महामारी में वैज्ञानिक मांओं ने अधिक चुनौतियां झेलीं

मार्च 2020 में मिशिगन विश्वविद्यालय की कैंसर विज्ञानी रेशमा जग्सी ने कोविड-19 महामारी के महिला वैज्ञानिकों के काम पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव के बारे में पूर्वानुमान लगाते हुए एक राय लिखी थी। डैटा न होने के कारण संपादकों ने इस राय को प्रकाशित करने से मना कर दिया था। लेकिन इसके बाद से कई टिप्पणीकार यही बात दोहराते आए हैं। अब अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट हो गया है कि कोविड-19 महामारी में पहले से व्याप्त असमानताएं और बढ़ गर्इं हैं, इस दौर ने महिला वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौतियां खड़ी की हैं। खासकर जिन महिला वैज्ञानिकों के बच्चे हैं उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य करते रहने के लिए अतिरिक्त संघर्ष किया है।

कुछ विषयों में किए गए अध्ययन के डैटा से पता चलता है कि कोरोना महामारी के शुरुआती महीनों में भेजे गए प्रीप्रिंट्स, पांडुलिपियों, और प्रकाशित शोधपत्रों में महिला लेखकों की संख्या में कमी आई है। 20,000 शोधकर्ताओं पर वैश्विक स्तर पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस दौरान पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में माता-वैज्ञानिकों के अनुसंधान कार्यों के घंटों में 33 प्रतिशत अधिक की कमी आई है। मई 2020 से जुलाई 2020 तक हुए सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि माता-वैज्ञानिकों ने पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में अधिक घरेलू दायित्व निभाए और बच्चों की देखभाल करने में अधिक समय बिताया।

लेकिन इस दौरान थोड़ी सकारात्मक बातें भी दिखीं। एक फंडिंग एजेंसी ने महामारी के दौरान बढ़ी लैंगिक असमानता को पहचाना और उसमें सुधार के प्रयास किए। दरअसल, फरवरी 2020 में केनेडियन स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान ने कोविड-19 सम्बंधी शोध कार्यों के लिए अनुदान की पेशकश की थी, जिसमें एजेंसी ने शोधकर्ताओं को प्रस्ताव भेजने के लिए महज़ 8 दिन की मोहलत दी थी। यह कनाडा में तालाबंदी के पहले की बात है। लेकिन उन्होंने देखा कि प्राप्त प्रस्तावों में से केवल 29 प्रतिशत प्रस्ताव ही महिला शोधकर्ताओं द्वारा भेजे गए थे, यह संख्या पूर्व में भेजे जाने वाले प्रस्तावों की संख्या से लगभग सात प्रतिशत कम थी।

संख्या में इतना अंतर देखने के बाद संस्थान के इंस्टीट्यूट ऑफ जेंडर एंड हेल्थ की निदेशक कारा तेनेनबॉम को लगा कि हमने कहीं कुछ गलती कर दी है। इसीलिए जब संस्थान ने दो महीने बाद कोविड-19 शोध कार्यों के लिए दोबारा प्रस्ताव मंगाए तो उन्होंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा को 8 दिन से बढ़ाकर 19 दिन कर दी और दस्तावेज़ी कार्रवाइयां भी कम कर दीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में के अनुसार दूसरे दौर में महिलाओं द्वारा भेजे गए प्रस्तावों की संख्या बढ़कर 39 प्रतिशत हो गई थी।

संस्थान द्वारा मांगे गए प्रस्तावों के संदर्भ में लावल युनिवर्सिटी की स्वास्थ्य शोधकर्ता होली विटमैन अपना अनुभव बताती हैं, “जब पहली बार मैंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा महज़ 8 दिन देखी तो मैंने सोचा कि दो बच्चों और अपनी स्वास्थ्य स्थिति के साथ इतने कम समय में अनुदान के लिए देर रात तक बैठकर प्रस्ताव लिखना और भेजना संभव नहीं है। लेकिन जब अनुदान के लिए दोबारा प्रस्ताव मांगे गए तो प्रस्ताव लिखने के लिए पर्याप्त समय था, जिसमें अंतत: मुझे अनुदान मिला भी।”

महामारी के दौर में अधिकांश शोधकर्ताओं के शोध कार्य के घंटों में कमी आई। ताज़ा अध्ययन बताते हैं कि पालक-शोधकर्ताओं, खासकर माता-शोधकर्ताओं के काम के घंटों में बहुत कमी आई है। पिता की तुलना में माताओं ने बच्चे की देखभाल और गृहकार्य करने में अधिक समय बिताया। इस संदर्भ में सान्ता क्लारा युनिवर्सिटी की रॉबिन नेल्सन बताती हैं कि पिछले साल की तुलना में कोरोनाकाल में उनके काम के घंटे घटकर आधे हो गए हैं क्योंकि उनके दो बच्चे अब घर पर होते हैं। कुछ शोधकर्ता अन्य की तुलना में अधिक बाधाओं में काम कर रहे हैं। इसलिए हमें अब अनुदान की प्रक्रिया, समय सीमा, नीतियों आदि पर सवाल उठाने चाहिए।

बोस्टन विश्वविद्यालय के इकॉलॉजिस्ट रॉबिन्सन फुलवाइलर का कहना है कि विश्वविद्यालयों और फंडिंग एजेंसियों को वैज्ञानिकों को यह बताने का भी विकल्प देना चाहिए कि कोविड-19 ने उनके काम में किस तरह की बाधा डाली या प्रभावित किया। इसके अलावा नियोक्ताओं को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी शोधकर्ताओं को ठीक-ठाक झूलाघर जैसी सुविधाएं मिलें। फुलवाइलर और अन्य माता-वैज्ञानिकों ने प्लॉस बायोलॉजी में इस तरह की व कई अन्य सिफारिशें की हैं। कोरोनाकाल में और स्पष्ट होती असमानता को अब दूर करने के प्रयास करने का वक्त है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0212NID_Mother_Child_online.jpg?itok=KtvdvK2V

क्या टीके की दूसरी खुराक में देरी सुरक्षित है?

सार्स-कोव-2 महामारी को नियंत्रित करने के प्रयासों में एक बड़ी समस्या टीकों की कमी और उसका वितरण है। ऐसे में कुछ वैज्ञानिकों ने दूसरी खुराक को स्थगित करने का सुझाव दिया है ताकि अधिक से अधिक लोगों को पहली खुराक मिल सके। अमेरिका में अधिकृत फाइज़र टीके की दो खुराकों के बीच 21 दिन और मॉडर्ना के लिए 28 दिन की अवधि तय की गई थी। अब सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन ने 42 दिन के अंतराल के निर्देश दिए हैं। ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी-एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल का सुझाव दिया गया है और दावा है कि यह शायद बेहतर होगा। तो टीके की एक खुराक के बाद आप कितने सुरक्षित हैं और यदि दूसरी खुराक न मिले तो क्या होगा? ऐसे ही कुछ सवालों पर चर्चा।             

दो खुराक क्यों ज़रूरी?

वास्तव में टीकों को प्रतिरक्षा स्मृति बनाने की दृष्टि से तैयार किया जाता है। इसकी मदद से हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली को हमलावर वायरसों की पहचान करने और उनसे बचाव करने की क्षमता मिलती है, भले ही प्रणाली ने पहले कभी इनका सामना न किया हो। अधिकांश कोविड टीके नए कोरोनावायरस स्पाइक प्रोटीन की प्रतियों के माध्यम से प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित करते हैं। दो खुराक देने का मतलब अधिक सुरक्षा प्रदान करना है। ड्यूक ह्यूमन वैक्सीन इंस्टिट्यूट के मुख्य परिचालन अधिकारी थॉमस डेनी के अनुसार पहली खुराक प्रतिरक्षात्मक स्मृति शुरू करती है, तो दूसरी खुराक इसे और ठोस बनाती है। उदाहरण के लिए फाइज़र टीके की एक खुराक से लाक्षणिक संक्रमण के जोखिम में लगभग 50 प्रतिशत की कमी आ सकती है जबकि मॉडर्ना टीके की एक खुराक से यह जोखिम 80 प्रतिशत कम हो जाता है। दोनों खुराकें मिलने पर दोनों टीकों के द्वारा जोखिम लगभग 95 प्रतिशत कम हो जाता है।      

42 दिन के अंतर अनुमति क्यों?

