कोविड और 2020: एक अनोखा वर्ष

र्ष 2020 में एक घातक और अज्ञात वायरस ने विश्व भर में कहर बरपाया जिसमें करोड़ों लोग संक्रमित हुए हैं, 15 लाख से अधिक मौतें हो चुकी हैं, और पूरे विश्व को आर्थिक संकट से गुज़रना पड़ा। हालांकि, इस वर्ष वैज्ञानिक अनुसंधान एवं विकास के अन्य क्षेत्रों में काफी काम हुआ है लेकिन कोविड-19 महामारी ने विज्ञान को असाधारण रूप से प्रभावित किया है।

इस वायरस का पता चलते ही विश्व भर के शोध समूहों ने इसके जीव विज्ञान का अध्ययन किया, कुछ समूह नैदानिक परीक्षण की खोज करने में जुट गए तो कुछ ने जन-स्वास्थ्य उपायों पर काम किया। कोविड-19 के उपचार और टीका विकसित करने के प्रयास किए गए। किसी अन्य संक्रमण के संदर्भ में ऐसी फुर्ती कभी नहीं देखी गई थी। महामारी ने शोधकर्ताओं के कामकाज और व्यक्तिगत जीवन को भी प्रभावित किया। वायरस के प्रभाव का अध्ययन न करने वालों के प्रोजेक्ट्स में देरी हुई, करियर में अस्थिरता आई और अनुसंधान फंडिंग में बाधा आई।      

एक नया वायरस

जनवरी में चीन के वुहान प्रांत में मिले पहले मामले के एक माह के भीतर शोधकर्ताओं ने इसका कारण खोज लिया था: एक नया कोरोनावायरस, जिसे सार्स-कोव-2 नाम दिया गया। 11 जनवरी तक, एक चीनी-ऑस्ट्रेलियाई टीम ने वायरस के जेनेटिक अनुक्रम को ऑनलाइन प्रकाशित कर दिया। इसके बाद वैज्ञानिकों ने यह चौंकने वाली खोज की कि यह वायरस एक से दूसरे व्यक्ति में फैल सकता है।

फरवरी तक शोधकर्ताओं ने बता दिया था कि यह वायरस कोशिकाओं की सतह पर उपस्थित ACE2 ग्राही नामक प्रोटीन से चिपककर कोशिका में प्रवेश करता है। फेफड़ों और आंतों सहित शरीर के कई अंगों की कोशिकाओं पर यह ग्राही पाया जाता है। इसलिए कोविड-19 के लक्षण निमोनिया से लेकर अतिसार और स्ट्रोक तक दिखाई देते हैं। यह वायरस अपने ग्राही से 2003 के श्वसन सम्बंधी सार्स-कोव वायरस की तुलना में 10 गुना अधिक मज़बूती से जुड़ता है।

मार्च में कुछ वैज्ञानिकों ने बताया कि वायरस से भरी छोटी-छोटी बूंदें (एयरोसोल) लंबे समय तक हवा में उपस्थित रह सकती है और संभवत: संक्रमण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लेकिन कई शोधकर्ता असहमत थे और सरकारों एवं जन-स्वास्थ्य संगठनों को यह मानने में काफी समय लगा कि वायरस इस माध्यम से भी फैल सकता है। यह भी पता चला कि लक्षण विकसित होने से पहले ही लोग वायरस फैला सकते हैं। एक हालिया विश्लेषण से यह बात सामने आई है कि सार्स-कोव-2 के आधे मामले लक्षणहीन लोगों द्वारा संक्रमण फैलाने के कारण हुए हैं।

गौरतलब है कि इस वायरस का स्रोत अभी भी एक रहस्य बना हुआ है। साक्ष्यों के अनुसार यह वायरस चमगादड़ से उत्पन्न हुआ और संभवत: एक मध्यवर्ती जीव के माध्यम से मनुष्यों में आ गया। बिल्लियों और मिंक सहित कई जंतु सार्स-कोव-2 के प्रति अतिसंवेदनशील पाए गए हैं। इसके लिए WHO ने सितंबर में मध्यवर्ती जीव का पता लगाने के लिए एक विशेष टीम का गठन किया। इस जांच में चीन सहित कई देशों को शामिल किया गया है। इस बीच अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और अन्य नेताओं ने बिना किसी पुख्ता सबूत के दावा किया कि सार्स-कोव-2 चीन की प्रयोगशाला में विकसित करके छोड़ा गया है। वैज्ञानिकों ने ऐसी किसी भी संभावना से इन्कार किया है।

नियंत्रण के प्रयास

महामारी की शुरुआत से ही महामारी वैज्ञानिकों ने वायरस प्रसार का अनुमान लगाने के लिए कई मॉडल विकसित किए और इसे जन-स्वास्थ्य के विभिन्न उपायों से नियंत्रित करने का सुझाव दिया। टीके या किसी इलाज के अभाव में लॉकडाउन जैसे गैर-चिकित्सीय हस्तक्षेप अपनाए गए। जनवरी में वुहान में सबसे पहले लॉकडाउन लगाया गया, जिसे बाद में अधिकांश देशों द्वारा उसी तरह के प्रतिबंधों के साथ अपनाया गया।

लेकिन लॉकडाउन का आर्थिक प्रभाव काफी गंभीर रहा और कई देशों को वायरस पर नियंत्रण प्राप्त होने से पहले ही लॉकडाउन समाप्त करना पड़ा। वायरस के हवा के माध्यम से प्रसार की अनिश्चितता को देखते हुए मास्क लगाने को लेकर भी बहस छिड़ गई जिसने, विशेष रूप से अमेरिका में, राजनीतिक रूप ले लिया। इसी बीच वायरस को षड्यंत्र बताने वाले सिद्धांत, झूठे समाचार, और अधकचरा विज्ञान भी वायरस की तरह काफी तेज़ी से फैलते गए। यह बात भी उछली कि वायरस को नियंत्रित करने की बजाय उसे अपना रास्ता तय करने दिया जाए।

वैज्ञानिकों ने इस संकट से बाहर आने के लिए व्यापक स्तर पर सार्स-कोव-2 के परीक्षण करने का भी सुझाव दिया। लेकिन कई देशों में बुनियादी उपकरण और पीसीआर परीक्षण में उपयोग होने वाले रसायनों की कमी के चलते काफी अड़चनें आर्इं। इसके मद्देनज़र कई समूहों ने जीन-संपादन विधि CRISPR और त्वरित एंटीजन जांच के आधार पर नए त्वरित परीक्षण विकसित करने का काम किया जो शायद भविष्य में उभरने वाले रोगों के निदान में मदद मददगार होगा। 

वियतनाम, ताइवान और थाईलैंड जैसे देशों ने व्यापक लॉकडाउन, व्यापक स्तर पर परीक्षण, मास्क लगाने के आदेश और डिजिटल माध्यम से कांटैक्ट ट्रेसिंग को अपनाकर वायरस पर शुरुआत में ही नियंत्रण पा लिया। सिंगापुर, न्यूज़ीलैंड और आइसलैंड ने बड़ी संख्या में परीक्षण एवं ट्रेसिंग तकनीक और सख्त आइसोलेशन की मदद से वायरस को लगभग पूरी तरह से खत्म किया और सामान्य जीवन बहाल किया। इन सफलताओं का मुख्य सूत्र सरकारों की तत्परता और निर्णायक रूप से कार्य करने की इच्छा रहा। शुरुआती और आक्रामक कार्यवाहियों ने संक्रमण की रफ्तार को कम किया।

दूसरी ओर, कई अन्य देशों के अधिकारियों के लंबित फैसलों, वैज्ञानिक सलाहों को अनदेखा करने और परीक्षणों को बढ़ाने में हुई देरी की वजह से संक्रमण दर में वृद्धि हुई और दूसरी लहर का सामना करना पड़ा। इसी कारण अमेरिका और पश्चिमी युरोप में कोविड-19 संक्रमण और मौतें एक बार फिर बढ़ रही हैं।

त्वरित टीके

इसी बीच वैज्ञानिक प्रयासों ने एक ऐसी बीमारी के विरुद्ध टीके प्रदान किए जिसके बारे में एक वर्ष पहले तक कोई जानता तक नहीं था। कोविड-19 के विरुद्ध टीके काफी तेज़ी से विकसित किए गए। WHO के अनुसार नवंबर में 200 से अधिक टीके विकसित किए जा रहे थे जिनमें से 50 टीके नैदानिक परीक्षणों के विभिन्न चरणों से गुज़र रहे हैं। इनको विकसित करने में कई तकनीकों का उपयोग किया जा रहा है। इनमें रासायनिक रूप से निष्क्रिय किए गए वायरस का उपयोग करने की पुरानी तकनीक के साथ-साथ नई तकनीकों का भी उपयोग किया गया है।

