जब हंसी मज़ाकिया न हो

ई के पहले रविवार को विश्व ठहाका दिवस होगा। इस अवसर पर अखबारों से लेकर व्हाट्सएप संदेश व अन्य (सोशल) मीडिया प्लेटफॉर्म हंसने के फायदे के बारे बताएंगे। बताया जाएगा कि हंसना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह हमारी धमनियों को तंदुरुस्त रखता है, आईवीएफ की सफलता दर को बढ़ाता है, तनाव से राहत देता है, यहां तक कि कैंसर को ठीक भी कर देता है।

लेकिन हंसना एक बीमारी भी हो सकती है जो बे-वक्त, बे-मौके पर फूटकर व्यक्ति को शर्मिंदा कर सकती है/परेशानी में डाल सकती है। अधिक हंसी जीर्ण सिरदर्द का कारण भी बन सकती है। यहां तक कि हंसी के बेकाबू दौरे पड़ सकते हैं।

हंसने के कारण उपजी ऐसी ही एक स्थिति है ‘परिस्थितिजन्य सिरदर्द’। एक 52 वर्षीय महिला परिस्थितिजन्य सिरदर्द यानी अत्यधिक हंसने के कारण उपजे सिरदर्द से 32 वर्षों से पीड़ित थी। मस्तिष्क का स्कैन करने पर पता चला कि उसके मस्तिष्क में तीन जगहों पर मस्तिष्क-मेरु द्रव के थक्के जमा हैं। जब वह हंसती थी तो हंसी के कारण द्रव के दबाव में होने वाले परिवर्तन के कारण सिरदर्द होने लगता था। हालांकि खांसने-छींकने पर भी उसे सिरदर्द होने लगता था। लेकिन हंसी भी सिरदर्द का कारण तो बनती थी।

इससे अलग, द्विध्रुवी विकार (बायपोलर डिसऑर्डर) से पीड़ित एक व्यक्ति को हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाने के कारण मिर्गी के दौरे पड़ते थे। टीवी पर कॉमेडी शो देखते हुए जब भी वह कोई चुटकुला सुनता, हंसी आती और हंसते-हंसते जब वह लोट-पोट होने लगता तो उसके हाथ कांपने लगते और उसे ऐसा लगता जैसे उसकी चेतना शून्य हो रही है। एक दिन में पड़ने वाले मिर्गी के दौरों की संख्या और कॉमेडी शो की लंबाई और शो कितना हंसोड़ था के बीच सम्बंध था; औसतन  दिन में पांच बार। पहले तो डॉक्टरों को लगा कि दौरे उसके द्विध्रुवी विकार के कारण पड़ते हैं। लेकिन जब उन्होंने ईईजी के माध्यम से दो दिनों तक उसकी मस्तिष्क तरंगों को नापा तो पता चला कि मिर्गी के दौरों का सम्बंध उसकी लोट-पोट होकर हंसने वाली हंसी से था।

हंसी मस्तिष्क के दो अलग-अलग क्षेत्रों में हलचल से आती है: टेम्पोरल लोब, जो भावनात्मक पहलुओं को संभालता है; और फ्रंटल कॉर्टेक्स, जो क्रियाकारी हिस्से (चलना, दौड़ना, कूदना, फेंकना, झेलना, पकड़ना वगैरह) को संभालता है। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि हंसने के कारण क्रियाकारी क्षेत्र में हलचल होने से मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। उपचार लेने से समस्या ठीक तो हो गई लेकिन यदि, खुदा न ख्वास्ता, उनका अनुमान ठीक न निकलता तो शायद उसे टीवी देखना बंद करना पड़ता।

हंसी के कारण एक और जो समस्याप्रद स्थिति बनती है वह है पैथालॉजिकल लाफ्टर। पैथालॉजिकल लाफ्टर से पीड़ित शख्स को अचानक ही वक्त-बेवक्त, मौके-बेमौके ही हंसी आ जाती है। ऐसे ही एक मामले में एक शख्स को अपने परिवार के साथ शराड का खेलते हुए हंसी का दौरा पड़ा। आगे चलकर किसी के अंतिम संस्कार में, यहां तक कि अपनी बीमार मां से मिलते वक्त भी हंसी का दौरा पड़ गया। इसके चलते उसे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई और उसने लोगों से मेल-जोल ही छोड़ दिया। मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर पाया गया कि मस्तिष्क कोशिकाओं को जोड़ने वाले सफेद पदार्थ में घाव थे। साथ ही, मध्य मस्तिष्क और टेम्पोरल लोब में भी घाव थे। पैथोलॉजिकल लॉफ्टर का कारण तो पता नहीं चल पाया है लेकिन ऐसे मौकों पर एकदम तुरंत हंसी आने के बजाय थोड़ी देर बाद हंसी (विलंबित हंसी) आने के आधार पर लगता है कि इसका कारण सिर्फ घाव नहीं हैं। विलंबित हंसी आने से लगता है कि स्वायत्त क्रियाकारी केंद्र बनने में समय लगता है। जिससे लगता है कि नई तंत्रिका गतिविधि या नए हंसी नियंत्रण केंद्र बन रहे हैं।

ये ऐसे कुछ मामले थे जो हंसी से सम्बंधित समस्याओं को दर्शाते थे। लेकिन इन्हें पढ़कर हंसना मत छोड़िए। बस, जब लगे कि आपका हंसना आपके लिए कोई गंभीर समस्या पैदा कर रहा है तो डॉक्टर से मिलिए। वरना हंसिये-हंसाइए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चिकित्सा में महत्व के चलते जोंक पतन – ज़ुबैर सिद्दिकी

धुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।

वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ  ठीक हो जाता था। 

लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।

इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।

जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।

यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।

जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।

लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।

दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।

जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है। 

मौसम भविष्यवाणी

दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।

जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।

मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।

सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।

मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।

हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।

स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।

युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बायोटेक जोखिमों से सुरक्षा की नई पहल

