हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने कोविड-19 महामारी की उत्पत्ति की जांच के लिए एक नई पैनल गठित की है। साइंटिफिक एडवायज़री
ग्रुप ऑन दी ओरिजिंस ऑफ नावेल पैथोजेंस (एसएजीओ) नामक इस टीम को भविष्य के प्रकोपों और महामारियों की उत्पत्ति
तथा उभरते रोगजनकों के अध्ययन के लिए सुझाव देने का भी काम सौंपा गया है।
एसएजीओ में 26 देशों के 26 शोधकर्ताओं को शामिल किया गया है। 6 सदस्य पूर्व अंतर्राष्ट्रीय टीम का भी हिस्सा रहे हैं जिसने सार्स-कोव-2 की प्राकृतिक
उत्पत्ति का समर्थन किया था। गौरतलब है कि डबल्यूएचओ ने 700 से अधिक आवेदनों में से इन सदस्यों का चयन किया है और औपचारिक घोषणा 2 सप्ताह बाद की जाएगी।
वैश्विक स्वास्थ्य की विशेषज्ञ और जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वकील एलेक्ज़ेंड्रा
फेलन इस टीम को एक प्रभावशाली समूह के रूप में देखती हैं लेकिन मानती हैं कि महिलाओं
की भागीदारी अधिक होनी चाहिए थी। साथ ही उनका मत है कि पैनल में नैतिकता और समाज शास्त्र
के विशेषज्ञों का भी अभाव है।
उत्पत्ति सम्बंधी डबल्यूएचओ का पूर्व अध्ययन राजनीति, हितों के टकराव और अपुष्ट सिद्धांतों के चलते भंवर में उलझा था। ऐसी ही दिक्कतें
पिछले प्रकोपों की जांच के दौरान भी उत्पन्न हुई थीं। डबल्यूएचओ को उम्मीद है कि एक
स्थायी पैनल गठित करने से कोविड-19 के स्रोत
पर चल रही तनाव की स्थिति में कमी आएगी और भविष्य के रोगजनकों की जांच अधिक सलीके से
हो सकेगी। संगठन का उद्देश्य इसे राजनीतिक बहस से दूर रखते हुए वैज्ञानिक बहस की ओर
ले जाना है।
मोटे तौर पर एसएजीओ का ध्यान इस बात पर होगा कि खतरनाक रोगजनक जीव कब, कहां और कैसे मनुष्यों को संक्रमित करते हैं, कैसे इनके प्रसार को कम किया जा सकता है और प्रकोप का रूप लेने
से रोका जा सकता है। एसएजीओ के विचारार्थ मुद्दों में वर्तमान महामारी की उत्पत्ति
के बारे में उपलब्ध सबूतों का स्वतंत्र मूल्यांकन और आगे के अध्ययन के लिए सलाह देना
शामिल है।
इसके चलते तनाव की स्थिति भी बन सकती है। डबल्यूएचओ के प्रारंभिक मिशन का निष्कर्ष
था कि नए कोरोनावायरस की प्रयोगशाला में उत्पत्ति संभव नहीं है और इस विषय में आगे
जांच न करने की भी बात कही गई थी। लेकिन डबल्यूएचओ के निदेशक टेड्रोस ने इस निष्कर्ष
को “जल्दबाज़ी” बताया था। यानी पैनल को प्रयोगशाला उत्पत्ति पर विचार करना होगा। इससे टकराव की
स्थिति उत्पन्न हो सकती है। चीन पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि भविष्य में वह ऐसी किसी
जांच में सहयोग नहीं करेगा।
बहरहाल, एसएजीओ को उत्पत्ति सम्बंधी अध्ययन को वापस
उचित दिशा देने का मौका है। यदि इसकी संभावना नहीं होती तो एसएजीओ की स्थापना ही क्यों
की जाती। डबल्यूएचओ के प्रारंभिक मिशन से जुड़े कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह काफी महत्वपूर्ण
है कि एसएजीओ की स्थापना से ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले स्वतंत्र समूहों के काम में
बाधा नहीं आनी चाहिए जो किसी प्रकोप के उभरने के बाद तुरंत जांच में लग जाते हैं। संभावना
है कि पैनल कई अलग-अलग समूहों को भी अपने साथ
शामिल कर सकती है जो अलग-अलग परिकल्पनाओं
की छानबीन तथा पहली समिति द्वारा सुझाए गए अध्ययनों को आगे बढ़ा सकते हैं।
एसएजीओ के पास कई रास्ते हैं – वुहान और
उसके आसपास के बाज़ारों में बेचे जाने वाले वन्यजीवों और चीन तथा दक्षिण पूर्वी एशिया
के चमगादड़ों में सार्स वायरस का अध्ययन; चीन में
दिसंबर 2019 से पहले पाए गए मामलों की जांच; और वुहान और आसपास के क्षेत्रों के ब्लड बैंकों में 2019 से संग्रहित रक्त नमूनों का विश्लेषण और मौतों का विस्तृत अध्ययन।
डबल्यूएचओ की प्रथम समिति ने वुहान के ब्लड बैंकों में संग्रहित 2 लाख नमूनों की जांच का सुझाव दिया था। इनमें से कुछ नमूने तो
दिसंबर 2019 के भी पहले के हैं। चीन ने वायदा
किया है कि वह उन नमूनों के विश्लेषण से प्राप्त निष्कर्षों को साझा करेगा लेकिन कुछ
कानूनी कारणों से नमूनों की संग्रह तिथि के 2 वर्ष बाद तक जांच नहीं की जा सकती। संभावना है कि 2 वर्ष की अवधि पूरे होते ही जांच शुरू कर दी जाएगी।
एक बात तो स्पष्ट है कि एसएजीओ को काम करने के लिए राष्ट्रों, मीडिया और आम जनता का सहयोग ज़रूरी है। यह हमारे पार वायरस की उत्पत्ति को जानने का शायद आखिरी मौका हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.chula.ac.th/wp-content/uploads/2021/10/2021-10_ENG_WHO-Proposes-26-Scientists-to-study-COVID-origin.jpg
हाल ही में वैज्ञानिकों को लाओस में चमगादड़ों में तीन ऐसे
वायरस मिले हैं जो किसी ज्ञात वायरस की तुलना में सार्स-कोव-2 से अधिक मेल खाते
हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इस वायरस के जेनेटिक कोड के कुछ हिस्सों का अध्ययन करने
से पता चला है कि सार्स-कोव-2 वायरस प्राकृतिक रूप से उत्पन्न हुआ है। साथ ही इस
खोज से यह खतरा भी सामने आया है कि मनुष्यों को संक्रमित करने की क्षमता वाले कई
अन्य कोरोनावायरस मौजूद हैं।
वैसे प्रीप्रिंट सर्वर रिसर्च स्क्वेयर में प्रकाशित इस अध्ययन की
समकक्ष समीक्षा फिलहाल नहीं हुई है। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इस वायरस में पाए
जाने वाले रिसेप्टर बंधन डोमेन लगभग सार्स-कोव-2 के समान होते हैं जो मानव
कोशिकाओं को संक्रमित करने में सक्षम होते हैं। रिसेप्टर बंधन डोमेन सार्स-कोव-2
को मानव कोशिकाओं की सतह पर मौजूद ACE-2 नामक ग्राही से जुड़कर उनके
भीतर प्रवेश करने की अनुमति देते हैं।
पेरिस स्थित पाश्चर इंस्टीट्यूट के वायरोलॉजिस्ट मार्क एलियट और फ्रांस तथा
लाओस में उनके सहयोगियों ने उत्तरी लाओस की गुफाओं से 645 चमगादड़ों की लार, मल और मूत्र के नमूने प्राप्त किए। चमगादड़ों की तीन हॉर्सशू (राइनोलोफस)
प्रजातियों से प्राप्त वायरस सार्स-कोव-2 से 95 प्रतिशत तक मेल खाते हैं। इन
वायरसों को BANAL-52,
BANAL-103 और BANAL-236 नाम दिया गया है।
युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के वायरोलॉजिस्ट एडवर्ड होम्स के अनुसार जब सार्स-कोव-2
को पहली बार अनुक्रमित किया गया था तब रिसेप्टर बंधन डोमेन के बारे में हमारे पास
पहले से कोई जानकारी नहीं थी। इस आधार पर यह अनुमान लगाया गया था कि इस वायरस को
प्रयोगशाला में विकसित किया गया है। लेकिन लाओस से प्राप्त कोरोनावायरस पुष्टि
करते हैं कि सार्स-कोव-2 में ये डोमन प्राकृतिक रूप से उपस्थित रहे हैं। देखा जाए
तो थाईलैंड,
कम्बोडिया और दक्षिण चीन स्थित युनान में पाए गए
सार्स-कोव-2 के निकटतम सम्बंधित वायरसों पर किए गए अध्ययन इस बात के संकेत देते हैं
कि दक्षिणपूर्वी एशिया सार्स-कोव-2 सम्बंधित विविध वायरसों का हॉटस्पॉट है।
इस अध्ययन में एक कदम आगे जाते हुए एलियट और उनकी टीम ने प्रयोगों के माध्यम
से यह बताया कि इन वायरसों के रिसेप्टर बंधन डोमेन मानव कोशिकाओं पर उपस्थित ACE-2 रिसेप्टर से उतनी ही कुशलता से जुड़ सकते हैं जितनी कुशलता से सार्स-कोव-2 के
शुरुआती संस्करण जुड़ते थे। शोधकर्ताओं ने BANAL-236 को
कोशिकाओं में कल्चर किया है जिसका उपयोग वे जीवों में वायरस के प्रभाव को समझने के
लिए करेंगे।
गौरतलब है कि पिछले वर्ष शोधकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 के एक निकटतम सम्बंधी RaTG13 का भी पता लगाया था जो युनान के चमगादड़ों में पाया गया था। यह वायरस
सार्स-कोव-2 से 96.1 प्रतिशत तक मेल खाता है जिससे यह कहा जा सकता है कि 40 से 70
वर्ष पूर्व इन दोनों वायरसों का एक साझा पूर्वज रहा होगा।
एलियट के अनुसार BANAL-52 वायरस सार्स-कोव-2 से 96.8 प्रतिशत तक
मेल खाता है। एलियट के अनुसार खोज किए गए तीन वायरसों में अलग-अलग वर्ग हैं जो
अन्य वायरसों की तुलना में सार्स-कोव-2 के कुछ भागों से अधिक मेल खाते हैं। गौरतलब
है कि वायरस एक दूसरे के साथ RNA के टुकड़ों की अदला-बदली करते
रहते हैं।
हालांकि, इस अध्ययन से महामारी के स्रोत के बारे में काफी जानकारी प्राप्त हुई है लेकिन इसमें कुछ कड़ियां अभी भी अनुपस्थित हैं। जैसे कि लाओस वायरस के स्पाइक प्रोटीन पर तथाकथित फ्यूरिन क्लीवेज साइट नहीं है जो मानव कोशिकाओं में सार्स-कोव-2 या अन्य कोरोनावायरसों को प्रवेश करने में सहायता करती हैं। यह भी स्पष्ट नहीं है कि वायरस वुहान तक कैसे पहुंचे जहां कोविड-19 के पहले ज्ञात मामले की जानकारी मिली थी। क्या यह वायरस किसी मध्यवर्ती जीव के माध्यम से वहां पहुंचा था? इसका जवाब तो दक्षिण-पूर्वी एशिया में चमगादड़ों व अन्य वन्यजीवों के नमूनों के विश्लेषण से ही मिल सकता है जिस पर कई शोध समूह कार्य कर रहे हैं। प्रीप्रिंट में एक और अध्ययन प्रकाशित हुआ है जो पूर्व में चीन में किया गया था। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 2016 और 2021 के बीच 13,000 से अधिक चमगादड़ों के नमूनों पर अध्ययन किया था जिनमें से सार्स-कोव-2 वायरस के किसी भी निकट सम्बंधी की जानकारी प्राप्त नहीं हुई थी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि इस वायरस के वाहक चमगादड़ों की संख्या चीन में काफी कम है। इस पर भी कई अन्य शोधकर्ताओं ने असहमति जताई है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202109/bats_1.jpg?EloAEXKc2NQKe9m1i5RY5pxNS32YpMzc&size=1200:675
हाल ही में हुए अध्ययन के आधार पर ज्यूरिख विश्वविद्यालय में वैकासिक
जीवविज्ञान और पर्यावरण अध्ययन विभाग में कार्यरत जोर्डी बसकोम्प्टे बताते हैं कि जब
भी कोई भाषा विलुप्त होती है तो उसके साथ उसके विचारों की अभिव्यक्ति चली जाती है, वास्तविकता को देखने का, प्रकृति के साथ जुड़ने का, जानवरों
और पौधों के वर्णन करने का और उन्हें नाम देने का एक तरीका गुम हो जाता है।
एथ्नोलॉग परियोजना के अनुसार, दुनिया
की मौजूदा 7,000 से अधिक भाषाओं में से लगभग 42 प्रतिशत पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। भाषा अनुसंधान की
