नींबू और संतरा हमारे भोजन को स्वाद देने वाले और पोषण बढ़ाने वाले अवयव हैं। ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी पर नींबू (साइट्रस) वंश के लगभग एक अरब पेड़ हैं। वर्तमान में दुनिया में नींबू वंश के 60 से अधिक अलग-अलग फल लोकप्रिय हैं। ये सभी निम्नलिखित तीन फल प्रजातियों के संकर हैं या संकर के संकर हैं या संकर के संकर के संकर… हैं: (1) बड़ा, मीठा और स्पंजी (मोटे) छिलके वाला चकोतरा (साइट्रसमैक्सिमा; अंग्रेज़ी पोमेलो, तमिल बम्बलिमा); (2) स्वादहीन साइट्रॉन, जिसका उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है (साइट्रसमेडिका; गलगल, मटुलंकम या कोमाट्टी-मटुलै), और (3) ढीले-पतले छिलके वाला और मीठे स्वाद का मैंडरिन ऑरेंज (साइट्रसरेटिकुलेटा, संतरा, कमला संतरा) जिसका सम्बंध हम नागपुर के साथ जोड़ते हैं।
नींबू वंश के हर फल की कुछ खासियत होती है: उदाहरण के लिए, दुर्लभ ताहिती संतरा, जो भारतीय रंगपुर नींबू का वंशज है, नारंगी रंग के नींबू जैसा दिखता है और स्वाद में अनानास जैसा होता है।
संतरेकीउत्पत्ति
साइट्रस (नींबू) वंश की उत्पत्ति कहां से हुई? नींबू वंश के भारतीय मूल का होने की बात सबसे पहले चीनी वनस्पति शास्त्री चोज़ाबुरो तनाका ने कही थी। वर्ष 2018 में नेचर पत्रिका में गुओहांग अल्बर्ट वू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित नींबू वंश की कई किस्मों के जीनोम के एक विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष है कि आज हम इसकी जितनी भी किस्में देखते हैं, उनके अंतिम साझे पूर्वज लगभग अस्सी लाख वर्ष पूर्व उस इलाके में उगते थे जो वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत के मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर और उससे सटे हुए म्यांमार और दक्षिण पश्चिमी चीन में है। गौरतलब है कि यह क्षेत्र दुनिया के सबसे समृद्ध जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक है। जैव विविधता हॉटस्पॉट ऐसे क्षेत्र को कहते हैं जहां स्थानिक वनस्पति की कम से कम 1500 प्रजातियां पाई जाती हों, और वह क्षेत्र अपनी कम से कम 70 प्रतिशत वनस्पति गंवा चुका हो। पूर्वोत्तर में भारत के 25 प्रतिशत जंगल हैं और जैव विविधता का एक बड़ा हिस्सा है। यहां आपको खासी और गारो जैसी जनजातियां और बोली जाने वाली लगभग 200 भाषाएं मिलेंगी। यह क्षेत्र नींबू वंश के जीनोम का एक समृद्ध भंडार भी है। वर्तमान में यहां 68 किस्म के जंगली और संवर्धित साइट्रस पाए जाते हैं।
प्रेतोंकाफल
जंगली भारतीय संतरा विशेष दिलचस्पी का केंद्र है। यह पूर्वोत्तर भारत के देशज साइट्रस (साइट्रसइंडिकातनाका) की पूर्वज प्रजाति है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह इस समूह का आदिम पूर्वज भी हो सकता है। कलकम मोमिन और उनके साथियों ने मेघालय की गारो पहाड़ियों में हमारे अपने जंगली संतरे का अध्ययन किया था, जहां ये अब सिर्फ बहुत छोटे हिस्सों में ही बचे हैं। यह अध्ययन वर्ष 2016 में इंटरनेशनलजर्नलऑफमाइनरफ्रूट्स, मेडिसिनलएंडएरोमैटिकप्लांट्स में प्रकाशित हुआ था।
विस्तृत आणविक तुलनाओं वाली हालिया खोज में मणिपुर के तमेंगलांग ज़िले में जंगली भारतीय संतरा पुन: खोजा गया है; इलाके का जनसंख्या घनत्व बहुत कम है जंगल अत्यंत घना। यह अध्ययन हुइद्रोम सुनीतिबाला और उनके साथियों द्वारा इस वर्ष जेनेटिकरिसोर्सएंडक्रॉपइवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है। मणिपुर के इस शोध दल को यहां साइट्रस इंडिका के तीन अलग-अलग झुंड मिले हैं, जिनमें से सबसे बड़े झुंड में 20 पेड़ हैं। यह भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता वाला क्षेत्र है, जहां वार्षिक तापमान 4 और 31 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।
मणिपुरी जनजाति इसे गरौन-थाई (केन फ्रूट) कहती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने इस फल की न तो खेती की और न ही इसे सांस्कृतिक रूप से अपनाया, जैसा कि खासी और गारो लोगों ने किया है। गारो भाषा में इस फल का नाम मेमंग नारंग (प्रेतों का फल) है, क्योंकि इसका उपयोग वे अपने मृत्यु अनुष्ठानों में करते हैं। पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में इसे पाचन सम्बंधी समस्याओं और सामान्य सर्दी के लिए उपयोग किया जाता है। गांव अपने मेमंग पेड़ों की देखभाल काफी लगन से करता है।
इसका फल छोटा होता है, जिसका वजन 25-30 ग्राम होता है और यह गहरे नारंगी से लेकर लाल रंग का होता है। जनजातियां पके फल को उसके तीखे खट्टेपन के साथ बहुत पसंद करती हैं। इसका स्वाद फीनॉलिक यौगिकों (जो सशक्त एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं) और फ्लेवोनॉइड्स से आता है। ये फीनॉलिक्स और फ्लेवोनॉइड्स प्रचलित एंटी-एजिंग (बुढ़ापा-रोधी) स्किन लोशन्स में पाए जाते हैं।
ऐसा लगता है मानव जाति मीठा पसंद करती है, और संतरा प्रजनकों ने इसी बात का ख्याल रखा है। हालांकि हम भारतीय खट्टे स्वाद के खिलाफ नहीं हैं! हम नींबू (साइट्रसऔरेंटिफोलियास्विंगल) के बहुत शौकीन हैं। दुनिया में भारत इनका अग्रणी उत्पादक है। हमारे प्रजनकों ने इसमें बहुत अच्छा काम किया है। परभणी और अकोला के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित नई किस्में (विक्रम, प्रेमलिनी वगैरह) अर्ध-शुष्क इलाके में भी अच्छी पैदावार दे रही हैं।
इस चक्कर में, साइट्रसइंडिका उपेक्षित पड़ी हुई है। यह गंभीर जोखिम में है, इसकी खेती केवल कुछ ही गांवों में की जाती है। और इसका जीनोम अनुक्रमण भी नहीं किया गया है।
ज़रूरी नहीं कि नींबू वंश के (खट्टे) फलों में फीनॉलिक और फ्लेवोनॉइड यौगिकों को कम करना अच्छा ही साबित हो क्योंकि ये पौधों को रोगजनकों से बचाने का काम करते हैं। पूर्वोत्तर में साइट्रस की बची हुई जंगली किस्मों की सावधानीपूर्वक पहचान करने, उनका संरक्षण करने और उनका विस्तार से अध्ययन करने से केवल ज्ञान ही नहीं मिलेगा। बल्कि यह वर्तमान में उगाए जा रहे संतरों और नींबू को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने में मदद करेगा। इनसे रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार होगा और साथ ही साथ इन अद्भुत फलों से मिलने वाले स्वास्थ्य लाभ भी मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/xtjh97/article38419748.ece/alternates/LANDSCAPE_615/13TH-SCIORANGEjpg
यह लेख मूलत: करंट साइंस पत्रिका (अगस्त 2021) में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ है।
केंद्रीय
मंत्रीमंडल ने फरवरी 2020 में
नए कीटनाशक प्रबंधन विधेयक
को मंज़ूरी दी। इस
विधेयक में उद्योगों को
विनियमित करने के प्रावधान
तो हैं लेकिन इसमें
ऐसे कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों
पर ध्यान नहीं दिया
गया है जो कीटनाशकों
के उपयोग से उत्पन्न
होने वाले जोखिमों को
कम करने के लिहाज़
से अनिवार्य हैं।
यह विधेयक पंजीकरण उपरांत
जोखिम में कमी, कीटनाशक
उपयोगकर्ताओं, समुदाय और
पर्यावरण की सुरक्षा को
संबोधित करने में विफल
रहा है। ऐसे में
सार्वजनिक स्वास्थ्य और
पर्यावरण सुरक्षा के संदर्भ
में इस विधेयक के
परिणाम घटिया हो सकते
हैं; इसलिए इसमें महत्वपूर्ण
संशोधनों की आवश्यकता है।
फरवरी 2020 में केंद्रीय मंत्रीमंडल
द्वारा कीटनाशक प्रबंधन विधेयक
2020 (पीएमबी 2020) को मंज़ूरी
दी गई। जून 2021 में,
विधेयक को जांच के
लिए कृषि मामलों की
स्थायी समिति को भेजा
गया। पारित होने पर
यह नया अधिनियम कीटनाशक
अधिनियम 1968 का स्थान लेगा।
इस विधेयक में उद्योगों
के नियमन के साथ-साथ
कीटनाशक विषाक्तता की
निगरानी और पीड़ितों को
मुआवज़ा देने सम्बंधी प्रावधान
हैं। लेकिन, इसमें
ऐसे कई मुद्दों को
संबोधित नहीं किया गया
है जो प्रभावी कीटनाशक
प्रबंधन के लिए महत्वपूर्ण
हैं। इन मुद्दों पर
यहां चर्चा की गई
है।
विधेयक (पीएमबी 2020) भारत
में कीटनाशकों के
उपयोग के परिदृश्य को
संबोधित करने में विफल
रहा है। केंद्रीय कीटनाशक
बोर्ड और पंजीकरण समिति
(सीआईबी और आरसी) द्वारा
कीटनाशकों को फसल और
कीट के किसी विशिष्ट
संयोजन और/या लक्षित
कीटों के लिए पंजीकृत
और अनुमोदित किया
जाता है। कीटनाशक अवशेष
(रेसिड्यू) सम्बंधी मानक और
अन्य नियम अनुमोदित उपयोग
के आधार पर तैयार
किए जाते हैं। अध्ययनों
से पता चलता है
कि राज्य कृषि विश्वविद्यालयों/विभागों, कमोडिटी बोर्डों
और उद्योगों ने
अनुमोदित उपयोग का ध्यान
रखे बिना कीटनाशकों के
उपयोग की सिफारिश की
थी। किसान कीटनाशकों का
उपयोग कई फसलों के
लिए यह ध्यान दिए
बगैर करते हैं कि
अनुमोदित उपयोग क्या है।
गैर-अनुमोदित कीटनाशकों
के उपयोग की बात
अवशेष की निगरानी में
पता चली है। इसलिए,
पीएमबी 2020 में होना यह
चाहिए था कि कृषि
वि.वि. और विभागों,
कमोडिटी बोर्डों और पेस्टिसाइड
लेबल के दावों द्वारा
की गई सिफारिशों का
तालमेल अनुमोदित उपयोग
से स्थापित करने और
अन्य उपयोगों को अवैध
घोषित करने का प्रावधान
हो।
पीएमबी 2020 में ‘कीट नियंत्रण
संचालक’ और ‘कार्यकर्ता’ की
परिभाषा में देश के
सबसे बड़े कीटनाशक उपयोगकर्ताओं, किसानों और कृषि
श्रमिकों, को शामिल नहीं
किया गया है। इसलिए
विधेयक में आवश्यक रूप
से यह निर्दिष्ट किया
जाना चाहिए कि कौन
लोग कृषि और अन्य
कार्यों में कीटनाशकों का
इस्तेमाल कर सकते हैं।
कीटनाशक पंजीकरण की प्रक्रिया
कीटनाशक के चयन का
अवसर देती है। यह
चयन उपयोग की परिस्थिति
में प्रभाविता, मानव
स्वास्थ्य और पर्यावरण सुरक्षा
सम्बंधी डैटा के मूल्यांकन
के आधार पर किया
जाता है। कीटनाशकों के
जोखिम को कम करने
के तीन महत्वपूर्ण सूत्र
हैं: ‘कीटनाशकों पर
निर्भरता कम करना’, ‘कम
जोखिम वाले कीटनाशकों का
चयन’, और ‘उचित ढंग
से उपयोग सुनिश्चित करना’।
अंतर्राष्ट्रीय कीटनाशक प्रबंधन आचार
संहिता (इंटरनेशनल कोड
ऑफ कंडक्ट ऑन पेस्टिसाइड
मैनेजमेंट, आईसीसीपीएम) के
अनुच्छेद 3.6 और 6.1.1 का
पालन करते हुए, पंजीयन
के लिए निर्णय लेने
और अत्यधिक खतरनाक कीटनाशकों
(जिनको अत्यधिक विषाक्त माना
जाता है) वाले रसायनों
को पंजीकृत न करने
के लिए एफएओ टूलकिट