जैव प्रौद्योगिकी के दुरुपयोग के बढ़ते खतरों को देखते हुए जैव सुरक्षा विशेषज्ञों के एक वैश्विक समूह ने एक अंतर्राष्ट्रीय जैव सुरक्षा पहल (इंटरनेशनल बायोसिक्यूरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइन्स – IBBIS) की शुरुआत की है। इस गैर-मुनाफा संगठन का लक्ष्य डीएनए संश्लेषण और जीन संपादन जैसी आधुनिक जैव प्रौद्योगिकी तकनीकों से जुड़े जोखिमों को कम करना है। इसके ज़रिए जाने-अनजाने किए जा रहे हानिकारक रोगजनकों या विषाक्त पदार्थों के निर्माण पर रोक लगाई जा सकेगी।

हालिया समय में बायोटेक तकनीकों की सुलभता ने उनके दुरुपयोग की चिंताओं को बढ़ाया है। हालांकि, वैज्ञानिक समुदाय हमेशा से खुलेपन का हिमायती रहा है लेकिन आधुनिक तकनीकों के उद्भव से खतरनाक वायरस और अन्य सूक्ष्मजीवों के निर्माण की क्षमता ने सुरक्षा उपायों की आवश्यकता पर ध्यान आकर्षित किया है। वर्तमान में दुनियाभर की कंपनियों द्वारा ऑन-डिमांड डीएनए संश्लेषण सेवाएं प्रदान करने तथा क्रिस्पर और कृत्रिम बुद्धि जैसी तकनीकों से आशंका है कि जैव-आतंकवादी इन तकनीकों का फायदा उठा सकते हैं।

IBBIS का पहला प्रोजेक्ट डीएनए संश्लेषण कंपनियों के लिए ऐसे मुफ्त सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराना है जिनकी मदद से संदिग्ध गतिविधियों वाले, हानिकारक जीन अनुक्रमों वाले ऑर्डरों और ग्राहकों की अच्छे से स्क्रीनिंग की जा सके। संदेह होने पर कंपनियां ऐसे ऑर्डरों को मना कर सकती हैं या अधिकारियों को सतर्क कर सकती हैं। वैसे तो कई स्क्रीनिंग साधन मौजूद हैं, लेकिन उन्हें व्यापक रूप से अपनाया नहीं जा रहा है।

IBBIS का एक उद्देश्य हितधारकों के बीच विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देना है। पारदर्शी और सुलभ समाधान पेश करके, इस पहल का उद्देश्य विभिन्न क्षेत्रों और राजनीतिक संदर्भों में समझ और कार्यान्वयन में अंतर को कम करना है।

न्यूक्लिक एसिड प्रदाताओं के बीच सर्वोत्तम प्रथाओं को स्थापित करने के प्रयासों के लेकर IBBIS के विभिन्न प्रयासों की सराहना की जा रही है। IBBIS की एक योजना ऐसे सॉफ्टवेयर पैकेज विकसित करने की है जिनकी मदद से जीव वैज्ञानिक पांडुलिपियों का स्क्रीनिंग करके देखा सके कि कहीं उनमें रोगजनक या टॉक्सिक बनाने की विधि का खुलासा तो नहीं किया गया है।

IBBIS के कार्यकारी निदेशक पियर्स मिलेट वैज्ञानिक समुदाय के ज़िम्मेदार व्यवहार को प्रोत्साहित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं। पारदर्शिता, सहयोग और जवाबदेही को बढ़ावा देकर, IBBIS का लक्ष्य वैश्विक जैव सुरक्षा प्रयासों को बढ़ाना और जैव प्रौद्योगिकी से जुड़े जोखिमों को कम करना है। IBBIS का दृष्टिकोण वैश्विक सुरक्षा के संभावित खतरों को कम करते हुए समाज की भलाई के लिए जैव प्रौद्योगिकी के सुरक्षित और ज़िम्मेदार उपयोग सुनिश्चित करना है। (स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया की ‘याददाश्त’!

हा जाता है कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले’। लेकिन पिछली बातों को याद रखना कई मामलों में फायदेमंद होता है, जैसे यदि हम पहले कभी गर्म चीज़ से जले हैं तो हम इस स्मृति के आधार पर आगे सतर्क रहते हैं और अन्य को भी सावधान करते हैं। ये स्मृतियां हमारे जीवन को सुरक्षित बनाती हैं।

अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि बैक्टीरिया भी अपने पिछले अनुभवों को याद रखते हैं: एशरिशिया कोली (ई.कोली.) बैक्टीरिया अपने आसपास मौजूद पोषक तत्व का स्तर याद रखते हैं। साथ ही वे इन स्मृतियों को अपनी आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित भी करते हैं, जो संभवत: उनकी संतति को एंटीबायोटिक दवाओं से बचने में मदद करता है।

आम तौर पर हमें लगता है कि एक-कोशिकीय सूक्ष्मजीव अकेले-अकेले बस अपना-अपना काम करते रहते हैं। लेकिन बैक्टीरिया अक्सर मिल-जुल काम करते हैं जो उन्हें अधिक सुरक्षित रखता है। स्थायी ‘घर’ (बायोफिल्म) की तलाश में बैक्टीरिया के झुंड अक्सर घूमते हैं। झुंड में रहने से बैक्टीरिया को यह फायदा होता है कि वे एंटीबायोटिक के असर को बेहतर ढंग से झेल पाते हैं।

टेक्सास विश्वविद्यालय के सौविक भट्टाचार्य जब ई. कोली बैक्टीरिया में झुंड के व्यवहार का अध्ययन कर रहे थे, तब उन्होंने उनकी कॉलोनियों में ‘अजीब से पैटर्न’ देखे। फिर जब उन्होंने इन कालोनियों से एक-एक बैक्टीरिया को अलग करके देखा तो उन्होंने पाया कि बैक्टीरिया अपने पिछले अनुभवों के आधार पर अलग-अलग व्यवहार कर रहे थे। कॉलोनी में जिन बैक्टीरिया ने पहले झुंड बनाए थे, उनके दोबारा झुंड में आने की संभावना उन बैक्टीरिया की तुलना में अधिक थी जिन्होंने पहले झुंड नहीं बनाए थे। और यह प्रवृत्ति कम से कम उनकी अगली चार पीढ़ियों (जो दो घंटे में अस्तित्व में आ गईं थी) ने भी दिखाई थी।