गैर-मुनाफा संस्था एसआईएल इंटरनेशनल के अनुसार, सन 1500 में पुर्तगालियों
के ब्राज़ील आने के पहले ब्राज़ील में बोली जाने वाली 1000 देशज भाषाओं में से अब सिर्फ 160 ही जीवित
बची हैं।
वर्तमान में बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर दवाएं – एस्पिरिन से लेकर से लेकर मॉर्फिन तक – औषधीय पौधों से प्राप्त की जाती हैं। एस्पिरिन व्हाइट विलो (सेलिक्स अल्बा) नामक पौधे से प्राप्त की जाती है और मॉर्फिन खसखस (पेपावर सोम्निफेरम) से निकाला
जाता है।
शोधकर्ता बताते हैं कि स्थानिक या देशज समुदायों में पारंपरिक ज्ञान का अगली पीढ़ी
में हस्तांतरण मौखिक रूप से किया जाता है, इसलिए इन भाषाओं के विलुप्त होने के साथ औषधीय पौधों के बारे में पारंपरिक ज्ञान
और जानकारियों का यह भंडार भी लुप्त हो जाएगा। जिससे भविष्य में औषधियों की खोज की
संभावना कम हो सकती है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 12,495 औषधीय उपयोगों
वाली 3,597 वनस्पति प्रजातियों का विश्लेषण
किया और पाया कि औषधीय पौधों के औषधीय उपयोग या गुणों की 75 प्रतिशत जानकारी सिर्फ एक ही एक भाषा में है। और अद्वितीय ज्ञान वाली ये भाषाएं
और साथ में उस भाषा से जुड़ा ज्ञान भी विलुप्त होने की कगार पर हैं।
यह दोहरी समस्या विशेष रूप से उत्तर-पश्चिमी
अमेज़ॉन में दिखी है। 645 पौधों और 37 भाषाओं में इन पौधों के मौखिक तौर पर बताए जाने वाले औषधीय उपयोग
के मूल्यांकन में पाया गया कि इनके औषधीय उपयोग का 91 प्रतिशत ज्ञान सिर्फ एक ही एक भाषा में मौजूद है।
इसके अलावा, इन औषधीय प्रजातियों की विलुप्ति के जोखिम का
अध्ययन करने पर पाया गया कि अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने उत्तरी
अमेरिका और उत्तर-पश्चिमी अमेज़ॉन में लुप्तप्राय
भाषाओं से जुड़े क्रमश: 64 प्रतिशत
और 69 प्रतिशत पौधों की संकटग्रस्त स्थिति
का मूल्यांकन ही नहीं किया है। मूल्यांकन न होने के कारण क्रमश: चार प्रतिशत और एक प्रतिशत से कम प्रजातियां ही वर्तमान में
संकटग्रस्त घोषित हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पौधों की इन प्रजातियों का आईयूसीएन
आकलन तत्काल आवश्यक है।
अध्ययन यह भी बताता है कि जैव विविधता के ह्रास की तुलना में भाषाओं के विलुप्त
होने का औषधीय ज्ञान खत्म होने पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। सांस्कृतिक विरासत को बनाए रखना
भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना पौधों को बचाना। हम प्रकृति और संस्कृति के बीच के
सम्बंध को अनदेखा नहीं कर सकते, सिर्फ पौधों
के बारे में या सिर्फ संस्कृति के बारे में नहीं सोच सकते।
एक उदाहरण औपनिवेशिक काल के बाद ब्राज़ील में देखने को मिलता है। ब्राज़ील में
अभिभावक अपने बच्चों की सामाजिक सफलता के लिए स्थानिक भाषाएं बोलना छोड़ औपनिवेशिक काल
से प्रभावी रहीं पुर्तगाली और स्पेनिश भाषा को अपनाने लगे। भाषाविद किसी भाषा को विलुप्ति
के जोखिम में तब मानते हैं जब अभिभावक अपने बच्चों के साथ अपनी मातृभाषा में बात करना
बंद कर देते हैं।
ब्राज़ील में जब हम संरक्षण की बात करते हैं तो इसमें स्थानीय स्कूल महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते दिखते हैं। गांवों में स्थित स्थानीय स्कूलों में बच्चे पुर्तगाली और
समुदाय की अपनी भाषा दोनों में सीखते हैं। कारितियाना समुदाय की संस्कृति को संरक्षित
करने की एक शुरुआत ब्राज़ील में हुई। इस परियोजना की शुरुआत कारितियाना भाषा में संरक्षित
पौधों और जानवरों की सूची बनाने और जानकारी दर्ज करने के साथ हुई। दस्तावेज़ीकरण की
इस प्रक्रिया में समुदाय के बुज़ुर्ग, मुखिया, संग्रहकर्ता और शिक्षक शामिल थे जिन्होंने अमेज़ॉन की जैव विविधता
का पारंपरिक ज्ञान दर्ज किया।
इसी तरह, बाहिया और उत्तरी मिनस गेरैस में शोधकर्ताओं
के एक समूह ने पेटाक्सो भाषा का अध्ययन कर पुनर्जीवित किया जिसे वर्षों से लुप्त माना
जा रहा था। पेटाक्सो युवाओं और शिक्षकों के साथ मिलकर शोधकर्ताओं ने दस्तावेज़ों का
अध्ययन किया और साथ में फील्डवर्क भी किया। पेटाक्सो भाषा अब कई गांवों में पढ़ाई जा
रही है।
दुनिया भर में देशज या स्थानिक समुदायों की भाषाओं को संरक्षित करने, पुनर्जीवित करने और बढ़ावा देने के लिए युनेस्को ने 2022-2032 को देशज भाषा कार्रवाई दशक घोषित किया है। बेसकोम्प्टे कहते हैं कि अंग्रेज़ी के बाहर भी जीवन है। जिन भाषाओं को हम भूल जाते हैं या ध्यान नहीं देते वे भाषाएं उन गरीब या अनजान लोगों की हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर किसी भूमिका में नहीं दिखते हैं। सांस्कृतिक विविधता के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://imgs.mongabay.com/wp-content/uploads/sites/20/2021/09/20162313/5391247104_27177bfe7b_c-768×512.jpg https://www.pnas.org/content/pnas/118/24/e2103683118/F1.large.jpg
इस वर्ष कोविड-19 टीकों को नोबेल पुरस्कार मिलने की अपेक्षा की जा रही थी। लेकिन नोबेल समिति ने
विश्व भर में अनगिनत लोगों की जान बचाने वाले टीकों पर किए गए शोध कार्य पर विचार नहीं
किया। हर बार की तरह इस बार भी विज्ञान में बुनियादी शोध को पुरस्कृत किया गया। इस
निर्णय पर कई वैज्ञानिकों ने आश्चर्य और निराशा व्यक्त की है, खासकर mRNA तकनीक का
उपयोग करते हुए एक नए प्रकार के टीके विकसित करने से सम्बंधित शोध को शामिल न करने
पर।
इस विषय में सीएटल स्थित युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के कोशिका जीव विज्ञानी एलेक्सी
मर्ज़ ने कहा है कि इस वर्ष नोबेल पुरस्कार समितियों को इस महामारी के दौरान वैश्विक
स्वास्थ्य प्रयासों को पुरस्कृत करना चाहिए था। मर्ज़ इसे समिति की लापरवाही के रूप
में देखते हैं जो भविष्य में हानिकारक हो सकती है।
लेकिन नोबेल समितियों के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो वक्त, तकनीकी बारीकियों और राजनीति के लिहाज़ से कोविड टीकों को पुरस्कार
मिलना संभव नहीं लग रहा था। अलबत्ता, इस योगदान
के लिए जल्द ही सकारात्मक नोबेल संकेत प्राप्त हो सकते हैं।
मसलन, स्टॉकहोम स्थित रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़
के महासचिव ग्योरान हैंसों mRNA आधारित
टीकों के विकास को एक अद्भुत सफलता के रूप में देखते हैं जिसके मानव जाति पर बहुत सकारात्मक
परिणाम हुए हैं और इसके लिए वे वैज्ञानिकों के बहुत आभारी हैं। वे भविष्य में इस खोज
के लिए नामांकन की उम्मीद रखते हैं।
समस्या वक्त की है। इस वर्ष के नोबेल पुरस्कारों के लिए नामांकन 1 फरवरी तक जमा करना थे। लेकिन mRNA टीके इसके दो महीने से अधिक समय बाद उपयोग में लाए गए। कुछ अन्य टीकों ने नैदानिक
परीक्षणों में अपनी प्रभाविता भी साबित की लेकिन तब तक महामारी पर इनका प्रभाव पूरी
तरह स्पष्ट नहीं था।
नोबेल पुरस्कारों का इतिहास भी mRNA आधारित टीकों के पक्ष में नहीं रहा। पिछले कुछ वर्षों से किसी आविष्कार/खोज और पुरस्कार के बीच की अवधि बढ़ती गई है। वर्तमान में यह
औसतन 30 वर्षों से अधिक हो गई है।
प्रायोगिक mRNA टीकों का सबसे पहला परीक्षण 1990 के दशक के मध्य में हुआ था जबकि 2000 के दशक तक टीकों पर खास प्रगति नहीं हुई थी। और इस वर्ष (2020-21) तक इस प्रौद्योगिकी के प्रभाव ठीक तरह से स्पष्ट नहीं हुए थे।
अलबत्ता, ब्लूमिंगटन स्थित इंडियाना युनिवर्सिटी नेटवर्क
साइंस इंस्टिट्यूट के भौतिक विज्ञानी और निदेशक सैंटो फार्चूनेटो के अनुसार प्रमुख
खोजों को अपेक्षाकृत जल्दी पुरस्कृत किया गया है। जैसे गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज
को ही लें। अल्बर्ट आइंस्टाइन ने गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अस्तिव की भविष्यवाणी 1915 में की थी लेकिन शोधकर्ताओं को इन तरंगों का पता लगाने में एक
सदी का समय लग गया। शोधकर्ताओं ने इस खोज की घोषणा फरवरी 2016 में की थी और 2017 में इसे
भौतिकी नोबेल पुरस्कार दे दिया गया था।
कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि नोबेल पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जो ऐसा
बुनियादी शोध कार्य करते हैं जिनकी मदद से एक नहीं, कई समस्याओं को हल किया जा सकता है। शायद भविष्य में जब mRNA टीका तकनीक अन्य संक्रमणों के विरुद्ध प्रभावी साबित हो और नोबेल
समिति पुरस्कार देने पर विचार करे। वास्तव में नोबेल समिति नवीनतम प्रगतियों के बजाय
उन शोध कार्यों को पुरस्कृत करने में रुचि रखती है जो समय की कसौटी पर खरे उतरते हैं।
बहरहाल, नोबेल पुरस्कार न सही, कोविड-19 टीकों को कई प्रमुख वैज्ञानिक पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। हाल ही में 30 लाख अमेरिकी डॉलर के ब्रेकथ्रू पुरस्कार से दो वैज्ञानिकों को सम्मानित किया गया जिन्होंने mRNA अणु में ऐसे संशोधन किए जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं को mRNA के विरुद्ध शांत करने में सक्षम थे। यह तकनीक टीकों के लिए काफी महत्वपूर्ण रही है। इन्हीं दोनों शोधकर्ताओं ने लास्कर पुरस्कार भी जीता है। इन पुरस्कार को कुछ लोग भविष्य के नोबेल पुरस्कार के तौर पर देखते हैं। फिर भी नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित होने से पहले अभी कोविड-19 टीकों के लिए कई अन्य पुरस्कार प्रतीक्षा कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का ऐसा भी मानना है कि यदि टीकों को नोबेल पुरस्कार देना है तो समिति को कई शोधकर्ताओं द्वारा किए गए कार्य के विषय में कुछ कठिन निर्णय लेने होंगे कि पुरस्कार के लिए किसे चुना जाए। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि इस पुरस्कार के हकदार कौन हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.mit.edu/sites/default/files/images/202012/MIT-mRNA-vaccines-explainer-01-PRESS.jpg
