वायरस से लड़ने मे मददगार गुड़ और अदरक – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में मुझे भयानक सर्दी-ज़ुकाम हुआ था। दवाओं (एंटीबायोटिक, विटामिन सी) से कुछ भी आराम नहीं मिल रहा था। तो मेरी पत्नी ने घरेलू नुस्खा – गुड़ और अदरक मिलाकर – दिन में तीन बार लेने की सलाह दी। बस एक-दो दिन में ही सर्दी-खांसी गायब थी! यह कमाल गुड़ का था या अदरक का, यह जानने के लिए मैंने आधुनिक वैज्ञानिक साहित्य खंगाला। मैंने पाया कि सालों से चीन के लोग भी सर्दी-ज़ुकाम तथा कुछ अन्य तकलीफों से राहत पाने के लिए इसी तरह के एक पारंपरिक नुस्खे – जे जेन तांग – का उपयोग करते आए हैं। इसमें अदरक के साथ एक मीठी जड़ी-बूटी (कुद्ज़ु की जड़) का सेवन किया जाता है।

अदरक के औषधीय गुणों से तो सभी वाकिफ है। कई जगहों, खासकर भारत, चीन, पाकिस्तान और ईरान में इसके औषधीय गुणों के अध्ययन भी हुए हैं। ऐसा पाया गया है कि इसमें दर्जन भर औषधीय रसायन मौजूद होते हैं। 1994 में डॉ. सी. वी. डेनियर और उनके साथियों ने अदरक के औषधीय गुणों पर हुए 12 प्रमुख अध्ययनों की समीक्षा नेचुरल प्रोडक्ट्स पत्रिका में की थी। ये अध्ययन अदरक के ऑक्सीकरण-रोधी गुण, शोथ-रोधी गुण, मितली में राहत और वमनरोघी गुणों पर हुए थे। इसके अलावा पश्चिम एशियाई क्षेत्र के एक शोध पत्र के मुताबिक अदरक स्मृति-लोप और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों में भी फायदेमंद है। इस्फहान के ईरानी शोधकर्ताओं के एक समूह ने अदरक में स्वास्थ्य और शारीरिक क्रियाकलापों पर असर के अलावा कैंसर-रोघी गुण होने के मौजूदा प्रमाणों की समीक्षा की है।

कैंसररोधी गुण

कई अध्ययनों में अदरक में कैंसर-रोधी गुण होने की बात सामने आई है। औद्योगिक विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान (अब भारतीय विषविज्ञान अनुसंधान संस्थान) के डॉ. योगेश्वर शुक्ला और डॉ. एम. सिंह ने साल 2007 में अपने पर्चे में अदरक के कैंसर-रोधी गुण के बारे में बात की थी। उनके अनुसार अदरक में 6-जिंजेरॉल और 6-पेराडोल अवयव सक्रिय होने की संभावना है। साल 2011 में डॉ. ए. एम. बोड़े और डॉ. ज़ेड डोंग ने इस बात की पुन: समीक्षा की। अपनी पुस्तक ‘दी अमेज़िंग एंड माइटी जिंजर हर्बल मेडिसिन’में उन्होंने ताज़ी और सूखी (सौंठ), दोनों तरह की अदरक में मौजूद 115 घटकों के बारे में बताया, जिनमें जिंजेरॉल और उसके यौगिक मुख्य थे। शंघाई में हाल ही में प्रकाशित पर्चे के अनुसार अदरक कैंसर-रोधी 5-फ्लोरोयूरेसिल यौगिक की गठान-रोधक क्रिया को बढ़ाता है।

यानी अदरक औषधियों का खजाना है। मगर वापिस सर्दी-खांसी पर आ जाते हैं। कैसे अदरक सर्दी-खांसी में राहत पहुंचाता है? इसके बारे में कुछ जानकारी साल 2013 में जर्नल ऑफ एथ्नोमोफार्माकोलॉजी में प्रकाशित प्रो. जुंग सान चांग के पेपर से मिलती है। पेपर के अनुसार ताज़े अदरक में वायरस-रोधी गुण होते हैं। आम तौर पर सर्दी-ज़ुकाम वायरल संक्रमण के कारण होता है (इसीलिए एंटीबायोटिक दवाइयां सर्दी-ज़ुकाम में कारगर नहीं होती)। संक्रमण के लिए दो तरह के वायरस ज़िम्मेदार होते हैं। इनमें से एक है ह्यूमन रेस्पीरेटरी सिंशियल वायरस (HRSV)। चांग और उनके साथियों ने HRSV वायरस से संक्रमित कोशिकाओं पर अदरक के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि अदरक श्लेष्मा कोशिकाओं को वायरस से लड़ने वाले यौगिक का स्राव करने के लिए प्रेरित करता है। यह अनुमान तो पहले से था कि अदरक में विभिन्न वायरस से लड़ने वाले यौगिक मौजूद होते हैं। यह अध्ययन इस बात की पुष्टि करता है कि अदरक कोशिकाओं को वायरस से लड़ने वाले यौगिक का स्राव करने के लिए प्रेरित करता है। इसके पहले डेनियर और उनके साथियों ने बताया था कि अदरक में मौजूद बीटा-सेस्क्वीफिलांड्रीन सर्दी-ज़ुकाम के वायरस से लड़ता है और उसमें राहत पहुंचाता है।

वर्तमान में प्राकृतिक स्रोत से अच्छे एंटीबायोटिक और एंटीबैक्टीरियल पदार्थों की खोज, पारंपरिक औषधियों की तरफ रुझान, आधुनिक विधियों से उनकी कारगरता की जांच और पारंपरिक औषधियों को समझने के क्षेत्र में काफी काम हो रहा है। चीन इस क्षेत्र में अग्रणी है। चीन ने पेकिंग विश्वविद्यालय में पूर्ण विकसित औषधि विज्ञान केंद्र शुरु किया है। भारत भी इस मामले में पीछे नहीं है। भारत फंडिंग और कैरियर प्रोत्साहन के ज़रिए इस क्षेत्र में अनुसंधान को बढ़ावा दे रहा है।