ई. कोली के जीनोम में फेर-बदल करने पर शोध दल ने पाया कि उनकी इस क्षमता के पीछे दो जीन्स हैं जो मिलकर लौह के ग्रहण और नियमन को नियंत्रित करते हैं। बैक्टीरिया के लिए लौह अहम पोषक तत्व है। लौह का स्तर कम होने पर बैक्टीरिया में अपने झुंड की जगह बदलने की प्रवृत्ति दिखी, जो उनमें सहज रूप से निहित थी। ऐसा अनुमान है कि लौह स्तर कम होने पर बैक्टीरिया का झुंड आदर्श लौह स्तर वाले नए स्थान की तलाश में था।

हालांकि यह मालूम था कि कुछ बैक्टीरिया अपने आसपास के भौतिक पर्यावरण (जैसे टिकाऊ सतह) को याद रखते हैं और यह जानकारी अपनी संतानों को दे सकते हैं लेकिन इस अध्ययन में यह नई बात मालूम चली कि बैक्टीरिया पोषक तत्वों की उपस्थिति को भी याद रखते हैं। टिकाऊ, सुरक्षित और उपयुक्त स्थान तलाशने के लिए बैक्टीरिया इन स्मृतियों का उपयोग करते हैं और बायोफिल्म बनाते हैं।

बहरहाल, यह देखने की ज़रूरत है कि क्या अन्य सूक्ष्मजीव भी लौह स्तर को याद रखते हैं? बैक्टीरिया लौह स्तर अनुपयुक्त पाने पर कैसे अपना व्यवहार बदलते हैं? शोधकर्ताओं का मानना है कि इस मामले में अधिक अध्ययन रोगजनक संक्रमणों से निपटने में मदद कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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ऑक्सीमीटर रंगभेद करते हैं

हाल ही में, कैलिफोर्निया की चिकित्सक डॉ. नोहा एबोलेटा के नेतृत्व में एक समूह ने पल्स ऑक्सीमीटर की बिक्री को चुनौती दी है। पाया गया है कि ये उपकरण अश्वेत त्वचा वाले व्यक्तियों में रक्त-ऑक्सीजन का स्तर गलत बताते हैं। डॉ. एबोलेटा के नेतृत्व में रूट्स कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर द्वारा ऑक्सीमीटर की बिक्री को तब तक रोकने की मांग की जा रही है जब तक कि इन उपकरणों में आवश्यक सुधार नहीं कर लिए जाते या उनकी सीमाओं के बारे में चेतावनी लेबल नहीं लगा दिया जाता।

गौरतलब है कि पल्स ऑक्सीमीटर आम तौर पर उंगली के सिरे पर लगाए जाते हैं और ये त्वचा के माध्यम से अंदर प्रकाश चमकाकर रक्त में ऑक्सीजन के स्तर का आकलन करते हैं। लेकिन ये आकलन त्वचा में उपस्थित मेलेनिन नामक रंजक से प्रभावित होते हैं जो अश्वेत त्वचा में अधिक होता है।

दशकों चले अध्ययनों में सामने आया है कि ये उपकरण अश्वेत त्वचा वाले व्यक्तियों में ऑक्सीजन का स्तर अधिक बताते हैं, जो स्वास्थ्य सम्बंधी निर्णयों को प्रभावित करता है। इस मुद्दे को कोविड-19 महामारी के दौरान अधिक प्रमुखता मिली जब सटीक ऑक्सीजन स्तर का आकलन करना अति आवश्यक था। चूंकि यह ऑक्सीमीटर अश्वेत व्यक्तियों के खून में वास्तविकता से अधिक ऑक्सीजन बताता था, इसलिए उन्हें सही चिकित्सा नहीं मिल पाती थी या देर से मिलती थी।

लेकिन चिकित्सा उपकरण उद्योग और अमेरिकी सरकार इस समस्या को लेकर काफी धीमी गति से काम कर रही है। इन उपकरणों को मुख्य रूप से श्वेत आबादी के हिसाब से तैयार किया गया है व परखा गया है। यह अश्वेत लोगों के निदान में अशुद्धियों का प्रमुख कारण है।

कैलिफोर्निया काउंटी अदालत में दायर किया गया मुकदमा काफी महत्वपूर्ण है। यह सभी के लिए इस समस्या से निपटने का एक अनूठा अवसर प्रदान करता है और इस मुद्दे को प्रमुखता से सार्वजनिक मंच पर रखता है।

इस संदर्भ में मेडट्रॉनिक और मासिमो जैसे दिग्गज चिकित्सा-उपकरण निर्माता तो खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) के दिशानिर्देशों के पालन का हवाला देते हुए अपनी प्रौद्योगिकियों का बचाव कर रहे हैं। इस मामले में आलोचकों का तर्क है कि इन दावों का समर्थन करने वाले अध्ययन अक्सर प्रयोगशाला में किए गए हैं, जबकि वास्तविक दुनिया के परिदृश्य विभिन्न चुनौतियां पेश करते हैं।

इस मामले में महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब 2020 के एक अध्ययन में कोविड-19 से ग्रसित लोगों में पल्स ऑक्सीमीटर की रीडिंग में महत्वपूर्ण विसंगतियां सामने आईं। इन विसंगतियों में विशेष रूप से अश्वेत रोगी सबसे अधिक प्रभावित पाए गए। नतीजतन सीनेटरों से कार्रवाई की मांग के बाद 2022 में एफडीए की बैठक हुई जिसमें इन उपकरणों की सीमाओं को स्वीकार किया गया। फरवरी में एक और बैठक की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