प्रभाविता के परीक्षणों के आधार पर दवा कंपनी फाइज़र और जर्मन बायोटेक्नोलॉजी कंपनी बायोएनटेक, अमेरिकी कंपनी मॉडर्ना और दवा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका एवं ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के टीके कोविड-19 के विरुद्ध प्रभावी रहे हैं। पिछले माह, फाइज़र को आपातकालीन स्वीकृति के तहत यूके और अमेरिका में टीके के व्यापक उपयोग की अनुमति मिली है। आने वाले हफ्तों में युरोपीय संघ द्वारा युरोप में भी इसके उपयोग की अनुमति मिलने की उम्मीद है। चीन और रूस में विकसित टीकों को अंतिम चरण के परीक्षण पूरा होने से पहले ही उपयोग की मंज़ूरी मिल चुकी है।

गौरतलब है कि फाइज़र और मॉडर्ना ने लगभग 95 प्रतिशत प्रभाविता का दावा किया है जबकि एस्ट्राज़ेनेका और ऑक्सफोर्ड टीकों की प्रभाविता अभी तक अनिश्चित है। लेकिन एक महत्वपूर्ण सवाल है कि यह टीका, विशेष रूप से वृद्ध लोगों में, किस हद तक गंभीर रोग से बचाव कर सकता है और यह कितने समय तक सुरक्षा प्रदान करेगा? यह तो अभी तक वैज्ञानिकों को भी नहीं मालूम कि यह टीका लोगों को वायरस फैलाने से रोक पाएगा या नहीं।

एक सवाल लोगों की टीकों तक पहुंच का भी है। अमेरिका, ब्रिटेन, युरोपीय संघ के सदस्य और जापान जैसे अमीर देशों ने टीके की अरबों खुराकों की अग्रिम-खरीद कर ली है। कम और मध्यम आय वाले देशों के लिए टीका उपलब्ध कराने के लिए कई अमीर देशों का समर्थन प्राप्त है। टीकों के भंडारण और वितरण में काफी समस्याएं आ सकती हैं क्योंकि इन टीकों को शून्य से 70 डिग्री सेल्सियस नीचे (-70 डिग्री पर) रखना अनिवार्य है।

उपचार: नए-पुराने 

महामारी को समाप्त करने के लिए सिर्फ टीका काफी नहीं है। नियंत्रण टीके और दवाइयों के सम्मिलित उपयोग से ही संभव हो सकता है। कुछ संभावित उपचारों के मिले-जुले परिणाम सामने आए हैं। मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के अलावा एचआईवी की दो दवाओं के कॉकटेल ने शुरुआती परीक्षणों में कुछ सकारात्मक परिणाम तो दिखाए लेकिन बड़े स्तर पर ये खास प्रभावी नहीं रहे।

अप्रैल में एक बड़े नैदानिक परीक्षण में रेमेडिसेविर नामक एंटीवायरल दवा का कोविड-19 में काफी समय तक उपयोग किया जाता रहा लेकिन बाद के अध्ययनों से पता चला कि इस दवा के उपयोग से मौतों में किसी प्रकार की कमी नहीं होती है। नवंबर में WHO ने इसका उपयोग न करने की सलाह दी।

वैसे अमेरिका, भारत, चीन और लैटिन अमेरिका के नेताओं द्वारा कोविड-19 के संभावित उपचारों का काफी राजनीतिकरण किया गया। इसमें हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन सहित कई अन्य अप्रामाणिक उपचारों का काफी प्रचार हुआ। अधिकारियों ने ऐसे कई उपचारों के आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी, जिसके चलते नैदानिक परीक्षणों को काफी नुकसान हुआ और सुरक्षा से जुड़ी चिंताएं पैदा हुई। 

जून माह में डेक्सामेथासोन नामक प्रतिरक्षा-दमनकारी स्टेरॉइड तथा प्रतिरक्षा प्रणाली को लक्षित करने वाली दवा टॉसिलिज़ुमैब ने भी कुछ गंभीर रोगियों में सकारात्मक परिणाम दिए हैं। इसके साथ ही कुछ परीक्षण कोविड-19 के हल्के लक्षणों के रोगियों के साथ भी किए गए हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि ये गंभीर बीमारी की संभावना को कितना कम करते हैं। कोविड-19 से स्वस्थ हो चुके रोगियों का ब्लड प्लाज़्मा भी उपयोग किया गया। कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडी के उपयोग से सार्स-कोव-2 को निष्क्रिय किया जा सकता है लेकिन अध्ययनों से साबित नहीं हो पाया है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार एक-एक व्यक्ति की हालत को देखकर कोविड-19 के उपचार में दवाइयों का मिला-जुला उपयोग करना होगा। 

शोध कार्यों में बाधा

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब वैज्ञानिक अनुसंधान इतने व्यापक रूप से बाधित हुआ है। वायरस के फैलते ही मार्च से कई युनिवर्सिटी कैंपस बंद कर दिए गए। प्रयोगशालाओं में आवश्यक प्रयोगों को छोड़कर अन्य सभी प्रयोगों को रोक दिया गया, फील्ड वर्क रद्द कर दिए गए और सम्मेलन वर्चुअल होने लगे। महामारी से सीधे सम्बंध न रखने वाले प्रोजेक्टों की रफ्तार थम गई। अचानक घर से काम करने को मजबूर शोधकर्ता परिवार की देखभाल और लायब्रेरी जैसे संसाधनों की कमी से जूझते रहे। कई छात्र फील्डवर्क और प्रयोगशाला के डैटा के बिना अपनी डिग्री पूरी नहीं कर पाए तो परिवहन के बंद होने से नौकरी की तलाश में भी काफी परेशान आई।

देखा जाए तो सबसे अधिक प्रभावित वे महिलाएं, माताएं, प्रारंभिक शोधकर्ता और ऐसे वैज्ञानिक रहे जिनका विज्ञान में प्रतिनिधित्व काफी कम है। इस महामारी ने एक और कारक बढ़ा दिया जिसके कारण विज्ञान के क्षेत्र में उनका भाग लेना काफी कठिन हो गया है। अप्रैल और मई में ब्राज़ील के 3345 शिक्षाविदों पर किए गए एक सर्वेक्षण में पाया कि इस महामारी के दौरान शोध पत्र प्रस्तुत न कर पाने और समय सीमा पर काम पूरा न करने में सबसे अधिक प्रतिशत अश्वेत महिलाओं का रहा। ऐसे ही आंकड़े अन्य देशों में भी देखे जा सकते हैं।

एक अच्छी बात यह है कि विश्व भर की सरकारों ने उच्च शिक्षा और शोध कार्यों के लिए वित्तीय सहायता भी प्रदान की है। उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया की सरकार ने 2021 में युनिवर्सिटी शोध कार्यों के लिए एक अरब ऑस्ट्रेलियाई डॉलर की राशि प्रदान की है। अगस्त तक कई समुदायों में संक्रमण दर बढ़ने के बावजूद अमेरिका और युरोप के कई विश्वविद्यालयों ने अपने कैंपस खोलने का फैसला किया, जबकि बड़े प्रकोप से ग्रसित भारत और ब्राज़ील जैसे देश में अभी तक पूरी तरह नहीं खोले गए हैं।   

वैसे इस महामारी में कुछ सकारात्मक बातें भी सामने आई हैं। लॉकडाउन के कारण सीमाओं के बंद होने के बाद भी कई क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में बढ़ोतरी हुई है। शोधकर्ताओं ने अपने डैटा को खुले तौर पर साझा करना शुरू किया है। अधिकांश प्रकाशकों ने कोविड से जुड़े लेखों को निशुल्क कर दिया है। अस्थायी रूप से ही सही, लेकिन शोध परंपरा में बदलाव आए हैं। मात्र उत्पादकता की ओर कम ध्यान देने से काम और जीवन के बीच संतुलन जैसे व्यापक मुद्दों पर चर्चा की जा रही है। उम्मीद है कि महामारी के दौरान हुए ऐसे सकारात्मक बदलाव आगे भी जारी रहेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सर्पदंश से अनमोल जीवन की क्षति