सीडीसी के अनुसार दो खुराकों के बीच 42 दिनों तक की अनुमति का निर्णय इस फीडबैक के आधार पर लिया गया है कि तारीखों का लचीलापन लोगों के लिए मददगार है। जहां यूके में दो खुराकों के बीच की अवधि को बढ़ाने का उद्देश्य अधिक लोगों का टीकाकरण करना है, वहीं सीडीसी का मानना है कि इससे दूसरी खुराक की जटिलता कम होगी। गौरतलब है कि अमेरिका में टीकाकरण देर से शुरू हुआ है और पहली खुराक मिलने के दो महीने बाद मात्र 3 प्रतिशत लोगों को ही दूसरी खुराक मिल पाई है। टीका निर्माता मांग को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं, ऐसे में पूरा टीकाकरण करने में कुछ समझौते तो करने ही होंगे। वैज्ञानिकों के अनुसार पर्याप्त मात्रा में टीके उपलब्ध होने पर अलग रणनीति अपनाई जा सकती है लेकिन फिलहाल उपलब्ध संसाधनों से ही काम चलाना होगा।           

42 दिनों तक आप कितने सुरक्षित हैं

फाइज़र और मॉडर्ना के परीक्षण के आकड़ों के अनुसार लोगों में पहली खुराक के लगभग 14 दिनों बाद सुरक्षा देखी गई है। इस दौरान टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में कमी और गैर-टीकाकृत लोगों में मरीज़ों की संख्या में वृद्धि देखी जा सकती है। देखा जाए तो दोनों ही टीकों की पहली खुराक कोविड के मामलों को रोकने में 50 प्रतिशत (फाइज़र) और 80 प्रतिशत (मॉडर्ना) प्रभावी थे। परीक्षण किए गए अधिकांश लोगों को दूसरी खुराक 21 या 28 दिन में मिली थी। बहुत थोड़े से लोगों (0.5 प्रतिशत) को 42 दिन इंतज़ार करना पड़ा। इतनी छोटी संख्या के आधार पर कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है।    

क्या आंशिक प्रतिरक्षा अधिक खतरनाक वायरस पैदा करेगी?

चूंकि महामारी की शुरुआत में इस वायरस के विरुद्ध किसी तरह की प्रतिरक्षा नहीं थी इसलिए नए कोरोनावायरस के विकसित होने की संभावना बहुत कम थी। लेकिन वर्तमान में लाखों लोगों के संक्रमित होने और एंटीबॉडी विकसित होने से उत्परिवर्तित वायरसों के विकास की संभावना काफी बढ़ गई है। रॉकफेलर युनिवर्सिटी के रेट्रोवायरोलॉजिस्ट पॉल बीनियाज़ के अनुसार टीके किसी भी तरह लगाए जाएं, एंटीबॉडी के जवाब में वायरस विकसित होता ही है।

जिस तरह से एंटीबायोटिक दवाओं का पूरा कोर्स न करने पर एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया विकसित होने लगते हैं, उसी तरह ठीक से टीकाकरण न होने पर आपका शरीर एंटीबॉडी-प्रतिरोधी वायरस के लिए स्वर्ग बन जाता है। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार नए-नए वायरसों के पैदा होने की गति सिर्फ प्रतिरक्षा प्रणाली के मज़बूत या कमज़ोर होने पर नहीं, बल्कि जनसंख्या में उपस्थित वायरस की कुल संख्या पर भी निर्भर करती है। बड़े स्तर पर टीकाकरण के बिना नए संस्करणों की संख्या बढ़ने का खतरा है।   

क्या पहली और दूसरी खुराक के बीच लंबा अंतराल टीके को अधिक प्रभावी बना सकता है?

ऐसी संभावना से इन्कार तो नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो सभी कोविड टीके एक समान नहीं हैं और खुराक देने का तरीका भी विशिष्ट डिज़ाइन पर निर्भर करता है। कुछ टीके mRNA टीके अस्थिर आनुवंशिक सामग्री पर आधारित होते हैं, कुछ स्थिर डीएनए पर तो कुछ अन्य प्रोटीन अंशों पर निर्भर होते हैं। इनको छोटी वसा की बूंदों या फिर निष्क्रिय चिम्पैंज़ी वायरस के साथ दिया जाता है।

ऐसी भिन्नताओं को देखते हुए डीएनए आधारित ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका टीके की दो खुराकों के बीच 12 सप्ताह के अंतराल के बाद भी प्रभाविता बनी रही। यह mRNA आधारित मॉडर्ना और फाइज़र की अनुशंसित अवधि की तुलना में लगभग तीन से चार गुना अधिक है। उम्मीद है कि समय के साथ-साथ शोधकर्ता टीके की खुराक देने की ऐसी योजना बना पाएंगे जो नैदानिक परीक्षणों के दौरान निर्धारित खुराक योजना से भिन्न होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/C7D9D137-2CA9-4FF7-B828189142CC7531_source.jpg?w=590&h=800&318294A5-BDF3-4CD7-BABB6E080A5B42CC

क्या टीकों का मिला-जुला उपयोग हो?

फिलहाल 9 टीके हैं जो कोविड-19 की गंभीर बीमारी और मृत्यु की रोकथाम में असरदार पाए गए हैं। लेकिन टीकों की आपूर्ति में कमी को देखते हुए वैज्ञानिक इस सवाल पर विचार और परीक्षण कर रहे हैं कि क्या दो खुराक देने के लिए टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा सकता है। यानी पहली खुराक किसी टीके की दी जाए और बूस्टर किसी अन्य टीके का? यदि ऐसे कुछ सम्मिश्रण कारगर रहते हैं तो आपूर्ति की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकेगा। यह भी सोचा जा रहा है कि क्या दो अलग-अलग टीकों के मिले-जुले उपयोग से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।

ऐसे मिश्रित उपयोग का एक परीक्षण चालू भी हो चुका है। इसमें यह देखा जा रहा है कि रूस के गामेलाया संस्थान द्वारा विकसित स्पूतनिक-5 का उपयोग एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के बूस्टर डोज़ के साथ किया जा सकता है। इसी प्रकार के अन्य परीक्षण में एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके और फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा बनाए गए टीके के मिले-जुले उपयोग पर काम चल रहा है। ये दो टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी का उपयोग करते हैं। कुछ अन्य परीक्षण अभी विचार के स्तर पर हैं। अलबत्ता, इन परीक्षणों के परिणाम आने तक सावधानी बरतना ज़रूरी है।

अतीत में भी टीकों के मिले-जुले उपयोग के प्रयास हो चुके हैं। जैसे एड्स के संदर्भ में दो टीकों का इस्तेमाल करके ज़्यादा शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्राप्त करने के प्रयास असफल रहे थे। ऐसा ही परीक्षण एबोला के टीकों को लेकर भी किया गया था। कुछ मामलों में स्थिति बिगड़ भी गई थी। कोविड-19 के टीकों के मिले-जुले उपयोग की कुछ समस्याएं भी हैं। जैसे हो सकता है कि दो में से एक टीके को मंज़ूरी मिल चुकी हो लेकिन दूसरे को न मिली हो। एक समस्या यह भी हो सकती है कि दो टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी पर आधारित हों – जैसे एक एमआरएनए पर आधारित हो और दूसरा प्रोटीन पर आधारित हो।

