नए उपचारों के लिए प्रकृति का सहारा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम, सुशील चंदानी

चिकित्सा विज्ञान में प्रगति के लिए ऐसी नई-नई औषधियों की आवश्यकता होती है जिनमें वांछित जैविक गुणधर्म हों। आशावादी सोच यह है कि विभिन्न तकनीकी मोर्चों पर तीव्र प्रगति के चलते नई दवाइयों की खोज और निर्माण आसान होता जाएगा।

आणविक स्तर पर रोग प्रक्रियाओं की बढ़ती समझ ने औषधियों के संभावित लक्ष्यों की एक लंबी सूची उपलब्ध कराई है। कंप्यूटर की मदद से ‘तर्कसंगत ड्रग डिज़ाइन’, कार्बनिक रसायन शास्त्रियों द्वारा इन कंप्यूटर-जनित औषधियों को बनाया जाना, और फिर त्वरित गति से इनकी जांच – जिसमें औषधियों के परीक्षण के लिए ऑटोमेशन का उपयोग किया जाता है – ने नई खोजों में सहायता की है। फिर भी, नई दवाइयों का वास्तविक चिकित्सकीय उपयोग करने की गति अपेक्षा के अनुरूप नहीं है।

प्राकृतिक उत्पाद

हमारे आसपास की प्राकृतिक दुनिया नए उपचारों का एक जांचा-परखा स्रोत रही है – पारंपरिक चिकित्सा प्रणाली हमेशा से प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर थी। प्राकृतिक उत्पाद ऐसे रसायन होते हैं जो मिट्टी और पानी में पनपने वाले पौधों और सूक्ष्मजीवों में पाए जाते हैं।

1946 में हुए कैंसर-रोधी दवा के पहले क्लीनिकल परीक्षण से लेकर 2019 तक के सभी स्वीकृत कैंसर-रोधी औषधीय अणुओं में से 40 प्रतिशत अणु या तो प्रकृति में पाए जाने वाले पदार्थ हैं, या प्राकृतिक उत्पादों से प्राप्त किए गए हैं। इसी प्रकार से, 1981-2019 के दौरान की 162 नए एंटीबायोटिक उपचारों में से आधे या तो शुद्ध प्राकृतिक उत्पाद हैं या प्रकृति-व्युत्पन्न हैं यानी कि वे प्रयोगशालाओं में डिज़ाइन किए गए हैं लेकिन प्रकृति में पाए जाने वाले अणुओं के लगभग समान हैं (न्यूमैन व क्रैग, जर्नल ऑफ नेचुरल प्रोडक्ट्स, 2020)।

मसलन एज़िथ्रोमाइसिन नामक एंटीबायोटिक। इसे पहली बार क्रोएशिया स्थित ज़ग्रेब के रसायनज्ञों द्वारा संश्लेषित किया गया था। उन्होंने बड़ी चतुराई से प्राकृतिक रूप से पाई जाने वाली और आम तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली एंटीबायोटिक एरिथ्रोमाइसिन-ए के अणु में एक अतिरिक्त नाइट्रोजन परमाणु जोड़ा था। एरिथ्रोमाइसिन के साइड प्रभावों की तुलना में इस संश्लेषित दवा के साइड प्रभाव कम थे, और आज यह चिकित्सकों द्वारा लिखी जाने वाली सबसे आम एंटीबायोटिक दवाओं में से एक है। इसके विपरीत, 1981 से 2019 के बीच अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन को नए रासायनिक पदार्थों के रूप में प्रस्तुत सभी 14 हिस्टामाइन-रोधी दवाइयां (जैसे सिट्रेज़िन) शुद्धत: संश्लेषित आविष्कार हैं।

कई शक्तिशाली प्राकृतिक उत्पाद अपने मूल स्रोत में अत्यल्प मात्रा में मौजूद होते हैं, जिसके चलते प्रयोगशाला में जांच के लिए इनकी पर्याप्त मात्रा एकत्र करना मुश्किल हो जाता है। ये दर्जनों अन्य रासायनिक पदार्थों के साथ पाए जाते हैं, इसलिए वांछित अणु को ढूंढ निकालना सहज-सरल नहीं होता। इसके लिए श्रमसाध्य पृथक्करण प्रक्रियाओं की आवश्यकता होती है। एक तरीका है कि प्रारंभिक परिणामों के आशाजनक होने के बाद वांछित अणु का अधिक मात्रा में संश्लेषण किया जाए।

पुरानी दवाओं का नया रूप

पारंपरिक रूप से इस्तेमाल की जाने वाली प्राकृतिक स्रोत से प्राप्त दवा से एक नई संभावित दवा तैयार करने का उदाहरण हाल ही में स्क्रिप्स रिसर्च के स्टोन वू और रयान शेनवी द्वारा नेचर पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। दक्षिण प्रशांत में पापुआ न्यू गिनी द्वीप पर गलबुलिमिमा पेड़ की छाल का उपयोग लंबे समय तक दर्द और बुखार के इलाज में किया जाता था। चूंकि यह भ्रांतिजनक भी है, इसका उपयोग अनुष्ठानों में भी किया जाता है। जब इसे होमालोमेना झाड़ी की पत्तियों के साथ लिया जाता है तो यह मदहोशी पैदा करता है, एक शांत स्वप्न जैसी अवस्था को लाता है जिसके बाद सुखद नींद आती है। होमलोमेना (हिंदी में सुगंधमंत्री) भारत में पाई जाती है, और पारंपरिक रूप से कई बीमारियों में इसका उपयोग किया जाता रहा है। गलबुलिमिमा ने दशकों से औषधीय रसायनज्ञों को आकर्षित किया है। इस पेड़ के अर्क में 40 अद्वितीय अल्केलॉइड पहचाने गए हैं। अल्केलॉइड कुनैन और निकोटीन जैसे नाइट्रोजन युक्त कार्बनिक यौगिक हैं जो कई पौधों में पाए जाते हैं।

वू और शेनवी ने जटिल ज्यामितीय संरचना वाले अल्केलॉइड GB18 के संश्लेषण करने का एक कार्यक्षम तरीका खोज निकाला है। उनकी विधि से GB18 का कुछ ग्राम में उत्पादन किया जा सकता है। छाल में इसकी उपस्थिति मात्र अंश प्रति मिलियन (पीपीएम) होती है। परीक्षणों में पता चला है कि यह ओपिऑइड (अफीमी औषधि) ग्राहियों का रोधी है।

मानव शरीर में ओपिऑइड ग्राही तंत्रिका तंत्र और पाचन तंत्र में पाए जाते हैं। हमारे शरीर में एंडॉर्फिन जैसे ओपिऑइड बनते हैं, जो इन ग्राहियों से जुड़ जाते हैं और दर्द संकेतों के संचरण को कम करते हैं। एंडॉर्फिन में मॉर्फिन जैसे दर्दनाशक गुण होते हैं। एंडॉर्फिन आनंद की अनुभूति भी कराते हैं। इन दोनों बातों से समझ में आता है कि ओपिऑइड ग्राहियों को सक्रिय करने वाले पदार्थों की लत क्यों लगती है।

GB18 दर्द की अनुभूति को प्रभावित नहीं करता है लेकिन इसका संज्ञानात्मक प्रभाव पड़ता है – चूहे अपने बालों और मूंछों को संवारने जैसे व्यवहारों में कम समय व्यतीत करने लगते हैं।

ओपिऑइड ग्राहियों का अंतिम रोधी नाल्ट्रेक्सोन था जिसे 35 साल पहले खोजा गया था। भारत में यह नोडिक्ट और नलटिमा जैसे ब्रांड नामों से बिकता है और इसका उपयोग अफीमी दवाओं के साथ-साथ शराब की लत के प्रबंधन में किया जाता है। और चूंकि अफीमी औषधियों के ग्राही पाचन तंत्र में पाए जाते हैं, नाल्ट्रेक्सोन मोटे लोगों में वज़न घटाने में भी मदद करता है।

