कोविड-19 की उत्पत्ति पर बहस जारी

हाल में जारी किए गए तीन नए अध्ययनों ने सार्स-कोव-2 की उत्पत्ति पर निर्विवादित निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। हालांकि तीनों विश्लेषण कोविड-19 की उत्पत्ति तक तो नहीं पहुंचते हैं लेकिन वायरस के वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरॉलॉजी से लीक होने के सिद्धांत को खारिज करते हैं।

इन अध्ययनों में वुहान स्थित हुआनान सीफूड बाज़ार में वायरस के विभिन्न पहलुओं की जांच की गई है, जहां संक्रमण के सबसे पहले मामले देख गए थे। दो अंतर्राष्ट्रीय अध्ययनों के अनुसार वर्ष 2019 के अंत में सार्स-कोव-2 वायरस ने संक्रमित जंतुओं से मनुष्यों में संभवतः दो बार प्रवेश किया। तीसरा अध्ययन कमोबेश चीन के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया था जो सीफूड बाज़ार के पर्यावरण और जंतुओं के नमूनों में कोरोनावायरस के शुरुआती उपस्थिति का विवरण देता है। इस अध्ययन में वायरस के किसी अन्य देश से प्रवेश करने की बात भी कही गई है।

हालांकि इन अध्ययनों की समकक्ष समीक्षा नहीं हुई है, फिर भी वैज्ञानिक, जैव-सुरक्षा विशेषज्ञ, पत्रकार और अन्य जांचकर्ता इन अध्ययनों की जांच में जुट गए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ये अध्ययन प्रयोगशाला उत्पत्ति की परिकल्पना को ध्वस्त करते हैं और सीफूड बाज़ार से वायरस के प्रसार की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं।

इस संदर्भ में प्राकृतिक उत्पत्ति सिद्धांत के आलोचकों का कहना है कि सीफूड बाज़ार मात्र एक सुपरस्प्रेडर स्थल रहा होगा जहां वायरस प्रयोगशाला से किसी संक्रमित व्यक्ति के माध्यम से पहुंचा होगा। लेकिन कई शोधकर्ताओं का मानना है कि और जानकारी मिलने पर प्रयोगशाला उत्पत्ति का दावा कमज़ोर हो जाएगा। जेनेटिक सैंपलिंग डैटा के विश्लेषण से यह पता लगाया जा सकता है कि बाज़ार की किन प्रजातियों में मुख्य रूप से वायरस था।

एक अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में सार्स-कोव-2 के दो अलग-अलग वंशों का विवरण दिया है। जबकि दूसरे अध्ययन में शुरुआती मामलों का एक भू-स्थानिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है जो वुहान के बाज़ार को सार्स-कोव-2 के प्रसार केंद्र के रूप में इंगित करता है। इस अध्ययन में वायरस के दोनों वंशों द्वारा बाज़ार से सम्बंधित या उसके पास रहने वाले लोगों को संक्रमित करने के संकेत मिले हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार यह विश्लेषण जीवित वन्यजीवों के व्यापार के माध्यम से वायरस के उद्भव के साक्ष्य प्रदान करता है।  

गौरतलब है कि पूर्व में चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जॉर्ज गाओ और 37 अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन में 1 जनवरी से 2 मार्च 2020 के दौरान हुआनान सीफूड बाज़ार के पर्यावरण से लिए गए नमूनों का विस्तार से विवरण दिया था। लेकिन यह अध्ययन आधिकारिक तौर पर प्रकाशित नहीं हुआ। गाओ और उनके सहयोगियों ने बाज़ार के पर्यावरण और 188 जीवों के 1380 नमूनों का विश्लेषण किया था। ये नमूने सीवर, ज़मीन, पंख हटाने वाली मशीन और कंटेनरों से भी लिए गए। टीम को इनमें से 73 नमूनों में सार्स-कोव-2 प्राप्त हुआ। और ये सारे नमूने बाज़ार के पर्यावरण से प्राप्त हुए थे। चूंकि जिन 73 नमूनों में वायरस पाया गया, वे जंतुओं से नहीं बल्कि बाज़ार के पर्यावरण से लिए गए थे, इसलिए स्पष्ट होता है कि वायरस वहां मनुष्यों के माध्यम से पहुंचा था न कि किसी जंतु से। यानी बाज़ार सार्स-कोव-2 वायरस का एम्पलीफायर रहा, स्रोत नहीं।            

कोविड-19 की उत्पत्ति से सम्बंधित सरकारी दावों को ध्यान में रखते हुए गाओ और उनके सहयोगियों ने अपने प्रीप्रिंट में वुहान के मामले सामने आने से पहले अन्य देशों में सार्स-कोव-2 की उपस्थिति दर्शाने वाले अध्ययनों का विवरण दिया है। लेकिन उन आलोचनाओं का कोई उल्लेख नहीं किया गया जिनमें कहा गया है कि ऐसा संदूषण की वजह से हो सकता है।    

अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन में कोरोनावायरस वंश के विश्लेषण ने पिछले वर्ष वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट गैरी द्वारा प्रस्तुत तर्क को और परिष्कृत किया है। गैरी ने दिसंबर 2019 में मनुष्यों के प्रारंभिक मामलों में वुहान बाज़ार से सार्स-कोव-2 के दो अलग-अलग रूपों की पहचान की थी जिनमें केवल दो उत्परिवर्तन का ही फर्क था। इस नए अध्ययन ने सोच में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि ए और बी नामक दोनों वंश हुआनान सीफूड बाज़ार से उत्पन्न हुए और जल्द ही आसपास के क्षेत्रों में फैल गए। नवंबर 2019 के अंत में बी संभावित रूप से जंतुओं से मनुष्यों में प्रवेश कर गया जिसका पहला मामला 10 दिसंबर को सामने आया जबकि ए इसके कुछ सप्ताह बाद सामने आया। देखा जाए तो वायरस के दो वंशों का लगभग एक साथ उद्भव प्रयोगशाला-लीक के सिद्धांत को कमज़ोर कर देता है।

अंतर्राष्ट्रीय टीम का दूसरा प्रीप्रिंट जून 2021 के चीनी नेतृत्व वाले अध्ययन पर आधारित है जिसने बाज़ार में एक विशिष्ट स्टाल पर दो वर्षों तक बेचे गए स्तनधारियों में टिक बुखार का दस्तावेज़ीकरण किया है। इस नए अध्ययन में उन स्थानों को इंगित किया गया जहां पहली बार सार्स-कोव-2 के प्रति संवेदनशील जंतुओं, जैसे रैकून, हेजहॉग, बैजर, लाल लोमड़ी और बैम्बू रैट बेचे गए और उन स्थलों से प्राप्त पर्यावरणीय नमूनों के पॉज़िटिव परिणाम सामने आए। ये सभी निष्कर्ष वायरस के वुहान बाज़ार से उत्पन्न होने के संकेत देते हैं।

कुछ अन्य विशेषज्ञ इस अध्ययन को महत्वपूर्ण तो मानते हैं लेकिन इनके निष्कर्षों से पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च इंस्टीट्यूट के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम के अनुसार सार्स-कोव-2 के लगभग 10 प्रतिशत मानव संक्रमण में वायरस के दो उत्परिवर्तन देखे गए हैं। इसका मतलब यह है कि दूसरा वायरस जंतुओं से दो बार मनुष्यों में नहीं आया बल्कि पहले संक्रमण के बाद उभरा हो। अलबत्ता, कंप्यूटर सिमुलेशन दर्शाता है कि एक वंश के दूसरे में उत्परिवर्तित होने की संभावना केवल 3.6 प्रतिशत है।       

हालांकि ये अध्ययन प्रयोगशाला उत्पत्ति के दावों पर सवाल उठाने के लिए कुछ हद तक तो पर्याप्त हैं लेकिन इस बहस को विराम देने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नए शोधों से मिले रोगों के नए समाधान – मनीष श्रीवास्तव

