जंगल कटाई और महामारी की संभावना

काफी समय से इकॉलॉजीविदों को आशंका रही है कि मनुष्यों द्वारा जंगल काटे जाने और सड़कों आदि के निर्माण से जैव विविधता में आई कमी के चलते कोविड-19 जैसी महामारियों का जोखिम बढ़ जाता है। हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे कुछ प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, जीवित रहने वाली प्रजातियों, जैसे चमगादड़ और चूहे, में ऐसे घातक रोगजनकों की मेज़बानी करने की संभावना बढ़ रही है जो मनुष्यों में छलांग लगा सकते हैं। गौरतलब है कि 6 महाद्वीपों पर लगभग 6800 पारिस्थितिक समुदायों पर किए गए विश्लेषण से सबूत मिले हैं कि जैव विविधता में ह्रास और बीमारियों के प्रकोप में सम्बंध है लेकिन आने वाली महामारियों के बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के इकोलॉजिकल मॉडलर केट जोन्स और उनके सहयोगी काफी समय से जैव विविधता, भूमि उपयोग और उभरते हुए संक्रामक रोगों के बीच सम्बंधों पर काम कर रहे हैं और ऐसे खतरों की चेतावनी भी दे रहे हैं लेकिन हालिया कोविड-19 प्रकोप के बाद से उनके अध्ययन को महत्व मिल पाया है। अब इसकी मदद से विश्व भर के समुदायों में महामारी के जोखिम और ऐसे क्षेत्रों का पता लगाया जा रहा है जहां भविष्य में महामारी उभरने की संभावना हो सकती है।

इंटरगवर्मेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडायवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज़ (आईपीबीईएस) ने इस विषय पर एक ऑनलाइन कार्यशाला आयोजित की है ताकि निष्कर्ष सितंबर में होने वाले संयुक्त राष्ट्र शिखर सम्मलेन में प्रस्तुत किए जा सकें। कुछ वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, वायरस विज्ञानियों और पारिस्थितिक विज्ञानियों के समूह भी सरकारों से वनों की कटाई तथा वन्य जीवों के व्यापार पर नियंत्रण की मांग कर रहे हैं ताकि महामारियों के जोखिम को कम किया जा सके। उनका कहना है कि मात्र इस व्यापार पर प्रतिबंध लगाने से काम नहीं बनेगा बल्कि उन परिस्थितियों को भी बदलना होगा जो लोगों को जंगल काटने व वन्य जीवों का शिकार करने पर मजबूर करती हैं। 

जोन्स और अन्य लोगों द्वारा किए गए अध्ययन कई मामलों में इस बात की पुष्टि करते हैं कि जैव विविधता में कमी के परिणामस्वरूप कुछ प्रजातियों ने बड़े पैमाने पर अन्य प्रजातियों का स्थान ले लिया है। ये वे प्रजातियां हैं जो ऐसे रोगजनकों की मेज़बानी करती हैं जो मनुष्यों में फैल सकते हैं। नवीनतम विश्लेषण में जंगलों से लेकर शहरों तक फैले 32 लाख से अधिक पारिस्थितिक अध्ययनों के विश्लेषण से उन्होंने पाया कि वन क्षेत्र के शहरी क्षेत्र में परिवर्तित होने तथा जैव विविधता में कमी होने से मनुष्यों में रोग प्रसारित करने वाले 143 स्तनधारी जीवों की तादाद बढ़ी है।     

इसके साथ ही जोन्स की टीम मानव आबादी में रोग संचरण की संभावना पर भी काम कर रही है। उन्होंने पहले भी अफ्रीका में एबोला वायरस के प्रकोप के लिए इस प्रकार का मूल्यांकन किया है। इसके लिए विकास के रुझानों, संभावित रोग फैलाने वाली प्रजातियों की उपस्थिति और सामाजिक-आर्थिक कारकों के आधार पर कुछ रिस्क मैप तैयार किए हैं जो किसी क्षेत्र में वायरस के फैलने की गति को निर्धारित करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में टीम ने कांगो के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले प्रकोपों का सटीक अनुमान लगाया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि भूमि उपयोग, पारिस्थितिकी, जलवायु, और जैव विविधता जैसे कारकों के बीच सम्बंध स्थापित कर भविष्य के खतरों का पता लगाया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर भी कैंसर का शिकार होते थे

डायनासौर पर अध्ययन करते हुए जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासौर की एक विकृत हड्डी का जीवाश्म मिला था। यह हड्डी एक सींग वाले शाकाहारी सेंट्रोसौरस के पैर के निचले हिस्से की फिबुला हड्डी थी। यह जीव लगभग 7.6 करोड़ वर्ष पहले वर्तमान के दक्षिणी अल्बर्टा (कनाडा) में पाया जाता था। इस स्थान पर आजकल एक डायनासौर पार्क है।

