हाल ही में वैज्ञानिकों ने 1990 से लेकर 2022 के बीच प्रत्यारोपित 2,53,406 लीवर की उम्र का आकलन किया है। इस विश्लेषण के अनुसार 25 लीवर 100 से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहे हैं। इन लीवर्स को वैज्ञानिकों ने ‘शतायु लीवर’ का नाम दिया है। इनमें से 14 लीवर अभी भी प्राप्तकर्ताओं के शरीर में काम कर रहे हैं। सबसे उम्रदराज लीवर की उम्र 108 वर्ष है।
इस अध्ययन के प्रमुख और युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के मेडिकल स्कूल में कार्यरत यश कड़ाकिया और उनकी टीम ने किसी लीवर की कुल आयु निकालने के लिए प्रत्यारोपण के पहले लीवर की उम्र (यानी प्रत्यारोपण के समय अंगदाता की आयु) और प्राप्तकर्ता में प्रत्यारोपण के बाद लीवर की उम्र को जोड़ा। प्रत्यारोपण सम्बंधी आंकड़े युनाइटेड नेटवर्क फॉर ऑर्गन शेयरिंग के अंग प्रत्यारोपण डैटाबेस से लिए गए थे।
शोधकर्ताओं ने पाया कि 25 शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 84.7 वर्ष थी जबकि गैर-शतायु लीवर दाताओं की औसत आयु 38.5 वर्ष थी। प्रत्यारोपण के बाद सारे शतायु-लीवर कम से कम एक दशक तक जीवित रहे जबकि मात्र 60 प्रतिशत गैर-शतायु लीवर ही एक दशक बाद जीवित रहे। कड़ाकिया के अनुसार लीवर काफी लचीला अंग है और आज उम्रदराज दाताओं के लीवर प्रत्यारोपित किए जा रहे हैं। इसके मद्देनज़र प्रत्यारोपण के लिए अधिक लीवर उपलब्ध हो सकते हैं।
गौरतलब है कि अभी तक विशेषज्ञ प्रत्यारोपण के लिए बुज़ुर्ग दाताओं से लीवर लेने से बचते आए हैं, क्योंकि पुराने अंगों में शराब, मोटापा और संक्रमण से अधिक क्षतिचिन्ह जमा होने की संभावना होती है। लेकिन एक दिलचस्प बात यह देखी गई कि लीवर प्रत्यारोपण से मधुमेह और दाता संक्रमण जैसे दुष्प्रभाव अधिक पुराने यकृत पाने वाले लोगों में काफी कम थे।
भारत के स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक (स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय) की वेब साइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार भारत में प्रति वर्ष 50,000 तक लीवर प्रत्यारोपण की आवश्यकता है लेकिन किए जा रहे हैं मात्र 1500। यदि उम्रदराज अंगदाताओं से परहेज न किया जाए तो प्रत्यारोपण की बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अब और अधिक दाता अंग मिल सकते हैं।
वैसे, अभी तक लीवर के जीवित रहने की अवधि में भिन्नता के कारण स्पष्ट नहीं हैं। अधिक शोध से अंग उपलब्धता में विस्तार हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 वायरस निरंतर मनुष्य की प्रतिरक्षा भेदने का प्रयास कर रहा है। हाल ही में इस वायरस के नए और प्रतिरक्षा को चकमा देने वाले संस्करणों ने वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित किया है। शायद इनमें से कोई एक आने वाले जाड़ों तक कोविड-19 की एक नई लहर ले आए।
आने वाली लहर शायद ऑमिक्रॉन संस्करण की होगी जो पूरे विश्व में फैल गया है। कई नए संस्करणों ने प्रतिरक्षा को चकमा देने के लिए एक जैसे उत्परिवर्तनों का सहारा लिया है जो अभिसारी विकास का एक बेहतरीन उदाहरण है। इन सभी संस्करणों के वायरल जीनोम में आधा दर्जन उत्परिवर्तन उन स्थानों पर हुए हैं जो टीकों या पिछले संक्रमण से प्राप्त एंटीबॉडी की क्षमता को प्रभावित करते हैं।
आम तौर पर प्रतिरक्षा को चकमा देने की क्षमता पता लगाने के लिए शोधकर्ता वायरस के स्पाइक प्रोटीन की प्रतिलिपियां तैयार करते हैं और उनका परीक्षण मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ के साथ करते हैं। इससे यह पता लगाया जा सकता है कि एंटीबॉडीज़ कितनी अच्छी तरह से कोशिकाओं को संक्रमित होने से बचा सकती हैं। ऐसे परीक्षण की मदद से चीन और स्वीडन के शोधकर्ताओं ने पाया कि एक संस्करण (बीए2.75.2) काफी प्रभावी ढंग से लगभग सभी मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज़ को चकमा दे सकता है। विशेषज्ञों की मानें तो यह अब तक का सबसे प्रतिरोधी संस्करण है।
एक शोध पत्र में बीजिंग युनिवर्सिटी के यूनलॉन्ग रिचर्ड काओ और उनके सहयोगियों ने बताया है कि नए संस्करणों द्वारा मानव कोशिकाओं पर ग्राहियों को कसकर बांधने की क्षमता भी पाई गई है। इसके अलावा यह भी पता चला है कि नए संस्करण से होने वाला संक्रमण अधिक मात्रा में लेकिन गलत प्रकार की एंटीबॉडीज़ पैदा करता है जो वायरस से कसकर बंध तो जाती हैं लेकिन कोशिकाओं को संक्रमित करने की वायरस की क्षमता पर असर नहीं डालतीं। कुल मिलाकर यह सब कोविड-19 की एक बड़ी लहर की संभावना के संकेत देते हैं।
वैसे कुछ वैज्ञानिक अत्यधिक संक्रमण की उम्मीद तो करते हैं लेकिन उनका मानना है कि अब काफी लोग संक्रमण से उबर चुके हैं और ऑमिक्रॉन-विशिष्ट टीके की खुराक भी प्राप्त की है। इससे एंटीबॉडी में यकीनन वृद्धि हुई होगी। यानी हम वायरस से लड़ने में शून्य स्तर पर तो नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
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मुंह से ली जाने वाली प्रोटीनी-दवाइयां पाचन तंत्र में पहुंच कर वहां के वातावरण में नष्ट या विकृत हो जाती हैं। इसके अलावा पाचन तंत्र की म्यूकस (श्लेष्मा) झिल्ली दवा के अवशोषण को भी कम कर देती है। इसलिए हमें इस प्रकार की दवाओं को इंजेक्शन द्वारा लेना पड़ता है। इसका मतलब यह है कि इंसुलिन और अधिकांश अन्य ‘जैविक दवाइयां’ जिनमें प्रोटीन या न्यूक्लिक एसिड औषधियां शामिल हैं, उन्हें इंजेक्शन के रूप में देना होता है। किंतु इंजेक्शन का डर और उन्हें बार-बार लगाने की ज़रूरत मरीज़ के लिए असुविधाजनक होते हैं।
इस परेशानी का समाधान मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की श्रिया श्रीनिवासन और गियोवानी ट्रावर्सो की टीम ने ‘रोबोकैप कैप्सूल’ बनाकर निकाला है। सम्बंधित शोध पत्र का प्रकाशन साइंस रोबोटिक्स नामक शोध पत्रिका में हाल ही में हुआ है। नया कैप्सूल एक दिन इंजेक्शन के इस्तेमाल से निजात दिला सकता है।
क्या है रोबोकैप कैप्सूल?
