल एसोशिएसन के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लियोनिद इडेलमैन ने
हाल ही में वर्तमान संकट के संदर्भ में कहा कि सम्पूर्ण लॉकडाउन से फायदे की
अपेक्षा नुकसान अधिक होगा। यदि अर्थव्यवस्था बाधित होगी तो बेशक स्वास्थ्य रक्षा
के संसाधनों में भी कमी आएगी। इस तरह समग्र स्वास्थ्य व्यवस्था को फायदे की जगह
नुकसान ही होगा।
जाने-माने वैज्ञानिकों के इन बयानों का एक विशेष महत्व यह है कि अति कठोर उपायों के स्थान पर ये हमें संतुलित समाधान की राह दिखाते हैं। विशेषकर समुदाय आधारित व जन-केंद्रित समाधानों के जो सुझाव हैं वे बहुत महत्वपूर्ण हैं और उन पर अधिक ध्यान देना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn%3AANd9GcT3Gmz_ndw6iWR2_Kuh8cu7EVJWsHLpWV4D-U239BhZRYMycOPT&usqp=CAU
कुछ
दिनों पहले राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा अभियान के केंद्रीय प्रभारी मंत्री ने भारतीय
चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) से
संपर्क करके यह सुझाव दिया था कि परिषद कोरोनावायरस के संक्रमण (कोविड-19) के इलाज में गंगाजल
के उपयोग पर शोध करे। इस पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने स्पष्ट किया कि इस
सम्बंध में उपलब्ध डैटा इतना पुख्ता नहीं है कि इसके नैदानिक परीक्षण शुरू किए जा
सकें और इस प्रस्ताव को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया – क्या
बात है!
लाखों
लोग गंगा नदी को दुनिया की सबसे पवित्र और पूजनीय नदी मानते हैं। समुद्र तल से 3.9 कि.मी. या 13,000 फीट की ऊंचाई पर
स्थित, हिमालय
के गंगोत्री ग्लेशियर के गौमुख से निकलने के बाद, रास्ते में कई
धाराओं का जल अपने में समाहित करते हुए, हरिद्वार के पास देवप्रयाग में आकर यह गंगा
नदी कहलाती है। गंगा उत्तर भारत के मैदानी इलाकों – उत्तर
प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम
बंगाल से होते हुए 2525 किलोमीटर की दूरी तय कर बंगाल की खाड़ी में
मिल जाती हैं। गंगा के किनारे बसे लोग (ज़्यादातर हिंदू, लेकिन कुछ अन्य भी) इसे पूजते हैं, इसमें स्नान करते हैं, और पूजा और अन्य
धार्मिक कार्यों के लिए इसका जल अपने घरों में रखते हैं (गंगाजल
विदेशों में बेचा भी जाता है जैसे कैलिफोर्निया की भारतीय दुकानों में मैंने खुद
देखा है)। गंगा मैया के प्रति लोगों की श्रद्धा और
भक्ति ऐसी ही है।
पवित्र
और अपवित्र
यह
दुर्भाग्य है कि सदियों से हरिद्वार क्षेत्र में ही मानव अवशिष्ट निपटान और
व्यवसायिक कारणों से गंगा का जल प्रदूषित होता जा रहा है। एप्लाइड वॉटर साइंस
पत्रिका में आर. भूटानिया और उनके साथियों ने 2016 में जल गुणवत्ता सूचकांक के संदर्भ में हरिद्वार में गंगा नदी
के पारिस्थितिकी तंत्र का आकलन शीर्षक से एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसे पढ़कर निराशा ही
होती है। गंगा के प्रदूषण पर सबसे ताज़ा अध्ययन न्यूयॉर्क टाइम्स के 23 दिसंबर 2019 के अंक में प्रकाशित
हुआ था। इस आलेख में आईआईटी दिल्ली के शोधकर्ताओं द्वारा गंगा के संदूषण और इसमें
हानिकारक बैक्टीरिया,
जो वर्तमान में उपयोग की जाने वाली एंटीबयोटिक दवाइयों के
प्रतिरोधी भी हैं,
की उपस्थिति के बारे में प्रस्तुत रिपोर्ट का सार प्रस्तुत
किया गया है। दूसरे शब्दों में, जहां से गंगा बहना शुरू होती है ठेठ वहीं
से इसका जल (गंगाजल) मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। जैसे-जैसे यह आगे बहती है कारखानों से निकलने वाला औद्योगिक कचरा
इसमें डाल दिया जाता है,
जिससे इसके पानी की गुणवत्ता और सुरक्षा और भी कम हो जाती
है। और, हाल
ही में पुण्य नगरी वाराणसी की एक रिपोर्ट कहती है कि वर्तमान लॉकडाउन के दौरान
गंगा नदी के जल की गुणवत्ता में 40-50 प्रतिशत सुधार हुआ
है (इंडिया टुडे, 6 अप्रैल
2020)।
हमने
यह लौकिक अनाचार होने कैसे दिया? निश्चित रूप से, गंगा जल का उपयोग
करने वाले अधिकतर लोग श्रद्धालु हैं; यहां तक कि कई उद्योगों के प्रमुख या मालिक
भी गंगा को पवित्र मानते होंगे। और तो और, समय-समय पर इसके जल का
पूजा में उपयोग करते होंगे। लेकिन फिर भी वे इसे प्रदूषित करते हैं। (यहां यह ज़रूरी नहीं कि ‘लौकिक’ शब्द इन लोगों के विश्वास को नकारता है बल्कि यह लोगों के
सांसारिक सरोकार दर्शाता है,
और यह ‘अच्छाई बनाम बुराई’ या ‘देवता बनाम शैतान’ का मामला नहीं है)। दरअसल, ‘इससे मुझे क्या फायदा होगा’ वाला रवैया लोकाचार की दृष्टि से (और
शायद नैतिक रूप से भी) गलत है। इस दोहरेपन
के चलते लगता नहीं कि गंगा मैया का भविष्य स्वच्छ और सुरक्षित है।
डॉल्फिन–घड़ियाल से सीख
वापस
विज्ञान पर आते हैं। जैसा कि उल्लेख है गंगा में अत्यधिक ज़हरीले रोगाणु (और हानिकारक रासायनिक अपशिष्ट) मौजूद
हैं, लेकिन
आश्चर्य की बात है कि इसमें रहने वाली मछलियों की 140 प्रजातियां, उभयचरों की 90 प्रजातियां, सरीसृप, पक्षी, और गंगा नदी की प्रसिद्ध डॉल्फिन और घड़ियाल
(मछली खाने वाले मगरमच्छ) इस प्रदूषित पानी का सामना कर पाते हैं, खासकर अब, जब यह कोविड-19 वायरस से भी संदूषित है। क्या उनके पास विशेष प्रतिरक्षा है, और क्या वे ऐसे
रोगजनकों से लड़ने के लिए इनके खिलाफ एंटीबॉडी बनाते हैं? यह एक ऐसा मुद्दा है
जिसका ध्यानपूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए और इसे मानव की रक्षा के लिए अपनाया
जाना चाहिए।
ऐसे
ही कुछ दिलचस्प अवलोकन लामा,
ऊंट और शार्क जैसे जानवरों की प्रतिरक्षा के अध्ययनों में
सामने आए हैं। साइंस पत्रिका के 1 मई 2020 के अंक में मिच लेसली बताते हैं कि जीव विज्ञानियों ने लामा
के रक्त और आणविक सुपरग्लू की मदद से वायरस से लड़ने का एक नया तरीका खोजा है। यह
देखा गया है कि लामा,
ऊंट और शार्क की प्रतिरक्षा कोशिकाएं लघु एंटीबॉडी छोड़ती
हैं जो सामान्य एंटीबॉडी से लगभग आधी साइज़ की होती हैं। मुख्य बात यह है कि ये
जानवर लघु एंटीबॉडी बनाते हैं जिन्हें प्रयोगशाला में आसानी से संश्लेषित किया जा
सकता है और वायरस के खिलाफ हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इस बारे में
विस्तार से बताता एक शोध पत्र हाल ही में सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
डॉल्फिन के संदर्भ में सी. सेंटलेग और उनके
साथियों का पेपर अधिक प्रासंगिक है। यह अध्ययन भूमध्यसागर और अटलांटिक सागर के
केनेरी द्वीप के डॉल्फिन्स पर किया गया है। भूमध्य सागर अत्यधिक प्रदूषित है जबकि
केनरी द्वीप का पानी शुद्ध है।