पहले तो पुराजीव वैज्ञानिकों को लगा कि हड्डी का विचित्र आकार फ्रेक्चर के बाद हड्डी के ठीक से ना जुड़ पाने के कारण बना है लेकिन दी लैंसेंट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में इस जीवाश्म की आंतरिक संरचना की तुलना एक मनुष्य के अस्थि ट्यूमर से की गई है। अध्ययन में पाया गया कि यह डायनासौर एक विशेष किस्म के कैंसर (ऑस्टियोसरकोमा) से पीड़ित था। इस प्रकार का कैंसर मनुष्यों में मुख्य रूप से किशोरों और युवाओं पर हमला करता है। इससे कमज़ोर हड्डियों के अपरिपक्व ऊतकों के ट्यूमर विकसित होते हैं जो अक्सर पैर की लंबी हड्डी में पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि इससे पहले भी वैज्ञानिकों को जीवाश्मों में कैंसर के प्रमाण मिले हैं। टायरेनोसॉरस रेक्स के जीवाश्म में ट्यूमर, डक-बिल्ड डैड्रोसौर के जीवाश्म में गठिया रोग और 24 करोड़ वर्ष पुराने कछुए के जीवाश्म में ऑस्टियोसरकोमा की पहचान की गई है। लेकिन यह पहली बार है कि कोशिकीय स्तर पर डायनासौर में कैंसर के निदान की पुष्टि हुई है।    

इसके लिए वैज्ञानिकों ने उच्च-रेज़ोल्यूशन कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) स्कैन की मदद से पूरे जीवाश्म की जांच की और इसकी पतली कटानों का माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया ताकि कोशिकाओं की संरचना को ठीक तरह से समझा जा सके। निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने पाया कि यह ट्यूमर काफी विकसित हो चुका था जो मनुष्यों के समान उस जीव के लिए काफी घातक रहा होगा। क्योंकि यह जीवाश्म सेंट्रोसौरस के अन्य नमूनों के साथ मिला था इसलिए ऐसी संभावना है कि इसकी मृत्यु कैंसर से नहीं बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ बाढ़ में डूबने की वजह से हुई होगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को लगता है कि इस खोज के बाद आधुनिक तकनीकों से असामान्य जीवाश्मों की जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जैव विकास में कैंसर की उत्पत्ति को समझा जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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99.9 प्रतिशत मार दिए, चिंता तो 0.1 प्रतिशत की है – डॉ. सुशील जोशी

जकल साबुन, हैंड सेनिटाइज़र्स, कपड़े धोने के डिटर्जेंट, बाथरूम-टॉयलेट साफ करने के एसिड्स, फर्श साफ करने, बर्तन साफ करने, सब्ज़ियां धोने के उत्पादों वगैरह सबके विज्ञापनों में एक महत्वपूर्ण बात जुड़ गई है। वह बात यह है कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत जम्र्स को मारते हैं। मज़ेदार बात यह है कि सारे उत्पाद जादुई ढंग से 99.9 प्रतिशत जम्र्स को ही मारते हैं। और तो और, ये विज्ञापन आपको यह भी सूचित करते हैं कि ये कोरोनावायरस को भी मार देते हैं।

मेरा ख्याल है कि काफी लोग बहुत खुश होंगे कि चलो, अब जम्र्स से छुटकारा मिलेगा और खुशी-खुशी इनमें से कोई उत्पाद खरीद लेंगे। विज्ञापनों का मकसद इसी के साथ पूरा हो जाता है। दरअसल, ऐसे विज्ञापनों के दो मकसद होते हैं – पहला प्रत्यक्ष मकसद होता है उस उत्पाद विशेष की बिक्री को बढ़ाना। लेकिन दूसरा मकसद भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है – उस श्रेणी के उत्पादों की ज़रूरत की महत्ता को स्थापित करना। जैसे, गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन उस क्रीम विशेष की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश तो करते ही हैं, गोरेपन को एक वांछनीय गुण के रूप में भी स्थापित करते हैं। तो जर्म-नाशी उत्पादों के विज्ञापन जर्म-नाश के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

इन जर्म-नाशी उत्पादों के 99.9 प्रतिशत के दावों पर संदेह नहीं करेंगे, हालांकि वह अपने आप में एक मुद्दा है। मेरी चिंता तो उन बचे हुए 0.1 प्रतिशत जम्र्स की है जिन्हें ये उत्पाद इकबालिया रूप से नहीं मार पाते। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। कोरोनावायरस समेत सारे वायरस निर्जीव कण होते हैं, इसलिए मारने की बात ही बेमानी है। मरे हुए को क्या मारेंगे? लेकिन मान लेते हैं कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत कोरोनावायरस को भी मार डालेंगे और 0.1 प्रतिशत को बख्श देंगे। सवाल है कि ये 0.1 प्रतिशत क्या करेंगे। इन 0.1 प्रतिशत का हश्र देखने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में लौटना होगा।

एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन नामक एंटीबायोटिक औषधि की खोज 1928 में की थी और 1941 में इसका उपयोग एक दवा के रूप में शुरू हुआ। 1942 में पहला पेनिसिलीन-प्रतिरोधी बैक्टीरिया खबरों में आ चुका था। डीडीटी से तो काफी लोग परिचित हैं। यह भी सभी जानते हैं कि मलेरिया मच्छर के काटने से फैलता है। मलेरिया पर नियंत्रण की एक प्रमुख रणनीति यह थी कि मच्छरों का सफाया कर दिया जाए। डीडीटी के छिड़काव से मच्छर तेज़ी से मरते थे। लेकिन कुछ ही वर्षों में स्पष्ट हो गया कि डीडीटी मच्छरों को मारने में असमर्थ हो गया है। मच्छरों में डीडीटी के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो गया था।

