एक महिला जो पुरुषों की आवाज़ नहीं सुन सकती

चीन में एक महिला एक अजीबो गरीब तकलीफ से पीड़ित है। उसे पुरुषों की आवाज़ सुनाई ही नहीं देती। चेन नामक यह महिला एक दिन सुबह उठी और पाया कि उसे अपने पुरुष साथी की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है। वह अस्पताल पहुंची जहां उसका उपचार एक महिला डॉक्टर द्वारा किया जा रहा है। डॉक्टर ने पाया कि यह महिला उनकी आवाज़ तो सुन पा रही थी किंतु पास में लेटे एक पुरुष मरीज़ की आवाज़ बिलकुल भी नहीं सुन पा रही थी।

चेन एक दुर्लभ श्रवण बाधा से ग्रस्त थी। इसे रिवर्स स्लोप हियरिंग लॉस कहा जाता है। आम तौर पर जब किसी व्यक्ति को सुनने में कठिनाई होती है तो वह उच्च आवृत्ति की आवाज़ों के मामले में होती है। आवृत्ति ध्वनि के विश्लेषण का एक तरीका है। ध्वनि वास्तव में हवा अथवा अन्य माध्यमों में होने वाली कंपनों के रूप में फैलती है और हमारे कानों तक पहुंचती है। प्रति सेकंड कंपनों की संख्या ही उसकी आवृत्ति कहलाती है। प्रति सेकंड जितने ज़्यादा कंपन होते हैं आवाज़ उतनी ही पतली होती है जबकि कम कंपन होने पर आवाज़ भारी या मोटी होती है।

जब कोई व्यक्ति सुनने में कठिनाई की शिकायत करता है तो उसके श्रवण का आवृत्ति के अनुसार ग्राफ बनाया जाता है। आम तौर पर देखा गया है कि उच्च आवृत्ति वाली ध्वनियां (यानी पतली आवाज़े) सुनने में दिक्कत होती है। मनुष्य के कान में अंदर की ओर सूक्ष्म रोम होते हैं। जब कोई ध्वनि कानों तक पहुंचती है तो इन रोमों में कंपन होते हैं जिसके संदेश मस्तिष्क तक पहुंचते हैं और वहां इन्हें ध्वनि के रूप में पहचाना जाता है। उम्र के साथ या चोट लगने पर या किसी दवा के असर से ये रोम भुरभुरे हो जाते हैं और टूट भी सकते हैं। इसी क्षति की वजह से सुनने में दिक्कत होती है।

उच्च आवृत्ति वाली ध्वनियों के प्रति संवेदनशील रोम ज़्यादा नाज़ुक होते हैं। इस वजह से ये रोम पहले क्षतिग्रस्त होते हैं और काम करना बंद करते हैं। इसीलिए उच्च आवृत्ति की ध्वनियां सुनने में दिक्कत आम बात है। मगर कभी-कभी कम आवृत्ति की ध्वनियों को पकड़ने में दिक्कत होती है जो उक्त महिला के साथ हुआ। शोधकर्ताओं का मानना है कि रिवर्स स्लोप हियरिंग लॉस रक्त वाहिनियों में किसी समस्या की वजह से हो सकता है या सदमे की वजह से भी हो सकता है। एक और कारण शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा स्वयं अपनी ही कोशिकाओं पर हमला करना भी हो सकता है। आत्म-प्रतिरक्षा के नाम से जानी जाने वाली यह समस्या आंतरिक कान को प्रभावित करती है और इससे संतुलन बनाने में दिक्कत तथा उल्टी जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं। दरअसल चेन ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें एक रात पहले चक्कर आए थे और उल्टियां भी हुई थीं। वैसे डॉक्टरों का कहना है कि यदि इस स्थिति का पता जल्दी चल जाए तो इलाज संभव है। चेन के मामले में लगता है कि देर तक काम करते रहने के तनाव के कारण यह स्थिति बनी है और संभवत: जल्दी ही वे ठीक भी हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तोंद की चर्बी का सम्बंध दिमाग से है

यह तो काफी समय से माना जाता रहा है कि आपकी तोंद में जमा चर्बी आपके हृदय के लिए बुरी होती है मगर अब पता चल रहा है कि यह दिमाग के लिए भी बुरी होती है। युनाइटेड किंगडम में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि जो लोग मोटे होते हैं और जिनकी कमर और कूल्हों का अनुपात अधिक होता है उनके मस्तिष्क का आयतन कम होता है। कमर और कूल्हे का अनुपात तोंद की चर्बी का द्योतक माना जाता है। अध्ययन में खास तौर से यह पता चला है कि तोंद की चर्बी का सम्बंध मस्तिष्क के ग्रे मैटर के कमतर आयतन से है।

न्यूरोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता, लफबरो विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ स्पोर्ट्स, एक्सरसाइज़ एंड हेल्थ के मार्क हैमर का कहना है कि बड़ी संख्या में लोगों के अध्ययन के बाद पता चला है कि मोटापे का सम्बंध मस्तिष्क के सिकुड़ने से है। गौरतलब है कि मस्तिष्क के कम आयतन यानी मस्तिष्क के सिकुड़ने का सम्बंध याददाश्त में गिरावट और विस्मृति से देखा गया है। इस अध्ययन में यू.के. के 9600 लोगों के बॉडी मास इंडेक्स तथा कमर और कूल्हों का अनुपात नापा गया था और एमआरआई के द्वारा उनके मस्तिष्क का आयतन नापा गया था। अध्ययन में शामिल किए गए लोगों की औसत उम्र 55 वर्ष थी। शोधकर्ताओं ने यह स्पष्ट किया है कि इस अध्ययन में भाग लेने को जो लोग तैयार हुए वे आम तौर पर स्वस्थ लोग थे। इसलिए इसके परिणामों को फिलहाल पूरी आबाद पर लागू करने में सावधानी की ज़रूरत है।

वैसे यह बात ध्यान देने की है कि उपरोक्त अध्ययन में मोटापे और मस्तिष्क के आयतन के बीच जो सह-सम्बंध देखा गया है वह कार्य-कारण सम्बंध नहीं है बल्कि मात्र इतना है कि ये दोनों चीज़ें साथ-साथ होती नज़र आती हैं। अर्थात यह नहीं कहा जा सकता कि मोटापे से मस्तिष्क सिकुड़ता है। यह भी संभव है कि मस्तिष्क के कुछ हिस्सों के सिकुड़ने से मोटापा बढ़ता हो।

वैसे तोंद में जमा चर्बी अन्य मामलों में भी हानिकारक है। पहले कुछ अध्ययनों से पता चल चुका है कि तोंद की चर्बी की बढ़ी हुई मात्रा का सम्बंध हृदय रोगों से है। इसके अलावा इसका सम्बंध टाइप 2 डायबिटीज़ तथा उच्च रक्तचाप से भी देखा गया है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या युवा खून पार्किंसन रोग से निपट सकता है?

