विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र से मधुमेह के उपचार की संभावना

ब तक मधुमेह के उपचार में औषधियों का या इंसुलिन का उपयोग किया जाता है। लेकिन अब सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन एक अन्य तरीके से मधुमेह के उपचार की संभावना जताता है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित चूहों को स्थिर विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में लाने पर उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ गई और रक्त शर्करा के स्तर में कमी आई। टाइप-2 मधुमेह वह स्थिति होती है जब शरीर में इंसुलिन बनता तो है लेकिन कोशिकाएं उसका ठीक तरह से उपयोग नहीं कर पातीं। दूसरे शब्दों में कोशिकाएं इंसुलिन-प्रतिरोधी हो जाती हैं, इंसुलिन के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो जाती है।

आयोवा युनिवर्सिटी की वाल शेफील्ड लैब में कार्यरत केल्विन कार्टर कुछ समय पूर्व शरीर पर ऊर्जा क्षेत्र के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ऐसे उपकरण बनाए जो ऐसा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करें जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से 10 से 100 गुना अधिक शक्तिशाली और एमआरआई के चुम्बकीय क्षेत्र के हज़ारवें हिस्से के बीच का हो। चूहे इन धातु-मुक्त पिंजरों में उछलते-कूदते और वहां एक स्थिर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र बना रहता। इस तरह चूहों को प्रतिदिन 7 या 24 घंटे चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया।

एक अन्य शोधकर्ता सनी हुआंग को मधुमेह पर काम करते हुए चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापने की ज़रूरत थी। इसलिए कार्टर ने अपने अध्ययन के कुछ चूहे, जिनमें टाइप-2 मधुमेह पीड़ित चूहे भी शामिल थे, हुआंग को अध्ययन के लिए दे दिए। हुआंग ने जब चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापा तो पाया कि जिन चूहों को विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया था उन चूहों के रक्त में अन्य चूहों की तुलना में ग्लूकोज़ स्तर आधा था।

कार्टर को आंकड़ों पर यकीन नहीं आया। तब शोधकर्ताओं ने चूहों में शर्करा स्तर दोबारा जांचा। लेकिन इस बार भी मधुमेह पीड़ित चूहों की रक्त शर्करा का स्तर सामान्य निकला। इसके बाद हुआंग और उनके साथियों ने मधुमेह से पीड़ित तीन चूहा मॉडल्स में विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का प्रभाव देखा। तीनों में रक्त शर्करा का स्तर कम था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक संवेदनशील थे। और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि चूहे विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में सात घंटे रहे या 24 घंटे।

पूर्व में हुए अध्ययनों से यह पता था कि कोशिकाएं प्रवास के दौरान विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग करती हैं, जिसमें सुपरऑक्साइड नामक एक अणु की भूमिका होती है। सुपरऑक्साइड आणविक एंटीना की तरह कार्य करता है और विद्युत व चुंबकीय संकेतों को पकड़ता है। देखा गया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में सुपरऑक्साइड का स्तर अधिक होता है और इसका सम्बंध रक्त वाहिनी सम्बंधी समस्याओं और मधुमेह जनित रेटिनोपैथी से है।

आगे जांच में शोधकर्ताओं ने चूहों के लीवर से सुपरऑक्साइड खत्म करके उन्हें विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में रखा। इस समय उनके रक्त शर्करा के स्तर और इंसुलिन की संवेदनशीलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे लगता है कि सुपरऑक्साइड कोशिका-प्रवास के अलावा कई अन्य भूमिकाएं निभाता है।

शोधकर्ताओं की योजना मनुष्यों सहित बड़े जानवरों पर अध्ययन करने और इसके हानिकारक प्रभाव जांचने की है। यदि कारगर रहता है तो यह एक सरल उपचार साबित होगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कान बजने का झटकेदार इलाज

टिनिटस या कान बजने की समस्या से पीड़ित लोगों को लगातार कुछ बजने या भिनभिनाहट की आवाज़ सुनाई देती है। अब तक इसका कारण समझना और इलाज करना मुश्किल रहा है। लेकिन वैज्ञानिकों ने अब इसके पीड़ितों को कुछ खास ध्वनियां सुनाने के साथ जीभ में बिजली का झटका देकर लक्षणों को कम करने में सफलता पाई है। इलाज का असर साल भर रहा।

कुछ तरह की टिनिटस की समस्या में वास्तव में लोगों को कोई आवाज़ सुनाई देती है जैसे कान की मांसपेशियों में बार-बार संकुचन की आवाज़। लेकिन कई लोगों में इस समस्या का दोष मस्तिष्क का होता है, जो उन आवाज़ों को सुनता है जो वास्तव में होती ही नहीं हैं। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि श्रवण शक्ति कमज़ोर होने पर मस्तिष्क उन आवृत्तियों की कुछ अधिक ही पूर्ति करने लगता है जो व्यक्ति सुन नहीं सकता, परिणामस्वरूप कान बजने की समस्या होती है।

मिनेसोटा युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर ह्यूबर्ट लिम कुछ साल पहले 5 रोगियों की सुनने की क्षमता बहाल करने के लिए डीप ब्रेन स्टीमुलेशन तकनीक का परीक्षण कर रहे थे। मरीज़ों के मस्तिष्क में जब उन्होंने पेंसिल के आकार के इलेक्ट्रोड को सीधे प्रवेश कराया तो उनमें से कुछ इलेक्ट्रोड लक्षित क्षेत्र से थोड़ा भटक गए, जो एक आम बात है। मस्तिष्क पर प्रभाव जांचने के लिए जब डिवाइस शुरू की तब उनमें से एक मरीज़, जो कई सालों से कान बजने की समस्या से परेशान था, उसके कानों ने बजना बंद कर दिया।

इससे प्रेरित होकर लिम ने गिनी पिग पर अध्ययन किया और पता लगाया कि टिनिटस बंद करने के लिए शरीर के किस अंग को उत्तेजित करने पर सबसे बेहतर परिणाम मिलेंगे। उन्होंने कान, गर्दन सहित अन्य अंगों पर परीक्षण किए और पाया कि जीभ इसके लिए सबसे उचित स्थान है।

इसके बाद लिम ने टिनिटस से पीड़ित 326 लोगों पर परीक्षण किया। 12 हफ्तों के उपचार के दौरान पीड़ितों की जीभ पर एक-एक घंटे के लिए एक छोटा प्लास्टिक पैडल लगाया। पैडल में लगे छोटे इलेक्ट्रोड से जीभ पर बिजली का झटका देते हैं जिससे मस्तिष्क उत्तेजित होता है और विभिन्न सम्बंधित हिस्सों में हलचल होती है। जीभ पर ये झटके सोडा पीने जैसे महसूस होते हैं।