रोबोकैप कैप्सूल एक मल्टीविटामिन कैप्सूल के आकार का होता है। कैप्सूल के दो हिस्से होते हैं। पिछले हिस्से में दवा और अगले मुख्य हिस्से में सुरंग बनाने वाला रोबोटिक हिस्सा। कैप्सूल की सतह पर जिलेटिन का अस्तर होता है जो पाचन तंत्र की एक विशिष्ट अम्लीयता पर घुलनशील होता है।
कैप्सूल के रोबोटिक हिस्से में एक रोबोटिक कैप होती है जो छोटी आंत में पहुंचने पर श्लेष्मा की परत पर घूमती है और सुरंग बनाती है। इससे कैप्सूल में भरी दवा को आंतों की कोशिकाओं के बहुत करीब छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार श्लेष्मा को उसकी जगह से हटाकर हम नियत क्षेत्र में दवा के प्रसार व अवशोषण को अधिकतम कर सकते हैं और दवा के छोटे और बड़े दोनों अणुओं का शरीर में अवशोषण बढ़ा सकते हैं।
शोधकर्ता बताते हैं कि रोबोटिक कैप्सूल का उपयोग इंसुलिन जैसे हार्मोन के अलावा वैन्कोमाइसिन व अन्य एंटीबायोटिक पेप्टाइड देने के लिए किया जा सकता है जिसे वर्तमान में इंजेक्शन द्वारा ही दिया जाता है।
कैप कैसे कार्य करती है?
जब मरीज़ कैप्सूल निगलता है तो यह सबसे पहले आमाशय में पहुंचता है। आमाशय का अम्लीय वातावरण कैप्सूल के जिलेटिन अस्तर को घोल कर हटा देता है। कुछ समय पश्चात कैप्सूल छोटी आंत में पहुंच जाता है। यहां के क्षारीय वातावरण से रोबोकैप कैप्सूल के अंदर एक छोटी मोटर घूमने लगती है जो आंत की श्लेष्मा झिल्ली को साफ कर रास्ता बनती है। यह गति कैप्सूल को श्लेष्मा में सुरंग बनाने और इसे हटाने में मदद करती है। कैप्सूल छोटे दांतों से लेपित होता है जो टूथब्रश जैसे कार्य कर श्लेष्मा को हटाते हैं।
सुरंग बनाने वाली मशीन के घूमने से दवा वाला पीछे का कक्ष टूट जाता है जिससे दवा धीरे-धीरे पाचन तंत्र की कोशिकाओं के समीप छोड़ी जाती है। रोबोकैप श्लेष्मा बाधा को केवल अस्थायी रूप से विस्थापित करता है और फिर स्थानीय स्तर पर दवा के फैलाव को अधिकतम करके अवशोषण को बढ़ाता है।
सुरंग बनाने वाले कैप्सूल
कई वर्षों से, श्रीनिवासन और ट्रावर्सो की प्रयोगशाला इंसुलिन जैसी प्रोटीनी दवाइयों को मुंह से लेने की बजाय अन्य तरीके विकसित कर रही है। इन बाधाओं को दूर करने के लिए, श्रीनिवासन को एक सुरक्षात्मक कैप्सूल बनाने का विचार आया जो म्यूकस को भेदकर एक सुरंग बना सके। बिल्कुल वैसे ही जैसे सुरंग खोदने वाली मशीनें मिट्टी और चट्टान में ड्रिलिंग करती हैं। तो उन्होंने सोचा कि यदि कैप्सूल म्यूकस को भेद कर सुरंग बना सकते हैं तो हम दवा सीधे आंत की भोजन सोखने वाली कोशिकाओं के पास पहुंचा सकते हैं।
वैज्ञानिकों ने रोबोकैप का प्रारंभिक परीक्षण जानवरों पर किया। परीक्षणों में, शोधकर्ताओं ने इस कैप्सूल से इंसुलिन या वैन्कोमाइसिन और इनके जैसे बड़े पेप्टाइड एंटीबायोटिक को सफलता पूर्वक पहुंचाया। रोबोकैप का उपयोग त्वचा संक्रमण के साथ-साथ आर्थोपेडिक प्रत्यारोपण को प्रभावित करने वाले संक्रमणों तथा संक्रमणों की एक विस्तृत शृंखला के इलाज के लिए किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने पाया कि सुरंग तंत्र वाले कैप्सूल की मदद से सामान्य कैप्सूल की तुलना में 20 से 40 गुना अधिक दवा विसरित की जा सकती है।
जब दवा कैप्सूल से निकल जाती है तो कैप्सूल खुद ही पाचन तंत्र से होकर शरीर से बाहर निकल जाता है। शोधकर्ताओं ने कैप्सूल के गुज़रने के बाद पाचन तंत्र में सूजन या जलन का कोई संकेत नहीं पाया, और उन्होंने यह भी देखा कि कैप्सूल द्वारा विस्थापित श्लेष्मा झिल्ली भी कुछ ही घंटों में ठीक हो जाती है।
वर्तमान अध्ययन में इस्तेमाल किए गए कैप्सूल ने छोटी आंत में कार्य किया था। लेकिन कैप्सूल को बड़ी आंत में या विशेष नियत स्थान पर दवा छोड़ने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। शोधकर्ता जीएलपी1 रिसेप्टर एगोनिस्ट जैसी अन्य प्रोटीनी दवाइयां देने की संभावना तलाशने की भी योजना बना रहे हैं, जिसका उपयोग कभी-कभी टाइप 2 मधुमेह के इलाज के लिए किया जाता है। सूजन का इलाज करने में मदद करने के लिए ऊतक में नियत स्थान पर दवा की सांद्रता बढ़ाकर अधिकतम करके अल्सरेटिव कोलाइटिस और अन्य सूजन वाली स्थितियों के इलाज के लिए कैप्सूल का उपयोग सामयिक दवाओं को विसरित करने के लिए भी किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्षों से इस बात के प्रमाण मिलते रहे हैं कि बैक्टीरिया का सम्बंध कैंसर से है, और कभी-कभी बैक्टीरिया कैंसर की प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। अब, शोधकर्ताओं को कैंसर में एक अन्य प्रकार के सूक्ष्मजीव – फफूंद – की भूमिका दिखी है।