अलबत्ता, टीकों के ऐसे मिश्रित उपयोग का एक फायदा भी है। हरेक टीका प्रतिरक्षा तंत्र के किसी एक भाग को सक्रिय करता है। तो संभव है कि दो अलग-अलग टीकों का उपयोग करके हम दो अलग-अलग भागों को सक्रिय करके बेहतर सुरक्षा हासिल कर पाएं।

जैसे स्पूतनिक-5 टीके में दो अलग-अलग एडीनोवायरस (Ad26, Ad5) का उपयोग सम्बंधित जीन को शरीर में पहुंचाने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, एस्ट्राज़ेनेका टीके में प्रमुख खुराक और बूस्टर दोनों में चिम्पैंज़ी एडीनोवायरस (ChAd) का ही उपयोग हुआ है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि एक खुराक से उत्पन्न प्रतिरक्षा को दूसरी खुराक स्थगित कर दे। ऐसे में स्पूतनिक और एस्ट्राज़ेनेका के मिले-जुले उपयोग से यह समस्या नहीं आएगी। यह फायदा कई अन्य मिश्रणों में भी संभव है। वैसे सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसा संभव हुआ तो आपूर्ति की समस्या से निपटा जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/vaccine_1280p_4.jpg?itok=EiQnsAsM

अधिक संक्रामक कोविड-19 वायरस से खलबली

डेनमार्क में कोविड-19 संक्रमण दर में कमी राहत के संकेत देते हैं। देशव्यापी लॉकडाउन से दैनिक मामलों में काफी कमी आई है। दिसंबर 2020 के मध्य में प्रतिदिन 3000 मामले अब घटकर कुछ सौ रह गए हैं। लेकिन महामारी मॉडलिंग विशेषज्ञों की प्रमुख कैमिला होल्टन मोलर के अनुसार ये परिणाम आने वाले समय में एक तूफान से पहले की शांति के संकेत हो सकते हैं।

कोविड-19 का ग्राफ वास्तव में दो महामारियों को दर्शाता है। पहली तो वह है जो सार्स-कोव-2 के पुराने संस्करण के कारण हुई और अब तेज़ी से खत्म भी हो रही है। लेकिन यूके में पहली बार पहचाने गए बी.1.1.7 संस्करण का प्रकोप धीरे-धीरे बढ़ रहा है और तीसरी लहर के रूप में नज़र आ रहा है। यदि बी.1.1.7 संस्करण डेनमार्क में इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो यह इस माह के अंत तक वायरस का एक प्रमुख संस्करण बन जाएगा और एक बार फिर कोविड-19 मामलों की संख्या में वृद्धि होने लगेगी।      

ऐसे में अन्य देशों में भी इसी तरह के हालात की संभावना जताई जा रही है। तथ्य यह है कि 58 लाख आबादी वाले डेनमार्क में अन्य देशों की तुलना में व्यापक वायरस-अनुक्रमण तकनीक से कोविड-19 के नए संस्करण का पता चल सका। इन परिणामों के बाद सभी की नज़रें फिलहाल डेनमार्क पर हैं। डैनिश वैज्ञानिकों का अनुमान है कि बी.1.1.7 संस्करण पिछले संस्करणों की तुलना में 1.55 गुना तेज़ी से फैलता है। इस परिस्थिति में जब तक पर्याप्त लोगों को टीका नहीं लग जाता तब तक देश में एक बार फिर लॉकडाउन या अन्य नियंत्रण उपायों को अपनाना होगा। स्थितियों को देखते हुए कुछ महामारी विज्ञानियों का तो मत है कि समाज के अत्यधिक कमज़ोर वर्ग के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन खोल देना चाहिए, भले नए मामलों में वृद्धि क्यों न होती रहे।

इस सम्बंध में जनवरी माह के परिणाम काफी चिंताजनक रहे। जनवरी की शुरुआत में ही हर सप्ताह बी.1.1.7 के मामलों में दुगनी रफ्तार से वृद्धि होती गई। इस स्थिति के पहले ही स्कूल और रेस्तरां बंद कर दिए गए, इस नए खतरे से बचने के लिए 10 लोगों के एक साथ इकट्ठा होने की अनुमति को कम करके 5 कर दिया गया, सामाजिक दूरी भी एक मीटर की बजाय दो मीटर कर दी गई। इन सावधानियों से कुल प्रसार दर 0.78 रह गई जो एक अच्छा संकेत है। लेकिन बी.1.1.7 की अनुमानित प्रसार दर 1.07 है जो तेज़ी से बढ़ रही है। इस बीच कुल संक्रमितों में नए संस्करण से संक्रमितों का प्रतिशत दिसंबर 2020 में 0.5 प्रतिशत था और जनवरी के अंत तक बढ़कर 13 प्रतिशत हो गया है।       

फिलहाल डेनमार्क में एक बार फिर लोगों को घर से काम करने के आदेश जारी किए जा सकते हैं और साथ ही कांटेक्ट ट्रेसिंग भी की जा सकती है। इसके साथ ही त्वरित परीक्षण और रोगियों को स्वयं आइसोलेट होने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा। वैज्ञानिकों को ऐसी उम्मीद है कि इस तरह की सावधानियों से बी.1.1.7 लहर को रोका जा सकता है। हालांकि कई लोगों का ऐसा मानना है कि इस लहर को रोका नहीं जा सकता है। यूके में बी.1.1.7 के मामलों में कमी का कारण लोगों का पहले से ही इस वायरस से संक्रमित होना है जो अब इस संस्करण के प्रति अतिसंवेदनशील नहीं हैं। फिलहाल डेनमार्क को इस संस्करण के लिए प्रसार दर को एक से कम रखने की कोशिश करना होगा जिससे उम्मीद है कि अप्रैल तक स्थिति को पूरी तरह से नियंत्रण में किया जा सकता है। उस समय तक मौसम भी मददगार होगा।

लेकिन लंबे समय तक देश भर में लॉकडाउन लगाना काफी कठिन हो सकता है। वर्तमान में जनता ने नए मामलों में कमी आने के बाद भी सरकार के लॉकडाउन के फैसले को स्वीकार कर लिया है लेकिन भविष्य में इसे खत्म करने का दबाव आने की संभावना है। ऐसे में 8 फरवरी से कक्षा 1 से लेकर 4 तक के स्कूल शुरू करते हुए लॉकडाउन में ढील देने की शुरुआत की जा चुकी है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार लॉकडाउन को देर से खत्म करना काफी महंगा पड़ सकता है। इसकी बजाय वैज्ञानिकों का सुझाव है कि 50 वर्ष से अधिक और अन्य अतिसंवेदनशील समूहों के टीकाकरण के बाद लॉकडाउन को खत्म करना अधिक उचित होगा। इस स्थिति में कोविड के मामलों में वृद्धि तथा कुछ लोगों की मौत की भी संभावना रहेगी।     

लेकिन इस तरीके को कुछ वैज्ञानिकों ने अभी भी पसंद नहीं किया है। उनका मानना है कि इस तरह से मामलों में वृद्धि होने देना सही उपाय नहीं है। अधिक संक्रमण का मतलब और अधिक उत्परिवर्तित वायरसों के खतरे को बढ़ाना है। ऐसे में हल्के संक्रमण वाले लोगों में दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएं बढ़ सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/NID_Denmark_variants_1280x720.jpg?itok=CeHE5NVE

आईबीएस का दर्द: स्थानीय प्रतिरक्षा की भूमिका

दुनिया में लाखों लोग इरीटेबल बॉवेल सिंड्रोम (IBS) से पीड़ित हैं। इस समस्या से पीड़ित लोगों को अक्सर पेट में मरोड़, अतिसार, या कब्ज़ का एहसास होता है। स्थिति तब और भी बुरी हो जाती है जब डॉक्टर कहते हैं कि ऐसा किसी चिंता की वजह से हो रहा है, या यह परेशानी महज उनके दिमाग की उपज है।