GB18 और इससे निर्मित कई संभावित अणुओं के उपयोग क्या होंगे? आगे बहुत काम किया जाना बाकी है, और कई रोमांचक चिकित्सकीय संभावनाएं नज़र आ रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बूस्टर डोज़ का महत्व निजी नहीं, सार्वजनिक है – अरविंद सरदाना

रकार द्वारा बूस्टर डोज़ की घोषणा एक सही कदम है, परंतु इसे केवल 75 दिनों तक मुफ्त रखना समझ से परे है।

बूस्टर डोज़ की ज़रूरत क्यों

विशेषज्ञों का कहना है कि महामारी के टीके का असर 6 से 9 महीनों में कम हो जाता है; इसलिए सभी देश अपनी जनता को बूस्टर डोज़ लगवा रहे हैं। कई देशों ने यह काम पहले ही शुरू कर दिया था। यदि शरीर की महामारी से लड़ने की क्षमता को बरकरार रखना है तो बूस्टर की ज़रूरत होगी।

अब, चूंकि कोविड फिर से फैल रहा है, तो ज़रूरी हो जाता है कि बूस्टर डोज़ सभी को लगे। और यह काम महामारी का नया स्‍वरूप फैलने से पहले होना चाहिए। इसके अलावा, बूस्टर डोज़ केवल 75 दिन के लिए नहीं बल्कि सामान्य रूप से उपलब्ध होना चाहिए और इसका प्रचार होना चाहिए कि यह सभी को लगवाना है।

कुछ दिन पहले हमारे एक मित्र बूस्टर डोज़ लगवाने गए, पर हमारे छोटे शहर में कहीं उपलब्ध नहीं था। इंदौर के एक अस्पताल में बमुश्किल मिला। यदि निजी तौर पर लोगों को बूस्टर डोज़ लगवाना पड़े, तो आप मान कर चलें कि 5 प्रतिशत से अधिक लोग इसे नहीं लगवा पाएंगे – यह खर्चीला भी है और दुर्लभ भी।

दुर्भाग्य यह है कि हम महामारी के टीके के सिद्धान्‍त को समझ नहीं रहे हैं। हम तभी सुरक्षित होंगे, जब सभी लोग सुरक्षित होंगे। महामारी के टीके द्वारा हमारा लक्ष्य है कि कम से कम 80 प्रतिशत लोगों का टीकाकरण हो जाए ताकि समाज में एक ‘कवच’ बन जाए और महामारी को फैलने का रास्ता ना मिले। इसे ‘हर्ड इम्युनिटी’ कहते हैं। अर्थात यह एक सार्वजनिक ज़रूरत है। इसे मात्र निजी सुरक्षा के उपाय के रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए। लोगों को निजी पहल पर निजी अस्पताल में जाकर टीका लगवाने को कहने से ऐसी धारणा बनती है कि टीका व्यक्ति की निजी सुरक्षा भर के लिए है। लोग इसे लेने की महत्ता को तभी समझेंगे जब टीका सभी के लिए मुफ्त व बिना शर्त उपलब्ध होगा। बूस्टर देने में और देरी नहीं करनी चाहिए। ‘निजी सुरक्षा’, ‘सीमित अवधि के लिए उपलब्‍ध’ जैसे संदेशों से गलत माहौल बना है। अब इसे सार्वजनिक मुहिम में बदलना चाहिए।

कुछ लोग सोचते हैं कि मुफ्त भी हो तों मैं क्यों लगवाऊं, महामारी हमारे इलाके में नहीं है। यहां सार्वजनिक संवाद की ज़रूरत है। हम तभी सुरक्षित हैं जब अधिक लोग इसे लगवाएंगे।

यह याद रखना चाहिए कि महामारी का फैलाव एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। नए-नए संस्करण निकलेंगे। ऐसे में, लगातार निगरानी और विज्ञान ही हमें महामारी से मुकाबला करने के रास्ते बता सकता है। दवा की अनुपस्थिति में मास्क, टीका और भीड़भाड़ से दूर रहना ही उपाय हैं। (स्रोत फीचर्स)

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व्यायाम दिमाग को जवान रख सकता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम

मानव मस्तिष्क 10 वर्ष की उम्र तक वयस्क आकार में तो पहुंच जाता है; लेकिन इसकी वायरिंग और इसकी क्षमताएं जीवन भर बदलती रहती हैं।

40 की उम्र के बाद मस्तिष्क सिकुड़ने लगता है। मस्तिष्क में से कम रक्त प्रवाहित होता है, और हारमोन्स तथा न्यूरोट्रांसमीटर्स के स्तर कम हो जाते हैं। वृद्धावस्था नए काम सीखने जैसे कुछ कार्यों को मंद कर देती है।

कुछ नया सीखने के लिए मस्तिष्क में नए तंत्रिका-कनेक्शन बनने ज़रूरी होते हैं; इस गुण को न्यूरोप्लास्टिसिटी (तंत्रिका-लचीलापन) कहते हैं। आपका मस्तिष्क एक नित परिवर्तनशील इकाई है जो नए अनुभवों के हिसाब से लगातार खुद को ढालता रहता है।

मस्तिष्क की कुछ संरचनाओं में अन्य की तुलना में अधिक लचीलापन होता है और इनमें अधिक नए कनेक्शन बनते-बिगड़ते रहते हैं। वृद्धावस्था इन संरचनाओं को तुलनात्मक रूप से में अधिक प्रभावित करती है। ऐसी ही एक संरचना है हिप्पोकैम्पस। हिप्पोकैम्पस हमारे दोनों कानों के बीच स्थित होता है। यह नई और स्थायी स्मृतियां बनाने और उन्हें सुदृढ़ करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस तरह से यह सीखने और तज़ुर्बे में भूमिका निभाता है। यह आपके आसपास के परिवेश का मानसिक चित्र भी बनाता है, जिससे आप अपने घर का रास्ता जान पाते हैं।

प्रयोगों से पता चला है कि वृद्ध चूहों के मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं के बीच कनेक्शन (सायनेप्स) कम थे और भूलभुलैया में से बाहर का रास्ता खोजने में उनका प्रदर्शन भी घटिया रहा। इससे संकेत मिलता है कि उनमें स्थान-विषयक सीखने/समझ की कमी होती है।

लंदन के टैक्सी ड्राइवरों के मस्तिष्क का एमआरआई करने पर पता चला है कि उनका हिप्पोकैम्पस बड़ा था – हिप्पोकैम्पस में शहर की सड़कों का नक्शा बस जाता है, और नए अनुभव होने पर यह ‘नक्शा’ आसानी से विस्तारित होता जाता है।

हालांकि, इस मामले में मनुष्यों पर हुए अध्ययनों में दिखे व्यक्ति-दर-व्यक्ति अंतर हैरान करने वाले हैं – कुछ “सुपर वृद्ध” स्मृति परीक्षणों में नौजवानों को मात दे सकते हैं।

दिमागी चोट

मस्तिष्क की रीवायरिंग और परिवर्तन क्षमता सदमे या स्ट्रोक से होने वाली मस्तिष्क क्षति के मामलों में देखी गई है। ऐसे हादसों में मस्तिष्क की कोशिकाएं बड़ी संख्या में मर जाती हैं, जिसके कारण कुछ क्षमताएं गुम हो जाती हैं। अलबत्ता, समय के साथ, मस्तिष्क खुद को फिर से तैयार करता है और खोई हुई क्षमताएं आंशिक या पूर्ण रूप से बहाल हो जाती हैं। इस प्रक्रिया को दवाओं, स्टेम सेल थेरपी और मनोवैज्ञानिक हस्तक्षेप से गति दी जा सकती है।

हालांकि ज़रूरी नहीं कि हमेशा ऐसा हो लेकिन अक्सर उम्र बढ़ने पर संज्ञान क्षमता में कमी आती है। स्मृति के साथ-साथ कार्यकारी प्रणालियां भी गड़बड़ा सकती हैं – जैसे योजना बनाने की क्षमता और एक साथ दो या दो से अधिक काम करने की क्षमता।

