चाय का शौकीन भारत

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चाय के पौधे लगभग तीन शताब्दी पूर्व चीन (China) और दक्षिण-पूर्वी एशिया (Southeast Asia) से भारत आए थे, और इन्हें भारत लाने वाले थे ब्रिटिश (British)। दरअसल भारत में चाय (Tea in India) उगाने के प्रयोग के दौरान उन्होंने देखा था कि असम (Assam Tea) में मोटी पत्तियों वाले चाय के पौधे उगते हैं। जब चाय के पौधों को भारत में लगाया गया तो ये बहुत अच्छी तरह से पनपे। (गौरतलब है कि कर्नाटक (Karnataka), केरल (Kerala) और तमिलनाडु (Tamil Nadu) के कुछ इलाकों में भी चाय उगाई जाती है, हालांकि इसकी पैदावार उतनी नहीं होती जितनी कि पूर्वोत्तर (North East India) में होती है)। हाल ही में, उत्तराखंड (Uttarakhand) और उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) ने भी चाय उगाना शुरू किया है। वर्तमान में भारत में चाय की कुल खपत सबसे ज़्यादा (India’s tea consumption) है (5,40,000 मीट्रिक टन है यानी प्रति व्यक्ति 620 ग्राम)। भारत दुनिया का चौथा सबसे बड़ा चाय निर्यातक (Tea Exporter) देश है, और इससे देश प्रति वर्ष लगभग 80 करोड़ डॉलर कमाता है।

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (National Sample Survey Organization) के अनुसार, भारत में कॉफी (Coffee) की तुलना में चाय की खपत 15 गुना ज़्यादा होती है। उत्तर भारत (North India) में, शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में चाय रोज़ाना का मुख्य पेय बन गई है। यहां एक कप चाय सिर्फ 8-10 रुपए में मिलती है, जो सभी की पहुंच में है। इसके विपरीत, दक्षिण भारत (South India) में एक कप चाय तो 10 रुपए में ही मिलती है, जबकि कॉफी 15 से 20 रुपए में मिलती है।

रासायनिक घटक

फूड केमिस्ट्री (Food Chemistry) और फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस (Food Science and Human Wellness) नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित कई शोधपत्रों ने चाय की पत्तियों में मौजूद रासायनिक अणुओं (Chemical compounds in tea) का वर्णन किया है। वे बताते हैं कि ये पत्तियां सुगंध से भरपूर होती हैं, जो चाय को उसकी खुशबू देती हैं। फूड साइंस एंड ह्यूमन वेलनेस में 2015 में प्रकाशित एक शोधपत्र में ऐसे वाष्पशील यौगिकों (Volatile Compounds) के कुछ उदाहरण दिए गए थे। ये यौगिक गाजर, कद्दू और शकरकंद जैसे हमारे दैनिक आहार में पाए जाते हैं। हमारे आहार में गैर-वाष्पशील पदार्थ (Non-volatile substances) भी होते हैं; जैसे नमक, चीनी, कैल्शियम और फल आदि, और ये विटामिन और खनिजों से भरपूर होते हैं।

चाय की पत्तियां विटामिन (Vitamins in tea) और सुरक्षात्मक यौगिकों से भी भरपूर होती हैं जो रक्तचाप और हृदय की सेहत (Heart Health) को बेहतर बनाने, मधुमेह (Diabetes) के जोखिम को कम करने, आंतों को चंगा रखने, तनाव और चिंता को कम करने, ध्यान और एकाग्रता में सुधार करने में मदद करती हैं। इस मामले में चाय कॉफी से बेहतर है, क्योंकि चाय में कैफीन (Low caffeine in tea) कम होता है, जो तंत्रिका तंत्र को उत्तेजित करता है। यही कारण है कि बच्चों को ये दोनों ही पीने की सलाह नहीं दी जाती है।

2015 के शोधपत्र के लेखकों ने पाया था कि चाय की पत्तियों की सुगंध लाइकोपीन (Lycopene), ल्यूटिन (Lutein) और जैस्मोनेट जैसे वाष्पशील यौगिकों (Carotenoids) की उपस्थिति के कारण होती है। दूसरी ओर, भोजन का स्वाद चीनी (Sugar), नमक (Salt), आयरन (Iron) और कैल्शियम (Calcium) जैसे गैर-वाष्पशील यौगिकों से होता है।

घर पर पकाए और बनाए जाने वाले भोजन में ये स्वाद एक तो आयरन, नमक, कैल्शियम और चीनी के उपयोग से आते हैं, और दूसरा गाजर, शकरकंद और ताज़ी सब्ज़ियों से आते हैं। भारत में, मैसूर (Mysore) (और अन्य जगहों पर) स्थित केंद्रीय खाद्य प्रौद्योगिकी अनुसंधान संस्थान (CSIR-CFTRI) भारतीय भोजन (Indian Food) में एंटीऑक्सिडेंट (Antioxidants), पोलीफीनॉल (Polyphenols) और अन्य स्वास्थ्य-वर्धक अणुओं का अध्ययन कर रहा है।

जैसा कि ऊपर बताया गया है, कॉफी की तुलना में अधिक भारतीय चाय पीते हैं। तो फिर कॉफी की बजाय चाय पीने के क्या लाभ हैं? चाय में कॉफी की तुलना में कैफीन कम होता है और एंटीऑक्सीडेंट अधिक होते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का दावा है कि कॉफी मधुमेह के खिलाफ चाय की तुलना में बेहतर है। ऐसे में, सवाल आपकी पसंद-नापसंद का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यूएस चुनाव: बंदर बताएंगे हार-जीत!

वर्ष 2010 के फुटबॉल विश्व कप (FIFA World Cup) में प्रत्येक मैच के विजेता की घोषणा के लिए एक ऑक्टोपस (Octopus) का इस्तेमाल किया गया था। पॉल नामक वह ऑक्टोपस तब काफी मशहूर हुआ था। अब उसी शृंखला में एक नया प्रयोग सामने आया है। समकक्ष समीक्षा का मुंतज़िर, यह प्रकाशन पूर्व शोध पत्र (research paper) काफी मशहूर हो रहा है। 

इस अध्ययन का सम्बंध यूएसए (USA) के आगामी राष्ट्रपति चुनाव (US Presidential Election) में विजेता का पूर्वानुमान (prediction) लगाने से है। कहा यह जा रहा है कि कुछ बंदरों को जब राष्ट्रपति चुनाव के प्रतिस्पर्धियों की तस्वीरें दिखाई जाती हैं तो वे उस तस्वीर को ज़्यादा देर तक तकते हैं जो पराजित उम्मीदवार की हो। 

