हम सूंघते कैसे हैं

गंध एक महत्वपूर्ण संवेदना है। मनुष्यों में यह शायद उतनी महत्वपूर्ण न हो, लेकिन कई अन्य जंतुओं में यह सबसे महत्वपूर्ण संवेदना होती है। जहां अन्य संवेदनाओं को लेकर हमारी समझ काफी विस्तृत है, वहीं गंध को लेकर कई अस्पष्टताएं हैं। अब हम इस दिशा में एक कदम और आगे बढ़े हैं।

गंध संवेदना दरअसल एक रसायन-आधारित संवेदना है। कुछ रसायन हमारी गंध संवेदी तंत्रिकाओं के ग्राहियों को उत्तेजित करते हैं और मस्तिष्क इसे गंध के रूप में पहचानता है। अब पहली बार एक मानव गंध-ग्राही की सटीक त्रि-आयामी संरचना का खुलासा किया गया है। नेचर में प्रकाशित इस अध्ययन में OR51E2 नामक एक गंध-ग्राही की संरचना का विवरण देते हुए बताया गया है कि यह आणविक क्रियाओं के माध्यम से कैसे चीज़ (cheese) की गंध को ताड़ता है।

गौरतलब है कि मानव जीनोम में 400 जीन्स होते हैं जो गंध-ग्राहियों के कोड हैं और ये ग्राही कई गंधों को पहचान सकते हैं। स्तनधारियों में गंध ग्राही के जीन्स सबसे पहले चूहों में 1990 के दशक में पहचाने गए थे। इससे पहले 1920 के दशक में यह अनुमान लगाया गया था कि मनुष्य की नाक तकरीबन 1000 गंधों को ताड़ सकती है। लेकिन 2014 में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि हम 1 खरब से ज़्यादा गंधों को अलग-अलग पहचान सकते हैं।

हर गंध-ग्राही गंधदार अणुओं (ओडोरेंट) के सिर्फ एक समूह से अंतर्क्रिया कर सकता है जबकि एक ही ओडोरेंट कई ग्राहियों को सक्रिय कर सकता है। होता यह है कि इन ग्राहियों की एक मिश्रित सक्रियता विशिष्ट गंध का एहसास कराती है।

लेकिन इन गंध-ग्राहियों की क्रिया को समझना एक चुनौती रही है। एक दिक्कत यह रही है कि ये ग्राही सिर्फ गंध तंत्रिकाओं में ही ठीक-ठाक काम करते हैं, बाकी किसी भी कोशिका में ये ठप हो जाते हैं। इसका मतलब यह होता है कि इन्हें किसी भी अन्य प्रकार की कोशिका में जोड़कर अध्ययन नहीं किया जा सकता।

इस समस्या से निपटने के लिए कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सैन फ्रांसिस्को) के आशीष मांगलिक और उनके साथियों ने OR51E2 नामक ग्राही पर ध्यान केंद्रित किया। इस ग्राही की विशेषता है कि यह ओडोरेंट की पहचान के अलावा कुछ अन्य कार्य भी करता है और यह गुर्दों तथा प्रोस्टेट की कोशिकाओं में भी पाया जाता है।

यह ग्राही (OR51E2) दो ओडोरेंट अणुओं के साथ अंतर्क्रिया करता है – एसिटेट (जिसकी गंध सिरके जैसी होती है) और प्रोपिओनेट (जिसकी गंध चीज़नुमा होती है)। शोधकर्ताओं ने इस ग्राही को शुद्ध रूप में प्राप्त किया और फिर प्रोपिओनेट से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध OR51E2 की संरचना का विश्लेषण किया। इसके लिए उन्होंने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी और एटॉमिक रिज़ॉल्यूशन इमेजिंग तकनीकों का इस्तेमाल किया। इसके अलावा उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन की भी मदद ली ताकि पता चल सके कि यह ग्राही प्रोटीन ओडोरेंट अणुओं के साथ कैसे अंतर्क्रिया करता है।

विश्लेषण से पता चला कि यह प्रोटीन (OR51E2) आयनिक व हाइड्रोजन बंधनों के ज़रिए प्रोपिओनेट अणु के कार्बोक्सिलिक समूह को एक अमीनो अम्ल (आर्जीनीन) से जोड़ लेता है। जैसे ही प्रोपिओनेट जुड़ता है, OR51E2 की आकृति बदल जाती है और यही ग्राही को चालू कर देता है। शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस ग्राही के जीन में आर्जीनीन को प्रभावित करने वाले उत्परिवर्तन उसे प्रोपिओनेट द्वारा सक्रिय नहीं होने देते।

वैज्ञानिकों की इच्छा रही है कि वे गंध ग्राहियों की रासायनिक संरचनाओं का एक कैटालॉग तैयार कर सकें और उसके आधार पर यह बता सकें कि इनमें से कौन-से ग्राही मिलकर किस गंध विशेष का एहसास कराते हैं। मांगलिक की टीम द्वारा यह खुलासा मात्र पहला कदम है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम बुद्धि बता देगी कि आपने क्या देखा था

कृत्रिम बुद्धि (एआई) का एक नया करिश्मा सामने आया है और यह बहुत हैरतअंगेज़ है। इस बार एआई ने व्यक्ति के ब्रेन स्कैन का विश्लेषण करके इस बात का खुलासा कर दिया कि उस व्यक्ति ने क्या देखा था। एकदम साफ चित्र तो नहीं बना लेकिन मोटा-मोटा खाका तो सामने आ ही गया।

एक ओर तो तंत्रिका वैज्ञानिक यह समझने की जद्दोजहद में हैं कि हमारी आंखों से जो इनपुट प्राप्त होता है, उसे दिमाग मानसिक छवियों का रूप कैसे देता है, वहीं एआई ने दिमाग की इस काबिलियत की नकल कर ली है। हाल ही में एक कंप्यूटर दृष्टि सम्मेलन में यह बताया गया कि ब्रेन स्कैन को देखकर एआई उस छवि का काफी यथार्थ चित्रण कर देती है जो उस व्यक्ति ने हाल में देखी थी।

दिमाग में बनी तस्वीर को पढ़ने का यह करिश्मा एआई की एक एल्गोरिद्म की मदद से किया गया – स्टेबल डिफ्यूज़न। इस एल्गोरिद्म का विकास जर्मनी के एक दल ने 2022 में जारी किया था। स्टेबल डिफ्यूज़न दरअसल पूर्व में विकसित DALL-E 2 और Midjourney जैसे कुछ एल्गोरिद्म के समान है लेकिन वे एल्गोरिद्म किसी पाठ्य वस्तु द्वारा दिए गए उद्दीपन के आधार पर तस्वीर बनाते हैं। इन्हें पाठ्य वस्तुओं से जुड़ी करोड़ों तस्वीरों की मदद से ऐसा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है।

