रेफ्रिजरेटर, बॉयलर और यहां तक कि बल्ब अपने आसपास के
वातावरण में निरंतर ऊष्मा बिखेरते हैं। सैद्धांतिक रूप से इस व्यर्थ ऊष्मा को
बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। गाड़ियों के इंजिन और अन्य उच्च-ताप वाले स्रोतों
के साथ तो ऐसा किया जाता है लेकिन इस तकनीक का उपयोग घरेलू उपकरणों के लिए थोड़ा
मुश्किल होता है क्योंकि ये काफी कम ऊष्मा छोड़ते हैं।
लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा
उपकरण तैयार किया है जो तरल पदार्थों का उपयोग करके निम्न-स्तर की ऊष्मा को बिजली
में परिवर्तित कर सकता है। गौरतलब है कि वैज्ञानिक काफी समय से ऐसे पदार्थों के
बारे में जानते हैं जो ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं। यह कार्य विशेष
अर्धचालकों द्वारा किया जाता है जिन्हें ताप-विद्युत पदार्थ कहते हैं। जब इनसे बनी
चिप्स का एक सिरा गर्म और दूसरा ठंडा होता है तब इलेक्ट्रान गर्म से ठंडे सिरे की
ओर बहने लगते हैं। कई चिप्स को एक साथ जोड़ने पर एक स्थिर विद्युत प्रवाह उत्पन्न
होता है।
लेकिन जो पदार्थ अभी ज्ञात हैं वे महंगे
हैं और तापमान में सैकड़ों डिग्री सेल्सियस के अंतर पर काम करते हैं। ऐसे में यह
तकनीक रेफ्रिजरेटर जैसे निम्न-स्तर के ताप स्रोतों के लिए बेकार है। इस समस्या को
दूर करने के लिए हुआज़हौंग युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के भौतिक विज्ञानी
जून ज़ाऊ और उनके सहयोगियों ने थर्मोसेल्स की ओर रुख किया। इन उपकरणों में गर्म से
ठंडे की ओर विद्युत आवेश को प्रवाहित करने के लिए ठोस की बजाय तरल पदार्थों का
उपयोग किया जाता है। इनमें इलेक्ट्रॉन्स का नहीं बल्कि आयनों का स्थानांतरण होता
है।
थर्मोसेल्स कम तापमान अंतर को बिजली में
परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं लेकिन विद्युत धारा बहुत कम होती है। कारण यह
है कि इलेक्ट्रॉन्स की तुलना में आयन सुस्त होते हैं। इसके अलावा इलेक्ट्रॉन के
विपरीत आयन अपने साथ ऊष्मा का भी प्रवाह करते हैं जिससे दोनों सिरों के बीच तापमान
का अंतर कम हो जाता है।
ज़ाऊ की टीम ने एक छोटी थर्मोसेल से शुरुआत
की जिसके निचले व ऊपरी सिरों पर इलेक्ट्रोड थे। निचले और ऊपरी इलेक्ट्रोड के बीच
50 डिग्री सेल्सियस का अंतर बनाए रखा गया। उन्होंने इस चैम्बर में फैरीसाइनाइड
नामक आयनिक पदार्थ भर दिया।
गर्म इलेक्ट्रोड के नज़दीक हों तो
फैरीसाइनाइड आयन एक इलेक्ट्रान छोड़ते हैं और चार ऋणावेश युक्त Fe(CN)6-4 से तीन ऋणावेश युक्त Fe(CN)6-3 में बदल जाते हैं।
मुक्त इलेक्ट्रॉन्स एक बाहरी सर्किट के माध्यम से गर्म से ठंडे इलेक्ट्रोड की ओर
बहते हुए सर्किट में लगे छोटे उपकरणों को उर्जा प्रदान करते हैं। ये इलेक्ट्रान जब
ठंडे इलेक्ट्रोड तक पहुंचते हैं तब ये Fe(CN)6-3 के साथ जुड़ जाते
हैं। इससे पुन: Fe(CN)6-4 आयन उत्पन्न होते हैं जो फिर से गर्म इलेक्ट्रोड की ओर
चले जाते हैं और यह चक्र निरंतर चलता रहता है।
इन गतिमान आयनों द्वारा वाहित गर्मी को कम
करने के लिए ज़ाऊ की टीम ने फैरीसाइनाइड में एक धनावेशित कार्बन यौगिक गुआनिडिनियम जोड़
दिया। ठंडे इलेक्ट्रोड पर गुआनिडिनियम ठंडे Fe(CN)6-4 आयनों को क्रिस्टल्स में परिवर्तित कर देता है। क्योंकि तरल पदार्थों की
तुलना में ठोस पदार्थों की ऊष्मा चालकता कम होती है,
वे गर्म से ठंडे
इलेक्ट्रोड की ओर जाने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। गुरुत्वाकर्षण के कारण ये
क्रिस्टल्स गर्म इलेक्ट्रोड की ओर चले जाते हैं जहां गर्मी के कारण ये वापिस तरल
बन जाते हैं।
साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार थर्मोसेल के पिछले संस्करणों की तुलना में इलेक्ट्रोड के उतने ही क्षेत्रफल के लिए यह थर्मोसेल पांच गुना अधिक बिजली उत्पन्न करती है। यह एक सामान्य व्यावसायिक उपकरण से दो गुना अधिक दक्षता प्रदान करता है। टीम के अनुसार एक 20 थर्मोसेल वाले पुस्तक के आकार के मॉड्यूल से एक एलईडी लाइट और एक पंखे को ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। साथ ही एक मोबाइल फोन भी चार्ज किया जा सकता है। टीम के लिए अगला कदम इस उपकरण को और सस्ता बनाना और ऐसी सामग्री का उपयोग करना है जो अधिक से अधिक ऊष्मा को अवशोषित कर सके। इसकी सहायता से हम अपने आसपास के वातावरण में उपलब्ध गर्मी से छोटे गैजेट्स को उर्जा देने में सक्षम हो सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/heater_1280p.jpg?itok=z6PYd5GP
बढ़ता वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन आज काफी गंभीर
समस्या है। इसे कम करने के प्रयास में लंबे समय से वैज्ञानिक जीवाश्म र्इंधनों के
विकल्प के रूप में, सौर ऊर्जा का दोहन कर, मीथेन बनाने के प्रयास कर रहे हैं। मिशिगन युनिवर्सिटी के ज़ेटियन माई और उनके साथियों
का हालिया शोध इसी दिशा में एक और कदम है। उन्होंने तांबा और लोहा आधारित ऐसा
उत्प्रेरक विकसित किया है जो सौर ऊर्जा का उपयोग कर कार्बन डाईऑक्साइड को मीथेन
में परिवर्तित करता है, जिसे र्इंधन के रूप में उपयोग किया जा सकता
है।
हाल ही में अमेरिका में बिजली पैदा करने के प्राथमिक स्रोत के रूप में मीथेन
ने कोयले को मात दी है। मीथेन से बिजली पैदा करने की प्रक्रिया में होता यह है कि
मीथेन जलने पर कार्बन डाईऑक्साइड और पानी में बदल जाती है और इस प्रक्रिया में
ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस ऊष्मा का उपयोग बिजली बनाने में किया जाता है।
सौर ऊर्जा की मदद से मीथेन बनाने की प्रक्रिया इसके विपरीत है। इसमें विद्युत
की मदद से कार्बन डाईऑक्साइड और पानी को मीथेन में बदला जाता है। हालांकि इस तरह
मीथेन बनाना इतना आसान नहीं है। कार्बन डाईऑक्साइड के एक अणु में आठ इलेक्ट्रॉन और
चार प्रोटॉन जुड़ने पर मीथेन का एक अणु बनता है। हर इलेक्ट्रॉन और हर प्रोटॉन को
अणु में जोड़ने के लिए ऊर्जा की ज़रूरत होती है।
वैज्ञानिक यह तो पहले ही पता लगा चुके थे कि जब तांबे के कण प्रकाश-अवशोषक
पदार्थों के साथ जुड़ते हैं तब वे कार्बन डाईऑक्साइड को अधिक ऊर्जा वाले यौगिकों
में परिवर्तित कर देते हैं। लेकिन इसमें समस्या यह थी कि इनकी दक्षता और अभिक्रिया
दर कम थी। इसलिए वे तांबे और अन्य धातुओं की जोड़ियों को प्रकाश-अवशोषकों के साथ
जोड़ने का प्रयास कर रहे थे।
इसी प्रयास में माई और उनके साथियों ने सिलिकॉन पापड़ (सिलिकॉन अर्धचालक की
पतली चादर) के ऊपर प्रकाश-अवशोषक गैलियम नाइट्राइड से बने नैनोवायर विकसित किए।
नैनोवायर पर उन्होंने विद्युत-लेपन करके तांबा और लोहे के 5-10 नैनोमीटर बड़े कण
जोड़े। इस तरह तैयार सेटअप ने सूक्ष्म सौर-सेलों की तरह काम किया, यानी सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर उसे विद्युत ऊर्जा में बदल दिया। इसका
उपयोग कार्बन डाइऑक्साइड को मीथेन में परिवर्तित करने के लिए किया गया।
तैयार सेटअप ने प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड व पानी की मौजूदगी में प्रकाश में
मौजूद 51 प्रतिशत ऊर्जा को मीथेन में परिवर्तित किया। प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तांबा-लोहा आधारित यह नया
उत्प्रेरक अब तक की सबसे तीव्र दर से और सबसे अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।
माई का कहना है कि इस सेटअप का एक और फायदा है – इसमें इस्तेमाल किए गए प्रकाश-अवशोषक और उत्प्रेरक सस्ते और आसानी से उपलब्ध हैं, और उद्योगों में उपयोग किए जा रहे हैं। लेकिन मीथेन उत्पादन को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए अभी उत्पादन दक्षता और दर, दोनों ही बढ़ाने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/Methane_Recyling_1280x720.jpg?itok=NY6d1vic
वर्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में
याद किया जाएगा,
जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की।
यह वही वर्ष था,
जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप
का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता
हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु
बनाने की घोषणा की।
इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की।
यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है।
भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ
ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन
व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।
इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का
चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना,
स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस
परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य
मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर
एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक
होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।
उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है।
ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल
का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में
वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।
इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु
की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित
डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान
डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है।
संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द
है,
जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर
बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का
खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम
योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।
सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54
क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा
किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे
पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा
सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।
वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं
वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की
घोषणा की थी,
जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का
विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम
आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए
मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा
गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर
एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का
शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के
प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन
का अहम योगदान रहा है।
विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन
वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके
साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन
परमाणु हैं,
जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं
के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा।
लिहाज़ा,
कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग
की संभावनाएं हैं।
गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस
वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए
चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के
79 चंद्रमा हैं।
गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान
पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी
बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार
इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।
कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में
वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी)
का पता लगाया है,
जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना
बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि
तापमान भी अनुकूल है।
साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे
हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4
जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी
ले गया था।
अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया
गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की
मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय
अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह
निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन
चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।
बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद
अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन
तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे।
जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही
प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का
दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की
नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे
जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस
जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258
वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने
‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण
कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त
राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी
का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।
इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी।
हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों
में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के
प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और
प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा
पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक
व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।
विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स
में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल
मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी
अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।
इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा
को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई
परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।
गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र
और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार
विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी
के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ
नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा
विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया –
विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ।
इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों
की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स
पीबल्स,
मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों
अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।
ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का
अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले
वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।
वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन
उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना
2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन
उहलेनबेक पहली महिला हैं।
अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख
वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया
है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी
ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में
पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।
5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencenews.org/wp-content/uploads/2019/12/122119_YE_landing_full.jpg
1970 के दशक में, तेल संकट की शुरुआत
से ही दुनिया भर में नाभिकीय उर्जा संयंत्रों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई।
साथ ही पवन और सौर उर्जा को भी जीवाश्म र्इंधन के विकल्प के रूप में देखा गया। इन
सभी रुाोतों ने बिजली पैदा करने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन का आश्वासन भी दिया।
वाशिंगटन के जेफ जॉनसन ने अमेरिकन केमिकल
सोसाइटी की पत्रिका केमिकल एंड इंजीनियरिंग न्यूज़ में प्रकाशित अपने लेख में इन
गैर-जीवाश्म र्इंधन आधारित संसाधनों की धीमी वृद्धि और कोयले एवं तेल पर हमारी
निर्भरता को तेज़ी से कम करने के लिए विशेष उपाय करने की ज़रूरत की ओर ध्यान आकर्षित
किया है। जेफ जॉनसन, पेरिस स्थित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के एक अध्ययन का हवाला देते हुए
कहते हैं कि यदि सरकारें हस्तक्षेप नहीं करती हैं तो 1990 के दशक में नाभिकीय
उर्जा का जो योगदान 18 प्रतिशत था वह 2040 तक घटकर मात्र 5 प्रतिशत तक रह जाएगा।
डैटा से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों
पर ध्यान देने और उनकी बढ़ती उपस्थिति की रिपोर्ट्स के बावजूद विभिन्न प्रकार के
ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म र्इंधन की हिस्सेदारी लगभग आधी सदी से अपरिवर्तित रही
है। दिए गए रेखाचित्र से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों में काफी धीमी वृद्धि
हुई है, इसी तरह नाभिकीय उर्जा की हिस्सेदारी भी कम
हुई है, कोयले का उपयोग अपरिवर्तित रहा है और तेल
की जगह प्राकृतिक गैस का उपयोग होने लगा है।
स्थिति तब और अधिक भयावह नज़र जाती है जब हम
देखते हैं कि गैर-जीवाश्म बिजली में कोई बदलाव न होने के पीछे बिजली की मांग में स्थिरता
का कारण नहीं है। आंकड़ों से पता चलता है कि बिजली खपत की दर में तेज़ी से वृद्धि
हुई है जो आने वाले दशकों में और अधिक होने वाली है।
यह तो स्पष्ट है कि यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के उपयोग में कमी करनी है तो उसकी
भरपाई नवीकरणीय संसाधनों और नाभिकीय उर्जा में तेज़ वृद्धि से होनी चाहिए। नवीकरणीय
ऊर्जा में पनबिजली, पवन ऊर्जा और सौर उर्जा शामिल हैं। पनबिजली
संयंत्र नदियों पर उपयुक्त स्थल पर निर्भर करते हैं और नए संयंत्र लगाने का मतलब
आबादियों और पारिस्थितिक तंत्र को अस्त-व्यस्त करना है। पवन ऊर्जा की काफी गुंजाइश
है लेकिन इसका प्रसार इसकी सीमा तय करता है। साथ ही इसे स्थापित करने के लिए निवेश
की काफी आवश्यकता होती है और समय भी लगता है। सौर पैनल अब पहले की तुलना में और
अधिक कुशल हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर इन्हें स्थापित करने
के लिए काफी ज़मीन की ज़रूरत होगी और ज़मीन पर वैसे ही काफी दबाव है।
इसलिए विकल्प के रूप में हमें नाभिकीय
उर्जा को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसके कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। इसके
साथ रेडियोधर्मी अपशिष्ट का उत्पन्न होना, दुर्घटना
का जोखिम और भारी लागत जैसी समस्याएं भी हैं। हालांकि, नवीकरणीय
संसाधनों की भौतिक सीमाओं को देखते हुए और जीवाश्म र्इंधन को आवश्यक रूप से कम
करने के लिए, अपशिष्ट के निपटान और सुरक्षा के मानकों के
सबसे बेहतरीन उपायों के साथ, नाभिकीय उर्जा ही
एकमात्र रास्ता है।
इसी संदर्भ में हमें देखना होगा कि वर्ष
2018 में कुल विश्व उर्जा में नाभिकीय घटक की भागीदारी केवल 10 प्रतिशत रह जाएगी।
इसके लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। एक महत्वपूर्ण कारक की ओर अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा
संगठन (आईईए) ने ध्यान दिलाया है। आईईए के अनुसार उत्पादन क्षमता का निर्माण तो
हुआ है लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा काफी पुराना हो गया है जिसे प्रतिस्थापित करने की
आवश्यकता है। विकसित देशों में कुल बिजली उत्पादन में नाभिकीय उर्जा की भागीदारी
18 प्रतिशत है। 500 गीगावॉट के कुल उत्पादन में से अमेरिका अपने 98 नाभिकीय
संयंत्रों से 105 गीगावॉट का उत्पादन करता है। फ्रांस अपने 58 नाभिकीय संयंत्रों
से 66 गीगावॉट का उत्पादन करता है जो कुल बिजली उत्पादन का 70 प्रतिशत है। इसकी
तुलना में, भारत में 7 स्थानों पर स्थित 22 नाभिकीय
संयंत्रों से 6.8 गीगावॉट का उत्पादन होता है जबकि यहां बिजली का कुल उत्पादन 385
गीगावॉट है।
आईईए की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, युरोपीय संघ और रूस के अधिकांश संयंत्र 35 वर्षों से अधिक
पुराने हैं। ये संयंत्र या तो अपना 40 वर्षीय जीवन पूरा कर चुके हैं या फिर उसके
करीब हैं। विकसित देशों में पुराने संयंत्रों के स्थान पर नए संयंत्र स्थापित करना
कोई विकल्प नहीं है। समय लगने के अलावा, नए
संयंत्रों से बिजली उत्पादन की लागत मौजूदा संयंत्रों की तुलना में काफी अधिक
होगी। इसके साथ ही नए संयंत्र प्रतिस्पर्धा में असमर्थ होंगे जिसके परिणामस्वरूप
जीवाश्म आधारित बिजली का उपयोग बढ़ जाएगा। एक ओर जहां परमाणु संयंत्रों को अपशिष्ट
निपटान और सुरक्षा के विशेष उपायों की लागत वहन करना होती है, वहीं जीवाश्म र्इंधन आधारित उद्योग को पर्यावरण क्षति के
लिए कोई लागत नहीं चुकानी पड़ती है।
इसलिए विकसित देशों में केवल 11 नए संयंत्र
स्थापित किए जा रहे हैं जिनमें से 4 दक्षिण कोरिया में और एक-एक 7 अन्य देशों में
हैं। हालांकि, आईईए के अनुसार विकासशील देशों में से, चीन में 11 (46 गीगावॉट की क्षमता वाले 46 मौजूदा संयंत्रों
के अलावा), भारत में 7, रूस
में 6, यूएई में 4 और कुछ अन्य देशों में स्थापित
किए जा रहे हैं। सारे के सारे संयंत्र शासकीय स्वामित्व में हैं।
चूंकि कम लागत वाले नए संयंत्रों के
किफायती निर्माण के लिए अभी तक कोई मॉडल मौजूद नहीं है, विकसित
देश मौजूदा संयंत्रों को पुनर्निर्मित और विस्तारित करने के लिए कार्य कर रहे हैं।
आईईए के आकलन के अनुसार, एक मौजूदा संयंत्र के
जीवनकाल को 20 वर्ष तक बढ़ाने की लागत आधे से एक अरब डॉलर बैठेगी। यह लागत, नए संयंत्र को स्थापित करने की लागत या पवन या सौर उर्जा
संयंत्र स्थापित करने की लागत से कम ही होगी और इसको तैयार करने के लिए ज़्यादा समय
भी नहीं लगेगा। अमेरिका में 98 सक्रिय संयंत्रों के लाइसेंस को 40 साल से बढ़ाकर 60
साल कर दिया गया है।
जॉनसन के उक्त लेख में एमआईटी के समूह
युनियन ऑफ कंसन्र्ड साइंटिस्ट के पेपर दी न्यूक्लियर पॉवर डिलेमा का भी ज़िक्र किया
गया है। यह पेपर, नाभिकीय उर्जा के प्रतिकूल अर्थशास्त्र और
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को थामने में इसके निहितार्थ को लेकर आइईए की चिंता को ही
प्रतिध्वनित करता है। एमआईटी का थिंक टैंक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए
राज्य के हस्तक्षेप से कार्बन क्रेडिट की प्रणाली को लागू करने और कार्बन स्तर को
कम करने वाले मानकों के लिए प्रलोभन देने की सिफारिश करता है। इसके साथ ही कम
कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नॉलॉजी के लिए सब्सिडी की सिफारिश भी करता है ताकि वे
प्रतिस्पर्धा कर सकें।
कितनी बिजली चाहिए?