ये परिवर्तन मस्तिष्क के अपने तंतु फिर से जोड़ने की क्षमता में कमी, तंत्रिका-लचीलेपन में कमी, का परिणाम हैं। लेकिन व्यवहार और जीवन शैली में बदलाव करके मस्तिष्क की नया सीखने की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है और इससे एक युवा मस्तिष्क की तरह कार्य करवाया जा सकता है।

मस्तिष्क को युवा बनाए रखने के लिए नियमित व्यायाम और अच्छा आहार उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि सीखने (नई भाषा या वाद्ययंत्र में महारत हासिल करने) की चाह रखना।

व्यायाम के लाभ

वृद्ध व्यक्तियों में व्यायाम हृदय रोग और उच्च रक्तचाप जैसे विकारों के जोखिम को कम करता है। इस तरह के विकार मनोभ्रंश (डिमेंशिया) के जोखिम को बढ़ाते हैं। अर्थात व्यायाम मनोभ्रंश और अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के जोखिम को भी कम करता है।

नियमित व्यायाम आपको वज़न कम करने में मदद करता है; या कम से कम वज़न बढ़ना रुक जाता है, या कम किया हुआ वज़न दोबारा नहीं बढ़ता। व्यायाम से फेफड़े, पेट, बड़ी आंत (कोलन) और ब्लैडर के कैंसर की संभावना कम हो जाती है। व्यायाम करने वाले व्यक्तियों में चिंता और अवसाद से घिरने का खतरा भी कम होता है।

वृद्धों में व्यायाम का एक महत्वपूर्ण लाभ यह है कि इससे गिरने का और गिरने से पहुंचने वाली चोटों का जोखिम कम हो जाता है। एन-कैथरीन रोजे और उनके साथियों के एक अध्ययन (न्यूरोसाइकोलॉजिया, 2019) के अनुसार व्यायाम आपके खड़े रहते और चलते दोनों स्थितियों में शरीर विन्यास की स्थिरता को बढ़ाता है, क्योंकि आपका मस्तिष्क संतुलन में गड़बड़ी होने पर त्वरित प्रतिक्रिया देने के लिए लगातार प्रशिक्षित होता रहता है।

सवाल है कि किस तरह का व्यायाम बेहतर है? 40-56 वर्ष के व्यक्तियों के साथ 6 महीने तक (स्ट्रेचिंग/तालबद्ध) प्रशिक्षण और एरोबिक स्थिरता प्रशिक्षण (घर पर साइकिल चलाना) के परिणामों की तुलना करने पर पाया गया कि दोनों तरह की गतिविधियों से सुस्त व्यक्तियों की स्मृति में सुधार दिखा। ये गतिविधियां बेशक हृदय-रक्तवाहिनी की हालत में भी सुधार करेंगी। अध्ययन में शामिल जिन प्रतिभागियों के हृदय-वाहिनी स्वास्थ्य में सबसे अधिक सुधार दिखा, उनकी याददाश्त में भी सबसे अच्छा सुधार दिखा। वापिस सुस्त हो जाना और फिटनेस में कमी स्मृति सम्बंधी लाभ को बेअसर कर देता है (हॉटिंग व रोडर, न्यूरोसाइंस विहेवियर रिव्यूस, 2013)।

संज्ञान प्रशिक्षण, यानी दिमागी कसरत, आपके मस्तिष्क को लचीला रहने में मदद करता है। संज्ञान प्रशिक्षण के साथ शारीरिक व्यायाम करने से वृद्धजनों की संज्ञान क्षमताओं में और भी अधिक सुधार होता है।

एक सवाल है कि कितना व्यायाम? अक्सर वृद्ध व्यक्तियों में स्वास्थ्य और संज्ञान सम्बंधी मूल्यांकन 10 मिनट की दैनिक सैर के पहले और बाद में किया जाता है; दैनिक सैर में थोड़ी जॉगिंग और थोड़ा टहलना शामिल है (जो हल्का पसीना पैदा करने के लिए पर्याप्त हो लेकिन थकाए नहीं)। 65 साल से अधिक उम्र के लोगों के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सप्ताह में पांच या अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलने की सलाह देता है। (स्रोत फीचर्स)

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उबकाई के इलाज का नया लक्ष्य

ममें से अधिकांश लोगों ने उबकाई या जी मिचलाने का अनुभव किया होगा। लेकिन वैज्ञानिक अब तक पूरी तरह यह समझ नहीं पाए हैं कि जी मिचलाने का जैविक आधार क्या है या इसे कैसे रोका जाए।

हाल ही में चूहों पर हुए एक अध्ययन ने इसका एक संभावित कारक दर्शाया है – मस्तिष्क की कुछ विशिष्ट कोशिकाएं, जो आंत से ‘संवाद’ करके मितली के एहसास का शमन कर देती हैं।

हारवर्ड विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट चुचु झांग और उनके साथियों ने अपना अध्ययन ‘एरिया पोस्ट्रेमा’ पर केंद्रित किया। ‘एरिया पोस्ट्रेमा’ मस्तिष्क स्तंभ के निचले हिस्से में स्थित एक छोटी-सी संरचना होती है। मितली से इसका सम्बंध पहली बार 1950 के दशक में पता चला था। जानवरों में इस हिस्से में विद्युत उद्दीपन उल्टी करवा देता है।

दरअसल पिछले साल झांग की टीम ने एरिया पोस्ट्रेमा में दो प्रकार की विशिष्ट उद्दीपक तंत्रिकाओं की पहचान की थी जो चूहों में मितली जैसा व्यवहार जगाते हैं। कृंतक जीव उल्टी तो नहीं कर पाते हैं, लेकिन जब उन्हें इसका एहसास होता है तो वे बेचैन हो जाते हैं। शोधकर्ताओं ने दर्शाया था कि एरिया पोस्ट्रेमा की तंत्रिकाएं ही कोशिकाओं को उकसाकर इस व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार होती हैं।

एरिया पोस्ट्रेमा की कोशिकाओं का जेनेटिक अनुक्रमण करने पर इस हिस्से में अवरोधक तंत्रिकाओं का भी पता चला था। वैज्ञानिकों का विचार था कि ये अवरोधक उद्दीपक तंत्रिकाओं के कार्य को दबा सकते हैं और मितली के एहसास को थाम सकते हैं।

इस नए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने चूहों को ग्लूकोज़ इंसुलिनोट्रॉपिक पेप्टाइड (जीआईपी) का इंजेक्शन लगाया। यह आंत में बनने वाला हार्मोन है जो मनुष्य और अन्य जानवरों में शर्करा और वसा को खाने के बाद बनता है। पूर्व में गंधविलाव पर हुए अध्ययन में देखा गया था कि जीआईपी उल्टी को रोकता है। इस आधार पर झांग का अनुमान था कि यह मितली को भी शांत कर सकता है। उनका यह भी अनुमान था कि यह रसायन मितली-रोधक तंत्रिकाओं को सक्रिय करने में भी भूमिका निभा सकता है।

अपने अनुमान को परखने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों को मितली-उत्प्रेरक पदार्थ युक्त सुगंधित पानी दिया। एक बार पीने के बाद चूहे इस पानी से कतराने लगे। लेकिन जब इस पानी में जीआईपी मिलाया गया तो इस पानी को उन्हीं कृंतकों ने दोबारा खुशी-खुशी पिया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने ऐसे चूहे तैयार किए जिनके एरिया पोस्ट्रेमा में अवरोधक न्यूरॉन्स का अभाव था। जब इन चूहों पर अध्ययन दोहराया गया तो पाया गया कि मितली-उत्प्रेरक युक्त पानी में जीआईपी मिला देने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा: चूहे यह पानी पीने से कतराते रहे।

