गर्मी से राहत पाने के लिए हम अपने कमरे या अपने आसपास की जगह को ठंडा करने का जो तरीका अपनाते हैं, उससे हम उन चीजों को भी ठंडा कर देते हैं जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत नहीं होती। किसी कमरे में मौजूद चीज़ों की ऊष्मा धारिता, जिन्हें एयर कंडीशनर (एसी) ठंडा कर देता है, लोगों की ठंडक की ज़रूरत की तुलना में कई गुना अधिक होती है।
हाल ही में ETH इंस्टीट्यूट के सिंगापुर परिसर के एरिक टिटेलबौम और उनके दल ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में ‘विकिरण शीतलन’ (रेडिएटिव कूलिंग) पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है। इस तकनीक में शरीर की गर्मी बाहर निकलेगी और शरीर ठंडा तो होगा लेकिन आसपास की चीज़ों को ठंडा करने में ऊर्जा ज़ाया नहीं होगी।
जिस तरह हम किसी वस्तु पर रंगीन रोशनी तो डाल सकते हैं, लेकिन हम उस पर ‘अंधेरा’ नहीं डाल सकते, उसी तरह गर्म वस्तुएं अपनी गर्मी तो बाहर छोड़ती या बिखेरती हैं, लेकिन ठंडी चीज़ें अपनी ‘ठंडक’ बाहर छोड़ती या फैलाती नहीं हैं। लेकिन ठंडी चीज़ें जितनी ऊष्मा उत्सर्जित करती हैं उसकी तुलना में अधिक ऊष्मा अवशोषित करती हैं। और ठंडी चीज़ों की मौजूदगी गर्म चीजों को अपनी ऊष्मा खोने और ठंडी होने में मदद करती है – तो सवाल सिर्फ उन चीज़ों को शीतल करने का है जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत है।
आम तौर पर हम गर्मी के मौसम में लोगों को ठंडक देने के लिए जिस तरीके का उपयोग करते हैं, वह है एयर कंडीशनिंग या वातानुकूलन। इसमें कमरों में ठंडी हवा छोड़ी जाती है। और सर्दियों में लोगों को गर्माहट देने के लिए हम ‘रेडिएटर्स’ या गर्म वस्तुओं का उपयोग करते हैं, जो कमरे की हवा को गर्म कर देते हैं, हालांकि लोग सीधे भी इन रेडिएटर्स की गर्मी को महसूस कर सकते हैं।
ठंडा करने के लिए एकमात्र व्यावहारिक तरीका है कि हवा को शीतलक से गुज़ार कर ठंडा किया जाए, और फिर इस ठंडी हवा को कमरे में फैलाया जाए (सिर्फ पंखे का उपयोग करें तो उसकी हवा से शरीर का पसीना वाष्पित होकर थोड़ी ठंडक महसूस कराता है)। इस तरह ठंडे किए जा रहे कमरे में लोग ठंडक या आराम महसूस करने लगें उसके पहले ठंडी हवा को दीवारों, फर्नीचर और फर्श को ठंडा करना पड़ता है।
मानव शरीर का तापमान लगभग 37 डिग्री सेल्सियस रहता है। चूंकि आसपास का परिवेश आम तौर पर अपेक्षाकृत ठंडा होता है, तो शरीर के भीतर ऊष्मा उत्पादन और बाहर ऊष्मा ह्रास के बीच संतुलन रहता है। यह ऊष्मा ह्रास मुख्य रूप से विकिरण के माध्यम से होता है; इस प्रक्रिया में गर्म शरीर परिवेश से अवशोषित ऊष्मा की तुलना में अधिक ऊष्मा बिखेरता है। कुछ ऊष्मा ह्रास हवा के संपर्क से भी होता है, लेकिन इस तरह से बहुत ज़्यादा ऊष्मा बाहर नहीं जाती है, क्योंकि हवा की ऊष्मा धारिता कम होती है।
समस्या तब शुरू होती है जब गर्मी के दिनों में बाहर का परिवेश शरीर की तुलना में गर्म हो जाता है, और शरीर पर्याप्त ऊष्मा नहीं बिखेर पाता। एकमात्र तरीका होता है कि पसीना आए जिसके वाष्पीकरण के माध्यम से शरीर की गर्मी बाहर निकल सके, लेकिन आसपास का परिवेश उमस (नमी) भरा हो तो पसीना आना कारगर नहीं होता है बल्कि बेचैनी बढ़ जाती है क्योंकि पसीने का वाष्पीकरण नहीं हो पाता।
प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ताओं ने जिस तरीके का उपयोग किया है उसमें उन्होंने कमरे में एक विशेष रूप से निर्मित पर्याप्त ‘ठंडी’ सतह लगाई है जो मानव शरीर द्वारा उत्सर्जित ऊष्मा को अवशोषित तो करेगी लेकिन उसे पर्यावरण में वापस नहीं छोड़ेगी – यानी यह एकतरफा रास्ते (वन-वे) की तरह काम करेगी।
तो सवाल है कि कोई भी ठंडी सतह यह काम क्यों नहीं कर सकती? इसलिए कि कमरे की कोई भी साधारण सतह या चीज़ आसपास बहती गर्म हवा के संपर्क में आकर जल्दी गर्म हो जाएगी। इसके अलावा, हवा में मौजूद नमी ठंडी सतह पर संघनित हो जाएगी। और संघनन की प्रक्रिया से अत्यधिक ऊष्मा मुक्त होती है। वातानुकूलन के मामले में, दरअसल, कमरे में प्रवाहित हो रही हवा को सुखाने में जितनी ऊर्जा लगती है, वह ऊर्जा उस हवा को ठंडा करने में लगने वाली ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जो व्यवस्था बनाई है वह इन दोनों प्रभावों को ध्यान रखती है और ठंडी सतह को केवल उस पर पड़ने वाले विकिरण द्वारा ऊष्मा सोखने देती है।
शोधकर्ताओं द्वारा बनाई गई यह व्यवस्था धातु की चादर लगी एक दीवार थी जिसे ठंडे किए गए पानी की मदद से 17 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। इस व्यवस्था को उन्होंने सिंगापुर में एक तंबू को ठंडा करने में आज़माया, जिसका तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस था। आम तौर पर, हवा (संवहन द्वारा) धातु की चादर को गर्म कर देती है। लेकिन यहां ऐसा न हो इसलिए इस व्यवस्था में एक कम घनत्व वाली पॉलीएथलीन झिल्ली को इंसुलेटर के रूप में धातु की चादर के ऊपर लगाया गया था। अध्ययन के अनुसार, “…हम ऊष्मा स्थानांतरण के इस अवांछित संवहन को हटा पाए”। बहरहाल, यह झिल्ली विकिरण ऊष्मा के लिए पारदर्शी थी, और तंबू में मौजूद लोगों के गर्म शरीर का ऊष्मा विकिरण इससे गुज़र सकता था ताकि उसे अंदर की ठंडी सतह सोख सके।
हवा से संपर्क वाली सतह को इन्सुलेशन झिल्ली ने अधिक ठंडा होने से बचाए रखा जिसकी वजह से संघनन नहीं हो पाया। परीक्षणों में देखा गया कि 66.5 प्रतिशत आर्द्रता होने पर भी 23.7 डिग्री सेल्सियस (जिस तापमान पर संघनन शुरू होता है) पर भी दीवार की सतह पर कोई संघनन नहीं हुआ था। अध्ययन के अनुसार, दीवार के अंदर से गुज़रता ठंडा पानी संघनन तापमान से भी कम, 12.7 डिग्री सेल्सियस, तक भी ठंडा रखा जा सकता है।
मानव आराम के बारे में क्या? सिंगापुर में 8 से 27 जनवरी के दौरान, जब वहां गर्मी का मौसम पड़ता है, 55 लोगों के साथ यह देखा गया कि उन्होंने कैसी ठंडक महसूस की। 55 लोगों में से 37 लोगों ने तंबू में तब प्रवेश किया था जब शीतलन प्रणाली चालू थी, और बाकी 18 लोगों ने तब प्रवेश किया जब शीतलन प्रणाली बंद थी। जिस समूह ने शीतलन प्रणाली चालू रहते प्रवेश किया था, उन्होंने 79 प्रतिशत दफे तंबू में तापमान ‘संतोषजनक’ बताया। यह देखा गया कि वहां मौजूद गर्म वस्तुओं ने अपनी गर्मी अवशोषक दीवार को दे दी थी। और सबसे गर्म ‘वस्तुएं’ मनुष्य थे और उन्होंने ही सबसे अधिक ऊष्मा गंवाई। हालांकि, हवा (या तंबू) का तापमान बमुश्किल ही कम हुआ था, 31 डिग्री सेल्सियस से घटकर यह सिर्फ 30 डिग्री सेल्सियस हुआ था। इस अंतिम अवलोकन से पता चलता है कि हवा को ठंडा करने में बहुत कम ऊर्जा खर्च हो रही थी, जबकि पारंपरिक शीतलन प्रणालियों में तापमान घटाने के लिए मुख्य वाहक हवा ही होती है।
इस तरह इस अध्ययन में प्रस्तुत यह तकनीक एयर कंडीशनर की जगह बखूबी ले सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक से ऊर्जा की खपत में 50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है, सिर्फ ऊष्मा सोखने वाली दीवारों तक ठंडे पानी को पहुंचाने में ऊर्जा लगेगी। यह इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि विश्व की कुल ऊर्जा खपत में से एयर कंडीशनिंग की ऊर्जा एक बड़ा हिस्सा है और इसके बढ़ने की संभावना है। नई प्रणाली का एक अन्य लाभ यह है कि ठंडे किए जा रहे स्थान खुली खिड़की वाले, हवादार भी हो सकते हैं। एयर कंडीशनिंग में, किफायत के लिहाज से यह मांग होती है कि अधिकांश ठंडी हवा को पुन: कमरे में घुमाया जाता रहे। तब ऑफिस में यदि कोई व्यक्ति सर्दी-ज़ुकाम (या ऐसे ही किसी संक्रमण) से पीड़ित हो तो पूरी संभावना है कि वह बाकियों को भी अपना संक्रमण दे देगा।
विकिरण शीतलन (रेडिएंट कूलिंग) की तकनीक काम करती है क्योंकि मानव शरीर से निकलने वाली ऊष्मा आसपास की हवा द्वारा नहीं सोखी जाती है जिसे वापिस मुक्त कर दिया जाए; वह तो ठंडी सतह तक पहुंच सकती है। वैसे, धरती के पैमाने पर देखें तो वायुमंडल ऊष्मा को पृथ्वी से बाहर नहीं निकलने देता है, यही कारण है कि रात में पृथ्वी बहुत ठंडी नहीं होती है (और इसलिए वायुमंडल में परिवर्तन वैश्विक तापमान बढ़ने का कारण बन रहे हैं)। हालांकि, 8-13 माइक्रोमीटर तरंग दैर्घ्य के लिए हमारा वायुमंडल ऊष्मा के लिए पारदर्शी है। इस परास की तरंग दैर्घ्य वाला ऊष्मा विकिरण वायुमंडल से बाहर सीधे अंतरिक्ष में जाता है। इस तथ्य का फायदा उठाने के लिए वस्तुओं को ऐसी फिल्म या शीट से ढंका जाता है जो वस्तुओं से निकलने वाली गर्मी को वांछित रेंज की तरंग दैर्घ्य में परिवर्तित कर दें। नतीजा यह होता है कि धूप में रखी जाने पर ये वस्तुएं रेडिएटिव कूलिंग के माध्यम से परिवेश की तुलना में 4-5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी हो सकती हैं। यह तकनीक ‘ग्रीन’ कोल्ड स्टोरेज और सौर ऊर्जा पैनल, जो गर्म होने पर कम कुशल हो जाते हैं, के लिए उपयोगी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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आज पूरी दुनिया ऊर्जा संकट के दौर से गुजर रही है। परंपरागत ऊर्जा स्रोत और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को लेकर समय-समय पर विश्व स्तर पर ज़रूरी नियम बनाए जाते रहते हैं और उनका पालन कराने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास भी होता रहता है। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण खबर आई है कि अब रेलवे पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाकर सौर ऊर्जा उत्पन्न करने की तैयारी की जा रही है ताकि बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सके और इस परियोजना को पूरे विश्व में लागू किया जा सके। इस नवोन्मेषी परियोजना का संचालन स्विट्ज़रलैण्ड की कंपनी सन-वेज़ द्वारा किया जा रहा है। कंपनी ने एक ऐसा डिवाइस तैयार किया है जिसके माध्यम से पटरियों के बीच निश्चित आकार के सोलर पैनल लगाने का काम किया जाएगा। पटरियों के बीच की चौड़ाई के हिसाब से एक मीटर चौड़े पैनल को पिस्टन तंत्र का उपयोग कर लगाया जाएगा।
कंपनी का दावा है कि पैनल को पटरियों के बीच लगाने से रेल गाड़ियों के संचालन में भी किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी। इनमें विशेष प्रकार के एंटी-रिफ्लेक्शन फिल्टर का प्रयोग होगा ताकि ट्रेन चलाने वाले ड्राइवरों को पैनल के रिफ्लेक्शन की वजह से किसी प्रकार की परेशानी न हो।
वर्तमान में स्विटज़रलैण्ड के बट्स रेलवे स्टेशन की पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाए जा रहे हैं। इसकी सफलता के बाद, स्विट्ज़रलैण्ड के कुल 5317 किलोमीटर लंबे रेलवे नेटवर्क में इसे बिछाने की योजना है। कंपनी का अनुमान है कि इन सोलर पैनलों के द्वारा वार्षिक तौर पर 1 टेरावॉट प्रति घंटा सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकेगी और स्विट्ज़रलैण्ड की वार्षिक ऊर्जा खपत का 2 प्रतिशत उत्पन्न किया जा सकेगा।
