मधुमक्खियां जोड़-घटा भी सकती हैं

वैज्ञानिक यह तो पता कर चुके हैं कि मधुमक्खियां 4 तक गिन सकती हैं और शून्य को समझती हैं। लेकिन हाल ही में साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मधुमक्खियां जोड़ना-घटाना भी कर सकती हैं। अंतर इतना है कि इसके लिए वे धन-ऋण के चिंहों की जगह अलग-अलग रंगों का उपयोग करती हैं।

जीव-जगत में गिनना या अलग-अलग मात्राओं की पहचान करना कोई अनसुनी बात नहीं है। ये क्षमता मेंढकों, मकड़ियों और यहां तक कि मछलियों में भी देखने को मिलती है। लेकिन प्रतीकों की मदद से समीकरण को हल कर पाने की क्षमता दुर्लभ है। अब तक ये क्षमता सिर्फ चिम्पैंज़ी और अफ्रिकन भूरे तोते में देखी गई है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि मधुमक्खियों (Apis mellifera) का छोटा-सा दिमाग गिनने के अलावा और क्या-क्या कर सकता है। शोघकर्ताओं ने पहले तो मधुमक्खियों को नीले और पीले रंग का सम्बंध जोड़ने और घटाने की क्रिया से बनाने के लिए प्रशिक्षित किया। उन्होंने 14 मधुमक्खियों को Y-आकृति की भूलभुलैया में प्रवेश यानी Y-आकृति की निचली भुजा (जहां से दो में से एक रास्ते का चुनाव करना होता था) में रखा और वहां उन्हें नीले और पीले रंग की वस्तुएं दिखाई गर्इं। जब उन्हें नीले रंग की कुछ वस्तुएं दिखाई जातीं और मधुमक्खियां उस ओर जातीं जहां दिखाई गई वस्तु से एक अधिक वस्तु है तो उन्हें इनाम मिलता था। Y-आकार की दूसरी भुजा के अंत में एक कम वस्तु होती थी। पीले रंग की वस्तुएं दिखाने पर यदि मक्खियां एक कम वस्तु वाली भुजा की तरफ जातीं तो उन्हें इनाम मिलता था।

इसके बाद उन्हें जांचा गया। मधुमक्खियों ने 63-72 प्रतिशत मामलों में सही जवाब दिए। पीला रंग दिखाने पर उन्होंने एक वस्तु ‘घटाई’ या नीला रंग दिखाने पर एक वस्तु ‘जोड़ी’ तब माना गया कि उन्होंने सही जवाब दिया है। यह प्रयोग मात्र 14 मधुमक्खियों पर किया गया है किंतु शोधकर्ताओं का मत है कि मनुष्य की तुलना में बीस हज़ार गुना छोटे दिमाग के लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://www.theguardian.com/environment/2019/feb/06/spelling-bees-no-but-they-can-do-arithmetic-say-researchers#img-1

विज्ञान, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और छद्म विज्ञान – अरविंद

भारतीय विज्ञान कांग्रेस संघ का उद्देश्य भारत में विज्ञान को बेहतर करना और बढ़ावा देना रहा है। विज्ञान कांग्रेस संघ की स्थापना 1914 में हुई थी। स्थापना के बाद से ही विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जाता रहा है। 1947 में तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विज्ञान कांग्रेस को, विज्ञान आधारित राष्ट्रीय एजेंडे और संविधान में उल्लेखित समाज में व्यापक पैमाने पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित और पोषित करने की प्रतिबद्धता से जोड़कर, बढ़ावा दिया था। 1976 में, विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे में ऐसे मुद्दे शामिल किए गए थे जिनका सम्बंध विज्ञान व टेक्नॉलॉजी से था। आगे चलकर विज्ञान संचारकों की बैठक, स्कूल छात्रों के लिए विज्ञान और विज्ञान में महिलाएं वगैरह शामिल किए गए।

विज्ञान कांग्रेस में राजनीतिक नेताओं के शामिल होने का उद्देश्य था कि नेता चर्चाओं में भागीदारी करें और विज्ञान की दुनिया में हो रहे विकास को जानें और समझें कि कैसे राष्ट्र खुद को इनके अनुसार उन्मुख कर सकता है और आगे बढ़ सकता है। भारतीय वैज्ञानिकों की उपलब्धियों का प्रदर्शन भी विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे का हिस्सा है। हाल में प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों की भागीदारी को भी जगह दी गई है।