इस शोध पत्र के लेखक बंदरों में शक्लों की पसंद-नापसंद का अध्ययन करते रहे हैं। उदाहरण के लिए, कई सारे प्रयोग किए गए थे जिनमें कुछ मैकॉक बंदरों (macaque monkeys) को ऐसे बंदरों के चेहरे दिखाए गए थे जिन्हें मैकॉक्स ने पहले कभी नहीं देखा था। शोधकर्ताओं ने पाया कि मैकॉक उच्च हैसियत वाले बंदरों पर एक नज़र भर डालते थे। शायद इसलिए कि घूरना आक्रामकता का द्योतक माना जाता है। दूसरी ओर, जब वे किसी निम्न हैसियत वाले बंदर या मादा बंदर को देखते तो अधिक समय तक देखते रहते थे। तंत्रिका वैज्ञानिक (neuroscientist) युओगुआन्ग जियांग के अनुसार इसका मतलब है कि वे मात्र तस्वीरों के आधार पर कुछ पहचान पाते हैं। 

तो शोधकर्ताओं ने सोचा कि क्या ये बंदर इंसानों की शक्ल देखकर भी ऐसा ही करेंगे। उन्होंने बंदरों को 1995 से 2008 के बीच हुए 273 यूएस संसद (US Congress), गवर्नर तथा राष्ट्रपति चुनावों के उम्मीदवारों की तस्वीरें जोड़े में दिखाईं। मान्यता यह थी कि बंदर उन व्यक्तियों की पहचान, दलगत जुड़ाव (political affiliation) या नीतियों के बारे में पूरी तरह अनभिज्ञ थे। 

बंदरों ने हर जोड़ी के व्यक्तियों को देखा। प्रयोगों में बंदरों ने पराजित उम्मीदवार (losing candidate) को 54.4 प्रतिशत ज़्यादा देर तक देखा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। इन बंदरों का प्रदर्शन डांवाडोल प्रांतों (swing states) के बारे में तो और भी बेहतर रहा जिसमें उन्होंने 58.1 प्रतिशत बार विजेता को चुना। वैसे 2000 से 2020 के दरम्यान हुए राष्ट्रपति चुनावों को लेकर उनकी टकटकी ज़्यादा कुछ नहीं बता पाईं। 

प्लाट का कहना है कि इससे लगता है कि मात्र चेहरे (face) में काफी ऐसी जानकारी छिपी होती है जिसका सम्बंध इस बात से है कि लोग मतदान के समय क्या करेंगे। शोधकर्ताओं का तो यह भी मत है कि इसमें से कुछ जानकारी तो उम्मीदवार के जबड़े (jawline) के आकार से मिलती है। 

कहते हैं कि पहले हुए अध्ययन भी बताते हैं कि राजनीति (politics) से सर्वथा अनजान लोग भी चेहरा देखकर चुनाव के नतीजे की भविष्यवाणी कर सकते हैं। और तो और, एक अध्ययन में पता चला था कि छोटे बच्चे (children) भी चेहरा देखकर विजेता को पहचान लेते हैं। तो शोधकर्ताओं ने यहां तक कह दिया है कि हमारे जीन्स (genes) में कुछ है जो हमारे निर्णयों को प्रभावित करता है और शायद बंदरों और इंसानों में चेहरों को लेकर पूर्वाग्रह का कुछ साझा वैकासिक आधार (evolutionary basis) है। तो नीतियां, प्रचार-प्रसार (campaign) जाने दें, पार्टियों को तो चेहरों पर ध्यान देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष में विकलांगता को पछाड़ने का अवसर

सुबोध जोशी

अंतरिक्ष का यात्रा का अवसर मिलना एक दुर्लभ घटना है। दुनिया के अरबों लोगों में से अब तक सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही अंतरिक्ष यात्रा (space travel) का मौका मिला है। इसकी शुरुआत 12 अप्रैल 1961 को रूस के यूरी गागरिन की अंतरिक्ष यात्रा के साथ हुई थी। पिछले 63 सालों से कुछ ज़्यादा की अवधि में मोटे तौर पर दुनिया भर के सिर्फ 600 व्यक्तियों को ही यह मौका मिला है। ये 600 व्यक्ति भी गिने-चुने देशों के रहे हैं। अब तक दुनिया के सिर्फ तीन देश रूस, अमेरिका और चीन ही मानव सहित अंतरिक्ष यान (manned spacecraft) भेज सके हैं। 

अंतरिक्ष यात्रा एक दुर्लभ क्षेत्र है और अंतरिक्ष यात्री (astronaut) के रूप में उन्हीं का चयन होता आया है जो अन्य योग्यताएं पूर्ण करने के साथ-साथ शारीरिक रूप से फिट हों। ऐसा इसलिए क्योंकि अंतरिक्ष में स्वास्थ्य सम्बंधी अनेक खतरों की संभावना रहती है। वहां सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण और भारहीनता (microgravity, weightlessness) की स्थितियों में रहना पड़ता है जिनके कारण शरीर में बदलाव आ जाते हैं। इनके प्रभाव पृथ्वी पर लौट आने के बाद भी काफी समय तक बने रहते हैं। कमज़ोर शरीर या स्वास्थ्य वाले व्यक्ति के लिए अंतरिक्ष यात्रा के स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे घातक हो सकते हैं। अच्छी शारीरिक स्थिति और अच्छे स्वास्थ्य वाले व्यक्तियों को भी अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुने जाने के बाद गहन परीक्षणों और अनुकूलन प्रशिक्षण (adaptation training) से गुज़रना होता है। 

इन सब कारणों से अब तक किसी विकलांग व्यक्ति को अंतरिक्ष यात्रा पर भेजने पर विचार तक नहीं किया गया था। 

अब युरोपियन स्पेस एजेंसी (European Space Agency) ने एक अनोखी पहल करते हुए एक ब्रिटिश डॉक्टर और पैरालिंपियन जॉन मैकफॉल का चयन दुनिया के पहले पैरा-एस्ट्रोनॉट (parastronaut) के रूप में किया है। अंतरिक्ष यात्रा के लिए वे दुनिया के पहले विकलांग उम्मीदवार (disabled astronaut) हैं। 

सेना में करियर बनाने के इच्छुक जॉन मैकफॉल 19 साल की उम्र में थाईलैंड यात्रा के दौरान एक मोटरसाइकिल दुर्घटना का शिकार हो गए थे जिसके कारण उनका दायां पैर घुटने के ऊपर से काटना पड़ा। उन्हें कृत्रिम पैर (prosthetic leg) लगाया गया था। 

रोहेम्पटन हॉस्पिटल की विकलांग पुनर्वास विंग में ‘अवसर’ शीर्षक से उन्होंने एक कविता लिखी थी जिसका समापन उन्होंने इन पंक्तियों के साथ किया था: 

“जो आंसू इस पन्ने को भिगो रहे हैं, 

वे मायूसी के नहीं हैं 

और न ही हताशा या अपराधबोध के हैं, 

अपितु इस बात को नज़रअंदाज़ करने का पागलपन है 

कि मेरा दिल अब भी धड़क रहा है 

और मैं जिस दरवाज़े की ओर कदम बढ़ा रहा हूं 

उसके पीछे एक अवसर (opportunity) खुलने को है।” 