सेल पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि जीआईपी अवरोधक तंत्रिकाओं को सक्रिय कर देता है जो एरिया पोस्ट्रेमा में उल्टी-प्रेरक तंत्रिकाओं को अवरुद्ध कर देती हैं, नतीजतन मितली का अहसास दब जाता है।

हालांकि यह अध्ययन मितली को दबाने में आंत-स्रावित जीआईपी की भूमिका पर केंद्रित था लेकिन झांग का कहना है कि शरीर में संभवतः ऐसे अन्य कारक भी होंगे जो मितली-अवरोधक तंत्रिकाओं को सक्रिय करते होंगे।

आगे शोधकर्ता जानना चाहते हैं कि आंत और एरिया पोस्ट्रेमा के बीच संवाद कैसे होता है। यह तो मालूम है कि इस क्षेत्र की तंत्रिकाएं वेगस तंत्रिका के माध्यम से आंत से जुड़ी हुई हैं, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि मस्तिष्क की कोशिकाएं वास्तव में आंत से कैसे ‘बतियाती’ हैं।

यह अध्ययन अवरोधक और उद्दीपक तंत्रिकाओं को लक्ष्य करके मितली-शामक दवाइयां विकसित करने का रास्ता खोल सकता है। मौजूदा मितली-रोधी दवाएं मुख्यत: मस्तिष्क कोशिकाओं के दो सामान्य रासायनिक ग्राहियों को लक्ष्य करती हैं, लेकिन यह अब तक बहुत स्पष्ट नहीं है कि ये कैसे काम करती हैं। और कीमोथेरेपी और मॉर्निंग सिकनेस जैसी कुछ स्थितियों में ये दवाइयां उतनी कारगर नहीं होती हैं। नई दवाइयां कैंसर रोगियों के लिए विशेष रूप से मददगार साबित हो सकती हैं, जो अक्सर मितली के कारण उपचार क्रम का पालन करने से कतराते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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तंत्रिका को शीतल कर दर्द से राहत

शकों से दर्द से राहत के लिए अफीमी दवाओं (ओपिओइड) का उपयोग किया जा रहा है। लेकिन ये दवाएं अक्सर जीर्ण दर्द पर अप्रभावी रहती हैं और इनकी लत लग सकती है। इसलिए वैज्ञानिक दर्द से राहत पाने के अन्य विकल्प तलाशने में लगे हैं।

अब, नॉर्थवेस्टर्न युनिवर्सिटी के जॉन रॉजर्स के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने चूहों में एक ऐसा छोटा इम्प्लांट फिट किया है जो मस्तिष्क और शरीर के अन्य हिस्सों में सूचना प्रसारित करने वाली परिधीय तंत्रिकाओं को शीतल करता है।

यह मुलायम इम्प्लांट पानी में घुलनशील और जैव-संगत सामग्री से बना है जो इसे परिधीय तंत्रिका के चारों ओर लिपटने लायक बनाता है। इसकी अनूठी संरचना की बदौलत यह बहुत ही छोटे-से हिस्से (कुछ मिलीमीटर) की तंत्रिकाओं को भी सटीकता से लक्षित और शीतल कर सकता है। वैसे तो तंत्रिकाओं को शीतल करने की अन्य तकनीकें भी मौजूद हैं लेकिन वे उतनी सटीक नहीं हैं और लक्ष्य के आसपास के मांसपेशीय ऊतकों को नुकसान पहुंचा सकती हैं। तंत्रिका दर्द को रोकने के लिए दिए जाने वाले फिनॉल इंजेक्शन में फिनॉल के अवांछित जगहों पर भी फैलने की संभावना रहती है।

इस नए इम्प्लांट में छोटे-छोटे चैनल होते हैं जिसके माध्यम से परफ्लोरोपेंटेन नामक शीतलन एजेंट को शरीर में पहुंचाया जा सकता है। एक अन्य चैनल में शुष्क नाइट्रोजन होती है। जब एक चेम्बर में परफ्लोरोपेंटेन शुष्क नाइट्रोजन से मिलता है, तो यह तुरंत वाष्पित हो जाता है और तंत्रिकाओं को 10 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा कर देता है। विचार यह है कि जैसे-जैसे तंत्रिकाएं शीतल होंगी, वैसे-वैसे उनके माध्यम से प्रसारित होने वाले विद्युत संकेतों की तीव्रता और आवृत्ति भी मंद होगी। और आखिरकार, तंत्रिकाएं दर्द के संकेत तथा अन्य सूचनाएं प्रसारित करना बंद कर देंगी। प्रत्यारोपण के 20 दिन बाद यह प्रत्यारोपण घुल जाता है, और उसके 30 दिन के अंदर किडनियां इसे उत्सर्जित कर देती हैं।

इस डिवाइस का परीक्षण करने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों के पंजों में एक महीन तार (तंतु) चुभाया और इससे उपजे दर्द के प्रति उनमें प्रतिक्रिया प्रेरित करने के लिए ज़रूरी बल को नापा। फिर उन्होंने चूहों की साएटिक नसों (जो कमर से पैरों तक जाती है) को ठंडा करने के लिए उनमें यह डिवाइस लगाई और वापस तार चुभाकर देखा।

साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार जब दर्द-संकेतों को अवरुद्ध किया गया तो प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए ज़रूरी बल काफी बढ़ गया था। यह दर्शाता है कि यह उपकरण परिधीय तंत्रिका तंत्र द्वारा संचारित संकेतों को अवरुद्ध करने में सक्षम है और दर्द के अहसास कम कर देता है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह प्रत्यारोपण मनुष्यों में भी इसी तरह से कारगर हो सकता है, और सर्जरी के बाद उपजे दर्द से राहत के लिए लगाया जा सकता है। हालांकि, डिवाइस अभी मनुष्यों में परीक्षण के लिए तैयार नहीं है।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि यह डिवाइस अनुपस्थित (फैंटम) अंग में होने वाले दर्द को खत्म नहीं कर सकता है, क्योंकि इस मामले में दर्द अंग कट जाने के बाद मस्तिष्क में हुए पुनर्गठन से जुड़ा होता है।

अन्य वैज्ञानिकों का मत है यह तो सही है कि दर्द संवेदना में परिधीय तंत्रिका तंत्र की भूमिका होती है, लेकिन यही अकेला कारक नहीं है और शायद सबसे प्रमुख भी न हो। रॉजर्स इस बात से सहमत हैं कि तंत्रिकाओं के अलावा दर्द को नियंत्रित करने वाले कई अन्य कारक भी हैं। जैसे मनोवैज्ञानिक प्रभाव, लेकिन वे इतने महत्वपूर्ण शायद नहीं है।

टीम की योजना अब तंत्रिका शीतलन प्रणाली की बारीकियों पर काम करने की है; मसलन तंत्रिका को शीतल रखने की वह संतुलित अवधि पता करना जितनी देर में वह दर्द संकेत अवरुद्ध कर दे लेकिन ऊतकों को नुकसान न पहुंचाए। यह भी देखना होगा कि शीतलन प्रक्रिया को पलटने में कितना समय लगेगा। उपकरण को और छोटा बनाने की कोशिश भी की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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लंदन के सीवेज में पोलियोवायरस मिलने से खलबली

लंदन में पोलियोवायरस के प्रमाण मिलने से यू.के. के जन स्वास्थ्य अधिकारियों के बीच खलबली मच गई है। यू.के. में पोलियो फिलहाल एक दुर्लभ बीमारी है लेकिन नागरिकों को सतर्क रहने के साथ पूर्ण टीकाकरण का सुझाव दिया गया है। अभी तक वायरस के स्रोत के बारे में तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन संभावना है कि यह वायरस किसी ऐसे बाहरी व्यक्ति से यहां आया है जिसने हाल ही में ओरल पोलियो टीका (ओपीवी) लिया था। गौरतलब है कि ओपीवी में जीवित लेकिन कमज़ोर वायरस का उपयोग किया जाता है जिसका उपयोग अब यू.के. में नहीं किया जाता। वैसे तो अधिकांश पोलियो संक्रमण अलक्षणी होते हैं और यू.के. में इसका कोई मामला सामने नहीं आया है। लेकिन लंदन के कुछ समुदायों में टीकाकरण की दर 90 प्रतिशत से कम है जो एक चिंता का विषय है।