अधिक फायदेमंद होगा।
इससे भारत में कीटनाशक
सम्बंधी जोखिमों में कमी
लाई जा सकती है।
वर्तमान में, भारत में
62 कीटनाशकों को ‘पंजीकृत माना
गया’ है, जिनकी उपस्थिति
कीटनाशक अधिनियम 1968 से
भी पहले से है।
इनमें से अधिकांश कीटनाशक
मूल्यांकन प्रक्रिया से
परे पंजीकृत माने जाते
रहे हैं। विधेयक में
‘पंजीकृत माना गया’ (अनुच्छेद
23) के प्रावधान को
बनाए रखना अनुचित है।
अनिवार्य पंजीकरण की खोजबीन
और मानक प्रोटोकॉल के
साथ सभी कीटनाशकों की
समीक्षा, विधेयक का हिस्सा
होना चाहिए।
पीएमबी 2020 ने एक सलाहकारी
भूमिका के साथ सेंट्रल
पेस्टिसाइड बोर्ड (सीपीबी)
के गठन का प्रस्ताव
दिया है। इसके अतिरिक्त,
सीपीबी को कीटनाशक पंजीकरण
के मानदंडों को
विकसित और अपडेट करने,
पारदर्शी प्रक्रियाओं को
तैयार करने, अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर स्वीकार्य मानदंडों
का अनुपालन करने और
पंजीकरण के बाद के
निगरानी करने का काम
सौंपा जा सकता है।
इस बोर्ड में मान्यता
प्राप्त कृषि श्रमिक संगठनों
के प्रतिनिधियों को
शामिल किया जा सकता
है।
पीएमबी 2020 में पर्सनल प्रोटेक्शन
इक्विपमेंट (पीपीई) का
उपयोग करने के महत्वपूर्ण
प्रावधान गायब हैं जो
कीटनाशक अधिनियम 1968 और
पीएमबी 2017 के मसौदे में
उपलब्ध थे। महाराष्ट्र में
पीपीई के बिना कीटनाशकों
का छिड़काव कीटनाशक विषाक्तता
के कारणों में से
एक माना गया है।
उद्योग के माध्यम से
आईसीसीपीएम के अनुच्छेद 3.6 का
पालन करने वाले पीपीई
के अनिवार्य रूप
से उपयोग के पर्याप्त
प्रावधान काफी उपयोगी हो
सकते हैं। कीटनाशकों के
उपयोग से अक्सर विषाक्तता
हो जाती है। इस
कारण से, एंटी-डॉट्स
के साथ कीटनाशकों के
पंजीकरण को प्रतिबंधित करना
उचित होगा।
कीटनाशकों का बहाव, छिड़काव
क्षेत्र से परे लोगों
में कीटनाशकों के
संपर्क में आने के
जोखिम और विषाक्तता को
बढ़ा सकता है तथा
पारिस्थितिकी तंत्र को भी
दूषित कर सकता है।
इससे बचने के लिए,
पीएमबी 2020 को कुछ संवेदनशील
क्षेत्र जैसे आंगनवाड़ी, स्कूल,
स्वास्थ्य सेवा केंद्र, सामुदायिक
सभाओं, आवास, आदि के
लिए बफर ज़ोन घोषित
करना चाहिए। कीटनाशक-मुक्त
बफर ज़ोन की घोषणा
करने की शक्ति राज्य
सरकारों या स्थानीय इकाइयों
को दी जानी चाहिए।
पीएमबी 2020 में कीटनाशकों के
उपयोग के जोखिम को
कम करने के प्रावधानों
का अभाव है। कीटनाशकों
के जीवन चक्र का
प्रबंधन जैसे एक्सपायर्ड उत्पादों
और खाली कीटनाशक कंटेनरों
के उचित संग्रह और
निपटान को पीएमबी 2020 में
लाया जाना चाहिए। ऐसे
प्रावधान भी अनिवार्य हैं
जो पारस्थितिकी तंत्रों
(वायु, जल निकायों, मिट्टी,
जंगलों, आदि) के संदूषण
को संबोधित करें और
मनुष्यों तथा अन्य जीवों
को भी इसके संपर्क
में आने से भी
रोकें। ‘प्रदूषक भुगतान करें’
के सिद्धांत का
अनुपालन करने वाले प्रवधानों
को कानून का हिस्सा
होना चाहिए।
इसके अलावा, जवाबदेही
और पारदर्शिता के
प्रावधान मनुष्यों और
पर्यावरण को कीटनाशकों के
नुकसान से बचाने के
उद्देश्य का हिस्सा हैं;
इसलिए इसे विधेयक में
लाया जाना चाहिए। इन
प्रावधानों का उल्लंघन अन्य
अपराधों और सज़ाओं के
समान होना चाहिए। इसके
प्रभावी कार्यान्वयन के
लिए, कुछ निर्धारित कार्यों
के लिए प्रशिक्षित और
जानकार कर्मचारियों की
नियुक्ति की जानी चाहिए।
पीएमबी 2020 के वर्तमान संस्करण में महत्वपूर्ण संशोधन की आवश्यकता है जिसके बिना भारत में कीटनाशक कानून मानव स्वस्थ्य, जीवों और पर्यावरण की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं होगा। एहतियाती सिद्धांतों की रोशनी में और भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा आश्वस्त अधिकारों को सुनिश्चित करते हुए, देश में कीटनाशक कानून को कृषि पारिस्थितिकी तंत्र पर आधारित गैर-रासायनिक कृषि उत्पादन प्रणालियों को बढ़ावा देकर ज़हरीले रासायनिक कीट नियंत्रण उत्पादों पर निर्भरता में कमी की सुविधा प्रदान करनी चाहिए। संधारणीय कृषि, सुरक्षित खाद्य सामग्री उत्पादन और सुरक्षित कार्यस्थल के साथ-साथ प्रदूषण रहित वातावरण प्राप्त करने के लिए पीएमबी 2020 में महत्वपूर्ण संशोधनों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.outlookhindi.com/public/uploads/article/gallery/fd1797d359b2cf70c7d09956829dbf3d.jpg
पौधे अपनी बनावट में काफी सरल जान पड़ते हैं। चाहे छोटी
झाड़ियां हों या ऊंचे पेड़ हों – सभी जड़, तना, पत्तियों,
फूलों, फलों से मिलकर बनी संरचना दिखाई
देते हैं। लेकिन उनकी बनावट जितनी सरल दिखती है उतने सरल वे होते नहीं हैं।
एक ही स्थान पर जमे रहने के लिए कई विशेष लक्षण ज़रूरी होते हैं। सूर्य के
प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड से भोजन बनाने की क्षमता ने उन्हें पृथ्वी पर मौजूद
जीवन में एक महत्वपूर्ण मुकाम दिया है। वे दौड़ नहीं सकते, लेकिन
अपनी रक्षा कर सकते हैं। अलबत्ता, उनकी क्षमताओं का एक दिलचस्प
पहलू,
जो हमें दिखाई नहीं देता, वह
मिट्टी में छिपा है – जिस मिट्टी में वे अंकुरित होते हैं, और
जिससे पानी,
तमाम सूक्ष्म पोषक तत्व और कई अन्य लाभ प्राप्त करते हैं।
पुराना साथ
पौधों और कवक (फफूंद) का साथ काफी पुराना है। लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व के
पौधों के जीवाश्मों में जड़ों के पहले सबूत मिलते हैं। और इन जड़ों (राइज़ॉइड्स) के
साथ कवक भी सम्बद्ध हैं, जो यह बताते हैं कि जड़ें और
कवक साथ-साथ विकसित हुए हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण पेनिसिलियम की एक
प्रजाति है;
वही कवक जिससे अलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने सूक्ष्मजीव-रोधी
पेनिसिलिन को पृथक किया था।
कवक और जड़ का साथ, जिन्हें मायकोराइज़ा कहते हैं, पहली नज़र में सरल आपसी सम्बंध लगता है जो दोनों के लिए फायदेमंद होता है। जड़
पर घुसपैठ करने वाले कवक पौधे द्वारा बनाए गए पोषक तत्व लेते हैं, और पौधों को इन सूक्ष्मजीवों से फॉस्फोरस जैसे दुर्लभ खनिज मिलते हैं। लेकिन
यह सम्बंध इससे कहीं अधिक गहरा है।
डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.
पैसिफिक नॉर्थवेस्ट के घने जंगलों में काम करने वाली, युनिवर्सिटी
ऑफ ब्रिटिश कोलंबिया की सुज़ाने सिमर्ड ने एक दिलचस्प खोज की। उन्होंने एक पारदर्शी
प्लास्टिक थैली में सनोबर और देवदार के नन्हें पौधों के साथ सावधानीपूर्वक
नियंत्रित प्रयोग किया। इस थैली में रेडियोधर्मी कार्बन डाईऑक्साइड भरी थी।
उन्होंने पाया कि सनोबर के पौधों ने प्रकाश संश्लेषण द्वारा इस रेडियोधर्मी कार्बन
डाईऑक्साइड गैस को रेडियोधर्मी शर्करा में बदल दिया था, और दो
घंटे के भीतर पास ही लगे देवदार के पौधों की पत्तियों में रेडियोधर्मी शर्करा के
कुछ अंश पाए गए। शर्करा का यह आदान-प्रदान मुख्यत: कवक के मायसेलिया (धागे नुमा
संरचना) के ज़रिए होता है, और यह संजाल पूरे जंगल में
फैला हो सकता है। इस तरह का हस्तांतरण सूखे स्थानों पर लगे छोटे पेड़ों को भोजन
प्राप्त करने में मदद कर सकता है। नेचर पत्रिका के एक समीक्षक ने तो इस जाल
को वर्ल्ड वाइड वेब की तर्ज़ पर वुड वाइड वेब (डब्ल्यू.डब्ल्यू.डब्ल्यू.) की संज्ञा
दी है।
जड़ों से जो बैक्टीरिया जुड़ते हैं उन्हें राइज़ोबैक्टीरिया कहते हैं, और इनमें से कई प्रजातियां पौधों की वृद्धि को बढ़ावा देती हैं। कवक की तरह, इन बैक्टीरिया के साथ भी पौधों का सम्बंध सहजीविता का होता है। शर्करा के बदले
बैक्टीरिया पौधों को कई लाभ पहुंचाते हैं। ये पौधों को उन रोगाणुओं से बचाते हैं
जो जड़ के रोगों का कारण बन सकते हैं। इसके अलावा, वे
पूरे पौधे में रोगजनकों के खिलाफ बहुतंत्रीय प्रतिरोध भी शुरू कर सकते हैं।
संकर ओज
हरित क्रांति ने हमारे देश की कृषि पैदावार में बहुत वृद्धि की। हरित क्रांति
की कुंजी है फसल पौधों की संकर किस्में तैयार करना। आज, व्यावसायिक
रूप से उगाई जाने वाली अधिकांश फसलें संकर किस्म की हैं। यानी इनमें एक ही प्रजाति
के पौधों की दो शुद्ध किस्मों के बीच संकरण किया जाता है। और इससे तैयार प्रथम
पीढ़ी के पौधों में ऐसी ओज पैदा हो जाती है जो दोनों में से किसी भी मूल पौधे में
नहीं थी। संकर ओज के इस गुण को हेटेरोसिस कहते हैं और इसके बारे में सदियों से
मालूम है। लेकिन इसे थोड़ा ही समझा गया है।
हाल ही में हुए अध्ययन में संकर ओज का एक नया और आकर्षक पहलू देखा गया है –
सूक्ष्मजीवों के समृद्ध समूह राइज़ोमाइक्रोबायोम में जो हरेक पौधे की जड़ों के इर्द-गिर्द
पाया जाता है। कैंसास विश्वविद्यालय की मैगी वैगनर ने हेटेरोसिस को पौधों और जड़ से
सम्बद्ध सूक्ष्मजीवों के परस्पर संपर्क के नज़रिए देखा। (कैंसास दुनिया के विपुल
मकई उत्पादक क्षेत्रों में से एक है।) मक्के को मॉडल फसल के रूप में उपयोग करके
उनके समूह ने दर्शाया है कि संकर मक्का की जड़ों का भरपूर जैव पदार्थ और अन्य
सकारात्मक लक्षण,
मिट्टी के उपयुक्त सूक्ष्मजीवों पर निर्भर करते हैं। यह
अध्ययन पीएनएएस में 27 जुलाई 2021 को प्रकाशित हुआ है। प्रयोगशाला की पूरी
तरह से सूक्ष्मजीव रहित मिट्टी में शुद्ध किस्म के पौधे और उनके संकरण से उपजे
पौधे,
दोनों एक जैसी गुणवत्ता से विकसित हुए और संकर ओज कहीं नज़र
नहीं आई। उसके बाद शोधकर्ताओं ने मिट्टी का पर्यावरण ‘बदलना’ शुरू किया, जिसके लिए उन्होंने मिट्टी में एक-एक करके बैक्टीरिया जोड़े।
सूक्ष्मजीव रहित मिट्टी में बैक्टीरिया की सिर्फ सात प्रजातियां जोड़ने पर
शुद्ध किस्म के पौधों और उनकी संकर संतानों में संकर ओज का अंतर दिखने लगा। यह
प्रयोग खेतों में करके भी देखा गया: एक प्रायोगिक भूखंड की मिट्टी को धुंआ देने या
भाप देने से उसमें हेटेरोसिस कम हो गया था, क्योंकि
मिट्टी में सूक्ष्मजीवों की कमी हो गई थी।
कृषि विशेषज्ञों का अनुमान है कि मिट्टी की उर्वरता के आधार पर, संकर मक्का की प्रति हैक्टर नौ टन उपज के लिए 180-225 किलोग्राम कृत्रिम उर्वरक की ज़रूरत होती है। इन उर्वरकों का उत्पादन काफी ऊर्जा मांगता है। चूंकि हमारा देश टिकाऊ कृषि के ऊंचे लक्ष्य पाने का प्रयास कर रहा है, फसल की गुणवत्ता (और मात्रा) बढ़ाने के लिए सरल सूक्ष्मजीवी तरीकों का उपयोग करना इस दिशा में एक छोटा मगर सही कदम होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/yly3r0/article36294017.ece/ALTERNATES/LANDSCAPE_615/05TH-SCIROOTSjpg
