जानलेवा बीमारियों के विरुद्ध जंग में रुकावट बना कोविड

मार्च 2020 में भारत में तालाबंदी के बाद से टीबी जैसी जानलेवा बीमारी में प्रतिदिन रिपोर्टेड मामलों में 70 प्रतिशत की कमी देखी गई। एक ऐसी बीमारी जिससे प्रति वर्ष 14 लाख लोगों की मृत्यु होती है उसमें अचानक इतनी गिरावट आना हैरत की बात है। लेकिन वर्तमान में कोविड-19 के चलते चिकित्सा संसाधनों का फोकस टीबी के निदान तथा उपचार से हट गया है। ऐसे में टीबी के संचरण में वृद्धि होने की आशंका है क्योंकि टीबी निकट संपर्क से फैलता है और लोग घरों में बंद हैं।

इस वर्ष मार्च में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बयान जारी किया है कि वैश्विक स्तर पर टीबी का इलाज प्राप्त करने वालों की संख्या में 10 लाख से अधिक की गिरावट आई है। संगठन का अनुमान है कि पिछले वर्ष सामान्य से पांच लाख अधिक लोगों की टीबी से मौत हुई है।

कोविड-19 के कारण तालाबंदी से खसरा, पोलियो, मेनिन्जाइटिस और कई टीकाकरण अभियान भी रोक दिए गए। इस तरह से लाखों बच्चों पर जानलेवा रोगों का खतरा बढ़ गया है जिनको टीकाकरण से रोका जा सकता था। इस दौरान कई स्वास्थ्य सुविधाओं और स्वास्थ्य कर्मचारियों को महामारी से लड़ने के काम में लगाया गया। इसके साथ ही आवश्यक दवाओं और उपकरणों के आयात-निर्यात में भी विलंब हुआ और कोविड-19 के डर से सामान्य से कम लोग क्लीनिकों पर इलाज के लिए गए।    

वर्तमान में विश्लेषक ऐसी बीमारियों के प्रभाव का अनुमान लगा रहे हैं जिन्हें महामारी के दौरान अनदेखा किया गया है। इसके लिए शोधकर्ता कुछ अप्रत्यक्ष उपाय अपना रहे हैं। इनमें विशेष रूप से उन बच्चों की गणना की जा रही है जिनका टीकाकरण नहीं हुआ है या फिर निदान नहीं हो सका है या फिर कुछ मॉडलों का सहारा लिया जा रहा है। अनुमान है कि कोविड-19 के प्रत्यक्ष प्रभाव की तुलना में अधिक हानि इन बीमारियों की अनदेखी से होगी जो लंबे समय तक बनी रहेगी। सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश होंगे जिनके स्वास्थ्य तंत्र पहले से ही नाज़ुक स्थिति में हैं।

टीबी की विस्फोटक स्थिति

पिछले वर्ष, वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक मौतों के लिहाज़ से कोविड-19 टीबी से आगे निकल गया। लेकिन कम और मध्यम आय वाले देशों में टीबी अभी भी सबसे आगे है। टीबी एक बैक्टीरिया से फैलता है जो फेफड़ों को संक्रमित करते हुए धीरे-धीरे पीड़ित की जान ले लेता है। देखा जाए तो विश्व भर में दो अरब लोगों में छिपा हुआ टीबी बैक्टीरिया उपस्थित है जिसे उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली नियंत्रित कर रही है। इनमें से 5-10 प्रतिशत व्यक्तियों में उनके जीवनकाल में टीबी के सक्रिय होने की संभावना है। हालांकि, 100 वर्ष पुराना बीसीजी टीका बच्चों में टीबी के गंभीर रूपों को विकसित होने से तो रोक सकता है लेकिन यह संक्रमण को रोकने में सक्षम नहीं है।          

टीबी से निपटने के लिए छह माह तक इलाज की आवश्यकता होती है। दवा-प्रतिरोधी किस्मों के मामलों में यह अवधि दो वर्ष तक हो सकती है। ऐसे में चिकित्सकों का ध्यान टीबी से हटकर कोविड-19 की ओर जाना काफी चिंताजनक है। वर्तमान महामारी के दौरान विश्व भर में संक्रामक श्वसन रोग से निपटने में सक्षम कुछ टीबी अस्पतालों को भी परिवर्तित कर दिया गया। क्लीनिक पहुंचने और दवाइयां खरीदने में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। स्टॉप टीबी पार्टनरशिप और अन्य द्वारा विकसित मॉडल के अनुसार तीन माह की तालाबंदी के बाद यदि टीबी सेवाओं को सामान्य होने में 10 माह लगते हैं तो विश्व भर में 2020 से 2025 के दौरान टीबी के 63 लाख अतिरिक्त मामले हो सकते हैं और लगभग 14 लाख अतिरिक्त लोगों की मृत्यु हो सकती है।    

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2019 की तुलना में वर्ष 2020 में टीबी के 21 प्रतिशत (14 लाख) कम लोगों को स्वास्थ्य सेवा मिल पाई। इस आधार पर पांच लाख से अधिक लोगों की मृत्यु की आशंका है। हालांकि, भारत ने टीबी कार्यक्रमों को पुन:स्थापित करने का प्रयास किया है लेकिन पूर्व-कोविड समय की तुलना में 12 प्रतिशत कम मामलों का निदान कर पाया है।  

स्टॉप टीबी पार्टनरशिप के डिप्टी कार्यकारी निदेशक सुवानंद साहू के अनुसार ठोस प्रयासों और वित्तीय सहायता से टीबी सेवाओं पर पड़ने वाले बुरे प्रभावों को कम किया जा सकता है। भारत में फिलहाल टीबी रोगियों को एक बार में एक माह की दवाइयां दी जा रही हैं ताकि उन्हें बार-बार क्लीनिक न जाना पड़े। पूर्व में स्वास्थ्य कार्यकर्ता रोगियों को प्रत्येक खुराक अपने सामने देते थे, यह काम अब वीडियो के माध्यम से किया जा रहा है। कुछ टीबी केंद्रों में कोविड-19 और टीबी दोनों के लिए ही परीक्षण किए जा रहे हैं। इसके अलावा सक्रिय मामलों को खोजने के लिए अस्पतालों में बैठकर प्रतीक्षा करने की बजाय समुदाय के बीच जाकर रोगियों की पहचान के प्रयास किए जा रहे हैं।

खसरा का खतरा

महामारी से पहले 2019 में वैश्विक स्तर पर खसरा के लगभग 8.7 लाख मामले थे। इसमें 2.1 लाख लोगों की मृत्यु भी हुई जिनमें अधिकांश बच्चे थे। यह कई दशकों का सर्वोच्च स्तर रहा। इसका कारण पैसे की कमी से जूझ रही स्वास्थ्य प्रणाली है जो सामान्य टीकाकरण और टीकाकरण अभियान को चलाने के लिए जूझती रही है। वास्तव में खसरा अत्यंत संक्रामक वायरस से फैलता है जिससे अतिसार, देखने या सुनने की क्षति, निमोनिया और मस्तिष्क ज्वर जैसी समस्याएं हो सकती हैं। कुपोषण के साथ मिलकर यह गरीब देशों के अनुमानित 3-6 प्रतिशत संक्रमित लोगों की जान ले लेता है। 

मार्च 2020 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सभी सामूहिक टीकाकरण अभियानों पर रोक लगाने को कहना एक झटका था। अप्रैल तक कई देशों ने इन अभियानों को अचानक से रद्द या स्थगित कर दिया। हालांकि, संगठन ने कुछ सुरक्षात्मक नियमों के साथ इन्हें दोबारा शुरू करने का निर्देश दिया लेकिन 24 देशों में यह काम शुरू नहीं हो पाया है। वैज्ञानिकों को लगता है कि 2021 में यही स्थिति बनी रहेगी। 

देखा जाए तो अभी वैश्विक खसरा के मामले काफी कम हैं। 2020 में लगभग 89,000 मामले कम पाए गए। कुछ हद तक इसका कारण खसरा की निगरानी में कमी हो सकता है और यह भी हो सकता है कि 2019 में खसरा के बहुत अधिक मामलों के कारण प्राकृतिक प्रतिरक्षा निर्मित हो गई हो। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार तालाबंदी के कारण यात्राओं पर प्रतिबंध और शारीरिक दूरी से खसरा वायरस के प्रसार में कमी आने की भी संभावना है।

फिर भी खसरा विशेषज्ञ इसे तूफान के पहले की शांति के रूप में देखते हैं। अभियानों में विलंब से खसरा का खतरा बढ़ता रहेगा। जिस प्रकार कोविड-19 प्रतिबंधों में ढील देने से वायरस पुन: फैल गया है उसी तरह से खसरा का वायरस भी असुरक्षित आबादी पर ज़ोरदार हमला कर सकता है। यदि देशों ने सावधानी नहीं बरती तो जल्दी ही एक बड़ा प्रकोप आ सकता है।   

इसका एक उदाहरण 2014-15 का इबोला प्रकोप है जिसके दौरान खसरा टीकाकरण को अनदेखा कर दिया गया था। सबसे अधिक प्रभावित देशों में से लाइबेरिया और गिनी में 2014 और 2015 में खसरा टीकाकरण में मासिक 25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई थी। हालांकि टीकाकरण अभियान 2015 में फिर से शुरू कर दिए गए लेकिन फिर भी इन दो देशों में खसरा के हज़ारों मामले उभरे जो इबोला महामारी के खत्म होने के दो या तीन साल बाद तक जारी रहे।        

वर्तमान महामारी में इथियोपिया पहला ऐसा बड़ा देश है जिसने खसरा टीकाकरण के अभियान को जारी रखा है। कई अंतर्राष्ट्रीय संगठन इसे विश्व के अन्य देशों के लिए मॉडल के रूप में देखते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन को चाड में एक बड़े प्रकोप की आशंका है जबकि यहां जनवरी में टीकाकरण अभियान पुन: शुरू हो चुका है। अभी भी गिनी, गैबन, अंगोला और केन्या जैसे देश यदि इस वर्ष के मध्य तक टीकाकरण अभियान शुरू नहीं करते हैं तो इन्हें बड़ी महामारी झेलनी पड़ सकती है।   

पोलियो का झटका

तीन दशकों से चला आ रहा पोलियो उन्मूलन अभियान कोविड-19 महामारी से पहले ही पिछड़ रहा था और महामारी ने स्थिति को और बदतर बना दिया है। 2019 और 2020 में पाकिस्तान और अफगानिस्तान में प्राकृतिक पोलियोवायरस के स्थानीय मामलों में वृद्धि हुई। हालांकि, अफ्रीका प्राकृतिक पोलियोवायरस से तो मुक्त हो चुका है लेकिन टीका-जनित पोलियो के स्ट्रेन अभी भी वहां व्याप्त हैं। ऐसी दुर्लभ परिस्थिति तब बनी जब ओरल टीके में प्रयुक्त जीवित परंतु कमज़ोर वायरस उत्परिवर्तित होकर ऐसे स्ट्रेन में परिवर्तित हुआ जो बिना टीकाकृत समुदायों में फैल सकता है और लकवा से पीड़ित करने की क्षमता पा सकता है। पिछले वर्षों की तुलना में प्राकृतिक और टीका-जनित स्ट्रेन से लकवा के मामले काफी अधिक पाए गए हैं। 2019 में कुल 554 मामलों की तुलना में 2020 में 1216 मामले पाए गए। जो 2018 की तुलना में काफी अधिक थे।      