के.यू. ल्युवेन के गैस्ट्रोएन्टरोलॉजिस्ट गाय बोक्सटेन्स डॉक्टरों के इन तर्कों को नज़रअंदाज करके, वर्षों से आईबीएस के एक महत्वपूर्ण लक्षण को समझने की कोशिश कर रहे थे। लक्षण यह है कि इससे पीड़ित लोगों को पेटदर्द अक्सर खाने के बाद शुरू होता है। हाल ही में उन्होंने और उनके साथियों ने नेचर पत्रिका में बताया है कि आईबीएस से पीड़ित लोगों को दर्द का यह एहसास आंत में खाद्य पदार्थ के प्रति स्थानीय एलर्जी के कारण होता है।

तकरीबन 15 साल पहले बोलोग्ना विश्वविद्यालय के गैस्ट्रोएन्टेरोलॉजिस्ट जियोवानी बारबरा ने अपने अध्ययन में इस सिंड्रोंम से पीड़ित लोगों का प्रतिरक्षा तंत्र थोड़ा भिन्न पाया था। उन्होंने पीड़ितों की आंतों के ऊतकों की बायोप्सी करने पर इनमें मास्ट कोशिका नामक प्रतिरक्षा कोशिकाएं सक्रिय पाई थीं। आम तौर पर मास्ट कोशिकाएं शरीर के लिए एक चेतावनी प्रणाली की तरह कार्य करती हैं – संक्रमण होने पर या परजीवी जैसे किसी घुसपैठिए के हमले पर हिस्टेमीन जैसे रसायन पैदा करती हैं। उन्होंने यह भी देखा कि आईबीएस से पीड़ित लोगों में (जिनमें वास्तव में कोई संक्रमण नहीं था) न सिर्फ मास्ट कोशिकाएं सक्रिय थीं बल्कि वे असामान्य रूप से तंत्रिका कोशिकाओं के नज़दीक थीं और उन्हें अत्यधिक सक्रिय होने के लिए उकसा रही थीं। तब, कई वैज्ञानिकों ने उनकी इस बात पर यकीन नहीं किया कि आईबीएस का दर्द आंत के जीव विज्ञान के कारण हो सकता है।

लेकिन बोक्सटेन्स ने इस पर और विस्तार से अध्ययन करना शुरू किया। उन्होंने आईबीएस की शुरुआत करने वाले ट्रिगर का अध्ययन किया। कतिपय लक्षणहीन संक्रमण या फूड पॉइज़निंग आईबीएस को शुरू कर सकते हैं। पाया गया कि 10 प्रतिशत लोग आंतों के संक्रमण से तो उबर गए थे लेकिन आईबीएस से पीड़ित हो गए थे। इस आधार पर उन्होंने सोचा कि हो सकता है संक्रमण के बाद आंतों में थोड़ी सूजन बनी रहती हो, जो आईबीएस के जीर्ण दर्द का कारण बनती हो। लेकिन आईबीएस से पीड़ित लोगों की आंतों के ऊतक की बायोप्सी में सूजन नहीं दिखी।

तब शोधकर्ताओं ने सोचा कि आंत का संक्रमण इस बात पर असर डालता है कि वह खाद्य पदार्थों में मौजूद एंटीजन नामक प्रोटीन अवशेषों को कैसे बरदाश्त करेगी। संक्रमण होने पर आंत की प्रतिरक्षा प्रणाली जाग जाती है और हो सकता है कि खाद्य पदार्थ में मौजूद एंटीजन को अपना शत्रु समझने लगे। यदि संक्रमण खत्म होने के बाद भी आंत में प्रतिरक्षा प्रणाली की यही प्रतिक्रिया बनी रहती है तो हो सकता है कि यही आईबीएस दर्द का कारण बन जाए।

अपनी इस परिकल्पना को जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों को आंत के लिए हानिकारक बैक्टीरिया से संक्रमित किया, और साथ में उन्हें अंडे की सफेदी (एंटीजन के स्रोत के रूप में) खिलाई। आंत का संक्रमण खत्म होने के बाद इन चूहों को फिर वही एंटीजन खिलाया गया। ऐसा करने पर चूहों को पेट में दर्द का अनुभव हुआ, जो पेट की मांसपेशियों के संकुचन से नापा गया। दूसरी ओर, नियंत्रण समूह के चूहे, जिन्हें संक्रमण के समय अंडे की सफेदी नहीं खिलाई गई थी, उन्हें संक्रमण ठीक होने का बाद सफेदी खिलाने पर कोई परेशानी नहीं हुई।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि संक्रमण के बाद अंडे के सफेद हिस्से का प्रोटीन उसी तरह की शृंखला अभिक्रिया शुरू कर देता है जैसी किसी खाद्य पदार्थ से एलर्जी के समय होती है। सफेद हिस्से का प्रोटीन मास्ट कोशिकाओं के इम्युनोग्लोबुलिन ई (IgE) एंटीबॉडी से जुड़ जाता है। चूहों में भी मास्ट कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं और अपने रसायन रुाावित करती हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि चूहों में अंडे के प्रोटीन के प्रति प्रतिक्रिया चार सप्ताह तक बनी रही। उन्होंने यह भी देखा कि मास्ट कोशिकाओं की नज़दीकी तंत्रिकाएं अतिसंवेदनशील और उत्तेजित हो जाती हैं जिससे दर्द का एहसास होता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि यह फूड एलर्जी नहीं है क्योंकि प्रतिरक्षा प्रणाली की प्रतिक्रिया आंत तक ही सीमित थी। खाद्य पदार्थों से होने वाली एलर्जी, जैसे मूंगफली या गाय के दूध से एलर्जी, में लोगों में IgE एंटीबॉडीज़ रक्त प्रवाह में प्रवेश कर पूरे शरीर में एलर्जी के लक्षण पैदा कर सकती है। लेकिन इन चूहों के रक्त में IgE नदारद थे।

इस संभावना को मनुष्यों में जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने गाय के दूध, ग्लूटेन, गेहूं और सोयाबीन की एलर्जी से मुक्त लेकिन संभवत: आईबीएस से पीड़ित 12 लोगों को ये चार एलर्जीजनक गुदा के माध्यम से दिए। पाया गया कि प्रत्येक प्रतिभागी ने इन चारों में से कम से कम एक तरह के एंटीजन के प्रति स्थानीय प्रतिक्रिया दी। जबकि आठ स्वस्थ प्रतिभागियों पर यही परीक्षण करने पर सिर्फ दो लोगों की आंत में सोयाबीन या ग्लूटेन के प्रति आंशिक प्रतिक्रिया दिखी। (लगता है कि कई लोगों में हल्की प्रतिक्रिया होती है जो उनकी आंत सहन कर जाती है।)

लेकिन ये निष्कर्ष कई नए सवाल उठाते हैं। जैसे क्या यह स्थिति कुछ ही खाद्य पदार्थों के साथ बनती है या सामान्य है? वर्तमान के आईबीएस उपचार लक्षणों से राहत दिलाने के लिए होते हैं। लेकिन अगर सिंड्रोम मास्ट कोशिकाएं और IgE प्रतिक्रिया के कारण हो रहा है तो कुछ मामलों में ही सही, इम्यून थेरपी उपयोगी साबित हो सकती है। इसके अलावा, संक्रमण से प्रेरित आईबीएस तो मात्र एक प्रकार है, इसके अन्य प्रकार भी हैं। जैसे तनाव जनित आईबीएस। तो सवाल है कि क्या यह स्थानीय प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया सिर्फ संक्रमण-जनित आईबीएस का मामला है या सामान्य रूप से पाई जाती है। फिलहाल शोधकर्ता इसी सवाल का जवाब पता करने की कोशिश कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://live.mrf.io/statics/i/ps/cdn.zmescience.com/wp-content/uploads/2021/01/800px-Irritable_bowel_syndrome.jpg?width=1200&enable=upscale