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ग्रामीण महिला पशु चिकित्सक – भारत डोगरा

टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के नदिया गांव में रहने वाली भारती अहरवार को जब पता चला कि एक संस्था, सृजन, क्षेत्र की कुछ महिलाओं को बकरियों को रोग-मुक्त रखने व उनके इलाज के लिए प्रशिक्षण दे रही है तो उसने ‘सृजन’ और ‘दी गोट ट्रस्ट’ नामक संस्था द्वारा सह-आयोजित प्रशिक्षण पहले क्षेत्रीय स्तर पर व फिर लखनऊ स्तर पर लिया।

इस प्रशिक्षण से भारती को एक नया आत्म-विश्वास मिला। अब उसे ‘पशु-सखी’ या बकरियों की पैरा डाक्टर के रूप में नई पहचान मिली, मान्यता मिली, दवा व वैक्सीन मिले। लेकिन जब वह अपनी पशु-सखी की युनिफार्म में इलाज के लिए निकलती तो कुछ लोग मज़ाक उड़ाते, फब्तियां कसते। पर इसकी परवाह न करते हुए भारती ने अपना कार्य पूरी निष्ठा से जारी रखा व अधिक दक्षता प्राप्त करती रही। उसने बकरी स्वास्थ्य के लिए विशेष शिविरों का आयोजन भी किया।

धीरे-धीरे गांव के लोग उसके कार्य का महत्व समझने लगे। बकरी में बीमारी होने पर संक्रमण तेज़ी से फैलता है। पी.पी.आर. और एफ.एम.डी. बीमारियों से बचाव व डीवर्मिंग ज़रूरी है। यदि इस सबके लिए गांव में ही ‘पशु-सखी’ की सेवाएं मिल जाएं तो इधर-उधर भटकना नहीं पडे़गा। गांववासियों की नज़रों में स्वीकृति व सम्मान बढ़ने के साथ भारती का कार्य भी बढ़ा व आय भी।

टीकमगढ़ ज़िले की माया घोष एक वरिष्ठ पशु-सखी हैं जिनकी गिनती इस कार्यक्षेत्र में सबसे पहले आने वाली महिलाओं में होती है। माया घोष ने अपने स्थानीय व लखनऊ के प्रशिक्षण के बाद अपने गांव बिजरावन में बकरी पालन का सर्वेक्षण किया। इससे स्पष्ट हुआ कि थोड़े से प्रवासी मज़दूरों जैसे अपवाद को छोड़ दिया जाए तो अन्यथा लगभग सभी घरों में औसतन 5 से 10 बकरियां हैं। कांटी गांव की ‘पशु-सखी’ हीरा देवी ने बताया कि प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद जब उन्होंने कार्य आरंभ किया तो आसपास के कुछ लोगों ने उनकी योग्यता पर संदेह प्रकट किया। इस स्थिति में उन्होंने एक बीमार बकरी को खरीद लिया और उसे अपने इलाज से पूरी तरह ठीक कर दिया। इसके बाद लोग उनके पास बकरियों के इलाज के लिए पहुंचने लगे और यह सिलसिला अभी तक चल रहा है।

सृजन के सहयोग से किसानों का एक उत्पादक संगठन बना है जिसके द्वारा बकरियों के लिए स्वस्थ आहार बनाया जाता है जिसमें अनेक पौष्टिक तत्त्व मिले होते हैं। वैसे बकरी खुले में चर कर अपना पेट भरती है, पर कुछ अतिरिक्त पौष्टिक आहार मिलने से उनका स्वास्थ्य और सुधर जाता है। इस पौष्टिक आहार की बिक्री भी पशु-सखी द्वारा की जाती है। दवाएं उपलब्ध करवाने में भी किसान उत्पादक संगठन की सहायता मिलती है।

लगभग 10 पशु सखियों के प्रशिक्षण से शुरू हुए इस प्रयास से आज इस जिले में 76 प्रशिक्षित पशु-सखियां हैं जो अपना जीविकोपार्जन बढ़ाने का कार्य बहुत आत्मविश्वास से कर रही हैं और गांव-समुदाय के लिए बहुत सहायक भी सिद्ध हो रही हैं। यहां के अधिकांश गांवों में लगभग तीन-चौथाई परिवारों के पास बकरियां हैं, पर अचानक फैली बीमारियों में अनेक बकरियों के समय-समय पर मर जाने से लोग परेशान थे। अब पशु-सखियों के कारण यह समस्या कम हुई है व स्वस्थ बकरी विकास की संभावना बढ़ी है।

इसी तरह का कार्य कुछ अन्य क्षेत्रों में भी हो रहा है। एक उत्साहवर्धक स्थिति यह बनी है कि कुछ सरकारी अधिकारियों ने इस सफलता को नज़दीकी स्तर पर देखने के बाद इसे अपने-अपने स्तर पर भी आगे बढ़ाने के लिए कहा है। उन्होंने माना है कि यह एक उल्लेखनीय सफलता है जिसे आगे बढ़ना चाहिए।

इसके अलावा, व्यापारियों द्वारा बकरी पालकों को पहले कम कीमत देकर ठगा जाता था पर अब इस मामले में भी सुधार हो रहा है ताकि बकरी पालक को उचित मूल्य मिले। सरकार की, विशेषकर दलितों व आदिवासियों के लिए, बकरियों को बहुत कम कीमत पर उपलब्ध वाली योजनाएं हैं व उनसे भी समुचित सहायता प्राप्त की जा सकती है।

जहां बकरियों को मुख्य रूप से बिक्री के लिए पाला जाता है, वहां इनसे, अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही सही, विशिष्ट पौष्टिक गुणों वाला दूध भी प्राप्त हो जाता है तथा बकरियों से खाद भी उच्च गुणवत्ता की प्राप्त होती है। अपेक्षाकृत निर्धन परिवारों के लिए पशु पालन की सबसे सहज आजीविका बकरी पालन के रूप में ही है व पशु-सखियों ने स्वस्थ बकरीपालन विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। यह एक अनुकरणीय मॉडल है जो अन्य स्थानों पर भी बकरी पालन को बेहतर बना सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्मृति ह्रास से कैसे निपटें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