गौरतलब है कि पिछले वर्ष मार्च में जिनेवा स्थित ग्लोबल पोलियो इरेडिकेशन इनिशियेटिव (जीपीईआई) ने व्यापक टीकाकरण अभियानों को विराम देते हुए अपने निगरानी कार्यक्रमों और प्रयोगशालाओं को कोविड-19 के विरुद्ध लड़ाई में लगा दिया था। इस दौरान 28 देशों में 60 से अधिक अभियान स्थगित किए गए। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के अध्ययन के अनुसार यदि इन अभियानों को पुन: शुरू नहीं किया जाता है तो पोलियो के मामलों में काफी तेज़ी से वृद्धि होगी। इस दौरान पाकिस्तान और अफगानिस्तान में प्राकृतिक पोलियोवायरस उन क्षेत्रों में भी फैल गया जो पूर्व में पोलियो मुक्त थे। फिर भी इन दोनों देशों में लकवे के कुल मामले 2019 में 176 से घटकर 2020 में 140 हो गए। लेकिन इस अंतराल में, पाकिस्तान में टीका-जनित पोलियोवायरस के कारण लकवे के मामले 2019 में 22 से बढ़कर 2020 में 135 हो गए। इस स्ट्रेन ने अफगानिस्तान में प्रवेश करते हुए लगभग 308 बच्चों को लकवे से ग्रसित कर दिया। यही स्ट्रेन अब ताज़िकिस्तान में देखा जा रहा है।  

अफ्रीका में विश्व स्वास्थ्य संगठन पोलियो उन्मूलन के समन्वयक पास्कल मकंदा के अनुसार टीका-जनित स्ट्रेन अफ्रीका में आसानी से फैल जाता है। वर्ष 2019 में कुल मामले 328 से बढ़कर 2020 में 500 से अधिक हो गए। इसके अलावा यह वायरस अफ़्रीकी महाद्वीप से कूदकर छह अन्य देशों में फैल गया जिससे प्रभावित देशों की कुल संख्या 18 हो गई। वैसे, एक नए टीके को पिछले वर्ष नवंबर में मंज़ूरी दी गई है जिसके परिणामों की प्रतीक्षा है।

वर्तमान में विश्व स्वास्थ्य संगठन की प्राथमिकता पाकिस्तान और अफगानिस्तान में तेज़ी से फैल रहे टीका-जनित पोलियोवायरस को रोकने के साथ-साथ प्राकृतिक पोलियोवायरस को भी खत्म करना है। फिलहाल सभी देशों में पोलियो टीकाकरण अभियानों को तेज़ करने के प्रयास चल रहे हैं। इसके अलावा जीपीईआई को उन्मूलन के प्रयासों से जुड़ी समस्याओं से भी निपटना होगा। पाकिस्तान में टीके की सुरक्षा से जुड़ी अफवाहों के कारण पोलियो कार्यकर्ताओं की हत्या तक कर दी गई जबकि अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा पोलियो टीकाकरण पर प्रतिबंध लगाने से लगभग 33 लाख बच्चों को टीका नहीं लग पाया। इन दिनों अफ्रीका में अफवाह आम है कि पोलियो टीकाकरण अभियान का उपयोग करते हुए अफ्रीकी बच्चों पर गिनी पिग के रूप में कोविड-19 टीकों का परीक्षण किया जा रहा है। 

फिर भी वैज्ञानिकों का मानना है कि टीकाकरण अभियानों को पुन: शुरू करने से पिछले कुछ महीनों में काफी गिरावट आई है। अभी के लिए, कई देशों का ध्यान पूर्ण रूप से कोविड-19 की ओर है जबकि खसरा, पोलियो और टीबी को ठंडे बस्ते में डाला हुआ है। इथियोपिया और भारत जैसे देश पहले से ही इन समस्याओं पर कार्य कर रहे हैं। वैज्ञानिक भी इन समस्याओं पर ध्यान केंद्रित करने की उम्मीद रखते हैं क्योंकि इन बीमारियों से सम्बंधित मामले और मौतें कोविड-19 से भी अधिक हैं। बहरहाल जब महामारी को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई है और कोविड-19 टीके अभी जारी ही हुए हैं, इन बीमारियों को बड़े स्तर पर अनदेखा किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 2 – विनीता बाल और सत्यजीत रथ

परजीवी और प्रतिरक्षा तंत्र की जुगलबंदी

फल घुसपैठ के लिए परजीवी अलग-अलग रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं। तो इन रणनीतियों का जवाब देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र को किस तरह से काम करना पड़ता है?

क्या शरीर में परजीवियों के अलग-अलग अड्डे हैं?

पिछले लेख में हमने कहा था कि लक्ष्य को पहचान लेने के बाद प्रतिरक्षा तंत्र को परजीवियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली विविध रणनीतियों के जवाब में अपनी रणनीतियों को भी निर्धारित करना होता है। तो सवाल यह उठता है कि क्या परजीवियों द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली रणनीतियों को कुछ प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है? उसी से यह तय होगा कि प्रत्युत्तर के उपलब्ध प्रकार क्या होंगे। और इस सवाल का जवाब है – हां, मोटे तौर पर रणनीतियों के प्रकार पहचाने जा सकते हैं।

आवास-भोजन के अड्डे

याद कीजिए कि हमने पिछले हिस्से में यह बात की थी कि बहुकोशिकीय जीवों में श्रम विभाजन के चलते पौष्टिक पर्यावरण मौजूद होता है। ऐसे परिवेश में मुफ्तखोरों के लिए कितने संभव अड्डे (पारिस्थितिक निशे) पहचाने जा सकते हैं? ज़ाहिर है, पहला तो पोषण का वह समंदर स्वयं है जो सारी कोशिकाओं के आसपास भरा होता है। कोई परजीवी मज़े से इस तालाब में पड़ा रह सकता है और निशुल्क भोजन प्राप्त करके जीवनयापन कर सकता है। कई बैक्टीरिया संक्रमण (जैसे निमोनिया पैदा करने वाला न्यूमोकॉकस या मुहांसे पैदा करने वाला स्टेफिलोकॉकस) इसी कोशिका-बाह्य रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। ये कोशिकाओं को भूखा मार देते हैं और ऐसा कचरा उत्पन्न करते हैं जो कोशिकाओं के ‘वातावरण’ को विषैला कर देता है।

कोशिका के अंदर के अड्डे

कशेरुकी जंतुओं के शरीर में लुटेरों के लिए दूसरा पारिस्थितिक निशे कोशिकाओं के बीच की जगह में नहीं बल्कि उनके अंदर होता है। बहु-कोशिकीय जीवों की कोशिका रचना के मद्देनज़र इस रणनीति में दो मुख्य प्रकार संभव हैं।

कोशिका के अंदर जाकर परजीवी उसके अलग-अलग अंगकों में बस सकता है। ये अंगक शेष कोशिका से झिल्ली के द्वारा पृथक रहते हैं। या फिर वे इन झिल्लियों की बाधा को पार करके सीधे कोशिका द्रव्य में अड्डा जमा सकते हैं।

अंगकों में अड्डा

परजीवियों के लिए कोशिकीय अंगकों में प्रवेश पाना आसान है – कोशिकाएं अपने नियमित रख-रखाव की प्रक्रिया के दौरान अपनी कोशिका झिल्ली को बदलती रहती हैं। इस प्रक्रिया में पुरानी झिल्ली का टुकड़ा एक बुलबुले के रूप में कोशिका के अंदर ले लिया जाता है। उस स्थान पर नई झिल्ली बन जाती है और पुरानी झिल्ली को ठिकाने लगाने के लिए भेज दिया जाता है। इस प्रकिया में उस बुलबुले के साथ थोड़ा बाहरी तरल पदार्थ कोशिका के अंदर पहुंच जाता है। इस प्रक्रिया को पिनोसायटोसिस (कोशिका-पायन) कहते हैं। परजीवी को बस इतना करना है कि जब यह बुलबुला बने तब झिल्ली पर उसी जगह पर बैठा रहे और बुलबुले (पिनोसोम) में प्रवेश कर जाए। बाकी काम कोशिका कर ही देगी यानी वह बुलबुला कोशिका के कचरा निपटान अंगक में पहुंचा दिया जाएगा। इस प्रक्रिया में वे अंगक सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं जिनके ज़रिए पिनोसोम का परिवहन किया जाता है। वैसे कोई कण (जैसे बैक्टीरिया) इस बुलबुले में हो तो यह बुलबुला काफी बड़ा हो जाता है और इसे पिनोसोम की बजाय फैगोसोम कहते हैं। इन दोनों का एक नाम एंडोसोम भी है। तो बैक्टीरिया वगैरह एंडोसोम में सवारी करके कोशिका के अंगक में पहुंच जाते हैं।

ऐसे कीटाणु कभी-कभी कोशिका की झिल्ली पर आणविक खरोंच मारकर ऐसे एंडोसोम का बनना प्रेरित भी कर सकते हैं। यानी कोशिका के एंडोसोम में दाखिल होना कीटाणुओं के लिए खेल जैसा ही है।

लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया एंडोसोम की अंतिम मंज़िल तो कचरा निपटान व्यवस्था है – अर्थात ये एंडोसोम जाकर एक अंगक लायसोसोम से जुड़ जाते हैं जिसमें खूब सारे एंज़ाइम भरे होते हैं। यह कोशिका के अंदर ठिकाना ढूंढने आए किसी भी परजीवी के लिए अच्छी बात नहीं होगी। इसलिए यह रणनीति अपनाने वाले परजीवियों के लिए इस दुखांत से निपटने की रणनीति बनाना ज़रूरी होगा। और यह काम वे कई तरह से करते हैं।

उनमें से कुछ हैं (जैसे टीबी का कीटाणु) जो इतना मोटा और वसीय आवरण ओढ़ लेते हैं कि एंज़ाइम्स उन तक पहुंच ही नहीं पाते और वे मज़े में इस कहावत को चरितार्थ करते हैं – कुत्ते भौंकते रहते हैं हाथी चलता रहता है। टायफॉइड के कीटाणु जैसे कुछ अन्य हैं, जो उस बुलबुले पर कब्ज़ा कर लेते हैं और या तो उसका रास्ता बदल देते हैं अथवा संघटन बदल देते हैं ताकि वह लायसोसोम के साथ जुड़ ही न पाए। इस तरह वे नष्ट होने से बच जाते हैं। एक तीसरा विकल्प भी है जिसे पेचिश के कीटाणु जैसे कीटाणु अपनाते हैं – वे उस बुलबुले में एक छेद करके बाहर निकलकर कोशिका द्रव्य में पहुंच जाते हैं।

