हाल ही में चीनी सरकार ने कोविड-19 नीतियों में ढील देने के दिशा-निर्देश जारी किए हैं। इन दिशानिर्देशों के तहत जांच की आवश्यकता और यात्रा सम्बंधी प्रतिबंधों में ढील दी गई है तथा सार्स-कोव-2 से संक्रमित हल्के या अलक्षणी रोगियों को पहले की तरह सरकारी सुविधाओं की बजाय घर पर ही आइसोलेट होने की अनुमति दी गई है।
इन रियायतों से संक्रमण में वृद्धि का अंदेशा जताया गया है। विशेषज्ञों के अनुसार यह निर्णय स्पष्ट रूप से इस बात का संकेत है कि चीन अब ज़ीरो कोविड के लक्ष्य से दूर जा रहा है। सख्त तालाबंदी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के चलते कई शहरों में कोविड जांच और आवाजाही पर लगाए गए प्रतिबंधों में कुछ ढील दी गई थी। नए दिशानिर्देश इससे भी अधिक ढील प्रदान करते हैं।
एथेंस के जॉर्जिया विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य शोधकर्ता एडम चेन सरकार के इन निर्णयों को उचित मानते हैं। उनके अनुसार यह कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोगों को संक्रमण से बचाते हुए लॉकडाउन के आर्थिक और सामाजिक नुकसान को कम करने के लिए सबसे उचित है। दूसरी ओर, कुछ विशेषज्ञों के अनुसार वर्तमान निर्णय जल्दबाज़ी में लिए गए हैं जिसमें विचार-विमर्श करने का पर्याप्त समय भी नहीं मिला है।
नए दिशानिर्देशों के तहत समूचे शहरों में जांच की आवश्यकता नहीं रहेगी। लॉकडाउन को लेकर भी एक नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाया गया है। पूरे शहरों को बंद करने के बजाय उच्च जोखिम वाली बस्तियों, इमारतों और परिवारों पर प्रतिबंध होंगे। नर्सिंग होम जैसे उच्च जोखिम वाले स्थानों को छोड़कर अब लोगों को आने-जाने के लिए नेगेटिव परीक्षण का प्रमाण दिखाने की आवश्यकता नहीं है। उन क्षेत्रों में टीकाकरण को बढ़ावा देने का निर्देश दिया गया है जहां वृद्धजनों में टीकाकरण की दर कम है।
कई शोधकर्ताओं का मानना है कि नए नियमों के कुछ पहलू अस्पष्ट हैं और स्थानीय सरकारें इनकी व्याख्या अपने अनुसार करेंगी। जैसे आउटब्रेक के दौरान परीक्षण कहां व कब कराए जाएं, उच्च जोखिम वाले क्षेत्र किन्हें कहा जाए और उनका प्रबंधन कैसे किया जाए वगैरह। अंतर्राष्ट्रीय यात्रियों की जांच और क्वारेन्टाइन में कोई रियायत नहीं दी गई है।
चीन में काफी लोग मल्टी में रहते हैं जहां घनी आबादी के चलते संक्रमण को रोकना मुश्किल होगा। घर पर ही क्वारेन्टाइन करने से संक्रमण फैलेगा। शोधकर्ता लॉकडाउन खोलने के समय को भी सही समय नहीं मानते। सर्दी के मौसम में इन्फ्लुएंज़ा का प्रकोप सबसे अधिक होता है यानी अस्पतालों में रोगियों की संख्या अधिक होगी। इसी समय त्योहारों के लिए लोग यात्राएं करेंगे जिससे वायरस के प्रसार की संभावना अधिक होगी।
चीन के पास मज़बूत प्राथमिक चिकित्सा सेवा प्रणाली नहीं है। ऐसे में हल्के-फुल्के लक्षण वाले लोग भी अस्पताल पहुंचते हैं।
और तो और, विशेषज्ञों को लगता है कि अचानक प्रतिबंधों को हटा देने से काम-धंधे ठीक तरह से पटरी पर नहीं आ पाएंगे।
शोधकर्ताओं को चिंता है कि जल्दबाज़ी में किए गए इन बदलावों से वृद्ध लोगों के बीच टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाएगा। फिलहाल 60 वर्ष या उससे अधिक आयु के लगभग 70 प्रतिशत और 80 वर्ष या उससे अधिक आयु के 40 प्रतिशत लोगों को ही टीके की तीसरी खुराक मिली है।
इन दिशानिर्देशों में टीकाकरण को बढ़ावा देने और लोगों की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने के लिए मोबाइल क्लीनिक स्थापित करने और चिकित्सा कर्मचारियों को प्रशिक्षित करने का भी प्रावधान है। लेकिन इन दिशानिर्देशों में स्थानीय सरकारों को टीकाकरण को बढ़ाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं है। सवाल यही है कि क्या आने वाले समय में संक्रमण में वृद्धि से मौतों में वृद्धि होगी या सरकार इसे नियंत्रित कर पाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-022-04382-0/d41586-022-04382-0_23797956.jpg?as=webp
जब आधुनिक मनुष्य पहली बार अफ्रीका से निकलकर दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत के उष्णकटिबंधीय द्वीपों में गए तो उनका सामना नए लोगों और नए रोगजनकों से हुआ। लेकिन जब उन्होंने स्थानीय लोगों, डेनिसोवन्स, के साथ संतानोत्पत्ति की तो उनकी संतानों में कुछ प्रतिरक्षा जीन स्थानांतरित हुए जिन्होंने उन्हें स्थानीय बीमारियों से बचने में मदद की। अब एक नया अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ जीन्स आज भी पपुआ न्यू गिनी के निवासियों के जीनोम में मौजूद हैं।
वैज्ञानिक यह तो भली-भांति जानते थे कि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया में रहने वाले लोगों को 5 प्रतिशत तक डीएनए डेनिसोवन लोगों से विरासत में मिले हैं। डेनीसोवन लोग लगभग दो लाख साल पहले एशिया में आए थे और ये निएंडरथल मनुष्य के सम्बंधी थे। वैज्ञानिकों को लगता है कि इन जीन्स ने अतीत में आधुनिक मनुष्यों को स्थानीय बीमारियों से लड़ने में मदद करके फायदा पहुंचाया होगा। लेकिन सवाल था कि ये डीएनए अब भी कैसे मनुष्यों के डील-डौल, कार्यिकी वगैरह में बदलाव लाते हैं। और चूंकि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया के वर्तमान लोगों के डीएनए का विश्लेषण बहुत कम हुआ है इसलिए इस सवाल का जवाब मुश्किल था।
इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की आइरीन गेलेगो रोमेरो और उनके साथियों ने एक अन्य अध्ययन का डैटा उपयोग करके इस मुश्किल को दूर किया है। उस अध्ययन में पपुआ न्यू गिनी के 56 लोगों के आनुवंशिक डैटा का विश्लेषण किया गया था। इन लोगों के जीनोम की तुलना डेनिसोवन और निएंडरथल डीएनए के साथ करने पर देखा गया कि डेनिसोवन लोगों से पपुआ लोगों को 82,000 ऐसे जीन संस्करण मिले थे जो जेनेटिक कोड में सिर्फ एक क्षार में बदलाव से पैदा होते हैं।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने आगे का अध्ययन प्रतिरक्षा से सम्बंधित जीन संस्करणों पर केंद्रित किया जो अपने निकट उपस्थित जीन के प्रोटीन का उत्पादन बढ़ा सकते थे, या इसका कार्य ठप या धीमा कर सकते थे। यह नियंत्रण विशिष्ट रोगजनकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली को अनुकूलित होने या ढलने में मदद कर सकता है।
शोधकर्ताओं को पपुआ न्यू गिनी के लोगों में कई ऐसे डेनिसोवन जीन संस्करण मिले जो उन जीन्स के पास स्थित थे जो फ्लू और चिकनगुनिया जैसे रोगजनकों के प्रति मानव प्रतिरक्षा को प्रभावित करते हैं। इसके बाद उन्होंने विशेष रूप से दो जीन्स, OAS2 और OAS3, द्वारा उत्पादित प्रोटीन की अभिव्यक्ति से जुड़े आठ डेनिसोवन जीन संस्करण के कार्य का परीक्षण किया।
देखा गया कि इनमें से दो डेनिसोवन जीन संस्करण ने प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा साइटोकाइन्स का उत्पादन कम कर दिया था जिससे शोथ (सूजन) कम हो गई थी। इस तरह शोथ प्रतिक्रिया को शांत करने से पपुआ लोगों को इस क्षेत्र के नए संक्रमणों से निपटने में मदद मिली होगी।
प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि इन प्रयोगों से पता चलता है कि डेनिसोवन जीन संस्करण प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में छोटे-मोटे बदलाव कर इसे पर्यावरण के प्रति अनुकूलित बना सकते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में, जहां संक्रमण का अधिक खतरा होता है, वहां प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को पूरी तरह हटाना तो उचित नहीं होगा लेकिन उसकी उग्रता को कम करना कारगर हो सकता है।
ये नतीजे वर्तमान युरोपीय लोगों में निएंडरथल जीन संस्करण की भूमिका पर हुए एक अन्य अध्ययन के नतीजों से मेल खाते हैं। दोनों ही अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे किसी क्षेत्र में नए आने वाले मनुष्यों का प्राचीन मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप उनमें लाभकारी जीन प्राप्त होने का एक त्वरित तरीका प्रदान करता है। अध्ययन बताता है कि इस तरह जीन का लेन-देन मनुष्यों को प्रतिरक्षा चुनौतियों के प्रति अनुकूलित होने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया था।
उम्मीद है कि आगे के अध्ययनों में यह पता चल सकेगा कि क्या डेनिसोवन जीन संस्करण पपुआ लोगों को किसी विशिष्ट रोग से बचने या उबरने में बेहतर मदद करते हैं?
