आठ दिसंबर को दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड स्थित केंट में अचानक
कोविड-19 के मामलों में उछाल ने जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को हैरत
में डाल दिया। इनमें आधे से अधिक मामले ऐसे रोगियों के थे जिनमें सार्स-कोव-2 का
एक विशिष्ट संस्करण पाया गया था। युनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंगहैम के सूक्ष्मजीव-जीन
विज्ञानी निक लोमन के अनुसार यह नया संस्करण उपलब्ध डैटा से काफी अलग था, जिसे
पहले कभी नहीं देखा गया था।
दो हफ्ते से भी कम समय में नए संस्करण ने ब्रिटेन
और युरोप के अन्य स्थानों पर खलबली मचा दी। इस कारण सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन (B.1.1.7)
को फैलने से रोकने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने सख्त लॉकडाउन की घोषणा तक कर
दी। इस घोषणा के बाद से नीदरलैंड, बेल्जियम,
इटली के अलावा भारत
ने भी फिलहाल यूके से यात्री उड़ानों को रोक दिया है।
वैज्ञानिक मनुष्यों में B.1.1.7
की संक्रामकता का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस
नए स्ट्रेन में इतनी जल्दी 17 उत्परिवर्तन हो चुके हैं। इन उत्परिवर्तनों की
प्रकृति की खोजबीन जारी है।
गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने अन्य वायरसों
की तुलना में सार्स-कोव-2 पर काफी अधिक अध्ययन किया है। निष्कर्ष यह है कि इस
वायरस की उत्परिवर्तन दर एक या दो उत्परिवर्तन प्रति माह है। यानी जनवरी में चीन
में प्राप्त शुरुआती जीनोम से आज के जीनोम में 20 विभिन्न बिंदुओं पर परिवर्तन हुए
हैं। लेकिन कम परिवर्तनों वाले कई संस्करण भी उपस्थित हैं। वैज्ञानिकों ने किसी
वायरस में एक बार में एक दर्जन से अधिक उत्परिवर्तन पहली बार देखे हैं। उनका मानना
है कि यह किसी व्यक्ति में लंबे समय तक बने रहे संक्रमण के कारण हुआ होगा जिससे
वायरस को तेज़ी से विकसित होने की गुंजाइश मिली होगी।
वायरस में हुए 17 उत्परिवर्तनों में से 8
तो उस जीन में हुए हैं जो वायरस के स्पाइक प्रोटीन का कोड है। इनमें से दो
उत्परिवर्तन विशेष रूप से चिंताजनक हैं। एक है N501Y जो
मानव कोशिकाओं के ACE2 प्रोटीन ग्राही से ज़्यादा मज़बूती से जुड़ जाता है और दूसरा
69-70del है जिसमें स्पाइक प्रोटीन में दो अमीनो अम्लों का लोप हुआ है। यह उन वायरस
में पाया गया है जो दुर्बल प्रतिरक्षा वाले रोगियों की प्रतिरक्षा प्रक्रिया से
बचकर निकल गए।
शुरुआती जानकारी से यह पता चला है कि यूके
में वायरस के अन्य संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 काफी तेज़ी से
फैलता है। गौरतलब है कि एक आरटी-पीसीआर परीक्षण (Taqpath) सामान्य रूप से तीन
जीनों का पता लगाता है। लेकिन पीसीआर परीक्षण 69-70del संस्करण वाले
वायरसों को नहीं भांपता और यह केवल दो जीन को ही खोज पाता है। इस लिहाज़ से इस
परीक्षण से B.1.1.7
को ट्रैक करने में मदद मिल सकती है।
यूके के मुख्य विज्ञान सलाहकार पैट्रिक
वालेंस के अनुसार नवंबर में सामने आए कुल मामलों में से 26 प्रतिशत B.1.1.7
की वजह से हुए थे लेकिन 9 दिसंबर तक 60 प्रतिशत से अधिक मामलों में नया संस्करण
पाया गया। अनुमान है कि इस उत्परिवर्तन के कारण वायरस की संक्रामकता में 70
प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।
हालांकि,
कुछ वैज्ञानिकों को
लगता है कि उपलब्ध जानकारी के आधार पर B.1.1.7 की संक्रामकता के बारे में निश्चित
रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। गौर करने वाली बात है कि इस नए संस्करण में एक अन्य
वायरल जीन (ORF8) में भी परिवर्तन हुआ है जो वायरस के फैलने की क्षमता को कम करता है।
चिंता की बात यह भी है कि दक्षिण अफ्रीका
के तीन प्रांतों में वायरस के स्पाइक जीन में N501Y
उत्परिवर्तन पाया गया है। युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ुलु-नैटल के वायरस विज्ञानी तूलियो
डी ओलिवेरा के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में पाया गया यह संस्करण काफी तेज़ी से फैल
रहा है।
यह भी कहा जा रहा है कि B.1.1.7
के कारण गंभीर रूप से बीमार होने की संभावना है। अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल
एंड प्रिवेंशन के अनुसार दक्षिण अफ्रीकी संस्करण युवाओं को अधिक प्रभावित कर रहा
है। लेकिन स्पष्ट निष्कर्ष के लिए और डैटा की आवश्यकता है।
इस विषय में निश्चित उत्तर मिलने में काफी
समय लग सकता है। फिलहाल एक रोगी में 69-70del उत्परिवर्तन के साथ
एक अन्य उत्परिवर्तन D796H भी पाया गया है जो उस व्यक्ति में कई
महीनों से मौजूद था और जिसके इलाज के लिए प्लाज़्मा दिया जा रहा था। हालांकि उस
रोगी की मृत्यु हो गई लेकिन पाया गया कि दो उत्परिवर्तन वाला यह वायरस प्लाज़्मा
उपचार के प्रति असंवेदनशील है। इस उत्परिवर्तन के कारण यह वायरस दुगना संक्रामक हो
जाता है। इस मामले में और अध्ययन किए जा रहे हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि B.1.1.7
पहले ही काफी बड़े पैमाने पर फैल चुका है। नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने दिसंबर माह की
शुरुआत में ही एक रोगी में वायरस का यह संस्करण पाया था। कई वैज्ञानिक अन्य देशों
में भी इस संस्करण के पैदा होने की संभावना व्यक्त करते हैं। हो सकता है कि यूके
में यह पहले इसलिए पता चला क्योंकि वहां सार्स-कोव-2 जीनोम की निगरानी करने के
परिष्कृत उपकरण मौजूद हैं। ऐसी भी संभावना है कि B.1.1.7 की विकास
प्रक्रिया की शुरुआत कहीं और हुई हो।
अब टीके बाज़ार में आने लगे हैं। तो वायरस के विभिन्न संस्करणों पर टीकों का दबाव बनेगा। ऐसी स्थिति में संभावना है कि वे संस्करण ज़्यादा बचे रहेंगे और संख्यावृद्धि करेंगे जो टीके को झेल जाते हैं। यानी वायरस के टीका-रोधी संस्करणों का प्रसार बढ़ सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/London_1280p_0.jpg?itok=Z8QdBSg6
विदा हो चुका वर्ष 2020 भारतीय विज्ञान जगत के लिए नई
चुनौतियों और अपेक्षाओं का रहा। अदृश्य कोरोनावायरस से फैली कोविड-19 महामारी का
विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव दिखाई दिया। साल के पूर्वार्ध में वैज्ञानिकों ने नए कोरोनावायरस (सार्स-कोव-2) का जीनोम
अनुक्रम पता करने में सफलता प्राप्त की। इसी के साथ देश में ही टीका बनाने का
मार्ग प्रशस्त हुआ। दरअसल किसी भी रोग से जंग के लिए टीकों का विकास बेहद जटिल और
परीक्षणों के कई चरणों से गुज़रने वाली लंबी अनुसंधान प्रक्रिया है। लेकिन
वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में रात-दिन एक कर वर्ष के अंत तक कोविड-19 का टीका
बनाकर अपनी कुशलता का परिचय दिया।
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के
झंडे तले कार्यरत तीन प्रयोगशालाओं – हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्युलर
बायोलॉजी, नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी और चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी के
अनुसंधानकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 का जीनोम अनुक्रम तैयार किया, जिसका
उद्देश्य वायरस की उत्पत्ति और उसके बदलते स्वरूपों का पता लगाकर टीका निर्माण की
राह बनाना था।
गुज़रे साल में देश की पांचवी विज्ञान, प्रौद्योगिकी
और नवाचार नीति-2020 (एसटीआईपी) का प्रारूप तैयार किया गया। देश में शोध और विकास
को मूर्त रूप देने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही
है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद पहली विज्ञान नीति का निर्माण 1958 में किया
गया था। वर्ष 2020 में बनाई जा रही नई विज्ञान नीति में आत्मनिर्भर भारत के विचार
को केंद्र में रखकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी,
महिलाओं और पंचायतों
के सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। विज्ञान मंत्रालय ने पहली बार नई
विज्ञान नीति निर्माण में राज्यों की विज्ञान परिषदों सहित लगभग 15,000 लोगों की
राय ली। नई विज्ञान नीति में स्थानीय से वैश्विक नवाचारों,
आवश्यकता आधारित
प्रौद्योगिकी तैयार करने और सतत विकास को बढ़ावा देने की कोशिश की गई है।
हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड
मॉलीक्युलर बायोलॉजी के अनुसंधानकर्ताओं को ततैया का जीनोम अनुक्रमण करने में
सफलता मिली। ततैया का वैज्ञानिक नाम लेप्टोफिलिन बोलार्डी है। वैज्ञानिकों