प्रतिरोधी जीवों का यह मसला आज एक महत्वपूर्ण समस्या है। चाहे जम्र्स हों, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट हों, रोगवाहक मच्छर हों, हर तरफ प्रतिरोधी जीव नज़र आ रहे हैं। सवाल है कि प्रतिरोध पैदा कैसे होता है।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध का कारण क्या है? बैक्टीरिया का जीवन चक्र और प्रत्येक पीढ़ी का समय मिनटों और घंटों में होता है। और जब इस तरह की बैक्टीरिया कॉलोनी को एंटीबायोटिक दवा से उपचारित किया जाता है तो कॉलोनी का सफाया (99.9 प्रतिशत!) हो जाता है। लेकिन कॉलोनी में कभी-कभी संयोगवश म्यूटेशन उत्पन्न हो जाता है या उनमें एकाध बैक्टीरिया ऐसा होता है (0.1 प्रतिशत) जो उस एंटीबायोटिक से अप्रभावित रहता है। 99.9 प्रतिशत तो मर गए लेकिन वे 0.1 प्रतिशत संख्या वृद्धि करते रहते हैं, बल्कि प्रतिस्पर्धा के अभाव में और तेज़ी से संख्या वृद्धि करते हैं। इसकी वजह से ऐसी संतति पैदा होती है जो एंटीबायोटिक की प्रतिरोधी होती है। धीरे-धीरे दवा-प्रतिरोधी गुण वाले बैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करके कॉलोनी पर हावी हो जाते हैं। यह एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी किस्म है। उसी एंटीबायोटिक से इन्हें मारने की कोशिश में सफलता कम या नहीं मिलेगी। इस प्रक्रिया के चलते हमारे द्वारा खोजे गए कई एंटीबायोटिक निष्प्रभावी हो चुके हैं। एंटीबायोटिक-प्रतिरोध की समस्या को स्वास्थ्य जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या माना गया है।

यही हाल डीडीटी का भी हुआ था और विभिन्न कीटनाशकों (पेस्टिसाइड्स) का भी। और अब हम घर-घर पर, सतह-सतह पर यही प्रयोग दोहराने को तत्पर हैं। सोचने वाली बात यह है कि यदि एक साथ इतने सारे जर्म-नाशी निष्प्रभावी हो गए तो क्या होगा। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 की दीर्घकालीन समस्याएं

ए कोरोनावायरस लक्षणों की सूची अनुमान से अधिक विविध होती जा रही है। थकान, दिल का तेज़ धड़कना, सांस लेने में तकलीफ, जोड़ों में दर्द, सोच-विचार करने में परेशानी, गंध संवेदना में कमी जैसी कुछ समस्याओं के अलावा हाल ही में दिल, फेफड़े, गुर्दे और मस्तिष्क की क्षति जैसी दिक्कतें भी शामिल हो गई हैं। 

इस तरह का एक मामला युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (युसीएल) की न्यूरोसाइंस प्रयोगशाला की एथेना अकरमी के साथ हुआ। नए कोरोनावायरस के शुरुआती लक्षणों (बुखार और खांसी) के बाद अकरमी को सांस लेने में तकलीफ, सीने में दर्द और अत्यधिक थकान की शिकायत होने लगी। इसके अलावा उनको सोच-विचार करने में परेशानी के अलावा जोड़ों और मांसपेशियों में भी तकलीफ होने लगी। चार सप्ताह तक घर में आराम करने पर भी ये समस्याएं समय के साथ बढ़ती-घटती रहीं लेकिन खत्म नहीं हुर्इं। ऐसे में मार्च से लेकर अब तक उनका तापमान सिर्फ 3 सप्ताह ही सामान्य रहा है।

आम तौर पर कोविड-19 रोगी या तो हल्के लक्षणों के साथ जल्दी ठीक हो जाते हैं या फिर अधिक बीमार होकर आईसीयू तक पहुंचते हैं। लेकिन अकरमी का मामला कुछ अलग ही था। आम तौर पर कोविड-19 रोगियों में दीर्घावधि लक्षणों के विकसित होने की संभावना का आकलन करना मुश्किल होता है। इस सम्बंध में विभिन्न अध्ययनों से अलग-अलग परिणाम सामने आए हैं क्योंकि इनमें मरीज़ों के किसी समूह की निगरानी अलग-अलग समय तक की गई है।

इटली के एक समूह द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि कोविड-19 के अत्यधिक गंभीर रोगियों में से 87 प्रतिशत लोग बीमार होने के 2 माह बाद तक ऐसे लक्षणों से जूझते रहे। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और स्वीडन में किए गए अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि 10-15 प्रतिशत रोगियों को ठीक होने में काफी समय लगा जिनमें हल्के लक्षणों वाले लोग भी शामिल हैं। इसी तरह जर्मनी के रेडियोलॉजिस्ट मार्टिन रिक्टर ऐसे मामलों के बारे में भी बताते हैं जिनमें कोविड-19 से वृद्ध एवं गंभीर स्थिति में पहुंच चुके रोगी स्वस्थ हुए जबकि मामूली निमोनिया वाले अधेड़ लोग 3 महीने से भी अधिक समय तक अधिक नींद आने की समस्याओं से जूझते रहे।  