एक ओर तो इंजीनियर और अर्थशास्त्री बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए हरित ऊर्जा के उत्पादन के तरीकों पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं हमें अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली उर्जा कम करने के तरीके भी खोजना होगा। यह निश्चित रूप से एक कठिन काम है क्योंकि ऊर्जा हमारी व्यापार प्रणालियों का आधार है, और ऐसे परिवर्तन जिनका थोड़ा भी भौतिक प्रभाव है वे राजनैतिक रूप से असंभव होंगे। नाभिकीय उर्जा का कोई विकल्प नहीं है और उसमें भी कई बाधाएं हैं, यह विश्वास शायद आईईए और एमआईटी जैसी शक्तिशाली लॉबियों को मजबूर करे कि वे उत्पादन समस्या का समाधान खोजने की रट लगाना छोड़कर उपभोग कम करने का संदेश फैलाने का काम करें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.greentechmedia.com/assets/content/cache/made/assets/content/cache/remote/https_assets.greentechmedia.com/content/images/articles/Nuclear_Generation_Power_XL_500_500_80_s_c1.jpg
1973 के ऊर्जा संकट ने ऊर्जा आपूर्ति और कीमतों को लेकर व्याप्त खुशफहमी को एक
झटके में दूर कर दिया था। विश्व ने इसका जवाब ऊर्जा दक्षता में सुधार और तेल के
विकल्पों के रूप में दिया। ग्लोबल वार्मिंग की चिंता ऊर्जा दक्षता और नवीकरणीय
ऊर्जा के विकास की ओर प्रोत्साहित कर रही है। इस लेख में ऊर्जा संकट के पहले और
उसके बाद पूरे विश्व और भारत के परिदृश्य की चर्चा की गई है। उपलब्ध आंकड़ों के
आधार पर आगे की कार्रवाई के लिए कुछ टिप्पणियां की गई हैं।
1973 के
अरब-इज़राइल युद्ध ने ऊर्जा संकट को जन्म दिया। इस ऊर्जा संकट ने विश्व को ऊर्जा, विशेष रूप से तेल, की सीमित उपलब्धता और बढ़ते मूल्य
के प्रति आगाह किया। विकसित दुनिया ने सुरक्षित ऊर्जा आपूर्ति सुनिश्चित करने के
लिए 1974 में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) का गठन किया। 1973 और ऊर्जा संकट के 40 साल बाद
2014 के विश्व ऊर्जा परिदृश्य को देखना लाभदायक होगा। IEA ने अपना वार्षिक प्रतिवेदन “वल्र्ड एनर्जी
स्टेटिस्टिक्स 2016” (विश्व ऊर्जा सांख्यिकी) प्रकाशित कर दिया है। यह सारांश रूप
में भी उपलब्ध है। ये प्रकाशन 1973 में (ऊर्जा संकट से पहले) और 2014 में (ऊर्जा
संकट के बाद) विश्व ऊर्जा आपूर्ति और खपत के दिलचस्प ऊर्जा रुझान प्रस्तुत करते
हैं। यह लेख ऊर्जा संकट के पहले और बाद दुनिया में ऊर्जा आपूर्ति और उपयोग की कुछ
विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसमें भारत के लिए भी इसी प्रकार की तुलना की गई
है।
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति
1973 में, विश्व ऊर्जा आपूर्ति 6101 एमटीओई थी। (एमटीओई यानी मिलियन टन तेल के समतुल्य, यह गणना एक कि.ग्रा. तेल = 10000 किलो कैलोरी पर आधारित है।) 2014 में यह
13,099 एमओटीआई हो गई थी। अर्थात 1973 की तुलना में 2014 में ऊर्जा आपूर्ति बढ़कर
2.25 गुना हो गई। तालिका 1 में विभिन्न र्इंधनों का योगदान दर्शाया गया है।
तालिका 1
प्राथमिक ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न ईंधनों की भागीदारी
(प्रतिशत में)
ईंधन
1973
2014
तेल
46.2
31.3
कोयला
24.5
28.6
प्राकृतिक गैस
16.0
21.2
जैव ईंधन और कचरा
10.5
10.3
पनबिजली
1.8
2.4
नाभिकीय
0.9
4.8
अन्य (सौर, पवन, आदि)
0.1
1.4
तेल की कीमतों
में तेज़ी से वृद्धि के चलते इसके विकल्पों की खोज और कुशल उपयोग का मार्ग प्रशस्त
हुआ है। 1973 में कुल ऊर्जा आपूर्ति में तेल का हिस्सा 46 प्रतिशत था जबकि 2014
में केवल 31.3 प्रतिशत ऊर्जा आपूर्ति तेल से हुई। कोयले और गैस का उपयोग थोड़ा बढ़ा।
जलाऊ लकड़ी और कंडे जैसे जैव र्इंधन, जिनका उपयोग मुख्यत: भारत जैसे
विकासशील देशों में होता है, की ऊर्जा आपूर्ति में अभी भी 10
प्रतिशत भागीदारी है। जहां नाभिकीय ऊर्जा के हिस्से में तेज़ वृद्धि देखी गई, वहीं पनबिजली में काफी कम वृद्धि हुई। विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी में भी
नाटकीय परिवर्तन हुए हैं। ऊर्जा आपूर्ति में विभिन्न इलाकों की हिस्सेदारी तालिका
2 में दिखाई गई है।
तालिका 2
ऊर्जा आपूर्ति में
क्षेत्रीय भागीदारी (प्रतिशत में)
क्षेत्र
1973
2014
ओईसीडी
61.3
38.40
गैर-ओईसीडी, यूरोप
(रूस एवं अन्य)
15.5
8.2
चीन
7
22.4
मध्य पूर्व
0.8
5.3
एशिया और अन्य
5.5
12.7
कुल
100
100
ओईसीडी में
युरोप, यूएसए, जापान और अन्य शामिल हैं। गैर
गैर-ओईसीडी युरोप में रूस और इसके पूर्व सहयोगी युक्रेन, तुर्कमेनिस्तान आदि शामिल हैं। एशिया में भारत, इंडोनेशिया, श्रीलंका और अन्य शामिल हैं। तालिका से पता चलता है कि चीन और मध्य पूर्व
में ऊर्जा उत्पादन में प्रभावशाली वृद्धि हुई है और संयुक्त राज्य अमेरिका तथा
युरोप में ऊर्जा आपूर्ति में गिरावट आई है। ऊर्जा आपूर्ति में एशिया की भागीदारी
भी बढ़ी है।
तालिका 3 में
2014 और 1973 में ऊर्जा के मूल्यों को वास्तविक इकाइयों में दर्शाया गया है और
2014 व 1973 में उनका अनुपात दिया गया है। तालिका से स्पष्ट है कि इस अवधि में तेल
में अपेक्षाकृत कमी आई है, जबकि गैस और कोयले के साथ-साथ
नाभिकीय बिजली और पनबिजली में भी वृद्धि हुई है। गौरतलब है कि पनबिजली का उत्पादन
(3833/2535) नाभिकीय से 31 प्रतिशत अधिक है, लेकिन IEA जिस तरीके से
गणना करता है उसके आधार पर पनबिजली (2.4 प्रतिशत) की तुलना में नाभिकीय ऊर्जा का
योगदान अधिक है (4.8 प्रतिशत) है।
तालिका 3
ईंधनवार ऊर्जा की आपूर्ति (वास्तविक यूनिट)
ईंधन
1973
2014
2014/1973
कच्चा तेल (दस लाख
टन, एमटी)
2869
4331
1.509
प्राकृतिक गैस (1
करोड़ घन मीटर-बीसीएम
1224
3590
2.933
कोयला(एमटी)
3074
7709
2.507
नाभिकीय (टेरावॉट
घंटा, टीडबल्यूएच)
203
2535
12.48
पनबिजली(टीडबल्यूएच)
1296
3983
3.078
कुलप्राथमिकऊर्जा(एमटीओई)
6106
13,699
2.245
कुल बिजली
(टीडबल्यूएच)
6131
23,816
3.88
जनसंख्या, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और ऊर्जा उपयोग की तीव्रता को देखना काफी दिलचस्प
हो सकता है (जीडीपी और जनसंख्या के आंकड़े विश्व बैंक की वेबसाइट से लिए गए हैं)।
यह देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति की तुलना में जीडीपी काफी तेज़ी से बढ़ रहा है
जिसका श्रेय ऊर्जा दक्षता में वृद्धि और अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन को
जाता है।
तालिका 4
क्षेत्र अनुसार विश्व और ओईसीडी की अंतिम ऊर्जा खपत
क्षेत्र
विश्व 1973
एमटीओई(%)
विश्व2014
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
ओईसीडी 1973
एमटीओई(%)
उद्योग
1534.49(32.9)
2751.17(29.19)
958.18(34)
808.49(22.28)
परिवहन
1081.26(23.19)
2627.02(27.87)
695.32(24.6)
1215.16(33.49)
घरेलू और व्यवसायिक
सेवाएं, अन्य
1758.88(37.73)
3218.98(34.15)
942.43(33.4)
1262.19(34.78)
गैर-ऊर्जा उपयोग
286.50(6.14)
827.52(8.78)
220.63(7.8)
343.03(9.45)
कुल खपत (एमटीओई)
4661.19
9424.69
2815.6
3828.16
इसके
परिणामस्वरूप औद्योगिक ऊर्जा खपत में कमी आती है और परिवहन, आवासीय एवं वाणिज्यिक सेवाओं में ऊर्जा की खपत में वृद्धि होती है। तालिका 4
में 1973 और 2014 में विभिन्न क्षेत्रों द्वारा अंतिम ऊर्जा खपत को दर्शाया गया
है। विशेष रूप से ओईसीडी देशों में औद्योगिक ऊर्जा खपत में गिरावट के रुझान तथा
