क्या कोविड टीकाकरण कार्यक्रम कारगर है?

विश्वभर में कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू हो गया है। वैज्ञानिको में इसके प्रभाव जानने की उत्सुकता है। इस्राइली शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक आकड़ों के अनुसार टीकाकृत लोगों के सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए जाने की संभावना गैर-टीकाकृत लोगों की अपेक्षा एक-तिहाई कम है। लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक टीकाकरण के व्यापक प्रभावों को स्पष्ट होने में अभी समय लग सकता है।

टीके के प्रभाव को आंकने के लिए कई कारकों का अध्ययन किया जा सकता है – टीका कितने लोगों को दिया गया है, रोग एवं संक्रमण को रोकने में टीके की प्रभाविता और संक्रमण प्रसार की दर वगैरह।

आबादी में सबसे अधिक टीका लगाने के मामले में इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात सबसे आगे हैं। इन दोनों देशों ने 20-20 लाख लोगों का टीकाकरण कर अपनी एक-चौथाई जनसंख्या का टीकाकरण कर दिया है। यूके और नॉर्वे जैसे देशों ने अपने टीकाकरण कार्यक्रम में उच्च-जोखिम वाले समूहों को लक्षित किया है। ब्रिटेन ने 40 लाख लोगों का टीकाकरण किया है जिसमें अधिकांश जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता, वृद्धजन और केयरहोम में रहने वाले लोग हैं। नॉर्वे ने नर्सिंग होम में रहने वाले 40,000 लोगों को टीका लगाया है।

इस्राइल ऐसा पहला देश है जिसने क्लीनिकल परीक्षण के बाहर टीकों के प्रभावों को रिपोर्ट किया है। इसमें फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा विकसित आरएनए आधारित टीके की दो खुराकों के शुरुआती परिणाम दर्शाए गए हैं। इनमें पता चला है कि टीके की एक खुराक संक्रमण को रोक सकती है या बीमारी की अवधि को कम कर सकती है। 60 वर्ष से अधिक आयु वाले दो-दो लाख टीकाकृत और गैर-टीकाकृत लोगों की तुलना में पाया गया कि पहली खुराक के दो सप्ताह के भीतर टीकाकृत लोगों में संक्रमण में 33 प्रतिशत की कमी आई। मैकाबी हेल्थकेयर सर्विसेस द्वारा किए गए एक अन्य विश्लेषण में इसी तरह के परिणाम मिले हैं।

क्लीनिकल परीक्षण में फाइज़र-बायोएनटेक टीका कोविड-19 को रोकने में 90 प्रतिशत प्रभावी पाया गया था। प्रारंभिक डैटा बताता है कि यह कुछ हद तक संक्रमण से सुरक्षा भी देता है। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोग वायरस फैलाते हैं या नहीं।

अधिकांश देश टीकाकरण में गंभीर रोग और मृत्यु के उच्च जोखिम वाले लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसे देशों में शुरुआती परिणामों का अनुमान अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीज़ों और मौतों की संख्या में कमी के आधार पर लगाया जा सकता है।

युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की जीव-सांख्यिकीविद नटाली डीन के अनुसार यदि टीके संक्रमण को रोकने में प्रभावी हैं तो इसका अप्रत्यक्ष लाभ (यानी गैर-टीकाकृत लोगों को लाभ) तभी देखा जा सकता है जब काफी लोगों को टीका लग जाए। जैसे इस्राइल में, जिसने अपनी जनसंख्या के बड़े हिस्से का टीकाकरण कर लिया है। कुछ अन्य क्षेत्रों में टीके के प्रभावी होने के संकेत उन विशेष समूहों में देखे जा सकते हैं जिनमें व्यापक टीकाकरण किया गया है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि नॉर्वे जैसे देशों में टीकों के प्रभाव का पता लगाना काफी मुश्किल होगा जहां पहले से ही वायरस को काफी हद तक नियंत्रित किया जा चुका है। लेकिन डीन के अनुसार टीकों के असर को अन्य उपायों (जैसे लॉकडाउन और सामाजिक दूरी) के प्रभावों से अलग करके परखना मुश्किल होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 संकट

क साल पहले तक बढ़ते पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में काफी चिंता थी; ज़रूरी कदम उठाने सम्बंधी युवा आंदोलन काफी ज़ोर-शोर से हो रहे थे। लेकिन कोविड-19 ने जलवायु संकट पर उठाए जा रहे कदमों और जागरूकता से लोगों का ध्यान हटा दिया। हकीकत में कोविड-19 और पर्यावरणीय संकट में कुछ समानताएं हैं। दोनों ही संकट मानव गतिविधि के चलते उत्पन्न हुए हैं, और दोनों का आना अनपेक्षित नहीं था। इन दोनों ही संकटों को दूर करने या उनका सामना करने में देरी से कदम उठाए गए, अपर्याप्त कदम या गलत कदम उठाए गए, जिसके कारण जीवन की अनावश्यक हानि हुई। अभी भी हमारे पास मौका है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करें, एक टिकाऊ आर्थिक भविष्य बनाएं और पृथ्वी पर बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता की रक्षा करें।

यह तो जानी-मानी बात है कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पिछले पांच वर्षों से स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के लैंसेट काउंटडाउन ने जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को मापने वाले 40 से अधिक संकेतकों का विवरण दिया है और उन पर नज़र रखी हुई है। साल 2020 में प्रकाशित लैंसेट की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी से सम्बंधित मृत्यु दर, प्रवास और लोगों का विस्थापन, शहरी हरित क्षेत्र में कमी, कम कार्बन आहार (यानी जिस भोजन के सेवन से पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो) और अत्यधिक तापमान के कारण श्रम क्षमता के नुकसान की आर्थिक लागत जैसे नए संकेतक भी शामिल किए गए। जितने अधिक संकेतक होंगे जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में उतने ही मददगार होंगे। जैसे वायु प्रदूषण के कारण होने वाला दमा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की चुनौतियां और कृषि पैदावार में कमी के कारण अल्प आहार, हरित क्षेत्र में कमी से बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों का जोखिम और 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में अधिक गर्मी का असर, जैसी समस्याओं को ठीक करने का सामथ्र्य स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता पर निर्भर करता है, और यह क्षमता स्वास्थ्य सेवाओं के लचीलेपन पर निर्भर करती है। इन दो संकटों के कारण हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पहले ही काफी दबाव में है।

लैंसेट काउंटडाउन में राष्ट्र-स्तरीय नीतियां दर्शाने वाले क्षेत्रीय डैटा को भी शामिल किया है। इस संदर्भ में लैंसेट काउंटडाउन की दी लैंसेट पब्लिक हेल्थ में एशिया की पहली क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, और ऑस्ट्रेलियाई एमजेए-लैंसेट काउंटडाउन की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। विश्व में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक और सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन की जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर बहुत मायने रखती है। रिपोर्ट बताती है कि बढ़ते तापमान के कारण बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। हालांकि 23 संकेतक बताते हैं कि कई क्षेत्रों में प्रभावशाली सुधार किए गए हैं, और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने की पहल भी देखी गई है। लेकिन इस पर चीन की प्रतिक्रिया अभी भी ढीली है।

जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले कारकों पर अंकुश लगाकर ज़ूनोटिक (जंतु-जनित) रोगों के उभरने और दोबारा उभरने को रोका जा सकता है। अधिकाधिक खेती, जानवरों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में बढ़ता मानव दखल ज़ूनोटिक रोगों से मानव संपर्क और उनके फैलने की संभावना को बढ़ाते हैं। विदेशी यात्राओं में वृद्धि और शहरों में बढ़ती आबादी के कारण ज़ूनोटिक रोग अधिक तेज़ी से फैलते हैं। जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय स्वास्थ्य निर्धारकों के रूप में इन कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

कोविड-19 और जलवायु संकट, दोनों इस तथ्य को और भी नुमाया करते हैं कि समाज के सबसे अधिक गरीब और हाशियाकृत लोग, जैसे प्रवासी और शरणार्थी लोग, हमेशा ही सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं और इसके प्रभावों की सबसे अधिक मार झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखें तो इस संकट से सर्वाधिक प्रभावित लोगों का योगदान इस संकट को बनाने में सबसे कम है। इस वर्ष की काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश इस बढ़ती असमानता के कारण होने वाली जीवन की क्षति को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता।

कोविड-19 के प्रभावों से निपटना अब राष्ट्रों की वरीयता बन गया है और जलवायु संकट के मुद्दों से उनका ध्यान हट गया है। जिस तत्परता से राष्ट्रीय सरकारें कोविड-19 से हुई क्षति के लिए आर्थिक सुधार की योजनाएं बना रहीं हैं और उन पर अमल कर रही हैं, उतनी ही तत्परता से जलवायु परिवर्तन और सामाजिक समानता के मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है। अब इन दोनों तरह के संकटों से एक साथ निपटना लाज़मी और अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