हाल ही में जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार हर वर्ष भारत में सर्पदंश से लगभग 30 लाख वर्षों के स्वास्थ्य और उत्पादकता के बराबर नुकसान होता है। इस अध्ययन में विशेष रूप से उन लोगों पर चर्चा की गई है जो सर्पदंश के बाद जीवित रहते हैं लेकिन अंग-विच्छेदन, गुर्दों की बीमारी जैसी स्थितियों से जूझ रहे हैं। गौरतलब है कि भारत में पहली बार इस तरह का विश्लेषण किया गया है। इसे युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन इंस्टिट्यूट ऑफ हेल्थ मैट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन (IHMI) के निक रॉबर्ट्स ने अमेरिकन सोसाइटी ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन एंड हाइजीन द्वारा नवंबर में आयोजित वर्चुअल बैठक में प्रस्तुत किया। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2017 में सर्पदंश के कारण विषाक्तता को एक उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी घोषित किया है। इसके लिए संगठन ने पिछले वर्ष एक वैश्विक पहल की शुरुआत की है जिसमें वर्ष 2030 तक सर्पदंश से होने वाली मौतों और विकलांगता को आधा करने का लक्ष्य है। टोरंटो स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ रिसर्च के निदेशक प्रभात झा और उनके सहयोगियों ने सर्पदंश से होने वाली मौतों का सटीक अनुमान लगाने का प्रयास किया है। अपनी रिपोर्ट में झा ने बताया है कि भारत में प्रति वर्ष लगभग 46,000 मौतें सर्पदंश से होती हैं। इस रिपोर्ट के बाद WHO ने भी अपने अनुमान को संशोधित करके कहा है कि प्रति वर्ष विश्व भर में सर्पदंश से 81,000 से 1,38,000 मौतें होती हैं। ऐसे में भारत को निवारण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 

सर्पदंश के अधिकांश मामले  अस्पतालों या स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच के अभाव में औपचारिक रूप से दर्ज नहीं हो पाते और ऐसे में इसके प्रभाव को कम आंका जाता है। देखा जाए तो इस तरह के मामले अधिकतर गरीब किसानों और उनके परिवारों में होते हैं। इसलिए इन पर अधिक ध्यान भी नहीं दिया जाता है।

भारत में सर्पदंश की अधिकता का एक कारण यहां मौजूद सांपों की 300 से अधिक प्रजातियां हैं जिनमें से 60 प्रजातियां अत्यधिक विषैली हैं। इसके अलावा दूरदराज़ क्षेत्रों में निकटतम स्वास्थ्य केंद्र से दूरी के कारण भी समय पर पहुंचना काफी मुश्किल हो जाता है। क्लीनिकों में एंटी-वेनम दवाओं का अभाव या उनके रखरखाव में लापरवाही भी एक बड़ा कारण है। 

फिर भी क्ष्क्तग्क के विश्लेषण से सर्पदंश के उपरांत जीवित रहे लोगों में होने वाले दीर्धकालिक प्रभावों की पहली मात्रात्मक जानकारी प्राप्त हुई है। ऐसे विश्लेषणों से स्वास्थ्य व्यवस्था की लागत और अन्य सामाजिक दबावों की जानकारी मिल सकती है।

इन अध्ययनों से यह बात तो साफ है कि नीति स्तर पर बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं तक आसान पहुंच की तत्काल आवश्यकता है। सरकार को ग्रामीण क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देते हुए सभी राज्यों में सर्पदंश के उपचार की उपलब्धता बढ़ाने की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19: क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक की सीमा

जापान में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों के बीच विशेषज्ञों ने राष्ट्रव्यापी स्तर पर संक्रमण की रोकथाम के लिए क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक अपनाई थी। अब लग रहा है कि शायद उस तरीके की सीमा आ चुकी है। जापानी स्वास्थ्य मंत्रालय की सलाहकार समिति के अनुसार इस तकनीक की मदद से अब महामारी को नियंत्रित नहीं रखा जा सकता है। यानी अब कोरोनावायरस के संक्रमण को रोकने के लिए कोई अन्य शक्तिशाली कदम उठाना होगा।

गौरतलब है कि जापान में जन-स्वास्थ्य केंद्रों के माध्यम से क्लस्टर-बस्टिंग (प्रसार के स्थानों को चिंहित करना) तकनीक को अपनाया गया था। इसमें संक्रमण के मूल स्रोत का पता लगाने के लिए उलटी दिशा में कांटेक्ट ट्रेसिंग की जाती है। यह तकनीक जापान में वायरस के प्रसार को रोकने में अब तक काफी प्रभावी रही है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार तीसरी लहर में परिस्थिति बदल चुकी है। अब क्लस्टर काफी फैल गए हैं और विविधता भी काफी अधिक है।

देखा जाए तो गर्मी के मौसम में दूसरी लहर के दौरान रात के मनोरंजन स्थलों पर सबसे अधिक क्लस्टर पाए गए थे। लेकिन अब ये क्लस्टर चिकित्सा संस्थानों, कार्यस्थलों और विदेशी बस्तियों सहित कई स्थानों पर पाए जा रहे हैं। ऐसे में स्वास्थ्य-कर्मियों की कमी के कारण जन-स्वास्थ्य केंद्रों में वृद्ध लोगों की देखभाल को प्राथमिकता दी जा रही है। फिर भी जन-स्वास्थ्य केंद्रों का बोझ कम करने के लिहाज़ से विशेषज्ञों की मानें तो यह तकनीक अपनी अंतिम सीमा तक पहुंच चुकी है। वर्तमान स्थिति में राष्ट्र स्तर पर पांच दिनों तक रोज़ाना 2000 से अधिक मामले इस तकनीक की सीमा को उजागर करते हैं।

सलाहकार समिति के एक सदस्य के अनुसार क्लस्टर-बस्टिंग तकनीक का उपयोग केवल तब संभव है जब किसी क्षेत्र में संक्रमण व्यापक रूप से न फैला हो। लेकिन एक खास बात यह भी है कि ऐसे स्थानों को नियंत्रित करना भी मुश्किल होता है जहां आधे से अधिक मामलों में संक्रमण का मार्ग अज्ञात हो। ऐसे हालात में समिति का सुझाव है कि लंबी दूरी की यात्रा पर प्रतिबंध के साथ-साथ सरकार को महामारी नियंत्रित करने के लिए अन्य सख्त कदम उठाने चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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आनुवंशिक विरासत को बदल देता है एपिजेनेटिक्स – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में नेचर पत्रिका में एक रोमांचक पेपर प्रकाशित हुआ है: जेनेटिक रिप्रोग्रामिंग के द्वारा युवावस्था की एपिजेनेटिक जानकारी को बहाल करके दृष्टि लौटाना। पेपर के लेखक युआंगचेंग लू और उनके साथी बताते हैं कि बुढ़ापे का एक कारण ‘एपिजेनेटिक परिवर्तनों’ का जमा होना है जो जीन की अभिव्यक्ति को अस्त-व्यस्त कर देता है, जिससे जीन्स की अभिव्यक्ति का पैटर्न बदल जाता है और डीएनए का मूल काम प्रभावित होता है। यदि विशिष्ट जीन्स का उपयोग करके उन जीन्स को वापिस कार्यक्षम बना दिया जाए (यानी जीन थेरेपी की जाए) तो (चूहों में) दृष्टि क्षमता को बहाल किया जा सकता है।

मनुष्य (और अन्य स्तनधारी जीवों) की आंखें जैव विकास में बना एक महत्वपूर्ण अंग है। इनकी मदद से हम बाहरी दुनिया को रंगीन रूप में स्पष्ट देख पाते हैं। जैव विकास के शुरुआती जीव, जैसे सूक्ष्मजीव और पौधे, प्रकाश के प्रति अलग-अलग तरीकों से प्रतिक्रिया देते हैं, जैसे प्रकाश सोखना और उपयोग करना (मसलन प्रकाश संश्लेषण में)। मानव आंख का अग्र भाग (कॉर्निया, लेंस और विट्रियस ह्यूमर) पारदर्शी और रंगहीन होता है, यह रेटिना पर पड़ने वाले प्रकाश को एक जगह केंद्रित करने में मदद करता है जिससे हमें विभिन्न रंग दिखाई देते हैं। रेटिना ही मस्तिष्क को संदेश भेजने का कार्य करता है। रेटिना का मुख्य भाग, रेटिनल गैंग्लियॉन सेल्स (आरजीसी) जिन्हें न्यूरॉन्स या तंत्रिका कोशिकाएं कहा जाता है, विद्युत संकेतों के रूप में संदेश भेजने में मदद करती हैं। यानी आरजीसी प्रकाश को विद्युत संकेतों में परिवर्तित करती हैं।