का कहना है कि ततैया का जीनोम अनुक्रमण ड्रॉसोफिला और ततैया के बीच होने
वाले जैविक संघर्ष से सम्बंधित कारणों को समझने में सहायक होगा।
जनवरी में भारतीय विज्ञान कांग्रेस
एसोसिएशन का 107वां सालाना जलसा बैंगलुरू में संपन्न हुआ,
जिसमें देश-विदेश के
वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने ग्रामीण विकास में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की
भूमिका पर मंथन किया। वैज्ञानिकों का कहना था कि ग्रामीण विकास में प्रौद्योगिकी
को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। वर्ष 2006 में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस के
दौरान समेकित ग्रामीण विकास के विभिन्न मुद्दों पर विमर्श हुआ था।
17 जनवरी को फ्रेंच गुआना प्रक्षेपण केंद्र
से जी-सैट संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में विदा किया गया। 7 नवंबर को भारतीय
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी-डीएल से दस
उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा गया। दस उपग्रहों में से नौ विदेशी हैं, जबकि
राडार इमेजिंग उपग्रह अर्थ ऑब्जर्वेशन सेटैलाइट-1 स्वदेशी उपग्रह है। यह सामरिक
निगरानी के साथ कृषि विज्ञान, वानिकी,
भू-विज्ञान, तटीय
निगरानी और बाढ़ जैसी आपदाओं के दौरान उपयोगी सिद्ध होगा। अंतरिक्ष विज्ञान की
गतिविधियों और कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता के लिए मार्ग प्रशस्त
हुआ।
कोरोना महामारी का असर भारत के प्रथम मानव
मिशन गगनयान पर भी पड़ा। गगनयान मिशन का प्रक्षेपण अब अगले वर्ष तक होने की उम्मीद
है। गगनयान परियोजना में तीन भारतीय वैज्ञानिक भेजे जाएंगे, जो
सात दिन अंतरिक्ष में बिताएंगे।
गुज़रे साल वैज्ञानिकों की टीम ने अगस्त में
मेघालय में मशरूम की रात में चमकने वाली एक नई प्रजाति रोरीडोमाइसेज़
फायलोस्टेकायडीस खोजी। अंधेरे में यह हरे रंग की रोशनी से जगमगाता है। इसी
कारण इसे ल्यूमिनिसेंट मशरूम कहते हैं। मेघालय में मशरूम की अलग-अलग प्रजातियों का
पता लगाने के लिए एक प्रोजेक्ट चल रहा है।
इसी वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग
ने 50 वें वर्ष में प्रवेश किया और स्वर्ण जयंती वर्ष आयोजनों की शुरुआत हुई।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना 3 मई 1971 को की गई थी। इस विभाग की
स्थापना का उद्देश्य देश में वैज्ञानिक गतिविधियों और परियोजनाओं को बढ़ावा देने
में नोडल एजेंसी की भूमिका निभाना है।
विज्ञान समागम प्रदर्शनी का समापन 20 मार्च
को दिल्ली में हुआ। यह अपने ढंग की अनोखी प्रदर्शनी थी,
जिसमें आम लोगों को
विज्ञान की प्रगत विधाओं से परिचित होने का मौका मिला। प्रदर्शनी मुम्बई, कोलकाता
और बैंगलुरु के बाद दिल्ली पहुंची थी।
साल के उत्तरार्द्ध में भारत हाइपरसोनिक
टेक्नोलॉजी प्राप्त करने वाला चौथा देश बन गया। इस तकनीक की सहायता से ध्वनि से छह
गुना अधिक रफ्तार वाली मिसाइलें तैयार होंगी।
वर्ष के अंत में पहली बार वर्चुअल माध्यम
से इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल आयोजित किया गया,
जिसमें इस बार 41
गतिविधियां शामिल की गर्इं। पहली बार महोत्सव में कृषि वैज्ञानिक सम्मेलन हुआ, जिसमें
खेती-किसानी से सम्बंधित कार्यों के लिए कृत्रिम बुद्धि के उपयोग पर ज़ोर दिया गया।
विज्ञान को उत्सव से जोड़ते इस कार्यक्रम की शुरुआत 2015 में नई दिल्ली से हुई थी।
गुज़रे वर्ष भारतीय वैज्ञानिक नेशनल सुपर
कंप्यूटिंग मिशन के अंतर्गत देश में ही सुपरकंप्यूटरों की शृंखला तैयार करने में
जुटे रहे। अंतरिक्ष, उद्योग और मौसम सम्बंधी पूर्वानुमानों में सुपरकंप्यूटरों
की अहम भूमिका है।
10 जुलाई को रीवा अल्ट्रा मेगा सौर
परियोजना राष्ट्र को समर्पित की गई। यह विश्व की बड़ी परियोजनाओं में से एक है। यह
पहली सौर योजना है, जिसे विश्व बैंक और क्लीन टेक्नोलॉजी फंड से धनराशि मिली
है। इस सौर परियोजना से हर साल 15.7 लाख टन कार्बन उत्सर्जन रोका जा सकेगा।
बीते साल ‘अम्फन’ और ‘निसर्ग’ जैसे
विनाशकारी तूफान आए, लेकिन उपग्रहों से प्राप्त सटीक पूर्वानुमानों के आधार पर
लाखों लोगों का जीवन बचा लिया गया।
विज्ञान के विभिन्न विषयों में मौलिक और
उत्कृष्ट अनुसंधान के लिए 14 वैज्ञानिकों को शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। इनमें दो महिला वैज्ञानिक भी शामिल हैं। अभी तक 560
वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया जा चुका है। इनमें 542 पुरुष और 18 महिला वैज्ञानिक
हैं।
इसी वर्ष सितंबर में विख्यात अंतरिक्ष
वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन का जन्मशती वर्ष मनाया गया। इसरो ने विभिन्न कार्यक्रम
आयोजित किए और अंतरिक्ष में उनके असाधारण योगदान का स्मरण किया। प्रोफेसर धवन का
जन्म 25 सितंबर 1920 को हुआ था। प्रोफेसर धवन 1972 में इसरो के अध्यक्ष बने थे।
इसी वर्ष सर पैट्रिक गेडेस द्वारा भारतीय
वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु पर लिखी किताब के सौ साल पूरे हुए।
विदा हो चुके वर्ष में कोरोनावायरस पर बनाए
गए विज्ञान कॉर्टूनों पर केंद्रित किताब बाय बाय कोरोना प्रकाशित हुई।
पुस्तक के लेखक जाने-माने वैज्ञानिक और सांइटूनिस्ट डॉ. प्रदीप कुमार श्रीवास्तव
हैं। यह विश्व की विज्ञान कॉर्टूनों पर प्रकाशित अपनी तरह की पहली किताब है।
दिसंबर में भारत उन चुनिंदा देशों में
शामिल हो गया, जहां चालकरहित मेट्रो ट्रेनों का संचालन हो रहा है। देश में
इसकी शुरुआत दिल्ली से हुई। चालकरहित मेट्रो की यात्रा कम्युनिकेशन बेस्ड ट्रेन
कंट्रोल सिग्नलिंग सिस्टम पर आधारित है। बीते साल देश में ही तैयार ज़मीन से हवा
में प्रहार करने वाली आकाश मिसाइल के निर्यात का मार्ग प्रशस्त हो गया। आकाश
मिसाइल लड़ाकू विमानों, क्रूज़ मिसाइलों और ड्रोन पर सटीक निशाना लगा सकती है।
26 जनवरी 2020 को रोटावायरस वैक्सीन के
खोजकर्ता और जैव प्रौद्योगिकी विभाग के पूर्व सचिव डॉ. एम.के. भान का निधन हो गया।
13 फरवरी को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. राजेंद्र कुमार पचौरी
नहीं रहे। उनके नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल ने जलवायु
परिवर्तन पर 2007 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था। श्री पचौरी आईपीसीसी के
अध्यक्ष और टेरी के महानिदेशक रहे। उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े
संस्थानों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। 2001 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया
था।
18 अप्रैल 2020 को जाने-माने कृषि विज्ञानी
और आनुवंशिकीविद प्रो. वी. एल. चोपड़ा का 83 वर्ष की आयु में देहांत हो गया।
उन्होंने भारत में गेहूं की पैदावार बढ़ाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान किया।
उन्हें कृषि के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित बोरलाग अवॉर्ड और 1985
में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया था। वे योजना आयोग के सदस्य रहे। उन्होंने भारतीय
कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक पद को सुशोभित किया।
इस वर्ष 15 मई को प्रसिद्ध भौतिकीविद डॉ.
एस. के. जोशी का निधन हो गया। उन्हें भौतिकी में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित
शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार मिला था।
22 जून 2020 को कोलकाता में अमलेंदु
बंद्योपाध्याय का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने खगोल विज्ञान को आम
लोगों में लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान दिया था। उन्होंने आठ किताबें और लगभग
2500 लेख लिखे। उन्हें विज्ञान संचार में विशेष योगदान के लिए राष्ट्रीय विज्ञान
एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद ने राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था।
विख्यात गणितज्ञ सी. एस. शेषाद्रि का 17
जुलाई को 88 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें ‘शेषाद्रि कांस्टेंट’ के लिए
अत्यधिक ख्याति मिली। उन्हें पद्मभूषण और शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित
किया गया था। इसी साल हमने प्रसिद्ध रेडियो खगोलविद प्रो. गोविन्द स्वरूप को खो
दिया। सितंबर में विख्यात परमाणु वैज्ञानिक और परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व निदेशक डॉ.
