आम तौर पर झपकी को विलासिता या आलस्य का पर्याय माना जाता है। लेकिन निद्रा से सम्बंधित एक हालिया अध्ययन में वैज्ञानिकों ने दिन में झपकी के लाभों और इसकी आदर्श अवधि के बारे में कुछ दिलचस्प पहलू उजागर किए हैं।
इसमें 20-30 मिनट की छोटी झपकियों को संज्ञानात्मक विकास के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। ये छोटी झपकियां मूड सुधारती हैं, याददाश्त मज़बूत करती हैं, सूचना प्रोसेसिंग तेज़ करती हैं और चौकन्नापन बढ़ाती हैं। इनसे अप्रत्याशित घटनाओं की स्थिति में त्वरित प्रतिक्रिया की क्षमता भी बढ़ती है। दिलचस्प बात यह है कि 10 मिनट की गहरी झपकी भी, क्षण भर के लिए ही सही, दिमाग को तरोताज़ा कर सकती है, जबकि थोड़ी लंबी झपकी इन संज्ञानात्मक लाभों को कुछ देर तक बनाए रखती है।
गौरतलब है कि झपकी की इच्छा दो महत्वपूर्ण प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित होती है: एक समस्थापन निद्रा दबाव (एचएसपी) और दैनिक शारीरिक लय। दबाव तब पैदा होता है जब हम अधिक देर तक जागते हैं। ऐसे में हमारे शरीर की प्राकृतिक लय अक्सर दोपहर के दौरान सतर्कता में कमी लाती है। नतीजतन कुछ लोगों को थोड़ी राहत के लिए झपकी लेना पड़ता है। इस मामले में जेनेटिक कारक लोगों की झपकी लेने की प्रवृत्ति को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कुछ लोग आदतन झपकी लेते हैं और अन्य तब जब वे गंभीर रूप से नींद से वंचित हो जाते हैं।
3000 लोगों पर किए गए अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन के समय 30 मिनट से अधिक सोने में सावधानी बरतनी चाहिए। यह तो स्पष्ट है कि झपकी संज्ञानात्मक लाभ प्रदान करती है लेकिन यह गहन निद्रा के चरणों की शुरुआत भी करती है जिससे आलस आता है। इसके अलावा, लंबी झपकी को स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतों से भी जोड़ा गया है, जिनमें मोटापा, उच्च रक्तचाप और वसा कम करने की बाधित क्षमता शामिल हैं। कई मामलों में इसे अल्ज़ाइमर जैसी बीमारियों से भी जोड़कर देखा गया है।
इस स्थिति में झपकी के पैटर्न की पहचान करना महत्वपूर्ण हो जाता है। बार-बार और लंबे समय तक (एक घंटे से अधिक) झपकी लेना कई स्वास्थ्य समस्याओं या मस्तिष्क की सूजन में वृद्धि का संकेत हो सकता है। इसके लिए चिकित्सीय परामर्श लेना चाहिए। वैसे संक्षिप्त निद्रा रात की नींद को नुकसान पहुंचाए बिना आवश्यक स्फूर्ति प्रदान कर सकती है। छोटी झपकी लेना सतर्कता, एकाग्रता बढ़ाकर खुश रहने की कुंजी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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आम उम्र को जीवन के वर्षों की संख्या से जोड़कर देखा जाता है। लेकिन, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन ने इस धारणा को गलत साबित किया है। इस अध्ययन के अनुसार हमारे शरीर के भीतर के अंगों की उम्र में अलग-अलग दर से बढ़ती है जो हमारी कैलेंडर उम्र से काफी अलग होती है। इस निष्कर्ष से हमारे स्वास्थ्य आकलन और प्रबंधन के तरीके में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता है।
इस अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने 50 वर्ष और उससे अधिक आयु के 5500 से अधिक व्यक्तियों की जांच की जो किसी सक्रिय बीमारी या असामान्य जैविक संकेतक से ग्रसित नहीं थे। जांच में विशिष्ट अंगों से जुड़े प्रोटीन्स के आधार पर हर अंग की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया गया। शोधकर्ताओं ने रक्त में लगभग 900 ऐसे प्रोटीन्स पाए जो किसी विशिष्ट अंग से सम्बंधित हैं। इस तरह एक निश्चित उम्र के लिए अपेक्षित स्तर की तुलना में इन प्रोटीनों के स्तर में परिवर्तन सम्बंधित अंग की तेज़ी से बढ़ती उम्र के संकेत देता है। किसी अंग की जैविक उम्र और उसकी कैलेंडर उम्र के बीच विसंगतियों के आधार पर भविष्य के स्वास्थ्य जोखिमों का पता लगाया जा सकता है।
इस अध्ययन के हिसाब से विचार करें तो जिन व्यक्तियों का हृदय तेज़ी से बूढ़ा हो रहा है, उनमें उन लोगों की तुलना में हृदयाघात का खतरा दुगना पाया गया है, जिनका हृदय सामान्य दर से बूढ़ा हो रहा है। इसी तरह, मस्तिष्क में बढ़ती उम्र का ठोस सम्बंध संज्ञानात्मक गिरावट और अल्ज़ाइमर रोग की उच्च संभावना के साथ पाया गया। इसके अलावा, जब गुर्दे समय से पहले बूढ़े हो जाते हैं तो यह भविष्य में उच्च रक्तचाप और मधुमेह का एक मज़बूत संकेत देते हैं।
हालांकि, इस अध्ययन की काफी सराहना की जा रही है लेकिन कुछ विशेषज्ञ ज़्यादा साफ समझ के लिए और अधिक शोध पर ज़ोर देते हैं। इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इस अध्ययन से व्यक्ति-आधारित निदान का रास्ता मिलता है जिसमें एक संभावित रक्त परीक्षण की मदद से आसन्न स्वास्थ्य समस्याओं का अनुमान लगाया जा सकता है। यह दृष्टिकोण व्यक्ति-आधारित चिकित्सा के बढ़ते क्षेत्र के अनुरूप है।