ताज़ा अध्ययन के लिए जापान के एक दल ने स्टेबल डिफ्यूज़न के मानक प्रशिक्षण में कुछ आयाम और जोड़े। इनमें खास तौर से ब्रेन स्कैन के दौरान व्यक्ति को दिखाए चित्र के ब्रेन स्कैन में दिख रहे पैटर्न को लेकर विवरण शामिल किए गए थे। यानी व्यक्ति को कोई चित्र दिखाया, ब्रेन स्कैन में उसका पैटर्न देखा और उस पैटर्न को चित्र से जोड़कर विवरण बनाया और यह सारी जानकारी कंप्यूटर में डाल दी।

इसके बाद एल्गोरिद्म इस जानकारी का उपयोग चित्रों के प्रोसेसिंग में शामिल दिमाग के विभिन्न हिस्सों (जैसे ऑक्सीपीटल व टेम्पोरल लोब्स) से प्राप्त जानकारी को जोड़कर तस्वीर का निर्माण करता है। ओसाका विश्वविद्यालय के यू तगाकी का कहना है कि यह एल्गोरिद्म फंक्शनल एमआरआई (fMRI) से प्राप्त ब्रेन स्कैन की जानकारी की व्याख्या करता है। यह रिकॉर्ड करता है कि किसी भी क्षण दिमाग के विभिन्न हिस्सों में रक्त के प्रवाह में किस तरह के परिवर्तन हो रहे हैं, जिसके आधार पर यह पता चलता है कि कौन से हिस्से सक्रिय हैं।

जब व्यक्ति फोटो देखता है तो टेम्पोरल लोब मूलत: तस्वीर की विषयवस्तु (व्यक्ति, वस्तु अथवा सीनरी) पर ध्यान देता है जबकि ऑक्सीपीटल लोब उसके विन्यास और परिप्रेक्ष्य (जैसे वस्तुओं की साइज़ और स्थिति) रिकॉर्ड करता है। यह सारी जानकारी fMRI में दिमाग के हिस्सों की सक्रियता के रूप में रिकॉर्ड हो जाती है। इसी जानकारी का उपयोग एआई द्वारा करके तस्वीर को पुन: निर्मित किया जाता है।

इस अध्ययन में जानकारी का एक स्रोत यह था कि मिनेसोटा विश्वविद्यालय में 4 व्यक्तियों के ब्रेन स्कैन की सूचना थी जो प्रत्येक व्यक्ति द्वारा 10,000 फोटो देखते हुए लिए गए थे। इनमें से प्रत्येक के कुछ ब्रेन स्कैन्स का उपयोग एल्गोरिद्म के प्रशिक्षण में नहीं किया गया था, लेकिन उनका उपयोग एल्गोरिद्म की जांच में किया गया।

एआई द्वारा जनित प्रत्येक तस्वीर शोरगुल के रूप में शुरू होती है जैसा टीवी पर भी देखा जाता है। फिर धीरे-धीरे जब स्टेबल डिफ्यूज़न व्यक्ति की दिमागी सक्रियता की जानकारी की तुलना उसे प्रशिक्षण के दौरान दिखाई गई तस्वीरों से करता है, तो कुछ पैटर्न उभरने लगते हैं। अंतत: एक तस्वीर उभर आती है। इसमें विषयवस्तु, चीज़ों की जमावट, और परिप्रेक्ष्य काफी अच्छे से नज़र आते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: ऑक्सीपीटल लोब में सक्रियता से विन्यास और परिप्रेक्ष्य सम्बंधी जानकारी तो पर्याप्त थी लेकिन वस्तुओं को पहचानने के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं थी। लिहाज़ा जहां घंटाघर था, वहां एल्गोरिद्म ने एक अमूर्त सा चित्र बना दिया। बहरहाल, शोधकर्ताओं का मत है कि प्रशिक्षण के लिए ज़्यादा डैटा का उपयोग करने से ये बारीकियां भी पकड़ी जा सकेंगी। फिलहाल शोधकर्ताओं ने इस समस्या से निपटने के लिए प्रशिक्षण के लिए प्रयुक्त छवियों के साथ नाम भी चस्पा कर दिए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इमोजी कैसे बनती और मंज़ूर होती है

सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर इमोजी का बहुत इस्तेमाल होता है। और तो और, इमोजी का इस्तेमाल विज्ञान संवाद में भी खूब होने लगा है। हर साल 17 जुलाई को विश्व इमोजी दिवस पर नए इमोजी लॉन्च होते हैं। 2018 में, डीएनए, सूक्ष्मजीव, प्रयोगशाला कोट और पेट्री डिश सहित कई विज्ञान इमोजी फोन कीबोर्ड में शामिल हुई थीं। फिर 2019 में स्टेथोस्कोप, खून की बूंद और प्लास्टर की इमोजी शामिल हुई थी। 2020 में हृदय, और 2021 में एक्स-रे स्कैन की इमोजी शामिल हुई थी।

जुलाई 2022 में, रोचेस्टर विश्वविद्यालय के एंड्र्यू व्हाइट ने प्रोटीन इमोजी शामिल करने के लिए प्रस्ताव भेजा था। उनका यह प्रस्ताव तो मंज़ूर नहीं हुआ लेकिन उनके प्रयास से इमोजी के बारे में कुछ रोचक बातें ज़रूर निकलीं।

इमोजी की शुरुआत कब हुई?

पहली बार इमोजी 1990 के दशक के अंत में जापानी मोबाइल फोन पर दिखाई दी थी। 2022 में बांसुरी, जेलीफिश, गधा जैसी 31 नई इमोजी लॉन्च होने के साथ वर्तमान में स्वीकृत इमोजी की संख्या 3600 से अधिक हो गई है। 2015 में, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने ‘फेस विद टीयर्स ऑफ जॉय’ इमोजी को पहली बार एक शब्द के तौर पर शामिल किया था।

इमोजी में रुचि कैसे बनी?

लगभग डेढ़ साल पहले, लोगों को ट्विटर पर इमोजी के साथ अंकगणित करते देखना दिलचस्प लगा था। जैसे, लघुगणक (लॉग) के गुण दर्शाने के लिए इमोजी का इस तरह इस्तेमाल:

log (😅) = 💧log (😄)

लोग सोशल मीडिया पर इमोजी का नए-नए तरह से उपयोग कर रहे थे। फिर एक पेपर आया, जिसमें बताया गया था कि इमोजी को वेक्टर के रूप में कैसे दर्शाएं।

इसके बाद कुछ मज़ेदार समीकरण बनाए गए। जैसे यदि ‘राजा’ की इमोजी से ‘पुरुष’ इमोजी घटा दें और इसमें ‘महिला’ इमोजी को जोड़ दें तो ‘रानी’ इमोजी बनेगी। इमोजी की मदद से तत्वों की एक आवर्त सारणी भी बनाई गई, और फिर एक प्रोग्राम भी लिखा गया जो इमोजी के साथ आणविक संरचनाएं बनाता है।

प्रोटीन की इमोजी क्यों?

