पिछले 20 वर्षों से अंतरिक्ष यात्रियों का घर –
अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) – कुछ अनोखे बैक्टीरिया का मेज़बान भी बन गया
है। स्पेस स्टेशन पर पाए गए चार बैक्टीरिया स्ट्रेन में से तीन के बारे में पूर्व
में कोई जानकारी नहीं थी। फ्रंटियर्स इन माइक्रोबायोलॉजी जर्नल में
प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन बैक्टीरिया स्ट्रेन्स का उपयोग भविष्य में लंबी
अंतरिक्ष उड़ानों के दौरान पौधे उगाने के लिए किया जा सकता है।
गौरतलब है कि कई वर्षों से पृथ्वी से पूरी तरह से अलग होने से स्पेस स्टेशन एक
अनूठा पर्यावरण है। ऐसे में यह जानने के लिए तरह-तरह के प्रयोग किए गए हैं कि यहां
कौन-से बैक्टीरिया मौजूद हैं। पिछले 6 वर्षों में स्पेस स्टेशन के 8 विशिष्ट स्थानों
पर निरंतर सूक्ष्मजीवों और बैक्टीरिया की वृद्धि की जांच की जा रही है। इन स्थानों
में वह स्थान भी शामिल है जहां सैकड़ों वैज्ञानिक प्रयोग किए जाते हैं, पौधों की खेती का प्रकोष्ठ भी शामिल है और वह जगह भी जहां क्रू-सदस्य भोजन और
अन्य अवसरों पर साथ आते हैं। इस तरह सैकड़ों नमूने पृथ्वी पर विश्लेषण के लिए आए
हैं और कई हज़ार अभी कतार में हैं।
पृथक किए गए बैक्टीरिया के चारों स्ट्रेन मिथाइलोबैक्टीरिएसी कुल से
हैं। मिथाइलोबैक्टीरियम प्रजातियां विशेष रूप से पौधों की वृद्धि में और
रोगजनकों से लड़ने में सहायक होती हैं। हालांकि इन चार में से एक (मिथाइलोरुब्रम
रोडेशिएनम) पहले से ज्ञात था जबकि छड़ आकार के तीन अन्य बैक्टीरिया अज्ञात थे।
इनके आनुवंशिक विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने पाया कि ये बैक्टीरिया प्रजातियां मिथाइलोबैक्टीरियम
इंडीकम के निकट सम्बंधी हैं। अब इनमें से एक बैक्टीरिया का नाम भारतीय
जैव-विविधता वैज्ञानिक मुहम्मद अजमल खान के सम्मान में मिथाइलोबैक्टीरियम
अजमाली रखा गया है।
इस बैक्टीरिया के संभावित अनुप्रयोगों को समझने के लिए नासा जेट प्रपल्शन
लेबोरेटरी के वैज्ञानिक कस्तूरी वेंकटेश्वरन और नितीश कुमार ने इस शोध पर काम किया
है। वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि यह नया स्ट्रेन पौधों की वृद्धि में उपयोगी हो
सकता है। न्यूनतम संसाधनों वाले क्षेत्रों में यह जीवाणु मुश्किल परिस्थितियों में
भी पौधे के बढ़ने में सहायक होगा। पत्तेदार सब्ज़ियों और मूली को तो सफलतापूर्वक
अंतरिक्ष स्टेशन पर उगाया गया है लेकिन फसलों को उगाने में थोड़ी कठिनाई होती है।
ऐसे में मिथाइलोबैक्टीरियम इस संदर्भ में उपयोगी हो सकता है।
अभी इस बैक्टीरिया के सही उपयोग को समझने के लिए समय और कई प्रयोगों की ज़रूरत है। आईएसएस पर मिले ये तीन स्ट्रेन अलग-अलग समय पर और अलग-अलग स्थानों से लिए गए थे इसलिए आईएसएस में इनके टिकाऊपन और पारिस्थितिक महत्व का अध्ययन करना होगा। मंगल पर मानव को भेजा जाए, उससे पहले इस तरह के अध्ययन महत्वपूर्ण और ज़रूरी हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.pinimg.com/originals/f4/9f/28/f49f28e49021e82ac52857d828eaef58.jpg
हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER), भोपाल द्वारा किए गए एक आनुवंशिक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ग्वारपाठा (एलो
वेरा) में सूखा प्रतिरोधी जीन्स की पहचान की है। ये जीन्स ग्वारपाठा को अत्यंत
गर्म और शुष्क जलवायु में पनपने में मदद करते हैं।
संस्थान के विनीत के. शर्मा और उनके साथियों ने ग्वारपाठा के पूरे जीनोम का
अनुक्रमण किया है, जिसमें उन्होंने 86,000 से अधिक
प्रोटीन-कोडिंग जीन्स की पहचान की। यह अध्ययन iScience नामक शोध पत्रिका में फरवरी
2021 में प्रकाशित हुआ है।
पहचाने गए कुल जीन्स में से टीम ने सिर्फ उन 199 जीन्स का बारीकी से अध्ययन
किया,
जिनकी भूमिका पौधे के विकास और अनुकूलन में महत्वपूर्ण देखी
गई। इनमें से कुछ जीन्स पौधे को सूखे की स्थिति में पुष्पन में मदद करते हैं और इस
तरह उनके प्रजनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने अनुक्रम-विशिष्ट डीएनए से जुड़ने वाले जीन्स भी
पहचाने हैं जो बाहरी उद्दीपनों पर संकेत देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
उन्होंने ग्वारपाठा में ऐसे जीन्स भी देखे जो कार्बोहाइड्रेट को तोड़कर ऊर्जा बनाने
में मदद करने के अलावा कम या उच्च तापमान, पानी
की कमी,
उच्च लवणीयता और पराबैंगनी विकिरण जैसी तनावपूर्ण स्थितियों
में प्रतिक्रिया को नियंत्रित करते हैं।
सूखे की स्थिति से निपटने में इस पौधे के कम से कम 90 जीन्स भूमिका निभाते
हैं। ये जीन भौतिक रूप से भी एक-दूसरे के साथ संपर्क में आते हैं, जिससे लगता है कि ग्वारापाठा में सूखा से निपटने वाले तंत्र का अनुकूली विकास
हुआ होगा।
उम्मीद है कि यह अध्ययन भविष्य में इस पौधे के विकास के साथ-साथ इसके औषधीय गुणों को भी समझने में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://opt.toiimg.com/recuperator/img/toi/m-77338841/77338841.jpg?resizemode=1&width=90&height=66
गर्मी का मौसम आते ही गन्ने का रस, जलज़ीरा, नींबू पानी जैसे ठंडे पेय की दुकानें सज जाती है। ठंडे पेय लोगों को गर्मी से
राहत देते हैं। किंतु कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है कि गर्म पेय भी गर्मियों में
ठंडक पहुंचा सकते हैं। अब तक वैज्ञानिकों को इस पर संदेह रहा है क्योंकि गर्म
चीज़ें पीकर तो आप शरीर को ऊष्मा दे रहे हैं। लेकिन हाल ही में हुआ एक अध्ययन बताता