ई बीमारियां लाइलाज हैं तो कई की इलाज की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसलिए दुनिया भर में वैज्ञानिक सतत रूप से शोध कार्य कर रहे हैं ताकि बीमारियों के बेहतर और सरल इलाज खोजे जा सकें। हाल के समय में एचआईवी, लकवा, तंत्रिका विकारों के इलाज में वैज्ञानिकों को नई सफलताएं प्राप्त हुई हैं। इसी के साथ स्वच्छ ऊर्जा एक अहम क्षेत्र है, जिसका विकल्प वैज्ञानिकों द्वारा खोजा गया है। आइए जानते हैं इन क्षेत्रों में कुछ हालिया उपलब्धियों के बारे में…

चलने लगे लकवाग्रस्त मरीज

स्विटज़रलैंड के लोज़ान युनिवर्सिटी हॉस्पिटल और स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी ने एक ऐसी डिवाइस बनाने में सफलता हासिल की है, जिसकी मदद से कमर के नीचे के हिस्से में लकवे का शिकार हुए तीन मरीज़ चल पाए हैं। इस ऐतिहासिक सफलता सम्बंधी रिपोर्ट जर्नल नेचर मेडिसिन में प्रकाशित हुई है। यह प्रयोग 29 से 41 वर्ष की उम्र के तीन ऐसे लोगों पर किया गया था, जो लंबे समय से व्हील चेयर पर थे। इनमें से एक व्यक्ति मिशेल रोकंति की रीढ़ की हड्डी में इलेक्ट्रोडयुक्त डिवाइस लगाया गया। इसकी मदद से जल्द ही मिशेल ने अपने पैरों पर खड़े होना तथा बाकी दो ने तैरना तथा साइकिल चलाना तक शुरू कर दिया है।

इस तरह तीन व्यक्तियों के एपिड्यूरल स्पेस में कुल 16 इलेक्ट्रोड डिवाइस लगाए गए। ये इलेक्ट्रोड, पेट की त्वचा के नीचे प्रत्यारोपित एक पेसमेकर से दिमाग को संदेश पहुंचाने के साथ शरीर के विभिन्न अंगों तक उन्हें प्रेषित करने का काम करते हैं। जब इलेक्ट्रोड की मदद से दिमाग की तंत्रिकाओं को कोई संदेश मिलता है तो शरीर की मांसपेशियां फिर से सक्रिय होकर कार्य करना शुरू कर देती हैं। इस डिवाइस को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सॉफ्टवेयर द्वारा नियंत्रित भी किया जा सकता है।

स्टेम सेल से एचआईवी का इलाज

हाल ही में एचआईवी के इलाज में एक महत्वपूर्ण सफलता हासिल हुई है। वैज्ञानिकों ने पहली बार गर्भनाल की स्टेम कोशिका से एचआईवी का सफल इलाज करने में सफलता पाई है। प्रयोग अमेरिका की एक महिला पर किया गया जिसे 2013 में एड्स रोग की पुष्टि हुई थी। इससे पहले तमाम तकनीकों से महिला का इलाज किया जा चुका था। गर्भनाल की स्टेम कोशिका से किए गए उपचार से महिला को वायरस-मुक्त करने में सफलता प्राप्त हुई है। कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के डॉ. स्टीवन डीक्स के अनुसार गर्भनाल से स्टेम सेल प्राप्त करना आसान होता है और ये अधिक प्रभावी होती हैं। अत: यह तकनीक काफी मददगार होगी क्योंकि इस तरह के डोनर सरलता से मिल जाते हैं। पहले अस्थि मज्जा कोशिका की सहायता से इलाज किया जाता था किंतु अस्थि मज्जा दानदाता खोजना और मरीज़ के साथ मैचिंग करना मुश्किल होता था।

तंत्रिका विकार का निदान

मनुष्य में होने वाले तंत्रिका विकारों को जानने के लिए पहले जीनोम सीक्वेंसिंग ज़रूरी होता था। यह प्रक्रिया बेहद जटिल और समय लेने वाली होती है। हाल ही में जीनोमिक इंग्लैंड और क्वीन मैरी युनिवर्सिटी शोध टीम ने इस विकार का पता लगाने के लिए एक सरल विधि खोज निकाली है। इस शोध से जुड़े डॉ. एरियाना टुचि ने बताया है कि इस विधि से तंत्रिका विकार का पता डीएनए टेस्ट की विधि से सरलता से लगाया जा सकेगा। इस विधि में बीमारी वाले जीन की पहचान की जाती है और फिर उसका इलाज शुरू कर दिया जाता है। जीनोम सीक्वेंसिंग में तंत्रिका विकार के कारणों की पहचान मुश्किल से हो पाती थी।

कृत्रिम सूरज की रोशनी

हाल ही में ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा रिएक्टर बना लिया है जो सूरज की तरह परमाणु संलयन की क्रिया को संपन्न कर सकता है। इस रिएक्टर से इतनी मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि वैज्ञानिक इसे कृत्रिम सूर्य कह रहे हैं। वैज्ञानिक जगत में इस उपलब्धि को मील का पत्थर कहा जा रहा है। अब वैज्ञानिकों ने आशा जताई है कि भविष्य में इस मशीन के द्वारा पृथ्वी पर सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा उपलब्ध हो सकेगी। वैज्ञानिकों का प्रयास है कि धरती पर इस तरह के कई छोटे सूरज बनाए जाएं।