जॉन मैकफॉल अपनी कविता में आपदा में अवसर की बात कर रहे थे। लेकिन सामान्य तौर पर भी विकलांग व्यक्तियों के जीवन में यह शब्द ‘अवसर’ अत्यंत महत्वपूर्ण है। विकसित पश्चिमी देशों और पिछड़े एवं विकासशील देशों के विकलांग व्यक्तियों के जीवन की गुणवत्ता के बीच सारा अंतर सामाजिक दृष्टि से ‘अवसर’ के अंतर के कारण है। विकलांग व्यक्तियों के प्रति समाज में स्वीकार्यता और सकारात्मक रवैया हो और साथ ही समाज में उन्हें गैर-विकलांग व्यक्तियों के समान अवसर (equal opportunity) मिलें और उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो तो वे न सिर्फ अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए समाज के उपयोगी सदस्य बन सकते हैं बल्कि ऐसे कार्य भी कर सकते हैं जिनसे सारे समाज को लाभ मिले। समाज में समानता और समावेशन (inclusion) उनका अधिकार है।

जॉन मैकफॉल ने अपने बुरे दौर में खेलों में भाग लेना शुरू किया था। पैर खोने के आठ साल बाद उन्होंने 2008 के बीजिंग ओलंपिक (Beijing Olympics) में भाग लिया और 100 मीटर रेस में कांस्य पदक (bronze medal) जीता। इसके बाद अपनी पढ़ाई जारी रखते हुए उन्होंने कार्डिफ यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ मेडिसिन (Cardiff University, School of Medicine) से एमबीबीएस (MBBS) की डिग्री हासिल की और ऑर्थोपेडिक सर्जन (orthopedic surgeon) बने। आगे उन्होंने विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान (medical science), खेल आदि कई विषयों में और पढ़ाई की। बीजिंग ओलंपिक के अलावा भी उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भाग लिया और पदक जीते। दौड़ के अलावा कई साहसिक खेलों (adventure sports) में भी वे भाग लेते रहे। विज्ञान में शिक्षा और खेलों से मिली फिटनेस (fitness) ने उन्हें पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में चयन का पात्र बनाया। 

बीजिंग ओलंपिक के बाद क्रिसमस पर उनके पिता ने उन्हें एक एटलस भेंट किया था, जिसमें उन्होंने लिखा था: “बेटा, हमेशा अतिरिक्त प्रयास करो। जीवन तुम्हें पुरस्कृत करेगा।” यह जॉन मैकफॉल का ‘अचेतन मंत्र’ बन गया। 

“पैरा-एस्ट्रोनॉट फिज़िबिलिटी प्रोग्राम” (Parastronaut Feasibility Program) में जॉन मैकफॉल को कक्षा में आपातकालीन प्रक्रियाएं पूरी करने की क्षमता और सूक्ष्म-गुरुत्व (microgravity) में अपने आप को स्थिर रखने की क्षमता के बारे में कई महीनों का कठोर प्रशिक्षण प्रदान किया गया है। यदि उन्हें अंतरिक्ष यात्रा (space mission) पर भेजा जाता है तो वे चालक दल (crew) के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे। साथ ही अंतरिक्ष यात्रा का उनकी विकलांगता और उनके कृत्रिम अंग (prosthetic limb) पर पड़ने वाले प्रभावों का भी परीक्षण किया जाएगा। चूंकि वे चालक दल के अन्य गैर-विकलांग सदस्यों के समान ही अपने कर्तव्यों का पालन करेंगे, इसीलिए वे स्वयं को “पैरा-एस्ट्रोनॉट” की बजाय “एस्ट्रोनॉट” (astronaut) संबोधित किए जाने की वकालत करते हैं। उनका तर्क है कि वे एक “पैरा-सर्जन” और “पैरा-डैड” नहीं बल्कि एक सामान्य चिकित्सक (सर्जन) और सामान्य पिता हैं। 

युरोपियन स्पेस एजेंसी (ESA) ने पैरा-एस्ट्रोनॉट के रूप में जॉन मैकफॉल का चयन गहन वैज्ञानिक परीक्षण (scientific evaluation) के उद्देश्य से किया है। साथ ही ऐसा करके युरोपियन स्पेस एजेंसी ने सामाजिक दृष्टि से एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। एक ओर दुनिया के अधिकांश देशों में जहां विकलांग व्यक्ति समाज में स्वीकार्यता, समानता (equality), अवसर, भागीदारी और समावेश के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर, विकसित यूरोपीय देश, अमेरिका और जापान समावेशी समाज निर्मित करने की दिशा में काफी आगे बढ़ चुके हैं। युरोपियन स्पेस एजेंसी में 22 सदस्य देश (member countries) हैं। एजेंसी द्वारा अंतरिक्ष यात्रा के लिए विकलांग व्यक्ति का चयन करने का अर्थ है ये 22 देश विकलांग व्यक्तियों के प्रति शेष दुनिया से ज़्यादा संवेदनशील, सकारात्मक रवैये वाले और समावेशी समाज (inclusive society) निर्मित करने के प्रति ईमानदार हैं। ये देश न सिर्फ धरती पर बल्कि अंतरिक्ष में भी समावेशन की दिशा में कदम उठा रहे हैं। वैज्ञानिक उन्नति (scientific progress) के लिए किए जा रहे प्रयासों के साथ इस सामाजिक आयाम का समावेशन इस पहल को और अधिक महत्वपूर्ण बनाता है। शेष दुनिया को इससे प्रेरणा लेते हुए कम से कम अपनी धरती पर समावेशी समाज निर्मित करने के प्रति गंभीर हो जाना चाहिए। 

जॉन मैकफॉल की अंतरिक्ष की उड़ान सचमुच हौसलों की उड़ान (flight of courage) होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में आमदनी और दौलत की विषमता

अरविंद सरदाना

भारत में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) पर हाल ही की चर्चित रिपोर्ट में कई चौंकाने वाले और चिंताजनक तथ्य सामने आए हैं। ‘राईज़ ऑफ दी बिलियोनेयर राज’ (Rise of the Billionaire Raj) शीर्षक से प्रकाशित इस रिपोर्ट में सन 1922 से 2023 तक भारत में आय और दौलत की विषमता के बारे यह बताया गया है कि “वर्तमान भारत में विषमता (inequality) अंग्रेज़ों और राजा-महाराजाओं के ज़माने से भी अधिक है।” यह रिपोर्ट नितिन कुमार भारती (Nitin Kumar Bharti) एवं सहयोगियों द्वारा तैयार की गई है और विस्तृत आंकड़ों के आधार पर भारत में पिछले 100 वर्षों में लोगों की आर्थिक दशा उजागर करती है। 

विषमता के क्या मायने हैं? 