है कि गर्मियों में कुछ विशेष परिस्थितियों में गर्म पेय वाकई आपको ठंडक दे सकते
हैं।
होता यह है कि गर्म पेय पीने से हमारे शरीर की ऊष्मा में इज़ाफा होता है, जिससे हमें पसीना अधिक आता है। जब यह पसीना वाष्पीकृत होता है तो पसीने के साथ
हमारे शरीर की ऊष्मा भी हवा में बिखर जाती है, जिसके
परिणामस्वरूप हमारे शरीर की ऊष्मा में कमी आती है और हमें ठंडक महसूस होती है।
शरीर की ऊष्मा में आई यह कमी उस ऊष्मा से अधिक होती है जितनी गर्म पेय पीने के
कारण बढ़ी थी।
यह हो सकता है कि पसीना आना हमें अच्छा न लगता हो, लेकिन
पसीना शरीर के लिए अच्छी बात है। ठंडक पहुंचाने में अधिक पसीना आना और उसका वाष्पन
महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पसीना जितना अधिक आएगा, उतनी
अधिक ठंडक देगा लेकिन उस पसीने का वाष्पन ज़रूरी है।
यदि हम किसी ऐसी जगह पर हैं जहां नमी या उमस बहुत है, या
किसी ने बहुत सारे कपड़े पहने हैं, या इतना अधिक पसीना आए कि वह
चूने लगे और वाष्पीकृत न हो पाए, तो फिर गर्म पेय पीना घाटे का
सौदा साबित होगा। क्योंकि वास्तव में तो गर्म पेय शरीर में गर्मी बढ़ाते हैं। इसलिए
इन स्थितियों में जहां पसीना वाष्पीकृत न हो पाए, ठंडे
पेय पीना ही राहत देगा।
गर्म पेय का सेवन ठंडक क्यों पहुंचाता है, यह
जानने के लिए ओटावा विश्वविद्यालय के स्कूल फॉर ह्यूमन काइनेटिक्स के ओली जे और
उनके साथियों ने प्रयोगशाला में सायकल चालकों पर अध्ययन किया। प्रत्येक सायकल चालक
की त्वचा पर तापमान संवेदी यंत्र लगाए और शरीर के द्वारा उपयोग की गई ऑक्सीजन और
बनाई गई कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा को नापने के लिए एक माउथपीस भी लगाया।
ऑक्सीजन और कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बताती है कि शरीर के चयापचय में कितनी
ऊष्मा बनी। साथ ही उन्होंने हवा के तापमान और आर्द्रता के साथ-साथ अन्य कारकों की
भी बारीकी से जांच की। इस तरह एकत्रित जानकारी की मदद से उन्होंने पता किया कि
प्रत्येक सायकल चालक ने कुल कितनी ऊष्मा पैदा की और पर्यावरण में कितनी ऊष्मा
स्थानांतरित की। देखा गया कि गर्म पानी (लगभग 50 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) पीने
वाले सायकल चालकों के शरीर में अन्य के मुकाबले में कम ऊष्मा थी।
वैसे यह अभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि गर्म पेय शरीर को अधिक पसीना पैदा
करने के लिए क्यों उकसाते हैं, लेकिन शोधकर्ताओं का अनुमान है
कि ऐसा करने में गले और मुंह में मौजूद ताप संवेदकों की भूमिका होगी। इस पर आगे
अध्ययन की ज़रूरत है।
फिलहाल शोधकर्ताओं की सलाह के अनुसार यदि आप नमी वाले इलाकों में हैं तो गर्मी में गर्म पानी न पिएं। लेकिन सूखे रेगिस्तानी इलाकों के गर्म दिनों में गर्म चाय की चुस्की ठंडक पहुंचा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://live-production.wcms.abc-cdn.net.au/a3a7be363238b5a0e0b02c428713ac4b?impolicy=wcms_crop_resize&cropH=1080&cropW=1618&xPos=151&yPos=0&width=862&height=575
वर्ष 2010 में क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित एक फिल्म आई
थी इंसेप्शन। इसमें लियोनार्डो डीकैप्रियो दूसरों के सपनों में जाकर, उनसे बातचीत कर उनसे खुफिया जानकारी उगलवाते दिखते हैं। और यह फिल्मी कल्पना
अब हकीकत बनने की ओर कदम बढ़ाती दिखती है।
शोधकर्ताओं ने पहली बार सवालों के माध्यम से सपना देखने वाले उन लोगों के साथ
सपनों में संवाद साधा है जिन्हें ये पता होता है कि वे सपना देख रहे हैं। ऐसे
लोगों को ल्यूसिड ड्रीमर कहते हैं। चार अलग-अलग प्रयोगशालाओं में 36 प्रतिभागियों
पर किए गए अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया कि लोग सोते समय बाहरी परिवेश से संकेत
ग्रहण कर सकते हैं और उन पर प्रतिक्रिया दे सकते हैं।
यह अध्ययन नींद की मूलभूत परिभाषा को भी चुनौती देता है, जो कहती है कि नींद एक ऐसी अवस्था है जिसमें मस्तिष्क का बाहरी परिवेश से
संपर्क नहीं रहता और नींद में मस्तिष्क अपने आस-पास के परिवेश से अनभिज्ञ रहता है।
ल्यूसिड ड्रीमिंग एक ऐसी अवस्था है जिसमें सपने में व्यक्ति को एहसास होता है
कि वह सपना देख रहा है, और अपने सपनों पर उसका कुछ हद तक नियंत्रण
भी होता है। ल्यूसिड ड्रीमिंग का उल्लेख सबसे पहले चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में
ग्रीक दार्शनिक अरस्तू के लेखन में मिलता है। और 1970 के बाद से वैज्ञानिक इस पर
अध्ययन करते रहे हैं। देखा गया है कि प्रत्येक दो में से एक व्यक्ति को कम से कम
एक बार तो ल्यूसिड ड्रीमिंग का अनुभव होता है, और
लगभग 10 प्रतिशत लोगों को महीने में एक या उससे अधिक बार ल्यूसिड ड्रीमिंग अनुभव
होता है। हालांकि ल्यूसिड ड्रीमिंग दुर्लभ है लेकिन प्रशिक्षण देकर इसके अनुभव को
बढ़ाया जा सकता है।
पूर्व में कुछ अध्ययनों में रोशनी, बिजली के झटकों और
ध्वनियों के माध्यम से लोगों के सपनों में प्रवेश कर उनसे संवाद करने की कोशिश की
गई थी,
लेकिन उनमें संपर्क करने पर लोगों की तरफ से बहुत कम
प्रतिक्रिया मिली थी, और उनसे जटिल जानकारियां या सूचनाएं भी
नहीं हासिल हो सकी थीं।
फ्रांस,
जर्मनी, नीदरलैंड और संयुक्त राज्य
अमेरिका स्थित चार प्रयोगशालाओं के दल ने पूर्व में हुए इन अध्ययनों को आगे बढ़ाने
की सोची,
जिसमें उन्होंने सवालों-संकेतों की मदद से सपनों में लोगों
से दो-तरफा संवाद स्थापित किया। इसके लिए उन्होंने 36 प्रतिभागी चुने। इनमें से