झटके देते वक्त मस्तिष्क की श्रवण प्रणाली को लक्षित करने के लिए प्रतिभागियों को हेडफोन भी पहनाए गए। जिसमें उन्होंने ‘इलेक्ट्रॉनिक संगीत’ जैसे पार्श्व शोर पर विभिन्न आवृत्तियों की खालिस ध्वनियां सुनी, जो एक के बाद एक तेज़ी से बदल रहीं थीं। झटकों के साथ ध्वनियां सुनाने के पीछे कारण था मस्तिष्क की संवेदनशीलता बढ़ाकर उसे भटकाना, ताकि वह उस गतिविधि को दबा दे जो कान बजने का कारण बनती है।

साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस उपचार से मरीज़ों में कान बजने के लक्षणों में नाटकीय रूप से सुधार हुआ। जिन लोगों ने ठीक से उपचार के निर्देशों का पालन किया उनमें से 80 प्रतिशत से अधिक लोगों में सुधार देखा गया। 1 से 100 के पैमाने पर उनमें टिनिटस की गंभीरता में लगभग 14 अंकों की औसत गिरावट देखी गई। और 12 महीनों बाद जांच करने पर भी लगभग 80 प्रतिशत लोगों में टिनिटस की गंभीरता कम दिखी, तब उनमें 12.7 से लेकर 14.5 अंक तक की गिरावट थी। लेकिन कुछ शोधकर्ता ध्यान दिलाते हैं कि अध्ययन में कोई नियंत्रण समूह नहीं था, जिसके बिना यह बताना असंभव है कि सुधार किस कारण से हुआ।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस की जांच अब सिर्फ 5 मिनट में

न हाल ही में शोधकर्ताओं ने CRISPR तकनीक की मदद से एक ऐसा नैदानिक परीक्षण विकसित किया है जिससे केवल 5 मिनट में कोरोनावायरस का पता लगाया जा सकता है। और तो और, इसके निदान के लिए महंगे उपकरणों की आवश्यकता भी नहीं होगी और इसे क्लीनिक, स्कूलों और कार्यालय भवनों में स्थापित किया जा सकता है।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के आणविक जीव विज्ञानी मैक्स विल्सन इस खोज को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं। वास्तव में CRISPR तकनीक की मदद से शोधकर्ता कोरोनावायरस जांच को गति देने की कोशिश करते रहे हैं। इससे पहले इसी तकनीक से जांच में 1 घंटे का समय लगता था जो पारंपरिक जांच के लिए आवश्यक 24 घंटे की तुलना में काफी कम था।     

CRISPR परीक्षण सार्स-कोव-2 के विशिष्ट 20 क्षार लंबे आरएनए अनुक्रम की पहचान करता है। पहचान के लिए वे ‘गाइड’ आरएनए का निर्माण करते हैं जो लक्षित आरएनए के पूरक होते हैं। जब यह गाइड लक्ष्य आरएनए के साथ जुड़ जाता है तब CRISPR-Cas13 सक्रिय हो जाता है और अपने नज़दीक इकहरे आरएनए को काट देता है। इस काटने की प्रक्रिया में परीक्षण घोल में फ्लोरेसेंट कण मुक्त होते हैं। इन नमूनों पर जब लेज़र प्रकाश डाला जाता है तब फ्लोरेसेंट कण चमकने लगते हैं जो वायरस की उपस्थिति का संकेत देते हैं। हालांकि, प्रारंभिक CRISPR जांचों में शोधकर्ताओं को काफी मशक्कत करनी पड़ी थी जिसमें आरएनए को काफी आवर्धित करना पड़ता था। ऐसे में इस प्रयास में जटिलता, लागत, समय तो लगा ही साथ ही दुर्लभ रासायनिक अभिकर्मकों पर भी काफी दबाव रहा।

लेकिन, इस वर्ष की नोबेल पुरस्कार विजेता और CRISPR की सह-खोजकर्ता जेनिफर डाउडना ने एक ऐसा CRISPR निदान खोज निकला है जिसमें कोरोनावायरस आरएनए को आवर्धित नहीं किया जाता। डाउडना की टीम ने इस जांच की प्रभाविता बढ़ाने के लिए सैकड़ों गाइड आरएनए को आज़माया। उन्होंने दावा किया था कि प्रति माइक्रोलीटर घोल में मात्र 1 लाख वायरस हों तो भी पता चल जाता है। एक अन्य गाइड आरएनए जोड़ दिया जाए तो प्रति माइक्रोलीटर में मात्र 100 वायरस होने पर भी पता चल जाता है।   

यह जांच पारंपरिक कोरोनावायरस निदान के समान नहीं है। फिर भी उनका ऐसा मानना है कि इस नई तकनीक से 5 नमूनों के एक बैच में परिणाम काफी सटीक होते हैं और प्रति परीक्षण मात्र 5 मिनट का समय लगता है जिसके लिए पहले 1 दिन या उससे अधिक समय लगता था।

विल्सन के अनुसार इस परीक्षण में फ्लोरेसेंट सिग्नल की तीव्रता वायरस की मात्रा को भी दर्शाती है, जिससे न केवल पॉज़िटिव मामलों का पता लगता है बल्कि रोगी में वायरस की मात्रा का भी पता लग जाता है। फिलहाल डाउडना और उनकी टीम अपने परीक्षणों को मान्यता दिलवाकर बाज़ार में लाने के प्रयास कर रही है।(स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान के नोबेल पुरस्कार – चक्रेश जैन

र्ष 2020 में विज्ञान की तीनों विधाओं – चिकित्सा विज्ञान, भौतिकी और रसायन शास्त्र – में युगांतरकारी अनुसंधानों के लिए आठ वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया है। उल्लेखनीय बात यह है कि रसायन विज्ञान के दीर्घ इतिहास में पहली बार यह सम्मान पूरी तरह महिलाओं की झोली में गया है और भौतिकी में भी एक महिला सम्मानित की गई है।

चिकित्सा विज्ञान

चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए अमेरिकी वैज्ञानिकों हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा ब्रिटिश वैज्ञानिक माइकल हाटन को संयुक्त रूप से दिया गया है। इनके अनुसंधान की बदौलत इस रोग की चिकित्सा संभव हुई है। इन शोधार्थियों को इस महत्वपूर्ण योगदान के लिए यह सम्मान करीब चार दशक बाद मिला है; इस शोधकार्य से भविष्य में लाखों लोगों को नया जीवन मिलेगा।

हेपेटाइटिस ए और हेपेटाइटिस बी वायरसों का पता 1960 के मध्य दशक में लग चुका था। हेपेटाइटिस बी वायरस की खोज के लिए 1976 में ब्रॉश ब्लमबर्ग को नोबेल पुरस्कार मिला था। हार्वे ने 1972 में रक्ताधान प्राप्त मरीजों पर शोध के दौरान एक और अनजाने संक्रामक वायरस का पता लगाया। उन्होंने अध्ययन के दौरान पाया कि मरीज़ रक्ताधान के दौरान बीमार हो जाते थे। उन्होंने आगे चलकर बताया कि संक्रमित मरीज़ों का ब्लड चिम्पैंज़ी को देने के बाद चिम्पैंजी बीमार हो गए। चार्ल्स राइस ने शुरुआत में अज्ञात वायरस को ‘गैर-ए, गैर-बी’ नाम दिया।