मुझे
लगता है कि हम इन अध्ययनों से सीख सकते हैं। गंगा नदी की डॉल्फिन और घड़ियालों पर
शोध करके उनकी लघु-एंटीबॉडी की पहचान कर सकते हैं, उन्हें लैब में
संश्लेषित कर सकते हैं,
और इन्हें कोविड-19 और
ऐसे अन्य वायरसों से मनुष्य की सुरक्षा के लिए अपना सकते हैं। हैदराबाद स्थित
डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी प्रयोगशाला, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बायोटेक्नोलॉजी
में यह शोध किया सकता है।
संगम
कैसे हो
उपरोक्त
मंत्री के विपरीत आयुष मंत्रालय के प्रभारी मंत्री का अनुरोध है कि अश्वगंधा, मुलेठी, गिलोय और पॉलीहर्बल
औषधि (जिसे आयुष 64 कहते
हैं) की कोविड-19 के
खिलाफ रोग-निरोधन की प्रभाविता जांचने के लिए एक
नियंत्रित रैंडम अध्ययन करवाया जाए। यह अध्ययन किया जाना चाहिए क्योंकि पर्याप्त
प्रमाण हैं कि पारंपरिक जड़ी-बूटियों और पादप
रसायनों में चिकित्सकीय गुण होते हैं, और दवा कंपनियां उनके सक्रिय रसायनों को
खोजकर, संश्लेषित
करके उपयोग करती हैं। बहुविद एम. एस. वलियाथन पिछले दो दशकों से आयुर्वेद चिकित्सकों, जैव रसायनविदों,कोशिका जीव
विज्ञानियों, आनुवंशिकीविदों
और नैनोप्रौद्योगिकीविदों के साथ मिलकर आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों का उपयोग करके
पारंपरिक औषधियों के प्रभावों को परखने का काम कर रहे हैं। (जैसे
आप उनका 1 मार्च 2016 के प्रोसीडिंग्स
ऑफ दी इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी में प्रकाशित पदक व्याख्यान ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान : पहला
दशक’ पढ़ सकते हैं। इसमें वे आधुनिक विज्ञान की
मदद से आयुर्वेद पर किए गए प्रयोगों, और उनके प्रमाणित परिणामों के बारे में
बताते हैं।) 2012 में प्लॉस वन पत्रिका में वी. द्विवेदी का ऐसा ही एक पेपर ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर मॉडल
पर पारंपरिक आयुर्वेदिक औषधियों के प्रभावों का चिकित्सीय अनुप्रयोगों से सम्बंध
प्रकाशित हुआ था। तो इस तरह से परंपरा और आज के विज्ञान का संगम संभव, वे साथ आ सकते हैं।
आयुष शायद कोविड-19 से लड़ सकता है, गंगा जल तो मात्र इसे धारण कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/cxc8i6/article31602048.ece/ALTERNATES/FREE_960/17TH-SCIGHARIAL
वैसे
तो कोई नहीं जानता कि कोविड-19 महामारी के अगले
अंकों में क्या होने वाला है लेकिन अधिकांश विशेषज्ञ सहमत हैं कि यह महामारी लगभग
दो साल जारी रहेगी। युनिवर्सिटी ऑफ मिनेसोटा के शोधकर्ताओं द्वारा जारी की गई एक
रिपोर्ट में वर्ष 1700 से लेकर अब तक की 8 फ्लू
महामारियों की जानकारी के साथ कोविड-19 महामारी का डैटा भी
शामिल किया गया है।
इस
रिपोर्ट के अनुसार SARS-CoV-2 (नया कोरोनावायरस) इन्फ्लुएंज़ा के वायरस की एक किस्म तो नहीं है लेकिन इसमें
और फ्लू महामारी के वायरसों के बीच कुछ समानताएं हैं। दोनों ही श्वसन मार्ग के वायरस
हैं जिनकी लोगों में कोई पूर्व प्रतिरक्षा उपस्थित नहीं है। दोनों ही लक्षण-रहित लोगों से अन्य लोगों में फैल सकते हैं। लेकिन अंतर यह
है कि कोविड-19 वायरस अन्य फ्लू वायरस की तुलना में अधिक
आसानी से फैलता नज़र आ रहा है और SARS-CoV-2 संक्रमणों का एक ज़्यादा बड़ा हिस्सा लक्षण-रहित लोगों से फैलाव के कारण हो रहा है।
इसके
आसानी से फैलने की क्षमता को देखते हुए लगभग 60 प्रतिशत
से 70 प्रतिशत आबादी को प्रतिरक्षा विकसित करना
होगा, तभी
हम हर्ड इम्यूनिटी यानी झुंड प्रतिरक्षा से लाभांवित हो पाएंगे। हालांकि इसमें अभी
काफी समय लगेगा क्योंकि अभी कुल आबादी की तुलना में बहुत कम लोग इससे संक्रमित हुए
हैं।
रिपोर्ट
में कोविड-19 के भविष्य को लेकर तीन संभावित परिदृश्य
प्रस्तुत किए गए हैं।
परिदृश्य
1: इस परिदृश्य में, वर्तमान कोविड-19 तूफान के बाद कुछ छोटे-छोटे
सैलाबों की शृंखलाएं आएंगी। ये दो साल की अवधि तक निरंतर आती रहेंगी और धीरे-धीरे 2021 तक खत्म हो जाएंगी।
परिदृश्य
2: एक संभावना यह है कि 2020 के
वसंत में प्रारंभिक लहर के बाद सर्दियों के मौसम में एक बड़ा सैलाब उभरे, जैसा कि 1918 की फ्लू महामारी में हुआ था। हो सकता है इसके बाद एक-दो छोटी लहरें 2021 में भी सामने आएं।
परिदृश्य
3: कोविड-19 की
शुरुआती वसंती लहर के बाद इसके संक्रमण की रफ्तार कम हो जाए और आगे कोई विशेष
पैटर्न नज़र न आए।
रिपोर्ट के अनुसार नई लहरों का सामना करने के लिए समय-समय पर अलग-अलग क्षेत्रो में आवश्यकतानुसार नियंत्रण के उपाय करने होंगे और छूट देना होगा ताकि स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक बोझ न पड़े। फिलहाल जो भी परिदृश्य उभरकर आता हो, हमें कम से कम 18 से 24 महीनों तक कोविड-19 की सक्रियता के लिए तैयार रहना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/iJ7gwqmNTVngaCTdF9UAg6-650-80.jpg
कोरोनावायरस
वुहान के नज़दीक पाए जाने वाले चमगादड़ की एक प्रजाति से किसी तरह एक अन्य मध्यवर्ती
प्रजाति से मनुष्यों में प्रवेश कर गया। लेकिन अभी तक किसी को नहीं पता कि यह
महामारी खत्म कैसे होगी। अलबत्ता, पूर्व की महामारियों से भविष्य के संकेत
मिलते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो की महामारीविद और जीवविज्ञानी सारा कोबे और अन्य
विशेषज्ञों के अनुसार पूर्व के अनुभवों से पता चलता है कि आने वाला समय इस बात पर
निर्भर करता है कि रोगाणु का विकास किस तरह होता है और उस पर मनुष्यों की जैविक और
सामाजिक दोनों तरह की प्रतिक्रिया क्या रहती है।
वास्तव
में वायरस निरंतर उत्परिवर्तित होते रहते हैं। किसी भी महामारी को शुरू करने वाले
वायरस में इतनी नवीनता होती है कि मानव प्रतिरक्षा प्रणाली उन्हें जल्दी पहचान
नहीं पाती। ऐसे में बहुत ही कम समय में बड़ी संख्या में लोग बीमार हो जाते हैं।
भीड़भाड़ और दवा की अनुपलब्धता जैसे कारणों के चलते इस संख्या में काफी तेज़ी से
वृद्धि होती है। अधिकतर मामलों में तो प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा विकसित एंटीबॉडीज़
लंबे समय तक बनी रहती हैं,
प्रतिरक्षा प्रदान करती हैं और व्यक्ति से व्यक्ति में
संक्रमण को रोक देती हैं। लेकिन इस तरह के परिवर्तनों में कई साल लग जाते हैं, तब तक वायरस तबाही
मचाता रहता है। पूर्व की महामारियों के कुछ उदाहरण देखते हैं।
रोग
के साथ जीवन
आधुनिक
इतिहास का एक उदाहरण 1918-1919 का एच1एन1 इन्फ्लुएंज़ा प्रकोप