सेल पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के मुताबिक अलग-अलग तरह की कैंसर गठानों में अलग-अलग प्रजाति की एक-कोशिकीय फफूंद पाई जाती हैं, और इन प्रजातियों का अध्ययन कैंसर के निदान या इसके विकास का अनुमान लगाने में मददगार हो सकता है।
बैक्टीरिया की तरह सूक्ष्मजीवी फफूंद भी मनुष्य के शरीर में मौजूद सूक्ष्मजीव संसार का एक महत्वपूर्ण अंग हैं। कैंसर पीड़ित लोगों में इनकी उपस्थिति कैसे भिन्न होती है इसे समझने के लिए इस्राइल के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस की कैंसर जीवविज्ञानी लियान नारुंस्की हज़िज़ा और उनके साथियों ने 35 तरह के कैंसर के 17,000 से अधिक ऊतक और रक्त के नमूनों में फफूंद आबादी पर गौर किया।
जैसा कि अपेक्षित था, यीस्ट (खमीर) समेत कई प्रकार की फफूंद सभी तरह के कैंसर में मौजूद मिली, लेकिन कुछ प्रजातियों का सम्बंध कैंसर के कुछ अलग परिणामों से देखा गया। जैसे, मेलेसेज़िया ग्लोबोसा फफूंद, जो पूर्व में अग्न्याशय के कैंसर से सम्बद्ध पाई गई थी, स्तन कैंसर में व्यक्ति के जीवित रहने की दर को काफी कम कर देती है। यह भी देखा गया कि अधिकांश प्रकार की फफूंद कतिपय बैक्टीरिया के साथ-साथ पाई जाती हैं; अर्थात ट्यूमर फफूंद और बैक्टीरिया दोनों के विकास को बढ़ावा दे सकते हैं – जबकि सामान्य परिस्थितियों में फफूंद और बैक्टीरिया एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी होते हैं।
दूसरे अध्ययन में, वैल कॉर्नेल मेडिसिन के प्रतिरक्षा विज्ञानी इलियन इलीव और उनके साथियों ने आंत, फेफड़े और स्तन कैंसर के ट्यूमर पर अध्ययन किया और पाया कि उनमें क्रमशः कैंडिडा, ब्लास्टोमाइसेस और मेलेसेज़िया फफूंद उपस्थित थीं। आंत की ट्यूमर कोशिकाओं में कैंडिडा का उच्च स्तर शोथ बढ़ाने वाले जीन की अधिक सक्रियता, कैंसर के अन्य स्थानों पर फैलने (मेटास्टेसिस) की उच्च दर और जीवित रहने की निम्न दर से जुड़ा था।
देखा जाए तो ट्यूमर में फफूंद कोशिकाओं को पहचानना घास के ढेर में सुई खोजने जैसा है। आम तौर पर प्रत्येक 10,000 ट्यूमर कोशिकाओं पर केवल एक फफूंद कोशिका होती है। इसके अलावा, ये फफूंद काफी व्यापक रूप से पाई जाती हैं और इसलिए नमूनों में संदूषण की संभावना रहती है।
इसके अलावा, उक्त अध्ययन केवल यह बताते हैं कि फफूंद की कुछ प्रजातियों और कैंसर के कतिपय प्रकारों बीच कोई सम्बंध है – इससे कार्य-कारण सम्बंध का निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। यह समझने के लिए और अध्ययन की ज़रूरत है कि क्या फफूंद शोथ पैदा करके कैंसर की प्रगति में योगदान देती है, या ट्यूमर फफूंद को अनुकूल वातावरण देते हैं और फफूंद हावी हो जाती हैं।
इसके लिए अलग-अलग कैंसर कोशिका कल्चर पर प्रयोग ज़रूरी होंगे। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-022-03074-z/d41586-022-03074-z_23552146.jpg?as=webp
यह तो पता रहा है कि स्तनधारियों का मस्तिष्क हमेशा पूरी तरह जागृत या सुप्त नहीं होता है। जैसे, हो सकता है कि डॉल्फिन का आधा मस्तिष्क सो रहा हो जबकि बाकी आधा जागा हो। नींद से वंचित चूहों में कुछ तंत्रिकाएं सुप्त हो सकती हैं जबकि वे जागे होते हैं। मनुष्यों में इस तथाकथित ‘स्थानीय नींद’ का अध्ययन करना मुश्किल रहा है, क्योंकि अन्य स्तनधारियों की तरह मनुष्यों में इसके अध्ययन के लिए घुसपैठी तरीकों का उपयोग नहीं किया जा सकता।
अब PNAS में प्रकाशित एक अध्ययन ने इसे आसान कर दिया है। इसमें शोधकर्ताओं ने दो अलग-अलग तकनीकों का एक साथ उपयोग करके मानव मस्तिष्क संकेतों को देखा और स्थानीय स्तर पर तंत्रिकाओं के जागने या सोने की स्थिति पता की। इस तरह वे पहचान सके कि मस्तिष्क के कौन से क्षेत्र सबसे पहले सो जाते हैं और कौन से सबसे पहले जाग जाते हैं।
वैसे, मनुष्यों में नींद का अध्ययन इलेक्ट्रोएन्सेफेलोग्राफी (ईईजी) से किया जाता है। ईईजी तीव्र परिवर्तनों को मापने का अच्छा साधन है, लेकिन स्थान विशेष का सूक्ष्मता से अध्ययन करने में यह अच्छे परिणाम नहीं दे पाता। इसलिए कार्डिफ युनिवर्सिटी की चेन सोंग और उनके साथियों ने ईईजी के साथ fMRI (फंक्शनल मैग्नेटिक रेज़ोनेन्स इमेजिंग) का उपयोग किया। fMRI में तंत्रिकाओं की गतिविधि को रक्त प्रवाह के आधार पर नापा जाता है। fMRI छोटे और तीव्र परिवर्तनों को तो नहीं पकड़ पाता लेकिन मस्तिष्क की स्थानीय गतिविधियों को बारीकी से अलग-अलग देखने में मदद कर सकता है। शोधकर्ताओं ने देखा कि क्या ईईजी में दिखने वाले नींद के तंत्रिका संकेत fMRI से प्राप्त पैटर्न से मेल खाते हैं?