परिवहन और आवासीय ऊर्जा खपत में वृद्धि नज़र आती है। मैन्यूफेक्चरिंग ओईसीडी से
एशिया की ओर चला गया है। 1973 और 2014 में अंतिम ऊर्जा खपत और कुल ऊर्जा आपूर्ति
के अनुपात की ओर ध्यान देना उपयोगी होगा।
1973 में, अंतिम ऊर्जा खपत/ कुल ऊर्जा आपूर्ति = 4661/6101 यानी 76 प्रतिशत थी। 2014
में, अंतिम ऊर्जा खपत/कुल ऊर्जा आपूर्ति = 9424/13,699
यानी 68 प्रतिशत थी।
यह ऊर्जा उपयोग
में बिजली के अधिक इस्तेमाल का संकेत देता है। इसके चलते बिजली के उत्पादन के
दौरान अधिक नुकसान होता है जिसका परिणाम यह होता है कि आपूर्ति की तुलना में अंतिम
उपयोग कम हो जाता है। यह ध्यान देने वाली बात है कि जहां 1973 की तुलना में 2014
में विश्व ऊर्जा की खपत दोगुनी से भी अधिक हो गई, वहीं ओईसीडी की
ऊर्जा खपत में केवल 28 प्रतिशत की वृद्धि हुई । भारत में 1973 और 2014 ऊर्जा
परिदृश्य पर नज़र डालना भी उपयोगी हो सकता है। देखा जा सकता है कि ऊर्जा आपूर्ति
में नाटकीय वृद्धि हुई है और ऊर्जा दक्षता में सुधार हुआ है।
सारांश और टिप्पणियां
विश्व ऊर्जा
आपूर्ति 1973 से 2014 के बीच दोगुनी से भी अधिक हो गई है। तेल उत्पादन केवल 50
प्रतिशत बढ़ा है। यह र्इंधन दक्षता और तेल की जगह अन्य र्इंधन के उपयोग में
उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है। बिजली उत्पादन एवं अन्य उपयोगों के लिए तेल की
जगह कोयले और गैस का उपयोग किया जाने लगा है। तेल का उपयोग मुख्य रूप से परिवहन
क्षेत्र द्वारा किया जा रहा है।
भारत में तेल की मांग में 800 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विश्व में यह वृद्धि 50 प्रतिशत है।
ऊर्जा आपूर्ति दुगनी होने के साथ बिजली उत्पादन में लगभग 4 गुना वृद्धि हुई है। यह एक विद्युत-आधारित विश्व के प्रति रुझान को दर्शाता है। 65 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयला और गैस द्वारा किया जाता है।
ऊर्जा की उत्पादकता (दक्षता) में नाटकीय सुधार हुआ है। विश्व जीडीपी में 17 गुना और ऊर्जा आपूर्ति में मात्र 2.25 गुना वृद्धि हुई है। मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो जीडीपी में वास्तविक वृद्धि इससे 10 गुना अधिक होगी।
भारत ने भी ऊर्जा के सभी रूपों – कोयला, गैस, और बिजली उत्पादन – में प्रभावशाली प्रगति की है। भारत ने ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरचनात्मक परिवर्तन की बदौलत ऊर्जा उत्पादकता में काफी सुधार किया है। सेवा क्षेत्र अब जीडीपी का 50 प्रतिशत से अधिक प्रदान कर रहा है जबकि उद्योगों की भागीदारी 70 प्रतिशत से घटकर 25 प्रतिशत हो गई है।
भारत में ऊर्जा परिदृश्य की दो प्रमुख समस्याएं हैं तेल की बढ़ती मांग और बायोमास के उपयोग की कमतर दक्षता। कच्चे तेल का उपयोग आठ गुना बढ़ गया है। उचित नीतियों से इसे टाला जा सकता था।
तेल की बढ़ती मांग पर अंकुश लगाने के लिए सड़क की जगह रेल परिवहन को तथा निजी वाहनों की जगह सार्वजनिक वाहनों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इन दोनों उपायों की तत्काल आवश्यकता है।
पारंपरिक बायोमास र्इंधन 40 साल पहले 50 प्रतिशत ऊर्जा की आपूर्ति करता था, उसकी तुलना में अभी भी 25 प्रतिशत ऊर्जा इसी से मिलती है। इन र्इंधनों का उपयोग मुख्य रूप से खाना पकाने के लिए किया जाता है। उन्नत चूल्हे उपलब्ध होने के बाद भी खाना पकाने के चूल्हों की दक्षता 8-10 प्रतिशत ही है। एलईडी लैंप और नवीकरणीय ऊर्जा की तर्ज़ पर खाना पकाने के कुशल चूल्हों और सोलर कुकर को बढ़ावा देने के लिए बड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है। ठीक उसी तरह जैसे एक कार्यक्रम के तहत जनवरी 2018 तक 28 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित किए जा चुके थे।
कोयला बिजली उत्पादन के लिए मुख्य ऊर्जा रुाोत बने रहना चाहिए।
हाल में सरकारी कार्यक्रम द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन सही दिशा में एक कदम है। ऊर्जा दक्षता के लिए भी इसी तरह के कार्यक्रमों की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://mpng.pngfly.com/20180821/plp/kisspng-non-renewable-resource-renewable-energy-fossil-fue-free-press-wv-5b7c3057bd1c11.0485077115348654957746.jpg
प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000 घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019 में एक सर्वेक्षण किया था। पिछले आलेखों में सर्वेक्षण के आधार पर विभिन्न कार्यों में ऊर्जा खपत की अलग-अलग चर्चा की गई थी। इस आलेख में ऊर्जा के घरेलू उपयोग के मुद्दों को समग्र रूप में प्रस्तुत किया गया है।
आर्थिक सर्वेक्षण (2018-19) के अनुसार भारत की वार्षिक प्रति
व्यक्ति ऊर्जा खपत 0.6 टन तेल के तुल्य है,
जो वैश्विक औसत का
लगभग एक तिहाई है। इस सर्वेक्षण में आगे बताया गया है कि यदि भारत को मानव विकास
सूचकांक (HDI) को 0.8 तक पहुंचाना है, जो
काफी अधिक माना जाता है, तो ऊर्जा खपत को चार गुना बढ़ाना होगा।
आय में वृद्धि,
शहरीकरण और
टेक्नॉलॉजी में तेज़ी से विकास के चलते आवासीय ऊर्जा उपभोग के स्तर और पैटर्न में
काफी बदलाव आने की उम्मीद है। इसलिए इन उभरते हुए पैटर्न का अध्ययन करना काफी
महत्वपूर्ण है क्योंकि ये न सिर्फ मांग को प्रभावित करेंगे बल्कि बढ़ती मांग की
आपूर्ति हेतु संसाधनों के नियोजन को भी प्रभावित करेंगे। फिलहाल, इस
बात को लेकर जानकारी बहुत कम है कि भारतीय परिवार ऊर्जा का उपयोग कैसे करते हैं।
भारत में राष्ट्रीय स्तर पर आवासीय ऊर्जा
खपत सर्वेक्षण (आरईसीएस) नहीं किया जाता है। ऐसे सर्वेक्षणों से कई देशों को अपने
परिवारों, घरों की विशेषताओं और खपत के पैटर्न को समझने में काफी मदद
मिली है। हमारे यहां जनगणना और उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बंधित नमूना सर्वेक्षण जैसे
राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों के माध्यम से विभिन्न उपकरणों के स्वामित्व और
अलग-अलग कामों के लिए र्इंधन के अंतिम उपयोग का डैटा इकट्ठा किया जाता है। अलबत्ता, इनमें
उपकरणों की दक्षता, प्रकार, आयु और उपयोग की विस्तृत जानकारी एकत्र
नहीं की जाती है और न ही यह पता किया जाता है कि इस मामले में सम्बंधित नीतियों के
प्रति जागरूकता कितनी है और उनका प्रभाव क्या है। यह जानकारी विभिन्न अंतिम
उपयोगों के उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग के पैटर्न का आकलन करने और सरकारी
नीतियों/कार्यक्रमों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करने लिए ज़रूरी है।
प्रयास (ऊर्जा समूह) द्वारा उत्तर प्रदेश
और महाराष्ट्र के 3000 अद्र्ध शहरी और ग्रामीण परिवारों में विस्तृत आवासीय ऊर्जा
खपत सर्वेक्षण के निष्कर्ष कुछ जानकारी व समझ प्रदान करते हैं जो नीतिगत निर्णयों
में सहायक हो सकती है। कुल मिलाकर, सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता है कि
बुनियादी ज़रूरतों के लिए उपयोग की जाने वाली ऊर्जा की मात्रा परिवार की आय, भौगोलिक
स्थिति और आवास के स्थान के आधार पर अलग-अलग होती है। बुनियादी ज़रूरतों में प्रकाश
व्यवस्था, घर को ठंडा रखना, रेफ्रिजरेशन और खाना पकाना शामिल हैं। यह
भी देखा गया कि घरों में ऊर्जा की खपत बिजली आपूर्ति की विश्वसनीयता, उपकरण
