वातानुकूलन: गर्मी से निपटने के उपाय – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

भारत की जलवायु, अलग-अलग क्षेत्रों और अलग-अलग मौसमों में बहुत अलग-अलग होती है। अलबत्ता, अधिकांश देश गर्म ग्रीष्मकाल का अनुभव करता है जो और अधिक गर्म हो रहा है। भारत में हर साल लगभग 50 करोड़ पंखे, 8 करोड़ एयर-कूलर और 45 लाख एयर कंडीशनर खरीदे जाते हैं। इनकी बिक्री पिछले कुछ वर्षों में लगातार बढ़ी है और आगे भी वृद्धि की उम्मीद है। फिर भी, भारत में एयर कंडीशनर और कूलर का घरेलू स्वामित्व अभी भी अपेक्षाकृत कम है। भारत उन चुनिंदा देशों में से है जहां कूलिंग एक्शन प्लान तैयार किया गया है। इसका उद्देश्य है कि पर्यावरणीय और सामजिक-आर्थिक लाभ को सुरक्षित करते हुए सभी के लिए निर्वहनीय ठंडक एवं ऊष्मीय राहत प्रदान की जा सके। सर्वेक्षण में यह समझने की कोशिश की गई कि सर्वेक्षित परिवार किस तरह गर्मी से राहत पाने की कोशिश करते हैं और इसमें ठंडक के लिए ऊर्जा-मांग सम्बंधी कार्यक्रमों के लिए क्या समझ मिल सकती है?

आमतौर पर, महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश अधिक गर्म रहता है। 2018 में, सर्वेक्षित ज़िलों में महाराष्ट्र की तुलना में उत्तर प्रदेश में 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले दिनों की संख्या ज़्यादा रही। हालांकि, खास तौर से उत्तर प्रदेश में, सर्दियों का मौसम काफी ठंडा रहा, फिर भी बिजली से चलने वाले रूम हीटरों का स्वामित्व दोनों ही राज्यों में नगण्य है। इसलिए, हम केवल गर्मी से राहत पाने के लिए घरों में बिजली के उपयोग पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।

छत का पंखा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उपकरण है। उत्तर प्रदेश के लगभग 94 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में छत के पंखे हैं। प्रति परिवार छत के पंखों की संख्या उत्तर प्रदेश में 2.4 और महाराष्ट्र में 1.6 है। यह भी देखा गया है कि महाराष्ट्र (औसतन 2.4 कमरे प्रति घर) की तुलना में उत्तर प्रदेश में घर बड़े (औसतन 3.8 कमरे प्रति घर) हैं। अगला लोकप्रिय उपकरण कूलर है – उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत परिवारों और महाराष्ट्र में 23 प्रतिशत परिवारों के पास कूलर है। हालांकि, उच्च आय वाले परिवारों में इनका स्वामित्व अधिक है, लेकिन कुछ निम्न और मध्यम आय वाले परिवारों में भी कूलर थे। इससे स्थानीय स्तर पर निर्मित सस्ते कूलर की उपलब्धता का पता चलता है। दूसरी ओर एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम (3.5 प्रतिशत) है, जो अधिकतर उच्च आय वर्ग में होंगे। अधिकांश वातानुकूलन उपकरण (ए.सी.) स्प्लिट प्रकार के हैं; उत्तर प्रदेश में 84 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 70 प्रतिशत। प्रत्येक श्रेणी में सबसे अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण की औसत आयु उत्तर प्रदेश में छत के पंखे की 7 साल, कूलर की 4 साल और एयर कंडीशनर की 2.5 साल है जबकि महाराष्ट्र में क्रमश: 7, 5 और 3 साल थी।

छत के पंखों के लिए ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) का मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम स्वैच्छिक है। भारत में उत्पादित 95 प्रतिशत से अधिक छत के पंखे स्टार रेटेड नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश में लगभग 6 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 18 प्रतिशत घरों में ही स्टार रेटेड छत के पंखे थे। बीईई ने हाल ही में मानकों को संशोधित किया है जिसके बाद नए 5-स्टार रेटेड छत के पंखे गैर-स्टार रेटेड पंखों की तुलना में आधी बिजली खपत करते हैं। लिहाज़ा, व्यापक पैमाने पर स्टार रेटेड छत के पंखे अपनाए जाएं, इसके लिए जागरूकता और उपलब्धता बढ़ाने तथा कीमतें कम करने की आवश्यकता है। स्टार रेटेड पंखों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए बीईई राष्ट्रीय स्तर पर अभियान चला सकता है। वह छत के पंखों के लिए एसएंडएल कार्यक्रम को भी अनिवार्य बना सकता है ताकि भारत में अक्षम और गैर-स्टार रेटेड पंखे न बेचे जा सकें। एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज लिमिटेड (ईईएसएल) का उजाला कार्यक्रम 5-स्टार पंखे रियायती मूल्य पर बेचता है। ईईएसएल नए 5-स्टार पंखों को बेचने के लिए कार्यक्रम को अपग्रेड कर सकता है, जो पुराने 5-स्टार पंखों की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक कार्यक्षम हैं। बीईई अपने खुद के अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत उजाला कार्यक्रम का समर्थन कर सकता है, जिसके तहत निर्माताओं को सामान्य पंखों की बजाय अत्यंत कुशल (नए 5 स्टार पंखे) को बेचने की बढ़ती लागत की क्षतिपूर्ति करने के लिए समयबद्ध वित्त प्रदान किया जाता है। इससे इन पंखों की कीमत में और गिरावट आ सकती है और खरीद बढ़ सकती है। एयर कूलर के लिए भी यही तरीका अपनाया जा सकता है। छत के पंखों के विपरीत, बीईई के पास एयर कूलर के लिए कोई भी स्टार रेटिंग कार्यक्रम नहीं है। इसके लिए पहला कदम यह होगा कि एयर कूलर को भी स्टार रेटेड कार्यक्रम के तहत लाया जाए और फिर एयर कूलर के लिए भी उजाला जैसा कोई कार्यक्रम शुरू करना होगा।

छत के पंखों और एयर कूलर के स्टार रेटिंग कार्यक्रम के समक्ष एक चुनौती स्थानीय निर्माताओं की उपस्थिति हो सकती है। हो सकता है उनमें से कुछ निर्माता सस्ते, गैर-मानक और अत्यधिक अक्षम मॉडल बेचें। तब बीईई के लिए इन उत्पादों में स्टार रेटिंग मानदंडों के अनुपालन की निगरानी करना मुश्किल हो सकता है। यह समस्या एयर कूलर में अधिक स्पष्ट है। दोनों राज्यों में सर्वेक्षित परिवारों में स्थानीय रूप से निर्मित एयर कूलर की हिस्सेदारी स्थानीय पंखों की तुलना में काफी अधिक है। एयर कूलर और पंखों के स्टार रेटिंग कार्यक्रम की सफलता के लिए इस मुद्दे को संबोधित करना ज़रूरी होगा।

सर्वेक्षित परिवारों में एयर कंडीशनर का स्वामित्व दोनों राज्यों में काफी कम है। हालांकि उनके उपयोग के बारे में कुछ टिप्पणियां की जा सकती हैं। बीईई के पास एयर कंडीशनर के लिए अनिवार्य एसएंडएल कार्यक्रम है। दोनों राज्यों में एयर कंडीशनर वाले 34 प्रतिशत घरों में ऊर्जाक्षम 4 और 5 स्टार रेटेड मॉडल हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 49 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 32 प्रतिशत परिवार या तो स्टार-लेबल के बारे में जानते नहीं हैं या किसी गैर-स्टार रेटेड मॉडल का उपयोग कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि एयर कंडीशनर तक के बारे में इस कार्यक्रम को लेकर जागरूकता कम है। उत्तर प्रदेश के परिवार 21 डिग्री सेल्सियस और महाराष्ट्र के परिवार 22 डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान सेटिंग पर एसी का इस्तेमाल करते हैं। यह दर्शाता है कि बीईई द्वारा हाल में अनुशंसित 24 डिग्री की डिफॉल्ट सेटिंग उपभोक्ताओं को तापमान अधिक सेट करने और बिजली बचाने के लिए प्रेरित कर सकती है। दूसरी ओर, एयर कंडीशनर का उपयोग काफी कम है। सामान्य गर्मी के दिन में एयर कंडीशनर का प्रतिदिन औसत उपयोग उत्तर प्रदेश में 3.8 घंटे और महाराष्ट्र में 4.5 घंटे  है। इससे तो लगता है कि शायद लोग एयर कंडीशनर का तापमान कम सेट करते हैं और कमरा ठंडा होने के बाद इसे बंद कर देते हैं। इससे एक आशंका यह पैदा होती है कि उपभोक्ता अधिक ऊर्जाक्षम एसी होने पर उसका उपयोग लंबी अवधि के लिए करने लगेंगे और तब ज़्यादा ऊर्जा खर्च होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।