यह रोग नया-नया है, इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि ऐसे जीर्ण लक्षण कब तक परेशान करेंगे।

शोधकर्ता इस रहस्यपूर्ण बीमारी को समझने के प्रयास कर रहे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ लायसेस्टर की फेफड़ा वैज्ञानिक रेचल एवांस ने रोग से ठीक हो चुके 10,000 लोगों पर 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक के अध्ययन की शुरुआत की है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस अध्ययन से ना सिर्फ रोग को गहराई से समझा जा सकेगा बल्कि यह भी आकलन किया जा सकेगा कि किन रोगियों में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा होने का खतरा है और क्या शुरुआती इलाज से ऐसी स्थिति से निपटा जा सकता है।           

यह तो महामारी की शुरुआत में ही चिकित्सकों को पता चल गया था कि सार्स-कोव-2 वायरस कोशिकाओं की सतह पर ACE2 रिसेप्टर्स से जुड़कर ऊतकों को नष्ट करना शुरू कर देता है। ऐसे में फेफड़े, दिल, आंत, गुर्दे, रक्त वाहिकाएं और तंत्रिका तंत्र भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। वैसे सार्स-कोव-2 के दीर्घकालिक प्रभाव उसी तरह के हैं जैसे फ्लू जैसे अन्य वायरस संक्रमणों में देखे जाते हैं। इनसे निपटने के लिए चिकित्सक आम तौर पर दवाइयों का उपयोग करते हैं। ऐसे पूर्व अनुभवों की मदद से चिकित्सक कोविड-19 के दीर्र्घकालिक प्रभावों को कम करने में मदद कर सकते हैं।

सार्स-कोव-2 के परिणामों में कुछ भिन्नता भी देखने को मिलती है। पूर्व के कोरोनावायरस, जैसे सार्स और मर्स, के अनुभवों से चिकित्सकों का मानना था कि नया वायरस भी फेफड़ों को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है। 2003 में सार्स से संक्रमित एक व्यक्ति के फेफड़ों में जो घाव पाया गया था वह 15 वर्ष बाद भी मौजूद था। युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में एशिया में कोविड-19 रोगियों के फेफड़ों के स्कैन में पता चला कि कोविड-19 सार्स की तुलना में फेफड़ों को कम गति और आक्रामकता से क्षति पहुंचाता है।

लेकिन कोविड-19 से होने वाली जटिलताएं भी काफी तीव्र हैं। अप्रैल के अंत में अकरमी ने कोविड-19 से उबर चुके 600 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जिनमें 2 सप्ताह से भी अधिक समय तक कोविड-19 के लक्षण उपस्थित रहे। उन्होंने 62 से अधिक लक्षण दर्ज किए हैं। फिलहाल यह तो स्पष्ट हो गया है कि कोविड-19 से गंभीर रूप से बीमार लोगों को पूरी तरह स्वस्थ होने में काफी अधिक समय लग रहा है।

अध्ययन के दौरान कोविड-19 रोगियों में ह्रदय से जुड़ी काफी समस्याएं सामने आर्इं। यह वायरस ह्रदय को कई तरह से प्रभावित करता है। यह ह्रदय की कोशिकाओं के ACE2 रिसेप्टर पर हमला करता है। ACE2 रिसेप्टर ह्रदय की कोशिकाओं की रक्षा करने के अलावा रक्तचाप बढ़ाने वाले हॉर्मोन एंजियोटेंसिन-II को नष्ट करता है। वायरस से लड़ने के लिए शरीर में एड्रीनेलीन और एपिनेफ्रिन के स्राव से भी ह्रदय को क्षति पहुंचती है। कोविड-19 के कारण जिन लोगों में ह्रदय की समस्या पैदा हुई उनमें से अधिकांश लोगों में पहले से ही मधुमेह और उच्च रक्तचाप की समस्याएं उपस्थित थीं। विशेषज्ञों को आशंका है कि कोविड-19 ने ह्रदय समस्याओं को और तीव्र कर दिया।

इस दौरान तंत्रिका तंत्र से जुड़े लक्षण भी सामने आए हैं। ब्रेन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 43 लोगों में गंभीर तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं देखने को मिलीं। इसके अलावा चिकित्सकों को कई रोगियों में सोच-विचार करने में परेशानी की शिकायतें भी मिलीं।                 

कई स्थानों पर कोविड-19 से उबर चुके लोगों पर अध्ययन किया जा रहा है। कहीं ह्रदय से जुड़े रोगों पर अध्ययन किया जा रहा है, तो कहीं आने वाले दो वर्षों तक फेफड़ों के आकलन की योजना बनाई जा रही है।