गौरतलब है कि पोलियो को विश्व के अधिकांश हिस्सों से खत्म किया जा चुका है लेकिन अफगानिस्तान और पकिस्तान में यह वायरस अभी भी स्थानिक है। इसके अलावा अफ्रीका, युरोप और मध्य पूर्व के 30 से अधिक देश “आउटब्रेक देशों” की श्रेणी में हैं जहां हाल ही में वायरस प्रसारित होता देखा गया है। इन देशों में वायरस का प्रसार या तो अफगानिस्तान या पकिस्तान के कुदरती वायरस से हुआ है या फिर टीके से आया है जिसने गैर-टीकाकृत लोगों में बीमारी पैदा करने की क्षमता विकसित कर ली है। 

यू.के. में इस वायरस की उपस्थिति की जानकारी बेकटन सीवेज ट्रीटमेंट वर्क्स से फरवरी और जून के दौरान लिए गए सीवेज के नमूनों में मिली। यह सीवेज प्लांट प्रतिदिन उत्तरी और पूर्वी लंदन में रहने वाले 40 लाख लोगों के अपशिष्ट जल को संसाधित करता है। आम तौर पर हर साल इस तरह के परीक्षण में वायरस मिलते रहते हैं जो कुछ ही समय में गायब भी हो जाते हैं। लेकिन इस बार कई महीनों तक इस वायरस की उपस्थिति दर्ज की गई और साथ ही इन नमूनों में वायरस के कई संस्करण भी पाए गए। इन आनुवंशिक परिवर्तनों से स्पष्ट है कि इस वायरस का विकास जारी है जिसका मतलब है कि वह कुछ लोगों में फैल रहा है।

कुछ विशेषज्ञों के अनुसार यू.के. में उच्च टीकाकरण की दर को देखते हुए इसके व्यापक प्रसार की संभावना काफी कम है और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में वायरस प्रसार के प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं मिले हैं। फिर भी स्वास्थ्य अधिकारी यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि बच्चों को टीके की सभी आवश्यक खुराकें मिल जाएं।

गौरतलब है कि लंदन ऐसा दूसरा स्थान है जहां इस वर्ष पोलियो वायरस का संस्करण मिला है। इससे पहले 7 मार्च को इस्राइल के एक 3-वर्षीय गैर-टीकाकृत लकवाग्रस्त बच्चे में पोलियोवायरस पाया गया था। इस वर्ष अब तक 25 सीवेज नमूनों में पोलियोवायरस संस्करण मिल चुके हैं जिनमें से अधिकांश मामले येरूसेलम से हैं। यहां से प्राप्त वायरस टीके से निकला टाइप-3 संस्करण है जो लंदन में पाए गए टाइप-2 वायरस से सम्बंधित नहीं है। लंदन और इस्राइल से मिले नतीजों से एक बात तो स्पष्ट है कि पोलियो निगरानी प्रणाली काफी सक्रिय रूप से काम कर रही है।

इन नतीजों के मद्देनज़र इस्राइल और पेलेस्टाइन नेशनल अथॉरिटी ने टीकाकरण प्रयासों को तेज़ कर दिया है। हालांकि  कोविड-19 की वजह से यह काम काफी कठिन हो गया है। महामारी के बाद कई कोविड-19 टीकाकरण अभियानों के चलते लोगों में टीकाकरण के प्रति झिझक भी बढ़ी है।

फिलहाल लंदन के अधिकारी वायरस के स्रोत का पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं ताकि टीकाकरण अभियानों को अधिक सटीकता से अंजाम दिया जा सके। विशेषज्ञों के अनुसार फिलहाल सभी देशों को एक मज़बूत रोग निगरानी और टीकाकरण कवरेज सुनिश्चित करना होगा ताकि पोलियोवायरस के जोखिमों और पुन: उभरने की संभावना को कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टाइप-2 डायबिटीज़ महामारी से लड़ाई – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यम

इंटरनेशनल डायबिटीज़ फाउंडेशन का अनुमान है कि दुनिया भर में 53.7 करोड़ लोग मधुमेह (डायबिटीज़) से पीड़ित हैं। सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल की वेबसाइट के मुताबिक यूएस में 3.7 करोड़ से अधिक लोग (लगभग 10 प्रतिशत) डायबिटीज़ से पीड़ित हैं। डायबिटीज़ दो तरह की होती है – टाइप-1 और टाइप-2।

डायबिटीज़ के प्रकार

आम तौर पर टाइप-1 डायबिटीज़ आनुवंशिक होती है, और यह इंसुलिन लेकर आसानी से नियंत्रित की जा सकती है। इंसुलिन का इंजेक्शन रक्त में उपस्थित शर्करा का उपयोग करने में मदद करता है ताकि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा मिल सके। और शेष शर्करा को भविष्य में उपयोग के लिए यकृत (लीवर) और अन्य अंगों में संग्रहित कर लिया जाता है।

टाइप-2 डायबिटीज़ काफी हद तक जीवन शैली का परिणाम होती है। इसमें इंसुलिन इंजेक्शन लेने की आवश्यकता नहीं पड़ती। और यह ग्रामीण आबादी की तुलना में शहरी लोगों में अधिक देखी जाती है। टाइप-2 डायबिटीज़ उम्र से सम्बंधित बीमारी है और यह अक्सर 45 वर्ष या उससे अधिक की उम्र में विकसित होती है।

वर्ष 2002 में जर्नल ऑफ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित मद्रास डायबिटीज़ रिसर्च फाउंडेशन (MDRF) का अग्रणी शोध कार्य बताता है कि टाइप-2 डायबिटीज़, जिसमें हमेशा इंसुलिन लेने की आवश्यकता नहीं होती है, काफी हद तक जीवन शैली पर आधारित बीमारी है। और इसका प्रकोप ग्रामीण आबादी (2.4 प्रतिशत) की तुलना में शहरी आबादी (11.6 प्रतिशत) में अधिक है।

बीमारी का बोझ

MDRF का यह अध्ययन मुख्यत: दक्षिण भारत की आबादी पर आधारित था। लेकिन सादिकोट और उनके साथियों ने संपूर्ण भारत के 77 केंद्रों पर 18,000 लोगों पर अध्ययन किया है, जिसे उन्होंने डायबिटीज़ रिसर्च एंड क्लीनिकल प्रैक्टिस पत्रिका में प्रकाशित किया है। उनकी गणना के अनुसार भारत की कुल आबादी के 4.3 प्रतिशत लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं, (5.9 प्रतिशत शहरी और 2.7 प्रतिशत ग्रामीण)।

ICMR द्वारा वित्त पोषित एक अन्य अध्ययन का अनुमान है कि वर्तमान में पूरे भारत में लगभग 7.7 करोड़ लोग डायबिटीज़ से पीड़ित हैं।

डायबिटीज़ से लड़ने के या इसे टालने के कुछ उपाय हैं। मुख्य भोजन में कार्बोहाइड्रेट का कम सेवन और उच्च फाइबर वाले आहार का सेवन करना उत्तम है। MDRF ऐसे ही एक उच्च फाइबर वाले चावल का विकल्प देता है। दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों में मुख्य भोजन चावल है, जबकि उत्तर भारत में लोग मुख्यत: गेहूं खाते हैं।

गेहूं में अधिक फाइबर, अधिक प्रोटीन, कैल्शियम और खनिज होते हैं। और हम जो चावल खाते हैं वह ‘सफेद’ होता है या भूसी और चोकर रहित पॉलिश किया हुआ होता है। (याद करें कि महात्मा गांधी ने हमें पॉलिश किए हुए चावल को उपयोग न करने की सलाह दी थी)।