हमने परिवारों से यह भी पूछा था कि क्या वे उनके पास उपलब्ध उपकरणों के उपयोग के बाद भी गर्मियों के मौसम में किसी तरह की असुविधा का सामना करते हैं। सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश के लगभग 59 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 34 प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे गर्मी के कई या अधिकांश दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। हमने अनुकूलन उपकरणों के स्वामित्व के आधार पर परिवारों का समूहीकरण किया और उनके असुविधा के स्तर को दर्ज किया। इन आंकड़ों से लगता है परिवारों में कई श्रेणी के उपकरण हो सकते हैं। जिन घरों में एयर कंडीशनर है वहां एयर कूलर, छत का पंखा, टेबल फैन, आदि में से कोई एक या सभी उपस्थित हो सकते हैं। देखा गया कि उत्तर प्रदेश में टेबलफैन वाले परिवारों से एयर कंडीशनर वाले परिवारों की ओर बढ़ें, तो असुविधा भी कम होती जाती है। हालांकि, यह रुझान महाराष्ट्र में इतना स्पष्ट नहीं है। इसका एक संभावित कारण उत्तर प्रदेश में ग्रीष्मकाल की तीव्रता हो सकता है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग 10 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जो एयर कंडीशनर का उपयोग करते हैं लेकिन फिर भी गर्मियों के अधिकतर दिनों में असुविधा का सामना करते हैं। ऐसा एयर कंडीशनर के सीमित उपयोग की वजह से हो सकता है। इसका कारण उच्च बिजली बिल, पॉवर कट या दोनों ही हो सकते हैं। यह एयर कंडीशनर के अनुचित आकार के कारण भी हो सकता है जिसके परिणामस्वरूप अपर्याप्त शीतलन होता है।

तापमान में वृद्धि के रुझान के साथ घरों में असुविधा का उच्च स्तर सभी वातानुकूलन उपकरणों के लिए एक संभावित मांग का संकेत देता है। इसके मद्दे नज़र ऐसे हस्तक्षेपों की आवश्यकता है जिनसे यह सुनिश्चित हो सके कि ये उपकरण ऊर्जा-क्षम हों ताकि वे एक निर्वहनीय और सस्ते तरीके से शीतलन की ज़रूरतों को पूरा कर सकें। मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) जैसी नीतियां और अत्यंत कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) द्वारा समर्थित उजाला जैसे कार्यक्रम इस लक्ष्य को प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://e360.yale.edu/assets/site/_1500x1500_fit_center-center_80/buildings-455239_1920.jpg

लोग एलईडी प्रकाश अपना रहे हैं – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।

रों में बिजली का सबसे बुनियादी उपयोग प्रकाश व्यवस्था के लिए किया जाता है। कई कम आय वाले और नए विद्युतीकृत घरों में तो बिजली का प्रमुख या एकमात्र उपयोग इसी के लिए किया जाता है। प्रकाश व्यवस्था की ज़रूरत शाम के समय बिजली के सर्वाधिक उपयोग के समय से भी मेल खाती है। पूर्व में कई सरकारी कार्यक्रमों/कंपनियों ने फिलामेंट बल्ब को अत्यधिक कुशल सीएफएल और एलईडी बल्बों से बदलने का लक्ष्य रखा था। इनमें से सबसे नया और सबसे सफल कार्यक्रम उजाला कार्यक्रम रहा, जो अभी भी जारी है। उजाला के तहत, एलईडी बल्ब थोक मूल्य में खरीदकर अनुबंधित विक्रेताओं के माध्यम से उपभोक्ताओं को रियायती मूल्य पर उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके तहत अब तक 35 करोड़ से अधिक एलईडी बल्ब बेचे जा चुके हैं।

2018 में भारत में लगभग 1.4 अरब बल्ब और ट्यूब लाइट्स का उत्पादन किया गया। इनमें से लगभग 46 प्रतिशत एलईडी, 43 प्रतिशत फिलामेंट बल्ब और शेष सीएफएल और फ्लोरोसेंट ट्यूब लाइट का था। एलईडी की मांग बढ़ती गई है जबकि हाल के वर्षों में सीएफएल की बिक्री में गिरावट आई है। फिलामेंट बल्बों की बिक्री भी कम हो रही है, लेकिन सीएफएल की तुलना में इसमें गिरावट की दर बहुत कम है।

हमने अपने सर्वेक्षण में उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में एलईडी को अपनाने का काफी उच्च स्तर देखा। उत्तर प्रदेश में सर्वेक्षित परिवारों में 80 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी बल्ब या ट्यूब लाइट हैं। सभी आय वर्गों में लगभग यही स्थिति थी। लगभग 68 प्रतिशत घरों में प्रकाश के लिए केवल एलईडी बल्ब का उपयोग किया जाता है। अधिकांश परिवारों ने बताया कि वे एलईडी के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं और उनका उपयोग जारी रखेंगे। महाराष्ट्र में, सर्वेक्षित परिवारों में 54 प्रतिशत से अधिक प्रकाश उपकरण एलईडी हैं, हालांकि विभिन्न आय वर्गों में छिटपुट अंतर हैं। सीएफएल दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाले प्रकाश विकल्प है (लगभग 27-28 प्रतिशत)।

महाराष्ट्र के घरों में एलईडी बल्बों को कम अपनाने का एक संभावित कारण यह लगता है कि महाराष्ट्र में परिवार पहले फिलामेंट बल्ब छोड़कर सीएफएल का उपयोग करने लगे थे। ऐसा सरकार के बचत लैंप योजना (बीएलवाय) के तहत सीएफएल को दिए गए प्रोत्साहन के कारण हुआ था। हालांकि महाराष्ट्र के अधिकांश सर्वेक्षित परिवारों ने भविष्य में एलईडी बल्ब खरीदने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन संभवत: पूरे स्टॉक को एलईडी में बदलने में काफी समय लगेगा। दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्ब या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी की ओर लंबी छलांग लगाई है।

एक दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश के मात्र 12 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 17 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों ने ही बताया कि उन्होंने एलईडी बल्ब उजाला कार्यक्रम के तहत खरीदा है। फिर भी, बड़े पैमाने पर एलईडी को अपनाए जाने का श्रेय उजाला कर्यक्रम को दिया जा सकता है क्योंकि कार्यक्रम ने प्रकाश उद्योग पर व्यापक असर डाला है। उजाला के तहत बड़े पैमाने की खरीदी के चलते कार्यक्रम के बाहर बेचे जाने वाले एलईडी बल्बों की कीमत में भी भारी कमी हुई है। इसके अलावा, एलईडी बल्बों की बढ़ी हुई मांग ने एक बड़े लघु उद्योग को भी जन्म दिया है। भारत में लगभग 250 पंजीकृत एलईडी बल्ब उत्पादन इकाइयां हैं, जो 2014 में मुट्ठी भर थीं। इसलिए, बाज़ारों में सस्ते एलईडी बल्बों की बहुतायत है। हालांकि, इससे उनकी गुणवत्ता को लेकर भी चिंता बढ़ गई है। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) का निर्देश है कि भारत में बिकने वाले सारे एलईडी उपकरण सुरक्षा और प्रदर्शन मानकों के अनुरूप होना चाहिए। इसके अलावा, ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) ने एलईडी लैंप की रेटिंग के लिए एक अनिवार्य स्टार लेबलिंग योजना शुरू की है। इसके तहत सभी एलईडी उपकरणों को 1 स्टार (न्यूनतम कुशल) से 5 स्टार (सबसे कुशल) तक अंकित किया जाता है। अलबत्ता, इन नियमों का अनुपालन ढीला है। 8 शहरों में 400 खुदरा विक्रेताओं के एक हालिया सर्वेक्षण में पाया गया है कि बाज़ार में उपलब्ध एलईडी बल्ब ब्रांडों में से आधे सुरक्षा और प्रदर्शन के बीआईएस मानकों के अनुरूप नहीं हैं। हमारे सर्वेक्षण में, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र दोनों में केवल 2-3 प्रतिशत परिवारों को एलईडी बल्ब के लिए स्टार-लेबलिंग कार्यक्रम के बारे में पता था। इसके अलावा, दोनों राज्यों के अधिकांश परिवारों ने एलईडी बल्बों के प्रदर्शन को खरीद का कारण बताया। चंद परिवारों ने ही कहा कि वे एलईडी बल्बों का उपयोग कम कीमत और बिजली बिल में कमी के कारण कर रहे हैं। इसलिए, बाज़ार में एलईडी की ओर झुकाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। इसके लिए एलईडी बल्बों के लिए स्टार रेटिंग कार्यक्रम के बारे में उपभोक्ताओं को जागरूक बनाना और नियमों के सख्ती से अनुपालन की आवश्यकता होगी।

यह सर्वेक्षण इस बात को भी रेखांकित करता है कि परिवार के व्यवहार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का प्रभाव होता है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत ग्रामीण परिवार अभी भी प्रकाश व्यवस्था के लिए विकल्प के रूप में केरोसिन चिमनी का उपयोग करते हैं जो घर के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है। अर्ध-शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में बैटरी और सौर लैंप के साथ एकीकृत एलईडी बल्बों का स्वामित्व 11-14 प्रतिशत है। ये विकल्प नियमित एलईडी बल्बों की तुलना में महंगे हैं, लेकिन कम आय वाले परिवार तक यही विकल्प चुन रहे हैं। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अपेक्षाकृत कम परिवार वैकल्पिक प्रकाश स्रोतों का उपयोग करते हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि दोनों राज्यों के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के विभिन्न आय वर्गों के परिवारों में एलईडी को व्यापक रूप से अपनाया गया है। उत्तर प्रदेश के परिवारों ने फिलामेंट बल्बों या प्रकाश व्यवस्था के सर्वथा अभाव से सीधे एलईडी को अपनाया है, जबकि महाराष्ट्र के लोग धीरे-धीरे सीएफएल से एलईडी की ओर बढ़ रहे हैं। सर्वेक्षण का एक निष्कर्ष यह है कि सरकार और अन्य सम्बंधित किरदारों के लिए यह ज़रूरी है कि वे बाज़ार में एलईडी की ओर हो रहे परिवर्तन को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता वाले एलईडी बल्बों की उपलब्धता सुनिश्चित करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.unenvironment.org/sites/default/files/2018-09/GEF_LED-CM_INDIA_EESL-27.jpg