हालांकि वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वे दीर्घकालिक लक्षणों को टाल पाएंगे जिससे ऐसी समस्याओं से जूझ रहे रोगियों की मदद की जा सकेगी। अलबत्ता, इस वायरस की क्षमता को कम आंकना उचित नहीं होगा। यह रोग एक बार स्थापित हो गया तो वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होगा।(स्रोत फीचर्स)

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सर्पदंश से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है – भारत डोगरा

जुलाई माह में सेंटर आफ ग्लोबल हेल्थ रिसर्च द्वारा सर्पदंश सम्बंधी अध्ययन से पता चला है कि भारत में सांप के काटने से प्रति वर्ष 58 हज़ार मौतें होती हैं। इससे तीन गुना अधिक लोग इस कारण अपंगता या गंभीर क्षति से प्रभावित होते हैं। इस अध्ययन में भारतीय शोधकर्ता भी जुड़े हैं। अध्ययन के अनुसार वर्ष 2000 के बाद भारत में लगभग 12 लाख मौतें सर्पदंश से हुई व एक वर्ष का औसत लगभग 58 हज़ार रहा।

इन मौतों को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता है पर इनमें बड़ी कमी अवश्य लाई जा सकती है। सर्पदंश की अधिक वारदातें जून से सितंबर के महीनों में व रात के समय होती हैं। खेत में रात को देखरेख या सिंचाई आदि के लिए जाना हो या घर के आसपास निकलना हो तो अच्छी रोशनी वाली टार्च का उपयोग करना मुख्य सावधानी होगी। खेत, बाग या वन में, दुर्गम रास्ते पर, किसी भी कार्यस्थल पर जहां सांप की अधिक संभावना है, मोटे जूते या दस्ताने का उपयोग करना उपयोगी है।

सांप के काटने पर प्राथमिक उपचार के साथ शीघ्र से शीघ्र अस्पताल ले जाना आवश्यक है। प्राथमिक उपचार की विज्ञान-सम्मत जानकारी बहुत कम है व दूर के गांवों से निकटतम अस्पताल पहुंचने में समय लगता है। इस कारण बहुत-सी ऐसी मौतें होती हैं जिन्हें रोका जा सकता है। झाड़-फूंक में समय व्यर्थ करने से समस्या और बढ़ जाती है।

अनेक अस्पतालों में सर्पदंश की दवा की कमी रहती है। प्राय: सर्पदंश की दवा (एंटी स्नेक वेनम) सांप की चार प्रमुख ज़हरीली प्रजातियों को ध्यान में रखकर दी जाती है पर कुछ विशेष क्षेत्रों में सांप की अन्य प्रजातियां पाई जाती हैं। अत: इन क्षेत्रों के लिए उचित दवाओं की व्यवस्था ज़रूरी है।

सरकारी आंकड़ों में सर्पदंश की केवल वे मौतें ही दर्ज़ होती हैं जो अस्पताल में होती हैं। तथ्य यह है कि सर्पदंश से प्रभावित कई लोग तो अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। अत: सर्पदंश की समस्या की जानकारी का सही आधार तैयार नहीं हो पाता है। इस संदर्भ में नवीनतम अध्ययन में एक सुझाव यह आया है कि सर्पदंश को ‘नोटिफाइड डिसीज़’ घोषित कर दिया जाए ताकि रोग निरीक्षण के समग्र कार्यक्रम के अंतर्गत इसकी जानकारी नियमित रूप से उपलब्ध होती रहे।

फिलहाल जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर भी सर्पदंश से होने वाली मौतों में कमी लाने का एक समग्र कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है। विशेषकर ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रमों व स्वास्थ्य मिशन में इस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है।

तमिलनाडु में सपेरों का एक सहकारिता आधारित उद्यम स्थापित हुआ है। चेन्नई स्थित इरुला संपेरा औद्योगिक सहकार सोसायटी ने दवा उद्योग से सम्बंध स्थापित किए व दवा बनाने की अनेक कंपनियां उनसे दवा की ज़रूरी सामग्री लेती हैं। उत्तर भारत में भी संपेरों की अनेक बस्तियां हैं। उनका परंपरागत व्यवसाय कम होता जा रहा है। अत: इरुला मॉडल पर उन्हें भी दवा उपलब्ध करवाने या अन्य उपयोगी गतिविधियों से जोड़ा जा सकता है।

सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि मेडिकल शिक्षा शहरी स्वास्थ्य ज़रूरतों पर अधिक आधारित है व उसमें सर्पदंश के इलाज पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। अत: जहां ज़रूरी हो, वहां सर्पदंश के इलाज का प्रशिक्षण नए सिरे से देना चाहिए। ज़रूरी सावधानियों से जुड़ी जानकारी सरल भाषा में लिखित पर्चों व अन्य प्रसार माध्यमों से विशेषकर मानसून के महीनों में प्रसारित करनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन इम्यूनिटी और आज की बीमारियां

हाल ही में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की पैथॉलॉजिस्ट निस्सी वर्की ने बताया कि मनुष्य जिन घातक रोगों (जैसे टाइफॉइड, हैज़ा, गलसुआ, काली खांसी, गनोरिया वगैरह) से पीड़ित होता है, वे कपियों और अन्य स्तनधारी जीवों को नहीं होती। हमारी कोशिका में घुसने के लिए ये रोगाणु शर्करा अणुओं (सियालिक एसिड) का उपयोग करते हैं। और यह देखा गया है कि कपियों का सियालिक एसिड मनुष्यों से भिन्न होता है।