कम कार्बन, स्वच्छ ऊर्जा 

यूके परमाणु ऊर्जा प्राधिकरण ने बताया है कि कल्हम सेंटर फॉर फ्यूज़न एनर्जी में जेट प्रयोगशाला है, जिसमें एक डोनट आकार की मशीन लगी हुई है। इसे टोकामैक नाम से पुकारा जाता है। इसमें कम मात्रा में ड्यूटीरियम व ट्रीशियम जैसे तत्व भरे गए हैं। इस मशीन के केंद्र को सूरज के केंद्र की तुलना में 10 गुना ज़्यादा गर्म जाता है ताकि इसमें प्लाज़्मा बन सके। प्लाज़्मा को सुपरकंडक्टर विद्युत-चुंबक की मदद से एक जगह बांधकर रखा जाता है। विद्युत-चुंबक की मदद से जब इसने घूमना शुरू किया तो इससे अपार मात्रा में ऊर्जा निकलने लगी, जो पूरी तरह सुरक्षित और स्वच्छ ऊर्जा रही। गौरतलब है कि इस ऊर्जा की मात्रा 1 किलो कोयला या 1 लीटर तेल से पैदा हुई ऊर्जा की तुलना में 40 लाख गुना ज़्यादा रही। और तो और, यह ऊर्जा बेहद कम कार्बन उत्सर्जन वाली रही, जो पर्यावरण व स्वास्थ्य के लिए बेहद लाभदायक सिद्ध होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बुज़ुर्गों में नींद उचटने का कारण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भी की इच्छा होती है कि एक बच्चे जैसी (भरपूर) नींद सोएं। लेकिन वास्तव में, वयस्कों में नींद के कुल घंटे कम होते जाते हैं, और उम्र बढ़ने के साथ नींद की गुणवत्ता भी कम होने लगती है। खासकर वृद्ध लोगों में हल्की और उचटती नींद होने की प्रवृत्ति दिखती है। वर्ष 2017 में न्यूरॉन पत्रिका में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के ब्रायस मैंडर और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन बताता है कि नींद की गुणवत्ता और नींद के घंटों में लगातार कमी से मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, और जीवनकाल छोटा हो सकता है।
अनुसंधान ने इस बात के कई सुराग दिए हैं कि मनुष्यों में कौन-से कारक नींद को प्रेरित करते हैं। रात में पीनियल ग्रंथि मेलेटोनिन हार्मोन का स्राव करती है, जो सोने-जागने के चक्र के नियंत्रण में भूमिका निभाता है। इसलिए मेलेटोनिन अनिद्रा पर काबू पाने की एक प्रचलित दवा बन गया है, हालांकि लंबे समय तक उपयोग में इसकी प्रभावशीलता को लेकर सवाल हैं।
वैसे, हमारी ‘जागृत’ अवस्था कहीं अधिक पेचीदा है क्योंकि इसमें लगभग पूरा मस्तिष्क शामिल होता है। शायद यही कारण है कि बुज़ुर्गों की अक्सर लगती-टूटती नींद हमें चक्कर में डाल देती है।
हमें पता है कि नींद की समस्या से पीड़ित वृद्ध लोगों में मस्तिष्क के उन केंद्रों में तंत्रिका कोशिकाओं में विकार देखा गया है, जो स्वैच्छिक हरकत के समन्वय में भूमिका निभाते हैं। हाल ही में साइंस पत्रिका में एस. बी. ली और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित अध्ययन ने इसमें एक नया आयाम जोड़ा है। यह अध्ययन हायपोथैलेमस ग्रंथि के बारे में बताता है। बादाम के आकार की हाइपोथैलेमस ग्रंथि हमारे मस्तिष्क के केंद्र में होती है। मस्तिष्क के इस हिस्से का एक क्षेत्र, पार्श्व हायपोथैलेमस, जागने, खाने के व्यवहार, सीखने और सोने में अहम भूमिका निभाता है। यहां से तंत्रिका कोशिकाओं का एक झुंड निकलता है और इनके सिरे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र की जागृत स्थिति से जुड़े सभी हिस्सों में पहुंचते हैं। इन तंत्रिकाओं से रासायनिक संदेश छोटे-छोटे प्रोटीन्स (न्यूरोपेप्टाइड्स) के रूप में जारी होते हैं जिन्हें हाइपोक्रेटिन (Hcrt) या ऑरेक्सिन (OX) कहा जाता है।
सभी तंत्रिकाओं की तरह, Hcrt/OX तंत्रिकाओं के भी अंतिम सिरे होते हैं जिन्हे सायनेप्स कहा जाता है। ये सायनेप्स किसी अन्य तंत्रिका के सायनेप्स के नज़दीक हो सकते हैं या किसी मांसपेशीय कोशिका के निकट। विद्युत संकेत पूरी तंत्रिका से होते हुए सायनेप्स तक आते हैं, जहां ये तत्काल रासायनिक संकेत में बदल जाते हैं, और सिरे से निकल कर बाजू वाली तंत्रिका में चले जाते हैं और वहां प्रतिक्रिया शुरू करते हैं। तंत्रिका विज्ञान की भाषा में, एक उद्दीपन संकेत बाजू वाली तंत्रिका में पहुंचकर उसे संकेत भेजने को प्रेरित करता है – जो उस तंत्रिका के दूसरे सिरे पर स्थित सायनेप्स तक विद्युत संकेत के रूप में पहुंचता है। अवरोधी संकेत तंत्रिका की इस सक्रियता को रोक सकते हैं। हाइपोक्रेटिन उद्दीपक की तरह काम करता है, और जिस तंत्रिका में पहुंचता है उसे सक्रिय कर देता है।
हाइपोक्रेटिन जागृत रहने को उकसाता है, और साथ ही यह कुछ खाने या साथी की तलाश के लिए भी उकसाता है। इसके अलावा यह ठंड, मितली या दर्द के प्रति प्रतिक्रिया भी देता है। मानव मस्तिष्क में मौजूद 86 अरब तंत्रिकाओं में से 20,000 से भी कम तंत्रिकाएं हाइपोक्रेटिन बनाती हैं, लेकिन इनका प्रभाव काफी गहरा होता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हाइपोक्रेटिन लंबे समय तक जागने के लिए ज़रूरी है। हाइपोक्रेटिन को सीधे मस्तिष्क-मेरु द्रव में प्रवेश कराने से (ताकि यह तुरंत मस्तिष्क में पहुंच जाए) यह आपको कई घंटों तक जगाए रखता है। जब आप सो रहे होते हैं तो हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाएं सक्रिय नहीं रहती हैं।
प्रयोगों में देखा गया है कि भोजन से वंचित चूहे भोजन की तलाश में बहुत लंबे समय तक जागते हैं और भोजन तलाशने में व्यस्त रहते थे। और हाइपोक्रेटिन की कमी वाले चूहे, जिनमें हाइपोक्रेटिन जीन को ठप कर दिया गया था, अपनी तलाश में कम उत्सुकता दिखाते थे।
नींद उचटना
सवाल है कि बुज़ुर्गों की नींद को क्या हो जाता है? ली और उनके साथियों ने दर्शाया है कि उम्र के साथ हाइपोक्रेटिन बनाने वाली तंत्रिकाओं में परिवर्तन हो जाते हैं। और ज़रा से उकसावे से ही वे अति-उत्तेजित हो जाती हैं, संकेत प्रेषित करने लगती हैं और बहुत कम उकसावे पर ही न्यूरोपेप्टाइड्स स्रावित करती हैं। अन्यथा निष्क्रिय हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स की अवांछित सक्रियता नींद तोड़ने का काम करती है। उम्र बढ़ने के साथ तंत्रिकाओं में हुए परिवर्तन उनकी सक्रियता को रोकना और मुश्किल कर देते हैं।
Hcrt/OX तंत्रिका की क्षति के कारण या उनकी अनुपस्थिति के कारण एक बिरला तंत्रिका तंत्र विकार पैदा होता है – नार्कोलेप्सी। नार्कोलेप्सी के लक्षण विचित्र हैं – इसमें दिन में सोने की तीव्र इच्छा होती है जबकि नींद के कुल घंटे नहीं बदलते; सोने-जागने की अवस्था में स्पष्ट अंतर न होने के कारण मतिभ्रम की स्थिति रहती है; मांसपेशियों का तनाव कम हो जाता है, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं (कैटाप्लेक्सी)।
वर्ष 2018 में इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च में अनिमेश रे द्वारा प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भारत में इसके कुछ ही मामले दर्ज हुए हैं, जिनमें से अधिकतर मामले तीस वर्ष से अधिक उम्र के पुरुषों में मिले हैं। इस स्थिति वाले मरीज़ों के मस्तिष्क-मेरु द्रव में न के बराबर हाइपोक्रेटिन होता है।
अंत में, क्या टूटी-फूटी नींद लेने वाले लोग बेहतर और एकमुश्त नींद देने वाले उपायों का सपना देख सकते हैं? वृद्ध चूहों में देखा गया है कि फ्लुपरटीन नामक दर्दनिवारक उस स्तर को बहाल कर देता है जहां हाइपोक्रेटिन न्यूरॉन्स उत्तेजित होते हैं और इस प्रकार यह नींद के टाइम टेबल को बहाल करता है हालांकि यह दर्दनिवारक स्वयं विषाक्तता की दिक्कतों से पीड़ित है। (स्रोत फीचर्स)

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कम खाएं, स्वस्थ रहें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

धुनिक मनुष्यों के लिए स्वस्थ और बुद्धिमान रहने के लिए दिन में तीन बार भोजन करना आदर्श नुस्खा लगता है। फिर भी जैव विकास के नज़रिए से देखें तो हमारा शरीर कभी-कभी उपवास के लिए या कुछ समय भूखा रहने के लिए अनुकूलित हुआ है क्योंकि मनुष्यों के लिए लगातार भोजन उपलब्ध रहेगा इसकी गारंटी नहीं थी ।

निस्संदेह उपवास हमारी पंरपरा का एक हिस्सा है; यह कई संस्कृतियों में प्रचलित है – हिंदुओं में एकादशी से लेकर करवा चौथ तक के व्रत; यहूदियों के योम किप्पुर, जैनियों का पर्युषण पर्व, मुसलमानों के रमज़ान के रोज़े, ईसाइयों में लेंट अवधि वगैरह। तो सवाल है कि क्या व्यापक स्तर पर उपवास का चलन यह संकेत देता है कि यह मन को संयमित रखने के अलावा स्वास्थ्य लाभ देता है।