वायरस का नया संस्करण और प्रतिरक्षा

कुछ साक्ष्यों से पता चला है कि कोरोनावायरस के नए संस्करण टीकों और पिछले संक्रमणों से उत्पन्न प्रतिरक्षा को चकमा दे सकते हैं। फिलहाल शोधकर्ता प्रयोगशाला से प्राप्त अध्ययनों की मदद से इस वायरस के उभरते हुए संस्करणों और उत्परिवर्तनों को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन के प्रतिरक्षा विज्ञानी डेनियल ऑल्टमन के अनुसार कोविड-19 टीकों की प्रभाविता में कमी आ सकती है।

लेकिन ऑल्टमन और अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार डैटा अभी तक पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है। अध्ययनों में टीका प्राप्त या कोविड-19 से स्वस्थ हो चुके लोगों में मात्र एंटीबॉडीज़ द्वारा विभिन्न संस्करणों को बेअसर करने की ही जांच की गई है। प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य घटकों के प्रभावों पर अध्ययन नहीं किया गया है। इसके अलावा अध्ययनों में इस सम्बंध में कोई संकेत नहीं मिले हैं कि एंटीबॉडी की गतिविधियों में परिवर्तन के कारण टीके की प्रभाविता या पुन:संक्रमण की संभावना पर कोई असर होगा या नहीं।

शोधकर्ता सबसे अधिक चिंतित 2020 के अंत में दक्षिण अफ्रीका में पाए गए संस्करण से है। डरबन स्थित युनिवर्सिटी ऑफ क्वाज़ूलू-नेटल के जैव-सूचना विज्ञानी टूलियो डी ओलिवेरा के नेतृत्व में एक टीम ने नए संस्करण (501Y.V2) को पूर्वी केप प्रांत में सबसे तेज़ी से फैलने वाला प्रकोप बताया है। यह दक्षिण अफ्रीका से अन्य देशों में भी फैल गया है। इसकी मुख्य विशेषताओं में स्पाइक प्रोटीन में उत्परिवर्तन हैं जो वायरस को मेज़बान कोशिकाओं की पहचान करने और संक्रमित करने में मदद करते हैं। इसमें कुछ बदलाव ऐसे भी हुए हैं जो वायरस के विरुद्ध एंटीबॉडी को भी कमज़ोर करते हैं। 

अधिक गहराई से जांच करने के लिए ओलिवेरा की टीम ने 501 Y.V2 को अलग किया। फिर उन्होंने इस संस्करण के नमूनों का परीक्षण रक्त में उपस्थित एंटीबॉडी युक्त भाग से किया जिसे सीरम कहते हैं। ये नमूने 6 ऐसे लोगों से लिए गए थे जो वायरस के किसी अन्य संस्करण से बीमार हुए थे और अब स्वस्थ हो चुके थे। उम्मीद थी कि स्वस्थ हो चुके लोगों की सीरम (उपशमक सीरम) में ऐसी एंटीबॉडीज़ होंगी जो संक्रमण को रोकने में सक्षम होंगी। लेकिन शोधकर्ताओं ने पाया कि यह उपशमक सीरम महामारी के शुरुआती वायरस संस्करणों की तुलना में 501 Y.V2 के विरुद्ध बेअसर रहा। हालांकि, कुछ लोगों के प्लाज़्मा ने 501 Y.V2 के विरुद्ध बेहतर प्रदर्शन किया लेकिन क्षमता काफी कम पाई गई।  

एक अन्य अध्ययन में नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर कम्यूनिकेबल डिसीसेज़ के विषाणु विज्ञानी पेनी मूर के नेतृत्व में एक टीम ने 501 Y.V2 में पाए जाने वाले स्पाइक उत्परिवर्तनों के विभिन्न संयोजनों में इस उपशमक सीरम के प्रभावों की जांच की। यह उन्होंने एक ‘कूट-वायरस’ (यानी एच.आई.वी. का एक रूप जो स्पाइक प्रोटीन की मदद से कोशिका में प्रवेश करता है) की मदद से किया। इन प्रयोगों से पता चला कि 501 Y.V2 में ऐसे उत्परिवर्तन हुए हैं जो न्यूट्रलाइज़िंग एंटीबॉडी के प्रभावों को कमज़ोर करते हैं। 501 Y.V2 उत्परिवर्तन वाले कूट-वायरस 44 में से 21 प्रतिभागियों के उपशमक सीरम से अप्रभावित रहे और अन्य लोगों के सीरम के लिए भी आंशिक रूप से प्रतिरोधी रहे। इन परिणामों के बाद ओलिवेरा का अनुमान है कि दक्षिण अफ्रीका में पुन:संक्रमण के पीछे 501 Y.V2 संस्करण मुख्य कारण हो सकता है।

फिलहाल दोनों ही टीमें जल्द ही कोविड-19 टीका परीक्षण में शामिल लोगों के सीरम से 501 Y.V2 संस्करण का परीक्षण करने वाली हैं। गौरतलब है कि इन लोगों को जो टीका लगा था वह वायरस के मूल संस्करण के लिहाज़ से बना था। इसके अलावा अन्य प्रयोगशालाओं में भी फाइज़र या मॉडर्ना mRNA टीका प्राप्त लोगों के सीरम एकत्रित कर इस तरह के परीक्षण किए जा रहे हैं। अब तक के प्रयोग बताते हैं कि इन व्यक्तियों के सीरम की एंटीबॉडी कुछ हद तक नए संस्करण पर भी प्रभावी हैं। लेकिन अन्य उत्परिवर्तनों पर जांच करना ज़रूरी होगा।

कोविड-19 टीके उच्च स्तर की एंटीबॉडी जारी करते हैं जो स्पाइक प्रोटीन के विभिन्न क्षेत्रों को लक्षित करती हैं। ऐसे में कुछ अणु तो वायरस के संस्करणों को अवरुद्ध करने में सक्षम हो सकते हैं। और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के अन्य घटक (जैसे टी-कोशिकाएं) शायद वायरस में उत्परिवर्तनों से प्रभावित न हों।

फिलहाल चल रहे प्रभाविता परीक्षण और विभिन्न देशों के टीकाकरण अभियान वायरस के अलग-अलग संस्करणों पर टीकों के प्रभावों को उजागर कर पाएंगे। दक्षिण अफ्रीका में कई टीकों के परीक्षण चल रहे हैं और शोधकर्ता काफी गंभीरता से 501 Y.V2 संस्करण वाले कोविड-19 की क्षमता में गिरावट की उम्मीद कर रहे हैं।

इसके साथ ही यूके में तेज़ी से फैल रहे B.1.1.7 संस्करण के बारे में भी सुराग मिलने लगे हैं। बायोएनटेक द्वारा कूट-वायरस प्रयोगों से पता चला है कि B.1.1.7 के उत्परिवर्तित स्पाइक पर 16 लोगों के सीरम का बहुत कम प्रभाव पड़ा है। इन 16 लोगों को फाइज़र का टीका लगा था। इसी दौरान कैंब्रिज विश्वविद्यालय के विषाणु विज्ञानी रवीन्द्र गुप्ता ने 15 लोगों के सीरम पर अध्ययन किया, जिनको यही टीका लगा था। उन्होंने पाया कि 10 लोगों का सीरम अन्य सार्स-कोव-2 संस्करणों की तुलना में B.1.1.7 के विरुद्ध कम प्रभावी रहा।

देखा जाए तो हाल में प्राप्त परिणाम अभी काफी अस्पष्ट हैं। फिलहाल शोधकर्ताओं की पहली प्राथमिकता यह पता लगाने की है कि 501 Y.V2 उत्परिवर्तन पुन:संक्रमण के लिए ज़िम्मेदार है या नहीं। यदि है तो झुंड प्रतिरक्षा का विचार एक कल्पना मात्र ही रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00121-z/d41586-021-00121-z_18775870.jpg

क्या कोविड टीकाकरण कार्यक्रम कारगर है?