विज्ञान कांग्रेस पिछले कुछ वर्षों में अपने एजेंडे या उद्देश्य से दूर होती गई है। आज़ादी के बाद राजनेता आयोजन में इसलिए शामिल होते थे ताकि वे विज्ञान से राष्ट्र निर्माण की योजनाओं या कार्यों के लिए वैधता हासिल कर सकें। लेकिन आजकल भूमिकाएं पलट गई हैं। अब राजनेता विज्ञान कांग्रेस के आयोजन में विज्ञान कांग्रेस का इस्तेमाल करने और उसे प्रभावित करने के उद्देश्य से शामिल होते हैं। राजनेता विज्ञान कांग्रेस के एजेंडे को निर्धारित करने को उत्सुक रहते हैं और चाहते हैं कि वैज्ञानिक इसे अपनाएं। पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिक लोग विज्ञान कांग्रेस के आयोजन से अलग होते गए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर वेंकटरमन रामकृष्णन ने विज्ञान कांग्रेस को एक सर्कस बताया था जिसमें अधिकांश प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक शामिल नहीं होते। वैज्ञानिकों के इससे अलग होने के कई कारण हैं: पहला, भारतीय वैज्ञानिकों को लगता है कि उनके लिए ऐसे आयोजनों में शामिल होना संभव नहीं है जो एक वैज्ञानिक आयोजन की जगह सरकार द्वारा प्रायोजित आयोजन लगे; दूसरा, वैज्ञानिकों में जनता के साथ जुड़ने के प्रति उदासीनता भी है, उन्हें अपने क्षेत्र में अपनी तरक्की अधिक महत्वपूर्ण लगती है। बहुत थोड़े से भारतीय वैज्ञानिक सार्वजनिक क्षेत्र में कदम रखने, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने, वैज्ञानिक सोच फैलाने, या समाज के विभिन्न वर्गों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने को आगे आते हैं।

इन हालात में विज्ञान कांग्रेस के मंच को छदम विज्ञान के समर्थकों ने अगवा कर लिया है, जो हमेशा से बड़े-बड़े दावे करते रहे हैं। दुर्भाग्य से, हाल ही में फगवाड़ा में आयोजित 106वीं विज्ञान कांग्रेस में स्कूली छात्रों के लिए सत्र के दौरान उनका यह एजेंडा खुलकर सामने आया।

छदम विज्ञान क्या करना चाहता है? वह यह दिखाना चाहता है कि प्राचीन भारत में आधुनिक विज्ञान पहले से ही मौजूद था। ऐसा मानना प्राचीन सभ्यता के ज्ञान और आधुनिक विज्ञान, दोनों के साथ ही अन्याय है। इतिहास में किसी दावे की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करने के लिए साधनों/विधियों का उपयोग किया जाता है। इन दावों की ऐतिहासिकता और सत्यता की जांच के लिए उन्हें वैज्ञानिक तार्किकता की कसौटी पर भी कसा जाना चाहिए। अब तक, विज्ञान कांग्रेस की बैठकों में छदम विज्ञान के समर्थकों द्वारा किए गए टेस्ट-ट्यूब बेबी, पुष्पक विमान और मिसाइल प्रौद्योगिकी सम्बंधी बड़े-बड़े दावे इन परीक्षणों में विफल रहे हैं।

विज्ञान, एक निरंतर परिवर्तनशील और विकासमान ज्ञान प्रणाली है। इसमें ज्ञान का निर्माण तर्कसंगत जांच, प्रयोग द्वारा प्राप्त प्रमाणों और वैज्ञानिक समुदाय में आपसी सहमति के आधार पर होता है। विज्ञान में पहले की कई अवधारणाएं जो वैज्ञानिक रूप से सही मानी जाती थीं, उनकी जगह अब नई अवधारणाओं को मान्यता मिली है। जैसे, पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने यह महसूस किया है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचनाओं का हस्तांतरण मात्र डीएनए के माध्यम से नहीं होता है। वैज्ञानिक पहले डीएनए को ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी सूचना हस्तांतरण का एकमात्र ज़रिया मानते थे।

जिस तरह वैज्ञानिक ज्ञान में लगातार नया ज्ञान जुड़ता जा रहा है, क्या उसी तरह हम अपने पवित्र धार्मिक ग्रंथों को अपडेट करने के लिए तैयार हैं? यह तो कुफ्र माना जाएगा! जब आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान और धार्मिक ग्रंथों को एक साथ रखने का प्रयास करते हैं तब इस तरह की समस्या समाने आती हैं। इन दो ज्ञान प्रणालियों के बीच मतभेद और भी गहरे है; विज्ञान वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर वैज्ञानिक समुदाय द्वारा विकसित मानवीय ज्ञान प्रणाली है, इसलिए यह ज्ञान हमेशा अधूरा रहेगा और इसमें हमेशा नया ज्ञान जुड़ता रहेगा। दूसरी ओर, धार्मिक ग्रंथों का ज्ञान आध्यात्मिक ज्ञान है। माना जाता है कि यह देवताओं से उत्पन्न ज्ञान है। इसलिए वह संपूर्ण, अपरिवर्तनशील और अंतिम है। इसलिए इन दो ज्ञान प्रणालियों के एक साथ मिलने की बात निहित रूप से विरोधाभासी है।

इसके अलावा, ज़रूरत इस बात की है कि हम विज्ञान को सिर्फ तकनीक निर्माण के साधन के रूप में न देखकर जीवन जीने के एक तरीके के रूप में देखना शुरू करें। वैज्ञानिक विधि व्यक्ति को वैज्ञानिक तर्क के आधार पर स्थितियों का विश्लेषण करने के लिए तैयार करती है। विज्ञान का पाठ्यक्रम बनाते वक्त नीति-निर्माताओं और शिक्षाविदों, यहां तक कि खुद वैज्ञानिकों द्वारा इस पहलू को अनदेखा कर दिया गया है। भारत में ऐसी संस्थाएं हैं जो आम लोगों के बीच वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के लिए काम करती हैं – विज्ञान कांग्रेस भी इन्हीं में से एक है – लेकिन इस काम को गंभीरता से नहीं किया जा रहा है।

विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों को सुनिश्चित करना चाहिए कि ये आयोजन सही वैज्ञानिक भावना से हो। वैज्ञानिक समुदाय को और बेहतर तरीके से शामिल करने के प्रयास किए जाने चाहिए। देश की तीन विज्ञान अकादमियों – भारतीय विज्ञान अकादमी, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी – की विज्ञान कांग्रेस में ज़्यादा सघन भागीदारी होना चाहिए। सरकार को विज्ञान को बढ़ावा देने के उद्देश्य से एक मददगार के रूप में भाग लेना चाहिए, न कि अपने किसी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वार्ता और प्रस्तुतियां उन लोगों द्वारा दी जाएं जो सम्बंधित क्षेत्र में पेशेवर हों। विज्ञान अकादमियां इसमें मदद कर सकती हैं। विज्ञान के इतिहास और भारत में विज्ञान में प्राचीन योगदान के इतिहास का मूल्यांकन विज्ञान के इतिहासकारों के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए। ऐसा करके विज्ञान कांग्रेस को पटरी पर लाया जा सकता है और विज्ञान कांग्रेस भारतीय समाज में विज्ञान को एकीकृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.theweek.in/content/dam/week/news/sci-tech/images/2019/1/6/isc-106-science-congress.jpg

क्या युवा खून पार्किंसन रोग से निपट सकता है?

चूहों पर किए गए अध्ययनों से पता चल चुका है कि यदि बूढ़े चूहों को युवा चूहों का खून दिया जाए, तो उनके मस्तिष्क में नई कोशिकाएं बनने लगती हैं और उनकी याददाश्त बेहतर हो जाती है। वे संज्ञान सम्बंधी कार्यों में भी बेहतर प्रदर्शन करते हैं। स्टेनफोर्ड के टोनी वाइस-कोरे द्वारा किए गए परीक्षणों से यह भी पता चल चुका है कि युवा खून का एक ही हिस्सा इस संदर्भ में प्रभावी होता है। खून के इस हिस्से को प्लाज़्मा कहते हैं।

उपरोक्त परिणामों के मद्दे नज़र वाइस-कोरे अब मनुष्यों में युवा खून के असर का परीक्षण कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि खून के प्लाज़्मा नामक अंश में तकरीबन 1000 प्रोटीन्स पाए जाते हैं और वाइस-कोरे यह पता करना चाहते हैं कि इनमें से कौन-सा प्रोटीन प्रभावी है। सामान्य संज्ञान क्षमता के अलावा वाइस-कोरे की टीम यह भी देखना चाहती है कि क्या पार्किंसन रोग में इस तकनीक से कोई लाभ मिल सकता है।

उम्र बढ़ने के साथ शरीर में होने वाले परिवर्तनों में से कई का सम्बंध रक्त से है। उम्र के साथ खून में लाल रक्त कोशिकाओं और सफेद रक्त कोशिकाओं की संख्या घटने लगती है। सफेद रक्त कोशिकाएं हमारी प्रतिरक्षा प्रणाली का महत्वपूर्ण अंग हैं। अस्थि मज्जा कम लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती है। अबतक किए गए प्रयोगों से लगता है कि युवा खून इन परिवर्तनों को धीमा कर सकता है।

वाइस-कोरे जो परीक्षण करने जा रहे हैं उसमें प्लाज़्मा के प्रोटीन्स को अलग-अलग करके एक-एक का प्रभाव आंकना होगा। यह काफी श्रमसाध्य होगा। एक प्रमुख दिक्कत यह है कि इतनी मात्रा में युवा खून मिलने में समस्या है। उनकी टीम ने 90 पार्किंसन मरीज़ों को शामिल कर लिया है और पहले मरीज़ को युवा खून का इंजेक्शन दे भी दिया गया है। उम्मीद है कि वे खून के प्रभावी अंश को पहचानने में सफल होंगे। इसके बाद कोशिश होगी कि इस अंश को प्रयोगशाला में संश्लेषित करके उसके परीक्षण किए जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.dailymail.co.uk/1s/2019/01/02/22/8063026-6549223-image-a-44_1546468527780.jpg

रोगों की पहचान में जानवरों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कुछ हफ्तों पहले काफी दिलचस्प खबर सुनने में आई थी कि कुत्ते मलेरिया से संक्रमित लोगों की पहचान कर सकते हैं। ऐसा वे अपनी सूंघने की विलक्षण शक्ति की मदद से करते हैं। यह रिपोर्ट अमेरिका में आयोजित एक वैज्ञानिक बैठक में ‘मेडिकल डिटेक्शन डॉग’संस्था द्वारा प्रस्तुत की गई थी। मेडिकल डिटेक्शन डॉग यूके स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था है। इसी संदर्भ में डोनाल्ड जी. मैकनील ने न्यू यार्क टाइम्स में एक बेहतरीन लेख लिखा है। (यह लेख इंटरनेट पर उपलब्ध है।)

