हमारी
पृथ्वी पर हज़ारों तरह के कोरोनावायरस रहते हैं। उनमें से चार तरह के वायरस सामान्य
सर्दी-ज़ुकाम
के लिए ज़िम्मेदार हैं। अन्य दो तरह के वायरस कुछ समय पहले अपना प्रकोप फैला चुके
हैं: 2002 में
एक तरह के कोरोनोवायरस से सार्स फैला था जिससे दुनिया भर में लगभग 770 से अधिक लोगों की
मृत्य हो गई थी, और 2012 में एक अन्य वायरस
मर्स नामक रोग का कारण बना था जिससे लगभग 800 लोगों की मृत्यु हुई थी। सार्स तो खैर एक
साल के भीतर खत्म हो गया लेकिन मर्स अभी भी बना हुआ है।
और
अब यह नवीन कोरोनावायरस सार्स-कोव-2 सामने आया है। यह वायरस एक बार किसी व्यक्ति को संक्रमित कर
दे तो यह लंबे समय तक बिना नज़र में आए टिका रह सकता है। यही वजह है कि इसने एक
अत्यंत घातक महामारी को जन्म दिया है। जब कोई व्यक्ति सार्स कोरोनोवायरस से
संक्रमित होता था तो रोग के लक्षण (बुखार और सूखी खांसी) दिखने के 24 से 36 घंटे बाद तक, वह
सार्स वायरस अन्य किसी व्यक्ति में नहीं फैलाता था; इससे
होता यह था कि बीमारी महसूस करने पर व्यक्ति को अन्य व्यक्तियों को संक्रमित करने
के पहले ही अलग-थलग
किया जा सकता था।
लेकिन
सार्स-कोव-2 वायरस से संक्रमण के
मामले में, स्पष्ट लक्षण दिखने
के पहले ही वायरस अन्य लोगों में फैल सकते हैं। जिन संक्रमित लोगों में बीमारी के
लक्षण नहीं दिखते, वे कार्यस्थलों,
दुकानों, समारोह वगैरह में
शामिल होकर छींक-खांसी
और यहां तक कि ज़ोर से बोलकर निकलने वाले थूक के बारीक कणों के माध्यम से यह वायरस
हवा में छोड़ते हैं।
सार्स-कोव-2 मानव शरीर में इतने
लंबे समय तक बिना पहचाने इसलिए मौजूद रह सकता है क्योंकि इसका जीनोम एक ऐसा
प्रोटीन बनाता है जो हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को चेतने में देरी के लिए ज़िम्मेदार
होता है। इस देरी के दरम्यान, वायरस चुपके से अपनी
प्रतिलिपियां बनाना शुरू कर देता है और हमारे फेफड़ों की कोशिकाएं मरने लगती हैं।
जब तक हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को वायरस के हमले के बारे में पता चलता है तब तक
तो यह काफी संख्या वृद्धि कर चुका होता है। अंतत: जब प्रतिरक्षा प्रणाली संक्रमण की
त्राहिमाम सुनती है, तो वह अति सक्रिय हो
जाती है और उन्हीं कोशिकाओं का दम घोंट डालती है जिन्हें बचाने वह निकली थी।
साइंटिफिक
अमेरिकन में प्रकाशित एक चित्रांकन विस्तारपूर्वक बताता है कि कैसे
सार्स-कोव-2 मानव कोशिका में
प्रवेश करता है, अपनी प्रतिलिपियां
बनाता है, जो अन्य कोशिकाओं
में प्रवेश करता है, और संक्रमण फैलता
चला जाता है।
यहां
बताया गया है कि आम तौर पर प्रतिरक्षा प्रणाली कैसे अन्य वायरसों को बेअसर करती है,
और कैसे सार्स-कोव-2 प्रतिरक्षा प्रणाली के इन प्रयासों को विफल कर फैलता रहता
है।
यहां
कुछ वायरस की आश्चर्यजनक क्षमताओं के बारे में भी बताया गया है। जैसे वायरस की
अपनी प्रतिलिपियां बनाने की प्रक्रिया में होने वाले उत्परिवर्तनों को रोकने के
लिए वायरस की प्रतियों त्रुटि सुधार की क्षमता।
यहां
यह भी बताया गया है कि कैसे औषधि और टीके अब भी इन घुसपैठियों पर काबू पाने में
सक्षम हो सकते हैं।
वायरस
आक्रमण और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया
सार्स-कोव-2 किसी व्यक्ति में
उसकी नाक या मुंह से प्रवेश करता है, और
वायुमार्ग में तब तक घूमता रहता है जब तक कि वह फेफड़ों की कोशिकाओं के संपर्क में
नहीं आ जाता। फेफड़ों की कोशिकाओं की सतह पर ACE2 ग्राही होते हैं।
संपर्क में आने के बाद वायरस इन कोशिकाओं से बंधकर, इनके
अंदर चला जाता है और कोशिका की मशीनरी का उपयोग कर खुद की प्रतिलिपियां बनाने लगता
है। वायरस की ये प्रतिलिपियां (यानी नए वायरस) बाहर निकल कर अन्य कोशिकाओं में प्रवेश करती हैं और पुरानी
कोशिकाओं को मरने के लिए छोड़ देती हैं। संक्रमित कोशिकाएं इन रोगजनकों को नष्ट
करने के लिए प्रतिरक्षा प्रणाली को चेतावनी-संदेश भेजती हैं लेकिन वायरस इन संकेतों को
रोक देते हैं और संक्रमित व्यक्ति में लक्षण दिखने से पहले ही वायरस को काफी
संख्या वृद्धि करके फैलने की मोहलत मिल जाती है।
औषधियां
और टीके
कोविड-19 से लड़ने में विभिन्न
प्रयोगशालाएं 100 से
अधिक दवाओं का परीक्षण कर रही हैं। इनमें से अधिकांश औषधियां सीधे-सीधे वायरस को नष्ट
नहीं करतीं बल्कि इनकी राह में बाधा उत्पन्न करती हैं ताकि शरीर की प्रतिरक्षा
प्रणाली को संक्रमण का खात्मा करने का समय मिल जाए। एंटीवायरल औषधियां या तो वायरस
को फेफड़े की कोशिका से जुड़ने से रोकती हैं, या
यदि वायरस कोशिका में प्रवेश कर चुका है तो उसे प्रतिलिपियां बनाने से रोकती हैं,
या प्रतिरक्षा प्रणाली की उस अति-प्रतिक्रिया को कम करती हैं जिससे संक्रमित
लोगों में गंभीर लक्षण पैदा हो सकते हैं। दूसरी ओर, टीके
प्रतिरक्षा प्रणाली को भविष्य में संक्रमण से जल्दी और प्रभावी रूप से लड़ने के लिए
तैयार करते हैं।
कोरोनावायरस जीनोम
सार्स-कोव-2 का जीनोम आरएनए के
रूप में है, जो लगभग 29,900 क्षारों से बनी एक
लंबी शृंखला है – यह
वायरस आरएनए की लंबाई की लगभग अधिकतम सीमा है। इन्फ्लुएंज़ा वायरस के आएनए में लगभग
13,500 क्षार होते हैं,
और सामान्य सर्दी-ज़ुकाम के राइनोवायरस में लगभग 8,000 क्षार होते हैं। (क्षार ऐसे यौगिकों
की जोड़ियां हैं जो आरएनए और डीएनए के निर्माण की इकाइयां होती हैं)। चूंकि जीनोम इतना
लंबा है इसलिए संभावना है कि इसकी प्रतिलिपियां बनते समय कई ऐसे उत्परिवर्तन हों,
जो वायरस को पंगु कर दें। लेकिन सार्स-कोव-2 वायरस की खासियत है कि वह प्रतिलिपियों में
हुई त्रुटियों की जांच कर सकता है और उनकी मरम्मत कर सकता है। यह खासियत मानव
कोशिकाओं और डीएनए आधारित वायरस में आम होती है लेकिन आरएनए आधारित वायरस में यह
खासियत होना बहुत असामान्य बात है। इस लंबे जीनोम में कुछ सहायक जीन भी होते हैं,
जिन्हें हम पूरी तरह से समझ में नहीं पाए हैं। इनमें से कुछ
सहायक जीन हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को रोकने में वायरस की मदद करते होंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/assets/Image/2020/CV19JUL20/virus_portrait_desktop_d(1).jpg
आजकल
इम्यूनिटी को लेकर बहुत चर्चा है। काढ़ों, विभिन्न
इम्यूनिटी उत्पादों के अलावा लगभग सारे पोषण-पूरकों में इम्यूनिटी शब्द जुड़ गया है।
सारे मामले को समझने के लिए स्रोत ने प्रतिरक्षा विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. सत्यजित रथ के सामने
कुछ सवाल रखे। प्रस्तुत है उन सवालों के जवाब डॉ. रथ की ज़ुबानी…। सवालों का जवाब देने से पहले डॉ. रथ ने समस्या की
पृष्ठभूमि स्पष्ट की।
आजकल
भारत की सड़कों-गलियों
का आम नज़ारा देखिए। हम दुकानों पर भीड़ लगा रहे हैं, धक्का-मुक्की कर रहे हैं
और मास्क नहीं पहन रहे हैं। कभी-कभार मास्क को गले में पट्टे की तरह ज़रूर डाल लेते हैं। हम
उन बातों पर बिलकुल कान नहीं दे रहे हैं जो कोविड-19 के लिए ज़िम्मेदार वायरस SARS-CoV-2 के प्रसार को थाम
सकती हैं और गंभीर रूप से बीमार लोगों की संख्या को कम कर सकती हैं। शारीरिक दूरी (सामाजिक दूरी नहीं), नाक-मुंह को ढंकना और
बार-बार
साबुन से हाथ धोना इस महामारी के दौरान कुछ सामाजिक ज़िम्मेदारियां हैं,
जिन्हें हम नहीं निभाते।
इसकी
बजाय हम क्या करते हैं? हम डरे हुए हैं कि ‘हम’, ‘मैं’ कोरोना के संपर्क
में आ गया तो बीमार होकर मर जाऊंगा। यानी हम संसर्ग (छूत) के विचार को उसके सामुदायिक संदर्भ से
काटकर एक व्यक्तिगत भय में बदल देते हैं। हम हर उस चीज़ का ‘शुद्धिकरण’ करते हैं जिसे हम छूते हैं (जिसकी हमारे यहां
परंपरा भी रही है),
और हम खुद को और अपने साज़ो-सामान को ऐसी जादुई चीज़ों से नहलाते हैं,
जो हमें व्यक्तिगत रूप से ‘सुरक्षित’ रखेंगी।
हमने
निर्णय कर लिया है कि बाज़ार हमें बचाएगा। हमने निर्णय कर लिया है कि हममें से
प्रत्येक को खुद को बचाना है और इसके लिए हमें बाज़ार से कोई जादू खरीद लेना है।
हमने तय किया है कि ‘औरों’ या ‘अन्य लोगों’ को बचाना हमारी
ज़िम्मेदारी नहीं है। हमने निर्णय किया है कि वास्तव में ‘अन्य लोग’ ही इस समस्या के लिए ज़िम्मेदार हैं क्योंकि
वे गंदे और फूहड़ ‘अन्य’ हैं जो ‘हमारी’ तरह नहीं हैं। हम
सचमुच ‘हममें’ से उन संक्रमित ‘बदनसीबों’ की परवाह करने की
बजाय उनको बहिष्कृत कर देते हैं। यह वह पृष्ठभूमि जिसमें हमें ‘इम्यूनिटी वर्धकों’ की महामारी पर गौर
करना होगा, जो हमें घेर रही है – जीवन शैली सम्बंधी
उपदेशों के रूप में भी और उत्पादों के रूप में भी। तो कुछ सवालों के जवाब देकर बात
को आगे बढ़ाते हैं।
सवाल
– क्या
इम्यूनिटी नाम की कोई एक सामान्य चीज़ है? या
क्या समस्त इम्यूनिटी किसी सूक्ष्मजीव के लिए विशिष्ट होती है?
आप इम्यूनिटी को मात्रात्मक रूप में कैसे परिभाषित करेंगे?