वर्ष 2016 में दी लैसेंट पत्रिका में प्रकाशित 186 देशों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला है कि अब मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या कम-वज़न वाले लोगों की संख्या से अधिक है। दो पीढ़ी पहले की तुलना में हमारा जीवनकाल भी काफी लंबा है। इन दोनों कारकों ने मिलकर समाज पर बीमारी का बोझ काफी बढ़ाया है। और व्यायाम के अलावा, सिर्फ उपवास और कैलोरी कटौती या प्रतिबंध (CR) यानी कैलोरी को सीमित करके स्वस्थ जीवन काल में विस्तार देखा गया है।

उपवास बनाम कैलोरी कटौती

उपवास और कैलोरी कटौती दोनों एक बात नहीं है। कैलोरी कटौती का मतलब है कुपोषण की स्थिति लाए बिना कैलोरी सेवन की मात्रा में 15 से 40 प्रतिशत तक की कमी करना। दूसरी ओर, उपवास कई तरीकों से किए जाते हैं। रुक-रुककर उपवास यानी इंटरमिटेंट फास्टिंग (IF) में आप बारी-बारी 24 घंटे बिना भोजन के (या अपनी खुराक का 25 प्रतिशत तक भोजन ग्रहण करके) बिताते हैं और फिर अगले 24 घंटे सामान्य भोजन करके बिताते हैं। सावधिक उपवास (पीरियॉडिक फास्टिंग) में आप हफ्ते में एक या दो दिन का उपवास करते हैं और हफ्ते के अगले पांच दिन सामान्य तरह से भोजन करते हैं। समय-प्रतिबंधित आहार (TRF) में पूरे दिन का भोजन 4 से 12 घंटे के भीतर कर लिया जाता है। और उपवासनुमा आहार यानी फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट (FMD) में महीने में एक बार लगातार पांच दिनों के लिए अपनी आवश्यकता से 30 प्रतिशत तक कम भोजन किया जाता है। इसके अलावा, भोजन की मात्रा घटाने के दौरान लिए जाने वाले वसा, प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट के अनुपात को कम-ज़्यादा किया जा सकता है ताकि पर्याप्त वसा मिलती रहे।

जापान में ओकिनावा द्वीप में स्वस्थ शतायु लोगों की संख्या काफी अधिक है, क्योंकि वहां के वयस्क हारा हाची बू का पालन करते हैं – जब पेट 80 प्रतिशत भर गया होता है तो वे खाना बंद कर देते हैं। कुछ संप्रदायों के बौद्ध भिक्षु दोपहर में अपना अंतिम भोजन (TRF) कर लेते हैं।

कई अध्ययनों में कृन्तकों और मनुष्यों पर व्रत के ये विभिन्न तरीके जांचे गए हैं – हम मनुष्यों को अक्सर प्रतिबंधित आहार लेने के नियम का पालन करना मुश्किल होता है! लेकिन जब भी इनका ठीक से पालन किया गया है तो देखा गया है कि इन तरीकों ने मोटापे को रोकने, ऑक्सीकारक तनाव और उच्च रक्तचाप से सुरक्षा दी है। साथ ही इन्होंने कई उम्र सम्बंधी बीमारियों को कम किया है और इनकी शुरुआत को टाला है।

उम्र वगैरह जैसी व्यक्तिगत परिस्थितियों को देखते हुए व्रत का उपयुक्त तरीका चुनने के लिए सावधानीपूर्वक जांच और विशेषज्ञ की सलाह आवश्यक है।

ग्लायकोजन भंडार

हम ग्लूकोज़ को लीवर में ग्लायकोजन के रूप में जमा रखते हैं; शरीर की ऊर्जा की मांग इसी भंडार से पूरी होती है। एक दिन के उपवास से रक्त शर्करा के स्तर में 20 प्रतिशत की कमी होती है और ग्लायकोजन का भंडार घट जाता है। हमारा शरीर चयापचय की ऐसी शैली में आ जाता है जिसमें ऊर्जा की प्राप्ति वसा-व्युत्पन्न कीटोन्स और लीवर के बाहर मौजूद ग्लूकोज़ से होती है। इंसुलिन का स्तर कम हो जाता है और वसा कोशिकाओं में वसा अपघटन के द्वारा लिपिड ट्राइग्लिसराइड्स को नष्ट किया जाता है।

मेटाबोलिक सिंड्रोम जोखिम कारकों का एक समूह है जो हृदय रोग और मधुमेह की संभावना दर्शाते हैं। साल्क इंस्टीट्यूट के सच्चिदानंद पंडा ने अपने अध्ययन में रोगियों में 10 घंटे TRF के लाभों पर प्रकाश डाला है, और रक्तचाप, हृदय की अनियमितता और शारीरिक सहनशक्ति में उल्लेखनीय सुधार देखा है। उनका यह अध्ययन सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित हुआ है।

देखा गया है कि रुक-रुककर उपवास आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को भी बदलता है। इससे बैक्टीरिया की विविधता बढ़ती है। लघु-शृंखला वाले फैटी एसिड बनाने वाले बैक्टीरिया में वृद्धि होती है जो शोथ के ज़रिए होने वाली तकलीफों (जैसे अल्सरेटिव कोलाइटिस) को रोकने के लिए जाने जाते हैं।

वर्ष 2021 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित परिणाम दर्शाते हैं कि फलमक्खियों में काफी दिनों तक रात में कुछ न खाने से कोशिकाओं में पुनर्चक्रण की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलता है। इसे ऑटोफेगी या स्व-भक्षण कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनके जीवन काल में 15 से 20 प्रतिशत तक का इजाफा होता है।

स्वभक्षण अधिकतर रात में होता है और यह शरीर की आंतरिक घड़ी द्वारा नियंत्रित होता है। तंत्रिकाओं की तंदुरुस्ती के लिए स्वभक्षण आवश्यक है; इस प्रक्रिया में त्रुटि से पार्किंसंस रोग की संभावना बढ़ाती हैं।

पोषक तत्वों की भरपूर आपूर्ति स्वभक्षण को रोकती है और प्रोटीन के जैव-संश्लेषण को बढ़ावा देने वाले मार्गों को सक्रिय करती है और इस प्रकार नवीनीकरण को बढ़ावा मिलता है। अपघटन और नवीनीकरण का यह गतिशील नियंत्रण बताता है कि लंबे समय तक कैलोरी प्रतिबंध की तुलना में इंटरमिटेंट फास्टिंग, टाइम-रेस्ट्रिक्टेड फीडिंग, फास्टिंग-मिमिकिंग डाइट और पीरियॉडिक उपवास शरीर के लिए बेहतर हो सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पाकिस्तान का पोलियोवायरस अफ्रीका पहुंचा

लावी सरकार ने सूचना दी है कि पकिस्तान में पाया जाने वाला प्राकृतिक पोलियोवायरस संस्करण अब अफ्रीकी महाद्वीप पहुंच चुका है। 1992 के बाद से देश में प्राकृतिक पोलियोवायरस का यह पहला मामला है जिसने एक तीन वर्षीय बच्ची को लकवाग्रस्त कर दिया है। इस नए मामले ने पोलियो को जड़ से खत्म करने के वैश्विक अभियान को काफी धक्का पहुंचाया है। हालांकि, ग्लोबल पोलियो उन्मूलन अभियान (जीपीईआई) को उम्मीद है कि इस प्रकोप को जल्द से जल्द नियंत्रित किया जा सकेगा।

वर्तमान में पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही ऐसे देश हैं जहां वायरस फैलने की घटनाएं निरंतर होती रही हैं। इसका पिछला मामला 2013 में देखने को मिला था जिसमें पाकिस्तान से निकले वायरस ने सीरिया में प्रकोप बरपाया था। गौरतलब है कि अफ्रीका महाद्वीप पहले से ही टीका-जनित पोलियो वायरस के बड़े प्रकोप से जूझ रहा है।