शेखर बसु का निधन हो गया।
इसी वर्ष 7 सितंबर को जाने-माने वैज्ञानिक
डॉ. नरेन्द्र सहगल का निधन हो गया। उन्हें विज्ञान संचार के क्षेत्र में विशेष
योगदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने
भारत में विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार में अहम भूमिका निभाई थी। डॉ.
सहगल राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद और विज्ञान प्रसार के
संस्थापक निदेशक थे।
इसी वर्ष 14 दिसंबर को प्रसिद्ध एयरोस्पेस
वैज्ञानिक आर. नरसिंहा का देहांत हो गया। उन्होंने लाइट कॉम्बैट एयरक्रॉफ्ट (एलसीए)
और तेजस की डिज़ाइन एवं विकास में अहम भूमिका निभाई थी। प्रो. नरसिंहा को पद्मभूषण
से सम्मानित किया गया था।
विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मंडल ने इस बार बीते साल को यादगार बनाने वाले व्यक्तियों और अनुसंधान कथाओं का चयन कर एक सूची बनाई है, जिसमें कोविड-19 के टीकों के अनुसंधान और विकास को शामिल किया गया है। हमारे देश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल में अपने संबोधन के दौरान विदा हो चुके साल 2020 को ‘विज्ञान वर्ष’ की संज्ञा दी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.technologyforyou.org/wp-content/uploads/2020/04/covid-updates1.jpg
विभिन्न कारकों के चलते कोविड-19 संक्रमण गंभीर रूप ले सकता
है। अब बायोआर्काइव्स में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन संभावना जताता है कि
शरीर में एक निएंडरथल जीन के संस्करण की मौजूदगी कोविड-19 की गंभीरता चार गुना तक
बढ़ा सकती है। गौरतलब है कि निएंडरथल एक प्राचीन मानव प्रजाति थी जो करीब सवा लाख
से 35 हज़ार वर्ष पूर्व तक अस्तित्व में थी और आधुनिक मनुष्यों का उनके साथ प्रजनन
संपर्क भी होता था। इसी का परिणाम है आधुनिक मनुष्यों में 2.6 प्रतिशत तक निएंडरथल
जीन्स पाए जाते हैं।
वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि डाइपेप्टीडाइल
पेप्टीडेज़-4 (DPP4) नामक प्रोटीन मिडिल ईस्ट रेस्पेरेटरी सिंड्रोम (MERS) संक्रमण के लिए
ज़िम्मेदार एक अन्य कोरोनावायरस को मानव कोशिका से बंधने और उसमें प्रवेश करने में
मदद करता है। अब, कोविड-19 के मरीज़ों में DPP4 जीन के एक परिवर्तित संस्करण का विश्लेषण
बताता है कि यह प्रोटीन सार्स-कोव-2 को ACE2 ग्राहियों के अलावा कोशिका में प्रवेश
करने का एक और मार्ग उपलब्ध करा देता है।
दरअसल पूर्व में हुए अध्ययन में शोधकर्ताओं
ने बताया था कि DPP4 सार्स-कोव-2 वायरस को मानव कोशिका से जुड़ने में मददगार हो सकता है। अलबत्ता, एक
अन्य अध्ययन ने इस संभावना को खारिज करते हुए बताया था कि यह वायरस DPP4 के माध्यम से कोशिका से नहीं जुड़ता।
एक बार फिर मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर
इवोल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के वैकासिक आनुवंशिकीविद स्वान्ते पैबो और उनके साथियों
ने DPP4 जीन की भूमिका की
संभावना जताई है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में जांचा कि क्या DPP4 जीन का निएंडरथल
संस्करण असंक्रमित लोगों की तुलना में कोविड-19 के गंभीर मामलों वाले लोगों में
अधिक दिखता है। इसके लिए उन्होंने कोविड-19 होस्ट जेनेटिक्स इनिशिएटिव द्वारा जारी
किए गए नवीनतम डैटा का अध्ययन किया, जिसमें कई लोगों के जीनोम और कोविड-19 की
स्थिति के बारे में जानकारी थी। उन्होंने पाया कि कोविड-19 से गंभीर रूप से
संक्रमित 7885 लोगों के जीनोम में DPP4 का निएंडरथल संस्करण नियंत्रण समूह की
तुलना में अधिक था। यदि किसी व्यक्ति में निएंडरथल संस्करण की एकल प्रति है तो
उसमें गंभीर संक्रमण का जोखिम दो गुना है और अगर दोनों प्रतियां निएंडरथल संस्करण
की हैं तो गंभीर संक्रमण का जोखिम चार गुना है।
DPP4 जीन कोशिका में ग्लूकोज़ या शर्करा को तोड़ने में भूमिका निभाता है। इसलिए मधुमेह की कुछ दवाएं DPP4 जीन को लक्षित करती हैं। अध्ययन सुझाता है कि मधुमेह की दवाएं कोविड-19 के इलाज में मदद कर सकती है। वैसे तो DPP4 जीन का निएंडरथल संस्करण एंज़ाइम के आकार और कार्य को प्रभावित नहीं करता क्योंकि यह परिवर्तन जीन के प्रमोटर में है। इसका प्रभाव इस बात पर होता है कि यह जीन शरीर में कहां और कितना सक्रिय होगा। अध्ययन पर कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि कोविड-19 में निएंडरथल जीन से कितना जोखिम है इसे समझने के लिए इसकी तुलना गरीबों और स्वास्थ्य सुविधा की पहुंच से दूर वाले लोगों में कोविड-19 के गंभीर संक्रमण के जोखिम से करके देखना चाहिए। कोविड-19 का संक्रमण गंभीर स्थिति में पहुंचाने में आनुवंशिक कारक से अधिक भूमिका सामाजिक-आर्थिक कारकों की होगी। नतीजे अभी इस जीन की भूमिका की संभावना ही व्यक्त करते हैं, पुष्टि होना अभी बाकी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/wuhan_1280p.jpg?itok=qxcZBWiJ
छिपकलियों की पूंछ टूटती है और कुछ ही दिनों में बिना हड्डी
वाली नई पूंछ बन जाती है। कुछ विकसित रीढ़धारियों में क्षतिग्रस्त अंगों में
पुन:निर्माण (रीजनरेशन) की क्षमता होती है। अकशेरुकी प्राणियों में तो कई ऐसे
उदाहरण हैं जो अपने शरीर के अंग या पूरे शरीर को भी फिर से बना सकते हैं। स्पंज और
प्लेनेरिया नामक जीव के छोटे-छोटे टुकड़ों से पूरे जीव का निर्माण हो जाता है।
स्टारफिश की भुजा कटकर अलग हो जाने पर फिर से नई भुजा आ जाती है। इस प्रक्रिया को
यदि मानव में प्रयुक्त किया जा सके तो दुर्घटनाओं या अन्य कारणों से नष्ट हुए
अंगों को पुन: उत्पन्न किया जा सकता है।
ज़ेब्राफिश में पुन:निर्माण
मानव के लिए उपयोगी चिकित्सा सम्बंधी 95
प्रतिशत शोध पारंपरिक रूप से चूहों या माउस पर किए जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में
इस प्रवृत्ति में बदलाव आया है और ज़ेब्राफिश शोधकर्ताओं की पहली पसंद बन गई है।
करीब 6 से.मी. लंबी ज़ेब्राफिश दक्षिण-पूर्व एशिया (भारत,
पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल
और बर्मा) में पाई जाती है। मनुष्य की बीमारियों पर शोध के लिए बर्मिंगहैम के अलबामा
विश्वविद्यालय में ही 20 शोध परियोजनाओं में इनका उपयोग किया जा रहा है। कैंसर, हृदय
रोग, मोटापा, मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी और नेफ्रोलेप्सी जैसी
बीमारियों में इन पर किए गए शोध के परिणाम मूल्यवान हैं।
ज़ेब्राफिश का उपयोग तेजी से बढ़ने का कारण
कम लागत, तेज़-वृद्धि तथा भ्रूण का पारदर्शी होना है। ज़ेब्राफिश प्रति
सप्ताह 100-500 अंडे देती है जिनमें 45 मिनट में भ्रूणीय विकास दिखने लगता है।
सबसे महत्वपूर्ण खोज तो यह है कि वयस्क ज़ेब्राफिश हृदय और मस्तिष्क के चोटग्रस्त
भाग का भी पुन:निर्माण कर लेती है। मनुष्यों में तो केवल त्वचा और कुछ ही अन्य
अंगों को पुन: बनाने की क्षमता होती है।
हमारे मस्तिष्क तथा मेरु-रज्जू बनाने वाली
तंत्रिका तंत्र की कुछ कोशिकाएं तो एक समय बाद कोशिका विभाजन के लिए आवश्यक
सामग्री फेंक देती हैं। इससे उन कोशिकाओं के विभाजन से नई कोशिकाओं के निर्माण की संभावनाएं
लगभग समाप्त ही हो जाती हैं।
आंखों के भीतर तंत्रिका कोशिकाओं से बना
दृष्टिपटल (रेटिना) भी बीमारी या चोट के कारण यदि क्षतिग्रस्त हो जाए तो वह आजीवन
अंधा बना देता है क्योंकि रेटिना में हुए नुकसान की पूर्ति नहीं होती। आंखों के