सार रूप में, हज़ारों सालों पहले दो अलग तरह के मनुष्यों का मेल-मिलाप अब भी वर्तमान मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg2133/abs/_20221208_on_papuans.jpg
मेरी दोस्त पिछले कुछ दिनों से थोड़ा अजीब-सा व्यवहार कर रही थी। छोटी-छोटी बातों पर चिड़-चिड़ करने लगती थी। और फिर अपनी बेमतलब चिड़चिड़ाहट पर खुद ही परेशान हो जाती थी।
मेनोपॉज या रजोनिवृति महिलाओं के प्रजनन चक्र से जुड़ा मामला है। आम तौर पर किसी लड़की को 12-15 की आयु में मासिक स्राव शुरू होता है और यह अमूमन 45-50 की उम्र तक चलता है। मेनोपॉज़ का मतलब होता है मासिक स्राव का बंद हो जाना। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि जीवन के एक नए चरण की शुरुआत है। वास्तव में जन्म के समय ही किसी लड़की के अंडाशय में लाखों अंडाणु होते हैं। लगभग 12-13 वर्ष की उम्र में ये अंडाणु परिपक्व होना शुरू करते हैं। प्रति माह एक अंडाणु (कभी-कभी दो) परिपक्व होकर अंडाशय से निकलता है। इसका नियंत्रण एस्ट्रोजेन नामक हार्मोन करता है। एक अन्य हार्मोन प्रोजेस्टेरोन महिला के शरीर को गर्भावस्था के लिए तैयार करता है। प्रोजेस्टरोन के प्रभाव से गर्भाशय की दीवार पर रक्त वाहिनियों का एक अस्तर बनता है। यदि अंडे का निषेचन होकर गर्भ नहीं ठहरता तो यह अस्तर झड़ जाता है। यही खून मासिक स्राव के रूप में बहता है। और इसे मासिक धर्म कहते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे महिलाओं के अंडाशय एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का उत्पादन कम करने लगते हैं – इसे पेरिमेनोपॉज़ अवस्था कहते हैं। और जब इन हार्मोन्स का उत्पादन पूरी तरह समाप्त हो जाता है तब मासिक स्राव पूरी तरह बंद हो जाते हैं। यही मेनोपॉज़ है।
काफी पूछने पर उसने बताया कि पिछले कुछेक महीनों से उसके पीरियड नियमित नहीं आ रहे हैं। 2-3 महीने में एक बार आते हैं और फिर जब आते हैं तो 15-15 दिनों तक रहते हैं। खून भी काफी जाता है। “बहुत जल्दी थक जाती हूं और बिना किसी बात के चिढ़ने लगती हूं। मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मेरे पीरियड तो बहुत आराम से हो जाते थे। किंतु अब…”
मैंने उसे बीच में ही रोककर पूछा, “तुमने किसी डॉक्टर से बात की?”
“नहीं, उसकी क्या ज़रूरत है, कुछ हुआ थोड़ी ना है।”
“तो और क्या होने का इंतज़ार कर रही हो… हम आज शाम ही डॉक्टर से मिलने चलेंगे।”
डॉक्टर साहिबा ने तो सवालों की झड़ी ही लगा दी – ऐसा कब से हो रहा है, और क्या-क्या परेशानियां होती है, डायबिटीज़ तो नहीं है, बीपी तो नहीं है, शादी हुई, बच्चे हैं क्या, तुम्हारी क्या उम्र होगी, जो तुम्हारे साथ आई हैं वे आपकी कौन हैं, वगैरह-वगैरह।
सब कुछ जान लेने के बाद उन्होंने मेरी दोस्त को सोनोग्राफी कराकर आने को कह दिया। सोनोग्राफी में निकलकर आया कि अंडाशय नीचे आ गए हैं यानी मेनोपॉज़ (रजोनिवृत्ति) की शुरुआत हो गई है।
सोनोग्राफी की रिपोर्ट देखकर डॉक्टर साहिबा थोड़ी परेशान हो गईं, “अभी तो आप 40 की ही हुई हो, आपको बच्चे भी तो चाहिए होंगे। मैं ऐसा करती हूं आपको हार्मोनल गोलियां लिख देती हूं। नॉर्मल पीरियड आने लगेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है।”
हार्मोनल गोलियां खाने की बात सुनकर मेरी दोस्त थोड़ा घबरा गई। दवाई से तो वह हमेशा बचने की कोशिश करती थी।
उसने डॉक्टर से कहा, “अरे, नहीं, नहीं, मुझे बच्चे नहीं चाहिए। मेरे पीरियड जल्दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्दी शुरू हो गया होगा। हार्मोनल गोलियां मत लिखिए।”
“पीरियड जल्दी शुरू हो गए थे, उससे क्या होता है? पीरियड जल्दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्दी होगा ऐसा कोई नियम नहीं है। क्या तुम्हारी मां या बहन को भी इसी उम्र में मेनोपॉज़ शुरू हो गया था?”