आवश्यकता होने पर सोलर पैनल को वापस बिना किसी असुविधा के निकाला जा सकेगा।
सन-वेज़ कंपनी ने आगामी सालों में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली, अमेरिका और एशियाई देशों में परियोजना को संचालित करने का लक्ष्य रखा है। भारत सहित जिन देशों में बड़े स्तर पर रेलवे नेटवर्क हैं, उनके लिए यह परियोजना बहुत फायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि अब तक रेलवे ट्रैक के बीच खाली पड़ी जगह का कोई उपयोग नहीं हो रहा था। इस परियोजना की सफलता के बाद सौर ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर सकारात्मक परिवर्तन आने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)
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वर्ष 2023-24 के बजट में अर्थव्यवस्था को हरित-ऊर्जा की ओर ले जाने के संकेत हैं। इसके लिए सरकार ने 350 अरब रुपए के निवेश का प्रस्ताव रखा है। जलवायु नीति वैज्ञानिकों ने सरकार के इस निर्णय का स्वागत करते हुए दीर्घावधि प्रतिबद्धता की ज़रूरत भी बताई है।
गौरतलब है कि विश्व के तीसरे सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक के रूप में भारत ने 2021 के ग्लासगो सम्मेलन में 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया था। लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं था कि इस लक्ष्य को हासिल कैसे किया जाएगा। हालिया बजट वैश्विक तापमान कम करने के प्रति भारत की गंभीरता दर्शाता है।
बैंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के जलवायु वैज्ञानिक जयरामन श्रीनिवासन का कहना है कि कोयला, तेल और गैस से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्थानांतरण के लिए दशकों तक सुसंगत नीति की ज़रूरत होगी। कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार सरकार का यह कदम भारत में भविष्य के शोध की दिशा को भी निर्धारित करेगा।
1 फरवरी को बजट प्रस्तुत करते हुए वित्त मंत्री ने बताया कि सरकार ऊर्जा, कृषि व विनिर्माण सहित कई उद्योगों में डीकार्बनीकरण के कार्यक्रम लागू कर रही है। बजट में भारत को हरित हाइड्रोजन के उत्पादन और निर्यात का वैश्विक केंद्र बनाने के लिए 19.7 अरब रुपए का निवेश प्रस्तवित है। इसका प्रमुख उद्देश्य भविष्य में सीमेंट और इस्पात उत्पादन जैसे कार्बन-बहुल उद्योगों में जीवाश्म ईंधन की बजाय हरित हाइड्रोजन का उपयोग बढ़ाना है। इसके लिए नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय को 10.22 अरब रुपए की राशि आवंटित की गई है, जो पिछले बजट की तुलना में 48 प्रतिशत अधिक है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन और उसके प्रभावों को कम करने सम्बंधी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का संचालन करने वाले पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय के आवंटन में खास वृद्धि नहीं की गई है और वह 30 अरब रुपए के आसपास ही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में हरित हाइड्रोजन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए नीति निर्माण, उद्योग और शोध के बीच तालमेल आवश्यक है। और साथ ही अक्षय ऊर्जा के अन्य स्रोतों का लाभ उठाने के लिए ऊर्जा-भंडारण की क्षमता बढ़ाना भी ज़रूरी है। सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोत चौबीसों घंटे या पूरे साल उपलब्ध नहीं होते। इसलिए इनकी ऊर्जा के भंडारण पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।
गौरतलब है कि भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव काफी अधिक दिख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन सम्बंधी प्रथम राष्ट्रीय मूल्यांकन में पता चला था कि 1901 से 2018 के बीच औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार 2022 में पर्यावरण सम्बंधी कोई न कोई चरम घटना लगभग रोज़ाना दर्ज हुई है। भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं सबसे अधिक देखी गई हैं। पानी की कमी की संभावना तो है ही। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में यूएन जलवायु परिवर्तन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) उन 26 देशों में से हैं जिन्होंने पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 सम्मेलन में लिए गए संकल्पों के अनुरूप अपने जलवायु लक्ष्यों को अपडेट किया है। मिस्र ने बिजली उत्पादन, परिवहन और तेल एवं गैस से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में और अधिक कटौती करने का वादा किया है। अलबत्ता, इस पर अमल अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता पर निर्भर है। इसी तरह यूएई ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 31 प्रतिशतत तक की कमी करने का संकल्प लिया है जो पूर्व में किए गए 23.5 प्रतिशत के वादे से काफी अधिक है। गौरतलब है कि इस वर्ष कॉप-27 तथा अगले वर्ष कॉप-28 इन्हीं दो देशों में आयोजित किए जाएंगे।
पिछले एक वर्ष में विभिन्न देशों के संकल्पों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2030 तक उत्सर्जन का स्तर वर्ष 2010 की तुलना में 10.6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। पिछले वर्ष की रिपोर्ट में यह अनुमान 13.7 प्रतिशत वृद्धि का था। लेकिन इतनी कमी भी सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं।
गौरतलब है कि पूर्व में सऊदी अरब ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों का निरंतर विरोध किया है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य तेल-समृद्ध देश भी इन प्रयासों को टालते रहे हैं। 1995 में सऊदी अरब के प्रतिनिधियों ने उस रिपोर्ट पर भी शंका ज़ाहिर की थी जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
लेकिन पिछले एक दशक में मध्य-पूर्व के देशों ने अक्षय प्रौद्योगिकियों को अपनाते हुए पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित किया है। सऊदी अरब और अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देश जलवायु परिवर्तन की वस्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तेल से होने वाली आमदनी पर निर्भर राष्ट्रों का यह कदम दर्शाता है कि भविष्य में जीवाश्म ईंधन की मांग में अनुमानित कमी के मद्देनज़र वे अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने तथा घरेलू ज़रूरतों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन को निर्यात हेतु बचाने की ओर बढ़ रहे हैं। मसलन, यूएई ने 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन करने का संकल्प लिया है।
खाड़ी के अन्य देशों में भी प्रयास चल रहे हैं। सऊदी अरब और उसके पड़ोसी बहरीन ने 2060 के लिए नेट-ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसी तरह गैस-समृद्ध कतर ने भी 2030 तक अपने उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती करने का संकल्प लिया है। इस्राइल और तुर्की ने भी 2050 के दशक के मध्य तक नेट-ज़ीरो हासिल करने की घोषणा की है। पिछले साल सऊदी अरब के नेतृत्व में मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव ने मध्य पूर्वी क्षेत्र में तेल और गैस उद्योग से कार्बन उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य घोषित किया है। यह उद्योग दुनिया में मीथेन के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है।
अक्षय ऊर्जा का उदय
वर्तमान में इस मामले में जानकारी काफी कम है कि ये देश जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को कैसे हासिल करेंगे। एक तथ्य यह है कि यूएई और सऊदी अरब दोनों ने कार्बन-न्यूट्रल शहरों के निर्माण या उनके विस्तार में भारी निवेश किया है।
न्यूयॉर्क स्थित ऊर्जा परामर्श कंपनी ब्लूमबर्ग के अनुसार, पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में नवीकरणीय ऊर्जा में सात गुना की वृद्धि हुई है। जो एक बड़ा परिवर्तन है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बिजली उत्पादन में अक्षय उर्जा का हिस्सा 28 प्रतिशत है जबकि इस क्षेत्र में मात्र 4 प्रतिशत है।
विशेषज्ञों के अनुसार निकट भविष्य में इस क्षेत्र के राष्ट्र जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मुख्य रूप से सौर, पवन और पनबिजली में निवेश करेंगे। आबू धाबी ऊर्जा विभाग के अनुसार वर्ष 2021 में कुल ऊर्जा में अक्षय और परमाणु ऊर्जा का हिस्सा 13 प्रतिशत था जो 2025 में 54 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने की संभावना है। दुनिया के सबसे बड़े सौर संयंत्रों में से एक (1650 मेगावॉट) मिस्र में है, वहीं इस वर्ष के अंत तक कतर 800-मेगावॉट सौर साइट खोलने की योजना बना रहा है। खाड़ी देशों में सौर विकिरण की भरपूर उपलब्धता के चलते यहां नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन की लागत काफी कम है।
इसके साथ ही सऊदी अरब और यूएई हरित हाइड्रोजन उद्योग में निवेश करने की भी योजना बना रहे हैं।
भविष्य में मध्य पूर्व के राष्ट्रों की नज़र कार्बन-कैप्चर पर भी है। इसके अलावा, मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव में 50 अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य शामिल है। इस परियोजना से 20 करोड़ हैक्टर क्षेत्र को बहाल किया जाएगा। विशेषज्ञों के अनुसार 38 प्रतिशत तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन प्राकृतवासों की क्षति के कारण हुआ है।
जीवाश्म ईंधन में निवेश जारी
ये सारे प्रयास एक तरफ, लेकिन मध्य पूर्व के देश तेल और गैस की खोज में निवेश जारी रखे हुए हैं। गौरतलब है कि निर्यात किए गए उत्सर्जन को किसी देश के नेट-ज़ीरो लक्ष्य के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है। वैसे खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्थाएं आज तेल पर कम निर्भर हैं। विश्व बैंक के अनुसार, 2010 में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में जीडीपी का 22.1 प्रतिशत हिस्सा तेल से आता था जो 2020 तक 11.7 प्रतिशत रह गया। फिर भी यह आंकड़ा वैश्विक औसत (1 प्रतिशत) से काफी अधिक है।