मेडिकल डिटेक्शन डॉग कुत्तों में सूंघने की खास क्षमता की मदद से अलग-अलग तरह के कैंसर की पहचान पर काम कर चुकी है। इसके लिए उन्होंने कुत्तों को व्यक्ति के ऊतकों, कपड़ों और पसीने की अलग-अलग गंध की पहचान करवाई ताकि कुत्ते इन संक्रमणों या कैंसर को पहचान सकें। इस समूह ने पाया कि मलेरिया और कैंसर पहचानने के अलावा कुत्ते टाइप-1 डाइबिटीज़ की भी पहचान कर लेते हैं। कुछ अन्य समूहों का कहना है कि उन्होंने कुत्तों को इस तरह प्रशिक्षित किया है कि वे मिर्गी के मरीज़ में दौरा पड़ने की आशंका भांप लेते हैं। उम्मीद है कि कुत्तों की मदद से कई अन्य बीमारियों की पहचान भी की जा सकेगी। कुत्तों में रासायनिक यौगिकों (खासकर गंध वाले) को सूंघने और पहचानने की विलक्षण शक्ति होती है। उनकी इस विलक्षण क्षमता के कारण ही एयरपोर्ट पर सुरक्षा के लिए, कस्टम विभाग में, पुलिस में या अन्य भीड़भाड़ वाले स्थानों पर ड्रग्स, बम या अन्य असुरक्षित चीज़ों को ढूंढने के लिए कुत्तों की मदद ली जाती है। सदियों से शिकारी लोग कुत्तों को साथ ले जाते रहे हैं, खासकर लोमड़ियों और खरगोश पकड़ने के लिए।

शुरुआत कैसे हुई

पिछले पचासेक वर्षों में रोगों की पहचान के लिए कुत्तों की सूंघने की क्षमता की मदद लेने की शुरुआत हुई है। इस सम्बंध में वर्ष 2014 में क्लीनिकल केमिस्ट्री नामक पत्रिका में प्रकाशित ‘एनिमल ऑलफैक्ट्री डिटेक्शन ऑफ डिसीज़: प्रॉमिस एंड पिट्फाल्स’लेख बहुत ही उम्दा और पढ़ने लायक है। यह लेख कुत्तों और अन्य जानवरों (खासकर अफ्रीकन थैलीवाले चूहे) में रोग की पहचान करने के विभिन्न पहलुओं पर बात करता है। (इंटरनेट पर उपलब्ध है: DOI:10.1373/clinchem.2014.231282)। कैंसर की पहचान में कुत्तों की क्षमता का पता 1989 में लगा था, जब एक कुत्ता अपनी देखरेख करने वाले व्यक्ति के पैर के मस्से को लगातार सूंघ रहा था। जांच में पाया गया कि त्वचा का यह घाव मेलेनोमा (एक प्रकार का त्वचा कैंसर) है। इसी लेख में डॉ. एन. डी बोर ने बताया है कि किस प्रकार कुत्ते हमारे शरीर के विभिन्न अंगों के कैंसर को पहचान सकते हैं। प्रयोगों और जांचों में इन सभी कैंसरों की पुष्टि भी हुई। हाल ही में कुत्तों को कुछ सूक्ष्मजीवों (टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया और आंतों को प्रभावित करने वाले क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल बैक्टीरिया) की पहचान करने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है।

जानवरों में इंसान के मुकाबले कहीं अधिक तीक्ष्ण और विविध तरह की गंध पहचानने की क्षमता होती है। (जानवर पृथ्वी पर मनुष्य से पहले आए थे और पर्यावरण का सामना करते हुए विकास में उन्होने सूंघने की विलक्षण शक्ति हासिल की है।) डॉ. एस. के. बोमर्स पेपर में इस बात पर ध्यान दिलाते हैं कि बीडोइन्स ऊंट (अरब के खानाबदोशों के साथ चलने वाले ऊंट) 80 किलोमीटर दूर से ही पानी का स्रोत खोज लेते हैं। ऊंट ऐसा गीली मिट्टी में मौजूद जियोसिमिन रसायन की गंध पहचान कर करते हैं।

चूहे भी मददगार

लेकिन विभिन्न गंधों की पहचान के लिए ऊंटों की मदद हर जगह तो नहीं ली जा सकती। डॉ. बी. जे. सी. विटजेन्स के अनुसार अफ्रीकन थैलीवाले चूहे की मदद ली जा सकती है। चूहों में दूर ही से और विभिन्न गंधों को पहचानने की बेहतरीन क्षमता होती है, इन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है और इनके रहने के लिए जगह भी कम लगती है। साथ ही ये चूहे उष्णकटिबंधीय इलाकों के रोगों की पहचान में पक्के होते हैं। इतिहास की ओर देखें तो मनुष्य ने गंध पहचान के लिए कुत्तों को पालतू बनाया। कुछ चुनिंदा बीमारियों की पहचान के लिए कुत्तों की जगह अफ्रीकन थैलीवाले चूहों की मदद ली जाती है। तंजानिया स्थित एक गैर-मुनाफा संस्था APOPO इन चूहों पर सफलतापूर्वक काम कर रही है। चूहों के साथ फायदा यह है कि उनकी ज़रूरतें कम होती हैं – एक तो आकार में छोटे होते हैं, उनकी इतनी देखभाल नहीं करनी पड़ती, उन्हें प्रशिक्षित करना आसान है, और उन्हें आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। फिलहाल तंजानिया और मोज़ेम्बिक में इन चूहों की मदद से फेफड़ों के टीबी की पहचान की जा रही है (https://www.flickr.com/photos/42612410@N05>)। दुनिया भर में भी स्थानीय चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती।