कुछ प्रतिभागियों को पहले ही ल्यूसिड ड्रीमिंग का अनुभव था, और कुछ को नहीं लेकिन उन्हें हफ्ते में कम से कम एक सपना याद रहता था।
शोधकर्ताओं ने सभी प्रतिभागियों को ल्यूसिड ड्रीमिंग से परिचित कराया और
ध्वनियों,
रोशनियों या उंगली की थाप के माध्यम प्रतिभागियों को सपना
देखने के एहसास से वाकिफ होने के लिए प्रशिक्षित किया।
अध्ययन में अलग-अलग समय पर नींद के सत्र रखे गए थे। कुछ सत्र रात के थे और तो
कुछ सत्र अल-सुबह रखे गए थे। प्रतिभागियों के साथ सपनों में संवाद करने के लिए
चारों प्रयोगशालाओं ने अलग-अलग तरीकों का इस्तेमाल किया। प्रतिभागियों को कहा गया
कि जब उन्हें एहसास हो जाए कि वे सपनों में प्रवेश कर गए हैं तो तय संकेतों (जैसे
आंखो को बार्इं ओर तीन बार घुमाकर, चेहरा घुमाकर) के माध्यम से
इसका संकेत दे दें।
प्रतिभागियों के नींद में पहुंचने पर वैज्ञानिकों ने उनके मस्तिष्क की गतिविधि, आंखों की गति और चेहरे की मांसपेशियों के संकुचन की निगरानी ईईजी हेलमेट की
मदद से की। नींद के कुल 57 सत्रों में से, छह
लोगों ने 15 बार यह संकेत दिए कि वे सपनों में प्रवेश कर गए हैं। इसके बाद
शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों से कुछ सवाल किए जिनके जवाब या तो हां या ना में दिए
जा सकते थे,
या गणित के कुछ सवाल पूछे, जैसे
आठ में से छह गए तो कितने बचे। इनका जवाब प्रतिभागियों को कुछ तय संकेतों के
माध्यम से देना था – जैसे मुस्कराकर या त्यौरियां चढ़ा कर, या
गणित का सवाल हल करने पर आए जवाब के बराबर संख्या में आंखों को हिलाकर वगैरह।
शोधकर्ताओं ने कुल 158 सवाल पूछे। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित निष्कर्ष
बताते हैं कि शोधकर्ताओं को 18.6 प्रतिशत सही जवाब मिले। 3.2 प्रतिशत सवालों के
गलत जवाब मिले;
17.7 प्रतिशत जवाब स्पष्ट नहीं थे और 60.8 प्रतिशत सवालों
के कोई जवाब नहीं मिले। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह संख्या दर्शाती है कि मुश्किल
ही सही,
लेकिन नींद में किसी व्यक्ति से संपर्क साधा जा सकता है, और दो-तरफा संवाद किया जा सकता है।
प्रतिभागियों के जागने के बाद उनसे उनके सपनों का वर्णन भी पूछा गया। कुछ
प्रतिभागियों को पूछे गए सवाल उनके सपनों के हिस्से के रूप में याद रहे थे। एक
प्रतिभागी को लगा था कि सपने में सवाल कोई कार रेडियो पूछ रहा है, तो एक अन्य प्रतिभागी को सवाल किसी सूत्रधार की आवाज़ में सुनाई पड़ा।
शोधकर्ताओं का कहना है कि यह प्रयोग सपनों का अध्ययन करने का एक बेहतर तरीका प्रदान करता है। अब तक सपनों के बारे में जानने का आधार सपना देखने वाले द्वारा दिए गए विवरण थे, जिनमें गड़बड़ की उम्मीद रहती थी। उम्मीद है कि भविष्य में इस तकनीक से सदमे, अवसाद से गुज़र रहे लोगों के सपनों को प्रभावित कर इस स्थिति से उबरने में उनकी मदद की जा सकेगी। इसके अलावा सपनों में ‘संवाद’ कर लोगों की समस्याओं को हल करने, नए कौशल सीखने या किसी रचनात्मक विचार को लाने में भी मदद मिल सकेगी। वैसे यह तकनीक व्यक्ति द्वारा दिए गए विवरण की पूरक ही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://inteng-storage.s3.amazonaws.com/img/iea/QjOdkNmmwd/sizes/dreams_resize_md.jpg
विगत 9 फरवरी को वुहान में आयोजित पत्रकार वार्ता में विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डबल्यूएचओ) की टीम ने कोरोनावायरस की उत्पत्ति पर महीने भर की
जांच के अपने निष्कर्ष प्रस्तुत किए हैं। अपनी रिपोर्ट में शोधकर्ताओं ने
प्रयोगशाला से वायरस के गलती से लीक होने के विवादास्पद सिद्धांत को निरस्त कर
दिया है। उनका अनुमान है कि सार्स-कोव-2 ने किसी जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया
है। यह अन्य शोधकर्ताओं के निष्कर्षों से मेल खाता है। टीम ने अपनी रिपोर्ट में
चीन सरकार और मीडिया द्वारा प्रचारित दो अन्य परिकल्पनाएं भी प्रस्तुत की हैं: यह
वायरस या इसका कोई पूर्वज चीन के बाहर किसी जीव से आया और एक बार लोगों में फैलने
पर यह फ्रोज़न वन्य जीवों और अन्य कोल्ड पैकेज्ड सामान में भी फैल गया।
अलबत्ता,
रिपोर्ट पर अन्य शोधकर्ताओं की प्रतिक्रिया मिली-जुली रही
है। वाशिंगटन स्थित जॉर्जटाउन युनिवर्सिटी की वायरोलॉजिस्ट एंजेला रैसमुसेन के
अनुसार वायरस उत्पत्ति सम्बंधी निष्कर्ष दो सप्ताह में दे पाना संभव नहीं है।
हालांकि ये निष्कर्ष चीन सरकार के सहयोग से एक लंबी जांच का आधार तो बनाते ही हैं।
कुछ शोधकर्ताओं के अनुसार चीनी और अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की इस टीम ने गंभीर
सवाल उठाए हैं और व्यापक रूप से डैटा का भी अध्ययन किया है। आने वाले समय में अधिक
विस्तृत रिपोर्ट की उम्मीद की जा सकती है।
लेकिन कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह जांच कोई नई जानकारी प्रदान नहीं
करती। इस रिपोर्ट में वायरस के किसी जंतु के माध्यम से फैलने के प्रचलित नज़रिए की
ही बात कही गई है। इसके अलावा रिपोर्ट में चीनी सरकार द्वारा प्रचारित दो
परिकल्पनाओं पर ज़ोर दिया गया है। साथ ही चीन में ‘कोल्ड फूड चेन’ के माध्यम से
शुरुआती संक्रमण फैलने का विचार भी सीमित साक्ष्यों पर आधारित है। हालांकि, वैज्ञानिकों का मानना है कि टीम के पास अभी भी ऐसी जानकारी हो सकती है जिसे
सार्वजनिक नहीं किया गया है। इस विषय में डबल्यूएचओ टीम के सदस्य और मेडिकल
वायरोलॉजिस्ट डोमिनिक डायर का अनुमान है कि कोरोनावायरस का संक्रमण चीनी बाज़ारों