बिजली आपूर्ति में गुणवत्ता की समस्या – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता पर परिवारों की समझ और उनके बिजली के उपयोग पर इसके प्रभाव पर चर्चा की गई है। इसी श्रंखला के आगामी लेखों में ऊर्जा से सम्बंधित अन्य मुद्दों, जैसे वातानुकूलन, खाना पकाना, प्रकाश व्यवस्था आदि की चर्चा की जाएगी।

वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) द्वारा बिजली की आपूर्ति व सेवा की गुणवत्ता घरेलू उपकरणों के उपयोग को काफी प्रभावित करती है; ये वे उपकरण हैं जो परिवार के जीवन स्तर में सुधार ला सकते हैं। बिजली आपूर्ति की घटिया क्वालिटी (जैसे बार-बार बिजली जाना और वोल्टेज में उतार-चढ़ाव) उपकरणों को नुकसान पहुंचा सकती है या उनकी आयु कम कर सकती है। घटिया क्वालिटी का एक परिणाम यह होता है कि कई घरों में सौर लैंप, इनवर्टर या वोल्टेज स्टेबलाइज़र्स वगैरह में निवेश किया जाता है। अन्य परिवार या तो उपकरणों का उपयोग कम कर देते हैं या फिर खरीदते ही नहीं।

भारत में ग्रामीण विद्युतीकरण कार्यक्रमों के ज़रिए लगभग सभी घरों में बिजली पहुंचाने में सफलता मिल चुकी है। जैसा कि विद्युत मंत्रालय के आगामी वितरण योजना के प्रारूप में परिलक्षित होता है, अब चर्चा विश्वसनीय और अच्छी गुणवत्ता की आपूर्ति प्रदान करने की दिशा में हो रही है ताकि सभी को चौबीसों घंटे बिजली उपलब्ध कराई जा सके। हमारा सर्वेक्षण बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर परिवारों के एहसास पर केंद्रित है क्योंकि इसका असर उपकरणों की खरीद और उपयोग के निर्णयों पर होता है। हम 2015 से अपने विद्युत आपूर्ति निगरानी कार्यक्रम (ESMI) के तहत भारत भर में लगभग 400 स्थानों पर वास्तविक बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता की निगरानी भी करते रहे हैं। सभी स्थानों से प्राप्त मिनट-वार डैटा और उनके विश्लेषण के आधार पर तैयार रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से www.watchyourpower.org पर उपलब्ध है।

महाराष्ट्र सभी घरों तक बिजली पहुंचाने में पहुंचाने में अग्रणी रहा है, जबकि उत्तर प्रदेश हाल ही में इस श्रेणी में शामिल हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र में लगभग 84 प्रतिशत परिवार प्रकाश के प्राथमिक रुाोत के रूप में बिजली का उपयोग करते थे, जबकि उत्तर प्रदेश में मात्र 37 प्रतिशत। लगभग यही स्थिति हमारे नमूना सर्वेक्षण में भी सामने आई। महाराष्ट्र में हमारे द्वारा चयनित परिवारों के विद्युतीकरण का औसत वर्ष 1994 है जबकि उत्तर प्रदेश में 2006 है। उत्तर प्रदेश में लगभग 45 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों को 2011 के बाद विद्युतीकृत किया गया है।

आपूर्ति के घंटे प्रदाय की गुणवत्ता का एक प्रमुख मापदंड है। सर्वेक्षित घरों में आपूर्ति के घंटे उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र में अधिक थे। महाराष्ट्र में औसत दैनिक आपूर्ति लगभग 22 घंटे और उत्तर प्रदेश में 15 घंटे रही। वैसे इस संदर्भ में विभिन्न परिवारों के बीच काफी विविधता भी देखी गई (तालिका देखें)। महाराष्ट्र में अर्ध शहरी क्षेत्र के परिवारों को ग्रामीण परिवारों की तुलना में लगभग 40 मिनट अधिक आपूर्ति मिलती है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह अंतर लगभग 2 घंटे का है।

बिजली आपूर्ति की कुल अवधि के बराबर महत्व बिजली कटौती की प्रकृति का भी होता है। बार-बार बिजली जाए, तो लाइटिंग उपकरणों और मोटरों को नुकसान पहुंच सकता है, जिनमें आजकल काफी इलेक्ट्रॉनिक पुर्ज़े लगे होते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 42-47 प्रतिशत परिवारों ने बताया बिजली कई मर्तबा जाती है और अप्रत्याशित ढंग से जाती है, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या लगभग 26-28 प्रतिशत थी। बिजली गुल होने की अप्रत्याशित प्रकृति से परिवार के लिए उपकरणों के उपयोग की योजना बनाना मुश्किल हो जाता है।

वोल्टेज भी बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता का एक और मापदंड है जिसमें वोल्टेज में उतार-चढ़ाव, असंतुलन, अचानक घटना-बढ़ना जैसे कई मुद्दे शामिल हो सकते हैं। उपभोक्ताओं को वोल्टेज की समस्या का अनुभव प्राय: उतार-चढ़ाव के रूप में होता है। ऐसे उतार-चढ़ाव उपकरणों को गंभीर नुकसान पहुंचा सकते हैं। यूपी में लगभग 50-60 प्रतिशत घरों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ, जबकि महाराष्ट्र में लगभग 24-26 प्रतिशत। दोनों राज्यों में अर्ध-शहरी और ग्रामीण घरों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव हुआ है।

दोनों राज्यों में ग्रामीण व अर्ध-शहरी दोनों क्षेत्रों में वोल्टेज में उतार-चढ़ाव का अनुभव समान रूप से किया गया है। आपूर्ति की क्वालिटी की समस्या के कारण परिवारों को क्षतिग्रस्त उपकरणों की मरम्मत के अलावा बिजली बैकअप या इसी तरह के वैकल्पिक इंतज़ाम पर पैसा खर्च करना पड़ता है। उत्तर प्रदेश में खराब आपूर्ति का एक प्रमाण यह है कि वहां वैकल्पिक प्रकाश व्यवस्था ज़्यादा घरों में नज़र आती है और उपकरण क्षति के मामले भी ज़्यादा दिखाई देते हैं। लगभग 34 प्रतिशत घरों, जिनमें निम्न आय वर्ग के काफी घऱ हैं, में अभी भी वैकल्पिक व्यवस्था के रूप में कैरोसीन की चिमनी का उपयोग होता है। ये चिमनियां घरों के अंदर प्रदूषण और दुर्घटनाओं का कारण बन सकती हैं। इसके अलावा, 38 प्रतिशत अन्य परिवार बैटरी युक्त सोलर लैंप या एलईडी बल्ब का उपयोग करते हैं। लगभग 47 प्रतिशत घरों में खराब आपूर्ति के कारण किसी न किसी प्रकार के उपकरण के नुकसान की सूचना है। 28 प्रतिशत घरों (अधिकतर मध्यम व उच्च आय) में उपकरणों की सुरक्षा के लिए वोल्टेज स्टेबलाइज़र्स का उपयोग होता है जबकि लगभग 31 प्रतिशत ने बिजली कटौती की समस्या से निपटने के लिए इनवर्टर खरीदा है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र में सर्वेक्षित घरों में इनवर्टर और स्टेबलाइज़र्स 5 प्रतिशत से भी कम परिवारों के पास हैं और मात्र 6 प्रतिशत घरों में खराब आपूर्ति से उपकरणों का नुकसान हुआ है।

विश्वसनीय और अच्छी गुणवत्तापूर्ण आपूर्ति प्रदान करने की डिस्कॉम की क्षमता में योगदान करने वाले कारकों में से एक उपभोक्ताओं से राजस्व की वसूली है, जिसका उपयोग वितरण नेटवर्क को मज़बूत करने और रख-रखाव के लिए किया जा सकता है। सही और समय पर मीटर वाचन और बिल वितरण उपभोक्ताओं में विश्वास बनाने में मदद करता है, तथा चोरी और छेड़छाड़ का पता लगने पर राजस्व में सुधार होता है। ग्रामीण उत्तर प्रदेश में लगभग 24 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में मीटर नहीं है, जबकि अन्य 12 प्रतिशत में गैर-कामकाजी मीटर हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों में स्थिति बेहतर है जहां लगभग 95 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में कामकाजी मीटर हैं। बिलिंग के मामले में, लगभग 82 प्रतिशत अर्ध-शहरी परिवारों को नियमित बिजली बिल प्राप्त होता है, जबकि ग्रामीण परिवारों के लिए यह संख्या केवल 42 प्रतिशत है। दूसरी ओर महाराष्ट्र में, अर्ध-शहरी और ग्रामीण दोनों घरों में लगभग 98 प्रतिशत में मीटर हैं और उन्हें नियमित रूप से बिल प्राप्त होते हैं।

आपूर्ति की गुणवत्ता डिस्कॉम के प्रति परिवारों की संतुष्टि में झलकती है।  उत्तर प्रदेश के केवल 54 प्रतिशत ग्रामीण और 61 प्रतिशत अर्ध-शहरी परिवार अपने डिस्कॉम से संतुष्ट थे, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या लगभग 80 प्रतिशत है।

हालांकि महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश की तुलना में बेहतर है, लेकिन सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों में गुणवत्ता की दिक्कतें मौजूद हैं। घरों में बिजली का अधिक सार्थक उपयोग संभव बनाने के लिए सेवा की गुणवत्ता में सुधार के उपाय आवश्यक हैं।

अगले आलेख में, घरों में बिजली के सबसे बुनियादी उपयोग, प्रकाश व्यवस्था की बात करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.iea.org/media/news/2018/181213WEOElectricityCommentary.jpg