रिपोर्ट में प्रस्तुत आंकड़े दर्शाते हैं कि हमारी विकास की योजनाएं (development plans) 10 प्रतिशत अमीरों (rich) को और अमीर कर रही हैं, जबकि बीच के लोगों को विकास का लाभ (benefits of development) नहीं मिल रहा है। बाकी 50 प्रतिशत लोगों को मुफ्त खाने (free food) का सहारा देना उनकी बेबसी की हालत दर्शाता है। विकास का यह दौर जिसमें बेरोज़गारी (unemployment), गरीबी (poverty) और बेबसी (helplessness) का मिश्रण बनता है, समाज में विकराल स्थिति (critical situation) पैदा करता है। यह स्थिति समाज में क्लेश (discord) और घृणा (hatred) को बढ़ा रही है और उम्मीद एवं भाईचारे (hope and brotherhood) को नष्ट कर रही है। 

Text Box: रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
भारत में आज़ादी के बाद 1980 तक विषमता घट रही थी, इसके बाद यह फिर बढ़ना शुरू हुई।
सन 2000 के बाद विषमता बढ़ने की गति बढ़ गई और 2015 के बाद और अधिक तीव्र हो गई।। 
आज के भारत को अरबपति (यूएस डॉलर के हिसाब से) राज इसलिए कहा है गया क्योंकि भारत में जहां वर्ष 1991 में एक अरबपति व्यक्ति था, 2011 में 52 हो गए थे और 2022 में 162 थे। 
2022-23 में भारत के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल आय का 23% और देश की कुल दौलत का 40 प्रतिशत हिस्सा था। यह विषमता राजा-महाराजा के समय से भी अधिक है। 
भारत में जिन्हें ‘मिडिल क्लास’ कहते हैं, वे वास्तव में शीर्ष के 10 प्रतिशत लोग हैं। इनकी आय 1950 में देश की कुल आय का 40 प्रतिशत थी, जो वर्ष 1980 में घट कर 30 प्रतिशत रह गई थी, आज यह 60 प्रतिशत है। वर्तमान में बीच के 40 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा 27 प्रतिशत है, और बाकी 50 प्रतिशत लोगों की आय का हिस्सा केवल 13 प्रतिशत है।
भारत में विषमता इसलिए भी बढ़ी है, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में कॉर्पोरेट टैक्स (corporate tax) में बहुत छूट दी गई है। ऐसा करने के पीछे यह सोच रही है कि कंपनियां (companies) अपने बढ़े हुए मुनाफे (increased profits) से और अधिक निवेश करेंगी। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। फायदा सिर्फ कंपनियों के शेयर धारकों (shareholders) को हुआ। इससे अमीर और अमीर हो गए। इस संदर्भ में उस दौरान कई अर्थशास्त्रियों (economists) ने कहा था कि मूल समस्या बाज़ार में मांग की कमी (market demand) है। यदि मांग कमज़ोर है और कंपनियां ज़्यादा निवेश (more investment) कर भी देती हैं तो वे अपना उत्पादन (production) खपाएंगी कहां? यानी स्पष्ट है कि मांग बढ़ाने पर ही आर्थिक गतिविधियां (economic activities) पटरी पर आ सकती हैं। नोटबंदी (demonetization) और जीएसटी (GST) को बेतुके ढंग से लागू करने और उसके पश्चात कोरोना (coronavirus) के कारण हमारी अर्थव्यवस्था (economy) बहुत कमज़ोर हो गई थी। 

हाल ही में ब्रिटेन की लेबर पार्टी (UK Labour Party) ने एक बहुत चर्चित वीडियो जारी करके समझाया है कि सरकार के लिए अरबपतियों (billionaires) को फायदा देने से बेहतर है आम जनता के लिए खर्च करना। इस धन को जनता आगे खर्च करती है और बाज़ारों में मांग (demand in markets) बढ़ती है। (इस वीडियो को आप इस लिंक पर जाकर देख सकते हैं – [https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/](https://labourlist.org/2019/04/ordinary-people-vs-billionaires-labours-party-political-broadcast/)) 

हमारी सरकार का आर्थिक नज़रिया (economic perspective) अधूरा भी है। जीडीपी (GDP) बढ़ाना ज़रूरी है, लेकिन यदि इसकी व्याख्या ठीक से न की जाए, तो यह अधूरा लक्ष्य (incomplete goal) ही है। कई मुल्कों के इतिहास (history of countries) को खंगालने से यह पता चलता है कि जीडीपी बढ़ने से सरकार के खजाने में इज़ाफा (increase in government revenue) होता है। इन पैसों को यदि लोगों की शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health), एवं रोज़गार (employment) के लिए खर्च किया जाए तो कुछ वर्षों बाद लोगों की क्षमताएं (capabilities) बढ़ती हैं, और रोज़गार से आय (income) भी बढ़ती है। जब व्यापक स्तर पर ऐसा होने लगता है तो समाज में आय और दौलत की विषमता (income and wealth inequality) घटने लगती है। केवल जीडीपी बढ़ाना और लोगों के लिए खर्च करने के तर्क (arguments) को भूल जाना, विषमता को और बढ़ाता है। भारत में ऐसा ही हुआ है और इसी कारण आज विषमता अंग्रेज़ों के राज (British Raj) से भी अधिक है। 

अधिक विषमता (inequality) समाज के ताने-बाने को नष्ट करती है। जिन के पास दौलत (wealth) है यह उनके लिए भी घातक सिद्ध होती है तथा इससे विश्वास (trust) टूटता है। इसके कुछ संकेत हम भारत में देख रहे हैं – 40 प्रतिशत संपत्ति (property) के मालिक 1 प्रतिशत लोग अपनी दौलत का कुछ हिस्सा विदेशों में निवेश (foreign investments) कर रहे हैं। 

इसी संदर्भ में स्वास्थ्य के क्षेत्र में दो शोधकर्ताओं (researchers) ने विकसित देशों के अनुभवों (experiences of developed countries) के प्रमाण के साथ एक पुस्तक प्रकाशित की है –  **दी स्पिरिट लेवल: व्हाय मोर इक्वल सोसायटीज़ आलमोस्ट आल्वेज़ डू बेटर** (The Spirit Level: Why More Equal Societies Almost Always Do Better) (लेखक रिचर्ड विलकिन्सन और केट पिकेट) (authors Richard Wilkinson and Kate Pickett)। यह पुस्तक ज़रूर पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह भ्रम बना हुआ है कि विषमता को दूर करना यानी एक से ले कर दूसरे को देना। विषमता को एक सीमा में रखना सब के लिए अच्छा सिद्ध होता है, जिन के पास है उनके लिए भी! 