वाइस-कोरे मानते हैं कि यह खोज भविष्य में तेज़ी से बढ़ती उम्र को उलटने या धीमा करने में काफी सहायक होगी। हालांकि, उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया है कि उम्र बढ़ना केवल एक अंग की कहानी नहीं है। यह तो जीवनशैली, पर्यावरण, आहार और समग्र स्वास्थ्य सहित कई परस्पर जुड़े कारकों द्वारा निर्मित एक जटिल संरचना है। यह शोध एक ऐसे भविष्य का मार्ग प्रदान करता है जहां कोई भी हस्तक्षेप व्यक्ति-आधारित है और बीमारियों की जड़ें जमने से पहले ही अपना काम शुरू कर देता है। यह एक ऐसी शुरुआत है जो आने वाले वर्षों में स्वास्थ्य के प्रति हमारी धारणा और प्रबंधन को नया आकार दे सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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पूर्व में प्रकाशित एक लेख व्यायाम दिमाग को जवान रख सकता है में हमने चर्चा की थी कि व्यायाम हमारे मस्तिष्क को युवा रखता है। उसमें यह भी बात हुई थी कि नियमित व्यायाम और उचित आहार मस्तिष्क को युवा रखने के लिए महत्वपूर्ण हैं; ठीक उसी तरह जैसे कोई नई भाषा सीखने या कोई वाद्य यंत्र बजाना सीखने की प्रवृत्ति।
हाल ही में युनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन के जे. एम. ब्लोडेट और उनके साथियों ने युरोपियन हार्ट जर्नल में एक अध्ययन प्रकाशित किया है जिसके अनुसार वयस्कों में मृत्यु का प्रमुख कारण हृदय और रक्त-परिसंचरण सम्बंधी रोग हैं। दुनिया भर के 15,000 से अधिक लोगों का अध्ययन करने के बाद उनका सुझाव है कि मध्यम से द्रुत गति की गतिविधि फायदेमंद होती है। इनमें दौड़ना, तेज़ी से सीढ़ियां चढ़ना और लगभग एक घंटे तक फुर्तीला व्यायाम करना जैसी साधारण गतिविधियां शामिल हैं। हममें से बहुत से लोग ऑफिस में काम के दौरान पूरा दिन अपनी मेज़ पर बैठे रहते हैं, और फिर घर पर टीवी देखते या लैपटॉप का उपयोग करते समय भी। इसलिए, हमारे हृदय और स्वास्थ्य में सुधार के लिए उपरोक्त आसान गतिविधियों के अलावा खेल या तैराकी करना भी उपयोगी होगा। इसके अलावा ‘कार्यात्मक भोजन’ (जिनका उल्लेख पिछले लेख कार्यात्मक खाद्य पदार्थों के स्वास्थ्य लाभ में किया गया था) भी हमारे हृदय और स्वास्थ्य के लिए अच्छा है।
अच्छीनींद
न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया युनिवर्सिटी के शोधकर्ता बताते हैं कि अच्छी नींद भी हमारे दिल के लिए अच्छी है। एकाग्रता, नया सीखने और याददाश्त जैसे संज्ञानात्मक कौशल को बरकरार रखने में नींद मदद करती है। वहीं उचटती (या अल्प या खराब) नींद अपेक्षाकृत मामूली तनावों से भी निपटना अधिक मुश्किल बना सकती है और दुनिया को सटीक रूप से समझने की हमारी क्षमता को प्रभावित कर सकती है। इसके अलावा, रोचेस्टर विश्वविद्यालय के शोधकर्ता बताते हैं कि नींद वयस्क मस्तिष्क से चयापचय सफाई को प्रेरित करती है; दूसरे शब्दों में, यह तंत्रिका-विष कचरे (जैसे बीटा-एमिलॉयड नामक प्लाक जो मस्तिष्क की विभिन्न कोशिकाओं के बीच संचार को बाधित करता है) को हटा देती है जो दिन भर की गहमा-गहमी के दौरान जमा हो जाते हैं।
हम वयस्कों को हर रात लगभग सात घंटे की नींद की ज़रूरत होती है। तो लाइट बंद कर दें, किताब पढ़ना बंद कर दें, टीवी बंद दें और अपने सेलफोन को साइलेंट मोड में रख दें, और विषाक्त पदार्थों की सफाई होने दें। और यदि हम सेवानिवृत्त लोग दोपहर के भोजन के बाद सोते हैं, तो हमें लगभग एक घंटे ही सोना चाहिए और फिर तेज़ चाल में सीढ़ियां चढ़ना चाहिए और एक या दो घंटे व्यायाम करना चाहिए। जो लोग खेल खेलते हैं वे शाम को भी ऐसा कर सकते हैं।
सोते समय, कौन-सी शारीरिक-स्थिति (मुद्रा) आपके लिए सबसे अच्छी है? इस बारे में स्लीप हेल्थ नामक वेबसाइट निम्नलिखित सलाह देती है। दाईं करवट सोएं या बाईं करवट – यह आपकी सहूलियत पर निर्भर करता है। पीठ के बल सोने की बजाय करवट लेकर सोने से संभवत: दर्द से राहत मिल सकती है, खर्राटे भरने (और दूसरों की नींद में खलल डालने) का खतरा कम हो सकता है, और पीठ दर्द को कम करके रीढ़ की हड्डी के सीधे होने में सुधार हो सकता है। यह मस्तिष्क से कचरे (बीटा एमिलॉयड) को तेज़ी से हटाने में मदद करता है। किस करवट सोना है यह आपकी मर्ज़ी है। लेकिन गर्दन के दर्द, जकड़न और सिरदर्द को कम करने के लिए अपनी बांह का नहीं बल्कि तकिये का उपयोग करें। गद्दे का उपयोग करना भी मददगार होता है। यह पीठ, गर्दन, रीढ़ और पैरों को पर्याप्त सहारा देता है। तो स्वस्थ नींद लें और अच्छे सपने देखें – सात घंटे! (स्रोत फीचर्स)
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मेरे जैसे वरिष्ठ नागरिकों को 1956 में आई फिल्म भाई-भाई का यह गाना याद होगा – ‘मेरा नाम अब्दुल रहमान, पिस्तावाला मैं हूं पठान…’, और हमें लगता था कि पिस्ता बाहर से आयातित मेवा है। लेकिन डॉ. के. टी. अचया अपनी पुस्तक इंडियन फूड में बताते हैं कि बादाम, पिस्ता, काजू, अखरोट, खुबानी और अनार जैसे मेवों के बारे में आयुर्वेदिक चिकित्सा के जनक ऋषि चरक (100 ईसा पूर्व) के समय से जानकारी थी और उन्होंने स्वास्थ्य और पोषण में इनका महत्व बताया था।