में दूषित मछली और मांस के कारण फैला है जिसकी अधिक जानकारी लिखित रिपोर्ट में
प्रस्तुत की जाएगी।
डबल्यूएचओ ने वायरस के प्रयोगशाला से लीक होने के विचार पर भी अध्ययन किया है।
इस बारे में अध्ययन के प्रमुख और खाद्य-सुरक्षा एवं ज़ूनोसिस विशेषज्ञ पीटर बेन
एम्बरेक ने इस संभावना को खारिज किया है। क्योंकि वैज्ञानिकों के पास दिसंबर 2019
के पहले इस वायरस की कोई जानकारी नहीं थी इसलिए प्रयोगशाला से लीक होने का विचार
बेतुका है। इसके साथ ही टीम को प्रयोगशाला में किसी प्रकार की दुर्घटना के भी कोई
साक्ष्य नहीं मिले हैं। हालांकि टीम ने प्रयोगशाला की फॉरेंसिक जांच नहीं की
है।
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार यह निष्कर्ष वुहान में हुई घटनाओं को तो ठीक तरह से
प्रस्तुत करते हैं लेकिन महामारी के बढ़ने और इसके राजनीतिकरण होने की वजह से
प्रयोगशाला से वायरस के लीक होने और प्राकृतिक उत्पत्ति के सिद्धांतों के बीच
टकराव अधिक गहरा हो गया है और टीम इसे सुलझाने में नाकाम रही है।
गौरतलब है कि टीम द्वारा अधिकांश जांच वुहान में वायरस के फैलने के शुरुआती
दिनों पर केंद्रित है और रिपोर्ट में शहर के शुरुआती संक्रमण के समय को चित्रित
करने का प्रयास किया गया है। टीम ने वर्ष 2019 की दूसरी छमाही में वुहान शहर और
हुबेई प्रांत के स्वास्थ्य रिकॉर्ड का अध्ययन किया है। इसमें इन्फ्लुएंज़ा जैसी
बीमारियों के असामान्य उतार-चढ़ावों पर ध्यान दिया गया है और यह देखा गया कि वहां
खांसी-जुकाम की औषधियों की बिक्री में किस तरह के बदलाव आए थे। विशेष रूप से
निमोनिया से सम्बंधित मौतों की तलाश की गई है। इसके अलावा टीम ने सार्स-कोव-2
वायरल आरएनए का पता लगाने के लिए 4500 रोगियों के नमूनों की जांच की और वायरस के
विरुद्ध एंटीबॉडी के लिए रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। इन सभी जांचों में
शोधकर्ताओं को वायरस के दिसंबर 2019 के पहले फैलने के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं।
फिर भी डायर का मानना है कि संक्रमण के स्पष्ट संकेतों की कमी का मतलब यह नहीं
कि वायरस समुदाय में पहले ही फैल नहीं चुका था। देखा जाए तो टीम का विश्लेषण सीमित
डैटा और एक ऐसी निगरानी प्रणाली पर आधारित था जो किसी नए वायरस के फैलाव को पकड़
पाने के लिए तैयार नहीं की गई थी। वायरस के फैलाव का सही तरह से आकलन करने के लिए
शोधकर्ताओं को न केवल स्वास्थ्य केंद्रों में, बल्कि
समुदाय स्तर पर अध्ययन करना होगा।
इसके अलावा टीम ने इस वायरस के पीछे एक जंतु को ज़िम्मेदार तो ठहराया है लेकिन
संभावित जंतुओं की पहचान नहीं कर पाई है। चीनी शोधकर्ताओं ने देश के कई घरेलू, पालतू और जंगली जीवों का परीक्षण किया था लेकिन ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल पाया
था कि इन प्रजातियों में वायरस मौजूद है। लेकिन यदि इस महामारी को प्राकृतिक संचरण
की घटना मानते हैं तो भविष्य में भी जीवों से मनुष्यों में वायरस संचरण की घटनाओं
की संभावना बनी रहेगी।
टीम ने कहा है कि वुहान और आसपास के क्षेत्रों में जांच जारी रखना चाहिए।
इसमें विशेष रूप से शुरुआती मामलों को ट्रैक करने का प्रयास करना चाहिए ताकि
महामारी की शुरुआत का पता लगाने में मदद मिले। टीम के मुताबिक, ज़रूरत इस बात की है कि वुहान प्रांत और अन्य क्षेत्रों में ब्लड बैंक से
पुराने नमूनों का विशेषण किया जाए जिनमें संक्रमण का पता लगाने के लिए एंटीबॉडी
परीक्षण भी शामिल हों। इसके साथ ही फ्रोज़न वन्य जीवों की संभावित भूमिका का पता
लगाने के लिए और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। जंतु स्रोत की संभावना का पता
लगाने के लिए भी व्यापक परीक्षण करना होंगे।
हाल ही में जापान, कंबोडिया और थाईलैंड के चमगादड़ों में
सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कोरोनावायरस के मिलने की खबर है। ऐसे में डबल्यूएचओ की
टीम ने चीन के बाहर वायरस उत्पत्ति की खोज करने की भी सिफारिश की है। इस विषय पर नेचर
कम्युनिकेशन्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जून 2020 में थाईलैंड की गुफाओं
में पाए जाने वाले हॉर्सशू चमगादड़ में नया कोरोनावायरस मिला है जिसे RaTG203 नाम दिया गया है। इस वायरस
का 91.5 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। इसी तरह के नज़दीक से सम्बंधित
अन्य वायरसों का पता चला है। इससे यह कहा जा सकता है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया में
इस महामारी वायरस के करीबी सम्बंधी अभी भी उपस्थित है।
इसके अलावा शोधकर्ताओं ने कंबोडिया और जापान में संग्रहित फ्रोज़न चमगादड़ों के नमूनों में सार्स-कोव-2 से सम्बंधित कई अन्य कोरोनावायरस की पहचान की है। सार्स-कोव-2 का सबसे करीबी सम्बंधी RaTG13 चीन में पाया गया है। इसका लगभग 96 प्रतिशत जीनोम सार्स-कोव-2 से मेल खाता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि चीन में किए गए अध्ययन जितना पैसा और मेहनत दक्षिण-पूर्वी एशिया में लगाए जाएं तो वायरस का और अधिक गहराई से पता लगाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://image.thanhnien.vn/768/uploaded/minhhung/2021_02_09/000_92k3xe_gpdo.jpg
माइक्रोप्लास्टिक प्लास्टिक के पांच मिलीमीटर से छोटे कण होते
हैं। ये व्यावसायिक प्लास्टिक उत्पादन के दौरान और बड़े प्लास्टिक के टूटने से
उत्पन्न होते हैं। रोज़मर्रा के जीवन में प्लास्टिक के अधिक इस्तेमाल के कारण