कुत्तों, ऊंटों, चूहों जैसे जानवरों में रोग पहचानने की यह क्षमता उनकी नाक में मौजूद 15 करोड़ से 30 करोड़ गंध ग्रंथियों के कारण होती है। जबकि मनुष्यों में इन ग्रंथियों की संख्या सिर्फ 50 लाख होती है। इतनी अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवरों की सूंघने की क्षमता मनुष्य की तुलना में 1000 से 10 लाख गुना ज़्यादा होती है। अधिक ग्रंथियों के कारण ही जानवर विभिन्न प्रकार गंध की पहचान पाते हैं और थोड़ी-सी भी गंध को ताड़ने में समर्थ होते हैं। इसी क्षमता के चलते कुत्ते जड़ों के बीच लगी फफूंद भी ढूंढ लेते हैं, जो पानी के अंदर होती हैं।

भारत में क्यों नहीं?

भारत में कुत्तों के प्रशिक्षण के लिए अच्छी सुविधाएं हैं, जिनका इस्तेमाल क्राइम ब्रांच, कस्टम वाले और अपराध वैज्ञानिक एजेंसियां करती हैं। जनसंख्या के घनत्व और चूहों के उपयोग की सरलता को देखते हुए ग्रामीण इलाकों में चूहों की मदद रोगों की पहचान के लिए ली जा सकती है। APOPO की तर्ज पर हमारे यहां भी स्थानीय जानवरों को महामारियों की पहचान के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है। ज़रूरी होने पर रोग की पुष्टि के लिए विश्वसनीय उपकरणों की मदद ली जा सकती है। इस तरह की ऐहतियात से हमारे स्वास्थ्य केंद्रों और स्वास्थ्य कर्मियों को सतर्क करने में मदद मिल सकती है। स्वास्थ्य केंद्र और स्वास्थ्य कार्यकर्ता शुरुआत में ही बीमारी या महामारी पहचाने जाने पर दवा, टीके या अन्य ज़रूरी इंतज़ाम कर सकते हैं और रोग को फैलने से रोक सकते हैं। हमारे पशु चिकित्सा संस्थानों को इस विचार की संभावना के बारे में सोचना चाहिए। पशु चिकित्सा संस्थान उपयुक्त और बेहतर स्थानीय जानवर चुनकर उन्हें रोगों की पहचान के लिए प्रशिक्षित कर सकते हैं। और इन प्रशिक्षित जानवरों को उपनगरीय और ग्रामीण इलाकों, खासकर घनी आबादी वाले और कम स्वास्थ्य सुविधाओं वाले इलाकों में रोगों की पहचान के लिए तैनात किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://ichef.bbci.co.uk/news/976/cpsprodpb/5FAF/production/_84759442_pa_dog.jpg

जीन संपादन: संभावनाएं और चुनौतियां – प्रदीप

म जीव विज्ञान की सदी में रह रहे हैं। यह काफी पहले ही घोषित किया जा चुका है कि अगर 20वीं सदी भौतिक विज्ञान की सदी थी तो 21वीं सदी जीव विज्ञान की सदी होगी। ऐसा स्वास्थ्य, कृषि, पशु विज्ञान, पर्यावरण, खाद्य सुरक्षा आदि क्षेत्रों में सतत मांग के कारण संभव हुआ है। इन सभी क्षेत्रों में जीवजगत एक केंद्रीय तत्व है। पिछले कुछ वर्षों में जीव विज्ञान में चमत्कारिक अनुसंधान तेज़ी से बढ़े हैं। इस दिशा में हैरान कर देने वाली हालिया खबर है – एक चीनी वैज्ञानिक द्वारा जन्म से पूर्व ही जुड़वां बच्चियों के जीन्स में बदलाव करने का दावा। जीन सजीवों में सूचना की बुनियादी इकाई और डीएनए का एक हिस्सा होता है। जीन माता-पिता और पूर्वजों के गुण और रूप-रंग संतान में पहुंचाता है। कह सकते हैं कि काफी हद तक हम वैसे ही दिखते हैं या वही करते हैं, जो हमारे शरीर में छिपे सूक्ष्म जीन तय करते हैं। डीएनए के उलट-पुलट जाने से जीन्स में विकार पैदा होता है और इससे आनुवंशिक बीमारियां उत्पन्न होती हैं, जो संतानों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत में मिलती हैं।