परंपरा और वर्तमान

भारत में भी आयुष मंत्रालय इसी तरह के काम के लिए है। यह मंत्रालय यूनानी, आयुर्वेदिक, प्राकृतिक चिकित्सा, सिद्ध, योग और होम्योपैथी के क्षेत्र में शोध और चिकित्सीय परीक्षण को बढ़ावा देता है। यह एक स्वागत-योग्य शुरुआती कदम है। दरअसल, हमें इस क्षेत्र के (पारंपरिक) चिकित्सकों और शोधकर्ताओं की ज़रूरत है जो आधुनिक तकनीकों और तरीकों से काम करने वाले जीव वैज्ञानिकों और औषधि वैज्ञानिकों के साथ काम कर सकें ताकि इससे अधिक से अधिक लाभ उठाया जा सके। वैसे सलीमुज़्ज़मन सिद्दीकी, टी. आर. शेषाद्री, के. वेंकटरमन, टी.आर. गोविंदाचारी, आसिमा चटर्जी, नित्यानंद जैसे जैव-रसायनज्ञ और औषधि वैज्ञानिक वनस्पति विज्ञानियों और पारंपरिक चिकित्सकों के साथ मिलकर काम करते रहे हैं। यदि आयुष मंत्रालय विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय और रसायन और उर्वरक मंत्रालय के सम्बंधित विभागों के साथ मिलकर काम करे तो कम समय में अधिक प्रगति की जा सकती है। भारत में घरेलू उपचार की समृद्ध परंपरा रही है। देश भर में फैली अपनी सुसज्जित प्रयोगशाला के दम पर भारत भी चीन की तरह सफलता हासिल कर सकता है। शुरुआत हम भी चीन की तरह ही प्राकृतिक स्रोतों में एंटी-वायरल तत्व खोजने के कार्यक्रम से कर सकते हैं।

मगर आखिर इस नुस्खे में गुड़ क्या काम करता है। ऐसा लगता है कि तीखे स्वाद के अदरक को खाने के लिए गुड़ की मिठास का सहारा लेते हैं। पर गुड़ में शक्कर की तुलना में 15-35 प्रतिशत कम सुक्रोस होता है और ज़्यादा खनिज तत्व (कैल्शियम, मैग्नीशियम और लौह) होते हैं। साथ ही यह फ्लू के लक्षणों से लड़ने के लिए भी अच्छा माना जाता है। दुर्भाग्य से गुड़ के जैव रासायनिक और औषधीय गुणों पर अधिक अनुसंधान नहीं हुए हैं। तो शोध के लिए एक और रोचक विषय सामने है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होम्योपैथी अध्ययन पर बवाल

हाल ही में एक अध्ययन में दावा किया गया है कि होम्योपैथी उपचार से चूहों को दर्द से राहत मिलती है। यह अध्ययन साइंटिफिक रिपोर्टस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है जो एक ऐसी पत्रिका है जिसमें समकक्ष समीक्षा की प्रक्रिया की जाती है। होम्योपैथी के कई समर्थक समूह इस अध्ययन को लेकर काफी उत्साहित हैं किंतु कई अन्य समूहों ने इन नतीजों पर शंका प्रकट की है।

उपरोक्त शोध पत्र के प्रमुख लेखक धुले के औषधि विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान के चंद्रगौड़ा पाटिल हैं। उनका कहना है कि उनके अध्ययन के नतीजे अत्यंत प्रारंभिक हैं और अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें मनुष्यों पर लागू किया जा सकता है या नहीं।

चूहों पर किए गए इस अध्ययन में पाटिल व उनके साथियों ने बताया है कि टॉक्सिकोडेंड्रॉन प्यूबीसेंस (Toxicodendron pubescens) नामक एक पौधे का अत्यंत तनु काढ़ा 8 चूहों को पिलाया गया। यह देखा गया कि गर्म या ठंडे से संपर्क होने पर ये चूहे कितनी तेज़ी से अपना पंजा हटा लेते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह औषधि सूजन व दर्द को कम करने में एक दर्द निवारक दवा गैबापेंटिन के बराबर कारगर साबित हुई थी।

अन्य वैज्ञानिकों का कहना है कि 8 चूहों का नमूना बहुत छोटा है। इसके अलावा अध्ययन के दौरान शोधकर्ता जानते थे कि किस चूहे को औषधि दी गई है और किसे नहीं। अत: चूहों की प्रतिक्रिया को रिकॉर्ड करने में उनके पूर्वाग्रहों की भूमिका हो सकती है। वैसे, इस शोध पत्र के एक विश्लेषण में यह भी पता चला कि इसमें दो अलगअलग प्रयोगों के लिए जो चित्र दिए गए हैं, वह दरअसल एक ही चित्र है। इसके अलावा आंकड़ों में गफलत नज़र आई है। पाटिल का कहना है कि ये त्रुटियां भूलवश रह गई हैं और वे शोध पत्रिका से अनुरोध करेंगे कि इन्हें दुरुस्त करके शोध पत्र को अपडेट कर दे।

वैज्ञानिकों में असंतोष इस बात को लेकर है कि साइंटिफिक रिपोर्टस जैसी पत्रिका के प्रकाशनपूर्व समीक्षकों ने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। पत्रिका के संपादकों का कहना है कि वे पूरे मामले की जांच करवा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्यों होती है गाय के दूध से एलर्जी – नरेंद्र देवांगन

क वर्ष के एक दुबले-पतले बच्चे को लेकर एक महिला डॉक्टर के पास पहुंची। बच्चे को पांच-छह महीने से कब्ज़ की शिकायत थी और यह बीमारी ठीक नहीं हो रही थी। पूछताछ के दौरान पता चला कि उस महिला को दूध नहीं आ रहा था इसलिए उसका बच्चा जन्म से ही गाय का दूध पी रहा था। पूछताछ के दौरान यह भी पता चला कि उस महिला की बड़ी बहन, उसकी मां तथा दादी को गाय के दूध से एलर्जी थी। अब डॉक्टर को उस बच्चे की कब्ज़ियत का कारण पता चल गया। उस बच्चे के इलाज के क्रम में दूध तथा दूध से बनी चीज़ें देने की मनाही कर दी गई और हरी सब्ज़ी, फल, साग आदि खिलाने की हिदायत के साथ-साथ मल को मुलायम करने तथा पेट साफ करने वाली मामूली-सी एक-दो दवाएं दी गर्इं। दो-तीन दिनों में ही अनुकूल प्रभाव देखने को मिला। कब्ज़ छूमंतर हो गई, मल नियमित रूप से होने लगा।

इसी तरह एक तीन महीने के बच्चे की मां को भी दूध नहीं आता था। उसकी भी शिकायत थी कि उसके बच्चे को गाय का दूध पचता ही नहीं। दूध पिलाने के बाद उल्टी हो जाती है। डायरिया की शिकायत तो करीब ढाई महीने से है ही। बच्चे का स्वास्थ्य एकदम गिर गया था। पूछताछ के क्रम में मात्र इतना पता चला कि उस बच्चे की मां को भी दूध पीना अच्छा नहीं लगता। इतना ही नहीं, जब वह दूध पी लेती है तो तुरंत उल्टी हो जाती है और सारा दूध बाहर निकल जाता है। बच्चे की जांच के दौरान पाया गया कि उसे एनीमिया था और शरीर में पानी कमी थी।