वर्ष 2021 का कार्यिकी/चिकित्सा शास्त्र का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय के डेविड जूलियस और आर्डेम पैटापुटियन को दिया गया है। इन शोधकर्ताओं ने यह समझाने में मदद की है कि हमें स्पर्श की बारीकियों और गर्म-ठंडे का एहसास कैसे होता है। डेविड जूलियस ने गर्मी के एहसास की अपनी खोजबीन में एक जाने-माने पदार्थ कैप्सिसीन का उपयोग किया जो लाल मिर्च में भरपूर पाया जाता है और जलन पैदा करता है। दूसरी ओर, आर्डेम पैटापुटियन ने दाब-संवेदी कोशिकाओं की मदद से स्पर्श का रहस्य उजागर किया। किसी अनुभूति की प्रमुख बात यह होती है कि उससे जुड़े उद्दीपनों को कैसे तंत्रिका तंत्र विद्युत संकेतों में बदलकर मस्तिष्क तक पहुंचाता है।
जूलियस को यह विचार कौंधा कि यदि यह समझ में आ जाए कि मिर्च जलन कैसे पैदा करती है तो खोजबीन के नए रास्ते खुल जाएंगे। उन्हें यह तो पता था कि मिर्च में पाया जाने वाला कैप्सिसीन दर्द की अनुभूति पैदा करने वाली तंत्रिकाओं को उत्तेजित करता है। मामले को समझने के लिए जूलियस ने डीएनए का सहारा लिया। उन्होंने उन जीन्स पर ध्यान दिया जो दर्द, गर्मी और स्पर्श सम्बंधी तंत्रिकाओं में अभिव्यक्त होते हैं। उनका मानना था कि ऐसा कोई जीन ज़रूर होगा जो ऐसे प्रोटीन का कोड होगा जो कैप्सिसीन का संवेदी है। एक-एक करके विभिन्न जीन्स की जांच-पड़ताल की काफी मेहनत-मशक्कत के बाद वे एक जीन पहचान पाए जो किसी कोशिका को कैप्सिसीन-संवेदी बना सकता है। पता चला कि यह जीन जिस प्रोटीन का निर्माण करवाता है वह एक आयन चैनल प्रोटीन है। इसे नाम दिया गया TRPV1 और जूलियस ने पता लगा लिया कि यह प्रोटीन ऐसी गर्मी का एहसास करने में मददगार है जो दर्दनाक हो सकती है।
इस खोज ने आगे का रास्ता साफ कर दिया। आगे जूलियस और पैटापुटियन ने कई और ऐसे प्रोटीन खोजे जो अलग-अलग तापमान पर सक्रिय होते हैं और अनुभूति को जन्म देते हैं। अलग-अलग जंतु मॉडल्स पर प्रयोगों से इन निष्कर्षों की पुष्टि भी हुई।
अब अगला सवाल था कि स्पर्श (या ज़्यादा सामान्य रूप से दबाव) कैसे तंत्रिकाओं में विद्युत संकेतों का रूप लेता है। पैटापुटियन का अवलोकन था कि कोशिकाओं का एक प्रकार होता है जिन्हें माइक्रोपिपेट से टोंचा जाए तो उनमें विद्युत संकेत उत्पन्न हो जाता है। पैटापुटियन के दल ने भी जीन्स की जांच-पड़ताल का तरीका अपनाया। ऐसे 72 उम्मीदवार जीन्स पहचाने गए जिनके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स संभवत: दाब को विद्युत संकेत में बदलने का काम कर सकते हैं। एक-एक करके इन जीन्स को निष्क्रिय किया गया और अंतत: एक इकलौता जीन मिल गया जिसे निष्क्रिय करने पर कोशिका माइक्रोपिपेट
की नोक टोंचने पर विद्युत संकेत उतपन्न नहीं करती। इस प्रोटीन को Piezo1 नाम दिया गया और आगे चलकर एक और प्रोटीन Piezo2 और उसका जीन भी पहचाना गया। ये दोनों प्रोटीन ऐसे आयन चैनल हैं जो कोशिका की झिल्ली पर दबाव डालने से सक्रिय हो जाते हैं।
यह भी स्पष्ट हुआ कि शरीर के बाहरी अथवा आंतरिक पर्यावरण में बदलाव दोनों ही इन चैनल्स को सक्रिय करते हैं और विद्युत संकेत भेजते हैं। इस प्रकार मिली समझ का उपयोग चिकित्सा के क्षेत्र में किया जा रहा है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nobelprize.org/all-nobel-prizes-2021/
यह तो हम जानते हैं कि मास्क लगाना हमें कोविड-19 से सुरक्षा देता है। लेकिन स्वास्थ्य अधिकारियों की तरफ से इस बारे में बहुत कम जानकारी मिली है कि किस तरह के मास्क हमें सबसे अच्छी सुरक्षा देते हैं।
महामारी की शुरुआत में, यूएस सीडीसी और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आम जनता से कहा था कि वे N95 मास्क न पहनें क्योंकि एक तो उस समय इन मास्क की आपूर्ति बहुत कम थी और स्वास्थ्य कर्मियों को इनकी अधिक आवश्यकता थी। और दूसरा, उसी समय यह बात सामने आई थी कि सार्स-कोव-2 का एरोसोल के माध्यम से फैलने का जोखिम कम है। लेकिन इन मास्क की पर्याप्त आपूर्ति और इस वायरस के एरोसोल के माध्यम से फैलने के प्रमाण मिलने के बावजूद स्वास्थ्य एजेंसियां का आम लोगों के लिए कपड़े से बने मास्क लगाने पर ज़ोर रहा।
अब, N95 मास्क, चीन द्वारा निर्मित KN95 मास्क और दक्षिण कोरिया द्वारा निर्मित KF94 मास्क जैसे बेहतर बचाव देने वाले मास्क बाज़ार में पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं और पहले की तुलना में सस्ते हैं। फिर भी कुछ समय पहले तक सीडीसी ने आम लोगों के लिए इनका उपयोग करने की बात नहीं कही थी। 10 सितंबर को सीडीसी ने कहा कि चूंकि अब N95 और अन्य मेडिकल-ग्रेड के मास्क पर्याप्त रूप से उपलब्ध हैं तो आम लोग भी इस तरह के मास्क पहन सकते हैं। लेकिन प्राथमिकता अब भी स्वास्थ्य कर्मियों के लिए है। वैसे, कपड़े के मास्क भी स्वीकार्य हैं।
लेकिन किस तरह के मास्क लोगों को बेहतर सुरक्षा देंगे इस बारे में कोई बात नहीं कही गई है। इस सम्बंध में साइंटिफिक अमेरिकन ने कई विशेषज्ञों से बात की। इनमें से कुछ विशेषज्ञों ने बाज़ार में उपलब्ध विभिन्न मास्क का परीक्षण किया है। और उनका कहना है कि स्वास्थ्य अधिकारियों को लोगों को यह बताना चाहिए कि लोगों को अच्छी तरह से फिट होने वाले और बाहरी कणों को मास्क के भीतर जाने से रोकने की उच्च क्षमता वाले मास्क पहनने की ज़रूरत है। खासकर तब जब तेज़ी से फैलने वाला डेल्टा संस्करण मौजूद है और लोग बंद जगहों पर अधिक समय बिता रहे हैं।
अच्छा मास्क
कोई मास्क अच्छा होगा यदि वह अधिक से अधिक बाहरी कणों या बूंदों को पार जाने से रोके, चेहरे पर अच्छी तरह फिट हो और नाक और मुंह के आसपास कोई खाली जगह न छोड़े, और उसे पहनने से सांस लेने में दिक्कत न हो। मसलन, N95 मास्क कम से कम 95 प्रतिशत कणों को पार जाने से रोकता है। लेकिन यदि यही मास्क चेहरे पर ढीला-ढाला रहेगा तो यह उतनी अच्छी सुरक्षा नहीं दे सकेगा। और यदि मास्क ऐसा हो जिसे लगाने पर सांस में तकलीफ जैसी दिक्कत लगे तो भी लोग इसे नहीं लगाएंगे, और संक्रमण का जोखिम बढ़ेगा।
स्वास्थ्य एजेंसियों ने इस बारे में भी कुछ नहीं कहा है कि किस ब्रांड के मास्क सर्वोत्तम सुरक्षा देते हैं। लेकिन कुछ शौकिया लोगों ने इस बारे में जानकारी उपलब्ध कराई है। एरोसोल विज्ञान की पृष्ठभूमि वाले एरोन कोलिन्स उर्फ ‘मास्क नर्ड’ सीगेट टेक्नोलॉजी में मैकेनिकल इंजीनियर हैं। अपने खाली समय में वे यूट्यूब वीडियो बनाते हैं जिनमें वे विभिन्न मास्क निर्माताओं द्वारा बनाए गए मास्क का परीक्षण और समीक्षा करते हैं।
कोलिन्स ने बाथरूम में एक मास्क-परीक्षण सेटअप लगा रखा है, जहां वे सोडियम क्लोराइड (नमक) के एरोसोल बनाते हैं और यह मापते हैं कि कौन सा मास्क इन्हें रोकने की कितनी क्षमता रखता है।
कोलिन्स ‘प्रेशर ड्रॉप’ का भी परीक्षण करते हैं जो दर्शाता है कि किसी मास्क से सांस लेने में कितनी सुविधा है। उनके अनुसार कुछ कपड़े के मास्क – जिनमें कॉफी फिल्टर से बने मास्क भी शामिल हैं – से सांस लेने में दिक्कत होती है। इसलिए N95 मास्क कपड़े से नहीं बने होते।
आम तौर पर वे चीन की कंपनी पॉवेकॉम और अन्य द्वारा बनाए गए KN95 मास्क, ब्लूना फेस फिट के KF94 मास्क और 3M, मोल्डेक्स या हनीवेल द्वारा बनाए गए N95 मास्क की सिफारिश करते हैं। इन सभी मास्क की कणों को रोकने की क्षमता 99 प्रतिशत है, और उनके परीक्षण के आधार पर इन्हें पहनने पर सांस लेने में तकलीफ भी नहीं होती। जबकि अच्छी फिटिंग वाले सर्जिकल मास्क की कणों को रोकने की क्षमता लगभग 50 से 75 प्रतिशत है और एक अच्छे कपड़े के मास्क की लगभग 70 प्रतिशत। लेकिन अच्छा मास्क चुनने में आराम एक निर्णायक कारक होना चाहिए।
इसके अलावा डेल्टा संस्करण के लिए वे सर्जिकल मास्क को उतना बेहतर नहीं मानते, यहां वे KN95 या KF94 जैसे मास्क को ज़रूरी बताते हैं। वैसे कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सर्जिकल और कपड़े के मास्क कोविड-19 के खिलाफ कुछ हद तक सुरक्षा देते हैं। बांग्लादेश में हाल ही में हुए एक बड़े रैंडम अध्ययन में पाया गया कि सर्जिकल मास्क ने संक्रमण के जोखिम को काफी कम किया; कपड़े के मास्क को लेकर अस्पष्टता है।
बच्चों के लिए मास्क
अब जबकि बच्चों के स्कूल खुलने लगे हैं तो कई अभिभावकों को बच्चों की चिंता है, विशेषकर उन बच्चों की जो टीकाकरण के लिए अभी बहुत छोटे हैं। इस मामले में कणों को रोकने की उच्च क्षमता वाले मास्क बच्चों के लिए मददगार हो सकते हैं। बच्चों के लिए N95 मास्क के कोई मानक नहीं है, लेकिन कई निर्माता बच्चों के लिए KF94 या KN95 मास्क बना रहे हैं। इस तरह के मास्क छोटे चेहरों पर अच्छी तरह फिट होने के लिए और आसानी से पहने जाने के लिए डिज़ाइन किए गए हैं। कोलिन्स के अनुसार ऐसा कोई कारण नहीं दिखता है कि बच्चे मास्क बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। उनका बेटा गर्मी के पूरे मौसम में मास्क पहने रहा।
कहां मिलेंगे
सीडीसी ने चेतावनी दी है कि यूएस में बिकने वाले KN95 मास्क में से लगभग 60 प्रतिशत मास्क नकली हैं। समस्या यही है कि भारत में इस बारे में कोई जानकारी ही नहीं है कि अच्छे मास्क कहां से खरीदे जाएं।
दोबारा उपयोग
KN95 जैसे मास्क लगाने में लोग इसलिए भी अनिच्छुक हैं क्योंकि आम तौर पर इन मास्क को डिस्पोज़ेबल माना जाता है। लेकिन कई विशेषज्ञों का कहना है कि वास्तव में इन्हें कई बार पहना जा सकता है। इस तरह के मास्क को आप तब तक उपयोग करते जा सकते हैं जब तक ये फट न जाए या गंदे न हो जाएं। कोलिन्स के परीक्षण के अनुसार ये मास्क 40 घंटे तक उपयोग किए जा सकते हैं, और इतनी देर में इनकी कणों को रोकने की क्षमता में कोई कमी नहीं आती। लेकिन पैकेट से निकालने के छह महीने के भीतर उपयोग कर लेना चाहिए। वैसे तो, इन मास्क पर वायरस लंबे समय तक जीवित नहीं रहते हैं इसलिए कुछ दिन छोड़कर दोबारा उपयोग में कोई बुराई नहीं है।
डबल मास्क
प्रभावशीलता बढ़ाने का एक प्रचलित तरीका है सर्जिकल मास्क के ऊपर कपड़े का मास्क पहनना। लेकिन वास्तव में यह जोड़ कितनी अच्छी तरह काम करता है?