लेंस तथा कॉर्निया की क्षति के कारण उत्पन्न अंधत्व को तो प्रत्यारोपण से ठीक किया
जा सकता है परंतु रेटिना की क्षति का कोई इलाज अभी तक उपलब्ध नहीं है।
ज़ेब्राफिश का रेटिना
मनुष्य और मछलियों में आंख की संरचना और
कोशिकाएं एक जैसी होती हैं परंतु दिलचस्प बात यह है कि चोट लगने पर मछलियां दो
सप्ताह में ही क्षतिग्रस्त रेटिना का पुन:निर्माण कर लेती है। मनुष्यों में रेटिना
के नष्ट होने से अंधे हुए लोगों के लिए यह जानकारी संभावनाओं के द्वार खोल सकती
है।
ज़ेब्राफिश के रेटिना में 6 प्रकार के
न्यूरॉन्स होते हैं और एक तरह की ग्लिया कोशिकाएं (गैर न्यूरॉन, सहारा
देने वाली कोशिकाएं) होती हैं। ये ही विभिन्न कार्यों को अंजाम देती हैं। चोट से
उत्पन्न अंधेपन को दूर करने के लिए ग्लिया कोशिकाएं अपना रूप बदलकर स्टेम कोशिकाओं
में परिवर्तित हो जाती हैं। स्टेम कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो अपने आपको
किसी भी अंग की कोशिकाओं में बदलने में सक्षम होती है। चोट वाली जगह पर स्टेम
कोशिकाएं तेज़ी से विभाजित होकर नई तंत्रिका कोशिकाओं में बदल जाती हैं।
ज़ेब्राफिश के विपरीत, मानव
का तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क या उससे सम्बंधित अंग चोटग्रस्त होने पर उसकी कोशिकाओं
को विभाजित नहीं होने देता। इसलिए घाव भरना संभव नहीं होता और स्थायी क्षति होती
है। शायद ऐसा अत्यधिक विशिष्ट विकसित तथा एक साथ अनेक कार्य कर सकने की क्षमता
वाले मस्तिष्क के कारण हुआ है। रेटिना भी तंत्रिका तंत्र का भाग है, और
वह भी घाव भर सकने में सक्षम नहीं है।
वैज्ञानिकों ने पाया है कि ज़ेब्राफिश में
जब रेटिना की कोशिकाएं चोटग्रस्त होकर मरने लगती हैं तब वे GABA नामक न्यूरोट्रान्समीटर (तंत्रिका संदेशवाहक रसायन) का उत्पादन बंद कर देती
हैं। इससे ग्लिया कोशिकाएं स्टेम कोशिकाओं जैसी स्थिति में आने लगती हैं और नई
कोशिकाएं बनाकर चोट की मरम्मत करने लगती हैं। चूहों पर पूर्व में किए गए शोध ने
मस्तिष्क और पेंक्रियाज़ में भी ऐसे ही परिणाम दर्शाए हैं।
ज़ेब्राफिश में रेटिना पुन:निर्माण के तरीके को मानव में प्रयुक्त करने में कुछ समय लग सकता है पर वैज्ञानिकों के निरंतर अथक प्रयासों से ऐसा लगता है कि सफलता दूर नहीं है।(स्रोत फीचर्स)
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कई मामलों में देखा गया है कि कोविड-19 से उबरने के बाद भी
लोग इसकी जांच में सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए गए। इससे यह लगता था कि या तो उनमें
कोरोनावायरस का पुन: संक्रमण हुआ है या उनमें छुपा संक्रमण शेष था। लेकिन हाल ही
में हुआ अध्ययन इसकी एक अलग व्याख्या करता है। अध्ययन के अनुसार, एचआईवी
वायरस और अन्य रेट्रोवायरस की तरह कोरोनावायरस भी मनुष्य के गुणसूत्रों में अपना
जेनेटिक कोड जोड़ जाता है, लेकिन पूरा जेनेटिक कोड नहीं बल्कि इसका
सिर्फ कुछ हिस्सा। यदि मामला वास्तव में ऐसा है तो यह ठीक हो चुके व्यक्तियों में
भी संक्रमण होने के झूठे संकेत देता रहेगा,
और इससे कोविड-19 के
उपचार के लिए किए जा रहे अध्ययनों के भ्रामक परिणाम मिलने की संभावनाएं भी हैं।
फिलहाल तो ये नतीजे पेट्रीडिश में अध्ययन
से प्राप्त हुए हैं, लेकिन सार्स-कोव-2 से संक्रमित लोगों के जेनेटिक अनुक्रम का
डैटा भी कुछ ऐसा ही दर्शाता है। हालांकि शोधकर्ता बताते हैं कि इसका कतई यह मतलब
नहीं है कि सार्स-कोव-2 अपनी पूरी जेनेटिक सामग्री स्थायी रूप से मनुष्यों में छोड़
देता है जो लगातार वायरस की प्रतियां बनाती रहे,
जैसा कि एड्स वायरस
करता है। वास्तव में सभी वायरस यह करते हैं कि जिन कोशिकाओं को वे संक्रमित करते
हैं उनमें अपनी जेनेटिक सामग्री भी डाल देते हैं। अलबत्ता,
आम तौर पर यह सामग्री
मेज़बान कोशिका के डीएनए से अलग ही रहती है।
एमआईटी के आणविक जीवविज्ञानी रुडोल्फ जैनिश
की टीम ने देखा कि ठीक होने के बाद भी कई लोग सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए जा रहे थे।
उन्हें लगा कि शायद पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (PCR) टेस्ट वायरस के
छिन्न-भिन्न अवशेषों को वायरस की तरह पहचान रहा हो। PCR टेस्ट नाक में रूई
के फाहे पर लिए गए नमूनों में वायरस के अनुक्रम की पहचान करता है।
यह संभावना जांचने के लिए कि क्या
सार्स-कोव-2 का आरएनए-जीनोम हमारे गुणसूत्र के डीएनए से जुड़ सकता सकता है, शोधकर्ताओं
ने मानव कोशिकाओं में ऐसा जीन (रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेज़,
RT)
जोड़ा जो आरएनए को डीएनए में परिवर्तित कर देता है। फिर इन कोशिकाओं को सार्स-कोव-2
वायरस के साथ संवर्धित किया। एक प्रयोग में उन्होंने एचआईवी के RT जीन
का उपयोग किया। अन्य प्रयोग में उन्होंने मानव डीएनए अनुक्रमों (LINE-1) का उपयोग करके रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन
किया। बायोआर्काइव्स में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि दोनों ही
प्रयोगों में कोशिकाओं में सार्स-कोव-2 आरएनए का कुछ हिस्सा डीएनए में परिवर्तित
हो गया था और मानव गुणसूत्र में जुड़ गया था।
तो यदि किसी में LINE-1 स्वाभाविक रूप से
कोशिकाओं में सक्रिय है तो कोविड-19 से संक्रमित लोगों में सार्स-कोव-2 का आरएनए
जुड़ सकता है। ऐसा उन लोगों में भी हो सकता है जो सार्स-कोव-2 और एचआइवी, दोनों
से एक साथ संक्रमित हैं। दोनों ही स्थितियां यह संभावना जताती हैं कि कोविड-19 से
उबर चुके लोगों में PCR टेस्ट कोरोनोवायरस की जेनेटिक सामग्री के यही अवशेष पहचान
रहा होगा।
चूंकि सार्स-कोव-2 के जीनोम का सिर्फ कुछ हिस्सा ही जुड़ता है इसलिए इससे संक्रमण होने या फैलने जैसा कोई खतरा नहीं है। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि लोगों में जिन कोशिकाएं में यह प्रक्रिया होती है, वे कोशिकाएं लंबे समय तक जीवित रहती हैं या मर जाती हैं? अध्ययन पर कई प्रश्न हैं। जैसे रिवर्स ट्रांसक्रिप्शन प्रयोगशाला की अनुकूल परिस्थितियों में तो हो सकता है लेकिन क्या वास्तविक परिस्थिति में भी ऐसा हो सकता है। जैनिश इन सवालों पर अनुसंधान कार्य कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2020 में एक घातक और अज्ञात वायरस ने विश्व भर में कहर
बरपाया जिसमें करोड़ों लोग संक्रमित हुए हैं,
15 लाख से अधिक मौतें
हो चुकी हैं, और पूरे विश्व को आर्थिक संकट से गुज़रना पड़ा। हालांकि, इस
वर्ष वैज्ञानिक अनुसंधान एवं विकास के अन्य क्षेत्रों में काफी काम हुआ है लेकिन
कोविड-19 महामारी ने विज्ञान को असाधारण रूप से प्रभावित किया है।
इस वायरस का पता चलते ही विश्व भर के शोध
समूहों ने इसके जीव विज्ञान का अध्ययन किया,
कुछ समूह नैदानिक
परीक्षण की खोज करने में जुट गए तो कुछ ने जन-स्वास्थ्य उपायों पर काम किया।
कोविड-19 के उपचार और टीका विकसित करने के प्रयास किए गए। किसी अन्य संक्रमण के
संदर्भ में ऐसी फुर्ती कभी नहीं देखी गई थी। महामारी ने शोधकर्ताओं के कामकाज और
व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित किया। वायरस के प्रभाव का अध्ययन न करने वालों के
प्रोजेक्ट्स में देरी हुई, करियर में अस्थिरता आई और अनुसंधान फंडिंग
में बाधा आई।
एक नया वायरस
जनवरी में चीन के वुहान प्रांत में मिले
पहले मामले के एक माह के भीतर शोधकर्ताओं ने इसका कारण खोज लिया था: एक नया
कोरोनावायरस, जिसे सार्स-कोव-2 नाम दिया गया। 11 जनवरी तक, एक