है। उस समय डॉक्टरों और प्रशासकों के पास आज के समान साधन उपलब्ध नहीं थे और स्कूल
बंद करने जैसे नियंत्रण उपायों की प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती थी कि उन्हें
कितनी जल्दी लागू किया जाता है। लगभग 2 वर्ष और महामारी की 3 लहरों ने 50 करोड़ लोगों को
संक्रमित किया था और लगभग 5 से 10 करोड़ लोग मारे गए थे। यह तब समाप्त हुआ था जब संक्रमण से
उबर गए लोगों में प्राकृतिक रूप से प्रतिरक्षा पैदा हो गई।
इसके
बाद भी एच1एन1 स्ट्रेन कुछ हल्के
स्तर पर 40 वर्षों तक मौसमी वायरस के रूप में मौजूद
रहा। और 1957 में एच2एन2 स्ट्रेन की एक महामारी ने 1918 के
अधिकांश स्ट्रेन को खत्म कर दिया। एक वायरस ने दूसरे को बाहर कर दिया। वैज्ञानिक
नहीं जानते कि ऐसा कैसे हुआ। प्रकृति कर सकती है, हम नहीं।
कंटेनमेंट
2003 की सार्स महामारी का कारण कोरोनावायरस SARS-CoV
था। यह वर्तमान महामारी के वायरस (SARS-CoV-2) से काफी निकटता से
सम्बंधित था। उस समय की आक्रामक रणनीतियों, जैसे रोगियों को आइसोलेट करने, उनसे संपर्क में आए
लोगों को क्वारेंटाइन करने और सामाजिक नियंत्रण से इस रोग को हांगकांग और टोरंटो
के कुछ इलाकों तक सीमित कर दिया गया था।
गौरतलब
है कि यह कंटेनमेंट इसलिए सफल रहा था क्योंकि इस वायरस के लक्षण काफी जल्दी नज़र
आते थे और यह वायरस केवल अधिक बीमार व्यक्ति से ही किसी अन्य व्यक्ति को संक्रमित
कर सकता था। अधिकांश मरीज़ लक्षण प्रकट होने के एक सप्ताह बाद ही संक्रामक होते थे।
यानी यदि लक्षण प्रकट होने के बाद उस व्यक्ति को अलग-थलग
कर दिया जाता तो संक्रमण आगे नहीं फैलता था। कंटेनमेंट का तरीका इतना कामयाब रहा
कि इसके मात्र 8098 मामले सामने आए और सिर्फ 774 लोगों की ही मौत हुई। 2004 से
लेकर आज तक इसका कोई और मामला सामने नहीं आया है।
टीका
विशेषज्ञों
के अनुसार 2009 में स्वाइन फ्लू का वायरस 1918 के एच1एन1 वायरस के समान ही था। हम काफी भाग्यशाली रहे कि इसकी
संक्रामक और रोगकारी क्षमता बहुत कम थी और छह माह के अंदर ही इसका टीका विकसित कर
लिया गया था।
गौरतलब
है कि खसरा या चेचक के टीके के विपरीत, फ्लू के टीके कुछ वर्षों तक ही सुरक्षा
प्रदान करते हैं। इन्फ्लुएंज़ा वायरस जल्दी-जल्दी उत्परिवर्तित
होते रहते हैं,
और इसलिए इनके टीकों को भी हर साल अद्यतन करने और नियमित
रूप से लगाने की ज़रूरत होती है।
वैसे
महामारी के दौरान अल्पकालिक टीके भी काफी महत्वपूर्ण होते हैं। 2009 के वायरस के खिलाफ विकसित टीके ने अगले जाड़ों में इसके पुन: प्रकोप को काफी कमज़ोर कर दिया था। टीके की बदौलत ही 2009 का वायरस ज़्यादा तेज़ी से 1918 के
वायरस की नियति को प्राप्त हो गया। जल्दी ही इसे मौसमी फ्लू के रूप में जाना जाने
लगा जिसके विरुद्ध अधिकतर लोग संरक्षित हैं – या
तो फ्लू के टीके से या पिछले संक्रमण से उत्पन्न एंटीबॉडी द्वारा।
वर्तमान
महामारी
वर्तमान
महामारी की समाप्ति को लेकर फिलहाल तो अटकलें ही हैं लेकिन अनुमान है कि इस बार
पूर्व की महामारियों में उपयोग किए गए सभी तरीकों की भूमिका होगी – मोहलत प्राप्त करने के लिए सामाजिक-नियंत्रण, लक्षणों से राहत
पाने के लिए नई एंटीवायरल दवाइयां और टीका।
सामाजिक
दूरी जैसे नियंत्रण के उपाय कब तक जारी रखने होंगे यह तो लोगों पर निर्भर करता है
कि वे कितनी सख्ती से इसका पालन करते हैं और सरकारों पर निर्भर करता है कि वे
कितनी मुस्तैदी से प्रतिक्रिया देती हैं। कोबे का कहना है कि इस महामारी का नाटक 50 प्रतिशत तो सामाजिक व राजनैतिक है। शेष आधा विज्ञान का है।
इस
महामारी के चलते पहली बार कई शोधकर्ता एक साथ मिलकर, कई मोर्चों पर इसका
उपचार विकसित करने पर काम कर रहे हैं। यदि जल्दी ही कोई एंटीवायरल दवा विकसित हो
जाती है तो गंभीर रूप से बीमार होने वाले लोगों या मृत्यु की संख्याओं को कम किया
जा सकेगा।
स्वस्थ
हो चुके रोगियों में SARS-CoV-2 को निष्क्रिय करने
वाली एंटीबॉडीज़ की जांच तकनीक से भी काफी फायदा मिल सकता है। इससे महामारी खत्म तो
नहीं होगी लेकिन गंभीर रूप से बीमार रोगियों के उपचार में एंटीबॉडी युक्त रक्त का
उपयोग किया जा सकता है। ऐसी जांच के बाद वे लोग काम पर लौट सकेंगे जो इस वायरस को
झेलकर प्रतिरक्षा विकसित कर पाए हैं।
संक्रमण
को रोकने के लिए टीके की आवश्यकता होगी जिसमें अभी भी लगभग 1 साल
का समय लग सकता है। एक बात स्पष्ट है कि टीका बनाना संभव है। और फ्लू के वायरस की
अपेक्षा SARS-CoV-2 का टीका बनाना आसान
होगा क्योंकि यह कोरोनावायरस है और इनके पास मानुष्य की कोशिकाओं के साथ संपर्क
करके अंदर घुसने के रास्ते बहुत कम होते हैं। वैसे यह खसरे के टीके की तरह
दीर्घकालिक प्रतिरक्षा प्रदान तो नहीं करेगा लकिन फिलहाल तो कोई भी टीका मददगार
होगा।
जब तक दुनिया के हर स्वस्थ व्यक्ति को टीका नहीं लग जाता, कोविड-19 स्थानीय महामारी बना रहेगा। यह निरंतर प्रसारित होता रहेगा और मौसमी तौर पर लोगों को बीमार भी करता रहेगा, कभी-कभार गंभीर रूप से। अधिक समय तक बना रहा तो यह बच्चों को छुटपन में ही संक्रमित करने लगेगा। बचपन में बहुत गंभीर लक्षण प्रकट नहीं होते और ऐसा देखा जाता है कि बचपन में संक्रमित बच्चे वयस्क अवस्था में फिर से संक्रमित होने पर उतने गंभीर बीमार नहीं होते। अधिकांश लोग टीकाकरण और प्राकृतिक प्रतिरक्षा के मिले-जुले प्रभाव से सुरक्षित रहेंगे। लेकिन अन्य वायरसों की तरह SARS-CoV-2 भी लंबे समय तक हमारे बीच रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/4B160AF6-5B13-4DEA-B8D20679284CC9FD_source.jpg?w=2000&h=1123&0E1A1816-14E4-40E9-87A1AF456A3FC538
लेख
की शुरुआत मैं एक गुज़ारिश के साथ करना चाहता हूं। हम अचानक ही मुश्किल और अनिश्चित
दौर से घिर गए हैं। अनजाने भविष्य का डर और आशंका बेचैनी पैदा कर रहे हैं। यह
सुनिश्चित करने के लिए कि इस डर को बढ़ाने में हमारा कोई योगदान ना हो,
हमें ध्यान देना चाहिए कि हम दूसरों के साथ कैसी जानकारी
साझा कर रहे हैं, खासकर सोशल मीडिया
और मैसेजिंग ऐप्स के ज़रिए। जब भी आप कुछ देखें या पढ़ें तो अपने आप से ये सवाल ज़रूर
करें: क्या
मुझे इस जानकारी पर भरोसा है? अगर यह जानकारी किसी
खास विषय से सम्बंधित है तो क्या मैं इसे परखने के लिए पर्याप्त जानकार हूं?
क्या दी गई जानकारी के पर्याप्त प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं?
क्या कहीं और भी यह बात कही गई है?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) या स्वास्थ्य मंत्रालय इस बारे में क्या कहता है?