हमारे लिए ज़रूरी कदम 

नितिन भारती और उनके सहयोगियों ने अपनी रपट में कुछ सुझाव (suggestions) भी रखे हैं। उनका कहना है कि अरबपति (billionaires) और बहुत अमीर करोड़पति (wealthy millionaires) पर विशेष टैक्स (special tax) लगना चाहिए। भारत में संपत्ति कर (property tax) एक समय था, पर उसे हटा दिया गया है। उसे नए स्वरुप (new form) में लागू करना चाहिए। इन कदमों से सरकार को जो आय प्राप्त हो उसे शिक्षा (education) और स्वास्थ्य (health) पर खर्च करना चाहिए। इन मुद्दों पर बहस हो सकती है पर मुख्य बात है कि हमें अपनी विकास योजनाओं (development plans) की पूर्ण समीक्षा (thorough review) करनी होगी। खासकर रोज़गार (employment) के क्षेत्र में यह समझना होगा कि लघु उद्योग (small industries) और छोटे कारोबार (small businesses) में अधिक लोगों को रोज़गार मिलने की संभावना (employment opportunities) बनती है और इसे विशेष प्रोत्साहन देना ज़रूरी है। यह असंगठित क्षेत्र (informal sector) का हिस्सा है। संगठित क्षेत्र (formal sector) वह है जो भारी मशीन (heavy machinery), उच्च तकनीकी कौशल (technical skills) और पूंजी (capital) पर आधारित होता है। यह उत्पादन की प्रक्रिया (production process) को तो मज़बूत करता है पर बहुत लोगों को रोज़गार (employment) नहीं देता। यहां यह दोहराने की ज़रूरत नहीं है कि शिक्षा (education), स्वास्थ्य (health) एवं भोजन (food) की बुनियादी ज़रूरतों और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के ढांचों (infrastructure) को मज़बूत किए बिना हम रोजगार (employment) के नए मौके एवं कौशल-संपन्न लोग (skilled individuals) नहीं बना पाएंगे। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पॉपकॉर्न की खोज कैसे हुई?

सिनेमा और पॉपकॉर्न का रिश्ता तो जाना-माना है। लेकिन कभी आपने सोचा है कि पॉपकॉर्न की खोज कैसे और कब हुई?

वैसे तो भोजन से जुड़े इन रहस्यों को सुलझाना बड़ा मुश्किल होता है। क्योंकि पुरातत्ववेत्ताओं के लिए अतीत में झांकने की एकमात्र खिड़की अतीत में छूटे हुए अवशेष होते हैं, खासकर उन मामलों में जब लोगों ने चीज़ें लिखकर दर्ज नहीं की हों।

प्राचीन लोग प्राय: लकड़ी, जानवरों के अंगों से बनी सामग्री या कपड़े इस्तेमाल करते थे जो बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और ये सब खुदाई में मिलना दुर्लभ है; सबूत के तौर पर खुदाई में अक्सर मिट्टी के बर्तन या पत्थर के औज़ार जैसी कठोर चीज़ें ही मिलती हैं। लेकिन नरम चीज़ें – जैसे भोजन के बचे हुए हिस्से – मिलना बहुत मुश्किल है। बिरले ही, कुछ शुष्क जगहों पर कोई नरम चीज़ संरक्षित मिल जाती है। या फिर किसी जली हुई चीज़ के अवशेष सलामत मिलने की संभावना रहती है।

सौभाग्य से, मक्के में कुछ कठोर भाग होते हैं जैसे कर्नेल खोल (भुट्टा या पॉपकॉर्न खाते वक्त जो आपके दांतों में फंस जाता है वह हिस्सा)। फिर, खाने के पहले हम इसे भूनते या सेंकते हैं इसलिए कभी-कभी यह जल भी जाता है। और इसका जलना पुरातत्वविदों को प्रमाण के रूप में मिलकर फायदा पहुंचा जाता है। और सबसे बड़ी बात यह है कि मक्के सहित कुछ पौधों में छोटे, सख्त हिस्से होते हैं जिन्हें फायटोलिथ कहा जाता है, जो हज़ारों सालों तक सलामत रह सकते हैं।

अब, यह तो हम जानते हैं कि मक्का पिछले 9000 साल से हमारी खेती का हिस्सा है। इसकी खेती सबसे पहले वर्तमान के मेक्सिको में शुरू हुई थी। तब के किसानों ने एक तरह की घास, टेओसिन्टे, को मक्का में विकसित किया था। खेती से पहले लोग जंगली टेओसिन्टे इकट्ठा करते थे और उसके बीज खाते थे, जिसमें बहुत सारा स्टार्च होता था। खेती के लिए उन्होंने हमेशा सबसे बड़े बीजों वाले टेओसिन्टे चुने और उगाए। इस चयन से समय के साथ टेओसिन्टे से मक्का प्राप्त हुआ।

मक्के की भी कई किस्में हैं। इनमें से ज़्यादातर किस्में गर्म करने पर पॉप हो जाती हैं या फूट जाती हैं। लेकिन इसकी एक किस्म, जिसे वास्तव में ‘पॉपकॉर्न’ कहा जाता है, सबसे अच्छे से पॉपकॉर्न बनाती है। पेरू से 6700 साल प्राचीन पॉप होने वाले मक्के के फायटोलिथ और जले हुए दानों के अवशेष मिले हैं।

ऐसा अनुमान है कि पॉपिंग मक्के की खोज दुर्घटनावश हुई होगी। खाना पकाते समय कुछ दाने आग में गिर गए होंगे, और खाना बनाने वाले ने नए व्यंजन बनाने के इस तरीके पर गौर कर लिया होगा। और फिर, नए व्यंजन के अलावा पॉपकॉर्न बना कर रखना मक्के को लंबे समय तक सहेजने में आसानी देता होगा।

दरअसल, आग में तपाकर दाने से पानी सुखाने से इसे जल्दी खराब होने से बचाया जा सकता है। गर्म करके सुखाते वक्त दाने का पानी भाप बनकर निकलता है, यही पॉपकॉर्न को पॉप करता है। तो हो सकता है कि सिनेमा हॉल का यह साथी अनाज को लंबे समय तक सुरक्षित रखने की कोशिश का परिणाम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन चूल्हों से काल निर्धारण

स्पेन के एक पुरातात्विक स्थल एल साल्ट पर पुरातत्वविदों को निएंडरथल मानव के लगभग 52,000 साल पुराने साक्ष्य मिले थे; पत्थर के औज़ार, जानवरों की हड्डियां, चूल्हे और मानव मल का (सबसे प्राचीन ज्ञात) जीवाश्म। ये साक्ष्य मिट्टी की एक ही परत में मिले थे। लिहाज़ा, वैज्ञानिकों का मानना था कि निएंडरथल (होमो निएंडरथलेंसिस) मानव लगभग एक ही समय पर यहां आए थे, और अपने पीछे ये निशान छोड़ गए थे।

लेकिन साक्ष्यों या घटनाओं को इस तरह मोटे तौर पर एक ही समय का कहने से वास्तविक इतिहास दबा ही रहता है। दूसरा, प्राचीन समय में संभवत: एक लंबी अवधि में या समय के साथ धीरे-धीरे घटित हुई घटना, या विकसित हुई तकनीक एक चुटकी में हुए चमत्कार की तरह लगने लगती है।

इन्हीं कारणों के चलते बर्गोस विश्वविद्यालय की पुरातत्वविद एंजेला हेरेजोन-लैगुनिला ने इस स्थल पर मिले चूल्हों का सटीक कालनिर्धारण करने का सोचा। इसके लिए उन्होंने चूल्हों में बचे चुंबकीय खनिजों (अवशेषों) का विश्लेषण किया। दरअसल, चूल्हों के बुझने पर राख या अवशेष में मौजूद चुंबकीय खनिजों में पृथ्वी के तत्कालीन चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दर्ज हो जाती है और बनी रहती है जब तक कि उस पदार्थ को फिर से एक निश्चित तापमान से ऊपर तपाया न जाए।