यह तो लगभग सब जान गए हैं कि एमएसपी या न्यूनतम समर्थन मूल्य
महत्वपूर्ण चीज़ है। लेकिन यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि इसका निर्धारण कैसे
किया जाता है। इसके पीछे तर्क क्या हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य, उसके निर्धारण, उसके महत्व और सीमाओं को समझने के लिए थोड़ा
इतिहास में झांकना होगा।
एमएसपी का इतिहास
एमएसपी की व्यवस्था 1966-67 में गेहूं के लिए शुरू की गई थी। मकसद यह था कि
सरकार द्वारा संचालित रियायती सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए गेहूं की खरीद की जा
सके। आगे चलकर इस व्यवस्था को अन्य ज़रूरी फसलों पर भी लागू किया गया। वर्तमान में
कृषि लागत व मूल्य आयोग की अनुशंसा के आधार पर एमएसपी 23 फसलों पर लागू है। इनमें सात
अनाज (चावल,
गेहूं, मक्का, ज्वार, बाजरा,
जौं और रागी), पांच दालें (चना, तुअर,
मूंग, उड़द और मसूर), आठ तिलहन (सरसों, मूंगफली, सोयाबीन, तोरिया,
तिल, केसर बीज, सूरजमुखी और रामतिल) शामिल हैं। इनके अलावा 4 व्यावसायिक फसलें भी शामिल की गई
हैं: खोपरा,
गन्ना, कपास और पटसन।
एमएसपी का तर्क
अब यह देखते हैं कि एमएसपी क्या है और इसके पीछे तर्क क्या है। सरल शब्दों में
कहें तो एमएसपी सरकार द्वारा किसानों को प्रदान की गई सुरक्षा है। इसके माध्यम से
यह सुनिश्चित किया जाता है कि किसानों को कीमतों की गारंटी रहे और बाज़ार का आश्वासन
रहे। एमएसपी-आधारित खरीद प्रणाली का मकसद फसलों को कीमतों के उतार-चढ़ाव से महफूज़
रखना है। कीमतों में यह उतार-चढ़ाव कई अनपेक्षित कारणों से होता रहता है, जैसे मॉनसून,
बाज़ार में एकीकरण का अभाव, जानकारी
में असंतुलन वगैरह।
कृषि उत्पादों की कीमतें कई कारणों से प्रभावित होती हैं। जैसे यदि किसी फसल
का उत्पादन अच्छा हो, तो उसकी कीमतों में भारी गिरावट आ सकती है।
इसका परिणाम होगा कि किसान अगले वर्ष उस फसल को बोने से कतराएंगे, जिसका असर आपूर्ति पर पड़ेगा। इससे बचाव के लिए सरकार एमएसपी निर्धारित करती है
ताकि निवेश और फसल उत्पादन बढ़े। इससे यह सुनिश्चित होता है कि यदि बाज़ार में किसी
फसल उत्पाद की कीमतें गिरने लगें, तो भी सरकार किसानों से इसे
निर्धारित समर्थन मूल्य पर खरीद लेगी। इस तरह से उन्हें नुकसान से बचाया जाता है।
एमएसपी कैसे तय होता है?
एमएसपी का निर्धारण साल में दो बार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफारिश पर
किया जाता है। यह आयोग एक संवैधानिक निकाय है और खरीफ व रबी मौसम की अलग-अलग फसलों
के लिए अलग-अलग मूल्य नीति रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।
रिपोर्ट पर विचार करके अंतिम निर्णय केंद्र सरकार लेती है। इससे पहले वह राज्य
सरकारों से सलाह-मशवरा करती है और देश में मांग-आपूर्ति की समग्र स्थिति पर भी
विचार करती है। एमएसपी की गणना जिस सूत्र के आधार पर की जाती है, उसे ‘A2+FL’ सूत्र कहते हैं और इसमें C2 लागत का भी ध्यान रखा
जाता है। A2 लागत में किसान द्वारा उठाए गए सारे खर्चों को शामिल किया जाता है – जैसे
बीज,
उर्वरक, रसायन, नियुक्त
मज़दूर,
र्इंधन, सिंचाई वगैरह। ‘A2+FL’ में ये सारी नगद लागतें और
अवैतनिक पारिवारिक श्रम की अनुमानित लागत (FL) जोड़ी जाती हैं। C2 लागत में A2+FL के अलावा किसान की अपनी भूमि तथा अचल सम्पत्ति का किराया
और फसल लगाने की वजह से ब्याज का जो नुकसान हुआ है वह भी जोड़ा जाता है।
कृषि लागत एवं मूल्य आयोग लाभ की गणना के लिए मात्र A2+FL को ध्यान में लेता है। बहरहाल, C2 लागतों का उपयोग एक संदर्भ के रूप में
किया जाता है ताकि यह फैसला हो सके कि आयोग द्वारा अनुशंसित एमएसपी कुछ प्रमुख राज्यों
में इन लागतों को शामिल कर रहा है। एमएसपी की गणना में कई बातों का ध्यान रखा जाता
है:
1. उत्पादन की लागत
2. मांग
3. आपूर्ति
4. कीमतों में उतार-चढ़ाव
5. बाज़ार में कीमतों के रुझान
6. विभिन्न लागतें
7. अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमतें
8. कृषि मज़दूरी की दरें
यदि हम A2, FL और C2 में शामिल किए गए मदों को देखें तो लगता है कि उक्त सूत्र में सब कुछ शामिल
हो गया है। लेकिन यह बात सच से कोसों दूर है। निर्धारित कीमतों में कुछ निहित
समस्याएं होती हैं, जिनका समाधान नहीं किया जा सकता, चाहे जितनी समग्र सूची बना ली जाए।
दूसरी समस्या क्रियांवयन की है। चाहे एमएसपी मौजूद है, लेकिन
मैदानी हकीकत यह है कि अधिकांश किसानों को अपनी उपज मजबूरन एमएसपी से कम दामों पर
बेचनी पड़ती है। आइए एमएसपी व्यवस्था की दिक्कतों पर एक नज़र डालते हैं – खरीद की एक
प्रणाली के रूप में भी और समर्थन की एक व्यवस्था के रूप में भी।
एमएसपी की सीमाएं
एक राष्ट्रीय सर्वेक्षण की 2012-13 की रिपोर्ट के मुताबिक 10 प्रतिशत से भी कम
किसान अपनी उपज सरकार द्वारा निर्धारित एमएसपी पर बेचते हैं। दी हिंदू में
प्रकाशित एक विश्लेषण बताता है कि सितंबर 2020 में 68 प्रतिशत मामलों में फसलें
एमएसपी से कम कीमतों पर बेची गई थीं।
एमएसपी की प्रमुख समस्या है सरकार के पास गेहूं और चावल के अलावा शेष सारी
फसलों को खरीदने की व्यवस्था का अभाव। गेहूं और चावल की खरीद भारतीय खाद्य निगम
द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत की जाती है। एक सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए
कि क्या एमएसपी बढ़ाने से किसानों को उनकी उपज के बेहतर दाम मिलेंगे।
हालांकि यह नीति किसानों की भलाई के लिए लागू की गई है, लेकिन यह जानना ज़रूरी है कि क्या उन्हें वास्तव में लाभ मिला है। जब भी सरकार
एमएसपी बढ़ाती है,
तो दावा किया जाता है कि इससे देश के किसानों को बहुत लाभ
मिलेगा। लेकिन ये दावे सच्चाई से बहुत दूर हैं। जब भी एमएसपी बढ़ाया जाता है, किसान उससे कम दामों पर ही बेच पाते हैं, जिसकी
वजह से असंतोष बढ़ता है।
यदि हम एमएसपी को एक फिक्स्ड मूल्य व्यवस्था के रूप में देखें तो कई समस्याएं
नज़र आने लगती हैं।
केंद्र सरकार द्वारा घोषित मूल्य (एमएसपी) पूरे देश के लिए एक समान होता है
जबकि उत्पादन की लागतें राज्यों के बीच बहुत अलग-अलग होती हैं। कृषि लागत एवं
मूल्य आयोग की बात करें, तो 2016-17 में कर्नाटक के
किसानों का एक हैक्टर मक्का उत्पादन का खर्च लगभग 28,220 रुपए था। दूसरी ओर, बिहार के किसान का खर्च 32,662 रुपए था और झारखंड के किसान को एक हैक्टर मक्का
उगाने में 24,716 रुपए तथा महाराष्ट्र के किसानों को 51,408 रुपए खर्च करने पड़े
थे।
दूसरी बात यह है कि राज्यों के बीच उपज में बहुत अंतर होता है। उदाहरण के लिए
2017-18 में देश में मक्का
विभिन्न राज्यों में मज़दूरी की दरें
राज्य
मजदूरी
(रुपए प्रतिदिन)
आंध्र प्रदेश
312
आसाम
277
बिहार
264
गुजरात
236
हरियाणा
367
कर्नाटक
321
हिमाचल प्रदेश
439
केरल
691
मध्य प्रदेश
298
ओड़िसा
226
पंजाब
349
राजस्थान
267
तमिलनाड़ु
424
उत्तर प्रदेश
275
की औसत उपज 33 क्विंटल
प्रति हैक्टर थी। तुलना के लिए देखें कि तमिलनाड़ु में मक्का की प्रति हैक्टर औसत
उपज 65.5
क्विंटल और बिहार में मात्र 36.4 क्विंटल
रही थी।
एक समस्या यह भी है कि सभी राज्यों में मज़दूरी की दरें बहुत अलग-अलग हैं।
तालिका में जनवरी 2018 में विभिन्न राज्यों में मज़दूरी दरें दी गई हैं। गौरतलब है
कि इसी साल पूरे देश में औसत मज़दूरी 283 रुपए प्रतिदिन थी।
2020 में 68 प्रतिशत बिक्रियां मंडी में एमएसपी से कम दामों पर हुई थीं और
इसका प्रमुख कारण था कि सरकार पर एमएसपी पर फसल खरीदने की कानूनी बाध्यता नहीं है।
एमएसपी की दिक्कतों को समझने के लिए, आइए कुछ आंकड़ों और
अध्ययनों पर नज़र डालें। इनसे पता चलता है कि एमएसपी व्यवस्था सही तरीके से काम
नहीं कर रही है।
पुराने-नए आंकड़े
आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन तथा भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (OECD-ICAIR) की
एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्पाद मूल्य निर्धारण की कोई उचित व्यवस्था न होने की वजह
से किसानों ने 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान उठाया।
भारतीय खाद्य निगम की पुनर्रचना के सुझाव देने हेतु 2015 में गठित शांता कुमार
समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि मात्र 6 प्रतिशत किसानों ने ही एमएसपी का
लाभ उठाया। अर्थात देश के 94 प्रतिशत किसान एमएसपी से लाभांवित नहीं हो रहे थे।
भारत सरकार के अनुसार देश में 14.5 करोड़ किसान हैं। यानी एमएसपी से लाभांवित किसान
मात्र 87 लाख हैं।
2016 में नीति आयोग की एक चौंकाने वाली रिपोर्ट से पता चला था कि 81 प्रतिशत
किसान जानते थे कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य देगी लेकिन इनमें से मात्र 10
प्रतिशत किसानों को ही बोवनी से पहले सही कीमत की जानकारी थी। तो सवाल यह उठता है
कि यदि किसान सबसे बड़ी उचित मूल्य की प्रणाली से इतनी दूर हैं तो उन्हें उचित दाम
कैसे मिल पाएंगे।
अब वर्ष 2019-20 के कुछ ताज़ा आंकड़े देखते हैं और यह समझने की कोशिश
करते हैं कि क्या एमएसपी ने कोई वास्तविक लाभ दिया है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार हालांकि धान और गेहूं की सर्वाधिक खरीद पंजाब और
हरियाणा में होती है लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ पाने वाले सबसे ज़्यादा
किसान तेलंगाना और मध्य प्रदेश के हैं। इसकी एक संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि
पंजाब व हरियाणा में जोत के आकार बड़े हैं (जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस में 2019 में
प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया था) और जोत के आकार के हिसाब से उनकी रैंक दूसरी
और तीसरी है,
लेकिन यह भी हो सकता है कि इन राज्यों में ज़्यादा किसानों
को हड़बड़ी में फसल बेचना पड़ती है और इसके चलते वे शोषण के शिकार हो जाते हैं।
उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय की एक
रिपोर्ट से पता चला था कि खरीफ के मौसम में सरकार द्वारा तेलंगाना के 198 लाख
किसानों से धान खरीद की गई थी। दूसरे नंबर पर
हरियाणा था जहां के 189 लाख किसानों ने धान बेची जबकि पंजाब पांचवे स्थान
पर था जहां के मात्र 116 लाख किसानों को धान के लिए एमएसपी दिया गया था (ये आंकड़े
भारतीय खाद्य निगम की एमएसपी रिपोर्ट से हैं)।
इन पांच उदाहरणों में आंकड़ों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि एमएसपी
व्यवस्था भलीभांति काम नहीं कर रही है। इसके द्वारा किसानों की वास्तविक तकलीफ में
खास कमी नहीं आ रही है क्योंकि बहुत ही थोड़े किसानों को इस व्यवस्था का लाभ मिल पा
रहा है।
आगे हम देखेंगे कि एमएसपी व्यवस्था को लेकर विशेषज्ञों की राय क्या है। हम खास
तौर से एम.एस. स्वामिनाथन आयोग की रिपोर्ट पर ध्यान देंगे।
स्वामिनाथन रिपोर्ट
एम.एस. स्वामिनाथन आयोग का गठन 2004 में किया गया था। इसने पांच रिपोर्ट
प्रस्तुत की थीं जिनमें किसानों के कष्टों को कम करने तथा एक निर्वहनीय व लाभदायक
कृषि प्रणाली के लिए एक खाका प्रस्तुत किया गया था।
पांचवी व अंतिम रिपोर्ट में कई मुद्दों पर चर्चा की गई थी। इनमें भूमि सुधार, सिंचाई सुधार, उत्पादन वृद्धि, खाद्य
सुरक्षा,
ऋण एवं बीमा सुविधाएं तथा किसानों की आत्महत्याओं को रोकने
जैसे मुद्दे शामिल थे। लगभग 300 पृष्ठों की इस रिपोर्ट में एमएसपी तथा किसानों की
वित्तीय तरक्की सम्बंधी प्रमुख सिफारिशों की चर्चा यहां की गई है।
स्वामिनाथन आयोग ने व्यापारियों के बीच कार्टल गठन की समस्या को पहचाना था।
कार्टल का मतलब होता है कि व्यापारी लोग भावों को बढ़ने से रोकने के लिए गठबंधन कर
लेते हैं। ऐसे गठबंधन किसी विशेष कृषि उत्पाद या मवेशियों के बारे में किए जाते
हैं। इससे निपटने के लिए आयोग ने ‘एक देश एक बाज़ार’ की सिफारिश की थी। आयोग ने माल
के परिवहन को आसान बनाने के लिए रोड टैक्स और स्थानीय करों को समाप्त करने की
सिफारिश की थी। इसकी बजाय आयोग ने एक राष्ट्रीय परमिट का सुझाव दिया था जिसके आधार
पर वाहन देश में कहीं भी जा सकें। आयोग का विचार था कि ऐसा करने पर परिवहन की लागत
कम होगी और खेती में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी।
स्वामिनाथन आयोग ने अनुबंध कृषि की सिफारिश की थी ताकि किसानों को सीधे
उपभोक्ता से जोड़ा जा सके और सुझाव दिया था कि मूल्य-वर्धन तथा विपणन के लिए
संस्थागत समर्थन मिले। लेकिन चूंकि कोई कानून नहीं है, इसलिए
किसानों को यह शंका होना स्वाभाविक है कि इन उपायों से खेती का कार्पोरेटीकरण हो
जाएगा क्योंकि कृषि-व्यापार कंपनियां बाज़ार के रुझानों को निर्देशित करेंगी और
कीमतों को भी। इसके अलावा, यह डर भी है कि कंपनियां ही
अनुबंध की शर्तें तय करेंगी क्योंकि स्थानीय व छोटे-गरीब किसानों के पास सौदेबाज़ी
की ताकत नहीं है।
हालांकि आयोग ने अनुबंध कृषि का समर्थन किया था किंतु साथ ही यह टिप्पणी भी की
थी कि एक समग्र आदर्श अनुबंध का प्रारूप बनाया जाना चाहिए जिसका उपयोग किसानों के
खिलाफ न किया जा सके।
स्वामिनाथन आयोग ने एमएसपी की सिफारिश एक सुरक्षा चक्र के रूप में की थी ताकि
कृषि में उत्साह पैदा किया जा सके। आयोग की सिफारिश थी कि यह सुरक्षा चक्र उन
फसलों,
लोगों और क्षेत्रों की सुरक्षा के लिए ज़रूरी है जिनके वैश्वीकरण
की प्रक्रिया में प्रतिकूल प्रभावित होने की संभावना है।
एम. एस. स्वामिनाथन आयोग ने कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण बिंदु उठाए थे जो कृषि
क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा, गतिशीलता और वृद्धि को बढ़ावा
देंगे और साथ ही खेती को किसानों के लिए लाभदायक बनाएंगे और टिकाऊ भी। तो सवाल यह
है कि सरकारें स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों पर अमल क्यों नहीं कर रही हैं।
जवाब बहुत आसान है। ये सिफारिशें सरकार को दीर्घावधि में किसानों को उचित
मूल्य देने को बाध्य कर देंगी और सरकार यथासंभव इससे बचना चाहती हैं। तथ्य यह है
कि चाहे आज एमएसपी मौजूद है किंतु सरकार को बाध्य नहीं किया जा सकता कि वह
निर्धारित एमएसपी पर किसान की उपज खरीदे। सरकार के नज़रिए से देखें तो एमएसपी का
सख्ती से पालन किया जाए और आयोग की सिफारिशों को मान्य किया जाए तथा साथ ही
सार्वजनिक वितरण के लिए खाद्यान्न में रियायत दी जाए और इन खाद्य वस्तुओं की अंतिम
कीमतों पर नियंत्रण भी रखा जाए तो यह काफी महंगा मामला साबित होगा। ज़ाहिर है, सरकार यथासंभव इससे बचने की कोशिश करेगी।
क्या करने की ज़रूरत है?
अलबत्ता,
किसानों की तकलीफों को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाना ज़रूरी
है। दिक्कत यह है कि ये सुझाव ऐसे हैं जिन पर अमल करने से अर्थ व्यवस्था पर अन्य
असर होंगे और राज्य पर दबाव बढ़ेगा। यह सही है कि नागरिकों की खुशहाली राज्य का
दायित्व है,
लेकिन राज्य को राजस्व के प्रवाह की अन्य जटिलताओं का भी
ध्यान रखना होता है। बहरहाल कुछ ऐसे उपायों पर चर्चा करते हैं जो किसानों की आमदनी
बढ़ाने में मददगार हो सकते हैं।
लागत और मूल्य की नीति (जैसे एमएसपी जिसमें कीमतें तय करने के लिए किसानों
द्वारा वहन की गई लागत को ध्यान में रखा जाता है) से हटकर आमदनी नीति की ओर बढ़ना
ज़रूरी है क्योंकि वैसे भी अधिकांश किसान एमएसपी से लाभांवित नहीं हो रहे हैं। यदि
एमएसपी बना रहता है तो यह राज्य का वैधानिक दायित्व होना चाहिए। तभी किसान वास्तव
में इससे लाभांवित हो पाएंगे।
संसद एमएसपी को लेकर कानून बना सकती है ताकि कोई भी व्यापारी किसान की उपज को
एक निर्धारित मूल्य से कम पर न खरीद सके। ऐसा करने पर दंड का प्रावधान हो।
जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए ताकि किसानों को एमएसपी की जानकारी बोवनी
से पहले मिल सके।
इन समाधानों के साथ समस्या यह है कि एमएसपी निर्धारण का अधिकार केंद्र सरकार
के पास है क्योंकि यह सरकार पर है कि वह कितना स्टॉक रखना चाहती है और कितना बाज़ार
के लिए छोड़ना चाहती है। ये सारे निर्णय केंद्र द्वारा किए जाने होते हैं। फिर भी
इन्हें राज्यों के अनुसार क्रियांवित किया जाना असंभव नहीं है। उदाहरण के लिए, मान लेते हैं कि गेहूं की लागत 2500 रुपए प्रति Ïक्वटल आती है। तब भारतीय खाद्य निगम किसानों को 2500 रुपए का भुगतान करेगा और
यदि यही लागत बिहार के लिए 1500 रुपए निकलती है तो बिहार सरकार 1500 रुपए प्रति Ïक्वटल का भुगतान करेगी। इससे विभिन्न राज्यों के बीच एमएसपी
से मिलने वाले लाभ में समता आएगी। लेकिन ऐसा होता नहीं है क्योंकि किसानों में इसे
लेकर जागरूकता नहीं है। पूरी नीति में परिवर्तन की ज़रूरत है लेकिन सरकार इसकी
अनुमति नहीं देती क्योंकि अर्थ शास्त्री मानते हैं कि खाद्य वस्तुएं सस्ती होनी
चाहिए। यह मुद्रा स्फीती पर काबू रखने के लिए किया जाता है ताकि उद्योगों को कच्चा
माल और हमारे जैसे अंतिम उपभोक्ताओं को सस्ते दामों पर वस्तुएं मिल सके। सबसिडी
जैसी कृत्रिम व्यवस्थाओं के ज़रिए मुद्रास्फीती पर नियंत्रण रखा जाता है। सरकार को
लगता है कि सबसिडी तथा अन्य ऐसी व्यवस्थाएं एक बोझ हैं – अनिवार्य हैं लेकिन बोझ
तो हैं ही।
कई बार जब किसानों की आमदनी बढ़ाने की मांग होती है तो उसे यह कहकर दबा दिया
जाता है कि किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो कीमतें बढ़ेंगी। इससे बचने का एक तरीका यह है
कि सरकार एमएसपी से कम बाज़ार भाव पर खरीदी करे और बाज़ार भाव और एमएसपी के बीच के
अंतर की राशि को सीधे प्रधान मंत्री जनधन खातों में जमा कर दे। इससे सरकार
उपभोक्ताओं के लिए कीमतों पर नियंत्रण रख सकती है और किसानों के हितों की भी रक्षा
कर सकती है। इससे बिचौलियों को दूर रखने में मदद मिलेगी।
स्पष्ट है कि एमएसपी की दिक्कतों से निपटने के तरीके हैं और उन स्थितियों से बचने के भी तरीके हैं जहां किसान नाखुश होते हैं। लेकिन इसके लिए दोनों ओर से प्रयास की ज़रूरत होगी। अन्यथा सारे समाधान नाकाम रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2020/10/MSP.jpeg
पिछले दिनों
देश में राष्ट्रीय तितली के चयन के लिए मतदान किया गया था,
जब मैंने अन्य राष्ट्रीय प्रतीकों के बारे
में जानना चाहा तो पता चला कि हमारे राष्ट्रीय पेड़ बरगद,
राष्ट्रीय फूल कमल और राष्ट्रीय फल आम के
अलावा एक राष्ट्रीय सब्ज़ी भी है – कद्दू – तो मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा क्योंकि
यह मेरी पसंदीदा सब्ज़ी है।
परंतु मेरी खुशी तब काफूर हो गई जब एक मित्र ने बताया कि कद्दू के राष्ट्रीय सब्ज़ी
होने का भारत सरकार की वेबसाइट पर कोई ज़िक्र नहीं है। वैसे नेट पर सर्च करेंगे तो
आपको राष्ट्रीय सब्ज़ी के नाम पर पंपकिन अर्थात कद्दू का नाम मिल जाएगा। मुझे लगा
कि जब हमारा राष्ट्रीय फल (आम) है, फूल (कमल) है, पक्षी (मोर) है, जलीय जंतु (गंगा डॉल्फिन) है और यहां तक कि हमारा एक
राष्ट्रीय सूक्ष्मजीव (लैक्टोबैसिलस डेलब्रुकी,
जिसे बगैर सूक्ष्मदर्शी के देखा भी नहीं जा
सकता) भी है, तो राष्ट्रीय
सब्ज़ी तो बनती है।
राष्ट्रीय सब्ज़ी कई देशों में घोषित है। जैसे जापान में
डॉइकॉन (एक किस्म की मूली), पाकिस्तान में भिंडी,
चीन में एक प्रकार का पत्ता गोभी और
अमेरिका में आर्टीचोक और यूके में मटर। गौरतलब है कि मेंडल ने अपने आनुवंशिकी
सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोग मटर पर ही किए थे।
तो जब इतने सारे देशों की अपनी-अपनी राष्ट्रीय सब्ज़ी है तो
हमारी भी एक राष्ट्रीय सब्ज़ी होनी चाहिए। मेरे ख्याल से कद्दू को राष्ट्रीय सब्ज़ी
घोषित किया जाना चाहिए। वैसे इस कार्य में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए
भारत सरकार के डिपार्टमेंट ऑॅफ हार्टिकल्चर और कृषि अनुसंधान परिषद को आगे आना
चाहिए।
देखते हैं कि कद्दू में ऐसे क्या गुण हैं जो इसे राष्ट्रीय
सब्ज़ी का दर्जा दिला सकते हैं। आगे बढ़ने से पहले जरा कद्दू से जान-पहचान कर लें –
यह कद्दू है क्या? कहां से आया? भारतीय
संस्कृति में, लोक रिवाज़ों
में, पर्व-त्योहारों
में इसका क्या महत्व है?