की दक्षता और खाना पकाने के लिए स्वच्छ र्इंधन की उपलब्धता से तय होती है।
प्रकाश व्यवस्था बिजली का सबसे बुनियादी
उपयोग है और इस संदर्भ में सकारात्मक बात यह सामने आई है कि उत्तर प्रदेश में 80
प्रतिशत से अधिक और महाराष्ट्र में 60 प्रतिशत घरों में कार्यक्षम एलईडी का उपयोग
किया जाता है। उजाला कार्यक्रम ने प्रकाश उपकरण के बाज़ार में एलईडी के प्रति
जागरूकता बढ़ाकर और इसके बाज़ार मूल्य को नीचे लाकर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हमारे सर्वेक्षण में अधिकतर परिवारों ने एलईडी खरीदने का प्राथमिक कारण उनकी
गुणवत्ता को बताया। इसलिए बाज़ार के इस बदलाव को बनाए रखने के लिए अच्छी गुणवत्ता
वाले एलईडी बल्ब की उपलब्धता सुनिश्चित करने पर ध्यान देने की ज़रूरत है।
घर को ठंडा रखने के लिए छत के पंखे सबसे
अधिक उपयोग किए जाने वाले उपकरण हैं। वैसे,
उत्तर प्रदेश और
महाराष्ट्र में मध्यम और उच्च आय वाले घरों में एयर कूलर और एयर कंडीशनर की
उपस्थिति भी देखी गई है। यह मानकर कि जैसे-जैसे गर्मी बढ़ती जाएगी, घरों
में माहौल को अनुकूल बनाने के उपकरणों की आवश्यकता बढ़ेगी। चूंकि छत के पंखे और एयर
कूलर स्थानीय स्तर पर बनाए और बेचे जाते हैं,
इनके प्रदर्शन का
मूल्यांकन और सुधार करने के लिए विशिष्ट प्रयासों की आवश्यकता होगी।
हालांकि रेफ्रिजरेटर का स्वामित्व काफी
अधिक है, उनका उपयोग खाना पकाने के तरीकों से निर्धारित होता है।
हमारे सर्वेक्षण से पता चलता है कि रेफ्रिजरेटर की उपस्थिति तो काफी अधिक है लेकिन
उनका उपयोग सीमित ही है।
खाना पकाने के लिए ऊर्जा घरों की सबसे
महत्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक है और इस ज़रूरत की आपूर्ति विभिन्न र्इंधनों से
हो रही है। सर्वेक्षण के मुताबिक दोनों राज्यों में 90 प्रतिशत से अधिक सर्वेक्षित
घरों में एलपीजी कनेक्शन हैं। लेकिन विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के कई घरों में
खाना बनाने के लिए आंशिक रूप से या पूर्णत: ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है।
उत्तर प्रदेश के लगभग 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 12 प्रतिशत सर्वेक्षित
घरों में खाना पकाने के लिए आंशिक रूप से या पूरी तरह ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता
है। अधिकांश परिवारों को लगता है कि पूरा खाना पकाने की दृष्टि से एलपीजी काफी
महंगा है। कई परिवारों ने बताया कि उन्हें चूल्हे पर पका खाना पसंद है। खाना पकाने
के लिए ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करके उनकी जगह एलपीजी या अन्य स्वच्छ र्इंधनों
के उपयोग को बढ़ावा देने और उन्हें एकमात्र र्इंधन बनाने हेतु आर्थिक और व्यवहारगत
दोनों तरह के हस्तक्षेपों की आवश्यकता है।
इसके साथ ही,
इन घरों में पानी
गर्म करने के लिए आम तौर पर ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है जो अंदरूनी या
स्थानीय (गांव स्तर के) वायु प्रदूषण का कारण बनता है। उत्तर प्रदेश के लगभग 37
प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में पानी गर्म करने के लिए ठोस
र्इंधन का उपयोग किया जाता है जबकि इन घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग
किया जाता है। बिजली, एलपीजी या सौर वाटर हीटर जैसे विकल्पों को बढ़ावा देने के
लिए हस्तक्षेप करने से पहले सावधानीपूर्वक इनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है।
इस तरह की सूझबूझ से विस्तृत आवासीय ऊर्जा
खपत सर्वेक्षण का महत्व स्पष्ट है। समय-समय पर राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर
ऐसी प्रतिनिधिमूलक जानकारी एकत्र करना भारत में तेज़ी से बदलती ऊर्जा की घरेलू मांग
के प्रबंधन के लिए नीतियों के निर्माण और उनका मूल्यांकन करने के लिए महत्वपूर्ण
है। नवगठित राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय,
जिसमें राष्ट्रीय
नमूना सर्वेक्षण संगठन शामिल है, समय-समय पर इस तरह के व्यापक सर्वेक्षण कर
सकता है, जैसे वह पारिवारिक खर्च,
आवास की स्थिति, स्वास्थ्य
और अन्य मामलों में करता है।
प्रथम दृष्टि में इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि दोनों राज्यों के घरों में लगभग 60 प्रतिशत ऊर्जा खपत खाना पकाने, लगभग 16 प्रतिशत पानी गर्म करने और 9 प्रतिशत घर को ठंडा रखने के लिए खर्च की जाती है। इस बात का विश्लेषण आगे किसी लेख में करेंगे कि ऊर्जा की यह मांग र्इंधन के प्रकार, परिवार की आमदनी और उसके ग्रामीण या शहरी होने के साथ कैसी नज़र आती है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcSeHAQJ58EFuqQBirqPWm9p8MmUVmIXD_x6Afq8xFU63g3kX_-s
प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।
भारत
में वर्तमान ऊर्जा नीति में नहाने के लिए पानी गर्म करने में खर्च होने वाली ऊर्जा
को अनदेखा किया गया है। ठोस र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के उद्देश्य से किए जाने
वाले हस्तक्षेपों का ध्यान मूलत: खाना पकाने पर केंद्रित रहा है। अतीत की नीतियों में सौर
वॉटर हीटरों पर काफी ध्यान दिया गया था, लेकिन
2014 में
सौर वॉटर हीटरों पर सब्सिडी देने वाले एक राष्ट्रीय कार्यक्रम को भी बंद कर दिया
गया। दूसरी ओर, ब्यूरो ऑफ एनर्जी
एफिशिएंसी (बीईई) के पास स्टोरेज
इलेक्ट्रिक वॉटर हीटर के लिए अनिवार्य मानक और लेबलिंग (एस-एंड-एल) कार्यक्रम ज़रूर है। इस आलेख में,
हम सर्वेक्षित घरों में पानी गर्म करने के पैटर्न की चर्चा
करेंगे और यह देखेंगे कि इनका नीतिगत हस्तक्षेपों के लिए क्या निहितार्थ हो सकता
है।
आम
तौर पर, महाराष्ट्र की तुलना
में उत्तर प्रदेश में सर्दियां अधिक ठंडी होती हैं। लेकिन सर्वेक्षित परिवारों में
उत्तर प्रदेश में 34 प्रतिशत
जबकि महाराष्ट्र में 92 प्रतिशत
घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है। इसके अलावा,
उत्तर प्रदेश में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग औसतन साल
में केवल 2 महीने
किया जाता है जबकि महाराष्ट्र में ऐसा 6 महीने किया जाता है। उत्तर प्रदेश में
नहाने के लिए गर्म पानी के कम उपयोग के कई कारक हो सकते हैं। संभवत: आमदनी एक कारण हो
सकता है – जहां
निम्न आय वाले 25 प्रतिशत
घरों में नहाने के लिए गर्म पानी का उपयोग किया जाता है वहीं उच्च आय वाले घरों
में यह आंकड़ा 50 प्रतिशत
है। इसमें कुछ सामाजिक प्रथाओं का भी योगदान है। एक बात यह कही जाती है कि लोग
सर्दियों में नहाने के लिए गुनगुने भूजल का उपयोग करते हैं। हालांकि,
यह संभावना हो सकती है कि जैसे-जैसे आय में वृद्धि होगी और सामाजिक
प्रथाओं में बदलाव आएगा, वैसे-वैसे पानी गर्म करने
के लिए ऊर्जा के उपयोग में भी वृद्धि होगी। इसकी और जांच करने की आवश्यकता है।
जो
परिवार नहाने के लिए पहले से ही गर्म पानी का उपयोग कर रहे हैं वे अलग-अलग र्इंधन का
इस्तेमाल करते हैं। उत्तर प्रदेश के लगभग 35 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 52 प्रतिशत सर्वेक्षित
परिवारों में पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है। दिलचस्प बात
तो यह है कि इनमें से उत्तर प्रदेश के लगभग 37 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 91 प्रतिशत घरों में
पानी गर्म करने के लिए तो ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता है लेकिन खाना बनाने के