विश्लेषण के लिए शोधकर्ताओं ने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए हालिया बदलावों के आधार पर लगभग 52,000 साल  पहले पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में हुए सूक्ष्म परिवर्तनों का मॉडल तैयार किया। और इस जानकारी की मदद से यह अनुमान लगाया कि कौन से चूल्हे अंतिम बार कब उपयोग किए गए थे।

नेचर पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि इस स्थल पर सबसे पहली और सबसे आखिरी बार उपयोग किए गए चूल्हों के बीच कम से कम 200 साल का अंतर था। इसमें भी अलग-अलग चूल्हों के इस्तेमाल होने के बीच दशकों लंबा फासला था। इससे पता चलता है कि निएंडरथल मानव की कई पीढ़ियां लंबे समय तक इस जगह पर आती रहीं थीं।

ये नतीजे वैज्ञानिकों को पत्थर के औज़ारों सहित अन्य मानव साक्ष्यों को नए सिरे से समझने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। काल निर्धारण की इस तकनीक के व्यापक इस्तेमाल से प्राचीन मनुष्यों के रहने, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने और समूहों में संगठित होने एवं औज़ारों के इस्तेमाल बारे में नए सिरे से, बारीकी से जानकारी मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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दाएं-बाएं हाथ की वरीयता क्या जीन्स तय करते हैं?

यह कैसे तय होता है कि हम अपनी सुबह की चाय या कॉफी का कप किस हाथ से उठाएंगे या मंजन किस हाथ से करेंगे? हाल ही में शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस में 3,50,000 से अधिक व्यक्तियों के जेनेटिक डैटा की पड़ताल के नतीजे प्रकाशित किए हैं, जो इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करते हैं कि वह क्या है जो यह तय करता है कि हम दाएं हाथ से काम करने में सहज होंगे या बाएं हाथ से। इस पड़ताल में उन्हें ट्यूबुलिन प्रोटीन की भूमिका का पता चला है जो कोशिकाओं के आंतरिक कंकाल की रचना करता है।
दरअसल मानव विकास में भ्रूणावस्था के दौरान मस्तिष्क के दाएं और बाएं हिस्से की वायरिंग अलग-अलग तरह से होती है, जो आंशिक रूप से जन्मजात व्यवहारों को निर्धारित करती है। जैसे कि हम मुंह में किस ओर रखकर खाना चबाएंगे, आलिंगन किस ओर से करेंगे, और हमारा कौन-सा हाथ लगभग सभी कामों को करेगा या प्रमुख होगा। अधितकर लोगों का दायां हाथ प्रमुख हाथ होता है। लेकिन लगभग 10 प्रतिशत मनुष्यों का बायां हाथ प्रमुख होता है।
चूंकि अधिकांश लोगों में एक हाथ की तुलना में दूसरे हाथ के लिए स्पष्ट रूप से प्राथमिकता होती है, प्रमुख हाथ से सम्बंधित जीन का पता लगने से मस्तिष्क में दाएं-बाएं विषमता का जेनेटिक सुराग मिल सकता है।
पूर्व में हुए अध्ययनों में यूके बायोबैंक में सहेजे गए जीनोम डैटा की पड़ताल कर 48 ऐसे जेनेटिक रूपांतर खोजे गए थे जो बाएं हाथ के प्रधान होने से सम्बंधित थे। ये ज़्यादातर डीएनए के गैर-कोडिंग हिस्सों, यानी उन हिस्सों में पाए गए थे जो किसी प्रोटीन के निर्माण का कोड नहीं हैं। इनमें वे हिस्से भी थे जो ट्यूबुलिन से सम्बंधित जीन की अभिव्यक्ति को नियंत्रित कर सकते थे। ट्यूबलिन प्रोटीन लंबे, ट्यूब जैसे तंतुओं में संगठित होते हैं जिन्हें सूक्ष्मनलिकाएं कहा जाता है, जो कोशिकाओं के आकार और आंतरिक गतियों को नियंत्रित करती हैं।
लेकिन अब नेदरलैंड के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर साइकोलिंग्विस्टिक्स के आनुवंशिकीविद और तंत्रिका वैज्ञानिक क्लाइड फ्रैंक्स और उनकी टीम ने यूके बायोबैंक में संग्रहित जीनोम डैटा में प्रोटीन-कोडिंग हिस्से में जेनेटिक रूपांतर खोजे हैं। इसमें 3,13,271 दाएं हाथ प्रधान और 38,043 बाएं हाथ प्रधान लोगों का डैटा था। विश्लेषण में उन्हें TUBB4B ट्यूबुलिन जीन में एक रूपांतर मिला, जो दाएं हाथ प्रधान लोगों की अपेक्षा बाएं हाथ प्रधान लोगों में 2.7 गुना अधिक था।
माइक्रोट्यूब्यूल्स हाथ की वरीयता को प्रभावित कर सकते हैं क्योंकि वे सिलिया – कोशिका झिल्ली में रोमिल संरचना – बनाते हैं जो विकास के दौरान एक असममित तरीके से द्रव प्रवाह को दिशा दे सकती है। ये निष्कर्ष यह पता करने में मदद कर सकते हैं कि कैसे सूक्ष्मनलिकाएं प्रारंभिक मस्तिष्क विकास को ‘असममित मोड़’ दे सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जेरोसाइंस: बढ़ती उम्र से सम्बंधित विज्ञान – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय (जहां से मैंने उच्च शिक्षा प्राप्त की) के महामारी विज्ञानी डॉ. डेनियल बेल्स्की ने एक नया शब्द गढ़ा है ‘जेरोसाइंस’, जिसका अर्थ है बुढ़ापा या बढ़ती उम्र सम्बंधी विज्ञान। इसके तहत, उन्होंने एक अनोखा रक्त परीक्षण तैयार किया है जो यह बताता है कि कोई व्यक्ति किस रफ्तार से बूढ़ा हो रहा है।
उनके दल ने एक विधि विकसित की है जिसमें वरिष्ठजनों के डीएनए में एक एंज़ाइम के ज़रिए मिथाइल समूहों के निर्माण का अध्ययन किया जाता है। उन्होंने पाया है कि डीएनए पर मिथाइल समूहों का जुड़ना (मिथाइलेशन) उम्र बढ़ने के प्रति संवेदनशील है। इस एंज़ाइम को अक्सर ‘जेरोज़ाइम’ कहा जाता है। (मिथाइलेशन डीएनए और अन्य अणुओं का रासायनिक संशोधन है जो तब होता है जब कोशिकाएं विभाजित होकर नई कोशिका बनाती हैं।)
जेरोज़ाइम को नियंत्रित करने के लिए कई शोध समूह औषधियों और अन्य तरीकों पर काम कर रहे हैं। ये प्रयास किसी भी व्यक्ति की बढ़ती उम्र को कैसे प्रभावित करते हैं? एक शोध समूह ने बताया है कि मेटफॉर्मिन नामक औषधि बढ़ती उम्र को लक्षित करने का एक साधन है (सेल मेटाबॉलिज़्म, जून 2016)। एक अन्य समूह ने पाया है कि यदि हम TORC1 एंजाइम को बाधित कर देते हैं, तो यह बुज़ुर्गों में प्रतिरक्षा को बढ़ा सकता है और संक्रमणों को कम कर सकता। हाल ही में, जोन बी. मेनिक और उनके दल ने नेचर एजिंग पत्रिका में प्रकाशित अपने शोध पत्र में मानव रोगों के पशु मॉडल्स की उम्र व जीवित रहने पर रैपामाइसिन औषधि के प्रभावों की समीक्षा की है। उन्होंने बताया है कि कैसे हम इस औषधि के अवरोधकों को वृद्धावस्था के रोगों की मानक देखभाल में शामिल कर सकते हैं।
डॉ. बेल्स्की के समूह ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि (अमीर-गरीब, ग्रामीण-शहरी) के लोगों में डीएनए मिथाइलेशन के स्तर का भी अध्ययन किया और पाया कि सामाजिक-आर्थिक स्तर की प्रतिकूल परिस्थितियां भी इसमें भूमिका निभाती हैं।
कोलंबिया एजिंग सेंटर ने पाया है कि संतुलित आहार शोथ को कम करके मस्तिष्क के स्वास्थ्य की देखभाल करता है, आवश्यक पोषक तत्वों की आपूर्ति करके उचित रक्त प्रवाह बनाए रखता है जो संज्ञानात्मक कार्य में सहायक होता है। वेबसाइट healthline.com बात को आगे बढ़ाते हुए बताती है कि प्रोटीन के स्वास्थ्यवर्धक स्रोत, स्वास्थ्यकर वसा और एंटीऑक्सीडेंट से भरपूर खाद्य पदार्थ, जैसे सब्ज़ियां, तेल से भरपूर खाद्य पदार्थ और बहुत सारे फल स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं।
भारत में हमारे लिए यह और भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि हमारे यहां (143 करोड़ की कुल जनसंख्या में से) 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की कुल संख्या लगभग 10 करोड़ है। healthline.com का सुझाव है कि (जंतु और वनस्पति) प्रोटीन, पौष्टिक अनाज (गेहूं, चावल, रागी, बाजरा), तेल, फल और सॉफ्ट ड्रिंक्स स्वस्थ बुढ़ाने में मदद करते हैं। ये मांसाहारियों और शाकाहारियों दोनों के लिए आसानी से उपलब्ध हैं।
व्यायाम से रोकथाम
स्टैनफर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने पाया है कि घायल या बूढ़े चूहों की शक्ति बढ़ाने वाली एक औषधि तंत्रिकाओं और मांसपेशीय तंतुओं के बीच कड़ियों को बहाल करती है। यह औषधि उम्र बढ़ने से जुड़े जेरोज़ाइम, 15-PGDH, की गतिविधि को अवरुद्ध करती है। यह जेरोज़ाइम उम्र बढ़ने के साथ और न्यूरोमस्कुलर रोग के चलते मांसपेशियों में कुदरती रूप से बढ़ता है। लेकिन यह औषधि देने पर उम्रदराज़ चूहों की शारीरिक गतिविधि फिर से बढ़ गई थी।
मिनेसोटा का मेयो क्लीनिक नियमित शारीरिक गतिविधि के सात लाभ बताता है। ये लाभ हैं: वज़न पर नियंत्रण; स्ट्रोक, उच्च रक्तचाप, टाइप-2 डायबिटीज़ और कैंसर जैसी स्थितियों और बीमारियों से लड़ता है; मूड में सुधार; ऊर्जा देता है; अच्छी नींद लाता है; यौन जीवन बेहतर करता है; और कहना न होगा कि यह मज़ेदार और सामाजिक हो सकता है। जैसे दूसरों से मेल-जोल होना, घूमना या खेलना। हम सभी, विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकों को, व्यायाम से बहुत लाभ होगा, और इस प्रकार जेरोज़ाइम बाधित होगा।
संगीत भी जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है और यह डिमेंशिया (स्मृतिभ्रंश) का इलाज भी हो सकता है! 2020 में, स्पेन के टोलेडो के एक समूह ने एक शोध पत्र प्रकाशित किया था, जिसका निष्कर्ष था – संगीत डिमेंशिया के उपचार का एक सशक्त तरीका हो सकता है। और हाल ही में, स्पेन के ही एक अन्य समूह द्वारा प्रकाशित पेपर का शीर्षक है: संगीत बढ़ती उम्र से सम्बंधित संज्ञानात्मक विकारों में परिवर्तित जीन अभिव्यक्ति की भरपाई कर देता है (Music compensates for altered gene expression in age-related cognitive disorders)। यह पेपर बताता है कि संगीत हमारे जेरोज़ाइम को नियंत्रित कर सकता है। तो दोस्तों! गाना गाएं या गा नहीं सकते तो कम से कम सुनें ज़रूर! (स्रोत फीचर्स)