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प्रभाविता डैटा के बिना टीके को स्वीकृति

भारत के औषधि नियामक ने 3 जनवरी को दो कोविड-19 टीकों को मंज़ूरी दी है। प्रधान मंत्री ने इस फैसले को महामारी के विरुद्ध लड़ाई में निर्णायक बताया और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय की आत्म निर्भरता के प्रमाण के रूप में देखा। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस फैसले की आलोचना की है। इसमें विशेष रूप से भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन पर आपत्ति ज़ाहिर की जा रही है जिसकी प्रभाविता और सुरक्षा के तीसरे चरण के परिणामों की प्रतीक्षा किए बिना मंज़ूरी दी गई है।

भारत के औषधि महानियंत्रक वी.जी. सोमानी के अनुसार यह मंज़ूरी ‘पर्याप्त सावधानी’ के साथ प्रदान की गई है और इसका प्रभाविता अध्ययन जारी रहेगा। उद्देश्य यह है कि सार्स-कोव-2 के परिवर्तित रूप के खिलाफ बैक-अप सुरक्षा उपलब्ध रहे। युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित टीके को भी ‘सशर्त उपयोग’ की मंज़ूरी दी गई है और इसके भी क्लीनिकल परीक्षण जारी रखे जाएंगे।

कई वैज्ञानिक तीसरे चरण के डैटा के बिना टीके की स्वीकृति को गलत मानते हैं। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के दिशानिर्देशों के अनुसार किसी भी टीके को मंज़ूरी मिलने के लिए तीसरे चरण के परीक्षणों में कम से कम 50 प्रतिशत प्रभावी होना चाहिए। इस टीके को मंज़ूरी देने में इन दिशानिर्देशों को अनदेखा किया गया है।

इसके अलावा एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफ़ोर्ड से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के तहत सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित कोवीशील्ड टीके को मंज़ूरी देने में भी जल्दबाज़ी की गई है। कोविशील्ड को ब्राज़ील और यूके में तीसरे चरण के अध्ययन से प्राप्त डैटा के आधार पर मंज़ूरी मिली है। लेकिन सीडीएससीओ के दिशानिर्देशों के अनुसार यह जांच ज़रूरी है कि यह टीका भारतीय लोगों में कारगर है। ऐसा इसलिए आवश्यक है क्योंकि पूर्व में भी पोलियो और टाइफाइड के टीके पश्चिमी आबादी की तुलना में भारतीयों में कम असरदार साबित हुए हैं। सीरम इंस्टिट्यूट के अध्ययन के आंकड़ों का अभी तक पूरी तरह विश्लेषण नहीं किया गया है।    

फिलहाल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने अगस्त तक जन स्वास्थ्य एवं फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं से शुरू करते हुए देश की एक-चौथाई आबादी के टीकाकरण की योजना बनाई है। इसमें सीरम इंस्टिट्यूट ने फरवरी तक 10 करोड़ टीके प्रति माह की आपूर्ति करने का वादा किया है। इस बीच कोवैक्सीन को ‘बैकअप’ के तौर पर उपयोग करने की योजना है।

इसलिए दवा नियामक द्वारा कोवैक्सीन को मंज़ूरी देने में जल्दबाज़ी का कारण समझ नहीं आता। गौरतलब है कि भारत बायोटेक ने जब आवेदन किया था तब वह तीसरे चरण के परीक्षण में वालंटियर्स भर्ती कर ही रही थी। यह प्रक्रिया काफी धीमी है और फिलहाल कंपनी इस स्थिति में भी नहीं पहुंची है कि अंतरिम प्रभाविता का विश्लेषण किया जा सके।   

लेकिन भारत बायोटेक के प्रमुख कृष्णा एला इसे असामान्य नहीं मानते; वे रूस द्वारा विकसित स्पुतनिक वी और चीन द्वारा विकसित सायनोफार्म का हवाला देते हैं जिनको पहले और दूसरे चरण के पशु अध्ययन के आधार पर वितरित किया गया है। उन्होंने सभी टीका प्राप्तकर्ताओं की सुरक्षा के लिए निगरानी करने का दावा किया है। लेकिन यह दावा सिर्फ इस आधार पर है कि यह टीका निष्क्रिय वायरस से विकसित किया गया है जिसके सुरक्षित उपयोग का लंबा इतिहास है। कृष्णा के अनुसार पशुओं और मनुष्यों पर दूसरे चरण के परीक्षण के आधार पर टीके के प्रभावी होने की संभावना है।

इन सब के बाद भी कोवैक्सीन की सुरक्षा पर सवाल बना हुआ है। इसमें प्रतिरक्षा प्रक्रिया को बढ़ावा देने वाले घटक, एल्युमिनियम हायड्रॉक्साइड और इमिडाज़ोक्विनोलिनोन का उपयोग किया गया है जिन्हें पहले कभी इस्तेमाल नहीं किया गया है। ऐसे में इसकी सुरक्षा संदेहास्पद है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वैज्ञानिक दूसरे चरण में मापी गई प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं के आधार पर किसी टीके की प्रभाविता का अनुमान नहीं लगा सकते हैं।

कोवीशील्ड के तीसरे चरण के परिणामों के अंतरिम विश्लेषण में प्रभाविता 62 प्रतिशत पाई गई है। हालांकि कुछ अस्पष्टता के बाद भी इसे यूके और अर्जेन्टाइना में उपयोग के लिए अधिकृत किया गया है। भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ने एस्ट्राज़ेनेका के टीके से कोवीशील्ड की प्रतिरक्षा प्रक्रिया की तुलना करने के लिए 400 भारतीयों और सुरक्षा का परीक्षण करने के लिए 1200 भारतीयों पर अध्ययन करने का डिज़ाइन तैयार किया है। यह अंतरिम विश्लेषण सीडीएससीओ को संतुष्ट करने के लिए तो पर्याप्त है लेकिन इसके परिणाम सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। ऐसे में सम्मिलित लोगों की संख्या स्पष्ट नहीं है। यह भारतीय नियामक द्वारा नियम बनाने और स्वयं उन्हें तोड़ने का स्पष्ट उदाहरण है। (स्रोत फीचर्स)

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वायरस के नए रूप की लहर की संभावना

ए साल में सार्स-कोव-2 का नया संस्करण, ए.1.1.7, वैज्ञानिकों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। पिछले महीने दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड में पहली बार पहचाना गया यह संस्करण संभवत: इस महामारी को एक भयावह रूप में आगे बढ़ा सकता है।

वेलकम ट्रस्ट के प्रमुख जेरेमी फेरार चिंता जताते हैं कि अधिक तेज़ी से फैलने की क्षमता के कारण शायद ए.1.1.7 संस्करण विश्व स्तर पर इस महामारी का प्रमुख संस्करण बन जाएगा। उनको लगता है कि यह बीमारी की एक खतरनाक लहर पैदा करेगा। साल 2020 में थोड़ा अंदाज़ा मिलने लगा था कि यह महामारी किस दिशा में आगे बढ़ेगी लेकिन वायरस के इस नए संस्करण के फैलने से अब इस बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो गया है।

इस चिंता ने कुछ देशों में टीके की मंज़ूरी प्रक्रिया या टीके देने के तरीके को निश्चित करने की चर्चा को गति दे दी है ताकि जल्द से जल्द अधिकाधिक लोगों को सुरक्षा दी जा सके। लेकिन जिस तरह नया संस्करण अन्य देशों में प्रवेश कर रहा है, वैज्ञानिकों ने देश की सरकारों को मौजूदा नियंत्रण उपायों को भी मज़बूत करने की सलाह दी है। यू.के. ने तो और भी सख्त प्रतिबंध लगाने की घोषणा भी कर दी है जिसमें स्कूलों को बंद रखने और अत्यावश्यक परिस्थितियों में ही लोगों को घर से बाहर निकलने की अपील की गई है। अलबत्ता, कई देश अभी इस तरह के कदम उठाने में हिचक रहे हैं।

प्रतिबंध लगाते समय यू.के. के प्रधानमंत्री ने कहा था कि यह नया संस्करण 50-70 प्रतिशत अधिक तेज़ी से फैलता है, लेकिन शोधकर्ता इस बारे में कुछ भी कहने में सावधानी बरत रहे हैं। पिछले एक महीने में यू.के. में संक्रमण के मामले बढ़े तो हैं लेकिन देखा जाए तो मामले तब बढ़े हैं जब यू.के. के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न स्तर का प्रतिबंध लगा था, और लोगों के व्यवहार में बदलाव और क्रिसमस के समय क्षेत्रीय संक्रमण दर के कारण बनीजटिल स्थिति में नए संस्करण के प्रभाव को ठीक-ठीक पहचानना कठिन है।