स्सी की उम्र पार कर गए मुझ जैसे कई वरिष्ठ नागरिक अक्सर उन लोगों को भूल जाते हैं जिन्हें वे पहले मिल चुके होते हैं या बहुत अच्छी तरह से जानते थे। अक्सर वे ऐसी स्थिति में हैरान या शर्मिंदा हो जाते हैं जब उनकी मुलाकात ऐसे किसी व्यक्ति से हो जाती है और वे पूछ बैठते हैं कि “अंकल आप कैसे हैं?”, “अंकल, क्या आपको याद है मैं आपके घर आया था?” या, “हैलो मेरे दोस्त, कितने अरसे बाद मिले हो; कैसे हो तुम?”

इस प्रकार के अस्थायी ब्लैकआउट आम बात हैं। इस बारे में मेरे युवा सहकर्मी डॉ. दुर्गादास कस्बेकर ने कुछ प्रासंगिक और मज़ेदार उद्धरण सुनाए।

उनमें से एक सर नॉर्मन विसडम का है, जो लिखते हैं: “जैसे-जैसे आप बूढ़े होते हैं, तीन चीज़ें घटित होती हैं। पहली कि आपकी याददाश्त जाने लगती है, और बाकी दो मुझे याद नहीं हैं।”

ऐसा ही कुछ अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने भी लिखा था: “मैं जितना बूढ़ा होता जाता हूं, उतने ही अच्छे से मुझे वे चीज़ें याद रहती हैं (या याद आती हैं) जो पहले कभी हुई ही नहीं थीं!

विपरीत स्थिति

इसके एकदम विपरीत कई बहुत बूढ़े व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिन्हें अपने जीवन में घटी हर घटना और हर वह शख्स याद रहता है जिससे वे मिले थे। इसका एक बेहतरीन उदाहरण डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन हैं, जिनका हाल ही में 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अपने प्रयासों से 50 वर्षों के भीतर भारत को खाद्य-आयात करने वाले देश से खाद्य-निर्यात करने वाले देश में बदल दिया। डॉ. स्वामीनाथन की स्मृति अद्भुत थी, उन्हें लोग और घटनाएं बहुत अच्छे से याद रहती थीं। निश्चित ही वे नॉर्मन विसडम और मार्क ट्वेन के कथनों के जवाब थे!

ऐसी ही एक और मिसाल बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ी सी. डी. गोपीनाथ की है, जिन्होंने 1951-52 में क्रिकेट में पदार्पण किया था और अब वे 93 वर्ष के हैं।

लेकिन प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक इतना खुशनसीब नहीं होता। तो हम भूलने की बीमारी से कैसे निपट सकते हैं? कुछ युक्तियां इस नए कौशल को सीखने में उपयोगी हो सकती हैं; नियमित दिनचर्या अपनाएं; कार्यों की योजना बनाएं, कामों की सूची बनाएं, और कैलेंडर एवं नोट्स जैसे मेमोरी टूल का उपयोग करें; अपना बटुआ, चाबियां, फोन और चश्मा हर दिन नियत जगह पर ही रखें; ऐसी गतिविधियां करें जिनमें दिमाग और शरीर दोनों व्यस्त रहते हैं; स्मृति ह्रास से निपटने के लिए अपने समुदाय में कोई काम स्वैच्छिक तौर पर करें – जैसे किसी स्कूल में या किसी इबादतगाह में; परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताएं; पर्याप्त नींद लें – सामान्यत: हर रात सात-आठ घंटे की; व्यायाम करें और अच्छा खाएं; उच्च रक्तचाप से बचें या नियंत्रित रखें; शराब पीने से बचें या कम कर दें; और यदि आप लगातार कई हफ्तों से मायूसी (अवसाद) महसूस कर रहे हैं तो डॉक्टर से परामर्श लें। व्यक्तिगत रूप से, मैंने इन सभी युक्तियों को अपनाने का प्रयास किया है, और इन्हें बहुत उपयोगी पाया है।

स्मृति ह्रास को धीमा करने और दिमाग को चुस्त और सक्रिय रखने के अन्य विभिन्न तरीके क्या हैं? आश्चर्य होगा कि आज के कंप्यूटर वीडियो गेम के ज़माने में स्मृति ह्रास को धीमा रखने के मामले में वर्ग पहेली ने कंप्यूटर गेम्स को मात दे दी है। यह रिपोर्ट कोलंबिया युनिवर्सिटी के डॉ. डी. पी. देवानंद और ड्यूक युनिवर्सिटी के मुरली दोरईस्वामी द्वारा हाल ही में 107 लोगों के साथ किए गए एक कंट्रोलशुदा रैंडम परीक्षण की है।

व्यक्तिगत तौर पर, मुझे वर्ग पहेलियां भरना, पांच, छह और सात अक्षरों के गड्ड-मड्ड मिश्रण से सार्थक शब्द बनाना (sufmao से famous) और सुडोकू हल करना बहुत उपयोगी लगता है। अन्य वरिष्ठ नागरिक अखबारों में छपे ऐसे और अन्य तरह के खेल, पहेलियां आज़मा सकते हैं। तो, मेरे बुज़ुर्ग मित्रों, स्मृति ह्रास को धीमा करने के लिए उपरोक्त सभी 11 युक्तियां अपनाएं और जो पहेलियां हल करना पसंद हो उन्हें हल करें!(स्रोत फीचर्स)

3  5    4
 7 6  3 2
       1 
  1 9  2 
 39   48 
 2  7 5  
 1       
8 3  5 9 
4    3  5