इसाबेला मेटियस मार्टिंस और साथियों ने अपने हालिया पेपर में बादाम को मेवों की रानी बताया है। बादाम को स्वास्थवर्धक खाद्य पदार्थों का प्रतीक माना जाता है क्योंकि यह प्रोटीन, मोनोअनसैचुरेटेड फैटी एसिड, फाइबर, विटामिन ई, रिबोफ्लेविन और आवश्यक खनिजों के साथ-साथ फायटोस्टेरॉल और पॉलीफिनॉल का एक समृद्ध स्रोत है। बढ़ते चिकित्सीय प्रमाणों से पता चलता है कि बादाम का सेवन कई स्वास्थ्य लाभों से जुड़ा है। अन्य स्वास्थ्यवर्धक मेवे हैं – काजू, किशमिश, अखरोट, खजूर, खुबानी और पिस्ता। जैसा कि चरक बताते हैं मेवों के अलावा केले, अंगूर, अमरूद, संतरे, आम जैसे फल भी स्वास्थ्यवर्धक हैं।
कार्यात्मक आहार
ऐसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य पदार्थों को कार्यात्मक (फंक्शनल) खाद्य पदार्थ भी कहा जाता है, क्योंकि वे अपने पोषण मूल्य से परे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। फलों के अलावा कुछ अन्य उदाहरण हैं जई और मोटे अनाज; जैसे बाजरा, रागी, ज्वार और सोया प्रोटीन। हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (NIN) समय-समय पर भारतीय खाद्य पदार्थों के पोषण मूल्यों पर रिपोर्ट जारी करता है और बताता है कि एक स्वस्थ वयस्क को स्वस्थ बने रहने के लिए क्या-क्या खाना चाहिए। खास कर बच्चों को मेवे, फल और पोषक तत्व युक्त खाद्यान्न अधिक मात्रा में खाने की सलाह दी जाती है।
कार्यात्मक खाद्य पदार्थों को मोटे तौर पर ऐसे खाद्य पदार्थों के रूप में परिभाषित किया जाता है जो सामान्य पोषण से अधिक पोषक तत्व प्रदान करते हैं; ये उपभोक्ता को अतिरिक्त शारीरिक लाभ प्रदान करते हैं। राष्ट्रीय पोषण संस्थान के अलावा हेल्थलाइन (Healthline) नामक वेबसाइट भी कई ऐसे कार्यात्मक खाद्य पदार्थों का सुझाव देती है जिन्हें दैनिक आहार में शामिल होना चाहिए। कार्यात्मक खाद्य पदार्थों में ऐसे तत्व होते हैं जो उनके पोषण मूल्य से परे स्वास्थ्य लाभ प्रदान करते हैं। इनमें से कुछ में पूरक पोषण या अतिरिक्त पोषण होता है जो स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है।
यह सब देखते हुए स्वास्थ्यवर्धक दैनिक आहार के लिए क्या खाना चाहिए? सबसे अच्छा तो यह होगा कि हम अपने दैनिक आहार में सिर्फ चावल या गेहूं ही न खाएं, बल्कि मुख्य भोजन में मोटे अनाजों को भी शामिल करें। और जब हम सब्ज़ियों को पकाएं या उनका सालन बनाएं तो हल्दी, दालचीनी, अदरक और लहसुन का उपयोग करें। मक्खन और घी खाएं, लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं। दही में कई एंटीऑक्सीडेंट्स होते हैं। और दिन में (बहुत ज़्यादा नहीं) चंद प्याली चाय-कॉफी पीना भी उपयोगी है क्योंकि उनमें भी एंटीऑक्सीडेंट होते हैं। खास कर बच्चों को दिन में कई कप दूध पीना चाहिए, जबकि वयस्क तीन कप तक दूध पी सकते हैं। इसके अलावा, हमें जब-तब या कम से कम सप्ताह में एक बार मेवे और फल भी खाने चाहिए। और, यदि आप मांसाहारी हैं तो अंडे, मछली, चिकन और मटन खा सकते हैं क्योंकि ये खनिज और वसा के समृद्ध स्रोत हैं।
तो, अच्छा और स्वास्थ्यवर्धक भोजन खाइए! (स्रोत फीचर्स)
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पिछले कुछ सालों में मायोपिया या निकट-दृष्टिता के मामले काफी बढ़ गए हैं। इस स्थिति में व्यक्ति को दूर का देखने में कठिनाई होती है। ऐसा अनुमान है कि 2050 तक दुनिया की आधी आबादी मायोपिया का शिकार होगी। मायोपिया से न सिर्फ दृष्टि धुंधली पड़ती है, वरन आगे चलकर यह अन्य गंभीर समस्याओं का कारण भी बनता है। इन जटिलताओं से बचने के लिए वैज्ञानिक इसके मामले बढ़ने के कारणों का पता लगाने और इसे थामने के लिए प्रयासरत हैं। मुख्य कारण है कमरे के अंदर सीमित होती दिनचर्या, हालांकि जेनेटिक कारण भी मायोपिया की स्थिति पैदा करते हैं।
मायोपिया मतलब क्या? अक्सर मायोपिया बचपन में शुरू होता है। मायोपिया की स्थिति तब बनती है जब नेत्रगोलक अपेक्षा से अधिक बड़ा हो जाता है। इसकी वजह से लेंस प्रकाश को रेटिना पर नहीं बल्कि रेटिना के आगे ही फोकस कर देता है, जिससे दूर की वस्तुएं धुंधली दिखाई देती हैं।
एक तथ्य यह भी है कि जितनी कम उम्र में, जितना गंभीर मायोपिया होगा बड़ी उम्र में रेटिना डिटेचमेंट, ग्लूकोमा, मैक्यूलर डीजनरेशन और मोतियाबिंद जैसी स्थितियां होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी। कारण यह है कि अधिकांश बच्चों की दृष्टि किशोरावस्था के अंत तक स्थायित्व प्राप्त करती है, जबकि कुछ बच्चों में 20 वर्ष की आयु के मध्य तक। मायोपिया जितनी जल्दी होगा नेत्रगोलक को वृद्धि करने के लिए उतना लंबा समय मिलेगा। नेत्रगोलक जितना अधिक बड़ा होगा उतना अधिक यह रेटिना की नाज़ुक तंत्रिकाओं और रक्त वाहिकाओं पर दबाव डालेगा। नतीजतन ग्लूकोमा, रेटिनल डिटेचमेंट जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
वैसे तो मायोपिया की स्थिति कई कारणों से पैदा हो सकती है लेकिन कई अध्ययनों का कहना है कि बाहर खुले में बिताया गया समय लगातार कम होते जाना मायोपिया के प्रमुख कारणों में से एक है। दरअसल सूर्य का प्रकाश (धूप) डोपामाइन के स्राव को बढ़ाता है, और डोपामाइन नेत्रगोलक के विकास को धीमा रखता है।