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जनसंख्या वृद्धि उम्मीद से अधिक तेज़ी से गिर रही है

मानव आबादी का अस्तिस्व बनाए रखने के लिए ज़रूरी है कि प्रति प्रजननक्षम व्यक्ति के 2.1 बच्चे पैदा हों। इसे प्रतिस्थापन दर कहते हैं। काफी समय से जननांकिकीविदों का अनुमान था कि कुछ सालों के बाद प्रजनन दर इस जादुई संख्या (2.1) से कम रह जाएगी।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग (UNPD) की 2022 की एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि यह पड़ाव वर्ष 2056 में आएगा। 2021 में विट्गेन्स्टाइन सेंटर फॉर डेमोग्राफी एंड ग्लोबल ह्यूमन कैपिटल ने इस पड़ाव के 2040 में आने की भविष्यवाणी की थी। लेकिन दी लैंसेट में प्रकाशित हालिया अध्ययन थोड़ा चौंकाता है और बताता है कि यह मुकाम ज़्यादा दूर नहीं, बल्कि वर्ष 2030 में ही आने वाला है।

देखा जाए तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि जनसंख्या नियंत्रण पर जागरूकता लाने के प्रयास, लोगों के शिक्षित होने, बढ़ती आय, गर्भ निरोधकों तक बढ़ती पहुंच जैसे कई सारे कारकों की वजह से कई देशों में प्रजनन दर में काफी गिरावट आई है, और यह प्रतिस्थापन दर से भी नीचे पहुंच गई है। मसलन, संयुक्त राज्य अमेरिका की प्रजनन दर 1.6 है, चीन की दर 1.2 है और ताइवान की 1.0 है। लेकिन कई देशों, खासकर उप-सहारा अफ्रीका के गरीब देशों, में यह दर अभी भी काफी अधिक है: नाइजर की 6.7, सोमालिया की 6.1 और नाइजीरिया की 5.1।