कहां से आया कद्दू
उत्तरी अमेरिका का मूल निवासी कद्दू सबसे पुराने पालतू बनाए
गए पौधों में से एक है। इसका उपयोग 7500 से 5000 ईसा पूर्व से किया जा रहा है।
कुकरबिटेसी कुल का कद्दू हर मौसम की फसल है। आम तौर पर हमारे यहां कद्दू जुलाई की
शुरुआत में लगाया जाता है। यह एक बड़े-बड़े पत्तों वाली कमज़ोर बेल होती है जो ज़मीन
पर रेंगकर आगे बढ़ती है। कद्दू में बड़े-बड़े नर और मादा फूल अलग-अलग खिलते हैं और
इनका परागण आम तौर पर मधुमक्खियों द्वारा होता है। इन परागणकर्ताओं की कमी हो तो
कृत्रिम परागण करना पड़ता है। अपरागित फूलों में लगता तो है कि फल बढ़ने लगे हैं
लेकिन जल्दी ही खिर जाते हैं। इस प्राकृतिक घटना से जुड़ा रामचरितमानस का एक प्रसंग
मुझे याद आ रहा है। बालकांड में शिवजी का धनुष टूटा देख परशुराम जी क्रोध से पूछते
हैं कि यह धनुष किसने तोड़ा है। तब लक्ष्मण बोले हमें ना डराओ, बार-बार फरसा ना
दिखाओ। यहां कोई कुम्हड़ की बतियां (छोटा कच्चा फल) नहीं है जो तर्जनी देखकर ही मर
जाएगा।
ईहां कुम्महड़ बतियां कोऊ नाहीं।
जे तर्जनी देख मरि जाहीं।
बचपन में बुज़ुर्ग कहा करते थे कि फूलों को तर्जनी उंगली मत
दिखाओ, नहीं तो वह
खिर जाएगी, दिखाना ही है
तो उंगली मोड़ कर दिखाओ। इसके मूल में रामचरित मानस की इसी चौपाई की भूमिका लगती
है।
सबसे बड़ा अंडाशय
कद्दू के विशाल आकार को लेकर कई देशों में पंपकिन फेस्टिवल
मनाया जाता है जहां सबसे बड़े कद्दू उत्पादक को पुरस्कृत किया जाता है। लगभग 1 टन
वजन के भी कद्दू देखे गए हैं। दुनिया के सबसे भारी कद्दू (1190.5 किलोग्राम) का
रिकॉर्ड 2016 में बेल्जियम में स्थापित हुआ था।
इतने बड़े फल उगाने के लिए इसके खोखले कमज़ोर तने में बड़ी-बड़ी
पत्तियों द्वारा बनाए जाने वाले भोजन को फलों तक ले जाने वाले सवंहन बंडल में
दूसरे पौधों की तुलना में दुगनी मात्रा में फ्लोएम नामक ऊतक पाया जाता है।
पौष्टिक कद्दू
पोषक तत्वों से भरपूर इस सब्ज़ी को हमारे यहां 30,600 हैक्टर
में उगाया जाता है और इसका उत्पादन 35 लाख टन है। उत्पादन की दृष्टि से पूरी
दुनिया में चीन के बाद दूसरा नंबर भारत का ही है। इसे सभी प्रांतों में उगाया जाता
है। उत्पादन के लिहाज़ से उड़ीसा, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश क्रमश: प्रथम,द्वितीय और तृतीय स्थान पर हैं,चौथे नंबर पर छत्तीसगढ़ है।
कद्दू बहुत ही पौष्टिक सब्ज़ी है। अन्य तत्वों के अलावा, यह प्रो-विटामिन ए,बीटा कैरोटीन और विटामिन ए का बढ़िया स्रोत
है। विटामिन सी मध्यम मात्रा में पाया जाता है। इसके अलावा इसमें विटामिन ए,
विटामिन के,
विभिन्न विटामिन बी और कैल्शियम, लौह, मैग्नीशियम, मैंग्नीज़, फॉस्फोरस, पोटेशियम तथा जस्ता
जैसे महत्वपूर्ण खनिज तत्व पाए जाते हैं।
बहु उपयोगी कद्दू
कद्दू एक बहु उपयोगी पौधा है। कद्दू का हर भाग खाने योग्य
है। इसकी मांसल खोल, इसके बीज, पत्ते और
यहां तक कि फूल भी खाने योग्य हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा में कद्दू
लोकप्रिय थैंक्सगिविंग सामग्री के रूप में जाना जाता है। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप
में कद्दू मक्खन, चीनी और
मसालों के साथ पकाया जाता है। कद्दू का हलवा एक स्वादिष्ट मिठाई है। सांभर बनाने
में भी कद्दू का उपयोग किया जाता है।
क्यों राष्ट्रीय सब्ज़ी?
यह आसानी से पहचाने जाने वाली एक बड़ी सब्ज़ी है। भारतीय
संस्कृति में इसका बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक पकाया-खाया
जाता है। उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम सभी राज्यों
में उपयोग किया जाता है। उत्तर भारत में मनाए जाने वाले छठ त्यौहार में पहले दिन
कद्दू की सब्ज़ी और भात विशेष रूप से पकाया जाता है। भारत के विभिन्न भागों में
इसकी पत्तियों और फूलों का साग और कचोरी पकौड़ा भी तैयार किया जाता है। कद्दू की
सब्ज़ी भी तरह-तरह से बनाई जाती है। इसकी शेल्फ लाइफ 6 से 8 महीने तक होती है। और
कोई सब्जी ऐसी नहीं है जो तोड़ने के बाद इतने लंबे समय तक बिना किसी विशेष व्यवस्था
के सलामत रहे। इसमें कीड़ा भी नहीं लगता। श्राद्ध में कद्दू का भरपूर उपयोग होता
है। सस्ता भी है और कद्दू को लेकर सख्त पसंद-नापसंद की बात भी नहीं है।
कद्दू के बीज
कद्दू के बीज को पेपिटस कहते हैं,
जो खाद्य एवं पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं।
एक-डेढ़ सेंटीमीटर लंबे, चपटे, अंडाकार, हल्के हरे रंग के
होते हैं कद्दू के बीज। इन्हें भूनकर खाया जाता है और मैग्नीशियम, तांबा व जस्ता के
अच्छे स्रोत हैं। इसके बीजों में सेलेनियम भी पाया गया है जो फ्री रेडिकल को रोकने
में मददगार है। इसके साथ ही इस में फॉस्फोरस विटामिन ए,
बी 6,
सी और विटामिन के भी हैं। कद्दू के कई नाम
हैं – काशीफल, कद्दू, कोहरा, कुमड़ा, कोला, ग्रामीण कुष्मांड और
कदीमा।
यानी कद्दू देश के साहित्य, रीति-रिवाज़ों, त्योहारों में काम आता है। बरसात से लेकर गर्मी तक उगाया जाता है। साल भर उपलब्ध उपलब्ध रहता है। और क्या चाहिए कद्दू को राष्ट्रीय सब्ज़ी घोषित करने के लिए?(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.static-collegedunia.com/public/image/420482e81a8659b111bd45f30359c395.webp?tr=w-700,h-400,c-force
हर
साल, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में किसान कृषि अपशिष्ट, खासकर गेहूं की कटाई के बाद बची नरवाई (या पराली) जला देते हैं, जो पर्यावरण के लिए संकट बन जाता है। इसके
चलते हवा में धुआं और महीन कण फैल जाते हैं और हवा सांस लेने के लिहाज़ से बेहद
ज़हरीली हो जाती है। इन इलाकों के लोग ‘स्मॉग’ (धुआं और कोहरा) की समस्या का सामना करते हैं। स्मॉग के कारण हवा की
गुणवत्ता सांस लेने के लायक नहीं बचती। दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों का वायु
गुणवत्ता सूचकांक (AQI) गंभीर स्तर तक, 400 के ऊपर, पहुंच जाता है। प्रसंगवश बता दें कि AQI का आकलन हवा में मौजूद कणीय प्रदूषण की
मात्रा के अलावा ओज़ोन, नाइट्रोजन डाईऑक्साइड, सल्फर डाईऑक्साइड और कार्बन मोनोऑक्साइड की
मात्रा के आधार पर किया जाता है। इन्हें सांस में लेना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
है। वायु गुणवत्ता सूचकांक जब 50 इकाई से कम हो तब सबसे अच्छा होता है; यह स्थिति मैसूर,
कोच्चि, कोझीकोड
और शिलांग में होती है। 51-100
के बीच यह मध्यम होता है जबकि 151-200 के बीच स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह होता है, यह स्तर इन दिनों हैदराबाद का है। 201-300 के बीच का स्तर
स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक होता है। 300-400 के बीच स्तर खतरनाक होता है और 400 से अधिक स्तर गंभीर
स्थिति का द्योतक होता है, जो
आजकल दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में है,
जहां नरवाई या पराली जलाई जा रही है।
व्यावहारिक
समाधान
दिल्ली
सरकार ने हाल ही में दिल्ली स्थित पूसा भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के साथ मिलकर
नरवाई या कृषि अपशिष्ट जलाने की इस समस्या से निपटने का एक व्यावहारिक समाधान
निकाला है, जिसे पूसा डीकंपोज़र
कहते हैं। पूसा डीकंपोज़र कुछ कैप्सूल्स हैं जिनमें आठ तरह के सूक्ष्मजीव (फफूंद) होते हैं। इनमें जैव
पदार्थ को अपघटित करने के लिए ज़रूरी एंज़ाइम होते हैं। इन कैप्सूल्स को गुड़, बेसन मिले पानी में घोल दिया जाता है।
कैप्सूल को पानी में घोलकर, तीन
से चार दिनों तक किण्वित किया जाता है। इस तरह तैयार घोल का छिड़काव किसान खेत में
बचे अपशिष्ट को विघटित करने के लिए कर सकते हैं। 25 लीटर घोल बनाने के लिए चार कैप्सूल
पर्याप्त होते हैं। इतने घोल से एक हैक्टर क्षेत्र के फसल अपशिष्ट को सड़ाया जा
सकता है और यह अपशिष्ट बढ़िया खाद बन जाता है।
पूसा
डीकंपोज़र इस समस्या को हल करने में सफल रहा है,
और देश भर में बड़े पैमाने पर इसके उपयोग का मार्ग प्रशस्त
हुआ है। गौरव विवेक भटनागर ने दी वायर में इस समस्या और समाधान का विस्तृत
विश्लेषण किया है।
गौरतलब
है कि पूसा संस्थान ने कृषि अपशिष्ट के शीघ्र अपघटन के लिए पूसा डीकंपोजर में
तकरीबन आठ तरह की फफूंद का उपयोग किया है। डा कोस्टा और उनके साथियों द्वारा मार्च
2018 में
एप्लाइड एंड एनवायरनमेंटल माइक्रोबायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है
कि दीमकों में कृषि अपशिष्ट के विघटन में फफूंद की तीन प्रजातियों के एंज़ाइम्स की
भूमिका होती है। इसलिए इस कार्य के लिए आवश्यक फंफूद दीमक से प्राप्त की जाती है।
दीमक खुद फसलों की भारी बर्बादी करती हैं। तो बेहतर यही होगा कि दीमकों से उन
फफूंदों को अलग कर लो जो कृषि अपशिष्ट को विघटित करने के लिए आवश्यक एंज़ाइम बनाती
हैं। इसी विचार के आधार पर संस्थान ने पूसा डीकंपोज़र फार्मूला तैयार किया है और
इसने बखूबी काम भी किया है।
प्रसंगवश
यह जानना दिलचस्प होगा कि पूसा डीकंपोज़र से हुई खाद्यान्न उपज जैविक खेती के समान
हैं। क्योंकि ना तो इसमें वृद्धि कराने वाले हार्मोन हैं,
ना एंटीबायोटिक्स, ना
कोई जेनेटिक रूप से परिवर्तित जीव, और
ना ही इससे सतह के पानी या भूजल का संदूषण होता है।
जोंग्यू
का तरीका
वास्तव
में, यदि हम हज़ारों साल
पहले के पौधों और खाद्यान्नों की खेती के मूल तरीके और उसके विकास को देखें तो तब
से अठारहवीं शताब्दी में औद्योगिक क्रांति आने तक खेती करने का तरीका जैविक था।
रसायन विज्ञान की तरक्की से उर्वरकों की खोज हुई और पैदावार बढ़ाने वाले रसायन बने।
इस सम्बंध में स्टेफनी हैनेस का 2008 में क्रिश्चियन साइंस मॉनीटर में प्रकाशित लेख पढ़ना
दिलचस्प होगा (https:
csmonitor.com/Environment/2008/0430/p13s01-sten.html)। वे बताती हैं कि परम्परागत पद्धति झूम
खेती (स्लैश
एंड बर्न) की
रही (जो
अभी हम गेहूं की फसल में अपनाते हैं)। लेकिन पूर्वी अफ्रीका के मोज़ाम्बिक में रहने वाला जोंग्यू
नाम का किसान अपने मक्के के खेत को जलाता नहीं था,
बल्कि कटाई के बाद ठूंठों को सड़ने के लिए छोड़ देता था। खेत
के एक हिस्से को जलाने की बजाय वह उसमें सड़ने के लिए टमाटर और मूंगफली डाल देता
था। फिर खेतों में चूहे आने देता था ताकि वे सड़ा हुआ अपशिष्ट खा लें, यह अपशिष्ट हटाने का एक प्राकृतिक तरीका
था। (यदि
चूहों की आबादी बहुत ज़्यादा हो जाती, तो
उनके नियंत्रण के लिए वह बिल्लियां छोड़ देता!) उसने इसी तरह ज्वार की फसल भी सफलतापूर्वक
उगाई। इसे जैविक खेती कह सकते हैं। बाज़ार में बेचने के लिहाज़ से मक्के और ज्वार की
मात्रा और गुणवत्ता दोनों काफी अच्छी थी।
उसकी
जैविक खेती चूहों पर निर्भर थी जो कवक या फफूंद जैसे आवश्यक आणविक घटकों के स्रोत
थे, इसके अलावा और कुछ
नहीं डाला गया। एक तरह से पूसा डीकंपोज़र गुड़,
बेसन और स्वाभाविक रूप से पनपने वाली फफूंद के साथ जोंग्यू
के तरीके का आधुनिक स्वरूप ही है!