क्या आपने व्हाट्सएप पर प्राप्त सरकारी आदेश का उनकी
आधिकारिक वेबसाइट पर जारी आदेश से मिलान किया है? यदि
थोड़ी भी शंका हो तो हमें संदेश साझा करने और आगे बढ़ाने से बचना चाहिए। वरना हम
लोगों को गलत जानकारी देंगे जो उन्हें जोखिम में डाल सकती है।
कोविड-19 महामारी कई लोगों के
लिए एक वरदान के रूप में आई है कि वे अपने अज्ञान को समझ व ज्ञान रूपी हथियार का
रूप देकर, प्राय: सांस्कृतिक गर्व का
मुलम्मा चढ़ाकर दुनिया के समक्ष पेश कर सकें। डिजिटल टेक्नॉलॉजी ने कई लोगों को
विशेषज्ञ, विद्वान,
डॉक्टर और सर्वज्ञ बना दिया है। मोबाइल फोन और कुछ अन्य
माध्यमों के ज़रिए वे इंटरनेट और सोशल मीडिया का उपयोग बेतुकी और भ्रामक जानकारी
फैलाने में कर रहे हैं। इनमें कई बार ऐसी बकवास भी शामिल होती है जो आज़माने वालों
के लिए घातक हो सकती है।
कोरोनोवायरस
(SARS-CoV-2), कोविड-19 की शारीरिक महामारी
के साथ जुड़ी जानकारी की महामारी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है। सबसे अधिक
बेतुकी बातें संक्रमण के इलाज और इससे बचाव के उपायों के बारे में कही जा रही हैं।
जिससे एक सवाल यह उठता है: गड़बड़
क्या है और ऐसा क्यों हो रहा है? सरल स्तर पर देखें
तो, सनसनीखेज़ सामग्रियां डर और उम्मीद के चलते
फैल रही हैं, और जीवित रहने के
लिए हमारे दिमाग की एक प्रवृत्ति खतरों को बड़े रूप में देखने की है। ऐसा अक्सर
महामारी, आपदाओं और युद्ध के
समय होता है। पर इस समय हालात को अधिक जटिल और खतरनाक बनाने वाले तीन कारक हैं: पहला,
इंटरनेट पर मौजूद असत्यापित अथाह ‘ज्ञान’ के भंडार तक आसान पहुंच;
दूसरा, डिजिटल मीडिया की
बदौलत प्रसार की तीव्र गति और आसान पहुंच; और
तीसरा, सामाजिक और राजनैतिक
ध्रुवीकरण जो साज़िश की परिकल्पनाओं को तथा भयंकर पक्षपाती अभिमान से भरे छद्म
वैज्ञानिक कथनों को जन्म देता है।
इनमें
सबसे प्रचलित हैं खांसी और ज़ुकाम या सामान्य प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए आज़माए
जाने वाले घरेलू नुस्खों का विस्तार। इनमें से कुछ उपाय तो गर्म पानी से गरारे
करने और गर्मागरम रसम पीने जैसे साधारण सुझाव हैं। इनका एक अन्य स्तर है स्व-परीक्षण;
जैसे एक संदेश कहता है कि यदि आप 10 सेकंड के लिए अपनी सांस रोक सकते हैं तो आप
संक्रमित नहीं हैं। इंटरनेट गलत सूचनाओं से भरा पड़ा है,
जिनसे आप चलते-चलते टकरा जाएंगे। गलत सूचनाओं तक संयोगवश पहुंचना कहीं
आसान है बनिस्बत प्रामाणिक जानकारी तक पहुंचने के, जिसे
खोजना पड़ता है और प्रामाणिकता को परखने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं।
गलत
सूचनाएं अक्सर आधिकारिक दिखने वाले दस्तावेज़ों और सील-ठप्पों के साथ पेश की जाती हैं। इनमें से
कुछ नामी पेशेवरों के हवाले से आती हैं; जैसे
एक प्रसिद्ध कार्डियोलॉजिस्ट को यह कहते सुना गया था कि जिन व्यक्तियों में
संक्रमण के लक्षण दिख रहे हैं उन्हें, परीक्षण
किट की कमी के चलते, आठ दिनों के बाद ही
परीक्षण के लिए जाना चाहिए। इसके अलावा फेसबुक, ट्विटर
और सबसे कुख्यात व्हाट्सएप पर कई हास्यास्पद चीज़ें चल रही हैं। जैसे लहसुन
कोरोनावायरस को ठीक कर सकता है, या हर 15 मिनट में गर्म पानी
पीने से संक्रमण से बचा जा सकता है। सबसे अधिक रोमांचक सलाह शराब और गांजा का सेवन
करने की है; दावा है कि दोनों ही
वायरस को मार सकते हैं। अमेरिका में काफी प्रचलित सलाह है कि ‘चमत्कारी मिनरल घोल’ यानी ब्लीच वायरस का
सफाया कर सकता है। प्रसंगवश बता दें कि यह आपका भी सफाया हमेशा के लिए कर देगा।
मेसेजेस
ने इस विचार को भी बढ़ावा दिया है कि मास्क लगाने से वायरस से पूरी तरह सुरक्षित
रहा जा सकता है – यह
एक खतरनाक विचार है क्योंकि यह विचार एक मिथ्या आत्मविश्वास पैदा करता है और फिर
आपसे मूर्खतापूर्ण व्यवहार करवाता है। इसके चलते उन लोगों के लिए मास्क की कमी भी
हो गई जिन्हें इनकी वाकई ज़रूरत थी। और अंत में, निश्चित
ही यह झूठी घोषणा थी कि सरकार ने पूरे इलाके में छिड़काव करके हवा में ही वायरस के
खात्मे का इंतजाम किया है।
यह
तब और भी चिंताजनक हो जाता है जब ये मूर्खतापूर्ण बातें आधिकारिक नीति बन जाती हैं: स्वास्थ्य मंत्रालय
सलाह देता है कि आयुर्वेदिक, यूनानी और
होम्योपैथिक उपचार कोरोनोवायरस के ‘लक्षणों से निपटने’ में मददगार हैं! जबकि इस तरह के दावों का रत्ती भर
वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। फिर भी ये सरकार की ओर से ज़ारी किए गए हैं। विशेषज्ञों
द्वारा इस पर आपत्ति उठाने पर मंत्रालय ने ‘स्पष्टीकरण’ दिया है कि यह सलाह ‘सामान्य’ वायरस संक्रमण के संदर्भ में जारी की गर्इं
है।
यदि
कोई इन ‘उपचारों’ को अपना ले तो
परिणाम भयावह होंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने कोरोनोवायरस के इलाज के
लिए क्लोरोक्वीन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के उपयोग की वकालत की है। जब उनसे इस
बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने जवाब दिया कि “मैं एक ऐसा आदमी हूं जो बहुत सकारात्मक सोच
रखता हूं, विशेष रूप से इन
दवाओं के मामले में। यह सिर्फ एक एहसास है, सिर्फ
एक एहसास है। मैं एक स्मार्ट आदमी हूं।”
इन
दवाओं की प्रभाविता के बारे में केवल कहे-सुने प्रमाण उपलब्ध हैं और इन्हें लेकर
परीक्षण चल रहे हैं लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा पहले ही इस ‘उपचार’ की पैरवी ने मुश्किल
खड़ी कर दी है: इन
दवाओं की जमाखोरी से इनकी उपलब्धता उन लोगों के लिए कम हो गई है जिन्हें अन्य
बीमारियों के इलाज में इनकी ज़रूरत है। लोग कोरोनोवायरस से अपने को बचाने के लिए अब
खुद ही इन अत्यधिक ज़हरीली दवाओं का सेवन रहे हैं, जिसके
कारण एरिज़ोना और नाइजीरिया में मौतें भी हो चुकी हैं। इसी तरह के हालात भारत में
भी बन सकते हैं।
साज़िश
परिकल्पनाओं की भी कोई कमी नहीं है। एक प्रचलित बयान यह है कि कोरोनावायरस 5-जी मोबाइल तकनीक के
परिणामस्वरूप उपजा है; यह वायरस के माध्यम
से लोगों को बीमार करता है। मलेशियाई सरकार को अपने नागरिकों को आश्वस्त करना पड़ा
कि यह वायरस लोगों को रक्त-पिपासु दैत्य में नहीं बदलेगा। संयुक्त राज्य अमेरिका में
दक्षिणपंथी लोगों ने सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्ट की बाढ़ लगा दी है कि
कोरोनावायरस ट्रम्प विरोधी हिस्टीरिया पैदा करने की और ‘देश को अस्थिर करने’ की साज़िश है। इस डर को हवा दी जा रही है कि
डब्लूएचओ ‘राष्ट्रों
को नियंत्रित कर रहा है और कई लोगों को मारने के लिए जबरन टीके लगाए जाएंगे।’ इसका एक परिणाम इस
रूप में सामने आ रहा है कि दक्षिण-पंथी रुझान वाले नागरिक इस महामारी को गंभीरता से नहीं ले
रहे हैं, और लापरवाही भरा
व्यवहार कर रहे हैं, जैसे बाहर खाना खाना
या हाथ मिलाना (यह
साबित करने के लिए कि वे सख्त हैं)।
ज़्यादा
गहरे स्तर पर दक्षिणपंथी लोग “वायरस के कारण और उसकी उत्पत्ति के बारे में साज़िश-सिद्धांत पेश कर रहे
हैं, और इन मनगढ़ंत कहानियों का उपयोग