इस लेख में पहेलियां हल करने का सुझाव दिया गया है। ऐसी ही एक पहेली सुडोकु है। करके देखिए। नियम तो आपको पता ही होंगे – हरेक छोटे चौखाने में 1 से 9 तक के अंक भरने हैं, लेकिन प्रत्येक आड़ी और खड़ी पंक्ति और प्रत्येक बड़े चौखाने में कोई अंक दोहराया नहीं जाएगा।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नेपाल में आंखों की रहस्यमयी बीमारी

नेपाल में, मानसून के मौसम की समाप्ति अक्सर नेत्र चिकित्सकों के लिए परेशानी का सबब बन जाती है। इस दौरान एक विचित्र नेत्र संक्रमण – सीज़नल हाइपरएक्यूट पैनुवाइटिस (शापू) – की शुरुआत होती है। यह मुख्य रूप से बच्चों को प्रभावित करती है। इसमें आम तौर पर बिना किसी दर्द के एक आंख लाल हो जाती है और नेत्रगोलक में दबाव कम हो जाता है। 24-48 घंटों के भीतर इलाज न किया जाए तो दृष्टि जा सकती है।

नेपाली शोधकर्ता इस रहस्यमय रोग की उत्पत्ति को समझने के प्रयास कर रहे हैं। इसके लिए पर्यावरण सर्वेक्षण, जीनोमिक अनुक्रमण और विशिष्ट रिपोर्टिंग प्रणाली स्थापित की गई है। लेकिन फंडिंग एक चुनौती बनी हुई है। और इस वर्ष शापू नए क्षेत्रों में सामने आई है। और लक्षणों की गंभीरता का पूर्वानुमान भी मुश्किल हो गया है।

शापू की जानकारी सबसे पहले 1979 में मिली थी और नेत्र रोग विशेषज्ञ मदन पी. उपाध्याय ने इसे यह नाम दिया था। उपाध्याय के अनुसार इस समस्या के मामले हर दो साल में ज़्यादा होते हैं। इसमें अक्सर नेत्रगोलक सिकुड़ जाता है और दृष्टि क्षीण हो जाती है। इसके इलाज में एंटीबायोटिक्स, स्टेरॉयड और अन्य औषधियों की नाकामी के चलते चिकित्सक एक प्रभावी समाधान खोजने में भिड़े हैं।

वर्ष 2021 तक हर साल शापू के केवल कुछ ही मामले दर्ज होते थे। लेकिन 2021 में 150 से अधिक मामले सामने आने से 2023 में बेहतर तैयारी की गई। एक समर्पित रिपोर्टिंग तंत्र ने देश भर में शापू के प्रसार को ट्रैक करने में मदद की। पता चला कि शापू काफी विस्तृत क्षेत्र में फैल चुकी है।

प्रयोगशाला में कल्चर के माध्यम से संक्रमण को पहचानने के परिणाम अनिर्णायक रहे हैं। कई रोगियों ने लक्षणों का अनुभव करने से पहले ‘सफेद पतंगे’ से संपर्क में आने का उल्लेख किया। पूर्व में किए गए एक सर्वेक्षण में भी शापू और तितलियों/सफेद पतंगों के संपर्क के बीच उल्लेखनीय सम्बंध पाया गया था।

इसके मद्देनज़र कीटविज्ञानी शापूग्रस्त ज़िलों का सर्वेक्षण कर रहे हैं और उन क्षेत्रों से डैटा एकत्र कर रहे हैं जहां पतंगों की विशेष उपस्थिति दर्ज की गई है। इन क्षेत्रों के तापमान, आर्द्रता, वनस्पति और ऊंचाई जैसे कारकों का भी अध्ययन किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त, जैव रासायनिक विश्लेषण की योजना है ताकि यह पता चल सके कि क्या कोई विशिष्ट कीट-विष आंख में समस्या पैदा कर रहा है।

शोधकर्ता संदिग्ध सूक्ष्मजीव की पहचान के लिए बैक्टीरिया और वायरस से आनुवंशिक सामग्री की जांच करने की योजना बना रहे हैं। इसमें प्रभावित और अप्रभावित आंखों के साथ-साथ परिवार के सदस्यों से नमूने एकत्र किए जा रहे हैं। इन प्रयासों से शापू को समझने में प्रगति तो हुई है लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।

चिंताजनक बात यह भी है इस वर्ष कुछ ऐसे रोगी भी सामने आए हैं जिनका सफेद पतंगों से कोई संपर्क नहीं रहा है। उम्मीद है कि जल्द ही रहस्यमयी बीमारी के स्रोत का पता लगाकर बच्चों की आंखों की रोशनी की रक्षा की जा सकेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंखों का संक्रमण: दृष्टि की सुरक्षा कैसे करें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दुनिया भर के लगभग साढ़े तेरह करोड़ लोगों की नज़र कमज़ोर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का कहना है कि इसमें से 80 प्रतिशत मामलों को या तो थामा जा सकता है या ठीक किया जा सकता है। इसलिए WHO ने इंटरनेशनल एजेंसी फॉर प्रिवेंशन ऑफ ब्लाइंडनेस (IAPB) के साथ ‘विज़न 2020: दृष्टि का अधिकार’ नामक कार्यक्रम चलाया है।

भारत में 13 लाख लोग जन्मांध हैं और 76 लाख लोग ऐसे दृष्टि दोषों से पीड़ित हैं जिनका आसानी से इलाज किया जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्रों और कस्बों में दृष्टि केंद्र स्थापित कर, सक्षम नेत्र रोग विशेषज्ञों और साधन-सुविधाओं से लैस नेत्र चिकित्सालय खोलकर इन पीड़ितों को दृष्टि का अधिकार मिल सकता है। और वास्तव में, पूरे देश में दृष्टि केंद्र और नेत्र चिकित्सालय खोले भी जा रहे हैं। इसके अलावा, कुछ विश्व स्तरीय अत्याधुनिक नेत्र संस्थान सक्रिय रूप से विज़न 2020 पर काम कर रहे हैं, और ऐसा लगता है कि यह हासिल हो सकता है – पश्यंतु सर्वेजना: यानी सभी देख सकें।

हैदराबाद स्थित एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट (LVPEI), जहां मैं काम करता हूं, प्रतिदिन औसतन लगभग 1200 रोगियों को देखता है। इनमें से लगभग 100 रोगियों की आंखें बैक्टीरिया, फफूंद या वायरस से संक्रमित होती हैं। मेरी सहकर्मी डॉ. सावित्री शर्मा ने पूर्व में भारत में इस तरह के संक्रमणों की समीक्षा की थी। डॉ. शर्मा विश्व स्तर पर ऑक्यूलर माइक्रोबायोम (नेत्र सूक्ष्मजीव संसार) की विशेषज्ञ के तौर पर मशहूर हैं।

माइक्रोबायोम क्या है?