चूहों पर किए गए अध्ययनों से पता चल चुका है कि यदि बूढ़े चूहों को युवा चूहों का खून दिया जाए, तो उनके मस्तिष्क में नई कोशिकाएं बनने लगती हैं और उनकी याददाश्त बेहतर हो जाती है। वे संज्ञान सम्बंधी कार्यों में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। स्टेनफोर्ड के टोनी वाइस-कोरे द्वारा किए गए परीक्षणों से यह भी पता चल चुका है कि युवा खून का एक ही हिस्सा इस संदर्भ में प्रभावी होता है। खून के इस हिस्से को प्लाज़्मा कहते हैं।

उपरोक्त परिणामों के मद्दे नज़र वाइस-कोरे अब मनुष्यों में युवा खून के असर का परीक्षण कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि खून के प्लाज़्मा नामक अंश में तकरीबन 1000 प्रोटीन्स पाए जाते हैं और वाइस-कोरे यह पता करना चाहते हैं कि इनमें से कौन-सा प्रोटीन प्रभावी है। सामान्य संज्ञान क्षमता के अलावा वाइस-कोरे की टीम यह भी देखना चाहती है कि क्या पार्किंसन रोग में इस तकनीक से कोई लाभ मिल सकता है।

उम्र बढ़ने के साथ शरीर में होने वाले परिवर्तनों में से कई का सम्बंध रक्त से है। उम्र के साथ खून में लाल रक्त कोशिकाओं और सफेद रक्त कोशिकाओं की संख्या घटने लगती है। सफेद रक्त कोशिकाएं हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग हैं। अस्थि मज्जा कम लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती है। अबतक किए गए प्रयोगों से लगता है कि युवा खून इन परिवर्तनों को धीमा कर सकता है।

वाइस-कोरे जो परीक्षण करने जा रहे हैं उसमें प्लाज़्मा के प्रोटीन्स को अलग-अलग करके एक-एक का प्रभाव आंकना होगा। यह काफी श्रमसाध्य होगा। एक प्रमुख दिक्कत यह है कि इतनी मात्रा में युवा खून मिलने में समस्या है। उनकी टीम ने 90 पार्किंसन मरीज़ों को शामिल कर लिया है और पहले मरीज़ को युवा खून का इंजेक्शन दे भी दिया गया है। उम्मीद है कि वे खून के प्रभावी अंश को पहचानने में सफल होंगे। इसके बाद कोशिश होगी कि इस अंश को प्रयोगशाला में संश्लेषित करके उसके परीक्षण किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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अंग प्रत्यारोपण के साथ एलर्जी भी मिली

दि आप जानते हैं कि आपको किसी तरह के खाने से कोई परेशानी या एलर्जी नहीं है तो आप बेफिक्र होकर वह चीज़ खाते हैं। ऐसा सोचकर ही एक महिला ने हमेशा की तरह पीनट-बटर-जैम सैंडविच खाया। मगर इस बार उसे भयानक एलर्जी हो गई। ट्रासंप्लांटेशन प्रोसिडिंग्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यह एलर्जी महिला को जिस व्यक्ति का अंग प्रत्यारोपित किया गया, उससे मिली है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के फेफड़ा और क्रिटिकल केयर मेडिसिन के फेलो मज़ेन ओडिश के मुताबिक 68 वर्षीय महिला एंफेसिमा से पीड़ित थी। (एंफेसिमा में फेफड़ो के वायुकोश क्षतिग्रस्त हो जाते हैं और सांस लेने में कठिनाई होती है।) इसी के इलाज में, एक अन्य व्यक्ति का एक फेफड़ा महिला के शरीर में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया गया था। लेकिन अचानक एक दिन महिला को सीने में जकड़न महसूस होने लगी और उन्हें सांस लेने में भी दिक्कत हो रही थी। महिला के अनुसार उन्हें यह दिक्कत पीनट-बटर-जैम सैंडविंच खाने के बाद शुरू हुई। लेकिन महिला में फूड एलर्जी के अन्य कोई लक्षण (रेशेस या पेटदर्द) दिखाई नहीं दे रहे थे। चूंकि महिला को पहले कभी यह समस्या नहीं हुई थी इसलिए डॉक्टर ने जिस व्यक्ति का फेफड़ा महिला के शरीर में लगाया था, उसकी एलर्जी के बारे में जानकारी ली। पता चला कि उस व्यक्ति को मूंगफली से एलर्जी है। ओडिश का कहना है कि फेफड़े के साथ-साथ एलर्जी भी महिला को मिल गई थी।

हालांकि यह बहुत कम होता है कि अंग के साथ-साथ अंग दान करने वाले की एलर्जी भी अंग प्राप्तकर्ता में हस्तांतरित हो जाए। मगर लिवर, किडनी, फेफड़े, अस्थि मज्जा, ह्रदय के प्रत्यारोपण के मामलों में ऐसा देखा गया है कि अंगदान करने वाले की फूड एलर्जी अंग प्राप्तकर्ता में हस्तांतरित हुई है।

एक अन्य शोध के मुताबिक अंग प्रत्यारोपण के दौरान फूड एलर्जी उन मामलों में हस्तांतरित होती है जिनमें अंग प्राप्तकर्ता को टैक्रोलिमस नामक औषधि दी गई हो। दरअसल शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली किसी भी बाहरी चीज़ को नष्ट कर देती है। अंग प्रत्यारोपण के बाद प्रतिरक्षा प्रणाली प्रत्यारोपित अंग को बाहरी समझ कर उसे नष्ट न कर दे, इसके लिए टैक्रोलिमस औषधि दी जाती है। इस महिला को भी टेक्रोलिमस औषधि दी गई थी।

आगे की जांच में इस बात की पुष्टि भी हुई कि महिला को मूंगफली के अलावा काजू-बादाम, अखरोट और नारियल से भी एलर्जी भी हो गई है। ओडिश का कहना है कि यह अभी स्पष्ट नहीं है कि प्रत्यारोपण के साथ आने वाली एलर्जी ताउम्र रहती है या नहीं। किसी-किसी मामले में समय के साथ एलर्जी खत्म भी हो सकती है। फिलहाल डॉक्टर, महिला की मूंगफली और अन्य गिरियों की एलर्जी की लगातार जांच करेंगे और देखेंगे कि क्या वक्त के साथ स्थिति में कोई बदलाव आता है। (स्रोत फीचर्स)

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रोगों की पहचान में जानवरों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ हफ्तों पहले काफी दिलचस्प खबर सुनने में आई थी कि कुत्ते मलेरिया से संक्रमित लोगों की पहचान कर सकते हैं। ऐसा वे अपनी सूंघने की विलक्षण शक्ति की मदद से करते हैं। यह रिपोर्ट अमेरिका में आयोजित एक वैज्ञानिक बैठक में ‘मेडिकल डिटेक्शन डॉग’संस्था द्वारा प्रस्तुत की गई थी। मेडिकल डिटेक्शन डॉग यूके स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था है। इसी संदर्भ में डोनाल्ड जी. मैकनील ने न्यू यार्क टाइम्स में एक बेहतरीन लेख लिखा है। (यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।)

मेडिकल डिटेक्शन डॉग कुत्तों में सूंघने की खास क्षमता की मदद से अलग-अलग तरह के कैंसर की पहचान पर काम कर चुकी है। इसके लिए उन्होंने कुत्तों को व्यक्ति के ऊतकों, कपड़ों और पसीने की अलग-अलग गंध की पहचान करवाई ताकि कुत्ते इन संक्रमणों या कैंसर को पहचान सकें। इस समूह ने पाया कि मलेरिया और कैंसर पहचानने के अलावा कुत्ते टाइप-1 डाइबिटीज़ की भी पहचान कर लेते हैं। कुछ अन्य समूहों का कहना है कि उन्होंने कुत्तों को इस तरह प्रशिक्षित किया है कि वे मिर्गी के मरीज़ में दौरा पड़ने की आशंका भांप लेते हैं। उम्मीद है कि कुत्तों की मदद से कई अन्य बीमारियों की पहचान भी की जा सकेगी। कुत्तों में रासायनिक यौगिकों (खासकर गंध वाले) को सूंघने और पहचानने की विलक्षण शक्ति होती है। उनकी इस विलक्षण क्षमता के कारण ही एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिए, कस्टम विभाग में, पुलिस में या अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर ड्रग्स, बम या अन्य असुरक्षित चीज़ों को ढूंढने के लिए कुत्तों की मदद ली जाती है। सदियों से शिकारी लोग कुत्तों को साथ ले जाते रहे हैं, खासकर लोमड़ियों और खरगोश पकड़ने के लिए।