आप्रवासियों, अल्पसंख्यकों या
उदारवादी लोगों को बलि का बकरा बनाने हेतु कर रहे हैं।” चीनी मूल के अमेरिकी नागरिकों के साथ
दुव्र्यवहार की खबरें तो सामने आ भी चुकी हैं क्योंकि ट्रम्प ने “चीनी वायरस” शब्द प्रचलित कर
दिया है। भारत में भी, पूर्वोत्तर राज्यों
के नागरिकों पर इसी तरह के नस्लवादी हमले किए गए हैं। चीन को एक दैत्य साबित करने
के लिए कहा जा रहा है कि वह अपने ही नागरिकों के प्रति अमानवीय और क्रूर व्यवहार
कर रहा है, और ऐसी (झूठी) रिपोर्टें पेश की जा
रही हैं कि चीन संक्रमित लोगों को मार रहा है।
लेकिन
यह पुराना सवाल बरकरार है: लोग
इन बकवास बातों में क्यों आ जाते हैं? एक
अन्य लेख में इस बात की चर्चा की गई है कि कैसे क्राउडसोर्सिंग द्वारा बकवास भी ‘ज्ञान’ बन जाता है। मोटे
तौर पर कहा जाए तो विभिन्न कारणों से आबादी के एक बड़े हिस्से के लोगों में
समीक्षात्मक कौशल की कमी के चलते कितनी भी हास्यास्पद या बकवास बात ‘विश्वसनीय’ बन जाती है। सही
शिक्षा तक लोगों की पहुंच के अभाव और आधारभूत वैज्ञानिक सिद्धांतों की जानकारी की
कमी के कारण उनके पास लगातार मिल रही इन सूचनाओं की वैधता जांचने का कोई तरीका
नहीं होता। इसके अलावा सवाल करने की मानसिकता की अनुपस्थिति,
जो वैज्ञानिक स्वभाव का अंतर्निहित हिस्सा है,
के कारण वे जो भी देखते, पढ़ते
और सुनते हैं उसकी गहन पड़ताल नहीं कर पाते।
यहां
स्पष्ट रूप से दो तरह के परिदृश्य हैं
पहली
श्रेणी उन लोगों की है जो तार्किकता से शुरुआत तो करते हैं लेकिन एक समय बाद
प्रामाणिक से दिखने वाले नकली दस्तावेज़ों या वैज्ञानिक लगने वाले तर्कों में फंस
जाते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण यह बयान है कि होम्योपैथी कोरोनोवायरस से लड़ने के
लिए सभी अद्भुत दवाएं उपलब्ध करा रही है। इस तरह के दावे वैसी ही भाषा शैली का
उपयोग करते हैं जैसी कि आधुनिक चिकित्सा में उपयोग की जाती है,
जिससे होम्योपैथी चिकित्सा बिल्कुल इसके समान और इसका
विकल्प लगने लगती है। यह उस छद्म विज्ञान को ढंक देती है जिस पर होम्योपैथी आधारित
है। कोरोनोवायरस महामारी के इलाज और उसके टीके सम्बंधी ये दावे इस संक्रमण के
खिलाफ अजेयता का भ्रम पैदा कर सकते हैं।
‘जनता कर्फ्यू’ के मामले में सोशल
मीडिया पर एक छद्म वैज्ञानिक व्याख्या काफी प्रचलित है: किसी एक स्थान पर कोरोनोवायरस 12 घंटे जीवित रहता है
और जनता कर्फ्यू 14 घंटे
का है। इसलिए सार्वजनिक स्थलों या बिंदुओं को, जहां
कोरोनावायरस पड़ा रह गया होगा, यदि 14 घंटे तक छुआ नहीं
जाएगा तो इससे कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी। यह ना केवल अजीबो-गरीब तर्क है बल्कि
यह वायरस के जीवन काल के तथ्य के आधार पर भी गलत है। इस प्रकार के कर्फ्यू वायरस
के संपर्क में आने में कमी ला सकते हैं, और
आपातकालीन उपायों के हिसाब से यह एक अच्छा कदम हो सकता है,
लेकिन यह नहीं होगा कि ‘कोरोनावायरस की शृंखला टूट जाएगी’।
व्हाट्सएप
पर एक और बेतुका तर्क दिया जा रहा है कि भारत के 130 करोड़ लोग यदि एक समय,
एक साथ ताली और शंख बजाएंगे तो इतना कंपन पैदा होगा कि
वायरस अपनी सारी शक्ति खो देगा। यदि कुछ ट्वीट्स की मानें तो ऐसा करके हमें पहले
ही बड़ी सफलता मिल चुकी है क्योंकि “नासा SD13 तरंग डिटेक्टर ने ब्राहृाण्ड स्तरीय ध्वनि
तरंग डिटेक्ट की हैं और हाल ही में बनाए गए बायो-सैटेलाइट ने दिखाया है कि कोविड-19 स्ट्रेन घट रहा है
और कमज़ोर हो रहा है” और
वह भी सामूहिक शंखनाद के कुछ मिनटों बाद।
इससे
ज़्यादा ऊटपटांग बात कोई हो नहीं सकती। दूसरी ओर, सामाजिक
दूरी का विचार, जिसे सरकारें जी-जान से बढ़ावा देने
में जुटी हैं, तब हवा में उड़ गया
जब कई लोग राजनेताओं के आव्हान से उत्साहित होकर संक्रमण से लड़ने वाले
कार्यकर्ताओं के सम्मान में लोग ताली-थाली बजाने के लिए अपने-अपने घरों से बाहर निकल कर एक साथ जमा हो
गए। लेकिन ज़मीनी हकीकत बिल्कुल अलग है, हम
वास्तव में अपने आसपास इन कार्यकर्ताओं को नहीं चाहते क्योंकि इनके संक्रमित होने
की संभावना है। मकान मालिकों ने एयरलाइन कर्मचारियों और यहां तक कि चिकित्सा
पेशेवरों को घर खाली करने को कहा है – यह काफी निराशाजनक स्थिति दिखती है कि हम दूसरों की ज़िंदगी
को महत्व नहीं देते हैं, उनकी भी जो संकट के
समय हमारी सेवा करते हैं। जिन लोगों को क्वारेंटाइन किया गया है उनके प्रति
सहानुभूति में कमी और उनकी निजता पर आक्रमण और भी शर्मनाक है।
हम
वास्तव में सबसे भौंडा इतिहास बनते देख रहे हैं
दूसरा,
हमारे यहां कई ऐसे लोग हैं जो निहित रूप से अंधविश्वासों और
अतार्किक विश्वासों के प्रति संवेदी हैं। इसके लिए विचित्र धार्मिकता से लेकर इन
विश्वासों को मानने वाली संस्कृति में परवरिश जैसे कई कारण ज़िम्मेदार हैं। इन
मामलों में ज्ञान और जानकारी बुज़ुर्गों, समुदाय
प्रमुखों और धार्मिक गुरुओं से आंख मूंदकर प्राप्त की जाती है,
उस पर सवाल नहीं उठाए जाते; दिमागों
को सवाल उठाने या प्रमाण खोजने के लिए तैयार नहीं किया जाता। इसलिए इन लोगों को जो
कुछ भी सूचनाएं मिलती हैं, उसे मान लेते हैं,
और इससे भी अधिक तत्परता से उन सूचनाओं को मान लेते हैं जो
किसी भी किस्म के अधिकारियों – राजनीतिक नेताओं, धार्मिक
हस्तियों – से
प्राप्त हुई हैं। ‘गो
कोरोना गो’ का
एक वीडियो बीमारी से लड़ने में एक आशावादी मनोस्थिति बनाने का अच्छा साधन हो सकता
है लेकिन यह वीडियो एक मुगालता भी पैदा करता है कि कोरोनोवायरस को जाप से,
खासकर सामूहिक जाप से भगाया जा सकता है।
कोरोनावायरस
सम्बंधी इस तरह की बेतुकी बयानबाज़ी करने वाले अधिकतर वे लोग हैं जो धार्मिक और
राष्ट्रवादी गौरव से भरे होते हैं। यह वक्त, जो
महान राजनीतिक ध्रुवीकरण और तीव्र सामाजिक आक्रोश का गवाह है,
ने सांस्कृतिक श्रेष्ठता के आख्यानों से पूर्ण दंभ के
उग्रवादी रूप को जन्म दिया है।
इसी
के चलते, गोमूत्र का उपयोग
कीटाणुनाशक के रूप में किया जा रहा है और बिना सोचे-समझे लोगों पर इसका छिड़काव किया जा रहा है।
दक्षिणपंथी राजनेताओं का दावा है कि गोमूत्र और गोबर कोरोनोवायरस का इलाज कर सकते
हैं, और हवन वायरस को मार सकता है। इनमें से कुछ
ने विशेष सभाओं का आयोजन किया जहां आमंत्रित लोगों को गोमूत्र पीने के लिए दिया
गया। कई ज्योतिष हमें बताते हैं कि हम अस्तित्व के संकट का सामना क्यों कर रहे हैं,
और यह कब दूर होगा। एक अन्य दावा कहता है कि प्राचीन भारतीय
योग के श्वसन का तरीका कोरोनावायरस के संक्रमण से बचा सकता है,
और यह भी कि आयुर्वेदिक चिकित्सा में प्रयुक्त अश्वगंधा ‘मानव प्रोटीन से
कोरोना प्रोटीन को जुड़ने नहीं देगी।’ इंडोनेशिया में मीडिया पोस्ट्स में दावा किया गया है कि वजू
करना वायरस को मार सकता है।
जो
लोग इनमें से किसी भी कथन को गंभीरता से लेते हैं और मानते हैं कि उनके पास
कोरोनोवायरस से लड़ने के लिए उपाय है तो हो सकता है कि वे खुद को और दूसरों को
गंभीर खतरे में डाल रहे हैं।
हमें
घेरती जा रही इस अज्ञानता के और भी अधिक भयावह और दीर्घकालिक प्रभाव हैं। आक्रामक