ऐसे चतुर घुसपैठियों का सबसे अधिक खतरा किन कोशिकाओं के लिए होता है? ज़ाहिर है, सबसे अधिक खतरा उन कोशिकाओं को होता है जो भक्षण करना पसंद करती हैं, जिन्हें सामान्यत: फैगोसाइट्स कहते हैं। और विडंबना यह है कि इन्हीं फैगोसाइट्स को यह ज़िम्मेदारी सौंपी गई है कि वे घुसपैठियों को तलाश करें और खा जाएं। अधिकांश घुसपैठिए तो आसानी से खाए जाकर पच जाते हैं। लेकिन ऊपर हमने जिन चकमा तरकीबों की बात की, उनके दम पर कुछ परजीवी इन कोशिकाओं को परास्त करके उन्हें ही संक्रमित कर देते हैं। हालांकि फैगोसाइट कोशिकाओं में पोलीमॉर्फोन्यूक्लियर न्यूट्रोफिलिक और इस्नोफिलिक ग्रेनुलोसाइट्स (रक्त में उपस्थित) के नाम भी शामिल हैं लेकिन ये कोशिकाएं अल्पजीवी होती हैं और इन्हें संक्रमित करने से परजीवी को पनाह पाने में कोई खास मदद नहीं मिलती। इस तरह से संक्रमित होने वाली कोशिकाओं में मोनोसाइट-मैक्रोफेज समूह की कोशिकाएं प्रमुख हैं और हम आगे देखेंगे कि मेज़बानों ने ऐसी रणनीतियां विकसित की हैं जो मैक्रोफेज को इन घुसपैठियों से लड़ने में मदद करती हैं।

कोशिका द्रव्य में अड्डे

ऊपर हमने जिन दो अड्डों (कोशिकाओं के बाहर और कोशिका के अंदर) की बात की उनका उपयोग बैक्टीरिया, प्रोटोज़ोआ अथवा फफूंद जैसे स्वतंत्र-जीवी जीव करते हैं। ये जीव किसी कोशिका के अंदर रहते हुए भी सिर्फ पनाह और भोजन की तलाश में होते हैं। अत: ये विकल्पी अंतरा-कोशिका परजीवी हैं – अर्थात इन्हें जीवित रहने के लिए कोशिका के अंदर रहना ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए, इन्हें कोशिका से बाहर पोषक माध्यम में पनपाया जा सकता है।

बहरहाल, परजीवियों का एक समूह ऐसा भी है जिसने मुफ्तखोरी की कला को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है – ये तभी ‘जीवित’ होते हैं जब इन्हें कोई कोशिका मिल जाए। ये वायरस हैं जो अनिवार्य रूप से अंतरा-कोशिकीय परजीवी हैं। ये तब तक लगभग अक्रिय कणों के रूप में पड़े रहते हैं जब तक कि वे किसी कोशिका में न घुस जाएं। लेकिन एक बार कोशिका में घुस जाएं, तो ये मेज़बान कोशिका की जीवन प्रक्रियाओं पर कब्ज़ा कर लेते हैं और उनका उपयोग नए वायरस बनाकर मुक्त करने के लिए करने लगते हैं ताकि वे अन्य कोशिकाओं को संक्रमित कर सकें। इस दौरान वे मेज़बान कोशिका को नुकसान पहुंचाते हैं। लिहाज़ा वे चाहे सीधे कोशिका झिल्ली के ज़रिए प्रवेश करें या फैगोसोम के ज़रिए प्रवेश करें, वायरस झिल्ली में छेद करके कोशिका द्रव्य में पहुंच जाते हैं। कोशिका द्रव्य में पहुंचकर वे मेज़बान कोशिका की प्रोटीन-निर्माण मशीनरी पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं। कुछ वायरस ढेर सारे वायरस कण बनाते हैं और कोशिका को फोड़कर उन्हें मुक्त कर देते हैं। अन्य वायरस नए-नए वायरस कण बनाकर उन्हें मेज़बान कोशिका की झिल्ली से मुकुलन के ज़रिए एक-एक करके बाहर भेजते रहते हैं। इस मामले में मेज़बान कोशिका अंदर से तहस-नहस होकर तिल-तिल करके मरती है।

तो इन रणनीतियों से प्रतिरक्षा तंत्र कैसे निपटता है।

कोशिका-बाह्य स्थान की सुरक्षा

चलिए परजीवियों की एक-एक रणनीति पर चर्चा करते हैं। जो कीटाणु कोशिका के बाहर उपस्थित पोषक तालाब में रहते हैं, उनके लिए यह तरीका कारगर रहेगा कि कुछ अणु बनाए जाएं तो रक्त परिसंचरण में तैरते रहें और कीटाणुओं को पहचानकर उन पर जानलेवा हमला कर दें। यह तरीका काफी बढ़िया है और अकशेरुकी जंतुओं में भी काम करता है। स्तनधारियों में ऐसे अणुओं में एक्यूट-फेज़ प्रोटीन्स, कॉम्प्लीमेंट, एंटीबॉडीज़ और कुछ अन्य तत्व शामिल होते हैं। ये सब कीटाणु की सतह पर उपस्थित किसी चीज़ की पहचान करते हैं, उससे जुड़ जाते हैं और या तो स्वयं ही उसे मार डालते हैं अथवा अन्य अणुओं/कोशिकाओं (जैसे फैगोसाइट्स) की मदद लेते हैं ताकि कीटाणु को खत्म किया जा सके।

संक्रमित बुलबुले या कोशिकाएं

दिक्कत यह है कि कोशिका-बाह्य तरल में विचरते उपरोक्त प्रतिरक्षा अणु कोशिकाओं के अंदर नहीं जा सकते क्योंकि कोशिकाओं में बाहर से अंदर और अंदर से बाहर के यातायात को सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। लिहाज़ा, कोशिका-अंतर्गत परजीवी अपने सुरक्षित स्वर्ग में बैठकर बाहर विचरते प्रतिरक्षा अणुओं का मुंह चिढ़ाते रहते हैं। इन ओझल खतरों के बारे में शरीर क्या करे?

यदि ये परजीवी मैक्रोफेज के अंदर एंडोसोम में विराजमान हैं, तो शरीर संक्रमित कोशिकाओं पर इनके पदचिंहों की मदद से इन्हें पहचान सकता है और फिर ‘हेल्पर’ कोशिकाएं संक्रमित मैक्रोफेज को निर्देश दे सकती हैं कि वह अपने एंडोसोम का परिवहन तेज़ कर दे और अपने एंज़ाइमी शस्त्रों को इस तरह बढ़ाए कि परजीवी की शामत आ जाए।

लेकिन यह तरीका भी तभी कारगर होगा जब परजीवी अंगक बुलबुले में बैठा हो। मेज़बान कोशिका उस बुलबुले की कुर्बानी दे सकती है और साथ में परजीवी की भी। नए अंगक तो देर सबेर बन ही जाएंगे। लेकिन यदि परजीवी कोशिका द्रव्य में बैठा है, तो कोशिका लाचार हो जाती है – उसे परजीवी के साथ-साथ अपना कोशिका द्रव्य भी नष्ट करना होगा। इसका मतलब तो हाराकिरी होगा। यहां अधिक से अधिक की भलाई का सिद्धांत अपनाया जाता है और पहचानी गई संक्रमित कोशिका को परजीवी को नष्ट करने में मदद की बजाय दोटूक निर्देश दिया जाता है कि वह खुद मर जाए। दरअसल, अधिकांश कोशिकाओं में खुदकुशी का एक जेनेटिक निर्देश पत्र उपस्थित होता है। इसे पूर्व-निर्धारित कोशिका मृत्यु या एपोप्टोसिस कहते हैं।

हालांकि अपनी ही कोशिका को मारना थोड़ा अतिवादी कदम लगता है लेकिन कोशिका द्रव्य के संक्रमण के अंतिम अवशेष खत्म करने के लिए प्राय: इस उपाय को अपनाया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि किसी कोशिका में संख्यावृद्धि करते वायरस कण उस कोशिका को फोड़कर बाहर निकलकर अन्य कोशिकाओं को संक्रमित करने वाले हैं, तो शायद एंटीबॉडी व अन्य अणुओं के लिए यह संभव तो है कि वे इन कणों को कैद करके अन्य कोशिकाओं तक न पहुंचने दे। लेकिन किसी भी संक्रमित कोशिका से बड़ी संख्या में वायरस निकलेंगे और यदि एक भी वायरस प्रतिरक्षा अणुओं से छूट गया तो वह पूरा चक्र फिर से शुरू कर देगा। इसके अलावा, कुछ वायरस संक्रमित कोशिका को नष्ट नहीं करते बल्कि उसकी सतह से एक-एक, दो-दो करके वायरस छोड़ते रहते हैं। इसका मतलब होगा कि बाहर एंटीबॉडी उन्हें खत्म करती जाएंगी और अंदर का भंडार बना रहेगा, धीरे-धीरे वायरस छोड़ता रहेगा। ऐसी स्थिति में एकमात्र कारगर तरीका यह लगता है कि संक्रमित कोशिका को पहचान कर मार दिया जाए, इसके पहले कि नए वायरस कण परिपक्व होकर बाहर निकल पाएं। ऐसे में यदि कोशिका मरती है तो संक्रमण बाहर नहीं आएगा। आगे हम बात करेंगे कि प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमित कोशिकाओं को पहचानने के कौन-से तरीके इस्तेमाल करता है।

फिलहाल यही कह सकते हैं कि प्रतिरक्षा तंत्र को मुख्य रूप से यह चिंता करनी है कि तरल पदार्थ में तैरते-विचरते ‘टर्मिनेटर’ अणु कैसे बनाए जाए, संक्रमित मैक्रोफेज को पहचानकर उन्हें सक्रिय करने के लिए हेल्पर कोशिकाएं कैसे बनाए और मारक कोशिकाएं कैसे बनाए जो संक्रमित कोशिकाओं को पहचानकर उन्हें खुदकुशी करने का फरमान सुनाएं। क्लोनल एकरूप और क्लोनल विविधरूपी, दोनों तरह की लक्ष्य-पहचान क्रियाविधियों में इन तीनों के तरीके विकसित हुए हैं हालांकि दोनों की लक्ष्य पहचान की रणनीतियां बहुत अलग-अलग हैं।

अगले अंक में यह चर्चा करेंगे कि आखिर प्रतिरक्षा तंत्र नीली छतरी के नीचे हर चीज़ को कैसे पहचान पाता है। यह फैसला तो और मुश्किल होता है कि इनमें से किस रास्ते को सक्रिय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक महिला की कोशिकाओं पर बरसों से शोध – ऋषि राज राय

जकल ज़्यादातर दवाइयां-टीके बनाने, एचआईवी के परीक्षण, कोशिकाओं में संपन्न क्रियाओं व उनसे जुड़े सिद्धांत एवं कई अन्य बीमारियों को समझने के लिए वैज्ञानिक प्रयोगशाला में मानव कोशिकाओं का संवर्धन करते हैं। वैज्ञानिकों को कैंसर जैसी जटिल बीमारी को समझने तथा शोध करने के लिए ऐसी कोशिकाओं की ज़रूरत पड़ती है, जो लगातार समरूपता के साथ विभाजित होती रहें ताकि कृत्रिम परिस्थिति में उन कोशिकाओं की मदद से बीमारियों की उत्पत्ति, बीमारियों की क्रियाविधि और इलाज के विभिन्न तरीके खोजे जा सकें।

वैज्ञानिकों को समरूपी कोशिकाओं की ज़रूरत इसलिए भी पड़ती है क्योंकि उन्हें एक तरह के प्रयोग बार-बार दोहराने पड़ते हैं और अपने नतीजों की तुलना दूसरे वैज्ञानिकों के अवलोकनों के साथ करनी पड़ती है। परंतु 1951 तक वैज्ञानिकों के पास ऐसा कोई कोशिका-वंश नहीं था जो वर्षों तक पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक जैसी समरूप कोशिकाओं को जन्म दे सके। जो कोशिका-वंश उपलब्ध भी थे या जिन्हें बनाने की कोशिश की गई थी उनकी कोशिकाएं ज़्यादा से ज़्यादा एक-दो दिन में मर जाती थीं और उनका अध्ययन करना मुश्किल होता था।