कोशिकीय नियंत्रक

हमारे शरीर की कोशिकाओं और ऊतकों के कामकाज हज़ारों प्रोटीन द्वारा नियंत्रित किए जाते हैं। ये प्रोटीन सम्बंधित जीन्स के रूप में कूदबद्ध होते हैं। ये जीन्स हमारे जीनोम या कोशिकीय डीएनए का हिस्सा होते हैं। वंशानुगत डीएनए में यदि छोटा-बड़ा किसी भी तरह का बदलाव (जुड़ना या उत्परिवर्तन) होता है तो प्रोटीन के विकृत रूप का निर्माण होने लगता है। परिणामस्वरूप कोशिका का कार्य गड़बड़ा जाता है। यही मनुष्यों में कई वंशानुगत विकारों का आधार है।

डीएनए या प्रोटीन स्तर के अनुक्रम में परिवर्तनों के अलावा कुछ अन्य जैव रासायनिक परिवर्तन भी होते हैं जो इस बात को प्रभावित करते हैं और तय करते हैं कि किसी कोशिका में कोई जीन सक्रिय होना चाहिए या निष्क्रिय रहना चाहिए। उदाहरण के लिए, इंसुलिन (एक प्रोटीन) बनाने वाला जीन शरीर की प्रत्येक कोशिका में मौजूद होता है, लेकिन यह सिर्फ अग्न्याशय की इंसुलिन स्रावित करने वाली बीटा कोशिकाओं में व्यक्त किया जाता है जबकि शरीर की बाकी कोशिकाओं में इसे निष्क्रिय रखा जाता है। इस प्रक्रिया को नियंत्रक प्रोटीनों के संयोजन द्वारा सख्ती से नियंत्रित किया जाता है। ये नियंत्रक प्रोटीन जीन की अभिव्यक्ति को बदलते हैं। इसके अलावा, हिस्टोन प्रोटीन होते हैं जो डीएनए को बांधते हैं और गुणसूत्रों के अंदर सघन रूप में संजोकर रखने में मदद करते हैं। इन हिस्टोन प्रोटीन्स में भी रासायनिक परिवर्तन हो सकते हैं। जैसे प्रोटीन के विभिन्न लाइसिन अमीनो एसिड पर मिथाइलेशन और एसिटाइलेशन। डीएनए और इससे जुड़े प्रोटीन दोनों पर हुए परिवर्तन गुणसूत्र की जमावट को बदल देते हैं और जीन अभिव्यक्ति को नियंत्रित करते हैं। ये परिवर्तन या तो डीएनए को खोल कर जीन अभिव्यक्ति की अनुमति देते हैं या डीएनए को घनीभूत करके उस स्थान पर उपस्थित जीन को निष्क्रिय या खामोश कर देते हैं।

इस तरह के जैव रासायनिक परिवर्तन, जो किसी कोशिका विशेष में किसी जीन की अभिव्यक्ति निर्धारित करते हैं, को ‘एपिजेनेटिक्स’ कहा जाता है। डीएनए उत्परिवर्तन तो स्थायी होते हैं। उनके विपरीत एपिजेनेटिक परिवर्तन पलटे जा सकते हैं। इनके कामकाज का संचालन कई नियंत्रक प्रोटीन्स द्वारा किया जाता है, जैसे डीएनए मिथाइल ट्रांसफरेज़ (डीएनएमटी), हिस्टोन एसिटाइल ट्रांसफरेज़ (एचएटीएस), हिस्टोन डीएसिटाइलेज़ (एचडीएसी)। ये नियंत्रक प्रोटीन ऐसे परिवर्तनों को जोड़ सकते हैं या हटा सकते हैं, जिनसे किसी अंग या ऊतक के किसी खास जीन को खास तरह से चालू या बंद किया जा सकता है। अग्न्याशय की बीटा कोशिकाओं में इंसुलिन जीन को खुला या सक्रिय रखा जाता है जो प्रोटीन को अभिव्यक्त होने देता है, जबकि अन्य कोशिकाओं में यह जीन निष्किय रहता है। बुढ़ापे, तनाव या किसी बीमारी के चलते हमारे जीन्स का सामान्य एपिजेनेटिक नियंत्रण प्रभावित हो सकता है।

हम यह तो अच्छी तरह जानते हैं कि कई तरह के कैंसर में कोशिका विभाजन को नियंत्रित करने वाले कुछ जीन (ट्यूमर शामक जीन्स) या तो उत्परिवर्तन के कारण या एपिजेनेटिक परिवर्तनों के कारण निष्क्रिय हो जाते हैं, नतीजतन अनियंत्रित कोशिका विभाजन होने लगता है और ट्यूमर बन जाता है। इसी तरह, उम्र बढ़ने की सामान्य प्रक्रिया के साथ होने वाले एपिजेनेटिक परिवर्तनों से कई संदेश या नौजवान जीन्स भी निष्क्रिय हो जाते हैं।

आरजीसी कोशिकाओं के कारण हम स्पष्ट और रंगों को देख पाने में सक्षम हैं। बुढ़ापे के कारण आरजीसी की काम करने की क्षमता धीरे-धीरे कम होने लगती है। इसके अलावा, बाह्र कारक जैसे कि वंशानुगत इतिहास, मधुमेह (टाइप 1 और टाइप 2 दोनों) और अन्य कारक उपरोक्त एपिजेनेटिक परिवर्तनों द्वारा सामान्य स्थिति को बदल देते हैं।

उपरोक्त शोधपत्र पर मैंने अपने साथियों, इंदुमति मरियप्पन (कोशिका जीव विज्ञान में ट्रांसलेशनल शोधकर्ता) और जी. चंद्रशेखर (ग्लकामो में विशेष रुचि रखने वाले नैदानिक विशेषज्ञ) की प्रतिक्रिया जानना चाही। डॉ. मरियप्पन बताती हैं कि मनुष्यों में इस तरह के प्रयोग पर विचार करना जोखिम भरा हो सकता है क्योंकि हरेक कोशिका में इतने सारे अज्ञात और अनिश्चित प्रभाव हो सकते हैं जिससे ऐसा कुछ अप्रत्याशित घट सकता है जिसे वापस ठीक नहीं किया जा सकेगा और डीएनए स्थायी रूप से परिवर्तित हो जाएगा। लेकिन वे कहती हैं कि मोतियाबिंद के अध्ययन के लिए इस तरह के प्रयोग जंतु मॉडल, जैसे माइस, चूहे और ज़ेब्राफिश पर किए जा सकते हैं। डॉ. चंद्रशेखर कहते हैं कि वास्तविक कसौटी तो यह होगी कि क्या अन्य प्रयोगशालाओं में इस तरह के परीक्षण बुढ़ापे के कारण प्रभावित अन्य अंगों जैसे हृदय, फेफड़ों और गुर्दों पर सफलतापूर्वक करके देखे जा सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विश्व एक साथ कई महामारियों से जूझ रहा है

विश्व एड्स दिवस (1 दिसंबर) हमें याद दिलाता है कि वर्तमान में हम ना सिर्फ कोविड-19 बल्कि कई अन्य महामारियों का एक साथ सामना कर रहे हैं। इनमें से एक महामारी एड्स की है जिसने पिछले चालीस सालों में लगभग सवा तीन करोड़ लोगों की जान ली है।

यूएनएड्स के अनुसार, वर्ष 2019 में विश्व में लगभग 3.8 करोड़ लोग एचआईवी से संक्रमित थे और एड्स-सम्बंधी बीमारियों से लगभग 6.9 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। वर्ष 2004 में एड्स से सर्वाधिक मौतें हुई थीं। उसके मुकाबले वर्ष 2019 में एड्स की मृत्यु दर में 60 प्रतिशत की कमी आई थी। लेकिन मुमकिन है कि कोविड-19 के फैलने से इन 15 सालों में एड्स मृत्यु दर में आई यह कमी प्रभावित हो।

कोविड-19 ने एचआईवी संक्रमितों और एड्स कार्यकर्ताओं के लिए कई मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। जैसे लॉकडाउन के दौरान लोगों के एचआईवी परीक्षण और उपचार की मुश्किल। कोविड-19 के कारण एचआईवी, टीबी और मलेरिया से प्रभावित लोगों की देखभाल के लिए ज़रूरी संसाधनों-औषधियों की आपूर्ति और उन तक लोगों की पहुंच प्रभावित हुई। इसके अलावा अफीमी दवाइयों की लत, ओवरडोज़ के कारण होने वाली मौतें और एचआईवी जैसी समस्याएं इस दौरान नज़रअंदाज़ रहीं।

कोरोनावायरस का टीका जल्द ही बाज़ार में आने वाला है। उम्मीद है कि यह टीका कम से कम एक महामारी से तो निज़ात दिलाएगा और उन लोगों को राहत पहुंचाएगा जो पहले ही काफी प्रभावित हैं। लेकिन एड्स के इतिहास को देखकर यह उम्मीद पूरी होती तो नहीं लगती।

पिछले 25 वर्षों से एचआईवी के लिए प्रभावी एंटीरेट्रोवायरल दवाएं मौजूद हैं। फिर भी हर साल एड्स से लाखों लोग मारे जाते हैं, इन मरने वालों में ज़्यादातर अश्वेत होते हैं। ऐसा क्यों है? और इस अनुभव के आधार पर कोरोनावायरस के टीके के बारे में क्या अंदाज़ा मिलता है?