इस तरह का वायरस मुख्य रूप से कम टीकाकरण वाले क्षेत्रों में पाया जाता है जहां ओरल पोलियो टीके में पाया जाने वाला जीवित लेकिन निष्क्रिय वायरस लकवाग्रस्त करने की क्षमता विकसित कर लेता है। हालांकि अफ्रीकी महाद्वीप में प्राकृतिक पोलियो का आखिरी मामला 2016 में पाया गया था और अगस्त 2020 में अफ्रीका को प्राकृतिक पोलियो मुक्त घोषित कर दिया गया था।           

गौरतलब है कि पोलियो संक्रमण खामोशी से फैलता है और 200 संक्रमित बच्चों में से मात्र एक बच्चे को लकवाग्रस्त करता है। ऐसे में यदि वायरस का एक भी मामला सामने आता है तो उसे प्रकोप माना जाता है। वैसे जीपीईआई का इतिहास रहा है कि 6 माह के अंदर इस प्रकार के आयातित प्रकोपों को खत्म किया गया है। मलावी में पाया गया वाइल्ड टाइप 1 पोलियोवायरस का निकट सम्बंधी निकला जो अक्टूबर 2019 में सिंध प्रांत में फैला था। लगता है, वायरस तभी से ही गुप्त रूप से उपस्थित था।

पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी के कारण जीपीईआई के विश्लेषकों के पास वायरस के आगमन और फैलाव के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। मलावी से मोज़ांबिक, ज़ाम्बिया और तंज़ानिया में लोगों की अत्यधिक आवाजाही के कारण अन्य देशों में वायरस के फैलने के जोखिम का आकलन और व्यापक टीकाकरण रणनीति पर भी विचार किया जा रहा है।

पोलियो के इस नए मामले से इतना तो स्पष्ट है कि इस वायरस का खतरा अभी भी बच्चों पर मंडरा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो संचरण को स्थायी रूप से बाधित करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए दुनिया भर में टीकाकरण को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीएम खाद्यों पर पूर्ण प्रतिबंध ही सबसे उचित नीति है – भरत डोगरा

जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) खाद्यों के नियमन के लिए सरकारी नीति पर हाल के समय पर तीखी बहस देखी गई है। सरकारी स्तर पर जनता व विशेषज्ञों से इस बारे में राय मांगी गई। अनेक संगठनों व संस्थानों ने कहा कि जीएम खाद्यों पर पहले से जो पूर्ण प्रतिबंध चला आ रहा है, वही जारी रहना चाहिए। हाल ही में भारत के 160 डॉक्टरों का एक संयुक्त बयान जारी हुआ है जिसमें जीएम खाद्यों के अनेक खतरों को बताते हुए इन पर लगे प्रतिबंध को जारी रखने का आग्रह किया गया है।

भारत में जीएम सरसों व बीटी बैंगन पर बहस के दौरान भी जीएम खाद्यों पर पर्याप्त जानकारियां सामने आ चुकी हैं। दूसरी ओर, आयातित जीएम खाद्यों व विशेषकर प्रोसेस्ड आयातों पर से रोक हटाने के लिए दबाव बढ़ रहा है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त की गई फसलों का मनुष्यों व सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रुले (जुआ) में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में आमाशय, लीवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने तथा मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

वैज्ञानिकों के संगठन युनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट्स ने कुछ समय पहले कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि ये असुरक्षित हैं। इनसे उपभोक्ताओं, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे हैं। 11 देशों के वैज्ञानिकों की इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने जीएम फसलों के स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है। जैसे प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल असर, एलर्जी, जन्मजात विकार, गर्भपात आदि। भारत में सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के पूर्व निदेशक प्रो. पुष्प भार्गव ने कहा था कि बीटी बैंगन को स्वीकृति देना एक बड़ी आपदा बुलाने जैसा है।

भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने एक पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई थी। पत्र में कहा गया है कि जीएम प्रक्रिया से गुज़रने वाले पौधे का जैव-रासायनिक संघटन व कार्यिकी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाते हैं जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण/परिवर्तित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए गैर-जीएम मक्का की तुलना में मक्के की जीएम किस्म जीएम एमओएन 810 में 40 प्रोटीनों की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण हद तक बदल जाती है।

जीव-जंतुओं पर जीएम खाद्य के नकारात्मक स्वास्थ्य असर किडनी, लीवर, आहार नली, रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता पर सामने आ चुके हैं।

17 वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया कि जिन जीएम फसलों को स्वीकृति मिल चुकी है उनके संदर्भ में भी अध्ययनों में यही नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आए हैं, जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर जीएम फसलों स्वीकृति दे दी जाती है।

बीटी मक्का पर मानसेंटो कंपनी के अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन हुआ तो अल्प-कालीन अध्ययन में भी नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए। बीटी के विषैलेपन से एलर्जी का खतरा जुड़ा हुआ है। बीटी बैंगन जंतुओं को खिलाने के अध्ययनों पर महिको-मानसेंटो ने के दस्तावेज में लीवर, किडनी, खून व पैंक्रियास पर नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आते हैं। अल्पकालीन (केवल 90 दिन या उससे भी कम) अध्ययन में भी प्रतिकूल परिणाम नज़र आए। लंबे समय के अध्ययन से और भी प्रतिकूल परिणाम सामने आते। अत: इन वैज्ञानिकों ने कहा कि बीटी बैंगन के सुरक्षित होने के दावे का कोई औचित्य नहीं है।

बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डॉ. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी काटन बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आईं।

बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जो दस्तावेज जारी किया था, उसमें उन्होंने बताया था कि स्वास्थ्य के खतरे के बारे में उन्होंने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक व भारतीय सरकार के औषधि नियंत्रक से चर्चा की थी। इन दोनों अधिकारियों ने कहा कि विषैलेपन व स्वास्थ्य के खतरे सम्बंधी स्वतंत्र परीक्षण होने चाहिए।

लगभग 100 डाक्टरों के एक संगठन ‘खाद्य व सुरक्षा के लिए डाक्टर’ ने भी पर्यावरण मंत्री को जीएम खाद्य व विशेषकर बीटी बैंगन के खतरे के बारे में जानकारी भेजी। उनके दस्तावेज में बताया गया कि पारिस्थितिकीय चिकित्सा शास्त्र की अमेरिका अकादमी ने अपनी संस्तुति में कहा है कि जीएम खाद्य से बहुत खतरे जुड़े हैं व इन पर मनुष्य के स्वास्थ्य की सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त परीक्षण नहीं हुए हैं।

तीन वैज्ञानिकों मे वान हो, हार्टमट मेयर व जो कमिन्स ने जेनेटिक इंजीनियंरिंग की विफलताओं की पोल खोलते हुए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज इकॉलाजिस्ट पत्रिका में प्रकाशित किया है। इस दस्तावेज के अनुसार बहुचर्चित चमत्कारी ‘सूअर’ या ‘सुपरपिग’, जिसके लिए मनुष्य की वृद्वि के हारमोन प्राप्त किए गए थे, बुरी तरह ‘फ्लॉप’ हो चुका है। इस तरह जो सूअर वास्तव में तैयार हुआ उसको अल्सर थे, वह जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, अंधा था और नपुसंक था।

इसी तरह तेज़ी से बढ़ने वाली मछलियों के जीन्स प्राप्त कर जो सुपरसैलमन मछली तैयार की गई उसका सिर बहुत बड़ा था, वह न तो ठीक से देख सकती थी, न सांस ले सकती थी, न भोजन ग्रहण कर सकती थी व इस कारण शीघ्र ही मर जाती थी।

बहुचर्चित भेड़ डॉली के जो क्लोन तैयार हुए वे असामान्य थे व सामान्य भेड़ के बच्चों की तुलना में जन्म के समय उनकी मृत्यु की संभावना आठ गुणा अधिक पाई गई।