दिल्ली, हरियाणा के खेतों में हुए परीक्षण में पूसा डीकंपोज़र सफल रहा है। संस्थान को पूसा डीकंपोज़र का परीक्षण पूर्वोत्तर भारत, जैसे त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश और मेघालय में भी करके देखना चाहिए, जहां आज भी स्लैश और बर्न (जिसे स्थानीय भाषा में झूम खेती कहते हैं) खेती की जाती है। यह इन क्षेत्रों के वायु गुणवत्ता के स्तर में भी सुधार करेगा (वर्तमान में त्रिपुरा के अगरतला का वायु गुणवत्ता स्तर मध्यम से अस्वस्थ के बीच है)।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/3ntfzw/article33150540.ece/ALTERNATES/FREE_660/22TH-SCIJHUM
पांच बड़े-बड़े ट्रक अमेरिका के उत्तरी केरोलिना में ब्लूबेरी
फार्म पर आकर रुकते हैं। तारपोलिन को हटाते ही एक के ऊपर एक जमे लगभग पांच सौ
डिब्बों में से भिनभिनाहट सुनाई पड़ती है। प्रत्येक डिब्बे में लगभग 20,000
मधुमक्खियां हैं। फार्म के मालिक ने इन एक करोड़ मधुमक्खियों को किराए पर बुलाया
है। मई का महिना यहां परागण का समय है और आसपास के सभी बागानों में मधुमक्खियों के
ट्रक आ रहे हैं।
7000 एकड़ के इस फार्म हाउस के सभी भागों
में मधुमक्खियों के ये डिब्बे, यानी मानव निर्मित छत्ते, रख
दिए जाते हैं। अगले कुछ सप्ताह ये मधुमक्खियां अपनी नैसर्गिक प्रवृत्ति के अनुसार
आसपास के इलाकों में अपना भोजन ‘पराग’ एकत्रित करने के लिए अपने छत्तों में से
निकलेंगी और इस क्रिया के दौरान फूलों को परागित भी करेंगी। फूलों का पराग एकत्रित
करके ये पुन: अपने-अपने दड़बे में आ जाती हैं। फिर उनका मालिक उन्हें एकत्रित करके
परागण के लिए कहीं और ले जाएगा।
तीन सप्ताह तक मधुमक्खियों को फार्म में
रखने के लिए प्रति डिब्बा 90 डॉलर का सौदा हुआ है। दोनों पक्षों के लिए सौदा बेहद
फायदेमंद है। बगैर मधुमक्खियों के ब्लूबेरी के फूल परागित नहीं होंगे और उनमें फूल
से बेरी नहीं बनेंगी और मधुमक्खी पालक को एक ट्रक के 45 हज़ार डॉलर प्रति सप्ताह
मिल जाएंगे।
यद्यपि मधुमक्खियों को हम स्वादिष्ट शहद
बनाने वाली मक्खियों के रूप में पहचानते हैं पर उनका एक महत्वपूर्ण काम परागण करना
है। पौधों में लैंगिक प्रजनन के लिए परागण आवश्यक है। शोध से पता चला है कि
मधुमक्खियां लगभग 16 प्रतिशत पुष्पधारी पौधों तथा 400 किस्म की फसलों का परागण
करती हैं। हमारे भोजन का 35 प्रतिशत केवल मधुमक्खियों और अन्य कीटों द्वारा किए गए
परागण से प्राप्त होता है।
मधुमक्खियां सामाजिक प्राणी हैं। एक छत्ते
में एक बहुत बड़ी रानी और हज़ारों श्रमिक और नर मधुमक्खियां होती हैं। इनमें से
अधिकांश श्रमिक होती हैं जो प्रजनन करने में असमर्थ होती हैं। श्रमिक मधुमक्खियों
का कार्य दूर-दूर उड़कर फूलों को खोजना, उनसे पराग कण एकत्रित करना, शत्रुओं
से छत्ते की रक्षा करना और रानी के बच्चों यानी इल्लियों का पालन-पोषण करना होता
है। छत्ते में रानी मधुमक्खी को पराग से निर्मित अत्यंत पोषक पदार्थ खाने को दिया
जाता है, जिसे ‘रॉयल जेली’ कहते हैं। इससे रानी लंबे समय तक जीवित
रहती है और उसका प्रमुख कार्य छत्ते का प्रबंधन और निरंतर अंडे देते रहना है। शोध
से ज्ञात हुआ है कि श्रमिक मधुमक्खियां यह निर्धारित कर सकती है कि कोई इल्ली
श्रमिक बनेगी या रानी।
परागण लैंगिक प्रजनन का महत्वपूर्ण अंग है।
अनेक पौधे परागण के लिए मधुमक्खियों और अन्य कीटों पर निर्भर करते हैं।
मधुमक्खियां तो परागण में निपुण होती हैं। परागण वह प्रक्रिया है जिसमें पौधों के
नर युग्मक (पराग कण), को मादा जननांग के वर्तिकाग्र पर डाल दिया जाता है। इस
प्रक्रिया के उपरांत निषेचन होता है तथा फल और बीज बनते हैं। बहुत सारे पेड़-पौधों
में पराग कण हवा में बहकर परागण कर देते हैं। घास,
कोनिफर्स और पर्णपाती
पेड़ों में परागण हवा से हो जाता है। जिन पौधों में हवा द्वारा परागण नहीं होता है
वहां मधुमक्खियों तथा अन्य कीटों को फूलों के मीठे रस मकरंद द्वारा आकर्षित किया
जाता है।
जब मधुमक्खियां मीठे रस के लालच में आती
हैं तो उनके शरीर पर उपस्थित रोम से पराग कण चिपक जाते हैं और ये दूसरे पौधों के
फूलों के मादा जननांगों तक पहुंच जाते हैं। इस प्रकार पर परागण भी संभव हो पाता
है। फूलों और मधुमक्खियों का रिश्ता उद्विकास में इतना पुख्ता हो गया है कि कुछ
पौधे तो निषेचन के लिए निश्चित प्रजाति की मधुमक्खियों पर ही पूरी तरह से निर्भर
हो चुके हैं।
मधुमक्खियों का व्यवसाय
मधुमक्खी के छत्ते में रानी मधुमक्खी सबसे
महत्वपूर्ण है क्योंकि उसके द्वारा लगातार अंडे देने से ही श्रमिकों की संख्या
बढ़ती है जो इनके छत्तों के लिए बहुत आवश्यक है। श्रमिकों की संख्या दो कारणों से
घट सकती है। एक तो है पर्याप्त भोजन न मिलना और दूसरा है परजीवी। अगर श्रमिकों को
भोजन कम मात्रा में मिलता है तो वे जल्दी मरते हैं। कुछ प्रकार के परजीवी भी
मधुमक्खियों की कॉलोनी को तबाह करते हैं।
पिछले कुछ दशकों से कीटनाशकों के अत्यधिक
इस्तेमाल से भी लाभदायक कीटों की संख्या बेइन्तहा गिरी है। जलवायु परिवर्तन और
सूखा जैसे कुछ और खतरे भी मधुमक्खियों की संख्या को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका
अदा करते हैं। ये सभी किसानों और फार्म मालिकों की नींद उड़ा देते हैं। अगर फार्म
मालिकों के पास प्राकृतिक जंगली मधुमक्खियों की संख्या पर्याप्त न हो तो किराए की
मधुमक्खियां लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचता। किराए की मधुमक्खियां उत्पादन
को कई गुना बढ़ा सकती हैं। कैलिफोर्निया के आसपास ही लोगों ने पांच लाख छत्ते पाल
रखे हैं। जब बादाम के फूल खिलने का मात्र एक महीने का छोटा सा मौसम आता है तब बीस लाख
छत्तों की आवश्यकता होती है।
कैलिफोर्निया में बादाम का व्यापार इतना
समृद्ध हुआ है कि 1997 में 5 लाख एकड़ की तुलना में आज 15 लाख एकड़ भूमि पर बादाम के
वृक्ष लगे हैं। दुनिया भर में बादाम की आपूर्ति का 80 प्रतिशत भाग अकेला
कैलिफोर्निया से ही प्राप्त होता है। जब बादाम में फूल आते हैं तो देश भर के सारे
मधुमक्खी पालक व्यापारी छत्तों के डिब्बों को लेकर कैलिफोर्निया पहुंच जाते हैं।
बादाम के वृक्षों पर फूलों की बहार केवल एक महीने ही रहती है और यही समय है जब यह
पूरा क्षेत्र असंख्य मधुमक्खियों से घिरा रहता है। चूंकि बादाम की अच्छी फसल पूरी
तरह से मधुमक्खियों पर निर्भर करती है इसलिए मधुमक्खियों के स्वास्थ्य के लिए
वैज्ञानिकों की एक टीम जुटी रहती है।
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का उदाहरण हमें दक्षिण पश्चिम चीन के सेब और नाशपाती के बागानों में देखने को मिलता है। यहां कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग करने से प्रचुरता में पाई जाने वाली जंगली मधुमक्खियां अब पूरी तरह से समाप्त हो गई हैं। अब किसानों को फूलों से पराग कण एक प्याले में इकट्ठे करके प्रत्येक फूल को ब्रश से परागित करना पड़ता है। प्रत्येक किसान अथक परिश्रम करके केवल दो पेड़ों के सभी फूलों को एक दिन में परागित कर पाता है, जो मधुमक्खियों का समूह कुछ ही मिनटों में कर देता था। लागत बढ़ने से व्यापार घट गया है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://scx1.b-cdn.net/csz/news/800/2018/thefarmerwan.jpg
क्यूबा वैसे तो एक छोटा-सा देश है किंतु कृषि व स्वास्थ्य जैसे
कुछ क्षेत्रों में उसकी उपलब्धियां विश्व स्तर पर चर्चा का विषय बनती रही हैं।
विशेषकर कृषि विकास की बहस में हाल के समय में क्यूबा का नाम बार-बार आता है। कारण
कि आज विश्व का ध्यान पर्यावरण की रक्षा आधारित खेती पर बहुत केंद्रित है व क्यूबा
ने इस संदर्भ में उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त की हैं।
विश्व स्तर पर रासायनिक खाद व
कीटनाशक/जंतुनाशक दवाओं के अधिक उपयोग से प्रदूषण बढ़ा है,
मिट्टी के प्राकृतिक
उपजाऊपन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है, किसान के मित्र अनेक जीवों व सूक्ष्म जीवों
की बहुत क्षति हुई है व जलवायु बदलाव का खतरा भी बढ़ा है। इन पर निर्भरता कम करने
की व्यापक स्तर पर इच्छा है। पर प्राय: नीति स्तर पर यह चाह आगे नहीं बढ़ पाती है
क्योंकि इस वजह से कृषि उत्पादन कम होने की आशंका व्यक्त की जाती है।
इस संदर्भ में क्यूबा की उपलब्धि निश्चय ही
उल्लेखनीय है। यहां खाद्य उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि ऐसे तौर-तरीकों से प्राप्त
की गई है जिनसे रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के उपयोग को काफी हद तक कम किया गया।
दूसरे शब्दों में, पिछले लगभग 25 वर्षों में यहां रासायनिक खाद व कीटनाशक
दवाइयों का उपयोग पहले से कहीं कम करते हुए खाद्य व कृषि उत्पादन में वृद्धि
प्राप्त की गई।
वर्ष 1990 तक क्यूबा में रासायनिक खाद व
कीटनाशक दवाओं का अधिक उपयोग होता था। इन्हें मुख्य रूप से सोवियत संघ से आयात
किया जाता था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के चलते यह आयात व खाद्य आयात दोनों
रुक गए। इस तरह यहां खाद्य व कृषि संकट उत्पन्न हुआ। वैज्ञानिकों,किसानों व सरकार के
आपसी विमर्श से यह राह निकाली गई कि एग्रोइकॉलॉजी या पर्यावरण की रक्षा पर आधारित
खेती की राह अपनाई जाए।
इसके लिए परंपरागत व आधुनिक विज्ञान, इन