हेनरीटा लैक्स

फिर संयुक्त राज्य अमरीका के जॉन हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक जॉर्ज गे की प्रयोगशाला में अजीबो-गरीब दिखने वाले ट्यूमर का एक नमूना आया। यह ट्यूमर कुछ हल्के बैंगनी रंग का, जेली जैसा चमकदार था। यह नमूना इसलिए भी कुछ खास था क्योंकि इसकी कुछ कोशिकाएं लगातार विभाजित होते हुए समरूपी कोशिकाओं को जन्म दे रहीं थीं। उन्होंने देखा कि जब कोई पुरानी कोशिका मरती है तो उसके जैसी ही कोशिका की प्रतियां उसकी जगह ले लेती हैं। इससे हुआ यह कि उसी कोशिका की संतानें आज तक मौजूद हैं और उनकी मदद से कई शोध कार्य भी हो रहे हैं।

डॉ. गे की एक प्रयोगशाला सहायक ने इस अमर कोशिका का नाम ‘हेला’ (HeLa) रखा। हेला नाम हेनरीटा लैक्स नामक कैंसर पीड़ित महिला के नाम पर रखा गया था जिनके ट्यूमर से डॉ. गे ने इस कोशिका-वंश की खोज की थी। हेनरीटा लैक्स का जन्म संयुक्त राज्य के वर्जीनिया में हुआ था और वे तम्बाकू के खेत में काम किया करती थीं। हुआ यह कि लैक्स जिस चिकित्सक के यहां इलाज करवा रही थीं, वे डॉ. गे की प्रयोगशाला के लिए कैंसर के ऊतकों के नमूने इकट्ठा कर रहे थे। बरसों से डॉ. गे और उनकी नर्स पत्नी मार्गरेट मानव कोशिकाओं को कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में पनपाने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन बाकी वैज्ञानिकों की तरह इनके द्वारा संवर्धित कोशिकाएं कुछ पीढ़ियों तक विभाजित होने के बाद मर जाती थीं। लैक्स की मौत गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से हुई थी और उनकी मौत के कुछ ही महीनों बाद डॉ. गे की प्रयोगशाला में उनके शरीर के ट्यूमर कोशिकाओं की मदद से इस अमर कोशिका-वंश को खोजा गया।

अब सवाल यह उठता है कि हेनरीटा लैक्स की ट्यूमर कोशिकाओं में ऐसा क्या खास है जिससे वे मरती नहीं हैं और विभाजित होते हुए लगातार समरूपी कोशिकाओं को जन्म देती रहती हैं? सच कहें तो इसका उत्तर आज भी पूरी तरह पता नहीं है।

होता यह है कि सामान्य कोशिकाएं औसतन पचास बार विभाजन करने के बाद एपोप्टोसिस नामक प्रक्रिया से खुद-ब-खुद खत्म हो जाती हैं। इसी कारण ज़्यादातर कोशिका-वंश भी एक समय के बाद खत्म हो जाते हैं। लेकिन हेला कोशिकाओं के साथ ऐसा नहीं होता, क्योंकि हेला कोशिकाओं में टेलोमरेज़ नामक एंज़ाइम अत्यधिक सक्रिय होता है। इससे कोशिकाएं एपोप्टोसिस की प्रक्रिया से न गुज़रकर लगातार विभाजित होती रहती हैं।

विभाजन से हाल ही में बनी हेला कोशिकाओं का इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से प्राप्त चित्र

डॉ. गे ने अमर कोशिका-वंश ‘हेला’ के कई नमूने दुनिया भर की प्रयोगशालाओं और वैज्ञानिकों के पास भेजे। जल्दी ही दुनिया में असंख्य हेला कोशिकाएं हर हफ्ते बनने और इस्तेमाल होने लगीं।

1950 के दशक में पोलियो की महामारी बुरी तरह फैली हुई थी। जोनास साल्क ने इन्हीं हेला कोशिकाओं का इस्तेमाल कर पोलियो के टीके का परीक्षण किया था। हेला कोशिकाओं को कई तरह की बीमारियों, जैसे चेचक, एचआईवी और इबोला को समझने और उन पर परीक्षण करने के लिए इस्तेमाल में लिया गया है।

ऐसा माना जाता है कि वाल्टर फ्लेमिंग ने 1882 में गुणसूत्रों की खोज की, पर लगभग 70 वर्ष बाद इन्हीं हेला कोशिकाओं की मदद से तीज़ो और लेवान ने उन रासायनिक रंजकों को खोजा जिनसे रंजित होकर गुणसूत्र दिखने लगते हैं और फिर उन्होंने मानव कोशिकाओं में गुणसूत्रों की सही संख्या की गिनती की। हेला कोशिकाएं पहली कोशिकाएं थीं जिन्हें क्लोन किया गया। इन कोशिकाओं को अंतरिक्ष में भी ले जाया गया है। टेलोमरेज़ जैसे एंज़ाइम जिसके कारण कैंसर कोशिकाएं एपोप्टोसिस से बचकर लगातार विभाजित होती रहती हैं, उसकी खोज भी हेला कोशिकाओं की मदद से ही की गई।

एक और गजब की बात है कि जिस गर्भाशय ग्रीवा के कैंसर से हेनरीटा लैक्स की मौत हुई थी, उसके कारक ह्यूमन पैपिलोमा वायरस का भी पता हेला कोशिकाओं की मदद से चला था और आज तो इस वायरस से बचने के लिए टीका भी उपलब्ध है।

हेला कोशिकाओं के कारण असंख्य नई खोजें हुई हैं। वैज्ञानिकों ने हेनरीटा लैक्स की कोशिकाओं की मदद से कई शोध किए, इलाज ढूंढे, आविष्कार किए। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इसकी जानकारी उनके परिवार को नहीं थी। दशकों बाद ही उनके परिवार को पता चला कि लैक्स की कोशिकाओं ने मानव इतिहास पर इतना बड़ा असर डाला है। यह उपेक्षा हेला कोशिकाओं के साथ काम करने वाले वैज्ञानिकों के ऊपर नैतिक प्रश्न भी उठाती है।

खैर कुछ भी हो, हेनरीटा लैक्स की कोशिकाओं के कारण करोड़ों लोगों के जीवन पर बड़ा ही सकारात्मक प्रभाव पड़ा, कई जानें बचीं और आगे भी बचती रहेंगी और इसके लिए पूरी मानवता हेनरीटा लैक्स और डॉ. जॉर्ज गे की कृतज्ञ रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 1 – विनीता बाल और सत्यजीत रथ

क्यों चाहिए प्रतिरक्षा व्यवस्था

इम्यूनिटी यानी प्रतिरक्षा व्यवस्था पिछले दिनों काफी चर्चित रही है। विनीता बाल और सत्यजीत रथ के आलेखों की एक शृंखला वर्ष 1997 में रेज़ोनेंस में प्रकाशित हुई थी और प्रतिरक्षा के समझने में काफी मददगार है। यहां प्रस्तुत है पहला आलेख।

ई मायनों में प्रतिरक्षा तंत्र बाकी तंत्रों से अलग है। एक खासियत तो यह है कि यह कोई ऐसा तंत्र नहीं है जो कुछ सुपरिभाषित अंगों के साथ शरीर में विशिष्ट स्थान पर स्थित हो। दूसरी खासियत यह है कि आदर्श स्थिति में यह विश्राम की अवस्था में रहता है और तभी सक्रिय होता है जब इसे उकसाया जाए। तीसरी खासियत यह है कि काम शुरू करने से पहले इसकी कोशिकाओं को परिपक्व होने के चरण से गुज़रना पड़ता है। चौथा अंतर यह है कि (प्रजनन तंत्र के अलावा) यह एकमात्र ऐसा तंत्र है जिसकी कोशिकाएं अपने डीएनए (जेनेटिक सामग्री) को पुर्नव्यवस्थित करती हैं और कभी-कभी तो डीएनए के हिस्से गंवा भी देती हैं। यह उनके विकास और परिपक्व होने की प्रक्रिया का अनिवार्य हिस्सा है।

सवाल यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र ऐसा विचित्र व्यवहार क्यों करता है। इस सवाल का जवाब इस आधार पर दिया जा सकता है कि प्रतिरक्षा तंत्र के सामने किस तरह की चुनौतियां होती हैं। तो पहला सवाल आता है कि प्रतिरक्षा तंत्र की ज़रूरत क्या है।

इसका जवाब पाने के लिए एक बहु-कोशिकीय जीव पर विचार करते हैं। ऐसे बहु-कोशिकीय जीव को अपनी कोशिकाओं को साथ-साथ रखना होता है और कोशिकाओं के अलग-अलग समूहों से अलग-अलग कार्य करवाने होते हैं। इस श्रम विभाजन का मतलब यह होता है कि शरीर की हर कोशिका सारे काम नहीं कर सकती। कुछ कोशिकाएं तो इतनी विशिष्ट हो जाती हैं कि वे शायद स्वतंत्र इकाई के रूप में जीवित भी न रह सकें। अर्थात ऐसी कोशिकाओं के कई समूहों को जीवन की अनिवार्य चीज़ें बनी-बनाई मुहैया करवानी होंगी। इसके लिए शरीर को सख्ती से नियंत्रित आंतरिक पर्यावरण बनाकर रखना होगा जो पोषण की दृष्टि से समृद्ध हो।

ऐसा पर्यावरण तमाम बाहरी जीवों को आमंत्रण है कि वे आएं और दावत उड़ाएं। यदि ऐसे मेज़बान जीव को अपनी अखंडता बनाए रखनी है तो उसे इन मुफ्तखोरों से निपटना होगा।

दरअसल, यह भी हो सकता है कि स्वयं मेज़बान की कोशिकाएं जीव के नियंत्रण को धता बताकर एक स्वतंत्र जीवनशैली अपना लें और इस पौष्टिक आंतरिक पर्यावरण का बेजा फायदा उठाकर मौज-मस्ती करने लगें। इन कोशिकाओं को हम कैंसर कोशिकाएं कहते हैं। इन शरारती कोशिकाओं से भी निपटना पड़ता है।

दूसरे शब्दों में, बहु-कोशिकीय जीवन के लिए ज़रूरी है कि तमाम किस्म के घुसपैठियों के खिलाफ कुछ-ना-कुछ सुरक्षा व्यवस्था हो।

लेकिन प्रयोगों की बदौलत यह स्पष्ट हुआ है कि प्रतिरक्षा तंत्र का मुख्य काम संक्रमणों से हिफाज़त करना है। यानी इसका विकास ऐसे संक्रमणों के प्रकार और प्रकृति से निर्धारित हुआ होगा।

तो प्रतिरक्षा तंत्र की उन विशेषताओं की व्याख्या कैसे की जाए, जिनकी चर्चा हमने शुरू में की थी। सबसे पहली बात तो यह है कि घुसपैठ बाहर से होने वाली है, इसलिए शरीर को पता नहीं होता कि उसकी सुरक्षा में कहां सेंध लगेगी। इसलिए प्रतिरक्षा व्यवस्था के घटक शरीर में हर जगह उपस्थित होने चाहिए ताकि घुसपैठ को प्रवेश के बिंदु पर ही पकड़ा जा सके। इसका मतलब है कि प्रतिरक्षा तंत्र तभी उपयोगी होगा जब वह पूरे शरीर में फैला हो। अत: यह कोई अचरज की बात नहीं है कि यह व्यवस्था कुछ सुपरिभाषित अंगों में कैद नहीं है। अलबत्ता, यह अपने कामकाज (जैसे विकास) के लिए कतिपय अंगों का उपयोग करती है।

इसी प्रकार से, यदि प्रतिरक्षा तंत्र का प्रमुख काम संक्रमणों से निपटने का है, तो पर्यावरण में कोई परजीवी न हो, तो इस तंत्र के पास कोई काम नहीं होगा। वास्तविक दुनिया में भी इसके पास लगातार काम नहीं होगा। जब संक्रमण होगा तब उसका आव्हान किया जाएगा। अर्थात ‘सामान्यत:’ प्रतिरक्षा तंत्र कुछ नहीं करेगा, बस बैठकर निगरानी करता रहेगा।

प्रतिरक्षा तंत्र संक्रमण से कैसे निपटता है?