जीनोम से आशय होता है किसी कोशिका में उपस्थित डीएनए सूचनाओं का समूचा समुच्चय। मनुष्य की कोशिकाओं में यह 23 जोड़ी गुणसूत्रों के रूप में होता है। बायोम (जैव संसार) किसी स्थान पर मौजूद प्रजातियों का जगत होता है। ऑक्यूलर माइक्रोबायोम (या नेत्र सूक्ष्मजीव संसार) से तात्पर्य आंख में रहने या बसने वाले सूक्ष्मजीवों (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) से है। एक स्वस्थ नेत्र के सूक्ष्मजीव संसार में सूक्ष्मजीव एक सुरक्षा दीवार की तरह काम करते हैं जो हानिकारक रोगजनकों के हमले से आंखों को महफूज़ रखते हैं।

स्वस्थ नेत्रों से तुलना करें तो फंगल केराटाइटिस जैसे संक्रामक रोगों से संक्रमित नेत्रों के कंजंक्टाइवा और कॉर्निया में नेत्र सूक्ष्मजीव संसार काफी अलग होता है। कंजंक्टाइवा आंख की सुरक्षा करने वाली पतली, पारदर्शी झिल्ली को कहते हैं, और कॉर्निया आंख की सबसे बाहरी पारदर्शी परत होती है जो प्रकाश को फोकस करने और अपवर्तन में मदद करती है।

भारत में स्थिति

वर्ष 2005 में भारत की जनसंख्या 115 करोड़ थी और वर्तमान में यह 140 करोड़ है। जनसंख्या में इतनी वृद्धि के बावजूद, भारत के ग्रामीण इलाकों में स्थापित नेत्र देखभाल केंद्रों, कस्बों और शहरों में अधिक नेत्र रोग विशेषज्ञों और शहरों में नेत्र अनुसंधान संस्थानों ने भारत को विज़न 2020: दृष्टि का अधिकार का समर्थक बनाने में मदद की है। लेकिन, देश भर में अत्यधिक धूलयुक्त वायु प्रदूषण के मौजूदा स्तर ने कई लोगों को ‘आंख आना’ (कंजंक्टिवाइटिस), आंख में खुजली और सूजन, और लेंस प्रभावित होने पर नज़र के धुंधलेपन से पीड़ित कर दिया है, और कई लोग तेज़ रोशनी के प्रति संवेदनशील हो गए हैं।

इससे कैसे निपटा जाए? अमेरिका में क्लीवलैंड क्लीनिक ने इससे निपटने के कई तरीके सुझाए हैं – आंखों को राहत देने के लिए उन पर भीगा, गर्म या ठंडा रुमाल रखें; सुरक्षात्मक चश्मा पहनें; यदि आप कॉन्टैक्ट लेंस लगाते हैं, तो उन्हें साफ रखें; अपने नेत्र चिकित्सक से संपर्क करें और उनसे उचित मलहम या दवा की सलाह लें। (स्रोत फीचर्स)

इस लेख पर सलाह और सहयोग के लिए मैं डॉ. शिवाजी को धन्यवाद देता हूं।

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आधी से अधिक सर्पदंश मौतें भारत में होती हैं

दुनिया भर में प्रतिवर्ष सर्पदंश से करीब सवा लाख लोगों की मृत्यु होती है। इनमें से करीब 58,000 मौतें भारत में होती हैं। अलबत्ता, भारत में सर्पदंश के कई मामले तो दर्ज ही नहीं हो पाते। कुछ मामले अस्पतालों तक पहुंचते भी नहीं हैं – कुछ लोग झाड़-फूंक करने वालों और नीम-हकीमों के पास चले जाते हैं। नतीजतन, सर्पदंश की समस्या वास्तव में कितनी बड़ी है यह अस्पष्ट ही रह जाता है।

एक बात यह है कि सर्पदंश से हुई मृत्यु भारत में चिकित्सकीय-कानूनी (मेडिको-लीगल) मामला है क्योंकि सर्पदंश से मृत्यु के मामले में, मुआवज़ा प्राप्त करने के लिए मृतक के परिवारजनों को पुलिस से अनापत्ति प्रमाण पत्र और अस्पताल से सत्यापन पत्र लेना पड़ता है।

महज़ दो-चार लाख रुपए के मुआवजे के लिए इतने सारे नियम-कानून व कागज़ी कार्रवाई हेतु दफ्तरों के चक्कर लगाना पड़ते हैं एवं अनावश्यक विलम्ब होता है। यह भी तब जब सर्पदंश से पीड़ित व्यक्ति को इलाज मिल जाए। कुछ डॉक्टर कानूनी कार्रवाई के डर से सर्पदंश के मरीज़ों का इलाज करने से इन्कार भी कर देते हैं।