शाकाहार-श्रेष्ठता
के उन्माद में स्वनामधन्य ज्ञान उड़ेला जा रहा है: कोरोनावायरस की उत्पत्ति चीन के ‘मांस बाज़ार’ से हुई,
जहां मारे गए जंगली जानवरों की विभिन्न प्रजातियां एक साथ
होती हैं, जिससे वायरस एक
प्रजाति से होते हुए दूसरी प्रजाति और अंतत: मनुष्य में आ गया। यह बात मांसाहार की कटु
आलोचना के रूप में इस्तेमाल की जा रही है। मांस खाने वालों को दोष देते हुए कतिपय
सभ्यता की श्रेष्ठता के दावे किए जा रहे हैं और सभ्यता के घोर अनुयायी मांग कर रहे
हैं कि चीनी राष्ट्रपति कोरोनावायरस की प्रतिमा से क्षमा याचना करें कि उन्होंने
मांस खाया। संक्रमित मटन बाज़ार दिखाने वाले वीडियो भावनाओं को और भड़का रहे हैं। इस
प्रकार कोरोनावायरस मांस खाने वालों के खिलाफ प्रकृति का प्रतिशोध बन गया है। इससे
भारत में मुर्गियों की कीमत बहुत कम हो गई है, और
यह उद्योग आर्थिक संकट झेल रहा है।
सिर्फ
अनुशंसित वेबसाइटों (जैसे
डब्ल्यूएचओ) से
जानकारी प्राप्त करने की सलाह और गुज़ारिश किसी भी तरह से लोगों को गलत सूचना मानने
और आगे बढ़ाने से रोक नहीं रही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि बहुत सी गलत सूचनाएं
जानबूझकर बरगलाने के लिए प्रचारित की जाती हैं, अक्सर
दक्षिणपंथी सांस्कृतिक लोगों द्वारा। जब तक हम इस सूचना की महामारी के “प्रसार की शृंखला” को नहीं तोड़ेंगे तब
तक यह जारी रहेगी।
लिहाज़ा,
डिजिटल मीडिया कई मायनों में उन मासूम लोगों के लिए एक
उपहार है जो उनको बताई गई किसी भी बकवास पर, और
उसे रचने वालों पर यकीन कर लेते हैं। फेसबुक से लेकर यूट्यूब तक के तमाम
प्लोटफार्म, जिन पर कोई भी कुछ
भी कह या लिख सकता है, वास्तव में इन्हें
उपयोग करने वाले सर्वज्ञाताओें (चाहें नादान हों या किसी मत के) के लिए मुफ्त में उपलब्ध हथियार की तरह है
जिसे किसी पर भी चलाया जा सकता है। ऐसा नहीं है कि पहले के ज़माने में दुनिया में
किसी तरह की मूर्खता नहीं थी लेकिन मूर्खता को सर्वव्यापी बनाने के साधन अनुपस्थित
थे, जिससे किसी बेतुकेपन के निर्माण और प्रसार
की गति सीमित थी।
बड़ी टेक कंपनियां गलत सूचना के प्रसार को रोकने की कोशिश कर रही हैं लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे खुद के बनाए गए विशालकाय जाल को नियंत्रित कर पाएंगी। आधुनिक तकनीक और दुनिया के असमीक्षात्मक, रूढ़िवादी सोच की जुगलबंदी हमें यह याद दिलाती है कि जो समाज अंधविश्वास को बढ़ावा देता है वह छद्म विज्ञान में लौट जाता है और तार्किकता को कम करता है। इस परिस्थिति का उपयोग सांस्कृतिक और राजनीतिक लड़ाई में हथियार के रूप में किया जाता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/5ea89d09b67f3800075cd1ab/960×0.jpg?fit=scale
आज
जलवायु परिवर्तन और बढ़ते वैश्विक तापमान की समस्या और इसके कारणों से हम वाकिफ हैं
और इसे नियंत्रित करने के प्रयास में लगे हैं। अब तक इस समस्या के कारण को समझने
का श्रेय जॉन टिंडल को दिया जाता है। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के
विज्ञान इतिहासकार जॉन पर्लिन का कहना है कि जलवायु परिवर्तन की हमारी समझ की नींव
रखने का श्रेय युनिस फुट को जाता है। फुट ने कार्बन डाईऑक्साइड के ऊष्मीय प्रभाव
का अध्ययन किया था जो वर्ष 1856 में सूर्य की
किरणों की ऊष्मा को प्रभावित करने वाली परिस्थितियां शीर्षक से प्रकाशित हुआ
था। जॉन टिंडल का कार्य तीन वर्ष बाद प्रकाशित हुआ था।
पर्लिन
बताते हैं कि 1856 में न्यूयॉर्क में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर
एडवांसमेंट ऑफ साइन्स की 10वीं वार्षिक बैठक
में फुट का पेपर प्रस्तुत किया गया था। तब महिलाओं को अपना काम प्रस्तुत करने की
अनुमति नहीं थी इसलिए उनके पेपर को एक अन्य वैज्ञानिक ने प्रस्तुत किया था। इसे
बैठक की कार्यावाही में नहीं बल्कि अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स में
एक लघु लेख के रूप में प्रकाशित किया गया था। अपने इस अध्ययन में उन्होंने नम और
शुष्क वायु, और
कार्बन डाईऑक्साइड,
हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों पर सूर्य के प्रकाश का प्रभाव
देखा था। अध्ययन में फुट ने पाया कि सूर्य के प्रकाश का सर्वाधिक प्रभाव कार्बोनिक
एसिड गैस पर होता है। उनके अनुसार वायुमंडल में मौजूद इस गैस के कारण हमारी पृथ्वी
के तापमान में वृद्धि हुई होगी।
इस
बारे में 13 सितंबर के साइंटिफिक अमेरिकन के अंक
में वैज्ञानिक महिलाएं – संघनित
गैसों के साथ प्रयोग शीर्षक से एक लेख भी प्रकाशित हुआ था।
इसके एक साल बाद अगस्त 1857 में उन्होंने एक
अन्य अध्ययन प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने वायु पर बदलते दाब, ताप और नमी के
प्रभावों का अध्ययन किया और इसे वायुमंडलीय दाब और तापमान में होने वाले
परिवर्तनों से जोड़ा।
उन्होंने
कई आविष्कारों के पेटेंट के लिए आवेदन किए। अमेरिकी महिलाओं के मताधिकार और बंधुआ
मज़दूरी के खिलाफ आंदोलन में भी उनकी सक्रिय भागीदारी रही।
फुट के काम के बारे में पता चलने के बाद एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या लंदन के रॉयल इंस्टीट्यूशन में काम कर रहे टिंडल अपने शोध प्रकाशन के समय फुट के काम से वाकिफ थे? पर्लिन का मत है कि टिंडल वाकिफ थे क्योंकि फुट के शोधपत्र की रिपोर्ट और सारांश कई युरोपीय पत्रिकाओं में पुन: प्रकाशित किए गए थे। रॉयल इंस्टीट्यूशन में अमेरिकन जर्नल ऑफ साइंस एंड आर्ट्स पत्रिका पहुंचती थी और नवंबर 1856 के जिस अंक में फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, उसी में वर्णांधता पर टिंडल का भी एक लेख छपा था। दी फिलॉसॉफिकल मैगज़ीन में भी फुट का लेख प्रकाशित हुआ था, जिसके संपादक टिंडल थे। इसके अलावा, फुट के लेख का सार जर्मन भाषा में साल की महत्वपूर्ण खोज के संकलन के रूप में प्रकाशित हुआ था। टिंडल जर्मन भाषा के जानकार थे। पर्लिन का कहना है कि फुट को उनके काम का श्रेय ना मिलने की पहली वजह तो यह हो सकती है कि वे ये प्रयोग शौकिया तौर पर करती थीं; दूसरा, उस वक्त तक अंग्रेज़ अपने को अमरीकियों से श्रेष्ठ मानते थे; और तीसरा, कि वह एक महिला थीं। टिंडल खुद महिलाओं के मताधिकार के विरोधी थे और महिलाओं का बौद्धिक स्तर पुरुषों से कम मानते थे। बहरहाल, पर्लिन का मत है कि फुट को जलवायु परिवर्तन की समझ की जननी के रूप में जाना जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://rosslandtelegraph.com/sites/default/files/newsimages/rosslandtelegraphcom/mar/eunice_newton_foote_climatescience.png
क्या
आपको कभी ऐसा आभास हुआ है कि जो दृश्य आप अभी देख रहे हैं वह पहले भी देख चुके हैं
या जो घटना अभी आपके साथ घट रही है हू-ब-हू
वही घटना आपके साथ पहले भी घट चुकी है। यदि आपने ऐसा महसूस किया है तो इस आभास को देजा
वू कहते हैं। देजा वू फ्रेंच शब्द है जिसका मतलब है ‘पहले देखा गया’। लेकिन देजा वू
का एहसास होता क्यों है?