शोधकर्ताओं ने 36 लोगों की मस्तिष्क गतिविधि का विश्लेषण किया। इन्हें एक घंटे के लिए fMRI स्कैनर के अंदर ईईजी कैप पहनाकर सुलाया गया था। इस अवलोकन की तुलना ईईजी डैटा के साथ करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि नींद के विशिष्ट विद्युतीय पैटर्न fMRI से प्राप्त पैटर्न से मेल खाते हैं।
यह भी देखा गया कि पूरे मस्तिष्क में अलग-अलग स्थान और समय पर रक्त प्रवाह के अलग-अलग पैटर्न थे, जिससे लगता है कि कुछ हिस्से दूसरे हिस्सों की तुलना में पहले नींद में चले जाते हैं। उदाहरण के लिए, सबसे पहले थैलेमस वाले हिस्से में नींद से जुड़े रक्त प्रवाह पैटर्न दिखे। यह ईईजी डैटा के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों से मेल खाता है कि सोने की प्रक्रिया में थैलेमस वाला हिस्सा अन्य हिस्सों की तुलना में पहले सोता है।
प्रतिभागियों के जागने के दौरान मस्तिष्क की गतिविधि के अलग पैटर्न मिले। मसलन, संभवत: कॉर्टेक्स का अग्रभाग सबसे पहले जागता है। यह पूर्व निष्कर्षों से भिन्न है जो मूलत: जंतु अध्ययनों और सैद्धांतिक आधार पर निकाले गए थे। वैसे, सोंग स्वीकारती हैं कि fMRI स्कैनर के अंदर सोना अस्वाभाविक है और संभव है कि लोगों को बहुत हल्की नींद लगी हो जिसके कारण ऐसे अवलोकन मिले हैं। बहरहाल, नींद सम्बंधी विकारों पर हमारी समझ बनाने में fMRI तकनीक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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कई भोज्य पदार्थों को हम बंद आंखों से सूंघ कर भी पहचान जाते हैं। हमारे शरीर से भी लगातार नाना प्रकार की गंध निकलती हैं। जब मादा मच्छर किसी मनुष्य की तलाश में होती है तो वह मनुष्य के शरीर से निकलने वाली गंध के एक अनोखे मिश्रण को सूंघती हैं। गंध मच्छरों के स्पर्शक (एंटीना) में उपस्थित ग्राहियों को उत्तेजित करती है और मच्छर हमें अंधेरे में भी खोज लेते हैं। यदि मच्छरों में गंध के ग्राही ही न रहें तो क्या मच्छर इंसानों की गंध को नहीं सूंघ पाएंगे? तब क्या हमें मच्छरों और उनसे होने वाले रोगों से निजात मिल पाएगी?
हाल ही में वैज्ञानिकों ने मच्छरों पर ऐसे ही कुछ प्रयोग किए। उन्होंने मच्छरों के जीनोम (डीएनए) में से गंध संवेदी ग्राहियों के लिए ज़िम्मेदार पूरे जीन समूह को ही निकाल दिया। किंतु अनुमान के विपरीत पाया गया कि गंध संवेदी ग्राहियों के अभाव के बावजूद मच्छर हमें ढूंढकर काटने का तरीका ढूंढ लेते हैं। मानव शरीर की गर्मी भी उन्हें आकर्षित करती है।
अधिकांश जंतुओं के घ्राण (गंध संवेदना) तंत्र की एक तंत्रिका कोशिका केवल एक प्रकार की गंध का पता लगा सकती हैं। लेकिन एडीज एजिप्टी मच्छरों की केवल एक तंत्रिका कोशिका भी अनेक गंधों का पता लगा सकती है। इसका मतलब है कि यदि मच्छर की कोई तंत्रिका कोशिका मनुष्य-गंध का पता लगाने की क्षमता खो देती है, तब भी मच्छर मानव की अन्य गंधों को पहचानने की क्षमता से उन्हें खोज सकते हैं। हाल ही में शोधकर्ताओं के एक दल ने 18 अगस्त को सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि यदि मच्छर में मानव गंध का पता लगाने वाले कुछ जीन काम करना बंद भी कर दें तो भी मच्छर हमें सूंघ सकते हैं। अतः ज़रूरत हमें किसी ऐसी गंध की है जिसे मच्छर सूंघना पसंद नहीं करते हैं।
प्रभावी विकर्षक (रेपलेंट) मच्छरों को डेंगू और ज़ीका जैसे रोग पैदा करने वाले विषाणुओं को प्रसारित करने से रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण उपाय है। किसी भी अन्य जंतु की तुलना में मच्छर इंसानी मौतों के लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार हैं। जितना बेहतर हम मच्छरों को समझेंगे उतना ही बेहतर उनसे बचने के उपाय खोज सकेंगे।
मच्छर जैसे कीट अपने स्पर्शक और मुखांगों से सूंघते हैं। वे अपनी घ्राण तंत्रिका की कोशिकाओं में स्थित तीन प्रकार के सेंसर का उपयोग करके सांस से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड तथा अन्य रसायनों से मनुष्य का पता लगा लेते हैं।
पूर्व के शोधकर्ताओं ने सोचा था कि मच्छर के गंध ग्राही को अवरुद्ध करने से उनके मस्तिष्क को भेजे जाने वाले गंध संदेश बाधित हो जाएंगे और मच्छर मानव को गंध से नहीं खोज पाएंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ग्राही से वंचित मच्छर फिर भी लोगों को सूंघ सकते हैं और काटते हैं।
यह जानने के लिए रॉकफेलर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एडीज़ इजिप्टी नामक मच्छर की तंत्रिका कोशिकाओं में फ्लोरोसेंट लेबल जोड़े ताकि गंध को पहचानने की क्रियाविधि को समझा जा सके। हैरान करने वाली बात यह थी कि एक-एक घ्राण तंत्रिका कोशिका में कई प्रकार के सेंसर होते हैं और वे संवेदी केंद्रों के समान कार्य कर रहे थे।
वैज्ञानिकों ने मनुष्यों में पाए जाने वाले तथा मच्छरों को आकर्षित करने वाले विभिन्न रसायनों (ऑक्टेनॉल, ट्राइथाइल अमीन) के उपयोग से तंत्रिका कोशिका में विद्युत संकेत उत्पन्न किए जो एक-दूसरे से भिन्न थे।