डॉक्टर साहिबा के इस सवाल का मेरी दोस्त के पास कोई जवाब नहीं था। उसने कहा कि इस विषय पर उसकी अपनी मां या बहन से कभी कोई बातचीत ही नहीं हुई। पीरियड शुरू होने पर मां ने यह ज़रूर बताया था कि क्या करना चाहिए और क्या नहीं किंतु खुद अपने पीरियड के सम्बंध में उन्हें कभी किसी से बात करते नहीं सुना।
“ठीक है तो अब पूछ लेना।”
चूंकि सोनोग्राफी में कुछ गड़बड़ नहीं निकली थी इसलिए मेरी दोस्त तो डॉक्टर साहिबा के साथ हुई बातचीत को भूल ही गई, मैं भी भूल गई। फिर कुछ महीनों बाद मुझे मेनोपॉज़ के बारे में एक लेख पढ़ने को मिला – Why Menopause Matters in the Academic Workplace (मेनोपॉज़ अकादमिक कार्यस्थल पर क्या महत्व रखता है)। इस लेख में बताया गया था कि मेनोपॉज़ के दौरान औरतें किन-किन परेशानियों से गुज़रती हैं, मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के लिए काम की जगह को कैसे फ्रेंडली बनाया जा सकता है, वगैरह-वगैरह। इस लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरी दोस्त व डॉक्टर साहिबा की बातचीत याद आ गई – उन्होंने मेरी दोस्त से कितने तो सवालात किए पर मेनोपॉज़ में किस-किस तरह की परेशानियां आ सकती हैं, उसका एक मर्तबा भी ज़िक्र नहीं किया।
इस लेख को पढ़ने से पहले मुझे भी एहसास नहीं था कि मेनोपॉज़-पूर्व (पेरि-मेनोपॉज़) से गुज़र रही महिलाओं को इतनी तकलीफें होती हैं। कभी मां, बहन या किसी दोस्त ने अपने अनुभव साझा ही नहीं किए और न ही इस बारे में कहीं कुछ पढ़ने को मिला। वर्कशॉप में या दोस्तों से बातचीत के दौरान माहवारी के अनुभवों पर तो काफी बातें हुईं लेकिन माहवारी समाप्त होने (मेनोपॉज़) पर चर्चा करने का कभी कोई मौका नहीं मिला। और वहीं से यह लेख लिखने का ख्याल पनपा ताकि लोग इस प्रक्रिया को समझ सकें और संवेदनशील हो सकें व खुद के साथ-साथ दूसरों को भी जागरूक कर सकें।
मेनोपॉज़ को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं; जैसे, मेनोपॉज़ शुरू होने के बाद महिलाओं को सेक्स करने की इच्छा नहीं होती, वो एक तरह से बुढ़ा जाती हैं, चीज़ें भूलने लगती हैं, आदि-आदि।
अमूमन मेनोपॉज़ 45 से 55 की उम्र के बीच शुरू होता है। इस प्रक्रिया के दौरान अंडाशयों से निकलने वाले सेक्स हॉर्मोन्स में कमी आने लगती है और इस वजह से पीरियड अनियमित हो जाते हैं। आपको कई तरह के शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक बदलाव महसूस होते हैं।
इस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने करियर के ऊंचे पड़ाव या नेतृत्व की भूमिका में होती हैं। काम की अधिकतर जगहों पर मेनोपॉज़ – और उस वक्त होने वाले शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक बदलाव – को इस तरह से नहीं देखा जाता कि उसके लिए कोई सपोर्ट सिस्टम निर्मित किया जाए। और महिलाएं भी इस डर से कुछ नहीं बोलतीं कि उन पर आलसी होने, बहानेबाज़ी या अकेले काम न कर पाने, समस्या खड़ी कर देने वाली का ठप्पा लगा दिया जाएगा। कुछ बोलने की बजाय वे छुट्टियां लेकर घर में वक्त बिताना पसंद करती हैं। कभी-कभी नौकरी छोड़ देती हैं या फिर प्रमोशन नहीं लेतीं।
मज़दूर तबके की औरतों या घरेलू कामगार महिलाओं के पास तो ये सुविधाएं भी नहीं होतीं। अगर छुट्टी ली तो उन्हें तो काम से ही हाथ धोना पड़ जाएगा। और इस वजह से सिर्फ महिलाएं ही मुश्किलें नहीं झेल रही होतीं बल्कि संस्थान भी एक सीनियर महिला के अनुभवों से महरूम रह जाते हैं।
मेनोपॉज़ शुरू होने पर या सही शब्दों में कहें तो पेरि-मेनोपॉज़ के दौरान जब आप डॉक्टर से सलाह लेने पहुंचती हैं तो वे भी सिर्फ कैल्शियम की गोलियां और खान-खुराक की ही बात करते हैं, या ज़्यादा हुआ तो परिवार की हिस्ट्री जानकर सोनोग्राफी कराने की सलाह देते हैं। लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं करते कि उस दौरान सेक्स हार्मोन में कमी आने से किस तरह की शारीरिक या मानसिक दिक्कतें हो सकती हैं, जैसे – मूड में उतार-चढ़ाव, एकदम से गर्मी लगने लगना या पसीना आना वगैरह।
दफ्तर में साथ काम करने वाले लोगों या घर के लोगों को कोई अंदाज़ा ही नहीं होता कि औरतें किस परिस्थिति से गुज़र रही हैं, और ऐसे में हम उनकी तकलीफों को और बढ़ा देते हैं। हम यह तो कहते हैं कि आजकल मैडम बहुत चिड़चिड़ी हो गई हैं और छोटी-छोटी बात पर भड़क जाती हैं लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है कभी जानने-समझने की कोशिश नहीं करते।
मेनोपॉज़ उन व्यक्तियों के लिए ज़िंदगी की एक प्राकृतिक अवस्था है जिनको अंडाशय व गर्भाशय होते हैं और जिनको माहवारी होती है। जैसे कि औरतें, कुछ ट्रांसजेंडर आदमी, नॉन-बाइनरी लोग।
अगर किसी व्यक्ति को लगातार एक साल तक पीरियड नहीं आएं तो कहा जा सकता है कि मेनोपॉज़ हो गया है। लेकिन मेनोपॉज़ तक पहुंचने के दौरान जो शारीरिक, मानसिक व भावनात्मक बदलाव होते हैं उनको पेरि-मेनोपॉज़ अवस्था कहा जाता है। इसमें अंडाशय से निकलने वाले एस्ट्रोजन व प्रोजेस्टेरोन हार्मोन की मात्रा कम होने लगती है। पेरि-मेनोपॉज़ अवस्था कई सालों तक रह सकती है। इसमें अनियमित या अत्यधिक रक्तस्राव, मूड में उतार-चढ़ाव होना, नींद आने में दिक्कत, अचानक गर्मी लगना या पसीना आना (hot flushes), भूलने लगना, योनि में सूखापन, वज़न बढ़ना, डिप्रेशन, सेक्स करने की इच्छा न होना आदि लक्षण होते हैं। इसके अलावा, कुछ स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें जैसे – अस्थिछिद्रता, हृदय रोग भी हो सकते हैं।
दुनिया भर में कार्यस्थलों पर मेनोपॉज़ के अनुभवों को लेकर जानकारी बहुत कम ही है। 2015 में Menopause में प्रकाशित हुई यूएस की एक स्टडी में बताया गया था कि हॉट फ्लशेज़ (शरीर के ऊपरी हिस्से में अचानक गर्मी महसूस होना) और रात में पसीना आना (नाइट स्वेट्स) की वजह से ऐसी औरतों ने अन्य औरतों की तुलना में 60 फीसदी ज़्यादा काम के दिन गंवाए हैं। लंदन में जेंडर-बराबरी पर काम करने वाले संगठन फॉसिट सोसाइटी की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ से गुज़र रहीं आधी से ज़्यादा औरतों और ट्रांसजेंडर आदमियों ने इस दौरान होने वाली परेशानियों की वजह से प्रमोशन के लिए एप्लाई नहीं किया।
ऑस्ट्रेलिया में, स्वास्थ्य व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के एक सर्वे में पता चला था कि कई औरतें ठीक से काम न कर पाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं। कइयों ने यह भी कहा कि वे अपने स्वास्थ्य व काम के संतुलन को बेहतर करने के लिए अपने काम के घंटे कम करना चाहती हैं।