चीनी-ऑस्ट्रेलियाई टीम ने वायरस के जेनेटिक अनुक्रम को ऑनलाइन प्रकाशित कर दिया।
इसके बाद वैज्ञानिकों ने यह चौंकने वाली खोज की कि यह वायरस एक से दूसरे व्यक्ति
में फैल सकता है।
फरवरी तक शोधकर्ताओं ने बता दिया था कि यह
वायरस कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित ACE2 ग्राही नामक प्रोटीन से चिपककर कोशिका
में प्रवेश करता है। फेफड़ों और आंतों सहित शरीर के कई अंगों की कोशिकाओं पर यह
ग्राही पाया जाता है। इसलिए कोविड-19 के लक्षण निमोनिया से लेकर अतिसार और स्ट्रोक
तक दिखाई देते हैं। यह वायरस अपने ग्राही से 2003 के श्वसन सम्बंधी सार्स-कोव
वायरस की तुलना में 10 गुना अधिक मज़बूती से जुड़ता है।
मार्च में कुछ वैज्ञानिकों ने बताया कि
वायरस से भरी छोटी-छोटी बूंदें (एयरोसोल) लंबे समय तक हवा में उपस्थित रह सकती है
और संभवत: संक्रमण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लेकिन कई शोधकर्ता असहमत थे
और सरकारों एवं जन-स्वास्थ्य संगठनों को यह मानने में काफी समय लगा कि वायरस इस
माध्यम से भी फैल सकता है। यह भी पता चला कि लक्षण विकसित होने से पहले ही लोग
वायरस फैला सकते हैं। एक हालिया विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि सार्स-कोव-2 के
आधे मामले लक्षणहीन लोगों द्वारा संक्रमण फैलाने के कारण हुए हैं।
गौरतलब है कि इस वायरस का स्रोत अभी भी एक
रहस्य बना हुआ है। साक्ष्यों के अनुसार यह वायरस चमगादड़ से उत्पन्न हुआ और संभवत:
एक मध्यवर्ती जीव के माध्यम से मनुष्यों में आ गया। बिल्लियों और मिंक सहित कई
जंतु सार्स-कोव-2 के प्रति अतिसंवेदनशील पाए गए हैं। इसके लिए WHO ने सितंबर में मध्यवर्ती जीव का पता लगाने के लिए एक विशेष टीम का गठन किया।
इस जांच में चीन सहित कई देशों को शामिल किया गया है। इस बीच अमेरिका के
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और अन्य नेताओं ने बिना किसी पुख्ता सबूत के दावा किया
कि सार्स-कोव-2 चीन की प्रयोगशाला में विकसित करके छोड़ा गया है। वैज्ञानिकों ने
ऐसी किसी भी संभावना से इन्कार किया है।
नियंत्रण के प्रयास
महामारी की शुरुआत से ही महामारी
वैज्ञानिकों ने वायरस प्रसार का अनुमान लगाने के लिए कई मॉडल विकसित किए और इसे
जन-स्वास्थ्य के विभिन्न उपायों से नियंत्रित करने का सुझाव दिया। टीके या किसी
इलाज के अभाव में लॉकडाउन जैसे गैर-चिकित्सीय हस्तक्षेप अपनाए गए। जनवरी में वुहान
में सबसे पहले लॉकडाउन लगाया गया, जिसे बाद में अधिकांश देशों द्वारा उसी तरह
के प्रतिबंधों के साथ अपनाया गया।
लेकिन लॉकडाउन का आर्थिक प्रभाव काफी गंभीर
रहा और कई देशों को वायरस पर नियंत्रण प्राप्त होने से पहले ही लॉकडाउन समाप्त
करना पड़ा। वायरस के हवा के माध्यम से प्रसार की अनिश्चितता को देखते हुए मास्क
लगाने को लेकर भी बहस छिड़ गई जिसने, विशेष रूप से अमेरिका में, राजनीतिक
रूप ले लिया। इसी बीच वायरस को षड्यंत्र बताने वाले सिद्धांत, झूठे
समाचार, और अधकचरा विज्ञान भी वायरस की तरह काफी तेज़ी से फैलते गए।
यह बात भी उछली कि वायरस को नियंत्रित करने की बजाय उसे अपना रास्ता तय करने दिया
जाए।
वैज्ञानिकों ने इस संकट से बाहर आने के लिए
व्यापक स्तर पर सार्स-कोव-2 के परीक्षण करने का भी सुझाव दिया। लेकिन कई देशों में
बुनियादी उपकरण और पीसीआर परीक्षण में उपयोग होने वाले रसायनों की कमी के चलते
काफी अड़चनें आर्इं। इसके मद्देनज़र कई समूहों ने जीन-संपादन विधि CRISPR और त्वरित एंटीजन जांच के आधार पर नए त्वरित परीक्षण
विकसित करने का काम किया जो शायद भविष्य में उभरने वाले रोगों के निदान में मदद
मददगार होगा।
वियतनाम,
ताइवान और थाईलैंड
जैसे देशों ने व्यापक लॉकडाउन, व्यापक स्तर पर परीक्षण, मास्क
लगाने के आदेश और डिजिटल माध्यम से कांटैक्ट ट्रेसिंग को अपनाकर वायरस पर शुरुआत
में ही नियंत्रण पा लिया। सिंगापुर, न्यूज़ीलैंड और आइसलैंड ने बड़ी संख्या में
परीक्षण एवं ट्रेसिंग तकनीक और सख्त आइसोलेशन की मदद से वायरस को लगभग पूरी तरह से
खत्म किया और सामान्य जीवन बहाल किया। इन सफलताओं का मुख्य सूत्र सरकारों की
तत्परता और निर्णायक रूप से कार्य करने की इच्छा रहा। शुरुआती और आक्रामक
कार्यवाहियों ने संक्रमण की रफ्तार को कम किया।
दूसरी ओर,
कई अन्य देशों के
अधिकारियों के लंबित फैसलों, वैज्ञानिक सलाहों को अनदेखा करने और
परीक्षणों को बढ़ाने में हुई देरी की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हुई और दूसरी
लहर का सामना करना पड़ा। इसी कारण अमेरिका और पश्चिमी युरोप में कोविड-19 संक्रमण
और मौतें एक बार फिर बढ़ रही हैं।
त्वरित टीके
इसी बीच वैज्ञानिक प्रयासों ने एक ऐसी
बीमारी के विरुद्ध टीके प्रदान किए जिसके बारे में एक वर्ष पहले तक कोई जानता तक
नहीं था। कोविड-19 के विरुद्ध टीके काफी तेज़ी से विकसित किए गए। WHO के अनुसार नवंबर में 200 से अधिक टीके विकसित किए जा रहे थे जिनमें से 50
टीके नैदानिक परीक्षणों के विभिन्न चरणों से गुज़र रहे हैं। इनको विकसित करने में
कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। इनमें रासायनिक रूप से निष्क्रिय किए गए
वायरस का उपयोग करने की पुरानी तकनीक के साथ-साथ नई तकनीकों का भी उपयोग किया गया
है।
प्रभाविता के परीक्षणों के आधार पर दवा
कंपनी फाइज़र और जर्मन बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोएनटेक,
अमेरिकी कंपनी
मॉडर्ना और दवा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका एवं ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के टीके कोविड-19
के विरुद्ध प्रभावी रहे हैं। पिछले माह, फाइज़र को आपातकालीन स्वीकृति के तहत यूके
और अमेरिका में टीके के व्यापक उपयोग की अनुमति मिली है। आने वाले हफ्तों में
युरोपीय संघ द्वारा युरोप में भी इसके उपयोग की अनुमति मिलने की उम्मीद है। चीन और
रूस में विकसित टीकों को अंतिम चरण के परीक्षण पूरा होने से पहले ही उपयोग की
मंज़ूरी मिल चुकी है।
गौरतलब है कि फाइज़र और मॉडर्ना ने लगभग 95
प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया है जबकि एस्ट्राज़ेनेका और ऑक्सफोर्ड टीकों की
प्रभाविता अभी तक अनिश्चित है। लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल है कि यह टीका, विशेष
रूप से वृद्ध लोगों में, किस हद तक गंभीर रोग से बचाव कर सकता है और
यह कितने समय तक सुरक्षा प्रदान करेगा? यह तो अभी तक वैज्ञानिकों को भी नहीं मालूम
कि यह टीका लोगों को वायरस फैलाने से रोक पाएगा या नहीं।
एक सवाल लोगों की टीकों तक पहुंच का भी है।
अमेरिका, ब्रिटेन, युरोपीय संघ के सदस्य और जापान जैसे अमीर
देशों ने टीके की अरबों खुराकों की अग्रिम-खरीद कर ली है। कम और मध्यम आय वाले
देशों के लिए टीका उपलब्ध कराने के लिए कई अमीर देशों का समर्थन प्राप्त है। टीकों
के भंडारण और वितरण में काफी समस्याएं आ सकती हैं क्योंकि इन टीकों को शून्य से 70
डिग्री सेल्सियस नीचे (-70 डिग्री पर) रखना अनिवार्य है।
उपचार: नए-पुराने
महामारी को समाप्त करने के लिए सिर्फ टीका
काफी नहीं है। नियंत्रण टीके और दवाइयों के सम्मिलित उपयोग से ही संभव हो सकता है।
कुछ संभावित उपचारों के मिले-जुले परिणाम सामने आए हैं। मलेरिया की दवा
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा एचआईवी की दो दवाओं के कॉकटेल ने शुरुआती
परीक्षणों में कुछ सकारात्मक परिणाम तो दिखाए लेकिन बड़े स्तर पर ये खास प्रभावी