फिर भी साक्ष्य बताते हैं कि ए.1.1.7 के स्पाइक प्रोटीन में हुए आठ परिवर्तनों सहित कई परिवर्तन इस वायरस की संक्रामकता को बढ़ाते हैं। पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड द्वारा किए गए एक विश्लेषण में पता चला है कि इंग्लैंड में ए.1.1.7 संस्करण से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए कुल लोगों में से लगभग 15 प्रतिशत लोग कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए जबकि अन्य संस्करणों से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए कुल लोगों में से 10 प्रतिशत लोग ही कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए।

जिन अन्य देशों में ए.1.1.7 संस्करण देखा गया है, यदि वहां भी इस संस्करण की लहर आती है तो यह इसका एक पुख्ता प्रमाण हो सकता है कि यह संस्करण तेज़ी से फैलता है। आयरलैंड में, जहां तेज़ी से संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, वहां डीएनए अनुक्रमित किए गए एक चौथाई मामलों में संक्रमण के लिए यही नया संस्करण ज़िम्मेदार पाया गया है। लेकिन युरोपीय संघ में सर्वाधिक अनुक्रमण करने वाले देश डेनमार्क ने अभी इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा है। यहां नियमित जांच में दर्जनों बार यह संस्करण दिखा है; दिसंबर की शुरुआत में अनुक्रमित जीनोम में इसकी आवृत्ति 0.2 प्रतिशत थी जो तीन सप्ताह बाद से 2.3 प्रतिशत हो गई। यदि अन्य देशों में भी मामले बढ़ने की प्रवृत्ति इसी तरह बनी रहती है तो यह एक स्पष्ट संकेत होगा कि यू.के. की तरह वहां भी इस संस्करण की लहर उभर सकती है जिसका सामना करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

अब तक इस संदर्भ में कुछ साक्ष्य मिले हैं कि नया संस्करण लोगों को कम बीमार करता है लेकिन यह कोई तसल्ली की बात नहीं है। किसी वायरस की प्रसार क्षमता में वृद्धि उसकी घातकता में वृद्धि की तुलना में अधिक चिंताजनक है क्योंकि इसके प्रभाव तेज़ी से बढ़ते हैं। मसलन, यदि किसी रोग की मृत्यु दर एक प्रतिशत है और वह लोगों में अधिक तेज़ी से फैलता है जिससे अधिक लोग प्रभावित होते हैं तो इस स्थिति में अधिक लोग मरेंगे बनिस्बत उस स्थिति के जिसमें किसी रोग की मृत्यु दर तो दो प्रतिशत हो लेकिन फैलता कम हो।

यदि वास्तव यू.के. में वायरस की प्रसार दर में 50-75 प्रतिशत की वृद्धि  हुई है तो वायरस को फैलने से रोकना बहुत कठिन होगा। संक्रमितों को अलग करके, उनके संपर्क में आए लोगों को पहचान कर क्वारेंटाइन करके और उनका परीक्षण करने जैसे उपाय कर वायरस की प्रसार दर को 2 से 1 पर लाया जा सकता है। लेकिन यदि मामले एक सीमा तक पहुंच जाते हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक भार पड़ता है तो ये कदम नाकाम जाएंगे। यानी सख्त उपाय ही नए संस्करण के प्रसार को रोकने में मदद कर सकते हैं।

पहले ही सार्स-कोव-2 के कई संस्करण उभर चुके हैं। अब, संक्रमण फैलने से रोककर हम वायरस के लिए और अधिक विकसित होने के अवसर भी कम कर सकते हैं। वायरस में कोई उत्परिवर्तन टीकों की प्रभाविता को भी खतरे में डाल सकता है। महामारी के पहले जैसी दुनिया, दिनचर्या के अनुभव के लिए हमें इस वायरस को रोकना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चीनी टीके के शानदार परिणाम, जानकारी नदारद

यू.एस. व भारत के बाद कोविड-19 के सबसे अधिक मामलों वाले ब्राज़ील में जल्द ही पहला टीका अधिकृत होने जा रहा है। ब्राज़ीली शोधकर्ताओं के अनुसार 12,000 स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर किए गए अध्ययन में चीनी कंपनी सायनोवैक द्वारा निर्मित टीका, कोरोनावैक, सुरक्षित तथा कोविड-19 के हल्के मामलों की रोकथाम में 78 प्रतिशत प्रभावकारी पाया गया। यह मध्यम और गंभीर बीमारी को पूरी तरह से रोकने के सक्षम पाया गया। 

इस परीक्षण के प्रायोजक, सरकारी टीका निर्माता बुटानन इंस्टीट्यूट ने सभी दस्तावेज़ जमा कर दिए हैं और जल्द ही स्वीकृति की उम्मीद करते हैं। गौरतलब है कि ब्राज़ील में एस्ट्राज़ेनेका और युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा निर्मित कोविड-19 टीके के प्रभाविता परीक्षण भी चल रहे हैं और जल्द ही स्वीकृति मिलने की संभावना है।

लेकिन कोरोनावैक टीके की अच्छी खबरों के बीच सम्बंधित डैटा की कमी ने ब्राज़ील के सहयोगियों को असमंजस में डाल दिया है। इससे पहले भी ब्राज़ील के शोधकर्ताओं ने टीके की सफलता की घोषणा तो की थी लेकिन तब भी उन्हें सटीक प्रभाविता डैटा प्रदान करने की अनुमति नहीं थी।

गौरतलब है कि कई देशों में अधिकृत अधिकांश टीके उन्नत तकनीक (जैसे mRNA या हानिरहित वायरल वेक्टर) पर आधारित हैं। एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा भी ऐसी ही तकनीक का उपयोग किया गया है जबकि सायनोवैक ने अधिक स्थापित तकनीक का उपयोग किया है। सायनोवैक द्वारा निर्मित टीका समूचे मगर दुर्बलीकृत कोरोनावायरस पर निर्भर है ताकि यह बीमारी का कारण न बने। दो mRNA आधारित टीकों ने हल्के रोग के विरुद्ध 95 प्रतिशत प्रभाविता दर्ज की है। लेकिन एक मत यह है कि टीके का मुख्य काम लोगों को गंभीर रोग से बचाने का होना चाहिए। मध्य पूर्वी देशों में किए गए परीक्षणों में सायनोफार्म के टीके ने भी लगभग ऐसे ही परिणाम दर्शाए हैं।

लेकिन सायनोवैक और सायनोफार्म ने अपने साझेदारों को बहुत कम जानकारी सार्वजनिक करने की अनुमति दी है। ब्राज़ीली शोधकर्ता केवल यह बता पाए कि कोरोनावैक की प्रभाविता 50 प्रतिशत से अधिक है, जो किसी भी टीके की स्वीकृति का अंतर्राष्ट्रीय मानक है। इसके अलावा संख्याओं के बारे में कोई जानकारी प्रदान नहीं की गई। पत्रकारों द्वारा सवाल करने पर मात्र यह बताया गया कि हल्की बीमारी के 218 मामले हैं लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि इनमें से कितने प्लेसिबो समूह के हैं और कितने टीका-प्राप्त समूह के। यह कहा गया कि टीका सभी आयु समूहों में प्रभावी है।

डैटा की कमी से काफी संदेह उत्पन्न होता है। अन्य कोविड-19 टीका निर्माताओं द्वारा भी प्रारंभिक प्रभाविता परीक्षण सम्बंधी घोषणाओं में कम ही जानकारी प्रदान की गई। परीक्षण आयोजित करने वाले शोधकर्ता एस्पर कैलस के अनुसार जांचकर्ताओं के पास भी पूरा डैटा उपलब्ध नहीं था।       कैलस के अनुसार ब्राज़ील की टीम और टीका निर्माता के बीच विवाद का कारण यह है कि क्या किसी मामले के पुष्ट मानने के लिए पीसीआर परीक्षण के अलावा कोविड-19 के एक-दो लक्षण भी दिखना चाहिए। तुर्की में कोरोनावैक का परीक्षण करने वाले शोधकर्ताओं को इस तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। क्योंकि डैटा जारी करने के बारे में सायनोवैक से कोई अनुबंध नहीं था। उनके डैटा में प्लेसिबो प्राप्त 570 प्रतिभागियों में से 26 और टीका प्राप्त 752 में से 3 कोविड-19 के मामले सामने आए (प्रभाविता 91.25 प्रतिशत)। (स्रोत फीचर्स)

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नोवावैक्स के टीके का परीक्षण अंतिम चरण में