जवाब – सबसे पहले तो यह समझ
लें कि शरीर का कोई एक हिस्सा नहीं है जिसे इम्यूनिटी कहा जा सके। वास्तव में शरीर
के कई हिस्से कई अलग-अलग
ढंग से सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रस्तुत चुनौती की प्रतिक्रिया देते हैं,
और इन सारे किरदारों के सामंजस्य का परिणाम होता है
इम्यूनिटी। ये सारे किरदार अपना-अपना काम करते हैं। यानी इम्यूनिटी एक जुगाड़ु परिणाम है जो
समन्वय से उभरती है, न कि पहले से
निर्धारित कोई योजना होती है जिसे निष्ठापूर्वक क्रियांवित किया जाता है।
एक
उपमा से शायद मदद मिले। किसी संगीत कार्यक्रम की उपमा से।
सुर
बांधने के लिए एक तानपुरा होता है। हो सकता है बीच-बीच में वह थोड़ा ज़ोर से या धीमे बजे और ऐसा
होने पर गायक/वादक
मुस्कराकर उसका स्वागत करेगा या भवें तान लेगा। थोड़े फेरबदल से वह तानपुरा नाटकीय
परिवर्तन पैदा करेगा या माहौल को बरबाद कर देगा।
फिर
तबला होता है, जो रफ्तार को पकड़ता
है। एक ओर तो वह गायक की गति से तालमेल रखता है लेकिन बीच-बीच में अपना खेल भी दिखाता है। लेकिन इसे
हटा दीजिए और संगीत का पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा, चाहे
गायक वही रहे।
गायक
तो किसी राग की जोड़-तोड़
कर रही है, एक ऐसे ढांचे पर जो
उसके दिमाग में है। तानपुरा सुर का ख्याल रखता है और तबला रफ्तार का। लेकिन दोनों
को ही पता नहीं कि गायक क्या कोशिश कर रही है और गायक को भी अंदाज़ नहीं है कि आज
की महफिल में क्या सामने आने वाला है। वह तो आगे बढ़ते-बढ़ते जुगाड़ करती है,
खुद को सुनती है, तानपुरे,
तबले को सुनती है, मौसम
और श्रोताओं को सुनती है, परिस्थिति की
बारीकियों को सुनती है। राग के अनुशासन के तहत उसका संगीत इन सारे ‘उद्दीपनों’ से आकार पाता है।
इम्यूमिटी
नामक शारीरिक प्रतिक्रिया भी इसी तरह पैदा होती है। एक ही संक्रमण में,
कोशिकाएं और अणु अलग-अलग उद्दीपनों को पहचानते हैं और अपने
विशिष्ट तरीके से प्रतिक्रिया देते हैं। ये प्रतिक्रियाएं एक-दूसरे में गूंथ जाती हैं,
एक-दूसरे
को तीव्र-मंद
करती हैं, बदलती हैं और जो कुछ
उभरता है वह इम्यून प्रतिक्रिया होती है। यह शरीर का एक तरीका है अंदर वाले
सूक्ष्मजीव से निपटकर जीवित रहने का।
इनमें
से कुछ कोशिकाएं और अणु उद्दीपनों और ट्रिगर्स को पहचानते हैं और उन पर
प्रतिक्रिया देते हैं। इनमें से कुछ उद्दीपन कई सारे सूक्ष्मजीवों,
वायरसों और बैक्टीरिया में एक जैसे होते हैं। ये अलग-अलग प्रतिक्रियाएं
अपने-आप
में भी एक किस्म की इम्यूनिटी होती हैं। बहुत बढ़िया नहीं,
लेकिन ठीक-ठाक तो होती हैं।
गायक
अलग ढंग से प्रतिक्रिया देता है। वह कुछ आज़माइशी स्वरों से शुरू करता है ताकि वह
देख सके कि सब कुछ ठीक तरह से चल रहा है और इसके आधार पर वह उस बुनियादी संगीत को
आकार देता है, जो वह निर्मित करने
वाला है। लेकिन फिर वह आसपास नज़र दौड़ाता है (या अपने अंदर झांकता है) और अपने संगीत को
आकार देना शुरू करता है, हौले-हौले लेकिन बढ़ते
आत्म-विश्वास
और जटिलता के साथ। यह संगीत उस विशिष्ट मौके के लिए, वहां
उपस्थित श्रोताओं के लिए और उस स्थान-विशेष के लिए होता है।
शरीर
की कुछ कोशिकाएं प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीव के विशिष्ट खंडों को,
सिर्फ उस विशिष्ट सूक्ष्मजीव या उसके निकट सम्बंधियों पर
उपस्थित आकृतियों को पहचानती हैं। पहचानने के बाद वे प्रतिक्रिया देती हैं,
लेकिन प्रत्येक आकृतिनुमा लक्ष्य को पहचानने वाली कोशिकाओं
की संख्या बहुत कम होती है। लिहाज़ा उनकी पहली सार्थक प्रतिक्रिया यह होती है कि वे
बार-बार
विभाजन करके अपनी संख्या बढ़ाती हैं। और जब उनकी संख्या बढ़ती है और वे परिपक्व होती
हैं, तो वे विशिष्ट रूप से उस आकृति (जिसने उन्हें जन्म
दिया था) पर
केंद्रित कामकाजी प्रतिक्रिया हासिल करके उसका क्रियांवयन करती हैं। ये
प्रतिक्रियाएं शरीर को सूक्ष्मजीव से निपटने में मदद करती हैं। किसी गायक के समान
ही ये कोशिकाएं भी अपनी प्रतिक्रिया को उस मौके, उस
स्थान और उस सूक्ष्मजीव के अनुसार आकार देती हैं। वे अनुकूलन करती हैं। लेकिन
उन्हें तानपुरा-तबला
कोशिकाओं की मदद लगती है ताकि वे अपने परिपक्व होते संगीत के बारे में जटिल निर्णय
कर सकें और खुलकर पेश कर सकें।
तो
क्या इम्यूनिटी नाम की कोई सामान्य चीज़ है? अपने
संघटन में तो नहीं, सिर्फ उसके उभरते
प्रभाव के रूप में होती है। क्या सारी इम्यूनिटी किसी सूक्ष्मजीव के लिए विशिष्ट
होती है? जवाब हां भी है और
नहीं भी। जो प्रतिक्रियाएं मिलकर इम्यूनिटी का निर्माण करती हैं,
उनमें से कुछ अन्य की अपेक्षा ज़्यादा विशिष्ट होती हैं।
लेकिन वास्तविक इम्यूनिटी तब प्रकट होती है जब ये सब मिलकर काम करते हैं।
सवाल
– क्या
इम्यूनिटी को नापा जा सकता है? यदि
हां, तो कैसे?
और यदि नहीं, तो
आप ऐसे उत्पादों की बात कैसे कर सकते हैं जो इम्यूनिटी बढ़ाने का दावा करते हैं?
क्या कुछ ऐसे रसायन हैं जो प्रामाणिक इम्यूनिटी–वर्धक हैं?
और इम्यूनिटी का सामान्य पोषण की हालत से क्या सम्बंध है?
जवाब
– हमने यहां जिस तरह की इम्यूनिटी की बात की
है, उसे नापेंगे कैसे?
ज़ाहिर है, ऐसा कोई इकलौता आसान
माप नहीं हो सकता जिसका कोई वास्तविक अर्थ हो। हम यह नाप सकते हैं कि सारे घटक
मौजूद हैं या नहीं। अधिकांश लोगों में ये मौजूद होते हैं। हम यह भी मापन कर सकते
हैं कि क्या ये घटक एक सामान्य रूप में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अधिकांश
लोगों में ये करते हैं। लेकिन ये माप हमें यह नहीं बताएंगे कि क्या वास्तविक
इम्यूनिटी उभरेगी। इस बात का अंदाज़ लगाने के लिए हमें यह देखना होगा कि क्या शरीर
ने वास्तव में अतीत में कतिपय विशिष्ट सूक्ष्मजीवों के विरुद्ध प्रतिक्रिया दर्शाई
थी। क्या हमें ऐसी विगत इम्यूनिटी के अवशिष्ट प्रमाण मिल सकते हैं?
अधिकांश लोगों में मिल सकते हैं।
क्या
लोगों के बीच इन मापों में छोटे-मोटे अंतर दिखते हैं? क्या
इन अंतरों का विभिन्न सूक्ष्मजीवों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं में कोई
उल्लेखनीय असर दिखता है। हां। लेकिन क्या हम यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि
इम्यूनिटी के इन तरह-तरह
के मापों में अंतरों का किसी विशिष्ट सूक्ष्मजीव के प्रति हमारी प्रतिक्रिया पर
क्या असर पड़ेगा? नहीं। जैसा कि ऊपर
संगीत के रूपक में बताया गया था, इसके बारे में अटकल
लगाना भी लगभग असंभव है, निश्चित भविष्यवाणी
तो दूर की बात है। यह बताना असंभव है कि इनपुट (यानी सूक्ष्मजीव) के कौन-से कारक इम्यूनिटी के परिणाम को बदल देंगे
और वह बदलाव क्या होगा। दरअसल, ऐसी परिस्थिति में,
यदि हम इम्यूनिटी के एक घटक को ‘समृद्ध’ करें, ‘बढ़ावा
दें’ तो
परिणाम ‘अलग’ होगा,
ज़रूरी नहीं कि वह ‘बेहतर’ हो या ‘बदतर’ हो। तबला वादक बदल दीजिए और गायक की आवाज़
महफिल में एक अलग संगीत पैदा करेगी। शायद कुछ लोगों को बेहतर लगे,
कुछ को नहीं।
यही
हाल इम्यूनिटी के परिणाम का भी होगा जो परिस्थिति-विशेष पर निर्भर करेगा। तो,
जी नहीं, हम किसी भी विवेकशील
अर्थ में इम्यूनिटी बढ़ाने की बात नहीं कर सकते। और यदि हम सार्थक ढंग से यह बात
नहीं कर सकते तो इम्यूनिटी बढ़ाने का दावा करने वाले उत्पादों के बारे में क्या कहा
जाए? ऐसे अधिकांश इम्यूनिटी वर्धक उत्पाद दरअसल
कुछ नहीं करते, अर्थात इनका
इम्यूनिटी के घटकों पर कोई असर नहीं होता, स्वास्थ्य
पर लाभदायक असर की तो बात ही जाने दें।
तो
ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं, ‘गनीमत है’ क्योंकि यदि इन
उत्पादों का इम्यूनिटी के घटकों पर सचमुच कोई असर होता,
तो वह एक बड़ी समस्या होती। परिणामों को अच्छा या बुरा कहना
तो आपके नज़रिए पर है। देखा जाए, तो इनमें से अधिकांश
उत्पाद फील-गुड-विज्ञापन वाले
उत्पाद हैं जिन पर हम सिर्फ इसलिए भरोसा करते हैं क्योंकि हमने उनका दाम चुकाया
है। यह भरोसा सच्चे उपभोगवादी पूंजीवाद के शिकार की निशानी है।
क्या
हमें परेशान होना चाहिए कि लोग इन पर भरोसा करते हैं?
क्या हमें चिंतित होना चाहिए कि लोग ऐसी चीज़ों पर विश्वास
करते हैं जिन्हें अंधविश्वास कहते हैं?