विश्वभर में कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू हो गया है। वैज्ञानिको में इसके प्रभाव जानने की उत्सुकता है। इस्राइली शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत प्रारंभिक आकड़ों के अनुसार टीकाकृत लोगों के सार्स-कोव-2 पॉज़िटिव पाए जाने की संभावना गैर-टीकाकृत लोगों की अपेक्षा एक-तिहाई कम है। लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक टीकाकरण के व्यापक प्रभावों को स्पष्ट होने में अभी समय लग सकता है।

टीके के प्रभाव को आंकने के लिए कई कारकों का अध्ययन किया जा सकता है – टीका कितने लोगों को दिया गया है, रोग एवं संक्रमण को रोकने में टीके की प्रभाविता और संक्रमण प्रसार की दर वगैरह।

आबादी में सबसे अधिक टीका लगाने के मामले में इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात सबसे आगे हैं। इन दोनों देशों ने 20-20 लाख लोगों का टीकाकरण कर अपनी एक-चौथाई जनसंख्या का टीकाकरण कर दिया है। यूके और नॉर्वे जैसे देशों ने अपने टीकाकरण कार्यक्रम में उच्च-जोखिम वाले समूहों को लक्षित किया है। ब्रिटेन ने 40 लाख लोगों का टीकाकरण किया है जिसमें अधिकांश जन स्वास्थ्य कार्यकर्ता, वृद्धजन और केयरहोम में रहने वाले लोग हैं। नॉर्वे ने नर्सिंग होम में रहने वाले 40,000 लोगों को टीका लगाया है।

इस्राइल ऐसा पहला देश है जिसने क्लीनिकल परीक्षण के बाहर टीकों के प्रभावों को रिपोर्ट किया है। इसमें फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा विकसित आरएनए आधारित टीके की दो खुराकों के शुरुआती परिणाम दर्शाए गए हैं। इनमें पता चला है कि टीके की एक खुराक संक्रमण को रोक सकती है या बीमारी की अवधि को कम कर सकती है। 60 वर्ष से अधिक आयु वाले दो-दो लाख टीकाकृत और गैर-टीकाकृत लोगों की तुलना में पाया गया कि पहली खुराक के दो सप्ताह के भीतर टीकाकृत लोगों में संक्रमण में 33 प्रतिशत की कमी आई। मैकाबी हेल्थकेयर सर्विसेस द्वारा किए गए एक अन्य विश्लेषण में इसी तरह के परिणाम मिले हैं।

क्लीनिकल परीक्षण में फाइज़र-बायोएनटेक टीका कोविड-19 को रोकने में 90 प्रतिशत प्रभावी पाया गया था। प्रारंभिक डैटा बताता है कि यह कुछ हद तक संक्रमण से सुरक्षा भी देता है। लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोग वायरस फैलाते हैं या नहीं।

अधिकांश देश टीकाकरण में गंभीर रोग और मृत्यु के उच्च जोखिम वाले लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं। ऐसे देशों में शुरुआती परिणामों का अनुमान अस्पताल में भर्ती होने वाले मरीज़ों और मौतों की संख्या में कमी के आधार पर लगाया जा सकता है।

युनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा की जीव-सांख्यिकीविद नटाली डीन के अनुसार यदि टीके संक्रमण को रोकने में प्रभावी हैं तो इसका अप्रत्यक्ष लाभ (यानी गैर-टीकाकृत लोगों को लाभ) तभी देखा जा सकता है जब काफी लोगों को टीका लग जाए। जैसे इस्राइल में, जिसने अपनी जनसंख्या के बड़े हिस्से का टीकाकरण कर लिया है। कुछ अन्य क्षेत्रों में टीके के प्रभावी होने के संकेत उन विशेष समूहों में देखे जा सकते हैं जिनमें व्यापक टीकाकरण किया गया है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि नॉर्वे जैसे देशों में टीकों के प्रभाव का पता लगाना काफी मुश्किल होगा जहां पहले से ही वायरस को काफी हद तक नियंत्रित किया जा चुका है। लेकिन डीन के अनुसार टीकों के असर को अन्य उपायों (जैसे लॉकडाउन और सामाजिक दूरी) के प्रभावों से अलग करके परखना मुश्किल होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-00140-w/d41586-021-00140-w_18782488.jpg

जलवायु परिवर्तन और कोविड-19 संकट

क साल पहले तक बढ़ते पर्यावरण संकट को लेकर लोगों में काफी चिंता थी; ज़रूरी कदम उठाने सम्बंधी युवा आंदोलन काफी ज़ोर-शोर से हो रहे थे। लेकिन कोविड-19 ने जलवायु संकट पर उठाए जा रहे कदमों और जागरूकता से लोगों का ध्यान हटा दिया। हकीकत में कोविड-19 और पर्यावरणीय संकट में कुछ समानताएं हैं। दोनों ही संकट मानव गतिविधि के चलते उत्पन्न हुए हैं, और दोनों का आना अनपेक्षित नहीं था। इन दोनों ही संकटों को दूर करने या उनका सामना करने में देरी से कदम उठाए गए, अपर्याप्त कदम या गलत कदम उठाए गए, जिसके कारण जीवन की अनावश्यक हानि हुई। अभी भी हमारे पास मौका है कि हम सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को बेहतर करें, एक टिकाऊ आर्थिक भविष्य बनाएं और पृथ्वी पर बचे-खुचे प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता की रक्षा करें।

यह तो जानी-मानी बात है कि स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पिछले पांच वर्षों से स्वास्थ्य और जलवायु परिवर्तन के लैंसेट काउंटडाउन ने जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर होने वाले प्रभावों को मापने वाले 40 से अधिक संकेतकों का विवरण दिया है और उन पर नज़र रखी हुई है। साल 2020 में प्रकाशित लैंसेट की रिपोर्ट में बढ़ती गर्मी से सम्बंधित मृत्यु दर, प्रवास और लोगों का विस्थापन, शहरी हरित क्षेत्र में कमी, कम कार्बन आहार (यानी जिस भोजन के सेवन से पर्यावरण को कम से कम नुकसान हो) और अत्यधिक तापमान के कारण श्रम क्षमता के नुकसान की आर्थिक लागत जैसे नए संकेतक भी शामिल किए गए। जितने अधिक संकेतक होंगे जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य और स्वास्थ्य तंत्र पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने में उतने ही मददगार होंगे। जैसे वायु प्रदूषण के कारण होने वाला दमा, वैश्विक खाद्य सुरक्षा की चुनौतियां और कृषि पैदावार में कमी के कारण अल्प आहार, हरित क्षेत्र में कमी से बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य सम्बंधी तकलीफों का जोखिम और 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में अधिक गर्मी का असर, जैसी समस्याओं को ठीक करने का सामथ्र्य स्वास्थ्य प्रणालियों की क्षमता पर निर्भर करता है, और यह क्षमता स्वास्थ्य सेवाओं के लचीलेपन पर निर्भर करती है। इन दो संकटों के कारण हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पहले ही काफी दबाव में है।

लैंसेट काउंटडाउन में राष्ट्र-स्तरीय नीतियां दर्शाने वाले क्षेत्रीय डैटा को भी शामिल किया है। इस संदर्भ में लैंसेट काउंटडाउन की दी लैंसेट पब्लिक हेल्थ में एशिया की पहली क्षेत्रीय रिपोर्ट प्रकाशित हुई है, और ऑस्ट्रेलियाई एमजेए-लैंसेट काउंटडाउन की तीसरी वार्षिक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। विश्व में सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जक और सर्वाधिक आबादी वाले देश के रूप में चीन की जलवायु परिवर्तन पर प्रतिक्रिया, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्तरों पर बहुत मायने रखती है। रिपोर्ट बताती है कि बढ़ते तापमान के कारण बढ़ते स्वास्थ्य जोखिमों से निपटने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कदम उठाए जाने की ज़रूरत है। हालांकि 23 संकेतक बताते हैं कि कई क्षेत्रों में प्रभावशाली सुधार किए गए हैं, और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने की पहल भी देखी गई है। लेकिन इस पर चीन की प्रतिक्रिया अभी भी ढीली है।

जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले कारकों पर अंकुश लगाकर ज़ूनोटिक (जंतु-जनित) रोगों के उभरने और दोबारा उभरने को रोका जा सकता है। अधिकाधिक खेती, जानवरों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में बढ़ता मानव दखल ज़ूनोटिक रोगों से मानव संपर्क और उनके फैलने की संभावना को बढ़ाते हैं। विदेशी यात्राओं में वृद्धि और शहरों में बढ़ती आबादी के कारण ज़ूनोटिक रोग अधिक तेज़ी से फैलते हैं। जलवायु परिवर्तन के पर्यावरणीय स्वास्थ्य निर्धारकों के रूप में इन कारकों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है।

कोविड-19 और जलवायु संकट, दोनों इस तथ्य को और भी नुमाया करते हैं कि समाज के सबसे अधिक गरीब और हाशियाकृत लोग, जैसे प्रवासी और शरणार्थी लोग, हमेशा ही सर्वाधिक असुरक्षित होते हैं और इसके प्रभावों की सबसे अधिक मार झेलते हैं। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में देखें तो इस संकट से सर्वाधिक प्रभावित लोगों का योगदान इस संकट को बनाने में सबसे कम है। इस वर्ष की काउंटडाउन रिपोर्ट के अनुसार कोई भी देश इस बढ़ती असमानता के कारण होने वाली जीवन की क्षति को बचाने के लिए प्रतिबद्ध दिखाई नहीं पड़ता।

कोविड-19 के प्रभावों से निपटना अब राष्ट्रों की वरीयता बन गया है और जलवायु संकट के मुद्दों से उनका ध्यान हट गया है। जिस तत्परता से राष्ट्रीय सरकारें कोविड-19 से हुई क्षति के लिए आर्थिक सुधार की योजनाएं बना रहीं हैं और उन पर अमल कर रही हैं, उतनी ही तत्परता से जलवायु परिवर्तन और सामाजिक समानता के मुद्दों पर काम करने की ज़रूरत है। अब इन दोनों तरह के संकटों से एक साथ निपटना लाज़मी और अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://dialogochino.net/wp-content/uploads/2020/04/GEF-Blue-Forests-1440×720.jpg

प्रभाविता डैटा के बिना टीके को स्वीकृति

भारत के औषधि नियामक ने 3 जनवरी को दो कोविड-19 टीकों को मंज़ूरी दी है। प्रधान मंत्री ने इस फैसले को महामारी के विरुद्ध लड़ाई में निर्णायक बताया और भारतीय वैज्ञानिक समुदाय की आत्म निर्भरता के प्रमाण के रूप में देखा। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों ने इस फैसले की आलोचना की है। इसमें विशेष रूप से भारत बायोटेक द्वारा निर्मित कोवैक्सीन पर आपत्ति ज़ाहिर की जा रही है जिसकी प्रभाविता और सुरक्षा के तीसरे चरण के परिणामों की प्रतीक्षा किए बिना मंज़ूरी दी गई है।

भारत के औषधि महानियंत्रक वी.जी. सोमानी के अनुसार यह मंज़ूरी ‘पर्याप्त सावधानी’ के साथ प्रदान की गई है और इसका प्रभाविता अध्ययन जारी रहेगा। उद्देश्य यह है कि सार्स-कोव-2 के परिवर्तित रूप के खिलाफ बैक-अप सुरक्षा उपलब्ध रहे। युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राज़ेनेका द्वारा निर्मित टीके को भी ‘सशर्त उपयोग’ की मंज़ूरी दी गई है और इसके भी क्लीनिकल परीक्षण जारी रखे जाएंगे।

कई वैज्ञानिक तीसरे चरण के डैटा के बिना टीके की स्वीकृति को गलत मानते हैं। केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के दिशानिर्देशों के अनुसार किसी भी टीके को मंज़ूरी मिलने के लिए तीसरे चरण के परीक्षणों में कम से कम 50 प्रतिशत प्रभावी होना चाहिए। इस टीके को मंज़ूरी देने में इन दिशानिर्देशों को अनदेखा किया गया है।

इसके अलावा एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफ़ोर्ड से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के तहत सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया द्वारा निर्मित कोवीशील्ड टीके को मंज़ूरी देने में भी जल्दबाज़ी की गई है। कोविशील्ड को ब्राज़ील और यूके में तीसरे चरण के अध्ययन से प्राप्त डैटा के आधार पर मंज़ूरी मिली है। लेकिन सीडीएससीओ के दिशानिर्देशों के अनुसार यह जांच ज़रूरी है कि यह टीका भारतीय लोगों में कारगर है। ऐसा इसलिए आवश्यक है क्योंकि पूर्व में भी पोलियो और टाइफाइड के टीके पश्चिमी आबादी की तुलना में भारतीयों में कम असरदार साबित हुए हैं। सीरम इंस्टिट्यूट के अध्ययन के आंकड़ों का अभी तक पूरी तरह विश्लेषण नहीं किया गया है।    

फिलहाल स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने अगस्त तक जन स्वास्थ्य एवं फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं से शुरू करते हुए देश की एक-चौथाई आबादी के टीकाकरण की योजना बनाई है। इसमें सीरम इंस्टिट्यूट ने फरवरी तक 10 करोड़ टीके प्रति माह की आपूर्ति करने का वादा किया है। इस बीच कोवैक्सीन को ‘बैकअप’ के तौर पर उपयोग करने की योजना है।

इसलिए दवा नियामक द्वारा कोवैक्सीन को मंज़ूरी देने में जल्दबाज़ी का कारण समझ नहीं आता। गौरतलब है कि भारत बायोटेक ने जब आवेदन किया था तब वह तीसरे चरण के परीक्षण में वालंटियर्स भर्ती कर ही रही थी। यह प्रक्रिया काफी धीमी है और फिलहाल कंपनी इस स्थिति में भी नहीं पहुंची है कि अंतरिम प्रभाविता का विश्लेषण किया जा सके।   

लेकिन भारत बायोटेक के प्रमुख कृष्णा एला इसे असामान्य नहीं मानते; वे रूस द्वारा विकसित स्पुतनिक वी और चीन द्वारा विकसित सायनोफार्म का हवाला देते हैं जिनको पहले और दूसरे चरण के पशु अध्ययन के आधार पर वितरित किया गया है। उन्होंने सभी टीका प्राप्तकर्ताओं की सुरक्षा के लिए निगरानी करने का दावा किया है। लेकिन यह दावा सिर्फ इस आधार पर है कि यह टीका निष्क्रिय वायरस से विकसित किया गया है जिसके सुरक्षित उपयोग का लंबा इतिहास है। कृष्णा के अनुसार पशुओं और मनुष्यों पर दूसरे चरण के परीक्षण के आधार पर टीके के प्रभावी होने की संभावना है।

इन सब के बाद भी कोवैक्सीन की सुरक्षा पर सवाल बना हुआ है। इसमें प्रतिरक्षा प्रक्रिया को बढ़ावा देने वाले घटक, एल्युमिनियम हायड्रॉक्साइड और इमिडाज़ोक्विनोलिनोन का उपयोग किया गया है जिन्हें पहले कभी इस्तेमाल नहीं किया गया है। ऐसे में इसकी सुरक्षा संदेहास्पद है। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वैज्ञानिक दूसरे चरण में मापी गई प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं के आधार पर किसी टीके की प्रभाविता का अनुमान नहीं लगा सकते हैं।