अब तक एचआईवी का कोई टीका तो नहीं बन सका है। लेकिन एचआईवी के साथ जी रहे लोग एंटीरेट्रोवायरल उपचार (ART) और एचआईवी के जोखिम वाले लोग सुरक्षा के लिए प्री-एक्सपोज़र प्रोफायलैक्सिस (PrEP) लेते हैं, जो कुछ हद तक टीकों का काम कर देते हैं। ये उपाय ना केवल एचआईवी जोखिम वाले या एचआईवी संक्रमित लोगों के लिए मददगार हैं बल्कि ये उपाय अन्य लोगों में एचआईवी के प्रसार पर भी अंकुश लगाते हैं।

इसी तरह कुछ अन्य टीकों जैसे खसरा, इन्फ्लूएंज़ा (या संभवत: कोविड-19) का टीकाकरण ना केवल टीकाकृत व्यक्ति को संक्रमण से सुरक्षित रखता है बल्कि उनसे होने वाले रोगजनक के प्रसार को थाम कर आसपास के लोगों भी सुरक्षित करता है।

लेकिन वास्तव में स्थिति इसके उलट भी बनती है। जब औषधियों-टीकों से संरक्षित लोगों में किसी वायरस का प्रसार कम हो जाता है और भेदभाव पूर्ण नीति के कारण इन टीकों-औषधियों से कुछ खास वर्ग, नस्ल के लोग वंचित रह जाते हैं तो नतीजतन इन वंचित लोगों में वायरस संक्रमण का जोखिम और भी बढ़ जाता है। इस तरह, पहले से मौजूद असमानता की खाई और गहरी हो जाती है। एड्स के मामले में ऐसा ही हुआ था; एंटीरेट्रोवायरल उपचार के उपलब्ध हो जाने के बाद भी एड्स की बीमारी कुछ चुनिंदा वर्ग/नस्ल की बनकर रह गई, और असमानता की यह खाई और भी चौड़ी हो गई।

कोरोनावायरस के संभावित टीकों के समानतापूर्ण वितरण के अभाव में हाशियाकृत लोगों में कोरोनोवायरस का संक्रमण फैलता रहेगा, जैसा कि अमेरिका में अश्वेत लोगों में एचआईवी का संक्रमण अत्यधिक है।

वैसे तो एड्स वायरस और कोविड-19 वायरस प्रसार और संक्रमण की दृष्टि से बहुत भिन्न हैं, लेकिन ये दोनों ही एक ही तरह की आबादी को प्रभावित करते हैं, खासकर बेघर लोगों को। अश्वेत अमेरिकी आबादी के लगभग आधे से दो तिहाई लोग मजबूरन बेघर हैं। बेघर लोगों को अपराधी की तरह देखा जाता है जो उन्हें गरीबी, उत्पीड़न, यौन शोषण, स्वास्थ्य देखभाल की कमी, औपचारिक अर्थव्यवस्था से बेदखली, कारावास और विभिन्न अन्य बीमारियों की ओर धकेलता है जो एचआईवी और एड्स के जोखिम को बढ़ाती हैं। बेघर होना स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच भले ही अंसभव ना करे लेकिन मुश्किल ज़रूर कर देता है।

एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 के डैटा के अनुसार अमरीका में लगभग 37 लाख लोग घरों से निकाल दिए गए थे, खासकर अश्वेत और हिस्पैनिक किराएदार। उसके बाद से यूएस में आवास का संकट और विकट हुआ है तथा बेघरों की संख्या बहुत बढ़ी है। यह ज़रूरी नहीं कि बेघर लोग सड़कों पर ही रहें। वे रात गुज़ारने भर की जगह तलाशते हैं, आश्रय स्थलों में रहते हैं, कार में या बाहर सोते हैं, या दोस्तों या परिवार के साथ रहने लगते हैं। जिन लोगों के साथ वे रहने लगते हैं उनमें से अधिकतर लोग उच्च जोखिम वाले काम करते हैं इसलिए सभी में संक्रमण फैलने के आसार बढ़ जाते हैं।

बेघर किए जाने के कारण कोविड-19 परीक्षण और चिकित्सकीय देखभाल मिलने की संभावना भी कम हो जाती है। और यदि कोरोनोवायरस के टीकों की एक से अधिक खुराक देने की ज़रूरत होगी, तो समस्या और भी गंभीर हो जाएगी। क्योंकि दर-दर भटकने को मजबूर लोग टीकों की एक से अधिक खुराक कैसे नियमित रूप से ले पाएंगे? यही समस्या एचआईवी के साथ भी थी। नियमित चिकित्सा लाभ लेने के लिए एक स्थिर ठिकाना तो चाहिए ही।

इसलिए हम एड्स महामारी की इन गलतियों से सबक लेते हुए, एड्स और उसके साथ-साथ कोविड-19 महामारी को भी समाप्त करने के प्रयास तो कर ही सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शोध में लिंग और जेंडर को शामिल करने का संघर्ष

सुरक्षित दवाएं, उत्पाद और यहां तक कि पर्यावरण में उथल-पुथल उन शोधों का परिणाम हैं जिनमें सेक्स और जेंडर को शामिल नहीं किया गया था। इसी के मद्देनज़र युरोपीय आयोग, उसके द्वारा होराइज़न युरोप नामक कार्यक्रम के तहत वित्तपोषित समस्त अनुसंधान के लिए, साल 2021 से सेक्स और जेंडर विश्लेषण अनिवार्य कर देगा। अनुसंधान कार्यक्रमों से उम्मीद होगी कि वे अध्ययन की रूपरेखा तैयार करने से लेकर डैटा संग्रह और विश्लेषण तक के हर चरण में इन कारकों को ध्यान में रखें। यह नीति विशुद्ध गणित जैसे विषयों के अलावा सभी विषयों पर लागू होगी।

स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी की लोन्डा शीबिंजर की अध्यक्षता में 25 सदस्यीय समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट शोधकर्ताओं का मार्गदर्शन करती है कि आर्थिक प्रबंधन से लेकर कृषि अनुसंधान तक सभी विषयों में इन कारकों को किस तरह शामिल किया जा सकता है। शीबिंजर बताती है कि सेक्स और जेंडर कारकों को शोध में ना शामिल होने के कारण हुई विफलताओं के परिणाम हमारे सामने हैं। जैसे, 1997 से 2001 के बीच अमरीकी बाज़ार से लगभग 10 दवाओं को वापस लिया गया था, जिनमें से आठ दवाएं पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक हानिकारक थीं। जब दवाएं नाकाम होती हैं तो धन की बरबादी के अलावा लोग पीड़ा झेलते है और जान तक गंवा देते हैं। इसलिए, शिबिंजर को लगता है कि कोशिका और जानवरों पर होने वाले परीक्षणों से लेकर मनुष्यों पर होने वाले क्लीनिकल परीक्षण तक, सभी में पुरुषों और महिलाओं का डैटा अलग-अलग लेना चाहिए और उनका अलग-अलग विश्लेषण करना चाहिए। शोध में उम्र और आनुवंशिक वंशावली देखना भी महत्वपूर्ण है, और गर्भवती महिलाओं पर असर को भी अलग से देखने की ज़रूरत है।

और उनके मुताबिक यह सिर्फ महिलाओं की बात नहीं है – इसका सम्बंध शोध के सही होने से भी है। उदाहरण के लिए, ऑस्टियोपोरोसिस (अस्थि-छिद्रता) की समस्या को अक्सर रजोनिवृत्त (मीनोपॉज़) होती महिलाओं की समस्या के रूप में देखा जाता है और पुरुष उपेक्षित रह जाते हैं।