शुरुआत कैसे हुई

पिछले पचासेक वर्षों में रोगों की पहचान के लिए कुत्तों की सूंघने की क्षमता की मदद लेने की शुरुआत हुई है। इस सम्बंध में वर्ष 2014 में क्लीनिकल केमिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘एनिमल ऑलफैक्ट्री डिटेक्शन ऑफ डिसीज़: प्रॉमिस एंड पिट्फाल्स’लेख बहुत ही उम्दा और पढ़ने लायक है। यह लेख कुत्तों और अन्य जानवरों (खासकर अफ्रीकन थैलीवाले चूहे) में रोग की पहचान करने के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। (इंटरनेट पर उपलब्ध है: DOI:10.1373/clinchem.2014.231282)। कैंसर की पहचान में कुत्तों की क्षमता का पता 1989 में लगा था, जब एक कुत्ता अपनी देखरेख करने वाले व्यक्ति के पैर के मस्से को लगातार सूंघ रहा था। जांच में पाया गया कि त्वचा का यह घाव मेलेनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) है। इसी लेख में डॉ. एन. डी बोर ने बताया है कि किस प्रकार कुत्ते हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कैंसर को पहचान सकते हैं। प्रयोगों और जांचों में इन सभी कैंसरों की पुष्टि भी हुई। हाल ही में कुत्तों को कुछ सूक्ष्मजीवों (टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया और आंतों को प्रभावित करने वाले क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल बैक्टीरिया) की पहचान करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है।

जानवरों में इंसान के मुकाबले कहीं अधिक तीक्ष्ण और विविध तरह की गंध पहचानने की क्षमता होती है। (जानवर पृथ्वी पर मनुष्य से पहले आए थे और पर्यावरण का सामना करते हुए विकास में उन्होने सूंघने की विलक्षण शक्ति हासिल की है।) डॉ. एस. के. बोमर्स पेपर में इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि बीडोइन्स ऊंट (अरब के खानाबदोशों के साथ चलने वाले ऊंट) 80 किलोमीटर दूर से ही पानी का स्रोत खोज लेते हैं। ऊंट ऐसा गीली मिट्टी में मौजूद जियोसिमिन रसायन की गंध पहचान कर करते हैं।

चूहे भी मददगार

लेकिन विभिन्न गंधों की पहचान के लिए ऊंटों की मदद हर जगह तो नहीं ली जा सकती। डॉ. बी. जे. सी. विटजेन्स के अनुसार अफ्रीकन थैलीवाले चूहे की मदद ली जा सकती है। चूहों में दूर ही से और विभिन्न गंधों को पहचानने की बेहतरीन क्षमता होती है, इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है और इनके रहने के लिए जगह भी कम लगती है। साथ ही ये चूहे उष्णकटिबंधीय इलाकों के रोगों की पहचान में पक्के होते हैं। इतिहास की ओर देखें तो मनुष्य ने गंध पहचान के लिए कुत्तों को पालतू बनाया। कुछ चुनिंदा बीमारियों की पहचान के लिए कुत्तों की जगह अफ्रीकन थैलीवाले चूहों की मदद ली जाती है। तंजानिया स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था APOPO इन चूहों पर सफलतापूर्वक काम कर रही है। चूहों के साथ फायदा यह है कि उनकी ज़रूरतें कम होती हैं – एक तो आकार में छोटे होते हैं, उनकी इतनी देखभाल नहीं करनी पड़ती, उन्हें प्रशिक्षित करना आसान है, और उन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। फिलहाल तंजानिया और मोज़ेम्बिक में इन चूहों की मदद से फेफड़ों के टीबी की पहचान की जा रही है (https://www.flickr.com/photos/42612410@N05>)। दुनिया भर में भी स्थानीय चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती।

कुत्तों, ऊंटों, चूहों जैसे जानवरों में रोग पहचानने की यह क्षमता उनकी नाक में मौजूद 15 करोड़ से 30 करोड़ गंध ग्रंथियों के कारण होती है। जबकि मनुष्यों में इन ग्रंथियों की संख्या सिर्फ 50 लाख होती है। इतनी अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवरों की सूंघने की क्षमता मनुष्य की तुलना में 1000 से 10 लाख गुना ज़्यादा होती है। अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवर विभिन्न प्रकार गंध की पहचान पाते हैं और थोड़ी-सी भी गंध को ताड़ने में समर्थ होते हैं। इसी क्षमता के चलते कुत्ते जड़ों के बीच लगी फफूंद भी ढूंढ लेते हैं, जो पानी के अंदर होती हैं।

भारत में क्यों नहीं?

भारत में कुत्तों के प्रशिक्षण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, जिनका इस्तेमाल क्राइम ब्रांच, कस्टम वाले और अपराध वैज्ञानिक एजेंसियां करती हैं। जनसंख्या के घनत्व और चूहों के उपयोग की सरलता को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती है। APOPO की तर्ज पर हमारे यहां भी स्थानीय जानवरों को महामारियों की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरी होने पर रोग की पुष्टि के लिए विश्वसनीय उपकरणों की मदद ली जा सकती है। इस तरह की ऐहतियात से हमारे स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को सतर्क करने में मदद मिल सकती है। स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआत में ही बीमारी या महामारी पहचाने जाने पर दवा, टीके या अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर सकते हैं और रोग को फैलने से रोक सकते हैं। हमारे पशु चिकित्सा संस्थानों को इस विचार की संभावना के बारे में सोचना चाहिए। पशु चिकित्सा संस्थान उपयुक्त और बेहतर स्थानीय जानवर चुनकर उन्हें रोगों की पहचान के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। और इन प्रशिक्षित जानवरों को उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों, खासकर घनी आबादी वाले और कम स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इलाकों में रोगों की पहचान के लिए तैनात किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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यदि आपके बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

भी मांओं की एक ही कहानी है – मेरा बच्चा सब्ज़ियां नहीं खाता। उसे तो केवल क्रीम बिस्किट्स, चॉकलेट और आईसक्रीम ही चाहिए। और फिर शुरू होता है धमकी और रिश्वत का एक सौदा। मां अपने बच्चे से कहती है कि जब तक तुम सब्ज़ी नहीं खाओगे तब तक मिठाई नहीं मिलेगी। इस रणनीति में कुछ बच्चे आलू और भिंडी तो खाने के लिए हां कर देते हैं और बाकी बेचारों को पालक, गिलकी, लौकी-कद्दू और टिन्डों की ज़बरदस्ती स्वीकार करते बड़ा होना पड़ता है।

हम सभी को मीठा पसंद है। मीठे की ओर आकर्षण हमें हमारे पूर्वज प्रायमेट्स से विरासत में मिला है। उस समय हमारे पूर्वज भी आज के बंदरों और वनमानुष की तरह खुशबूदार पके मीठे फलों को खोजते दिन बिताते थे। अधिक ऊर्जा और पानी के लिए पके और मीठे फल को कच्चे और कड़वे फल पर प्राथमिकता मिलती थी। पेड़ों पर पके मीठे फल मिलने पर पानी की खोज भी पूरी हो जाती थी।

तो आपका बच्चा अगर मिठाई की ओर ललचाई निगाह से देखता है तो इसमें बच्चे का दोष नहीं है। दोष है हमारे प्रायमेट पूर्वजों और उनको मिली परिस्थितियों का और हमारे आनुवंशिक लक्षणों का।