हुआ यूं कि करीब एक साल पहले एंड्र्यू व्हाइट की एक सहयोगी क्रिस्टीन लिंडोर्फ-लार्सन ने इस ओर उनका ध्यान दिलाया कि इंटरनेट के प्रमुख सर्च इंजनों पर ‘प्रोटीन’ खोजने पर या तो मांस की या पोषक तत्वों की तस्वीर या चित्र ही मिलते हैं। लेकिन प्रोटीन मात्र इतना तो नहीं है।

डीएनए की पहचान जीवन को कूटबद्ध करने वाली भाषा के रूप में है, लेकिन प्रोटीन जीवन के वास्तविक कार्यकारी हैं। इसलिए लगा कि एक प्रोटीन इमोजी होना विज्ञान संचार के लिए उपयोगी साबित होगा, ठीक डीएनए इमोजी की तरह।

टीम कैसे बनी?

जब एंड्र्यू व्हाइट इमोजी के बारे में पढ़ रहे थे, तब पता चला कि कोई भी एक नई इमोजी के लिए प्रस्ताव भेज सकता है। फिर व्हाइट और क्रिस्टीन ने रोचेस्टर विश्वविद्यालय के ग्राफिक डिज़ाइनर माइकल ओसाडिव को अपनी टीम में शामिल किया, और उन्होंने प्रोटीन इमोजी ग्राफिक डिज़ाइन किया था।

मार्च 2022 में ट्विटर पर एक सर्वेक्षण करके पता किया गया कि प्रोटीन की इमोजी कैसी दिखना चाहिए। सर्वेक्षण में 800 से अधिक लोगों ने प्रतिक्रिया दी; इनमें से 70 प्रतिशत लोगों के सुझावों के आधार पर डिज़ाइन तैयार की गई। अंतत: जुलाई 2022 में प्रस्ताव इमोजी समिति को भेज दिया गया।

प्रक्रिया क्या है?

यूनिकोड कंसॉर्शियम की एक इमोजी उपसमिति है जिसमें ऐप्पल, मेटा और माइक्रोसॉफ्ट जैसी प्रतिनिधि कंपनियां और इमोजीपीडिया शामिल हैं। ये मिलकर तय करते हैं कि कौन से इमोजी प्रस्ताव उपयुक्त हैं। हालांकि, यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि प्रस्ताव चुनने के उनके मानदंड क्या हैं।

लेकिन इमोजी के लिए प्रस्ताव भेजने का कोई शुल्क नहीं है। और आम तौर पर पांच से दस पेज लंबा प्रस्ताव भेजना होता है जिसमें यह बताना होता है कि इस इमोजी की ज़रूरत क्यों है, इसके लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द कितना उपयोग होता है, और यह भी बताना होता है कि इसका डिज़ाइन कैसा हो। समिति द्वारा समीक्षा करने में लगभग चार महीने लग जाते हैं।

जब इमोजी का प्रस्ताव स्वीकार हो जाता है तो ऐप्पल और सैमसंग जैसी कंपनियां डिज़ाइनर से इमोजी बनवाती हैं, जिन्हें विश्व इमोजी दिवस पर रिलीज़ किया जाता है। यदि किसी इमोजी का प्रस्ताव अस्वीकृत हो जाता है, तो दोबारा प्रस्ताव भेजने के लिए दो साल का इंतज़ार करना पड़ता है। वैसे, दोबारा प्रस्ताव भेजने पर इसके स्वीकृत होने की संभावना कम ही होती है।

मज़ेदार बात यह है कि प्रोटीन इमोजी का प्रस्ताव स्वीकृत न होने पर व्हाइट की टीम निराश थी, लेकिन उनका कहना है कि इस प्रक्रिया के दौरान बहुत कुछ सीखने को मिला – इमोजी का इतिहास और कई मज़ेदार तथ्य। जैसे एक बात यह पता चली कि इमोजी की शुरुआत जापान से हुई, यही कारण है कि जापानी कांजी लिपि के कई अक्षर इमोजी में दिखते हैं, हालांकि अब नियम है कि इमोजी में शब्द या अक्षर नहीं होंगे।

आप भी चाहें तो इमोजी के लिए प्रस्ताव भेज सकते हैं। युनिकोड वेबसाइट पर नई इमोजी के लिए प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए गए हैं। गैर-लाभकारी संगठन इमोजीनेशन पर मुफ्त प्रस्ताव टेम्पलेट्स भी उपलब्ध हैं। (स्रोत फीचर्स)

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हूबहू जुड़वां के फिंगरप्रिंट अलग-अलग क्यों?

फिंगरप्रिंट, नाम तो सुना ही होगा। मनुष्यों और पेड़ों पर चढ़ने वाले कुछ जंतुओं की उंगलियों के सिरों पर जो धारियां पाई जाती हैं, उन्हीं के विन्यास को फिंगरप्रिंट कहते हैं। ये फिंगरप्रिंट किसी चीज़ पर पकड़ को बेहतर बनाते हैं और चीज़ों के चिकने-खुरदरेपन को भांपने में भी मदद करते हैं।

यह तो आम जानकारी है कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट एक समान नहीं होते। लेकिन यह बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि हूबहू एक-समान जुड़वां व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट भी अलग-अलग होते हैं। तो ऐसा क्यों है? सवाल का जवाब इस सवाल में छिपा है कि फिंगरप्रिंट बनते कैसे हैं।

एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि तीन प्रकार के संकेतक अणु और उंगलियों की आकृतियों में और त्वचा की वृद्धि में बारीक अंतर मिलकर इस विशिष्ट पैटर्न को पैदा करते हैं।

फिंगरप्रिंट का निर्माण भ्रूणावस्था में काफी जल्दी (गर्भ ठहरने के करीब तेरहवें हफ्ते में) शुरू हो जाता है। सबसे पहले उंगली के सिरे पर धसानें बनती हैं। ये धसानें ही आगे चलकर तीन मुख्य पैटर्न का रूप ले लेती हैं – चक्र, शंख, और मेहराब।

वैज्ञानिकों ने कई जीन्स की पहचान की है जो पैटर्न निर्माण को प्रभावित करते हैं। लेकिन यह रहस्य ही रहा है कि ये जीन किसी तरह की जैव-रासायनिक क्रियाओं के ज़रिए इस पैटर्न का निर्धारण करते हैं। और अब इसे समझने की कोशिश में एडिनबरा विश्वविद्यालय के डेनिस हेडन ने मनुष्य की भ्रूणीय उंगली के सिरों की कोशिकाओं के केंद्रकों में उपस्थित आरएनए का अनुक्रमण किया है। वे जानना चाहते थे कि विकास के दौरान वहां कौन-से जीन्स अभिव्यक्त होते हैं। इन जीन्स ने तीन संकेत क्रियापथ उजागर किए। संकेत क्रियापथ उन प्रोटीन्स को कहते हैं जो कोशिकाओं के बीच निर्देशों को लाते-ले जाते हैं। ये तीन क्रियापथ उंगली के छोरों पर त्वचा के विकास का निर्धारण करते हैं।

इनमें से दो संकेत क्रियापथों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स – WNT और BMP – विकसित हो रहे उंगली के सिरों पर एकांतर पट्टियों में अभिव्यक्त होते हैं। यही पट्टियां अंतत: धसान और उभार में तबदील हो जाती हैं। तीसरा क्रियापथ – EDAR – विकासमान धसानों में बाकी दो के साथ ही अभिव्यक्त होता है।