शोध में इन कारकों को अपनाने में देरी को लेकर वे कहती हैं कि जागरूकता तो धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन अधिकतर शोधकर्ता इस तरह का विश्लेषण करना अच्छी तरह नहीं जानते। इस सम्बंध में उनकी पहली रिपोर्ट 2013 में आई थी और अब यह दूसरी रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट का ज़ोर ना सिर्फ सेक्स और जेंडर पर है बल्कि उम्र, भौगोलिक स्थिति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रभाव भी शामिल किए गए हैं। दूसरा, जेंडर को सिर्फ स्त्री और पुरुष के रूप में न देखकर जेंडर-विविधता के पूरे परास को ध्यान में रखा गया है।

उनका कहना है कि शोधकर्ता इन विश्लेषणों में कई गलतियां करते हैं। सबसे बड़ी गलती तो यही है कि वे सेक्स, जेंडर और तबकों के आपसी सम्बंधों को अनदेखा करते हैं। दूसरी आम गलती यह है कि शोधकर्ता जन्मजात लिंग और सामाजिक जेंडर के बीच अंतर नहीं करते। यह समझना ज़रूरी है कि जेंडर पर जातीयता, आयु और संस्कृति का असर होता है। शोध में सही परिवर्ती चुनने, सही ढंग से डैटा जुटाने और अच्छी तरह विश्लेषण करना ज़रूरी है।

शीबिंजर का कहना है कि कुछ समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में सेक्स और जेंडर विश्लेषण की नीतियां हैं। लेकिन इंजीनियरिंग के जर्नलों में भी इस तरह की नीतियां होना चाहिए। एक बड़ी समस्या यह है कि विज्ञान और इंजीनियरिंग, और यहां तक कि चिकित्सा की कक्षाओं में भी इस तरह के विश्लेषण नहीं सिखाए जाते। इंजीनियरिंग में इस बात पर विचार ही नहीं किया जाता कि वृद्ध लोगों, खासकर महिलाओं की कमज़ोर हड्डियों के अध्ययन के लिए ‘क्रैश-टेस्ट डमी’ (मानव डमी) बनाई जाएं।

वैसे कुछ सकारात्मक उदाहरण भी सामने आए हैं। जैसे हारवर्ड विश्वविद्यालय और स्टैनफोर्ड में अब कंप्यूटर विज्ञान में एक कोर्स पढ़ाया जा रहा है। इसमें छात्रों को एल्गोरिद्म के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों और परिणामों के बारे में सोचने के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है। जैसे, कोर्स में इस बात पर चर्चा की जाती है कि किसी एक समूह के लोगों को नज़रअंदाज़ करने पर कृत्रिम बुद्धि क्या और कितनी समस्याएं पैदा कर सकती है।

वर्तमान संदर्भ में वे बताती हैं कि कोरोनावायरस महामारी में लिंग और जेंडर के प्रभाव का विश्लेषण करना बहुत ज़रूरी है। कोविड-19 की एक केस स्टडी में उन्होंने पाया था कि वायरस के प्रति अलग-अलग लिंग के लोगों की प्रतिक्रिया में अंतर था, लेकिन इसमें जेंडर भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसा कि दिख रहा है, कोविड-19 से पुरुष अधिक मर रहे हैं, और ऐसा जेंडर सम्बंधी कायदों और व्यवहार के कारण है। उदाहरण के लिए, अधिक पुरुष धूम्रपान करते हैं और सामान्यत: हाथ कम धोते हैं। दूसरी ओर, स्वास्थ्य कार्यकर्ता अधिकतर महिलाएं होती हैं, वे वायरस के संपर्क में अधिक आ सकती हैं।

उन्होंने कुछ ऐसे अनुसंधान विषयों के बारे में भी बताया है जिनके बारे में जानकर लोगों को शायद आश्चर्य होगा कि इनमें भी सेक्स और जेंडर का विश्लेषण आवश्यक है? ये विषय सीधे-सीधे मनुष्यों से सम्बंध नहीं रखते। जैसे कुछ समुद्री जीवों का लिंग विश्लेषण करना बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ जीवों में लिंग निर्धारण तापमान से होता है। यदि नर-मादा के अनुपात या उभयलिंगी में बहुत अंतर आएगा तो ये जीव विलुप्त हो जाएंगे। जैसे, एक अध्ययन में देखा गया कि ग्रेट बैरियर रीफ के उत्तरी भाग में 99 प्रतिशत कछुए मादा थे, जबकि अपेक्षाकृत ठंडे दक्षिणी भाग में सिर्फ 67 प्रतिशत कछुए मादा थे। इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) किस तरह से लिंग अनुपात को बदल रही है, ताकि हम पारिस्थितिक तंत्रों का बेहतर प्रबंधन कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आपातकालीन टीका: वैज्ञानिकों की दुविधा

कोविड-19 टीकों के शुरुआती क्लीनिकल परीक्षणों के सकारात्मक परिणामों के बाद से ही इनके ‘आपातकालीन उपयोग’ की स्वीकृति की मांग होने लगी है। इस तरह की मांग ने वैज्ञानिकों की चिंता बढ़ा दी है। वैज्ञानिकों की प्रमुख चिंता यह है कि इस तरह के उपयोग से चलते हुए क्लीनिकल परीक्षण खटाई में पड़ जाएंगे। दवा कंपनी नोवर्टिस के वैक्सीन डिज़ाइन के पूर्व प्रमुख क्लाउस स्टोहर इसे टीका विकास के लिए असमंजस के रूप में तो देखते हैं लेकिन आपातकालीन उपयोग के पक्ष में भी हैं क्योंकि शुरुआती चरणों में प्रभावशीलता स्थापित हो गई है।

इस संदर्भ में गौरतलब है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने नवंबर माह में ही पोलियो टीकाकरण के लिए एक नए टीके को कुछ देशो में आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी दे दी है। जबकि इस टीके के तो तीसरे चरण के परीक्षण अभी शुरू भी नहीं हुए हैं।

इसी दौरान टीका निर्माता फाइज़र और बायोएनटेक ने तीसरे चरण के परीक्षणों के बाद इस तरह की विनियामक अनुमति की मांग की है। देखा जाए तो कोविड-19 के लिए यूएस एफडीए के नियमों के अनुसार आपातकालीन उपयोग में आधे प्रतिभागियों पर डोज़ देने के दो माह बाद तक निगरानी रखी जानी चाहिए। फिलहाल फाइज़र और बायोएनटेक इस लक्ष्य को पार कर चुके हैं।

लेकिन इससे जुड़ी कुछ नैतिक समस्याएं भी हैं। परीक्षण के दौरान आम तौर पर प्रतिभागियों को ‘अंधकार’ में रखा जाता है कि उनको टीका दिया गया है या प्लेसिबो। लेकिन एक बार जब टीका काम करने लगता है तो प्लेसिबो समूह के प्रतिभागियों को टीका न देकर असुरक्षित रखना अनैतिक लगता है। स्टोहर के अनुसार यदि इन परीक्षणों में बड़ी संख्या में प्रतिभागी पाला बदलकर ‘प्लेसिबो समूह’ से ‘टीका समूह’ में  चले जाएंगे तो क्लीनिकल परीक्षण से सही आंकड़े प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा और टीके के दीर्घकालिक प्रभावों की बात धरी की धरी रह जाएगी। अर्थात जल्दबाज़ी से टीके की प्रभाविता का पर्याप्त डैटा नहीं मिल पाएगा। इससे यह पता लगाना भी मुश्किल होगा कि टीका कितने समय तक प्रभावी रहेगा और क्या इससे संक्रमण को रोका जा सकता है या फिर यह सिर्फ लक्षणों में राहत देगा। फिर भी फाइज़र के प्रवक्ता के अनुसार कंपनी एफडीए के साथ प्रतिभागियों के क्रॉसओवर और प्रभाविता को मापने के लिए डैटा एकत्र करने की प्रकिया पर चर्चा करेगी।

कुछ वैज्ञानिकों का सुझाव है कि ऐसे प्रतिभागी जिनको शुरुआत में प्लेसिबो प्राप्त हुआ है और बाद में टीका लगवाते हैं, उनका निरीक्षण एक अलग समूह के रूप में किया जा सकता है। इस तरह से ऐसे समूहों के बीच टीके की दीर्घकालिक प्रभाविता और सुरक्षा की तुलना भी की जा सकेगी।