कोलिन्स ने पाया कि यह तरीका 90 प्रतिशत से अधिक कणों को भीतर जाने से रोकता है। लेकिन अकेले N95 की तुलना में इस तरीके में सांस लेने में दिक्कत होती है।
हालांकि कुछ विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि N95 सरीखे मास्क सभी के लिए ज़रूरी हैं। वे सर्जिकल मास्क या कपड़े के मास्क की सिफारिश करते हैं।
दाढ़ी-मूंछ
इस पर बहुत अधिक डैटा नहीं है, लेकिन कुछ शोध बताते हैं कि किसी व्यक्ति की दाढ़ी या मूंछें जितनी बड़ी होंगी मास्क उतना ही कम प्रभावी होगा। बहरहाल सुविधा एक महत्वपूर्ण कारक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.llu.edu/sites/news.llu.edu/files/styles/featured_image_755x425/public/screen_shot_2020-08-11_at_9.15.07_am.png?itok=4wgL0Fl1&c=d840cfde9df530f5582918792e0040a0
सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका में मांग की गई है कि
सुप्रीम कोर्ट केंद्र को ऐसे दिशानिर्देश बनाने के निर्देश दे जो यह सुनिश्चित
करें कि खाद्य उत्पाद के पैकेट पर सामने की ओर ‘स्वास्थ्य रेटिंग’ के साथ-साथ
‘स्वास्थ्य चेतावनी’ अंकित हो। याचिका में यह अनुरोध भी किया गया है कि डिब्बाबंद
खाद्य पदार्थों और पेय पदार्थों का उत्पादन करने वाले सभी उद्योगों के लिए
‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ और ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ अनिवार्य किया जाए।
याचिका में यह भी अनुरोध है कि सुप्रीम कोर्ट भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक
प्राधिकरण (FSSAI) को निर्देश दे कि वह विश्व
स्वास्थ्य संगठन द्वारा वसा, नमक और शर्करा की स्वीकार्य
मात्रा सम्बंधी सिफारिशों का अध्ययन करे। इसके अलावा, FSSAI अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के
‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ और ‘हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम’ का अध्ययन करके तीन माह
में प्रतिवेदन प्रस्तुत करे।
याचिका का तर्क है कि अनुच्छेद 21 स्वास्थ्य का अधिकार देता है। जबकि केंद्र
और FSSAI बाज़ार में बिकने वाले खाद्य
पदार्थों का ‘स्वास्थ्य प्रभाव आकलन’ नहीं करते हैं। उनके द्वारा ‘हेल्थ स्टार
रेटिंग सिस्टम’ भी लागू नहीं किया गया है और इससे नागरिकों के स्वास्थ्य को नुकसान
पहुंचता है। याचिका उपरोक्त दो निकायों की निष्क्रियता को संविधान के अनुच्छेद 21
के खुलेआम उल्लंघन समान बताती है। याचिका इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि
किसी भी तरह के कुपोषण से बचने के लिए और अस्वास्थ्यकर या असंतुलित आहार के कारण
होने वाले गैर-संचारी रोगों को थामने के लिए स्वास्थ्यप्रद आहार आवश्यक है।
स्वास्थ्यप्रद आहार कोविड-19 जैसे संक्रामक रोगों के जोखिम को भी कम करता है। और FSSAI और केंद्र की निष्क्रियता ने
इस बीमारी को बढ़ाया है। हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम या स्वास्थ्य प्रभाव आकलन की
अनिवर्यता न होने के कारण उपभोक्ता को ऐसा खाद्य मिलता है जिसमें कैलोरी, वसा,
शर्करा व नमक की अधिकता होती है और फाइबर जैसे पोषक तत्वों
की कमी होती है।
ऐसे में सवाल उठता है कि हेल्थ स्टार रेटिंग सिस्टम के साथ आगे बढ़ा जाए या
नहीं?
क्या वाकई इसकी आवश्यकता है? और है
तो क्यों?
जिन देशों में यह लागू है, क्या
वे देश अपने उपभोक्ताओं को पौष्टिक विकल्पों के बारे में अधिक जागरूक कर पाए हैं? या क्या नागरिकों के स्वास्थ्य की देखभाल और चिंताओं की आड़ में कुछ और ही खेल
रचा जा रहा है?
पोषण लेबलिंग
चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक दस वर्षों
में (2016 तक) देश में मोटापे से ग्रसित लोगों की संख्या दुगनी हो गई। विश्व
स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि 2030 तक भारत में होने वाली कुल मौतों में से 67
प्रतिशत मौतें गैर-संचारी रोगों के कारण होंगी।
पिछले दो दशकों में आहार विविधता बदली है, जिससे
असंतुलित आहार के कारण गैर-संचारी रोग बढ़े हैं। हमारे वर्तमान भोजन में कैलोरी, शर्करा,
ट्रांस फैटी एसिड, संतृप्त वसा, नमक आदि की अधिकता होती है। जबकि कुछ दशक पहले हमारा भोजन प्रोटीन, फाइबर,
असंतृप्त वसा और कुछ अन्य आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्वों से
समृद्ध होता था। भोजन में परिवर्तन के कारण देश में मोटापे की समस्या बढ़ी है।
इसलिए भारत सरकार ने लगभग सभी खाद्य पदार्थों पर पोषण सम्बंधी जानकारी देना
अनिवार्य किया है।
अब तक,
यह जानकारी पैकेट के नीचे या पीछे की ओर एक पोषण तालिका में
लिखी जाती है,
जिसमें किसी खाद्य या पेय के सेवन से मिलने वाले पोषक
तत्वों की लगभग मात्रा लिखी होती है। पैकेट पर एक और अनिवार्य हिस्सा है खाद्य या
पेय में प्रयुक्त सामग्री की जानकारी, ताकि उपभोक्ता को पहले
से यह पता हो कि जिस उत्पाद का वह सेवन कर रहा है उसमें कोई ऐसे पदार्थ तो नहीं है
जिससे उसे एलर्जी है, या आस्थागत कारणों से वह उनका सेवन न करता
हो – जैसे कुछ लोग प्याज़-लहसुन युक्त उत्पाद नहीं खाते।
पोषण सम्बंधी जानकारी दो तरह से दी जा सकती है;
1. लिखित तरीके से,
2. चित्र के रूप में।
वर्तमान में पोषण जानकारी लिखित तरीके से दी जाती है, जिसमें
पैकेट पर एक तालिका में पोषण और प्रयुक्त सामग्री की जानकारी होती है। याचिका का सारा
तर्क इसके इर्द-गिर्द है कि पोषण सम्बंधी जानकारी देने का कौन-सा तरीका बेहतर हो
सकता है?
यह सवाल महत्वपूर्ण है, क्योंकि
उपभोक्ता अनुसंधान में पाया गया है कि लिखित जानकारी पढ़ना भ्रमित कर सकता है और
उपभोक्ता अक्सर सामान खरीदते समय इन जानकारियों की अनदेखी करते हैं। और यह अनदेखी
लापरवाही,
निरक्षरता, पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं के
प्रति उदासीनता,
भाषा से अनभिज्ञता, या
जागरूकता में कमी के कारण हो सकती है।
ऐसे में,
यह तर्क दिया जा सकता है कि चित्रात्मक लेबल पढ़ने में आसान
होते हैं जैसे कि स्टार-रेटिंग सिस्टम। स्टार रेटिंग सिस्टम एयर कंडीशनर, माइक्रोवेव ओवन और रेफ्रिजरेटर जैसे बिजली से चलने वाले उपकरणों के लिए पहले
से ही उपयोग की जा रही है। यह काफी हद तक भाषा और निरक्षरता की बाधा को दूर करती
है। और उपभोक्ताओं को यह जानने का एक आसान और ‘विश्वसनीय’ तरीका देती है कि वे किस
गुणवत्ता की वस्तु उपयोग कर रहे हैं।
स्टार रेटिंग सिस्टम के समर्थकों का कहना है कि यह निम्नलिखित पांच मानदंडों
को पूरा करेगी;
1. दृश्यता – दृश्य लेबल इस तरह बनाया जाएगा कि उस पर लोगों की नज़र जाए, और इसके लिए स्टार रेटिंग लेबल को पैकेट के सामने छापा जाएगा।
2. बोधगम्यता – लेबल ऐसा हो कि इसे समझने में उपभोक्ताओं को भाषा या साक्षरता
की बाधा न आए। ऐसा करने के लिए ट्रैफिक लाइट जैसी रंग आधारित कोडिंग प्रणाली का
उपयोग की जा सकता है।
3. सूचनात्मकता – लेबल को पर्याप्त और आवश्यक जानकारी देना चाहिए। लाल, पीले,
हरे रंग की प्रणाली अपनाई जा सकती है – लाल स्वास्थ्य के
लिए हानिकारक,
पीला सहनीय और हरा स्वास्थप्रद।
4. पठनीयता – लेबल आसानी से पढ़ने या दिखने में आना चाहिए। वर्तमान में पैकेट
के पीछे जानकारी छोटे अक्षरों में या तारांकित करके दी जाती है जो उपभोक्ताओं की
नज़र से बच जाती है। इस तरह जानबूझ कर छोटे टाइप या तारांकन का उपयोग निषिद्ध होना
चाहिए और उल्लंघन पर दंडित किया जाना चाहिए। स्टार का आकार इतना बड़ा होना चाहिए कि
ये आसानी से दिखें।
5. वैज्ञानिक परीक्षण – लेबल का परीक्षण यह जानने के लिए किया जाना चाहिए कि
क्या वह उपभोक्ता को उत्पाद के बारे में निर्णय करने में मदद करता है। लेबल के
लगाए जाने से पहले और लेबल व्यवस्था शुरू होने के बाद उपभोक्ता के व्यवहार का
अध्ययन किया जाना चाहिए और अध्ययन के परिणामों के आधार पर उपभोक्ताओं के लिए अधिक
प्रासंगिक और आकर्षक लेबल बनाने के प्रयास होने चाहिए।
खाद्य उत्पाद पर किस तरीके से पोषण जानकारी देना कारगर होगा और किस तरह से
नहीं,
यह तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कि उपभोक्ता के क्रय
व्यवहार का बहुत विस्तार से अध्ययन नहीं किया जाता। इसलिए, स्टार-रेटिंग
सिस्टम के समर्थकों का प्रस्ताव है कि इसकी कारगरता जांचने के लिए फॉलोअप अध्ययन
भी करना चाहिए। उनका सुझाव है कि FSSAI, WHO और गैर-सरकारी संगठन मिलकर
भारत के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर रैंडम सर्वेक्षण कर सकते हैं ताकि यह पता
लगाया जा सके कि स्वास्थ्य स्टार रेटिंग प्रणाली प्रभावी है या नहीं। अगर नहीं है
तो उपभोक्ताओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम तैयार किए जा सकते हैं।
क्या हम असफल प्रणाली ला रहे हैं?