नोवावैक्स कंपनी ने कोविड-19 के खिलाफ बनाए अपने टीके की प्रभाविता जांचने के लिए लंबे समय से प्रतीक्षित तृतीय चरण के मानव परीक्षण को यू.एस में जल्द ही शुरू करने की घोषणा की है। इसका तृतीय चरण का मानव परीक्षण युनाइटेड किंगडम में भी किया जाना है, जिसके लिए 15,000 से अधिक प्रतिभागियों ने नामांकन भी कर दिया है। यूके के परीक्षण परिणामों के आधार पर नोवावैक्स युरोपीय नियामक से अनुमोदन का आवेदन करेगी। अध्ययन के परिणाम अभी प्रतीक्षित हैं।

पर्याप्त मात्रा में टीका ना बना पाने के कारण कंपनी ने अमेरिका में बड़े स्तर पर प्रस्तावित अपना तृतीय चरण का मानव परीक्षण कई बार स्थगित किया था, लेकिन अब इसे शुरू करने की तैयारी में हैं। गौरतलब है कि नोवावैक्स कंपनी एक समय काफी संकट में थी, और नोवावैक्स को टीका तैयार करने के लिए अमरीकी सरकार और कोलीशन फॉर एपिडेमिक प्रीपेयर्डनेस इनोवेशन ने दो अरब डॉलर की राहत राशि दी है। द्वितीय चरण के परीक्षण में इस टीके के परिणाम आशाजनक थे। लेकिन कंपनी के टीका बनाने के इतिहास को देखें तो पिछले 30 सालों में कंपनी को किसी भी टीके के लिए अनुमोदन नहीं मिला है। तो क्या इस महामारी के टीके के लिए कंपनी अनुमोदन ले पाएगी?

नोवावैक्स द्वारा तैयार टीका प्रोटीन आधारित उन दो टीकों में से एक है जिस पर अमेरिकी सरकार ने अरबों डॉलर खर्च किए हैं, और जो प्रभाविता परीक्षण के चरण में पहुंचा है। इस टीके में सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन की प्रतिलिपियों के साथ सूक्ष्म लिपिड कण हैं। कोविड-19 के अन्य टीकों की तरह इस टीके के लिपिड में पॉलीमर पॉलीएथिलीन ग्लाइकॉल नहीं है, जो एलर्जी की होने की संभावना को हटाता है। इसकी बजाय इसमें प्रतिरक्षा बढ़ाने वाला यौगिक सैपोनिन है।

नोवावैक्स का यह प्लेसिबो-नियंत्रित परीक्षण अमेरिका के 108 स्थानों और मैक्सिको के सात स्थानों पर करने की योजना है जिसमें 30,000 प्रतिभागियों में से दो तिहाई प्रतिभागियों को वास्तविक टीके दिए जाएंगे।

कंपनी यह मानती है कि जब फाइज़र और बायोएनटेक द्वारा तैयार दो ऐसे टीके उपलब्ध हैं जिनकी प्रभाविता 90 प्रतिशत से अधिक पाई गई है और जिन्हें खाद्य और औषधि प्रशासन द्वारा आपातकालीन उपयोग के लिए मंज़ूरी भी प्राप्त है, तो संभव है कि लोग इस परीक्षण में नामांकन करने में हिचकें। कारण है कि लोग प्लेसिबो नियंत्रित परीक्षण में प्लेसिबो मिलने की संभावना का या नोवावैक्स के कम सुरक्षित होने की संभावना का जोखिम क्यों लेंगे।

वैसे नोवावैक्स की तैयारी है कि यदि किसी जगह पर प्रतिभागी ना मिलें तो वे परीक्षण दूसरे स्थान पर शुरू कर लें। हालांकि वे स्वीकारते हैं कि 30,000 प्रतिभागियों का नामांकन हासिल करना मुश्किल है। लेकिन कई परोपकारी लोग हैं जो बेहतर टीका तैयार करने में योगदान देना चाहते हैं। तो वे लोग तो इस परीक्षण में शामिल होंगे ही। ऐसे कई लोग नामांकन कर भी चुके हैं। लेकिन जैसे-जैसे समय निकलता जाएगा लोगों को शामिल करना और मुश्किल होता जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

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कीमोथेरपी – कैंसर का उपचार या सज़ा – ऋषि राज राय

साल 2020 में, लगभग आठ लाख भारतीयों समेत दुनिया भर में एक करोड़ सत्तर लाख से भी अधिक लोगों की मौत का कारण कैंसर होगा। भारत में, हर सत्रह महिलाओं में से एक महिला और हर पंद्रह पुरुषों में से एक पुरुष को कैंसर होने की संभावना है। भारत में लगभग हर दसवीं मौत और दुनिया भर में हर पांचवीं मौत कैंसर के कारण होती है।

कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसमें व्यक्ति की कोशिकाएं अनियंत्रित रूप से लगातार विभाजन कर वृद्धि करने लगती हैं। ऐसा क्यों होता है, यह समझने के लिए हमें दो प्रकार के जीन्स के बारे में जानना ज़रूरी है। पहला ओन्कोजीन और दूसरा ट्यूमर सप्रेसर जीन। ये दोनों किसी भी सामान्य मानव शरीर की हर कोशिका में मौजूद होते हैं। ओन्कोजीन हमारे शरीर की वृद्धि और मरम्मत में मदद करते हैं और ट्यूमर सप्रेसर जीन अन्य कार्य करने के साथ ही यह सुनिश्चित करते हैं कि ओन्कोजीन द्वारा होने वाली वृद्धि नियंत्रण में रहे।

अगर किसी उत्परिवर्तन के कारण ओन्कोजीन शरीर को ज़रूरत से ज़्यादा कोशिका वृद्धि करने का आदेश देने लगे या फिर ट्यूमर सप्रेसर जीन इसे नियंत्रित न कर सके तो कोशिकाओं की यही अनियंत्रित वृद्धि कैंसर का रूप ले लेती है। मज़े की बात तो यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र भी इन कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने में असमर्थ रहता है।

अब ऐसी निराली पर भयंकर बीमारी का क्या उपचार हो सकता है? कैंसर का पता चलने पर चिकित्सक कीमोथेरपी की सलाह देते हैं। कीमोथेरपी में कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए रसायनों का उपयोग किया जाता है। कीमोथेरपी का उद्देश्य कैंसर कोशिकाओं के प्रसार को नियंत्रित करना और किसी भी मौजूदा ट्यूमर को नष्ट करना है। यह अक्सर सर्जरी या विकिरण के साथ उपयोग किया जाता है। आम तौर पर सूई की मदद से नसों में रसायन डाला जाता है, लेकिन परिस्थिति अनुसार गोली के रूप में भी दिया जा सकता है।

कैंसर रोगी को प्राप्त होने वाले उपचारों का एक निर्धारित क्रम होता है। यह पूरी तरह से कैंसर के प्रकार और रोगी के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। कीमोथेरपी व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर दैनिक, साप्ताहिक या मासिक अंतराल पर दी जा सकती है। कई कैंसर ऐसे हैं जो कीमोथेरपी की बेहतर प्रतिक्रिया देते हैं। उदाहरण के लिए हॉजकिन लिम्फोमा और लिम्फोसाइटिक ल्यूकेमिया। ये बचपन में होने वाले कैंसर हैं।

कैंसर जितना ज़्यादा फैला होता है अक्सर उसका इलाज उतना ही अधिक कठिन होता है। कीमोथेरपी से कैंसर से ठीक होने की कोई गारंटी नहीं है। अलबत्ता, कई लोगों का जीवनकाल कीमोथेरपी और अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के कारण बढ़ा है और कुछ तो कैंसर मुक्त भी हुए हैं। चिकित्सक अपने रोगियों के लिए व्यक्तिश: कीमो उपचार भी बनाते हैं जिससे प्रभावशीलता ज़्यादा से ज़्यादा हो सके।