उपरोक्त जानकारी तो मानव ऊतकों के अध्ययन से मिली थी। गौरतलब है कि ये ऊतक स्वेच्छा से गर्भपात किए गए भ्रूणों से प्राप्त किए गए थे। लेकिन वैज्ञानिक इस जानकारी की पुष्टि किसी जंतु मॉडल पर करना चाहते थे।

चूहों में भी उंगली के छोरों पर धारियों का सरल पैटर्न पाया जाता है। जब वैज्ञानिकों ने संकेत क्रियापथों का कृत्रिम रूप से दमन किया तो पता चला कि WNT और BMP क्रियापथ परस्पर विपरीत ढंग से काम करते हैं। WNT क्रियापथ कोशिका वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसके चलते त्वचा की ऊपरी परत में उभार बनते हैं। दूसरी ओर, BMP कोशिका वृद्धि को रोकता है और इसकी वजह से नालियां बन जाती हैं। तो तीसरा क्रियापथ EDAR क्या करता है? यह क्रियापथ उभारों की साइज़ और उनके बीच की दूरी का निर्धारण करता है।

जब शोधकर्ताओं ने WNT क्रियापथ का दमन कर दिया तो उन चूहों की उंगलियों पर उभार बने ही नहीं जबकि BMP क्रियापथ को दबाने से उभार अधिक चौड़े बने। और जब EDAR को ठप कर दिया गया तो उभार व नालियां तो बनी लेकिन पट्टियों के रूप में नहीं बल्कि थेगलों के रूप में।

तो सवाल वहीं का वहीं है। हूबहू समान जुड़वां में तो जीन्स एक जैसे होते हैं। फिर पैटर्न अलग-अलग क्यों। इस संदर्भ में ट्यूरिंग पैटर्न को समझना ज़रूरी है। उक्त शोध के प्रमुख हेडन का कहना है कि परस्पर व्याप्त (ओवरलैपिंग), अलग-अलग रासायनिक क्रियाएं पेचीदा पैटर्न पैदा करती हैं। इन्हें ट्यूरिग पैटर्न कहते हैं – ऐसे पैटर्न प्रकृति में कई जगह देखने को मिलते हैं। जैसे बाघ के फर पर अलग-अलग रंग की पट्टियां, चीतों के शरीर पर धब्बे वगैरह। फिंगरप्रिंट के पैटर्न भी ट्यूरिंग पैटर्न हैं। गौरतलब है कि इन पैटर्न्स के बनने की क्रियाविधि का प्रस्ताव मशहूर कंप्यूटर वैज्ञानिक एलन ट्यूरिंग द्वारा दिया गया था।

लेकिन फिंगरप्रिंट में एक पेंच और है। हेडन की टीम ने पाया कि धारियों के विशिष्ट पैटर्न उंगलियों के आकारों में बारीक अंतरों पर भी निर्भर करते हैं। मानव भ्रूण के उतकों में उन्होंने देखा कि प्राथमिक उभार तीन स्थलों पर बनना शुरू होते हैं। भ्रूणीय उंगली की उभरी हुई मुलायम गद्दी के केंद्र में, उंगली के नाखून के नीचे वाले सिरे पर और उंगली के जोड़ पर। धारियां इन तीन स्थलों से बाहर की ओर तरंगों के रूप में फैलती हैं। हर धारी अपने से अगली धारी की स्थिति निर्धारित कर देती है।

आगे सब कुछ उंगली की रचना पर निर्भर करता है। यदि गद्दियां चौड़ी और सममित हैं और धारियां वहां पहले बनने लगें तो चक्र प्रकट होता है। लेकिन यदि गद्दियां लंबी और असममित हों, तो शंख बनेगा। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि गद्दी पर धारियां न बनें या देर से बनना शुरू हों तो नाखून वाले सिरे और जोड़ के किनारे से धारियां बढ़ते-बढ़ते गद्दी के मध्य में आकर मिलेंगी और मेहराब का निर्माण हो जाएगा।

फिंगरप्रिंट निर्माण का अध्ययन करते-करते शोधकर्ताओं ने पाया कि यही तीन रासायनिक संकेत – WNT, BMP, EDAR – शरीर के शेष भागों की त्वचा पर विभिन्न रचनाएं बनाने के लिए ज़िम्मेदार हैं, जिनमें बाल वगैरह भी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

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भ्रूण में जेनेटिक फेरबदल करने वाले वैज्ञानिक का वीज़ा रद्द

मानव भ्रूण के जीन संपादन मामले में चीनी जैव-भौतिकविद ही जियानकुई को वर्ष 2019 में अनैतिक चिकित्सा पद्धति के जुर्म में तीन वर्ष कैद की सज़ा सुनाई गई थी। सज़ा समाप्ति के बाद उन्हें गत माह हांगकांग का वीज़ा दिया गया जिसे केवल 10 दिन बाद रद्द कर दिया गया। जियानकुई को 2-वर्षीय टॉप टैलेंट वीज़ा दिया गया था जिसका उद्देश्य “समृद्ध कार्य अनुभव और अच्छी शैक्षणिक योग्यता वाले” लोगों को आकर्षित करना है। लेकिन हांगकांग के अधिकारियों ने पुनर्विचार करके वीज़ा रद्द कर दिया। अधिकारियों को जियानकुई के आवेदन पत्र में गलत तथ्य देने की आशंका है। अब आवेदन के फॉर्म में संशोधन करके आपराधिक मामले उजागर करने की शर्त जोड़ी जा सकती है।

अप्रैल 2022 में जेल से रिहा होने के बाद, जियानकुई ने बीजिंग में एक प्रयोगशाला स्थापित की थी और दुर्लभ बीमारियों के लिए जीन थेरपी पर शोध अध्ययन करने का विचार किया था। इसके लिए उन्होंने कई लोगों से शोध में वित्तीय सहायता की भी मांग की है। उन्होंने अभी तक यह खुलासा नहीं किया है कि क्या उन्हें कोई समर्थक मिला है। (स्रोत फीचर्स)

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उपकरण की मदद से बोलने का रिकॉर्ड

एलएस नामक रोग की वजह से एक महिला की बोलने की क्षमता पूरी तरह जा चुकी थी। एएलएस या लाऊ गेरिग रोग व्यक्ति को क्रमश: लकवा ग्रस्त करता जाता है। वह महिला आवाज़ तो पैदा कर सकती थी लेकिन शब्द समझने योग्य नहीं होते थे। अब उसी महिला ने एक मस्तिष्क इम्प्लांट की मदद से बोलने का रिकॉर्ड स्थापित कर दिया है।

यह दावा स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक दल ने बायोआर्काइव्स नामक वेबसाइट पर प्रकाशित शोध पत्र में किया है। महिला की पहचान गोपनीय रखने के लिए उसे छद्मनाम T12 से संबोधित किया गया है। रिकॉर्ड यह है कि T12 लगभग 62 शब्द प्रति मिनट की रफ्तार से बोल पा रही है। हम आम तौर पर करीब डेढ़ सौ शब्द प्रति मिनट की गति से बोलते हैं और बोलना संप्रेषण का सचमुच सबसे तेज़ तरीका है।