दोनों उपायों से सीखा गया। अनेक किसानों ने अपने पुरखों के तरीकों, जिन्हें
वे छोड़ चुके थे, उन्हें नए सिरे से अपनाया व वैज्ञानिकों ने इन्हें सुधारने
में मदद की। मिश्रित खेती व उचित फसल चक्र को अपनाया गया। पशुपालन व कृषि में
बेहतर समन्वय किया गया। एक उत्पादन प्रणाली से दूसरी उत्पादन प्रणाली के लिए पोषण
प्राप्त किया गया। जैसे मुर्गीपालन व पशुपालन से कृषि के लिए गोबर की खाद व
वृक्षों से पत्तियों की खाद प्राप्त की गई। हानिकारक कीड़ों को दूर रखने की कई
परंपरागत व नई तकनीकें अपनाई गर्इं जबकि खतरनाक रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता
निरंतर कम की गई।
पर्यावरण आधारित कृषि को राष्ट्रीय नीति के
स्तर पर अपनाया गया व साथ में किसान संगठनों को इसके लिए निरंतर प्रोत्साहित भी
किया गया। वैज्ञानिकों ने किसानों के साथ मिलकर,
उनकी ज़रूरतों को
समझते हुए, नई वैज्ञानिक जानकारियों का योगदान दिया। परंपरा व आधुनिक
विज्ञान से, किसानों व वैज्ञानिकों ने एक-दूसरे से सीखा, सहयोग
किया।
इस तरह के कृषि विकास के उत्साहवर्धक
परिणाम मात्र छ:-सात वर्षों में मिलने लगे। 10 प्रमुख खाद्य उत्पादों के लिए वर्ष
1996-97 में रिकार्ड उत्पादन प्राप्त हुआ। वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में
सब्ज़ियों का उत्पादन 145 प्रतिशत रहा जबकि कृषि-रसायनों में 72 प्रतिशत की कमी आई।
वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में बीन्स (फलियों) का उत्पादन 351 प्रतिशत रहा
जबकि कृषि रसायनों में 55 प्रतिशत कमी आई।
पर्यावरण रक्षा आधारित खेती अधिक श्रम-सघन
होती है व इसमें रचनात्मक जुड़ाव की संभावना अधिक होती है। अत: रोज़गार उपलब्धि की
दृष्टि से भी यह क्यूबा के लिए बेहतर रही है।
विश्व के अधिकांश देश व वहां के किसान यही
चाहते हैं कि उनके खर्च कम हों और उनकी भूमि का प्राकृतिक उपजाऊपन बना रहे। क्यूबा
के अनुभव ने बताया है कि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ ये उद्देश्य भी प्राप्त किए जा
सकते है। पर्यावरण की रक्षा के साथ किसानों का खर्च कम करने की दृष्टि से भी
क्यूबा का हाल का, विशेषकर पिछले 25 वर्षों का,
अनुभव उत्साहवर्धक
रहा।
यदि भारत के दृष्टिकोण से देखें तो हाल के दशकों में किसानों का बढ़ता खर्च व कर्ज़ बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। इसके कारण किसानों में असंतोष भी फैला है। समय-समय पर कर्ज़ में राहत देने से भी इस समस्या का समाधान नहीं हुआ है। उधर मिट्टी का प्राकृतिक उजाऊपन भी तेज़ी से कम होता जा रहा है। अन्य संदर्भों में भी कृषि से जुड़ा पर्यावरण का सकंट बढ़ता जा रहा है। अत: क्यूबा के इन अनुभवों से भारत भी सही कृषि नीतियां अपनाने के लिए बहुत कुछ सीख सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://news.virginia.edu/sites/default/files/article_image/cuba_leaders_field_3-2.jpg
मुक्त बाज़ार की मुनाफाखोर प्रवृत्ति से उपभोक्ताओं को बचाने
के उद्देश्य से साल 1955 में आवश्यक वस्तु अधिनियम (ईसीए) पारित किया गया था।
सरकार ने तय किया था कि कुछ वस्तुएं जीवन यापन के लिए आवश्यक मानी जाएं और उनके
मूल्य में अचानक बहुत अधिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए,
जैसा कि अक्सर मुक्त
बाज़ार में होता है। ईसीए के माध्यम से सरकार किसी वस्तु के उत्पादन, आपूर्ति
और वितरण को नियंत्रित करती है।
हालांकि ईसीए में आवश्यक वस्तु की कोई
स्पष्ट परिभाषा नहीं है, अधिनियम की धारा 2(क) में कहा गया है कि
आवश्यक वस्तुएं अधिनियम की ‘अनुसूची’ में निर्दिष्ट वस्तुएं हैं। दूसरे शब्दों में, सरकार
के पास आवश्यकता पड़ने पर इस सूची में वस्तुओं को जोड़ने या हटाने का अधिकार है।
उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी फैलने पर 13 मार्च 2020 को मास्क और
सैनिटाइज़र आवश्यक वस्तुओं की सूची में शामिल किए गए और इस सूची में 30 जून 2020 तक
रहे।
हाल ही में,
केंद्रीय मंत्रिमंडल
ने आलू, प्याज़, तिलहन,
खाद्य तेल, दाल
और अनाज जैसी वस्तुओं को नियंत्रण-मुक्त करने के लिए आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955
में संशोधन के अध्यादेश को मंज़ूरी दी है। अध्यादेश 2020 नाम से जाना जाने वाला यह
अध्यादेश 5 जून 2020 से लागू हो गया है। यह अध्यादेश सरकार को कुछ वस्तुओं को
आवश्यक वस्तुओं की सूची से हटाने का अधिकार देता है। सरकार केवल विशेष
परिस्थितियों में इन वस्तुओं की आपूर्ति नियंत्रित कर सकती है।
भारत के वित्त मंत्री ने संकेत दिया था कि
उक्त अधिनियम में संशोधन किया जाएगा और अकाल या आपदा जैसी विशेष परिस्थितियों में
ही भंडारण की सीमा लागू की जाएगी। क्षमता के आधार पर उत्पादकों और आपूर्ति शृंखला
के मालिकों/व्यापारियों के लिए भंडारण करने की कोई सीमा नहीं रहेगी और निर्यातकों
के लिए निर्यात मांग के आधार पर भंडारण सीमा नहीं रहेगी।
यह भी कहा गया है कि कुछ कृषि आधारित उपज
जैसे दाल, प्याज़, आलू वगैरह को नियंत्रण-मुक्त कर दिया जाएगा
ताकि किसान इनके बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकें।
आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 में
संशोधन करके एक नई उपधारा 1क जोड़ी गई है। इसके तहत अनाज,
दाल, तिलहन, खाद्य
तेल जैसे कृषि खाद्य पदार्थों को महंगाई, युद्ध,
अकाल या गंभीर
प्राकृतिक आपदा जैसी असामान्य परिस्थितियों में नियंत्रित करने की व्यवस्था है। यह
सरकार द्वारा भंडारण को नियंत्रित करने का आधार भी बताती है। सरकार बढ़ती कीमतों के
आधार पर भंडारण को नियंत्रित कर सकती है। लेकिन सिर्फ कृषि उपज वस्तुओं के खुदरा
मूल्य में 100 प्रतिशत वृद्धि होने की स्थिति में और खराब ना होने वाली कृषि
वस्तुओं के खुदरा मूल्य में 50 प्रतिशत की वृद्धि होने की स्थिति में ही भंडारण की
सीमा नियंत्रित कर सकती है। हालांकि, सार्वजनिक वितरण प्रणाली इन प्रतिबंधों से
मुक्त रहेगी।
इस निर्णय के पीछे तर्क दिया गया है कि
ईसीए कानून तब बना था जब लंबे समय से खाद्य उत्पादन में अत्यधिक कमी के कारण भारत
खाद्य पदार्थों के अभाव का सामना कर रहा था। उस समय,
भारत खाद्य आपूर्ति
के लिए आयात और अन्य देशों की सहायता पर निर्भर था। ऐसी स्थिति में सरकार खाद्य
पदार्थों की जमाखोरी और कालाबाज़ारी रोकना चाहती थी,
जो कीमतें बढ़ाकर
कृत्रिम महंगाई पैदा करते हैं। चूंकि अब भारत में उपरोक्त वस्तुओं का आधिक्य है, इसलिए
अब इस तरह के नियंत्रण आवश्यकता नहीं है।
शायद भरे हुए अन्न भंडार ग्रहों से हमें यह
भ्रम हो कि हमने खाद्य सुरक्षा की समस्या हल कर ली है,
लेकिन वास्तव में
अनाज के आधिक्य की यह स्थिति अस्थायी है। आधिक्य इसलिए भी नज़र आता है क्योंकि भारत
में प्रति व्यक्ति मांस, पोल्ट्री उत्पाद,
प्रोटीन, फल
और सब्ज़ियों की खपत बहुत कम है, जो भारत की अधिकतर आबादी की कम क्रय शक्ति
का सीधा-सीधा परिणाम है। जब भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी से उबरेगी, जो
हाल के दिनों में देखी गई है, तो उपरोक्त वस्तुओं की हमारी मांग एक दशक
से भी कम समय में दो गुना बढ़ जाएगी। ऐसे में सनकी जलवायु परिवर्तन भविष्य को
संभालने का काम और भी मुश्किल कर देता है,
जिसकी वजह से उत्पादन
में भारी उतार-चढ़ाव बार-बार अर्थव्यवस्था को डांवाडोल कर देते हैं।
वर्तमान में भारत की 50 प्रतिशत से अधिक
जनसंख्या सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर निर्भर है। यदि वर्तमान स्थिति एक वर्ष से
अधिक समय तक बनी रही तो, खाद्यान्न अधिकता के भारत के सपने चूर-चूर
हो जाएंगे, किसान मांग की पूर्ति नहीं कर पाएंगे और सरकार मुफ्त राशन
वितरण प्रणाली को सुचारु रूप से चला नहीं पाएगी।
किसान हमारे समाज के सबसे कमज़ोर वर्गों में
से एक है। इस नाते उन्हें हमेशा समर्थन की आवश्यकता होगी। अधिकांश किसानों के लिए
आत्मनिर्भर होना संभव नहीं है। हमें स्वयं से यह सवाल करना चाहिए कि हम किसानों की
किस तरह से मदद करें कि देश पोषण की दृष्टि से आत्मनिर्भर बन सके। नीति निर्माता
यह तर्क देते हैं कि भारत ने काफी पहले ही खाद्य सुरक्षा हासिल कर ली थी। लेकिन
वास्तव में, जनता के हित के लिए क्या खाद्य सुरक्षा ही खुशहाली का
पैमाना होना चाहिए? वास्तव में जब हम लोगों को भुखमरी से मुक्त करने की बात
करते हैं, तो लोगों की पोषण पूर्ति बेहतर पैमाना होगा। मात्र खाद्य
सुरक्षा हासिल करने की तुलना में पोषण की ज़रूरत पूरा करने के लिए एक अलग तरह की
रणनीति की आवश्यकता है। आइए इनमें से कुछ रणनीतियों पर नज़र डालते हैं, जो
भारत को खाद्य सुरक्षा के ढर्रे से बाहर ला सकती हैं और पोषण पूर्ति के लिए समग्र
दृष्टिकोण दे सकती हैं।
1. वर्तमान समय से कई दशक आगे तक की पोषण
ज़रूरतों का अनुमान लगाया जा सकता है, वर्तमान स्थिति की तुलना में तब तक
जनसंख्या और अर्थव्यवस्था दोनों में ही स्थिरता आ चुकी होगी।
2. भारत की पोषण सम्बंधी आवश्यकता को पूरा
करने के लिए पशुपालन और फसलों के उत्पादन की योजना तैयार की सकती है और इन
क्षेत्रों को भारत के कृषि-पारिस्थितिकी क्षेत्रों और जलवायु परिवर्तनों को ध्यान
में रखते हुए बांटा जा सकता है। इसके लिए प्रत्येक क्षेत्र के लिए उपयुक्त फसलों