माइकल हाटन ने 1989 में इस वायरस के जेनेटिक अनुक्रम के आधार पर बताया कि यह फ्लेवीवायरस का ही एक प्रकार है। आगे चलकर इसे हेपेटाइटिस सी वायरस नाम दिया गया। चार्ल्स राइस ने 1997 में चिम्पैंज़ी के लीवर में जेनेटिक इंजीनिरिंग से तैयार वायरस प्रविष्ट कराया और बताया कि इससे चिम्पैंज़ी संक्रमित हुआ। इन तीनों वैज्ञानिकों के स्वतंत्र योगदान को एक साथ रखकर हेपेटाइटिस सी रोग पर विजय मिली है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में सात करोड़ लोग हेपेटाइटिस सी वायरस से पीड़ित हैं। लगभग चार लाख लोग हर साल मौत के मुंह में चले जाते हैं। मनुष्य में लीवर कैंसर का मुख्य कारण हेपेटाइटिस सी वायरस है, जिसकी वजह से लीवर प्रत्यारोपण की ज़रूरत पड़ती है। एक बात और, हेपेटाइटिस सी से संक्रमित व्यक्ति में लक्षण देर से प्रकट होते हैं और तब तक मरीज़ लीवर कैंसर की चपेट में आ चुका होता है। हेपेटाइटिस सी वायरस का टीका अभी तक नहीं बन पाया है क्योंकि यह वायरस बहुत जल्दी-जल्दी परिवर्तित हो जाता है।

भौतिक शास्त्र

इस साल का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से मिला है। ये हैं – रोजर पेनरोज़, रिनहर्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज। इन्होंने ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या की और हमारी समझ के विस्तार में असाधारण योगदान दिया है।

पिछले वर्ष 10 अप्रैल को खगोल शास्त्रियों ने ब्लैक होल की एक तस्वीर जारी की थी। यह तस्वीर पूर्व की वैज्ञानिक धारणाओं से पूरी तरह मेल खाती है। आइंस्टाइन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी।

ब्लैक होल हमेशा ही खगोल शास्त्रियों के लिए कौतूहल का विषय रहा है। पहला ब्लैक होल 1971 में खोजा गया था। 2019 में इवेंट होराइज़न टेलीस्कोप से ब्लैक होल का चित्र लिया गया था। यह हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण बहुत अधिक होता है, जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता, प्रकाश भी नहीं।

नोबेल पुरस्कार की घोषणा में बताया गया है कि रोजर पेनरोज़ को ब्लैक होल निर्माण की मौलिक व्याख्या और नई रोशनी डालने के लिए पुरस्कार की आधी धनराशि दी जाएगी।

वैज्ञानिक रिनहर्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज ने 1990 के दशक के आरंभ में आकाशगंगा (मिल्कीवे) के सैजिटेरिस-ए क्षेत्र पर शोधकार्य किया है। उन्होंने विश्व की सबसे बड़ी दूरबीन का उपयोग कर अध्ययन की नई विधियां विकसित कीं। दोनों अध्येताओं को आकाशगंगा के केंद्र में ‘अति-भारी सघन पिंड’ की खोज के लिए पुरस्कार दिया जाएगा।

एंड्रिया गेज आज तक भौतिकी में पुरस्कृत चौथी महिला वैज्ञानिक हैं।

रसायन विज्ञान

रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार फ्रांस की इमैनुएल शारपेंटिए और अमेरिका की जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त रूप से दिया जाएगा। इन्होंने जीन संपादन की क्रिस्पर कॉस-9 तकनीक की खोज में अहम योगदान दिया है। यह सम्मान खोज के लगभग आठ वर्षों बाद मिला है।

इमैनुएल शारपेंटिए और जेनिफर डाउडना ने क्रिस्पर कॉस-9 जेनेटिक कैंची का विकास किया है। इसे जीन संपादन का महत्वपूर्ण औज़ार कहा जा सकता है। इसकी सहायता से जीव-जंतुओं, वनस्पतियों और सूक्ष्मजीवों के जीनोम में बारीकी से बदलाव किया जा सकता है, सर्वथा नए जीन्स से लैस जीव विकसित किए जा सकते हैं।

जीनोम संपादन सर्वथा नया और रोमांचक विषय है। पिछले साल नवंबर में हांगकांग में आयोजित मानव जीनोम संपादन शिखर सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने जीन संपादन तकनीक से संपादित मानव भ्रूणों से पैदा हुए दो मादा शिशुओं का दावा कर सभी को अचंभित कर दिया था। जीनोम संपादन ने जीव विज्ञान में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया है। रोगाणु मुक्त और अधिक पैदावार देने वाली फसलों के बीज तैयार किए जा सकेंगे, आनुवंशिक रोगों की चिकित्सा हो सकेगी, कोविड-19 वायरस का कारगर टीका बनाने में मदद मिलेगी। जीनोम संपादन के ज़रिए ‘स्वस्थ और प्रतिभाशाली’ शिशु पैदा किए जा सकते हैं। और यह विवाद का विषय बन गया है जिसने कई नैतिक सवालों को जन्म दिया है।(स्रोत फीचर्स)

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रूबेला वायरस को मिले दो साथी

रूबेला वायरस अब तक अपने जीनस (रूबीवायरस) में एकमात्र सदस्य था। हाल ही में रूबेला के परिवार में दो नए सदस्य जुड़ गए हैं। इनमें से एक वायरस युगांडा के चमगादड़ों को संक्रमित करता है, जबकि दूसरे ने जर्मन चिड़ियाघर में तीन अलग-अलग प्रजातियों के जंतुओं की जान ली है और आसपास के चूहों में भी मिला है।

रूबेला वायरस संक्रमण में सामान्यत: शरीर पर चकत्ते उभरते हैं और बुखार आता है। लेकिन गर्भवती महिलाओं में यह गर्भपात व मृत-शिशु जन्म का कारण बनता है और शिशु जन्मजात रूबेला सिंड्रोम से पीड़ित हो सकता है, जिससे बहरापन और आंख, ह्रदय और मस्तिष्क की समस्याएं होती हैं।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ता बताते हैं कि अतीत में ऐसा ही कोई वायरस जानवरों से मनुष्यों में आया होगा, जिसने आज के रूबेला वायरस को जन्म दिया। हालांकि दोनों नवीन वायरस में से कोई भी वायरस मनुष्यों को संक्रमित नहीं करता, लेकिन चूंकि इनके सम्बंधी वायरस, रूबेला, ने जानवरों से ही मनुष्यों में प्रवेश किया है इसलिए संभावना है कि ये वायरस या अन्य ऐसे ही अज्ञात वायरस भी मनुष्यों में प्रवेश कर जाएं।

विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय के टोनी गोल्डबर्ग और एंड्रयू बेनेट को युगांडा के किबाले नेशनल पार्क में साइक्लोप्स लीफ-नोज़ चमगादड़ में एक नया वायरस मिला था। इस वायरस को रूहुगु नाम दिया गया। विश्लेषण में पाया गया कि रूहुगु वायरस के जीनोम की संरचना रूबेला वायरस के समान है, और इसके आठ प्रोटीन के 56 प्रतिशत एमिनो एसिड रूबेला के एमिनो एसिड से मेल खाते हैं। दोनों वायरस में मेज़बान प्रतिरक्षा कोशिकाओं के साथ जुड़ने वाला प्रोटीन भी लगभग समान पाया गया।

शोधकर्ता जब इस नए वायरस की खोज की रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले थे तब उन्हें पता चला कि फ्रेडरिक-लोफ्लर इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता मार्टिन बीयर की टीम को गधे, कंगारू और केपीबारा के मस्तिष्क के ऊतकों में रूबेला का एक और करीबी वायरस मिला है, जिसे रस्ट्रेला नाम दिया गया है। चिड़ियाघर में ये जानवर मस्तिष्क की सूजन, एन्सेफेलाइटिस, के कारण मृत पाए गए थे। शोधकर्ताओं को यही वायरस चिड़ियाघर के आसपास के जंगली चूहों में भी मिला था, लेकिन चूहे ठीक-ठाक लग रहे थे। इससे लगता है कि चूहे एक प्राकृतिक वाहक थे जिनसे वायरस चिड़ियाघर के जानवरों में आया।

दोनों नए वायरस की तुलना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि रूहुगु और रस्ट्रेला भी आपस में सम्बंधित हैं, हालांकि रस्ट्रेला की तुलना में रूहुगु वायरस रूबेला से अधिक समानता रखता है। दोनों टीम ने इस खोज को संयुक्त रूप से नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया है।

रूबेला से रूहुगु और रस्ट्रेला के बीच आनुवंशिक दूरी को देखते हुए शोधकर्ताओं को नहीं लगता कि इन दोनों में से किसी भी वायरस ने इंसानों में छलांग लगाई है – लेकिन संभावना है कि बारीकी से अध्ययन करने पर अन्य रूबीवायरस भी अवश्य मिलेंगे। वहीं अन्य शोधकर्ताओं का मत है कि चूंकि रस्ट्रेला प्लेसेंटल और मार्सुपियल दोनों तरह के स्तनधारियों को संक्रमित करने में सक्षम है और एक से दूसरी प्रजाति में सक्रिय रूप से छलांग लगा रहा है, इसलिए वायरस का यह लचीलापन परेशानी पैदा कर सकता है। हो सकता है कि यह वायरस चूहों से अन्य स्तनधारियों में स्थानांतरित हो जाए, या शायद मनुष्यों में भी आ जाए।

बहरहाल दोनों वायरस पर अधिक तफसील से अध्ययन की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 से ह्रदय क्षति

न दिनों मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल के पैथोलॉजिस्ट जेम्स स्टोन कोविड-19 रोगियों के ह्रदय पर होने वाली क्षति की जांच कर रहे हैं। अपने शुरुआती अध्ययन में उन्होंने पाया कि इन रोगियों के ह्रदय अधिक भारी, आकार में बड़े और असमान है। हालांकि अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी कि ये परिवर्तन सीधे-सीधे सार्स-कोव-2 संक्रमण के परिणाम हैं।

गौरतलब है कि महामारी की शुरुआत में कुछ चिकित्सकों ने कोविड-19 रोगियों में ह्रदय की कुछ गंभीर समस्याएं देखी थीं जो उनमें पहले नही थीं। ऐसे में कोविड-19 संक्रमण और ह्रदय की समस्याओं में कुछ सम्बंध लगता है। उदाहरण के तौर पर शोधकर्ताओं ने 8 से 12 प्रतिशत कोविड-19 रोगियों में मांसपेशीय संकुचन के लिए ज़िम्मेदार ट्रोपोनिन नामक प्रोटीन का उच्च स्तर देखा। यह ह्रदय क्षति का संकेत है। ऐसे रोगियों की मृत्यु की संभावना भी अधिक रही। चीन के चिकित्सकों ने कोविड-19 रोगियों में मायोकार्डाइटिस की समस्या देखी जिसमें सूजन के कारण ह्रदय कमज़ोर हो जाता है और यह आम तौर पर किसी प्रकार के संक्रमण से सम्बंधित होता है।    

स्टोन और उनके सहयोगियों द्वारा युरोपियन हार्ट जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मरने वाले 86 प्रतिशत रोगियों के दिल में सूजन थी जबकि केवल तीन रोगियों में मायोकार्डाइटिस पाया गया। इनमें से कई में अन्य प्रकार की ह्रदय समस्या पाई गर्इं। स्टोन का कहना है कि ट्रोपोनिन का उच्च स्तर अन्य प्रकार की मायोकार्डियल क्षति के कारण है। गौरतलब है कि पूर्व में कोविड-19 पर प्रकाशित पत्रों में इस विषय पर कोई चर्चा नहीं की गई है।      

क्योंकि 2003 की सार्स महामारी में रोगियों के ह्रदय में मैक्रोफेज (एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका जो सूजन की द्योतक होती हैं) पाए गए थे, इसलिए इस बार भी शोधकर्ताओं ने इनकी उपस्थिति की उम्मीद की थी। यह काफी हैरानी की बात रही कि इस बार 21 में से 18 रोगियों के ह्रदय में मैक्रोफेज पाए गए। आगे के विश्लेषण में उन्होंने पाया कि 3 रोगियों में मायोकार्डाइटिस, 4 में दाएं निलय पर तनाव के कारण ह्रदय को क्षति और अन्य 2 में ह्रदय की वाहिकाओं में खून के थक्के पाए। यह स्पष्ट नहीं था कि रोगियों में इस तरह की अलग-अलग ह्रदय सम्बंधी समस्याएं क्यों नज़र आ रही थीं।

चूंकि अधिकांश मामलों में ह्रदय में मैक्रोफेज पाए गए इसलिए यह बता पाना मुश्किल है कि ऐसे कितने लोगों को मायोकार्डाइटिस की समस्या एक अन्य कोशिका (लिम्फोसाइट) के कारण हुई है। जीवित मरीज़ों के ह्रदय के इमेजिंग में दोनों कोशिका एक जैसी दिखाई देती हैं। शोधकर्ताओं ने रोगियों के मेडिकल रिकॉर्ड की तलाश की ताकि समय रहते यह पता लगाया जा सके कि वे किस प्रकार की समस्या से ग्रसित हैं। अस्पताल में मायोकार्डाइटिस ग्रसित 3 रोगियों में ट्रोपोनिन स्तर अधिक और ईसीजी असामान्य पाया गया।