आज भी हमारे नज़दीकी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी जंगलों में जब भी मधुमक्खी के छत्ते को देखते हैं, तो सैकड़ों मधुमक्खियों के दंश की परवाह न करते हुए शहद खाने के मौके को कभी भी हाथ से जाने नहीं देते। शहद को खाने की उत्कंठा चिम्पैंज़ियों में इतनी तीव्र होती है कि अफ्रीका के विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले स्थानीय चिम्पैंज़ियों ने शहद को खाने के लिए उपयुक्त तरीके भी निकाल लिए हैं। पूर्वजों के समान अगर हम भी मीठे की ओर आकर्षित होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मानव के पूर्वजों ने गन्ने को पूरे विश्व में फैला दिया है।

अधिकांश ज़हरीले भोज्य पदार्थ कड़वे होते हैं और हमारे पूर्वजों ने भी कड़वे पदार्थों से दूरी बनाना सीख लिया था। मीठे, खट्टे और नमकीन की तुलना में कड़वे पदार्थों के स्वाद के लिए मनुष्यों में अन्य सभी प्राणियों से 25 जीन्स अधिक पाए जाते हैं।

तो मांओं की यह चिंता जायज़ है कि बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। कई प्रकार के खाद्य पदार्थ तो अधिकता में शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं। वसा एवं शर्करा ज़्यादा मात्रा में लेने पर वे चयापचय को धीमा करते हैं, वज़न बढ़ाते हैं तथा धमनियों में जमा होकर उन्हें कठोर कर देते हैं, खासकर जब बच्चे खेलना-कूदना छोड़ देते हैं। तो क्या हम बच्चों को मिठाई की बजाय सब्ज़ी खाने के लिए तैयार कर सकते हैं। उत्तर है, हां।

विज्ञान की नई शाखा ऑप्टोजेनेटिक्स इसमें बहुत उपयोगी होगी। ऑप्टोजेनेटिक्स एक ऐसी तकनीक है जिसमें प्रकाश द्वारा जीवित ऊतक, खासकर जेनेटिक तौर पर बदले गए न्यूरॉन्स को प्रकाश संवेदी बनाकर कार्य करने के लिए उकसाया जाता है।

ऑप्टोजेनेटिक्स के भोजन सम्बंधी कुछ प्रयोग फलों पर पाई जाने वाली छोटी एवं लाल आंखों वाली फ्रूट फ्लाय (ड्रॉसोफिला) पर किए गए हैं। मनुष्य को मीठे लगने वाले विभिन्न प्रकार के रसायन अन्य प्रजातियों के प्राणियों को भी मीठे लगें यह ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए मनुष्यों द्वारा मीठे के लिए उपयोग किया जाने वाला रसायन एस्पार्टेम चूहों और बिल्लियों को मीठा नहीं लगता। आश्चर्यजनक रूप से मीठे के मामले में ड्रॉसोफिला एवं मानव की पसंद एक जैसी ही है। दोनों की पसंद इतनी मिलती है कि हमारे नज़दीकी रिश्तेदार कई बंदरों को भी वे चीज़ें मीठी नहीं लगती जो हमें और ड्रॉसोफिला को मीठी लगती हैं। यह भी पता लगा है कि मनुष्य एवं ड्रॉसोफिला दोनों के पूर्वज सर्वाहारी एवं मुख्य रूप से मीठे फल खाने वाले थे।

मीठे की तुलनात्मक अनुभूति कराने वाले रसायन में से 21 पोषक और अपोषक रसायन जो मानव को मीठे लगते हैं वे मक्खियों को कैसे लगते हैं यह जानने के लिए प्रयोग किए गए।

क्या स्वाद ग्रंथियां सब्ज़ियों का स्वाद लेने पर भी मस्तिष्क को मीठा खाने जैसी अच्छी अनुभूति दे सकती है? हां। इसे सिद्ध करने के लिए ड्रॉसोफिला पर एक प्रयोग किया गया। मक्खियों के उपयोग में लाए जाने वाले आयपैड (जिसे फ्लायपैड कहते हैं) का उपयोग किया गया। पैड के दो कक्षों में से एक में हरी ब्रोकली तथा दूसरे में केले का गूदा रखा गया। अब मक्खियों को छोड़कर यह देखा गया कि वे किस प्रकार का खाद्य पदार्थ पसंद करती हैं। मक्खी जिस खाद्य पदार्थ की ओर जाती थी फ्लायपैड उस परिणाम को आंकड़े के रूप में एकत्रित कर लेता था। निष्कर्षों में यह पता चला कि मक्खियों ने भी बच्चों की तरह ब्रोकली की बजाय केले को मीठे स्वाद के कारण ज़्यादा पसंद किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मानव में जीभ पर पाए जाने वाली स्वाद कलिकाएं स्वाद ग्राहियों से बनी होती है जो विशेष न्यूरॉन्स होते हैं। जब भी जीभ पर भोज्य पदार्थ लगता है तो स्वाद ग्राही मस्तिष्क तक एक संदेश भेजते हैं। मीठे पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से जुड़कर तुरंत संदेश को मस्तिष्क में पहुंचाते हैं जिससे सुखद अनुभूति होती है। किंतु ड्रॉसोफिला में ब्रोकली पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से नहीं जुड़ते। इस कारण मस्तिष्क को संदेश नहीं मिलते हैं। हम ब्रोकली के जीनोम में कुछ जीन जोड़कर उन्हें ऑप्टोजेनेटिक्स से ब्रोकली खाने पर भी मीठे होने जैसी अनुभूति दे सकते हैं।

नए जीन डालने पर ड्रॉसोफिला के स्वाद ग्राही के न्यूरॉन्स प्रकाश के प्रति संवेदी हो जाते हैं। अब प्रयोग में एक परिवर्तन किया गया। जब भी ड्रॉसोफिला ब्रोकली खाने के लिए आती है तभी एक लाल लाइट के जलने से मीठे स्वाद ग्राही मस्तिष्क को संदेश भेजते हैं। ब्रोकली खाने पर भी ड्रॉसोफिला को मीठे खाने जैसी ही अनुभूति होती है। प्रयोगों द्वारा पाया गया कि जीन परिवर्तित ड्रॉसोफिला अब ब्रोकली को भी केले के बराबर पसंद करने लगी थी।

क्या ऑप्टोजेनेटिक्स के द्वारा आपके बच्चे भी मिठाई की बजाय सब्ज़ियां पसंद करने लगेंगे? कही नहीं जा सकता। लेकिन ऑप्टोजेनेटिक्स की सहायता से अब दृष्टिबाधित भी देखने लगे हैं और आने वाले समय में भूलने की समस्या का निदान भी ऑप्टोजेनेटिक्स द्वारा संभव हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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याददाश्त से जुड़ी समस्याओं में व्यायाम मददगार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले 30 सालों में भारतीय लोगों की औसत आयु बढ़ी है। 1960 में भारतीय लोगों की औसत आयु 41 वर्ष थी जो 2015 में बढ़कर 68 वर्ष हो गई। उम्र लम्बी होने के साथ उम्र से जुड़ी शारीरिक और मानसिक समस्याएं भी आती हैं। इनके बारे में सचेत होने और उनका हल ढूंढने की ज़रूरत है। औसत आयु में वृद्धि के साथ-साथ स्मृतिलोप (डिमेंशिया) की समस्या भी बढ़ी है। धीरे-धीरे याददाश्त जाना और संज्ञानात्मक क्षमता में कमी स्मृतिलोप की समस्या पैदा करते हैं। अनुमान है कि भारत में लगभग 40 लाख लोग स्मृतिलोप से पीड़ित हैं। इन 40 लाख लोगों में से लगभग 16 लाख लोग तो अल्ज़ाइमर से पीड़ित हैं। अल्ज़ाइमर एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। कुछ अन्य तरह के तंत्रिका विकार भी स्मृतिलोप को जन्म देते हैं।