चूंकि हर देश की प्रजनन दर बहुत अलग-अलग हो सकती है, ये रुझान विश्व को दो हिस्सों में बांट सकते हैं: कम प्रजनन वाले देश, जहां युवाओं की घटती संख्या के मुकाबले वरिष्ठ नागरिकों की आबादी अधिक होगी; और उच्च-प्रजनन वाले देश, जहां निरंतर बढ़ती जनसंख्या विकास में बाधा पहुंचा सकती है।
यहां यह स्पष्ट करते चलें कि प्रजनन दर का प्रतिस्थापन दर से नीचे पहुंच जाने का यह कतई मतलब नहीं है कि वैश्विक जनसंख्या तुरंत कम हो जाएगी। ऐसा होने में लगभग 30 और साल लगेंगे।

इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHME) के शोधकर्ताओं ने अपने मॉडल में प्रजनन दर कब प्रतिस्थापन दर से नीचे जाएगी, इस समय का अनुमान इस आधार पर लगाया है कि प्रत्येक जनसंख्या ‘समूह’ (यानी एक विशिष्ट वर्ष में पैदा हुए लोग) अपने जीवनकाल में कितने बच्चों को जन्म देंगे। इस तरीके से अनुमान लगाने में लोगों के अपने जीवनकाल में देरी से बच्चे जनने के निर्णय लेने जैसे परिवर्तन पता चलते हैं। इसके अलावा IHME के इस मॉडल ने अनुमान लगाने में लोगों की गर्भ निरोधकों और शिक्षा तक पहुंच जैसे चार कारकों को भी ध्यान में रखा है जो प्रजनन दर को प्रभावित कर सकते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है यह पड़ाव चाहे कभी भी आए, देशों की प्रजनन दर में बढ़ती असमानता (अन्य) असमानताओं को बढ़ाने में योगदान दे सकती है। मध्यम व उच्च आय के साथ निम्न प्रजनन दर वाले देशों में प्रजनन दर प्रतिस्थापन दर से कम होने से वहां काम करने वाले लोगों की कमी पड़ सकती है और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों, राष्ट्रीयकृत स्वास्थ्य बीमा और सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों पर दबाव पड़ सकता है। वहीं, निम्न आय के साथ उच्च प्रजनन दर वाले देशों के आर्थिक रूप से और अधिक पिछड़ने की संभावना बनती है। साथ ही, बहुत कम संसाधनों के साथ ये देश बढ़ती आबादी को बेहतर स्वास्थ्य, कल्याण और शिक्षा मुहैया नहीं करा पाएंगे। बहरहाल, इस तरह की समस्याओं को संभालने के लिए हमें समाधान खोजने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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एंथ्रोपोसीन युग का प्रस्ताव खारिज

हाल ही में इंटरनेशन कौंसिल ऑफ स्ट्रेटीग्राफी ने वह प्रस्ताव नामंज़ूर कर दिया है जिसमें पृथ्वी के वर्तमान काल को एंथ्रोपोसीन काल घोषित करने का आग्रह किया गया था। गौरतलब है कि पृथ्वी के इतिहास को विभिन्न कालों और युगों में बांटा गया है। वर्तमान युग को होलोसीन कहा जाता है और इसकी शुरुआत पिछले हिमयुग की समाप्ति के बाद करीब 11,700 वर्ष पहले हुई मानी जाती है। प्रस्ताव यह था कि इस युग को अब समाप्त माना जाए और 1950 से एक नए युग की शुरुआत मानकर इसे एंथ्रोपोसीन नाम दिया जाए।

प्रस्ताव के मूल में बात यह थी कि वर्तमान युग ज़बर्दस्त मानव प्रभाव का युग है जिसमें इंसानी क्रियाकलाप ने पृथ्वी के हर पक्ष को कुछ इस तरह प्रभावित किया है कि अब लौटकर जाना मुश्किल है। इस प्रभाव को हर आम-ओ-खास अपने आसपास देख सकता है। लेकिन इंटरनेशनल स्ट्रेटीग्राफी आयोग ने इस नामकरण को अस्वीकार कर दिया है।

आयोग की सबसे प्रमुख आपत्ति यह थी कि इस नए युग की शुरुआत की कोई तारीख निर्धारित करना मुश्किल है क्योंकि इसका कोई भौतिक चिंह नहीं है। प्रस्ताव के समर्थकों का मत है कि इस युग को 1950 के दशक से शुरू माना जाना चाहिए। भौतिक प्रमाण के रूप में उन्होंने कनाडा की क्रॉफोर्ड झील में जमा कीचड़़ की लगभग 10 से.मी. की परत को सामने रखा था जिसमें जीवाश्म ईंधन और उर्वरकों  के उपयोग तथा परमाणु विस्फोटों के चिंह मिलते हैं। लेकिन आयोग को यह कोई पुख्ता प्रमाण नहीं लगा।

वैसे प्रस्ताव के संदर्भ में कई भूवैज्ञानिकों का भी सवाल है कि क्यों जीवाश्म ईंधन, उर्वरकों के उपयोग और परमाणु परीक्षणों को ही मानव प्रभाव का लक्षण माना जाए। हज़ारों वर्ष पहले शुरू हुई खेती को या करीब 400 वर्ष युरोपीय लोगों के नई दुनिया में प्रवास के बाद आए व्यापक परिवर्तनों को क्यों नहीं?

प्रस्ताव के विरोधियों की एक आपत्ति यह रही है कि प्रस्ताव देने वाले समूह (एंथ्रोपोसीन वर्किंग ग्रुप) ने शुरू से ही मीडिया का उपयोग किया जबकि तकनीकी रूप से उन्होंने प्रस्ताव बहुत देर से दिया। कई वैज्ञानिकों का मत है कि वर्किंग ग्रुप का यह हठ था कि वे एंथ्रोपोसीन को एक युग के रूप में ही परिभाषित करवाना चाहते हैं। कई वैज्ञानिकों का सुझाव है कि इसे युग की बजाय एक घटना के रूप में दर्शाना बेहतर होगा। उदाहरण के लिए जब पृथ्वी पर सायनोबैक्टीरिया पनपे तो उन्होंने प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से वातावरण को ऑक्सीजन प्रचुर बना दिया था जिसने पृथ्वी के जीवन को गहराई में प्रभावित किया था। इसे ग्रेट ऑक्सीकरण घटना कहते हैं। इसी की तर्ज पर एंथ्रोपोसीन घटना कहा जा सकता था।

बहरहाल, अब वर्किंग ग्रुप को फिर से प्रस्ताव देने के लिए 10 साल की प्रतीक्षा करनी है क्योंकि आयोग का यही नियम है। अलबत्ता, कई वैज्ञानिकों तथा समाज शास्त्रियों, मानव वैज्ञानिकों वगैरह को लगता है कि चाहे आयोग ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया हो लेकिन यह एक महत्वपूर्ण नज़रिया पेश करता है जो हमें आजकल की दुनिया के बारे में सोचने की एक दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

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