गौरतलब है कि ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 के दौरान सऊदी अरब उन देशों में से था, जिन्होंने जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के सुझाव को कमज़ोर करने का प्रयास किया था। विशेषज्ञों की मानें तो भविष्य में जीवाश्म-ईंधन की खोज को रोकना एक महत्वपूर्ण प्रयास हो सकता है लेकिन अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के रास्ते पर बढ़ते हुए यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो तेल और गैस उत्पादन में कोई नया निवेश नहीं होना चाहिए।
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अभी जीवाश्म ईंधन उन देशों के लिए आवश्यक है जिनके पास ऊर्जा के नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है और इसके लिए तेल-निर्यातक राष्ट्रों को दंडित करना उचित नहीं है। फिर भी सऊदी अरब और अन्य मध्य पूर्वी राष्ट्रों की पर्यावरण रणनीति में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। (स्रोत फीचर्स)
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हालिया चुनावों में मुफ्त बिजली का मुद्दा काफी चर्चा में रहा। विभिन्न राजनीतिक दलों ने मुफ्त बिजली की एक से बढ़कर एक योजनाओं का वादा किया। घरेलू उपयोग के लिए 300 युनिट प्रति माह मुफ्त बिजली से लेकर कृषि क्षेत्र के लिए मुफ्त बिजली और लंबित बिलों को माफ करने के वादे किए गए। यहां हम विभिन्न दलों द्वारा किए गए वादों की तुलना करने के बजाय इनसे होने वाले लाभ और हानि पर चर्चा कर रहे हैं।
कृषि क्षेत्र के लिए मुफ्त बिजली: पहले ही एक समस्या है
घरेलू उपभोक्ताओं को एक निर्धारित खपत सीमा के भीतर मुफ्त बिजली प्रदाय के मुद्दे पर जाने से पहले हम कृषि क्षेत्र में बिजली सब्सिडी पर चर्चा करेंगे। सब्सिडी के दम पर अधिकांश राज्यों में कृषि उपयोग के लिए बिजली शुल्क 1 रुपए/युनिट से भी कम है जबकि पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में यह बिलकुल मुफ्त है। हालांकि यह खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका के नज़रिए से महत्वपूर्ण है लेकिन मुफ्त बिजली के कई प्रतिकूल प्रभाव भी हैं। इसके कारण बिजली और पानी का अकुशल उपयोग और वितरण कंपनियों की लापरवाही के कारण बार-बार बिजली गुल और मोटर जलने की समस्या तो होती ही है, राज्य सरकारों पर लगातार अत्यधिक सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता रहता है। देश के लगभग तीन चौथाई कृषि कनेक्शन बिना मीटर के हैं जिसके चलते वितरण कंपनियां खपत के अनुमानों को अक्सर बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करती हैं ताकि सब्सिडी की मांग बढ़ा सकें और वितरण घाटे को कम करके बता सकें। गौरतलब है कि मीटरिंग करने के प्रयासों को हमेशा विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि ऐसा मान लिया जाता है कि यह शुल्क वसूलने की दिशा में पहला कदम है। पिछले 15 वर्षों का अनुभव बताता है कि एक बार मुफ्त बिजली देने के बाद इसे देने के निर्णय को रद्द करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और सामान्यत: अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को शामिल करने के लिए इस सुविधा को जारी ही रखा जाता है। स्वेच्छा से सब्सिडी छोड़ने (ऑप्ट-आउट विकल्प) की योजनाओं द्वारा सब्सिडी खत्म करने के काफी प्रयास किए गए हैं लेकिन कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। मुफ्त बिजली के प्रावधान और मीटरिंग के मुद्दे मिलकर प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के कार्यान्वयन को मुश्किल बना देते हैं। इन सभी चुनौतियों के मद्देनज़र कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति एक जटिल समस्या बन गई है। इसमें शामिल सभी लोग, वे चाहे किसान हों या वितरण कंपनियां या फिर सरकारें, सभी काफी निराश हैं और उनका एक-दूसरे पर से भरोसा उठ गया है।
घरेलू उपयोग के लिए मुफ्त बिजली की समस्या
बिजली आपूर्ति की बढ़ती लागत को देखते हुए छोटे उपभोक्ताओं को रियायती दरों पर बिजली प्रदान करना आवश्यक है। वर्तमान लागत लगभग 7-8 रुपए प्रति युनिट है (सालाना 6 प्रतिशत बढ़ रही है), जो कम आय वाले परिवारों के लिए वहन कर पाना संभव नहीं है। आर्थिक मंदी और महामारी ने तो स्थिति को बदतर बना दिया है। लेकिन देखा जाए तो कम आय वाले घरों में प्रकाश उपकरण, पंखे, मोबाइल चार्जिंग और टीवी जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए 50 युनिट प्रति माह की आवश्यकता होती है जो रेफ्रिजरेटर होने पर बढ़कर 100 युनिट प्रति माह तक हो जाती है। ऐसे उपभोक्ताओं के लिए कम शुल्क योजना (जैसे आपूर्ति की लागत का आधा) को उचित ठहराया जा सकता है। यदि एयर-कंडीशनर जैसे उच्च खपत वाले उपकरण हों तो मासिक खपत 200 से 300 युनिट होती है। दिल्ली और पंजाब में तो प्रति माह 200 युनिट बिजली मुफ्त में प्रदान की ही जा रही है।
गौरतलब है कि दिल्ली में मुफ्त बिजली प्रदान करने के कारण राज्य की कुल सब्सिडी बढ़कर लगभग 2820 करोड़ रुपए प्रति वर्ष हो गई है। यह राज्य सरकार के कुल खर्च का 11 प्रतिशत है। इसी तरह, पंजाब में कुछ परिवारों को मुफ्त बिजली दी जाती है व यहां कुल सब्सिडी का 18 प्रतिशत हिस्सा मुफ्त बिजली के लिए निर्धारित किया गया है। तमिलनाडु की कुल सब्सिडी में से लगभग आधी आवासीय बिजली आपूर्ति के लिए निर्धारित की गई है जबकि उत्तर प्रदेश में यह लगभग 90 प्रतिशत है।
यदि मुफ्त बिजली प्राप्त करने वाले आवासीय उपभोक्ताओं की संख्या और खपत सीमा में वृद्धि होती है तो यकीनन राज्य सरकारों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा। घरों में मीटरिंग और बिलिंग के मुद्दे तो पहले से ही हैं। मुफ्त बिजली के साथ ये समस्याएं और बढ़ सकती हैं क्योंकि संभावना है कि वितरण कंपनियां कम राजस्व वाले उपभोक्ताओं की समस्याओं पर कम ध्यान देंगी। छतों पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाना और ऊर्जा दक्षता बढ़ाना अच्छे पर्यावरण अनुकूल विकल्प हो सकते हैं लेकिन उच्च आय वाले परिवारों को मुफ्त बिजली मिली तो वे इन विकल्पों का उपयोग शायद न करें। लगता है कि कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति की जानी-पहचानी त्रासदी अब यहां भी देखने को मिलेगी जिसमें अंतत: सबसे अधिक नुकसान गरीब उपभोक्ताओं और आम लोगों का ही होगा।
मुफ्त बिजली: एक अल्पकालिक राहत
जीवन स्तर में सुधार और उत्पादक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए अच्छी बिजली आपूर्ति और सेवा आवश्यक है। इसके लिए ज़रूरी है कि वितरण कंपनियां वित्तीय रूप से सुदृढ़ हों तथा सभी उपभोक्ताओं (विशेष रूप से छोटे और ग्रामीण) के लिए गुणवत्तापूर्ण सेवा सम्बंधी जवाबदेही के उपाय मौजूद हों। मुफ्त या कम शुल्क वाली बिजली अधिक से अधिक एक अल्पकालिक राहत है जो उन लोगों को प्रदान की जानी चाहिए जिनको इसकी सख्त ज़रूरत है। जिस सरकार को लोगों के दीर्घकालिक हितों की चिंता है उसे मुफ्त बिजली लाभार्थियों की संख्या को सीमित करने के प्रयास करने चाहिए। कुछ विचार इसमें सहायक हो सकते हैं।
आवासीय उपभोक्ताओं को बिल में प्रति माह 200 रुपए की फिक्स्ड छूट प्रदान की जानी चाहिए। बड़े उपभोक्ताओं की तुलना में छोटे उपभोक्ताओं पर इसका प्रभाव काफी महत्वपूर्ण होगा। चूंकि छूट को खपत से अलग कर दिया जाएगा, इसलिए वितरण कंपनियों को खपत को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का कोई लालच नहीं रहेगा। इस तरह की छूट घरेलू उद्योगों को भी दी जा सकती है जो अधिकांश राज्यों में बड़े व्यावसायिक उपभोक्ताओं के बराबर उच्च शुल्क चुका रहे हैं। इसके साथ ही ऊर्जा कुशल पंखे या रेफ्रिजरेटर अपनाने के लिए अतिरिक्त छूट दी जा सकती है और इनकी लागत को कम करने के लिए राज्य स्तरीय थोक खरीद कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।
छोटे उपभोक्ताओं और वितरण कंपनियों के बीच आपसी अविश्वास के माहौल को बदलना होगा। इसके लिए मामलों का तुरंत समाधान और एकमुश्त निपटान होना चाहिए। यदि कोई बिल पिछले बिलों की तुलना में तीन गुना से अधिक है तो वितरण कंपनियों को शिकायत की प्रतीक्षा किए बिना समाधान करना चाहिए।
दुर्भाग्य से घरों में मुफ्त बिजली जैसे वादे चुनावों पर हावी हो जाते हैं। लेकिन क्या यह सचमुच गरीबों के हित में है क्योंकि इन वादों को पूरा करने से बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता बिगड़ती है और बिजली क्षेत्र की वित्तीय हालत और डांवाडोल हो जाती है। इसकी कीमत अंतत: हितग्राहियों को ही चुकानी पड़ेगी। हम उम्मीद करते हैं कि आम जनता ऐसे वादों पर सवाल उठाएगी जिनको निभाना संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.energy.gov/sites/default/files/2021-09/energysaver_green_4.png
भारत के ऊर्जा संरक्षण अधिनियम को 20 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरक्षण को संभव बनाना था। इसके तहत ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) को केंद्रीय एजेंसी के रूप में स्थापित किया गया था। तब से कुछ कार्यक्रम और नियम लागू किए गए हैं। इनमें से कई कार्यक्रम सफल रहे हैं लेकिन ऊर्जा दक्षता की सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है।
इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि भारत में ऊर्जा दक्षता उपायों को अपनाने से वर्ष 2040 तक ऊर्जा की मांग को 30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। बॉटम-अप एनर्जी मॉडलिंग पर आधारित हमारे अपने विश्लेषण से पता चलता है कि उपकरणों के उपयोग में कुछ मामूली परिवर्तन से 2030 तक आवासीय बिजली की मांग को 25 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।
इस बचत से भारत में जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ उपभोक्ताओं के बिजली बिल को कम किया जा सकता है और ऊर्जा सुरक्षा सुदृढ़ की जा सकती है। इससे नवीकरणीय ऊर्जा को भी बढ़ावा मिल सकता है।
लेकिन भारत में ऊर्जा परिवर्तन सम्बंधी नीतिगत चर्चाओं में ऊर्जा दक्षता का विषय अभी तक हाशिए पर ही रहा है। यहां तक कि ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के कुछ प्रावधानों को तो अभी तक लागू भी नहीं किया गया है। वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनज़र इस अधिनियम में आमूल परिवर्तनों की आवश्यकता है लेकिन इसमें अभी तक मामूली कामकाजी संशोधन ही किए गए हैं। धन की भी कमी रही है। वर्ष 2021-22 में विद्युत मंत्रालय, भारत सरकार के लिए निर्धारित 15,000 करोड़ के वार्षिक बजट में से केवल 200 करोड़ रुपए ऊर्जा दक्षता योजनाओं के लिए आवंटित किए गए। तुलना के लिए देखें कि नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) का वार्षिक बजट 5000 करोड़ रुपए है। तो सवाल है कि भारत के ऊर्जा दक्षता के प्रयासों में किस प्रकार की बाधाएं हैं और इनसे कैसे निपटा जा सकता है?