हालांकि स्टोन का ऐसा मानना है इन निष्कर्षों को रोगियों के बड़े समूहों पर परखने की आवश्यकता है ताकि इलाज का सबसे उचित तरीका अपनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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जैविक मुद्रण की मदद से अल्सर का इलाज

माशय के अल्सर या आहार नाल के अन्य घावों से कई लोग पीड़ित होते हैं। इलाज के पारंपरिक तरीकों के साथ कुछ ना कुछ समस्याएं हैं। अब वैज्ञानिकों ने जैविक मुद्रण की मदद से अल्सर के उपचार का रास्ता सुझाया है।

दरअसल पेट के घावों के उपचार में दी जाने वाली दवाइयां धीरे-धीरे काम करती हैं, और कभी-कभी तो उतनी प्रभावी भी नहीं होती। एंडोस्कोपिक सर्जरी केवल छोटे घावों को ठीक कर पाती है। और एंडोस्कोपिक विधि से दिए गए स्प्रे रक्तस्राव तो रोक पाते हैं लेकिन घावों की मरम्मत नहीं कर पाते।

जैविक मुद्रण की मदद से जटिल अंगों को विकसित करने के प्रयास कई शोधकर्ता कर रहे हैं। लेकिन दिल्ली अभी दूर है। फिलहाल इसकी मदद से शरीर की अन्य सरल संरचनाएं जैसे बोन ग्राफ्ट विकसित कर प्रत्यारोपित करने के प्रयोग किए गए हैं। अभी तरीका यह है कि पहले कोशिकाओं को शरीर के बाहर विकसित करके प्रत्यारोपित किया जाता है। इसके लिए बड़े चीरे लगाने पड़ते हैं, जो संक्रमण की संभावना बढ़ाते हैं और ठीक होने में लंबा वक्त लेते हैं।

इसलिए कुछ शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कोशिकाओं को सीधे शरीर के अंदर प्रिंट करने के प्रयास किए। लेकिन प्रिंटिंग उपकरण बड़े होने के कारण मामला सिर्फ बाहरी अंगों पर प्रिंटिंग तक सीमित हैं, पाचन तंत्र या शरीर के अन्य अंदरूनी अंगों में जैविक मुद्रण इन उपकरणों से संभव नहीं।

बीज़िंग स्थित शिनहुआ युनिवर्सिटी के बायोइंजीनियर ताओ शू और उनके साथियों ने जैविक मुद्रण की मदद से पेट के अल्सर के उपचार के लिए एक लघु रोबोट तैयार किया, ताकि शरीर में चीरफाड़ कम हो और प्रिंटिंग उपकरण शरीर में आसानी से प्रवेश कर जाए। यह लघु रोबोट गुड़ी-मुड़ी अवस्था में महज़ सवा 4 सेंटीमीटर लंबा और 3 सेंटीमीटर चौड़ा है। शरीर में प्रवेश के बाद यह खुलकर 6 सेंटीमीटर लंबा हो जाता है, और फिर जैविक मुद्रण शुरू कर सकता है। जैविक मुद्रक एक ऐसा उपकरण होता है जिसमें स्याही के स्थान पर जीवित कोशिकाएं एक जेल में मिलाकर भरी होती हैं। सही स्थान पर पहुंचकर जेल के साथ सजीव कोशिकाओं को परत-दर-परत जमाया जाता है।

परीक्षण के लिए शोधकर्ताओं ने पेट का एक पारदर्शी प्लास्टिक मॉडल तैयार करके लघु रोबोट को एंडोस्कोपी की मदद से उसमें सफलतापूर्वक प्रवेश कराया। वहां उन्होंने पेट के अस्तर और पेट की मांसपेशियों की कोशिकाओं को प्रिंट किया। बायोफेब्रिकेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मुद्रित कोशिकाओं में कोई क्षति नहीं हुई और 10 दिनों में उनमें काफी वृद्धि हुई।

लेकिन प्रयोग में शोधकर्ताओं के सामने कुछ चुनौतियों भी आर्इं। उन्होंने पाया कि जो प्रिटिंग ‘स्याही’ इस्तेमाल की गई वह कम तापमान पर ही स्थायी रहती है, शरीर के सामान्य तापमान पर तरल हो जाती है जिससे उसे ढालना मुश्किल हो जाता है। इसका समाधान ओहायो स्टेट युनिवर्सिटी के डेविड होएज़्ले द्वारा विकसित स्याही कर सकती है, जो शरीर के सामान्य तापमान पर स्थायी रहती है और दृश्य प्रकाश की मदद से गाढ़ी की जा सकती है।

जैविक मुद्रण की एक चुनौती यह है कि मुद्रित कोशिकाओं को अंगों और ऊतकों के साथ प्रभावी ढंग से कैसे जोड़ा जाए। होएज़्ले की टीम ने एक संभावित समाधान खोजा है, जिसमें 3-डी प्रिंटर की नोज़ल घाव में पहले प्रिंटिंग स्याही से एक छोटी घुंडी बनाएगी, जो इसे बायोप्रिंटेड संरचना से जोड़ देगी।

बहरहाल, शोधकर्ताओं की योजना इससे भी छोटा (लगभग सवा सेंटीमीटर चौड़ा) रोबोट तैयार करने की है, जिसमें वे कैमरा और अन्य सेंसर भी जोड़ना चाहते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 से जुड़े मिथक

वैसे तो यहां जिन मिथकों की चर्चा की गई है, वे मूलत: संयुक्त राज्य अमेरिका के सोशल मीडिया पर किए गए शोध और अन्य जानकारियों पर आधारित हैं। लेकिन थोड़े अलग रूप में ये भारत के सोशल मीडिया में भी नज़र आ जाते हैं।

कोरोनावायरस महामारी के साथ-साथ विश्व एक और महामारी से लड़ रहा है जिसे ‘इंफोडेमिक’ का नाम दिया गया है। इस ‘सूचनामारी’ के चलते लोग रोग की गंभीरता को कम आंकते हैं और सुरक्षा के उपायों को अनदेखा करते हैं। यहां इस महामारी से सम्बंधित कुछ मिथकों पर चर्चा की गई है।

मिथक 1: नया कोरोनावायरस चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है

चूंकि इस वायरस का सबसे पहला संक्रमण चीन में हुआ था, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिना किसी सबूत के यह दावा कर दिया कि इसे चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है। हालांकि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने इन सभी दावों को खारिज करते हुए कहा है कि न तो यह मानव निर्मित है और न ही आनुवंशिक फेरबदल से बना है। साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार चीनी वायरोलॉजिस्ट शी ज़ेंगली और उनकी टीम द्वारा इस वायरस के डीएनए अनुक्रम की तुलना गुफावासी चमगादड़ों में पाए जाने वाले कोरोनावायरसों से करने पर कोई समानता नज़र नहीं आई। इस वायरस के प्रयोगशाला में तैयार न किए जाने पर ज़ेंगली ने एक विस्तृत आलेख साइंस पत्रिका में प्रकाशित भी किया है। गौरतलब है कि ट्रम्प ने ज़ेंगली की प्रयोगशाला पर वायरस विकसित करने का इल्ज़ाम लगाया था। इस मुद्दे पर स्वतंत्र जांच की मांग को देखते हुए चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के शोधकर्ताओं को भी आमंत्रित किया है। लेकिन सबूत के आधार पर यही कहा जा सकता है कि सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया गया है।