गाय, बकरी तथा मनष्य के दूध की तुलना (मात्रा प्रति 100 ग्राम में)
  गाय बकरी मनुष्य
वसा (ग्राम) 3.80 4.00 3.10
प्रोटीन (ग्राम) 3.50 3.50 1.25
लैक्टोस (ग्राम) 4.80 4.30 7.20
कैल्शियम (ग्राम) 120.0 170.0 28.20
लोहा (मि. ग्राम) 0.2 0.3
पानी (ग्राम) 87.25 87.50 88.20
ऊर्जा (कि.कैलोरी) 67.0 72.0 65.0

एक-दो प्रतिशत बच्चे गाय के दूध के प्रति अति संवेदनशील होते हैं। वे उसकी थोड़ी-सी भी मात्रा को पचा नहीं पाते। या तो उन्हें कब्ज़ रहने लगती है या फिर उल्टी और दस्त की शिकायत हो जाती है। पेट में दर्द की भी शिकायत कई वजह से होती है। श्वसन तंत्र की कुछ बीमारियां जैसे नाक बहना, खांसी, सर्दी आदि भी हो सकती है। कई मरीज़ों में त्वचा सम्बंधी विकार भी उत्पन्न हो जाते हैं, जैसे एक्जि़मा, फोड़े-फुंसी आदि। पाचन शक्ति ठीक नहीं होने तथा संक्रमण की वजह से एनीमिया हो जाता है। इससे शारीरिक तथा मानसिक विकास या तो धीमा हो जाता है या रुक जाने के लक्षण दिखने लगते हैं। दूध से एलर्जी दो साल की अवस्था के बाद स्वत: समाप्त हो जाती है।

ऐसा क्यों होता है? इसके सटीक कारणों की जानकारी शिशु रोग विशेषज्ञों को भी नहीं है। फिर भी जितनी जानकारी है उसके आधार पर डॉक्टरों का मत है कि इसके लिए प्रतिरक्षा तंत्र ही मुख्य रूप से दोषी है। इतना ही नहीं गाय के दूध में कुछ ऐसे पदार्थ पाए जाते हैं जो कई बच्चों की पाचन शक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

दूध में पाया जाने वाला प्रोटीन मुख्यत: कैसीन, लैक्टाल्ब्यूमिन तथा लैक्टोग्लोबुलिन के रूप में पाया जाता है। मनुष्य के दूध की अपेक्षा गाय तथा बकरी के दूध में प्रोटीन तीन गुना अधिक होता है। कैसीन नामक प्रोटीन दूध के कैल्सियम के साथ मिलकर कैल्सियम कैसिनेट के रूप में रहता है। कैसीन तथा एल्ब्यूमिन का अनुपात मनुष्य के दूध में 1:1 तथा जानवर के दूध में 7:1 का होता है। गाय के दूध में पाए जाने वाले प्रोटीन का अणु मनुष्य के दूध की अपेक्षा बड़ा होता है, जिसका सीधा प्रभाव पाचन तंत्र की दीवार पर पड़ता है। इस दौरान बाहरी दूध से अत्यधिक मात्रा में एंटीजन प्रवेश करता है।

 

नवजात शिशु में पाचन तंत्र पूरी तरह विकसित नहीं होता है। अत: कई तरह से उसकी दीवार को क्षति पहुंचती है। उसकी दीवार की भीतरी सतह नष्ट हो जाती है और पचे भोजन को अवशोषित करने वाली प्रणाली बुरी तरह प्रभावित होती है। इतना ही नहीं, कई तरह के जीवाणुओं का संक्रमण भी हो जाता है, क्योंकि प्रतिरोधी क्षमता भी पूरी तरह विकसित नहीं रहती। नतीजा यह होता है कि बच्चा दूध को पचा पाने में सक्षम नहीं होता और उल्टी, डायरिया, कब्ज़ आदि कई तरह के लक्षण नज़र आने लगते हैं। इस तरह के मरीज़ में मुख्यत: लैक्टोग्लोबुलिन से ही एलर्जी होती है। इसके अतिरिक्त कैसीन, लैक्टाल्ब्यूमिन, ग्लोबुलिन से भी एलर्जी हो सकती है।

अब यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि किसी महिला को कैसे पता चले कि उसके बच्चे को गाय के दूध से एलर्जी है। यहां यह भी कह देना ज़रूरी है कि इसकी कोई विशेष जांच नहीं होती। इसका पता मात्र दूध छोड़ने तथा कुछ अंतराल के बाद पुन: देने के बाद होने वाले लक्षणों से ही चल सकता है। एन. डब्लू. क्लाइन नामक चिकित्सक ने 206 बच्चों में दूध से होने वाली एलर्जी का गहन अध्ययन किया और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि कब्ज़ के शिकार 6 प्रतिशत बच्चों को (जिन्हें जुलाब से भी कोई फायदा नहीं हुआ था) खाने में गाय का दूध तथा इससे बने खाद्य पदार्थ न देने पर कब्ज़ियत दूर हो गई।

सामान्य माताओं को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि गाय के दूध से एलर्जी हो सकती है। यदि नवजात शिशु या कम उम्र के बच्चे को कब्ज़ियत, पेट में दर्द, उल्टी या डायरिया की शिकायत हो तथा किसी कारणवश मां के दूध की जगह उसे गाय का दूध दिया जा रहा हो तो तुरंत गाय का दूध पिलाना बंद कर देना चाहिए। गाय के दूध की जगह पर कोई दूसरा दूध दिया जा सकता है। सोयाबीन का दूध अच्छा होता है। यह बाज़ार में सूखे पाउडर के रूप में मिलता है। यदि बकरी का दूध उपलब्ध हो तो वह देने में कोई हर्ज नहीं है।

जब बच्चे की उम्र 9 महीने की हो जाए तो गाय का दूध थोड़ी मात्रा में देना शुरू कर देना चाहिए। शुरू-शुरू में मात्र कुछ बूंदें देकर उसका प्रभाव देखना चाहिए। यदि कोई दिक्कत न हो तो धीरे-धीरे मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की देख-रेख ज़रूरी है। वैसे भी दो वर्ष की अवस्था तक पहुंचते-पहुंचते छोटी आंत की दूध पचाने की शक्ति बढ़ जाती है और उससे एलर्जी स्वत: समाप्त हो जाती है। कई बार गाय के दूध में पानी तथा चीनी उचित मात्रा में नहीं मिलाने पर भी बच्चे को डायरिया या उल्टी होने लगती है। गाय का दूध 24 घंटे में 5-6 बार ही पिलाना चाहिए, न कि बार-बार। दूध की कितनी मात्रा दी जाए यह बच्चे के वज़न पर निर्भर करता है।