इन अनुभवों को देखते हुए जीएम खााद्यों को हम कितना सुरक्षित मानेंगे यह विचारणीय विषय है। इनके बारे में सामान्य नागरिक को सावधान रहना चाहिए व उपभोक्ता संगठनों को नवीनतम जानकारी नागरिकों तक पहुंचानी चाहिए। पर सबसे ज़रूरी कदम तो यह उठाना चाहिए कि जीएम फसलों के प्रसार पर कड़ी रोक लगा देनी चाहिए।

इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए रेखांकित करना ज़रूरी है कि जीएम खाद्यों पर जो विज्ञान आधारित प्रतिबंध भारत में लगा हुआ है उसे जारी रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हृदय पर कोविड-19 के गंभीर प्रभाव

महामारी की शुरुआत से ही संकेत मिलने लगे थे कि सार्स-कोव-2 से संक्रमित गंभीर रोगियों में हृदय और रक्त वाहिनियों में क्षति होती है। मुख्य रूप से खून के थक्के बनना, हृदय में सूजन, धड़कन की लय बिगड़ना, दिल का दौरा जैसी समस्याएं देखी गई थीं। हाल ही में किए गए एक व्यापक अध्ययन में पता चला है कि वायरस के ऐसे प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रह सकते हैं।

अमेरिका के 1.1 करोड़ वृद्ध लोगों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि 1 वर्ष पहले कोविड-19 से ग्रसित लोगों में 20 विभिन्न हृदय और रक्त वाहिनी सम्बंधी विकारों का जोखिम सामान्य की तुलना में काफी बढ़ गया है। यह जोखिम प्रारंभिक रोग की गंभीरता के साथ-साथ बढ़ता पाया गया।

इस अध्ययन से प्राप्त डैटा से स्पष्ट हो जाता है कि सार्स-कोव-2 संक्रमण सामान्य फ्लू से कहीं अधिक खतरनाक है। हालांकि, विशेषज्ञ इस अध्ययन को दोहराने का सुझाव देते हैं क्योंकि इसमें दोषपूर्ण निदान जैसी त्रुटियों की संभावना है।

फिलहाल तो शोधकर्ताओं को वायरस द्वारा दीर्घकालिक क्षति की प्रक्रिया के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। लेकिन उनका मानना है कि हृदय सम्बंधी जोखिम और लॉन्ग कोविड लक्षणों के समूह (ब्रेन फॉग, थकान, कमज़ोरी और गंध संवेदना का ह्रास) का मूल कारण एक ही हो सकता है।

इसके लिए शोधकर्ताओं ने अमेरिका के डिपार्टमेंट ऑफ वेटरन्स अफेयर्स (वीए) के इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य रिकॉर्ड में लगभग डेढ़ लाख लोगों के डैटा का विश्लेषण किया जो मार्च 2020 से जनवरी 2021 के बीच कोविड से संक्रमित हुए और संक्रमित होने के कम से कम 30 दिन तक जीवित रहे। उन्होंने दो तुलना समूहों की भी पहचान की। एक समूह 56 लाख ऐसे लोगों का था जिन्होंने महामारी के दौरान देखभाल की मांग तो की थी लेकिन जांच में कोविड नहीं पाया गया था; दूसरा समूह ऐसे 59 लाख लोगों का था जिन्होंने 2017 में देखभाल चाही थी।

अध्ययन में टीके के व्यापक रूप से उपलब्ध होने से पहले का ही डैटा शामिल किया गया था। इस तरह से 99.7 प्रतिशत लोग संक्रमित होने के समय टीकाकृत नहीं थे। इसलिए इस अध्ययन में यह स्पष्ट नहीं है कि टीकाकृत लोगों में ब्रेकथ्रू संक्रमण के बाद दीर्घकालिक हृदय सम्बंधी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं या नहीं। इसके अलावा, इस अध्ययन का झुकाव वृद्ध, श्वेत और पुरुष आबादी की ओर अधिक दिखाई देता है। तीनों समूहों में 90 प्रतिशत पुरुष और 71-76 प्रतिशत श्वेत रोगी थे और सभी की औसत उम्र 60 और 70 के बीच थी।

शोधकर्ताओं ने पाया कि कोविड-19 के बाद हृदय रोग होने की संभावना में वृद्धि लगभग सभी लोगों – वृद्ध और युवा, मधुमेह और बिना मधुमेह, मोटापे और बिना मोटापे, धूम्रपान करने वाले और धूम्रपान न करने वाले – में एक जैसी थी।

कोविड-19 ने 20 तरह के हृदय रोगों के जोखिम को बढ़ा दिया है। जैसे कोविड से पीड़ित वृद्ध लोगों में संक्रमित होने के 12 महीने बाद नियंत्रण समूह की तुलना में 72 प्रतिशत अधिक हृदयाघात की संभावना देखी गई। 1000-1000 संक्रमित व असंक्रमित लोगों को लें तो किसी ना किसी हृदय सम्बंधी दिक्कत की संभावना असंक्रमित लोगों की अपेक्षा 45 अतिरिक्त संक्रमित लोगों में है।

फिलहाल वायरस द्वारा हृदय और रक्त वाहिनियों पर दीर्घकालिक असर शोध का विषय है। एक संभावित प्रक्रिया एंडोथेलियल कोशिकाओं की सूजन है जो हृदय और रक्त वाहिनियों का अंदरूनी अस्तर बनाती हैं। वैसे कई अन्य संभावनाएं भी हैं। जैसे वायरल आक्रमण से हृदय की मांसपेशियों की क्षति, साइटोकाइंस नामक सूजन बढ़ाने वाले रसायनों का उच्च स्तर जो हृदय पर सख्त धब्बे बनाता हो और वायरस का ऐसे स्थानों छिपे रहना जहां प्रतिरक्षा प्रणाली प्रभावी ढंग से निपट न सके।

शोधकर्ताओं का मानना है कि आने वाले समय में कोविड-19 से संक्रमित हो चुके लाखों लोगों को कोविड के दीर्घकालिक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं जिससे स्वास्थ्य प्रणालियों पर एक बार फिर दबाव बन सकता है। इसके लिए विश्व भर की सरकारों और स्वास्थ्य सेवाओं को हृदय सम्बंधी रोगों से निपटने के लिए ज़रूरी कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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आंत के सूक्ष्मजीव अवसाद का कारण हैं

हमारे शरीर में भीतर और बाहर अरबों-खरबों बैक्टीरिया पलते हैं और ये हमें स्वस्थ रखने और बीमार करने दोनों में भूमिका निभाते हैं। अब, फिनलैंड में हज़ारों लोगों पर किए गए अध्ययन से लगता है कि अवसाद (डिप्रेशन) के कुछ मामलों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीवों की पहचान हुई है।

वैज्ञानिक दिमागी स्वास्थ्य और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों की छानबीन करते रहे हैं और बढ़ते क्रम में ऐसे सम्बंध देखे गए हैं। जैसे ऑटिज़्म और मूड की गड़बड़ी वाले लोगों की आंत में कुछ प्रमुख बैक्टीरिया की कमी दिखती है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत में इन सूक्ष्मजीवों की कमी क्या वास्तव में विकार पैदा करती है, लेकिन इन निष्कर्षों के आधार पर आंत के सूक्ष्मजीवों और उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का उपयोग विभिन्न तरह के मस्तिष्क विकारों के संभावित उपचार के रूप में करने की भागमभाग शुरू भी हो गई है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन साइकिएट्री में बताया है कि मल प्रत्यारोपण से दो अवसाद ग्रस्त रोगियों के लक्षणों में सुधार दिखा है।