उम्र बढ़ने के साथ हमारे मस्तिष्क में भी परिवर्तन आते हैं। हमारे मस्तिष्क का हिप्पोकैंपस नामक हिस्सा सीखने, स्मृतियां निर्मित करने और उन्हें सहेजने से जुड़े कार्यों के लिए ज़िम्मेदार होता है। मुश्किलें तब शुरू होती हैं जब हिप्पोकैंपस की तंत्रिका कोशिकाएं क्षतिग्रस्त होने लगती हैं या मरने लगती हैं। यदि इस हिस्से की सुरक्षा के और इन तंत्रिका कोशिकाओं को दुरुस्त करने के तरीके मिल जाएं तो इस समस्या से निजात मिल सकती है और संज्ञानात्मक क्षमता को सामान्य किया जा सकता है।

स्मृतिलोप किन कारणों से होता है? दुनिया भर में हुए कुछ शोध का निष्कर्ष था कि स्मृतिलोप के लिए कुछ हद तक APOE4 नामक रिस्क जीन और प्रेसिनिलीन ज़िम्मेदार है। किंतु सीसीएमबी हैदराबाद के डॉ. डी. चांडक और तिरुवनंतपुरम के डॉ. मथुरानाथ के आंकड़ों के मुताबिक APOE4 (और प्रेसिनिलीन) की भूमिका गंभीर समस्या पैदा करने में कम ही रही है। हालांकि आंकड़ों से यह भी लगता है कि देश भर में क्षेत्रीय अंतर भी हैं (जैसे, पंजाबी युनिवर्सिटी, पटियाला के डॉ. पी.पी. सिंह के आंकड़े)।

मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर स्मृतिलोप का मुख्य कारण सामने आया है। ब्रेन इमेजिंग में पता चला है कि हिप्पोकैंपस और मस्तिष्क के कुछ अन्य हिस्से थोड़े टेढ़े या उलझे हुए हैं, और यहां प्लाक’ (अघुलनशील परत) जमा है। प्लाक मस्तिष्क की संकेत भेजने की प्रक्रिया में बाधा पहुंचाते हैं। (इसका पता सबसे पहले यूके में गायों को होने वाली बीमारी मेड काऊ में चला था। इन गायों को मांस के लिए पाला जाता था।)  कुछ अन्य का सुझाव है कि स्मृतिलोप के लिए ब्रेन डेराव्ड न्यूरोट्रॉपिक फैक्टर या BDNF नामक प्रोटीन ज़िम्मेदार है। जब BDNF का स्तर निश्चित सीमा से कम हो जाता है तो स्मृतिलोप होता है।

कई तरीकों से स्मृतिलोप को संभालने की कोशिश की गई है। इसके लिए लोगों को टीका भी दिया गया लेकिन सफल नहीं रहा, ना ही इम्यून थेरपी इसमें कारगर साबित हुई। नियमित शारीरिक व्यायाम से इसमें मदद मिलती दिखी है – शारीरिक व्यायाम और दिमागी व्यायाम के बीच कुछ तो सम्बंध है। काफी समय से माना जाता रहा है कि व्यायाम से नई तंत्रिका कोशिकाओं का निर्माण (न्यूरोजेनेसिस) शुरू होता है या तेज़ होता है। ठीक वैसे ही जैसे व्यायाम मांसपेशियों और ह्मदय की कोशिकाओं के निर्माण में मददगार होता है। इसी सम्बंध में हारवर्ड विश्वविद्यालय के डॉ. रुडोल्फ ई. तान्ज़ी और उनके समूह ने साइंस पत्रिका के सितंबर 2018 के अंक में एक नोट प्रकाशित किया है। अपने अनुसंधान में उन्होंने अल्ज़ाइमर से पीड़ित एक चूहे को मॉडल के तौर पर उपयोग किया था।

व्यायाम कैसे मदद करता है

दिमाग के हिप्पोकैंपस में न्यूरो-प्रोजेनिटर कोशिकाएं होती है जो नए न्यूरॉन्स बनाती रहती हैं। इस प्रक्रिया को एडल्ट हिप्पोकैंपल न्यूरोजिनेसिस (AHN) कहते हैं। अल्ज़ाइमर और अन्य स्मृतिलोप में नए न्यूरॉन्स बनाने (AHN) की यह प्रणाली बाधित हो जाती है। डॉ. रुडोल्फ और उनके साथियों ने अल्ज़ाइमर से पीड़ित चूहों को कुछ दिनों तक रोज़ाना 3 घंटे घूमते हुए चक्के पर दौड़ाया। इससे चूहों में AHN में वृद्धि हुई। इस शोध में डॉ. रुडोल्फ को कई सकारात्मक परिणाम मिले। पहला, चूहों में AHN बढ़ गया था और ज़्यादा तंत्रिका कोशिकाएं बनी देखी गर्इं। दूसरा, चूहों के मस्तिष्क में प्लाक कम हो गए थे। तीसरा, BDNF का स्तर बढ़ गया था। और चौथा, उनकी याददाश्त में सुधार देखने को मिला था। यानी व्यायाम स्मृतिलोप से ग्रस्त चूहों में समस्या को कम करता है, हिप्पोकैंपस में न्यूरॉन्स बढ़ाता है और याददाश्त दुरुस्त करता है।

व्यायाम और रसायन

यदि व्यायाम BDNF को बढ़ाकर AHN की प्रक्रिया तेज़ करता है, और विकार को कम करता है तो सवाल यह उठता है कि क्यों ना व्यायाम के स्थान पर बायोकेमिकल तरीके से उपचार किया जाए। बायोकेमिकल तरीके में BDNF के स्तर को बढ़ाने के लिए AICAR और P7C3 रसायनों को शरीर में इंजेक्शन की मदद से दिया जाता है। ये नए न्यूरॉन्स को जीवित रहने में मदद करते हैं। साइंस पत्रिका के उसी अंक में डॉ. रुडोल्फ के शोध कार्य पर डॉ. टैरा स्पायर्स जोन्स और डॉ. क्रेग रिची ने टिप्पणी की है। इसमें उन्होंने कहा है कि यह पर्चा इशारा करता है कि क्यों व्यायाम याददाश्त के लिए अच्छा है। (उन्होंने थोड़ा मज़ाकिया लहज़े में जोड़ा है कि शायद हम AICAR और P7C3 के रूप में व्यायाम के प्रभावों को शीशियों में बंद कर रहे हैं। यह उन लोगों के लिए है जो शारीरिक व्यायाम नहीं कर सकते, या कुछ आलसियों के लिए जो व्यायाम करना नहीं चाहते)। ध्यान देने वाली बात है कि चूहे लगातार कई दिन रोज़ाना 3 घंटे दौड़ते थे, यानी कसरत लगातार और नियमित तौर पर करने की ज़रूरत है। यानी सभी वरिष्ठ नागरिकों को जल्दी व्यायाम शुरू कर लेना चाहिए, हो सके तो चालीस की उम्र में। ये पूरे शरीर और दिमाग के लिए अच्छा होगा।

क्या ध्यान मददगार है

एक मान्यता यह भी है कि ध्यान संज्ञानात्मक क्षमता को बढ़ाता है और यह तंत्रिका-क्षति रोगों के लिए अच्छा है। हालांकि ना तो डॉ. रुडोल्फ के पेपर में और और ना ही पेपर के समीक्षकों ने ध्यान पर कोई टिप्पणी दी है।