शायद
नहीं, हम सबको जीते रहने के लिए,
अपने मस्तिष्क की निजता में, तरह-तरह के सहारों की
ज़रूरत होती है। लेकिन क्या उपभोगवादी पूंजीवादी ढांचा चिंता का विषय नहीं होना
चाहिए जो अनैतिक मुनाफाखोरों को प्रोत्साहित करता है कि वे हमारी हताशाओं से पैसा
कमाएं? तो क्या ऐसा कुछ
नहीं है जिसे खाकर/पीकर/करके हम अपनी
इम्यूनिटी को समृद्ध कर सकें? ज़रूर है। लेकिन वह
नहीं है जिसके बारे में हम अब तक सोचते रहे हैं।
कुल
मिलाकर, इम्यूनिटी के जिन
घटकों की बात हम करते आए हैं वे हमारे शरीर की कोशिकाएं और अणु हैं। शरीर के किसी
भी अन्य हिस्से की तरह ये भी तभी विकसित होते हैं और काम करते हैं,
जब सूक्ष्म पोषक तत्व और विटामिन्स सहित अच्छा और संतुलित
पोषण मिले, जब विषैले पदार्थों
से अपेक्षाकृत मुक्त साफ कुदरती पर्यावरण हो, जब
एक ऐसा समर्थक सामाजिक माहौल हो जिसमें हम काम करें, खेलें,
एक-दूसरे
के साथ दोस्ताना सम्बंधों में जीएं, और अपने-आप में मूल्यवान
महसूस करें। क्या यह ज़रूरी नहीं कि हम सब मिलकर काम करें कि यह सब,
सबको, हर जगह उपलब्ध हो
सके।
इन
बातों पर आम प्रतिक्रिया होती है: ये सब अव्यावहारिक आदर्शवादी बातें हैं। आप तो यह बताइए कि
जिस विकट परिस्थिति में हम फंस गए हैं (कोई नहीं कहेगा कि हमने खुद को फंसा लिया
है) उसमें
इम्यूनिटी को लेकर क्या किया जा सकता है। इस सवाल एकमात्र व्यावहारिक जवाब यह है
कि यथासंभव अच्छे से खाएं।
दुख
की बात तो यह है कि उपभोक्ता पूंजीवाद हमारे लिए वास्तविक किफायती भोजन से विटामिन
और खनिज तत्व प्राप्त करना असंभव बना देता है। हममें से जो लोग इनका खर्च उठा सकते
हैं, वे ये चीज़ें पूरक गोलियों के रूप में ले
लेते हैं।
ऐसे
पूरकों के बारे में भी एक सावधानी रखना ज़रूरी है। हर चीज़ की अति नुकसान कर सकती
है। जैसे नमक अच्छा है, किंतु इसकी अधिकता
शरीर के लिए समस्याएं पैदा कर सकती है। यही बात विटामिन व खनिज तत्वों पर भी लागू
होती है। यह बात खास तौर से उन चीज़ों के बारे में सही है शरीर जिनका संग्रहण करता
है। जैसे विटामिन ए व डी का संग्रहण वसा में होता है। इसलिए सरल पूरकों के मामले में
भी अति करना संभव है।
अलबत्ता,
शरीर के ‘प्रतिरक्षा तंत्र’ के संदर्भ में इन सामान्य बातों में भी एक
दिलचस्प पेंच है। शरीर के जिन घटकों की प्रतिक्रियाएं अंतत: ‘इम्यूनिटी’ के रूप में प्रकट होती हैं,
वे थोड़े विचित्र हैं। कारण यह है कि वे सूक्ष्मजीवों को
पहचानकर प्रतिक्रिया देते हैं। सूक्ष्मजीव हमेशा तो शरीर में उपस्थित नहीं होते।
विभिन्न सूक्ष्मजीव शरीर में आते-जाते रहते हैं और बार-बार ऐसा करते हैं। और जब वे शरीर में आते
हैं, तो सूक्ष्मजीव अचानक पूरे शरीर में नहीं
पहुंच जाते। वे शरीर के किसी हिस्से में, त्वचा
के किसी बिंदु पर प्रवेश करते हैं। जैसे जहां घाव हो,
या नाक में सांस के साथ, खानपान
के साथ आंतों में। इस वजह से इम्यूनिटी के घटक ज़बर्दस्त यात्री होते हैं। वे हर
समय, पूरे शरीर में भटकते रहते हैं,
धक्का-मुक्की करते हुए। और ऐसा करते हुए वे लगातार ‘ऑफ’ और ‘ऑन’ के बीच डोलते रहते
हैं – जब
कोई सूक्ष्मजीव न हो तो वे ‘ऑफ’ रहते
हैं और जब वे स्थानीय स्तर पर सूक्ष्मजीव से टकराते हैं तो ‘ऑन’ होकर प्रतिक्रिया देते हैं। यह कोशिकाओं पर
लगातार बदलते दबाव का द्योतक है। तब कोई अचरज की बात नहीं कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं
इस गहमा-गहमी
के जीवन में काफी क्षतियां-चोटें झेलती हैं और मर जाती हैं। इसका मतलब है कि शरीर को
नई-नई
प्रतिरक्षा कोशिकाएं और अणु बनाने पड़ते हैं (और बनाता भी है)। यह, उदाहरण
के लिए, मस्तिष्क की
कोशिकाओं से काफी अलग है। मस्तिष्क की कोशिकाएं इतनी जल्दी-जल्दी प्रतिस्थापित नहीं होतीं। लेकिन शरीर
का अस्तर बनाने वाली कोशिकाएं भी ऐसी ही होती हैं, जैसे
त्वचा की कोशिकाएं या वायु मार्ग, आंतों के अस्तर की
कोशिकाएं या लाल रक्त कोशिकाएं जो पूरे शरीर में भटकती रहती हैं और ऑक्सीजन व
कार्बन डाईऑक्साइड का परिवहन करती हैं। ये भी लगातार जल्दी-जल्दी प्रतिस्थापित होती हैं।
इसका
मतलब है कि लगातार प्रतिस्थापन के लिए पोषण की ज़रूरतें काफी अधिक होती हैं। जैव
विकास के लंबे दौर में शरीर में ऐसी क्रियाविधियां विकसित हुई हैं जो यह सुनिश्चित
करती हैं कि भोजन के अभाव के समय भी इन कोशिकाओं का ठीक-ठाक रख-रखाव होता रहे। लेकिन यह बात प्रोटीन और
कार्बोहायड्रेट जैसे स्थूल पोषक तत्वों पर ज़्यादा लागू होती है,
‘सूक्ष्म पोषक तत्वों’ पर नहीं। हम नहीं जानते कि यह फर्क क्यों
पैदा हुआ होगा। लेकिन जादुई इम्यूनिटी-बूस्टर औषधियों के प्रवर्तकों के विपरीत हम तो बहुत कुछ
नहीं जानते।
अलबत्ता,
इम्यूनिटी की इस निजी सम्पत्ति अवधारणा की परीकथाओं से आगे
बढ़कर थोड़ी ज़्यादा पेचीदा व दिलचस्प यह बात करते हैं कि कैसे व्यक्ति और समुदाय
उन्हें संक्रमित करने वाले सूक्ष्मजीवों के साथ सुरक्षात्मक सामंजस्य बनाते हैं।
सवाल
– आप
किसी रोगजनक के प्रति इम्यून कैसे हो जाते हैं?
क्या ऐसा हर व्यक्ति में होगा?
क्या इम्यूनिटी एक से दूसरे व्यक्ति में प्रेषित की जा सकती
है? कोई समुदाय
इम्यूनिटी कैसे हासिल करता है?
जवाब
–हम
किसी रोगजनक के प्रति इम्यून कैसे हो जाते हैं? एक
उदाहरण लेकर बात करते हैं – जैसे SARS-CoV-2 और कोविड-19। यहां यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि मानव
शरीर और संक्रमित करने वाले सूक्ष्मजीव की अंतर्क्रिया के बारे में ‘लड़ाई’ जैसी उपमा का उपयोग
न करना बेहतर है। कई बार शरीर किसी वायरस को बर्दाश्त कर लेता है। कई बार वायरस
शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाने की बजाय उनके हमसफर बन जाते हैं,
और कई बार शरीर की प्रतिक्रिया वास्तव में वायरस संक्रमण से
‘लड़ती’ नहीं है।
इतना
कहने के बाद, वायरस संक्रमण को
सीमित रखने के लिए शरीर के पास तीन प्रमुख तरीके होते हैं।
प्रत्यक्ष
‘वायरस-रोधी’ तरीकों के अलावा,
शरीर वायरल, बैक्टीरियल,
फंगल या अन्य घुसपैठियों से निपटने के लिए यह भी करता है कि
उन्हें शरीर में किसी एक जगह कैद कर देता है (और उन्हें पूरे शरीर में फैलने से रोकता है)। आजकल की भाषा में
ऐसी प्रतिक्रियाएं संक्रमण को ‘कंटेनमेंट’ ज़ोन में ‘क्वारेंटाइन’ करने जैसी होती हैं। प्रतिक्रियाओं की इस श्रेणी को हम ‘शोथ’ या इंफ्लेमेशन कहते
हैं।
तो
चलिए प्रत्यक्ष वायरस-रोधी
प्रतिक्रियाओं पर लौटते हैं। एक तरीका यह है कि शोथ के साथ-साथ एक प्रक्रिया शुरू होती है: अपनी खुद की
कोशिकाओं को संदेश दिया जाता है कि वे कोशिका के अंदर ही वायरस-रोधी प्रक्रियाएं
शुरू करके वायरस का जीना हराम कर दें। इंटरफेरॉन-अल्फा और इंटरफेरॉन-बीटा यही करते हैं (और इन्हें कोविड-19 के उपचार में आज़माया भी जा रहा है)।
दो
अन्य वायरस-रोधी
प्रतिक्रियाएं काफी कारगर होती हैं, शायद
उपरोक्त प्रतिक्रिया से भी ज़्यादा। लेकिन उन्हें शुरू होने में वक्त लगता है। ऐसा
इसलिए है कि, जैसा कि हमने ऊपर
देखा, शरीर की कुछ कोशिकाएं प्रवेश करने वाले
सूक्ष्मजीव के कुछ विशिष्ट टुकड़ों को पहचानती हैं – ऐसे आकार जो सिर्फ उसी सूक्ष्मजीव (या उसके निकट सम्बंधियों) पर पाए जाते हैं। तो
ये भी प्रतिक्रिया देना शुरू कर देती हैं, लेकिन
दिक्कत यह होती है कि किसी भी लक्षित आकार के लिए जो कोशिकाएं होती हैं,
उनकी संख्या बहुत कम होती है। इसलिए ठीक-ठाक प्रतिक्रिया
देने के लिए पहले इन्हें बार-बार विभाजित होकर अपनी संख्या बढ़ानी पड़ती है। संख्यावृद्धि
करते हुए, वे परिपक्व होकर उस
विशिष्ट आकार के विरुद्ध प्रतिक्रिया की क्षमता हासिल करती जाती हैं।
दूसरा
है कि शरीर प्रोटीन या एंटीबॉडी बनाता है जो वायरस की सतह के ठीक उस हिस्से पर
चिपक जाते हैं जिसके ज़रिए वायरस कोशिका पर चिपकता है। परिणामस्वरूप,
एंटीबॉडी से ढंका वायरस कोशिका में घुस नहीं पाता। प्लाज़्मा
उपचार और मोनोक्लोनल एंटीबॉडी जैसे तरीके यही करने की कोशिश करते हैं। SARS-CoV-2 के विरुद्ध अधिकांश टीकों से भी यही करने की
उम्मीद है।
शरीर
के पास वायरस को सीमित रखने का एक तीसरा तरीका यह है कि हाल ही में वायरस से
संक्रमित कोशिकाओं को पहचानकर ‘किलर’ कोशिकाओं की मदद से उन्हें मार दिया जाए,
इससे पहले कि वायरस अपनी प्रतिलिपियां बनाना शुरू कर सके।
इन
दोनों तरीकों को अनुकूलक प्रतिक्रियाएं कहते हैं क्योंकि ये प्रवेश करने वाले
वायरस को ‘देखती’ हैं,
अपने खजाने में उससे मिलते-जुलते तत्वों को खोजती और तलाश करती हैं,
फिर खजाने के उस तत्व को विस्तार देती हैं और उन्हें तैनात
करती हैं – एंटीबॉडी
के रूप में या किलर कोशिका के रूप में। यह विस्तारित खजाना शरीर में वायरस से निपट
लेने के बाद भी बना रहता है।
तो,
वायरस संक्रमण के समय हरेक व्यक्ति में शोथ व इंटरफेरॉन
प्रतिक्रियाएं मौजूद होती हैं। ये प्रतिक्रियाएं संक्रमण के तुरंत बाद,
चंद मिनटों से लेकर कुछ घंटों के अंदर,
सक्रिय हो जाती हैं।
इसके
विपरीत, अनुकूलक प्रतिक्रिया
को शुरू होने में समय लगता है, खासकर यदि हमारे
शरीर ने वह वायरस या उस जैसा कुछ पहले न देखा हो। कारण यह है कि शुरुआत में खजाने
को विस्तार देने में समय लगता है (आम तौर पर दो दिन, कभी-कभी ज़्यादा)। दूसरी ओर,
यदि वायरस किसी ऐसे शरीर में प्रवेश करता है जिसके पास पहले
से विस्तारित खजाना है जो उस वायरस को पहचान सके, तो
अनुकूलक प्रतिक्रिया भी कुछेक मिनट या घंटों में शुरू हो जाती है। यही वजह है कि
हम उसी वायरस से पुन:संक्रमण
(या
टीकाकरण) से
हम ज़्यादा सुरक्षित होते हैं। यहां बता देना लाज़मी है कि चाहे हमारा सामना किसी
वायरस से पहली बार हो, हमें उपरोक्त
प्रतिक्रियाओं की सुरक्षा हासिल होती है। बात सिर्फ इतनी है कि यदि पहले से
विस्तारित खजाना मौजूद हो तो वह बेहतर और त्वरित सुरक्षा देता है।
अलबत्ता,
ये विस्तारित अनुकूलक खजाने समय के साथ चुक भी सकते हैं।
यदि वैसा होता है तो हम उस संक्रमण के प्रति उतने ही दुर्बल होते हैं जितने पहली
बार थे।
क्या
प्रत्येक व्यक्ति घुसपैठी सूक्ष्मजीव के प्रति इस तरह इम्यून हो जाता है?
हां, यह बात कमोबेश सही
है, हालांकि प्रतिक्रिया की मात्रा और अवधि में
अंतर हो सकता है। क्या ऐसा सारे सूक्ष्मजीवों के संदर्भ में होता है?
जी हां, लगभग,
हालांकि सूक्ष्मजीवी अपवाद भी होते हैं।
क्या
हम यह इम्यूनिटी एक संक्रमित व्यक्ति से किसी अन्य वायरस-अनभिज्ञ व्यक्ति को दे सकते हैं?