बाज़ार में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों के मार्ग में कई बाधाएं होती हैं: जैसे शुरुआती ऊंची लागत, जागरूकता की कमी, उद्योग स्तर पर उन्नयन के लिए सीमित वित्तीय विकल्प वगैरह। इन बाधाओं को दूर करने के लिए ऊर्जा दक्षता के क्षेत्र में कई नीतिगत हस्तक्षेप किए गए हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित ही रहा है। इसके मुख्यत: चार कारण रहे हैं।
पहला, बहुत कम संसाधन होने के बावजूद बीईई बहुत सारे काम करने के प्रयास करता रहा। इसके कारण प्रमुख कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन बाधित होते रहे और कई पायलट स्तर कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर नहीं ले जाया जा सका। उदाहरण के लिए, बीईई का एक प्रमुख कार्यक्रम मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम है जिसके तहत उपकरणों के लिए न्यूनतम ऊर्जा दक्षता मानक और तुलनात्मक ऊर्जा प्रदर्शन निर्धारित किए जाते हैं। इसमें 28 उपकरणों को शामिल किया गया है। इसके साथ ही एक बाज़ार-आधारित व्यवस्था है – प्रदर्शन, उपलब्धि और खरीद-फरोख्त (पीएटी) योजना जिसके तहत उद्योग अपने ऊर्जा बचत प्रमाण पत्रों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं। इसके तहत 13 क्षेत्रों के 1073 उपभोक्ताओं को शामिल किया गया है। इन योजनाओं में मानकों के निर्धारण, उनके नियमित रूप से संशोधन और अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण आंतरिक तकनीकी विशेषज्ञता, बाज़ार की स्थिति की निगरानी और प्रत्येक क्षेत्र/उपकरण की जांच की आवश्यकता होती है। ऐसे में सीमित संसाधनों के कारण इन कार्यक्रमों में कम-महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारण, मानकों के संशोधन में विलंब और परीक्षण प्रक्रियाओं के कमज़ोर क्रियांवयन जैसी कई दिक्कतें आती हैं जिससे उनकी प्रभाविता कम हो जाती है।
दूसरा, अघोषित रूप से यह माना गया कि बाज़ार में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों की ओर परिवर्तन के लिए थोक खरीद एक जादू की छड़ी है जिसमें प्रत्यक्ष वित्तीय प्रलोभन की आवश्यकता भी नहीं होती। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज़ लिमिटेड (ईईएसएल) ने इस मॉडल का बहुत अच्छी तरह से उपयोग करते हुए अत्यधिक ऊर्जाक्षम एलईडी लाइटिंग के माध्यम से बाज़ार को तेज़ी से परिवर्तित किया। हालांकि, यह मॉडल अन्य उपकरणों के लिए वैसी ही सफलता हासिल नहीं कर पाया। लेकिन अभी भी ऊर्जा कुशल उपकरणों के लिए कोई वित्तीय प्रोत्साहन कार्यक्रम नहीं है और न ही इनके लिए कर में कोई रियायत दी गई है। इसके साथ ही बीईई के अति कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत निर्माण की बढ़ती लागतों की पूर्ति के लिए निर्माताओं को समयबद्ध वित्तीय प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव पिछले पांच वर्षों से धूल खा रहा है। जबकि इसी दौरान इलेक्ट्रिक वाहनों और सोलर रूफटॉप पैनलों को केंद्र सरकार के साथ-साथ कुछ राज्य सरकारों से भी सब्सिडी प्राप्त हो रही है। ऊर्जा दक्षता योजनाओं के सम्बंध में राज्य और स्थानीय सरकारों की भागीदारी काफी कम रही है।
तीसरा, ऊर्जा दक्षता परियोजनाओं का संचालन करने वाली ऊर्जा सेवा कंपनियों (ईएससीओ) के लिए बाज़ार अभी भी प्रारंभिक चरण में है। वर्तमान में बीईई द्वारा केवल 150 ईएससीओ को सूचीबद्ध किया गया है और वर्तमान में 1.5 लाख करोड़ बाज़ार के केवल 5 प्रतिशत भाग का ही दोहन हो पाया है। हालांकि, बीईई ने क्षमता निर्माण, आंशिक जोखिम गारंटी योजना जैसे कई कदम उठाए लेकिन ये सभी प्रयास छोटे स्तर पर किए गए जिनका कोई संचयी प्रभाव देखने को नहीं मिला। ईईएसएल को एक सुपर ईएससीओ के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव था ताकि एक मज़बूत ऊर्जा सेवा बाज़ार विकसित करने के लिए अनुकूल माहौल बन सके, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।
चौथा, ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने में ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं की भूमिका न्यूनतम रही है। बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की आमदनी उनकी बिक्री से जुड़ी है, जिसके चलते, ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों को लागू करने का कोई प्रलोभन नहीं है। इसके अलावा, अक्षय ऊर्जा की अनिवार्य खरीद सम्बंधी कोई नियामक आदेश भी जारी नहीं किया गया है। ऐसे में भले ही सभी राज्यों ने मांग पक्ष प्रबंधन (डीएसएम) नियम अधिसूचित किए हों और कई बिजली वितरण कंपनियों ने भी मांग पक्ष प्रबंधन प्रकोष्ठ स्थापित कर दिए हों, लेकिन कार्यक्रमों पर होने वाला कुल खर्च और इसके नतीजे में होने वाली बचत डिस्कॉम की वार्षिक बिक्री का एक छोटा अंश भर है।
आगे बढ़ते हुए, भारत को तत्काल प्रभाव से ऊर्जा दक्षता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। शुरुआत के तौर पर, क्षेत्रवार महत्वाकांक्षी ऊर्जा दक्षता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। लक्ष्य उपयोगी होते हैं, जिससे नीतिगत कार्यवाही के साथ-साथ सभी स्तरों पर निवेश को प्रोत्साहन मिल सकता है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में समय-समय पर लक्ष्य में संशोधन इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन ऊर्जा दक्षता के लाभ सौर पैनल की तरह नज़र नहीं आते। इसलिए ज़रूरी है कि सभी लक्ष्य स्पष्ट तरीके और पर्याप्त डैटा के आधार पर मापन योग्य हों। ज़ाहिर है, केवल लक्ष्य निर्धारित करने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक केंद्रीय एजेंसी के तौर पर बीईई की भूमिका मज़बूत करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही बीईई के बजट आवंटन में वृद्धि की भी आवश्यकता है। बीईई इस राशि का उपयोग क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित करने के लिए कर सकता है ताकि अपने विभिन्न कार्यक्रमों के लिए राज्य सरकारों और एजेंसियों के साथ बेहतर समन्वय बना सके। इसके अलावा बीईई लंबे समय से लंबित कार्यक्रमों, जैसे एसईईपी का संचालन भी शुरू कर पाएगा और कई अन्य परियोजनाओं को बड़े पैमाने पर ले जा पाएगा।
इसके साथ ही जागरूकता बढ़ाने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। कई सर्वेक्षणों से पता चला है कि बीईई के प्रयासों के बावजूद स्टार लेबल्स की जागरूकता सीमित ही है; खास तौर से छोटे उपकरणों को लेकर और ग्रामीण क्षेत्रों में। अंत में, अनुपालन सुनिश्चित करने और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए बीईई इस धन का उपयोग अपने परीक्षण तंत्र को मज़बूत करने के लिए भी कर सकता है।
बीईई से आगे जाकर, ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं द्वारा ऊर्जा दक्षता को संभव बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए अभिनव व्यवसाय और नियामक मॉडल की आवश्यकता होगी। नीतिगत संकेतों, बजटीय आवंटन में वृद्धि और अनुदान के साथ-साथ सस्ते वित्तपोषण के रूप में वित्तीय सहायता कमज़ोर ईएससीओ उद्योग को बढ़ावा दे सकता है। इसका गुणात्मक प्रभाव ठीक उसी तरह होगा जैसा इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय ऊर्जा में देखा जा रहा है।
ऊर्जा संरक्षण अधिनियम उपरोक्त सुझावों को शामिल करने का अच्छा स्थान हो सकता है। यदि अधिनियम में तत्काल कोई परिवर्तन नहीं किए गए तो हम ऊर्जा दक्षता का सिर्फ दिखावा करते रहेंगे और भारत में उपलब्ध ऊर्जा के सबसे स्वच्छ और सस्ते स्रोत को बर्बाद करते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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केले के सूखे छिलकों में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है। हाइड्रोजन से बिजली बनाकर इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में किया जा सकता है…
साल 1985 की एक विज्ञान फंतासी फिल्म बैक टू दी फ्यूचर में, एक अतिउत्साही आविष्कारक अपनी कार को प्लूटोनियम से चलने वाली टाइम मशीन में बदल लेता है, और अतीत और भविष्य की यात्रा करता है। अपनी इस कार में बैठकर वह वर्ष 2015 में पहुंचता है और अपनी गाड़ी के इंजन को इस तरह अपडेट कर लेता है कि किसी भी तरह का पदार्थ भरने पर वह ऊर्जा पैदा कर सके – यहां तक कि ‘टैंक’ में एक-दो गाजर ठूंसने पर भी।
खैर, 2015 बीत गया है और इस तरह की किसी भी ईंधन से चलने वाली (फ्यूज़न) गाड़ियों की संभावना अभी भी साकार होती नज़र नहीं आ रही है। अलबत्ता, हमने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (जैसे गाजर या संभवत: केले के छिलकों) से स्वच्छ ऊर्जा पैदा करने के नए और बेहतर तरीकों की उम्मीद नहीं छोड़ी है।
वास्तव में केमिकल साइंस में इस वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लॉज़ेन स्थित स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के एक शोध दल ने केले से ऊर्जा प्राप्त करने में सफलता हासिल कर ली है।
उन्होंने केले के छिलके, संतरे के छिलके, नारियल की नट्टी जैसे जैव-पदार्थों के विघटन के लिए ज़ीनॉन लैंप के प्रकाश का उपयोग किया है।
लेकिन इस नवाचारी तरीके पर बात करने से पहले थोड़ी बात इस पर कर लेते हैं कि ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन इतनी आकर्षक क्यों है। अत्यधिक ऊर्जा को बहुत कम जगह में भंडारित करके रखना एक मुख्य आवश्यकता है, और हाइड्रोजन की ऊर्जा भंडारण क्षमता बहुत अच्छी है। ईंधन को उनके ऊर्जा मूल्य (जिसे ताप मूल्य भी कहा जाता है) के हिसाब से श्रेणीबद्ध करने में निर्णायक तत्व कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन होते हैं। हाइड्रोजन का ऊर्जा मूल्य कार्बन से सात गुना अधिक है।
लकड़ी को जलाने पर, ऊष्मा उत्पन्न करने वाली अभिक्रिया में, कार्बन और हाइड्रोजन ऑक्सीकृत हो जाते हैं, और अंतिम उत्पाद कार्बन डाईऑक्साइड और पानी होते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है।