इस संदर्भ में ह्यूमन सोसायटी इंटरनेशनल के निदेशक सुमंत बिंदुमाधव सर्पदंश को एक अधिसूचित बीमारी घोषित करने की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं और कहते हैं कि अधिकांश नीति निर्माता एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम डैटा (IDSP) या केंद्रीय स्वास्थ्य खुफिया ब्यूरो (CBHI) के डैटा पर काम करते हैं, जो सटीक नहीं हैं। इसके अलावा यदि सर्पदंश से उबर भी जाएं तो उसका ज़हर स्वास्थ्य पर दीर्घकालिक असर डालता है और परिवारों पर इसका उच्च सामाजिक और आर्थिक असर पड़ता है।

सर्पदंश से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को ध्यान में रखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2017 में सर्पदंश को एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी (NTD) घोषित किया है और 2019 में इसने 2030 तक सर्पदंश के वैश्विक बोझ को आधा करने का लक्ष्य तय किया है। महत्वपूर्ण बात है कि इस लक्ष्य को हासिल करना तभी संभव है जब भारत में इस दिशा में पर्याप्त काम हो।

वैसे तो भारत में सर्पदंश की रोकथाम और नियंत्रण के लिए तुरंत ही एक राष्ट्रीय कार्यक्रम भी आ गया था, जिसने भविष्य में सर्पदंश के मामलों को नियंत्रित करने की रणनीतियों और तरीकों की पहचान की है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने 2022 में एक टास्क फोर्स का गठन किया है, जिसने भारत में सर्पदंश की घटनाओं, मृत्यु दर, रुग्णता और सामाजिक आर्थिक बोझ को समझने के लिए एक राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण शुरू किया है।

सर्वेक्षण में शामिल 14 में से 8 राज्यों में सर्वेक्षण हो गया है शेष राज्यों में अध्ययन जारी है। अब तक हुए अध्ययन में एक बात सामने आई है कि बाज़ार में उपलब्ध भारतीय पॉलीवैलेंट एंटीवेनम सभी जगह पर और हर तरह के ज़हर पर कारगर नहीं होता, इसलिए स्थानानुसार एंटीवेनम मुहैया होना चाहिए।

अध्ययन कई सिफारिशें भी करता है – जैसे मान्यता प्राप्त सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (जैसे आशा) को लोगों में सर्पदंश की प्रभावी रोकथाम और प्रबंधन के संदेश पहुंचाने के लिए प्रशिक्षित करना, क्योंकि सर्पदंश के 70 प्रतिशत से अधिक मामले ग्रामीण इलाकों में होते हैं।

इस वर्ष से सरकार ने सर्पदंश के लिए हर राज्य में नोडल अधिकारी नियुक्त करने का निर्णय भी लिया है। इस कदम से वित्तीय सहायता मिलने की उम्मीद है। राज्यों को कार्ययोजना बनाने के लिए भी कहा गया है। इसके अलावा, पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने मानव-वन्यजीव संघर्ष को लेकर 10 प्रजाति विशिष्ट दिशानिर्देश जारी किए हैं, जिनमें सांप भी शामिल है।

विशेषज्ञों ने इन नीतियों में कई कमियां भी पाईं है, जिन पर तत्काल हस्तक्षेप की आवश्यकता है। जैसे देश में एंटीवेनम की गुणवत्ता नियंत्रण की कमी चिंताजनक है। हो सकता है एंटीवेनम की कोई खेप उतनी शक्तिशाली न हो जितना होना चाहिए, क्योंकि केंद्रीय औषधि मानक और नियंत्रण संगठन के पास यह निर्धारित करने के कोई मानक नहीं हैं कि कोई एंटीवेनम कितना शक्तिशाली होना चाहिए।

एक सिफारिश है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों के लिए प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में सिर्फ वेंटिलटर पर जाने वाले गंभीर मामलों को नहीं बल्कि सर्पदंश के सभी मामलों को शामिल किया जाना चाहिए।

साथ ही, सर्पदंश के मामलों को थामने पर ध्यान केंद्रित होना चाहिए और काफी वित्त उन लोगों, संस्थानों, संगठनों और गैर-मुनाफा संस्थाओं को जाना चाहिए जो सर्पदंश थामने पर काम कर रहे हैं। कारगर रोकथाम बेहतर एंटीवेनम और पर्याप्त मुआवज़ा के खर्चे बचा सकती है। इसके लिए समुदाय स्तर पर काम करना फायदेमंद होगा, जैसे समुदाय को रोकथाम को लेकर प्रशिक्षित करना और औपचारिक स्वास्थ्य प्रणालियों या चिकित्सा को अपनाने के लिए समुदाय के लोगों को जागरूक बनाना।

इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में सर्पदंश की रोकथाम के लिए ज़रूरतमंदों को जूते, टॉर्च और मच्छरदानी जैसी आवश्यक चीज़ें उपलब्ध कराने की ज़रूरत है। घरों के आसपास थोड़ी तबदीली लाने की ज़रूरत है। जैसे यह सुनिश्चित करना होगा कि घर के पास लकड़ियों का ढेर न हो या भोजन आदि का कचरा न फैला रहे। यह आसान-सा उपाय सर्पदंश को रोकने में काफी मददगार साबित हो सकता है।

अक्सर सर्पदंश प्रबंधन बेहतर एंटीवेनम लाने या जागरूकता पर ही केंद्रित होता है। देखा जाए तो दोनों कदम महत्वपूर्ण हैं लेकिन पर्याप्त स्वास्थ्य तंत्र के अभाव में ये बेकार हैं। यदि हम बहुत प्रभावी एंटीवेनम बना लें और लोगों को जागरूक कर चिकित्सा के लिए जल्दी अस्पताल पहुंचा दें, किंतु इन प्रभावी एंटीवेनम का उपचार देने वाले अच्छे डॉक्टर या नर्स ही न हों या अस्पतालों में बिजली या अन्य सुविधाओं का अभाव हो तो तो ये हस्तक्षेप बेकार ही साबित होंगे।

इसलिए सिफारिश है कि प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को सर्पदंश सम्बंधी प्राथमिक चिकित्सा किट आसानी से उपलब्ध हो। प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर और आसानी से पहुंच में होंगी तो जागरूकता भी कारगर होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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