एक बात और, यदि अपना दूध देना एकदम मना न हो तो स्तनपान ही सर्वोत्तम है। यदि मां को कोई ऐसी बीमारी है जिसमें स्तनपान कराना वर्जित हो तब स्तनपान न कराया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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सुप्त जीन को जगाकर कैंसर का इलाज – डॉ.डी. बालसुब्रमण्यन

कोशिकाओं में स्वस्थ रहने, विकारों या गड़बड़ियों को दुरुस्त करने और निश्चित संख्या में विभाजित होने व अपनी प्रतियां बनाने के लिए क्रियाविधियां होती हैं। शरीर में ये सभी प्रक्रियाएं बहुत नियंत्रित तरीके से चलती रहती हैं। लेकिन बाहरी कारक जैसे धूम्रपान या विकिरण वगैरह इसमें बाधा डालें तब क्या होगा? तब एक संभावना होती है कैंसर की। कैंसर में, कोशिकाओं में मौजूद डीएनए क्षतिग्रस्त हो जाता है। जिससे शरीर में कोशिकाएं अनियंत्रित तरीके से विभाजित होने लगती हैं और शरीर में गठानें बनने लगती हैं। जिससे शरीर के अंग कमज़ोर हो जाते हैं। कोशिकाओं में ऐसे जीन्स और उनके द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन होते हैं जो इन गठानों की वृद्धि को रोकने का प्रयास करते हैं। ऐसा ही एक जीन है TP53। जब शरीर की यह नियंत्रण प्रणाली गड़बड़ा जाती है, तब परिणाम कैंसर के रूप में सामने आता है।

एक विरोधाभास

गौरतलब है कि कोशिका विभाजन की प्रक्रिया त्रुटियों से सुरक्षित नहीं है। शरीर में जितनी ज़्यादा कोशिकाएं होंगी, इस तरह की त्रुटियों की संभावना भी उतनी ही ज़्यादा होगी। तब काफी संभावना होगी कि वृद्धि के साथ होने वाली त्रुटियां सुरक्षा तंत्र को परास्त कर दें। यदि यह माना जाए कि प्रत्येक कोशिका के कैंसर में तब्दील होने की संभावना बराबर है तो हाथियों में कैंसर होने की संभावना मनुष्यों के मुकाबले कई गुना ज़्यादा होनी चाहिए क्योंकि मनुष्य की तुलना में हाथियों में कहीं ज़्यादा (कई अरब) कोशिकाएं हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। 4800 कि.ग्रा. के हाथी में कैंसर होने की संभावना 5-8 प्रतिशत ही होती है जबकि मनुष्यों में कैंसर होने की संभावना 11-25 प्रतिशत होती है। 40,000 कि.ग्रा. की भारीभरकम व्हेल और 600 कि.ग्रा. के मैनेटेस (समुद्री गाय) को शायद ही कभी कैंसर होता है। वहीं दूसरी ओर, चंद ग्राम भारी चूहों में मनुष्यों की तुलना में कैंसर होने की संभावना 3 गुना ज़्यादा है। इस प्रकार शरीर के वज़न (आकार) और कैंसर की संभावना के बीच विलोम सम्बंध दिखता है। 70 साल पहले ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के डॉ. रिचर्ड पेटो ने इस विलोम सम्बंध को देखा था, इसलिए इसे पेटो का विरोधाभास कहते हैं। तब से कई वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की कोशिश करते रहे हैं।

इसका एक संभावित स्पष्टीकरण जीनोम (पूरे शरीर में जीन का संग्रह) के अध्ययन से मिलता है। विकास के दौरान चूहों, मनुष्यों, मैनेटेस और मैमथ जैसे जानवरों में बड़ी संख्या में जीन इकठ्ठे होते गए हैं। इनमें से कई जीन सक्रिय हैं और शरीर के काम करने के लिए ज़रूरी पदार्थ (प्रोटीन) बनाते हैं। लेकिन जीनोम को ध्यान से देखें तो पाते हैं कि 2-20 प्रतिशत डीएनए का उपयोग शायद ही कभी होता हो। यह किसी भी आरएनए या प्रोटीन के लिए कोड नहीं करता। यह तो बस विकास या आनुवंशिक विरासत के कारण इकट्ठा होता गया है और मौजूद भर है। जीव विज्ञानी इसे जंक डीएनए (फालतू डीएनए) कहते हैं। (अनुमान है कि मानव जीनोम में लगभग 97 प्रतिशत आनुवंशिक अनुक्रम फालतू है)। इनमें से कई जीन्स में सक्रिय करने वाला प्रमोटर नदारद रहता है। अगर किसी तरीके से इन गैरकोड जीन्स को सक्रिय कर दिया जाए तो कोशिका कुछ अतिरिक्त कार्य कर सकती है।

जीन जागरण

ऐसा लगता है कि इन सुप्त जीन्स को सक्रिय कर लेने की क्षमता ही हाथियों में कम कैंसर होने का कारण है। इस बात को शिकागो विश्वविद्यालय के डॉ. विंसेट जे. लिंच और उनके समूह ने सेल रिपोट्र्स नामक पत्रिका में प्रकाशित किया है। (अधिक जानने के लिए इसे https://doi.org/10.1016/j.cellrep.2018.07.042पर पढ़ सकते हैं)। उन्होंने हाथी के जीनोम में एक सुप्त जीन LIF के लिए ज़ोंबी शब्द का उपयोग किया है। ज़ोंबी से क्या आशय है? हैती देश की लोककथा के अनुसार ज़ोंबी यानि काला जादू करके ज़िंदा की गई लाश, जिससे काम करवाया जा सके। (वैसे LIF जीन को कुम्भकर्ण जीन कहना ज़्यादा उचित होगा। कुम्भकर्ण ने वरदान मांगते समय गलती से इंद्रासन की जगह निद्रासन मांग लिया था। जिसके कारण वो महीनों सोता था और सिर्फ युद्ध करने के लिए जागता था। अलबत्ता, कुम्भकर्ण लाश नहीं था, वह तो बस सो रहा था!)