हाइड्रोजन जलाने पर हमें केवल पानी और ऊष्मा मिलती है। हाइड्रोजन से ऊर्जा प्राप्त करने का एक बेहतर तरीका होगा इससे बिजली बनाना। इसके लिए एक प्रोटॉन एक्सचेंज मेम्ब्रेन ईंधन सेल का उपयोग किया जाता है। इस सेल में किसी धातु उत्प्रेरक की उपस्थिति में हाइड्रोजन के अणुओं को प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन में तोड़ा जाता है, और इलेक्ट्रॉन विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं।
वाहनों में
कुछ जगहों पर अब इस तरह के ईंधन सेल कुछ छोटे यात्री वाहनों को चलाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं। इलेक्ट्रिक कारों के विपरीत, हाइड्रोजन चालित कारों में ईंधन भरने में महज पांच मिनट लगते हैं। व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हाइड्रोजन चालित कारों के ईंधन टैंक में 5-6 किलोग्राम संपीड़ित हाइड्रोजन भरी जा सकती है। और प्रत्येक किलोग्राम हाइड्रोजन से गाड़ी लगभग 100 किलोमीटर चलती है (और नौ लीटर पानी उत्सर्जित होता है, ज़्यादातर भाप के रूप में)।
ईंधन के रूप में हाइड्रोजन की सीमित लोकप्रियता उसके उत्पादन और वितरण सम्बंधी अड़चनों के कारण है। वैसे, रसोई गैस की तुलना में हाइड्रोजन का प्रबंधन अधिक सुरक्षित है।
औद्योगिक पैमाने पर हाइड्रोजन का उपयोग उर्वरक उत्पादन हेतु अमोनिया बनाने में किया जाता है। विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक हाइड्रोजन का उत्पादन तो जीवाश्म ईंधन से होता है। इसी कारण ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों की तलाश जारी है जो पर्यावरण को क्षति न पहुंचाते हों। जैव-पदार्थ (बायोमास) में वनस्पति और पशु अपशिष्ट शामिल हैं। जैव-पदार्थ हाइड्रोजन और कार्बन दोनों का एक समृद्ध स्रोत है – केले के सूखे छिलके में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है, और 33 प्रतिशत कार्बन होता है। जलवायु परिवर्तन रोकथाम सम्बंधी सारे प्रोटोकॉल्स का एक प्रमुख लक्ष्य है कि जितना संभव हो सके उतना कार्बन भंडारित कर लिया जाए – इसे गैस न बनने दिया जाए।
स्विस शोध दल ने जैव-पदार्थ (केले) से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ताप-अपघटन (पायरोलिसिस) का उपयोग किया; इसमें निष्क्रिय (ऑक्सीजन-रहित) परिस्थिति में थोड़े-थोड़े समय के लिए तीव्र ताप देकर कार्बनिक पदार्थ का विघटन किया जाता है।
ज़ीनॉन लैंप के विकिरण से अत्यधिक ऊष्मा पैदा होती है – सिर्फ 15 मिलीसेकंड के लिए दिया गया विकिरण पदार्थ को 600 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने के लिए पर्याप्त होता है। इतनी ऊष्मा एक किलोग्राम केले के छिलके के पाउडर को विघटित कर सकती है – और इससे 100 लीटर हाइड्रोजन गैस मुक्त होती है।
इतने कम समय के लिए मुक्त प्रकाश-ऊष्मा ऊर्जा से 330 ग्राम बायोचार (बायो चारकोल) भी पैदा होता है। यह एक ठोस अपशिष्ट है जिसमें कार्बन होता है।
दूसरी ओर यदि जैव-पदार्थ को जलाया जाए तो कार्बन ऑक्सीकृत होकर कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाईऑक्साइड के रूप पर्यावरण में चला जाता है। पायरोलिसिस यह सुनिश्चित करता है कि कार्बन ठोस रूप में बचा रहे।
बायोचार के लाभ
कार्बन को ठोस रूप में सुरक्षित रखने के अलावा बायोचार के कृषि में कई उपयोग हैं। चावल की भूसी जैसे कृषि अपशिष्ट जैव-पदार्थ का एक प्रमुख स्रोत हैं। और इनसे बनने वाले बायोचार में काफी खनिज तत्व होते हैं। इसे मिट्टी में डालने से पौधों को पोषक तत्व मिलते हैं।
2019 में एनल्स ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार बायोचार की छिद्रमय प्रकृति के चलते यह प्रदूषित मिट्टी के विषाक्त पदार्थों को सोखकर विषाक्तता कम करता है।
जैव-पदार्थ, चाहे वह केले के छिलके का हो, पेड़ की छाल का हो या पोल्ट्री खाद का हो, के इस तरह के उपयोग से वायु की गुणवत्ता में सुधार होता है और कृषि उत्पाद बेहतर होते हैं – और वाहनों में इसका उपयोग उन्हें उत्सर्जन मुक्त बनाता है। (स्रोत फीचर्स)
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भारतीय बिजली क्षेत्र में ताप बिजली ने एक ऐतिहासिक भूमिका
निभाई है। हालांकि, हाल ही के घटनाक्रम ने कोयले की अब तक की
भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्रतिस्पर्धी नवीकरणीय बिजली उत्पादन की तीव्र
वृद्धि,
राज्यों के पास बिजली की अतिशेष उत्पादन क्षमता, अनुमानित से कम मांग और कोयला आधारित उत्पादन से जुड़े सामाजिक और पर्यावरणीय
प्रभावों जैसे विभिन्न कारकों के चलते भविष्य में कोयले पर निर्भरता कम होने की
संभावना है।
इस संदर्भ में, लगभग 20-25 वर्ष पुराने कोयला आधारित ताप
बिजली संयंत्रों (टीपीपी) को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के समर्थन में चर्चा जारी
है। समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के पीछे लागत में बचत और दक्षता में सुधार जैसे लाभ
बताए जा रहे हैं,
जो नए, सस्ते और अधिक कुशल स्रोतों
द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं।
आयु-आधारित सेवानिवृत्ति का एक कारण यह बताया जा रहा है कि पुराने संयंत्रों
की दक्षता काफी कम है और इस कारण वे महंगे भी हैं। लेकिन सभी मामलों में यह बात
सही नहीं है। उदाहरण के लिए रिहंद, सिंगरौली और विंध्याचल के टीपीपी
30 वर्ष से अधिक पुराने होने के बाद भी वित्त वर्ष 2020 में 70 प्रतिशत से अधिक
लोड फैक्टर पर संचालित हुए हैं। इसके साथ ही इनकी औसत परिवर्तनीय लागत (वीसी) 1.7
रुपए प्रति युनिट है और कुल औसत लागत 2 रुपए प्रति युनिट है जो वित्त वर्ष 2020
में राष्ट्रीय क्रय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट से काफी कम है। इसके अतिरिक्त, बिजली उत्पादन की पुरानी क्षमता वर्तमान में बढ़ते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के
साथ सहायक होगी और अधिकतम मांग (पीक डिमांड) को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभा सकती है। हालांकि, उन्हें पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करना
होगा।
यह स्पष्ट है कि कोयला आधारित क्षमता की सेवानिवृत्ति एक जटिल मुद्दा है और
बिजली क्षेत्र के सभी हितधारकों पर इसके आर्थिक, पर्यावरणीय
और परिचालन सम्बंधी दूरगामी प्रभाव भी होंगे। इसे देखते हुए वर्तमान क्षमता की
सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय के लिए ज़्यादा गहन छानबीन ज़रूरी है।
टीपीपी की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति को निम्नलिखित कारणों से उचित ठहराया जा रहा
है:
पुराने संयंत्र कम कुशल हैं और इनको संचालित करना भी काफी
महंगा है। इसकी बजाय नई उत्पादन क्षमता का उपयोग करने से वीसी में काफी बचत हो
सकती है।
नए संयंत्रों के बेहतर प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) से
उत्पादन लागत में कमी आएगी और परिसंपत्तियों पर दबाव को कम किया जा सकता है।
नए संयंत्रों की बेहतर परिचालन क्षमता के कारण कोयले की
बचत।
पुराने संयंत्रों का जीवन अंत की ओर है, ऐसे में उनके शेष जीवन में पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक
प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) पर निवेश की प्रतिपूर्ति शायद संभव न हो।
उपरोक्त बातें एक औसत विश्लेषण के आधार पर कही जा रही हैं। अलबत्ता, ऐसे निर्णयों के लिए विस्तृत बिजली क्षेत्र मॉडलिंग पर आधारित सावधानीपूर्वक
विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी।
इस तरह के विश्लेषण उपलब्ध न होने के कारण इस अध्ययन में हमने राष्ट्र स्तरीय
औसत आंकड़ों के आधार पर समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभों का मूल्यांकन किया है। इस
अध्ययन में हमने पुरानी क्षमता के आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के संभावित
जोखिमों पर भी चर्चा की है।
अध्ययन में दिसंबर 2000 या उससे पहले स्थापित कोयला आधारित उत्पादन इकाइयों को
पुरानी इकाइयां माना गया है क्योंकि आम तौर पर टीपीपी के लिए बिजली खरीद के अनुबंध
25 वर्ष के लिए किए जाते हैं। वैसे, अच्छी तरह से परिचालित
संयंत्रों का जीवन काल 40 वर्ष तक होता है। भारत में ऐसे कोयला आधारित पुराने
संयंत्रों की कुल क्षमता 55.7 गीगावॉट है। इसमें से 9.1 गीगावॉट क्षमता को पहले ही
सेवानिवृत्त किया जा चुका है। यानी वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 46.6 गीगावॉट कोयला
आधारित क्षमता ही उपयोग में है।
पुराने संयंत्रों की जगह नए बिजली संयंत्र लगाने के संभावित लाभ
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभ के लिए लागत में बचत को महत्वपूर्ण बताया जा
रहा है। यह बचत मुख्य रूप से परिवर्तनीय लागत (वीसी) में होती है जबकि स्थिर लागत
(एफसी) तो डूबी लागत है। इसलिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति आर्थिक रूप से व्यवहार्य
होनी चाहिए और इससे वीसी में बचत होनी चाहिए। इसके लिए संभावित उम्मीदवार हैं नए
कोयला-आधारित संयंत्र या नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्र।
वर्ष 2015 के बाद कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को स्थापित करने की कुल लागत
2.5 रुपए प्रति युनिट है। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए भी वीसी लगभग इतनी ही है।
अत: इस विश्लेषण में इसे ही बेंचमार्क माना गया है। इससे कम वीसी के पुराने
संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना अलाभकारी होगा।
46.6 गीगावॉट पुरानी क्षमता में से 5.3 गिगावॉट के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
21.6 गीगावॉट को प्रतिस्थापित करना अलाभप्रद होगा क्योंकि इनकी परिवर्तनीय लागत
मानक से कम है। इनकी दक्षता (59 प्रतिशत) भी औसत (56 प्रतिशत) से बेहतर है।
शेष 19.8 गीगावॉट क्षमता की वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट से अधिक है। इन
संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने पर विचार किया जा सकता है। आगे इसी 19.8
गीगावॉट क्षमता को लेकर संभावित लागत, पीएलएफ में सुधार, और कोयला बचत के आधार पर विचार किया गया है।
लागत में बचत, पीएलएफ में सुधार और
कोयले की बचत
वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों ने वित्त वर्ष
2020 में 81 अरब युनिट का उत्पादन किया। 2000-पूर्व क्षमता की तुलना 2015-पश्चात
स्थापित 64 गीगावॉट की कोयला-आधारित क्षमता से की गई है। 2015 के बाद स्थापित किए
गए संयंत्र वित्त वर्ष 2020 में 41 प्रतिशत के औसत पीएलएफ पर संचालित किए गए।
परिवर्तनीय लागत प्रति युनिट
2.5 रुपए से कम
2.5 रुपए से अधिक
क्षमता (मेगावॉट)
21,500
27,760
पीएलएफ
50 प्रतिशत
28 प्रतिशत
औसत परिवर्तनीय लागत
2.06
3.04
तालिका 1: 2015 के बाद स्थापित क्षमता का विवरण
वर्ष 2000
से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता को सेवानिवृत्त करने पर 2015 के बाद स्थापित
क्षमता को इस कमी को पूरा करना होता। अर्थात वित्त वर्ष 2020 में वर्ष 2015 के बाद
स्थापित क्षमता को अतिरिक्त 81 अरब युनिट की पूर्ति करनी होती। इससे 2015 के बाद
स्थापित क्षमता का पीएलएफ वर्तमान 41 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो जाता जो दबाव
को कुछ कम करने में सहायक हो सकता था।
2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता की औसत वीसी 3.1 रुपए प्रति युनिट
है जबकि 2015 के बाद के संयंत्रों के लिए यह 2.5 प्रति युनिट है। अत: इस प्रक्रिया
से 81 अरब युनिट का प्रतिस्थापन प्रति वर्ष 5043 करोड़ रुपए की बचत कर सकता है। यह
बचत वर्ष 2020 के सभी कोयला आधारित बिजली उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत है। दरअसल, बचत और भी कम होने की संभावना है।
तालिका 1 के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 में, 2015 के बाद स्थापित कम वीसी वाले संयंत्र अधिक वीसी वाले संयंत्रों की तुलना
में अधिक पीएलएफ पर संचालित हुए थे। चूंकि 2015 के बाद स्थापित किफायती संयंत्र तो
पहले से ही अधिक पीएलएफ पर संचालित हैं, इसलिए 2000 से पूर्व की
क्षमताओं की क्षतिपूर्ति की ज़िम्मेदारी 2015 के बाद स्थापित महंगे संयंत्रों पर ही
आएगी। लिहाज़ा,
बचत भी कम होगी।
इसके अतिरिक्त, वित्त वर्ष 2020 में 2000 से पूर्व स्थापित
क्षमता द्वारा उत्पादित 81 अरब युनिट की औसत कोयला खपत 0.696 कि.ग्रा. प्रति युनिट
रही और इसने 5.7 करोड़ टन कोयले का उपयोग किया। इन परिस्थितियों में 2015 के बाद की
क्षमता पर स्थानांतरित होने से कोयले की खपत कम होगी। गौरतलब है कि वित्त वर्ष
2020 में भारत की प्रति युनिट कोयला खपत का औसत 0.612 कि.ग्रा. है जो 2000 से पहले
स्थापित क्षमता से 12 प्रतिशत बेहतर है। यदि नई क्षमता से 81 अरब युनिट का उत्पादन
राष्ट्रीय औसत 0.612 कि.ग्रा. प्रति युनिट की दर से किया जाए तो 5.0 करोड़ टन कोयले
की आवश्यकता होगी यानी मात्र 70 लाख टन कोयले की बचत। यहां तक कि यदि औसत कोयला
खपत कि.ग्रा. युनिट में 20 प्रतिशत सुधार मान लिया जाए, (यानी
0.557 कि.ग्रा. प्रति युनिट जो भारतीय उर्जा क्षेत्र में कम ही देखा गया है) तब भी
81 अरब युनिट उत्पादन में कोयले की बचत मात्र 1.2 करोड़ टन होगी। मतलब कोयले में
कुल बचत मात्र 1-2 प्रतिशत ही होगी।
डैटा की अनुपलब्धता के चलते समस्त क्षमता को 2.5 रुपए प्रति युनिट ही मान लिया
जाए तो भी निष्कर्ष कमोबेश ऐसे ही रहेंगे – वार्षिक वीसी में बचत लगभग 2.5 प्रतिशत
और कोयले की बचत प्रति वर्ष 1.3-2.2 प्रतिशत के बीच ही रहेगी।
इस प्रकार,
पुराने संयंत्रों के सेवानिवृत्त होने से बचत तो होगी लेकिन
यह बचत इस क्षेत्र के पैमाने को देखते हुए बहुत अधिक नहीं है।
बचत के अलावा, मिश्रित बिजली उत्पादन के हिमायतियों का एक
तर्क समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से दक्षता में सुधार भी है। हालांकि यह वांछनीय है
लेकिन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति एक बोथरा साधन
है। अक्षमता को दंडित करने जैसे उपायों को अपनाकर अक्षम उत्पादन में कटौती की जा
सकती है।
परिवर्तनीय लागत में बचत से सेवानिवृत्ति में सुगमता
वर्ष 2000 से पहले स्थापित क्षमता की पूंजीगत लागत नई परियोजना की तुलना में
कम होने की संभावना है क्योंकि इतने वर्षों में उनकी अधिकांश पूंजीगत लागत का
भुगतान हो चुका होगा। इसका परिणाम कम अग्रिम (अपफ्रंट) भुगतान और पुराने टीपीपी को
समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने की कम लागत के रूप में होगा। भले ही 2000 से पूर्व की
क्षमता को सेवानिवृत्त करने से वीसी में प्रति वर्ष मात्र 5000 करोड़ की बचत होगी, फिर भी यह फायदेमंद होगा यदि इससे पुराने संयंत्रों की एफसी का भुगतान हो जाए।
देखा जाए,
तो 2000 से पूर्व की अधिकांश (60 प्रतिशत) सेवा-निवृत्ति के
लिए विचाराधीन क्षमता की स्थिर लागत कम है – 40 लाख रुपए प्रति मेगावाट प्रति वर्ष
से भी कम। वित्त वर्ष 2020 में इस 11.8 गिगावॉट क्षमता ने 44.6 अरब युनिट का
उत्पादन किया है। इस उत्पादन की कुल लागत औसतन 3.7 रुपए प्रति युनिट है जिसमें 3.1
रुपए वीसी और 0.6 रुपए एफसी है। यह ऊर्जा खरीद लागत के राष्ट्रीय औसत 3.6 रुपए
प्रति युनिट के बराबर ही है।
वर्तमान परिदृश्य में, यदि इस 11.8 गिगावॉट उत्पादन को
2015 के बाद के उत्पादन से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है (जिसकी औसत वीसी 2.5 रुपए
प्रति युनिट है) तो इससे वीसी में 2447 करोड़ रुपए की सालाना बचत होगी। वहीं दूसरी
ओर,
वित्त वर्ष 2020 में इस क्षमता के लिए भुगतान की गई एफसी
3083 करोड़ रुपए थी। लिहाज़ा अकेले समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से वीसी में बचत द्वारा
एफसी की भरपाई की संभावना बहुत कम है।
वैसे वीसी में बचत की ही तरह वीसी और एफसी भुगतान की तुलना भी सीधा-सा मामला
नहीं है। इसके लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। समय से पहले सेवानिवृत्ति के लिए
भुगतान की जाने वाली वास्तविक एफसी विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगी।
अक्षय उर्जा से प्रतिस्थापन पर विचार
अब तक की गई चर्चा में सिर्फ ऐसे परिदृश्य पर विचार किया है जिसमें सभी कोयला
आधारित उत्पादन को उसी के समान आधुनिक विकल्पों से बदला जाएगा। वास्तव में हटाए गए
कोयला उत्पादन को कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा के मिश्रित उपयोग से बदलने की संभावना
है। इसलिए,
सभी पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को नवीकरणीय ऊर्जा
से बदलने के निहितार्थ को समझना काफी दिलचस्प होगा।
इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन परिवर्तनशील और
अनिरंतर है। उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा केवल दिन के समय और
हवा कुछ विशेष मौसमों में उपलब्ध होती है। इसके अलावा, नवीकरणीय
ऊर्जा का उपयोग गुणांक ताप-बिजली की तुलना में काफी कम है। इसलिए, नवीकरणीय ऊर्जा से उसी समय पर बिजली सप्लाई नहीं की जा सकती जिस समय कोयला
आधारित उत्पादन से की जाती थी। इस कारण, नवीकरणीय ऊर्जा और कोयला
आधारित उत्पादन के बीच तुलना उपयुक्त नहीं है। लेकिन यहां हम सभी पुराने कोयला
आधारित उत्पादन को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने की व्यापक समझ के लिए ऐसा कर रहे
हैं।
यदि प्रतिस्थापन नवीकरणीय ऊर्जा से करना है तो नए टीपीपी के कम पीएलएफ में
सुधार और ऐसी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों को संबोधित करने से लाभ नहीं मिलेगा। वहीं
दूसरी ओर,
नवीकरणीय ऊर्जा की ओर प्रतिस्थापन से कोयले की बचत अधिक
होगी। लेकिन नवीकरणीय उर्जा की उत्पादन लागत लगभग 2.5 रुपए प्रति युनिट के मानक के
बराबर है,
ऐसे में अनुमानित वीसी में बचत पहले जितनी ही होने की
संभावना है। यह देखते हुए कि पुराने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को पूरी तरह से
नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना और इनका मिश्रित उपयोग करना संभव नहीं है, मामले की गहरी छानबीन ज़रूरी है।
प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों (पीसीई) में सुधार से संभावित लाभ
दिसंबर 2015 में संशोधित पर्यावरण मानकों के अनुपालन के लिए टीपीपी को पीसीई
स्थापित करने या अन्य समाधान लागू करने के लिए अतिरिक्त खर्च करना होगा। ताप बिजली
उत्पादन से होने वाले प्रदूषण को देखते हुए इन मानदंडों का पालन महत्वपूर्ण है।
लेकिन यह अतिरिक्त पूंजीगत व्यय खासकर पुराने टीपीपी के लिए चिंता का विषय है। यह
देखते हुए कि पुराने टीपीपी अपने अंत की ओर हैं, उनके
शेष जीवन में ऐसे निवेश की भरपाई करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए यह दलील दी गई है
कि पीसीई पर अतिरिक्त पूंजीगत खर्च करने की बजाय पुराने कोयला संयंत्रों को
सेवानिवृत्त करना बेहतर है।
पीसीई लागत चिंता का विषय है। हालांकि, यह
मुद्दा सिर्फ परियोजना की अवधि से सम्बंधित नहीं है। डैटा से पता चलता है कि 2000
से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 14.9 गिगावॉट की कुल लागत (यानी
एफसीअवीसी) 3 रुपए प्रति युनिट से भी कम है। शुल्क पर पीसीई का प्रभाव 0.25-0.75
रुपए प्रति युनिट के आसपास होगा। यदि इसे 1 रुपए प्रति युनिट भी मान लिया जाए तो
वर्ष 2000 से पूर्व पीसीई के साथ स्थापित 14.9 गिगावॉट उत्पादन का कुल शुल्क 4
रुपए प्रति युनिट से कम ही रहेगा। अर्थात यह राष्ट्रीय औसत बिजली खरीद लागत (3.6
रुपए प्रति युनिट) से बहुत अधिक नहीं होगा।
इसके अलावा,
वर्ष 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से
23.6 गिगावॉट में पीसीई स्थापित करने हेतु निविदाएं जारी हो चुकी हैं। कुछ निवेश
किए जा चुके हैं। इसमें से 14.2 गिगावॉट के लिए तो बोलियां मंज़ूर की जा चुकी हैं