तथाकथित सुरक्षा प्रतिक्रियाएं या तो रक्त में एंटीबॉडी कहे
जाने वाले प्रोटीन्स के रूप में होती है या वायरस को पहचानने वाली किलर कोशिकाओं
के रूप में होती है। एक व्यक्ति से दूसरे को कोशिकाएं प्रत्यारोपित करने की
समस्याओं से तो हम अंग प्रत्यारोपण के संदर्भ में परिचित ही हैं। अधिकांश
प्रत्यारोपण शरीर (के
प्रतिरक्षा तंत्र) द्वारा
अस्वीकार कर दिए जाते हैं। इसी तरह इम्यून कोशिकाओं को भी अस्वीकार कर दिया जाता
है।
दूसरी
ओर, हम एंटीबॉडी स्थानांतरित कर सकते हैं।
प्लाज़्मा उपचार या मोनोक्लोनल एंटीबॉडी उपचार इसी उम्मीद में किए जाते हैं। लेकिन
एंटीबॉडी कुछेक सप्ताह में समाप्त हो जाती हैं, तो
सुरक्षा भी लंबे समय के लिए नहीं होती। कोशिकाएं – एंटीबॉडी बनाने वाली कोशिकाएं या किलर
कोशिकाएं – बेहतर
साबित होंगी लेकिन उन्हें आसानी से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। सबसे अच्छा तो
यह होगा कि एक टीका हो जो शरीर को स्वयं की वायरस-रोधी प्रतिक्रिया निर्मित करने में मदद
करे।
सवाल
– हर्ड
इम्यूनिटी क्या है?
जवाब – यह देखते हैं कि कोई
वायरस समुदाय में कैसे फैलेगा। मान लीजिए एक व्यक्ति का संपर्क (मान लीजिए किसी दूर-दराज के घने जंगल
में) वायरस
से होता है और वह संक्रमित हो जाता है। इस व्यक्ति का शरीर अंतत: वायरस से निपट लेगा।
लेकिन तब तक वायरस की प्रतिलिपियां किसी प्रकार से शरीर से बाहर निकलती रहेंगी – अक्सर शारीरिक तरल
पदार्थों के माध्यम से – और
यदि ये तरल पदार्थ उपयुक्त ढंग से अन्य लोगों के संपर्क में आ जाएं तो वायरस नए
व्यक्तियों में संक्रमण स्थापित कर सकता है। यानी वह प्रसारित हो गया। जब तक पहला
व्यक्ति अपने शरीर से वायरस का सफाया करेगा, तब
इन नए संक्रमित व्यक्तियों के शरीर में वायरस बन-बनकर कई और लोगों को संक्रमित करने लगेगा।
तो
वायरस की ‘सफलता’ का एक निर्णायक कारक
यह है कि वह एक संक्रमित व्यक्ति से कितने व्यक्तियों को सफलतापूर्वक संक्रमित कर
सकता है। यदि यह संख्या 1 से
कम है, तो प्रसार का हर
चक्र उससे पहले वाले चक्र से कम लोगों को संक्रमित करेगा और संक्रमण बहुत अधिक
नहीं फैल पाएगा। यह संख्या 1 से जितनी अधिक होगी संक्रमण उतनी तेज़ी से फैलेगा।
वायरस
की दिक्कत (!) यह
है कि यह संख्या (जिसे
ङ कहते हैं) काफी
हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने वाले लोग
कितने संवेदनशील हैं। यदि संक्रमित व्यक्ति बहुत सारे लोगों के संपर्क में तो आता
है, लेकिन यदि उनमें से अधिकांश लोग ऐसे हैं जो
उस वायरस से पहले टकरा चुके हैं और जिनके शरीर में अनुकूलक खजाना विस्तार पा चुका
है और वे अनुकूलित प्रतिरोधी हैं, तो अब वे ठीक से
संक्रमित नहीं हो पाते, और परिणाम यह होता
है कि वायरस का प्रसार अकार्यक्षम हो जाता है। यही स्थिति तब भी होगी जब एक बड़े
अनुपात में लोगों का टीकाकरण हो चुका हो।
यदि
समुदाय में काफी सारे लोग ‘अनुकूलित प्रतिरोधी’ हो जाते हैं तो वायरस का प्रसार कमोबेश थम
जाएगा। इस स्थिति को ‘हर्ड
इम्यूनिटी’ कहते
हैं। टीकाकरण से हर्ड इम्यूनिटी इसी प्रकार हासिल होती है। जैसे कि हम देख ही सकते
हैं, अधिकांश संक्रमण देर-सबेर ‘सामुदायिक प्रतिरोध’ के बिंदु पर पहुंच जाएंगे। अर्थात हर्ड
इम्यूनिटी एक प्राकृतिक नतीजा है। यह स्वीडन या जनाब बोरिस जॉनसन द्वारा डिज़ाइन की
गई कोई नीतिगत रणनीति नहीं है। वैसे एक रणनीति के तौर पर इसके भरोसे रहना मूर्खता
ही कही जाएगी।
सवाल
यह है कि हर्ड इम्यूनिटी तक पहुंचने के लिए कितने लोगों को SARS-CoV-2 के खिलाफ अनुकूलक
इम्यूनिटी हासिल करनी होगी। हमें पक्का पता नहीं है; विशिष्ट
संक्रमण और सूक्ष्मजीव से सम्बंधित कई कारकों के चलते यह अनुपात बदलता रहता है।
अलबत्ता, 50 से लेकर 80 प्रतिशत तक के आंकड़े सामने आए हैं। चूंकि SARS-CoV-2 के खिलाफ अनुकूलक
प्रतिरोध फिलहाल करीब 20 प्रतिशत
लोगों में रिकॉर्ड हुआ है, इसलिए अभी दुनिया
हर्ड इम्यूनिटी के आसपास भी नहीं पहुंची है।
स्पष्ट है कि हर्ड इम्यूनिटी की स्थिर स्थिति हासिल होने के लिए ज़रूरी होगा कि वायरस के संक्रमण की वजह से बढ़िया सुरक्षात्मक प्रतिक्रिया पैदा हो और यह प्रतिक्रिया (जैसे एंटीबॉडी) जल्दी खत्म नहीं होनी चाहिए। SARS-CoV-2 के मामले में जहां पहली शर्त तो काफी सारे संक्रमित लोगों में पूरी होती दिख रही है, लेकिन इस बात को लेकर अनिश्चितता है कि ये एंटीबॉडी कितने समय तक बनी रहेंगी। तो हो सकता है कि SARS-CoV-2 के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी थोड़ी अस्थिर-सी होगी। इसे स्थिरता प्रदान करने के लिए हमें टीके की ज़रूरत होगी, जो शायद अगले साल तक ही सामने आएंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i0.wp.com/media.globalnews.ca/videostatic/news/7oag8bhmxk-few261gqw9/Myths_Busted_Can_Food_Protect_People_Fro-5e751fe848573358161eb046_1_Mar_20_2020_19_58_39_poster.jpg?w=1040&quality=70&strip=all
आजकल
शोधकर्ता कृत्रिम अंगों पर नए कोरोनावायरस के प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। इन
अध्ययनों से पता चला है कि इस वायरस में फेफड़ों से लेकर लीवर,
गुर्दे और आंत तक में संक्रमण करने का लचीलापन है।
चिकित्सकों ने देखा है कि शरीर के विभिन्न अंगों पर नए कोरोनावायरस, SARS-CoV-2, के विनाशकारी असर होते हैं लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि
ये प्रभाव सीधे वायरस के कारण हैं या संक्रमण की जटिलताओं के कारण। ऐसे अध्ययनों
के लिए कोशिकाओं की बजाय कृत्रिम अंग वास्तविक परिस्थिति से ज़्यादा मेल खाते हैं।
क्योटो
विश्वविद्यालय, जापान के स्टेम-सेल जीव विज्ञानी
काज़ुओ ताकायामा और उनके सहयोगियों ने चार अलग-अलग प्रकार के श्वसनी कृत्रिम अंग तैयार
किए हैं। SARS-CoV-2 से संक्रमित करने
पर टीम ने पाया कि यह वायरस मुख्य रूप से स्टेम-कोशिकाओं पर हमला करता है। इसने मुख्यत: एपिथेलियम की आधार
कोशिकाओं को लक्ष्य किया लेकिन सुरक्षात्मक रुाावी क्लब कोशिकाओं में आसानी से
प्रवेश नहीं कर पाया। शोधकर्ता अब यह देखने का प्रयास कर रहे हैं कि क्या वायरस
आधार कोशिकाओं से अन्य कोशिकाओं में फैल सकता है।
ऊपरी
श्वसन मार्ग से वायरस फेफड़ों में प्रवेश कर सकता है। कृत्रिम फेफड़ों पर अध्ययन
करते हुए वेइल कोर्नेल मेडिसिन, न्यू यॉर्क के स्टेम-सेल जीव विज्ञानी
शुईबिंग चेन ने पाया कि संक्रमण के परिणामस्वरूप कुछ कोशिकाएं तो नष्ट हो जाती हैं
और वायरस कीमोकाइन्स और सायटोकाइन्स नामक प्रोटीन्स के उत्पादन को प्रेरित करता
है। इसकी वजह से बड़े स्तर पर प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया सक्रिय हो जाती है। कोविड-19 के कई गंभीर रोगियों
में साइटोकाइन सैलाब शुरू हो जाता है, जो
जानलेवा हो सकता है। चेन के अनुसार यह अभी भी एक पहेली ही है कि रोगियों में
फेफड़ों की कोशिकाओं क्यों नष्ट हो रही हैं। क्या वे वायरस द्वारा पहुंचाई गई क्षति
के कारण नष्ट होती हैं या खुदकुशी कर लेती हैं या उन्हें प्रतिरक्षा कोशिकाएं चट
कर जाती हैं।
फेफड़ों
से शरीर के अन्य अंगों में SARS-CoV-2 के फैलने की
प्रक्रिया पर मोंटसेराट और उनके सहयोगियों का अध्ययन सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ
है। स्टेम-कोशिकाओं
से विकसित कृत्रिम अंग के अध्ययन में उन्होंने पाया कि SARS-CoV-2 एंडोथेलियम यानी
रक्त नलिकाओं के अस्तर वाली कोशिकाओं को संक्रमित कर सकता है। यहां से वायरस रक्त
प्रवाह में प्रवेश कर पूरे शरीर में विचर सकते हैं। कोविड-19 ग्रस्त लोगों की पैथोलॉजी रिपोर्ट में भी
क्षतिग्रस्त रक्त नलिकाओं की पुष्टि हुई है। अध्ययन से पता चलता है कि एक बार रक्त
में प्रवेश करने पर यह वायरस गुर्दों समेत विभिन्न अंगों को संक्रमित कर सकता
है।
कृत्रिम
लीवर पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि यह वायरस पित्त उत्पादन करने
वाली कोशिकाओं, कोलेनजियोसाइट्स,
को संक्रमित करके नष्ट कर सकता है। इससे पहले शोधकर्ताओं का
मानना था कि कोविड-19 संक्रमित
लोगों में अतिसक्रिय प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के कारण लीवर को क्षति पहुंचती है।
लेकिन कृत्रिम लीवर पर किया गया अध्ययन दर्शाता है कि वायरस सीधे-सीधे लीवर कोशिकाओं
को संक्रमित कर सकता है। साइंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार यह वायरस
छोटी और बड़ी आंत के अस्तर की कोशिकाओं में भी संख्यावृद्धि कर सकता है।
हालांकि,
कृत्रिम अंगों पर किए गए प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्ष
महत्वपूर्ण है लेकिन ये सभी प्रयोग अभी शुरुआती अवस्था में हैं और कहा नहीं जा
सकता कि ये कितने प्रासंगिक हैं।
इसके अलावा वैज्ञानिक कृत्रिम अंगों पर दवाओं के प्रभाव का अध्ययन भी कर रहे हैं। इनमें से कुछ तो जीवों पर व्यापक परीक्षण के बिना नैदानिक परीक्षण तक पहुंच गई हैं। चेन ने यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा अन्य रोगों के लिए अनुमोदित 1200 दवाओं की जांच की है। उन्होंने कैंसर की दवा इमैटिनिब को SARS-CoV-2 के विरुद्ध प्रभावी बताया है। इसके बाद से ही कोविड-19 उपचार के लिए कई क्लीनिकल परीक्षण शुरू किए गए हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-020-01864-x/d41586-020-01864-x_18105992.jpg
कोविड-19 महामारी के
परिणामस्वरूप सरकार द्वारा अनिवार्य सामाजिक दूरी का अनुपालन आने वाले समय में
कार्यस्थल की ज़रूरतों और डिज़ाइन को प्रभावित करने वाला है। ऐसे में निर्माण उद्योग
को कर्मचारियों के स्वास्थ और इन इमारतों की ऊर्जा दक्षता को ध्यान में रखते हुए
एक ‘न्यू
नार्मल’ पर
विचार करना होगा। इसके कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार है:
1. सामाजिक
दूरी
विशेष
रूप से व्यावसायिक इमारतों में काम करने वाली कंपनियों से यह अपेक्षा की जाती है
कि वे सामाजिक सुरक्षा के मानदंडों का पालन करें और किसी भी अनपेक्षित स्वास्थ्य
समस्या का सामना करने के लिए भी तैयार रहें। इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित
एक रिपोर्ट के अनुसार कई कंपनियां, विशेष रूप से आईटी
कंपनियां, अपने खर्चे को कम
करने के लिए प्रति कर्मचारी 60-80 वर्ग फुट जगह आवंटित करती हैं जबकि निर्धारित मानक 125 वर्ग फुट प्रति
व्यक्ति है।
अभी
मौजूदा कार्यालयों का विस्तार तो नहीं किया जा सकता लेकिन एक कुशल योजना और डिज़ाइन
के साथ कुछ बेहतर उपाय अवश्य तलाश किए जा सकते हैं।
हालांकि
सामाजिक दूरी के साथ कोई निश्चित या स्थायी समाधान निकालने में समय लगेगा लेकिन
विशेषज्ञों के अनुसार फिलहाल कंपनियां 30 प्रतिशत कर्मचारियों को रोटेशन में घर से
काम करने की अनुमति देने का विकल्प अपनाएंगी। वर्तमान में कई जगह ऐसा किया भी जा
रहा है। इसके लिए ‘हॉट
डेÏस्कग’ प्रणाली को भी अपनाया जा सकता है जिसमें एक ही मेज़ का उपयोग
विभिन्न समय में अलग-अलग
लोगों द्वारा किया जाता है। स्वास्थ्य, स्वच्छता
और उत्पादकता की चुनौतियों के साथ कंपनियां कोशिश करेंगी कि वे अपने कार्यों को
विकेंद्रीकृत करें ताकि कंटेनमेंट की स्थिति में भी काम की निरंतरता बनी रहे।
2. फिल्टरेशन
अभी
इस विषय में कोई पर्याप्त अध्ययन तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि इमारतों
में बाहरी हवा को अंदर लाने वाले विशिष्ट एयर फिल्टर एयरोसोल रूपी किसी भी हवाई
वायरस को रोकने के लिए पर्याप्त हैं। कई इमारतों में फिल्टरेशन के बाद हवा का पुन:संचरण किया जाता है।
आम तौर पर पुन:संचरण
डक्ट में उपयोग किए जाने वाले फिल्टर वायरस को रोकने में कुशल नहीं होते हैं। यदि
हाई एफिशिएंसी पार्टिकुलेट एयर (HEPA) फिल्टर का उपयोग
किया जाए तो रोगजनकों को दूर तो किया जा सकता है लेकिन इसका ऊर्जा खर्च पर काफी
अधिक बोझ पड़ता है। HEPA
फिल्टर के साथ स्टैंड-अलोन
एयर प्यूरीफायर भी काफी प्रभावी हो सकते हैं। ऐसे में विशेषज्ञों का मानना है कि
इमारतों में वेंटिलेशन में सुधार करना अधिक फायदेमंद हो सकता है।
इसके
अलावा, हवा में मौजूद बैक्टीरिया
और वायरस से निपटने के लिए पैराबैंगनी प्रकाश का उपयोग किया जा सकता है। विशेष रूप
से इनका उपयोग स्वास्थ्य सुविधाओं में लोगों की अनुपस्थिति में किया जाता है। ऐसे
में इनका उपयोग भी सीमित अवधि के लिए ही होता है और ऊर्जा भी कम खर्च होती है।
3. ताज़ी
हवा
लगभग
सभी विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी इमारत में संक्रमण को फैलने से रोकने का
सबसे प्रभावी तरीका ताज़ा हवा की मात्रा बढ़ाना है। फेडरेशन ऑफ युरोपियन हीटिंग,
वेंटिलेशन एंड एयर कंडीशनिंग एसोसिएशन्स (REHVA) भी इमारतों में हवा के पुन: संचरण का विरोध करता
है। फेडरेशन काम शुरू होने के 2 घंटे पहले इमारतों में ताज़ा हवा संचारित करने का सुझाव देता
है। शौचालय के लिए तो 24/7
वेंटिलेशन का सुझाव दिया जाता है। यदि इन उपायों को अपनाया
जाता है तो कृत्रिम वेंटिलेशन वाली इमारतों में ऊर्जा की खपत में भारी वृद्धि
होगी। यानी बाहर से आने वाली गर्म हवा को ठंडा करने में और अधिक समय लगेगा जो
वेंटिलेशन के कारण निरंतर इमारत में प्रवेश करेगी। हालांकि प्राकृतिक रूप से
हवादार इमारतें बिना किसी ऊर्जा खपत के आवश्यक बाहरी हवा प्रदान कर सकती हैं। फिर
भी ऐसी इमारतों को ठंडा रखने पर विचार करने की आवश्यकता है।
4. तापमान
और आर्द्रता
अधिकांश
वायरसों के संक्रमण को एक विशेष तापमान और आर्द्रता पर सीमित किया जा सकता है,
लेकिन कोविड-19 के लिए यह मान काफी अधिक (आपेक्षिक आर्द्रता 80 प्रतिशत या उससे अधिक और तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से
अधिक) होता
है। यानी इस तापमान पर वायरस का संक्रमण थोड़ा कम हो जाता है और किसी सतह पर इसके
जीवित रहने की संभावना भी कम हो जाती है। लेकिन संक्रमण को इस तरीके से नियंत्रित
करना काफी मुश्किल व महंगा है।
फिर भी, जैसा कि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का मानना है कि अब हमें इस वायरस के साथ ही रहना सीखना होगा। आईसीएमआर के अनुसार तो भारत में नवंबर माह में संक्रमण का पीक आने की संभावना है। ऐसे में कार्यस्थलों और घरों पर उन तरीकों को अपनाना होगा जिनसे हम सुरक्षित रह सकें। ज़मीनी स्तर पर कार्यस्थलों की मौजूदा रूपरेखा में बदलाव के लिए लगभग 4-6 महीने का समय तो लग ही जाएगा। कंपनियों को इसके लिए अतिरिक्त लागत की आवश्यकता भी हो सकती है। यह लागत काम की निरंतरता बनाए रखने के लिए आवश्यक है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.cibsejournal.com/wp-content/uploads/2020/03/p26-Main-coronavirus-buildings.jpg
जब
हम स्वच्छता की बात करते हैं तो यही कहा जाता है कि हाथों की उंगलियों,
नाखूनों व हाथों की लकीरों में सूक्ष्मजीव होते हैं।
स्वच्छता का पैमाना मात्र इन सूक्ष्मजीवों से छुटकारा पाने का होता है। लोगों को
लगता है कि सभी सूक्ष्मजीव रोग फैलाते हैं। लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है।
हमारे आसपास और हमारे शरीर के अंदर व त्वचा पर कईं सूक्ष्मजीव ऐसे होते हैं जो
हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। बल्कि यह कहा जाए कि हमारी अच्छी सेहत के लिए इनका साथ
होना ज़रूरी है, तो गलत न होगा।
हमारे
शरीर में बड़ी तादाद में सूक्ष्मजीव बसते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन
सूक्ष्मजीवों की संख्या हमारे शरीर की कुल कोशिकाओं से सवा गुना अधिक है। यह
दिलचस्प है कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाओं में से आधी से ज़्यादा बैक्टीरिया
कोशिकाएं हैं।
यह
देखा गया है कि 500 से
अधिक प्रजातियों के बैक्टीरिया हमारी आंत में पाए जाते हैं। सोचा जा सकता है कि
विविधता केवल बाहरी वातावरण में ही नहीं, हमारी
आहार नाल में भी है। विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीव जो हमारी आंत में पाए जाते
हैं उनके समूह को माइक्रोबायोम कहा जाता है। दिलचस्प यह भी है कि हम जिस भोजन का
सेवन करते हैं वह भी हमारी आहार नाल के माइक्रोबायोम को प्रभावित करता है।
विकास
के दौरान सूक्ष्मजीवों ने सहभोजी रिश्ता कायम किया। बिना सूक्ष्मजीवों के मानव का
अस्तित्व संकट में हो सकता है। इस कहानी में जीवाणुओं ने भी अहम भूमिका अदा की। बायफिडोबैक्टीरिया
इनमें से एक है।
जन्म
के बाद शिशु जब मां का दूध पीता है तो उसे पचाने वाले बायफिडोबैक्टीरिया
आहार नाल में पनपने लगते हैं। ये शर्कराओं को पचाने का लाभदायक काम करते हैं जो
शरीर की वृद्धि में सहायक होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं,
कुछ बैक्टीरिया भोजन में वनस्पति रेशों को पचाने में भूमिका
अदा करते हैं जो हमारी आंत के लिए अहम होते हैं। रेशे हमें अधिक वज़नी होने से
बचाते हैं। साथ ही मधुमेह, दिल की बीमारी व कैंसर
के खतरों से भी बचाते हैं।
आहार
नाल का माइक्रोबायोम रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है। इतना ही नहीं,
नए अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि आहार नाल का
माइक्रोबायोम केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को भी नियंत्रित करता है।
जन्म
के पूर्व शिशु की आहार नाल सूक्ष्मजीवों से रहित होती है। सामान्य प्रसव के दौरान
शिशु योनि मार्ग से गुज़रते हुए सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आता है और मुंह के
रास्ते ये उसकी आंत में प्रवेश कर जाते हैं। हालिया शोध बताते हैं कि सिज़ेरियन
प्रसव से जन्मे शिशुओं की आहार नाल में सूक्ष्मजीव विविधता सामान्य जन्म लेने वाले
शिशुओं से कम होती है। जो बच्चे सामान्य प्रसव (योनि मार्ग से प्रसव) से जन्म लेते हैं उन शिशुओं की आंत में लैक्टोबेसिलस,
प्रेवोटेला, बायफिडोबैक्टीरियम,
बैक्टेरॉइड्स और एटोपोबियम
पाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में नहीं पाए जाते।
सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में मुख्य रूप से क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल,
ई.कोली व स्ट्रोप्टोकोकाई जैसे बैक्टीरिया
पाए जाते हैं। जैसे-जैसे
शिशु बड़ा होने लगता है उसकी आहार नाल के माइक्रोबायोम की विविधता बढ़ती जाती है। यह
देखा गया है कि जिनकी आहार नाल में माइक्रोबायोम की विविधता अधिक होती है,
वे अधिक स्वस्थ रहते हैं।
बायफिडोबैक्टीरियम
अचल किस्म के ग्राम-पाज़िटिव
बैक्टीरिया हैं, जिनमें अनॉक्सी श्वसन
होता है। सन 1900 के
दौरान हेनरी टिसियर ने नजवात शिशु के मल में बायफिडोबैक्टीरिया देखा था। इसके ठीक
बाद टिसियर के साथी मेचनीकोव का ध्यान टिसियर द्वारा खोजे गए बैक्टीरिया की ओर
गया। मेचनीकोव तब किण्वित दूध पर काम कर रहे थे। मेचनीकोव पहले व्यक्ति थे
जिन्होंने बताया कि दही, छांछ जैसी चीज़ें
हमारी सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। मेचनीकोव ने किण्वित दूध को प्रोबायोटिक
कहा। इसका अर्थ है ऐसे खाद्य पदार्थ जिसमें कुछ सूक्ष्मजीव होते हैं जो हमारे शरीर
को भोजन पचाने में मदद करते हैं, तंत्रिका तंत्र को
मजबूत करते हैं और हमें तंदुरुस्त व दीर्घायु बनाते हैं। इसी शोध के लिए मेचनीकोव
को 1908 में
नोबल पुरस्कार मिला था।
स्तनपान
करने वाले शिशुओं में बायफिडोबैक्टीरिया की किण्वक व अम्लीय प्रकृति और
मानव पोषण और पेट के स्वास्थ्य के बीच लाभदायक सम्बंध को काफी पहले पहचान लिया गया
था और यह प्रचारित भी खूब हो रहा था। प्रोबायाटिक आहार का जितना महत्व आज है उतना
ही तब भी हुआ करता था। हालांकि बायफिडोबैक्टीरिया के साथ ही अन्य स्ट्रेप्टोकोकस,
एंटरोकोकस, यीस्ट
और अन्य सूक्ष्मजीवों ने भी प्रोबायोटिक के इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचा। इसके बाद
इस पर व्यापक अध्ययन हुए। न केवल मनुष्यों में बल्कि इसके बेहतर प्रभावों को पालतू
पशुओं में भी पहचाना गया और प्रोबायोटिक संस्कृति को अपनाया जाने लगा।
नेशनल
इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 2007 में ह्यूमन
माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट (एचएमपी) की स्थापना मानव
कल्याण के लिए माइक्रोबायोम के प्रभाव का अध्ययन करने और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने
के मकसद से की गई थी ताकि विशिष्ट बीमारियों में इनकी भूमिका को रेखांकित किया जा
सके। परियोजना के पहले चरण में सूक्ष्मजीवों के प्रकार (बैक्टीरिया, फफूंद
और वायरस) के
संदर्भ में डैटाबेस तैयार किया गया जो शरीर के पांच विशिष्ट हिस्सों पर केंद्रित
था – त्वचा,
मुखगुहा, श्वसन मार्ग,
आहार नाल व मूत्र-जनन मार्ग। परियोजना का लक्ष्य यह समझना था
कि शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले सूक्ष्मजीवों की जेनेटिक संरचना में बदलाव करके
इन्हें कैसे लाभदायक सूक्ष्मजीवों में बदला जा सकता है।
उल्लेखनीय
है कि इस परियोजना को भारत में भी प्रारंभ किया जा चुका है। भारतीय लोगों के शरीर
के विभिन्न अंगों जैसे त्वचा, लार,
रक्त व मल में सूक्ष्मजीवों के वास का अध्ययन किया जा रहा
है। यह देशव्यापी अध्ययन है जिसमें केंद्र सरकार ने 150 करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस अध्ययन में
भारत की 32 जनजातियों
को भी शामिल किया गया है।
इस
परियोजना में सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण करने के लिए मानव जीनोम परियोजना
द्वारा विकसित डीएनए सिक्वेंसिंग का इस्तेमाल किया गया है।
दरअसल, मानव एक जीव ही नहीं है बल्कि वह एक पारिस्थितिकी तंत्र भी है। इसमें इन सारे सूक्ष्मजीवों के जीनोम मौजूद हैं जिसे माइक्रोबायोम कहते हैं। ऐसे अनेक काम हैं जो हमारे जीनोम में अंकित नहीं है। इन कार्यों को हम माइक्रोबायोम की मदद से करते हैं। हर सूक्ष्मजीव अपना-अपना काम करता है और पूरे इकोसिस्टम में योगदान देता है। वैसे यह दिलचस्प है कि जो सूक्ष्मजीव हमारी आहार नाल में बसते हैं वे हमारे जीनोम से कुछ जीनों का इस्तेमाल अपनी कार्यप्रणाली के लिए करते हैं। दरअसल, सूक्ष्मजीवों व मानव के बीच का यह रिश्ता साझेदारी व सहयोग का है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं। जैसे हमारे द्वारा जिस कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं हो पाता है उन्हें ये सूक्ष्मजीव पचाते हैं या विटामीन बी का संश्लेषण हमारी आंत के बैक्टीरिया ही करते हैं। और आंत में जिस भोजन का पाचन होता है उसका फायदा ये सूक्ष्मजीव भी उठाते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.holganix.com/hubfs/Microbes-small.jpg
इन
दिनों हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रतिरक्षा विज्ञानी और महामारी विज्ञान
विशेषज्ञ माइकल मीना रक्त के लाखों नमूने जमा कर रहे हैं। उनका उद्देश्य ग्लोबल
इम्यूनोलॉजी ऑब्ज़र्वेटरी (जीआईओ) के माध्यम से आबादी
में फैलने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीवों के संकेतों की निगरानी करना है। यह एक ऐसी
तकनीक पर आधारित है जो रक्त की माइक्रोलीटर मात्रा में भी विभिन्न एंटीबॉडी को माप
सकेगी। यदि जीआईओ तकनीकी बाधाओं को दूर करके निरंतर वित्तीय सहायता प्राप्त कर
पाता है तो हमारे पास महामारियों की निगरानी करने और निपटने का एक प्रभावी साधन होगा।
फिलहाल,
अमेरिका में रोगों से जुड़ी असामान्य घटनाओं की रिपोर्ट
राज्य के स्वास्थ्य विभागों के माध्यम से सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) को भेजी जाती है।
लेकिन कोविड-19 के
प्रसार को देखते हुए मीना एक त्वरित और व्यापक निगरानी प्रक्रिया के पक्ष में हैं।
मीना नियमित रूप से एंटीबॉडी के माध्यम से महामारियों का पता लगाना चाहते हैं।
इसके लिए वे रक्त बैंकों से लेकर प्लाज़्मा केंद्रों जैसे हर संभव स्रोत से निरंतर
रक्त के नमूने जमा कर रहे हैं। आनुवंशिक रोगों की पहचान के लिए अधिकांश राज्यों
में लगभग सभी नवजात शिशुओं के रक्त के नमूने जमा किए जाते हैं। इनको भी इस कार्य
में शामिल कर लिया जाएगा। इन नमूनों की पहचान केवल भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर की
जाएगी। फिलहाल कुछ कंपनियों द्वारा पहले से ही चिप-आधारित तकनीक से हज़ारों एंटीबॉडीज़ की पहचान
करने के उपकरण बनाए जा रहे हैं। इन कंपनियों की मदद से यह काम और व्यापक स्तर पर
किया जा सकता है।
फिलहाल
विचार यह है कि प्रतिदिन 10,000
और आगे चलकर एक लाख नमूनों का विश्लेषण किया जाएगा। वर्तमान
निगरानी प्रणाली की तुलना में इस ऑब्ज़र्वेटरी की मदद से इससे भी कम संख्या में
महामारी के प्रकोप का जल्द पता लग सकता है। जीआईओ की मदद से मौसमी इन्फ्लुएंज़ा की
निगरानी को भी तेज़ किया जा सकता है ताकि अस्पतालों को तैयारी करने का पर्याप्त समय
मिल सके और टीके वितरित किए जा सकें।
जीआईओ कोविड-19 जैसे नए संक्रामक रोगों के प्रसार को ट्रैक कर सकता है। इसके लिए एंटीबॉडी का पता लगाने वाली चिप्स को नए रोगजनक के लिए अपडेट करना ज़रूरी नहीं होगा। इसकी सहायता से शोधकर्ता उन एंटीबॉडी की बढ़ोतरी का पता लगा सकते हैं जो ज्ञात रोगजनकों को अविशिष्ट रूप से लक्षित करती हैं। संक्रमण शुरू होने के 1 से 2 सप्ताह बाद दिखाई देने वाली एंटीबॉडी न केवल वर्तमान संक्रमित लोगों की जानकारी देंगी बल्कि उन लोगों के बारे में भी बताएंगी जो इस रोग से ठीक हो चुके हैं। क्योंकि हर एंटीबॉडी की एक अलग पहचान होती है, जीआईओ में बैक्टीरिया या वायरस संक्रमित लोगों के विशेष स्ट्रेंस की पहचान भी हो सकेगी।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/blood_1280p.jpg?itok=F3EQUy-5
अमेरिका
के खाद्य व औषधि प्रशासन (एफडीए) ने कोविड-19 के लिए
हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन सल्फेट और क्लोरोक्विन फॉस्फेट के आपातकालीन उपयोग की
मंज़ूरी को निरस्त कर दिया है। गौरतलब है कि इन दोनों ही दवाओं को अमरीकी
राष्ट्रपति ट्रम्प और अन्य लोगों ने कोविड-19 के विरुद्ध निर्णायक (गेमचेंजर) माना था। हाल ही में कोविड-19 संक्रमित लोगों में
किए गए रैंडम क्लीनिकल परीक्षण में दोनों दवाएं बीमारी के उपचार में नाकाम रही
हैं। इस विषय में एफडीए के कुछ पूर्व अधिकारियों का मानना है कि इस दवा को
आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी वैज्ञानिक प्रमाण पर नहीं बल्कि राजनीतिक दबाव पर
आधारित थी।
एफडीए
की पूर्व मुख्य वैज्ञानिक लुसियाना बोरियो एफडीए के इस फैसले की सराहना करती हैं
और इसे वैज्ञानिक एवं सार्वजनिक हित पर आधारित निर्णय मानती हैं। इस फैसले की
महत्वपूर्ण बात यह रही कि एफडीए की यह कार्रवाई बिना किसी राजनैतिक दबाव के पूरी
तरह से वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित रही।
हालिया
वैज्ञानिक समीक्षा के हवाले से एफडीए ने कोविड-19 उपचार के लिए हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन और
क्लोरोक्विन के आपातकालीन उपयोग को अप्रभावी बताया है। इसके अलावा,
यह भी स्पष्ट किया है कि ह्रदय की गंभीर समस्याओं और अन्य
दुष्प्रभावों के चलते इन दोनों दवाइयों का उपयोग काफी जोखिम भरा हो सकता है।
गौरतलब है कि आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी के तहत इस दवा का औपचारिक अनुमोदन नहीं किया गया था बल्कि इसे मुख्य रूप से केवल कोविड-19 रोगियों के लिए अस्पतालों में वितरण के लिए अनुमति दी गई थी। हालांकि, मंज़ूरी निरस्त करने के बाद भी इन दोनों दवाओं पर क्लीनिकलपरीक्षण जारी रखा जा सकता है। चिकित्सक चाहें तो अभी भी इस दवा का ‘ऑफ लेबल’ उपयोग कर सकते हैं। यानी इनका उपयोग एफडीए द्वारा निर्धारित लक्षणों के अलावा भी किया जा सकता है। फिर भी एफडीए द्वारा बताए गए दुष्प्रभावों के बाद शायद ही चिकित्सक इसका उपयोग करेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://etimg.etb2bimg.com/photo/76396635.cms
कोरोनाकाल
में लोगों में सूक्ष्मजीवों से सुरक्षा की चिंता बढ़ी है,
जो शायद उचित भी है। मास्क लगाना,
एक-दूसरे
से दूर-दूर
रहना, बार-बार साबुन या सैनिटाइज़र से हाथ धोना वगैरह
लोगों की आदतों में शुमार होता जा रहा है। प्रचार-प्रसार भी खूब हो रहा है। सारे साबुनों के
विज्ञापनों में अचानक वायरस और खास तौर से कोरोनावायरस को मारने की क्षमता का बखान
जुड़ गया है। एक खबर यह भी है कि अब ऐसे कपड़े भी बनेंगे जो कीटाणुओं का मुकाबला
करेंगे। कपड़ों की धुलाई में विसंक्रमण की बात जुड़ गई है। यह भी कहा जा रहा है कि
पंखों के कुछ ब्रांड सूक्ष्मजीवों को टिकने नहीं देते। कुछ रियल एस्टेट ठेकेदारों
ने कोरोना-मुक्त
मकान का भी वादा कर दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि जिन सतहों को बार-बार स्पर्श किया
जाता है, जैसे मेज़,
दरवाज़ों के हैंडल, लिफ्ट
के बटन वगैरह, उन्हें दिन में पता
नहीं कितनी बार विसंक्रमित (डिस-इंफेक्ट) करना चाहिए।
उपरोक्त
में से कई तो शायद वर्तमान आपात काल में ज़रूरी कदम कहे जा सकते हैं। लेकिन क्या
होगा यदि यह सनक समाज पर हमेशा के लिए हावी हो जाए? इस
सवाल का जवाब कई मायनों में महत्वपूर्ण है और जवाब के लिए हमें थोड़ा इतिहास में
झांकना होगा।
दरअसल,
बीमारियों का आधुनिक कीटाणु सिद्धांत (जर्म थियरी) बहुत पुराना नहीं है। सबसे पहले यह धारणा
उन्नीसवीं सदी में प्रस्तुत की गई थी कि कुछ बीमारियां कीटाणुओं के संक्रमण के
कारण पैदा होती हैं। कीटाणुओं में बैक्टीरिया, फफूंद,
वायरस, प्रोटोज़ोआ वगैरह शामिल
हैं। वैसे यह रोचक बात है कि कीटाणुओं को रोग का वाहक या कारक मानने को लेकर समझ
भारत तथा मध्य पूर्व में दसवीं सदी से ही प्रचलित थी। लेकिन वास्तविक रोगजनक
सूक्ष्मजीवों को पहचानने व उनके उपचार का काम बहुत बाद में शुरू हुआ। इसमें पाश्चर,
फ्रांसेस्को रेडी, जॉन
स्नो, रॉबर्ट कोच वगैरह का योगदान महत्वपूर्ण रहा
था।
कीटाणु
सिद्धांत के मुताबिक कुछ रोग ऐसे हैं जो शरीर में रोगजनक कीटाणुओं के प्रवेश के
कारण पैदा होते हैं। इनके इलाज के लिए सम्बंधित कीटाणु पर नियंत्रण करने की ज़रूरत
होती है। टीका भी इसी सिद्धांत की देन है। इस सिद्धांत ने स्वच्छता और रोग का
परस्पर सम्बंध भी दर्शाया। चूंकि ये कीटाणु हवा और पानी के माध्यम से व्यक्तियों
के बीच फैल सकते हैं, इसलिए बीमार व्यक्ति
को अलग-थलग
रखना, हवा-पानी की शुद्धता वगैरह बातें सामने आती
हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी पहचाने गए जो दो व्यक्तियों के बीच स्पर्श के ज़रिए सीधे भी
फैल सकते हैं। कुछ कीटाणु ऐसे भी हैं जिनके प्रसार के लिए किसी तीसरे जंतु की
ज़रूरत होती है। बरसों के अनुसंधान के आधार पर आज हम कई कीटाणुओं,
उनके प्रसार के तरीकों, मध्यस्थ
जीवों वगैरह की पहचान से लैस हैं। इस समझ ने हमें इन रोगों के उपचार के अलावा
रोकथाम में भी सक्षम बनाया है।
इन
रोगों में शामिल हैं चेचक, टीबी,
टायफाइड, मलेरिया,
रेबीज़, कुष्ठ,
एड्स, फ्लू,
हैज़ा, प्लेग,
और अब कोविड-19। इनमें से अधिकांश रोगों के लिए हमारे पास दवाइयां उपलब्ध
हैं, और कई की रोकथाम के लिए टीके भी उपलब्ध
हैं। इसके अलावा, खास तौर से जल-वाहित तथा जंतु-वाहित रोगों के लिए
रोकथाम के अन्य उपाय (जैसे
मच्छरदानी, मच्छरनाशी रसायनों
का छिड़काव, पानी का उपचार वगैरह) भी उपलब्ध हैं। इस
प्रगति का एक परिणाम यह हुआ कि इन रोगों से मरने वालों की संख्या बहुत कम हो गई।
लेकिन
इस तरीके (खास
तौर से कीटाणुओं को मारने वाली दवाइयों यानी एंटीबायोटिक के उपयोग) को लेकर चिकित्सा
जगत व साधारण लोगों के बीच भी एक जुनून पैदा हुआ। इनका उपयोग इस कदर बढ़ा कि ये
लगभग ‘ओवर
दी काउंटर’ दवाइयां
हो गर्इं। हर छोटे-मोटे
बुखार के लिए, सर्दी-ज़ुकाम,दस्त
वगैरह के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां देना आम बात हो गई। डॉक्टर तो लिखते ही थे,
आम लोगों ने मेडिकल स्टोर्स से खरीदकर इनका उपयोग शुरू कर
दिया। यह भी हुआ कि खुराक पूरी होने से पहले ठीक लगने लगा तो दवा बंद कर दी।
इस
तरह के बेतहाशा, अंधाधुंध उपयोग का
एक परिणाम यह हुआ कि सम्बंधित कीटाणु उस दवा के खिलाफ प्रतिरोधी हो गया। आज हमारे
पास बहुत कम एंटीबायोटिक बचे हैं जो असरकारक हैं। और विश्व स्वास्थ्य संगठन सहित
कई संगठनों ने चेतावनी दी है कि यदि यही हाल रहा तो शीघ्र ही हम उस ज़माने में
पहुंच जाएंगे जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं।
तो
आज की स्थिति इस किस्से का क्या लेना-देना है? बहुत कुछ। यह तो
हमने देखा ही कि एंटीबायोटिक दवाइयों के अतिरेक ने कैसे हमें 200 साल पीछे घसीट दिया
है। लेकिन उससे महत्वपूर्ण बात यह है कि इसी ने हमें कई नई समस्याओं में उलझा दिया
है। सूक्ष्मजीव विज्ञान ने सूक्ष्मजीवों के बारे में और उनसे हमारे सम्बंधों के
बारे में एकदम चौंकाने वाली नई समझ प्रदान की है। पिछले कई वर्षों के अनुसंधान के
दम पर हम यह समझ पाए हैं कि सूक्ष्मजीव और रोग पर्यायवाची नहीं हैं। लाखों-करोड़ों सूक्ष्मजीव
प्रजातियों में से बहुत ही थोड़े से हैं जो रोगजनक हैं। शेष या तो उदासीन हैं या
लाभदायक हैं। जी हां, बैक्टीरिया,
वायरस वगैरह लाभदायक सम्बंध में हमारे साथ रहते हैं।
मनुष्य
के शरीर के ऊपर (त्वचा
पर) तथा
पाचन तंत्र, श्वसन तंत्र तथा
अन्य स्थानों पर रहने वाले सूक्ष्मजीव-संसार के अध्ययन ने दर्शाया है कि ये हमारे लिए कितने
महत्वपूर्ण हैं। ये पाचन में मददगार होते हैं, शरीर
की जैव-रासायानिक
क्रियाओं के सुचारु संचालन में सहायता करते हैं और (चौंकिएगा मत) हमारे प्रतिरक्षा तंत्र को सुदृढ़ करते हैं।
और हाल में यह भी देखा गया है कि हमारी नाक का सूक्ष्मजीव-संसार हमें कई तरह के संक्रमणों व एलर्जी
से बचाता है। यदि इस सूक्ष्मजीव-संसार में थोड़ी भी गड़बड़ी हो जाए तो समस्याएं शुरू हो जाती
हैं।
कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जोनाथन आइसन ने बताया है कि हैंड सैनिटाइज़र
का उपयोग हमारी त्वचा के सूक्ष्मजीव-संसार को अस्त-व्यस्त कर सकता है, जिसके
चलते रोगजनक सूक्ष्मजीवों को वहां पनपने का मौका मिल सकता है। आइसन के मुताबिक
हैंड सैनिटाइज़र्स एंटीबायोटिक के खिलाफ प्रतिरोध बढ़ाने में भी योगदान दे सकते हैं।
वायरसों
की बात करते हैं, क्योंकि वे ही आजकल
सेलेब्रिटी हैं। यह समझना ज़रूरी है कि कई वायरस लाभदायक असर भी दिखाते हैं। इनमें
वे वायरस शामिल हैं जिन्हें बैक्टीरियोफेज यानी बैक्टीरिया-भक्षी कहते हैं। चिकित्सा में इनके उपयोग
की वकालत की जा रही है और इसमें कुछ सफलता भी मिली है। कुछ वायरस ऐसे भी हैं जो
गंभीर संक्रमण पैदा कर सकते हैं। जैसे हर्पीज़ का वायरस। लेकिन ऐसा कम लोगों में
होता है कि यह वायरस गंभीर रोग का कारण बन जाए। जब यह सुप्तावस्था में होता है तो
यह हमारे शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को लिस्टेरिया से होने वाले फूड-पॉइज़निंग से और
ब्यूबोनिक प्लेग से लड़ने को तैयार करता है।
2016 में पीडियाट्रिक्स
में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया था कि जो बच्चे 1 वर्ष से कम उम्र में झूलाघर में रहते हैं,
उनमें आगे के बचपन में आमाशय फ्लू का प्रकोप कम होता है।
इसी प्रकार से, कुछ अध्ययनों ने
दर्शाया है कि बचपन में रोगजनक सूक्ष्मजीवों (खासकर वायरसों) से संपर्क बच्चों को कई तकलीफों से बचाता
है।
हैंड
सैनिटाइज़र्स ही नहीं, कई घरों में
इस्तेमाल की जाने वाली डिशवॉशिंग मशीन को लेकर किए गए अध्ययनों में पता चला है कि
इनका सम्बंध बच्चों में दमा तथा एलर्जी के बढ़े हुए खतरे से है। संभवत: ऐसी तकनीकों के कारण
बच्चों का लाभदायक बैक्टीरिया से संपर्क कम हो जाता है। अध्ययनों से यह भी पता चला
है कि घरेलू डिसइंफेक्टेंट क्लीनर्स उपयोग करने का असर बच्चों के वज़न पर पड़ता है
क्योंकि ऐसे क्लीनिंग एजेंट्स का उपयोग उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को
प्रभावित करता है।
तो
यदि हमने अपने परिवेश से वायरसों व अन्य सूक्ष्मजीवों का पूरा सफाया करने की ठान
ली, तो हम ऐसे निशुल्क लाभों से हाथ धो
बैठेंगे।
ट्रिक्लोसैन
नामक एक रसायन का उपयोग साबुनों में तो होता ही है, इसे
विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं, जैसे कपड़ों,
पकाने के बर्तनों, खिलौनों
वगैरह में जोड़ दिया जाता है। यूएस में साबुन में इसके उपयोग पर प्रतिबंध है। पाया
गया है कि यह रसायन हारमोन के संतुलन में गड़बड़ी पैदा करता है और दमा व एलर्जी का
कारण भी बनता है। आजकल साबुन में चांदी के नैनो कण जोड़कर उन्हें ज़्यादा शक्तिशाली
बनाने के विज्ञापन भी देखने को मिलते हैं। यह भी सूक्ष्मजीव संसार पर प्रतिकूल असर
डाल सकता है।
तो
ये थे कीटाणु-दैष
के कुछ प्रत्यक्ष परिणाम। लेकिन इसके कुछ परोक्ष परिणाम भी हैं,
जिन पर गौर करना ज़रूरी है। इसकी सबसे पहली बानगी हमें यूए
के एक प्रमुख राजनेता की टिप्पणी में सुनाई पड़ी थी। एक रिपब्लिकन सांसद स्टीव
हफमैन ने ओहायो सीनेट की स्वास्थ्य समिति की बैठक में कहा,
“क्या अश्वेत लोग इसलिए कोरोनावायरस से ज़्यादा संक्रमित हो
रहे हैं क्योंकि वे अपने हाथ ठीक से धोते नहीं हैं?” उनकी
यह टिप्पणी स्वास्थ्य को व्यक्तिगत आचरण का मामला बना देती है और सार्वजनिक
स्वास्थ्य के लक्ष्यों को ओझल कर देती है।
हमारे
शहर की हवा प्रदूषित होगी, तो बात मास्क की
होगी, प्रदूषण कम करने की नहीं। गंदा,
संदूषित पानी सप्लाय होगा तो हम ‘सबसे शुद्ध पानी’ वाले आर.ओ. और बोतलबंद पानी की बात करेंगे,
सबको साफ पेयजल की उपलब्धता की नहीं। व्यक्ति बीमार होगा तो
वह निजी स्वास्थ्य सेवा की लूट-खसोट के लिए आसान शिकार हो जाएगा,
लेकिन हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को सुदृढ़ व सुगम बनाने
की कोशिश नहीं करेंगे। बीमार व्यक्ति की परिस्थितियों का ख्याल किए बगैर यही सवाल
पूछा जाएगा कि उसने हाथ धोए या नहीं, मास्क
लगाया या नहीं। यानी कीटाणुओं के प्रसार को रोकने की ज़िम्मेदारी निजी हो जाएगी।
और
बात शायद यहीं न रुके। यूएस में अश्वेत लोगों को उनकी अपनी तकलीफों के लिए जवाबदेह
ठहराने की कोशिश का अगला कदम होगा कि उन्हें शेष लोगों के लिए एक खतरा घोषित कर
दिया जाएगा। यूएस की बात जाने दें, हमारे अपने देश में
भी कई समूह या समुदाय ऐसे होंगे जिन्हें पूरे समाज के लिए खतरा घोषित कर दिया
जाएगा। एक नए किस्म का विभाजन व अलगाव पैदा होगा। और इसकी शुरुआत सोशल मीडिया (जिसे एंटी-सोशल मीडिया कहना
बेहतर है) पर
हो भी चुकी है।
इतिहास
में देखें तो पता चलता है कि कीटाणु या संदूषण का डर हमेशा से ‘गैर’ के डर से जुड़ा रहा
है। इसी का एक विस्तार सामाजिक स्तर पर भी होता है – इसे व्यवहरागत प्रतिरक्षा तंत्र कहते हैं।
इसका मतलब यह होता है कि ‘नफरत’ की यह प्रतिक्रिया
संक्रमण के विचार मात्र से सक्रिय हो जाती है। परिणाम यह होता है कि हम उन सब
लोगों के खिलाफ पूर्वाग्रह पालने लगते हैं जो हम से भिन्न या ‘असामान्य’ हैं। कुछ समुदायों
या आप्रवासियों को बदनाम करना इसी का हिस्सा होता है। ‘गैर से द्वैष’ वैसे तो कई सामाजिक परिस्थितियों में देखा
जा सकता है, लेकिन कीटाणु-द्वैष इसके लिए एक
नया मंच प्रदान कर रहा है।
वर्तमान महामारी के दौर में शायद कुछ सख्त उपाय ज़रूरी हों, लेकिन यदि हमें स्वास्थ्य की सामान्य समस्या या अगली महामारी से निपटना है तो अपनी स्वास्थ्य सेवा को सुदृढ़ व समतामूलक बनाना होगा ताकि वह सबकी पहुंच में हो। इसके अलावा प्रतिरोधी क्षमता बढ़ाने के लिए काढ़ा-वाढ़ा पीने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन पर्याप्त पौष्टिक भोजन के महत्व को अनदेखा करने से काम नहीं चलेगा।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://img.etimg.com/thumb/width-640,height-480,imgsize-416286,resizemode-1,msid-75707659/is-a-germs-gender-really-germane.jpg
25 मई मिनीपोलिस पुलिस
ने जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक अश्वेत अमरीकी को धर दबोचा और एक पुलिसकर्मी डेरेक
चाउविन ने जॉर्ज की गरदन पर लगभग 9 मिनट तक अपना घुटना बलपूर्वक रखे रखा, जिससे जॉर्ज की मौत हो गई। पुलिस द्वारा की
गई इस हत्या को लोगों ने खुद अपनी आंखों से देखा और इसका वीडियो वायरल हुआ।
लेकिन
जॉर्ज फ्लॉयड की प्रारंभिक शव परीक्षा रिपोर्ट के बारे में पूरी दुनिया के लोगों
को इस तरह जानकारी दी गई कि उन्हें लगे कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं देखा था और उनमें
खुद पर संशय पैदा हो जाए।
इस