चित्रित या दृश्य पोषण लेबलिंग प्रणाली के लाभ अन्य देशों में इसके लागू होने
के आधार पर गिनाए जा रहे हैं। स्टार रेटिंग प्रणाली के प्रस्तावकों का कहना है कि
यह प्रणाली 10 से अधिक देशों में सफल है।
लेकिन वास्तविकता निराशाजनक है। दरअसल, उपरोक्त
10 देशों में से केवल दो ही देश इस प्रणाली का पालन कर रहे हैं। ये दो देश हैं
ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड। बाकी देश मानक पोषण तालिका और सामग्री की लिखित
जानकारी के साथ या तो ‘ट्रैफिक-लाइट’ प्रणाली या ‘हाई अलर्ट’ प्रणाली का उपयोग करते
हैं। ट्रैफिक लाइट प्रणाली में पैकेट पर लाल, पीला
या हरा बिंदु या तारा होता है जो यह दर्शाता है कि कोई चीज कितनी स्वास्थ्यप्रद है
या अस्वास्थ्यकर है। हाई अलर्ट प्रणाली में किसी उत्पाद में चीनी, नमक या वसा की मात्रा अधिक होने पर यह बात पैकेट पर मोटे अक्षरों में उसकी
मात्रा के साथ लिखी जाती है।
और तो और,
जिन दो देशों में इस प्रणाली का पालन किया जा रहा है वहां
भी यह प्रणाली कारगर साबित नहीं हुई है। वैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि इस
तरह के लेबल किसी विशेष वस्तु के सेवन के खतरों के बारे में लोगों को सजग नहीं
करते हैं।
उदाहरण के लिए कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं हैं। सिगरेट या तंबाकू उत्पादों को
ही लें। सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पादों के बॉक्स या पैकेट पर एक बड़ा वैधानिक
चेतावनी चित्र होता है, फिर भी युवा सिगरेट पीने की इच्छा करते हैं
और धूम्रपान करने वाले ये चेतावनी देखने के बावजूद भी सिगरेट खरीदना और पीना जारी
रखते हैं। भारत सरकार का यह विचार कि पैकेट पर चेतावनी छापने से लोग सतर्क होंगे
और इन उत्पादों को नहीं खरीदेंगे, यह पहले ही विफल साबित हो चुका
है।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि स्टार रेटिंग प्रणाली के लाभ तो अस्पष्ट
हैं,
लेकिन यह स्पष्ट है कि FSSAI इस प्रणाली का उपयोग कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए कर
सकता है।
स्टार रेटिंग प्रणाली किसी खाद्य या पेय में उपस्थित वसा या शर्करा की सटीक
मात्रा नहीं बताती। इस तरह, कोई कंपनी अपने अन्यथा
हानिकारक उत्पाद में प्रोटीन, फाइबर या सूक्ष्म पोषक तत्वों
की मात्रा बढ़ाकर (अधिक वसा, नमक और शर्करा के बावजूद) उसके
लिए अच्छी रेटिंग हासिल कर लेगी।
उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय का अध्ययन बताता है कि ‘हाई अलर्ट’ प्रणाली ने
उच्च कैलोरी,
शर्करा, नमक, वसा
आदि युक्त उत्पादों की खपत को कम किया है। इसलिए, स्वास्थ्य
स्टार रेटिंग प्रणाली के बजाय हाई अलर्ट प्रणाली का उपयोग किया जाना चाहिए।
क्योंकि हाई अलर्ट प्रणाली वास्तव में अस्वास्थकर पदार्थों की उपस्थिति के बारे
में आगाह करती है और उनकी मात्रा बताती है। स्टार-रेटिंग प्रणाली में यह एक बड़ी
खामी है।
ऑस्ट्रेलिया की स्टार रेटिंग प्रणाली के दुष्परिणामों पर अध्ययन किए गए हैं।
इनमें पाया गया है कि ऑस्ट्रेलिया में 41 प्रतिशत खाद्य पदार्थों पर स्टार-रेटिंग
होती है,
और इसके बावजूद भी उपभोक्ता अपने द्वारा उपयोग किए जा रहे
खाद्य में वसा,
शर्करा, कैलोरी, नमक आदि की मात्रा से अनभिज्ञ हैं। हम दूसरों की गलतियों से सीख सकते हैं।
स्टार रेटिंग प्रणाली लागू करने से परिवर्तन की संभावना नहीं दिखती। यह
प्रणाली लोगों को विश्वास दिलाएगी कि पोषण के बारे में चिंता की जा रही है, इसकी आड़ में निम्न गुणवत्ता वाले उत्पाद बेचे जाएंगे। कंपनियों पर तो भरोसा
नहीं किया जा सकता कि वे अपने खरीदारों को स्वास्थ्यप्रद उत्पाद पेश करेंगी, क्योंकि उनकी रुचि तो ऐसा उत्पाद देने में है जिसकी लागत बहुत कम हो और उसे
ऊंचे दामों पर बेचा जा सके।
स्टार-रेटिंग सिस्टम के अन्य नुकसान भी हैं। किस उत्पाद को कौन सी रेटिंग
मिलेगी,
इसका निर्धारण करने वाले बेंचमार्क में ढील या संशोधन के
लिए कंपनियां सरकार को घूस भी दे सकती हैं। और यह हमारे लिए कोई आश्चर्य की बात
नहीं है क्योंकि हम न्यूनतम मज़दूरी को लागू करने में विफल रहे हैं, हम न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने में विफल रहे हैं और हम अनौपचारिक
क्षेत्र में काम कर रहे दिहाड़ी मज़दूरों के लिए बेहतर माहौल देने में असफल रहे हैं।
मानकों में हेराफेरी नहीं होगी, यह सुनिश्चित करना एक चुनौती
होगी।
स्टार रेटिंग प्रणाली के कारण एक और समस्या उत्पन्न होगी। यह कंपनियों द्वारा
की जा रही बेइमानी को पकड़ना मुश्किल बना देगी। उदाहरण के लिए मैगी को ही लें।
एमएसजी और सीसा (लेड) की अत्यधिक मात्रा के कारण मैगी की आलोचना की गई थी। पूरे
भारत से लिए गए 12 में से 10 नमूनों में सीसा की मात्रा अस्वीकार्य स्तर पर निकली
थी। मैगी में सीसा और एमएसजी की अत्यधिक मात्रा की शिकायत की जा सकी क्योंकि इसकी
सामग्री और पोषण की मात्रा के बारे में पारदर्शिता थी। अन्यथा इस तरह के अनाचार
होते रह सकते हैं और इन पर ध्यान तब जाएगा जब लोग वास्तव में बीमार होने और मरने
लगेंगे।
निष्कर्ष
भोजन एक बुनियादी ज़रूरत है। और लाभ कमाना भी कोई अपराध नहीं है। लेकिन
कंपनियों को इस बारे में बहुत संवेदनशील होने की ज़रूरत है कि मुनाफा कमाने के लिए
क्या स्वीकार्य है, और उपभोक्ता के स्वास्थ्य को नज़रअंदाज़ कर
अपना लाभ बनाना अस्वीकार्य और अनैतिक है।
इसका समाधान कोई बीच का रास्ता हो सकता है, जिसमें
दो या दो से अधिक प्रणालियों को लागू किया जाए। उत्पाद की एक नज़र में परख के लिए
और कुछ हद तक भाषागत बाधा को पार करने के लिए अलग-अलग रंग वाले स्टार अंकित किए
जाएं,
और अगर किसी खाद्य पदार्थ में अत्यधिक मात्रा में वसा, शर्करा,
नमक, कैलोरी है तो उसे बड़े और मोटे
शब्दों में छापा जाए। इसके साथ ही पैकेट के पीछे पोषक तत्व और सामग्री तालिका भी
दी जाए। यह प्रणाली लचीली होगी क्योंकि यह सभी तरह के उपभोक्ताओं को जानकारी देगी
– स्वास्थ्य के प्रति जागरूक उपभोक्ता पोषण चार्ट और अवयव देखकर उत्पाद चुन सकता
है,
निरक्षर या उस भाषा से अनजान व्यक्ति स्टार देखकर।
अलबत्ता, यह एक बड़ी समस्या का शॉर्ट-कट समाधान है। शिक्षा में कमी, स्वस्थ रहने के लिए हमारी संस्कृति में प्रोत्साहन की कमी, उपभोक्ता जागरूकता की कमी, उपभोक्ता अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी और इस तरह की नीतियों पर सरकार के फैसलों पर सवाल उठाने की इच्छा की कमी। ये समस्याएं लंबे समय से हमारे साथ हैं। और सरकार को अच्छी शिक्षा के माध्यम से तर्क करने वाले नागरिक बनाने में कोई रुचि नहीं है क्योंकि जो नागरिक सवाल नहीं करते हैं उन पर शासन करना आसान होता है। इन मुद्दों को संबोधित करने और सुधारने में एक लंबा समय लगेगा। जागरूक नागरिक बनाने में बहुत अधिक धन भी लगता है। लेकिन वर्तमान में हम अंतर्निहित समस्या को खत्म करने के बजाय शॉर्ट-कट सुधार तलाश रहे हैं। क्योंकि समस्या को खत्म करना न केवल कठिन और महंगा है बल्कि पहले तो हमें यह स्वीकार करने की ज़रूरत है कि हम गलत हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn-a.william-reed.com/var/wrbm_gb_food_pharma/storage/images/publications/food-beverage-nutrition/foodnavigator-asia.com/headlines/business/health-star-ratings-nestle-and-unilever-come-out-top-in-india-but-scores-are-low/10781160-1-eng-GB/Health-star-ratings-Nestle-and-Unilever-come-out-top-in-India-but-scores-are-low_wrbm_large.jpg
कोविड-19 वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने की संभावना पर
चर्चा जारी है। पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ने तो इसे ‘चीनी वायरस’ तक कहा। दूसरी ओर, कई शोधकर्ताओं ने दी लैसेंट के माध्यम से प्रयोगशाला उत्पत्ति के
सिद्धांत को खारिज कर दिया था। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के संयुक्त
मिशन की रिपोर्ट में भी वायरस के प्रयोगशाला जनित होने के सिद्धांत को ‘असंभाव्य’
बताया गया था।
फिर इस वर्ष के वसंत तक कुछ बदलाव देखने को मिले और ऐसा लगने लगा कि वायरस की
प्रयोगशाला उत्पत्ति की परिकल्पना को सस्ते में खारिज कर दिया गया था। एक नोबेल
पुरस्कार विजेता ने वैज्ञानिकों और मुख्यधारा के मीडिया पर ‘पर्याप्त साक्ष्य’ की
अनदेखी करने का आरोप लगाया। डब्ल्यूएचओ के प्रमुख ने भी संयुक्त मिशन के
निष्कर्षों पर शंका ज़ाहिर की और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुफिया समुदाय को
वायरस के प्रयोगशाला से निकलने की संभावना का पुनर्मूल्यांकन करने का आदेश दिया।