और इनमें से भी 1995 के पूर्व स्थापित 80 मेगावॉट क्षमता में पहले से ही पीसीई
लगाए जा चुके हैं। स्पष्ट है कि कुछ पुराने संयंत्र पहले ही पीसीई सम्बंधी व्यय कर
चुके हैं और अन्य भी ऐसे खर्च के बावजूद व्यवहार्य हो सकते हैं। ऐसा विचार भी किया
जा रहा है कि यदि पीसीई पर और अधिक निवेश करने से जन-स्वास्थ्य में लाभ होता है तो
इस खर्च को उचित माना जा सकता है।
और तो और,
1 अप्रैल 2021 को मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके पुराने संयंत्र भी थोड़ी पेनल्टी का भुगतान
करके पीसीई स्थापित किए बिना उत्पादन जारी रख सकते हैं। ऐसे में उन्हें कानूनी तौर
पर पीसीई स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुल मिलाकर, पेनल्टी के कारण पुराने संयंत्रों से उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाएगी जिसके
परिणास्वरूप उन संयंत्रों से उत्पादन कम हो जाएगा।
इसलिए,
पीसीई स्थापना की वित्तीय व्यवहार्यता के सम्बंध में सिर्फ
आयु के आधार पर सेवानिवृत्ति करना एक प्रभावी उपाय नहीं है। इसकी बजाय अधिक
उपयुक्त तो यह होता कि सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय इकाई के आधार पर किए
जाते जिसमें शेष जीवन, पीएलएफ, उत्पादन
की वर्तमान लागत,
पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक उपायों की
लागत,
आदि बातों को ध्यान में रखा जाता।
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के उपेक्षित पहलू
कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के लाभों पर
चर्चा के दौरान अक्सर इन संयंत्रों के संचालन के लाभों और सेवानिवृत्ति के नतीजों
पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
उदाहरण के लिए, यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से बचत के सभी दावे पुराने ऊर्जा संयंत्रों की क्षमता के
महत्व को हिसाब में नहीं लेते हैं। बढ़ती अक्षय ऊर्जा उत्पादन वाली बिजली प्रणाली
में,
वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित क्षमताएं मौसमी और पीक डिमांड
को पूरा करने में सहायक हो सकती हैं। यदि ऐसे लाभों पर विचार किया जाए तो
समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से होने वाली संभावित बचत काफी कम हो नज़र आएगी।
इसके अतिरिक्त, कोयला आधारित क्षमताओं की समय-पूर्व
अनियोजित सेवानिवृत्ति के विचित्र परिणाम हो सकते हैं। आक्रामक समय-पूर्व
सेवानिवृत्ति की वजह से बिजली के अभाव की मानसिकता उत्पन्न हो सकती है, खास तौर से राज्यों में। चूंकि कथित अभाव राज्य की ऊर्जा राजनीति के लिए
अभिशाप हैं,
इससे हड़बड़ी में कोयला आधारित क्षमता में निवेश की नई लहर उठ
सकती है जो सरकारी संस्थानों में केंद्रित होगी।
उदाहरण के लिए हालिया अतीत में महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे राज्यों में खराब
नियोजन और अभाव की धारणा के कारण उत्पादन क्षमता में अत्यधिक वृद्धि की गई है।
इसका एक और ताज़ा उदाहरण मुंबई में देखा गया जब शहर में एक दिन के लिए बिजली गुल
होने पर नई उत्पादन क्षमता के लिए प्रयास किए जाने लगे थे।
इसलिए,
हो सकता है कि समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति से अनावश्यक
क्षमता वृद्धि हो जिसके अपने आर्थिक व पर्यावरणीय निहितार्थ होंगे।
अनावश्यक ज़ोर
जैसा कि हमने देखा, आयु के आधार पर टीपीपी को समय-पूर्व
सेवानिवृत्त करने से किसी उल्लेखनीय बचत की संभावना नहीं है। परिवर्तनीय लागत में
वार्षिक बचत लगभग 2 प्रतिशत और वार्षिक कोयला बचत 1-2 प्रतिशत ही होगी।
प्रणाली की दक्षता में सुधार एक वांछित लक्ष्य है लेकिन समय-पूर्व
सेवानिवृत्ति की बजाय अन्य विकल्प इस दृष्टि से अधिक प्रभावी होंगे।
यह तर्क भी ठीक नहीं है कि पर्यावरणीय उपाय स्थापित करने पर पुराने संयंत्र
अव्यावहारिक हो जाएंगे। दरअसल, इनमें से कई संयंत्र उसके बाद
भी आर्थिक रूप से लाभदायक रहेंगे। और तो और, मंत्रालय
ने यह दिशानिर्देश भी जारी कर दिया है कि पुराने संयंत्र सेवानवृत्ति की तारीख तक
बगैर ऐसे उपकरण स्थापित किए भी चल सकते हैं।
कहने का मतलब यह नहीं है कि पुराने संयंत्रों में किसी को भी समय-पूर्व
सेवानिवृत्त नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, संयंत्रों
और इकाइयों पर अलग-अलग अधिक विस्तृत विश्लेषण किया जाना चाहिए। ऐसा करके यह पता
लगाया जा सकता है कि कौन-सी विशिष्ट इकाइयों/संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना
लाभदायक हो सकता है।
किसी भी निर्णय के लिए गहन विश्लेषण की ज़रूरत होगी जिसमें कई मापदंडों का ध्यान रखना होगा – जैसे संयंत्र/इकाई स्तर का विवरण, संविदात्मक प्रतिबद्धताएं, भार की प्रकृति, उत्पादन की प्रकृति, क्षमता का महत्व, आदि। पर्याप्त विश्लेषण के बिना समय-पूर्व सेवानिवृत्ति अनुपयुक्त उपाय प्रतीत होता है और बेहतर होगा कि अतिरिक्त कोयला आधारित क्षमता वृद्धि को रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://imgs.mongabay.com/wp-content/uploads/sites/20/2021/06/08140518/Piece_of_coal_in_front_of_a_coal_firing_power_plant-scaled.jpg
आम समझ है कि गरीबी कम होने से ऊर्जा उपयोग में वृद्धि होगी।
लेकिन हाल ही में नेपाल, वियतनाम और ज़ाम्बिया में किए
गए अध्ययन से विपरीत परिणाम सामने आए हैं, जिसमें
गरीबी में कमी का सम्बंध ऊर्जा के कम उपयोग से देखा गया है।
अत्यधिक गरीबी को खत्म करने की वर्तमान रणनीतियां इस सोच पर टिकी हैं कि इसके
लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है। तभी तो परिवारों और सरकार की खर्च करने की क्षमता
बढ़ेगी और हम अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कर पाएंगे। इस तरह गरीबी की
‘पहचान’ आय के आधार पर करने से ‘समाधान’ आर्थिक विकास के रूप में उभरता है।
हालांकि,
बढ़ती असमानताओं और विश्व के अधिकांश भागों में स्वच्छता
संकट के चलते आर्थिक विकास के फायदे शायद न मिल पाएं। ज़ाहिर है कि गरीबी का सम्बंध
सिर्फ आय से नहीं बल्कि विभिन्न अधिकारों और सेवाओं से वंचना से है। यानी लोग
इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि उनके पास प्रतिदिन गरीबी सीमा से अधिक खर्च करने के
लिए पैसे नहीं हैं बल्कि उनके पास स्वच्छता, शिक्षा
या स्वास्थ्य प्रदान करने वाली वस्तुओं या सेवाओं तक पहुंच नहीं है। वास्तव में आय
में वृद्धि के बाद भी इन सेवाओं तक पहुंच बना पाना काफी मुश्किल होता है। वर्तमान
में सवा अरब लोगों को स्वच्छता और साफ पानी मयस्सर नहीं है जबकि तीन अरब लोगों के
पास स्वच्छ र्इंधन भी नहीं है। यह सही है कि गरीबी अभावों का निर्धारण करती है
लेकिन सिर्फ आय एकमात्र कारक नहीं है।
इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट की शोधकर्ता मार्टा बाल्ट्रुज़ेविक्ज़ और उनके सहयोगियों ने बहुआयामी गरीबी के अन्य कारणों को समझने और कम संसाधनों से इसका समाधान करने पर अध्ययन किया। इसमें मुख्य रूप से दो सवालों पर अध्ययन किया: अच्छे जीवन के लिए क्या चाहिए, और इसमें कितनी ऊर्जा खर्च होती है? शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने का भी प्रयास किया है कि इन संसाधनों का किस प्रकार उपयोग किया जाता है, किसके द्वारा किया जाता है, किस उद्देश्य से किया जाता है और इससे गरीबी पर किस प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। इसके साथ ही साफ पानी, भोजन, बुनियादी शिक्षा और आधुनिक ईंधन तक पहुंच से सम्बंधित अभावों का भी अध्ययन किया गया है। अध्ययन में खर्च और जीवन स्तर के आंकड़े राष्ट्रीय पारिवारिक सर्वेक्षणों से और ऊर्जा खपत की जानकारी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा जारी किए गए आकड़ों से ली गई। इनकी मदद से वे यह देख पाए कि कोई परिवार बिजली, ईंधन, यातायात के लिए पेट्रोल तथा सेवाओं और सामान वगैरह के रूप में कितनी ऊर्जा का उपयोग करता है।
शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन घरों में स्वच्छ ईंधन, सुरक्षित पानी, बुनियादी शिक्षा और पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है, यानी जो लोग अत्यधिक गरीब की श्रेणी में नहीं आते हैं, वे देश के राष्ट्रीय औसत से सिर्फ आधी ऊर्जा का उपयोग करते हैं। यह निष्कर्ष इस तर्क के एकदम विपरीत है कि अत्यधिक गरीबी से बचने के लिए अधिक संसाधनों और ऊर्जा की ज़रूरत है। ऊर्जा खपत में कमी का सबसे बड़ा कारण खाना बनाने के लिए लकड़ी, कोयला या चारकोल जैसे पारंपरिक ईंधन से हटकर अधिक कुशल और कम प्रदूषण करने वाले र्इंधनों (बिजली या गैस) का उपयोग करना है।
देखा जाए तो ज़ाम्बिया, नेपाल और वियतनाम में आमदनी और सामान्य खर्च और मनोरंजन पर किए जाने वाले खर्चों की अपेक्षा आधुनिक ऊर्जा संसाधनों का वितरण बहुत असमान है। इसके परिणामस्वरूप, अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों को अधिक मलिन ऊर्जा का उपयोग करना पड़ता है जिसके स्वास्थ्य तथा जेंडर सम्बंधी कुप्रभाव होते हैं। अकुशल ईंधन के उपयोग से खाना पकाने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत भी होती है।
ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या उच्च आय और अधिक ऊर्जा उपकरणों के उपयोग करने
वाले परिवारों के पास गरीबी से बचने की बेहतर संभावना होती है? कुछ परिवारों के लिए यह सही हो सकता है लेकिन उच्च आय या फिर मोबाइल फोन होना
न तो बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की शर्त हैं और न ही इसकी गारंटी। बिजली और
स्वच्छता तक पहुंच के अभाव में कई अपेक्षाकृत सम्पन्न परिवार भी बच्चों के कुपोषण
या कोयले के उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से बच नहीं पाते। यह विडंबना है कि
अधिकांश परिवारों के लिए स्वच्छ र्इंधन की तुलना में मोबाइल फोन प्राप्त करना
ज़्यादा आसान है। ऐसे में घरेलू आय के माध्यम से विकास को मापने से गरीबी और उसके