कीमोथेरपी न केवल तेज़ी से बढ़ती कैंसर कोशिकाओं को मारती है, बल्कि तेज़ी से बढ़ने व विभाजित होने वाली स्वस्थ कोशिकाओं (जैसे आपके मुंह और आंतों के ऊपरी सतह की कोशिकाएं) के विकास को भी धीमा कर देती है और कई बार तो इन स्वस्थ कोशिकाओं की मौत भी हो जाती है। स्वस्थ कोशिकाओं के नुकसान के कारण मुंह के घाव, उल्टी होना और बाल झड़ने जैसे लक्षण पैदा होते हैं। नाक, मुंह और जीभ की ऊपरी सतह पर मौजूद तंत्रिकाओं पर भी कीमोथेरपी का बुरा असर पड़ता है और कई शोधों ने यह भी दिखाया है कि कीमो से होने वाले इस नुकसान के कारण व्यक्ति की सूंघने और स्वाद लेने की क्षमता पर भी असर पड़ता है। आपने देखा ही होगा कि सर्दी-ज़ुकाम के कारण आपके सूंघने और स्वाद लेने की क्षमता खत्म या कम हो जाती है। ऐसा लंबे समय तक रहे और कुछ भी खाने का मन ना करे और ये सब भी तब जब शरीर कैंसर जैसी भयंकर बीमारी से लड़ रहा हो,तो कितना मुश्किल होता होगा उस इंसान का कैंसर से लड़ना। कीमोथेरपी में हुए शोध में यह भी देखा गया है कि कीमो की कुछ खुराकों के बाद रोगी की संज्ञान क्षमताओं (जैसे याददाश्त, एकाग्रता, पढ़ने-लिखने की क्षमता) पर भी बड़ा कुप्रभाव पड़ा। महिलाओं में मासिक धर्म के जल्दी बंद होने जैसे लक्षण भी देखे गए हैं।

अब आते हैं कीमोथेरपी के आर्थिक पक्ष पर। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन द्वारा जुलाई 2017-जून 2018 के दौरान किए गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कैंसर की देखभाल से जुड़ी तस्वीर चिंताजनक है। सर्वेक्षण में कैंसर के विभिन्न चरणों में 1200 रोगियों को या तो ज्ञात या फिर संदिग्ध लक्षणों के आधार पर शामिल किया गया। राष्ट्र स्तर पर एक कैंसर रोगी की देखभाल का औसत कुल खर्च 1,16,218 रुपए के आसपास था (निजी अस्पतालों में 1,41,774 रुपए जबकि सार्वजनिक अस्पतालों में 72,092 रुपए)। राज्यवार देखें तो भारत में कैंसर रोगी की देखभाल की कुल लागत ओडिशा में 74,699 रुपए से लेकर झारखंड में 2,39,974 रुपए तक है। ओडिशा, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, बिहार और हरियाणा में इलाज का कुल खर्च एक लाख रुपए से कम था। कैंसर के मरीज़ों को पंजाब, कर्नाटक, गुजरात,केरल, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में इलाज पर एक से डेढ़ लाख रुपए के बीच खर्च करना पड़ा। जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, असम, हिमाचल प्रदेश और झारखंड में कैंसर के इलाज में डेढ़ लाख से अधिक खर्चा दिखा।

ध्यान देने की बात यह है कि इस खर्च का ज़्यादातर हिस्सा रोगी या उसके परिवार को ही उठाना पड़ता है। इस खर्च का बड़ा हिस्सा दवा कंपनियों को जाता है। यानी यदि किसी को कैंसर हुआ तो वह किसी न किसी तरीके से कम से कम लाख रुपए तो दवा कंपनियों को दे ही देता है। लेकिन इतना दुख सहने और खर्चा करने के बाद कैंसर रोगी के ठीक होने की कितनी संभावना है? कुछ प्रचलित कैंसरों में कीमोथेरपी की सफलता दर तालिका में दी गई है।

आप देख सकते है कि यदि कैंसर का पहले चरण में पता चल जाए तब तो इतना कष्ट झेलकर और पैसे खर्च करके शायद जान बचाई जा सकती है, लेकिन कैंसर जितनी देर से पता चलता है, कीमोथेरपी उतनी ही बेअसर होने लगती है और रोगी की जान बचने की संभावना काफी कम हो जाती है और दुख-दर्द उतना ही बढ़ता है। लेकिन इसके अलावा कैंसर का और कोई ठोस उपचार भी नहीं है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 टीका: उम्मीद और असमंजस

कोविड-19 का टीका आने से कोरोना महामारी के परिदृश्य में काफी परिवर्तन आया है। टीकाकरण की प्रक्रिया शुरू होने से जहां एक उम्मीद जागी है वहीं असमंजस की स्थिति भी बनी हुई है।

सबसे पहले, चाइना नेशनल बायोटेक ग्रुप (सीएनबीजी) के प्रभाग बीजिंग बायोलॉजिकल प्रोडक्ट्स इंस्टीट्यूट ने अपने टीके के तीसरे चरण के परीक्षण में 79.34 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया और इसे पूरी तरह सुरक्षित बताया। कंपनी ने चीन की नियामक एजेंसियों से अनुमोदन की मांग की है। लेकिन इस दावे पर वैज्ञानिकों ने गंभीर आपत्ति जताई है। इसमें न तो प्रतिभागियों की संख्या के बारे में बताया गया है और न ही टीकाकृत एवं प्लेसिबो समूहों में कोविड-19 के प्रकोप के बारे में कोई जानकारी है। इसके अलावा परीक्षणों के स्थान के बारे में भी कोई चर्चा नहीं की गई है। तीन सप्ताह बाद संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) में हुए परीक्षण के बाद 86 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया गया है।

इसके बाद, यूके ने एस्ट्राज़ेनेका और युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के आपात उपयोग को मंज़ूरी दी। इस पर असमंजस ज़ाहिर किया गया क्योंकि शोधकर्ताओं ने विभिन्न जनसंख्या समूहों, टीकों की अलग-अलग खुराक और मुख्य एवं बूस्टर टीके के बीच अलग-अलग अंतराल के आंकड़े मिला दिए थे। आश्चर्य की बात थी कि यूके मेडिसिन एंड प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (एमएचआरए) ने कहा कि मुख्य खुराक के बाद बूस्टर 12 सप्ताह बाद भी दिया जा सकता है। कहा गया कि टीके की एक पूर्ण खुराक 73 प्रतिशत प्रभावी है। जबकि पूर्व में दी लैंसेट में प्रकाशित अध्ययन में दो खुराकों की प्रभाविता मात्र 62 प्रतिशत बताई गई थी। वैज्ञानिकों ने यह सवाल भी उठाया है कि एक खुराक से वास्तव में कितनी सुरक्षा मिलती है। इस संदर्भ में एमएचआरए के फैसले पर भी सवाल उठे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की डीन और जैव सांख्यिकीविद के अनुसार एमएचआरए द्वार यह फैसला जल्दबाज़ी में बिना किसी स्पष्टीकरण के लिया गया है। फिर भी टीकों की दो खुराक के बीच में अंतराल अधिक रहा तो अधिक लोगों को मुख्य खुराक तो मिल ही जाएगी। इससे गंभीर स्थिति और मृत्यु दर को कम किया जा सकेगा। सायनोफार्म तथा एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड दोनों टीकों के मामले में आंकड़ों का अभाव पारदर्शिता पर सवाल खड़े करता है।       

कोविड-19 टीकों की कमी तो है ही और संभावना है कि सायनोफार्म और एमएचआरए दोनों टीकाकरण की प्रक्रिया को गति देने का प्रयास करेंगे। गौरतलब है कि एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड के सहयोग से इस वर्ष एक अरब टीकों की खुराक विकसित होने की उम्मीद है। इसके अलावा सायनोफार्म के पास वर्तमान में 10 करोड़ खुराक उपलब्ध हैं और इस वर्ष एक अरब खुराकों के उत्पादन की संभावना भी है।

कई देशों में टीके की केवल एक खुराक देने पर चर्चा हो रही है जबकि टीकों का परीक्षण दो खुराकों के लिए किया गया है। एक ही खुराक देने के पीछे तर्क यह है कि काफी सारे लोगों में कुछ प्रतिरक्षा तो उत्पन्न हो जाए। ऑपरेशन वार्प स्पीड के प्रमुख वैज्ञानिक मोनसेफ सलोई बताते हैं कि एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके की पहली खुराक प्राप्त करने वालों ने मज़बूत प्रतिरक्षा विकसित नहीं की है। ऐसे में एक खुराक का फैसला जोखिम भरा हो सकता है।  

अमेरिका में भी फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना द्वारा निर्मित और स्वीकृत थ्र्ङग़्ॠ आधारित दो टीकों के संदर्भ में भी मुख्य व बूस्टर खुराक के बीच के अंतराल बढ़ाकर ज़्यादा लोगों को टीका देने की चर्चा हो रही है। वार्प स्पीड के तहत mRNA टीकों का आधा स्टॉक ही वितरित किया जा रहा है ताकि बूस्टर खुराक के लिए पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध रहें। वैज्ञानिकों ने अमेरिकी अधिकारियों को एकल खुराक को जल्द से जल्द शुरू करने का सुझाव दिया है। इसमें प्राथमिकता के आधार पर अतिसंवेदनशील लोगों को तय कार्यक्रम के तहत दो खुराक दिए जाने का प्रस्ताव है लेकिन सामान्य लोगों के टीकाकरण मानकों में ढील दी जा सकती है। वैज्ञानिक समुदाय की ओर से इस प्रस्ताव पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का आग्रह किया गया है।