नहीं रहे।
अप्रैल में एक बड़े नैदानिक परीक्षण में
रेमेडिसेविर नामक एंटीवायरल दवा का कोविड-19 में काफी समय तक उपयोग किया जाता रहा
लेकिन बाद के अध्ययनों से पता चला कि इस दवा के उपयोग से मौतों में किसी प्रकार की
कमी नहीं होती है। नवंबर में WHO ने इसका उपयोग न करने की सलाह दी।
वैसे अमेरिका,
भारत, चीन
और लैटिन अमेरिका के नेताओं द्वारा कोविड-19 के संभावित उपचारों का काफी
राजनीतिकरण किया गया। इसमें हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन सहित कई अन्य अप्रामाणिक
उपचारों का काफी प्रचार हुआ। अधिकारियों ने ऐसे कई उपचारों के आपातकालीन उपयोग की
मंज़ूरी भी दे दी, जिसके चलते नैदानिक परीक्षणों को काफी नुकसान हुआ और
सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं पैदा हुई।
जून माह में डेक्सामेथासोन नामक
प्रतिरक्षा-दमनकारी स्टेरॉइड तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को लक्षित करने वाली दवा
टॉसिलिज़ुमैब ने भी कुछ गंभीर रोगियों में सकारात्मक परिणाम दिए हैं। इसके साथ ही
कुछ परीक्षण कोविड-19 के हल्के लक्षणों के रोगियों के साथ भी किए गए हैं ताकि यह
पता लगाया जा सके कि ये गंभीर बीमारी की संभावना को कितना कम करते हैं। कोविड-19
से स्वस्थ हो चुके रोगियों का ब्लड प्लाज़्मा भी उपयोग किया गया। कुछ वैज्ञानिकों
का मानना था कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के उपयोग से सार्स-कोव-2 को निष्क्रिय किया जा
सकता है लेकिन अध्ययनों से साबित नहीं हो पाया है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार
एक-एक व्यक्ति की हालत को देखकर कोविड-19 के उपचार में दवाइयों का मिला-जुला उपयोग
करना होगा।
शोध कार्यों में बाधा
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार
हुआ है जब वैज्ञानिक अनुसंधान इतने व्यापक रूप से बाधित हुआ है। वायरस के फैलते ही
मार्च से कई युनिवर्सिटी कैंपस बंद कर दिए गए। प्रयोगशालाओं में आवश्यक प्रयोगों
को छोड़कर अन्य सभी प्रयोगों को रोक दिया गया,
फील्ड वर्क रद्द कर
दिए गए और सम्मेलन वर्चुअल होने लगे। महामारी से सीधे सम्बंध न रखने वाले
प्रोजेक्टों की रफ्तार थम गई। अचानक घर से काम करने को मजबूर शोधकर्ता परिवार की
देखभाल और लायब्रेरी जैसे संसाधनों की कमी से जूझते रहे। कई छात्र फील्डवर्क और
प्रयोगशाला के डैटा के बिना अपनी डिग्री पूरी नहीं कर पाए तो परिवहन के बंद होने से
नौकरी की तलाश में भी काफी परेशान आई।
देखा जाए तो सबसे अधिक प्रभावित वे महिलाएं, माताएं, प्रारंभिक
शोधकर्ता और ऐसे वैज्ञानिक रहे जिनका विज्ञान में प्रतिनिधित्व काफी कम है। इस
महामारी ने एक और कारक बढ़ा दिया जिसके कारण विज्ञान के क्षेत्र में उनका भाग लेना
काफी कठिन हो गया है। अप्रैल और मई में ब्राज़ील के 3345 शिक्षाविदों पर किए गए एक
सर्वेक्षण में पाया कि इस महामारी के दौरान शोध पत्र प्रस्तुत न कर पाने और समय
सीमा पर काम पूरा न करने में सबसे अधिक प्रतिशत अश्वेत महिलाओं का रहा। ऐसे ही
आंकड़े अन्य देशों में भी देखे जा सकते हैं।
एक अच्छी बात यह है कि विश्व भर की सरकारों
ने उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की है। उदाहरण के
लिए ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 2021 में युनिवर्सिटी शोध कार्यों के लिए एक अरब
ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की राशि प्रदान की है। अगस्त तक कई समुदायों में संक्रमण दर
बढ़ने के बावजूद अमेरिका और युरोप के कई विश्वविद्यालयों ने अपने कैंपस खोलने का
फैसला किया, जबकि बड़े प्रकोप से ग्रसित भारत और ब्राज़ील जैसे देश में
अभी तक पूरी तरह नहीं खोले गए हैं।
वैसे इस महामारी में कुछ सकारात्मक बातें भी सामने आई हैं। लॉकडाउन के कारण सीमाओं के बंद होने के बाद भी कई क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में बढ़ोतरी हुई है। शोधकर्ताओं ने अपने डैटा को खुले तौर पर साझा करना शुरू किया है। अधिकांश प्रकाशकों ने कोविड से जुड़े लेखों को निशुल्क कर दिया है। अस्थायी रूप से ही सही, लेकिन शोध परंपरा में बदलाव आए हैं। मात्र उत्पादकता की ओर कम ध्यान देने से काम और जीवन के बीच संतुलन जैसे व्यापक मुद्दों पर चर्चा की जा रही है। उम्मीद है कि महामारी के दौरान हुए ऐसे सकारात्मक बदलाव आगे भी जारी रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://gumlet.assettype.com/nationalherald/2020-03/4de966f6-0208-42e2-97d7-5a7412a7e755/outbreak_coronavirus_world_1024x506px.jpg?w=1200&h=675
हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष भारत में
सर्पदंश से लगभग 30 लाख वर्षों के स्वास्थ्य और उत्पादकता के बराबर नुकसान होता
है। इस अध्ययन में विशेष रूप से उन लोगों पर चर्चा की गई है जो सर्पदंश के बाद
जीवित रहते हैं लेकिन अंग-विच्छेदन, गुर्दों की बीमारी जैसी स्थितियों से जूझ
रहे हैं। गौरतलब है कि भारत में पहली बार इस तरह का विश्लेषण किया गया है। इसे
युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHMI) के निक रॉबर्ट्स ने अमेरिकन सोसाइटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन द्वारा
नवंबर में आयोजित वर्चुअल बैठक में प्रस्तुत किया।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2017 में सर्पदंश के कारण विषाक्तता को एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी
घोषित किया है। इसके लिए संगठन ने पिछले वर्ष एक वैश्विक पहल की शुरुआत की है
जिसमें वर्ष 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों और विकलांगता को आधा करने का
लक्ष्य है। टोरंटो स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के निदेशक प्रभात झा और
उनके सहयोगियों ने सर्पदंश से होने वाली मौतों का सटीक अनुमान लगाने का प्रयास
किया है। अपनी रिपोर्ट में झा ने बताया है कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 46,000
मौतें सर्पदंश से होती हैं। इस रिपोर्ट के बाद WHO ने भी अपने अनुमान
को संशोधित करके कहा है कि प्रति वर्ष विश्व भर में सर्पदंश से 81,000 से 1,38,000
मौतें होती हैं। ऐसे में भारत को निवारण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
सर्पदंश के अधिकांश मामले अस्पतालों या स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच के
अभाव में औपचारिक रूप से दर्ज नहीं हो पाते और ऐसे में इसके प्रभाव को कम आंका
जाता है। देखा जाए तो इस तरह के मामले अधिकतर गरीब किसानों और उनके परिवारों में
होते हैं। इसलिए इन पर अधिक ध्यान भी नहीं दिया जाता है।
भारत में सर्पदंश की अधिकता का एक कारण
यहां मौजूद सांपों की 300 से अधिक प्रजातियां हैं जिनमें से 60 प्रजातियां अत्यधिक
विषैली हैं। इसके अलावा दूरदराज़ क्षेत्रों में निकटतम स्वास्थ्य केंद्र से दूरी के
कारण भी समय पर पहुंचना काफी मुश्किल हो जाता है। क्लीनिकों में एंटी-वेनम दवाओं
का अभाव या उनके रखरखाव में लापरवाही भी एक बड़ा कारण है।
फिर भी क्ष्क्तग्क के विश्लेषण से सर्पदंश
के उपरांत जीवित रहे लोगों में होने वाले दीर्धकालिक प्रभावों की पहली मात्रात्मक
जानकारी प्राप्त हुई है। ऐसे विश्लेषणों से स्वास्थ्य व्यवस्था की लागत और अन्य
सामाजिक दबावों की जानकारी मिल सकती है।