तो सवाल है कि यह करिश्मा हुआ कैसे और आगे की दिशा क्या होगी।

दरअसल, इससे जुड़े शोधकर्ता कृष्णा शिनॉय पिछले कई वर्षों से मस्तिष्क-कंप्यूटर के संपर्क बिंदु की गति को बढ़ाने के लिए प्रयासरत रहे हैं। इसके लिए वे एक छोटी सी पट्टी पर कई इलेक्ट्रोड लगाकर उसे व्यक्ति के मस्तिष्क के मोटर कॉर्टेक्स में स्थापित कर देते हैं। यह मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो गतियों को नियंत्रित करने में भूमिका निभाता है। इस उपकरण की मदद से शोधकर्ता यह रिकॉर्ड कर पाते हैं व्यक्ति की कौन-सी तंत्रिकाएं एक साथ सक्रिय हो रही हैं। इस पैटर्न से यह पता चल जाता है कि वह व्यक्ति क्या क्रिया करने के बारे में सोच रहा है, भले वह व्यक्ति लकवाग्रस्त हो।

इससे पहले जो प्रयोग हुए थे उनमें लकवाग्रस्त व्यक्ति से हाथों की हरकत करने के बारे में सोचने को कहा गया था। ऐसे सोचते वक्त उसकी तंत्रिका गतिविधि को भांपकर वह इम्प्लांट कंप्यूटर के पर्दे पर कर्सर को चलाता था या वे सिर्फ सोचकर वीडियो गेम्स खेल सकते थे या रोबोटिक भुजा पर नियंत्रण कर सकते थे।

इन सफलताओं के बाद स्टैनफोर्ड की टीम यह समझने में लगी थी कि क्या बोलने से जुड़ी क्रियाओं के संदर्भ में मोटर कॉर्टेक्स की तंत्रिकाओं में कुछ उपयोगी जानकारी होती है।

जैसे, यदि T12 बोलने की कोशिश में अपने मुंह, जीभ, स्वर यंत्र को एक खास तरह से चलाने का प्रयास कर रही है तो क्या इस बात को तंत्रिका गतिविधियों में भांपा जा सकता है? ज़ाहिर है बोलते समय मांसपेशियों की बहुत छोटी-छोटी, बारीक हरकतें होती है। लेकिन बड़ी खोज यह हुई कि इन छोटी-छोटी हरकतों के बारे में भी चंद तंत्रिकाओं में ऐसी सूचनाएं होती है जिनकी मदद से कोई कंप्यूटर प्रोग्राम यह अनुमान लगा सकता है कि व्यक्ति क्या शब्द बोलने का प्रयास कर रहा है। और जब यह सूचना कंप्यूटर को दी गई तो उसके पर्दे पर वे शब्द प्रकट हो गए जो T12 बोलना चाहती थी।

देखा जाए, तो बोलते समय हम मांसपेशियों की निहायत पेचीदा हरकतें करते हैं – हम हवा को बाहर धकेलते हैं, उसमें कंपन पैदा करते हैं ताकि वह ध्वनि के रूप में निकले, फिर मुंह, होठों, जीभ की हरकतों से उस ध्वनि को शब्दों का रूप देते हैं।

पहले भी इन हरकतों को शब्दों में ढालने की ऐसी कोशिशें की जाती रही हैं लेकिन स्टैनफोर्ड की टीम ने अधिक सटीकता और गति हासिल कर ली है। इसमें कृत्रिम बुद्धि की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही और आगे यह भूमिका बढ़ने के साथ सटीकता और गति बढ़ने की उम्मीद है। इसमें भाषा के मॉडल्स का उपयोग यह पूर्वानुमान करने में किया जाएगा कि एक शब्द बोलने के बाद क्या अपेक्षा की जाए कि वह व्यक्ति अगला शब्द क्या बोलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सपनों में हरकतें मस्तिष्क रोगों की अग्रदूत हो सकती हैं

ई लोग सपने में देखे गए दृश्यों को वास्तव में अंजाम देते हैं। यह एक समस्या है जो अक्सर नींद के रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) चरण में होती है। इसे आरईएम निद्रा व्यवहार विकार (आरबीडी) कहते हैं और यह लगभग 0.5 से लेकर 1.25 प्रतिशत लोगों, खासकर वयस्क पुरुषों, को प्रभावित करता है। विश्लेषण से पता चला है कि आरबीडी तंत्रिका-क्षति रोगों का पूर्वाभास हो सकता है। खास तौर से सिन्यूक्लीनोपैथी का अंदेशा होता है जिसमें मस्तिष्क में अल्फा-सिन्यूक्लीन नामक प्रोटीन के लोंदे जमा हो जाते हैं।

वैसे सोते हुए किए जाने वाले सारे व्यवहार आरबीडी नहीं होते। जैसे नींद में चलना या बड़बड़ाना गैर-आरईएम निद्रा के दौरान होते हैं और इन्हें आरबीडी की क्षेणी में नहीं रखा जा सकता। इसके अलावा एक तथ्य यह भी है कि सारे आरबीडी का सम्बंध सिन्यूक्लीनोपैथी से नहीं होता। और तो और, यह स्थिति अन्य कारणों से भी बन सकती है।

अलबत्ता, जब आरबीडी के साथ ऐसी कोई अन्य स्थिति न हो तो भविष्य में बीमारी अंदेशा होता है। कुछ अध्ययनों का निष्कर्ष है कि सपनों में हरकतें भविष्य में तंत्रिका-क्षति रोग पैदा होने की 80 प्रतिशत तक भविष्यवाणी कर सकती हैं। हो सकता है कि यह ऐसी बीमारी का प्रथम लक्षण हो।

आरबीडी से जुड़ा सबसे प्रमुख रोग पार्किंसन रोग है। इसमें व्यक्ति क्रमश: अपने मांसपेशीय क्रियाकलापों पर नियंत्रण गंवाता जाता है। एक अन्य रोग है लेवी बॉडी स्मृतिभ्रंश। इसमें मस्तिष्क में लेवी बॉडीज़ जमा होने लगती हैं और व्यक्ति का अपनी हरकतों और संज्ञान पर नियंत्रण नहीं रहता। एक तीसरे प्रकार की सिन्यूक्लीनोपैथी व्यक्ति की ऐच्छिक हरकतों के अलावा अनैच्छिक क्रियाओं (जैसे पाचन) में भी व्यवधान पहुंचाती है। शोधकर्ताओं का मत है कि जीर्ण कब्ज़ और गंध की संवेदना के ह्रास की अपेक्षा आरबीडी सिन्यूक्लीनोपैथी का बेहतर पूर्वानुमान देता है।

वैसे तो सपनों को चेष्टाओं में बदलना और पार्किंसन के आपसी सम्बंध के बारे में काफी समय से लिखा जाता रहा है। स्वयं जेम्स पार्किंसन ने 1817 में इसके बारे में लिखा था। सपनों और पार्किंसन रोग के बारे में कई रिपोर्ट्स के बावजूद इनकी कड़ियों को जोड़ा नहीं जा सका था। लेकिन हाल ही में खुद एक मरीज़, जिसे आरबीडी की शिकायत थी, ने अपने डॉक्टर से आग्रह किया कि उसका ब्रेन स्कैन करके पार्किंसन के बारे में शंका की जांच करें। उस मरीज़ की आशंका सही निकली – उसे पार्किंसन रोग था।