शोघकर्ताओं ने पाया कि हाथी के जीनोम में सुप्त LIF जीन कैंसररोधी प्रोटीन अणु P53 द्वारा सक्रिय हो जाता है। LIF (ल्यूकेमिया अवरोधक कारक) कोशिकाओं के डीएनए को क्षतिग्रस्त होने से रोकता है। यदि डीएनए क्षतिग्रस्त होता है या उसमें कोई विकार होता है तो कैंसर होने की संभावना रहती है। हाथी के जीनोम में LIF जीन की 10 प्रतियां होती हैं और मनुष्यों में एक प्रति होती है। यह जीन सक्रिय होकर LIF बनाता है जो शरीर में उन कोशिकाओं को तलाशता है जिनके डीएनए क्षतिग्रस्त हैं। यह कुछ अन्य प्रोटीन्स के साथ मिलकर उन क्षतिग्रस्त कोशिकाओं को मार देता है। इस प्रक्रिया को प्रोटीन P53 द्वारा प्रेरित किया जाता है जिसका कोड TP53 जीन होता है। हाथी के पास TP53 की 20 प्रतियां होती हैं, मनुष्यों में इसकी तुलना में सिर्फ एक प्रति होती है। तो हाथियों ने ट्यूमर हटाने वाला जीन विकसित करके कैंसर के खतरे को कम कर दिया है।

यदि ज़ोंबी/कुम्भकर्ण LIF जीन को सक्रिय करके हाथी सरीखे जानवर कैंसर की संभावना को कम कर सकते हैं तो मनुष्यों को भी इस तरह की कोशिश करनी चाहिए। शिकागो टीम का पेपर सामने आने के बाद यह तो तय है कि कई समूह और शोधकर्ता इस दिशा में प्रयासरत होंगे। यह शोध कार्य लास्कर या नोबेल पुरस्कार का मुन्तज़िर है। (स्रोत फीचर्स)

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मीठा कागज पानी से बैक्टीरिया हटाएगा – डॉ. दीपक कोहली

कनाडा में भारतीय मूल के शोधकर्ताओं के एक दल ने चीनीयुक्त कागज की एक विशेष पट्टी विकसित की है, जिसके ज़रिए पानी से हानिकारक बैक्टीरिया दूर किए जा सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि इससे भारत समेत दुनिया भर में, खासकर ग्रामीण इलाकों में प्रदूषित पानी से ई.कोली नामक हानिकारक बैक्टीरिया को खत्म किया जा सकेगा। इस विशेष पट्टी को डिप ट्रीट नाम दिया गया है।

यॉर्क यूनिवर्सिटी की माइक्रो एंड नैनो स्केल ट्रांसपोर्ट लैब के शोधकर्ता सुशांत मित्रा ने कहा कि उनकी खोज डिप ट्रीट दुनिया भर में स्वास्थ्य लाभों के साथ किफायती और पोर्टेबल उपकरणों के विकास के लिए अहम होगी।

प्रदूषित पानी के नमूनों में डिप ट्रीट को डुबोकर लगभग 90 प्रतिशत बैक्टीरिया को प्रभावी तरीके से समाप्त करने में शोध टीम को सफलता मिल चुकी है। डिप ट्रीट की मदद से पानी में ई.कोली बैक्टीरिया का पता लगाने, उसे पकड़ने और खत्म करने में दो घंटे से भी कम समय लगेगा। इस विशेष कागज़ी पट्टी के इस्तेमाल से वैश्विक स्वास्थ्य के परिदृश्य को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। इससे कनाडा के सुदूर उत्तरी क्षेत्रों से लेकर भारत के पिछड़े ग्रामीण इलाकों तक, पानी को बैक्टीरिया प्रदूषण से मुक्त करना आसान हो सकेगा।

कई शोधकर्ता पानी से बैक्टीरिया को हटाने के लिए कागज की छिद्रयुक्त पट्टी का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन डिप ट्रीट में सहजन की फलियों के बीज में पाए जाने वाले बैक्टीरियारोधी तत्व का इस्तेमाल किया है, ताकि प्रदूषित पानी से बैक्टीरिया को न केवल छाना जा सके, बल्कि नष्ट भी किया जा सके।

मौजूदा जलशोधन प्रणालियों में चांदी के सूक्ष्म कणों और मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है। इन चीज़ों के इस्तेमाल से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले संभावित प्रभावों के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। लेकिन डिप ट्रीट में कुदरती बैक्टीरियारोधी तत्व चीनी का इस्तेमाल किया गया है। इससे पर्यावरण और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ने की संभावना नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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नशा विरोधी प्रयासों के लिए अच्छी खबर – भारत डोगरा

जहां एक ओर विश्व में शराब से बढ़ती स्वास्थ्य व सामाजिक टूटन की समस्याओं के बारे में गहरी चिंता है, वहीं दूसरी ओर, एक उम्मीद जगाने वाली प्रवृत्ति भी सामने आई है। वह यह है कि हाल के समय में शराब छोड़ने वालों की संख्या भी काफी अधिक रही है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने हाल ही में शराब व स्वास्थ्य पर अपनी वर्ष 2018 की रिपोर्ट जारी की है। इसमें वर्ष 2016 के लिए शराब के सेवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण आंकडे संकलित किए गए हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार 15 वर्ष से ऊपर के आयु वर्ग में यदि पुरुषों व महिलाओं को देखा जाए तो विश्व के 43 प्रतिशत व्यक्ति शराब पीते हैं व 44 प्रतिशत ऐसे हैं जिन्होंने जीवन में कभी शराब नहीं पी है। सवाल यह है कि शेष 13 प्रतिशत की क्या स्थिति है। ये बचे हुए 13 प्रतिशत वे लोग हैं जो पहले तो शराब पीते थे पर पिछले 12 महीनों में उन्होंने शराब नहीं पी। यदि ऐसे लोगों की विश्व में कुल संख्या देखी जाए तो यह लगभग 68 करोड़ है।

यह ज़रूरी नहीं है कि इन सबने बहुत दृढ़ व अच्छे निश्चय के आधार पर 12 महीने तक शराब नहीं पी। हो सकता है कि स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण डाक्टरों व परिवार ने उन पर इसके लिए बहुत दबाव बनाया हो। वजह कोई भी रही हो, पर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे पहले शराब पीते थे पर पिछले एक वर्ष में उन्होंने शराब नहीं पी।

इससे यह मिथक टूटता है कि जिसने एक बार शराब पीनी शुरू कर दी वह शराब छोड़ नहीं सकता है। जब इतने अधिक लोग पहले शराब पीने के बावजूद एक वर्ष तक शराब से दूर रह पाए, तो इसका अर्थ यह हुआ कि पर्याप्त प्रयास करने पर तथा उचित माहौल मिलने पर बड़ी संख्या में शराब पीने वाले इसे छोड़ सकते हैं।

एक अन्य उत्साहवर्धक समाचार यह है कि रूस व पूर्वी यूरोप के कुछ देशों में जहां प्रति व्यक्ति शराब की खपत बहुत बढ़ गई थी वहां सरकारों के प्रयासों से प्रति व्यक्ति शराब की खपत में महत्वपूर्ण कमी दर्ज की गई है।