इसके साथ ही वायरोलॉजी और इवॉल्यूशनरी बायोलॉजी के जाने-माने विशेषज्ञों सहित 18
वैज्ञानिकों ने साइंस में प्रकाशित एक पत्र के माध्यम से ‘प्रयोगशाला
उत्पत्ति’ का अधिक संतुलित मूल्यांकन करने का आह्वान किया। अलबत्ता, बाइडेन द्वारा गठित खुफिया समुदाय भी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सका और
फिलहाल वायरस उत्पत्ति प्राकृतिक स्रोत से ही नज़र आ रही है।
यह तो ज़ाहिर है कि इन सवालों की छानबीन के लिए साक्ष्य हेतु चीन का सहयोग ज़रूरी
है लेकिन चीन की ओर से संयुक्त मिशन के दौरान उचित सहयोग नहीं मिल सका है। चीनी
अधिकारियों ने वुहान की प्रयोगशालाओं के स्वतंत्र ऑडिट से भी इन्कार किया है। बढ़ते
दबाव के चलते चीन ने संयुक्त मिशन द्वारा सुझाए गए अध्ययनों पर रोक लगा दी है
जिनसे अलग-अलग प्रजातियों के बीच वायरस के संचरण का पता लगाया जा सकता था। अलबत्ता, मौजूदा साक्ष्य, महामारी के शुरुआती पैटर्न, सार्स-कोव-2 की जेनेटिक बनावट और वुहान पशु बाज़ार पर हालिया शोध पत्र के आधार
पर कई वैज्ञानिकों का मानना है कि यह वायरस भी अन्य रोगजनकों के समान प्राकृतिक तौर
पर जीवों से मनुष्यों में आया है।
युनिवर्सिटी ऑफ एरिज़ोना के इवॉल्यूशनरी जीव विज्ञानी माइकल वोरोबे इन
साक्ष्यों के आधार पर प्रयोगशाला उत्पत्ति की बात से दूर हटे हैं। वोरोबे एचआईवी
और 1918 के फ्लू की उत्पत्ति पर महत्वपूर्ण कार्य कर चुके हैं और उन्होंने उपरोक्त
पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उनका तथा एक अन्य हस्ताक्षरकर्ता फ्रेड हचिन्सन कैंसर
रिसर्च सेंटर के जीव विज्ञानी जेसी ब्लूम का कहना है इस बहस ने राजनैतिक तनाव
बढ़ाने का काम किया है और इसके चलते चीन से जानकारी प्राप्त करना मुश्किल हो गया
है।
देखा जाए तो प्रयोगशाला से उत्पत्ति की मूल परिकल्पना निकटता पर आधारित है –
नया कोरोनावायरस एक ऐसे शहर में पाया गया जहां वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी
(डब्ल्यूआईवी) स्थित है। डब्ल्यूआईवी और दो अन्य छोटी प्रयोगशालाओं में काफी समय
से चमगादड़ कोरोनावायरस पर अध्ययन किए जा रहे हैं। संभावना यह जताई गई है कि
प्रयोगशाला के कुछ कर्मचारी दुर्घटनावश संक्रमित हुए और अन्य लोगों को भी संक्रमित
किया। गौरतलब है कि प्रयोगशाला आधारित दुर्घटनाएं कोई नई बात नहीं है; सार्स का वैश्विक प्रकोप खत्म होने के बाद शोधकर्ता इससे 6 बार संक्रमित हुए
हैं।
ऐसा ज़रूरी नहीं कि शोधकर्ता का सार्स-कोव-2 से संक्रमण वुहान में हुआ हो। ब्रॉड
इंस्टीट्यूट की शोधकर्ता और उपरोक्त पत्र की हस्ताक्षरकर्ता एलीना चैन ने 2018 के
एक अध्ययन का हवाला दिया है जिसमें 218 लोगों के रक्त के नमूने लिए गए थे जो शहर
से 1000 किलोमीटर दूर ऐसी गुफाओं के पास रहते थे जिनमें बड़ी संख्या में चमगादड़ पाए
जाते हैं। इनमें से 6 लोगों में एंटीबॉडी की उपस्थिति से कोरोनावायरस संक्रमण की
संभावना दिखी थी। यह कोरोनावायरस सार्स-कोव और सार्स-कोव-2 से काफी निकटता से
सम्बंधित है। चैन के अनुसार वुहान के शोधकर्ता अक्सर वहां आते-जाते थे और यह वायरस
संक्रमित लोगों से उनमें प्रवेश कर गया होगा।
हालांकि,
डब्ल्यूआईवी की प्रमुख चमगादड़ कोरोनावायरस वैज्ञानिक शी
ज़ेंगली ने कोविड-19 का प्रकोप शुरू होने के समय प्रयोगशाला में किसी के बीमार होने
की बात से इन्कार किया है। दूसरी ओर, यूएस डिपार्टमेंट ऑफ
स्टेट ने 2019 की शरद ऋतु में डब्ल्यूआईवी में शोधकर्ताओं के बीमार होने की आशंका
जताई थी। दी वॉल स्ट्रीट जर्नल के अनुसार एक अज्ञात यूएस इंटेलिजेंस
रिपोर्ट में यह ज़ाहिर किया गया है कि नवंबर 2019 में डब्ल्यूआईवी के तीन
शोधकर्ताओं ने अस्पताल में इलाज चाहा था। हालांकि रिपोर्ट में बीमारी के बारे में
कोई जानकारी नहीं है और कई लोगों का कहना है चीन के अस्पताल सभी बीमारियों का इलाज
करते हैं।
टूलेन युनिवर्सिटी के वायरोलॉजिस्ट रोबेरी गैरी वुहान के कर्मचारी के संक्रमित
होने और शहर में वायरस के फैलाने की घटना को असंभव मानते हैं। जैसा कि डब्ल्यूआईवी
का अध्ययन बताता है कि गुफाओं के पास रहने वाले लोगों में संक्रमण आम बात है। तो
सवाल यह है कि यह वायरस कुछ शोधकर्ताओं को ही क्यों निशाना बनाएगा। हो सकता है कि
इस वायरस ने भी मनुष्यों में प्रवेश करने से पहले किसी अन्य जीव में प्रवेश किया
हो। फिर भी यह सवाल है कि इसने सबसे पहले प्रयोगशाला के कर्मचारी को कैसे संक्रमित
किया?
गैरी का यह भी कहना है कि डैटा से यह भी पता चला है कि
कोविड-19 के शुरुआती मामलों का सम्बंध वुहान के विभिन्न बाज़ारों से था। इससे लगता
है कि वायरस ने संक्रमित जीवों और पशु व्यापारियों के माध्यम से शहर में प्रवेश
किया था।
लेकिन उपरोक्त पत्र के एक हस्ताक्षरकर्ता स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी के डेविड
रेलमन के मुताबिक कोविड-19 के शुरुआती डैटा की बहुत कमी है जिसके कारण कोई स्पष्ट
चित्र नहीं उभर पा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार वायरस का लीक होना तभी संभव
है जब जीवित वायरस को कल्चर किया जा रहा हो जो काफी मुश्किल काम है। शी के मुताबिक
उनकी प्रयोगशाला में 2000 से अधिक चमगादड़ के विभिन्न नमूने हैं जिनमें से पिछले 15
वर्षों में केवल तीन वायरसों को अलग करके विकसित किया गया है और तीनों ही
सार्स-कोव-2 से सम्बंधित नहीं हैं। कुछ लोगों ने शी पर सरकार के दबाव की बात कही
है लेकिन चीन के बाहर के तमाम वैज्ञानिक शी की सत्यनिष्ठा पर पूरा भरोसा करते हैं।
महामारी के स्रोत सम्बंधी सारी अटकलें 6 व्यक्तियों पर केंद्रित है जिन्हें
वर्ष 2012 में मोजियांग स्थित तांबे की खदान में चमगादड़ों का मल साफ करने के बाद
गंभीर श्वसन रोग हुआ था। इनमें से तीन की तो मृत्यु हो गई थी। प्रयोगशाला से वायरस
निकलने के सिद्धांत का समर्थन करने वालों का मानना है कि ये लोग कोरोनावायरस से
संक्रमित हुए थे। उनका मानना है कि यह वायरस या तो सार्स-कोव-2 था या बाद में इसे
आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करके सार्स-कोव-2 को तैयार किया गया है। वास्तव में जब
खदान के कर्मचारी बीमार हुए थे तब शी और उनके सहयोगियों ने विभिन्न समय पर
चमगादड़ों के नमूने एकत्रित किए थे। उन्होंने इन नमूनों में नौ नए प्रकार के
सार्स-सम्बंधित वायरस का पता लगाया था।
शी बताती हैं कि खदान में काम करने वाले कर्मचारियों के रक्त परीक्षण में
कोरोनावायरस या एंटीबॉडी के साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं। इस विश्लेषण में काम
करने वाले आणविक जीवविज्ञानी लिन्फा वैंग के मुताबिक खदान में मिले सार्स-कोव-2 से
सम्बंधित साक्ष्यों को दबाने की बात बेतुकी है क्योंकि वे तो यह सिद्ध करना चाहते
थे कि यह बीमारी कोरोनावायरस के कारण हुई थी और यदि ऐसा पता चलता तो वे इसे तुरंत
प्रकाशित करते। कई अन्य वैज्ञानिकों ने भी वैंग का समर्थन किया है लेकिन उनका
मानना है कि अधिक पारदर्शिता से मामले को सुलझाया जा सकता है।
प्रयोगशाला उत्पत्ति के सबसे इन्तहाई तर्क के अनुसार सार्स-कोव-2 डब्ल्यूआईवी
में जानबूझकर तैयार किया गया है। ऐसे में न सिर्फ चीन की निंदा होगी बल्कि
वायरोलॉजी के क्षेत्र को भी गंभीर नुकसान होगा। पिछले एक दशक में ‘गेन-ऑफ-फंक्शन’
(जीओएफ) सम्बंधी शोध के वैज्ञानिक महत्व पर तीखी चर्चा हुई है। गेन-ऑफ-फंक्शन शोध
में ऐसे रोगजनकों का निर्माण किया जाता है जो मनुष्यों में अधिक संक्रामक होते
हैं। कुछ जीओएफ अध्ययन भविष्य में आने वाले खतरों की पहचान करने और उनको खत्म करने
में मदद करते हैं लेकिन आलोचकों का मत है कि इसके फायदे नए रोगजनकों को बनाने और
निकल भागने के जोखिम की तुलना में बहुत कम हैं।
पूर्व में शी ने कोरोनावायरस को विकसित करने में कठिनाइयों के कारण कुछ
शिमेरिक (मिश्रित) वायरस तैयार किए थे। डब्ल्यूआईवी में विकसित इन मिश्रित वायरसों
में ऐसे चमगादड़ कोरोनावायरस की जेनेटिक सामग्री का उपयोग किया गया जिसे प्रयोगशाला
में कल्चर किया जा सकता था और नए कोरोनावायरस के स्पाइक प्रोटीन जीन्स जोड़े गए थे।
वैज्ञानिक इसे जीओएफ शोध नहीं मानते। शी का कहना है कि उनकी टीम द्वारा तैयार किया
गया वायरस किसी भी प्रकार से मूल वायरस से अधिक खतरनाक होने की आशंका नहीं थी।
अलबत्ता,
प्रयोगशाला-उत्पत्ति के समर्थकों का कहना है कि हो सकता है
कि सार्स-कोव-2 शी द्वारा तैयार किया गया कोई मिश्रित वायरस ही हो। वे यह भी कहते
हैं कि उसी समय प्रयोगशाला में जैव सुरक्षा सम्बंधी ढील भी दी गई थी। हालांकि शी
इस बात पर ज़ोर देती हैं कि उन्होंने अपना काम चीनी नियमों के अनुसार किया है और