हाल के वर्षों में आरबीडी और सिन्यूक्लीनोपैथी के बीच कार्यकारी सम्बंध की समझ बढ़ी है। आम तौर पर आरईएम निद्रा के दौरान कुछ क्रियाविधि होती है जो ऐसी चेष्टाओं पर रोक लगाकर रखती है। लेकिन आरबीडी पीड़ित व्यक्ति में यह क्रियाविधि काम नहीं करती और वे शारीरिक चेष्टाएं करते रहते हैं। 1950 व 1960 के दशक में किए गए प्रयोगों से पता चला था कि आरईएम निद्रा के दौरान ऐसी हरकतें कितनी ऊटपटांग हो सकती हैं। जैसे कुछ बिल्लियों पर प्रयोग के दौरान उनके ब्रेन स्टेम के कुछ हिस्सों को काटकर निकाल दिया गया। ऐसा करने पर आरईएम निद्रा के दौरान मांसपेशियों की हरकतों पर जो रुकावट लगी थी वह समाप्त हो गई और आरईएम निद्रा के दौरान वे बिल्लियां ऐसे हाथ-पैर मारती रहीं जैसे सपने देखकर उसके अनुसार हरकतें कर रही हों।

फिर 1980 के दशक में एक मनोचिकित्सक कार्लोस शेंक और उनके साथियों ने आरबीडी को लेकर पहले केस अध्ययन प्रकाशित किए। ये मरीज़ वैसे तो शांत स्वभाव के थे किंतु उनका कहना था कि वे हिंसक सपने देखते हैं और आक्रामक व्यवहार करने लगते हैं। शेंक की टीम ने 29 आरबीडी मरीज़ों का अध्ययन किया। सभी 50 वर्ष से अधिक उम्र के थे। शेंक की टीम ने रिपोर्ट किया है कि इनमें से 11 में आरबीडी की शुरुआत के औसतन 13 वर्षों बाद तंत्रिका-क्षति रोग उभरे। आगे चलकर, कुल 21 मरीज़ों में ऐसे रोग प्रकट हुए।

इन परिणामों की पुष्टि एक ज़्यादा व्यापक अध्ययन से भी हुई है। दुनिया भर के 21 केंद्रों के 1280 आरबीडी मरीज़ों में से 74 प्रतिशत में 12 वर्षों के अंदर तंत्रिका-क्षति रोग का निदान किया गया। धीरे-धीरे आरबीडी और तंत्रिका-क्षति रोगों के बीच की कड़ियों को स्वीकार कर लिया गया है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि इन कड़ियों का कार्यिकीय आधार क्या है।

कई वैज्ञानिकों का मत है कि आरबीडी इस वजह से होता है क्योंकि सिन्यूक्लीन ब्रेन स्टेम के उस हिस्से में जमा होने लगता है जो हमें आरईएम निद्रा के दौरान निष्क्रिय करके रखता है। अपने सामान्य रूप में यह प्रोटीन तंत्रिकाओं के कामकाज में भूमिका निभाता है। लेकिन जब यह असामान्य ढंग से तह हो जाता है तो यह विषैले लोंदे बना सकता है। ऑटोप्सी परीक्षणों से पता चला है कि आरबीडी से पीड़ित 90 प्रतिशत मरीज़ों की मृत्यु मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन जमाव के लक्षणों के साथ होती है। अभी तक ऐसी कोई तकनीक उपलब्ध नहीं है जिससे जीवित व्यक्ति के मस्तिष्क में सिन्यूक्लीन के थक्कों की जांच की जा सके। अलबत्ता, वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि शरीर के अन्य हिस्सों (खासकर सेरेब्रो-स्पायनल द्रव) में गलत तरह से तह हुए सिन्यूक्लीन का पता लगाया जा सके। ऐसे एक अध्ययन में आरबीडी पीड़ित 90 प्रतिशत व्यक्तियों में गलत ढंग से तह हुआ सिन्यूक्लीन मिला है।

इतना तो सभी मान रहे हैं कि आरबीडी पार्किंसन तथा अन्य तंत्रिका-क्षति रोगों का प्रारंभिक लक्षण है। इस समझ के साथ वैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा हानिकारक सिन्यूक्लीन शरीर में किस तरह फैलता है। इस बात के काफी प्रमाण मिले हैं कि यह विकार आंतों में शुरू होता है और वहां से मस्तिष्क तक पहुंचता है। उदाहरण के लिए चूहों पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि आंतों से मस्तिष्क तक यह वैगस तंत्रिका के ज़रिए पहुंचता है। मनुष्यों में भी देखा गया है कि वैगस तंत्रिका को काट दें (जो जीर्ण आमाशय अल्सर के इलाज के लिए किया जाता है), तो पार्किंसन होने का जोखिम कम हो जाता है।

कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि पार्किंसन दो प्रकार का होता है। कुछ में यह आंतों में पहले शुरू होता है और कुछ में पहले मस्तिष्क में। जैसे डेनमार्क के आर्हुस विश्वविद्यालय के पर बोर्गहैमर का कहना है कि आरबीडी मस्तिष्क-प्रथम पार्किंसन का एक शुरुआती लक्षण हो सकता है लेकिन यह ज़रूरी नहीं कि आरबीडी के हर मरीज़ को अंतत: पार्किंसन रोग होगा ही। मात्र एक-तिहाई मरीज़ों में ऐसा होता है।

इस संदर्भ में एक और अवलोकन महत्वपूर्ण है। सॉरबोन विश्वविद्यालय की इसाबेल आर्नल्फ ने पार्किंसन के मरीज़ों के स्वप्न के समय के व्यवहार में कुछ अजीब बात देखी। ये मरीज़ जागृत अवस्था में तो शारीरिक क्रियाओं में दिक्कत महसूस करते थे, लेकिन सोते समय इन्हें हिलने-डुलने में कोई परेशानी नहीं होती थी। इस तरह के व्यवहार के रिकॉर्डिग की मदद से आर्नल्फ की टीम को आरबीडी मरीज़ों के सपनों की कुछ विशेषताएं देखने को मिलीं जिनके आधार पर शायद यह समझने में मदद मिलेगी कि हमें सपने कैसे और क्यों आते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भोजन और हमजोली के बीच चुनाव

हावत है कि भूखे पेट भजन न होए गोपाला! लेकिन हालिया अध्ययन में देखा गया है कि चूहों को ‘उल्लू’ बनाया जा सकता है कि वे हल्की-फुल्की भूख होने पर भी भोजन की बजाय विपरीत लिंग के साथ मेलजोल को प्राथमिकता देने लगें।