जापान ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ने पिछले साल मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं का एक सर्वे किया था। इस सर्वे में लगभग 20 फीसदी महिलाओं ने नौकरी छोड़ने, प्रमोशन न लेने, काम के घंटे कम करने या पदावनति करने की बात कही।
साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग व मेथ (STEM) के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को लगता है कि अगर वे अपने बॉस या साथी स्टाफ के साथ मेनोपॉज़ की दिक्कतों के बारे में बात करेंगी तो वे महिलाओं के खिलाफ और भी पूर्वाग्रहों से भर जाएंगे। परिणाम यह होता है कि वे रिसर्च की बजाय प्रशासनिक काम ज़्यादा पसन्द करती हैं।
कार्यस्थलों के लिए मेनोपॉज़ नीति बनाने की सख्त ज़रूरत है। और ऐसी नीति बनाते वक्त महिलाओं को भागीदार बनाना तथा उनसे सुझाव लेना ज़रूरी होगा। काम करने की व्यवस्था को लचीला बनाया जाए। जैसे, वे महिलाएं कुछ घंटों की छुट्टी लेकर डॉक्टर से मिल सकें, घर से काम कर सकें, ऑफिस में एक ऐसी जगह हो जहां हालत बिगड़ने पर कुछ देर आराम कर सकें, ऐसा माहौल हो कि वे अपनी परेशानियों के बारे में किसी व्यक्ति या फोरम में खुलकर बात कर सकें।
यूके और यूएस जैसे देशों में तो इस दिशा में प्रयास शुरू भी हो गए हैं। मेनोपॉज़ गाइडेंस, मेनोपॉज़ नेटवर्क, मेनोपॉज़ काफे वगैरह बनाने की पहल हुई हैं। सेलेब्रेटी भी इस पर खुलकर बातें कर रहे हैं।
तो आइए, हम जहां भी काम करते हैं वहां प्री-मेनोपॉज़ पर संवाद शुरू करें। काम की जगहों को प्री-मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं के अनुकूल बनाने की कोशिश करें। मेनोपॉज़ को एक बीमारी या विकार की तरह न देखकर ज़िंदगी के एक दौर की तरह देखें।
कार्यस्थलों पर औरतों की संख्या जितनी बढ़ेगी, मेनोपॉज़, गर्भावस्था, स्तनपान जैसी चीज़ों पर लोगों के पूर्वाग्रह उतने ही कम होंगे और लोग संवेदनशील भी बनेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.vecteezy.com/system/resources/previews/011/430/701/non_2x/female-personal-health-concern-worry-woman-getting-checked-by-doctors-menopause-women-climacteric-hormone-replacement-therapy-concept-flat-modern-illustration-vector.jpg
कैंसर फैलने में अहम मोड़ मेटास्टेसिस चरण में आता है, जब कोशिकाएं प्रारंभिक ट्यूमर से अलग होकर शरीर में फैलने लगती हैं और नए ट्यूमर बनाने लगती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाओं को आगे बढ़ने के लिए शरीर में मौजूद तरल माध्यम से गुज़रते हुए उसके प्रतिरोध का सामना पड़ता है। पूर्व में हुए प्रयोगशाला अध्ययनों में पता चला था कि (सहज बोध के विपरीत) ये कोशिकाएं गाढ़े द्रव में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ती हैं।
अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि कैंसर कोशिकाएं शारीरिक द्रव के गाढ़ेपन को भांप लेती हैं और उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देती हैं। सिरप जैसे द्रव में रखे जाने पर देखा गया कि कोशिकाएं अपनी बनावट में ऐसे परिवर्तन करती हैं जो उन्हें बाहरी प्रतिरोध में अधिक कुशलता से आगे बढ़ने में मदद करते हैं। यहां तक कि वे द्रव के गाढ़ेपन की स्मृति को सहेजकर रखती हैं और अपेक्षाकृत पतले द्रव में लौटने पर भी तेज़ी से आगे बढ़ना जारी रखती हैं।
यह जानने के लिए कि कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में कैसे आगे बढ़ती हैं, पोम्पे फेबरा युनिवर्सिटी के आणविक जीव विज्ञानी मिगुएल वेल्वरडे और उनके साथियों ने कोशिकाओं की चाल पता करने के लिए उपयोग किए गए अपने गणितीय मॉडल को थोड़ा बदलकर इसे गाढ़े द्रव के लिए अनुकूलित किया।
संशोधित मॉडल ने बताया कि बाहरी प्रतिरोध कोशिकाओं को उनके अग्रभाग की ओर एक्टिन को पुनर्गठित करने के लिए उकसाता है – एक्टिन एक प्रोटीन है जो कोशिका का आंतरिक कंकाल बनाता है। इसके बाद NHE1 नामक परिवहन प्रोटीन झिल्ली पर इकट्ठा होने लगता है और पानी के अवशोषण में मदद करता है। इससे कोशिका फूल जाती है, जिसकी वजह से झिल्ली में तनाव पैदा हो जाता है। इस तनाव के परिणामस्वरूप TRPV4 आयन चैनल खुल जाता है। इससे कैल्शियम आयन कोशिका में भर जाते हैं जो इसे सिकुड़ने के लिए उकसाते हैं। इससे एक बल उत्पन्न होता है जो कोशिका को अधिक गाढ़े द्रव के प्रतिरोध का सामना करके आगे बढ़ने में मदद करता है।
पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को अत्यधिक आवर्धन क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी से देखा। पाया गया कि जब कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में होती हैं तो उनके अग्रभाग पर एक्टिन जमा होता है। फिर शोधकर्ताओं ने व्यवस्थित रूप से प्रत्येक घटक की जांच करके घटनाओं के क्रम की पुष्टि की। उदाहरण के लिए, NHE1 रहित कोशिकाओं में जब TRPV4 को सक्रिय किया गया तो कोशिकाओं में तेज़ी से चलने की क्षमता बहाल हो गई, जिससे पता चलता है कि TRPV4 चैनल तरल के बहाव की विपरीत दिशा में कार्य करता है। ये नतीजे इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि बाहरी चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की शुरुआत आयन चैनल करती हैं।
यह भी देखा गया कि गाढ़े द्रव की परिस्थितियों की स्मृति कोशिकाएं बरकरार रखती है: मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को गाढ़े द्रव में छह दिनों तक रखकर फिर पानी जितनी सांद्रता वाले में माध्यम में स्थानांतरित करने पर पाया गया कि इन कोशिकाओं ने अपनी गति बरकरार रखी। इसी तरह, लसलसे तरल में कोशिकाओं को पनपाने के बाद जब इन्हें चूहों के शरीर में डाला गया तो इन कोशिकाओं ने कम लसलसे तरल में पनपाई गई कोशिकाओं की तुलना में अधिक व्यापक मेटास्टेसिस किया। इसी तरह के नतीजे ज़ेब्राफिश और भ्रूण-चूज़े में भी देखे गए।
ऐसा लगता है कि इस स्मृति का विकास TRPV4 पर निर्भर करता है। कोशिकाओं को एक लसलसे घोल में छह दिन तक रखने के बाद पानी के समान द्रव में स्थानांतरित किया गया तो पता चला कि जिन कोशिकाओं में आयन चैनल व्यक्त नहीं हुआ था उन्होंने चूहों में तुलनात्मक रूप से कम ट्यूमर बनाए। इससे पता चलता है कि आयन चैनल के अभाव में गाढ़ापन गति को प्रभावित नहीं करता।
शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के मेटास्टेसिस को अवरुद्ध करने के लिए TRPV4 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है। लेकिन अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि पहले सामान्य कोशिकाओं में TRPV4 की भूमिका को पूरी तरह समझना ज़रूरी है। यदि यह कोई खास भूमिका निभाता होगा तो इसे अवरुद्ध करने के घाटे भी हो सकते हैं। इसके अलावा, निष्कर्षों की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। कोशिकाएं गाढ़े घोल में तेज़ चलती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिक कैंसर गठानें (द्वितियक कैंसर) बनाएंगी; ट्यूमर मेटास्टेसिस एक बहुत ही जटिल घटना है जिसके कई चरण होते हैं, इनमें से कुछ चरण कोशिका के विचरण से स्वतंत्र हैं।
बहरहाल, भले ही ये नतीजे सीधे तौर पर कैंसर चिकित्सा में मदद न करें लेकिन ये कोशिका-आधारित कैंसर अनुसंधान में बदलाव ला सकते हैं। फिलहाल अधिकांश अध्ययन पानी जैसी सांद्रता वाले द्रवों में किए जाते हैं। शरीर के तरल जैसी सांद्रता वाले द्रव का उपयोग मेटास्टेसिस-अवरुद्ध करने वाले लक्ष्य पहचानने में अधिक मदद कर सकते हैं। कृत्रिम वातावरण जितना अधिक शरीर के वातावरण के समान होगा उतने सटीक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/70781/aImg/48671/cancer-cells-article-l.webp
जब मेरे जैसे अति-बुज़ुर्ग बच्चे हुआ करते थे तब हमें रात 8 बजे तक सो जाना पड़ता था। फिर सुबह 4 बजे उठकर मंजन करना, नहाना, फिर बचा-खुचा होमवर्क पूरा करना, नाश्ता करना और टिफिन बॉक्स लेकर स्कूल के लिए निकल जाना होता था।
स्कूल और खेलने के बाद हम शाम 6 बजे तक घर वापस आ जाते थे। वापिस आकर अपना होमवर्क करते, रेडियो सुनते, अखबार पढ़ते, रात का खाना खाते और रात 8 बजे तक बिस्तर पर गिरते और सो जाते। लेकिन अफसोस कि आजकल चीज़ें बदल गई हैं।
आईआईटी या आईआईएम जैसे पेशेवर संस्थानों में दाखिला पाने की चाह रखने वाले विद्यार्थियों के लिए सेवा निवृत्त प्रोफेसरों द्वारा चलाई जा रही कोचिंग क्लासेस (जो अल्सुबह – आम तौर पर सुबह 4 या 5 बजे) शुरू होती हैं, के चलते नींद का समय कम हो गया है जबकि यह उनके लिए ज़रूरी है।
अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन ने सिफारिश की है कि 6-12 साल के बच्चों को रोज़ाना 9-12 घंटे की नींद लेनी चाहिए। और 13-18 साल के किशोरों के लिए रोज़ाना 8-10 घंटे की नींद ज़रूरी है।
लेकिन हम देख रहे हैं कि आजकल के बच्चों को इतनी नींद नहीं मिल रही है, क्योंकि वे पूरे दिन कक्षाओं में रहते हैं। और तो और, उनके ‘प्रशिक्षक’ भी पर्याप्त नींद नहीं ले पाते हैं, जो आम तौर पर 40-70 साल के होते हैं, और स्वस्थ जीवन के लिए उन्हें सात घंटे की नींद की ज़रूरत है।
हाल ही में डॉ. जे. एलन हॉब्सन ने नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा का आकर्षक शीर्षक दिया है: ‘नींद दिमाग की, दिमाग के द्वारा, दिमाग के लिए होती है’ (Sleep is of the brain, by the brain and for the brain)। इसमें वे बताते हैं कि हमारी नींद के दो चरण होते हैं। एक जिसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) कहा जाता है, और दूसरा गैर-REM कहलाता है। REM नींद कुल नींद के लगभग 20 प्रतिशत समय होती है और इसमें सपने आते हैं, जबकि गैर- REM नींद कुल नींद के लगभग 80 प्रतिशत समय होती है और इसे सुदृढ़ता लाने, याददाश्त को मज़बूत करने और नई चीजें सीखने के लिए जाना जाता है।
पोषण और नींद
यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट मेडिसिन प्लस बताती है कि पोषण का सम्बंध स्वस्थ और संतुलित आहार लेने से है। भोजन और पेय आपको स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक ऊर्जा और पोषक तत्व प्रदान करते हैं। पोषण सम्बंधी इन बातों को समझने से आपके लिए भोजन के बेहतर विकल्प चुनना आसान हो सकता है।
यूएस का स्लीप फाउंडेशन बताता है कि आहार और पोषण आपकी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं, और कुछ फल और पेय आपके लिए आवश्यक नींद लेने को मुश्किल बना सकते हैं। कैल्शियम, विटामिन A, C, D, E और K जैसे प्रमुख पोषक तत्वों की कमी के कारण नींद की समस्या हो सकती है।
रात के भोजन में उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन (जैसे, पॉलिश किया हुआ चावल या मैदा. शकर), शराब या तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति उनींदा बन सकता है। यह बार-बार जगाकर आवश्यक नींद की अवधि कम कर सकता है।
स्लीप फाउंडेशन आगे बताता है कि हमें मेडिटेरेनियन आहार अपनाना चाहिए, जिसमें वनस्पति आधारित खाद्य, वसारहित मांस, अंडे और उच्च फाइबर वाले खाद्य पदार्थ शामिल हैं। ऐसा आहार न केवल व्यक्ति के हृदय की सेहत में सुधार करता है बल्कि नींद की गुणवत्ता में भी सुधार लाता है।
खुशी की यह बात है कि अधिकांश भारतीय भोजन मेडिटेरेनियन आहार का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है। और हमें यह सलाह भी दी जाती है कि अच्छी नींद लेने के लिए पर्याप्त भोजन करना चाहिए। तो आइए हम कामना करते हैं कि सभी को स्वस्थ और ‘अच्छी’ नींद आए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/9oqf1w/article66188644.ece/alternates/FREE_1200/istock.JPG
साइंस डेली में छपे एक अध्ययन के अनुसार 5 घंटे से कम सोने से शरीर में कई बीमारी पैदा होने का खतरा बढ़ जाता है। दी न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार, 50 साल की उम्र के आसपास पांच घंटे या उससे कम सोने वालों को सात घंटे सोने वालों की तुलना में कहीं अधिक बीमारियों घेर लेती हैं।
एक अध्ययन में पाया गया कि 50 प्रतिशत से कम नींद किसी भी व्यक्ति के लिए बड़ा खतरा हो सकती है। ब्रेन कम्यूनिकेशंस के अनुसार नींद की कमी से अल्ज़ाइमर विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। इसी प्रकार, वाशिंगटन स्टेट युनिवर्सिटी के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि नींद की गुणवत्ता का सीधा प्रभाव महिलाओं के मूड, उनकी महत्वाकांक्षा और करियर आगे बढ़ने पर पड़ता है। इसके विपरीत, नींद की गुणवत्ता पुरुषों की भावनाओं पर ज़्यादा असरकारी नहीं पाई गई।