तो, चावल खाने वालों के लिए अपने दैनिक आहार में गेहूं, साथ ही उच्च प्रोटीन वाले अनाज, मक्का, गाजर, पत्तागोभी, दालें और सब्ज़ियां शामिल करना स्वास्थ्यप्रद होगा। मांसाहारी लोगों को अंडे, मछली और मांस से उच्च फाइबर और प्रोटीन मिल सकता है।

रोकथाम

क्या टाइप-2 डायबिटीज़ को होने से रोका जा सकता है? हारवर्ड युनिवर्सिटी का अध्ययन कहता है – बेशक।

बस, ज़रूरत है थोड़ा वज़न कम करने की, स्वास्थप्रद भोजन लेने की, भोजन में कुल कार्ब्स का सेवन कम करने की और नियमित रूप से शारीरिक व्यायाम करने की। अधिक व्यायाम की जगह उचित व्यायाम करें। उच्च ऊर्जा खपत वाले व्यायाम करें, जैसे कि नियमित रूप से 10 मिनट की तेज़ चाल वाली सैर, और सांस सम्बंधी व्यायाम भी करें जैसे कि ध्यान में करते हैं।

हमारे फिज़ियोथेरपिस्ट और आयुर्वेदिक चिकित्सक भी श्वास सम्बंधी व्यायाम और नियमित कसरत करने की सलाह देते हैं।

वेबसाइट heathline.com ने 10 अलग-अलग व्यायाम बताए हैं जो उन लोगों के लिए उपयोगी होंगे जिनमें डायबिटीज़ होने की संभावना है या टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित हैं, या वृद्ध हो रहे हैं।

इन 10 में से कुछ व्यायाम जिम जाए बिना आसानी से किए जा सकते हैं। पहला व्यायाम है सैर: सप्ताह में पांच बार, या उससे अधिक बार 30 मिनट तक तेज़ चाल से चलें। कई डायबिटीज़ विशेषज्ञ सुझाते हैं कि तेज़-तेज़ चलना रोज़ाना घर पर भी किया जा सकता है।

दूसरा है साइकिल चलाना। पास के मैदान या पार्क में साइकिल चलाई जा सकती है। रोज़ाना 10 मिनट साइकिल चलाना बहुत फायदेमंद होता है। वैसे, साइकिल को स्टैंड पर खड़ा कर घर पर भी दस मिनट पैडल मारे जा सकते हैं।

तीसरा है भारोत्तोलन (वज़न उठाना)। यहां भी, आपका घर ही जिम हो सकता है। घर की भारी वस्तुएं (डॉक्टर की सलाह अनुसार 5 या 8-10 कि.ग्रा.)। जैसे पानी भरी बाल्टी या अन्य घरेलू सामान उठा सकते हैं। ऐसा रोज़ाना या एक दिन छोड़कर एक दिन करना लाभप्रद होगा।

उपरोक्त वेबसाइट ने तैराकी, कैलिस्थेनिक्स जैसे कई अन्य व्यायाम भी सूचीबद्ध किए हैं, लेकिन यहां हमने केवल उन व्यायाम की बात की है जिन्हें लोग घर पर या आसपास आसानी से कर सकते हैं।

योग

इन 10 अभ्यासों में योग का भी उल्लेख है, जो भारतीयों के लिए विशेष रुचि का है।

जर्नल ऑफ डायबिटीज़ रिसर्च में प्रकाशित नियंत्रित परीक्षणों की एक व्यवस्थित समीक्षा बताती है कि योग ऑक्सीकारक तनाव को कम कर सकता है, और मूड, नींद और जीवन की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है। यह टाइप-2 डायबिटीज़ वाले व्यस्कों में दवा के उपयोग को भी कम करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नाक की सर्जरी: सुश्रुत का विवरण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दी फेमस इंडियन राइनोप्लास्टी, जेंटलमैन्स मैगज़ीन, लंदन, अक्टूबर 1794

नाक पर की जाने वाली शल्य क्रिया यानी सर्जरी को राइनोप्लास्टी कहते हैं। आजकल इसे ‘नोस जॉब’ के नाम से किया जाता है और आम तौर पर यह सौंदर्य सर्जरी के रूप में लोकप्रिय है – चेहरे की सुडौलता में सुधार। नाक के कामकाज में सुधार भी राइनोप्लास्टी का एक प्रमुख कारण है। इसके अलावा कुछ जन्मजात विकृतियों (जैसे कटा तालू) में भी इसकी मदद ली जाती है।

प्रति वर्ष की जाने वाली राइनोप्लास्टी के मामले में भारत का दुनिया में चौथा स्थान है (यहां ध्यान रखने की बात यह है कि इस प्रक्रिया की उपलब्धता का मतलब यह नहीं है कि विशेषज्ञता भी उसी मान में उपलब्ध है। नोस जॉब का परिणाम गलत-सही हो सकता है और कई जाने-माने सर्जन बताते हैं कि कई मरीज़ पुन: सर्जरी की तलाश में होते हैं)।

नाक हमारी शक्ल सूरत और पहचान का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। ‘नाक कट जाना’ जैसे मुहावरे नाक के महत्व को व्यक्त करते हैं, हालांकि यहां बात शारीरिक नाक कटने से नहीं बल्कि बदनामी से है। कई समाजों में नाक काटना अत्यंत सख्त सज़ा मानी जाती थी। इससे यह भी समझा जा सकता है कि क्यों नाक का पुनर्निर्माण काफी समय पहले से होने लगा होगा।

प्राचीन विधि

नाक के पुनर्निर्माण का पहला व्यवस्थित विवरण सुश्रुत संहिता में मिलता है। आधुनिक विद्वानों ने इस ग्रंथ का काल 7वीं या 6ठी सदी ईसा पूर्व निर्धारित किया है। इस ग्रंथ के प्रतिष्ठित लेखक इस तकनीक का अभ्यास गंगा किनारे किया करते थे। सुश्रुत के लेखन को प्राचीनतम चिकित्सा पाठ्य पुस्तक माना गया है।

संहिता में नई नाक के निर्माण के लिए त्वचा प्राप्त करने के दो स्थान बताए गए हैं – गाल या कपाल। इनसे प्राप्त त्वचा को नाक का आकार दिया जाता था। एक पत्ती चुनी जाती थी जो कटी हुई नाक के माप के लगभग बराबर हो। इसके बाद गाल से त्वचा के एक टुकड़े को काटा जाता था (हालांकि पूरी तरह काटकर अलग नहीं किया जाता था)। काटी गई त्वचा एक जगह से डंठल की तरह चेहरे से जुड़ी रहती थी ताकि रक्त संचार जारी रहे। इसके बाद नाक के बचे हुए ठूंठ के आसपास छुरी की मदद से ताज़ा घाव किए जाते थे।

गाल की कटी हुई त्वचा को एक पल्लू की तरह पलटकर इन ताज़ा घावों के ऊपर जमाया जाता था और उसे चेहरे पर सिल दिया जाता था। नाक को आकार देने के लिए अरंडी के ठूंठों को उस जगह जमाया जाता था जहां नथुने होने चाहिए। दारुहल्दी, मुलेठी और रक्तचंदन का चूर्ण बनाकर उसे उस जगह पर छिड़का जाता था। यह दर्दनिवारक और निश्चेतक का काम करता था। घावों को कपास से ढंक दिया जाता था और त्वचा के पूरी तरह जुड़ जाने तक कपास पर तिल का तेल लगाते रहते थे।  त्वचा के पूरी तरह जुड़ जाने पर गाल से उसे पूरी तरह काट दिया जाता था।

सुश्रुत ने इस तकनीक के आविष्कार के श्रेय का दावा नहीं किया था। उन्होंने इसे एक ‘प्राचीन पद्धति’ की संज्ञा दी थी। सुश्रुत संहिता को 8वीं सदी में अरबी में अनूदित किया गया था। कुंज लाल भीषागरत्न द्वारा किया एक बढ़िया अंग्रेज़ी अनुवाद 1907 में सामने आया था। गौरतलब है कि युरोप में 13वीं सदी तक राइनोप्लास्टी का कोई विवरण नहीं मिलता। लगभग इस समय ‘इंडियन चीक फ्लैप’ (गाल के पल्लू की भारतीय विधि) का उल्लेख मिलने लगता है।