चूंकि शरीर में क्रियाशील जीन की स्थिति कुछ बीमारियों को आमंत्रित करती है, इसलिए वैज्ञानिक लंबे समय से मनुष्य की जीन कुंडली को पढ़ने में जुटे हैं। वैज्ञानिकों का उद्देश्य यह रहा है कि जन्म से पहले या जन्म के साथ शिशु में जीन संपादन तकनीक के ज़रिए आनुवंशिक बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स को पहचान कर उन्हें दुरुस्त कर दिया जाए। इस दिशा में इतनी प्रगति हुई है कि अब जेनेटिक इंजीनियर आसानी से आणविक कैंची का इस्तेमाल करके दोषपूर्ण जीन में काट-छांट कर सकते हैं। इसे जीन संपादन कहते हैं और इस तकनीक को व्यावहारिक रूप से किसी भी वनस्पति या जंतु प्रजाति पर लागू किया जा सकता है।

हालांकि मनुष्य के जीनोम में बदलाव करने की तकनीक बेहद विवादास्पद होने के कारण अमेरिका, ब्रिाटेन और जर्मनी जैसे लोकतांत्रिक देशों में प्रतिबंधित है मगर चीन एक ऐसा देश ऐसा है जहां मानव जीनोम में फेरबदल करने पर प्रतिबंध नहीं है और इस दिशा में वहां पर पिछले वर्षों में काफी तेज़ी से काम हुआ है। इसी कड़ी में ताज़ा समाचार है – चीनी शोधकर्ता हे जियानकुई द्वारा जुड़वां बच्चियों (लुलू और नाना) के पैदा होने से पहले ही उनके जीन्स में फेरबदल करने का दावा। हे जियानकुई के अनुसार उन्होंने सात दंपतियों के प्रजनन उपचार के दौरान भ्रूणों को बदला जिसमें अभी तक एक मामले में संतान के जन्म लेने में यह परिणाम सामने आया है। इन जुड़वां बच्चियों में सीसीआर-5 नामक एक जीन को क्रिस्पर-कास 9 नामक जीन संपादन तकनीक की मदद से बदला गया। सीसीआर-5 जीन भावी एड्स वायरस संक्रमण के लिए उत्तरदायी है। क्रिस्पर-कास 9 तकनीक का उपयोग मानव, पशु और वनस्पतियों में लक्षित जीन को हटाने, सक्रिय करने या दबाने के लिए किया जा सकता है। जियानकुई ने यह दावा एक यू ट्यूब वीडियो के माध्यम से किया है। अलबत्ता, इस दावे की स्वतंत्र रूप से कोई पुष्टि अभी तक नहीं हो सकी है और इसका प्रकाशन किसी मानक वैज्ञानिक शोध पत्रिका में भी नहीं हुआ है।

दुधारी तलवार

जीन संपादन तकनीक आनुवंशिक बीमारियों का इलाज करने की दिशा में निश्चित रूप से एक मील का पत्थर है। इसकी संभावनाएं चमत्कृत कर देने वाली हैं। यह निकट भविष्य में आणविक स्तर पर रोगों को समझने और उनसे लड़ने के लिए एक अचूक हथियार साबित हो सकता है। लेकिन यह भी सच है कि ज्ञान दुधारी तलवार की तरह होता है। हम इसका उपयोग विकास के लिए कर सकते हैं और विनाश के लिए भी! इसलिए जियानकुई के प्रयोग पर तमाम सामाजिक संस्थाओं और बुद्धिजीवियों ने आपत्ति जतानी शुरू कर दी है तथा मानव जीन संपादन पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। जेनेटिक्स जर्नल के संपादक डॉ. किरण मुसुनुरू के मुताबिक ‘इस तरह से तकनीक का परीक्षण करना गलत है। मनुष्यों पर ऐसे प्रयोगों को नैतिक रूप से सही नहीं ठहराया जा सकता।’एमआईटी टेक्नॉलजी रिव्यू ने चेतावनी दी है कि यह तकनीक नैतिक रूप से सही नहीं है क्योंकि भ्रूण में परिवर्तन भविष्य की पीढ़ियों को विरासत में मिलेगा और अंतत: समूची जीन कुंडली को प्रभावित कर सकता है। इसलिए नैतिकता से जुड़े सवाल व विवाद खड़े होने के बाद फिलहाल जियानकुई ने अपने प्रयोग को रोक दिया है तथा चीनी सरकार ने भी इसकी जांच के आदेश दिए हैं। चीन मानव क्लोनिंग को गैर-कानूनी ठहराता है लेकिन जीन संपादन को गलत नहीं ठहराता।

नैतिक और सामाजिक प्रश्न

इस तरह के प्रयोग पर विरोधियों ने सवालिया निशान खड़े करने शुरू कर दिए हैं। उनका कहना है कि इससे समाज में बड़ी जटिलताएं और विषमताएं उत्पन्न होंगी।

सर्वप्रथम इससे कमाई के लिए डिज़ाइनर (मनपसंद) शिशु बनाने का कारोबार शुरू हो सकता है। प्रत्येक माता-पिता अपने बच्चे को गोरा-चिट्टा, गठीला, ऊंची कद-काठी और बेजोड़ बुद्धि वाला चाहते हैं। इससे भविष्य में जो आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग होंगे उनके ही बच्चों को बुद्धि-चातुर्य और व्यक्तित्व को जीन संपादन के ज़रिए संवारने-सुधारने का मौका मिलेगा। तो क्या इससे सामाजिक भेदभाव को बढ़ावा नहीं मिलेगा?