स्क्रीन टाइम बढ़ना और पास से देखने वाले काम करना जैसे पढ़ना, कढ़ाई करना वगैरह भी मायोपिया की बढ़ती संख्या के कारण बताए जा रहे हैं, लेकिन इसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं क्योंकि मायोपिया के मामलों में वृद्धि पहला आईफोन आने के पहले ही शुरू हो गई थी।
बहरहाल कारण जो भी हो मायोपिया के मामले बढ़ रहे हैं। और जब तक कारण पूर्णत: स्पष्ट नहीं हो जाते तब तक इसे टालने और इसकी गंभीरता कम करने के प्रयास ही किए जा सकते हैं।
बायफोकल लेंसेस इन नियरसाइटेड किड्स (ब्लिंक – BLINK) अध्ययन का यही उद्देश्य है – क्या किसी बाहरी हस्तक्षेप से नेत्रगोलक की वृद्धि या चश्मे का पॉवर बढ़ने को धीमा किया जा सकता है। इसकी पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने 7 से 11 साल के 294 बच्चों को कॉन्टैक्ट लेंस दिए: कुछ कॉन्टैक्ट लेंस नियमित, एकल फोकस वाले थे जबकि कुछ बाइफोकल थे। आम तौर पर ये विशेष बाइफोकल कॉन्टैक्ट लेंस वृद्धजनों को दिए जाते हैं जिन्हें बाइफोकल चश्मे की आवश्यकता पड़ती है। ये लेंस अधिकांश प्रकाश को तो रेटिना पर डालते हैं जिससे स्पष्ट केंद्रीय दृष्टि मिलती है, लेकिन साथ ही थोड़े प्रकाश को फैला देते हैं। जिससे परिधीय दृष्टि हल्की सी धुंधली हो जाती है। परिधीय दृष्टि का यह धुंधलापन संभवत: आंख के विकास को धीमा करता है। एक प्रतिभागी का अनुभव है कि इन विशिष्ट कॉन्टैक्ट लेंस को पहनने से नज़र बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं हुई। हालांकि आगे चलकर नज़र थोड़ी कमज़ोर ज़रूर हो गई थी लेकिन अंतत: वह स्थिर हो गई।
अन्य प्रयासों में, रोज़ाना एट्रोपिन नामक एक विशेष आई ड्रॉप आंखों में डाला गया, जो प्रभावी नज़र आया है। एक अध्ययन में पाया गया है कि सोने से ठीक पहले एट्रोपिन की बूंदें डालने पर नेत्रगोलक का विकास धीमा हो जाता है। अलबत्ता, यह सवाल बना हुआ है कि कितनी मात्रा सबसे अधिक प्रभावी है, और क्या अलग-अलग बच्चों के लिए अलग-अलग है।
ऐसे ही एक प्रयास में जिन बच्चों को मायोपिया होने की संभावना है उन्हें एट्रोपिन आई ड्रॉप्स दी जाएंगी ताकि मायोपिया की शुरुआत को थामा या टाला जा सके।
बहरहाल इन शोध के जारी रहते मायोपिया थामने के अन्य उपाय भी आज़माने की ज़रूरत है। जैसे बाहर बिताया समय बढ़ाना। क्योंकि मुख्य कारण के रूप में तो यही उभरा है और बाहर बिताया समय बढ़ाने से आंखों पर कोई अन्य दुष्प्रभाव होने की संभावना भी नहीं होगी, जबकि एट्रोपिन ड्रॉप्स रोज़ाना लेने के दुष्प्रभाव अभी स्पष्ट नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
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जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अपने हालिया प्रयास में एक एंटीवायरल दवा का परीक्षण किया है जिससे डेंगू वायरस को बेहतर तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। वर्तमान टीकों की सीमाओं के मद्देनज़र यह प्रयास काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यह एक विशेष किस्म का परीक्षण था जिसे मानव चुनौती परीक्षण कहते हैं। इसमें चंद स्वस्थ व्यक्तियों को पहले जानबूझकर वायरस से संक्रमित किया जाता है और फिर इलाज किया जाता है।
जेएनजे-1802 नामक इस दवा ने शुरुआती परीक्षणों में डेंगू संक्रमण को रोकने में काफी अच्छे परिणाम दिए हैं। 31 प्रतिभागियों पर इस दवा की उच्च खुराक वायरस के खिलाफ एक मज़बूत ढाल साबित हुई। इसमें से कुछ प्रतिभागी तो संक्रमण से पूरी तरह सुरक्षित रहे जबकि अन्य में वायरस की प्रतिलिपियां बनाने की दर काफी कम देखी गई। यह परिणाम अमेरिकन सोसायटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन की वार्षिक बैठक में प्रस्तुत किए गए हैं।
गौरतलब है कि जेएनजे-1802 वायरस के दो प्रोटीनों के बीच एक ज़रूरी अंतर्क्रिया को रोकने का काम करती है। डेंगू वायरस की प्रतिलिपियां बनने के लिए यह अंतर्क्रिया अनिवार्य होती है। वर्तमान डेंगू टीकों की तुलना में यह नया तरीका काफी प्रभावी है।
पुराने टीकों के साथ समस्या थी कि महीनों तक इनकी कई खुराक लेना पड़ता था। और तो और, मनुष्यों को संक्रमित करने वाले चार अलग-अलग डेंगू सीरोटाइप के खिलाफ ये टीके समान रूप से प्रभावी भी नहीं थे। लेकिन जेएनजे-1802 प्रकोप के दौरान जल्द से जल्द सुरक्षा प्रदान करने में सक्षम है। वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में यह डेंगू नियंत्रण का एक अमूल्य साधन बन सकता है।
फिलहाल इसका दूसरा चरण एक प्लेसिबो-तुलना चरण है जिसमें लैटिन अमेरिका और एशिया के लगभग 2000 वालंटियर्स शामिल हो रहे हैं। उम्मीद है कि इसके परिणाम 2025 तक मिल जाएंगेे।