अनभिज्ञता

ब्रिटिश लोग इस शल्य क्रिया से अनभिज्ञ थे, इस बात का प्रमाण 1816 में प्रकाशित यॉर्क के जोसेफ कार्प्यू की पुस्तक एन अकाउंट ऑफ टू सक्सेसफुल ऑपरेशन्स फॉर रिस्टोरिंग ए लॉस्ट नोस (कटी हुई नाक को बहाल करने के दो सफल ऑपरेशनों का विवरण) से मिलता है। कार्प्यू अपने देश में राइनोप्लास्टी के अग्रणि लोगों में से थे। इस पुस्तक में वे ईस्ट इंडिया कंपनी के दो ‘चिकित्सा महानुभावों’ के अवलोकनों का ज़िक्र करते हैं; इन दोनों ने 1792 में पुना के श्री कुमार द्वारा की गई सर्जरी को देखा था।

नाक से चोटिल व्यक्ति कोई कावसजी थे, जो बैलगाड़ी चलाते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों के लिए सामान लाने-ले जाने का काम करते थे। कावसजी की नाक टीपू सुल्तान की फौज के लोगों ने काट दी थी। श्री कुमार ने मोम के एक टुकड़े को सफाई से काट-छांटकर गुमशुदा नाक का आकार दिया था। फिर उसे सावधानीपूर्वक चपटा करके कावसजी के कपाल पर जमा दिया गया था। मोम के इस आकार से यह निर्धारित किया गया कि त्वचा को कहां से काटा जाएगा। काटा इस तरह गया था कि मध्य रेखा भौंहों के बीच रहे। कटी हुई चमड़ी के पल्लू को नीचे की ओर पलटाकर नाक के हिस्से पर जमाकर सिल दिया गया।

सूक्ष्मजीव रोधी क्रिया के लिए सर्जरी की जगह पर कत्था लगाया गया और कुछ दिनों तक घी में सना कपड़ा रखा गया। समय के साथ सिलने के निशान गायब हो गए। और तो और, कावसजी बगैर किसी असुविधा के छींक भी सकते थे और नाक छिनक भी सकते थे।

यह सर्जरी सुश्रुत द्वारा अपना ग्रंथ लिखे जाने के लगभग 2500 साल बाद हुई थी लेकिन तरीका लगभग अपरिवर्तित था।

यहां एक बात ध्यान देने की है। नाक के पुनर्निर्माण की यह तकनीक सही मायनों में नाक प्रत्यारोपण नहीं थी। त्वचा  प्रत्यारोपण यानी शरीर के एक हिस्से की त्वचा को दूसरे हिस्से पर या एक व्यक्ति की त्वचा को दूसरे व्यक्ति के शरीर पर उगाना एक ऐसी तकनीक है जिसे लेकर अभी और अध्ययन की ज़रूरत है। यह समझना होगा कि ऊतकों का तालमेल कैसे होता है और अस्वीकार की स्थिति क्यों बनती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर कोशिकाओं से लड़ने की नई रणनीति

शोधकर्ता कैंसर कोशिकाओं की निशानदेही करने के तरीके ईजाद करने में लगे हैं। कैंसर के खिलाफ प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय या शुरू करने वाली दवाइयां इसमें काफी प्रभावी हो सकती हैं, लेकिन वे उन ट्यूमर पर सबसे अच्छा काम करती हैं जिनमें सबसे अधिक उत्परिवर्तन होते हैं। इसी तथ्य के आधार पर कैंसर उपचार का एक विवादास्पद समाधान सामने आया है: कीमोथेरेपी की मदद से जानबूझकर ट्यूमर में और उत्परिवर्तन कराए जाएं और इस तरह ट्यूमर को प्रतिरक्षा प्रणाली के हमले के प्रति अधिक संवेदी बनाया जाए।

पूर्व में प्रयोगशाला अध्ययनों और छोटे स्तर पर किए गए क्लीनिकल परीक्षणों में देखा गया है कि यह रणनीति मददगार हो सकती है। लेकिन कुछ कैंसर शोधकर्ता ऐसे सोद्देश्य उत्परिवर्तन करवाने को लेकर आशंकित हैं। उनका कहना है कि जानवरों पर हुए कई अध्ययनों से पता चलता है कि ऐसा करने से फायदे के बजाय नुकसान हो सकता है।

देखा गया है कि कुछ दवाइयां (चेकपॉइंट अवरोधक) उस आणविक अवरोधक को हटा देती हैं जो टी कोशिका (एक किस्म की प्रतिरक्षा कोशिका) को ट्यूमर पर हमला करने से रोकते हैं। ये दवाइयां धूम्रपान की वजह से हुए फेफड़ों के कैंसर और मेलेनोमा (एक तरह का त्वचा कैंसर) जैसे कैंसर पर सबसे अच्छी तरह काम करती हैं। ये कैंसर पराबैंगनी  प्रकाश के प्रभाव से पैदा होने वाले उत्परिवर्तनों को संचित करते रहते हैं। इनमें से कई जेनेटिक परिवर्तन कोशिकाओं को नव-एंटीजन बनाने को उकसाते हैं (नव-एंटीजन ट्यूमर कोशिकाओं पर नए प्रोटीन चिन्ह होते हैं) जो टी कोशिकाओं को ट्यूमर कोशिका को पहचानने में मदद करते हैं।

कैंसर कोशिकाओं को अधिक नव-एंटीजन बनाने को मजबूर करने से इम्यूनोथेरेपी में मदद मिल सकती है, इस विचार की जड़ें ऐसे ट्यूमर के अध्ययन में है जिनमें डीएनए की मरम्मत करने वाले तंत्रों में गड़बड़ी होती है। देखा गया कि ये कैंसर कोशिकाएं कई उत्परिवर्तन जमा करती जाती हैं। वर्ष 2015 में जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (अब मेमोरियल स्लोअन केटरिंग कैंसर सेंटर में हैं) के लुइस डियाज़ ने बताया था कि चेकपॉइंट औषधियां ऐसे कई ट्यूमर्स पर काफी कारगर हैं जिनमें ‘बेमेल’ डीएनए मरम्मत तंत्र में गड़बड़ी होती है।

ट्यूरिनो विश्वविद्यालय के कैंसर आनुवंशिकीविद अल्बर्टो बार्डेली और साथियों ने ट्यूमर-ग्रस्त चूहों में मरम्मत करने वाले जीन को निष्क्रिय करके देखा। नेचर (2017) में उन्होंने बताया था कि इस जीन को निष्क्रिय करने से कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में ज़्यादा त्रुटियां होने लगीं और चेकपॉइंट अवरोधकों की प्रभाविता में वृद्धि हुई।

उसके बाद मनुष्यों पर हुए दो और परीक्षणों में इसी तरह के प्रभाव देखे गए। एक अध्ययन में आंत के कैंसर पर काम किया गया। इसमें बहुत कम उत्परिवर्तन होते हैं, और इसलिए यह चेकपॉइंट अवरोधक दवाओं के प्रति संवेदी नहीं होता। इस तरह के कैंसर से पीड़ित 33 लोगों को कीमोथेरेपी की मानक औषधि टेमोज़ोलोमाइड दी गई। यह दवा विकृत या परिवर्तित जीन की मरम्मत नहीं होने देती। पाया गया कि सिर्फ कीमोथेरेपी करने से आठ लोगों का ट्यूमर कम हो गया था, लेकिन कीमोथेरेपी के बाद अन्य सात लोगों का ट्यूमर चेकपॉइंट अवरोधक दिए जाने के बाद कम हुआ। शोधकर्ताओं ने जर्नल ऑफ क्लीनिकल ओन्कोलॉजी में बताया था कि सभी लोगों में ट्यूमर की वृद्धि औसतन 7 महीने तक रुकी रही।