यह स्पष्ट नहीं है कि लोगों की गंध का पता लगाने के लिए क्यों मच्छर अतिरिक्त तरीकों का उपयोग करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति की गंध दूसरे से अलग होती है। शायद इसलिए मानव की गंध को भांपने के लिए मच्छरों में यह तरीका विकसित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
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कोविड-19 महामारी को ढाई वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। अभी भी कई लोग ऐसे हैं जो या तो कभी संक्रमित नहीं हुए या उनमें संक्रमण अ-लक्षणी रहा था। इसके अलावा, कई संस्करण जांच में बच निकलते हैं, और कई कारक परीक्षण की सटीकता को प्रभावित करते हैं। लिहाज़ा, महामारी वैज्ञानिकों को महामारी के सामुदायिक प्रसार की निगरानी करने में काफी समस्याएं होती हैं।
आम तौर पर पूर्व संक्रमणों के परीक्षण के लिए एंटीबॉडीज़ की उपस्थिति की जांच की जाती है। ये एंटीबॉडी सार्स-कोव-2 वायरस के न्यूक्लियोकैप्सिड (N) प्रोटीन को लक्षित करते हैं (एंटी-N एंटीबॉडी)। वर्तमान टीके प्रतिरक्षा तंत्र को वायरस के स्पाइक (S) प्रोटीन पर हमला करने के लिए तैयार करते हैं (एंटी-S एंटीबॉडी)। यानी कुदरती एंटीबॉडी अलग होती हैं और टीकाजनित एंटीबॉडी अलग होती हैं। इनके आधार पर बताया जा सकता है कि किसी टीकाकृत व्यक्ति को संक्रमण हुआ था या नहीं। लेकिन एनल्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एंटीबॉडी परीक्षण पूर्व में कोविड-19 से संक्रमित टीकाकृत लोगों की गणना शायद 40 प्रतिशत तक कम करता है।
ऐसे में पूर्व में हुए सार्स-कोव-2 संक्रमण का पता लगाने का कोई विश्वसनीय तरीका होना चाहिए। इस विषय में ब्रिगहैम एंड वीमन हॉस्पिटल की संक्रामक रोग विशेषज्ञ लिंडसी बेडन ने कुछ प्रमुख समस्याएं बताई हैं।
पूर्व में हुए सार्स-कोव-2 संक्रमण के बारे में जानकारी होना महत्वपूर्ण है वायरस के संक्रमण और संचरण की गंभीरता को बेहतर ढंग से परिभाषित किया जा सके।
संक्रमण के बाद वायरस के पदचिन्हों का पता लगाने के लिए एंटी-N एंटीबॉडी जैसे आणविक चिन्हों का उपयोग किया जाता है। अधिकांश टीके स्पाइक प्रोटीन पर आधारित हैं। इस स्थिति में स्पाइक प्रोटीन के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्राकृतिक संक्रमण से भी मिल सकती है और टीकाकरण से भी। लेकिन न्यूक्लियोप्रोटीन के विरुद्ध प्रतिरक्षा केवल वायरस के संपर्क में आने से ही उत्पन्न होती है। अलबत्ता, यह बात वहां लागू नहीं होती जहां निष्क्रियकृत संपूर्ण वायरस आधारित टीकों का उपयोग किया गया है। ऐसे मामलों में कुछ एंटी-N एंटीबॉडी मौजूद होने की संभावना होती है।
पूर्व में हो चुके सार्स-कोव-2 संक्रमण का पता लगाने के लिए सीरोलॉजिकल परीक्षण के बारे में कुछ कहना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि हम सार्व-कोव-2 वायरस को पिछले ढाई साल से ही जानते हैं। अभी तक तो यह भी पता नहीं है कि प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया कितने समय तक सक्रिय रहती है। प्रतिरक्षा सम्बंधी विभिन्न कारकों को समझना अभी भी शोध का विषय है; जैसे यह समझना कि क्या टीकाकरण कुदरती प्रतिरक्षा को बदल देता है। वैसे तो प्राकृतिक संक्रमण के मामले में सामान्यत: एंटीबॉडीज़ एक या दो वर्षों में नष्ट जाती है लेकिन कुछ अध्ययन बताते हैं कि टीकाकरण से स्थिति बदल सकती है।
वैसे किसी व्यक्ति को पूर्व में सार्स-कोव-2 संक्रमण हुआ है या नहीं, यह जानने का सबसे विश्वसनीय तरीका एंटी-N एंटीबॉडी है। लेकिन यह भी पता चला है कि टीकाकृत लोगों में प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं होती है। ऐसी स्थिति में अन्य वायरल प्रोटीन, जो टीके का हिस्सा नहीं हैं, के विरुद्ध टी-कोशिका प्रतिक्रिया पर गौर किया जा सकता है। अलबत्ता, इसमें अन्य कोरोनावायरस से क्रॉस-रिएक्शन के बारे में सावधानी रखनी होगी और ऐसे जीन्स का चयन करना होगा जो सार्स-कोव-2 के लिए विशिष्ट हों। लेकिन अभी तक इस तरीके की पुष्टि नहीं की गई है और यह शोध का काफी अच्छा विषय है।
यानी अभी कोई यकीनी तरीका नहीं है। प्रयोगशाला की परिस्थिति में तो शायद उपरोक्त तरीका काम कर जाए लेकिन बड़ी आबादी के स्तर पर यह करना अंसभव होगा। एक समस्या यह भी है कि वायरस लगातार बदलता जा रहा है और हम उसके बारे में सीखने की अवस्था में हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://assets.bwbx.io/images/users/iqjWHBFdfxIU/iMZsC0LX5xtk/v1/-1x-1.jpg
कोई बहुत ही दिमाग खपाऊ काम करने का बाद अचानक कोई छोटी-मोटी बात ही याद नहीं रहती, जैसे नाश्ते में क्या खाया था या बाहर किस काम के लिए निकले थे। अब, एक अध्ययन बताता है कि घंटों तक कठिन दिमागी काम करने के बाद दिमाग क्यों जवाब दे जाता है – संभवत: ग्लूटामेट का विषाक्त मात्रा में निर्माण; ग्लूटामेट मस्तिष्क में प्रचुरता में पाया जाने वाला एक रासायनिक सिग्नल है।