कुछ वैज्ञानिक दो खुराकों के बीच के अंतराल को इच्छाधीन मानते हैं। महामारी के दबाव के कारण mRNA टीकों की खुराकों के अंतराल को अधिक सख्ती से लागू किया जा रहा था। सलोई के अनुसार एक तरीका यह है कि लोगों को आधी मात्रा ही दी जाए। मॉडर्ना टीके के डैटा से लगता है कि 55 वर्ष से कम उम्र के लोगों में आधी खुराक देने से ही मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है। उम्मीद है कि इस आयु वर्ग के लोगों के लिए टीके की आधी खुराक निर्धारित करके समय और टीकों दोनों की बचत की जा सकती है।

फिलहाल सीएनबीजी ने टीके का मूल्य निर्धारण नहीं किया है लेकिन चीनी अधिकारियों ने उचित मूल्य पर टीका उपलब्ध कराने का वादा किया है। एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड ने एक गैर-लाभकारी संस्था के ज़रिए प्रति खुराक तीन डॉलर (लगभग 220 रुपए) में बेचने की योजना बनाई है। हाल ही में स्वीकृत फाइज़र-बायोएनटेक और मॉडर्ना टीकों की लागत लगभग 10 गुना से भी अधिक है और ये कंपनियां इस वर्ष के अंत तक दो अरब खुराकों का उत्पादन करेंगी।  

दोनों टीके mRNA आधारित टीके हैं जिनको शून्य से भी कम तापमान पर रखना और परिवहन करना अनिवार्य है। इसके विपरीत एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीका हानिरहित एडेनोवायरस आधारित है, जबकि सायनोफार्म टीके में वायरस का निष्क्रिय संस्करण है इसलिए इनको सामान्य रेफ्रीजरेटर में भी रखा जा सकता है। वर्तमान में हज़ारों चीनी फ्रंट लाइन जन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं, शिक्षकों और सार्वजनिक परिवहन कर्मचारियों को आपात उपयोग के तहत सायनोफार्म टीके की खुराक मिल चुकी है। इसको यूएई और बाहरीन ने भी आपात उपयोग की अनुमति दी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना की चुनौतियों से जूझता विज्ञान जगत – चक्रेश जैन

विदा हो चुके वर्ष 2020 में कोविड-19 की विप्लवकारी चुनौतियों से वैज्ञानिक बिरादरी में चिंता व्याप्त रही। साल के पूर्वार्द्ध में दुनिया भर की सरकारों ने वैक्सीन के अभाव में ज़ोरदार जागरूकता अभियान चलाए, जिनके परिणामस्वरूप लाखों जाने बचीं। उत्तरार्द्ध में वैज्ञानिकों को वैक्सीन बनाने में मिली सफलता से लोगों ने राहत की सांस ली।

कोविड-19 महामारी का असर आर्थिक,सामाजिक,वैज्ञानिक,शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियों पर पड़ा और अधिकांश आयोजन रियल से वर्चुअल प्लेटफार्म पर शिफ्ट हो गए। विज्ञान प्रयोगशालाओं में शोध कार्यों और परियोजनाओं में रुकावट आ गई। विज्ञान सम्मेलनों, बैठकों और संगोष्ठियों की जगह वेबिनारों का दौर शुरू हो गया।

वर्ष 2020 विज्ञान जगत के इतिहास में कोरोनावायरस परिवार के सातवें सदस्य सार्स-कोव-2 की विनाशकारी सक्रियता के लिए याद रहेगा। अभी तक कोरोना वायरस परिवार में छह सदस्य (229 ई, एनएल 63, ओसी 43, एचकेयू1, सार्स-कोव और मर्स-कोव) थे।

साल अंत होते-होते ब्रिटेन में इसी वायरस का एक नया रूप (स्ट्रेन) सामने आ गया। बीते वर्ष कोविड-19 पर रिसर्च पेपर्स की बाढ़ आ गई और इसकी चुनौतियों से जूझने के लिए नवाचारों का विस्तार भी हुआ।

विज्ञान की प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस द्वारा वर्ष 2020 की टॉप टेन रिसर्च स्टोरीज़ में प्रथम स्थान कोरोनावायरस के विरुद्ध वैक्सीन की खोज और अनुसंधान कार्यों को मिला है। कोरोना परिवार का नया वायरस सार्स-कोव-2 अपने रिश्तेदारों की तुलना में कहीं अधिक संक्रामक साबित हुआ। यह वायरस चीन के वुहान प्रांत में संक्रमित लोगों के ज़रिए कई देशों में फैल गया। न्यूज़ीलैंड ने अपने देश में वायरस को नियंत्रित करके विश्व के सभी देशों को चकित कर दिया। न्यूज़ीलैंड की प्रधान मंत्री को इसके लिए नेचर ने 2020 के टॉप टेन व्यक्तियों की सूची में शामिल किया है। प्रथम स्थान विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक टेड्रोस एडहानोम गेब्रेयेसस को मिला है, जिन्होंने तत्परतापूर्वक इसे महामारी घोषित कर सरकारों को सचेत कर दिया।

मार्च में सबसे पहले लॉकडाउन का प्रस्ताव चीन की महामारी रोग विशेषज्ञ ली लंजुआन ने रखा था, जिसे चीन सहित कई देशों ने अपनाया। नेचर ने इस साल के दस विशिष्ट व्यक्तियों की सूची में ली लंजुआन को भी सम्मिलित किया है। इस सूची में नेचर ने चीनी वैज्ञानिक झांग योंग ज़ेन को भी स्थान दिया है जिनकी टीम ने सबसे पहले सार्स-कोव-2 का आरएनए अनुक्रम ऑनलाइन उपलब्ध कराया था।

गुज़रे साल कई देश सार्स-कोव-2 की वैक्सीन बनाने की स्पर्धा में शामिल रहे। आम तौर पर वैक्सीन विकसित करने में वर्षों लगते हैं और परीक्षण के तीन या चार चरणों से गुज़रना पड़ता है, लेकिन 11 अगस्त को ही रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पहली वैक्सीन तैयार करने की घोषणा की और पहला टीका उनकी पुत्री को लगाया गया।

इस वर्ष नीदरलैंड के कैंसर इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने मनुष्य के गले के ऊपरी हिस्से में नई लार ग्रंथियां खोजीं जिन्हें नासा-ग्रसनी (ट्यूबेरियल) लार ग्रंथियां नाम दिया गया है। इस नए अंग का पता प्रोस्टेट ग्रंथि के कैंसर पर रिसर्च के दौरान चला। वैज्ञानिकों का दावा है कि यह खोज कैंसर की चिकित्सा में मददगार होगी।

इसी वर्ष इस्राइल की तेल अवीव युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हेनेगुआ सालमिनिकोला परजीवी का पता लगाया, जिसमें माइटोकॉण्ड्रियल जीनोम नहीं मिला। यह पहला बहुकोशिकीय जीव है, जो पूरे जीवन ऑक्सीजन पर निर्भरता से मुक्त रहता है। इसे सांस लेने की आवश्यकता नहीं होती। अध्ययनों में यह भी पता चला कि इसका विकास माइटोकॉण्ड्रिया वाले जीवों की तरह हुआ था, लेकिन इसने धीरे-धीरे माइटोकॉण्ड्रिया गंवा दिया।

वैज्ञानिकों ने फास्ट रेडियो बर्स्ट (एफआरबी) का पता लगा कर बड़ी उपलब्धि हासिल की। दरअसल ये संकेत हमारी निहारिका (आकाशगंगा) के एक मैग्नेटर से आए थे। पहली बार 2007 में इन संकेतों को पकड़ा गया था, जो केवल कुछ मिलीसेकेंड तक ही दिखाई दिए थे। नेचर ने इसे टॉप टेन की सूची में सम्मिलित किया है।

वर्ष 2020 में नासा के सोफिया ने चंद्रमा की सतह पर मौजूद क्रेटर क्लेवियस में पानी के अणु की खोज की। क्लेवियस पृथ्वी से देखा जा सकने वाला गड्ढा है। यह चंद्रमा के दक्षिणी गोलार्द्ध पर स्थित है। यह खोज दर्शाती है कि पानी चन्द्रमा के सिर्फ छायादार स्थानों पर ही नहीं, कई स्थानों पर हो सकता है। अभी तक मान्यता थी कि चंद्रमा पर जल का तरल रूप नहीं है।

इस वर्ष जनवरी में विश्व के सबसे बड़े और शक्तिशाली सोलर टेलीस्कोप डेनियल के. इनोय की सहायता से असाधारण तस्वीर ली गई, जिसमें सूर्य की सतह मानव कोशिकाओं की संरचना की भांति दिख रही है। अनुसंधानकर्ताओं का दावा है कि इस तस्वीर की सहायता से आगे चलकर सूर्य की सतह के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। गैलीलियो टेलीस्कोप के बाद पृथ्वी से सूर्य के अध्ययन की दिशा में यह बहुत बड़ी छलांग है।