एक अन्य अध्ययन में देखा गया कि 16 में से 14 रोगियों और चार अन्य रोगियों, जिनके ट्यूमर की बायोप्सी का विश्लेषण किया गया था, में टेमोज़ोलोमाइड ने उत्परिवर्तन को प्रेरित किया था।

डियाज़ की दिलचस्पी यह जानने में थी कि क्या ट्यूमर में कोई खास उत्परिवर्तन करवाने से और भी बेहतर असर होता है। खास तौर से उनकी टीम की दिलचस्पी ऐसे उत्परिवर्तन में थी जो किसी कोशिका प्रोटीन निर्माण मशीनरी द्वारा मैसेंजर आरएनए (mRNA) के पढ़ने/समझने में बदलाव कर दे। इस तरह का उत्परिवर्तन सम्बंधित प्रोटीन के कई अमीनो एसिड्स को बदल सकता है, जो उसे प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए और अधिक पराया बना देता है।

डियाज़ और उनके साथियों ने कैंसर कोशिकाओं पर टेमोज़ोलोमाइड के साथ एक अन्य कीमोथेरेपी दवा सिसप्लैटिन का परीक्षण किया और पाया कि दोनों में से एक ही दवा देने की तुलना में इन दोनों दवाओं के मिले-जुले उपयोग ने हज़ार गुना अधिक उत्परिवर्तन किए। जब इन दोनों दवाओं के संयोजन से उपचारित कैंसर कोशिकाओं को चूहों में प्रविष्ट कराया गया तो चेकपाइंट दवा देने के बाद परिणामी ट्यूमर गायब हो गया।

शोधकर्ता अब आंत के मेटास्टेटिक ट्यूमर से पीड़ित लोगों को चेकपॉइंट दवा देने के पहले टेमोज़ोलोमाइड और सिसप्लैटिन का मिश्रण दे रहे हैं। पहले 10 रोगियों में से दो रोगियों के रक्त में ट्यूमर कोशिका द्वारा स्रावित डीएनए में अपेक्षाकृत अधिक उत्पर्वतन दिखे और ट्यूमर बढ़ना बंद हो गया। नतीजे शुरुआती हैं लेकिन परिणाम आशाजनक लगते हैं।

फिर भी, जोखिम तो हो ही सकता है: कीमोथेरेपी दवाएं रोगी की स्वस्थ कोशिकाओं में भी उत्परिवर्तन पैदा कर सकती हैं। वैसे शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दवा से उपचारित करने के बाद चूहों में ऐसा नहीं हुआ।

कुछ शोधकर्ताओं को चिंता है कि यह तरीका उल्टा भी पड़ सकता है। उनका कहना है कि विविध कोशिकाओं से बने ट्यूमर की तुलना में एकदम एक-समान या चंद हू-ब-हू कोशिकाओं (क्लोन) से बने ट्यूमर चेकपॉइंट अवरोधक दवाओं के प्रति बेहतर प्रतिक्रिया देते हैं। डर है कि अधिक उत्परिवर्तन ट्यूमर में नए क्लोन बनाएंगे और टी कोशिकाओं के प्रभाव को कम कर देंगे। 2019 में हुए एक अध्ययन में देखा गया था कि चूहों के मेलेनोमा ट्यूमर में अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश की मदद से उत्परिवर्तन करने पर कैंसर कोशिकाओं की विविधता में वृद्धि ने चेकपॉइंट अवरोधकों की प्रतिक्रिया में बाधा उत्पन्न की थी।

इस पर बार्डली का कहना है कि अल्ट्रावॉयलेट प्रकाश से हुए उत्परिवर्तन टेमोज़ोलोमाइड से हुए उत्परिवर्तन की तुलना में प्रतिरक्षा तंत्र को कम उकसाते हैं। और शोधकर्ताओं का तर्क है कि दो औषधियों का मिश्रण देने से नव-एंटीजन की संख्या काफी अधिक होगी जो ट्यूमर की आनुवंशिक विविधता के असर को कम कर देगी।

बहरहाल, बार्डली और डियाज़ की तैयारी कैंसर औषधि निर्माण की है। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में निर्मित कोवैक्सीन के निर्यात पर रोक

हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) ने भारत में विकसित कोवैक्सीन टीके के निर्माण को लेकर चिंताएं व्यक्त की हैं। मार्च में किए गए निरीक्षण में डबल्यूएचओ को भारत बायोटेक की टीका उत्पादन सुविधा में कुछ समस्याएं देखने को मिली थीं। विस्तार से कोई जानकारी तो नहीं मिली है लेकिन डबल्यूएचओ के अनुसार भारत बायोटेक कोवैक्सीन के निर्यात पर अस्थायी रोक लगाकर सुधारात्मक कार्य योजना तैयार करने को राज़ी हो गया है।

इस निर्णय के बाद यूनिसेफ के माध्यम से अन्य देशों को मिलने वाले टीकों की आपूर्ति में कमी आने की संभावना है। अन्य देशों को भी अन्य उत्पादों का उपयोग करने का सुझाव दिया गया है। भारत बायोटेक का कहना है कि रख-रखाव और उत्पादन सुविधाओं में सुधार पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। कंपनी के प्रवक्ता के अनुसार भारत में टीके की बिक्री जारी रहेगी। कुछ वैज्ञानिकों ने भारत की दवा नियामक एजेंसी केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) की भूमिका पर सवाल खड़े किए हैं।  

कोवैक्सीन टीका निष्क्रिय वायरस से तैयार किया गया है। टीके के तीसरे चरण के परीक्षण से पहले ही जनवरी 2021 में सीडीएससीओ ने कोवैक्सीन को आपात उपयोग की अनुमति दी थी। इसके चलते कमज़ोर नियामक मानकों का आरोप भी लगा था। जुलाई 2021 में तीसरे चरण के परीक्षण से पता चला कि कोवैक्सीन की प्रभाविता अन्य टीकों के लगभग बराबर (77.8 प्रतिशत) थी।   

इससे पहले मार्च 2021 में ब्राज़ीलियन हेल्थ रेगुलेटरी एजेंसी ने कोवैक्सीन के निर्माण में अच्छी उत्पादन प्रथाओं (जीएमपी) यानी उत्पादन इकाई में सुरक्षा, प्रभाविता और गुणवत्ता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक नियमों के पालन में ढिलाई देखी थी। इसके चलते टीके में जीवित वायरस के होने की संभावना बढ़ जाती है। ब्राज़ील ने अस्थायी रूप से टीके का आयात निलंबित कर दिया था और जुलाई 2021 में इस सौदे को पूरी तरह खत्म कर दिया गया।         

बाद में भारत बायोटेक ने इन कमियों को दूर किया और नवंबर 2021 डबल्यूएचओ द्वारा इसे आपात उपयोग की सूची में शामिल किया गया। इस सूची का उद्देश्य कम और मध्यम आय वाले देशों को टीका उपलब्ध कराना और सदस्य देशों को टीकों का चुनाव करने में मदद करना है। अब एक बार फिर जीएमपी सम्बंधित कमियां देखने को मिली हैं। सूची में शामिल होने के बाद कंपनी ने अपनी निर्माण प्रक्रिया में बदलाव किया था और इस बात की सूचना सीडीएससीओ और डबल्यूएचओ को नहीं दी थी, जो अनिवार्य है।

एम-आरएनए टीकों के विपरीत इन टीकों को कम तापमान पर रखने की आवश्यकता नहीं होती है। इसलिए गरीब देशों के लिए इनका उपयोग काफी आसान है।          

उपरोक्त विसंगतियां दर्शाती है कि डब्ल्यूएचओ और सीडीसीएसओ के मानक अलग-अलग है। उक्त विसंगतियों को दूर करना ज़रूरी है। इससे टीका लेने में झिझक कम होगी और यह भारतीय उद्योग की विश्वसनीयता और लोगों के स्वास्थ्य दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

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