कई सर्वेक्षणों में स्पष्ट हुआ है कि कोरोना की महामारी ने हमारे सोने के पैटर्न को गड़बड़ा दिया है। सोशल मीडिया कम्यूनिटी प्लेटफॉर्म द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि अध्ययन में शामिल 52 प्रतिशत भारतीयों ने यह स्वीकार किया कि महामारी के बाद उनकी नींद के पैटर्न में बदलाव आया है।
प्रत्येक 2 भारतीयों में से 1 ने कहा कि उसे हर रात 6 घंटे से भी कम नींद आती है जबकि 4 में से 1 व्यक्ति 4 घंटे से कम सो रहा है। कोविड से प्रभावित लोग मानसिक और शारीरिक रूप से तनावग्रस्त होते हैं। यह काफी हद तक नींद के पैटर्न को प्रभावित करता है। मन में भय पैदा हो जाता है और ऐसे लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं और सामान्य दिनचर्या नहीं व्यतीत कर पाते हैं। यह सब बहुत अधिक मानसिक दबाव के कारण होता है। अध्ययन में यह भी बताया गया है कि अगर कोई ठीक से नहीं सोता है तो शरीर की प्रतिरोधक क्षमता और मस्तिष्क की संज्ञानात्मक क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
अच्छी नींद तंदुरुस्ती बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है। जिसके लिए रात का खाना समय पर लेना चाहिए और सोने तथा अंतिम भोजन के बीच कम से कम 2 घंटे का अंतराल होना चाहिए। सोने से कम से कम 1 घंटे पहले से मोबाइल फोन, लैपटॉप का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जिस बिस्तर पर सोते हैं उसे केवल सोने के लिए ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए; कार्यालय के काम के लिए इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। दिन के दौरान झपकी से बचना चाहिए। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार रोज़ाना व्यायाम ज़रूरी है तथा हल्का भोजन करना चाहिए। अच्छी नींद के लिए शराब और कैफीन का सेवन नहीं करना चाहिए। ये सामाजिक सम्बंधों को प्रभावित कर सकते हैं और कार्डियोवैस्कुलर और चयापचय सम्बंधी जटिलताओं और बीमारियों में वृद्धि का कारण बन सकते हैं। इनसे शरीर में कमज़ोरी आती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता लगातार घटती जाती है।
दिन का करीब एक तिहाई हिस्सा सोने के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। 1950 के दशक से पहले, ज़्यादातर लोगों का मानना था कि नींद एक ऐसी अवस्था है जिसके दौरान शरीर क्रिया और मस्तिष्क निष्क्रिय रहता है। इस दौरान मस्तिष्क कई प्रक्रियाओं से गुज़रता है और मस्तिष्क में होने वाली गतिविधियों का सीधा सम्बंध हमारी दिनचर्या से होता है। शोधकर्ता इन प्रक्रियाओं के बारे में अधिक जानने की कोशिश कर रहे हैं ताकि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों के बारे में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके। नींद पर अनुसंधान कर रहे वैज्ञानिकों का मानना है कि सोते समय मस्तिष्क दो अलग-अलग प्रकार की निद्राओं के माध्यम से मस्तिष्क की प्रक्रिया के कई चक्रों को पूरा करता है। इसमें रैपिड-आई मूवमेंट (आरईएम) नींद और गैर-आरईएम नींद को प्रमुख माना जाता है।
इस चक्र का पहला भाग गैर-आरईएम नींद है, जो चार चरणों से बना है। पहला चरण जागने और सो जाने के बीच आता है। दूसरा है हल्की नींद, जब हृदय गति और श्वास नियंत्रित होते हैं और शरीर का तापमान गिर जाता है। तीसरा और चौथा चरण है गहरी नींद। हालांकि आरईएम नींद को पहले सीखने और स्मृति के लिए सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता था, नए आंकड़ों से पता चलता है कि इन कार्यों के लिए गैर-आरईएम नींद अधिक महत्वपूर्ण है। साथ ही अधिक आरामदायक नींद और पुनर्स्थापना चरण की नींद भी शामिल है। जैसे ही कोई व्यक्ति नींद में जाता है तो आंखें बंद होने लगती हैं और आंखों की पुतलियां पलकों के पीछे तेज़ी से गति करती हैं। हालांकि, मस्तिष्क तरंगें जागृत अवस्था के समान होती हैं। जब कोई व्यक्ति सपना देखता है तो सांस की गति बढ़ जाती है और शरीर अस्थायी रूप से शून्य जैसी अवस्था में चला जाता है। यह चक्र कई बार दोहराया जाता है। इस प्रकार सामान्यत: रात में चार या पांच चक्र होते हैं।
अमेरिका की जॉन्स हापकिंस युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने वर्ष 2014 में फ्रूट फ्लाई पर किए गए प्रयोगों के माध्यम यह पता लगाया था कि न सो पाने वाली फ्रूट फ्लाई के अंदर एक खास उत्परिवर्ती जीन नींद का नियंत्रण करता है। इस जीन को उन्होंने वाइड अवेक नाम दिया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि यह उत्परिवर्ती वाइड अवेक जीन जैविक घड़ी को अनियमित करके नींद उड़ाने का काम करता है। उन्होंने पाया था कि यह सामान्य वाइड अवेक जीन एक प्रोटीन बनाता है जो रात में नींद के लिए ज़िम्मेदार होता है और नींद के चक्र को नियंत्रित करता है।
इसी क्रम में यह भी पाया गया कि मनुष्यों और चूहों में भी ऐसा ही निद्रा जीन मौजूद होता है। हमारे अंदर एक जैविक घड़ी होती है जिसके द्वारा मस्तिष्क को समय की सूचना मिलती है। इसका काफी सम्बंध हमें मिलने वाले प्रकाश से होता है जैसे भोजन के बिना हमें भूख लगती है और उसकी आपूर्ति ज़रूरी हो जाती है, उसी प्रकार से नींद की कमी की दशा में पूरे दिन नींद की इच्छा बनी रहती है और हमें सोने की ज़रूरत महसूस होती है। अलबत्ता, नींद और भूख के बीच एक अंतर भी है। भूख लगने पर हमारा शरीर भोजन के लिए सीमा से परे मजबूर नहीं कर सकता है। लेकिन थका व्यक्ति सोने को बाध्य हो जाता है। आंखें अपने आप बंद होने लगती हैं। भले ही आंखें खुली हो लेकिन नींद पूरी न होने की दशा में कुछ मिनट के लिए झपकी मजबूरन आ जाती है। पर्याप्त नींद स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://sph.umich.edu/pursuit/2020posts/2020images/Sleep101.jpg
मलेरिया एक बड़ी जन स्वास्थ्य समस्या है। हर वर्ष लाखों लोग मलेरिया का शिकार होते हैं। वर्ष 2020 में मलेरिया से 24 करोड़ लोग संक्रमित हुए थे और 6.27 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। यह आंकड़ा 2019 की तुलना में 12 प्रतिशत अधिक है। इसमें से अफ्रीका में होने वाली लगभग दो-तिहाई मौतें 5 वर्ष से कम आयु के बच्चों की हैं। मलेरिया परजीवियों ने कई दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित कर लिया है और इसे प्रसारित करने वाले मच्छरों ने तो कीटनाशकों को भी चकमा देने की क्षमता विकसित की है।