इस अध्ययन में उपयोग किए गए डेंगू वायरस संस्करण का चयन भी काफी दिलचस्प है। यह वही स्ट्रेन है जिसने 1970 के दशक में इंडोनेशिया में हल्के शारीरिक लक्षण उत्पन्न किए थे। 2000 के दशक की शुरुआत में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ ने इस संस्करण को कमज़ोर करके और इसमें विशिष्ट संशोधन करके इसे उम्मीदवार टीके के रूप में उपयोग किया था। लेकिन जब इसे गैर-मानव प्रायमेट्स को दिया गया, तो वायरस कमज़ोर साबित नहीं हुआ। इस कारणवश इस संस्करण को टीके के विकास में नहीं लिया गया। फिर भी, जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी की वैज्ञानिक एना डर्बिन और उनकी टीम ने इस संस्करण को एक चुनौती के रूप में देखा। इस संस्करण से पीड़ित लोगों में उन्होंने लगातार वायरस प्रतिलिपिकरण पाया जो प्राकृतिक वायरस के जितनी प्रतिलिपियां बनाता था। इसके संपर्क में आने वाले 90 से 100 प्रतिशत व्यक्तियों में एक विशिष्ट प्रकार की फुंसियां बनती हैं। इससे श्वेत रक्त कोशिका और प्लेटलेट की संख्या कम तो होती है लेकिन खतरनाक स्तर तक नहीं।
यहां एक आश्चर्य की बात यह है कि शोधकर्ताओं ने संक्रमित मच्छरों का उपयोग करने की बजाय वायरस को सीधे इंजेक्शन से देने का विकल्प क्यों चुना। इस मामले में डर्बिन ने स्पष्ट किया कि चयनित संस्करण मच्छरों के शरीर में कुशलतापूर्व प्रतिलिपियां नहीं बनाता था। यह बाह्य रोगियों पर अध्ययनों के लिए एक आदर्श था। इसके चलते मच्छरों द्वारा वायरस फैलाए जाने की चिंता नहीं रही। दूसरी बात यह है मच्छर द्वारा प्रसारित हो तो वायरस की सटीक मात्रा निर्धारित करना मुश्किल है। इंजेक्शन ने यह सुनिश्चित किया कि सभी प्रतिभागी संक्रमित हो गए हैं।
आने वाले समय में जेएनजे-1802 के विविध उपयोगों को समझने का प्रयास किया जा रहा है। यह यात्रियों, सैन्य कर्मियों, गर्भवती महिलाओं और कमज़ोर प्रतिरक्षा वाले व्यक्तियों के लिए रोकथाम के एक उपाय के रूप में काम कर सकता है। इसके अलावा, शोधकर्ता सक्रिय डेंगू संक्रमण के इलाज के लिए इस दवा की चिकित्सकीय क्षमता की खोज कर रहे हैं।
हालांकि अभी भी इस विषय में काफी काम बाकी है फिर भी इस अध्ययन के नतीजे एक ऐसे भविष्य की आशा प्रदान करते हैं जहां डेंगू का अधिक प्रभावी ढंग से प्रबंधन किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
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विटामिन सी को प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने वाला माना जाता रहा है। लेकिन क्या इसकी महत्ता उचित है या इसको ज़रूरत से अधिक महत्व दिया जाता है।
दरअसल, 1970 के दशक में विटामिन सी को लायनस पौलिंग के दम पर प्रतिष्ठा हासिल हुई थी। उनका दावा था कि विटामिन सी काफी मात्रा में लिया जाए तो सामान्य ज़ुकाम के अलावा हृदय रोग तथा कैंसर से भी लड़ने में मदद मिलती है। अलबत्ता, नेशनल इंस्टिट्यूट्स ऑफ हेल्थ (एनआईएच) सहित कई शोधकर्ताओं के अनुसार इसके कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं।
अध्ययन बताते हैं कि यह सर्दी-ज़ुकाम के खिलाफ आवश्यक सुरक्षा प्रदान नहीं करता। दैनिक अनुशंसित मात्रा से अधिक लेने से बेहतर स्वास्थ्य की कोई संभावना नहीं होती है। दरअसल, 1000 मिलीग्राम से अधिक विटामिन सी लें, तो अतिरिक्त मात्रा मूत्र के साथ बाहर निकल जाती है।
विटामिन सी की कमी या शारीरिक तनाव के मामलों को छोड़ दिया जाए तो विटामिन सी की उच्च खुराक न तो सामान्य सर्दी-ज़ुकाम के लक्षणों को रोकती है, न ही उनको कम करती है।
वैसे विटामिन सी शरीर में कुछ अहम भूमिकाएं निभाता है। यह इंटरफेरॉन जैसे प्रोटीन निर्माण को बढ़ावा देता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करता है। इससे कोशिकाओं को वायरल हमलों से सुरक्षा मिलती है और संक्रमण से लड़ने वाली श्वेत रक्त कोशिकाओं में भी वृद्धि होती है। विटामिन सी कोलाजन निर्माण में भी सहायक है जो हड्डियों, मांसपेशियों, रक्त वाहिकाओं और त्वचा के निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। स्किन-केयर उत्पादों में इसका उपयोग चमड़ी के लटकने, झुर्रियों, काले धब्बों और मुहांसों से बचने के लिए किया जाता है। इसके अलावा सनस्क्रीन में यह सूर्य की हानिकारक किरणों से कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करता है।
विटामिन सी ऑक्सीकरण-रोधी के रूप में भी काम करता है। इसके अतिरिक्त, यह मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र में महत्वपूर्ण रासायनिक संकेतकों और हार्मोन के उत्पादन में भी योगदान देता है, जिससे तनाव और बेचैनी कम हो जाती है।
तथ्य यह है कि हमारा शरीर विटामिन सी का उत्पादन या भंडारण नहीं करता है। इसलिए इसे आहार के माध्यम से प्राप्त करना अनिवार्य है। अच्छी बात है कि अधिकांश लोगों को खट्टे फलों (जैसे संतरा, अंगूर, नींबू), टमाटर और ब्रोकोली, गोभी, फूलगोभी जैसी सब्ज़ियों से पर्याप्त विटामिन सी मिल जाता है। धूम्रपान से विटामिन सी को अवशोषित करने की क्षमता कम हो जाती है इसलिए ऐसे लोगों को अतिरिक्त विटामिन सी का सेवन करना चाहिए।
आखिर में यह जानना भी आवश्यक है कि क्या पर्याप्त मात्रा से अधिक विटामिन सी का सेवन किया जा सकता है। अधिकांश लोगों को विटामिन सी की उच्च खुराक से कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन गुर्दे की समस्या वाले लोगों को सावधान रहना चाहिए। अत्यधिक विटामिन सी के सेवन से पेट की समस्याएं हो सकती हैं जबकि कुछ मामलों में, स्टैटिन जैसी दवाइयों की प्रभावशीलता भी कम हो सकती है। चबाने योग्य विटामिन सी की गोलियां मुंह की स्वच्छता के लिए फायदेमंद तो हैं लेकिन बहुत देर तक मुंह में रखी जाएं तो दांतों के क्षरण का कारण भी बन सकती हैं।