फिर भी, एक बार कोविड-19 टीके को आपातकालीन स्वीकृति मिलने से टीके का परीक्षण और अधिक जटिल हो जाएगा। ऐसे में नए परीक्षण शुरू करने वाली कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके टीके आपातकालीन स्वीकृति प्राप्त टीकों से बेहतर हैं। इसके लिए उनकी परीक्षण की प्रक्रिया और अधिक महंगी हो जाएगी। कुल मिलाकर बात यह है कि किसी भी टीके को मंज़ूरी मिलना, भले ही आपातकालीन उपयोग के लिए हो, टीकों के बाज़ार में आने के परिदृश्य को बदल देगा।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 और गंध संवेदना का ह्रास

कोविड-19 से ग्रस्त लगभग 80 प्रतिशत लोगों में गंध संवेदना के ह्रास की बात सामने आई है। समस्या इतनी आम है कि एक सुझाव है कि इसे एक नैदानिक परीक्षण के रूप में उपयोग किया जाए। इस महामारी की शुरुआत में सोचा गया था गंध संवेदना की क्षति का मतलब है कि वायरस नाक के माध्यम से मस्तिष्क में पहुंचकर गंभीर व दीर्घावधि क्षति पहुंचा सकता है। यह सोचा गया कि वायरस शायद गंध-संवेदी तंत्रिकाओं के ज़रिए मस्तिष्क तक पहुंचता होगा। लेकिन हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोसाइंटिस्ट संदीप रॉबर्ट दत्ता के हालिया अध्ययन से पता चला है कि गंध की क्षति का कारण नाक की उपकला की क्षति से है। यह कोशिकाओं की एक ऐसी परत होती है जो गंध को दर्ज करती है। दत्ता को लगता है कि वायरस सीधे-सीधे न्यूरॉन्स को नहीं बल्कि सपोर्ट कोशिकाओं और स्टेम कोशिकाओं पर हमला करता है।  

गंध संवेदी (घ्राण) तंत्रिकाओं में ACE2 ग्राही नहीं होते हैं। ACE2 ग्राही ही वायरस का कोशिकाओं में प्रवेश संभव बनाते हैं। लेकिन इन घ्राण तंत्रिकाओं से सम्बंधित सस्टेंटेक्यूलर कोशिकाओं में ये ग्राही बहुतायत में पाए जाते हैं। ये कोशिकाएं श्लेष्मा में आयन का नाज़ुक संतुलन बनाए रखती हैं। तंत्रिकाएं मस्तिष्क को संदेश भेजने के लिए इसी संतुलन पर निर्भर करती हैं। यह संतुलन गड़बड़ा जाए तो तंत्रिका संदेश ठप हो जाते हैं और साथ ही गंध संवेदना भी।

मामले को समझने के लिए पेरिस सैकले युनिवर्सिटी के न्यूरोसाइंटिस्ट निकोलस मुनियर ने कुछ चूहों को सार्स-कोव-2 से संक्रमित किया। दो दिन बाद लगभग आधे चूहों की सस्टेंटेक्यूलर कोशिकाएं संक्रमित थीं लेकिन दो हफ्तों बाद भी घ्राण तंत्रिकाएं संक्रमित नहीं हुई थीं। यह भी देखा गया कि घ्राण उपकला पूरी तरह से अलग हो गई थी जैसे धूप से झुलसकर चमड़ी अलग हो जाती है। हालांकि घ्राण तंत्रिकाएं संक्रमित नहीं हुई लेकिन उनके रोम पूरी तरह से खत्म हो गए थे। इस तरह से घ्राण उपकला के विघटन से गंध संवेदना की क्षति की व्याख्या तो की जा सकती है। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह क्षति वायरस के कारण हुई है या इसके लिए प्रतिरक्षा कोशिकाएं ज़िम्मेदार हैं। संक्रमण के बाद प्रतिरक्षा कोशिकाएं भी सस्टेंटेक्यूलर कोशिकाओं में देखी गर्इं। एक बात साफ है कि सामान्यत: श्वसन सम्बंधी संक्रमणों में घ्राण उपकला की सस्टेंटेक्यूलर कोशिकाओं में संक्रमण नहीं देखा गया है, यह सार्स-कोव-2 का विशेष लक्षण है।

अब तक यह समझ में नहीं आया है कि यह वायरस स्वाद संवेदना को कैसे ध्वस्त करता है। स्वाद संवेदना कोशिकाओं में तो ACE2 ग्राही नहीं होते लेकिन जीभ की अन्य सहायक कोशिकाओं में ये ग्राही उपस्थित होते हैं जो शायद स्वाद संवेदना के कम होने का कारण बनते हैं। यह भी हो सकता है कि गंध संवेदना जाने के कारण स्वाद प्रभावित हो रहा हो क्योंकि स्वाद की अनुभूति काफी हद तक गंध पर निर्भर करती है।

रासायनिक संवेदना की कमी, जैसे तीखी मिर्च या ताज़े पुदीने की संवेदना, का गायब होना भी अभी तक अस्पष्ट है। दरअसल, ये संवेदनाएं स्वाद नहीं हैं। इनके संदेश दर्द-संवेदना तंत्रिकाओं द्वारा भेजे जाते हैं। इनमें से कुछ में ACE2 ग्राही भी होते हैं।

गंध अनुभूति की क्षति अलग-अलग मरीज़ों में अलग-अलग अवधियों के लिए देखी गई है। कुछ में तो छ: माह बाद भी गंध महसूस करने की क्षमता लौटी नहीं है। कई शोधकर्ता इसका इलाज खोजने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन अब तक कोई सफलता नहीं मिली है। (स्रोत फीचर्स)

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तंबाकू उद्योग की राह पर वैपिंग उद्योग

धूम्रपान से होने वाले नुकसान तो आज जगज़ाहिर हैं। भले ही अब टीवी-अखबारों या अन्यत्र आपको कहीं धूम्रपान को बढ़ावा देने वाले विज्ञापन देखने ना मिलें, लेकिन एक समय था जब सिगरेट कंपनियों और तंबाकू उद्योग ने सिगरेट का खूब प्रचार किया। विज्ञापनों में सिगरेट पीने वाले को खुशमिज़ाज, बहादुर और स्वस्थ व्यक्ति की तरह पेश किया गया और धूम्रपान को बढ़ावा दिया गया। और अब, इसी राह पर वैपिंग उद्योग चल रहा है। वैपिंग उद्योग की रणनीति को समझने के लिए हमें तंबाकू उद्योग का इतिहास समझने की ज़रूरत है।

वैपिंग या ई-सिगरेट एक बैटरी-चालित उपकरण है, जिसमें निकोटिन या अन्य रसायनयुक्त तरल (ई-लिक्विड या ई-जूस) भरा जाता है। बैटरी इस तरल को गर्म करती है जिससे एरोसोल बनता है। यह एरोसोल सिगरेट के धुएं की तरह पीया जाता है। बाज़ार में ई-सिगरेट के कई स्वाद और विभिन्न तरल रसायनों के विकल्प उपलब्ध हैं।

1950 के दशक में बड़े तंबाकू उद्योग का काफी बोलबाला था। उस समय तंबाकू उद्योग ने सिगरेट को ना सिर्फ मौज-मस्ती के लिए पी जाने वाली वस्तु बनाकर पेश किया बल्कि इसे विज्ञान की वैधता देने की भी कोशिश की। धीरे-धीरे शोध में यह सामने आने लगा कि धूम्रपान सेहत के लिए हानिकारक है। यह फेफड़ों के कैंसर, ह्रदय सम्बंधी तकलीफों व कई अन्य समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है।

लेकिन तंबाकू उद्योग ने स्वास्थ्य सम्बंधी इन खतरों को नकारना शुरू कर दिया। तंबाकू उद्योग ने इन अनुसंधानों को ही कटघरे में खड़ा कर दिया और कहा कि सिगरेट को हानिकारक बताने वाले कोई साक्ष्य मौजूद नहीं हैं। इससे भी एक कदम आगे जाकर तंबाकू उद्योग ने अनुसंधानों के लिए पैसा देना शुरू कर दिया, और ऐसे अनुसंधानो को बढ़ावा दिया जो धूम्रपान के हानिकारक असर को लेकर अनिश्चितता बनाए रखते थे। शोध में यह भी दर्शाया गया कि धूम्रपान स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं डालता। उद्योग के इस रवैये से धूम्रपान के नियमन में देरी हुई। नतीजा एक महामारी के रूप में हमारे सामने है।