पहली बात है कि संक्रमण से ‘निपटने’ के दो हिस्से होने चाहिए – पहचान और कार्रवाई। पहले घुसपैठिए को पहचानना होगा और फिर उसके बारे में कुछ करना होगा। इसे करने का सबसे आसान तरीका यह होगा कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर एक विशेष ग्राही हो जो सारे घुसपैठियों को पहचान सके और फिर कोशिका को उसके बारे में उपयुक्त सुरक्षात्मक कार्रवाई करने को उकसा सके।

बदकिस्मती से, यदि पहचान और कार्रवाई की प्रक्रिया को उपयोगी होना हो, तो वे इतनी एकतरफा नहीं हो सकती। रोगजनक परजीवी बहुत विविध रूपों में और अत्यधिक लचीलेपन के साथ आते हैं। इसलिए यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई एक ग्राही सारे रोगजनकों पर उपस्थित किसी ‘चिंह’ को पहचान पाएगा। इसलिए हमें ग्राहियों का एक विशाल समूह चाहिए।

इसी प्रकार से परजीवी घुसपैठ के लिए बहुत अलग-अलग रणनीतियां अपनाते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र को इन विविध रणनीतियों से निपटने को भी तैयार होना चाहिए। इसलिए पहचान होने के बाद भी कोई एक तरीका काम नहीं करेगा।

अंतत:, इस बात की भी कोई गारंटी नहीं है कि एक ‘चिंह’ एक ही रोगजनक से सम्बद्ध होगा और एक विशिष्ट प्रतिक्रिया पक्के तौर पर कारगर होगी।

इसलिए लक्ष्य की पहचान और उसके बारे में उचित कार्रवाई का निर्णय, ये दो कार्य अलग-अलग करने होंगे।

अब एक-एक करके इन दिक्कतों पर विचार करते हैं।

सबसे पहली चुनौती तो यह है कि प्रतिरक्षा तंत्र को इतने सारी ग्राही पैदा करने होंगे कि वे मिल-जुलकर सारे रोगजनकों को पहचान सकें। ऐसा कैसे किया जा सकता है?

इस संदर्भ में पहचान के दो मॉडल्स उपयोगी हो सकते हैं: क्लोनल एकरूपता और क्लोनल विविधता पर आधारित मॉडल्स।

प्रतिरक्षा लक्ष्यों की पहचान के मॉडल्स

मॉडल्स की बात शुरू करने से पहले कुछ शब्दों को परिभाषित कर लिया जाए।

क्लोनल एकरूप का मतलब है ऐसी कोशिकाओं का समूह जो हू-ब-हू एक-दूसरे की नकल हैं। इन सभी कोशिकाओं पर एकदम एक-जैसे ग्राही होंगे। शरीर में यही सामान्य स्थिति होती है; उदाहरण के लिए, लीवर की सारी कोशिकाएं एकदम एक जैसी दिखती हैं। दूसरी ओर, क्लोनल विविध कोशिका समूह एक ही मातृ कोशिका से पैदा हुई कोशिकाओं का समूह होता है जो सब एक ही कार्य करेंगी लेकिन प्रत्येक पर कोई एक ग्राही अन्य से अलग होगा।

क्लोनल एकरूप ग्राही ‘विदेशी’ लक्ष्य को इस आधार पर पहचानते हैं कि उन पर कोई ‘पराया’ अणु उपस्थित होता है। यह लगभग ऐसा है जैसे हर उस व्यक्ति को विदेशी माना जाएगा जो किसी खास रंग की टोपी पहने है जो आपके समुदाय में कोई नहीं पहनता। कहने का मतलब यह है कि उन आणविक चिंहों को विदेशी माना जाता है जो आम तौर पर स्तनधारियों के शरीर में नहीं बनते। एक उदाहरण लिपोपॉलीसेकराइड का है। क्लोनल एकरूप कार्यकारी कोशिकाएं (जैसे मैक्रोफेज और पोलीमॉर्फोन्यूक्लियर ल्यूकोसाइट) पर ऐसे ग्राही पाए जाते हैं। ऐसे ग्राहियों के समूह की पहचान-क्षमता अत्यंत सीमित होगी और स्थिर होगी क्योंकि इन्हें इस तरह बनाया गया है कि ये बार-बार नज़र आने वाले ‘चिंहों’ की पहचान कर सकें।

तो यह क्लोनल एकरूप पहचान का तरीका पर्याप्त क्यों नहीं है?

बार-बार नज़र आने वाले लक्ष्यों को पहचान करने के तरीके में कुछ बड़े जोखिम हैं। एक जोखिम तो यह है कि यदि रोगजनक परजीवी वह चिंह बनाना बंद कर दे या उसे इतना बदल दे कि वह उपलब्ध ग्राहियों द्वारा पहचान के काबिल न रहे, तो प्रतिरक्षा तंत्र ऐसे संशोधित घुसपैठियों के प्रति अंधा हो जाएगा। यानी ये प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा की जाने वाली ‘मिथ्या नकारात्मक’ चूक साबित होंगे। दूसरी ओर, कई बैक्टीरिया ऐसे हैं जो स्तनधारी शरीरों में, खास तौर से आंतों में या त्वचा पर, मज़े से सहयोगी ढंग से रहते हैं। मान लीजिए ये सबके सब लिपोपोलीसेकराइड को सतह पर दर्शाएंगे, तो प्रतिरक्षा तंत्र इन सबको पहचान कर इनसे निपटने के लिए भारी उठापटक करेगा। यह एक बेकार की मेहनत होगी क्योंकि ये कोई नुकसान नहीं पहुंचाते, बल्कि कभी-कभी तो विटामिन वगैरह का निर्माण करके मददगार ही होते हैं। तो ये प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा की गई ‘मिथ्या सकारात्मक’ चूकें होंगी और प्रतिरक्षा तंत्र अहानिकर सहजीवियों के खिलाफ जंग छेड़ता रहेगा।

यदि परजीवियों के प्रवेश की संभावना कम है तो यह उम्मीद की जा सकती है कि ऐसे ग्राहियों से युक्त थोड़ी-सी प्रतिरक्षा कोशिकाएं ठीक-ठाक काम कर पाएंगी। यह तब और भी ज़्यादा कारगर होगा जब मेज़बान को पहले से मालूम हो कि कौन-से परजीवी अंदर घुसने की कोशिश करने वाले हैं।

कुछ जंतु कमोबेश एक ही जगह पर टिके रहते हैं और उनके पर्यावरण में ज़्यादा बदलाव नहीं होते, उन्हें कुछ ही प्रकार के घुसपैठियों से निपटना पड़ता है। कुछ जंतु ऐसे हैं जिनके शरीर पर कठोर कवच होते हैं और परजीवियों के लिए शरीर में प्रवेश करना आसान नहीं होता। इन दोनों प्रकार के जंतुओं के लिए अपेक्षाकृत सरल प्रतिरक्षा व्यवस्था पर्याप्त होगी। ऐसे जंतुओं में कीटों या घोंघों जैसे जंतुओं के उदाहरण दिए जा सकते हैं। इनके लिए घुसपैठियों की पहचान का क्लोनल एकरूप मॉडल पर्याप्त है। दरअसल, ऐसे अधिकांश जंतुओं में प्रतिरक्षा व्यवस्था ऐसी ही कोशिकाओं के भरोसे रहती है जो बैक्टीरिया जैसे कणों को निगल सकती हैं।

लेकिन दूर-दूर तक आवागमन करने वाले, मुलायम और संवेदनशील त्वचा वाले जंतुओं (जैसे स्तनधारी) को काफी विविध प्रकार के और बड़ी संख्या में परजीवियों का सामना करना होता है। ऐसी स्थिति में क्लोनल एकरूप मॉडल की सीमाएं इन्हें परास्त कर देंगी।

तो, स्तनधारी जीवों की प्रतिरक्षा व्यवस्था इन समस्याओं से कैसे निपटती है? एक अत्यंत परिवर्तनशील लक्ष्य-पहचान तंत्र ऐसे लचीले परजीवियों से निपटने में कामयाब रहेगा। ऐसी व्यवस्था बनाने का एकमात्र तरीका यह है कि हरेक कोशिका को इनमें से मात्र एक ग्राही प्रदान किया जाए ताकि वह किसी एक ही लक्ष्य की पहचान कर सके – यह लक्ष्य पहचान का क्लोनल विविधता मॉडल है।

क्लोनल विविधता मॉडल

प्रतिरक्षा तंत्र की दृष्टि से इस मॉडल के कई फायदे हैं। पहला, प्रत्येक लक्ष्य प्रतिरक्षा तंत्र की कुछ कोशिकाओं को ही सक्रिय करेगा क्योंकि हर कोशिका पर किसी एक लक्ष्य के लिए ग्राही है। इसके चलते काफी संसाधन व ऊर्जा की बचत होगी।

लेकिन दिक्कत यह है कि यदि लाखों कोशिकाओं में से मात्र एक ही लक्ष्य का जवाब देगी तो इससे ज़्यादा फायदा नहीं होगा। इस कोशिका को अपने जैसी और कोशिकाओं को इस काम में लगाना होगा। लेकिन इस काम में वह आसपास पड़ी अन्य कोशिकाओं को तैनात नहीं कर सकती क्योंकि उनके ग्राही तो काफी अलग लक्ष्यों के लिए बने हैं। इसलिए उस कोशिका को विभाजन करके ढेर सारी कोशिकाएं बनानी होगी जो सब उस लक्ष्य के लिए विशिष्ट होंगी। इसके चलते कोशिकाओं की संख्यावृद्धि प्रतिरक्षा तंत्र के जवाब का बुनियादी हिस्सा है। संख्यावृद्धि पर आधारित इस व्यवस्था का फायदा यह है कि किसी भी समय पर इतनी सारी कोशिकाओं को तैयार अवस्था में उपस्थित नहीं रहना होता क्योंकि संख्यावृद्धि करते-करते वे तैयार भी होती जाती हैं।