पिछले वर्ष WHO द्वारा अनुमोदित और जीएसके द्वारा निर्मित मलेरिया का टीका आया था लेकिन यह सिर्फ औसत दर्जे की सुरक्षा ही प्रदान करता है। युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड द्वारा तैयार किए गए टीके के परिणाम आना बाकी हैं।
लेकिन हाल ही में वैज्ञानिकों ने इसकी रोकथाम के लिए एक नए तरीके की खोज की है। अमेरिका में नौ वालंटियर्स पर किए गए एंटीबॉडी परीक्षण में सकारात्मक परिणाम देखने को मिले हैं। दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रयोगशाला में विकसित मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ की एक खुराक मलेरिया से 6 महीने तक सुरक्षा प्रदान कर सकती है।
दिक्कत यह है कि मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का उत्पादन काफी महंगा है और इन्हें इंट्रावीनस देना होता है, जिसके लिए चिकित्सकीय देखभाल ज़रूरी होती है। लिहाज़ा, संभवत: यह तकनीक केवल उच्च आय वाले लोगों और पर्यटकों के लिए उपयोगी होगी। शोधकर्ता यह टीका देने का आसान तरीका खोजने और इसकी लागत को कम करने का प्रयास कर रहे हैं।
यह पहली बार है कि वैज्ञानिकों ने मलेरिया से निपटने के लिए मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ का उपयोग किया है। प्रयोगशाला में विकसित मोनोक्लोनल एंटीबॉडी सबसे घातक मलेरिया परजीवी, प्लाज़्मोडियम फाल्सीपैरम, को खत्म करने की क्षमता रखती है। यह बच्चों, गर्भवती महिलाओं और कमज़ोर स्वास्थ्य वाले लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रभावी है। इसको तैयार करने के लिए यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इंफेक्शियस डिसीज़ेस के रॉबर्ट सेडर की टीम ने CIS43LS नामक एंटीबॉडी एक ऐसे व्यक्ति के खून से प्राप्त की जिसे परीक्षण के दौरान मलेरिया का टीका दिया गया था। यह एंटीबॉडी परजीवी की बीजाणु अवस्था में सतह पर मौजूद प्रोटीन से जुड़ जाती है और उसे यकृत कोशिकाओं पर हमला करने से रोकती है। शोधकर्ताओं ने इस इस एंटीबॉडी को मानव शरीर में जल्द नष्ट होने से बचाने के लिए इसमें कुछ परिवर्तन किए हैं। पिछले वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस एंटीबॉडी को मलेरिया परजीवी के संपर्क में आए 9 वालंटियर्स को दिया गया तो उनमें से किसी में भी संक्रमण नहीं हुआ।
बमाको स्थित युनिवर्सिटी ऑफ साइंस, टेक्नीक और टेक्नॉलॉजी द्वारा आयोजित क्लीनिकल परीक्षण में 330 वालंटियर्स को उच्च और कम मात्रा में एंटीबॉडी या प्लेसिबो की खुराक दी गई। इन वालंटियर्स के रक्त नमूनों की जांच में देखा गया कि 6 माह की अवधि में उच्च खुराक प्राप्त लोगों में से 18 प्रतिशत लोग संक्रमित हुए जबकि न्यून खुराक वालों में यह संख्या 36 प्रतिशत रही और प्लेसिबो प्राप्त में 78 प्रतिशत लोग संक्रमित हुए। वैज्ञानिकों ने पाया कि प्लेसिबो की तुलना में उच्च खुराक प्राप्त लोग संक्रमण को रोकने में 88 प्रतिशत और न्यून खुराक प्राप्त लोग 75 प्रतिशत सफल रहे। 6 महीने के अंत में ज़रूर प्रभाविता में कमी देखने को मिली। अलबत्ता परिणाम कुल मिलाकर सकारात्मक रहे।
वैसे कुछ अन्य वैज्ञानिक इन परिणामों को लेकर शंका में हैं। उनके अनुसार इस अध्ययन में परजीवियों का पता लगाने के लिए खून की सूक्ष्मदर्शी जांच का उपयोग किया गया था जो पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन (पीसीआर) तकनीक से कम संवेदनशील है। शोधकर्ता अब संग्रहित नमूनों का पीसीआर विधि से भी अध्ययन कर रहे हैं।
इसके अलावा कुछ अन्य वैज्ञानिकों का मानना है कि इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने केवल संक्रमण का मापन किया, बीमारी के प्रकोप पर ध्यान नहीं दिया जो बेहतर परिणाम दे सकता था। कुछ वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि मोनोक्लोकल एंटीबॉडीज़ संक्रमण को रोकने में सक्षम हैं लेकिन इनकी भी कुछ कमियां हैं। सबसे बड़ी चुनौती इनकी लागत है। इसके आलावा, एंटीबॉडी को शरीर में प्रवेश कराने की इंट्रावीनस प्रक्रिया छोटे बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं है।
सेडर ने प्रयोगशाला में एक और एंटीबॉडी L9LS विकसित की है जो उसी प्रोटीन को लक्षित करती है और CIS43LS से तीन गुना अधिक शक्तिशाली है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन में L9LS टीका पांच में से चार वालंटियर्स में से संक्रमण रोकने में सक्षम रहा। इसके अलावा इसे त्वचा के नीचे इंजेक्शन के माध्यम से दिया गया जो काफी तेज़ और कम जटिल प्रक्रिया है। वर्तमान में बच्चों में इंजेक्शन के माध्यम से L9LS टीके का परीक्षण किया जा रहा है। उम्मीद है कि अधिक उपयोग होने पर इसकी लागत को कम किया जा सकेगा। इसके अलावा सेडर वर्तमान में एक और टीका तैयार कर रहे हैं जो इससे भी अधिक शक्तिशाली होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adf5846/abs/_20221031_on_malaria_trial.jpg
एक अध्ययन से पता चला है कि सांड के शुक्राणु तब अधिक प्रभावी ढंग से आगे बढ़ते हैं और निषेचन कर पाते हैं जब वे समूह में हों। यह जानकारी मनुष्यों में निषेचन को समझने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। भौतिक विज्ञानी चिह-कुआन तुंग और सहकर्मियों ने फ्रंटियर्स इन सेल एंड डेवलपमेन्ट बायोलॉजी में बताया है कि कृत्रिम प्रजनन पथ में मादा के अंडे को निषेचित करने के लिए शुक्राणुओं के समूह अधिक सटीकता से आगे बढ़ते हैं बनिस्बत अकेले शुक्राणु के। ऐसा नहीं है कि मादा जननांग पथ में शुक्राणुओं के समूह तेज़तर गति से तैरते हों। लेकिन वे सही दिशा में सटीकता से आगे बढ़ते हैं।
र्दिष्ट स्थान पर पहुंचने के लिए दो बिंदुओं के बीच की सबसे छोटी दूरी एक सीधी रेखा होती है। पर वास्तव में अकेले शुक्राणु सीधी रेखा में न तैरकर घुमावदार रास्ता अपनाते हैं। किंतु, जब शुक्राणु दो या दो से अधिक के समूह में एकत्रित होते हैं, तो वे सीधे मार्ग पर तैरते हैं। समूह की सीधी चाल तभी फायदेमंद हो सकती है जब वे अंडाणु की ओर जा रहे हों। पूरी प्रक्रिया के अध्ययन हेतु शोधकर्ताओं ने एक प्रयोगात्मक सेटअप विकसित किया जिसमें बहते तरल पदार्थ का उपयोग किया गया था।
दरअसल, शुक्राणु गर्भाशय में पहुंचकर अंडवाहिनी से आ रहे अंडाणु की ओर जाते हैं। इस यात्रा के दौरान शुक्राणुओं को म्यूकस (श्लेष्मा) के प्रवाह के विरुद्ध तैरना और रास्ता बनाना होता है। तुंग और उनके सहयोगियों ने प्रयोगशाला में मादा जननांग की कृत्रिम संरचना वाला उपकरण बनाया। उपकरण एक उथला, संकीर्ण, 4-सेंटीमीटर लंबा चैनल था जो प्राकृतिक म्यूकस के समान एक गाढ़े तरल पदार्थ से भरा था जिसके बहाव को शोधकर्ता नियंत्रित कर सकते हैं।