माइक्रोप्लास्टिक ने पूरी पृथ्वी को अपनी चपेट में ले लिया है। प्रदूषक के रूप में
माइक्रोप्लास्टिक पर्यावरण, मानव और पशु स्वास्थ्य के लिए
अत्यंत हानिकारक हो सकता है।
हाल ही में वैज्ञानिकों ने गर्भवती महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक्स
पाया है। यह बेहद चिंता का विषय है। नए शोध में गर्भनाल के नमूनों में अनेक प्रकार
के सिंथेटिक पदार्थ भी पाए गए हैं। इटली में हुए एक अध्ययन में महिलाओं की प्रसूति
में कोई जटिलता नहीं पता चली है और इसलिए
छोटे प्लास्टिक के कणों का शरीर पर प्रभाव निश्चित तौर पर अभी तक ज्ञात नहीं हो
पाया है। हालांकि, विशेषज्ञों का मानना है कि प्लास्टिक के
रसायन गर्भस्थ शिशु की प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान अवश्य पहुंचा सकते हैं।
रोम के फेटबेनफ्रेटेली के प्रसूति और स्त्री रोग विभाग के शोध प्रमुख एंटोनियो
रागुसा तब आश्चर्यचकित हो गए जब उन्होंने बच्चों के जन्म के बाद माताओं द्वारा दान
में दिए गए छह में से चार गर्भनाल में 12 माइक्रोप्लास्टिक टुकड़े पाए। अनुमान है
कि माओं के शरीर में माइक्रोप्लास्टिक भोजन या सांस के साथ प्रवेश कर गए होंगे।
अध्ययन के लिए प्रत्येक गर्भनाल से केवल तीन प्रतिशत ऊतक का नमूना लिया गया था, और उसमें भी इतनी अधिक मात्रा में माइक्रोप्लास्टिक टुकड़ों का मिलना बेहद
गंभीर मामला है। शोध पत्र में कहा गया है कि सभी प्लास्टिक के कण रंगीन थे। तीन
नमूनों को पॉलीप्रोपायलीन के रूप में पहचाना गया, जबकि
अन्य नौ अन्य नमूनों के केवल रंग की पहचान ही संभव हो पाई।
एनवायरनमेंट इंटरनेशनल नामक जर्नल में प्रकाशित एक
शोध में शोधकर्ताओं ने बताया है कि पिछली सदी में ही प्लास्टिक का वैश्विक उत्पादन
प्रति वर्ष 32 करोड़ टन तक पहुंच गया था। उत्पादन में हुई 40 प्रतिशत की वृद्धि का
उपयोग एकल-उपयोग पैकेजिंग के रूप में किया जाता है। उपयोग हो जाने पर इसे कचरे के
रूप में फेंक दिया जाता है।
गर्भनाल गर्भस्थ शिशु से अपशिष्ट पदार्थ को निकालने के साथ-साथ बच्चे को ऑक्सीजन और पोषण भी प्रदान करता है। 10 माइक्रॉन (0.01 मि.मी.) के माइक्रोप्लास्टिक रक्त प्रवाह में पहुंचकर मां से गर्भस्थ शिशु में भी पहुंच जाते हैं। शरीर में पहुंचते ही ये माइक्रोप्लास्टिक्स शिशु के शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करके प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्तेजित करते हैं। माइक्रोप्लास्टिक्स पर्यावरणीय प्रदूषकों और प्लास्टिक योजक सहित अन्य रसायनों के वाहक के रूप में भी कार्य कर सकता है, जिससे शरीर को अत्यधिक हानि होती है। माइक्रोप्लास्टिक्स गर्भनाल के भ्रूण और मातृ दोनों हिस्सों में पाए गए थे। ये कण शिशुओं के शरीर में प्रवेश कर गए होंगे, हालांकि वैज्ञानिक शिशु के अंदर इनका पता लगाने में असमर्थ थे। भ्रूण पर माइक्रोप्लास्टिक्स के संभावित प्रभाव में भ्रूण की सामान्य वृद्धि कम हो जाना है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अध्ययन में शामिल दो अन्य महिलाओं के गर्भनाल में माइक्रोप्लास्टिक कणों का न पाया जाना बेहतर आहार, शरीर की कार्यिकी या बेहतर जीवन शैली का परिणाम हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit :https://i.guim.co.uk/img/media/294635653dcf9c2e923a9f7a8d2c9eedf0344587/0_220_4199_2519/master/4199.jpg?width=445&quality=45&auto=format&fit=max&dpr=2&s=f9aa3e0e2a17ecf9ab5aeaddf0d1611b https://cdn.thewire.in/wp-content/uploads/2021/01/10103527/image.png
फिलहाल 9 टीके हैं जो कोविड-19 की गंभीर बीमारी और मृत्यु की
रोकथाम में असरदार पाए गए हैं। लेकिन टीकों की आपूर्ति में कमी को देखते हुए
वैज्ञानिक इस सवाल पर विचार और परीक्षण कर रहे हैं कि क्या दो खुराक देने के लिए
टीकों का मिला-जुला उपयोग किया जा सकता है। यानी पहली खुराक किसी टीके की दी जाए
और बूस्टर किसी अन्य टीके का? यदि ऐसे कुछ सम्मिश्रण कारगर
रहते हैं तो आपूर्ति की समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकेगा। यह भी सोचा जा रहा है
कि क्या दो अलग-अलग टीकों के मिले-जुले उपयोग से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं।
ऐसे मिश्रित उपयोग का एक परीक्षण चालू भी हो चुका है। इसमें यह देखा जा रहा है
कि रूस के गामेलाया संस्थान द्वारा विकसित स्पूतनिक-5 का उपयोग
एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड द्वारा बनाए गए टीके के बूस्टर डोज़ के साथ किया जा सकता
है। इसी प्रकार के अन्य परीक्षण में एस्ट्राज़ेनेका-ऑक्सफोर्ड टीके और
फाइज़र-बायोएनटेक द्वारा बनाए गए टीके के मिले-जुले उपयोग पर काम चल रहा है। ये दो
टीके अलग-अलग टेक्नॉलॉजी का उपयोग करते हैं। कुछ अन्य परीक्षण अभी विचार के स्तर
पर हैं। अलबत्ता,
इन परीक्षणों के परिणाम आने तक सावधानी बरतना ज़रूरी है।
अतीत में भी टीकों के मिले-जुले उपयोग के प्रयास हो चुके हैं। जैसे एड्स के
संदर्भ में दो टीकों का इस्तेमाल करके ज़्यादा शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्राप्त करने
के प्रयास असफल रहे थे। ऐसा ही परीक्षण एबोला के टीकों को लेकर भी किया गया था।
कुछ मामलों में स्थिति बिगड़ भी गई थी। कोविड-19 के टीकों के मिले-जुले उपयोग की
कुछ समस्याएं भी हैं। जैसे हो सकता है कि दो में से एक टीके को मंज़ूरी मिल चुकी हो
लेकिन दूसरे को न मिली हो। एक समस्या यह भी हो सकती है कि दो टीके अलग-अलग