यह तो मालूम था कि लेप्टिन नामक हार्मोन मस्तिष्क में तंत्रिकाओं के एक समूह को सक्रिय कर भूख के एहसास को दबाता है। कोलोन विश्वविद्यालय की न्यूरोसाइंटिस्ट ऐनी पेटज़ोल्ड और उनके साथी यह देखना चाह रहे थे कि भोजन या साथी के बीच चुनाव करने में लेप्टिन की क्या भूमिका है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने कुछ नर चूहों को लेप्टिन दिया और उनका अवलोकन किया। अध्ययन के दौरान, पूरे दिन के भूखे चूहे भी खाने से भरे कटोरे की ओर नहीं गए (जैसी कि अपेक्षा थी) लेकिन साथ ही वे चुहियाओं के साथ मेलजोल बढ़ाते भी दिखे।

सेल मेटाबॉलिज़्म में प्रकाशित ये नतीजे सामाजिक व्यवहार में लेप्टिन की एक नई व आश्चर्यजनक भूमिका दर्शाते हैं और वैज्ञानिकों को तंत्रिका विज्ञान के एक अहम सवाल के जवाब की ओर एक कदम आगे बढ़ाते हैं – कि कैसे जीव अपनी मौजूदा ज़रूरतों के सामने विभिन्न व्यवहारों को प्राथमिकता देते हैं।

शोधकर्ताओं ने मस्तिष्क के तथाकथित भूख केंद्र (पार्श्व हाइपोथैलेमस) की तंत्रिकाओं की जांच की। टीम ने देखा कि लेप्टिन के प्रति संवेदी तंत्रिकाएं तब सक्रिय हुईं जब चूहे विपरीत लिंग के चूहों से मिले। ऑप्टोजेनेटिक्स नामक तकनीक की मदद से इन तंत्रिकाओं को सक्रिय करने से भी इस बात की संभावना बढ़ गई कि चूहे विपरीत लिंग के चूहों के पास जाएंगे। ये दोनों परिणाम बताते हैं कि लेप्टिन नामक हार्मोन सामाजिक व्यवहार को बढ़ावा देने में भी भूमिका निभाता है।

लेकिन जब चूहों को पांच दिन तक सीमित भोजन दिया गया तब उन्होंने साथी की बजाय भोजन को प्राथमिकता दी। अर्थात लंबी भूख ने अन्य प्रणालियों को सक्रिय कर दिया और भोजन को वरीयता मिलने लगी। लेप्टिन आम तौर पर तब पैदा होता है जब जंतु की ऊर्जा ज़रूरतों की पूर्ति हो गई हो। तब वह अपनी अन्य ज़रूरतों पर ध्यान दे सकता है, अपने व्यवहार की प्राथमिकताएं बदल सकता है।

शोधकर्ताओं ने उन तंत्रिकाओं का भी अध्ययन किया जो न्यूरोटेंसिन नामक हार्मोन बनाती हैं – यह हार्मोन प्यास से सम्बंधित है। देखा गया कि इन तंत्रिकाओं की सक्रियता ने भोजन या सामाजिक व्यवहार की बजाय प्यास बुझाने को तवज्जो दी।

चूहों में लेप्टिन और सामाजिक व्यवहारों के बीच सम्बंध समझकर इस बारे में समझा जा सकता है कि क्यों ऑटिज़्म से ग्रस्त कुछ लोग खाने की विचित्र प्रकृति दर्शाते हैं, या बुलीमिया से ग्रस्त कुछ लोगों में सामाजिक भय (सोशल फोबिया) दिखता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शोधपत्र में जालसाज़ी, फिर भी वापसी से इन्कार

प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका दी प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी: बायोलॉजिकल साइंसेज़ का कहना है कि वह एनीमोन मछली के व्यवहार पर प्रकाशित एक शोध पत्र वापस नहीं लेगा, जबकि विश्वविद्यालय की एक लंबी जांच में यह पाया गया है कि यह मनगढ़ंत है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र खोजी पैनल ने पिछले साल एक मसौदा रिपोर्ट में कहा था कि 2016 के इस अध्ययन में विसंगतियां और दिक्कतें पाई गईं थीं। लेकिन पत्रिका ने अपने 1 फरवरी के संपादकीय नोट में कहा है कि उनकी अपनी जांच में इस अध्ययन में धोखाधड़ी के पर्याप्त सबूत नहीं मिले हैं, और कुछ जगहों पर लेखकों द्वारा किए गए सुधार ने शोध पत्र की प्रमुख समस्या हल कर दी है।

डीकिन युनिवर्सिटी के मत्स्य शरीर-क्रिया विज्ञानी टिमोथी क्लार्क का कहना है कि पत्रिका का यह निर्णय तकलीफदेह है। क्लार्क उस अंतर्राष्ट्रीय समूह का हिस्सा हैं जिन्होंने इस शोध पत्र में समस्याएं पाई थीं और उसके खिलाफ आवाज़ उठाई थी।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिकीविद डेनिएल डिक्सन और सदर्न क्रॉस युनिवर्सिटी की अन्ना स्कॉट द्वारा लिखित यह शोध पत्र वर्ष 2008 से 2018 के बीच प्रकाशित उन 22 अध्ययनों में से एक है जिन्हें क्लार्क और उनके साथियों ने फर्ज़ी बताया है। आरोप विशेषकर डिक्सन और उनके साथी फिलिप मुंडे पर हैं। लेकिन दोनों ने इस आरोप को गलत बताया है।

डेलावेयर विश्वविद्यालय के एक स्वतंत्र पैनल ने डिक्सन के काम की जांच में पाया था कि डिक्सन के कई शोध पत्रों में लगातार लापरवाही बरतने, रिकॉर्ड ठीक से न रखने, डैटा शीट में दोहराव (कॉपी-पेस्ट) करने और त्रुटियां करने का पैटर्न दिखता है। यह भी निष्कर्ष निकला था कि कई शोध पत्र में शोध कदाचार भी दिखता है। इसलिए डेलावेयर विश्वविद्यालय ने पत्रिकाओं से उनके तीन शोध पत्र वापस लेने को कहा था।

उनमें से एक 2016 में साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुआ था, जिसमें अध्ययन में लगा समय शोध पत्र में वर्णित प्रयोगों की बड़ी संख्या को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं लगता और उनके द्वारा साझा की गई एक्सेल डैटा शीट में 100 से अधिक आंकड़ों का दोहराव मिला था। इससे पता चलता है कि यह डैटा वास्तविक नहीं हो सकता। साइंस पत्रिका ने अगस्त 2022 में यह शोध पत्र वापस ले लिया था।

जांच समिति के अनुसार प्रोसीडिंग्स बी में प्रकाशित शोध पत्र भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रस्त था। इस पेपर का निष्कर्ष है कि एनीमोन मछलियां “सूंघकर” भांप सकती हैं कि प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) बदरंग हैं या स्वस्थ। उनका यह निष्कर्ष प्रयोगों की एक शृंखला पर आधारित था जिसमें मछलियों को एक प्रयोगशाला उपकरण (जिसे चॉइस फ्लूम कहा जाता है) में रखा गया था, जिसमें वे तय कर सकती थीं कि उन्हें किस दिशा में तैरना है।