सस्ती सौर ऊर्जा जीवाश्म र्इंधन को हटा रही है

लॉस एंजेल्स, कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।

स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की कीमतें नीचे आती रहती हैं।

बैटरी भंडारण के मूल्य में तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर एनर्जी नामक कंपनी  के अनुमान से भी कम है।

यही कंपनी नवीन सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन 400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी। यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।

बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।

100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की आवश्यकता है।

लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी।  ( स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/684160330/960×0.jpg?fit=scale

भारत में घरेलू ऊर्जा की चुनौती का प्रबंधन – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी, अशोक श्रीनिवास

लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से जुड़े हैं। यह लेख भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के समक्ष महत्वपूर्ण चुनौतियों पर तीन लेखों में से दूसरा है।

बिजली क्षेत्र की विभिन्न परियोजनाओं और प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना (पीएमयूवाई) के परिणामस्वरूप भारत के लगभग हर घर में बिजली और एलपीजी कनेक्शन है। निसंदेह यह स्वागत-योग्य है, लेकिन फिर भी भारत की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत वैश्विक औसत की लगभग एक तिहाई ही है जो भारत में मानव विकास के मार्ग में एक बाधा माना जाता है। इस लेख में कुछ ऐसे विचार सुझाए गए हैं जिनसे परिवार खाना पकाने के लिए साफ र्इंधन के विकल्पों की ओर कदम उठाएंगे। और इसके परिमामस्वरूप घरेलू ऊर्जा की मांग में जो वृद्धि होगी उसके लिए प्रभावी नियोजन और प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए भी सुझाव दिए गए हैं। बिजली से जुड़ी कुछ समस्याओं की बात इस शृंखला के पिछले लेख ‘शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है’ में की जा चुकी है।

खाना पकाने के लिए ऊर्जा

पीएमयूवाई के तहत गरीब परिवारों में सात करोड़ से अधिक नए एलपीजी कनेक्शन दिए गए हैं। लेकिन यह सुनिश्चित करना एक मुश्किल काम है कि परिवार खाना पकाने के लिए रसोई गैस या अन्य साफ र्इंधन का उपयोग लगातार जारी रखें। इसके लिए चार-आयामी रणनीति की आवश्यकता है।

पहला, पीएमयूवाई जैसी आपूर्ति-आधारित योजना को सुदृढ़ करना होगा ताकि परिवारों की ओर से मांग भी बढ़े। इसके लिए पारंपरिक चूल्हे पर खाना पकाने वाली महिलाओं एवं बच्चों पर होने वाली गंभीर स्वास्थ्य-सम्बंधी प्रभावों के प्रति जागरूकता पैदा करनी होगी और इससे सम्बंधित जेंडर, व्यवहार और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर करने के प्रयास करने होंगे।

दूसरा, आपूर्ति पक्ष में बिजली, बायोगैस और पाइप द्वारा प्राकृतिक गैस जैसे अन्य स्वच्छ र्इंधन भी शामिल करने चाहिए क्योंकि यह ज़रूरी नहीं कि एलपीजी सभी घरों के लिए पसंदीदा या उपयुक्त विकल्प हो।

तीसरा, महज़ कनेक्शन से आगे जाकर आधुनिक र्इंधन का निरंतर उपयोग सुनिश्चित करने के लिए, पर्याप्त और अच्छी तरह से निर्देशित सब्सिडी प्रदान करने, देशव्यापी आपूर्ति शृंखला स्थापित करने और ग्रामीण वितरण के लिए कामकाजी व्यावसायिक मॉडल विकसित करने के लिए नीतिगत उपायों की आवश्यकता है।

चौथा, आधुनिक र्इंधन के निरंतर उपयोग और घरेलू वायु प्रदूषण में कमी को लेकर सुपरिभाषित लक्ष्य होने चाहिए।

चूंकि यह मुख्य रूप से स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौती है, इसलिए इन चारों आयामों के समन्वय और प्रबंधन के लिए एक बहु-मंत्रालयीय कार्यक्रम की आवश्यकता होगी जो स्वास्थ्य मंत्रालय में अवस्थित हो और प्रधानमंत्री कार्यालय से संचालित किया जाए।

बढ़ती आय, विद्युतीकरण में वृद्धि और परिवारों में खाना पकाने के आधुनिक र्इंधन की खपत में वृद्धि के चलते घरेलू ऊर्जा खपत में वृद्धि होगी। इस परिवर्तन के कारकों और पैटर्न को समझने की आवश्यकता है।

घरों में ऊर्जा उपयोग से सम्बंधित बेहतर जानकारी से ऊर्जा की मांग पर आय और कीमतों के असर, उपकरण खरीद, र्इंधन में परिवर्तन आदि के कारकों की बेहतर समझ मिल सकती है। इसके आधार पर ऊर्जा मांग का बेहतर अनुमान लगाया जा सकेगा और ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों में मदद मिलेगी।

मकानों के गुणधर्मों, उपकरणों के स्वामित्व, उपकरणों के उपयोग और घरेलू ऊर्जा उपयोग से सम्बंधित अन्य कारकों के बारे में राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर जानकारी एकत्र करने के लिए समय-समय पर सर्वेक्षण किए जाने चाहिए। कई देश इस तरह के सर्वेक्षण करते हैं, और वर्तमान भारतीय सर्वेक्षण में ऐसी कोई सूचना नहीं मिलती है। इसलिए, भारत को भी इस तरह के सर्वेक्षण करने के लिए एक संस्थान बनाना चाहिए, जिसको राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय द्वारा संचालित किया जा सकता है।

दक्षता में सुधार

भविष्य में घरेलू ऊर्जा मांग के प्रबंधन में ऊर्जा दक्षता सम्बंधी उपायों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। भारत में रेफ्रिजरेटर और एयर-कंडीशनर (एसी) जैसे बड़े उपकरणों की संख्या फिलहाल बहुत कम है जो आने वाले समय में तेज़ी से बढ़ेगी और इनके लिए ऊर्जा दक्षता उपाय बहुत महत्वपूर्ण होंगे।

ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई), ऊर्जा कुशल उपकरणों को बढ़ावा देने के लिए एक ‘स्टार रेटिंग कार्यक्रम’ चलाता है। तीन कदम इस कार्यक्रम को और मज़बूत बनाने में मदद कर सकते हैं। सबसे पहला, बीईई को नियमित रूप से सभी उपकरणों के लिए दक्षता रेटिंग को उन्नत करना चाहिए। उदाहरण के लिए, रेफ्रिजरेटर और एसी के लिए स्टार रेटिंग में संशोधन के ज़रिए 2019 में 5-स्टार उपकरण की ऊर्जा खपत 2009 की तुलना में कम हुई है लेकिन वहीं छत के पंखों के लिए 2010 के बाद से कोई संशोधन नहीं किया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि भारत में सालाना बिकने वाले तीन से चार करोड़ सीलिंग फैन में से 80-90 प्रतिशत बहुत घटिया दक्षता वाले हैं।

दूसरा, बीईई को विभिन्न उपकरणों के स्टार लेबल के लिए राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना चाहिए।  इसमें उनके पूरे जीवनकाल में संभावित पैसे की बचत भी शामिल होना चाहिए जो उच्च शुरुआती लागत की भरपाई कर देती है।

तीसरा, बीईई को बाज़ार में स्टार-रेटेड मॉडल के बेतरतीबी से लिए गए नमूनों के प्रदर्शन का आकलन करना चाहिए और परिणामों को सार्वजनिक करना चाहिए। इससे स्टार लेबल में उपभोक्ताओं का विश्वास बढ़ेगा और परिणामस्वरूप कुशल उपकरणों को अपनाने में वृद्धि होगी।

भारत घरेलू ऊर्जा खपत में तेज़ी से वृद्धि की ओर बढ़ रहा है। इसे उपयुक्त नीति और संस्थागत डिज़ाइन द्वारा सुगम बनाने की आवश्यकता है, जिसका नियोजन घरेलू ऊर्जा मांग के संभावित कारकों और पैटर्न की बेहतर समझ के आधार पर हो तथा कुशलता से प्रबंधन किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindubusinessline.com/opinion/rxx2k5/article26762886.ece/alternates/WIDE_615/BL08THINKPOWER1

ऊर्जा क्षेत्र में अपरिहार्य परिवर्तन – अश्विन गंभीर, श्रीहरि दुक्कीपति, अश्विनी चिटनिस

अक्षय उर्जा में वृद्धि का असर डिस्कॉम्स की वित्तीय हालत पर होगा। यदि ठीक तरह से प्रबंधन न किया गया, तो छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को कष्ट उठाना पड़ सकता है। लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से जुड़े हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों पर तीन लेखों में से अंतिम है

बीसवीं शताब्दी में नियोजन का प्रमुख मकसद था भविष्य में बिजली की मांग का अनुमान लगाना, अधिक से अधिक पारंपरिक बिजली उत्पादन क्षमता स्थापित करना और इसे ट्रांसमिशन लाइनों के माध्यम से लोड केंद्रों से जोड़ना।

उपभोक्ताओं को बिजली की आपूर्ति किसी एकाधिकार प्राप्त संस्था द्वारा की जाती थी जिसमें आपूर्ति शृंखला के सभी स्तरों का एक ही मालिक होता था। मूल्य निर्धारण क्रॉस सब्सिडी के सिद्धांत पर आधारित होता था, जिसमें बड़े औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ता ऊंचे शुल्क का भुगतान करते थे ताकि कृषि और घरों के लिए सस्ता शुल्क सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन इसमें तेज़ी से परिवर्तन आ रहा है, मुख्यत: राष्ट्रीय नीतिगत पहल और वैश्विक तकनीकी-आर्थिक परिवर्तनों के कारण।