और अब वर्की और उनकी टीम ने आधुनिक मानव जीनोम और हमारे विलुप्त सम्बंधियों – निएंडरथल और डेनिसोवन्स – के डीएनए का विश्लेषण कर पता लगाया है कि लगभग 6 लाख साल पहले हमारे पूर्वजों की प्रतिरक्षा कोशिकाओं में परिवर्तन होना शुरू हुआ था। जीनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि जेनेटिक परिवर्तनों ने तब सियालिक एसिड का इस्तेमाल करने वाले रोगजनकों से सुरक्षा दी थी, लेकिन साथ ही नई दुर्बलताओं को भी जन्म दिया था। जिस सियालिक एसिड की मदद से आज रोगजनक हमें बीमार करते हैं किसी समय यही सियालिक एसिड हमें रोगों से सुरक्षा देता था।

चूंकि सियालिक एसिड कोशिकाओं की ऊपरी सतह पर लाखों की संख्या में होते हैं इसलिए हमलावर रोगजनकों से इनका सामना सबसे पहले होता है। मानव कोशिकाओं पर Neu5Ac सियालिक एसिड का आवरण होता है जबकि वानरों और अन्य स्तनधारियों में Neu5Gc सियालिक एसिड होता है।

कई आणविक घड़ी विधियों से पता चला है कि कोई 20 लाख साल पहले गुणसूत्र-6 के CMAH जीन में हुए उत्परिवर्तन ने हमारे पूर्वजों में Neu5Gc बनना असंभव कर दिया था। और उनमें Neu5Ac अधिक बनने लगा था। इस परिवर्तन से कुछ रोगों के प्रति सुरक्षा विकसित हुई। लेकिन अगले कुछ लाख सालों में Neu5Ac कई अन्य रोगजनकों के लिए मानव कोशिका में प्रवेश करने का साधन बना गया।

सिग्लेक्स (यानी सियालिक एसिड-बाइंडिंग इम्यूनोग्लोबुलिन-टाइप लेक्टिन) सियालिक एसिड की जांच करते हैं। यदि सिग्लेक्स द्वारा सियालिक एसिड क्षतिग्रस्त या गायब पाया जाता है तो वे प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय होने संकेत देते हैं। यदि सियालिक एसिड सामान्य दिखाई देता है तो सिग्लेक्स प्रतिरक्षा तंत्र को अपने ही ऊतकों पर हमला करने से रोक देते हैं।

शोधकर्ताओं को मनुष्यों, निएंडरथल और डेनिसोवन्स के गुणसूत्र-19 के CD33 जीन में 13 सिग्लेक्स कोड में से 8 सिग्लेक्स के जीनोमिक डीएनए में परिवर्तन दिखे। यह परिवर्तन केवल सिग्लेक जीन में दिखे निकटवर्ती अन्य जीन में नहीं। इससे लगता है कि प्राकृतिक चयन इन परिवर्तनों के पक्ष में था, संभवत: इसलिए क्योंकि तब वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने में मदद करते थे जो Neu5Gc को निशाना बनाते थे। लेकिन जो सिग्लेक्स रोगजनकों से बचाते हैं, वे अन्य बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार भी हो सकते हैं। परिवर्तित सिग्लेक्स में से कुछ सूजन और अस्थमा जैसे ऑटोइम्यून विकार से जुड़े हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह शोध व्यापक वैकासिक सिद्धांतों को रेखांकित करता है। इससे पता चलता है कि प्राकृतिक चयन हमेशा इष्टतम समाधान के लिए नहीं होता, क्योंकि इष्टतम समाधान हर समय बदलता रहता है। जो परिवर्तन आज के लिए बेहतर हैं, हो सकता है वे आने वाले समय के लिए सही साबित ना हों।(स्रोत फीचर्स)

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क्या व्यायाम की गोली बन सकती है?

हाल ही में साइन्स में प्रकाशित एक शोध पत्र से यह आशा पैदा हुई है कि जो लोग व्यायाम करने में असमर्थ होते हैं, उन्हें व्यायाम के फायदे एक गोली के रूप में दिए जा सकेंगे।

यह बात तो भलीभांति ज्ञात है कि व्यायाम करने से दिमागी स्वास्थ्य में सुधार आता है। देखा गया है कि जो बुज़ुर्ग लोग शारीरिक रूप से सक्रिय रहते हैं, उनमें स्मृतिलोप जैसी समस्याएं कम देखी जाती हैं। चूहों पर किए गए प्रयोगों से भी पता है कि व्यायाम करने वाले चूहों का संज्ञानात्मक प्रदर्शन बेहतर होता है। शोधकर्ता यह भी दर्शा चुके थे किसी युवा चूहे का खून बुज़ुर्ग चूहे को देने पर उसके दिमाग तथा मांसपेशियों की हालत में सुधार आता है।