इसी महीने पार्कर सोलर प्रोब यान सूर्य के सबसे समीप पहुंचने वाला अंतरिक्ष यान बन गया। इसे नासा ने अगस्त 2018 में प्रक्षेपित किया था। यह सूर्य से मात्र एक करोड 87 लाख किलोमीटर की दूरी पर था। सूर्य से पृथ्वी की दूरी 15 करोड़ किलोमीटर है। सोलर प्रोब सूर्य की सबसे बाहरी सतह कोरोना के बारे में नई सूचनाएं भेजेगा।

इस वर्ष 15 नवम्बर को दुनिया का पहला निजी अंतरिक्ष यान स्पेस एक्स अमेरिका के कैनेडी अंतरिक्ष केंद्र से चार अंतरिक्ष यात्रियों को लेकर रवाना हुआ और 27 घंटे के सफर के बाद अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पहुंचा। अंतरिक्ष यात्रियों में तीन अमेरिका और एक जापान का है। यह स्पेस एक्स की दूसरी मानव सहित उड़ान है। यह नासा का पहला मिशन है, जिसमें अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजने के लिए किसी निजी अंतरिक्ष यान की सहायता ली गई है।

इसी साल 6 फरवरी को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री क्रिस्टीना कोच अंतरिक्ष में सबसे लंबे समय तक रहने वाली महिला का रिकॉर्ड अपने नाम कर सुरक्षित पृथ्वी पर लौट आईं। क्रिस्टीना कोच ने 328 दिन अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर गुज़ारे। उन्होंने छह बार अंतरिक्ष में चहलकदमी भी की। उन्होंने बिना किसी पुरुष सहयोगी के अंतरिक्ष में चहलकदमी करके एक नया अध्याय रचा।

अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के अंतरिक्ष यान ओसीरिस एक्स ने 20 अक्टूबर को चार वर्षों की लंबी यात्रा के बाद क्षुद्र ग्रह बेनू का स्पर्श किया। यान के रोबोटिक हाथ ने क्षुद्र ग्रह के नमूने एकत्रित किए। माना जाता है कि बेनू का निर्माण सौर मंडल के उद्भव के दौरान हुआ था। इससे वैज्ञानिकों को सौर मंडल की आरंभिक अवस्था को समझने में मदद मिलेगी। साथ ही उन तत्वों की पहचान करने में भी मदद मिलेगी, जिनसे पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति हुई। अंतरिक्ष यान ओसीरिस रेक्स को सितंबर 2016 में रवाना हुआ था।

गुज़रे साल के अंत में जापान का अंतरिक्ष यान हयाबुसा-2 पहली बार किसी क्षुद्र ग्रह पर उतर कर वहां से नमूने लेकर पृथ्वी पर लौटा। हयाबुसा-2 का प्रक्षेपण 2014 में किया गया था।

दिसंबर में चीन का चंद्रयान चांग ई-5 चंद्रमा की सतह से नमूने लेकर सफलतापूर्वक पृथ्वी पर लौट आया। इस अभियान की शुरुआत 2004 में हुई थी। पिछले चार दशकों में चीन दुनिया का पहला देश है, जिसने चंद्रमा के नमूने पृथ्वी पर लाने के प्रयास किए थे। इसी महीने चीन के लांग मार्च-8 रॉकेट ने पांच उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक विदाई दी।

वैज्ञानिकों ने मनुष्य में बुढ़ापे के जीन और उसे रोकने की प्रक्रिया के अनुसंधान में सफलता प्राप्त की। पत्रिका स्टेम सेल में प्रकाशित रिसर्च के अनुसार युनिवर्सिटी ऑफ विस्कॉन्सिन के डॉ. वॉन जू ली के अनुसार बुढ़ापा मेसेन्काइमल स्टेम कोशिकाओं (एमएससी) की गतिविधियों में कमी आने से होता है। नए शोध के अनुसार इसे दवाइयों और अन्य उपचारों के ज़रिए दूर किया जा सकेगा। इसके लिए कोशिकाओं की रिप्रोग्रामिंग की जाएगी।

इसी वर्ष सऊदी अरब की किंग अब्दुल्ला युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने सिंथेटिक त्वचा बना ली। इसकी विशेषता यह है कि यह अपने-आप रफू हो जाती है। इसे ई-स्किन नाम दिया गया है। सिंथेटिक त्वचा का उपयोग कृत्रिम अंगों के लिए भी किया जा सकता है।

माइकल फैराडे द्वारा बेंज़ीन की खोज के लगभग 200 वर्षों बाद रसायन विज्ञान के अनुसंधानकर्ताओं को इसकी जटिल इलेक्ट्रॉनिक संरचना को स्पष्ट करने में सफलता मिली। टिमथी श्मिट के नेतृत्व में वैज्ञानिक दल ने इसे सुलझाने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग का उपयोग किया था। 1930 के दशक से ही रसायन शास्त्र के अध्येताओं के बीच बेंज़ीन की आधारभूत इलेक्ट्रॉनिक संरचना को लेकर बहस होती रही है। हाल के वर्षों में बहस का महत्व और बढ़ गया था, क्योंकि नवीकरणीय ऊर्जा और दूरसंचार तकनीक में इसकी अहम भूमिका सामने आई है।

21 दिसंबर को शनि और बृहस्पति ग्रहों का दुर्लभ मिलन हुआ। इसे खगोल विज्ञान की बड़ी और ऐतिहासिक घटनाओं में शामिल किया गया। लगभग आठ सौ वर्ष बाद दोनों ग्रह एक-दूसरे के बहुत करीब दिखे थे। दो खगोलीय पिंडों के नज़दीक दिखने को ‘कंजंक्शन’ और शनि तथा बृहस्पति के इस तरह के मिलन को ‘ग्रेट कंजंक्शन’ कहते हैं। सन् 1623 में भी शनि और बृहस्पति एक-दूसरे के पास नज़र आए थे। बृहस्पति 12 वर्ष और शनि 29 वर्ष में सूर्य की परिक्रमा पूरी करता है। अब दोनों ग्रह साठ वर्ष बाद मार्च 2080 में पुन: इतने समीप दिखेंगे।

विदा हो चुके वर्ष में चीन के वैज्ञानिकों ने प्रकाश पर आधारित विश्व का पहला क्वांटम कंप्यूटर बनाने का दावा किया। यह पारंपरिक सुपर कंप्यूटर की तुलना में कई गुना तेज़ है। क्वांटम कंप्यूटर की मदद से कृत्रिम बुद्धि, चिकित्सा विज्ञान आदि क्षेत्रों में नई उपलब्धियां हासिल की जा सकेंगी।

वर्ष 2020 को राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पादप स्वास्थ्य वर्ष घोषित किया गया था, जिसका उद्देश्य पादप जगत एवं उसके संरक्षण के बारे में जागरूकता पैदा करना था।

विदा हो चुके साल में रोबोट का जन्मशती वर्ष मनाया गया। विज्ञान कथाओं में रोबोट शब्द और विचार 1920 में सामने आया था। पिछले दशकों में बुद्धिमान रोबोट बनाने की दिशा में जमकर अनुसंधान हुआ है। बुद्धिमान रोबोट बनाने में कृत्रिम बुद्धि की अहम भूमिका है। बुद्धिमान रोबोट के आगमन ने मनुष्य के सामने अवसरों और अस्तित्व की नई चुनौती खड़ी कर दी है।

वर्ष 2020 के विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों में अमेरिका का वर्चस्व रहा। रसायन विज्ञान के इतिहास में पहली बार यह सम्मान महिला वैज्ञानिकों के खाते में पहुंचा। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए वैज्ञानिक हार्वे जे. आल्टर, चार्ल्स एम. राइस तथा माइकल हाटन को प्रदान किया गया। फिज़िक्स का नोबेल ब्लैक होल के रहस्यों की शानदार व्याख्या के लिए रॉजर पेनरोज़, राइनहार्ड गेनज़ेल और एंड्रिया गेज़ को दिया गया। रसायन शास्त्र का नोबेल इमैनुएल शार्पेची और जेनिफर ए. डाउडना को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। इन्होंने जीन संपादन तकनीक क्रिस्पर कास-9 विधि की खोज में विशेष योगदान किया है।

वर्ष 2020 में अमेरिकी विज्ञान कथा लेखक और जैव रसायनविद आइज़ैक एसीमोव की जन्मशती मनाई गई। उन्होंने लोकप्रिय विज्ञान की अनेक किताबें लिखी हैं तथा आई रोबोट सहित कई फिल्में भी बनाई हैं।