लिए एलपीजी का इस्तेमाल होता है। इससे लगता है कि पानी गर्म करने के लिए ठोस र्इंधन
का उपयोग समाप्त करने के लिए सावधानीपूर्वक विकसित कार्यक्रमों की आवश्यकता है।
आंगन में रखे ठोस र्इंधन बायलर या खुली हवा में चूल्हे का उपयोग महाराष्ट्र के
घरों में काफी आम है। इससे अंदरूनी घरेलू प्रदूषण तो नहीं होगा लेकिन यह स्थानीय
प्रदूषण में योगदान अवश्य दे सकता है।
पानी
को गर्म करने के लिए एलपीजी दूसरे नंबर का मुख्य र्इंधन है,
खास तौर पर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में। उत्तर प्रदेश में लगभग
39 प्रतिशत
और महाराष्ट्र में लगभग 33 प्रतिशत
अर्ध-शहरी
सर्वेक्षित परिवारों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है। जिन
घरों में पानी गर्म करने के लिए एलपीजी का उपयोग किया जाता है वहां सिलेंडर की खपत
अन्य परिवारों की तुलना में थोड़ी अधिक होती है। इसके लिए उत्तर प्रदेश में औसतन 2 सिलेंडर और
महाराष्ट्र में 0.7 सिलेंडर
अधिक उपयोग किए जाते हैं। उत्तर प्रदेश में लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 7 प्रतिशत परिवार
एलपीजी इंस्टेंट वॉटर हीटर का उपयोग करते हैं। अन्य परिवार पानी गर्म करने के लिए
एलपीजी स्टोव का उपयोग करते हैं जिसका उपयोग वे खाना पकाने के लिए भी करते हैं।
कुछ
घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग भी किया जाता है – उत्तर प्रदेश में
लगभग 19 प्रतिशत
और महाराष्ट्र के 8 प्रतिशत
घरों में पानी गर्म करने के लिए बिजली का उपयोग होता है। उत्तर प्रदेश के 92 प्रतिशत और
महाराष्ट्र के 82 प्रतिशत
ऐसे घरों में पानी गर्म करने के लिए इमर्शन रॉड का उपयोग किया जाता है। इसकी वजह
से बिजली के झटके और आग जैसी दुर्घटनाओं का खतरा बना रहता है।
सौर
वॉटर हीटर का उपयोग दोनों ही राज्यों में न के बराबर है। पानी गर्म करने के लिए एक
ही घर में अलग-अलग
र्इंधनों का उपयोग नहीं किया जाता जैसे खाना पकाने के लिए किया जाता है।
यदि
पानी गर्म करके उपयोग किया जाता है तो कुल घरेलू ऊर्जा खपत में इसका काफी योगदान
रहता है। ठोस र्इंधन के आम उपयोग के परिणामस्वरूप अंदरूनी और स्थानीय वायु प्रदूषण
होता है जिससे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। खाना पकाने के लिए ठोस
र्इंधन के उपयोग को खत्म करने के लिए जिस ढंग के हस्तक्षेप किए गए हैं,
वे शायद इस मामले में कारगर न रहें। बिजली,
एलपीजी और सौर वॉटर हीटर जैसे विकल्पों को अपनाने का आग्रह
करने से पहले उनका सावधानीपूर्वक मूल्यांकन करना होगा।
अगले आलेख में हम अपने सर्वेक्षण के नतीजों और प्रत्येक कार्य में कुल उर्जा खपत के योगदान का आकलन करके इस शृंखला का समापन करेंगे।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn%3AANd9GcQmpOPc1HEOFfUuVYtP9p08wclX-whISg_HKjwMDdWHp2KB1O1T
प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।
भारत खाना पकाना घर की सबसे बुनियादी उर्जा ज़रूरतों में से एक है। वर्ष 2011 में, भारत में लगभग 70 प्रतिशत घरों में खाना पकाने के लिए ठोस र्इंधन का उपयोग किया जाता था। एक अनुमान के मुताबिक 2015 में ठोस ईंधन के उपयोग से घरों में अंदरूनी वायु प्रदूषण के कारण लगभग 1 लाख लोगों की मृत्यु हुई जिसमें अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे।
ठोस ईंधन के उपयोग को कम करने के लिए सब्सिडी वाले निर्धूम चूल्हों से लेकर एलपीजी कनेक्शन देने तक कई कदम उठाए गए हैं। सबसे हालिया कार्यक्रम प्रधानमंत्री उज्जवला योजना के तहत 2016 से 2019 के बीच गरीब परिवारों को 8 करोड़ मुफ्त एलपीजी कनेक्शन प्रदान किए जा चुके हैं।
हमारे सर्वेक्षण के निष्कर्षों से पता चलता
है कि दोनों राज्यों में एलपीजी का स्वामित्व काफी अधिक है। उत्तर प्रदेश में लगभग
91 प्रतिशत और महाराष्ट्र में लगभग 96 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में एलपीजी कनेक्शन मौजूद हैं। उत्तर प्रदेश की तुलना
में महाराष्ट्र के घरों में काफी लंबे समय से एलपीजी का उपयोग किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश के लगभग 19 प्रतिशत और महाराष्ट्र के मात्र 2 प्रतिशत सर्वेक्षित
परिवारों ने 2016 में उज्ज्वला कार्यक्रम शुरू होने के बाद एलपीजी कनेक्शन लिए
हैं। इसलिए, हमारे सर्वेक्षण में उज्ज्वला लाभार्थियों का हिस्सा काफी
कम है।
दोनों राज्यों में खाना पकाने के लिए
एलपीजी का वास्तविक उपयोग भी काफी अधिक दिखा। उत्तर प्रदेश में लगभग 67 प्रतिशत और
महाराष्ट्र में 95 प्रतिशत परिवार अधिकांश खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग करते
हैं। यह विशेष रूप से उत्तर प्रदेश के लिए काफी सराहनीय परिवर्तन है जहां एलपीजी
कनेक्शन अपेक्षाकृत हाल ही में लगे हैं।
बहरहाल, ठोस ईंधन का उपयोग पूरी तरह से बंद नहीं हुआ है। कई अध्ययनों से पता चला है कि ज़्यादातर घरों में कई तरह के ईंधन का उपयोग किया जा रहा है। कारण यह है कि एलपीजी सिलेंडर महंगे हैं और आसानी से उपलब्ध नहीं होते। यह हमारे सर्वेक्षण में भी देखा गया है। उत्तर प्रदेश के 45 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 12 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में अभी भी खाना पकाने या उसके कुछ भाग के लिए ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। उत्तर प्रदेश में ठोस ईंधन का उपयोग करने वाले लगभग 82 प्रतिशत घरों में एलपीजी कनेक्शन मौजूद हैं। कम आय वाले घरों में 41 प्रतिशत ऐसे परिवार हैं जहां एलपीजी कनेक्शन होने के बाद भी खाना पकाने के लिए अधिकतर ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। शेष 24 प्रतिशत खाना पकाने के लिए केवल ठोस र्इंधन का उपयोग करते हैं। उत्तर प्रदेश के अन्य आय वर्ग के परिवार एलपीजी का उच्च उपयोग करने लगे हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों के मध्य और उच्च आय वर्ग के 80-90 प्रतिशत परिवार अधिकांश खाना एलपीजी पर पकाते हैं। महाराष्ट्र में भी स्थिति लगभग ऐसी ही है जहां सभी आय वर्गों और अर्ध-शहरी/ग्रामीण क्षेत्रों के 90 प्रतिशत से अधिक परिवार अधिकांश खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं।
एलपीजी सिलेंडर रीफिल करवाने की संख्या खाना पकाने के लिए एलपीजी के उपयोग का एक और संकेतक है। उत्तर प्रदेश में, यह संख्या इस बात पर निर्भर करती है कि परिवार सिर्फ एलपीजी का उपयोग करता है या एलपीजी और किसी अन्य ईंधन का मिला-जुला उपयोग करता है और इस बात पर भी निर्भर करती है कि परिवार ग्रामीण है या अर्ध-शहरी। खाना पकाने के लिए मात्र एलपीजी का उपयोग करने वाले परिवार औसतन साल भर में 9 बार सिलेंडर रीफिल कराते हैं। रीफिल करने की यह संख्या उन परिवारों की तुलना में दोगुनी है जो एलपीजी कनेक्शन होने के बाद भी अधिकांश खाना ठोस ईंधन पर पकाते हैं। अर्ध-शहरी क्षेत्रों के परिवार ग्रामीण परिवारों की तुलना में सालाना एक सिलेंडर अधिक उपयोग करते हैं। यह संख्या महाराष्ट्र में भी लगभग ऐसी ही है जहां ग्रामीण और अर्ध-शहरी दोनों तरह के परिवार औसतन हर साल 9 बार सिलेंडर रीफिल करवाते हैं (रेंज 7 से 9.5 के बीच है)।
यहां दो बिंदुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता
है। पहला, उत्तर प्रदेश के परिवार (प्रति परिवार 6.9 व्यक्ति)