आम
तौर पर इस एहसास को रहस्यमयी और असामान्य माना जाता है। अलबत्ता,
इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने कई अध्ययन किए हैं।
प्रायोगिक तौर पर सम्मोहन और आभासी यथार्थ के इस्तेमाल से ऐसी स्थितियां उत्पन्न
की गई हैं जिनमें देजा वू का एहसास हो।
इन
प्रयोगों से वैज्ञानिकों का अनुमान था कि देजा वू एक स्मृति आधारित घटना
है। यानी देजा वू में हम एक ऐसी स्थिति का सामना करते हैं जो हमारी किसी
वास्तविक समृति के समान होती है। लेकिन उस स्मृति को हम पूरी तरह याद नहीं कर पाते
हैं तो हमारा मस्तिष्क हमारे वर्तमान और अतीत के अनुभवों के बीच समानता पहचानता
है। और हमें एहसास होता है हम इस स्थिति से परिचित हैं। इस व्याख्या से इतर,
अन्य सिद्धांत भी हैं जो यह समझाने का प्रयास करते हैं कि
हमारी स्मृति ऐसा व्यवहार क्यों करती हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह हमारे मस्तिष्क
के कनेक्शन में घालमेल का नतीजा है जो लघुकालीन स्मृति और दीर्घकालीन स्मृति के
बीच गड़बड़ पैदा कर देता है। इसके फलस्वरूप, बनने
वाली नई स्मृति लघुकालीन स्मृति में बने रहने की बजाय सीधे दीर्घकालीन समृति में
चली जाती है। जबकि कुछ लोगों का कहना है कि यह राइनल कॉर्टेक्स के कारण होता है जो
मस्तिष्क में किसी स्मृति के नदारद होने पर भी कभी-कभी इसके होने के संकेत देता है। राइनल
कॉर्टेक्स मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो परिचित स्थिति महसूस होने के संकेत देता
है।
एक
अन्य सिद्धांत के अनुसार देजा वू झूठी यादों से जुड़ा मामला है,
ऐसी यादें जो वास्तविक महसूस होती हैं लेकिन होती नहीं। ठीक
सपने और वास्तविक घटना की तरह।
एक अन्य अध्ययन में 21 लोगों को देजा वू का एहसास कराया गया और उस समय उनके मस्तिष्क का fMRI की मदद से स्कैन किया गया। इस अध्ययन में दिलचस्प बात यह पता चली कि देजा वू के वक्त मस्तिष्क का स्मृति के लिए ज़िम्मेदार हिस्सा, हिप्पोकैम्पस, सक्रिय नहीं था बल्कि मस्तिष्क का निर्णय लेने वाला हिस्सा सक्रिय था। वैज्ञानिक अब तक देजा वू को स्मृति से जोड़कर देख रहे थे। इन परिणाम के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि देजा वू हमारे मस्तिष्क में किसी तरह के विरोधाभास को सुलझाने के लिए उत्पन्न होता होगा।(स्रोत फीचर्स)
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किसी
प्रजाति के लिए हानिकारक बैक्टीरिया और वायरस किसी अन्य प्रजाति को संक्रमित करने
के लिए काफी तेज़ी से विकसित हो सकते हैं। कोरोनावायरस इसका सबसे नवीन उदाहरण है।
एक जानलेवा बीमारी का जनक यह वायरस जानवरों से मनुष्यों में आ पहुंचा है और शायद
मनुष्यों से जानवरों में भी पहुंच रहा है।
इस
तरह के प्रजाति-पार
संक्रमण पशु पालन के स्थानों पर या बाज़ार में शुरू हो सकते हैं जहां संक्रामक
जीवों के संपर्क को बढ़ावा मिलता है। ऐसी परिस्थिति में विभिन्न रोगजनक
सूक्ष्मजीवों के बीच जीन्स का लेन-देन हो सकता है। ऐसा भी हो सकता है सामान्य जंतु-मनुष्य संपर्क के
दौरान कोई सूक्ष्मजीव प्रजाति की सीमा-रेखा पार कर जाए।
जंतुओं
से मनुष्यों में पहुंचने वाले रोगों को ज़ुऑनोसेस कहा जाता है। इनमें 3 दर्ज़न से अधिक रोग
तो ऐसे हैं जो सिर्फ स्पर्श से हमें संक्रमित कर सकते हैं जबकि 4 दर्ज़न से अधिक ऐसे
हैं जो जीवों के काटने से हमें मिलते हैं। इनमें कुछ रोग ऐसे भी हैं जो मनुष्यों
से जीवों में पहुंचते हैं। यहां एक से दूसरी प्रजातियों में फैलने वाली कुछ
जानलेवा बीमारियों पर चर्चा की गई है।
नया
कोरोनावायरस
नए
कोरोनावायरस (SARS-CoV-2) की पहचान दिसंबर 2019 में चीन के वुहान प्रांत के सी-फूड बाज़ार में हुई
थी। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि यह चमगादड़ से आया है। उस बाज़ार में चमगादड़
नहीं बेचे जाते थे, इसलिए वैज्ञानिकों
ने माना कि इस वायरस के मानवों में संक्रमण के पीछे एक अज्ञात तीसरा जीव होना
चाहिए। कुछ अध्ययनों के आधार पर कहा जा रहा है कि यह मध्यवर्ती जीव पैंगोलिन हो
सकता है। लेकिन नेचर पत्रिका के अनुसार अवैध रूप से तस्करी किए गए पैंगोलिन से
प्राप्त नमूने SARS-CoV-2 से इतना मेल नहीं
खाते हैं जिससे इसकी पुष्टि एक मध्यवर्ती जीव के रूप में की जा सके। इसके पूर्व के
अध्ययनों में सांपों को इसका संभावित स्रोत माना गया था लेकिन सांपों में
कोरोनावायरस के संक्रमण की पुष्टि नहीं की गई है।
इन्फ्लुएंज़ा
महामारियां
वर्ष
1918 में
इन्फ्लुएंज़ा ने कुछ ही महीनों में 5 करोड़ लोगों की जान ली थी। विश्व की एक-तिहाई आबादी को संक्रमित करने वाला यह
इन्फ्लुएंज़ा वायरस (H1N1) पक्षी-मूल का था। मुख्य रूप से बुज़ुर्गों और
कमज़ोर प्रतिरक्षा तंत्र वाले लोगों की जान लेने वाले साधारण फ्लू के विपरीत H1N1 ने युवा व्यस्कों
को अपना शिकार बनाया था। ऐसा लगता है कि बुज़ुर्गों में पिछले किसी H1N1 संक्रमण के कारण
प्रतिरक्षा उत्पन्न हुई थी, और इस वजह से 1918 की महामारी में उन
पर ज़्यादा असर नहीं हुआ।
H1N1 वायरस (H1N1pdm09) का नवीनतम हमला 2009 में हुआ था जिसमें
अमेरिका में 6.08 करोड़
मामले सामने आए थे और 12,496
लोगों की मौत हुई थी। विश्व भर में मौतों की संख्या डेढ़ से
पौने छ: लाख
के बीच थी। यह वायरस सूअरों के झुंड में उत्पन्न हुआ था जहां आनुवंशिक पदार्थ की
अदला-बदली
के दौरान इन्फ्लुएंज़ा वायरसों का पुनर्गठन हुआ। यह प्रक्रिया उत्तरी अमेरिकी और
यूरेशियन सूअरों में प्राकृतिक रूप से होती रहती है।
प्लेग
14वीं सदी में ब्लैक
डेथ के नाम से मशहूर इस एक बीमारी के सामने कई सभ्यताओं ने घुटने टेक दिए थे।
युरोप से लेकर मिस्र और एशिया तक अनगिनत लोग मारे गए थे। उस समय 36 करोड़ की आबादी वाले
विश्व में 7.5 करोड़
लोग मारे गए थे। प्लेग एक बैक्टीरिया-जनित रोग है जो यर्सिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया
के कारण होता है। यह बैक्टीरिया चूहों (और शायद बिल्लियों) में रहता है और संक्रमित पिस्सुओं के काटने
से मनुष्यों में फैल जाता है। यह एक जानलेवा रोग है और आज भी यदि इसका इलाज न किया
जाए तो जानलेवा होता है।
14वीं शताब्दी का
प्लेग जिस बैक्टीरिया के कारण फैला था वह गोबी रेगिस्तान में वर्षों तक निष्क्रिय
रहने के बाद चीन के व्यापार मार्गों के माध्यम से युरोप,