और अब ई-सिगरेट विज्ञान के लिए चुनौती बना हुआ है। कई सालों से ई-सिगरेट को सिगरेट छोड़ने में मददगार और सुरक्षित कहकर, सिगरेट के विकल्प की तरह पेश किया जा रहा है। धीरे-धीरे वैपिंग उद्योग ई-सिगरेट को मज़े, फैशन और स्टाइल का प्रतीक बनाता जा रहा है और इसके उपयोग को बढ़ावा दे रहा है। अमेरिका व कई अन्य देशों में सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से वैपिंग किशोरों और यहां तक कि मिडिल स्कूल के बच्चों के बीच लोकप्रिय होती जा रही है। वैपिंग उद्योग दो तरह से फैल रहा है: एक तो किशोर उम्र के बच्चे इसके आदी होते जा रहे हैं, और दूसरा, जिन लोगों ने सिगरेट छोड़ दी थी वे अब ई-सिगरेट लेने लगे हैं।

शोध बताते हैं कि ई-सिगरेट के स्वास्थ्य पर लगभग वैसे ही दुष्प्रभाव होते हैं जैसे सिगरेट के होते हैं। अधिकतर ई-सिगरेट में निकोटिन होता है जो ह्रदय सम्बंधी समस्याओं को तो जन्म देता ही है, साथ ही किशोरों के मस्तिष्क विकास को भी प्रभावित करता है। इसके अलावा ई-सिगरेट के अन्य दुष्प्रभाव भी हैं। जैसे कुछ ब्रांड इसमें फार्मेल्डिहाइड का उपयोग करते हैं जो एक कैंसरकारी रसायन है, यानी फेफड़ों के कैंसर की संभावना भी बनी हुई है। वहीं एक शोध में पता चला है कि सिगरेट की लत छोड़ने से भी अधिक मुश्किल ई-सिगरेट की लत छोड़ना है। और, हाल ही में हुए एक शोध में संभावना जताई गई है कि ई-सिगरेट पीने वालों में फेफड़ों की क्षति के चलते कोविड-19 अधिक गंभीर रूप ले सकता है।

लेकिन वैपिंग उद्योग तंबाकू उद्योग के ही नक्श-ए-कदम पर चल रहा है। यह इन दुष्प्रभावों को झुठलाने की कोशिश कर रहा है। इसी प्रयास में इसने अपना एक शोध संस्थान भी स्थापित कर लिया है। वैपिंग उद्योग शोधकर्ताओं को अपने यहां शोध करने का आमंत्रण देकर अपने उत्पाद को वैध साबित करना चाहते हैं। और ई-सिगरेट पीने वालों में आलम यह है कि वे वैपिंग के दुष्प्रभाव बताने वाले शोधों के खिलाफ और वैपिंग के पक्ष में प्रदर्शन करते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना में हेल्थ बिहेवियर के एसोसिएट प्रोफेसर समीर सोनेजी कहते हैं कि चिंता का विषय यह है कि फायदे-नुकसान की इस बेमतलब बहस में ई-सिगरेट के नियमन में देरी हो रही है और इस देरी के आगे गंभीर परिणाम हो सकते हैं। बहरहाल, भारत समेत कुछ देशों ने इसके उपयोग और व्यापार पर कुछ प्रतिबंध तो लगाया है।(स्रोत फीचर्स)

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असाधारण कैंसर रोगियों से कैंसर उपचार में सुधार

कैंसर की बढ़िया से बढ़िया दवाइयां भी कैंसर के गंभीर मरीज़ों को जीने की ज़्यादा मोहलत नहीं दे पातीं। लेकिन कुछ अपवाद मरीज़ों के ट्यूमर इन्हीं दवाइयों से कम या खत्म हुए, और वे कई वर्षों तक तंदुरुस्त रहे हैं। शोधकर्ता लंबे समय से इन अपवाद मरीज़ों को नज़रअंदाज़ करते आए थे। लेकिन अब इन मरीज़ों पर व्यवस्थित अध्ययन करके जो जानकारी मिल रही है वह कैंसर उपचार को बेहतर बना सकती है।

ऐसे एक प्रयास में, अमेरिका के राष्ट्रीय कैंसर संस्थान के लुईस स्टॉड की अगुवाई में कैंसर के 111 अपवाद मरीज़ों के ट्यूमर, और ट्यूमर के भीतर और उसके आसपास की प्रतिरक्षा कोशिकाओं के डीएनए का अध्ययन किया गया। शोधकर्ताओं को 26 मरीज़ों के ट्यूमर या प्रतिरक्षा कोशिकाओं में जीनोमिक परिवर्तन दिखे। इन परिवर्तनों से पता लगाया जा सकता है कि क्यों जो औषधियां इन मरीज़ों पर कारगर रहीं वे अधिकतर लोगों पर असरदार नहीं रहतीं।

अध्ययन के लिए ऐसे 111 मरीज़ों के ट्यूमर और प्रतिरक्षा कोशिकाओं के डीएनए का डैटा चुना गया जिनके ट्यूमर ऐसी दवा के असर से कम या खत्म हो गए थे जिस दवा ने परीक्षण में 10 प्रतिशत से भी कम मरीज़ों पर असर किया था, या उन मरीज़ों को चुना गया जिनमें दवा का असर सामान्य की तुलना में तीन गुना अधिक समय तक रहा।

शोधकर्ता 26 मरीज़ों की उपचार के प्रति प्रतिक्रिया की व्याख्या कर पाए। उदाहरण के लिए मस्तिष्क कैंसर से पीड़ित मरीज़, जो टेमोज़ोलोमाइड नामक औषधि से उपचार के बाद 10 साल से अधिक जीवित रहा था, उसके ट्यूमर में ऐसे जीनोमिक परिवर्तन दिखे जो ट्यूमर कोशिकाओं के डीएनए की मरम्मत की दो कार्यप्रणालियों को बाधित करते हैं। टेमोज़ोलोमाइड डीएनए को क्षतिग्रस्त करके कैंसर कोशिकाओं को मारती है।

कोलोन कैंसर से पीड़ित मरीज़ में टेमोज़ोलोमाइड उपचार के 4 वर्ष बाद दो जीनोमिक परिवर्तन हुए जो डीएनए मरम्मत के दो मार्ग अवरुद्ध करते हैं। उसी मरीज़ को दी गई एक अन्य दवा ने डीएनए मरम्मत के तीसरे मार्ग को अवरुद्ध कर दिया था। कैंसर सेल पत्रिका में प्रकाशित इन परिणामों से लगता है कि डीएनए की मरम्मत करने वाले विभिन्न मार्गों को अवरुद्ध करने वाली औषधियों के मिले-जुले उपयोग से उपचार को बेहतर किया जा सकता है।

इसके अलावा, गुदा कैंसर और पित्त वाहिनी के कैंसर से पीड़ित दो मरीज़ों के ट्यूमर के बीआरसीए जीन्स, जो स्तन कैंसर के लिए ज़िम्मेदार हैं, में उत्परिवर्तन दिखा। इस उत्परिवर्तन ने भी कीमोथेरेपी में ट्यूमर को असुरक्षित कर दिया था। अन्य मामलों में, मरीज़ों को जब ट्यूमर कोशिकाओं की वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार प्रोटीन को बाधित करने वाली औषधि दी गई तो दवा इन मरीज़ों पर कारगर रही। कुछ मामलों में कुछ प्रतिरक्षा कोशिकाएं मरीज़ों के ट्यूमर में प्रवेश कर गर्इं थी। इससे लगता है कि इन मरीज़ों की प्रतिरक्षा कोशिकाएं तैयार बैठी थीं कि दवा ट्यूमर में प्रवेश करे और पीछे-पीछे वे भी घुस जाएं।

नतीजों का तकाज़ा है कि सामान्यत: कैंसर ट्यूमर का जीनोमिक परीक्षण किया जाना चाहिए ताकि उपचार के लिए उपयुक्त औषधि का चयन किया जा सके। वैसे अभी भी कई परिणामों की व्याख्या करना मुश्किल है, क्योंकि कई मामलों में ट्यूमर में उत्परिवर्तन और प्रतिरक्षा कोशिका में परिवर्तन के विभिन्न सम्मिश्रण दिखे हैं। टीम ने अपने सारे आंकड़े ऑनलाइन कर दिए हैं ताकि अन्य अनुसंधान समूह इस काम को आगे बढ़ा पाएं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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