मिथक 2: उच्च वर्ग के लोगों ने ताकत और मुनाफे के लिए वायरस को जानबूझकर फैलाया है

जूडी मिकोविट्स नामक एक महिला ने सोशल मीडिया पर 26 मिनट की षडयंत्र-सिद्धांत आधारित फिल्म ‘प्लानडेमिक’ और अपने ही द्वारा लिखित एक किताब में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शियस डिसीज़ के निर्देशक एंथोनी फौसी और माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स पर इल्ज़ाम लगाया है कि उन्होंने इस बीमारी से फायदा उठाने के लिए अपनी ताकत का उपयोग किया है। यह वीडियो कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर 80 लाख से अधिक लोगों ने देखा।

साइंस और एक अन्य वेबसाइट politifact ने जांच करने के बाद इस दावे को झूठा पाया। हालांकि इस वीडियो को अब सोशल मीडिया से हटा लिया गया है लेकिन इससे स्पष्ट है कि गलत सूचनाएं बहुत तेज़ी से फैलती हैं।                          

मिथक 3: कोविड-19 सामान्य फ्लू के समान ही है

महामारी के शुरुआती दिनों से ही राष्ट्रपति ट्रम्प ने बार-बार दावा किया कि कोविड-19 मौसमी फ्लू से अधिक खतरनाक नहीं है। लेकिन 9 सितंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने ट्रम्प के फरवरी और मार्च में लिए गए साक्षात्कार की एक रिकॉर्डिंग जारी की जिससे पता चलता है कि वे (ट्रम्प) जानते थे कि कोविड-19 सामान्य फ्लू से अधिक घातक है लेकिन इसकी गंभीरता को कम करके दिखाना चाहते थे।

हालांकि कोविड-19 की मृत्यु दर का सटीक आकलन तो मुश्किल है लेकिन महामारी विज्ञानियों का विचार है कि यह फ्लू की तुलना में कहीं अधिक है। फ्लू के मामले में टीकाकरण या पूर्व संक्रमण के कारण कई लोगों में कुछ प्रतिरोधक क्षमता तो है, जबकि अधिकांश विश्व ने अभी तक कोविड-19 का सामना ही नहीं किया है। ऐसे में कोरोनावायरस सामान्य फ्लू के समान तो नहीं है।

मिथक 4: मास्क पहनने की ज़रूरत नहीं है

हालांकि सीडीसी और डब्ल्यूएचओ द्वारा मास्क के उपयोग पर प्रारंभिक दिशानिर्देश थोड़े भ्रामक थे लेकिन अब सभी मानते हैं कि मास्क का उपयोग करने से कोरोनावायरस को फैलने से रोका जा सकता है। काफी समय से पता रहा है कि मास्क का उपयोग किसी संक्रमण को फैलने से रोकने में काफी प्रभावी है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि कपड़े से बने मास्क भी कारगर हैं। फिर भी कई साक्ष्यों के बावजूद कुछ लोगों ने मास्क को नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए पहनने से इन्कार कर दिया।

मिथक 5: हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन एक प्रभावी उपचार है

फ्रांस में किए गए एक छोटे अध्ययन के आधार पर सुझाव दिया गया कि मलेरिया की दवा हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उपयोग इस बीमारी के इलाज में प्रभावी हो सकता है। इसकी व्यापक आलोचना और इसके प्रभावी न होने के साक्ष्य के बावजूद ट्रम्प और अन्य लोगों ने इसे जारी रखा। फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी शुरुआत में अनुमति देने के बाद ह्रदय सम्बंधी समस्याओं के जोखिम के कारण इसे नामंज़ूर कर दिया। कई अध्ययनों से पर्याप्त साक्ष्य मिलने के बाद भी ट्रम्प ने इस दवा का प्रचार जारी रखा।

मिथक 6: ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ प्रदर्शन के कारण संक्रमण में वृद्धि हुई है

अमेरिका में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद मई-जून में अश्वेत अमरीकियों के विरुद्ध हिंसा के खिलाफ बड़े स्तर पर लोगों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया। कई लोगों ने दावा किया कि इन प्रदर्शनों में भीड़ जमा होने से कोरोनावायरस के मामलों में वृद्धि हुई। लेकिन नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनोमिक रिसर्च द्वारा अमेरिका के 315 बड़े शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों के एक विश्लेषण से ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं जिससे यह कहा जा सके कि इन प्रदर्शनों के कारण कोविड-19 मामलों में वृद्धि हुई है या अधिक मौतें हुई हैं। वास्तव में प्रदर्शन करने वाले लोगों में संचरण का जोखिम बहुत कम था और अधिकांश प्रदर्शनकारियों ने मास्क का उपयोग किया था।

मिथक 7: अधिक परीक्षण के कारण कोरोनावायरस मामलों में वृद्धि हुई है

राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह दावा किया कि अमेरिका में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का कारण परीक्षण में हो रही वृद्धि है। यदि यह सही है तो परीक्षणों में पॉज़िटिव परिणामों के प्रतिशत में कमी आनी चाहिए थी। लेकिन कई विश्लेषणों ने इसके विपरीत परिणाम दर्शाए हैं। यानी वृद्धि वास्तव में हुई है।  

मिथक 8: संक्रमण फैलेगा तो झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त की जा सकती है

महामारी की शुरुआत में यूके और स्वीडन ने झुंड प्रतिरक्षा के तरीके को अपनाया। इस तकनीक में वायरस को फैलने दिया जाता है जब तक आबादी में झुंड प्रतिरक्षा विकसित नहीं हो जाती है। लेकिन इस दृष्टिकोण में एक बुनियादी दोष है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि झुंड प्रतिरक्षा हासिल करने के लिए 60 से 70 प्रतिशत लोगों का संक्रमित होना आवश्यक है। कोविड-19 की उच्च मृत्यु दर को देखते हुए झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त करते-करते करोड़ों लोग मारे जाते। इसी कारण इस महामारी में यूके की मृत्यु दर सबसे अधिक है। यूके और स्वीडन में लोगों की जान और अर्थव्यवस्था का भी काफी नुकसान हुआ। देर से ही सही, यू.के. सरकार ने इस गलती में सुधार किया और लॉकडाउन लागू किया।