फ्रंटियर्स इन बिहेवियरल न्यूरोसाइंस में प्रकाशित पर्चे में डॉ. मार्सिनिएक और साथियों ने ध्यान पर हुए कई अध्ययनों की समीक्षा की है – ध्यान से संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ती है, साथ ही यह बुज़ुर्गों में संज्ञानात्मक कमी से बचाव के लिए एक अच्छा गैर-औषधीय उपचार हो सकता है। हालांकि ध्यान के अलग-अलग प्रकार (बौद्ध, ज़ेन, विहंग्य योग, कीर्तन क्रिया वगैरह) और उनमें भी विविधता होने के कारण इसकी भी कुछ सीमाए हैं। उनका कहना है कि इस क्षेत्र में और शोध से मदद मिलेगी और इसके समस्यामूलक पहलुओं को स्पष्ट किया जा सकेगा। मगर इसमें भी नियमितता और लंबी अवधि की ज़रूरत है; यह कोई एकबारगी किया जाने वाला उपचार नहीं है। भारतीय न्यूरोसाइंस विभाग कुछ प्रयोग कर सकते हैं जो इसके रासायनिक और कोशिकीय पहलुओं की पड़ताल कर सकते हैं।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया परजीवी को जल्दी पकड़ने की कोशिश

हाल ही में सैन डिएगो स्थित युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की शोधकर्ता एलिज़ाबेथ विनज़ेलर और उनकी टीम ने ऐसे रसायनों की पहचान कर ली है जो मलेरिया परजीवी का लीवर में ही सफाया कर देंगे।

होता यह है कि जब एक संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो मलेरिया के लिए ज़िम्मेदार प्लाज़्मोडियम परजीवी स्पोरोज़ाइट अवस्था में शरीर में प्रवेश करते हैं। लीवर में पहुंच कर ये अपनी प्रतियां बनाते और वृद्धि करते हैं। इसके बाद ये रक्तप्रवाह में प्रवेश करते हैं। मलेरिया के लक्षण तब ही दिखाई पड़ते हैं जब ये परजीवी रक्त प्रवाह में प्रवेश कर जाते है और संख्या में वृद्धि करने लगते हैं। आम तौर पर मलेरिया के लक्षणों से निपटने के लिए ही दवाएं दीं जाती हैं।

लेकिन शोधकर्ता चाहते थे कि मलेरिया के परजीवी को लीवर में ही खत्म कर दिया जाए। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 5 लाख मच्छरों से स्पोरोज़ाइट अवस्था में प्लाज़्मोडियम परजीवी को अलग किया। हरेक परजीवी पर उन्होंने लुसीफरेज़ एंज़ाइम जोड़ा, जो जुगनू में चमक पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार होता है, ताकि परजीवी पर नज़र रखी जा सके। इसके बाद हरेक परजीवी पर एक प्रकार का रसायन डाला। और फिर उन्हें लीवर कोशिकाओं के साथ कल्चर किया। इस तरह उन्होंने लगभग 5 लाख रसायनों का अलग-अलग अध्ययन किया।

उन्होंने पाया कि लगभग 6,000 रसायनों ने परजीवियों की वृद्धि को कुशलतापूर्वक रोक कर दिया। जिसमें से ज़्यादातर रसायनों ने लीवर कोशिकाओं को कोई गंभीर क्षति नहीं पहुंचाई। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इनमें से कितने रसायन दवा के रूप में काम आ सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन रसायनों का कोई पेटेंट नहीं लिया है ताकि अन्य लोग भी इन पर काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकृति की तकनीकी की नकल यानी बायोनिक्स – डॉ. दीपक कोहली

प्रकृति में पाई जाने वाली प्रणालियों एवं जैव वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इनका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों को डिजाइन एवं विकसित करना बायोनिक्स कहलाता है।

जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणत: ऐसी कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैं जो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके। बायोनिक्स पद्धति के तहत जीवन की अनिवार्य जीवन प्रक्रियाओं को संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। ये मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ संदेश मस्तिष्क को भेजते हैं ताकि मनुष्य अपने कार्य कुछ हद तक स्वयं कर सके।

दुर्भाग्यवश जब किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा? हमारे पास छिपकली या स्टार फिश जैसी क्षमताएं तो हैं नहीं कि हम दोबारा बांह, टांग आदि विकसित कर सकें तथा उसे पुराने रूप में ला सकें। स्टेम सेल के क्षेत्र में किया जा रहा अनुसंधान इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। तब सिर्फ कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकते हैं और यहीं पर बायोनिक्स का पदार्पण होता है।

बायोनिक्स का इतिहास प्राचीन है। मिस्र की पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रणभूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारी विधाओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है; जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग व गणित जिससे कृत्रिम अंगों की रचना में छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखा जा सकता है तथा वह मानव कोशिकाओं के साथ अपना कार्य कर सकता है।

चिकित्सा और इलेक्ट्रॉनिकी दोनों ही क्षेत्रों में लघु रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्ष्म चिप्स और विकसित कंप्यूटर योजनाओं के रूप में भी निर्बल मानव शरीर को सबल मानव शरीर में परिवर्तित करने में वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त की है। इसे ‘बायोनिक शरीर’ कह सकते हैं और इसने शारीरिक अक्षमताओं वाले इंसानों के लिए कृत्रिम अंगों, कृत्रिम मांसपेशियों और दूसरे कृत्रिम अंगों द्वारा एक बेहतर ज़िंदगी जीने की संभावना उत्पन्न की है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधकर्ता जॉन पेजारी ने आर्गस 2 रेटिनल प्रोस्थेसिस सिस्टम नाम से बायोनिक आंख विकसित की है, जो प्रकाश के मूवमेंट और उसके आकार को समझने में मदद करेगी। आर्गस 2 में इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। यह उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जो पहले देख सकते थे, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से उनकी आंख की रोशनी चली गई।

मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना शरीर के किसी अंग को बदलने की तरह आसान नहीं है, लेकिन भविष्य में मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना मुश्किल नहीं होगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थियोडोर बर्जर ने एक ऐसी चिप तैयार की है जो दिमाग के एक खास हिस्से (हिप्पोकैंपस) का स्थान लेगी। हिप्पोकैंपस दिमाग का वह हिस्सा होता है, जो कि अल्प समय की यादों और उनको पहचानने की समझ को नियंत्रित करता है। यह कृत्रिम दिमाग अल्ज़ाइमर और पक्षाघात से ग्रसित लोगों के लिए वरदान होगा। इसे कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ‘सुपर ब्रेन’ की संज्ञा दी गई है।

किडनी फेल होने के बाद उस समस्या से निपटने के लिए सामान्यत: दो ही विकल्प अपनाए जाते हैं। एक तो किसी अन्य व्यक्ति से किडनी ली जाए या लंबे समय तक डायलिसिस पर रखा जाए। दोनों ही प्रक्रियाएं खासी जटिल हैं। जहां किडनी मिलना आसान नहीं होता, वहां डायलिसिस प्रक्रिया भी जटिल होती है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल ढूंढ लिया है। मार्टिन रॉबर्टस और डेविड ली ने ऐसी किडनी डिज़ाइन की है जो डायलिसिस से काफी बेहतर होगी, क्योंकि इसे 24 घंटे, सातों दिन इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह असली किडनी की तरह काम करेगी। यह किडनी पोर्टेबल होगी और हल्की इतनी कि आपके बेल्ट में आराम से फिट हो जाए। इसे बदला भी जा सकेगा। इसके छोटे आकार और ऑटोमेटिक होने के कारण इसे ‘ऑटोमेटेड वेयरेबल आर्टिफिशियल किडनी’ नाम दिया गया है।

कई कारणों से लोगों को घुटने बदलने की सलाह दी जाती है। लेकिन यह आसान काम नहीं है। वर्तमान में बायोनिक शोधकर्ताओं हैरी और वाइकेनफेल्ड ने ऐसे घुटने बनाए हैं, जो बिल्कुल असली घुटनों की तरह काम करेंगे। इन घुटनों में लगे सेंसर इस बात की जांच करेंगे और सीखेंगे कि इन्हें इस्तेमाल करने वाला कैसे चलता है और चलते वक्त वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करता है जिससे इन कृत्रिम घुटनों के सहारे चलना बेहद आसान होगा।