लेकिन अब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वृद्धावस्था शोधकर्ता सौल विलेडा ने बताया है कि यदि नियमित व्यायाम करने वाले चूहों का खून निठल्ले चूहों को दे दिया जाए तो उनका दिमाग भी बेहतर काम करने लगता है। यानी बात सिर्फ युवा खून की नहीं है, बल्कि व्यायाम के लाभ की भी है। और अब शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले (सक्रिय) चूहों के खून में एक प्रोटीन खोज निकाला है जो इस असर के लिए ज़िम्मेदार है।

प्रयोग के लिए चूहों के दो दड़बे बनाए गए। इनमें से एक में एक पहिया रखा गया था। ऐसा करने पर निष्क्रिय चूहे भी रात भर में कई मील दौड़ लेते थे। शोधकर्ताओं ने उन चूहों (बुज़ुर्ग और अधेड़) का खून लिया जिनके दड़बे में छ: सप्ताह तक पहिया रखा गया था। यह खून उन चूहों को दिया गया जिनके दड़बे में पहिया नहीं था। तीन सप्ताह की अवधि में आठ बार यह खून देने पर ये निठल्ले चूहे सीखने व स्मृति के परीक्षणों में लगभग पहिए वाले चूहों के समकक्ष आ गए। यह भी देखा गया कि सक्रिय चूहों का खून मिलने के बाद निठल्ले चूहों के दिमाग के हिप्पोकैम्पस वाले हिस्से में तंत्रिकाएं भी ज़्यादा बनी थीं। चूहों का एक समूह और भी था जिसे उतनी ही उम्र के निष्क्रिय चूहों का खून दिया गया था लेकिन इनमें कोई परिवर्तन नहीं देखा गया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने व्यायाम करने वाले चूहों के खून में प्रोटीन्स का विश्लेषण किया। पता चला कि लीवर में बनने वाला एक एंज़ाइम (Gpld1) इनमें ज़्यादा था। जब इस एंज़ाइम का जीन निठल्ले चूहों के लीवर में पहुंचाया गया तो वहां यह एंज़ाइम ज़्यादा बनने लगा और वे लगभग उन चूहों के समकक्ष पहुंच गए जिन्हें तीन सप्ताह तक व्यायाम करने वाले चूहों का खून दिया गया था।

टीम ने यह भी पाया कि नियमित रूप से व्यायाम करने वाले इंसानों में Gpld1 का स्तर ज़्यादा था। इसका मतलब है कि चूहों पर मिले नतीजे शायद मनुष्यों पर लागू हो सकते हैं।

अब विलेडा की टीम का विचार है कि इसके आधार पर एक औषधि तैयार की जाए, जो उन लोगों की मदद कर सकेगी जो उम्र या किसी अन्य कारण से व्यायाम नहीं कर सकते। लेकिन साथ ही वे कहते हैं कि सामान्य नियमित व्यायाम का कोई विकल्प नहीं है क्योंकि औषधि शायद किसी एक घटक पर काम करती है। व्यायाम से मिलने वाला लाभ कई कारकों का मिला-जुला रूप हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 का टीका और टीकों का राष्ट्रवाद

ब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।

फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।

वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1 इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी लंबे इंतज़ार के बाद।

इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।

COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95 करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।

COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।

टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका निर्यात रोक ना सके।

अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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युवाओं से ज़्यादा एंटीबॉडी बुज़ुर्गों में

शंघाई के एक अस्पताल से फरवरी में डिस्चार्ज हुए कोरोना के हल्के संक्रमण वाले 175 लोगों की जांच में बुज़ुर्गों में युवाओं के मुकाबले वायरस निष्क्रिय करने वाली एंटीबॉडी ज़्यादा पाई गई हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अधेड़ उम्र से लेकर बुज़ुर्ग मरीज़ों के प्लाज़्मा में निष्क्रियकारी और स्पाइक से जुड़ने वाली एंटीबॉडी का स्तर तुलनात्मक रूप से ज़्यादा था। 30 फीसदी युवाओं में तो उम्मीद के उलट एंटीबॉडी का स्तर मानक से कम पाया गया। 10 में तो इनका स्तर इतना कम था कि ये पकड़ में ही नहीं आ पार्इं। वहीं, सिर्फ 2 मरीज़ों में एंटीबॉडी का स्तर बहुत अधिक था।

वैज्ञानिकों को मरीज़ों के नमूनों से वायरल डीएनए का पता न लग पाने के कारण इनमें संक्रमण के स्तर का सही आकलन नहीं हो पाया। इसलिए यह भी स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या युवाओं में संक्रमण हल्का होने के कारण ही एंटीबॉडी कम बनी थीं।

इस परिणाम से वैज्ञानिक भी चकित हैं। दरअसल, अधिक एंटीबॉडी होने के बाद भी बुज़ुर्ग जल्दी ठीक नहीं हो पाए थे। यानी बुज़ुर्ग और युवा मरीज़ों को ठीक होने में एक समान समय लगा। ठीक हुए इन लोगों की बीमारी की औसत अवधि 21 दिन, अस्पताल में भर्ती रहने का औसत समय 16 दिन और औसत आयु 50 साल थी।