यह प्रतिरक्षा तंत्र का एक और अनोखा पहलू है कि उसकी कोशिकाओं को लक्ष्य को पहचानने या उसके खिलाफ कार्रवाई करने से पहले परिपक्व होने के एक चरण से गुज़रना होता है। यही गुण इस तंत्र को अतीत में हुए संपर्कों को लक्ष्य-विशिष्ट ढंग से याद रखने की क्षमता प्रदान करता है। यानी जब प्रतिरक्षा तंत्र किसी लक्ष्य को एक बार देख ले तो उसे पहचानने वाली कोशिकाएं अधिक संख्या में संग्रहित हो जाती हैं। इसके चलते अगली बार वही लक्ष्य सामने आने पर प्रतिक्रिया कहीं अधिक त्वरित होती है। यह अनुकूलन की दृष्टि से फायदे का सौदा है क्योंकि इस बात की संभावना काफी अधिक होती है कि वही परजीवी बार-बार कोशिश करेगा।

तो, क्लोनल एकरूप और क्लोनल विविधता मॉडल के बीच एक अंतर यह है कि एकरूप मॉडल में प्रतिरक्षा कोशिकाओं को लगातार सक्रिय अवस्था में रहना होता है जबकि क्लोनल विविधता मॉडल में कोशिकाएं तब तक विश्राम अवस्था में पड़ी रह सकती हैं जब तक कि उनसे सम्बद्ध लक्ष्य उन्हें चुनौती नहीं देता।

दूसरा अंतर यह है कि सारी क्लोनल एकरूप कोशिकाएं किसी भी चलती हुई कार्रवाई में हिस्सा लेती हैं जबकि विविधता मॉडल में मात्र वही कोशिकाएं युद्धरत होती हैं जो उस लक्ष्य से सम्बंधित ग्राही से लैस हों। इसका एक मतलब यह है कि क्लोनल एकरूप कोशिकाएं आम तौर पर अतीत में हुए संपर्क को याद नहीं रखतीं क्योंकि उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लक्ष्य कौन-सा है। दूसरी ओर, क्लोनल विविधता वाली कोशिकाएं एक बार संपर्क हो जाने के बाद विश्राम अवस्था में भी चौकन्नी रहती हैं ताकि अगले संपर्क के समय त्वरित प्रतिक्रिया दे सकें।

क्लोनल एकरूप पहचान व्यवस्था को जन्मजात या कुदरती (innate प्रतिरक्षा कहते हैं और इसमें प्रतिरक्षा स्मृति की कोई गुंजाइश नहीं होती। दूसरी ओर क्लोनल विविधता आधारित प्रणाली को अनुकूली (Adaptive) या अर्जित प्रतिरक्षा कहते हैं और यह स्मरण के गुण से लैस होती है। इसी गुण की वजह से टीके यानी वैक्सीन बनाना संभव होता है।

ज़ाहिर है, क्लोनल विविधता आधारित पहचान प्रणाली की जटिलताएं कई व्यावहारिक दिक्कतों को जन्म देती है। अगली बार इन पर चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीके से जुड़े झूठे प्रचार को रोकने की पहल

हाल ही में ट्विटर ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफार्म से ऐसे अकाउंट्स को निलंबित या बंद कर दिया है जो नियमित रूप से कोविड-19 टीकों से जुड़ी भ्रामक जानकारी फैला रहे थे। इसी तरह की एक पहल के तहत अमेरिकी वैज्ञानिकों ने कोविड-19 टीके के बारे में भ्रामक जानकारियों के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है।

कुछ सर्वेक्षणों से पता चला है भ्रामक खबरों के परिणामस्वरूप अमेरिका की 20 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या टीकाकरण के विरोध में है। शोधकर्ता सोशल मीडिया पर टीके से सम्बंधित गलत सूचनाओं को ट्रैक करने और भ्रामक सूचनाओं, राजनैतिक बयानबाज़ी और जन नीतियों से टीकाकरण पर पड़ने वाले प्रभावों का डैटा एकत्र कर रहे हैं। इन भ्रामक सूचनाओं में षड्यंत्र सिद्धांत काफी प्रचलित है जिसके अनुसार महामारी को समाज पर नियंत्रण या अस्पतालों का मुनाफा बढ़ाने के लिए बनाया-फैलाया गया है। यहां तक कहा जा रहा है कि टीका लगवाना जोखिम से भरा और अनावश्यक है।

इस संदर्भ में वायरेलिटी प्रोजेक्ट नामक समूह ट्विटर और फेसबुक जैसे प्लेटफार्म द्वारा टीकों से जुड़ी गलत जानकारियों से निपटने के प्रयासों में तथा जन स्वास्थ्य एजेंसियों और सोशल-मीडिया कंपनियों के साथ मिलकर नियमों का उल्लंघन करने वालों की पहचान करने में मदद कर रहा है।

स्टैनफोर्ड इंटरनेट ऑब्ज़र्वेटरी की अनुसंधान प्रबंधक रिनी डीरेस्टा के अनुसार शोधकर्ताओं ने टीकाकरण के संदर्भ में भ्रामक प्रचार के चलते सार्वजनिक नुकसान की आशंका के कारण इस पर ध्यान केंद्रित किया गया है। हालांकि, सोशल मीडिया कंपनियां सभी मामलों में तो सच-झूठ की पहरेदार नहीं बन सकती लेकिन नुकसान की संभावना को देखते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ संतुलन अनिवार्य है।

फरवरी में ट्विटर, फेसबुक (इंस्टाग्राम समेत) ने झूठे दावों को हटाने के प्रयासों को विस्तार दिया है। दोनों ही कंपनियों ने घोषणा की है कि झूठी खबरें फैलाने वाली पोस्ट और ट्वीट को हटाया जाएगा और बार-बार नीतियों का उल्लंघन करने वालों के अकाउंट्स बंद भी कर दिए जाएंगे।

यह देखा गया है कि वेब पर गलत जानकारी अपेक्षाकृत थोड़े-से लोगों (सुपरस्प्रेडर्स) द्वारा फैलाई जाती है। इनमें अक्सर पक्षपाती मीडिया, सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर और राजनीतिक हस्तियां शामिल होती हैं।  

गौरतलब है कि कोविड-19 के बारे में लोगों की सोच का अनुमान लगाने के लिए बोस्टन स्थित नार्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी, मेसाचुसेट्स के राजनीति वैज्ञानिक डेविड लेज़र के नेतृत्व में अमेरिका के सभी 50 राज्यों में प्रति माह 25,000 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जा रहा है और साथ ही ट्विटर का उपयोग करने वाले 16 लाख लोगों की जानकारी भी एकत्रित की जा रही है। 

फरवरी में लगभग 21 प्रतिशत लोगों ने टीकाकरण करवाने से इनकार किया। स्वास्थ्य कर्मियों में यह आंकड़ा लगभग 24 प्रतिशत था। देखा गया कि इस फैसले के पीछे शिक्षा का स्तर एक मुख्य कारक रहा। टीम यह समझने का प्रयास कर रही है कि स्वास्थ्य सम्बंधी गलत जानकारी का सामना करने में कौन-सी चीज़ें प्रभावी हो सकती हैं। लगता है कि डॉक्टर और वैज्ञानिकों को सबसे भरोसेमंद माना जाता है जबकि पक्षपातपूर्ण राजनीतिक नेताओं के संदेशों पर विश्वास की संभावना कम होती है। ऐसे में डॉक्टर की सकारात्मक सलाह लोगों की पसंद को प्रभावित कर सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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जॉनसन एंड जॉनसन टीके पर अस्थायी रोक

मेरिका में जे-एंड-जे टीके लगाने के बाद क्लॉटिंग के 6 मामले सामने आने के बाद यूएस सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन और खाद्य व औषधि प्रशासन ने जॉनसन एंड जॉनसन (जे-एंड-जे) द्वारा निर्मित कोविड-19 टीके के उपयोग पर रोक लगाने की सिफारिश की है। इससे पूर्व युरोप में भी एस्ट्राज़ेनेका टीका प्राप्त लोगों में ऐसे मामले सामने आए थे और टीकाकरण के प्रयासों को काफी नुकसान हुआ था।

एफडीए कमिश्नर जेनेट वुडकॉक के अनुसार ये घटनाएं काफी बिरली हैं। टीकाकरण को रोकने के पीछे का कारण वास्तव में स्वास्थ्य प्रणाली को ऐसे मामलों की पहचान करके उपयुक्त इलाज के लिए तैयार करना है। इस बीच जे-एंड-जे ने युरोप में अपने टीके को लंबित रखा है। युरोपियन मेडिसिंस एजेंसी (ईएमए) अमेरिका में टीकाकृत लोगों में क्लॉटिंग के चार मामलों की जांच कर रही है। ड्यूक युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के रुधिर रोग विशेषज्ञ गौतमी अरेपल्ली के अनुसार क्लॉटिंग के देखे गए मामले काफी असामान्य हैं। इन मामलों में व्यक्ति के दिमाग की नसों में क्लॉटिंग और प्लेटलेट की कमी देखी गई है। ऐसे में टीके पर अस्थायी रूप से रोक लगाना उचित ही है।     

हालांकि, छह सप्ताह पूर्व युरोप में एस्ट्राज़ेनेका टीके, वैक्सज़ेवरिया, के सम्बंध में इसी तरह की समस्या आने पर ईएमए ने इसके उपयोग पर रोक लगाने का कोई सुझाव नहीं दिया। फिर भी कई अन्य देशों ने कुछ समय के लिए इस पर रोक लगा दी है। कुछ देशों में वृद्ध समूह में इसका उपयोग जारी रखा गया क्योंकि उनमें कोविड-19 का खतरा कहीं ज़्यादा है। कम प्लेटलेट के साथ असामान्य क्लॉटिंग के मामले फाइज़र और मॉडर्ना द्वारा निर्मित संदेशवाहक आरएनए आधारित टीकों में नहीं देखे गए हैं।

वैक्सज़ेवरिया और जे-एंड-जे टीके दोनों ही संशोधित एडेनोवायरस पर आधारित हैं। इसलिए शोधकर्ता इस तकनीक के दुष्प्रभावों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। वैसे एडेनोवायरस आधारित अन्य टीकों (रूस के स्पुतनिक वी और चीन के कैनसाइनो बायोलॉजिक्स) में इस तरह के कोई मामले सामने नहीं आए हैं। वैसे इन टीकों पर उपलब्ध डैटा कुछ सीमित है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि इन क्षेत्रों के नियामकों ने ऐसे मामलों को खोजने के प्रयास किए भी हैं या नहीं। समस्या की जड़ तक पहुंचने के प्रयास जारी हैं।

इस मामले में एफडीए से जुड़े पीटर माक्र्स इस परेशानी से सम्बंधित रोगियों के उचित इलाज का सुझाव देते हैं। खास तौर से क्लॉटिंग की समस्या के लिए हेपरिन के उपयोग से बचने की सलाह दी जा रही है क्योंकि टीका जनित क्लॉटिंग में हेपरिन का उपयोग समस्या को और गंभीर बना सकता है।    

अमेरिकी एजेंसियों द्वारा टीकाकरण पर रोक के कारण वैश्विक टीकाकरण की चिंताएं बढ़ गई हैं। अपेक्षाकृत आसान परिवहन और भंडारण तथा कम लागत के चलते वैक्सज़ेवरिया और जे-एंड-जे टीके कम और मध्यम आय वाले देशों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। और तो और, जे-एंड-जे टीके की एक ही खुराक पर्याप्त होती है। इनके अभाव में कई देशों को कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। वैसे वुडकॉक के अनुसार निलंबन थोड़े समय के लिए ही रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वन्यजीवों से कोरोनावायरस फैलने की अधिक संभावना