एक तरफ अक्षय उर्जा सस्ती हो रही है तथा बैटरी भंडारण की लागत भी कम हो रही हैं तथा दूसरी ओर कोयला आधारित बिजली की लागत बढ़ रही है। इनका मिला-जुला परिणाम होगा कि बिजली आपूर्ति में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ेगी। लंबे समय में, इससे परिवहन, खाना पकाने और उद्योगों जैसे कई अन्य क्षेत्रों में विद्युतीकरण बढ़ने की संभावना है। इससे स्थानीय वायु प्रदूषण, ऊर्जा सुरक्षा और बढ़ते ऊर्जा आयात बिल जैसी समस्याओं को आंशिक रूप से संबोधित किया जा सकता है। ये रुझान ऊर्जा क्षेत्र में आमूल बदलाव ला सकते हैं।

सबके लिए बिजली की सस्ती और भरोसेमंद पहुंच के साथ–साथ खाना पकाने के आधुनिक और स्वच्छ र्इंधन के के प्रति सभी दलों ने व्यापक प्रतिबद्धता दिखाई है जो स्वागत योग्य है। अलबत्ता, इसे टिकाऊ वास्तविकता में बदलने के लिए बहुत काम करना होगा।

वर्तमान में, सरकार के भीतर ज़रूरतों के आकलन और प्राथमिकताएं तय करने, तथा परिवर्तन और जोखिमों का अंदाज़ा लगाकर उनके लिए तैयारी करने को लेकर एक सीमित गंभीरता है। इसके चलते संसाधनों के फंस जाने और पुराने रास्ते पर निर्भरता की समस्या हो सकती है क्योंकि निवेश लंबे समय के लिए होते हैं और पूंजी पर निर्भर होते हैं।

इस तरह की दिक्कत से बचने के लिए दो कदम महत्वपूर्ण हैं। सबसे पहले, महत्वपूर्ण डैटा की सार्वजनिक उपलब्धता की खामियों और विसंगतियों को संबोधित किया जाना चाहिए। दूसरा, सरकार के भीतर विश्लेषणात्मक क्षमता को बढ़ाया जाना चाहिए।

ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय

नीति और निर्णय में सरकार की मदद करने के लिए, एक विश्लेषणात्मक एजेंसी की स्थापना करने की आवश्यकता है जिसे डैटा एकत्र करने और तालमेल बैठाने, रुझानों का विश्लेषण करने, रिपोर्ट प्रकाशित करने और नीतिगत हस्तक्षेपों का सुझाव देने का अधिकार हो। यह एजेंसी मौजूदा तकनीकी एजेंसियों जैसे केंद्रीय विद्युत अभिकरण (सीईए), पेट्रोलियम नियोजन व विश्लेषण प्रकोष्ठ (पीपीएसी) और सीसीओ से अधिक से अधिक लाभ उठाएगी।

इस एजेंसी को ऊर्जा विश्लेषण कार्यालय (ईएओ) कह सकते हैं। इसमें कई मंत्रालयों को शामिल किया जाना चाहिए। ऐसे कार्यालय के प्रभावी होने के लिए दो प्रमुख शर्तें हैं: नीतिगत प्रासंगिकता और राजनीतिक प्रभाव से स्वतंत्रता।

यह संतुलन बनाने के लिए ईएओ को कार्यपालिका के प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जा सकता है किंतु इसके बजट की स्वीकृति तथा कार्य की समीक्षा संसद द्वारा की जाए। ईएओ को ऊर्जा क्षेत्र की चुनौतियों के प्रति दीर्घकालिक दृष्टिकोण रखना चाहिए और कार्यपालिका को नीति सम्बंधी इनपुट प्रदान करना चाहिए। जन भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

छोटे पर ध्यान

ऊर्जा के क्षेत्र में, अक्षय ऊर्जा और उसके भंडारण में विकास के चलते बड़े उपभोक्ताओं के लिए वैकल्पिक व सस्ते स्रोत खोजने के कई अवसर पैदा हो रहे हैं। लेकिन, यही उपभोक्ता ऊंचा भुगतान करते हैं। येहाथ से निकल जाने पर राजस्व की जो हानि होगी, वह बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के वर्तमान व्यापार मॉडल के अंत का संकेत है।

डिस्कॉम के भविष्य को लेकर दो गंभीर निहितार्थ हैं। आपूर्ति की लागत में से 70 प्रतिशत से अधिक का हिस्सा तो बिजली खरीद का होता है। जब मांग अनिश्चित हो जाएगी तो बिजली की खरीद अधिक जटिल और जोखिम भरा काम हो जाएगा। इसके साथ ही, क्रॉस सब्सिडी देने वाले उपभोगताओं के कम होने से या तो छोटे, ग्रामीण और कृषि उपभोगताओं से वसूला जाने वाला शुल्क बढ़ेगा या राज्य द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी की राशि में तेज़ी से वृद्धि ज़रूरी हो जाएगी।

यदि ठीक तरह से प्रबंधन नहीं किया गया, तो इन परिवर्तनों के कारण डिस्कॉम के लिए गंभीर वित्तीय संकट पैदा हो जाएगा, छोटे उपभोक्ताओं के लिए आपूर्ति की गुणवत्ता में कमी आएगी, परिसंपत्तियां बेकार पड़ी रहेंगी और कंपनियों को वित्तीय संकट से निकालने के लिए बेल-आउट की व्यवस्था करनी होगी जिसका असर बेंकिंग क्षेत्र पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा।

इस तरह की समस्याओं से बचने के लिए ज़रूरी है कि डिस्कॉम्स के नियोजन और संचालन के तरीकों में मूलभूत परिवर्तन लाए जाएं। बाज़ार और प्रतिस्पर्धा बढ़ते क्रम में अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। बड़े उपभोक्ताओं को अपने लिए आपूर्तिकर्ता चुनने की अनुमति देने से उन्हें लागत कम करने में मदद मिलती है, और इससे उत्पादन क्षमता में वृद्धि को भी युक्तिसंगत बनाया जा सकता है। डिस्कॉम्स को गहन मांग-आपूर्ति विश्लेषण के बिना नई बेसलोड क्षमता जोड़ने से बचना होगा।

कृषि फीडर को सौर-संयंत्रों से जोड़ने से सब्सिडी को कम करने में मदद मिलेगी और किसानों को दिन के वक्त भरोसेमंद आपूर्ति दी जा सकेगी। इन उपायों से डिस्कॉम्स को छोटे और ग्रामीण उपभोक्ताओं को आपूर्ति और सेवा में सुधार पर ध्यान केंद्रित करने की गुंजाइश मिलेगी। ऊर्जा परिवर्तन एक अवसर प्रदान करता है जिसमें संसाधनों को अकार्यक्षम ढंग से उलझने से बचाया जा सकेगा और साथ में काफी पर्यावरणीय व आर्थिक लाभ भी मिलेगे। लेकिन यदि इस परिवर्तन का प्रबंधन ठीक से नहीं किया गया तो अफरा-तफरी मच जाएगी जिसका खामियाज़ा शायद छोटे व ग्रामीण व छोटे उपभोक्ता भरेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://i2.wp.com/www.nigeriaelectricityhub.com/wp-content/uploads/dept-energy.jpg?fit=1200,650&ssl=1

मात्र शत प्रतिशत ग्रामीण विद्युतीकरण पर्याप्त नहीं है – एन. श्रीकुमार, मानबिका मंडल, एन. जोसी

एक भरोसेमंद बिजली आपूर्ति काफी महत्वपूर्ण है। वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) को सामाजिक और वाणिज्यिक दोनों गतिविधियों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना चाहिए। इस लेख के लेखक प्रयास (ऊर्जा समूह) से संबंधित हैं। यह भारतीय ऊर्जा क्षेत्र के सामने चुनौतियों पर तीन लेखों में से पहला है

स बात की काफी संभावना है कि केंद्र सरकार घोषित करे कि देश के सभी घरों में बिजली कनेक्शन उपलब्ध है। सौभाग्य वेबसाइट पर प्रकाशित ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़ में केवल 20,000 परिवार ऐसे हैं जिनके पास बिजली कनेक्शन नहीं है। लेकिन इस बात की खुशी मनाते हुए यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह अच्छी शुरुआत भर है। कनेक्शन प्रदान करने की चुनौती को तो शायद पूरा कर लिया गया है, लेकिन बिजली आपूर्ति प्रदान करने की चुनौती अभी भी बनी हुई है। जीवन स्तर में सुधार और आर्थिक गतिविधियों में सहायता के लिए, सस्ती और भरोसेमंद बिजली आपूर्ति ज़रूरी है।

घरेलू कनेक्शन और गांव के विद्युतीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के चक्कर में बिजली आपूर्ति के लक्ष्य की उपेक्षा हुई है। बिजली आपूर्ति का प्रबंधन पैसों की तंगी वाली वितरण कंपनियों द्वारा किया जाता है जिनके पास गरीब ग्रामीणों को बिजली आपूर्ति देने का कोई वित्तीय प्रलोभन नहीं होता है।

इस समस्या को दूर करने के लिए आपूर्ति-केंद्रित ग्रामीण विद्युतीकरण अभियान की आवश्यकता है। आपूर्ति और सेवा के वर्तमान घटिया स्तर से मुक्त होने के लिए ऐसा अभियान आवश्यक है। एक बार उल्लेखनीय सुधार हो गया, तो उपभोक्ताओं की ओर से  आपूर्ति की गुणवत्ता के लिए वितरण कंपनियों को जवाबदेह बनाने का दबाव रहेगा, और यह जोश जारी रहेगा।