बेकर हार्ट एंड डायबिटीज़ इंस्टीट्यूट के सूक्ष्मजीव जैव-सूचनाविद गिलौम मेरिक वास्तव में अवसाद के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीव खोजने की दिशा में काम नहीं कर रहे थे। उनकी टीम तो फिनलैंड में किए गए स्वास्थ्य और जीवन शैली के एक बड़े अध्ययन के डैटा का विश्लेषण कर रही थी। यह अध्ययन 6000 प्रतिभागियों पर किया गया था जिसमें उनकी आनुवंशिक बनावट का आकलन किया गया, प्रतिभागियो की आंत में पल रहे सूक्ष्मजीव पता लगाए गए, और उनके आहार, जीवन शैली, ली गई औषधियों और स्वास्थ्य सम्बंधी व्यापक डैटा संकलित किया गया था। यह अध्ययन फिनिश लोगों में जीर्ण रोगों के अंतर्निहित कारणों को पहचानने के लिए 40 वर्षों से किए जा रहे प्रयास का हिस्सा था।

शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि किसी व्यक्ति की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार पर आहार और आनुवंशिकी का क्या प्रभाव होता है। नेचर जेनेटिक्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मानव जीनोम के दो हिस्से इस बात को काफी प्रभावित करते हैं कि आंत में कौन से सूक्ष्मजीव मौजूद हैं। इनमें से एक हिस्से में दुग्ध शर्करा लैक्टोज़ को पचाने वाला जीन मौजूद है, और दूसरा हिस्सा रक्त समूह का निर्धारण करता है। (नेचर जेनेटिक्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी नीदरलैंड के 7700 लोगों के जीनोम और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों के विश्लेषण किया गया था और उसमें भी इन्हीं आनुवंशिक हिस्सों की पहचान हुई थी।)

मेरिक की टीम ने यह भी पता लगाया कि कौन से आनुवंशिक संस्करण कुछ सूक्ष्म जीवों की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं – और उनमें से कौन से संस्करण 46 सामान्य बीमारियों से जुड़े हैं। दो बैक्टीरिया, मोर्गनेला और क्लेबसिएला, अवसाद में भूमिका निभाते हैं। और एक सूक्ष्मजीवी सर्वेक्षण में 181 लोगों में मोर्गनेला बैक्टीरिया की काफी वृद्धि देखी गई थी, आगे जाकर ये लोग अवसाद से ग्रसित हुए थे।

पूर्व के अध्ययनों में भी अवसाद में मोर्गनेला की भूमिका पहचानी गई है। वर्ष 2008 में हुए अध्ययन में शोधकर्ता अवसाद और शोथ के बीच एक कड़ी तलाश रहे थे, इसमें उन्होंने अवसाद से ग्रसित लोगों में मोर्गनेला और आंत में मौजूद अन्य ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया द्वारा उत्पादित रसायनों के प्रति मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देखी थी। अब, यह नवीनतम अध्ययन पूर्व के इन निष्कर्षों को मज़बूती प्रदान करता है कि आंत के रोगाणुओं के कारण होने वाली शोथ मूड को प्रभावित कर सकती है।

बहरहाल, इस क्षेत्र के अध्ययन अभी प्रारंभिक अवस्था में है; अवसाद कई तरह के होते हैं और सूक्ष्मजीव कई तरीकों से इसे प्रभावित कर सकते हैं। कुछ लोग इसके आधार पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की बात कह रहे हैं लेकिन इन निष्कर्षों को चिकित्सा में लागू करना अभी दूर की कौड़ी ही है। (स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 के एंडेमिक होने का मतलब

र्तमान महामारी के संदर्भ में एंडेमिक (स्थानिक) शब्द का काफी दुरूपयोग हुआ है और इसने काफी मुगालता पैदा किया है। इसका मतलब यह निकाला जा रहा है कि कोविड-19 का प्राकृतिक रूप से अंत हो जाएगा।

महामारी विज्ञानियों की भाषा में एंडेमिक संक्रमण उसे कहते हैं जिसमें संक्रमण की समग्र दर संतुलित रहती है। उदाहरण के तौर पर, साधारण सर्दी जुकाम, लासा बुखार, मलेरिया, पोलियो वगैरह एंडेमिक हैं। टीके की मदद से समाप्त किए जाने से पहले चेचक भी एंडेमिक था।

कोई बीमारी एंडेमिक होने के साथ-साथ व्यापक और घातक दोनों हो सकती है। 2020 में मलेरिया से 6 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हुई थी तथा टीबी से 1 करोड़ लोग बीमार हुए और 15 लाख लोगों की मृत्यु हुई थी। अर्थात एंडेमिक संक्रमण का मतलब यह नहीं होता कि सब कुछ नियंत्रण में है और सामान्य जीवन चल सकता है।

विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माता एंडेमिक शब्द का उपयोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने के लिए करते हैं। जबकि ऐसे एंडेमिक रोगजनकों के साथ जीते रहने की बजाय स्वास्थ्य नीति सम्बंधी ठोस निर्णय लेना अधिक महत्वपूर्ण है।

वास्तव में किसी संक्रमण को एंडेमिक कहने से न तो यह पता चलता है कि वह स्थिर अवस्था में कब पहुंचेगा, मामलों की दर क्या होगी, और न ही यह पता चलता है कि बीमारी की गंभीरता या मृत्यु दर क्या होगी। इससे यह गारंटी भी नहीं मिलती कि संक्रमण में स्थिरता आ जाएगी।

वास्तव में स्वास्थ्य नीतियां और व्यक्तिगत व्यवहार ही कोविड-19 के रूप को निर्धारित कर सकते हैं। 2020 के अंत में अल्फा संस्करण के उभरने के बाद विशेषज्ञों ने यह कहा था कि जब तक संक्रमण को दबा नहीं दिया जाता तब तक वायरस का विकास काफी तेज़ और अप्रत्याशित ढंग से होगा। इसी विकास ने अधिक संक्रामक डेल्टा संस्करण को जन्म दिया और अब हम प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने वाले ओमिक्रॉन को झेल रहे हैं। बीटा और गामा संस्करण भी काफी खतरनाक थे लेकिन ये उस रफ्तार से फैले नहीं। 

वायरस का फैलाव और असर लोगों के व्यवहार, जनसांख्यिकी संरचना, संवेदनशीलता और प्रतिरक्षा और उभरते हुए वायरस संस्करणों पर निर्भर करता है। 

देखा जाए तो कोविड-19 विश्व की पहली महामारी नहीं है। हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली निरंतर संक्रमण से निपटने के लिए विकसित हुई है और हमारे जीनोम में वायरल आनुवंशिक सामग्री के अवशेष इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। कुछ वायरस अपने आप ही ‘विलुप्त’ तो हो गए लेकिन जाते-जाते उच्च मृत्यु दर का कारण भी रहे।  

एक व्यापक भ्रम यह फैला है कि वायरस समय के साथ विकसित होकर ‘भले’ या कम हानिकारक हो जाते हैं। ऐसा नहीं है और आज कुछ नहीं कहा जा सकता कि वायरस किस दिशा में विकसित होगा। सार्स-कोव-2 के अल्फा और डेल्टा संस्करण वुहान में पाए गए पहले स्ट्रेन की तुलना में अधिक खतरनाक साबित हुए। पूर्व में भी 1918 इन्फ्लुएंज़ा महामारी की दूसरी लहर पहली की तुलना में अधिक घातक थी। 

यह ज़रूर है कि इस विकास को मानवता के पक्ष में बदलने के लिए काफी कुछ किया जा सकता है। लेकिन सबसे पहले तो अकर्मण्य आशावाद को छोड़ना होगा। दूसरा, हमें मृत्यु, विकलांगता और बीमारी के संभावित स्तरों के बारे में यथार्थवादी होना पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि वायरस के नए-नए संस्करणों के विकास की संभावना को कम करने के लिए संक्रमण को फैलने से रोकना ज़रूरी है। तीसरा, हमें टीकाकरण, एंटीवायरल दवाओं, नैदानिक परीक्षण जैसी तकनीकों का उपयोग करने के साथ-साथ मास्क के उपयोग, शारीरिक दूरी, वेंटिलेशन वगैरह के माध्यम से हवा से फैलने वाले वायरस को रोकना होगा। वायरस को जितना अधिक फैलने का मौका मिलेगा, नए-नए संस्करणों के उभरने की संभावना बढ़ती जाएगी। चौथा, हमें ऐसे टीकों में निवेश करना होगा जो एकाधिक वायरस संस्करणों से सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसके अलावा दुनिया भर में टीकों की समतामूलक उपलब्धता सुनिश्चित करना भी महत्वपूर्ण होगा।