टेक्नॉलॉजी पर आधारित हों – जैसे एक एमआरएनए पर आधारित हो और दूसरा प्रोटीन पर
आधारित हो।
अलबत्ता,
टीकों के ऐसे मिश्रित उपयोग का एक फायदा भी है। हरेक टीका
प्रतिरक्षा तंत्र के किसी एक भाग को सक्रिय करता है। तो संभव है कि दो अलग-अलग
टीकों का उपयोग करके हम दो अलग-अलग भागों को सक्रिय करके बेहतर सुरक्षा हासिल कर
पाएं।
जैसे स्पूतनिक-5 टीके में दो अलग-अलग एडीनोवायरस (Ad26, Ad5) का उपयोग सम्बंधित जीन को शरीर में पहुंचाने के लिए किया गया है। दूसरी ओर, एस्ट्राज़ेनेका टीके में प्रमुख खुराक और बूस्टर दोनों में चिम्पैंज़ी एडीनोवायरस (ChAd) का ही उपयोग हुआ है। इसका परिणाम यह हो सकता है कि एक खुराक से उत्पन्न प्रतिरक्षा को दूसरी खुराक स्थगित कर दे। ऐसे में स्पूतनिक और एस्ट्राज़ेनेका के मिले-जुले उपयोग से यह समस्या नहीं आएगी। यह फायदा कई अन्य मिश्रणों में भी संभव है। वैसे सबसे बड़ी बात तो यह है कि ऐसा संभव हुआ तो आपूर्ति की समस्या से निपटा जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/vaccine_1280p_4.jpg?itok=EiQnsAsM
पिछले वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो
लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़
हायपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल
सकती है।
इंपीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है। टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रेक्ट्री सिरेमिक्स हैं; अर्थात ये असाधारण रूप से ऊष्मा-सह हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म पर्यावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है। इन दोनों ही यौगिकों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। अत:, शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तेज़ गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है। उन्होंने पाया कि इन दोनों यौगिकों के मिश्रण का गलनांक 3990 डिग्री सेल्सियस था। लेकिन दोनों यौगिकों के अलग-अलग गलनांक अब तक ज्ञात इस तरह के यौगिकों से ज़्यादा पाए गए (टैंटेलम कार्बाइड 3880 डिग्री सेल्सियस, हैफ्नियम कार्बाइड 3928 डिग्री सेल्सियस)। ये पदार्थ तेज़ अंतरिक्ष यानों में उपयोगी होंगे (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/1136827675/960×0.jpg?fit=scale
मौजूदा डिजिटल स्टोरेज डिवाइसेस में कई टेराबाइट
डैटा सहेजा जा सकता है। किंतु नई टेक्नॉलॉजी आने पर ये तकनीकें पुरानी पड़ जाती हैं
और इनसे डैटा पढ़ना मुश्किल हो जाता है, जैसा कि मैग्नेटिक टेप और
फ्लॉपी डिस्क के साथ हो चुका है। अब, वैज्ञानिक जीवित सूक्ष्मजीव
के डीएनए में इलेक्ट्रॉनिक रूप से डैटा लिखने की कोशिश में हैं।
डैटा सहेजने के लिए डीएनए कई कारणों से आकर्षित करता है। पहला
तो यह कि डीएनए हमारी सबसे कॉम्पैक्ट हार्ड ड्राइव से भी हज़ार गुना ज़्यादा सघन है; नमक के एक दाने के बराबर टुकड़े में यह 10 डिजिटल फिल्में सहेज सकता है। दूसरा, चूंकि डीएनए जीव विज्ञान का केंद्र बिंदु है इसलिए उम्मीद है कि डीएनए को पढ़ने-लिखने
की तकनीक समय के साथ सस्ती और अधिक बेहतर हो जाएंगी।
वैसे डीएनए में डैटा सहेजना कोई बहुत नया विचार नहीं है। शुरुआत
में शोधकर्ता डीएनए में डैटा सहेजने के लिए डिजिटल डैटा (0 और 1) को चार क्षार – एडेनिन, गुआनिन,
साइटोसीन और थायमीन – के संयोजनों के रूप में परिवर्तित करते
थे। डीएनए संश्लेषक की मदद से यह परिवर्तित डैटा डीएनए में लिखा जाता था। यदि कोड बहुत
लंबा हो तो डीएनए सिंथेसिस की सटीकता पर फर्क पड़ता है, इसलिए डैटा
को छोटे-छोटे हिस्सों (200 से 300 क्षार लंबे डैटा खंड) में तोड़कर डीएनए में लिखा जाता
है। प्रत्येक डैटा खंड को एक इंडेक्स नंबर दिया जाता है, जो अणु
में उसका स्थान दर्शाता है। डीएनए सीक्वेंसर की मदद से डैटा पढ़ा जाता है। लेकिन यह
तकनीक बहुत महंगी है; एक मेगाबिट डैटा लिखने में लगभग ढाई लाख रुपए
लगते हैं। और डीएनए जिस पात्र में सहेजा जाता है वह समय के साथ खराब हो सकता है।
इसलिए टिकाऊ और आसानी से लिखे जाने वाले विकल्प के रूप में पिछले
कुछ समय से शोधकर्ता सजीवों के डीएनए में डैटा सहेजने पर काम कर रहे हैं। कोलंबिया
विश्वविद्यालय के तंत्र जीव विज्ञानी हैरिस वांग ने जब ई.कोली बैक्टीरिया की
कोशिकाओं में फ्रुक्टोज़ जोड़ा तो उसके डीएनए के कुछ हिस्सों की अभिव्यक्ति में वृद्धि
हुई।
फिर, क्रिस्पर की मदद से अधिक अभिव्यक्त
होने वाले खंड को कई भागो में काट दिया और इनमें से कुछ को बैक्टीरिया के डीएनए के
उस विशिष्ट हिस्से में जोड़ा जो पूर्व में हुए वायरस के हमलों को ‘याद’ रखता है। इस
तरह जोड़ी गई जेनेटिक बिट डिजिटल 1 दर्शाती है। फ्रुक्टोज़ संकेत की अनुपस्थिति में डीएनए
कोई रैंडम बिट सहेजता है जो डिजिटल 0 दर्शाती है। ई. कोली के डीएनए को अनुक्रमित
कर डैटा पढ़ा जा सकता है।
लेकिन इस व्यवस्था में भी सीमित डैटा ही सहेजा जा सकता है इसलिए
वांग की टीम ने फ्रुक्टोज़ की जगह इलेक्ट्रॉनिक संकेतों का उपयोग किया। उन्होंने ई.
कोली बैक्टीरिया में कुछ जीन जोड़े जो विद्युत संकेत दिए जाने पर डीएनए की अभिव्यक्ति
में वृद्धि करते हैं। अभिव्यक्ति में वृद्धि बैक्टीरिया के डीएनए में 1 सहेजती है।
डीएनए को अनुक्रमित कर 0-1 के रूप में लिखा डैटा पढ़ा जा सकता है। नेचर केमिकल बायोलॉजी
में शोधकर्ता बताते हैं कि इस तकनीक की मदद से उन्होंने 72 बिट लंबा संदेश ‘हैलो वर्ल्ड!’