महाराष्ट्र के परिवारों (प्रति परिवार 4.7 व्यक्ति) की तुलना में काफी बड़े हैं।
दूसरा, जहां महाराष्ट्र में 31 प्रतिशत परिवार नहाने का पानी गर्म
करने के लिए एलपीजी का उपयोग करते हैं वहीं उत्तर प्रदेश में यह संख्या 13 प्रतिशत
है। अगली कड़ी में हम पानी गर्म करने से सम्बंधित मुद्दों पर चर्चा करेंगे। एलपीजी
की वास्तविक आवश्यकता और खाना पकाने के लिए इसके उपयोग पर इन कारकों के असर की
जांच ज़रूरी है।
हमने परिवारों से यह भी पूछा कि वे ठोस ईंधन का उपयोग जारी क्यों रखे हुए हैं। दोनों राज्यों में बिना एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों की संख्या 10 प्रतिशत से कम है। ये मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों के निम्न आय वाले परिवार हैं। इनमें से आधे परिवारों ने एलपीजी के महंगे होने का कारण बताया तो शेष आधों ने एलपीजी गैस की अनुपलब्धता की बात कही। उत्तर प्रदेश के 70 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 67 प्रतिशत बिना एलपीजी कनेक्शन वाले परिवारों ने उज्ज्वला कार्यक्रम के बारे में सुना है।
एलपीजी कनेक्शन वाले ऐसे परिवार जो खाना पकाने के लिए इसका अधिक उपयोग नहीं करते उनका कारण कुछ अलग ही है। इनमें से अधिकतर परिवार उत्तर प्रदेश के हैं। इनमें से लगभग 55 प्रतिशत परिवारों को खाना पकाने के लिए एलपीजी का उपयोग काफी महंगा लगता है। एलपीजी के उपयोग को महंगा बताने वाले लगभग 60 प्रतिशत परिवारों को सब्सिडी कभी नहीं या कभी-कभार मिली है। कुल मिलाकर, उत्तर प्रदेश के 54 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 85 प्रतिशत सर्वेक्षित परिवारों को नियमित रूप से सब्सिडी प्राप्त हो रही है। इसके अलावा एलपीजी महंगा बताने वाले 60 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं जिन्हें ठोस ईंधन मुफ्त में प्राप्त हो जाता है। इससे एलपीजी के महंगे होने की धारणा और मज़बूत होती है। इसके अलावा, एलपीजी कनेक्शन वाले 20 प्रतिशत परिवारों, जो ठोस र्इंधन का भी उपयोग करते हैं, ने महंगेपन और उपलब्धता के अलावा अन्य कारण बताए। सबसे आम कारण चूल्हे पर पके खाने का स्वाद पसंद होना है।
दोनों राज्यों में एलपीजी कनेक्शन का उच्च स्वामित्व खाना पकाने के लिए ठोस ईंधन के उपयोग को खत्म करने की क्षमता रखता है, जिसके परिणामस्वरूप ठोस र्इंधन से स्वास्थ्य पर होने वाले प्रतिकूल प्रभाव भी कम होंगे। यह काफी उत्साहजनक है कि भले ही उत्तर प्रदेश के 60 प्रतिशत से अधिक परिवारों को 2010 के बाद एलपीजी कनेक्शन मिला हो, लेकिन ग्रामीण निम्न आय परिवारों को छोड़कर इन घरों में एलपीजी का उपयोग काफी अधिक है। फिर भी, इन घरों में एलपीजी के निरंतर उपयोग और उसे एकमात्र र्इंधन बनाने के लिए हस्तक्षेप की आवश्यकता है। चूंकि अधिकांश परिवारों में महंगा होने के कारण एलपीजी का उपयोग नहीं किया जा रहा है, इसलिए सब्सिडी की राशि और उसके वितरण को और अधिक प्रभावी बनाने की ज़रूरत है। एलपीजी को अपनाने में जेंडर, व्यवहार और सांस्कृतिक बाधाओं को संबोधित करने की भी आवश्यकता है। हो सकता है कि एलपीजी सभी घरों के लिए पसंदीदा या उपयुक्त विकल्प न हो, ऐसे में बिजली, बायोगैस और प्राकृतिक गैस जैसे अन्य स्वच्छ र्इंधनों का उपयोग किया जा सकता है। इनका उपयोग न के बराबर देखा गया। इनको अपनाने के लिए कार्यक्रम विकसित किए जा सकते हैं। हालांकि, महाराष्ट्र में अधिकांश घरों में खाना पकाने के लिए एलपीजी अपनाया गया है, फिर भी पानी गर्म करने के लिए ठोस ईंधन का उपयोग जारी है जिससे स्थानीय स्तर पर वायु प्रदूषण हो रहा है। अगले लेख में इस पर और चर्चा की जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i2.wp.com/eguruchela.com/chemistry/images/sfule.jpg https://1.imimg.com/data/K/X/MY-1098653/domestic-cylinder_10526803_250x250.jpg
बचपन में आपने अपने सिर पर गुब्बारा रगड़कर बाल खड़े करने या
उसे दीवार पर चिपकाने वाला खेल ज़रूर खेला या देखा होगा। ये करतब स्थिर विद्युत की
वजह से होते हैं। हालांकि, स्थिर विद्युत से मनुष्य काफी प्राचीन समय
से ही परिचित थे, फिर भी आज तक वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए थे कि कुछ
सामग्रियों को रगड़ने से कैसे विद्युत आवेश उत्पन्न होता है।
किसी बिजली के तार में विद्युत धारा
प्रवाहित होने के विपरीत, स्थिर विद्युत एक जगह पर स्थिर रहती है। इस
प्रकार की बिजली को ट्राइबोइलेक्ट्रिसिटी कहा जाता है। यह आम तौर पर उन रबड़ या
प्लास्टिक जैसी सामग्रियों में टिकी रह जाती है जो विद्युत के चालक नहीं हैं। ऐसे
कुचालक पदार्थ आपस में रगड़े जाने पर स्थिर आवेश जमा कर लेते हैं। यह आवेश दो
प्रकार का होता है। समान आवेश वाली वस्तुएं एक-दूसरे को परे धकेलती है जबकि असमान
आवेश होने पर वस्तुएं एक-दूसरे को आकर्षित करती हैं।
ताज़ा अध्ययन में शोधकर्ता दरअसल एक अन्य
विद्युत परिघटना फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी को समझने की कोशिश कर रहे थे।
फ्लेक्सोइलेक्ट्रिसिटी एक ऐसी परिघटना है जिसमें किसी सामग्री को नैनोस्तर पर
निरंतर लेकिन बेतरतीब ढंग मोड़ने या झुकाने पर विद्युत क्षेत्र उत्पन्न होता है।
जैसे आप प्लास्टिक के कंघे के दांतों पर अपनी उंगली चलाएं। शोधकर्ताओं को लगा कि
शायद इस आधार पर स्थिर विद्युत की व्याख्या हो सकती है।
बहुत सूक्ष्म स्तर पर देखें, तो
चिकनी नज़र आने वाली वस्तुएं भी खुरदरी होती हैं। फिजिकल रिव्यू लेटर्स में
प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने पाया कि दो वस्तुओं को आपस में रगड़ने
से उनकी सतह पर उपस्थित छोटे-छोटे उभार मुड़ते या झुकते हैं। तब फ्लेक्सोइलेक्ट्रिक
प्रभाव के कारण स्थिर विद्युत जमा होने लगती है। इस व्याख्या से यह भी मालूम चला
कि एक ही पदार्थ से बनी दो कुचालक को आपस में रगड़ने से भी वोल्टेज क्यों उत्पन्न
होता है। इससे पहले वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि स्थिर विद्युत जमा होने के लिए
दोनों पदार्थों में कुछ कुदरती अंतर होना चाहिए। इसलिए एक ही पदार्थ की वस्तुओं को
आपस में रगड़ने पर स्थित विद्युत पैदा होने की बात चक्कर में डालने वाली लगती थी।
इससे यह भी मालूम चला कि प्लास्टिक स्थिर विद्युत उत्पन्न करने में विशेष रूप से अच्छा काम करते हैं। इस व्याख्या से इंजीनियरों को ऐसी सामग्री तैयार करने में मदद मिल सकती है जिससे स्थिर विद्युत का अधिक उत्पादन करके उन उपकरणों में उपयोग किया जा सकेगा जिन्हें पहना जाता है। रिफाइनरी जैसी जगहों में भी सुरक्षा में सुधार करने में भी यह मददगार सिद्ध हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
प्रयास (ऊर्जा समूह) ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के 3000घरों में बिजली के अंतिम उपयोग के पैटर्न को समझने के लिए फरवरी-मार्च 2019में एक सर्वेक्षण किया था। यहां उस सर्वेक्षण के आधार पर प्रकाश व्यवस्था के बदलते परिदृश्य की चर्चा की गई है। इस शृंखला में आगे बिजली के अन्य उपयोगों पर चर्चा की जाएगी।
प्रकाश और वातानुकूलन के बुनियादी उपयोगों के अलावा, लोग
परिश्रम से बचने और जीवन शैली में सुधार के लिए बिजली का उपयोग कई अन्य उपकरणों के
लिए भी करते हैं। परिवारों की आय बढ़ने के साथ उपकरणों का उपयोग भी बढ़ता है जिससे