ऐसे में किसी वायरस को एंडेमिक समझना सिर्फ गलत नहीं, खतरनाक भी है। बेहतर होगा कि वायरस को हावी होने का अवसर न दें और वायरस के नए संस्करणों को उभरने का मौका न दें। (स्रोत फीचर्स)

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हींग के आणविक जीव विज्ञान की खोजबीन – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हींग (जिसे अंग्रेज़ी में एसाफीटिडा, तमिल में पेरुंगायम, तेलुगु में इंगुवा और कन्नड़ में इंगु कहते हैं) एक सुगंधित मसाला है जिसका हमारे पकवानों और पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग किया जाता रहा है। महाभारत काल से हम हींग के बारे में जानते हैं, और यह अफगानिस्तान से आयात की जाती है। भागवत पुराण में उल्लेख है कि देवताओं का पूजन करने से पहले हींग नहीं खाना चाहिए। भारतीय ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि हम ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी से हींग का आयात करते रहे हैं। हींग के लिए अंग्रेज़ी शब्द Asafoetida (एसाफीटिडा) फारसी शब्द Asa (जिसका अर्थ है गोंद), और लैटिन शब्द foetidus (जिसका अर्थ है तीक्ष्ण बदबू) से मिलकर बना है। विकीपीडिया के अनुसार प्रारंभिक यहूदी साहित्य में इसका ज़िक्र मिश्नाहा के रूप में मिलता है। रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा है कि वे कैसे ‘काबुलीवाला’ से मेवे खरीदते थे लेकिन उनकी रचनाओं में हींग का उल्लेख नहीं मिलता, जबकि निश्चित ही यह उनके घर की रसोई में उपयोग की जाती होगी!

हींग एक गाढ़ा गोंद या राल है, जो अम्बेलीफेरी कुल के फेरुला वंश के बारहमासी पौधे की मूसला जड़ से मिलता है। इंडियन मिरर में एसाफीटिडा शीर्षक से प्रकाशित लेख में बताया गया है कि चिकित्सा के क्षेत्र में हींग का उपयोग तरह-तरह से होता है। यह भी कहा गया है कि हींग इन्फ्लूएंज़ा जैसे वायरस के विरुद्ध कारगर है। इसलिए वर्तमान समय के औषधि रसायनज्ञों और आणविक जीव विज्ञानियों द्वारा इसकी क्रियाविधि का अध्ययन सार्थक हो सकता है। (और, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन के प्रोफेसर एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने यह किया भी है)।

आयुर्वेद में शरीर में तीन तरह के दोष बताए गए हैं – वात, पित्त, और कफ। इन तीनों के अपने विशिष्ट कार्य हैं। वात दोष को शांत करने के लिए मसालों में हींग को सबसे अच्छा मसाला माना गया है। होम रेमेडीज़ फॉर हिक्कप नामक वेबसाइट बताती है कि हिचकी रोकने के लिए हींग उत्तम उपाय है! इसे मक्खन के साथ अच्छी तरह मिलाओ और निगल लो, और हिचकी बंद!

स्वदेशी?

हमें कब तक हींग आयात करनी पड़ेगी? ऐसा लगता है अब और नहीं! दी हिंदू के 10 नवंबर, 2020 के अंक में प्रकाशित और दी वायरसाइंस में उद्धृत एक रिपोर्ट में सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोटेक्नोलॉजी (CSIR-IHBT) के निदेशक डॉ. संजय कुमार बताते हैं कि हिमाचल प्रदेश के लाहौल-स्पीति की ठंडी रेगिस्तानी जलवायु ईरान और अफगानिस्तान की जलवायु से काफी मिलती-जुलती है। उन्होंने सोचा कि क्यों न हींग भारत में भी उगाई जाए। इस विचार ने IHBT को अफगानिस्तान से हींग के बीज आयात करके नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेस के मार्गदर्शन में IHBT अनुसंधान केंद्र में इसे उगाने को प्रेरित किया। प्रयोग सफल रहा और दो तरह की हींग राल प्राप्त हो गई – दूधिया सफेद किस्म की और लाल किस्म की। वे आगे बताते हैं कि चूंकि वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में किसान आलू और मटर ही उगाते हैं इसलिए उन्हें हींग उगाने के लिए प्रेरित कर और तकनीकी सहायता प्रदान कर उनकी आय में वृद्धि की जा सकती है। डॉ. कुमार ने टाइम्स ऑफ इंडिया में ‘स्वदेशी हींग’ होना क्यों बड़ी बात है (Why ‘made-in-India’ heeng is a big thing) शीर्षक से एक लेख प्रकाशित भी किया है।

लंबा इतिहास

इस जड़ी बूटी के पारंपरिक चिकित्सा में उपयोग का एक लंबा इतिहास रहा है। मिस्र के लोग लंबे समय से इसका उपयोग करते आ रहे हैं। आयुर्वेद के जानकार भी सदियों से इसके बारे में जानते हैं। प्रो. एम. एस. वलियातन और उनके साथियों ने फलमक्खी को एक मॉडल के रूप में उपयोग करके अध्ययन में पाया है कि शरीर में आयुर्वेदिक औषधियां प्रभावी हैं। इसी तरह जर्नल ऑफ एथ्नोफार्मेकोलॉजी में वर्ष 1999 में आइग्नर और उनके साथियों ने बताया था कि नेपाल की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों और आहार में हींग कैसे प्रभावी है। इस संदर्भ में फार्मेकोग्नॉसी रिव्यूज़ जर्नल के वर्ष 2012 के अंक में जयपुर की सुरेश ज्ञान विहार युनिवर्सिटी की डॉ. पूनम महेंद्र और डॉ. श्रद्धा बिष्ट द्वारा एक उत्कृष्ट और अद्यतन रिपोर्ट प्रकाशित की गई है, जिसका शीर्षक है फेरुला एसाफीडिटा: ट्रेडिशनल यूज़ एंड फार्मेकोलॉजिकल एक्टिविटी

हींग के रासायनिक घटकों के विश्लेषण से पता चलता है कि हींग के पौधे में लगभग 70 प्रतिशत कार्बोहायड्रेट, 5 प्रतिशत प्रोटीन, एक प्रतिशत वसा, 7 प्रतिशत खनिज होते हैं। इसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, सल्फर के यौगिक और विभिन्न एलिफैटिक और एरोमेटिक अल्कोहल होते हैं। इसकी वसा में सल्फाइड होता है जिससे मलनुमा गंध आती है।

प्रयोगशाला में चूहों पर किए गए रासायनिक परीक्षणों से पता चलता है कि हींग पाचन में अहम भूमिका निभाती है। इसके अलावा शोधदल ने बताया है कि हींग का पौधा कैंसर-रोधी एजेंट के रूप में भी काम कर सकता है, और महिलाओं की कुछ बीमारियों के खिलाफ भी कारगर हो सकता है। उन्होंने हींग के लगभग 30 ऐसे अणुओं को सूचीबद्ध किया है जो एंटी-ऑक्सीडेंट, कैंसर-रोधी, जीवाणुरोधी, एंटीवायरल और यहां तक कि एड्स वायरस-रोधी की तरह काम करते हैं। इस सूची के मद्देनज़र देश भर के वैज्ञानिकों को आणविक जीव विज्ञान, प्रतिरक्षा विज्ञान और औषधि डिज़ाइन की नई तकनीकों का उपयोग करते हुए हींग से इन अणुओं को प्राप्त करके रोगों में इनकी निवारक भूमिका पर अध्ययन करना चाहिए। तो चलिए काम शुरू किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/7bs2aw/article38346083.ece/ALTERNATES/FREE_660/30TH-SCIASAFOETIDAjpg