किसी तरह की सुरक्षा ढील नहीं दी गई थी।
हालांकि अभी तक कोई भी ऐसा वायरस नहीं मिला है जो इसको तैयार करने की
प्रारंभिक सामग्री के रूप में उपयोग किया जा सके। कुछ लोग मोजियांग खदान में मिले
वायरस RaTG13 को सार्स-कोव-2 के मुख्य आधार के रूप में देखते हैं लेकिन सेल में
प्रकाशित एक पेपर के अनुसार दोनों के बीच 1100 क्षार का अंतर है और ये अंतर पूरे
आरएनए में बिखरे हुए हैं।
इस विषय में वायरोलॉजिस्ट और नोबेल पुरस्कार विजेता डेविड बाल्टीमोर द्वारा
सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार करने सम्बंधी साक्ष्य भी गैर-तार्किक हैं।
उनका कहना था कि वायरस के स्पाइक पर एक क्लीवेज साइट होती है जहां फ्यूरिन नामक
मानव एंज़ाइम प्रोटीन को तोड़ता है और सार्स-कोव-2 को कोशिकाओं को प्रवेश करने में
मदद करता है। प्रयोगशाला उत्पत्ति के समर्थकों का मत है कि यह क्लीवेज साइट
प्रयोगशाला में जोड़ी गई है। लेकिन यह आगे चलकर गलत साबित हुआ। गौरतलब है कि इस
जीनस के कई सदस्यों में फ्यूरिन क्लीवेज साइट कुदरती रूप से मौजूद होती हैं और कई
बार विकसित हुई हैं। यह बात सामने आने के बाद बाल्टीमोर ने अपना बयान वापिस ले
लिया है।
प्रयोगशाला-उत्पत्ति के पक्ष में एक तर्क यह भी दिया जा रहा है कि वायरस को
प्रयोगशाला में आनुवंशिक रूप से परिवर्तित करने की बजाय हो सकता है कि किसी वायरस
को प्रयोगशाला में बार-बार संवर्धित किया गया होगा ताकि हर बार होने वाले
उत्परिवर्तन इकट्ठे होते जाएं। लेकिन इसके लिए भी सार्स-कोव-2 के किसी निकट
सम्बंधी से शुरुआत करनी होगी। इस तरह का कोई प्रारंभिक वायरस किसी प्रयोगशाला में
उपस्थित नहीं है। दरअसल अमेरिकी खुफिया समुदाय भी सार्स-कोव-2 के मानव-निर्मित
होने के सुझाव को खारिज कर चुका है। उसकी रिपोर्ट में भी कहा गया कि इस वायरस को
आनुवंशिक रूप से तैयार नहीं किया गया है।
हुआनन सीफूड बाज़ार में अचानक से निमोनिया के मामलों में वृद्धि के बाद 31
दिसंबर 2019 को आधिकारिक रूप से महामारी की घोषणा की गई थी। हालांकि डब्ल्यूएचओ की
रिपोर्ट ने हुआनन व अन्य बाज़ारों पर काफी ध्यान दिया लेकिन अस्पष्टता बनी रही
क्योंकि कई मामलों का किसी भी बाज़ार से कोई सम्बंध नहीं था।
लेकिन डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में बताया गया था कि वैज्ञानिकों ने वुहान बाज़ार
के फर्श,
दीवारों और अन्य सतहों से कई नमूने एकत्रित किए थे जिससे
पता चला था कि बाज़ार वायरसों से भरा हुआ था। वैंग बताते हैं कि पर्यावरण के नमूनों
से कोरोनावायरस को अलग करना एक मुश्किल कार्य है। इसके अतिरिक्त इस रिपोर्ट में
कुछ बड़ी त्रुटियां भी हैं। जैसा कि रिपोर्ट में कहा गया है कि शुरुआती मामलों के
सम्बंध में हुआनन और अन्य बाज़ार में 2019 में जीवित स्तनधारी बेचे जाने की
सत्यापित रिपोर्ट नहीं मिली है। लेकिन चाइना वेस्ट नार्मल युनिवर्सिटी के
ज़ाउ-ज़ाओ-मिन और उनके साथियों ने जून में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें इस तथ्य
को चुनौती दी गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार मई 2017 से नवंबर 2019 के बीच हुआनन और
वुहान के तीन बाज़ारों की 17 दुकानों में 38 प्रजाति के लगभग 50,000 जीवित जीव बेचे
गए थे।
गौरतलब है कि मांस की बजाय जीवित जीवों से श्वसन सम्बंधी वायरस के फैलने की
अधिक संभावना होती है। इन जीवों में ऐसे जीव थे जो प्राकृतिक रूप से इस वायरस के
वाहक होते हैं और प्रयोगशाला में इनको सार्स-कोव-2 से संक्रमित भी किया जा चुका
है। यह अभी तक स्पष्ट नहीं कि डब्ल्यूएचओ के संयुक्त मिशन में शामिल चीनी सदस्यों
ने बाज़ार में जीवित स्तनधारियों के बारे में कोई जानकारी क्यों नहीं दी।
हो सकता है कि जीवों से मनुष्यों में जाने-आने की प्रक्रिया के दौरान वायरस
लगातार नए मेज़बान के अनुसार ढलता गया। यह प्रक्रिया काफी समय तक चलती रही होगी
जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया गया और बीमारी का गंभीर रूप लेने के बाद यह उभरकर सामने
आया। यह भी संभव है कि वायरस ने पहले किसी किसान को दूरदराज़ के ग्रामीण क्षेत्र
में संक्रमित किया होगा और वहां से यह वुहान बाज़ार में प्रवेश कर गया। कुछ
वैज्ञानिकों ने फर उद्योग की ओर भी ध्यान दिलाया है जहां मनुष्य रैकून डॉग और
लोमड़ियों के संपर्क में आते हैं।
हालांकि कुछ भी स्पष्ट रूप से कहने के लिए वैज्ञानिक मनुष्यों में कोविड के शुरुआती मामलों के बारे में अधिक जानकारी चाहते हैं और डब्ल्यूआईवी से चमगादड़ कोरोनावायरस का जीनोम अनुक्रम हासिल करना चाहते हैं जिसको चीन ने वेबसाइट हैक होने का कारण बताकर सितंबर 2019 में इंटरनेट से हटा लिया था। यदि यह डैटा प्राप्त हो जाता है तो काफी जानकारी प्राप्त हो सकती है। चीन की ओर से भी यह दावा किया जा रहा है कि यह वायरस फ्रोज़न फूड के माध्यम से किसी अन्य देश से चीन में आया है और जिसका इल्ज़ाम झूठे प्रचार के माध्यम से अमेरिका द्वारा चीन पर लगाया जा रहा है। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार चीन हर संभव प्रयास कर रहा है जिससे यह साबित किया जा सके कि इस महामारी की शुरुआत चीन के बाहर से हुई है। इस संदर्भ में अन्य स्थानों पर किए गए अध्ययनों से काफी चुनौतीपूर्ण परिणाम सामने आए हैं। पड़ोसी देशों के चमगादड़ों में कोरोनावायरस मिला है जिससे सार्स-कोव-2 के उत्पन्न होने के जैव विकास मार्ग को देखने का सुराग मिलता है। दक्षिण-एशिया के जंगली पैंगोलिन से अधिक साक्ष्य मिलने की सभावना है। बहरहाल, उत्पत्ति को लेकर कई परिकल्पनाएं हैं लेकिन फिलहाल प्राकृतिक उत्पत्ति ही सबसे संभावित व्याख्या है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9018/abs/_2021_0903_nf_bat_sampling.jpg
कई लोगों में कोविड-19 से उबरने के बाद भी कई हफ्तों या
महीनों तक थकान,
याददाश्त की समस्या और सिरदर्द जैसे लक्षण बने रहते हैं।
ऐसा क्यों होता और इसका उपचार क्या है यह पूरी तरह पता करने के लिए बड़े पैमाने पर
अध्ययन की ज़रूरत है। और हाल ही में यूएस के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच)
ने ऐसे ही एक अध्ययन के लिए लगभग 47 करोड़ डॉलर के अनुदान की घोषणा की है। इस
अध्ययन में कोविड-19 के संक्रमण उपरांत प्रभावों – जिसे दीर्घ कोविड कहते हैं – के
कारण पता लगाने के अलावा उपचार और रोकथाम के उपाय पता लगाए जाएंगे। यह अध्ययन सार्स-कोव-2 के संक्रमण
से नए पीड़ित और पूर्व में इसका संक्रमण झेल चुके 40,000 वयस्कों और बच्चों पर किया
जाएगा।
दीर्घ कोविड को सार्स-कोव-2 के विलंबित लक्षण भी कहते हैं। इसमें दर्द, थकान,
याद रखने में परेशानी, नींद
की समस्या,
सिरदर्द, सांस लेने में तकलीफ, बुखार,
पुरानी खांसी, अवसाद और दुÏश्चता जैसे लक्षण हो सकते हैं जो प्रारंभिक संक्रमण के चार
सप्ताह से अधिक समय तक बने रहते हैं। कभी-कभी ये लक्षण इतने गंभीर होते हैं कि
व्यक्ति काम नहीं कर पाता, उसे रोज़मर्रा के काम करने में
भी मुश्किल होती है।
यूएस रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्रों (सीडीसी) का अनुमान है कि कोविड-19 के
10 से 30 प्रतिशत रोगियों में दीर्घ कोविड विकसित होता है। यह संभवत: वायरस के
शरीर में छिप कर बैठे भंडार के कारण, अनियंत्रित प्रतिरक्षा
प्रणाली के कारण,
या संक्रमण से उपजी किसी चयापचय समस्या के कारण होता है।
लेकिन वास्तव में यह होता क्यों है, इसका सटीक और स्पष्ट कारण अब
तक पता नहीं है।
एनआईएच ने फरवरी में दीर्घ कोविड अनुसंधान कार्यक्रम की अपनी प्रारंभिक योजना
की रूपरेखा तैयार की थी। अब इसे रिसर्चिंग कोविड टू एनहान्स रिकवरी (RECOVER)
इनिशिएटिव का रूप दिया गया है जिसके लिए न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय को 47 करोड़ का
अनुदान मिला है। विश्वविद्यालय 35 संस्थानों के 100 से अधिक शोधकर्ताओं को शामिल
करेगा जो एक साझे प्रोटोकॉल के तहत संक्रमितों को अध्ययन में शामिल करेंगे।
अक्टूबर से शुरू होने वाले इस कार्यक्रम का लक्ष्य 12 महीने में सभी 50
राज्यों की विविध आबादी से 30 से 40 हज़ार प्रतिभागियों को शामिल करना है। इसमें
कुछ लोग जो दीर्घ कोविड से गुज़र रहे हैं, उन पर अध्ययन किया जाएगा
लेकिन इसमें शामिल अधिकांश लोग कोविड-19 संक्रमित होंगे यानी वे लोग होंगे जो हाल
ही में कोविड-19 से बीमार हुए हैं। अध्ययन में अस्पताल में भर्ती मरीजों के अलावा
मामूली कोविड-19 से पीड़ित लोग भी शामिल होंगे – क्योंकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि
क्या शुरुआत में अधिक गंभीर संक्रमण दीर्घ कोविड की ओर ले जाता है?
इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड की मदद से और प्रतिभागियों को पहनने योग्य उपकरण
देकर उनकी हृदय गति, नींद वगैरह की निगरानी की जाएगी। इस तरह यह
अध्ययन उन लोगों के स्वास्थ्य की तुलना करेगा जो जल्दी ही ठीक हो जाते हैं और
जिनके लक्षण लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके आधार पर दीर्घ कोविड का जोखिम पैदा
करने वाले कारकों और जैविक संकेतों का पता लगाया जाएगा। शोधकर्ता यह भी पता
लगाएंगे कि क्या कोविड-19 का टीका लेने से दीर्घ कोविड के लक्षण कम होते हैं?
अध्ययन में लगभग आधे प्रतिभागी बच्चे होंगे और नवजात शिशु भी होंगे। भले ही आम
तौर पर बच्चों में कोविड-19 के हल्के या कोई भी लक्षण नहीं होते हैं लेकिन यह
चिंता उभरी है कि क्या उनमें विलंबित लक्षण पैदा होंगे। एक कारण यह भी है कि इस
समय जितने बच्चे पीड़ित हैं, पूरी महामारी के दौरान इतने
नहीं थे।
हालांकि यह अध्ययन दीर्घ कोविड के लिए नए उपचारों का परीक्षण नहीं करेगा।
लेकिन शोधकर्ता उन प्रोटीन या आणविक प्रक्रियाओं की पहचान करेंगे जो दीर्घ कोविड
में भूमिका निभाते हैं और मौजूदा औषधियों द्वारा इन्हें अवरुद्ध करने की संभावना
जांचेंगे।
हालांकि इस अध्ययन के तरीके से इस क्षेत्र की एक प्रमुख कार्यकर्ता निराश हैं क्योंकि यह प्रयास बड़े पैमाने पर उन लोगों को अध्ययन में शामिल करेगा जिनमें अब तक दीर्घ कोविड विकसित नहीं हुआ है चूंकि वे हाल ही में संक्रमित हुए हैं। इनमें से बड़ी संख्या में लोग टीके ले चुके हैं। दरअसल इसमें उन लाखों लोगों को शामिल किया जाना चाहिए जो वर्तमान में इससे पीड़ित हैं। सर्वाइवर कोर की संस्थापक डायना बेरेंट का कहना है कि एनआईएच का यह अध्ययन छलावा है। इससे हम किसी नतीजे तक नहीं पहुंचेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69066/aImg/43308/09-21-longcovid-article2-m.jpg
16 जनवरी 2020 को इरेस्मस युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर के पशु
रोग विशेषज्ञ थीस कुइकेन को दी लैंसेट से समीक्षा के लिए एक शोधपत्र मिला
था, जिसने उन्हें दुविधा में डाल दिया।
हांगकांग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के इस शोधपत्र में बताया गया था कि चीन
के शेन्ज़ेन शहर के एक परिवार के छह सदस्य वुहान गए थे, और उनमें से पांच सदस्य कोविड-19 से संक्रमित पाए गए। इनमें से कोई वुहान के
सार्स-कोव-2 के शुरुआत मामलों से जुड़े हुआनन सीफूड बाज़ार नहीं गया था। इस परिवार
के शेन्ज़ेन वापस लौटने के बाद परिवार का सातवां सदस्य भी इससे संक्रमित हो गया, जो वुहान गया ही नहीं था।
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष स्पष्ट था: सार्स-कोव-2 मनुष्य से मनुष्य में फैल सकता
था। उनके दो निष्कर्षों और थे। एक, परिवार
के संक्रमित लोगों में से दो सदस्यों में कोई लक्षण नहीं दिख रहे थे, यानी यह बीमारी दबे पांव आ सकती है। दूसरा, एक सदस्य में इस नई बीमारी का सबसे आम लक्षण (श्वसन
सम्बंधी) नहीं था लेकिन उसे पेचिश हो रही थी। मतलब था कि यह बीमारी चिकित्सकों को
चकमा दे सकती है।
इन निष्कर्षों ने कुइकेन को दुविधा में डाल दिया। कुछ लोगों को पहले ही संदेह
था कि सार्स-कोव-2 मनुष्य से मनुष्य में फैल सकता है; और दो दिन पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने आशंका भी ज़ाहिर की
थी। अब कुइकेन के सामने इस बात के प्रमाण मौजूद थे। उन्हें लग रहा था कि लोगों को
इस बारे में जल्द से जल्द बताना चाहिए, क्योंकि
वर्ष 2003 में फैले सार्स के अनुभव से कुइकेन जानते थे कि किसी घातक और तेज़ी से
प्रसारित होने वाले वायरस के प्रसार को थामने के लिए शुरुआत के दिन कितने
महत्वपूर्ण होते हैं। और सार्स-कोव-2 सम्बंधी इस जानकारी में देरी होने से लोगों
को खतरा था।
लेकिन यदि वे इसका खुलासा करते तो उनकी वैज्ञानिक प्रतिष्ठा दांव पर लग जाती।
दरअसल, जर्नल के समीक्षकों को किसी भी परिस्थिति
में अप्रकाशित पांडुलिपियों को साझा करने या उनके निष्कर्षों का खुलासा करने की
अनुमति नहीं होती है।
कुइकेन की यह दुविधा जुलाई में प्रकाशित हुई वेलकम ट्रस्ट की जेरेमी फरार और
अंजना आहूजा द्वारा लिखित पुस्तक स्पाइक: दी वायरस वर्सेस दी पीपल – दी इनसाइड
स्टोरी में उजागर की गई है। साइंस पत्रिका ने इस मामले पर अतिरिक्त प्रकाश
डाला है।
साइंस पत्रिका से बात करते हुए फरार कहती हैं कि इस मामले ने
वेलकम ट्रस्ट की इस पहल में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी कि कोविड-19 के निष्कर्षों
को शीघ्रातिशीघ्र साझा किया जाए। इसी के तहत दी लैंसेट और चाइनीज़ सेंटर फॉर
डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन सहित कई पत्रिकाओं और शोध संगठनों ने जनवरी 2020 में
यह करार किया कि प्रकाशन के लिए भेजे गए कोविड-19 से सम्बंधी शोध पत्रों को वे
डब्ल्यूएचओ को तुरंत उपलब्ध कराएंगे।
इसी बीच कुइकेन को दी लैंसेट के संपादक ने फोन पर बताया कि शोधकर्ता
स्वयं अपने परिणामों का खुलासा करने के लिए स्वतंत्र हैं। (दी लैंसेट के
अनुसार, दी लैसेंट को भेजी गई पांडुलिपियों के लेखकों को अपने अप्रकाशित शोध पत्रों को सम्बंधित
चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य निकायों, वित्तदाताओं के साथ और प्रीप्रिंट सर्वर पर साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया
जाता है)। तो 17 जनवरी 2020 की सुबह पत्रिका को भेजी अपनी समीक्षा में कुइकेन ने
शोधकर्ताओं से एक असामान्य अनुरोध किया कि वे अपने डैटा को ‘तुरंत’ सार्वजनिक कर
दें। दी लैंसेट के संपादकों ने उनके अनुरोध का समर्थन किया।
एक संपादक के मुताबिक शोधकर्ता तो अपने निष्कर्षों का खुलासा करना चाहते थे
लेकिन वे चीन सरकार की अनुमति के बिना ऐसा नहीं कर सकते। दरअसल संचारी रोगों के
नियंत्रण और रोकथाम पर चीन का कानून कहता है कि केवल राज्य परिषद, या अधिकृत नगरीय/प्रांतीय स्वास्थ्य अधिकारी ही संचारी
रोगों के प्रकोप के बारे में जानकारी प्रकाशित कर सकते हैं। कुइकेन को बताया गया
कि प्रमुख शोधकर्ता युएन क्वोक-युंग को चीन के अधिकारियों के साथ निष्कर्षों पर
चर्चा करने के लिए आमंत्रित किया गया है।
शनिवार दोपहर कुइकेन ने फरार से इस मामले पर सलाह मांगी। फरार ने तीन विकल्प
सुझाए। पहला, सोमवार तक इंतजार किया जाए। दूसरा, स्वयं जानकारी का खुलासा कर दें। और तीसरा, सीधे ही डब्ल्यूएचओ को इसकी जानकारी दे दी जाए।
कुइकेन ने तीसरा विकल्प चुना। शनिवार शाम कुइकेन ने डब्ल्यूएचओ के स्वास्थ्य
आपात कार्यक्रम की तकनीकी प्रमुख मारिया वैन केरखोव से कहा कि यदि रविवार सुबह तक
यह जानकारी सार्वजनिक नहीं होती तो वे उन्हें पांडुलिपि भेज देंगे। दी लैंसेट
के संपादक से पता चला कि चीन सरकार के साथ शोधकर्ताओं की चर्चा अभी जारी है।
लेकिन रविवार सुबह कुइकेन फिर दुविधा में थे। उन्होंने सोचा कि यदि शोधकर्ताओं
की अनुमति के बिना इन निष्कर्षों को दर्शाने वाले आंकड़े भर ऑनलाइन कर दिए गए तो यह
बहुत अपमानजनक होगा। इसलिए उन्होंने पांडुलिपि का एक विस्तृत सारांश लिखा, और उसे रविवार सुबह वैन केरखोव को भेज दिया।
बहरहाल, सोमवार को चीन ने दी लैसेंट की
पांडुलिपि का हवाला देते हुए आधिकारिक स्तर पर यह घोषणा कर दी कि यह बीमारी मनुष्य
से मनुष्य में फैल सकती है। इस घोषणा ने कुइकेन को बड़ी राहत दी।
हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि डब्ल्यूएचओ से संपर्क करने के उनके फैसले ने चीन
की घोषणा को गति दी या नहीं। केरखोव ने यह नहीं बताया कि उन्होंने या डब्ल्यूएचओ
के अन्य किसी सदस्य ने चीन के सरकारी अधिकारियों या शोधकर्ताओं को इस बारे में
बताया था या नहीं।
वहीं शोधकर्ता युएन के अनुसार, 18 से
20 जनवरी 2020 तक वुहान और बीजिंग में वे सरकार की विशेषज्ञ टीम से मिले, जहां इन निष्कर्षों पर चर्चा हुई। युएन का कहना है कि मुझे
नहीं लगता कि कुइकेन का निर्णय बहुत प्रासंगिक था क्योंकि मैंने देखा कि चीन के
स्वास्थ्य अधिकारी हमारी रिपोर्ट के प्रति सकारात्मक थे, और उन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य नियंत्रण उपायों को बढ़ाने के लिए तत्काल
कार्रवाई की। जिसमें 20 जनवरी, 2020
को मनुष्य से मनुष्य में संचरण की बात का खुलासा और 23 जनवरी, 2020 को वुहान को बंद करना शामिल था।
वेलकम ट्रस्ट के आह्वान के एक हफ्ते बाद यह शोधपत्र दी लैंसेट ने 24
जनवरी 2020 को ऑनलाइन प्रकाशित किया। 2016 में ज़ीका वायरस के प्रकोप के समय भी इसी
तरह के कदम उठाए गए थे, लेकिन तब पत्रिकाओं
द्वारा अप्रकाशित शोधपत्र साझा करने की बात नहीं हुई थी, जो कोविड-19 के समय हुई जो कि महत्वपूर्ण थी।
कुइकेन को अपने उठाए गए कदम का कोई खामियाजा नहीं भुगतना पड़ा। कुइकेन उम्मीद करते हैं कि वैज्ञानिक समुदाय में उनकी दुविधा पर चर्चा की जाएगी। कुइकेन का कहना है कि वेलकम ट्रस्ट का बयान बहुत अच्छा है, लेकिन इसमें इस बारे में कुछ नहीं कहा गया है कि आपात स्थितियों में पांडुलिपियों के समीक्षकों को ऐसी महत्वपूर्ण जानकारी का क्या करना चाहिए। मैंने नियमों के बाहर जाकर कदम उठाए। दरअसल, यह नियमानुसार संभव होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acx9033/full/_20210830_on_dutchscientist.jpg