इन अध्ययनों से यह बात तो साफ है कि नीति स्तर पर बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं तक आसान पहुंच की तत्काल आवश्यकता है। सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देते हुए सभी राज्यों में सर्पदंश के उपचार की उपलब्धता बढ़ाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w400/magazine-assets/d41586-020-03327-9/d41586-020-03327-9_18614746.jpg
जापान में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों के बीच विशेषज्ञों ने
राष्ट्रव्यापी स्तर पर संक्रमण की रोकथाम के लिए क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक अपनाई थी।
अब लग रहा है कि शायद उस तरीके की सीमा आ चुकी है। जापानी स्वास्थ्य मंत्रालय की
सलाहकार समिति के अनुसार इस तकनीक की मदद से अब महामारी को नियंत्रित नहीं रखा जा
सकता है। यानी अब कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने के लिए कोई अन्य शक्तिशाली कदम उठाना
होगा।
गौरतलब है कि जापान में जन-स्वास्थ्य
केंद्रों के माध्यम से क्लस्टर-बस्टिंग (प्रसार के स्थानों को चिंहित करना) तकनीक
को अपनाया गया था। इसमें संक्रमण के मूल स्रोत का पता लगाने के लिए उलटी दिशा में
कांटेक्ट ट्रेसिंग की जाती है। यह तकनीक जापान में वायरस के प्रसार को रोकने में
अब तक काफी प्रभावी रही है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार तीसरी लहर में परिस्थिति
बदल चुकी है। अब क्लस्टर काफी फैल गए हैं और विविधता भी काफी अधिक है।
देखा जाए तो गर्मी के मौसम में दूसरी लहर
के दौरान रात के मनोरंजन स्थलों पर सबसे अधिक क्लस्टर पाए गए थे। लेकिन अब ये
क्लस्टर चिकित्सा संस्थानों, कार्यस्थलों और विदेशी बस्तियों सहित कई
स्थानों पर पाए जा रहे हैं। ऐसे में स्वास्थ्य-कर्मियों की कमी के कारण
जन-स्वास्थ्य केंद्रों में वृद्ध लोगों की देखभाल को प्राथमिकता दी जा रही है। फिर
भी जन-स्वास्थ्य केंद्रों का बोझ कम करने के लिहाज़ से विशेषज्ञों की मानें तो यह
तकनीक अपनी अंतिम सीमा तक पहुंच चुकी है। वर्तमान स्थिति में राष्ट्र स्तर पर पांच
दिनों तक रोज़ाना 2000 से अधिक मामले इस तकनीक की सीमा को उजागर करते हैं।
सलाहकार समिति के एक सदस्य के अनुसार क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक का उपयोग केवल तब संभव है जब किसी क्षेत्र में संक्रमण व्यापक रूप से न फैला हो। लेकिन एक खास बात यह भी है कि ऐसे स्थानों को नियंत्रित करना भी मुश्किल होता है जहां आधे से अधिक मामलों में संक्रमण का मार्ग अज्ञात हो। ऐसे हालात में समिति का सुझाव है कि लंबी दूरी की यात्रा पर प्रतिबंध के साथ-साथ सरकार को महामारी नियंत्रित करने के लिए अन्य सख्त कदम उठाने चाहिए।(स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में नेचर पत्रिका में एक रोमांचक पेपर प्रकाशित
हुआ है: जेनेटिक रिप्रोग्रामिंग के द्वारा युवावस्था की एपिजेनेटिक जानकारी को
बहाल करके दृष्टि लौटाना। पेपर के लेखक युआंगचेंग लू और उनके साथी बताते हैं
कि बुढ़ापे का एक कारण ‘एपिजेनेटिक परिवर्तनों’ का जमा होना है जो जीन की
अभिव्यक्ति को अस्त-व्यस्त कर देता है, जिससे जीन्स की अभिव्यक्ति का पैटर्न बदल
जाता है और डीएनए का मूल काम प्रभावित होता है। यदि विशिष्ट जीन्स का उपयोग करके
उन जीन्स को वापिस कार्यक्षम बना दिया जाए (यानी जीन थेरेपी की जाए) तो (चूहों
में) दृष्टि क्षमता को बहाल किया जा सकता है।
मनुष्य (और अन्य स्तनधारी जीवों) की आंखें
जैव विकास में बना एक महत्वपूर्ण अंग है। इनकी मदद से हम बाहरी दुनिया को रंगीन
रूप में स्पष्ट देख पाते हैं। जैव विकास के शुरुआती जीव,
जैसे सूक्ष्मजीव और
पौधे, प्रकाश के प्रति अलग-अलग तरीकों से प्रतिक्रिया देते हैं, जैसे
प्रकाश सोखना और उपयोग करना (मसलन प्रकाश संश्लेषण में)। मानव आंख का अग्र भाग
(कॉर्निया, लेंस और विट्रियस ह्यूमर) पारदर्शी और रंगहीन होता है, यह
रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश को एक जगह केंद्रित करने में मदद करता है जिससे हमें
विभिन्न रंग दिखाई देते हैं। रेटिना ही मस्तिष्क को संदेश भेजने का कार्य करता है।
रेटिना का मुख्य भाग, रेटिनल गैंग्लियॉन सेल्स (आरजीसी) जिन्हें न्यूरॉन्स या
तंत्रिका कोशिकाएं कहा जाता है, विद्युत संकेतों के रूप में संदेश भेजने
में मदद करती हैं। यानी आरजीसी प्रकाश को विद्युत संकेतों में परिवर्तित करती हैं।
कोशिकीय नियंत्रक
हमारे शरीर की कोशिकाओं और ऊतकों के कामकाज
हज़ारों प्रोटीन द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। ये प्रोटीन सम्बंधित जीन्स के रूप
में कूदबद्ध होते हैं। ये जीन्स हमारे जीनोम या कोशिकीय डीएनए का हिस्सा होते हैं।
वंशानुगत डीएनए में यदि छोटा-बड़ा किसी भी तरह का बदलाव (जुड़ना या उत्परिवर्तन)
होता है तो प्रोटीन के विकृत रूप का निर्माण होने लगता है। परिणामस्वरूप कोशिका का
कार्य गड़बड़ा जाता है। यही मनुष्यों में कई वंशानुगत विकारों का आधार है।
डीएनए या प्रोटीन स्तर के अनुक्रम में
परिवर्तनों के अलावा कुछ अन्य जैव रासायनिक परिवर्तन भी होते हैं जो इस बात को
प्रभावित करते हैं और तय करते हैं कि किसी कोशिका में कोई जीन सक्रिय होना चाहिए
या निष्क्रिय रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, इंसुलिन (एक प्रोटीन) बनाने वाला जीन शरीर
की प्रत्येक कोशिका में मौजूद होता है, लेकिन यह सिर्फ अग्न्याशय की इंसुलिन स्रावित
करने वाली बीटा कोशिकाओं में व्यक्त किया जाता है जबकि शरीर की बाकी कोशिकाओं में
इसे निष्क्रिय रखा जाता है। इस प्रक्रिया को नियंत्रक प्रोटीनों के संयोजन द्वारा
सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। ये नियंत्रक प्रोटीन जीन की अभिव्यक्ति को बदलते
हैं। इसके अलावा, हिस्टोन प्रोटीन होते हैं जो डीएनए को बांधते हैं और
गुणसूत्रों के अंदर सघन रूप में संजोकर रखने में मदद करते हैं। इन हिस्टोन
प्रोटीन्स में भी रासायनिक परिवर्तन हो सकते हैं। जैसे प्रोटीन के विभिन्न लाइसिन
अमीनो एसिड पर मिथाइलेशन और एसिटाइलेशन। डीएनए और इससे जुड़े प्रोटीन दोनों पर हुए
परिवर्तन गुणसूत्र की जमावट को बदल देते हैं और जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करते
हैं। ये परिवर्तन या तो डीएनए को खोल कर जीन अभिव्यक्ति की अनुमति देते हैं या
डीएनए को घनीभूत करके उस स्थान पर उपस्थित जीन को निष्क्रिय या खामोश कर देते हैं।
इस तरह के जैव रासायनिक परिवर्तन, जो
किसी कोशिका विशेष में किसी जीन की अभिव्यक्ति निर्धारित करते हैं, को
‘एपिजेनेटिक्स’ कहा जाता है। डीएनए उत्परिवर्तन तो स्थायी होते हैं। उनके विपरीत
एपिजेनेटिक परिवर्तन पलटे जा सकते हैं। इनके कामकाज का संचालन कई नियंत्रक
प्रोटीन्स द्वारा किया जाता है, जैसे डीएनए मिथाइल ट्रांसफरेज़ (डीएनएमटी), हिस्टोन
एसिटाइल ट्रांसफरेज़ (एचएटीएस), हिस्टोन डीएसिटाइलेज़ (एचडीएसी)। ये
नियंत्रक प्रोटीन ऐसे परिवर्तनों को जोड़ सकते हैं या हटा सकते हैं, जिनसे
किसी अंग या ऊतक के किसी खास जीन को खास तरह से चालू या बंद किया जा सकता है।
अग्न्याशय की बीटा कोशिकाओं में इंसुलिन जीन को खुला या सक्रिय रखा जाता है जो
प्रोटीन को अभिव्यक्त होने देता है, जबकि अन्य कोशिकाओं में यह जीन निष्किय
रहता है। बुढ़ापे, तनाव या किसी बीमारी के चलते हमारे जीन्स का सामान्य
एपिजेनेटिक नियंत्रण प्रभावित हो सकता है।
हम यह तो अच्छी तरह जानते हैं कि कई तरह के