अब केवल अपने देश के आंकड़ों को देखें तो यहां कभी शराब न पीने वाले व्यक्तियों की संख्या 54 प्रतिशत है व पीने वालों की संख्या 39 प्रतिशत है। शेष 7 प्रतिशत ऐसे हैं जो पहले शराब पीते थे पर पिछले एक वर्ष में उन्होंने शराब नहीं पी है। जहां विश्व में ऐसे व्यक्तियों की संख्या 13 प्रतिशत है हमारे देश में यह 7 प्रतिशत है। पर 7 प्रतिशत भी कम नहीं है। इससे भी यही पता चलता है कि यदि उचित स्थितियां मिले तो बहुत से लोग शराब छोड़ सकते हैं।

हमारे देश का एक विशिष्ट अनुभव यह रहा है (जिससे अन्य देश भी बहुत कुछ सीख सकते हैं) कि शराबविरोधी जन आंदोलनों के दौरान कई बार ऐसा प्रेरणादायक माहौल बनता है कि बहुत से लोग शराब छोड़ देते हैं। दल्ली राजहरा (छत्तीसगढ़) व पठेड़ गांव (ज़िला सहारनपुर, उत्तर प्रदेश) जैसे अनेक शराब विरोधी आंदोलनों के दौरान ऐसा होना देखा गया। आज़ादी की लड़ाई से भी शराब विरोधी आंदोलन नज़दीकी तौर पर जुड़ा था व इसके प्रेरणादायक असर से भी बहुत से लोगों ने शराब छोड़ी थी। अत: एक बड़ा प्रयास यह होना चाहिए कि समाज में शराब छोड़ने के लिए प्रेरणादायक माहौल बने व शराब विरोधी आंदोलन को प्रोत्साहन मिले।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केंद्रक में स्थिति डीएनए के काम को प्रभावित करती है

यह तो अब जानीमानी बात है कि डीएनए नामक अणु में क्षारों के क्रम से तय होता है कि वह कौनसे प्रोटीन बनाने का निर्देश देगा। डीएनए हमारी कोशिका के केंद्रक में पाया जाता है। मानव कोशिका में लगभग 3 मीटर डीएनए होता है। यह कोशिका के केंद्रक में काफी व्यवस्थित रूप से गूंथा होता है। और अब वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इस डीएनए अणु का कौनसा हिस्सा केंद्रक के किस हिस्से में स्थित है, इस बात का असर उस हिस्से के काम पर पड़ता है।

केंद्रक के अंदर काफी गहमागहमी रहती है। हर चीज़ यानी गुणसूत्र, केंद्रिका वगैरह यहांवहां भटकते रहते हैं। लगता है कि सारी गतियां बेतरतीब ढंग से हो रही हैं किंतु पिछले दशक में किए गए अनुसंधान से पता चला था कि गुणसूत्र और उसमें उपस्थित डीएनए विशिष्ट स्थितियों में जम सकते हैं और इसका असर जीन्स की क्रिया पर पड़ सकता है। मगर यह बात अटकल के स्तर पर ही थी। अब इसके प्रमाण मिले हैं।

वैज्ञानिकों ने हाल ही में विकसित जीनसंपादन की तकनीक क्रिस्पर को थोड़ा परिवर्तित रूप में इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से वे केंद्रक के अंदर डीएनए के विशिष्ट हिस्सों को एक जगह से दूसरी जगह सरका सकते हैं। सेल नामक शोध पत्रिका में उन्होंने बताया है कि सबसे पहले उन्होंने डीएनए को एक प्रोटीन से जोड़ दिया। पादप हारमोन एब्सिसिक एसिड की उपस्थिति में वह प्रोटीन एक अन्य प्रोटीन से जुड़ जाता है। यह दूसरा प्रोटीन केंद्रक के मात्र उस हिस्से में पाया जाता है जहां डीएनए को सरकाकर पहुंचाना है। दूसरा प्रोटीन डीएनए को कसकर पकड़ लेता है और उसे वांछित हिस्से में जमाए रखता है। एब्सिसिक एसिड हटाने पर यह कड़ी टूट जाती है और डीएनए कहीं भी जाने को मुक्त हो जाता है।

शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस तकनीक की मदद से वे कई जीन्स को केंद्रक के मध्य भाग से उसके किनारों पर ले जाने में सफल हुए हैं। उन्होंने यही प्रयोग टेलोमेयर के साथ भी किया। टेलोमेयर गुणसूत्रों के सिरों पर स्थित होते हैं और इनका सम्बंध कोशिका की विभाजन क्षमता तथा बुढ़ाने से देखा गया है। जब शोधकर्ताओं ने टेलोमेयर्स को केंद्रक की अंदरूनी सतह के पास सरका दिया तो कोशिका की वृद्धि लगभग रुक गई। किंतु जब इन्हीं टेलोमेयर्स को कैजाल बॉडीज़ के पास सरका दिया गया तो कोशिका तेज़ी से वृद्धि करने लगी और विभाजन भी जल्दीजल्दी हुआ। कैजाल बॉडी प्रोटीन और जेनेटिक सामग्री से बने संकुल होते हैं जो आरएनए का प्रोसेसिंग करते हैं।

यदि टेलोमेयर्स की केंद्रक में स्थिति और कोशिका के विभाजन के सम्बंध की यह समझ सही साबित होती है, तो हम यह समझ पाएंगे कि कोशिका को स्वस्थ कैसे रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)

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एक ही लिंग के चूहों के बच्चे

संतानोत्पत्ति के लिए नर और मादा लिंगों की ज़रूरत से तो सब वाकिफ हैं। लेकिन यह बात सिर्फ स्तनधारियों के लिए सही है। पक्षियों, मछलियों और छिपकलियों की कुछ प्रजातियों में एक ही लिंग के दो जंतु मिलकर संतान पैदा कर लेते हैं। मगर अब वैज्ञानिकों ने दो मादा चूहों (जो स्तनधारी होते हैं) के डीएनए से संतानें पैदा करवाने में सफलता प्राप्त कर ली है। और तो और, इन संतानों की संतानें भी पैदा हो चुकी हैं। वैसे वैज्ञानिकों ने दो नर चूहों कीजेनेटिक सामग्री लेकर भी संतानोत्पत्ति के प्रयास किए मगर इनसे उत्पन्न संतानें ज़्यादा नहीं जी पार्इं।