मानसिक थकान की व्याख्या की यह पहली कोशिश नहीं है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना रहा है कि कठिन दिमागी कार्य करने में अधिक ऊर्जा खर्च होती है और ये मस्तिष्क को उसी तरह थका सकते हैं जैसे कठोर परिश्रम शरीर (मांसपेशियों) को थका देता है। कुछ वैज्ञानिक तो यह कहते हैं कि कृत्रिम मिठास वाली चीज़ें खाने-पीने की बजाय असली चीनी युक्त चीज़ें लेना दिमाग को पैना कर सकता है। लेकिन व्याख्या की कोशिश जारी है।
ऐसे ही एक प्रयास में पैरिस विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी एंटोनियस वाइलर और उनके साथियों ने मानसिक थकान से सम्बंधित व्यवहार – जैसे आसान और त्वरित संतुष्टि तलाशना या तैश में आकर निर्णय लेना – और ग्लूटामेट के स्तर के बीच सम्बंध पर ध्यान दिया। आम तौर पर ग्लूटामेट न्यूरॉन्स को उत्तेजित करता है। यह सीखने और स्मृति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। लेकिन इसकी अत्यधिक मात्रा मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को तबाह कर सकती है – इसके कारण कोशिका मृत्यु से लेकर दौरे पड़ने तक की समस्या हो सकती है।
ग्लूटामेट के स्तर पर निगरानी रखने के लिए शोधकर्ताओं ने एमआरआई तकनीक का उपयोग किया जिसके लिए दिमाग में सुई वगैरह नहीं चुभोनी पड़ती है। चूंकि मस्तिष्क का लेटरल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स वाला हिस्सा एकाग्रचित्त होने और योजना बनाने में मदद करता है इसलिए अध्ययन में मस्तिष्क के इसी हिस्से पर ध्यान केंद्रित किया गया। देखा गया है कि जब व्यक्ति मानसिक रूप से थक जाता है तो यह हिस्सा सुस्त हो जाता है।
अध्ययन में शामिल 39 प्रतिभागियों को शोधकर्ताओं ने दो समूहों में बांटा। एक समूह को मानसिक रूप से थकाने वाले मुश्किल कार्य दिए। इस समूह को एक तो यह बताना था कि कंप्यूटर स्क्रीन पर तेज़ी से सिलसिलेवार आते अक्षर हरे रंग के थे या लाल, अपरकेस (केपिटल) थे या लोअरकेस वगैरह। दूसरा उन्हें बताना था कि स्क्रीन पर दिखाई गई संख्या तीन कदम पहले दिखाए गए अक्षर से मेल खाती है या नहीं। प्रयोग लगभग 6 घंटे चला। दूसरे समूह के प्रतिभागियों को इन्हीं कार्यों के आसान संस्करण दिए गए थे।
प्रयोग के दौरान समय बीतने के साथ शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों की संज्ञानात्मक थकान को कई बार मापा। इसके लिए उन्हें ऐसे विकल्पों में से चुनने का कहा गया जिनमें संयम की ज़रूरत पड़ती है – जैसे उन्हें चुनना था कि तत्काल मिलने वाले पैसे न लेकर बाद में कहीं ज़्यादा पैसे लें। शोधकर्ताओं ने पाया कि आसान कार्य वाले समूह की तुलना में कठिन कार्य वाले समूह ने लगभग 10 प्रतिशत अधिक बार आवेगपूर्ण निर्णय किए। साथ ही साथ, उनके लेटरल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में ग्लूटामेट का स्तर लगभग 8 प्रतिशत बढ़ गया था। ‘आसान-कार्य’ समूह में ऐसा पैटर्न दिखाई नहीं दिया। नतीजे करंट बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं।
हालांकि अभी यह नहीं कहा जा सकता कि अत्यधिक दिमागी काम से मस्तिष्क में ग्लूटामेट का विषाक्त स्तर पर निर्माण होता है। लेकिन अगर ऐसा होता है तो यह नींद की ताकत को रेखांकित करता है, जो अपशिष्ट पदार्थों को बाहर निकालकर मस्तिष्क को ‘साफ’ करती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि मस्तिष्क के प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में ग्लूटामेट के स्तर के आधार पर भारी थकान और अवसाद या कैंसर जैसी स्थितियों में स्वास्थ्य लाभ की निगरानी की जा सकती है।
कई शोधकर्ताओं को संदेह है कि मस्तिष्क में एकत्रित अपशिष्ट इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते होंगे। संभवत: ग्लूटामेट शरीर के अन्य कार्यों के समन्वय में भूमिका निभाता हो। लेकिन यदि ग्लूटामेट की ऐसी भूमिका की पुष्टि होती है तो औषधियों के विकास में मदद मिलने की उम्मीद है।
बहरहाल, इस अध्ययन ने मानसिक थकान और ग्लूटामेट की भूमिका को लेकर बहस गर्मा दी है। आगे के अध्ययन स्थिति को और स्पष्ट कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.wikihow.com/images/thumb/3/3a/What-Is-Glutamate-Step-1.jpg/v4-460px-What-Is-Glutamate-Step-1.jpg.webp
देश आज़ादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस अवसर पर प्रतिष्ठित स्वास्थ्य पत्रिका दी लैंसेट के संपादकीय में भारत की स्वास्थ्य प्रणाली के पुनर्गठन पर दी लैंसेट नागरिक आयोग की रिपोर्ट पर चर्चा हुई है और विक्रम पटेल की टिप्पणी प्रकाशित की गई है। विक्रम पटेल पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया सहित कई स्वास्थ्य संस्थाओं से सम्बद्ध रहे हैं और हारवर्ड मेडिकल स्कूल के डिपार्टमेंट ऑफ ग्लोबल हेल्थ एंड सोशल मेडिसिन में प्रोफेसर हैं।