शुक्राणु स्वाभाविक रूप से आगे ऊपर की ओर तैरने लगते हैं। अलबत्ता, प्रयोग में शुक्राणु के समूहों ने म्यूकस के प्रवाह में आगे बढ़ने में बेहतर प्रदर्शन किया। अकेले शुक्राणुओं के अन्य दिशाओं में भटक जाने की संभावना अधिक थी। कुछ अकेले शुक्राणु तेज़ तैरने के बावजूद, लक्ष्य से भटक गए।
जब शोधकर्ताओं ने अपने उपकरण में म्यूकस के प्रवाह को चालू किया, तो कई अकेले शुक्राणु बहाव के साथ बह गए। जबकि शुक्राणु समूहों की बहाव के साथ नीचे की ओर बहने की संभावना बहुत रही।
सांड के शुक्राणुओं पर किए गए इन प्रयोगों से वैज्ञानिकों को लगता है कि परिणाम मनुष्यों पर भी लागू होंगे। दोनों प्रजातियों के शुक्राणुओं के आकार समान होते हैं। तुंग कहते हैं, बहते तरल पदार्थ में शुक्राणु का अध्ययन उन समस्याओं पर प्रकाश डाल सकता है जो स्थिर तरल पदार्थों में नहीं दिखते। एक आशा यह है कि इससे मनुष्यों में बांझपन या निसंतानता के कारणों को समझने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2022/09/21162647/SEI_126327060.jpg?width=800
हाल ही में वैज्ञानिकों ने 1990 से लेकर 2022 के बीच प्रत्यारोपित 2,53,406 लीवर की उम्र का आकलन किया है। इस विश्लेषण के अनुसार 25 लीवर 100 से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहे हैं। इन लीवर्स को वैज्ञानिकों ने ‘शतायु लीवर’ का नाम दिया है। इनमें से 14 लीवर अभी भी प्राप्तकर्ताओं के शरीर में काम कर रहे हैं। सबसे उम्रदराज लीवर की उम्र 108 वर्ष है।
इस अध्ययन के प्रमुख और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के मेडिकल स्कूल में कार्यरत यश कड़ाकिया और उनकी टीम ने किसी लीवर की कुल आयु निकालने के लिए प्रत्यारोपण के पहले लीवर की उम्र (यानी प्रत्यारोपण के समय अंगदाता की आयु) और प्राप्तकर्ता में प्रत्यारोपण के बाद लीवर की उम्र को जोड़ा। प्रत्यारोपण सम्बंधी आंकड़े युनाइटेड नेटवर्क फॉर ऑर्गन शेयरिंग के अंग प्रत्यारोपण डैटाबेस से लिए गए थे।
शोधकर्ताओं ने पाया कि 25 शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 84.7 वर्ष थी जबकि गैर-शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 38.5 वर्ष थी। प्रत्यारोपण के बाद सारे शतायु-लीवर कम से कम एक दशक तक जीवित रहे जबकि मात्र 60 प्रतिशत गैर-शतायु लीवर ही एक दशक बाद जीवित रहे। कड़ाकिया के अनुसार लीवर काफी लचीला अंग है और आज उम्रदराज दाताओं के लीवर प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। इसके मद्देनज़र प्रत्यारोपण के लिए अधिक लीवर उपलब्ध हो सकते हैं।
गौरतलब है कि अभी तक विशेषज्ञ प्रत्यारोपण के लिए बुज़ुर्ग दाताओं से लीवर लेने से बचते आए हैं, क्योंकि पुराने अंगों में शराब, मोटापा और संक्रमण से अधिक क्षतिचिन्ह जमा होने की संभावना होती है। लेकिन एक दिलचस्प बात यह देखी गई कि लीवर प्रत्यारोपण से मधुमेह और दाता संक्रमण जैसे दुष्प्रभाव अधिक पुराने यकृत पाने वाले लोगों में काफी कम थे।
भारत के स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय) की वेब साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 50,000 तक लीवर प्रत्यारोपण की आवश्यकता है लेकिन किए जा रहे हैं मात्र 1500। यदि उम्रदराज अंगदाताओं से परहेज न किया जाए तो प्रत्यारोपण की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अब और अधिक दाता अंग मिल सकते हैं।
वैसे, अभी तक लीवर के जीवित रहने की अवधि में भिन्नता के कारण स्पष्ट नहीं हैं। अधिक शोध से अंग उपलब्धता में विस्तार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRstiUmnsqP-IW7OPZqgYUxW4txrSBIHZ1ZVA&usqp=CAU
कोविड-19 वायरस निरंतर मनुष्य की प्रतिरक्षा भेदने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में इस वायरस के नए और प्रतिरक्षा को चकमा देने वाले संस्करणों ने वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है। शायद इनमें से कोई एक आने वाले जाड़ों तक कोविड-19 की एक नई लहर ले आए।
आने वाली लहर शायद ऑमिक्रॉन संस्करण की होगी जो पूरे विश्व में फैल गया है। कई नए संस्करणों ने प्रतिरक्षा को चकमा देने के लिए एक जैसे उत्परिवर्तनों का सहारा लिया है जो अभिसारी विकास का एक बेहतरीन उदाहरण है। इन सभी संस्करणों के वायरल जीनोम में आधा दर्जन उत्परिवर्तन उन स्थानों पर हुए हैं जो टीकों या पिछले संक्रमण से प्राप्त एंटीबॉडी की क्षमता को प्रभावित करते हैं।
आम तौर पर प्रतिरक्षा को चकमा देने की क्षमता पता लगाने के लिए शोधकर्ता वायरस के स्पाइक प्रोटीन की प्रतिलिपियां तैयार करते हैं और उनका परीक्षण मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ के साथ करते हैं। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि एंटीबॉडीज़ कितनी अच्छी तरह से कोशिकाओं को संक्रमित होने से बचा सकती हैं। ऐसे परीक्षण की मदद से चीन और स्वीडन के शोधकर्ताओं ने पाया कि एक संस्करण (बीए2.75.2) काफी प्रभावी ढंग से लगभग सभी मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ को चकमा दे सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह अब तक का सबसे प्रतिरोधी संस्करण है।
एक शोध पत्र में बीजिंग युनिवर्सिटी के यूनलॉन्ग रिचर्ड काओ और उनके सहयोगियों ने बताया है कि नए संस्करणों द्वारा मानव कोशिकाओं पर ग्राहियों को कसकर बांधने की क्षमता भी पाई गई है। इसके अलावा यह भी पता चला है कि नए संस्करण से होने वाला संक्रमण अधिक मात्रा में लेकिन गलत प्रकार की एंटीबॉडीज़ पैदा करता है जो वायरस से कसकर बंध तो जाती हैं लेकिन कोशिकाओं को संक्रमित करने की वायरस की क्षमता पर असर नहीं डालतीं। कुल मिलाकर यह सब कोविड-19 की एक बड़ी लहर की संभावना के संकेत देते हैं।
वैसे कुछ वैज्ञानिक अत्यधिक संक्रमण की उम्मीद तो करते हैं लेकिन उनका मानना है कि अब काफी लोग संक्रमण से उबर चुके हैं और ऑमिक्रॉन-विशिष्ट टीके की खुराक भी प्राप्त की है। इससे एंटीबॉडी में यकीनन वृद्धि हुई होगी। यानी हम वायरस से लड़ने में शून्य स्तर पर तो नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn1.sph.harvard.edu/wp-content/uploads/sites/21/2020/06/c0481846-wuhan_novel_coronavirus_illustration-spl.jpg