वैज्ञानिकों का एक तबका इस तरह के प्रयोगों को गलत नहीं मानता। उन्हें लगता है कि ऐसे प्रयोग लाइलाज बीमारियों के उपचार के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोल सकते हैं। इससे किसी बीमार व्यक्ति के दोषपूर्ण जीन्स का पता लगाकर जीन संपादन द्वारा स्वस्थ जीन आरोपित करना संभव होगा। मगर विरोधी इस तर्क से भी सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर जीन विश्लेषण से किसी व्यक्ति को यह पता चल जाए कि भविष्य में उसे फलां बीमारी की संभावना है और वह जीन संपादन उपचार करवाने में आर्थिक रूप सक्षम नहीं है, तो क्या उस व्यक्ति का सामाजिक मान-सम्मान प्रभावित नहीं होगा? क्या बीमा कंपनियां संभावित रोगी का बीमा करेंगी? क्या नौकरी में इस जानकारी के आधार पर उससे भेदभाव नहीं होगा?

जीन संपादन तकनीक अगर गलत हाथों में पहुंच जाए, तो इसका उपयोग विनाश के लिए भी किया जा सकता है। इसके संभावित खतरों से चिंतित भविष्यवेत्ताओं का मानना है कि यह तकनीक आनुवंशिक बीमारियों को ठीक करने तक ही सीमित नहीं रहेगी, बल्कि कुछ अतिवादी आतंकवादी अनुसंधानकर्ता अमानवीय मनुष्य के निर्माण करने की कोशिश करेंगे। तब इन अमानवीय लोगों से समाज कैसे निपट सकेगा?

संभावनाएं अपार हैं और चुनौतियां भी। जीन संपादन तकनीक पर नैतिक और सामाजिक बहस और वैज्ञानिक शोध कार्य दोनों जारी रहने चाहिए। इस तकनीक का इस्तेमाल मानव विकास के लिए होगा या विनाश के लिए, यह भविष्य ही बताएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : Dairy herd management

ओरांगुटान अतीत के बारे में बात करते हैं

ह तो जानी-मानी बात है कि कई स्तनधारी व पक्षी किसी शिकारी या खतरे को देखकर चेतावनी की आवाज़ें निकालते हैं जिससे अन्य जानवरों और पक्षियों को सिर पर मंडराते खतरे की सूचना मिल जाती है और वे खुद को सुरक्षित कर लेते हैं। मगर ओरांगुटान में एक नई क्षमता की खोज हुई है।

ओरांगुटान एक विकसित बंदर है जो जीव वैज्ञानिकों के अनुसार वनमानुषों की श्रेणी में आता है। वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि जब ओरांगुटान किसी शिकारी को देखते हैं तो वे चुंबन जैसी आवाज़ निकालते हैं। इससे शेर या अन्य शिकारी को यह सूचना मिल जाती है ओरांगुटान ने उन्हें देख लिया है। साथ ही अन्य ओरांगुटान को पता चल जाता है कि खतरा आसपास ही है।

सेन्ट एंड्रयूज़ विश्वविद्यालय के एक पोस्ट-डॉक्टरल छात्र एड्रियानो राइस ई लेमीरा ओरांगुटान की इन्हीं चेतावनी पुकारों का अध्ययन सुमात्रा के घने केटांबे जंगल में कर रहे थे। उन्होंने एक आसान-सा प्रयोग किया। एक वैज्ञानिक को बाघ जैसी धारियों, धब्बेदार या सपाट पोशाक पहनकर किसी चौपाए की तरह चलकर एक पेड़ के नीचे से गुज़रना था। इस पेड़ पर 5-20 मीटर की ऊंचाई पर मादा ओरांगुटानें बैठी हुई थीं। जब पता चल जाता कि उसे देख लिया गया है तो वह वैज्ञानिक 2 मिनट और वहां रुकता और फिर गायब हो जाता था। इतनी देर में ओरांगुटान को चेतावनी की पुकार उत्पन्न कर देना चाहिए थी।

पहला परीक्षण एक उम्रदराज़ मादा ओरांगुटान के साथ किया गया। उसके पास एक 9-वर्षीय पिल्ला भी था। मगर इस परीक्षण में ओरांगुटान ने कोई आवाज़ नहीं की। वह जो कुछ भी कर रही थी, उसे रोककर अपने बच्चे को उठाया, टट्टी की (जो बेचैनी का एक लक्षण है) और पेड़ पर और ऊपर चली गई। पूरे दौरान वह एकदम खामोश रही। लेमीरा और उनके सहायक बैठे-बैठे इन्तज़ार करते रहे। पूरे 20 मिनट बाद उसने पुकार लगाई। और एक बार चीखकर चुप नहीं हुई, पूरे एक घंटे तक चीखती रही।