की सूची बनाई जा सकती है।
3. क्षेत्र के अनुसार बनाई गई उत्पादन
योजनाओं के आधार पर किसी क्षेत्र विशेष के लिए चिंहित फसलों और तौर-तरीकों को
अपनाने के लिए जोखिम को कवर करने और समर्थन मूल्य देने की प्रोत्साहन योजना बनाई
जा सकती है, लेकिन किसानों को जो वे उगाना चाहते हैं उसे उगाने की
स्वतंत्रता भी होनी चाहिए।
4. वर्तमान में उत्पादन को प्रोत्साहन देने
के लिए किसानों को उर्वरकों, बिजली तथा अन्य कृषि इनपुट्स पर सबसिडी दी
जाती है। इस रवैये को बदलकर कृषि पारिस्थितिक सेवाओं के लिए भुगतान करने की ओर कदम
बढ़ाना होगा, जैसे वर्षाजल का दोहन,
वृक्षारोपण, मिश्रित
फसलें वगैरह।
5. सरकार को चाहिए कि वह खाद्यान्न उत्पादन
की वास्तविक लागत पता लगाए। उपभोक्ताओं को सस्ते मूल्य पर भोजन उपलब्ध कराने के
चक्कर में किसानों के हितों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए।
6. सरकार कृषि बाज़ार सूचना प्रणाली में भी
निवेश कर सकती है। यह सरकार को उत्पादन और मूल्य-वृद्धि का प्रबंधन करने में मदद
कर सकता है। इसे कृषि मंत्रालय से अलग रखा जाना चाहिए;
कृषि मंत्रालय
किसानों को कृषि सम्बंधी सलाह नियमित रूप से देने पर ध्यान केंद्रित करे।
7. सरकार कृषि अनुसंधान और विकास में अधिक
निवेश कर सकती है, जिसमें इंफ्रास्ट्रक्चर की बजाय मानव-पूंजी विकास को
प्राथमिकता दी जाए। यह ना केवल रोज़गार के नए अवसर पैदा करेगा बल्कि उत्पाद की
गुणवत्ता की ज़रूरत की पूर्ति भी करेगा और अधिक पैदावार के लिए नई तकनीक विकसित
करने में भी मदद करेगा।
8. सरकार अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों की
मांग को कम करने के लिए उन पर अधिक कर लगा सकती है। और तंबाकू या शराब की तरह इनके
विज्ञापन पर रोक लगा सकती है। भारतीय लोगों में स्वस्थ खानपान की आदत को बढ़ावा
देने के लिए एक जागरूकता कार्यक्रम शुरू किया जा सकता है। इसके दो फायदे होंगे:
लोग स्वास्थ्यकर खाने के प्रति प्रोत्साहित होंगे जो किसानों के हित में होगा और
इससे सरकार का वार्षिक स्वास्थ्य व्यय भी कम होगा।
आवश्यक वस्तु अधिनियम और खाद्य सुरक्षा विधेयक में संशोधन अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के साथ-साथ किसानों की मदद करने का दावा करते हैं, लेकिन कृषि उपज के आधिक्य की मृग-मरीचिका बरकरार है। यदि हमने किसानों और उपभोक्ताओं की समस्याओं को हल करने के बारे में अपना दृष्टिकोण नहीं बदला तो किसानों और सरकार पर बोझ बढ़ता ही जाएगा। खाद्य समस्या को स्थायी रूप से हल करने का एकमात्र तरीका कृषि उपज को नियंत्रण-मुक्त करना ही नहीं है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.thewire.in/wp-content/uploads/2019/09/09152409/india-farming1-1200×600.jpg
पिछले
कुछ दिनों में कई समाचार पत्रों में राजस्थान-गुजरात
के रेगिस्तानी इलाकों से आए टिड्डी दल के बारे में कई विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित
हुए हैं, जिनके
उड़ने का रुख अब मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ओर है। ये टिड्डी दल फसलों को भारी नुकसान
पहुंचाते हैं। लेखों में यह भी बताया गया है कि कैसे सदियों से भारत (और निश्चित ही पाकिस्तान भी) इस
प्रकोप से निपटता आ रहा है। (वास्तव में तो
महाभारत काल से ही: याद कीजिए, पांडव सेना को
चुनौती देते हुए कर्ण कहते हैं, ‘हम आप पर शलभासन – टिड्डियों
के झुंड – की तरह टूट पड़ेंगे’)।
ब्रिटिश
सरकार ने 1900 के दशक की शुरुआत में ही भारत के जोधपुर और
कराची में टिड्डी चेतावनी संगठन (LWO) की स्थापना की थी। आज़ादी के बाद केंद्रीय
कृषि मंत्रालय ने इन संगठनों को बनाए रखा और इनमें सुधार किया। फरीदाबाद स्थित
टिड्डी चेतावनी संगठन प्रशासनिक मामलों और जोधपुर स्थित टिड्डी चेतावनी संगठन इसके
तकनीकी पहलुओं को संभालते हैं और साथ में कई और स्थानीय शाखाएं भी हैं। वे खेतों
में हवाई स्प्रे (आजकल ड्रोन से) और
मैदानी कार्यकर्ताओं की मदद से कीटनाशकों का छिड़काव करते हैं।
टिड्डी
नियंत्रण
कृषि
मंत्रालय की vikaspedia.in
नाम से एक वेबसाइट है जिस पर टिड्डी नियंत्रण और पौधों की सुरक्षा और उनसे निपटने
के वर्तमान तरीकों के बारे में विस्तारपूर्वक बताया गया है। और मंत्रालय के
वनस्पति संरक्षण,
क्वारेंटाइन एवं भंडारण निदेशालय की वेबसाइट (ppqs.gov.in) पर रेगिस्तानी टिड्डों के आक्रमण, प्रकोप और उनके
फैलाव के नियंत्रण की आकस्मिक योजना के बारे में बताया गया है।
टिड्डों
की समस्या सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि अफ्रीका के अधिकांश हिस्सों, पश्चिमी एशिया, ईरान और ऑस्ट्रेलिया
के कुछ हिस्सों में भी है। रोम स्थित संयुक्त राष्ट्र का खाद्य एवं कृषि संगठन इस
प्रकोप का मुकाबला करने के लिए राष्ट्रों को सलाह देता है और वित्तीय रूप से मदद
करता है। खाद्य एवं कृषि संगठन का लोकस्ट एनवायरनमेंटल बुकलेट नामक
सूचनाप्रद दस्तावेज टिड्डी दल की स्थिति और उससे निपटने के तरीकों के बारे में
नवीनतम जानकारी देता है। टिड्डी दल और उसके प्रबंधन की उत्कृष्ट नवीनतम जानकारी
हैदराबाद स्थित अंतर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क ऊष्णकटिबंधीय
फसल अनुसंधान संस्थान (ICRISAT) के विकास केंद्र (IDC) द्वारा 29 मई
को प्रकाशित की गई है (नेट पर उपलब्ध)।
आम
तौर पर टिड्डी दल से निपटने का तरीका ‘झुंड को ढूंढ-ढूंढकर मारो’ है, जिसका उपयोग दुनिया
के तमाम देश करते हैं। निश्चित तौर पर हमें इस प्रकोप से लड़ने और उससे जीतने के
लिए बेहतर और नए तरीकों की ज़रूरत है।
टिड्डियां
झुंड कैसे बनाती हैं
यहां
महत्वपूर्ण वैज्ञानिक प्रश्न उठता है कि टिड्डियां क्यों और कैसे हज़ारों की संख्या
में एकत्रित होकर झुंड बनाती हैं। काफी समय से कीट विज्ञानी यह जानते हैं कि
टिड्डी स्वभाव से एकाकी प्रवृत्ति की होती है, और आपस में एक-दूसरे
के साथ घुलती-मिलती नहीं हैं। फिर भी जब फसल कटने का
मौसम आता है तो ये एकाकी स्वभाव की टिड्डियां आपस में एकजुट होकर पौधों पर हमला
करने के लिए झुंड रूपी सेना बना लेती हैं। इसका कारण क्या है? वह क्या जैविक
क्रियाविधि है जिसके कारण उनमें यह सामाजिक परिवर्तन आता है? यदि हम इस
क्रियाविधि को जान पाएं तो उनके उपद्रव को रोकने के नए तरीके भी संभव हो सकते हैं।
कैम्ब्रिज
युनिवर्सिटी के स्टीफन रोजर्स, ये दल क्यों और कैसे बनते हैं, इसके जाने-माने विश्वस्तरीय विशेषज्ञ हैं। साल 2003 में
प्रकाशित अपने एक पेपर में वे बताते हैं कि जब एकाकी टिड्डी भोजन की तलाश में
संयोगवश एक-दूसरे के पास आ जाती हैं और संयोगवश एक-दूसरे को छू लेती हैं तो यह स्पर्श-उद्दीपन
(यहां तक कि पिछले टांग के छोटे-से हिस्से में ज़रा-सा स्पर्श भी) उनके व्यवहार को बदल देता है। यह यांत्रिक उद्दीपन टिड्डी
के शरीर की कुछ तंत्रिकाओं को प्रभावित करता है जिससे उनका व्यवहार बदल जाता है और
वे एक साथ आना शुरू कर देती हैं। और यदि और अधिक टिड्डियां पास आती हैं तो उनका दल
बनना शुरू हो जाता है। और छोटा-सा कीट आकार में बड़ा
हो जाता है, और
उसका रंग-रूप बदल जाता है। अगले पेपर में वे बताते
हैं कि टिड्डी के केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को नियंत्रित करने वाले कुछ रसायनों में
परिवर्तन होता है;
इनमें से सबसे महत्वपूर्ण रसायन है सिरोटोनिन। सिरोटोनिन
मिज़ाज (मूड) और सामाजिक व्यवहार
को नियंत्रित करता है।
इन
सभी बातों को एक साथ रखते हुए रोजर्स और उनके साथियों ने साल 2009 में साइंस पत्रिका में एक पेपर प्रकाशित किया था
जिसमें वे बताते हैं कि वास्तव में सिरोटोनिन दल के गठन के लिए ज़िम्मेदार होता है।
इस अध्ययन में उन्होंने प्रयोगशाला में एक प्रयोग किया जिसमें उन्होंने एक पात्र
में एक-एक करके टिड्डियों को रखा। जब टिड्डियों की
संख्या बढ़ने लगी तो उनके समीप आने ने यांत्रिक (स्पर्श) और न्यूरोकेमिकल (सिरोटोनिन) उद्दीपन को प्रेरित किया, और कुछ ही घंटो में
झुंड बन गया! और जब शोधकर्ताओं ने सिरोटोनिन के उत्पादन
को बाधित करने वाले पदार्थों (जैसे 5HT या
AMTP अणुओं) को जोड़ना शुरू किया तो उनके जमावड़े में काफी कमी आई।
झुंड
बनने से रोकना
अब
हमारे पास इस टिड्डी दल को बनने से रोकने का एक संभावित तरीका है! तो क्या हम जोधपुर और अन्य स्थानों में स्थित टिड्डी
चेतावनी संगठन के साथ मिलकर,
दल बनना शुरू होने पर सिरोटोनिन अवरोधक रसायनों का छिड़काव
कर सकते हैं? रोजर्स
साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में पहले ही यह सुझाव दे चुके हैं।
क्या यह एक मुमकिन विचार है या यह एक अव्यावहारिक विचार है? इस बारे में
विशेषज्ञ हमें बताएं। इसे आज़मा कर तो देखना चाहिए।
और अंत में टिड्डी दल पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों (खासकर मेलेथियोन) के दुष्प्रभावों को जांचने की ज़रूरत है हालांकि कई अध्ययन बताते हैं कि यह बहुत हानिकारक नहीं है। फिर भी हमें प्राकृतिक और पशु उत्पादों का उपयोग कर जैविक कीटनाशकों पर काम करने की ज़रूरत है जो पर्यावरण, पशु और मानव स्वास्थ्य के अनुकूल हों।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/jlu1if/article31768086.ece/ALTERNATES/FREE_960/07TH-SCILOCUST-LONE