इसी वर्ष फरवरी में कंप्यूटर में जाने-माने ‘कट-कॉपी-पेस्ट’ कमांड के आविष्कारक लैरी टेस्लर का 74 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने कंप्यूटर के यूज़र इंटरफेज़ के विकास में अहम भूमिका निभाई थी। दिसंबर में संचार के क्षेत्र में वायरलेस कंप्यूटर नेटवर्क के जनक नार्मन अब्राामसन का निधन हो गया। उन्हें प्रारंभिक वायरलेस नेटवर्क एएलओएच नेट बनाने का श्रेय जाता है।

विलक्षण गणितज्ञ और नासा की महिला वैज्ञानिक कैथरीन कोलमैन गोबल जॉनसन का 24 फरवरी को 101 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष यात्राओं पर ले जाने और सुरक्षित वापसी के लिए अपनी बेजोड़ विशेषज्ञता का परिचय दिया था। उन्हें नासा लूनर आर्बिटर और 1997 में वर्ष का गणितज्ञ सम्मान मिला था।

अलविदा हो चुके वर्ष में ईरान के न्यूक्लियर साइंटिस्ट मोहसिन फखरीजादेह की उपग्रह द्वारा नियंत्रित हथियारों से हत्या कर दी गई। फखरीजादेह को ईरान के परमाणु कार्यक्रम की सबसे बडी शक्ति माना जाता था।

विज्ञान जगत की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों और विश्लेषणकर्ताओं के अनुसार विदा हो चुके वर्ष 2020 में मूल विज्ञान की कोख से निकली प्रौद्योगिकी अथवा प्रयुक्त विज्ञान का समाज में वर्चस्व और विस्तार दिखाई दिया और मूलभूत विज्ञान हाशिए पर रहा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बदले हुए वायरस से खलबली

ठ दिसंबर को दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड स्थित केंट में अचानक कोविड-19 के मामलों में उछाल ने जन स्वास्थ्य विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया। इनमें आधे से अधिक मामले ऐसे रोगियों के थे जिनमें सार्स-कोव-2 का एक विशिष्ट संस्करण पाया गया था। युनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंगहैम के सूक्ष्मजीव-जीन विज्ञानी निक लोमन के अनुसार यह नया संस्करण उपलब्ध डैटा से काफी अलग था, जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था।

दो हफ्ते से भी कम समय में नए संस्करण ने ब्रिटेन और युरोप के अन्य स्थानों पर खलबली मचा दी। इस कारण सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन (B.1.1.7) को फैलने से रोकने के लिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने सख्त लॉकडाउन की घोषणा तक कर दी। इस घोषणा के बाद से नीदरलैंड, बेल्जियम, इटली के अलावा भारत ने भी फिलहाल यूके से यात्री उड़ानों को रोक दिया है।

वैज्ञानिक मनुष्यों में B.1.1.7 की संक्रामकता का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि इस नए स्ट्रेन में इतनी जल्दी 17 उत्परिवर्तन हो चुके हैं। इन उत्परिवर्तनों की प्रकृति की खोजबीन जारी है। 

गौरतलब है कि शोधकर्ताओं ने अन्य वायरसों की तुलना में सार्स-कोव-2 पर काफी अधिक अध्ययन किया है। निष्कर्ष यह है कि इस वायरस की उत्परिवर्तन दर एक या दो उत्परिवर्तन प्रति माह है। यानी जनवरी में चीन में प्राप्त शुरुआती जीनोम से आज के जीनोम में 20 विभिन्न बिंदुओं पर परिवर्तन हुए हैं। लेकिन कम परिवर्तनों वाले कई संस्करण भी उपस्थित हैं। वैज्ञानिकों ने किसी वायरस में एक बार में एक दर्जन से अधिक उत्परिवर्तन पहली बार देखे हैं। उनका मानना है कि यह किसी व्यक्ति में लंबे समय तक बने रहे संक्रमण के कारण हुआ होगा जिससे वायरस को तेज़ी से विकसित होने की गुंजाइश मिली होगी।

वायरस में हुए 17 उत्परिवर्तनों में से 8 तो उस जीन में हुए हैं जो वायरस के स्पाइक प्रोटीन का कोड है। इनमें से दो उत्परिवर्तन विशेष रूप से चिंताजनक हैं। एक है N501Y जो मानव कोशिकाओं के ACE2 प्रोटीन ग्राही से ज़्यादा मज़बूती से जुड़ जाता है और दूसरा 69-70del है जिसमें स्पाइक प्रोटीन में दो अमीनो अम्लों का लोप हुआ है। यह उन वायरस में पाया गया है जो दुर्बल प्रतिरक्षा वाले रोगियों की प्रतिरक्षा प्रक्रिया से बचकर निकल गए।

शुरुआती जानकारी से यह पता चला है कि यूके में वायरस के अन्य संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 काफी तेज़ी से फैलता है। गौरतलब है कि एक आरटी-पीसीआर परीक्षण (Taqpath) सामान्य रूप से तीन जीनों का पता लगाता है। लेकिन पीसीआर परीक्षण 69-70del संस्करण वाले वायरसों को नहीं भांपता और यह केवल दो जीन को ही खोज पाता है। इस लिहाज़ से इस परीक्षण से B.1.1.7 को ट्रैक करने में मदद मिल सकती है।

यूके के मुख्य विज्ञान सलाहकार पैट्रिक वालेंस के अनुसार नवंबर में सामने आए कुल मामलों में से 26 प्रतिशत B.1.1.7 की वजह से हुए थे लेकिन 9 दिसंबर तक 60 प्रतिशत से अधिक मामलों में नया संस्करण पाया गया। अनुमान है कि इस उत्परिवर्तन के कारण वायरस की संक्रामकता में 70 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है।

हालांकि, कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि उपलब्ध जानकारी के आधार पर B.1.1.7 की संक्रामकता के बारे में निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। गौर करने वाली बात है कि इस नए संस्करण में एक अन्य वायरल जीन (ORF8) में भी परिवर्तन हुआ है जो वायरस के फैलने की क्षमता को कम करता है।

चिंता की बात यह भी है कि दक्षिण अफ्रीका के तीन प्रांतों में वायरस के स्पाइक जीन में N501Y उत्परिवर्तन पाया गया है। युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ुलु-नैटल के वायरस विज्ञानी तूलियो डी ओलिवेरा के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में पाया गया यह संस्करण काफी तेज़ी से फैल रहा है।

यह भी कहा जा रहा है कि B.1.1.7 के कारण गंभीर रूप से बीमार होने की संभावना है। अफ्रीका सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार दक्षिण अफ्रीकी संस्करण युवाओं को अधिक प्रभावित कर रहा है। लेकिन स्पष्ट निष्कर्ष के लिए और डैटा की आवश्यकता है। 

इस विषय में निश्चित उत्तर मिलने में काफी समय लग सकता है। फिलहाल एक रोगी में 69-70del उत्परिवर्तन के साथ एक अन्य उत्परिवर्तन D796H भी पाया गया है जो उस व्यक्ति में कई महीनों से मौजूद था और जिसके इलाज के लिए प्लाज़्मा दिया जा रहा था। हालांकि उस रोगी की मृत्यु हो गई लेकिन पाया गया कि दो उत्परिवर्तन वाला यह वायरस प्लाज़्मा उपचार के प्रति असंवेदनशील है। इस उत्परिवर्तन के कारण यह वायरस दुगना संक्रामक हो जाता है। इस मामले में और अध्ययन किए जा रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि B.1.1.7 पहले ही काफी बड़े पैमाने पर फैल चुका है। नीदरलैंड के शोधकर्ताओं ने दिसंबर माह की शुरुआत में ही एक रोगी में वायरस का यह संस्करण पाया था। कई वैज्ञानिक अन्य देशों में भी इस संस्करण के पैदा होने की संभावना व्यक्त करते हैं। हो सकता है कि यूके में यह पहले इसलिए पता चला क्योंकि वहां सार्स-कोव-2 जीनोम की निगरानी करने के परिष्कृत उपकरण मौजूद हैं। ऐसी भी संभावना है कि B.1.1.7 की विकास प्रक्रिया की शुरुआत कहीं और हुई हो।

अब टीके बाज़ार में आने लगे हैं। तो वायरस के विभिन्न संस्करणों पर टीकों का दबाव बनेगा। ऐसी स्थिति में संभावना है कि वे संस्करण ज़्यादा बचे रहेंगे और संख्यावृद्धि करेंगे जो टीके को झेल जाते हैं। यानी वायरस के टीका-रोधी संस्करणों का प्रसार बढ़ सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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