आखिर क्या कारण है कि एक ही लिंग के जीव आम तौर पर संतान पैदा नहीं कर पाते? वैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा जेनेटिक छाप या इम्प्रिंट के कारण होता है। जेनेटिक इम्प्रिंट छोटेछोटे रासायनिक बिल्ले होते हैं जो डीएनए से जुड़ जाते हैं और किसी जीन को निष्क्रिय कर देते हैं। वैज्ञानिक अब तक ऐसे 100 Ïम्प्रट खोज पाए हैं। इनमें से कुछ ऐसे जीन्स पर पाए जाते हैं जो भ्रूण के विकास को प्रभावित करते हैं। कई जीन्स एक लिंग में चिंहित किए जाते हैं मगर दूसरे लिंग में अचिंहित रहते हैं। यदि दोनों के जीन्स चिंहित हों (जैसा कि एक ही लिंग के पालकों में होगा) तो भ्रूण जीवित नहीं रह पाता है।

बेजिंग के चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ के की ज़ाऊ इसी समस्या से निपटना चाहते थे। उनकी टीम ने शुक्राणु या अंडाणु की स्टेम कोशिकाएं लीं। इन कोशिकाओं में गुणसूत्रों की जोड़ियां नहीं बल्कि एक ही सेट होता है। अन्य कोशिकाओं के समान इनमें भी ऐसे जेनेटिक हिस्से होते हैं जो इÏम्प्रट पैदा कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन जेनेटिक हिस्सों को एकएक करके हटाया। वे यह देखना चाहते थे कि कौनसे हिस्सों को हटाने से भ्रूण का विकास बाधित नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने एक मादा चूहे की स्टेम कोशिका को दूसरे मादा चूहे के अंडे में प्रविष्ट कराया ताकि बच्चे पैदा हो सकें। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने शुक्राण स्टेम कोशिकाओं पर भी किया। एक अंडे में से उसका केंद्रक (यानी जेनेटिक सामग्री) हटा दी। इस केंद्रकविहीन अंडे में उन्होंने एक नर का शुक्राणु और दूसरे नर की शुक्राणु स्टेम कोशिका डाल दी।

तीन जेनेटिक हिस्से हटा देने के बाद शोधकर्ता दो मादाओं से 20 जीवित संतानें पैदा कर पाए। दूसरी ओर, दो नरों से 12 संतान पैदा करवाने के लिए उन्हें सात जेनेटिक हिस्से हटाने पड़े थे। मगर दो नरों से पैदा ये संतानें मात्र दो दिन जीवित रहीं।

यह शोध कार्य चौंकाने वाला ज़रूर है किंतु इससे मुख्य बात यह पता चली है कि वे कौनसे जेनेटिक हिस्से हैं जो स्तनधारियों में संतानोत्पत्ति के लिए ज़रूरी हैं और जिनकी वजह से प्रजनन क्रिया में उन्हें दो लिगों की ज़रूरत पड़ती है। वैसे अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि अब दो स्त्रियां मिलकर बच्चे पैदा करने लगेंगी। (स्रोत फीचर्स)

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चिकित्सा नोबेल पुरस्कार – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से दिया गया है। इन दोनों ने ही कैंसर के उपचार में शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी अनुसंधान किया है। अलबत्ता, कैंसर के उपचार में प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका को समझने के प्रयासों का इतिहास काफी पुराना है।

आम तौर पर कैंसर के उपचार में कीमोथेरपी, विकिरण और सर्जरी का सहारा लिया जाता है। इन सबकी अपनीअपनी समस्याएं है। उनमें न जाते हुए हम बात करेंगे कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र किस तरह से कैंसर का मुकाबला कर सकता है और जब कर सकता है, तो करता क्यों नहीं है। और नए अनुसंधान ने इसे कैसे संभव बनाया है।

यह बात काफी समय से पता रही है कि प्रतिरक्षा तंत्र कैंसर के नियंत्रण में कुछ भूमिका तो निभाता है। जैसे अट्ठारवीं सदी में ही यह समझ में आ गया था कि एकाध लाख मरीज़ों में से एक में कैंसर स्वत: समाप्त हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दो जर्मन वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से देखा कि कुछ मरीज़ों में एरिसिपेला बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद उनका ट्यूमर सिकुड़ गया। इनमें से एक वैज्ञानिक ने 1868 में एक कैंसर मरीज़ को जानबूझकर एरिसिपेला से संक्रमित किया और पाया कि उसका ट्यूमर सिकुड़ने लगा। यह भी देखा गया कि कभीकभी तेज़ बुखार के बाद भी ट्यूमर दब जाता है। 1891 में विलियम कोली नाम के एक सर्जन ने लंबे समय के प्रयोगों के बाद बताया कि 1000 से ज़्यादा मरीज़ों में एरिसिपेला संक्रमण के बाद ट्यूमर सिकुड़ता है। इन सारे अवलोकनों के चलते मामला ज़ोर पकड़ने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संक्रमण के कारण जब शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र सामान्य से ज़्यादा सक्रिय होता है तो वह कैंसर कोशिकाओं को भी निशाना बनाता है।

मगर इस बीच कैंसर के उपचार के लिए कीमोथेरपी और विकिरण चिकित्सा का विकास हुआ और प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका की बात आईगई हो गई। मगर आगे चलकर विलियम कोली की बात सही साबित हुई। 1976 में वैज्ञानिकों की एक टीम ने मूत्राशय के कैंसर के मरीज़ों को बीसीजी की खुराक सीधे मूत्राशय में दी और उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए। इससे पहले चूहों में बीसीजी टीके का कैंसररोधी असर दर्शाया जा चुका था। बीसीजी का पूरा नाम बैसिलस काल्मेटगुएरिन है और इसे टीबी के बैक्टीरिया को दुर्बल करके बनाया जाता है। आज यह मूत्राशय कैंसर के उपचार की जानीमानी पद्धति है।

यह तो स्पष्ट हो गया कि प्रतिरक्षा तंत्र (कम से कम) कुछ कैंसर गठानों का सफाया कर सकता है। लेकिन आम तौर पर कैंसर इस तंत्र से बच निकलता है और अनियंत्रित वृद्धि करता रहता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है।

प्रतिरक्षा तंत्र कई घटकों से मिलकर बना होता है। इसमें से एक हिस्सा जन्मजात होता है और उसे बाहरी चीज़ों से लड़ने के लिए किसी प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं होती। दूसरा हिस्सा वह होता है जो किसी बाहरी चीज़ के संपर्क में आने पर उसे पहचानना और नष्ट करना सीखता है और इसे याद रखता है। आम तौर पर बाहर से आए किसी जीवाणु वगैरह पर कुछ पहचान चिंह (एंटीजन) होते हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र को यह समझने में मददगार होते हैं कि वह अपना नहीं बल्कि पराया है।

अब कैंसर कोशिकाओं को देखें। यह तो सही है कि कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में कई उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशंस के कारण उनकी पहचान थोड़ी अलग हो जाती है, उनकी सतह पर विशेष पहचान चिंह होते हैं और प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें पहचान सकती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं एक बात का फायदा उठाती हैं।