कनेक्शन से एक कदम आगे 

चूंकि पूरा ध्यान कनेक्शनों पर केंद्रित रहा है, इसलिए आपूर्ति की गुणवत्ता को लेकर हमारे पास बहुत कम जानकारी है। जो भी आंकड़े उपलब्ध हैं, उनसे पता चलता है कि शिकायतों की सूची में मीटरिंग, बिलिंग और भुगतान सम्बंधी शिकायतें प्रमुख हैं। नए कनेक्शन वाले घरों के बिल जारी करने में अनावश्यक विलंब होता, बिलों में गलतियां होती है, मीटर में खामियां हैं और बिल भुगतान में कठिनाइयां हैं। बिलों में विलंब या गलतियों से बिल काफी अधिक आता है, जिससे छोटे उपभोक्ताओं को भुगतान करने में मुश्किल होती है और उनके कनेक्शन कट जाते हैं।

दूसरी शिकायत बिजली कटौती को लेकर है। सरकारी रिपोट्र्स में ग्रामीण इलाकों में 16 से 24 घंटे की बिजली आपूर्ति की बात कही गई है। उपभोक्ता सर्वेक्षण और अन्य अध्ययन इससे बहुत कम घंटे बिजली आपूर्ति रिपोर्ट करते हैं। स्मार्टपॉवर के एक सर्वेक्षण में बताया गया है कि आधे घरों में एक दिन में आठ घंटे बिजली कटौती होती है और लगभग आधे ग्रामीण उद्यम गैर-ग्रिड विकल्प का उपयोग करते हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा 2017 के राष्ट्रव्यापी ग्राम सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि केवल आधे गांवों में ही 12 घंटे से अधिक बिजली आपूर्ति होती है।

प्रयास ऊर्जा समूह द्वारा 23 राज्यों में 200 मॉनिटरिंग केंद्रों से एकत्रित डैटा के अनुसार ग्रामीण इलाकों के आधे स्थानों में प्रति माह 15 घंटे से अधिक कटौती और प्रति दिन 2-4 बार व्यवधान का अनुभव होता है।

सामुदायिक सेवाएं

घरों के अलावा, ग्रामीण विद्युतीकरण को कृषि, छोटे व्यवसाय और सामुदायिक सेवाओं जैसे स्ट्रीट लाइटिंग, स्कूलों, आंगनवाड़ियों और स्वास्थ्य केंद्रों तक पहुंच सुनिश्चित करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र के लिए ज़्यादातर राज्यों में केवल सात से आठ घंटे की आपूर्ति प्रदान की जाती है। यह बिजली आपूर्ति ज़्यादातर रात के समय और अक्सर रुक-रुककर दी जाती है। बार-बार होने वाली रुकावटें ग्रामीण क्षेत्रों में वाणिज्यिक उद्यमों के संचालन को हतोत्साहित करती हैं।

वितरण कंपनी का राजस्व सिर्फ तभी बढ़ सकता है जब ऐसे उपभोक्ता अधिक बिजली का उपभोग करें। इससे पहले कि उपभोक्ता ग्रिड द्वारा आपूर्ति में विश्वास खो दें, बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता में सुधार के लिए कदम उठाना आवश्यक है। सरकारी सर्वेक्षणों की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में, 40 प्रतिशत स्कूलों और 25 प्रतिशत स्वास्थ्य उप-केंद्रों में बिजली कनेक्शन नहीं थे। ग्रामीण वितरण के बुनियादी ढांचे को सुधारना आवश्यक है, जो फिलहाल मात्र घरेलू मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

बिजली आपूर्ति अभियान

कनेक्शन-उपरांत के मसलों पर ध्यान देना ज़रूरी है। जैसे प्रथम बिल जारी होना, बिजली आपूर्ति के घंटे, वितरण ट्रांसफॉर्मर की विफलता दर और गैर-घरेलू उपभोक्ता कनेक्शन में बढ़ोतरी। एकीकृत उर्जा विकास योजना (आईपीडीएस) वर्तमान में शहरों पर केंद्रित है; इसे ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ाया जाना चाहिए। बेकार पड़ी बिजली उत्पादन क्षमता, पुराने पड़ चुके उर्जा संयंत्रों और अप्रयुक्त क्षमता से उत्पन्न बिजली डिस्कॉम्स को रियायती दरों पर दी जा सकती है। इसका उपयोग वे निर्धारित ग्रामीण क्षेत्रों में भरोसेमंद आपूर्ति हेतु कर सकती हैं।

राज्य वितरण कंपनियां मीटरिंग और बिलिंग में सुधार कर सकती हैं और बिल भुगतान के लिए ज़्यादा केंद्र स्थापित कर सकती हैं। इसमें वे पंचायत कार्यालयों, डाकघरों या स्वास्थ्य केंद्रों की मदद ले सकती हैं। मोबाइल ऐप्लिकेशन और जन सुनवाई के माध्यम से शिकायत निवारण प्रक्रियाओं को सरल बनाया जा सकता है।

घटिया बिजली आपूर्ति के लिए वितरण कंपनियों को नियामक आयोगों द्वारा आर्थिक रूप से दंडित किया जाना चाहिए। आर्थिक गतिविधि को बढ़ावा देने के लिए, लगभग 300 युनिट की खपत वाले छोटे उद्यमों को सस्ते शुल्क का आश्वासन दिया जाना चाहिए।

स्वास्थ्य केंद्रों जैसी सामुदायिक सुविधाओं के लिए जहां विश्वसनीय आपूर्ति महत्वपूर्ण है, बैटरी बैकअप वाले छोटे सौर संयंत्र लगाने की योजना बनाई जा सकती है। प्रीपेड मीटर, स्मार्ट मीटर और प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने से पहले पायलट परियोजनाओं के रूप में आज़माया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

*यह लेख अंग्रेज़ी में “द हिन्दू बिज़नेस लाइन” में “100% rural electrification is not enough” नाम से प्रकाशित हो चुका है। इसका लिंक यहां दिया गया है
https://www.thehindubusinessline.com/opinion/100-rural-electrification-is-not-enough/article26645721.ece

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindubusinessline.com/opinion/w23se2/article26645720.ece/alternates/WIDE_615/BL27THINKPOWER

माइक्रोवेव में रखे अंगूर से चिंगारियां

माइक्रोवेव ओवन में रखे जाने पर अंगूर से चिंगारियां निकलते हुए दिखाने वाले कई वीडियो इंटरनेट पर मौजूद हैं। इन वीडियो में एक अंगूर को दो हिस्सों में इस तरह काटते हैं कि अंगूर का छिलका दोनों टुकड़ों से जुड़ा रहे। फिर इसे माइक्रोवेव में रख दिया जाता है। ये टुकड़े आपस में जहां से जुड़े रहते हैं कुछ देर बाद वहां से चमक पैदा करती गैस निकलती है। ऐसा होने का कारण यह बताया जाता है कि अंगूर के दो टुकड़े माइक्रोवेव विकिरण के लिए एंटिना का काम करते हैं और अंगूर के छिलके की नमी इन दोनों टुकड़ों के बीच चालक का। दोनो एंटिना के बीच अंगूर के छिलके से होते हुए विद्युत बहती है और चमक पैदा होती है।

कनाडा स्थित ट्रेन्ट विश्वविद्यालय के आरोन स्लेपकोव का कहना है कि इंटरनेट पर बताया जा रहा यह कारण सही नहीं है। आरोन के अनुसार वास्तव में होता यह है कि अंगूर के दो टुकड़े दर्पणनुमा केविटी (गड्ढा) बनाते हैं जिनका केन्द्र दोनों टुकड़ों का जुड़ा हुआ हिस्सा (छिलका) होता है। ये केविटी माइक्रोवेव विकिरण को अवशोषित करती हैं और केंद्र पर फोकस कर देती हैं। इसके कारण केन्द्र बहुत गर्म हो जाता है। तब अंगूर के छिलके में मौजूद सोडियम और पोटेशियम के परमाणु आवेशित हो जाते हैं और आवेशित गैस (प्लाज़्मा) का निर्माण करते हैं। जिससे चमक पैदा होती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आरोन और उनके साथियों ने थर्मल इमेजिंग और कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद ली। उन्होंने साबूत अंगूर, अंगूर के टुकड़ों और हाइड्रोजेल मोतियों को माइक्रोवेव में अलग-अलग स्थितियों में रखकर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र की थर्मल इमेजिंग की। देखा गया कि प्लाज़्मा पैदा करने के पीछे दो टुकड़ों के बीच का छिलका मुख्य कारण नहीं है। वास्तव में अंगूर का साइज़ और पर्याप्त नमी विकिरण को अवशोषित करने में भूमिका निभाते हैं। अंगूर के अलावा ब्लैकबेरी, गूज़बेरी और हाइड्रोजेल मोती को माइक्रोवेव में आपस में सटाकर रखने पर भी यही प्रभाव होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://img.wonderhowto.com/img/34/35/63537484119522/0/everything-you-know-about-microwave-ovens-is-lie.w1456.jpg

सबके लिए शीतलता – आदित्य चुनेकर और श्वेता कुलकर्णी

भारत का शीतलता प्लान एक सकारात्मक कदम है किंतु इसे कारगर बनाने के लिए काफी काम करने की ज़रूरत है।