संपादकीय कहता है कि यद्यपि भारत में स्वतंत्रता के बाद शिशु मृत्यु दर जैसे कई स्वास्थ्य संकेतकों में पर्याप्त सुधार दिखा है लेकिन कई अन्य क्षेत्रों में प्रगति नाकाफी रही है। इस मामले में राज्यों और क्षेत्रों की स्थिति भी काफी अलग-अलग है। वर्तमान प्रधान मंत्री का दृष्टिकोण है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत एक बड़ी भूमिका निभाए, और वह अधिक कुशल, प्रतिस्पर्धी और लचीला बने। 2020 में राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने कहा था कि यदि देश खुद को ‘आत्मनिर्भर’ बना लेता है तो 21वीं सदी भारत की हो सकती है।
लेकिन इन महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए भारत को अपने नागरिकों की स्वास्थ्य और विकास सम्बंधी ज़रूरतों पर ध्यान देना होगा। करोड़ों भारतीय अब भी गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित हैं। सुर्खियां बटोरने वाली नीतियों के बावजूद राज्य व उसके नेतागण बड़ी संख्या में अपने नागरिकों तक नहीं पहुंच सके हैं।
कोविड-19 ने भारत की कई क्षमताओं और कमज़ोरियों को उजागर किया। कोविड-19 से बुरी तरह प्रभावित होने वाले देशों में भारत एक था। इतने बड़े पैमाने पर फैली महामारी का प्रबंधन करने के लिए स्वास्थ्य प्रणाली बिल्कुल तैयार नहीं थी और आवश्यक सुविधाओं/उपकरणों का अभाव था। महामारी के कारण सामान्य टीकाकरण, पोषण कार्यक्रम और गैर-संचारी रोगों की निगरानी जैसी स्वास्थ्य सेवाओं में आए व्यवधान के बाद अब बहाली योजनाओं की तत्काल आवश्यकता है।
देखा जाए तो भारत का कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम सफल रहा है और साथ-साथ डिजिटल प्रौद्योगिकी और टेलीमेडिसिन का विकास भी हुआ है जिसके चलते देश के कई इलाकों में स्वास्थ्य सुविधा पहुंचाने और निगरानी करने में मदद मिली है। सरकार अब स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे को विस्तार देने पर ध्यान दे रही है।
2018 के बाद से 1,20,000 से अधिक स्वास्थ्य और वेलनेस केंद्र खोले गए हैं जो प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं देते हैं। साल के अंत तक 1,50,000 केंद्र और तैयार हो जाएंगे। अलबत्ता समय ही बताएगा कि क्या ये केंद्र वाकई स्वास्थ्य में सुधार कर पाएंगे। सबसे बड़ी चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि इन केंद्रों में स्वास्थ्य देखभाल कार्यकर्ता मौजूद हों। 2014 से 2022 के बीच चिकित्सा में स्नातक पदों में 75 प्रतिशत और स्नातकोत्तर पदों में 93 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन यह सुनिश्चित करने में समय लगेगा कि चिकित्सा केंद्रों में पर्याप्त पेशेवर कामकाजी चिकित्सक उपलब्ध हों। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त गैर-चिकित्सक स्वास्थ्य देखभाल प्रदाताओं को प्रशिक्षित करना भी ज़रूरी है।
भारत में लिंग-भेद अब भी स्वास्थ्य और विकास में एक बड़ी बाधा है। लड़कियों (महिलाओं) के जीवित रहने में दिक्कतें और लैंगिक भेदभाव बरकरार है। कुपोषण और एनीमिया बहुत अधिक हैं और पूरक आहार कार्यक्रमों के बावजूद स्थिति में बहुत सुधार नहीं हुआ है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच कम है और श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में काफी गिरावट आई है। घरेलू हिंसा, बाल विवाह और स्कूल ड्रॉपआउट जैसे क्षेत्रों में जो तरक्की हुई थी वह महामारी के कारण पलट गई है।
आंकड़े बताते हैं कि बढ़ते एकल परिवार वाले समाज में खासी संख्या में बुज़ुर्ग महिलाओं – खास कर विधवा और अकेली महिलाओं – के पास सामाजिक सुरक्षा नहीं है। इन लैंगिक पूर्वाग्रहों को पलटने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत मानदंडों में व्यापक बदलाव की ज़रूरत होगी। महिलाओं की स्वायत्तता को बेहतर बनाने के लिए बहुक्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाना महत्वपूर्ण है जिसमें शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, पानी और स्वच्छता के साथ-साथ श्रम और रोज़गार जैसे क्षेत्र शामिल हों। लेकिन ऐसे राजनैतिक माहौल में कुछ भी नहीं बदलने वाला, जो इस अंतर को स्वीकार तक नहीं करता, इसे पाटने के लिए काम करने की बात तो छोड़ ही दें।