लिखा है। संदेशयुक्त ई. कोली को मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों के साथ भी जोड़कर
उनमें डैटा सहेजा जा सकता है।
बैक्टीरिया में उत्परिवर्तन से डैटा में बदलाव या उसकी हानि हो सकती है, जिस पर काम करने की आवश्यकता है। बहरहाल यह तकनीक जासूसी फिल्मों-कहानियों को जानकारी छुपाने के एक और खुफिया तरीके का विचार तो देती ही है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Ecoli_1280p_0.jpg?itok=D544o9Ku
विदा हो चुका वर्ष 2020 भारतीय विज्ञान जगत के लिए नई
चुनौतियों और अपेक्षाओं का रहा। अदृश्य कोरोनावायरस से फैली कोविड-19 महामारी का
विभिन्न क्षेत्रों में व्यापक प्रभाव दिखाई दिया। साल के पूर्वार्ध में वैज्ञानिकों ने नए कोरोनावायरस (सार्स-कोव-2) का जीनोम
अनुक्रम पता करने में सफलता प्राप्त की। इसी के साथ देश में ही टीका बनाने का
मार्ग प्रशस्त हुआ। दरअसल किसी भी रोग से जंग के लिए टीकों का विकास बेहद जटिल और
परीक्षणों के कई चरणों से गुज़रने वाली लंबी अनुसंधान प्रक्रिया है। लेकिन
वैज्ञानिकों ने प्रयोगशालाओं में रात-दिन एक कर वर्ष के अंत तक कोविड-19 का टीका
बनाकर अपनी कुशलता का परिचय दिया।
वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के
झंडे तले कार्यरत तीन प्रयोगशालाओं – हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्युलर
बायोलॉजी, नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव
बायोलॉजी और चंडीगढ़ स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी के
अनुसंधानकर्ताओं ने सार्स-कोव-2 का जीनोम अनुक्रम तैयार किया, जिसका
उद्देश्य वायरस की उत्पत्ति और उसके बदलते स्वरूपों का पता लगाकर टीका निर्माण की
राह बनाना था।
गुज़रे साल में देश की पांचवी विज्ञान, प्रौद्योगिकी
और नवाचार नीति-2020 (एसटीआईपी) का प्रारूप तैयार किया गया। देश में शोध और विकास
को मूर्त रूप देने में विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही
है। गौरतलब है कि स्वतंत्रता के बाद पहली विज्ञान नीति का निर्माण 1958 में किया
गया था। वर्ष 2020 में बनाई जा रही नई विज्ञान नीति में आत्मनिर्भर भारत के विचार
को केंद्र में रखकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी,
महिलाओं और पंचायतों
के सशक्तिकरण पर ध्यान केंद्रित किया गया है। विज्ञान मंत्रालय ने पहली बार नई
विज्ञान नीति निर्माण में राज्यों की विज्ञान परिषदों सहित लगभग 15,000 लोगों की
राय ली। नई विज्ञान नीति में स्थानीय से वैश्विक नवाचारों,
आवश्यकता आधारित
प्रौद्योगिकी तैयार करने और सतत विकास को बढ़ावा देने की कोशिश की गई है।
हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड
मॉलीक्युलर बायोलॉजी के अनुसंधानकर्ताओं को ततैया का जीनोम अनुक्रमण करने में
सफलता मिली। ततैया का वैज्ञानिक नाम लेप्टोफिलिन बोलार्डी है। वैज्ञानिकों
का कहना है कि ततैया का जीनोम अनुक्रमण ड्रॉसोफिला और ततैया के बीच होने
वाले जैविक संघर्ष से सम्बंधित कारणों को समझने में सहायक होगा।
जनवरी में भारतीय विज्ञान कांग्रेस
एसोसिएशन का 107वां सालाना जलसा बैंगलुरू में संपन्न हुआ,
जिसमें देश-विदेश के
वैज्ञानिकों और अनुसंधानकर्ताओं ने ग्रामीण विकास में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की
भूमिका पर मंथन किया। वैज्ञानिकों का कहना था कि ग्रामीण विकास में प्रौद्योगिकी
को व्यापक बनाने की आवश्यकता है। वर्ष 2006 में आयोजित भारतीय विज्ञान कांग्रेस के
दौरान समेकित ग्रामीण विकास के विभिन्न मुद्दों पर विमर्श हुआ था।
17 जनवरी को फ्रेंच गुआना प्रक्षेपण केंद्र
से जी-सैट संचार उपग्रह को अंतरिक्ष में विदा किया गया। 7 नवंबर को भारतीय
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) द्वारा श्रीहरिकोटा से पीएसएलवी-डीएल से दस
उपग्रहों को अंतरिक्ष में सफलतापूर्वक भेजा गया। दस उपग्रहों में से नौ विदेशी हैं, जबकि
राडार इमेजिंग उपग्रह अर्थ ऑब्जर्वेशन सेटैलाइट-1 स्वदेशी उपग्रह है। यह सामरिक
निगरानी के साथ कृषि विज्ञान, वानिकी,
भू-विज्ञान, तटीय
निगरानी और बाढ़ जैसी आपदाओं के दौरान उपयोगी सिद्ध होगा। अंतरिक्ष विज्ञान की
गतिविधियों और कार्यक्रमों में निजी क्षेत्र की सहभागिता के लिए मार्ग प्रशस्त
हुआ।
कोरोना महामारी का असर भारत के प्रथम मानव
मिशन गगनयान पर भी पड़ा। गगनयान मिशन का प्रक्षेपण अब अगले वर्ष तक होने की उम्मीद
है। गगनयान परियोजना में तीन भारतीय वैज्ञानिक भेजे जाएंगे, जो
सात दिन अंतरिक्ष में बिताएंगे।
गुज़रे साल वैज्ञानिकों की टीम ने अगस्त में
मेघालय में मशरूम की रात में चमकने वाली एक नई प्रजाति रोरीडोमाइसेज़
फायलोस्टेकायडीस खोजी। अंधेरे में यह हरे रंग की रोशनी से जगमगाता है। इसी
कारण इसे ल्यूमिनिसेंट मशरूम कहते हैं। मेघालय में मशरूम की अलग-अलग प्रजातियों का
पता लगाने के लिए एक प्रोजेक्ट चल रहा है।
इसी वर्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग
ने 50 वें वर्ष में प्रवेश किया और स्वर्ण जयंती वर्ष आयोजनों की शुरुआत हुई।
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना 3 मई 1971 को की गई थी। इस विभाग की
स्थापना का उद्देश्य देश में वैज्ञानिक गतिविधियों और परियोजनाओं को बढ़ावा देने
में नोडल एजेंसी की भूमिका निभाना है।
विज्ञान समागम प्रदर्शनी का समापन 20 मार्च
को दिल्ली में हुआ। यह अपने ढंग की अनोखी प्रदर्शनी थी,
जिसमें आम लोगों को
विज्ञान की प्रगत विधाओं से परिचित होने का मौका मिला। प्रदर्शनी मुम्बई, कोलकाता
और बैंगलुरु के बाद दिल्ली पहुंची थी।
साल के उत्तरार्द्ध में भारत हाइपरसोनिक
टेक्नोलॉजी प्राप्त करने वाला चौथा देश बन गया। इस तकनीक की सहायता से ध्वनि से छह
गुना अधिक रफ्तार वाली मिसाइलें तैयार होंगी।
वर्ष के अंत में पहली बार वर्चुअल माध्यम
से इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल आयोजित किया गया,
जिसमें इस बार 41
गतिविधियां शामिल की गर्इं। पहली बार महोत्सव में कृषि वैज्ञानिक सम्मेलन हुआ, जिसमें
खेती-किसानी से सम्बंधित कार्यों के लिए कृत्रिम बुद्धि के उपयोग पर ज़ोर दिया गया।
विज्ञान को उत्सव से जोड़ते इस कार्यक्रम की शुरुआत 2015 में नई दिल्ली से हुई थी।