बांह रहित लोग अपनी कृत्रिम बांह का इस्तेमाल बिल्कुल असली बांह की तरह अपने विचारों की शक्ति द्वारा कर सकेंगे। रिहेबिलिटेशन इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो के डॉ. टॉड कुकिन ने यह कारनामा संभव कर दिखाया है। उन्होंने बायोनिक बांह को दिमाग से स्वस्थ मोटर कोशिकाओं द्वारा जोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल रोगी के बेकार हो चुके अंग के लिए किया जाता था।

कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम पैंक्रियाज़ बनाने में लगे हैं। कुछ ही वर्षों में ऐसे पैंक्रियाज़ तैयार हो जाएंगे, जो व्यक्ति के खून की मात्रा को नापने और साथ ही उसके शरीर के अनुरूप इंसुलिन की मात्रा में बदलाव करने में सक्षम होंगे। जुवेनाइल डाइबिटीज़ रिसर्च फांउडेशन के स्टे्रटेजिक रिसर्च प्रोजेक्ट के निदेशक ऑरीन कोवालस्की ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जो वर्तमान में तकनीकों का मिश्रण है। इसमें एक इंसुलिन पंप और एक ग्लूकोज़ मीटर है। इसकी सहायता से डायबिटीज़ को नियंत्रण में लाया जा सकेगा और ब्लड शुगर के साइड इफेक्ट कम किए जा सकेंगे।

अक्सर ऐसा होता है कि आपके शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो रहा होता है, उसे सही करने के लिए उस पूरे हिस्से के लिए दवाई दी जाती है। लेकिन कभी-कभी वह उस हिस्से के इंफेक्शन को पूर्ण तौर से सही कर पाने में सक्षम नहीं होती है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के बायोइंजीनियरिंग प्रोफेसर डेनियल हैमर ने इसके लिए बेहतर तरीका खोज निकाला है। पॉलीमर से बनी कृत्रिम कोशिकाओं को सफेद रक्त कोशिकाओं से मिला दिया जाएगा। इन कृत्रिम कोशिकाओं को ‘सी’ नाम दिया गया है। ये कृत्रिम कोशिकाएं दवाई को सीधे उस हिस्से में ले जाएंगी, जहां उसकी आवश्यकता है। यह बेहद आसान और सुरिक्षत तरीका होगा। इससे कैंसर सहित कई भयावह बीमारियों का मुकाबला किया जा सकेगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोधकर्ता  डॉ. जेराल्ड लीएब अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त मांसपेशियों में जान फूंकना है। बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं जिन्हें मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से इंजेक्ट किया जा सकता है जहां पर इसकी ज़रूरत हो। इसकी शक्ति का स्रोत रेडियो तरंगें हैं।

मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए शोध चल रहे हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बंद कर दें, परन्तु दिमाग कार्यशील रहे तो यह यंत्र उस मनुष्य को तंत्रिका संकेतों द्वारा मदद कर सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो मनुष्य के विचार एक कंप्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कंप्यूटर पर ई-मेल भेजा जा सकता है और कंप्यूटर पर गेम भी खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही।

शोधकर्ताओं ने सौर ऊर्जा को तरल र्इंधन में परिवर्तित करने के क्रम में सूरज की रोशनी का उपयोग करने वाली बायोनिक पत्ती का आविष्कार किया है। जीवाणु रैल्सटोनिया यूट्रोफा इस काम को अंजाम देता है और कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन का रूपांतरण सीधे उपयोग में आने वाले तरल र्इंधन (आइसोप्रोपेनॉल) में कर देता है। शोधकर्ताओं का यह कदम ऊर्जा से भरपूर दुनिया बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।

बायोनिक्स पर काम करने वाले लोग जीव विज्ञानियों, इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स, रसायन शास्त्रियों, भौतिक विज्ञानियों से लेकर धातु विज्ञानियों के साथ मिलकर काम करते हैं। जर्मन वैज्ञानिक इस समय बीटल नाम के कीड़े के पंखों से प्रेरणा लेकर बेहद हल्की निर्माण सामग्री बना रहे हैं। प्रकृति अभी भी सबसे अच्छी इंजीनियर है। वह हड्डियों और सींग जैसी हल्की लेकिन ठोस संरचना बनाती है और भौंरे के जैसे हल्के पंख भी।

बायोनिक वैज्ञानिक प्रकृति से प्रेरणा लेकर हल्के विमान बनाने की तैयारी में लगे हैं। विक्टोरिया वॉटर लिली की पत्ती जितनी नाज़ुक दिखती है उतनी ही मज़बूत भी होती है। उदाहरण के तौर पर, विक्टोरिया वॉटल लिली की पत्ती बड़ी आसानी से एक छोटे बच्चे का भार उठा सकती है। इससे बड़े आकार की पत्ती व्यस्क का भार भी उठा सकती है। एरोस्पेस इंजीनियरों ने पहले त्रि-आयामी स्कैनर की सहायता से इस पत्ती की नाज़ुक संरचना को स्कैन किया। फिर इस डाटा को कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला। कंप्यूटर इसका आकलन करता है कि भार को संभालने के लिए संरचना कैसी होनी चाहिए। वॉटर लिली की पत्तियों की निचली सतह पर तना मोटा और सघन होता है। यह वह हिस्सा है जहां वाटर लिली पर ज़्यादा दबाव पड़ता है। जिन हिस्सों पर कम दबाव होता है वहां तनों के बीच ज़्यादा दूरी होती है और तने पतले भी होते हैं। इस सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हल्के विमान का एयरप्लेन स्पॉयलर तैयार किया गया है। यह बेहद हल्की लेकिन बड़े काम की संरचना है जिसे किसी और तरीके से बनाना शायद संभव न होता। बायोनिक्स की तकनीक अपनाकर वैज्ञानिकों ने इसे संभव कर दिखाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बायोनिक्स प्रकृति की तकनीक को आम जिंदगी में अमल में लाने की विधा है। जिसके उपयोग से मानव ज़िंदगी को और बेहतर एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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कैंसर को चुनौती के नए आयाम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कैंसर, आनुवंशिक या किसी बाहरी कारक (जैसे धूम्रपान, हानिकारक विकिरण वगैरह) के कारण क्षतिग्रस्त हुई कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि और विभाजन है। समान्यतः कोशिकाएं एक निश्चित संख्या तक विभाजित होती हैं और वृद्धि करती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं, जिनका डीएनए किन्हीं कारणों से क्षतिग्रस्त होकर परिवर्तित हो गया है, वे लगातार वृद्धि करती रहती हैं। जिसके कारण गठान (ट्यूमर) बन जाती है, जो शरीर कमज़ोर करती है और मौत तक हो सकती है।

कैंसर का उपचार और उसे ठीक करना एक बड़ी चुनौती रही है। कैंसर चिकित्सा विज्ञानी और लेखक सिद्धार्थ मुखर्जी ने इसे एकदम सही उपमा दी है बिमारियों का शहंशाह।

बीमारियों के शहंशाह कैंसर पर विजय पाने के कई तरीके रहे हैं। एक तरीका है कैंसर गठानों को सर्जरी करके निकाल देना। मगर इस तरीके में कैंसर के दोबारा होने की सम्भावना रहती है क्योंकि सर्जरी में इस बात की गारंटी नहीं रहती कि सभी कैंसर कोशिकाएं निकाल दी गई हैं। यदि चंद कैंसर कोशिकाएं भी छूट जाएं तो कैंसर दोबारा सिर उठा सकता है। यदि कैंसर होने के असल कारण से नहीं निपटा जाए, तो भी कैंसर दोबारा उभर सकता है। इसके अलावा अति शक्तिशाली गामा किरणों की रेडिएशन थेरपी से भी उपचार में सीमित सफलता ही मिली है।