यानी विटामिन सी स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण तो है, लेकिन जब तक आपके शरीर में इसकी कमी न हो तब तक इसके अतिरिक्त व अत्यधिक सेवन की कोई तुक नहीं है। यह सिर्फ पैसों की बर्बादी है और शायद हानिकारक भी हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.natgeofe.com/n/1d80620a-6c54-4d69-95d2-bf13ed49bf5d/MM10107_230523_0050_4x3.jpg
बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) का उपयोग यह पता करने के लिए किया जाता है कि किसी व्यक्ति का वज़न स्वस्थ सीमा के भीतर है या नहीं। बीएमआई की गणना वज़न (कि.ग्रा.) को ऊंचाई (मीटर) के वर्ग से विभाजित करके की जाती है। लेकिन इस सरलता के साथ कई खामियां भी हैं।
पिछले कुछ वर्षों में मोटापे को लेकर चल रही चर्चा से पता चलता है कि यह माप किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के सम्बंध में अक्सर पूरी तस्वीर प्रदान नहीं करता है। विशेषज्ञ इस संदर्भ में अधिक व्यापक दृष्टिकोण खोजने का प्रयास कर रहे हैं।
कई दशकों से बीएमआई स्वास्थ्य के आकलन के एक वैश्विक मानक के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। यह शरीर में वसा के द्योतक के रूप में कार्य करता है; वसा की उच्च मात्रा से चयापचय सम्बंधी रोगों में वृद्धि होती है और यहां तक कि मृत्यु का खतरा भी बढ़ जाता है।
स्वास्थ्य सूचकांक के रूप में बीएमआई का उपयोग करते हुए उम्र, लिंग और नस्ल जैसे कारकों को ध्यान में नहीं रखा जाता है जबकि ये वज़न के साथ-साथ किसी व्यक्ति के स्वास्थ्य के आकलन के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। बीएमआई सदैव अस्वस्थता का सूचक नहीं होता। देखा गया है कि बराबर बीएमआई वाले लोगों की स्वास्थ्य सम्बंधी स्थिति काफी अलग-अलग हो सकती है।
इन कमियों को ध्यान में रखते हुए विशेषज्ञों द्वारा मोटापे के आकलन हेतु अधिक सूक्ष्म दृष्टिकोण अपनाने पर ज़ोर दिया जा रहा है। अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (एएमए) ने बीएमआई की खामियों को स्वीकार करते हुए पूरक के तौर पर वजन-सम्बंधी अन्य मापों का सुझाव दिया है।
बीएमआई की धारणा लगभग दो शताब्दी पूर्व एडोल्फ क्वेटलेट द्वारा ‘औसत आदमी’ को परिभाषित करने के प्रयासों से उभरी थी। प्रारंभ में, इसका स्वास्थ्य से बहुत कम और मानक तय करने से अधिक लेना-देना रहा था। एन्सेल कीज़ ने बाद में इसे बॉडी-मास इंडेक्स के रूप में पुनर्निर्मित किया। कीज़ के अनुसार यह उस समय की ऊंचाई-वज़न तालिकाओं की तुलना में स्वस्थ शरीर के आकार का एक बेहतर संकेतक था।
बीएमआई जनसंख्या-स्तर पर मृत्यु के जोखिम से सम्बंधित है – बहुत कम बीएमआई भी मृत्यु का जोखिम बढ़ाता है और बहुत अधिक बीएमआई भी। लेकिन जब इसका उपयोग व्यक्तिगत स्वास्थ्य जोखिमों का आकलन करने के लिए किया जाता है तो यह असफल रहता है।
एक अध्ययन से पता चला है कि अधिक वजन वाले व्यक्तियों में मृत्यु का जोखिम ‘स्वस्थ’ वज़न वाले लोगों के समान होता है। इसके अतिरिक्त, बीएमआई के पैमाने पर मोटापे से ग्रस्त कुछ व्यक्तियों का हृदय-सम्बंधी स्वास्थ्य सामान्य लोगों के समान ही होता है, जो बीएमआई की धारणा को चुनौती देता है।
दरअसल, बीएमआई का मुख्य आकर्षण इसकी आसानी में निहित है, जो इसे एक सुविधाजनक स्क्रीनिंग टूल बनाता है। विशेषज्ञों का तर्क है कि यह स्वास्थ्य का सटीक आकलन करने में नाकाम है। इसकी मुख्य समस्या है कि यह शरीर में वसा या मांसपेशियों के द्रव्यमान और वितरण जैसे कई महत्वपूर्ण कारकों को ध्यान में नहीं रखता है, जो लोगों के बीच काफी भिन्न हो सकते हैं।
इससे भी बड़ी समस्या यह है कि बीएमआई को श्वेत आबादी के डेटा का उपयोग करके विकसित किया गया है जिसका सीधा मतलब है कि इसका निर्धारण नस्लीय और जातीय समूहों के बीच शरीर की संरचना और वसा वितरण को ध्यान में रखते हुए नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए, शरीर में वसा की मात्रा और वितरण में भिन्नता के कारण कम बीएमआई के बावजूद एशियाई आबादी में हृदय रोग का खतरा अधिक हो सकता है। यह बात बीएमआई के अत्यधिक उपयोग के विरुद्ध एक चेतावनी है।
बीएमआई के नैदानिक उपयोग को कम करने के लिए एएमए की हालिया नीति को एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। इसके तहत केवल बीएमआई के आधार पर निदान करने की बजाय, चिकित्सकों को सलाह दी जा रही है कि वे इसका उपयोग मात्र एक स्क्रीनिंग टूल के रूप में करें, ताकि उन लोगों को पहचाना जा सके जिनका आगे आकलन करने की ज़रूरत है। इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि चिकित्सक कोलेस्ट्रॉल, रक्त शर्करा, पारिवारिक इतिहास और आनुवंशिकी जैसे अतिरिक्त कारकों पर भी ध्यान दें जो मोटापे और इससे सम्बंधित स्थितियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इस बदलाव में एक बड़ी चुनौती यह है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में चिकित्सकों को कम समय में रोगी के स्वास्थ्य के कई पहलुओं पर ध्यान देना होता है। मात्र बीएमआई के आधार पर मोटापा-रोधी दवाइयां लिखना चिंता का विषय है।