गुज़रे वर्ष भारतीय वैज्ञानिक नेशनल सुपर
कंप्यूटिंग मिशन के अंतर्गत देश में ही सुपरकंप्यूटरों की शृंखला तैयार करने में
जुटे रहे। अंतरिक्ष, उद्योग और मौसम सम्बंधी पूर्वानुमानों में सुपरकंप्यूटरों
की अहम भूमिका है।
10 जुलाई को रीवा अल्ट्रा मेगा सौर
परियोजना राष्ट्र को समर्पित की गई। यह विश्व की बड़ी परियोजनाओं में से एक है। यह
पहली सौर योजना है, जिसे विश्व बैंक और क्लीन टेक्नोलॉजी फंड से धनराशि मिली
है। इस सौर परियोजना से हर साल 15.7 लाख टन कार्बन उत्सर्जन रोका जा सकेगा।
बीते साल ‘अम्फन’ और ‘निसर्ग’ जैसे
विनाशकारी तूफान आए, लेकिन उपग्रहों से प्राप्त सटीक पूर्वानुमानों के आधार पर
लाखों लोगों का जीवन बचा लिया गया।
विज्ञान के विभिन्न विषयों में मौलिक और
उत्कृष्ट अनुसंधान के लिए 14 वैज्ञानिकों को शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। इनमें दो महिला वैज्ञानिक भी शामिल हैं। अभी तक 560
वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया जा चुका है। इनमें 542 पुरुष और 18 महिला वैज्ञानिक
हैं।
इसी वर्ष सितंबर में विख्यात अंतरिक्ष
वैज्ञानिक प्रो. सतीश धवन का जन्मशती वर्ष मनाया गया। इसरो ने विभिन्न कार्यक्रम
आयोजित किए और अंतरिक्ष में उनके असाधारण योगदान का स्मरण किया। प्रोफेसर धवन का
जन्म 25 सितंबर 1920 को हुआ था। प्रोफेसर धवन 1972 में इसरो के अध्यक्ष बने थे।
इसी वर्ष सर पैट्रिक गेडेस द्वारा भारतीय
वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु पर लिखी किताब के सौ साल पूरे हुए।
विदा हो चुके वर्ष में कोरोनावायरस पर बनाए
गए विज्ञान कॉर्टूनों पर केंद्रित किताब बाय बाय कोरोना प्रकाशित हुई।
पुस्तक के लेखक जाने-माने वैज्ञानिक और सांइटूनिस्ट डॉ. प्रदीप कुमार श्रीवास्तव
हैं। यह विश्व की विज्ञान कॉर्टूनों पर प्रकाशित अपनी तरह की पहली किताब है।
दिसंबर में भारत उन चुनिंदा देशों में
शामिल हो गया, जहां चालकरहित मेट्रो ट्रेनों का संचालन हो रहा है। देश में
इसकी शुरुआत दिल्ली से हुई। चालकरहित मेट्रो की यात्रा कम्युनिकेशन बेस्ड ट्रेन
कंट्रोल सिग्नलिंग सिस्टम पर आधारित है। बीते साल देश में ही तैयार ज़मीन से हवा
में प्रहार करने वाली आकाश मिसाइल के निर्यात का मार्ग प्रशस्त हो गया। आकाश
मिसाइल लड़ाकू विमानों, क्रूज़ मिसाइलों और ड्रोन पर सटीक निशाना लगा सकती है।
26 जनवरी 2020 को रोटावायरस वैक्सीन के
खोजकर्ता और जैव प्रौद्योगिकी विभाग के पूर्व सचिव डॉ. एम.के. भान का निधन हो गया।
13 फरवरी को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित डॉ. राजेंद्र कुमार पचौरी
नहीं रहे। उनके नेतृत्व में संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल ने जलवायु
परिवर्तन पर 2007 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया था। श्री पचौरी आईपीसीसी के
अध्यक्ष और टेरी के महानिदेशक रहे। उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े
संस्थानों में सक्रिय भूमिका निभाई थी। 2001 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया
था।
18 अप्रैल 2020 को जाने-माने कृषि विज्ञानी
और आनुवंशिकीविद प्रो. वी. एल. चोपड़ा का 83 वर्ष की आयु में देहांत हो गया।
उन्होंने भारत में गेहूं की पैदावार बढ़ाने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान किया।
उन्हें कृषि के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित बोरलाग अवॉर्ड और 1985
में पद्मभूषण से अलंकृत किया गया था। वे योजना आयोग के सदस्य रहे। उन्होंने भारतीय
कृषि अनुसंधान परिषद के महानिदेशक पद को सुशोभित किया।
इस वर्ष 15 मई को प्रसिद्ध भौतिकीविद डॉ.
एस. के. जोशी का निधन हो गया। उन्हें भौतिकी में विशेष योगदान के लिए प्रतिष्ठित
शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार मिला था।
22 जून 2020 को कोलकाता में अमलेंदु
बंद्योपाध्याय का 90 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने खगोल विज्ञान को आम
लोगों में लोकप्रिय बनाने में विशेष योगदान दिया था। उन्होंने आठ किताबें और लगभग
2500 लेख लिखे। उन्हें विज्ञान संचार में विशेष योगदान के लिए राष्ट्रीय विज्ञान
एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद ने राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया था।
विख्यात गणितज्ञ सी. एस. शेषाद्रि का 17
जुलाई को 88 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें ‘शेषाद्रि कांस्टेंट’ के लिए
अत्यधिक ख्याति मिली। उन्हें पद्मभूषण और शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित
किया गया था। इसी साल हमने प्रसिद्ध रेडियो खगोलविद प्रो. गोविन्द स्वरूप को खो
दिया। सितंबर में विख्यात परमाणु वैज्ञानिक और परमाणु ऊर्जा आयोग के पूर्व निदेशक डॉ.
शेखर बसु का निधन हो गया।
इसी वर्ष 7 सितंबर को जाने-माने वैज्ञानिक
डॉ. नरेन्द्र सहगल का निधन हो गया। उन्हें विज्ञान संचार के क्षेत्र में विशेष
योगदान के लिए अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्होंने
भारत में विज्ञान संचार की गतिविधियों के विस्तार में अहम भूमिका निभाई थी। डॉ.
सहगल राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद और विज्ञान प्रसार के
संस्थापक निदेशक थे।
इसी वर्ष 14 दिसंबर को प्रसिद्ध एयरोस्पेस
वैज्ञानिक आर. नरसिंहा का देहांत हो गया। उन्होंने लाइट कॉम्बैट एयरक्रॉफ्ट (एलसीए)
और तेजस की डिज़ाइन एवं विकास में अहम भूमिका निभाई थी। प्रो. नरसिंहा को पद्मभूषण
से सम्मानित किया गया था।
विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं के संपादक मंडल ने इस बार बीते साल को यादगार बनाने वाले व्यक्तियों और अनुसंधान कथाओं का चयन कर एक सूची बनाई है, जिसमें कोविड-19 के टीकों के अनुसंधान और विकास को शामिल किया गया है। हमारे देश के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने इंडिया इंटरनेशनल साइंस फेस्टीवल में अपने संबोधन के दौरान विदा हो चुके साल 2020 को ‘विज्ञान वर्ष’ की संज्ञा दी है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.technologyforyou.org/wp-content/uploads/2020/04/covid-updates1.jpg