पिछली एक सदी में भारत 1 डिग्री सेल्सियस गर्म हुआ है और इसमें भी गर्मी बढ़ने की रफ्तार पिछले दो दशकों में सबसे तेज़ रही है। अध्ययन दर्शाते हैं कि भविष्य में इंतहाई ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति में कई गुना की वृद्धि होगी। ग्रीष्म-आधारित मौतों पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है। शहरीकरण की वजह से गर्मी का असर और भी बुरा हो जाता है क्योंकि इमारतों, सड़कों और प्रदूषण की वजह से गर्मी कैद हो जाती है। इसके अलावा, गर्मी भोजन, दवाइयों और टीकों को बरबाद करती है क्योंकि इनका प्रभावी जीवनकाल गर्मी के कारण सिकुड़ जाता है।

इस मामले में भारत दोहरी चुनौती का सामना कर रहा है। एक ओर तो देश को यह सुनिश्चित करना होगा कि जोखिम से घिरे व्यक्तियों को ऐसे साधन किफायती ढंग से और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हों जो उन्हें गर्मी से राहत प्रदान करें। दूसरी ओर, यह भी सुनिश्चित करना होगा कि मशीनीकृत शीतलन उपकरणों और प्रक्रियाओं में जो ऊर्जा व रेफ्रिजरेंट रसायन इस्तेमाल होते हैं उनकी वजह से नुकसान कम से कम हो।

इस चुनौती से निपटने के लिए पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने हाल ही में इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP) का मसौदा जारी किया है। प्लान में अनुमान लगाया गया है कि 2017-18 के मुकाबले 2037-38 तक देश में कूलिंग की मांग आठ गुना बढ़ जाएगी। प्लान में 2037-38 तक कूलिंग मांग में अनुमानित वृद्धि को 20-25 प्रतिशत कम करने के लिए लघु, मध्यम व दीर्घ अवधि के लिए सिफारिशों की सूची भी शामिल की गई है। इन सिफारिशों का प्रमुख लक्ष्य समाज के लिए पर्यावरणीय तथा सामाजिक-आर्थिक लाभ सुरक्षित रखते हुए सबके लिए शीतलन व उष्मीय सहूलियत प्रदान करना है। यह योजना मंत्रालय की वेबसाइट पर लोगों की टिप्पणियों के लिए उपलब्ध है। यह प्लान घोषित लक्ष्य की ओर एक सकारात्मक कदम है किंतु इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी काम करना होगा।

सबसे पहले, रणनीति के स्तर पर, प्लान में 2037-38 तक रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में 20-25 प्रतिशत कमी लाने, कूलिंग के लिए ऊर्जा की ज़रूरत में 25-40 प्रतिशत की कमी लाने वगैरह के लिए समय सीमाओं सहित लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। अलबत्ता, प्लान में इन लक्ष्यों की दिशा में प्रगति को आंकने के लिए निगरानी व सत्यापन की ज़रूरत को कम करके आंका गया है। इसके अंतर्गत भविष्य में कूलिंग, ऊर्जा तथा रेफ्रिजरेंट रसायनों की मांग में कमी की गणना करने के लिए विधियां निर्र्धारित की जा सकती हैं और यह भी स्पष्ट किया जा सकता है कि मांग में कमी के सत्यापन के लिए समय-समय पर किस तरह के आंकड़े एकत्रित करने होंगे। योजना में उसके घोषित उद्देश्यों के विभिन्न पहलुओं पर बराबर ज़ोर दिए जाने की आवश्यकता है।

हाल की एक वैश्विक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत की सबसे अधिक आबादी कूलिंग सम्बंधी जोखिम का सामना कर रही है। ICAP में शहर व गांव दोनों जगह के सबसे जोखिमग्रस्त लोगों को किफायती व पर्याप्त कूलिंग साधन मुहैया कराने के लिए बहुत कम हस्तक्षेपों की सिफारिश की गई है। प्लान की सिफारिशों में कई सारे नीतिगत व नियामक हस्तक्षेप सुझाए गए हैं किंतु उन्हें क्रियांवित करने के लिए ज़रूरी संसाधनों को मात्रात्मक रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया है। प्लान की सफलता के लिए ज़रूरी है कि वित्तीय खाई को पहचाना जाए और उसकी पूर्ति की योजना बनाई जाए।

दूसरा, कामकाजी स्तर पर, प्लान में विभिन्न वर्तमान नीतियों से सीखे गए सबकों को शामिल करके सिफारिशों को सशक्त बनाया जा सकता है। मसलन, इस प्लान की एक सिफारिश है कि छत के पंखों के लिए एक अनिवार्य मानक व लेबलिंग कार्यक्रम होना चाहिए और एयर कंडीशनर्स तथा रेफ्रिजरेटर्स के लिए कार्य कुशलता के मानक उच्चतर  स्तर के बनाए जाने चाहिए। इस कार्यक्रम के तहत 1-स्टार (सबसे कम कार्यकुशल) से लेकर 5-स्टार (सर्वाधिक कार्यकुशल) तक की रेटिंग होती है। ऊर्जा-दक्षता के प्रति जागरूकता बढ़ाने में यह कार्यक्रम सफल रहा है किंतु इसकी सीमाएं भी हैं। छत के पंखों के मामले में कुल निर्मित पंखों में से मात्र 10 प्रतिशत पर स्टार लेबल होते हैं। अधिकांश निर्माताओं ने 2010 के बाद से दक्षता मानक को बेहतर बनाने का विरोध किया है। हालांकि ये मानक हर 2-3 साल में अधुनातन किए जाते हैं किंतु यह प्रक्रिया कमोबेश अनुपयोगी ही रही है। दूसरी ओर, रेफ्रिजरेटर्स के मामले में, मानक नियमित रूप से अधुनातन किए गए हैं। आज ये मानक दुनिया के सर्वश्रेष्ठ मानकों में से हैं। इस मामले में निर्माताओं ने इसका जवाब कम स्टार रेटिंग वाले मॉडल्स बेचकर दिया है। वर्ष 2017-18 में निर्मित कुल 25 लाख उपकरणों में से मात्र 2000 ही 5-स्टार रेटिंग वाले थे। लिहाज़ा, प्लान की सिफारिशों के क्रियांवयन को ठोस रूप देना होगा ताकि ऐसे लक्ष्यों की व्यावहारिक धरातल पर पूर्ति की जा सके।

तीसरा, प्लान में लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु मुख्य रूप से टेक्नॉलॉजी, नियमन और प्रलोभन-प्रोत्साहन स्कीमों पर ध्यान दिया गया है। कूलिंग की चुनौती का एक निर्णायक आयाम मानव व्यवहार है, जिसे प्लान में अनदेखा किया गया है। उदाहरण के लिए, मानव व्यवहार को समझने से एयर कंडीशंड जगहों के लिए थोड़ा ऊंचा डिफॉल्ट तापमान निर्धारित करने में मदद मिलेगी। यह एक ऐसा तापमान होगा जिस पर लोग सुकून महसूस करेंगे। इससे बिजली के उपयोग में काफी बचत की जा सकेगी। ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी द्वारा जारी किए गए ताज़ा दिशानिर्देश इसी बात का अनुमोदन करते हैं। साथ ही मानव व्यवहार को समझकर यह जानने में भी मदद मिलेगी कि यदि ऊर्जा-दक्षता बढ़ाकर एयर कंडीशनिंग संयंत्रों को चलाना सस्ता हो जाता है, तो क्या लोग उन्हें ज़्यादा देर तक चलाने लगेंगे? इसे रिबाउंडिंग प्रभाव कहते हैं और इसकी वजह से ऊर्जा दक्षता बढ़ाने से अर्जित लाभ काफी हद तक निरस्त हो जाते हैं।

अंत में, अध्ययनों ने यह भी दर्शाया है कि खरीदार के व्यवहार में छोटे-छोटे किंतु उपयुक्त बदलाव करने से लागत और उपभोक्ता द्वारा खरीदी के निर्णय पर काफी प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जब उपभोक्ता के सामने विकल्पों की सूची रखी जाती है तो वे प्राय: समझौता करके मध्यम विकल्प को चुनने की प्रवृत्ति दर्शाते हैं। क्या इसका परिणाम यह होता है कि उपभोक्ता 3-स्टार रेटिंग वाला विकल्प चुनेंगे और क्या इससे निपटने के लिए मात्र 4 व 5-रेटिंग वाले विकल्प पेश करना ठीक रहेगा? इस तरह के सवालों के जवाब से कम लागत हस्तक्षेपों को इस तरह से विकसित करने में मदद मिलेगी ताकि उनसे अधिकतम लाभ मिल सके।

कूलिंग एक्शन प्लान भारत के सामने उपस्थित एक गंभीर समस्या से निपटने का अच्छा अवसर प्रदान करता है। एक समग्र व संतुलित नज़रिया और साथ में रणनीतिक प्राथमिकताओं का निर्धारण तथा उन्हें संदर्भ-अनुकूल बनाना भारत की कूलिंग चुनौती का सामना करने की कुंजी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  www.moef.gov.in/sites/default/files/imagecache/media_slider_image/media_gallery/7_3.jpg

खेती के लिए सौर फीडर से बिजली – अश्विन गंभीर और शांतनु दीक्षित

भारत में कुल सींचित क्षेत्र में से दो तिहाई भूजल के पंपिंग पर आश्रित है। इसके लिए 2 करोड़ पंप को बिजली से तथा 75 लाख पंप को डीज़ल से ऊर्जा मिलती है। भूजल की उपलब्धता मूलत: विश्वसनीय और किफायती बिजली आपूर्ति पर निर्भर होती है। यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसका सम्बंध ग्रामीण गरीबों की आजीविका और खाद्य सुरक्षा से है। कृषि क्षेत्र बिजली का एक प्रमुख उपभोक्ता है। कई राज्यों में कुल बिजली खपत में से एक-चौथाई से लेकर एक-तिहाई तक कृषि में जाती है।