अभावों की अधूरी समझ ही प्राप्त हो सकती है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि गरीब देशों में विकास के
लिए अधिक ऊर्जा का उपयोग न किया जाए। उनका कहना है कि कुल ऊर्जा खपत की बजाय गरीबी
से निजात पाने के लिए सामूहिक सेवाओं पर अधिक निवेश किया जाए।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि गरीब देशों के पास इन सेवाओं में
निवेश करने की इतनी कम क्षमता क्यों है। वास्तव में गरीबी होती नहीं, बल्कि निर्मित की जाती है – संरचनात्मक समायोजन या राष्ट्रीय ऋण पर ऊंचे ब्याज
जैसी धन निष्कर्षण की सम्बंधित प्रणालियों के माध्यम से।
वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से अमीर अल्पसंख्यक वर्ग ज़िम्मेदार है जो अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है, लेकिन दुर्भाग्य से इसके परिणाम गरीब बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को वहन करना पड़ते हैं। इस नज़रिए से देखें तो मानव विकास न सिर्फ आर्थिक न्याय का बल्कि जलवायु न्याय का भी मुद्दा है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/blogs/cache/file/782DD3D0-8C72-4406-8B46DFBF36478C99_source.jpg?w=590&h=800&7DA3CB2B-12F0-4620-9D9706361C10C8C0
ऊर्जा मंत्रालय के स्मार्ट मीटर नेशनल प्रोग्राम (राष्ट्रीय स्मार्ट
मीटर कार्यक्रम) के तहत वर्ष 2022 तक 25 करोड़ घरों में पारंपरिक बिजली मीटर के स्थान
पर स्मार्ट मीटर लगाने की योजना है। उम्मीद है कि स्मार्ट मीटर स्वत: रीडिंग लेकर, बिल बनाकर, और समय
से भुगतान न करने वाले उपभोक्ताओं का दूर से ही कनेक्शन काटकर या कनेक्शन कटने का भय
पैदा कर समय पर बिल भुगतान सुनिश्चित करेंगे और इस तरह विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम)
का राजस्व बढ़ाने में मदद करेंगे। स्मार्ट मीटर,
विद्युत वितरण और भुगतान
के क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ऊर्जा मंत्रालय
द्वारा किए गए कुछ प्रयासों में से एक है।
देश भर में लगभग 21 लाख स्मार्ट मीटर लगाए चुके
हैं और वे काम भी करने लगे हैं। और लगभग 91 लाख स्मार्ट मीटर लगाए जाने की तैयारी है।
ऐसे में ज़रूरत है कि अविलंब इतनी बड़ी संख्या में स्मार्ट मीटर लगाए जाने के अनुभव को
पारदर्शिता के साथ दर्ज और अच्छी तरह विश्लेषित किया जाए। यह लेख इसके ऐसे ही एक पहलू
– डैटा गोपनीयता के मुद्दे – पर प्रकाश डालता है। स्वचालित बिलिंग और दूर से कनेक्शन
काटने के अलावा स्मार्ट मीटर हर आधे घंटे या उससे भी कम समय अंतराल में उपभोक्ताओं
की छोटी से छोटी बिजली खपत के आंकड़े भी एकत्रित कर सकते हैं। यदि इस डैटा का प्रभावी
ढंग से उपयोग किया जाता है तो यह विद्युत वितरण कंपनियों को बुनियादी विद्युत वितरण
ढांचा बनाने, बिजली की खरीद और उपभोक्ताओं को मूल्य-वर्धित-सेवा देने में
मदद कर सकता है। इससे वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति और भी बेहतर हो सकती है।
लेकिन,
कम समय अंतराल पर बिजली
खपत का डैटा एकत्रित करने के अलावा स्मार्ट मीटर बिजली उपभोक्ता की निजी जानकारियां
भी पता कर सकते हैं। जैसे परिवारजनों के घर में बिताने वाले समय का पैटर्न, उपकरणों
के स्वामित्व और उनके उपयोग का पैटर्न, और यहां तक कि विश्लेषण और अनुमान के आधार पर
उपभोक्ता की मनोरंजन आदतें और प्राथमिकताएं।
सर्वोच्च न्यायालय निजता के अधिकार को मौलिक
अधिकार मानता है। इसलिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों और उपयुक्त सहमति के बिना इस तरह व्यक्तिगत
उपभोग के डैटा का उपयोग करना और उसे साझा करना निजता के अधिकार का उल्लंघन माना जाएगा।
इसके अलावा, डैटा प्रबंधन और डैटा साझा करने की कम सुरक्षित प्रणाली गैर-कानूनी
गतिविधियों को भी न्यौता दे सकती है। जैसे,
धोखाधड़ी, सेंध
लगाना या तांक-झांक करना। दुनिया के कई देशों में इस तरह की गोपनीयता और सुरक्षा सम्बंधी
चिंताओं को स्मार्ट मीटर-विशिष्ट डैटा सुरक्षा तंत्र के माध्यम से दूर किया जा रहा
है, जो सामान्य डैटा सुरक्षा तंत्र के पूरक की तरह कार्य करता है।
यह भारतीय संदर्भ में दो सवाल उठाता है: मौजूदा
मीटर में डैटा सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करने वाला तंत्र कितना प्रभावी है; और आगामी
निजी डैटा संरक्षण अधिनियम (पर्सनल डैटा प्रोटेक्शन एक्ट) के नियम-निर्देशों का पालन
करने के लिए वितरण कंपनियां कितनी तैयार हैं?
इन सवालों के जवाब काफी
हद तक निराशजनक ही हैं।
सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000
(आईटी एक्ट) और 2011 के ‘उचित सुरक्षा उपाय और प्रक्रिया एवं संवेदनशील निजी डैटा अथवा
सूचना’ के नियम, स्मार्ट मीटर और साधारण मीटर बिलिंग, दोनों
से हासिल डैटा पर लागू होते हैं। लेकिन वितरण कंपनियों द्वारा आईटी एक्ट के पालन के
बारे में सार्वजनिक तौर पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। जैसे, एक नियमानुसार
इलेक्ट्रॉनिक तरीके से संग्रहित सभी तरह के डैटा को संभालने के संदर्भ में अपनाई गई
गोपनीयता नीति प्रकाशित करना अनिवार्य है। लेकिन अधिकांश विद्युत वितरण कंपनियां यह
मानती हैं कि ये नियम सिर्फ उनकी वेबसाइटों के माध्यम से एकत्रित डैटा पर लागू होते
हैं।
विद्युत सम्बंधी तकनीकी और नीतिगत मसलों पर
सरकार को सलाह देने वाले वैधानिक निकाय, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए), ने उन्नत
मीटरिंग की मूलभूल व्यवस्था (एएमआई) के सम्बंध में विस्तृत कार्यात्मक शर्तें/अनिवार्यताएं
जारी की हैं। स्मार्ट मीटर लगाए जाने के कुछ अनुबंधों में वितरण कंपनियों द्वारा इन
दिशानिर्देशों को शब्दश: अपनाया गया है, लेकिन अफसोस कि इन दिशानिर्देशों में उपभोक्ता
की गोपनीयता सम्बंधी कोई निर्देश नहीं हैं।
अच्छी बात यह है कि उन्नत मीटरिंग (एएमआई) सेवा
प्रदाताओं को नियुक्त करने के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए मानक निविदा पत्र
में गोपनीयता सम्बंधी नियम शामिल हैं। हालांकि,
वितरण कंपनियों द्वारा
इन्हें अपनाए जाने के बारे में अभी भी कोई जानकारी नहीं हैं। यदि मौजूदा स्मार्ट मीटर
डैटा सुरक्षा तंत्र शिथिल है भी, तो निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 के लागू होने
के बाद स्थिति काफी बदल सकती है।
निजी डैटा का आर्थिक उपयोग करने और किसी व्यक्ति
की निजता के अधिकार को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाने के लिए सरकार ने निजी डैटा सुरक्षा
विधेयक 2019 का प्रस्ताव रखा था। यह महत्वपूर्ण बिल वर्तमान में संयुक्त संसदीय समिति
के समक्ष है और कानून बनने से बस कुछ ही कदम दूर है। वास्तव में, निजी
डैटा सुरक्षा विधेयक में उल्लेखित नियमों से मिलते-जुलते नीति-नियमों को पहले ही सम्बंधित
क्षेत्रों में लागू किया जाने लगा है। मसलन, राष्ट्रीय
स्वास्थ्य डैटा प्रबंधन नीति के ज़रिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में।
निजी डैटा सुरक्षा विधेयक लागू होने के बाद
यह आईटी अधिनियम के नियमों को बदल देगा। और मासिक बिलिंग और स्मार्ट मीटर डैटा सहित
सभी वितरण कंपनियों और सभी उपभोक्ताओं के डैटा को इस अधिनियम के दायरे में ले आएगा।
चाहे स्मार्ट मीटर द्वारा डैटा लिया हो या पारंपरिक मीटर द्वारा, सभी वितरण
कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके द्वारा की जा रही डैटा हैंडलिंग और इसमें
शामिल तीसरे पक्ष द्वारा व्यक्तिगत गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। इसके अलावा
नए कानून के तहत, डैटा सुरक्षा प्राधिकरण को डैटा नियामक के रूप में नियुक्त किया
जाएगा और वितरण कंपनियां इसके नियमों से बंधी होंगी। इस कानून के तहत कंपनियों द्वारा
नियमों का पालन न किए जाने की स्थिति में तय दंड काफी अधिक है। यह राशि उनके वार्षिक
वैश्विक व्यापार का चार प्रतिशत तक हो सकती है। प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण
सेक्टर नियामकों से परामर्श करके सेक्टर विशेष नियम भी बना सकता है।
विद्युत क्षेत्र सम्बंधी विशेष नियम व्यापक
डैटा सुरक्षा फ्रेमवर्क पर आधारित होने चाहिए जो खासकर स्मार्ट मीटर डैटा को ध्यान
में रखकर बनाए गए हों। उसमें स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि विद्युत अधिनियम 2003 के
तहत स्मार्ट मीटर किस तरह का डैटा एकत्र कर सकते हैं,
डैटा संग्रहण की अवधि
कितनी होगी और डैटा का किस तरह का उपयोग किया जा सकता है। डैटा संग्रह और उसके उपयोग
के मुताबिक उपभोक्ता सहमति का प्रारूप बनाया जाना चाहिए। प्रारूप में डैटा और उसके
सार तक उपभोक्ता की पूर्ण पहुंच की, उपभोक्ता द्वारा अपनी सहमति की शर्तों को बदलने
की व्यवस्था होनी चाहिए, और स्पष्ट व सरल शब्दों में गोपनीयता नीति उपलब्ध
होनी चाहिए। इसके अलावा, डैटा शेयरिंग के नियम और उत्तरदायी तंत्र (ऑडिट
अपेक्षाएं और सार्वजनिक रिपोर्ट) इस प्रणाली का हिस्सा होना चाहिए।
स्मार्ट मीटर लगाए जाने की प्रक्रिया की तेज़ रफ्तार देखते हुए, ऊर्जा मंत्रालय को केंद्रीय विद्युत प्रधिकरण, केंद्रीय और राज्य नियामकों, वितरण कंपनियों, स्मार्ट मीटर निर्माताओं, सिविल सोसाइटी संगठनों और अन्य हितधारकों के साथ परामर्श करके इस तरह का फ्रेमवर्क तत्काल बनाना चाहिए और इसे श्वेत पत्र के रूप में प्रकाशित करना चाहिए। ऊर्जा मंत्रालय को इस पर सार्वजनिक टिप्पणियां भी मांगना चाहिए। यह फ्रेमवर्क, विशिष्ट नियमों को विकसित करने हेतु बिजली नियामकों के साथ विचार-विमर्श करने के लिए प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण की दिशा में एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। तब तक, वितरण कंपनियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि डैटा मुहाफिज़ों के रूप में वे अपनी भूमिका समझें और उपभोक्ता और कंपनी, दोनों के हित में उपभोक्ता की गोपनीयता को सुरक्षा देने की तैयारी शुरू कर दें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://etimg.etb2bimg.com/photo/74288671.cms