कोविड महामारी के स्रोत का पता लगाने के प्रयास लगातार जारी हैं। हाल ही में सीएनएन द्वारा प्रसारित साक्षात्कार में एक प्रमुख वैज्ञानिक सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के पूर्व निदेशक और वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट रेडफील्ड ने बिना किसी प्रमाण के दावा किया कि सार्स-कोव-2 वुहान की प्रयोगशाला से निकला है। साथ ही उन्होंने कहा कि यह मात्र एक निजी राय है। इसके दो दिन बाद कुछ अन्य लोगों (डबल्यूएचओ और चीन सरकार की टीम) ने वायरस के वन्यजीवों से फैलने की बात कही जिसकी शुरुआत चमगादड़ों से हुई है। इसमें भी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं दिया गया।

गौरतलब है कि वुहान की प्रयोगशाला में किसी को भी ऐसा कोरोनावायरस नहीं मिला है जिसे बदलकर ज़्यादा फैलने वाला बनाया गया हो और फिर उसने बदलते-बदलते सार्स-कोव-2 जैसा रूप लेकर वहां किसी कर्मचारी को संक्रमित कर दिया हो। इसी तरह किसी को जंगली जीवों में कोरोनावायरस के प्रमाण भी नहीं मिले हैं जो एक से दूसरे जंतु में आगे बढ़ते-बढ़ते उत्परिवर्तित होकर सार्स-कोव-2 के समान हो गया हो और फिर मनुष्यों में प्रवेश कर गया हो।

अभी तक ये दोनों ही विचार प्रमाण-विहीन हैं और दोनों ही संभव हैं।

फिर भी इन दोनों विचारों के सही होने की संभावना बराबर नहीं है। देखा जाए तो प्रयोगशाला से वायरस के निकलने की कोई एक या शायद कुछ मुट्ठी भर घटनाएं हो सकती हैं जबकि वन्यजीवों से वायरस के फैलने के अनेकों अवसर होंगे।

रेडफील्ड की अटकल है कि किसी भी वायरस के लिए इतने कम समय में जीवों से मनुष्यों में प्रवेश करने की कुशलता हासिल करना बिना प्रयोगशाला के संभव नहीं है। लेकिन एक बार में इतनी बड़ी छलांग बहुत बड़ी बात होगी। स्वयं रेडफील्ड ने कहा है कि यह वायरस हमारी जानकारी में आने के कई महीनों पहले से प्रसारित हो रहा था। यानी मनुष्यों तक पहुंचने से पहले एक लंबी अवधि रही होगी जो इस वायरस के वन्यजीवों से फैलने का संकेत देती है।

वन्यजीवों से वायरस के फैलने का विचार इस बात पर टिका है कि चीन में करोड़ों चमगादड़ हैं और उनका मनुष्यों समेत अन्य जीवों से खूब संपर्क होता है। अत:, वायरस के मनुष्यों में प्रवेश करने के कई मौके हो सकते हैं। मूल रूप में तो यह वायरस मनुष्यों में खुद की प्रतिलिपि तैयार करने में अक्षम होता है। लेकिन मनुष्यों को संक्रमित करने के पहले इसे विकसित होने के लाखों मौके मिले होंगे। गौरतलब है कि चमगादड़ अक्सर कई जीवों जैसे पैंगोलिन, बैजर, सूअर, एवं अन्य के संपर्क में आते हैं जिससे ये मौकापरस्त वायरस इन प्रजातियों को आसानी से संक्रमित कर देते हैं। चमगादड़ कॉलोनियों में रहते हैं इसलिए विभिन्न प्रकार के कोरोनावायरस के मिश्रण की संभावना होती है और उन्हें अपने जींस को पुनर्मिश्रित करने का पूरा मौका मिलता है। यहां तक कि एक अकेले चमगादड़ में भी विभिन्न कोरोनावायरस देखे गए हैं।

इन वायरसों को मेज़बानों के बीच छलांग लगाने के लिए कई महीनों का समय मिलता है। इसी दौरान वे उत्परिवर्तित भी होते रहते हैं। एक बार मनुष्यों में प्रवेश करने पर उन वायरस संस्करणों को वरीयता मिलती है जो मानव कोशिकाओं को संक्रमित करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने की क्षमता रखते हैं। जल्द ही वे कोशिकाओं को इस स्तर तक संक्रमित कर देते हैं कि लोग बीमार होने लगते हैं। तब जाकर एक नई बीमारी प्रकट होती है। यह वही अवधि होती है जिसे रेडफील्ड ने माना है कि वायरस प्रसारित होता रहा है।

वास्तव में हम कोरोनावायरस के विकास में यह घटनाक्रम देख भी रहे हैं। इसमें काफी तेज़ी से उत्परिवर्तन हो रहे हैं (E484K और 501Y जैसे) जो वायरस को और अधिक संक्रामक बनाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के वायरोलॉजिस्ट एडम लौरिंग के अनुसार ये परिवर्तन प्राकृतिक रूप से हो रहे हैं। जिसका कारण यह है कि वायरस को लाखों संक्रमित व्यक्तियों में उत्परिवर्तन के लाखों अवसर मिल रहे हैं।

तो किसे सही माना जाए? रेडफील्ड की प्रयोगशाला से रिसाव की परिकल्पना को जो मात्र एक संयोग पर निर्भर है? या फिर वन्यजीवों से प्रसारित होने की परिकल्पना को जिसे लाखों अवसर मिल रहे हैं? हालांकि दोनों ही संभव हैं लेकिन एक की संभावना अधिक मालूम होती है। इसीलिए, अधिकांश वैज्ञानिकों को वन्यजीवों के माध्यम से इस वायरस के फैलने के आशंका अधिक विश्वसनीय लगती है।

वायरस की उत्पत्ति का सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे किसी महामारी के शुरू होने की जानकारी मिल सकती है ताकि भविष्य में इस तरह की स्थितियों को रोका जा सके। आज भी कई रोग पैदा करने वाले वायरस हमारे बीच मौजूद हैं जो महामारी का रूप ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वयं से बातें करना: लाभ-हानि

ई बार हम स्वयं से बातें करते हैं – या तो मन-ही-मन में या बोलकर। कुछ लोग ऐसा नियमित रूप से करते हैं तो कई अन्य ऐसा करके काफी अच्छा महसूस करते हैं। लेकिन क्या खुद से बात करना सामान्य है?

स्वयं से बात करने का काफी अध्ययन हुआ है। कई लोग इसे एक मानसिक स्वास्थ्य समस्या के रूप में देखते हैं लेकिन ऐसे सेल्फ-टॉक या सेल्फ-डायरेक्टेड टॉक (स्वगत संभाषण) को मनोवैज्ञानिक सामान्य और कुछ परिस्थितियों में फायदेमंद भी मानते हैं।

इस व्यवहार के व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत 1880 के दशक में हुई थी। वैज्ञानिकों की विशेष दिलचस्पी यह जानने की थी कि लोग स्वयं से क्या बात करते हैं, क्यों और किस उद्देश्य से करते हैं। शोधकर्ताओं ने सेल्फ-टॉक को आंतरिक मतों या धारणाओं की मौखिक अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया है।

बच्चे अक्सर ऐसा करते हैं, और यह उनके भाषा के विकास, किसी कार्य में सक्रियता और प्रदर्शन को सुधारने का एक तरीका है। यह माता-पिता के लिए चिंता का कारण नहीं होना चाहिए। और तो और, वयस्क अवस्था में भी यह व्यवहार कोई समस्या नहीं है। यह फायदेमंद भी हो सकता है बशर्ते कि कोई व्यक्ति मतिभ्रम जैसी मानसिक समस्या का अनुभव न करने लगे।

किसी कार्य के दौरान सेल्फ-टॉक से उस काम में नियंत्रण, एकाग्रता और प्रदर्शन में सुधार होता है और साथ ही समस्या-समाधान के कौशल में भी बढ़ोतरी होती है। वर्ष 2012 में किए गए एक अध्ययन में देखा गया कि कैसे सेल्फ-टॉक किसी वस्तु की तलाश के कार्य को प्रभावित करता है। इस अध्ययन में पता चला कि जब हम किसी गुम वस्तु या सुपर मार्केट में किसी विशेष उत्पाद की तलाश करते हैं तब सेल्फ-टॉक मददगार होता है। खेलकूद में भी सेल्फ-टॉक काफी फायदेमंद साबित होता है। सब कुछ इस बात पर भी निर्भर करता है सेल्फ-टॉक किस प्रकार का है:

1. सकारात्मक: इससे व्यक्ति को सकारात्मक सोच के लिए प्रोत्साहन और शक्ति मिलती है। इससे चिंता में कमी और एकाग्रता एवं ध्यान में सुधार हो सकता है।

2. नकारात्मक: आलोचनात्मक और हतोत्साहित करने वाला संवाद होता है।

3. तटस्थ: यह न तो सकारात्मक होता है, न नकारात्मक। यह निर्देशात्मक होता है, न कि किसी विशेष विश्वास या भावना को प्रोत्साहित करने के लिए।

लेकिन मुख्य सवाल है कि सेल्फ-टॉक से लोगों को क्या फायदा होता है। शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि सेल्फ-टॉक से लोगों को भावनाओं को नियमित और संसाधित करने में मदद मिलती है। जैसे, क्रोध और घबराहट की स्थिति में सेल्फ-टॉक से भावनाओं को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। इसके अलावा 2014 में किए गए अध्ययन से पता चला है कि दुश्चिंता से ग्रस्त लोगों के लिए सेल्फ-टॉक काफी फायदेमंद होता है। तनावपूर्ण घटनाओं के बाद सेल्फ-टॉक से चिंता में भी कमी होती है।

यदि सेल्फ-टॉक जीवन में खलल डालने लगे तो उसे कम करने के उपाय भी हैं। जैसे व्यक्ति सेल्फ-टॉक को एक डायरी में लिखने की आदत डाल ले तो इस आदत को नियंत्रित किया जा सकता है। वैसे स्वयं की आलोचना और नकारात्मक सेल्फ-टॉक से मानसिक स्वास्थ्य के प्रभावित होने की आशंका भी होती है। कभी कभी सेल्फ-टॉक के साथ मतिभ्रम होना शीज़ोफ्रेनिया का द्योतक होता है। ऐसी परिस्थितियों में मनोचिकित्सक से परामर्श करना बेहतर होगा। कुल मिलाकर, स्वयं से बात करना एक सामान्य व्यवहार है जो किसी मानसिक समस्या का लक्षण नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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जीन थेरेपी से कैंसर का जोखिम नहीं है

युनीक्योर (uniQure) कंपनी ने स्पष्ट किया है कि हीमोफीलिया की जीन थेरेपी के एक क्लीनिकल ट्रायल के दौरान एक मरीज़ में देखा गया लीवर कैंसर एडीनो-एसोसिएटेड वायरस (एएवी) की वजह से नहीं हुआ है। गौरतलब है कि जीन थेरेपी में किसी जीन को शरीर में पहुंचाने के लिए एएवी को वाहक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