कैंसर में कोशिका विभाजन को नियंत्रित करने वाले कुछ जीन (ट्यूमर शामक जीन्स) या
तो उत्परिवर्तन के कारण या एपिजेनेटिक परिवर्तनों के कारण निष्क्रिय हो जाते हैं, नतीजतन
अनियंत्रित कोशिका विभाजन होने लगता है और ट्यूमर बन जाता है। इसी तरह, उम्र
बढ़ने की सामान्य प्रक्रिया के साथ होने वाले एपिजेनेटिक परिवर्तनों से कई संदेश या
नौजवान जीन्स भी निष्क्रिय हो जाते हैं।
आरजीसी कोशिकाओं के कारण हम स्पष्ट और
रंगों को देख पाने में सक्षम हैं। बुढ़ापे के कारण आरजीसी की काम करने की क्षमता
धीरे-धीरे कम होने लगती है। इसके अलावा, बाह्र कारक जैसे कि वंशानुगत इतिहास, मधुमेह
(टाइप 1 और टाइप 2 दोनों) और अन्य कारक उपरोक्त एपिजेनेटिक परिवर्तनों द्वारा
सामान्य स्थिति को बदल देते हैं।
उपरोक्त शोधपत्र पर मैंने अपने साथियों, इंदुमति मरियप्पन (कोशिका जीव विज्ञान में ट्रांसलेशनल शोधकर्ता) और जी. चंद्रशेखर (ग्लकामो में विशेष रुचि रखने वाले नैदानिक विशेषज्ञ) की प्रतिक्रिया जानना चाही। डॉ. मरियप्पन बताती हैं कि मनुष्यों में इस तरह के प्रयोग पर विचार करना जोखिम भरा हो सकता है क्योंकि हरेक कोशिका में इतने सारे अज्ञात और अनिश्चित प्रभाव हो सकते हैं जिससे ऐसा कुछ अप्रत्याशित घट सकता है जिसे वापस ठीक नहीं किया जा सकेगा और डीएनए स्थायी रूप से परिवर्तित हो जाएगा। लेकिन वे कहती हैं कि मोतियाबिंद के अध्ययन के लिए इस तरह के प्रयोग जंतु मॉडल, जैसे माइस, चूहे और ज़ेब्राफिश पर किए जा सकते हैं। डॉ. चंद्रशेखर कहते हैं कि वास्तविक कसौटी तो यह होगी कि क्या अन्य प्रयोगशालाओं में इस तरह के परीक्षण बुढ़ापे के कारण प्रभावित अन्य अंगों जैसे हृदय, फेफड़ों और गुर्दों पर सफलतापूर्वक करके देखे जा सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/dd/Epigenetic_mechanisms.jpg/1024px-Epigenetic_mechanisms.jpg
विश्व एड्स दिवस (1 दिसंबर) हमें याद दिलाता है कि वर्तमान
में हम ना सिर्फ कोविड-19 बल्कि कई अन्य महामारियों का एक साथ सामना कर रहे हैं।
इनमें से एक महामारी एड्स की है जिसने पिछले चालीस सालों में लगभग सवा तीन करोड़
लोगों की जान ली है।
यूएनएड्स के अनुसार, वर्ष
2019 में विश्व में लगभग 3.8 करोड़ लोग एचआईवी से संक्रमित थे और एड्स-सम्बंधी
बीमारियों से लगभग 6.9 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। वर्ष 2004 में एड्स से
सर्वाधिक मौतें हुई थीं। उसके मुकाबले वर्ष 2019 में एड्स की मृत्यु दर में 60
प्रतिशत की कमी आई थी। लेकिन मुमकिन है कि कोविड-19 के फैलने से इन 15 सालों में
एड्स मृत्यु दर में आई यह कमी प्रभावित हो।
कोविड-19 ने एचआईवी संक्रमितों और एड्स
कार्यकर्ताओं के लिए कई मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। जैसे लॉकडाउन के दौरान लोगों के
एचआईवी परीक्षण और उपचार की मुश्किल। कोविड-19 के कारण एचआईवी, टीबी
और मलेरिया से प्रभावित लोगों की देखभाल के लिए ज़रूरी संसाधनों-औषधियों की आपूर्ति
और उन तक लोगों की पहुंच प्रभावित हुई। इसके अलावा अफीमी दवाइयों की लत, ओवरडोज़
के कारण होने वाली मौतें और एचआईवी जैसी समस्याएं इस दौरान नज़रअंदाज़ रहीं।
कोरोनावायरस का टीका जल्द ही बाज़ार में आने
वाला है। उम्मीद है कि यह टीका कम से कम एक महामारी से तो निज़ात दिलाएगा और उन
लोगों को राहत पहुंचाएगा जो पहले ही काफी प्रभावित हैं। लेकिन एड्स के इतिहास को
देखकर यह उम्मीद पूरी होती तो नहीं लगती।
पिछले 25 वर्षों से एचआईवी के लिए प्रभावी
एंटीरेट्रोवायरल दवाएं मौजूद हैं। फिर भी हर साल एड्स से लाखों लोग मारे जाते हैं, इन
मरने वालों में ज़्यादातर अश्वेत होते हैं। ऐसा क्यों है?
और इस अनुभव के आधार
पर कोरोनावायरस के टीके के बारे में क्या अंदाज़ा मिलता है?
अब तक एचआईवी का कोई टीका तो नहीं बन सका
है। लेकिन एचआईवी के साथ जी रहे लोग एंटीरेट्रोवायरल उपचार (ART) और एचआईवी के जोखिम वाले लोग सुरक्षा के लिए प्री-एक्सपोज़र प्रोफायलैक्सिस (PrEP) लेते हैं, जो कुछ हद तक टीकों का काम कर देते हैं। ये
उपाय ना केवल एचआईवी जोखिम वाले या एचआईवी संक्रमित लोगों के लिए मददगार हैं बल्कि
ये उपाय अन्य लोगों में एचआईवी के प्रसार पर भी अंकुश लगाते हैं।
इसी तरह कुछ अन्य टीकों जैसे खसरा, इन्फ्लूएंज़ा
(या संभवत: कोविड-19) का टीकाकरण ना केवल टीकाकृत व्यक्ति को संक्रमण से सुरक्षित
रखता है बल्कि उनसे होने वाले रोगजनक के प्रसार को थाम कर आसपास के लोगों भी
सुरक्षित करता है।
लेकिन वास्तव में स्थिति इसके उलट भी बनती
है। जब औषधियों-टीकों से संरक्षित लोगों में किसी वायरस का प्रसार कम हो जाता है
और भेदभाव पूर्ण नीति के कारण इन टीकों-औषधियों से कुछ खास वर्ग, नस्ल
के लोग वंचित रह जाते हैं तो नतीजतन इन वंचित लोगों में वायरस संक्रमण का जोखिम और
भी बढ़ जाता है। इस तरह, पहले से मौजूद असमानता की खाई और गहरी हो जाती है। एड्स के
मामले में ऐसा ही हुआ था; एंटीरेट्रोवायरल उपचार के उपलब्ध हो जाने
के बाद भी एड्स की बीमारी कुछ चुनिंदा वर्ग/नस्ल की बनकर रह गई, और
असमानता की यह खाई और भी चौड़ी हो गई।
कोरोनावायरस के संभावित टीकों के
समानतापूर्ण वितरण के अभाव में हाशियाकृत लोगों में कोरोनोवायरस का संक्रमण फैलता
रहेगा, जैसा कि अमेरिका में अश्वेत लोगों में एचआईवी का संक्रमण
अत्यधिक है।
वैसे तो एड्स वायरस और कोविड-19 वायरस
प्रसार और संक्रमण की दृष्टि से बहुत भिन्न हैं,
लेकिन ये दोनों ही एक
ही तरह की आबादी को प्रभावित करते हैं, खासकर बेघर लोगों को। अश्वेत अमेरिकी आबादी
के लगभग आधे से दो तिहाई लोग मजबूरन बेघर हैं। बेघर लोगों को अपराधी की तरह देखा
जाता है जो उन्हें गरीबी, उत्पीड़न,
यौन शोषण, स्वास्थ्य
देखभाल की कमी, औपचारिक अर्थव्यवस्था से बेदखली,
कारावास और विभिन्न
अन्य बीमारियों की ओर धकेलता है जो एचआईवी और एड्स के जोखिम को बढ़ाती हैं। बेघर
होना स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच भले ही अंसभव ना करे लेकिन मुश्किल ज़रूर कर देता
है।
एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 के डैटा के
अनुसार अमरीका में लगभग 37 लाख लोग घरों से निकाल दिए गए थे, खासकर
अश्वेत और हिस्पैनिक किराएदार। उसके बाद से यूएस में आवास का संकट और विकट हुआ है
तथा बेघरों की संख्या बहुत बढ़ी है। यह ज़रूरी नहीं कि बेघर लोग सड़कों पर ही रहें।
वे रात गुज़ारने भर की जगह तलाशते हैं, आश्रय स्थलों में रहते हैं, कार
में या बाहर सोते हैं, या दोस्तों या परिवार के साथ रहने लगते हैं। जिन लोगों के
साथ वे रहने लगते हैं उनमें से अधिकतर लोग उच्च जोखिम वाले काम करते हैं इसलिए सभी
में संक्रमण फैलने के आसार बढ़ जाते हैं।
बेघर किए जाने के कारण कोविड-19 परीक्षण और
चिकित्सकीय देखभाल मिलने की संभावना भी कम हो जाती है। और यदि कोरोनोवायरस के
टीकों की एक से अधिक खुराक देने की ज़रूरत होगी,
तो समस्या और भी
गंभीर हो जाएगी। क्योंकि दर-दर भटकने को मजबूर लोग टीकों की एक से अधिक खुराक कैसे
नियमित रूप से ले पाएंगे? यही समस्या एचआईवी के साथ भी थी। नियमित
चिकित्सा लाभ लेने के लिए एक स्थिर ठिकाना तो चाहिए ही।
इसलिए हम एड्स महामारी की इन गलतियों से सबक लेते हुए, एड्स और उसके साथ-साथ कोविड-19 महामारी को भी समाप्त करने के प्रयास तो कर ही सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/sites/btmt/images/stories/1280px_aids_day_660_011220114228.jpg?size=1200:675