हमारी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को कोई शत्रु नज़र आए तो वे उसे मारने के साथसाथ स्वयं की संख्या बढ़ाने लगती हैं। समस्या यह आती है कि यदि यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाए तो हमारे शरीर की शामत आ जाती है क्योंकि ये कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं पर भी हल्ला बोल सकती हैं। ऐसा होने पर कई बीमारियां पनपती हैं जिन्हें स्वप्रतिरक्षा रोग या ऑटोइम्यून रोग कहते हैं। इसलिए प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर कुछ स्विच होते हैं। हमारी सामान्य कोशिकाएं इन स्विच की मदद से इन्हें काम करने से रोकती हैं। कैंसर कोशिकाएं इन्हीं स्विच का उपयोग करके प्रतिरक्षा कोशिकाओं को काम करने से रोक देती हैं। ऐसी स्थिति में होता यह है कि कैंसर कोशिकाएं तो बेलगाम ढंग से संख्यावृद्धि करती रहती हैं किंतु प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या नहीं बढ़ती।

जिस खोज के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है उसका सम्बंध इन्हीं स्विच से है जो एक तरह से ब्रोक का काम करते हैं। टेक्सास विश्वविद्यालय के ह्रूस्टन स्थित एम.डी. एंडरसन कैंसर सेंटर के जेम्स एलिसन और क्योटो विश्वविद्यालय के तसाकु होन्जो ने अलगअलग काम करते हुए दो ऐसे स्विच खोज निकाले हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र पर ब्रोक का काम करते हैं। एक स्विच का नाम है सायटोटॉक्सिक टीलिम्फोसाइट एंटीजन-4 (सीटीएलए-4) तथा दूसरे का नाम है प्रोग्राम्ड सेल डेथ 1 (पीडी-1)। शोधकर्ताओं ने इन ब्रोक को नाकाम करके प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को सक्रिय करने में सफलता प्राप्त की है और दोनों के ही आधार पर औषधियां बनाई जा चुकी हैं। हालांकि अभी प्रतिरक्षा तंत्र के ब्रोक्स को हटाकर कैंसर से लड़ाई में सफलता कुछ ही किस्म के कैंसर में मिली है किंतु पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक कारगर विधि साबित होगी।

लेकिन कैंसर कोशिकाओं के पास बचाव के और भी तरीके हैं। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर आधारित कैंसर उपचार की चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। जैसे कैंसर कोशिकाएं एक और हथकंडा अपनाती हैं। वे अपने आसपास सामान्य कोशिकाओं का एक सूक्ष्म पर्यावरण बना लेती हैं। दूसरे शब्दों में कैंसर कोशिका सामान्य कोशिकाओं के बीच में छिपी बैठी रहती है और प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं वहां तक पहुंच नहीं पाती। शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि इन कोशिकाओं को उजागर करें ताकि प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें नष्ट कर पाए।(स्रोत फीचर्स)

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आंत और दिमाग की हॉटलाइन

वैज्ञानिकों के दो समूहों ने खोज की है कि हमारी आंतों का सीधा कनेक्शन दिमाग से होता है और यह कनेक्शन तंत्रिकाओं के ज़रिए होता है।

यह तो पहले से ही पता था कि हमारी आंतों के अंदरुनी अस्तर में कई कोशिकाएं होती हैं जो समय-समय पर रक्त वाहिनियों में हारमोन्स छोड़ती हैं। ये हारमोन्स दिमाग में पहुंचकर आंतों का हाल बयां कर देते हैं। दिमाग को पता चल जाता है कि पेट भर गया है या भूखा है। मगर हारमोन्स के ज़रिए दिमाग तक यह संदेश पहुंचाने में लगभग 10 मिनट का समय लगता है। मगर नए अध्ययन दर्शा रहे हैं कि आंतों का दिमाग से वार्तालाप मात्र हारमोन्स के भरोसे नहीं है। इसमें तंत्रिकाओं की भी भूमिका है और आंतों से मस्तिष्क को संदेश विद्युतीय रूप से भी पहुंचाए जाते हैं। और तंत्रिका द्वारा संप्रेषण में चंद सेकंड का ही समय लगता है।

आंतों और मस्तिष्क के बीच तंत्रिका संप्रेषण की खोज की दिशा में पहला कदम यह था कि डरहम विश्वविद्यालय के डिएगो बोहोरक्वेज़ ने इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन में पाया कि आंतों के अस्तर में उपस्थित हारमोन पैदा करने वाली कोशिकाओं में पैरों जैसे उभार हैं। ये उभार तंत्रिका कोशिकाओं के उन उभारों जैसे थे जो दो तंत्रिकाओं के बीच संपर्क बनाने में मददगार होते हैं। बोहोरक्वेज़ ने सोचा कि शायद ये उभार तंत्रिका संदेशों के आवागमन में मदद करते होंगे।

उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर कुछ चूहों की आंतों में एक चमकने वाला वायरस इंजेक्ट कर दिया। यह वायरस तंत्रिकाओं के संपर्क बिंदुओं (सायनेप्स) के माध्यम से फैलता है। साइंस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि जल्दी ही हारमोन बनाने वाली उक्त कोशिकाओं में चमक पैदा हुई और यह चमक उनके आसपास की कोशिकाओं में भी फैली। ये आसपास की कोशिकाएं वेगस नामक तंत्रिका की कोशिकाएं थीं। मतलब यह हुआ कि हारमोन बनाने वाली कोशिकाएं संदेशों को तंत्रिकाओं के ज़रिए भी आगे बढ़ाती हैं।

जब एक तश्तरी में प्रयोग किए गए तो देखा गया कि हारमोन बनाने वाली कोशिकाओं के उभार वेगस तंत्रिका के साथ जुड़ जाते हैं और सायनेप्स बना लेते हैं। यदि तंत्रिकाओं के माध्यम से संवाद चल रहा है, तो आपके दिमाग को पेट भरने की सूचना काफी जल्दी मिल जानी चाहिए। अब वैज्ञानिक यह जानना चाहते हैं कि मोटापे जैसी समस्याओं से निपटने में इस जानकारी का उपयोग कैसे किया जा सकता है।

इसी से सम्बंधित एक और शोध पत्र में बताया गया है कि जब आंतों की तंत्रिकाओं को लेज़र से उत्तेजित किया गया तो चूहों में सुखानुभूति पैदा हुई। लेज़र किरणों ने चूहों में मूड सुधारने वाले रसायन भी पैदा किए। अब देखना यह है कि इन परिणामों का चिकित्सा के क्षेत्र में क्या उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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