मिथक 9: कोई भी टीका असुरक्षित होगा और कोविड-19 से अधिक घातक होगा

एक ओर वैज्ञानिक निरंतर टीका विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं ये चिंताजनक रिपोर्ट्स भी सामने आ रही हैं कि शायद कई लोग इसे लेने से इन्कार कर देंगे। संभावित टीके को साज़िश के रूप में देखा जा रहा है। प्लानडेमिक फिल्म में तो यह भी दावा किया गया है कि कोविड-19 का टीका लाखों लोगों की जान ले लेगा। साथ ही यह दावा भी किया गया है कि पहले भी टीकों ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। लेकिन तथ्य यह है कि टीकों ने करोड़ों जानें बचाई हैं। यदि उपरोक्त दावा सही है, तो अलग-अलग चरणों में परीक्षण के दौरान लोगों की मौत हो जानी चाहिए थी। टीका-विरोधी समूहों द्वारा प्रस्तुत एक अन्य साज़िश-सिद्धांत में तो कहा गया है कि बिल गेट्स एक गुप्त योजना बना रहे हैं जिसके तहत टीकों के माध्यम से लोगों में माइक्रोचिप लगा दी जाएगी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि टीके के निरापद होने की बात पर अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा ऐसी बातों को तूल मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 के लिए वार्म वैक्सीन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वाओं के विपरीत, लगभग सभी तरह के टीकों को उनके परिवहन से लेकर उपयोग के ठीक पहले तक कम तापमान (सामान्यत: 2 से 8 डिग्री सेल्सियस के बीच) पर रखने की आवश्यकता होती है। अधिक तापमान मिलने पर अधिकतर टीके असरदार नहीं रह जाते। एक बार अधिक तापमान के संपर्क में आने के बाद इन्हें पुन: ठंडा करने से कोई फायदा नहीं होता। इसलिए निर्माण से लेकर उपयोग से ठीक पहले तक इनके रख-रखाव और परिवहन के लिए कोल्ड चैन (शीतलन शृंखला) बनाना ज़रूरी होता है। यदि हम सामान्य तापमान पर रखे जा सकने और परिवहन किए जा सकने वाले टीके बना पाएं, जिनके लिए कोल्ड चैन बनाने की ज़रूरत ना पड़े, तो यह बहुत फायदेमंद होगा।

बैंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) के राघवन वरदराजन के नेतृत्व में एक भारतीय समूह ने ऐसे ही ‘वार्म वैक्सीन’ पर काम किया है। इसमें उनके सहयोगी संस्थान हैं त्रिवेंदम स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा एवं अनुसंधान संस्थान (IISER), फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल स्वास्थ्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (THSTI) और IISc प्रायोजित स्टार्टअप Mynvax। Biorxive प्रीप्रिंट में प्रकाशित उनके शोधपत्र का शीर्षक है सार्स-कोव-2 के स्पाइक के ताप-सहिष्णु, प्रतिरक्षाजनक खंड का डिज़ाइन। यहhttps://doi.org/10.1101/2020.08.18.25.237 पर उपलब्ध है।

कोविड वायरस की सतह पर एक प्रोटीन रहता है जिसे स्पाइक कहते हैं। यह लगभग 1300 एमिनो एसिड लंबा होता है। इस स्पाइक में 250 एमीनो एसिड लंबा अनुक्रम – रिसेप्टर बाइंडिंग डोमेन (RBD) – होता है। यह RBD मेज़बान कोशिका से जाकर जुड़ जाता है और संक्रमण की शुरुआत करता है। शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में पूरे स्पाइक प्रोटीन की बजाय RBD की 200 एमीनो एसिड की शृंखला को संश्लेषित किया। फिर इस खंड की संरचना (इसकी त्रि-आयामी बनावट या वह आकार जो इसे मेज़बान कोशिका की सतह पर ठीक ताला-चाबी की तरह आसानी से फिट होने की गुंजाइश देता है) का अध्ययन किया। इसके अलावा इसकी तापीय स्थिरता भी देखी गई कि क्या यह प्रयोगशाला की सामान्य परिस्थितियों के तापमान से अधिक तापमान पर काम कर सकता है? खुशी की बात है कि शोधकर्ताओं ने पाया कि इस तरह ठंडा करके सुखाने (फ्रीज़-ड्राइड करने) पर यह काफी स्थिर होता है। यह बहुत थोड़े समय के लिए 100 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक का तापमान झेल सकता है, और 37 डिग्री सेल्सियस पर एक महीने तक भंडारित किया जा सकता है। इससे लगता है कि इस अणु को सुरक्षित रखने के लिए कोल्ड चैन की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

प्रसंगवश बता दें कि पिछले 70 सालों से भारत किसी प्रोटीन की संरचना या बनावट से उसके कार्यों के बारे में पता करने के क्षेत्र में अग्रणी रहा है। और आज भी है। उदाहरण के लिए, कैसे कोलेजन की तिहरी कुंडली संरचना, जिसे दिवंगत जी. एन. रामचंद्रन ने 1954 में खोजा था,से पता चल जाता है कि यह त्वचा और कंडराओं में क्यों पाया जाता है। यह त्वचा और कंडराओं को रस्सी जैसी मज़बूती प्रदान करता है। प्रो. रामचंद्रन ने यह भी बताया था कि किसी प्रोटीन के एमीनो एसिड अनुक्रम के आधार पर हम किस तरह यह अनुमान लगा सकते हैं कि वह कैसी त्रि-आयामी संरचना बनाएगा। इस समझ के आधार पर जैव रसायनज्ञ प्रोटीन के एमीनो एसिड अनुक्रम में बदलाव करके प्रोटीन से मनचाहा कार्य करवाने की दिशा में बढ़े।

उपरोक्त अध्ययन में भी शोधकर्ताओं ने यही किया है। उन्होंने अभिव्यक्ति के लिए RBD के खंड को ध्यानपूर्वक चुना, और दर्शाया कि परिणामी प्रोटीन ताप सहन कर सकता है। यह प्रोटीन संरचना के विश्लेषण और जेनेटिक इंजीनियरिंग की क्षमता की मिसाल है।

RBD प्रोटीन को काफी मात्रा में स्तनधारियों की कोशिकाओं में भी बनाया गया और पिचिया पैस्टोरिस (Pichia pastoris) नामक एक यीस्ट में भी। यह यीस्ट बहुत किफायती और सस्ता मेज़बान है। जब उन्होंने दोनों प्रोटीन की तुलना की तो पाया कि यीस्ट में बने प्रोटीन में बहुत अधिक विविधता थी, और जंतु परीक्षण में देखा गया यह वांछित एंटीबॉडी भी नहीं बनाता। उन्होंने RBD प्रोटीन को बैक्टीरिया मॉडल ई.कोली में भी बनाकर देखा, लेकिन इसमें बना प्रोटीन भी कारगर नहीं रहा।

बहरहाल, अब हमारे पास ताप-सहिष्णु RBD है, तो क्या इससे टीका बनाने की कोशिश की जा सकती है? एक ऐसा टीका जो एंटीबॉडी बनाकर वायरस के स्पाइक प्रोटीन को मेज़बान कोशिका के ग्राही से न जुड़ने दे और संक्रमण की प्रक्रिया को रोक दे? आम तौर पर प्रतिरक्षा विज्ञानी टीके (कोशिका या अणु) के साथ एक सहायक भी जोड़ते हैं। जब यह टीके के साथ शरीर में जाता है तो प्रतिरक्षा प्रणाली को उकसाता है और टीके की कार्य क्षमता बढ़ाता है। आम तौर पर इसके लिए एल्यूमीनियम लवण उपयोग किए जाते हैं।