सिसप्लेटिन या कार्बोप्लेटिन,5-फ्लोरोयूरेसिल, डॉक्सीरोबिसिन जैसी कई कैंसररोधी दवाएं भी उपयोग की गई हैं। कई चिकित्सकों ने दवा के साथ गामा रेडिएशन से उपचार का तरीका भी अपनाया, मगर इस उपचार के साथ मुश्किल यह है कि इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है।

प्रतिरक्षा का तरीका

इसी संदर्भ में कुछ तरह के कैंसर का उपचार प्रतिरक्षा के तरीके से करने की कोशिश हुई है। इसमें शरीर प्रतिरक्षा तंत्र की मदद ली जाती है। इस तरीके में मुख्य भूमिका श्वेत रक्त कोशिकाओं की होती है। श्वेत रक्त कोशिकाओं का एक प्रकार होता है बीकोशिकाएं। ये बीकोशिकाएं हमलावर कोशिकाओं (चाहे वह किसी सूक्ष्मजीव की कोशिका हो या कैंसर कोशिका) की बाहरी सतह पर उपस्थित कुछ उभारों की आकृति (जिन्हें बॉयोमैट्रिक आईडी कह सकते हैं) की पहचान करती हैं, और इम्यूनोग्लोबुलिन नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर कोशिकाओं की सतह पर फिट हो जाता है और इस तरह हमलावर कोशिकाओं को हटाती हैं। खास बात यह है कि हमलावरों की आकृति को पहचान कर यादरखा जाता है ताकि यदि वही हमलावर दोबारा हमला करे तो बीकोशिकाएं उससे निपटने के लिए तैयार रहें। आत्मरक्षा का यही तरीका बचपन में किए जाने वाले टीकाकरण का आधार भी है।

सतह की पहचान से सम्बंधित टैगएंटीजन कहलाता है और उससे लड़ने वाला प्रोटीन एंटीबॉडी। कैंसर कोशिकाओं की भी बॉयोमैट्रिक आईडी (पहचान) होती है, जिसे नियोएंटीजन कहते हैं। कैंसररोधी वैक्सीन इन नियोएंटीजन के खिलाफ तैयार की गई एंटीबॉडीज़ के सिद्धांत पर आधारित है। कैंसर के खिलाफ कुछ जानीमानी दवाएं जैसे बिवेसिज़ुमेब और रिटक्सीमेब व अन्य एंटीबॉडीज़ काफी इस्तेमाल की जाती हैं। (इन दवाओं के नाम के अंत में मेब का मतलब है मोनोक्लोनल एंटीबॉडी।)

कैंसर उपचार के एक और नए तरीके में, कैंसर चिकित्सक रोगी के शरीर से कैंसर ऊतक को अलग करके आणविक जैव विश्लेषकों की मदद से कैंसर कोशिका के नियोएंटीजन की पहचान करते हैं। फिर प्रतिरक्षा विज्ञानियों की मदद से इन नियोएंटीजन के लिए एंटीबॉडी तैयार करते हैं, जिसे रोगी के शरीर में प्रवेश कराया जाता है ताकि कैंसर दोबारा ना उभर सके। इस मायने में यह वैक्सीन उपचार के लिए है, ना कि अन्य वैक्सीन (हैपेटाइटिस या खसरा वगैरह) की तरह रोकथाम के लिए। इस तरह के कुछ कैंसर वैक्सीन बाज़ार में उपलब्ध भी हो चुके हैं। जैसे ब्रोस्ट कैंसर के लिए HER-2, कैंसर के लिए रेवेंज और मेलोनेमा के लिए T-VEC

कैंसर उपचार में नोबेल

इस साल का चिकित्सा नोबेल पुरस्कार कैंसर उपचार के लिए मिला है। इस उपचार में जो तरीका अपनाया है वो इन तरीकों से अलग है। इसमें शोधकर्ताओं ने बीलिम्फोसाइट पर ध्यान देने की बजाय टीकोशिकाओं पर ध्यान दिया। टीकोशिकाएं ऐसे रसायन छोड़ती हैं जो हमलावर कोशिकाओं को खुदकुशी के लिए मजबूर करते हैं। इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस कहते हैं। प्रत्येक टीकोशिका की सतह पर पंजानुमा ग्राही होते हैं जो बाहरी या असामान्य एंटीजन के साथ जुड़ जाते हैं। मगर इसके लिए इन्हें एक प्रोटीन द्वारा सक्रिय करने की ज़रूरत होती है। साथ ही कुछ अन्य प्रोटीन भी होते हैं जो टीकोशिकाओं द्वारा सर्वनाश मचाने पर अंकुश रखते हैं। इन प्रोटीन को ब्रेकया चेक पाइंट प्रोटीनकहते हैं।

टेक्सास युनिवर्सिटी के एंडरसन कैंसर सेंटर के एमडी डॉ. जेम्स एलिसन ऐसे एक ब्रोक या चेक पॉइंट, CTLA-4, प्रोटीन पर साल 1990 से काम कर रहे थे। CTLA-4 प्रोटीन टीकोशिकाओं की प्रतिरक्षा प्रक्रिया को नियंत्रित करने का काम करता है। वे ऐसे प्रोटीन का पता लगाना चाहते थे जो CTLA-4 के इस अंकुश को हटा सके। 1994-95 तक उनके साथियों ने antiCTLA4 नामक एक ऐसे रसायन का पता लगा लिया जो कैंसर ग्रस्त चूहों को देने पर  ट्यूमर रोधी गतिविधी शुरू कर देता था और चूहों के कैंसर का इलाज कर देता था। नोबेल समिति के मुताबिक दवा कंपनियों की अनिच्छा के बावजूद, एलिसन ने इस तरीके पर काम जारी रखा। साल 2010 में उम्मीद के मुताबिक नतीजे मिले, जिसमें एक तरह के त्वचा कैंसर, मेलानोमा में रोगी में काफी सुधार दिखा। कई रोगियो में बचेखुचे कैंसर के संकेत भी गायब हो गए। ऐसे रोगियों में इससे पहले कभी इतना सुधार नहीं देखा गया था।

यहीं दूसरे नोबेल विजेता तासुकु होन्जो के काम का पदार्पण होता है। तासुकु होन्जो वर्तमान में क्योतो युनिवर्सिटी जापान में काम कर रहे हैं। उन्होंने एलिसन से भी पहले 1992 में यह पता लगा लिया था कि प्रोटीन पीडी-1, टीकोशिकाओं की सतह पर अभिव्यक्त होता है। लगातार इस पर काम करते रहने पर उन्होंने पाया कि पीडी-1 एक चेकपॉइंट प्रोटीन भी है। यदि हम इसे प्रविष्ट कराएं, तो टीकोशिकाएं ट्यूमररोधी गतिविधी शुरु कर देती हैं। इससे उन्होंने एंटीबॉडी anti-PD1 बनाई जिसे किसी भी तरह के कैंसर से ग्रस्त रोगी के शरीर में देने पर नतीजे काफी नाटकीय मिले। एलिसन और होन्जो, दोनों के ही तरीकों में उन्होंने ऐसे रसायन पहचाने जो ब्रोक या चेकपॉइंट को हटा देते हैं, और कैंसर रोधी गतिविधि को अंजाम देते हैं। उम्मीद के मुताबिक चेकपॉइंट अवरोधकों पर अब कई शोध किए जा रहे हैं। लगभग 1100 से ज़्यादा PD1से सम्बंधित ट्रायल किए जा रहे हैं। ट्यूमर के इलाज में आज इम्यूनोथेरपी काफी चर्चित और लोकप्रिय है। अगले 5 से 10 सालों में इससे कैंसर उपचार किए जाएंगे। एलिसन और होन्जो के काम से लगता है कि बीमारियों के शहंशाह का अंत नज़दीक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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