तरह किसी व्यक्ति की बातों, अनुभवों, और फैसलों को झुठलाकर, अपने आप पर संशय पैदा करके आत्मविश्वास या
समझ में कमी लाने या उसका मनौविज्ञान बदल देने को गैसलाइटिंग कहते हैं। गैसलाइटिंग
एक तरह का भावनात्मक खिलवाड़ है। गैसलाइटिंग शब्द 1938 के नाटक, और उसके बाद आई एक फिल्म से आया है, जिसमें एक वहशी पति अपनी पत्नी को पागलखाने
भेजने के लिए एक साज़िश रचता है। वह अपने घर में गैसलाइट की रोशनी कम कर देता है, और जब उसकी पत्नी रोशनी कम होने की बात
कहती है तो वह जानबूझकर उसकी बात से इन्कार कर देता है, फिर इसे उसके पागलपन के सबूत के तौर पर
उपयोग करता है।
अमेरिका
में व्याप्त अश्वेत-विरोधी
हिंसा को सुनियोजित गैसलाइटिंग की तरह देखा जा रहा है। जब आवासीय योजनाओं का ऋण ना
चुकाने पर किसी अश्वेत के साथ भेदभाव पूर्ण व्यवहार किया जाता है तो उनकी साख को
ढाल बनाकर सफाई पेश की जाती है; जब
अश्वेत युवाओं को अकारण रोककर खानातलाशी की जाती है तो कहा जाता है कि पूरी
प्रक्रिया रैंडम है और कहा जाता है कि यह उनकी सुरक्षा के लिए ही किया जा रहा है।
और, जब पुलिस द्वारा अश्वेत लोगों की हत्या की
जाती है तो उनके चरित्र, और
यहां तक कि उनकी शारीरिक बनावट को ज़िम्मेदार ठहराकर, हत्यारों को रिहा कर दिया जाता है। राज्य-स्तरीय मृत्यु
प्रमाण पत्र के राष्ट्रीय डैटाबेस के एक विश्लेषण में पाया गया था कि कानून के
अनुपालन में की गई हत्याओं में से आधी से भी कम हत्याएं दर्ज की जाती हैं। इसके
अलावा, पुलिस
द्वारा की गई बर्बरता से हुई मौत के वास्तविक कारण की बजाय कहा जाता है कि मृत्यु ‘दुर्घटनावश’ या ‘अज्ञात’ कारण से हुई। जबकि
मौत का वास्तविक कारण नस्लवाद होता है।
जॉर्ज
के मामले में भी 29 मई
को लोगों से कहा गया कि जॉर्ज की शव परीक्षा में ऐसी कोई बात सामने नहीं आई है जो
यह बताती हो कि मृत्यु दम घुटने की वजह से हुई, और कहा गया कि मृत्यु नशे और पहले से मौजूद दिल की बीमारी
से हुई है। यहां स्पष्ट कर दें कि ये कारण ऑटोप्सी करने वाले चिकित्सक ने नहीं दिए
थे बल्कि चिकित्सकीय जानकारी की राजनैतिक व्याख्या करने वाले आरोप पत्र के हैं।
मानक
चिकित्सीय जांच के तहत फ्लॉयड के स्वास्थ्य और शरीर में विष की उपस्थिति की जांच
भी की गई थी। ये सामान्य परीक्षण हैं जो मृत्यु के कारण के बारे में नहीं बताते
लेकिन फिर भी सुर्खियों में बने हुए हैं। आरोप पत्र में फ्लॉयड की मृत्यु के लिए
उसे रही ह्रदय-धमनी
रोग की दिक्कत और उच्च रक्तचाप की समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, जो वास्तव में लंबी अवधि में स्ट्रोक और
दिल का दौरा पड़ने के जोखिम को बढ़ाती है ना कि कुछ मिनटों में। अन्य चिकित्सक बताते
हैं कि एस्फिक्सिया – यानी
घुटन – में
हमेशा शरीर परसंकेत दिखाई पड़ें, ऐसा
ज़रूरी नहीं है।
इस
तरह लोगों के सामने मृत्यु के वास्तविक कारणों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, और उन्हें इसे आंखों देखी हत्या के साथ
सामंजस्य बैठाने छोड़ दिया गया। रिपोर्ट में जॉर्ज की पुरानी बीमारियों की भूमिका
को बढ़ा-चढ़ाकर
पेश किया गया, नशीले
पदार्थों के बारे में अनावश्यक ज़िक्र किया गया लेकिन यह साफ तौर पर नहीं कहा गया
कि यदि उस दिन पुलिस वाला जॉर्ज की गर्दन को घुटने से दबाकर न रखता तो जॉर्ज जीवित
होता।
अलबत्ता, राजनैतिक दबाव के चलते, 1 जून को लोगों के
सामने जॉर्ज की शव परीक्षा की दो रिपोर्ट आर्इं। एक उस शव परीक्षा की रिपोर्ट थी
जो जॉर्ज के परिवार ने एक निजी चिकित्सक से करवाई थी। दूसरी रिपोर्ट सरकारी थी।
दोनों में ही इसे हत्या बताया गया था।
स्पष्ट
है कि आरोप पत्र में मृत्यु के कारणों के बारे में भ्रम पैदा किया गया और लोगों को
अपनी आंखों देखी वास्तविकता पर संदेह करने को उकसाया गया। उसमें अश्वेत लोगों के
प्रति व्याप्त धारणाओं को पुष्ट करने की कोशिश की गई।
चिकित्सा
विज्ञान लंबे समय से पीड़ितों की बजाय सत्ताधारी उत्पीड़कों के पक्ष में उपयोग किया
जाता रहा है। अश्वेत मांओं की प्रसव के दौरान होने वाली मृत्यु के लिए उन्हें ही
दोषी ठहराया जाता है, और
कोविड-19 की
वजह से मरने वालों में अश्वेत अमरीकियों की अधिक संख्या के लिए उनके हार्मोन
रिसेप्टर्स या थक्का जमाने वाले कारक में अंतर को दोष दिया जा रहा है।
चिकित्सकों
को ध्यान रखना चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान कभी वस्तुनिष्ठ नहीं रहा है। इस पर हमेशा
सामाजिक, राजनीतिक
और कानूनी प्रभाव रहा है और रहेगा। आपराधिक न्यायिक मामलों को चिकित्सकीय जांच
नियंत्रित करती है; ज़हर
के बारे में पड़ताल रोगी की आजीविका पर प्रभाव डालती है; दूसरी ओर, ठीक तरह से किए जाएं तो वैज्ञानिक परीक्षण
लिंगभेदी और नस्लवादी रूढ़ियों को खत्म कर सकते हैं।
चिकित्सा
का क्षेत्र गैसलाइटिंग के लिए एक योग्य जगह है। सफेद कोट और स्टेथोस्कोप की
कथित ताकत और वैधता की आड़ में निदान और निष्कर्ष में वास्तविकता को छुपाने की ताकत
है। यह बात जॉर्ज के मामले में स्पष्ट नज़र आई है।
ज़रूरत है कि चिकित्सक इस पर आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध हों।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://fivethirtyeight.com/wp-content/uploads/2020/06/RTS3B7KV-16×9-1.jpg?w=575
हाल
ही में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने अस्पतालों को विशेष निर्देश दिए कि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों
के समुचित इलाज की व्यवस्था इन दिनों भी बनाए रखी जाए और उसमें कोई कमी न आए। उनके
इस निर्देश को इस संदर्भ में देखना चाहिए कि देश के विभिन्न भागों से कोविड-19 के दौर में गैर-कोविड मरीज़ों की
बढ़ती समस्याओं के समाचार प्राप्त हो रहे हैं।
इतना
ही नहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी दिशानिर्देश जारी किए थे कि सभी देशों में
कोविड-19 के
दौर में गैर-कोविड
स्वास्थ्य समस्याओं व बीमारियों के इलाज के लिए सुचारु व्यवस्था बनाए रखना कितना
ज़रूरी है। चेतावनी के तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह भी बताया कि 2014-15 के एबोला प्रकोप के
दौरान पश्चिम अफ्रीका में जब पूरा स्वास्थ्य तंत्र एबोला का सामना करने में लगा था
तो खसरा, मलेरिया,
एचआईवी और तपेदिक से मौतों में इतनी वृद्धि हुई कि इन चार
बीमारियों से होने वाली अतिरिक्त मौतें एबोला से भी अधिक थीं। अत: यदि गैर-कोविड गंभीर मरीज़ों की
उपेक्षा हुई तो यह बहुत महंगा पड़ सकता है।
यदि
हम आंकड़े देखें तो, जब से भारत में
कोविड-19 की
मौतों का सिलसिला शुरू हुआ तब से लेकर 1 जून तक कोविड-19 से लगभग 93 दिनों में 5500 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में तो कोविड-19 से प्रतिदिन औसतन 60 मौत हुर्इं। इसी दौरान
अन्य कारणों से प्रतिदिन औसतन लगभग 27,000 मौतें हुर्इं। दूसरे शब्दों में इन मौतों की तुलना में
कोविड-19 मौतें
मात्र 0.2 प्रतिशत
हैं। इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वास्थ्य क्षेत्र की अन्य गंभीर
समस्याओं पर समुचित ध्यान देते रहना कितना ज़रूरी है।
आज
विश्व स्तर पर जो स्थिति है उसमें गैर-कोविड मरीज़ों की समस्याएं अनेक कारणों से बढ़ सकती हैं।
आजीविका
अस्त-व्यस्त
होने की समस्याओं के बीच कई मरीज़ों के पास सामान्य समय की तुलना में नकदी की
अत्यधिक कमी है। सामान्य समय में दोस्त व रिश्तेदार प्राय: सहायता के लिए आपातकाल में एकत्र हो जाते
थे पर अब लॉकडाउन के समय ऐसा संभव नहीं है।
आपातकालीन
स्थिति में अस्पताल जाने के लिए किसी परिवहन के मिलने में लॉकडाउन के समय बहुत
कठिनाई होती है और कर्फ्यू या लॉकडाउन पास बनवाने में अच्छा खासा समय लगता है। अब
अगर जैसे-तैसे
गैर-कोविड
मरीज़ अस्पताल पहुंच भी जाता है तो कई बार पता लगता है कि कोविड-19 की प्राथमिकताओं के
बीच अन्य स्वास्थ्य सेवाएं आधी-अधूरी हैं या चालू ही नहीं हैं। यहां तक कि कुछ गंभीर
मरीज़ों को कोविड प्राथमिकताओं के कारण उपचार के बीच ही अस्पताल छोड़ने को कहा जाता
है। कई मरीज़ों की गंभीर सर्जरी को या अन्य चिकित्सा प्रक्रियाओं को स्थगित कर दिया
जाता है। निर्धनता, बेरोज़गारी,
भूख एवं कुपोषण ने बीमार पड़ने की संभावना को वैसे ही और बढ़ा
दिया है।
नौकरी
खोने, अनिश्चित भविष्य,
बढ़ती निर्धनता और भूख व साथ ही अपने दोस्तों व रिश्तेदारों
से संपर्क न होने की स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ती हैं और इसके कारण
अन्य बीमारियों की संभावना बहुत बढ़ जाती है। ऐसी स्थितियों में हिंसक व्यवहार व
आत्महत्या करने के प्रयास की संभावना भी बढ़ जाती है।
कुछ
स्थानों पर आवश्यक जीवन रक्षक दवाइयों और चिकित्सा उपकरणों की आपूर्ति की शृंखला
टूट जाती है। यहां तक कि जब दवाओं की ऐसी गंभीर कमी नहीं होती तब भी स्थानीय स्तर
पर, विशेषकर दूर-दराज गांवों में मरीज़ों को दवाएं और
चिकित्सा साज-सामान
नहीं मिलते हैं।
कुछ
अस्पतालों में बाह्य रोगी विभागों (ओपीडी) के बंद हो जाने के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित
रोगियों को समय पर रोगों के निदान एवं उपचार मिलने की संभावना भी कम हो जाती है।
इसके अतिरिक्त ब्लड बैंक में रक्त व रक्त दाताओं की कमी भी लॉकडाउन के कारण हो
जाती है। लॉकडाउन के चलते प्रवासी मज़दूर परिवारों को बच्चों सहित दूर-दूर तक पैदल जाने की
मजबूरी हुई। इस कारण उनमें स्वास्थ्य समस्याओं के बढ़ने की संभावना अधिक है।
इन समस्याओं से स्पष्ट है कि गैर-कोविड मरीज़ों पर ध्यान देना कितना ज़रूरी है। साथ में इस ओर भी ध्यान देना ज़रूरी है कि अस्पतालों, डाक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों द्वारा इस व्यापक ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए अनुकूल संसाधन और सुविधाएं बढ़ाना भी आवश्यक है। सामान्य समय में भी देश के अनेक भागों में स्वास्थ्य का ढांचा कमज़ोर होने के कारण गंभीर मरीज़ों को अनेक कठिनाइयां आती रही हैं जो कोविड के दौर में तो निश्चय ही बढ़ गई हैं।(स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://etimg.etb2bimg.com/photo/62223636.cms