बहरहाल, बीएमआई से परे मोटापे को फिर से परिभाषित करने के प्रयास चल रहे हैं। एक अंतरराष्ट्रीय आयोग विभिन्न अंग तंत्रों पर वज़न के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए नए नैदानिक मानदंडों पर काम कर रहा है। इसके अतिरिक्त, शारीरिक, मानसिक और कामकाजी स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए बीएमआई के साथ-साथ एडमोंटन ओबेसिटी स्टेजिंग सिस्टम (ईओएसएस) विकसित की गई है, जो मोटापा नियंत्रण के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है।
बहरहाल, मुद्दा यह है कि इन परिवर्तनों को अमली जामा पहनाना एक बड़ी चुनौती है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि स्वास्थ्य की जटिलताओं और मोटापे की विविध प्रकृति को ध्यान में रखते हुए बीएमआई से आगे बढ़ने का समय आ गया है। (स्रोत फीचर्स)
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इस वर्ष का कार्यिकी अथवा चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार एक निहायत उपयोगी शोध कार्य के लिए दिया गया है। यह पुरस्कार जैव रसायन शास्त्री केटेलिन केरिको और प्रतिरक्षा विज्ञानी ड्रयू वाइसमैन को उन खोजों के लिए दिया जा रहा है जिनके दम पर कोविड-19 के खिलाफ आरएनए टीके का विकास संभव हुआ।
नोबेल समिति ने बताया है कि यह टीका कम से कम 13 अरब मर्तबा दिया गया और अनुमान है कि इसने लाखों लोगों की जान बचाने के अलावा कोविड-19 के करोड़ों गंभीर मामलों की रोकथाम में भूमिका निभाई थी।
केरिको ने पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में काम करते हुए मेसेंजर आरएनए नामक जेनेटिक सामग्री (एम-आरएनए) को कोशिकाओं में पहुंचाने का तरीका खोजा था जिसकी मदद से एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचाते हुए अनावश्यक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती।
गौरतलब है कि केरिको चिकित्सा के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित 13वीं महिला वैज्ञानिक हैं। उनका जन्म हंगरी में हुआ था लेकिन बाद में यूएस आ गई थीं।
यह तो सर्वविदित है कि मॉडर्ना और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा संयुक्त रूप से विकसित कोविड-19 टीका उस एम-आरएनए को कोशिकाओं में पहुंचा देता है जो कोशिका में एक प्रोटीन का निर्माण करवाता है। यह प्रोटीन वही होता है जो सार्स-कोव-2 वायरस की सतह पर पाया जाता है, जिसे स्पाइक प्रोटीन कहते हैं। इस प्रोटीन की उपस्थिति की वजह से शरीर इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगता है और इस तरह से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू हो जाती है।
कई दशकों से एम-आरएनए आधारित टीकों के बारे में माना जाता था कि ये व्यावहारिक नहीं होंगे क्योंकि जैसे ही एम-आरएनए का इंजेक्शन दिया जाएगा, वह शरीर में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया शुरू कर देगा जो स्वयं उस एम-आरएनए को ही नष्ट कर देगी। 2000 के दशक के मध्य में केरिको और वाइसमैन ने दर्शाया था कि एक किस्म के एम-आरएनए अणु (युरिडीन) के स्थान पर उसी तरह के एक अन्य अणु (स्यूडोयुरिडीन) का उपयोग किया जाए तो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया से बचा जा सकता है। अर्थात टीके में एक किस्म के अणु की जगह दूसरे किस्म के अणु का इस्तेमाल करके कोशिका की प्रतिक्रिया को बदला जा सकता है। इसकी बदौलत एम-आरएनए द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। यानी टीके की प्रभाविता को बढ़ाया जा सकता है।
नोबेल समिति ने कहा है कि इस खोज ने चिकित्सा के क्षेत्र में एक नए अध्याय की शुरुआत कर दी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि आम धारणा के विपरीत सिर्फ उपयोगी विज्ञान ही नहीं, बुनियादी विज्ञान में निवेश भी महत्वपूर्ण है। कोविड-19 टीके की सफलता के बाद फ्लू, एचआईवी, मलेरिया और ज़िका जैसी कई बीमारियों के लिए टीके विकास के चरण में हैं। (स्रोत फीचर्स)
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विटामिन डी स्वास्थ्य के लिए एक महत्वपूर्ण और आवश्यक पोषक तत्व है। यह हड्डियों को मज़बूत बनाए रखता है, मांसपेशियों के काम में मदद करता है और प्रतिरक्षा प्रणाली को भी मज़बूत करता है। विटामिन डी के निर्माण के लिए शरीर को मात्र सूरज की रोशनी चाहिए होती है। लेकिन भारत जैसे पर्याप्त धूप वाले देशों में भी लोगों में विटामिन डी की कमी है।