युनीक्योर कंपनी हीमोफीलिया के उपचार में जीन थेरेपी का क्लीनिकल परीक्षण कर रही थी। इस परीक्षण के दौरान दिसंबर 2020 में एक मामला सामने आया जिसमें देखा गया कि मरीज़ के लीवर में कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि सक्रिय हो गई। ऐसा माना गया कि यह जीन थेरेपी में इस्तेमाल किए गए एएवी की वजह से हुआ है। लेकिन युनीक्योर द्वारा मरीज़ की ट्यूमर कोशिकाओं का परीक्षण करने पर पाया गया गया कि एएवी के जीनोम के अंश मरीज़ की मात्र 0.027 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं में बेतरतीब ढंग से मौजूद थे। यदि एएवी ने कैंसर कोशिकाओं को उकसाया होता तो वायरल डीएनए कई सारी ट्यूमर कोशिकाओं में दिखना चाहिए था, जैसा कि नहीं हुआ।

इसके अलावा अध्ययन में मरीज़ की ट्यूमर कोशिकाओं में कई ज्ञात कैंसर उत्परिवर्तन भी दिखे। साथ ही मरीज़ लंबे समय से हेपेटाइटिस बी और हेपेटाइटिस सी के संक्रमण से ग्रसित भी था जो लीवर कैंसर के जोखिम को बढ़ाने के लिए जाने जाते हैं।

चिल्ड्रंस हॉस्पिटल ऑफ फिलाडेल्फिया के डेनिस सबेतीनो बताते हैं कि हीमोफीलिया के उपचार के लिए जीन थेरेपी में उपयोग किया जाने वाला एएवी लीवर ट्यूमर के लिए ज़िम्मेदार नहीं पाया जाना इस क्षेत्र में आगे के कार्यों के लिए सकारात्मक साबित होगा।

युनीक्योर के साथ ही ब्लूबर्ड कंपनी ने भी अपने एक क्लीनिकल परीक्षण के दौरान सामने आए मामले को स्पष्ट किया है – सिकल सेल रोग के उपचार के लिए जीन थेरेपी में उपयोग किया जाने वाला वायरस, लेंटीवायरल वेक्टर, मरीज़ में ल्यूकेमिया का जोखिम नहीं बढ़ाता। गौरतलब है कि उपरोक्त मामलों के मद्देनज़र सिकल सेल और हीमोफीलिया, दोनों के उपचार में जीन थेरेपी के क्लीनिकल परीक्षण पर रोक लगा दी गई थी। इन नतीजों से अब दोनों कंपनियों को उम्मीद है कि अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन इन परीक्षणों पर लगी रोक को हटा लेगा। (स्रोत फीचर्स)

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प्रतिरक्षा तंत्र कोरोना के नए संस्करणों के लिए तैयार

कोरोनावायरस के उभरते संस्करणों को लेकर शंका जताई जा रही है कि ये मूल वायरस से अधिक संक्रामक हो सकते हैं। लेकिन मानव-वायरस के इस खेल में वैज्ञानिकों ने कुछ आशाजनक परिणाम देखे हैं।

कोविड से स्वस्थ हुए लोगों और टीकाकृत लोगों के खून की जांच से पता चला है कि हमारे प्रतिरक्षा तंत्र की कुछ कोशिकाओं – जो पूर्व में हुए संक्रमण को याद रखती हैं – में बदलते वायरस के अनुसार बदलकर उनका मुकाबला करने की क्षमता विकसित हो सकती है। इसका मतलब हुआ कि प्रतिरक्षा तंत्र नए संस्करणों से निपटने की दिशा में विकसित हुआ है।     

रॉकफेलर युनिवर्सिटी के प्रतिरक्षा विज्ञानी मिशेल नूसेनज़्वाइग के अनुसार हमारा प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: वायरस से आगे रहने का प्रयास कर रहा है। नूसेनज़्वाइग का विचार है कि हमारा शरीर मूल प्रतिरक्षी कोशिकाओं के अलावा एंटीबॉडी बनाने वाली कोशिकाओं की आरक्षित सेना भी तैयार रखता है। समय के साथ कुछ आरक्षित कोशिकाएं उत्परिवर्तित होती हैं और ऐसी एंटीबॉडीज़ का उत्पादन करती हैं जो नए वायरल संस्करणों की बखूबी पहचान कर लेती हैं। अभी यह देखना बाकी है कि क्या उत्परिवर्तित सार्स-कोव-2 से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त आरक्षित कोशिकाएं और एंटीबॉडीज़ उपलब्ध हैं या नहीं।

पिछले वर्ष अप्रैल माह के दौरान नूसेनज़्वाइग और उनके सहयोगियों को कोविड से ठीक हुए लोगों के रक्त में पुन: संक्रमण और घटती हुई एंटीबॉडीज़ के संकेत मिले थे जो चिंताजनक था। तो वे देखना चाहते थे वायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा तंत्र द्वारा जवाब देने की क्षमता कितने समय तक बनी रहती है।

इसलिए उन्होंने सार्स-कोव-2 की चपेट में आए लोगों के ठीक होने के एक महीने और छह महीने बाद रक्त के नमूने एकत्रित किए। इस बार काफी सकारात्मक परिणाम मिले। बाद की तारीखों में एकत्रित नमूनों में कम एंटीबॉडी पाई गई लेकिन यह अपेक्षित था क्योंकि अब संक्रमण साफ हो चुका था। इसके अलावा कुछ लोगों में एंटीबॉडी उत्पन्न करने वाली कोशिकाएं (स्मृति बी कोशिकाएं) समय के साथ स्थिर रही थीं या फिर बढ़ी हुई थीं। संक्रमण के बाद ये कोशिकाएं लसिका ग्रंथियों में सुस्त पड़ी रहती हैं और इनमें वायरस को पहचानने की क्षमता बनी रहती है। यदि कोई व्यक्ति दूसरी बार संक्रमित होता है तो स्मृति बी कोशिकाएं सक्रिय होकर जल्द से जल्द एंटीबॉडीज़ उत्पन्न करती हैं जो संक्रमण को रोक देती हैं।

आगे के परीक्षणों में वैज्ञानिकों ने आरक्षित बी कोशिकाओं के क्लोन तैयार किए और उनकी एंटीबॉडी का परीक्षण किया। इस परीक्षण में सार्स-कोव-2 को नए संस्करण की तरह तैयार किया गया था लेकिन इसमें संख्या-वृद्धि की क्षमता नहीं थी। इस वायरस के स्पाइक प्रोटीन में कुछ उत्परिवर्तन भी किए गए थे। जब शोधकर्ताओं ने इस उत्परिवर्तित वायरस के विरुद्ध आरक्षित कोशिकाओं का परीक्षण किया तो कुछ कोशिकाओं द्वारा बनाई गई एंटीबॉडीज़ उत्परिवर्तित स्पाइक प्रोटीन से जाकर चिपक गर्इं। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एंटीबॉडीज़ समय के साथ परिवर्तित हुर्इं।

हाल ही में नूसेनज़्वाइग और उनकी टीम ने जेनेटिक रूप से परिवर्तित विभिन्न वायरसों का 6 महीने पुरानी बी कोशिकाओं के साथ परीक्षण किया। प्रारंभिक अध्ययन से पता चला है कि इन एंटीबॉडीज़ ने परिवर्तित संस्करणों को पहचानने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता दिखाई है। यानी प्रतिरक्षा कोशिकाएं विकसित होती रहती हैं।

यह बात काफी दिलचस्प है कि जो कोशिकाएं थोड़ी अलग किस्म की एंटीबॉडी बनाती हैं वे रोगजनकों पर हमला तो नहीं करतीं लेकिन फिर भी शरीर में बनी रहती हैं।

लेकिन क्या ये आरक्षित एंटीबॉडी पर्याप्त मात्रा में हैं और क्या वे नए वायरल संस्करणों को बेअसर करके हमारी रक्षा करने में सक्षम हैं? फिलहाल इस सवाल का जवाब दे पाना मुश्किल है। वैसे वाल्थम स्थित एडैजियो थेराप्यूटिक्स की प्रतिरक्षा विज्ञानी लौरा वॉकर के साइंस इम्यूनोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार करीब पांच महीने बाद एंटीबॉडी की वायरस को उदासीन करने की क्षमता में 10 गुना कमी देखी गई। लेकिन नूसेनज़्वाइग की टीम के समान वॉकर और उनकी टीम ने भी स्मृति बी कोशिका की संख्या में निरंतर वृद्धि देखी।

वॉकर की टीम ने कई प्रकार की स्मृति बी कोशिकाओं के क्लोन बनाकर विभिन्न वायरस संस्करणों के विरुद्ध उनकी एंटीबॉडी का परीक्षण किया। वॉकर के अनुसार कुछ नए संस्करण एंटीबॉडीज़ से बच निकलने में सक्षम रहे जबकि 30 प्रतिशत एंटीबॉडीज़ नए वायरस कणों से चिपकी रहीं। यानी बी कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी उत्पादन बढ़ने से पहले ही नया संक्रमण फैलना शुरू हो सकता है। लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी बी कोशिका इस वायरस को कुछ हद तक रोक सकती है और गंभीर रोग से सुरक्षा प्रदान कर सकती है। लेकिन इन एंटीबॉडी की पर्याप्तता पर अभी भी सवाल बना हुआ है। वॉकर का मानना है कि एंटीबॉडी की कम मात्रा के बाद भी अस्पताल में दाखिले या मृत्यु जैसी संभावनाओं को रोका जा सकता है।       

वैसे गंभीर कोविड से बचाव के लिए सुरक्षा की एक और पंक्ति सहायक होती है जिसे हम टी-कोशिका कहते हैं। ये कोशिकाएं रोगजनकों पर सीधे हमला नहीं करती हैं बल्कि एक किस्म की टी-कोशिकाएं संक्रमित कोशिकाओं की तलाश करके उन्हें नष्ट कर देती हैं। प्रतिरक्षा विज्ञानियों के अनुसार टी कोशिकाएं रोगजनकों की पहचान करने में सामान्य तरीके को अपनाती हैं। ये बी कोशिकाओं की तरह स्पाइक-विशिष्ट आक्रमण के विपरीत, वायरस के कई अंशों पर हमला करती हैं जिससे अलग-अलग संस्करण के वायरस उन्हें चकमा नहीं दे पाते हैं।

हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में प्रतिरक्षा विज्ञानियों ने सार्स-कोव-2 से ग्रसित लोगों की टी-कोशिकाओं का परीक्षण किया। वायरस के विभिन्न संस्करणों के खिलाफ टी-कोशिकाओं की प्रतिक्रिया कम नहीं हुई थी। शोधकर्ताओं के अनुसार एक कमज़ोर बी कोशिका प्रतिक्रिया के चलते वायरस को फैलने में मदद मिल सकती है लेकिन टी-कोशिका वायरस को गंभीर रूप से फैलने से रोकने में सक्षम होती हैं।

आने वाले महीनों में, शोधकर्ता नव विकसित जीन अनुक्रमण उपकरणों और क्लोनिंग तकनीकों का उपयोग करके इन कोशिकाओं पर नज़र रखेंगे ताकि वायरस के विभिन्न संस्करणों और नए टीकों के प्रति हमारी प्रतिक्रिया का पता लग सके। इन तकनीकों की मदद से प्रतिरक्षा विज्ञानियों को बड़ी जनसंख्या में व्यापक संक्रमण का अध्ययन और निगरानी करने की नई क्षमताएं मिलती रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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