एशिया और अन्य देशों में फैल गया। इसके लक्षणों में बुखार,
ठण्ड लगना, कमज़ोरी,
लसिका ग्रंथियों में सूजन और दर्द शामिल हैं। कई समाजों को
इससे उबरने में सदियां लगी थीं।
दंश
से फैलते रोग
कई
जंतु-वाहित
बीमारियां जानवरों द्वारा काटने से फैलती हैं। मच्छरों द्वारा मानव शरीर में
परजीवी के संक्रमण से मलेरिया रोग काफी जानलेवा सिद्ध होता है। एक रिपोर्ट के
अनुसार मच्छरों के काटने से वर्ष 2018 में लगभग 22.8 करोड़ लोग संक्रमित हुए जबकि 40 लाख से अधिक लोगों की मौत हो गई। इनमें
सबसे अधिक संख्या अफ्रीकी देशों में रहने वाले बच्चों की थी।
मच्छरों
से फैलने वाले डेंगू बुखार से सालाना 40 करोड़ लोग संक्रमित होते हैं, जिनमें
से 10 करोड़
लोग बीमार होते हैं और 22,000
लोग मारे जाते हैं। यह रोग एडीज़ वंश के मच्छर द्वारा काटने
से होता है।
पालतू
प्राणि और चूहे
पालतू
प्राणियों से होने वाली बीमारियों में रेबीज़ सबसे जानी-मानी है। इससे हर वर्ष लगभग 55,000 लोगों की मृत्यु
होती है। इनकी सबसे अधिक संख्या एशिया और अफ्रीका के देशों में होती है। आम तौर पर
यह रोग संक्रमित पालतू कुत्ते के काटने से होता है हालांकि जंगली जानवरों में
रैबीज़ के वायरस पाए जाते हैं।
एक
और बीमारी है जो जानवर के काटे बगैर भी हो जाती है। चूहों जैसे प्राणियों में
मौजूद हैन्टावायरस उनके मल, मूत्र वगैरह में
होता है और यदि ये पदार्थ कण रूप में हवा में फैल जाएं तो वायरस सांस के साथ
मनुष्यों में पहुंच जाता है। यह मुख्य रूप से डीयर माइस से फैलता है। यह वायरस एक
व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संचरण नहीं करता है। इसके मुख्य लक्षणों में ठण्ड
लगना, बुखार, सिरदर्द
आदि शामिल हैं। वैसे तो यह बीमारी बिरली है लेकिन इसकी मृत्यु दर 36 प्रतिशत है।
एचआईवी./एड्स
सीडीसी
के अनुसार एड्स का वायरस (एचआईवी) मध्य अफ्रीका के एक
चिम्पैंज़ी से आया है। यह वायरस (मूलत: एसआईवी) मनुष्यों में इन जीवों के शिकार ज़रिए पहुंचा है। यह
मनुष्यों में इन जीवों के संक्रमित खून से आया जिसने मानवों में विकसित होकर
एचआईवी का रूप ले लिया। अध्ययनों के अनुसार यह मनुष्यों में 18वीं सदी से मौजूद है।
एचआईवी
प्रतिरक्षा तंत्र को तहस-नहस
कर देता है जिससे जानलेवा बीमारियों और कैंसर का रास्ता खुल जाता है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक वर्ष 2018 में 7.7 लाख लोगों की मृत्यु एचआईवी के कारण हुई जबकि इसी वर्ष के
अंत तक 3.7 करोड़
लोग इससे संक्रमित पाए गए। एचआईवी संक्रमित लोगों में टीबी से मृत्यु दर काफी अधिक
होती है। यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में शारीरिक तरल पदार्थ (जैसे खून,
स्तनपान, वीर्य,
योनि स्राव आदि) के आदान प्रदान से पहुंचता है।
मस्तिष्क
पर नियंत्रण
एक
विचित्र परजीवी टोक्सोप्लाज़्मा गोंडाई ने विश्व भर में लगभग 2 अरब लोगों को अपना शिकार बनाया है। यह
परजीवी शीज़ोफ्रीनिया का कारण होता है। इसका प्राथमिक मेज़बान बिल्लियां हैं। यह
रोगाणु बिल्ली की आंत में विकसित होते हैं। इसके अंडे बिल्ली के मल के साथ बाहर
आते हैं और इनके छोटे-छोटे
कण हवा के माध्यम से नाक के ज़रिए मनुष्यों में प्रवेश कर जाते हैं।
मनुष्य
में प्रवेश करने के बाद ये अंडे शरीर के उन अंगों में छिप जाते हैं जहां
प्रतिरक्षा तंत्र का अभाव होता है, जैसे मस्तिष्क,
ह्मदय, और कंकाल की
मांसपेशियां। इन अंगों में अंडे सक्रिय परजीवी टैकीज़ोइट में तबदील हो जाते हैं और
अन्य अंगों में फैलने व संख्यावृद्धि करने लगते हैं।
इनको
मस्तिष्क पर नियंत्रण करने वाला जीव इसलिए कहा जाता है क्योंकि इससे संक्रमित
चूहों में बिल्लियों का डर खत्म हो जाता है और वे बिल्लियों के मूत्र की गंध की ओर
आकर्षित होने लगते हैं। ऐसे में वे बिल्ली का आसान शिकार बन जाते हैं और परजीवी को
बिल्ली की आंत में पहुंचने का एक आसान रास्ता मिल जाता है।
मनुष्यों
में इनके संक्रमण का कोई खास लक्षण दिखाई नहीं देता है। हालांकि कुछ मामलों में
सामान्य फ्लू और लसिका नोड्स पर सूजन की शिकायत होती है जो कुछ हफ्तों से लेकर
महीनों तक रहती है। कभी-कभार
दृष्टि गंवाने से लेकर मस्तिष्क क्षति जैसी गंभार समस्याएं हो सकती हैं।
सिस्टीसर्कोसिस
सिस्टीसर्कोसिस
की समस्या फीता कृमि (टीनिया
सोलियम) के
अण्डों के शरीर में प्रवेश करने से होती है। इसका लार्वा मांसपेशियों और मस्तिष्क
में पहुंच कर गठान बना देता है। मनुष्यों में यह सूअर के मांस का सेवन करने से भी
पहुंचता है। यह छोटी आंत के अस्तर से जुड़कर दो महीनों में एक व्यस्क कृमि में
विकसित हो जाता है। इसका सबसे खतरनाक रूप मस्तिष्क में गठान के रूप में सामने आता
है। इसके लक्षणों में सिरदर्द, दौरे,
भ्रमित होना, मस्तिष्क
में सूजन, संतुलन बनाने में
समस्या, स्ट्रोक या मृत्यु
शामिल हैं।
एबोला
यह
रोग एबोला वायरस के पांच में से एक प्रकार के कारण होता है। यह मध्य अफ्रीका में
गोरिल्ला और चिम्पैंज़ियों के लिए एक बड़ा खतरा है। सीडीसी के अनुसार मनुष्यों में
यह चमगादड़ या गैर-मानव
प्राइमेट्स के द्वारा फैली है। इसकी पहचान पहली बार कांगो में एबोला नदी के किनारे
हुई थी। यह वायरस संक्रमित प्राणियों के रक्त या शरीर के अन्य तरल पदार्थों से
फैलता है। मनुष्यों के बीच यह निकट संपर्क से फैलता है।
इसके
लक्षण काफी भयानक होते हैं। अचानक बुखार, कमज़ोरी,
मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द,
और गले में खराश शुरुआती लक्षण हैं,
जिसके बाद उल्टी, दस्त,
शरीर पर दाने, गुर्दों
और लीवर की तकलीफ और कुछ मामलों में आंतरिक और बाहरी रक्तस्राव। मृत्यु दर 90 प्रतिशत तक हो सकती
है।
लाइम
रोग
यह रोग एक काली टांग वाले पिस्सू द्वारा मनुष्यों में बैक्टीरिया संक्रमण के कारण होता है। यह रोग मुख्य रूप से बोरेलिया बर्गडोरफेरी प्रजाति और कभी कभी एक अन्य प्रजाति बी. मेयोनाई से भी होता है। इसके लक्षणों में बुखार, सिरदर्द, थकान और त्वचा पर चकत्ते शामिल हैं। उपचार न किया जाए तो यह शरीर के जोड़ों से ह्मदय और तंत्रिका तंत्र तक फैल जाता है। हर वर्ष इसके लगभग 30,000 मामले सामने आते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.cdc.gov/onehealth/images/zoonotic-diseases-spread-between-animals-and-people.jpg