लेकिन जहां एक ओर धूप को इसका सबसे अच्छा स्रोत कहा जाता है, वहीं त्वचा के कैंसर से बचने के लिए धूप से बचने की सलाह भी दी जाती है। तो विटामिन डी से भरपूर चीज़ें खाने की सलाह दी जाती है, लेकिन सच तो यह है कि अधिकांश खाद्य पदार्थों में इसकी पर्याप्त मात्रा नहीं होती है। लिहाज़ा इसकी कमी को प्रभावित करने वाले कारकों को समझने के साथ यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि हमारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में विटामिन डी कैसे मिल सकता है।
विटामिन डी का प्रमुख कार्य भोजन से कैल्शियम को अवशोषित करने में मदद करना है। यह अवशोषण प्रक्रिया हमारी हड्डियों को मज़बूत रखने में महत्वपूर्ण है। इसके अलावा यह मांसपेशियों के कार्य, तंत्रिका संचार और हानिकारक बैक्टीरिया तथा वायरस के खिलाफ हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
विटामिन डी की कमी का जोखिम कई कारकों पर निर्भर करता है। बढ़ती उम्र के साथ त्वचा विटामिन डी का उत्पादन करने में कम कुशल हो जाती है और जीवन के हर दशक में लगभग 13 प्रतिशत की गिरावट होती है। इसके अलावा गहरे रंग की त्वचा हल्के रंग की त्वचा की तुलना में विटामिन डी बनाने में लगभग 90 प्रतिशत कम कुशल होती है।
इसी तरह मोटापे से ग्रस्त लोगों को दो से तीन गुना अधिक विटामिन डी की आवश्यकता होती है। विटामिन डी शरीर की वसा कोशिकाओं में जमा होता है और मोटे लोगों में ज़्यादा वसा कोशिकाएं होती हैं। इसलिए रक्त संचार में विटामिन-डी कम मात्रा में रहता है।
गर्भवती महिलाओं, स्तनपान करने वाले शिशुओं, सीमित धूप वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों और एड्स जैसी स्थितियों को सम्भालने के लिए विशिष्ट दवाएं लेने वाले व्यक्तियों में विटामिन डी की कमी का जोखिम होता हैं। लीवर या किडनी रोग भी विटामिन डी को उसके सक्रिय रूप में बदलने में बाधा डाल सकते हैं।
विटामिन डी की कमी के कोई विशिष्ट लक्षण नहीं है इसलिए इसका पता रक्त परीक्षण से लगता है। वैसे थकान, हड्डियों में दर्द और मांसपेशियों में कमज़ोरी कुछ लक्षण बताए जाते हैं।
सूर्य का प्रकाश विटामिन डी का मुख्य स्रोत है। आम तौर पर हल्की रंग की त्वचा वाले लोगों के लिए, सप्ताह में तीन बार कम से कम 10 से 20 मिनट की धूप विटामिन डी के आवश्यक स्तर को बनाए रखने के लिए पर्याप्त मानी जाती है। इसके विपरीत, गहरे रंग की त्वचा वाले लोगों को उतना ही विटामिन डी बनाने के लिए तीन से पांच गुना अधिक समय तक धूप में रहने की आवश्यकता होती है। वैसे सबसे प्रभावी समय वह होता है, जब सूर्य ठीक सिर पर होता है। दरअसल सूर्य की यू.वी.बी किरणें विटामिन डी के उत्पादन में मदद करती हैं। सुबह और देर दोपहर और सर्दियों में (जब सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं) और अधिक समय वातावरण में बिताती हैं तो वहीं (वातावरण में) अवशोषित हो जाती हैं। कुछ अन्य कारक भी विटामिन डी के उत्पादन को प्रभावित करते हैं। एक समय में सनस्क्रीन को विटामिन डी उत्पादन में बाधा माना जाता था लेकिन हाल के अध्ययनों ने इस धारणा को खारिज कर दिया है।
लेकिन विटामिन डी के लिए मात्र सूरज की रोशनी के भरोसे नहीं रहा जा सकता क्योंकि धूप से अधिक संपर्क के साथ त्वचा कैंसर का खतरा जुड़ा है और बदलती जीवन शैली के चलते लोग अधिक समय घरों के अंदर बिताने लगे हैं।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ डर्मेटोलॉजी ने वयस्कों को सूर्य के संपर्क या इनडोर टैनिंग के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के बजाय आहार स्रोतों का सुझाव दिया है। दुर्भाग्य से, विटामिन डी के प्राकृतिक खाद्य स्रोत दुर्लभ हैं। ट्राउट, ट्यूना, सैल्मन और मैकेरल जैसी वसायुक्त मछलियां, मछली के जिगर के तेल और यूवी-एक्सपोज़्ड मशरूम विटामिन-डी के सबसे अच्छे स्रोत हैं। इसकी कुछ मात्रा अंडे की ज़र्दी, पनीर और बीफ लीवर में पाई जाती है। यूएस, यूके और फिनलैंड सहित विभिन्न देश इस कमी को दूर करने के लिए दूध, अनाज, संतरे का रस और दही जैसे उत्पादों को विटामिन डी से समृद्ध करते हैं। लेकिन इसमें दिक्कतें हैं। जैसे, एक कप विटामिन डी युक्त दूध में आम तौर पर लगभग 3 माइक्रोग्राम विटामिन डी होता है, जबकि 70 से कम उम्र वालों के लिए 15 माइक्रोग्राम और इससे अधिक उम्र के वयस्कों के लिए 20 माइक्रोग्राम ज़रूरी है।
शरीर को पर्याप्त विटामिन डी प्रदान करने के लिए धूप, विटामिन डी से भरपूर आहार और ज़रूरत पड़ने पर पूरक आहार के बीच संतुलन बनाना होता है। जहां तक विटामिन पूरकों की बात है, इनके अधिक सेवन से बचना चाहिए। अत्यधिक विटामिन डी के सेवन से मितली, मांसपेशियों में कमज़ोरी, भ्रम, उल्टी और निर्जलीकरण जैसे लक्षण हो सकते हैं। गुर्दे की पथरी, गुर्दे का खराब होना, अनियमित धड़कन और यहां तक कि मृत्यु भी संभव है। पूरकों के विपरीत, सूर्य का संपर्क स्वाभाविक रूप से विटामिन डी उत्पादन को नियंत्रित करता है, जिससे विटामिन डी की अधिकता का खतरा नहीं रहता।
वैसे यदि आपमें विटामिन डी की कमी नहीं है, तो अधिक विटामिन डी लेने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ysm-res.cloudinary.com/image/upload/ar_16:9,c_fill,dpr_3.0,f_auto,g_faces:auto,q_auto:eco,w_500/v1/yms/prod/d1ef7c86-3f52-4482-ac4e-af7adaf5db98