शोधकर्ताओं ने अपने प्रारंभिक टीकाकरण के लिए गिनी पिग को चुना, क्योंकि माइस की तुलना में गिनी पिग सांस की बीमारियों के लिए बेहतर मॉडल माने जाते हैं। सहायक के रूप में उन्होंने MF59 के एक जेनेरिक संस्करण का उपयोग किया। MF59 मनुष्यों के लिए सुरक्षित पाया गया है। फिर गिनी पिग में RBD नुस्खा प्रविष्ट कराया। दो खुराक के बाद गिनी पिग में वांछित ग्राहियों को अवरुद्ध करने वाली एंटीबॉडी की पर्याप्त मात्रा दिखी। तो, यह काम कर गया।

वे बताते हैं कि कई अन्य समूहों ने RBD, या संपूर्ण स्पाइक प्रोटीन, या एंटीजन बनाने वाले नए आरएनए-आधारित तरीकों का उपयोग किया है। कोविड-19 के इन सारे टीकों (जो परीक्षण के विभिन्न चरणों में हैं) के लिए कोल्ड चैन की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन इस विशिष्ट ताप-सहिष्णु RBD खंड (और शायद अन्य RBD खंड भी) को कुछ समय के लिए सामान्य तापमान पर रखा जा सकता है।

शोधकर्ता अब जंतुओं में इसकी वायरस से संक्रमण के विरुद्ध सुरक्षा क्षमता की जांच कर रहे हैं और साथ ही साथ मनुष्यों पर नैदानिक परीक्षण करने के पहले इसकी सुरक्षा और विषाक्तता का आकलन कर रहे हैं। हम कामना करते हैं कि टीम को इसमें सफलता मिले।(स्रोत फीचर्स)

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मोटे लोगों में कोविड-19 अधिक घातक क्यों?

ब से कोविड-19 महामारी फैली है, कई अध्ययन बता चुके हैं कि कोविड-19 के गंभीर रूप से पीड़ित मरीज़ों में मोटापे से ग्रस्त लोगों की संख्या सबसे अधिक है। हाल में हुए कुछ अध्ययन भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि थोड़े से अधिक वज़न वाले लोगों में भी कोविड-19 के संक्रमण का अधिक जोखिम होता है। मसलन ओबेसिटी रिव्यू में प्रकाशित एक मेटा-विश्लेषण कहता है कि कोविड-19 के मरीज़ों में, सामान्य वज़न वाले लोगों की तुलना में मोटे लोगों के अस्पताल में भर्ती होने की संभावना 113 प्रतिशत अधिक, आईसीयू में पहुचंने की संभावना 74 प्रतिशत अधिक, और मृत्यु की संभावना 48 प्रतिशत अधिक थी।

वैसे तो, सामान्य वज़न वाले लोगों की तुलना में मोटापे के शिकार लोगों में दिल की समस्या, फेफड़े सम्बंधित समस्या और मधुमेह जैसी अन्य बीमारियां होने की संभावना अधिक ही होती है। ये बीमारियां अपने आप में ही कोविड-19 के जोखिम को बढ़ाती हैं। मोटे लोगों में चयापचय सिंड्रोम होने की संभावना भी रहती है, जिसमें रक्त शर्करा का स्तर, वसा का स्तर, या दोनों का स्तर असामान्य रहता है और उच्च रक्तचाप की समस्या हो जाती है जिससे जोखिम और बढ़ता है। लेकिन सिर्फ और सिर्फ मोटापे से शिकार लोगों में कोविड-19 अधिक गंभीर रूप ले सकता है। ऐसा मोटापे की वजह से शरीर की कुछ प्रणालियों पर पड़े प्रभाव के कारण होता है। इनमें प्रतिरक्षा तंत्र की दुर्बलता, खून के थक्के जमने की प्रवृत्ति शामिल हैं जो कोविड-19 को गंभीर बना सकती हैं।

दरअसल एक तो होता यह है कि पेट की अधिक चर्बी डायफ्राम को ऊपर धकेलती है जिसके कारण फेफड़ों पर दबाव पड़ता है और वायु प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। इससे फेफड़ों का आयतन कम हो जाता है और फेफड़ों के निचले हिस्से की वायु थैलियां बंद हो जाती हैं। फेफड़ों के ऊपरी हिस्से की तुलना में निचले हिस्से में ऑक्सीजन के लिए अधिक रक्त आता है, लेकिन मोटापे के कारण वहां वायु कम पहुंच रही होती है। ऐसे में कोविड-19 का संक्रमण तेज़ी से गंभीर रूप से ले लेता है।

इसके अलावा मोटे लोगों के रक्त में थक्का बनने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है, जो संक्रमण की गंभीरता में और अधिक इज़ाफा करते हैं। सामान्यत: रक्त वाहिकाओं की आंतरिक सतह की कोशिकाएं रक्त का थक्का ना बनने देने के संकेत देती हैं। लेकिन कोविड-19 का संक्रमण होने पर संभवत: वायरस इन कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त कर देते हैं, और रक्त को गाढ़ा करने वाला तंत्र सक्रिय हो जाता है।

मोटे लोगों का प्रतिरक्षा तंत्र भी कमज़ोर होता है। दरअसल, तिल्ली, अस्थि मज्जा और थाइमस जैसे अंगों में, जहां प्रतिरक्षा कोशिकाएं बनती हैं और सहेजी जाती हैं, वहां वसा कोशिकाएं घुसपैठ कर लेती हैं। फलस्वरूप प्रतिरक्षा ऊतकों की जगह वसा ऊतक ले लेते हैं, और प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या में कमी आती है प्रतिरक्षा प्रणाली कम प्रभावी हो जाती है। यह देखा गया है कि फ्लू का टीका दिए जाने के बाद भी सामान्य वज़न वाले लोगों की तुलना में मोटे लोगों में इसके संक्रमण की संभावना दोगुनी होती है। यानी कोविड-19 के टीकों के परीक्षण में मोटे लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि ये उन पर कम प्रभावी हो सकते हैं।

इसके अलावा मोटापे से शिकार लोग जीर्ण, निम्न स्तर की शोथ से पीड़ित रहते हैं। वसा कोशिकाएं शोथ पैदा करने वाले साइटोकाइन संदेशवाहक रसायन स्रावित करती हैं, और प्रतिरक्षा कोशिकाएं मृत वसा कोशिकाओं का सफाया करती हैं। ये दोनों मिलकर साइटोकाइन्स की गतिविधि को बेलगाम कर देते हैं जिसके कारण कोविड-19 का संक्रमण गंभीर रूप ले सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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