1970 के दशक से कई राज्यों में खेती के लिए बिजली या तो निशुल्क या बहुत कम कीमत पर मिल रही है। अधिकांश कृषि सप्लाई का मीटरिंग नहीं किया जाता। कम कीमत और राजस्व वसूली की खस्ता हालत के चलते कृषि को दी गई बिजली को वितरण कंपनियों के वित्तीय घाटे का प्रमुख कारण माना जाता है। इस घाटे की कुछ भरपाई तो अन्य उपभोक्ताओं (जैसे औद्योगिक व व्यावसायिक) पर अधिक शुल्क लगाकर की जाती है। इसे क्रॉस सबसिडी कहते हैं। शेष घाटे की पूर्ति सरकार द्वारा सीधे सबसिडी देकर की जाती है।

चूंकि कृषि को बिजली सप्लाई की दृष्टि से घाटे का क्षेत्र माना जाता है, इसलिए खेती को अक्सर घटिया गुणवत्ता की सप्लाई मिलती है। इसकी वजह से पंप का बार-बार जलना और बिजली न मिलने जैसे समस्याएं पैदा होती हैं। सप्लाई को बहाल करने में बहुत समय लगता है। इसके अलावा नए कनेक्शन मिलने में काफी समय लगता है। और तो और, सप्लाई अविश्वसनीय होती है और प्राय: देर रात में ही मिल पाती है। इन सब कारणों से किसानों में वितरण कंपनियों को लेकर अविश्वास पनपा है।

अगले 10 वर्षों में खेती में बिजली की मांग दुगनी होने की संभावना है। सप्लाई की लागत बढ़ने के साथ-साथ कृषि सबसिडी की समस्या भी विकराल होती जाएगी। यदि इस मामले में नए विचार नहीं आज़माए गए तो खेती में बिजली सप्लाई की स्थिति बिगड़ती जाएगी। समाधान कुछ भी हो किंतु उसमें सबसे पहले किसानों को दिन के समय पर्याप्त बिजली की विश्वसनीय सप्लाई उचित दरों पर सुनिश्चित करनी होगी। इससे किसानों और वितरण कंपनियों के बीच परस्पर विश्वास बढ़ेगा। यदि ऐसे किसी समाधान को राष्ट्र के स्तर पर कारगर बनाना है तो इसमें सबसिडी की मात्रा भी कम की जानी चाहिए।

इस संदर्भ में तीन ऐसे विकास हुए हैं जो सर्वथा नई उत्साहवर्धक संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। पहला, सौर ऊर्जा से सस्ती दरों पर बिजली की उपलब्धता – चूंकि इसमें र्इंधन की कोई लागत नहीं है इसलिए यह बिजली स्थिर कीमत के अनुबंध के आधार पर अगले 25 वर्षों तक 2.75 से लेकर 3.00 रुपए प्रति युनिट की दर से मिल सकती है। दूसरा, सौर ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि का राष्ट्रीय लक्ष्य पूरा करने के लिए राज्यों को सौर ऊर्जा की खरीद में तेज़ी से वृद्धि करनी होगी। तीसरा और अंतिम, कि भारत में ग्रिड हर गांव में पहुंच चुकी है तथा कृषि फीडर्स को अलग करने का काम भी काफी तेज़ी से आगे बढ़ा है। फीडर पृथक्करण के ज़रिए पंप को मिलने वाली बिजली और गांव को मिलने वाली बिजली को भौतिक रूप से अलग कर दिया जाता है। फीडर पृथक्करण का दो-तिहाई लक्ष्य हासिल कर लिया गया है।

इन तीन चीज़ों का फायदा उठाते हुए महाराष्ट्र में मुख्य मंत्री सौर कृषि फीडर कार्यक्रम के तत्वाधान में एक नवाचारी कार्यक्रम शुरू किया गया है। सौर कृषि फीडर मूलत: 1-10 मेगावॉट का समुदाय स्तर का सौर फोटो-वोल्टेइक संयंत्र होता है जिसे 33/11 केवी सबस्टेशन से जोड़ा जाता है। एक मेगावॉट क्षमता का सौर संयंत्र 5-5 हॉर्स पॉवर के करीब 350 पंप को संभाल सकता है और इसे लगाने के लिए लगभग 5 एकड़ ज़मीन की ज़रूरत होती है। संयंत्र को लगाने में कुछ महीने लगते हैं और किसानों को अपने छोर पर कोई परिवर्तन नहीं करने पड़ते। उन्हें इसकी स्थापना और संचालन की ज़िम्मेदारी भी नहीं उठानी पड़ती। पृथक्कृत कृषि फीडर से जुड़े सारे पंप्स को दिन के समय (सुबह 8 से शाम 6 बजे तक) 8-10 घंटे विश्वसनीय बिजली मिलेगी। जब सौर बिजली का उत्पादन कम होगा तब शेष बिजली वितरण कंपनी से ली जा सकती है। दूसरी ओर, जब पंपिंग की मांग कम है (जैसे बरसात के मौसम में) तब अतिरिक्त बिजली वितरण कंपनी को दी जा सकती है। इसके चलते संयंत्र का यथेष्ट आकार निर्धारित किया जा सकता है। प्रोजेक्ट डेवलपर्स का चयन प्रतिस्पर्धी नीलामी के द्वारा होता है और संयंत्र से बनने वाली सारी बिजली को वितरण कंपनी 25 साल के अनुबंध के ज़रिए खरीद लेगी। इसके एवज में वितरण कंपनी सम्बंधित फीडर से जुड़े किसानों को बिजली देती रहेगी।

किसानों को दिन के समय विश्वसनीय बिजली मिलने के अलावा इस तरीके का एक फायदा यह है कि इसके लिए सरकार की ओर से किसी पूंजीगत सबसिडी की ज़रूरत नहीं होगी। दरअसल यह तरीका लागत-क्षम है और इससे सबसिडी में कमी आएगी। एक फायदा यह भी है कि इसके लिए कोई नई ट्रांसमिशन लाइन डालने की ज़रूरत नहीं है। नई ट्रांसमिशन लाइन डालने का काम कई बड़े पैमाने के पवन व सौर ऊर्जा की निविदाओं के संदर्भ में प्रमुख अवरोध बन गया है। ऐसे सौर फीडर स्थापित करना वर्तमान नियामक व्यवस्था के तहत संभव है और यह बिजली उत्पादन कंपनियों के नवीकरणीय ऊर्जा खरीद दायित्व (आरपीओ) की पात्रता रखता है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस तरीके में स्थानीय युवाओं को संयंत्र के निर्माण, संचालन व रख-रखाव के कार्य में स्थानीय स्तर पर रोज़गार के रास्ते भी खुलेंगे। इस तरीके के लाभों का प्रदर्शन करने के बाद ऐसे सौर फीडर्स को आपस में जोड़ा सकता है। इससे अनाधिकृत उपयोग/कनेक्शंस कम किए जा सकेंगे, मीटरिंग व शुल्क वसूली को बेहतर बनाया जा सकेगा। ऊर्जा-क्षम पंप तथा पानी की बचत के कार्यक्रम लागू किए जा सकेंगे।

फिलहाल महाराष्ट्र में इस योजना के तहत कुल लगभग 2-3 हज़ार मेगावॉट के सौर संयंत्र निविदा और क्रियांवयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह करीब 7.5 लाख पंप यानी महाराष्ट्र के कुल पंप्स में 20 प्रतिशत को सौर बिजली सप्लाई करने के बराबर है। दिसंबर 2018 तक लगभग 10 हज़ार किसानों को इस योजना के तहत दिन के समय विश्वसनीय बिजली सप्लाई मिलने भी लगी है। और तो और, वितरण कंपनी अगले तीन से पांच सालों में इसे 7.5 लाख पंप के शुरुआती लक्ष्य से आगे ले जाने पर विचार कर रही है। राज्य वितरण कंपनी द्वारा बिजली सप्लाई की लागत करीब 5 रुपए प्रति युनिट है (और बढ़ती जा रही है), वहीं सौर बिजली की कीमत अगले 25 वर्षों के लिए 3 रुपए प्रति युनिट पर स्थिर रहेगी। 2 रुपए प्रति युनिट की यह बचत 5 हॉर्स पॉवर के एक पंप के लिए सालाना 10,000 रुपए होती है। किसी फीडर पर 500 पंप हों तो अगले 20 वर्षों में यह बचत 4.5 करोड़ रुपए होगी। भारत सरकार ने इसी तरह की एक योजना राष्ट्रीय स्तर पर भी घोषित की है। कुसुम नामक इस योजना का लक्ष्य 10,000 मेगावॉट है।

देश के हर गांव में बिजली ग्रिड की उपस्थिति तथा साथ में राष्ट्रीय फीडर पृथक्करण कार्यक्रम मिलकर इस लागत-क्षम व आसानी से बड़े पैमाने पर लागू किए जा सकने वाले इस तरीके को समूचे राष्ट्र में व्यावहारिक बना देते हैं। कृषि क्षेत्र के लिए दिन के समय किफायती व विश्वसनीय बिजली उपलब्ध कराने का लक्ष्य इस तरीके को अनिवार्य बना देता है। यह किसान, सरकार व वितरण कंपनियों तीनों के लिए लाभ का सौदा है और यह बिजली क्षेत्र के लिए किसान-केंद्रित रास्ता खोलता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://iascurrent.com/wp-content/uploads/2018/01/maxresdefault-1.jpg