कोवीशील्ड के तीसरे चरण के परिणामों के अंतरिम विश्लेषण में प्रभाविता 62 प्रतिशत पाई गई है। हालांकि कुछ अस्पष्टता के बाद भी इसे यूके और अर्जेन्टाइना में उपयोग के लिए अधिकृत किया गया है। भारत में सीरम इंस्टिट्यूट ने एस्ट्राज़ेनेका के टीके से कोवीशील्ड की प्रतिरक्षा प्रक्रिया की तुलना करने के लिए 400 भारतीयों और सुरक्षा का परीक्षण करने के लिए 1200 भारतीयों पर अध्ययन करने का डिज़ाइन तैयार किया है। यह अंतरिम विश्लेषण सीडीएससीओ को संतुष्ट करने के लिए तो पर्याप्त है लेकिन इसके परिणाम सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। ऐसे में सम्मिलित लोगों की संख्या स्पष्ट नहीं है। यह भारतीय नियामक द्वारा नियम बनाने और स्वयं उन्हें तोड़ने का स्पष्ट उदाहरण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/astrazeneca_1280p.jpg?itok=FNLOFVd4

वायरस के नए रूप की लहर की संभावना

ए साल में सार्स-कोव-2 का नया संस्करण, ए.1.1.7, वैज्ञानिकों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। पिछले महीने दक्षिण-पूर्वी इंग्लैंड में पहली बार पहचाना गया यह संस्करण संभवत: इस महामारी को एक भयावह रूप में आगे बढ़ा सकता है।

वेलकम ट्रस्ट के प्रमुख जेरेमी फेरार चिंता जताते हैं कि अधिक तेज़ी से फैलने की क्षमता के कारण शायद ए.1.1.7 संस्करण विश्व स्तर पर इस महामारी का प्रमुख संस्करण बन जाएगा। उनको लगता है कि यह बीमारी की एक खतरनाक लहर पैदा करेगा। साल 2020 में थोड़ा अंदाज़ा मिलने लगा था कि यह महामारी किस दिशा में आगे बढ़ेगी लेकिन वायरस के इस नए संस्करण के फैलने से अब इस बारे में ठीक-ठीक कुछ कहना मुश्किल हो गया है।

इस चिंता ने कुछ देशों में टीके की मंज़ूरी प्रक्रिया या टीके देने के तरीके को निश्चित करने की चर्चा को गति दे दी है ताकि जल्द से जल्द अधिकाधिक लोगों को सुरक्षा दी जा सके। लेकिन जिस तरह नया संस्करण अन्य देशों में प्रवेश कर रहा है, वैज्ञानिकों ने देश की सरकारों को मौजूदा नियंत्रण उपायों को भी मज़बूत करने की सलाह दी है। यू.के. ने तो और भी सख्त प्रतिबंध लगाने की घोषणा भी कर दी है जिसमें स्कूलों को बंद रखने और अत्यावश्यक परिस्थितियों में ही लोगों को घर से बाहर निकलने की अपील की गई है। अलबत्ता, कई देश अभी इस तरह के कदम उठाने में हिचक रहे हैं।

प्रतिबंध लगाते समय यू.के. के प्रधानमंत्री ने कहा था कि यह नया संस्करण 50-70 प्रतिशत अधिक तेज़ी से फैलता है, लेकिन शोधकर्ता इस बारे में कुछ भी कहने में सावधानी बरत रहे हैं। पिछले एक महीने में यू.के. में संक्रमण के मामले बढ़े तो हैं लेकिन देखा जाए तो मामले तब बढ़े हैं जब यू.के. के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न स्तर का प्रतिबंध लगा था, और लोगों के व्यवहार में बदलाव और क्रिसमस के समय क्षेत्रीय संक्रमण दर के कारण बनीजटिल स्थिति में नए संस्करण के प्रभाव को ठीक-ठीक पहचानना कठिन है।

फिर भी साक्ष्य बताते हैं कि ए.1.1.7 के स्पाइक प्रोटीन में हुए आठ परिवर्तनों सहित कई परिवर्तन इस वायरस की संक्रामकता को बढ़ाते हैं। पब्लिक हेल्थ इंग्लैंड द्वारा किए गए एक विश्लेषण में पता चला है कि इंग्लैंड में ए.1.1.7 संस्करण से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए कुल लोगों में से लगभग 15 प्रतिशत लोग कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए जबकि अन्य संस्करणों से संक्रमित लोगों के संपर्क में आए कुल लोगों में से 10 प्रतिशत लोग ही कोविड-19 पॉज़िटिव पाए गए।

जिन अन्य देशों में ए.1.1.7 संस्करण देखा गया है, यदि वहां भी इस संस्करण की लहर आती है तो यह इसका एक पुख्ता प्रमाण हो सकता है कि यह संस्करण तेज़ी से फैलता है। आयरलैंड में, जहां तेज़ी से संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं, वहां डीएनए अनुक्रमित किए गए एक चौथाई मामलों में संक्रमण के लिए यही नया संस्करण ज़िम्मेदार पाया गया है। लेकिन युरोपीय संघ में सर्वाधिक अनुक्रमण करने वाले देश डेनमार्क ने अभी इस बारे में पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा है। यहां नियमित जांच में दर्जनों बार यह संस्करण दिखा है; दिसंबर की शुरुआत में अनुक्रमित जीनोम में इसकी आवृत्ति 0.2 प्रतिशत थी जो तीन सप्ताह बाद से 2.3 प्रतिशत हो गई। यदि अन्य देशों में भी मामले बढ़ने की प्रवृत्ति इसी तरह बनी रहती है तो यह एक स्पष्ट संकेत होगा कि यू.के. की तरह वहां भी इस संस्करण की लहर उभर सकती है जिसका सामना करने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

अब तक इस संदर्भ में कुछ साक्ष्य मिले हैं कि नया संस्करण लोगों को कम बीमार करता है लेकिन यह कोई तसल्ली की बात नहीं है। किसी वायरस की प्रसार क्षमता में वृद्धि उसकी घातकता में वृद्धि की तुलना में अधिक चिंताजनक है क्योंकि इसके प्रभाव तेज़ी से बढ़ते हैं। मसलन, यदि किसी रोग की मृत्यु दर एक प्रतिशत है और वह लोगों में अधिक तेज़ी से फैलता है जिससे अधिक लोग प्रभावित होते हैं तो इस स्थिति में अधिक लोग मरेंगे बनिस्बत उस स्थिति के जिसमें किसी रोग की मृत्यु दर तो दो प्रतिशत हो लेकिन फैलता कम हो।

यदि वास्तव यू.के. में वायरस की प्रसार दर में 50-75 प्रतिशत की वृद्धि  हुई है तो वायरस को फैलने से रोकना बहुत कठिन होगा। संक्रमितों को अलग करके, उनके संपर्क में आए लोगों को पहचान कर क्वारेंटाइन करके और उनका परीक्षण करने जैसे उपाय कर वायरस की प्रसार दर को 2 से 1 पर लाया जा सकता है। लेकिन यदि मामले एक सीमा तक पहुंच जाते हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक भार पड़ता है तो ये कदम नाकाम जाएंगे। यानी सख्त उपाय ही नए संस्करण के प्रसार को रोकने में मदद कर सकते हैं।

पहले ही सार्स-कोव-2 के कई संस्करण उभर चुके हैं। अब, संक्रमण फैलने से रोककर हम वायरस के लिए और अधिक विकसित होने के अवसर भी कम कर सकते हैं। वायरस में कोई उत्परिवर्तन टीकों की प्रभाविता को भी खतरे में डाल सकता है। महामारी के पहले जैसी दुनिया, दिनचर्या के अनुभव के लिए हमें इस वायरस को रोकना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/glasgow_1280p.jpg?itok=obBUnq7-