बिजली की खपत में काफी वृद्धि होती है। यहां हम कुछ सर्वेक्षित घरों में इन
उपकरणों के उपयोग के तरीकों पर चर्चा करेंगे।
रसोई उपकरण
रेफ्रिजरेटर रसोई का सबसे आम उपकरण है।
रेफ्रिजरेटर दो प्रकार के होते हैं: फ्रॉस्ट-फ्री और डायरेक्ट-कूल। डायरेक्ट-कूल
रेफ्रिजरेटरों की तुलना में फ्रॉस्ट-फ्री रेफ्रिजरेटर आम तौर पर आकार में बड़े व
महंगे होते हैं तथा बिजली की खपत भी अधिक करते हैं और इनमें मैनुअल डीफ्रॉस्टिंग
की आवश्यकता नहीं होती है। भारत में सालाना 1 करोड़ रेफ्रिजरेटर बेचे जाते हैं
जिनमें एक बड़ी संख्या डायरेक्ट-कूल रेफ्रिजरेटर की होती है। दोनों प्रकार के
रेफ्रिजरेटर के लिए मानक और लेबलिंग (एस-एंड-एल) कार्यक्रम अनिवार्य है। अर्थात
कोई भी रेफ्रिजरेटर स्टार लेबल के बिना बाज़ार में बेचा नहीं जा सकता है।
उत्तर प्रदेश के 51 प्रतिशत और महाराष्ट्र
के 55 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में रेफ्रिजरेटर हैं। दोनों राज्यों में उच्च आय
वाले घरों में 90 प्रतिशत से अधिक और निम्न आय वाले घरों में लगभग 10 प्रतिशत
परिवारों के पास रेफ्रिजरेटर हैं। इनमें से उत्तर प्रदेश के लगभग 96 प्रतिशत और
महाराष्ट्र के 89 प्रतिशत घरों में रेफ्रिजरेटर डायरेक्ट-कूल किस्म के हैं। इससे
पता चलता है कि फ्रॉस्ट-फ्री रेफ्रिजरेटर केवल शहरी और बड़े मेट्रो शहरों तक ही
सीमित है।
रेफ्रिजरेटर वाले लगभग 50 प्रतिशत परिवारों
को या तो स्टार रेटिंग के बारे में कोई जानकारी नहीं है या वे बिना स्टार रेटेड
रेफ्रिजरेटर का उपयोग कर रहे हैं। डायरेक्ट-कूल रेफ्रिजरेटर के लिए एस-एंड-एल
कार्यक्रम चार साल पहले, वर्ष 2015 में ही अनिवार्य किया गया था।
सर्वेक्षण में पाया गया कि दोनों राज्यों में रेफ्रिजरेटर की औसत आयु लगभग 7 वर्ष
है। इससे इस बात की व्याख्या हो जाती है कि इतनी बड़ी संख्या में उपकरण गैर स्टार
रेटेड क्यों हैं। ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (बीईई) एस-एंड-एल कार्यक्रम को शुरू
करने के बाद समय-समय पर स्टार रेटिंग का संशोधन करता रहा है लेकिन कंपनियां नए
4-स्टार और 5-स्टार मॉडल पेश करने में काफी धीमी रही हैं। यह बात सर्वेक्षण के
नतीजों में भी झलकती है – उत्तर प्रदेश के लगभग 31 प्रतिशत और महाराष्ट्र के 37
प्रतिशत घरों में ही ऊर्जा-कुशल चार और पांच स्टार मॉडल उपयोग किए जा रहे हैं।
हमने यह भी देखा कि उत्तर प्रदेश में सभी
आय श्रेणियों के 80 प्रतिशत सर्वेक्षित घरों में रेफ्रिजरेटर को सर्दियों के मौसम
में बंद कर दिया जाता है। यह आंकड़ा महाराष्ट्र में 24 प्रतिशत है। इसके अलावा, उत्तर
प्रदेश में लगभग 30 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 26 प्रतिशत घरों में हर दिन कुछ
घंटों के लिए रेफ्रिजरेटर बंद किए जाते हैं। हो सकता है रेफ्रिजरेटर के उपयोग को
सीमित करके परिवार अपना बिजली का बिल कम करने की कोशिश कर रहे हैं। एक अन्य कारण
खाना पकाने की सामाजिक प्रथाएं भी हो सकती हैं,
जैसे ताज़ा चीज़ें
खरीदना और भोजन के समय से ठीक पहले खाना पकाना। यह रेफ्रिजरेटर को निरर्थक बना
देता है। उत्तर प्रदेश में कुछ सुनी-सुनाई बातों से पता चलता है कि अर्ध-शहरी और
ग्रामीण क्षेत्रों में रेफ्रिजरेटर का उपयोग मात्र ग्रीष्मकाल में पानी/पेय
पदार्थों को ठंडा करने के लिए किया जाता है। भारत की आवासीय बिजली खपत और
एस-एंड-एल कार्यक्रम से बचत का अनुमान लगाते समय इस व्यवहार को भी ध्यान में रखना
आवश्यक है अन्यथा यह हो सकता है कि ज़रूरत से अधिक खपत या बचत का अनुमान लगा लिया
जाए।
मिक्सर-ब्लेंडर एक और रसोई उपकरण है जो, खासकर
महाराष्ट्र में, काफी अधिक घरों में होता है। महाराष्ट्र के लगभग 60 प्रतिशत
परिवार सप्ताह में कम से कम एक बार मिक्सर ब्लेंडर का उपयोग करते हैं जबकि उत्तर
प्रदेश में मात्र 20 प्रतिशत परिवार सप्ताह में एक बार इसका उपयोग करते हैं।
हालांकि घर की कुल बिजली खपत में इसका योगदान काफी कम है,
क्योंकि इसका उपयोग
प्रति दिन केवल कुछ मिनटों के लिए किया जाता है,
लेकिन यह हाथ से
पीसने के कठोर परिश्रम को कम करता है। मिक्सर-ब्लेंडर का स्वामित्व और उपयोग
रेफ्रिजरेटर के समान पकाने की प्रथाओं पर निर्भर कर सकता है।
टेलीविज़न व अन्य उपकरण
भारत एक बड़ा टेलीविज़न बाज़ार है जहां वर्ष
2018 में लगभग 1 करोड़ टीवी की बिक्री हुई। इसमें एक बड़ा हिस्सा एलसीडी/एलईडी टीवी
का था। उत्तर प्रदेश में लगभग 82 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 95 प्रतिशत सर्वेक्षित
परिवारों के पास टीवी है। दिलचस्प बात यह है कि दोनों राज्यों में लगभग 65 प्रतिशत
टेलीविज़न कैथोड रे ट्यूब (सीआरटी) प्रकार के हैं। इससे पता चलता है कि या तो ये
टीवी पुराने हैं और एलईडी टीवी की कीमतों में गिरावट से पहले खरीदे गए थे या फिर
एक ऐसा सेकंड-हैंड बाज़ार मौजूद है जहां सीआरटी टीवी एलईडी की तुलना में काफी कम
कीमत पर बेचे जाते हैं। एलईडी टीवी सीआरटी की तुलना में अधिक ऊर्जा-क्षम हैं।
इसलिए सीआरटी टीवी की मौजूदगी का असर कुल ऊर्जा-दक्षता पर हो सकता है। टीवी के लिए
अनिवार्य एस-एंड-एल कार्यक्रम है। हालांकि,
उत्तर प्रदेश के लगभग
86 प्रतिशत और महाराष्ट्र के लगभग 81 प्रतिशत परिवारों को स्टार रेटिंग कार्यक्रम
के बारे में कोई जानकारी नहीं है। बीईई के अनुसार,
अगर रोज़ाना 6 घंटे
टीवी देखें तो 5-स्टार रेटिंग वाला 29 इंच का टीवी 1-स्टार रेटिंग टीवी की तुलना
में 30 प्रतिशत कम बिजली खर्च करता है। उत्तर प्रदेश में रोज़ 5 घंटे और महाराष्ट्र
में 4 घंटे टीवी देखा जाता है।
दोनों राज्यों में स्मार्ट फ़ोन का
स्वामित्व काफी अधिक है: उत्तर प्रदेश में 64 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 98
प्रतिशत। दोनों राज्यों में प्रति परिवार लगभग 2 स्मार्टफोन हैं। दिलचस्प बात यह
है कि उत्तर प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत परिवारों ने बताया कि वे विभिन्न किस्म के
मीडिया (जैसे टीवी, समाचार या फिल्में) देखने के लिए स्मार्टफोन का उपयोग करते
हैं, जबकि महाराष्ट्र में यह संख्या केवल 2 प्रतिशत थी। हालांकि, स्मार्ट
फोन का परिवार की बिजली खपत पर सीधा प्रभाव तो कम है लेकिन यह बिजली और ऊर्जा के
उपयोग को अलग-अलग तरह से प्रभावित करता है। मीडिया के लिए स्मार्ट फोन का बढ़ता
उपयोग भविष्य में टीवी के उपयोग को प्रभावित कर सकता है। स्मार्टफोन का उच्च
स्वामित्व वितरण कंपनियों, उपकरण निर्माताओं और अन्य प्रौद्योगिकी
प्रदाताओं को सेवाएं मुहैया कराने में मदद कर सकता है जो घरों में ऊर्जा उपयोग के
तरीकों को बदल सकता है।
परिवार के स्तर का पानी का पंप भी काफी अधिक उपयोग किया जाने वाला उपकरण है, खासकर उत्तर प्रदेश में। उत्तर प्रदेश में 28 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 6 प्रतिशत परिवार सप्ताह में कम से कम एक बार पानी के पंप का उपयोग करते हैं – औसतन आधे या एक घंटे प्रतिदिन। आम तौर पर ये पंप 1 हॉर्सपावर (746 वॉट) की खपत करते हैं। पानी के पंप का दैनिक उपयोग, बिजली की खपत में काफी इज़ाफा कर सकता है। बीईई के एस-एंड-एल कार्यक्रम में पंप शामिल नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ichef.bbci.co.uk/news/624/media/images/80531000/jpg/_80531285_sanjoyimg_1527.jpg