ड्राफ्ट रिपोर्ट के अनुसार, डिक्सन ने 9-9 मिनट लंबे 1800 परीक्षणों से अध्ययन का डैटा एकत्रित किया था। जांच समिति का कहना है कि यदि डिक्सन ने एक ही फ्लूम इस्तेमाल किया है तो इतने परीक्षणों को पूरा करने के लिए उन्हें अविराम 12 घंटे काम करते हुए 22 दिन लगेंगे, जिसमें बीच में किसी तरह की तैयारी, उपकरणों को जमाना, सफाई, मछलियों को बाल्टी से उपकरण में स्थानांतरित करने आदि का समय शामिल नहीं है। (और इसी दौरान, डिक्सन को प्रयोग कक्ष के अंदर-बाहर 1800 लीटर समुद्री जल भी लाना ले जाना होगा।) लेकिन डिक्सन के शोध पत्र के अनुसार यह प्रयोग 12 से 24 अक्टूबर 2014 तक चला, यानी केवल 13 दिन में यह परीक्षण पूरा हो गया।

इस संदर्भ में प्रोसीडिंग्स बी के प्रधान संपादक स्पेंसर बैरेट का कहना है कि विश्वविद्यालय ने पिछले साल शोध पत्र वापसी का अनुरोध किया था लेकिन उन्होंने हमारे साथ समिति की जांच रिपोर्ट यह कहते हुए साझा नहीं की थी कि वह गोपनीय है। मैं जानना चाहता हूं कि उनके उक्त अनुरोध के पीछे सबूत क्या थे।

बैरेट आगे कहते हैं कि पत्रिका के तीन संपादकों ने स्वतंत्र विशेषज्ञों की मदद से 6 महीने में मामले की जांच की, जिसके परिणामस्वरूप 59 पन्नों की जांच रिपोर्ट तैयार हुई है। इसी बीच, स्कॉट और डिक्सन ने जुलाई 2022 में पेपर में एक सुधार किया, जिसमें उन्होंने कहा कि प्रयोग वास्तव में 5 अक्टूबर से 7 नवंबर 2014 के बीच यानी 33 दिन चला, और उन्होंने एक साथ दो फ्लूम का इस्तेमाल किया था। (डिक्सन ने अन्य अध्ययनों में भी दो फ्लूम उपयोग करने के बारे में बताया है। हालांकि विश्वविद्यालय की जांच समिति यह समझ नहीं पा रही है कि वे हर 5 सेकंड में एक साथ दो फ्लूम में मछली के व्यवहार को किस तरह देख और दर्ज कर सकते हैं।)

प्रोसीडिंग्स बी पत्रिका इन सुधारों पर विश्वास करती लग रही है। लेकिन सवाल है कि कोई 33 दिनों तक एक प्रयोग को चलाएगा और गलती से इस तरह क्यों लिख देगा कि यह 12 दिन में किया गया है।

इस पर बैरेट का कहना है कि प्रोसीडिंग्स बी के जांचकर्ताओं ने नई समयावधि की सत्यता की जांच नहीं की है। “मैं मानता हूं कि समयावधि में परिवर्तन और उपयोग किए गए फ्लूम की संख्या विचित्र है, लेकिन हमने इसे सुधार के तौर पर स्वीकार किया है।”

सुधार के आलवा डिक्सन और स्कॉट ने अध्ययन का डैटा भी अपलोड किया है, जो पहले नदारद था जबकि शोध पत्र में कहा गया था कि यह ऑनलाइन उपलब्ध है। लेकिन इस डैटा ने एक नई समस्या उठाई है। डैटा के विश्लेषण से पता चलता है कि साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र की तरह इसमें भी डैटा का दोहराव हुआ है।

जांच समिति को शिकायत है कि पत्रिका की जांच ने पेपर को स्वतंत्र ईकाई के रूप में जांचा है, जबकि साइंस पत्रिका द्वारा वापस लिए शोधपत्र में भी ऐसी ही समस्याएं थीं। इस पर बैरेट का कहना है कि पत्रिका की प्रक्रिया उन अध्ययनों की जांच करना है जिन्हें स्वयं उसने प्रकाशित किया है, अन्य पत्रिकाओं द्वारा प्रकाशित अध्ययन की जांच करना नहीं। प्रत्येक अध्ययन को स्वतंत्र मानकर काम किया जाता है।

डिक्सन ने इस संदर्भ में अभी कुछ नहीं कहा है।

समिति की मसौदा रिपोर्ट बताती है कि तीसरा समस्याग्रस्त शोध पत्र वर्ष 2014 में नेचर क्लाइमेट चेंज में मुंडे, डिक्सन और साथियों द्वारा प्रकाशित एक शोध पत्र है। जिसमें इसी तरह की समस्याएं दिखती हैं। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि वर्तमान में नेचर क्लाइमेट चेंज इस पेपर की जांच कर रहा है या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

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पुरातात्विक अपराध विज्ञान

गभग 5000 साल पहले स्पेन के टैरागोना की एक गुफा में किसी ने चुपके से एक वृद्ध व्यक्ति के सिर पर पीछे से एक भोथरे हथियार से वार किया था, संभवतः उसकी मृत्यु वहीं हो गई थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में ऐसे कई हमले दर्ज हैं, फिर भी शोधकर्ताओं को यह पता करने में मशक्कत करनी पड़ती है कि वास्तव में क्या हुआ था। अब एक नए अध्ययन की बदौलत शोधकर्ता यह सब जानने के बहुत करीब पहुंच गए हैं।

नवीन अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनेक नकली खोपड़ियां पर अलग-अलग हथियारों से वार किया और उनका अवलोकन किया। शुरुआत उन्होंने पुराने समय के दो औज़ारों, कुल्हाड़ी और बसूला, से की। बसूला हथौड़ा और कुल्हाड़ी का मिला-जुला सा औज़ार है। दोनों नवपाषाण युग (10,000 से 4500 ईसा पूर्व तक) के लोकप्रिय औज़ार थे, इसी समय मानव संपर्क बढ़ा था और हिंसा भी। शोधकर्ताओं ने पॉलीयुरेथेन और रबर ‘त्वचा’ से कृत्रिम खोपड़ी बनाई और मस्तिष्क के नरम ऊतक के एहसास के लिए उसमें जिलेटिन से भर दिया। फिर, उन पर जानलेवा वार करने के काम को अंजाम दिया!

जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित इस रिपोर्ट के खूनी परिणाम दर्शाते हैं कि दोनों हथियारों ने अलग-अलग तरह के फ्रैक्चर पैटर्न दिए। उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी के वार ने बसूले की तुलना में अधिक सममित, अंडाकार फ्रैक्चर बनाया। फ्रैक्चर ने हमलावर और पीड़ित के बीच डील-डौल के अंतर के भी संकेत दिए; उदाहरण के लिए ‘मस्तिष्क’ तक भेदने वाला वार संकेत देता है कि हमलावर कद में मृतक से ऊंचा था। तो इससे लगता है कि वैज्ञानिकों ने इस प्राचीन स्पेनिश व्यक्ति की मृत्यु के रहस्य को सुलझा लिया है: ऐसा लगता है कि उसे किसी बसूले से मारा गया था। (स्रोत फीचर्स)

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