वैज्ञानिकों का कहना है कि बुज़ुर्गों में एंटीबॉडी का अधिक स्तर उनके मज़बूत प्रतिरक्षा तंत्र के कारण भी हो सकता है। हालांकि, सिर्फ एंटीबॉडी की अधिक उपस्थिति के कारण उनमें गंभीर संक्रमण से बचाव के पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं। दुनिया भर में तो देखा गया है कि कोरोना के प्रति बुज़ुर्ग ज़्यादा कमज़ोर हैं।

शोधकर्ताओं ने मरीज़ों में संक्रमण के 10-15 दिन में ही कोरोना वायरस के लिए बनने वाली निष्क्रियकारी एंटीबॉडी ढूंढ ली थी, जिनका स्तर बाद तक भी स्थिर ही रहा। युवाओं में कम एंटीबॉडी के चलते उनके दोबारा संक्रमित होने की आशंका पर शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन की ज़रूरत बताई है।(स्रोत फीचर्स)

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क्या उत्परिवर्तित कोरोनावायरस अधिक खतरनाक है?

हामारी की शुरुआत में ही सार्स-कोव-2 जीनोम के 30 हज़ार क्षारों में से एक एडीनोसिन (A) से गुवानीन (G) में परिवर्तित हो गया था। जीनोम के 23,403वें स्थान पर यह उत्परिवर्तित वायरस दुनिया भर में फैल गया है। ऐसे में वैज्ञानिक जगत में यह सवाल उठा है कि क्या यह परिवर्तन इसलिए व्यापक हो गया है क्योंकि इससे वायरस को तेज़ी से फैलने में मदद मिलती है या फिर यह सिर्फ एक संयोग है?  

अभी तक स्पष्ट नहीं है कि यह वायरस भविष्य में और अधिक भयानक होने वाला है या फिर समय के साथ कमज़ोर हो जाएगा। कुछ वायरस विज्ञानियों का मत है कि पूर्व में तो मनुष्य सार्स-कोव-2 से अच्छी तरह से अनुकूलित थे लेकिन 2019 के अंत में इसका ऐसा रूप सामने आया जिसने कई लोगों को संक्रमित कर दिया। अध्ययन से पता चला है कि औसतन इस वायरस के जीनोम में प्रति माह 2 उत्परिवर्तन होते हैं। अधिकांश परिवर्तन वायरस के व्यवहार को प्रभावित नहीं करते हैं जबकि कुछ परिवर्तन रोग की गंभीरता को ज़रूर बदल देते हैं। 

परिवर्तन का एक मामला ओआरएफ-8 नामक जीन की 382 क्षार जोड़ियों के विलोपन के साथ हुआ। साल 2003 में कोरोनावायरस के करीबी सार्स के जीन में भी इसी तरह का विलोपन हुआ था। बाद में प्रयोगशाला में किए गए अध्ययन से पता चला था कि यह संस्करण कम कुशलता से प्रतिकृतियां बनाता था। लगता है कि सार्स महामारी को धीमा करने में इसका हाथ था। लेकिन सेल कल्चर प्रयोगों से पता चलता है कि सार्स-कोव-2 के प्रसार पर उत्परिवर्तन का कोई गंभीर प्रभाव नहीं पड़ा है। इससे रोग के कम गंभीर होने के संकेत मिले हैं। 

सार्स-कोव-2 में 23,403वें स्थान पर उत्परिवर्तन ने मानव कोशिकाओं से जुड़ने वाले वायरस की सतह पर उपस्थित प्रोटीन स्पाइक में परिवर्तन किया है। इस उत्परिवर्तन को G614 नाम दिया गया है। सेल में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि वायरस का  G614 संस्करण अब सभी देशों में सामान्य रूप से पाया जाने लगा है जबकि मूल संस्करण लगभग सभी जगह से खत्म हो गया है। प्रयोगों से पता चलता है कि G614 मूल वायरस की तुलना में 1.2 गुना ज़्यादा तेज़ी से फैलता है। सेल कल्चर प्रयोगों से यह भी पता चला है कि G614 संस्करण वाले स्पाइक प्रोटीन कोशिकाओं में प्रवेश करने में अधिक सक्षम हैं। G614 के स्पाइक में मामूली परिवर्तन से प्रोटीन में संरचनात्मक बदलाव हुए हैं जिससे वायरस की झिल्ली और मनुष्य की कोशिकाओं का जुड़ना आसान हो गया है। पता चला है कि यह वायरस तीन से दस गुना अधिक संक्रामक हो गया है। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि कल्चर में वायरस के व्यवहार के आधार पर वास्तविक परिस्थिति के बारे में सीधे-सीधे निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इसके लिए गंधबिलाव जैसे जंतुओं पर प्रयोग ज़रूरी हैं।

एक सवाल यह भी है कि इतना फैल जाने के बाद भी उत्परिवर्तन इसके व्यवहार को प्रभावित क्यों नहीं कर पाए हैं? वैज्ञानिकों का मानना है कि अभी शायद वायरस पर कोई चयन दबाव नहीं है क्योंकि इतने सारे असंक्रमित व्यक्ति प्रसार के लिए मौजूद हैं। हो सकता है कि टीका या नए उपचारों के आगमन के साथ स्थिति बदल जाए।(स्रोत फीचर्स)

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