वर्ष 2023 के दौरान भारत शायद दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। युवा आबादी बढ़ने से जनांकिक लाभ मिला है, लेकिन अब प्रजनन दर थम रही है। नतीजतन, भारत के पास परिस्थिति से लाभ उठाने का सीमित समय है। और लाभ उठाने के लिए अपने लोगों के स्वास्थ्य और खुशहाली में निवेश की आवश्यकता होती है। मात्र राष्ट्रवादी आव्हानों से और ऐसी लुभावनी स्वास्थ्य देखभाल नीतियों से काम नहीं चलेगा जिनमें जवाबदेही का अभाव हो। सरकार को सभी नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य देखभाल के अधिकार की रक्षा करनी होगी। सरकार को स्वास्थ्य में उपचार से रोकथाम के उपायों की ओर बढ़ना चाहिए। सिविल सोसायटी की भूमिका को अंगीकार करने की ज़रूरत है। युवाओं में निवेश करना चाहिए ताकि वे अर्थव्यवस्था और समाज में पूर्ण भागीदारी कर सकें। ज़रूरतमंदों के लिए सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। सरकार को स्वास्थ्य के सामाजिक, राजनीतिक, वाणिज्यिक और सांस्कृतिक निर्धारकों को संबोधित करना होगा और यह स्वीकार करना होगा कि जब तक प्रत्येक भारतीय – लिंग, जाति, वर्ग, धर्म या क्षेत्र से स्वतंत्र – राज्य के समर्थन से सक्षम नहीं बनता और अपनी पूरी संभावनाओं को साकार नहीं करता, तब तक वैश्विक शक्ति बनने की उम्मीद एक मरीचिका ही रहेगी। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 1960 में दंत चिकित्सकों के एक समूह ने एक दिलचस्प अध्ययन प्रकाशित किया था: जब उन्होंने ऑपरेशन के दौरान अपने मरीज़ों के लिए संगीत बजाया, तो मरीज़ों को दर्द का कम अहसास हुआ। कुछ मरीज़ों को तो नाइट्रस ऑक्साइड (लॉफिंग गैस) या लोकल निश्चेतक देने की भी ज़रूरत नहीं पड़ी। अब चूहों पर हुए एक अध्ययन ने स्पष्ट किया है कि यह क्यों काम करता है।
दरअसल 1960 के उपरोक्त अध्ययन के बाद से कई वैज्ञानिक मोज़ार्ट से लेकर माइकल बोल्टन तक के संगीत का निश्चेतक प्रभाव जानने के लिए अध्ययन करते रहे हैं। एक अध्ययन में पाया गया था कि फाइब्रोमाएल्जिया के मरीज़ों को उनका पसंदीदा संगीत सुनते समय कम दर्द होता था।
संगीत दर्द में क्यों राहत देता है, इसे बेहतर समझने के लिए यू.एस. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डेंटल एंड क्रेनियोफेशियल रिसर्च के न्यूरोबायोलॉजिस्ट युआनयुआन लियू और उनके साथियों ने चूहों की ओर रुख किया। उन्होंने एक कमरे में कृन्तकों को दिन में 20 मिनट (कम से कम मनुष्यों के लिए) सुखद सिम्फोनिक संगीत – बाक का रेजॉइसेंस – 50 या 60 डेसिबल पर सुनाया, और पृष्ठभूमि का शोर 45 डेसिबल के आसपास था।
इन सत्रों के दौरान, शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजे में एक दर्दनाक रसायन प्रविष्ट किया। फिर, उन्होंने अलग-अलग तीव्रता से पतला तार पंजे पर चुभाया और कृन्तकों की प्रतिक्रिया देखी। शोधकर्ताओं का मानना था कि यदि वे छटपटाते, चाटते, या अपना पंजा वापस खींचते हैं तो वे दर्द महसूस कर रहे हैं।
अध्ययन में उन्होंने पाया कि केवल धीमी आवाज़ (50 डेसिबल) पर ध्वनि ने चूहों को सुन्न कर दिया था। जब शोधकर्ताओं ने उनके सूजे हुए पंजे को तार से चुभाया, तो चूहे छटपटाए नहीं। दूसरी ओर, तेज़ आवाज़ में चूहे अधिक संवेदनशील दिखे – उन्होंने सिर्फ एक तिहाई दबाव पर ही काफी तेज़ प्रतिक्रिया दी। ठीक इसी तरह की प्रतिक्रिया संगीत की अनुपस्थिति में भी देखी गई।
शोधकर्ताओं ने कर्कश संगीत (रेजॉइसेंस को अप्रिय ध्वनि में बदलकर) और मिश्रित शोर के साथ भी परीक्षण किया। साइंस पत्रिका में उन्होंने बताया है कि पृष्ठभूमि के शोर से थोड़ा तेज़ बजाने पर ये सभी ध्वनियां दर्द को दबा सकती हैं। लगता है कि ध्वनि की तीव्रता ही महत्वपूर्ण है।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के श्रवण कॉर्टेक्स (मस्तिष्क का ध्वनि प्रसंस्करण क्षेत्र) में लाल फ्लोरोसेंट रंग प्रविष्ट किया और फिर उपरोक्त अध्ययन दोहराया। उन्होंने पाया कि संवेदनाओं के प्रसंस्करण केंद्र थैलेमस के कुछ घने क्षेत्रों में अत्यधिक फ्लोरोसेंस है, जिससे लगता है कि इस क्षेत्र और श्रवण कॉर्टेक्स के बीच की कड़ियां दर्द को दबाने में भूमिका निभाती हैं। इसके बाद शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क में छोटे इलेक्ट्रोड लगाए और पाया कि अपेक्षाकृत मद्धिम ध्वनियों ने श्रवण कॉर्टेक्स से निकलने वाले संकेतों को कम कर दिया था। जब श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच सम्बंध को अवरुद्ध किया गया, तो चूहों को कम दर्द महसूस हुआ।
कुल मिलाकर टीम ने पाया कि मंद आवाजें श्रवण कॉर्टेक्स और थैलेमस के बीच संकेतों को बोथरा कर देती हैं, जिससे थैलेमस में दर्द प्रसंस्करण कम होता है। यह प्रभाव चूहों को संगीत सुनाना बंद करने के दो दिन बाद तक रहता है।
इस अध्ययन से कुछ सुराग तो मिले हैं लेकिन मनुष्यों पर अध्ययन की ज़रूरत है। लेकिन चूहों की तरह मानव मस्तिष्क में कुछ प्रविष्ट नहीं किया जा सकता, इसलिए संगीत बजाकर एमआरआई से उनकी थैलेमस गतिविधि पर नज़र रखना होगी।
कई लोगों को शायद लगेगा कि दर्द से राहत पाने के लिए मोज़ार्ट का संगीत सुनना चाहिए लेकिन अध्ययन से स्पष्ट है कि मंद आवाज़ में कोई भी शोर दर्द से राहत दे सकता है।
बहरहाल, मनुष्यों को राहत मिले ना मिले, लेकिन ये तरीका प्रयोगों के दौरान कृन्तकों को होने वाले दर्द को कम करने का एक सस्ता और आसान तरीका हो सकता है। चूहों पर इस तरह के प्रयोग चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। (स्रोत फीचर्स)
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