बहरहाल, औसतन ओरांगुटान को चेतावनी पुकार लगाने में 7 मिनट का विलंब हुआ। ऐसा नहीं था वे सहम गए थे। वे बचाव की शेष क्रियाएं भलीभांति करते रहे – बच्चों को समेटा, पेड़ पर ऊपर चढ़े वगैरह। लेमीरा का ख्याल है कि ये मादाएं खामोश रहीं ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रहें क्योंकि उन्हें लगता है कि शिकारी से सबसे ज़्यादा खतरा बच्चों के लिए होता है। जब शिकारी नज़रों से ओझल हो गया और वहां से चला गया तभी उन्होंने आवाज़ लगाई। लेमीरा का मत है कि चेतावनी पुकार को वास्तविक खतरा टल जाने के बाद निकालना अतीत के बारे में बताने जैसा है। उनके मुताबिक यह भाषा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि आप अतीत और भविष्य के बारे में बोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://thumbor.forbes.com/thumbor/960×0/https://specials-images.forbesimg.com/dam/imageserve/980907158/960×0.jpg?fit=scale

बिल्लियां साफ-सुथरी कैसे बनी रहती हैं

बिल्लियों के मालिक जानते हैं कि वे जितने समय जागती हैं, उसमें वे या तो अपने मालिक को खुश करके प्यार पाने की कोशिश करती रहती हैं या उछल-कूद मचाती रहती हैं। शेष समय वे खुद को चाटती रहती हैं। और अब 3-डी स्कैन तकनीक की मदद से वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि ऐसा करते समय बिल्लियां सिर्फ अपना थूक शरीर पर नहीं फैलातीं बल्कि स्वयं की गहराई से सफाई भी करती हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (यूएस) में प्रकाशित शोध पत्र में इस प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत हुआ है। अध्ययन के लिए तरह-तरह की बिल्लियों की जीभों के नमूने लिए गए थे। ये नमूने पोस्ट मॉर्टम के बाद  प्राप्त हुए थे। इनमें एक घरेलू बिल्ली, एक बॉबकैट, एक प्यूमा, एक हिम तंदुआ और एक शेर शामिल था। चौंकिए मत, तेंदुए, शेर, बाघ वगैरह बिल्लियों की ही विभिन्न प्रजातियां हैं।

इन सब बिल्लियों की जीभ पर शंक्वाकार उभार थे जिन्हें पैपिला कहते हैं। और सभी के पैपिला के सिरे पर एक नली नुमा एक गर्त थी। बिल्लियां पानी के गुणों का फायदा उठाकर अपनी लार को बालों के नीचे त्वचा तक पहुंचाने में सफल होती है। पानी के ये दो गुण हैं पृष्ठ तनाव और आसंजन। पृष्ठ तनाव पानी के अणुओं के बीच लगने वाला बल है जिसकी वजह से वे एक-दूसरे से चिपके रहते हैं। दूसरी ओर, आसंजन वह बल है जो पानी के अणुओं को पैपिला से चिपकाए रखता है।

जब बिल्लियों की खुद को चाटने की प्रक्रिया को स्लो मोशन में देखा गया तो पता चला कि चाटते समय उनकी जीभ के पैपिला लंबवत स्थिति में रहते हैं। इस वजह से वे बालों के बीच में से अंदर तक जाकर त्वचा की सफाई कर पाते हैं। वैज्ञानिकों ने पैपिला की इस क्रिया का उपयोग करके एक कंघी भी बना ली है जिसे वे ‘जीभ-प्रेरित कंघी’ कहते हैं। इसका उपयोग करने पर पता चला कि यह मनुष्यों के बालों की बेहतर सफाई कर सकती है।

बिल्ली द्वारा खुद को चाटने का एकमात्र फायदा सफाई के रूप में नहीं होता। लार को फैलाकर वे खुद को शीतलता भी प्रदान करती है। गौरतलब है कि बिल्लियों में पसीना ग्रंथियां पूरे शरीर पर नहीं पाई जातीं बल्कि सिर्फ उनके पंजों की गद्दियों पर होती हैं। मनुष्यों में पूरे शरीर पर पाई जाने वाली पसीना ग्रंथियों से निकलने वाला पसीना शरीर को ठंडा रखने में मदद करता है। इन पसीना ग्रंथियों के अभाव में बिल्लियां अपनी लार की मदद लेती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://img.purch.com/h/1400/aHR0cDovL3d3dy5saXZlc2NpZW5jZS5jb20vaW1hZ2VzL2kvMDAwLzA4Ny84MjUvb3JpZ2luYWwvY2F0LWxpY2tpbmctcGF3LmpwZw==

नकली चांद की चांदनी से रोशन होगा चीन! – प्रदीप

चांद मानव कल्पना को हमेशा से रोमांचित करता रहा है। भला चांद की चाहत किसे नहीं है? विश्व की लगभग सभी भाषाओं के कवियों ने चंद्रमा के मनोहरी रूप पर काव्यसृष्टि की है।  मगर नकली चांद? इस लेख का शीर्षक  पढ़कर आप हैरान रह गए होंगे। मगर यदि चीन की आर्टिफिशियल मून यानी मानव निर्मित चांद बनाने की योजना सफल हो जाती है, तो चीन के आसमान में 2020 तक यह चांद चमकने लगेगा। यह नकली चांद चेंगडू शहर की सड़कों पर रोशनी फैलाएगा और इसके बाद स्ट्रीटलैंप की ज़रूरत नहीं रहेगी।  

चीन इससे अंतरिक्ष में बड़ी ऊंचाई पर पहुंचने की तैयारी में है। वह इस प्रोजेक्ट को 2020 तक लॉन्च करना चाहता है। इस प्रोजेक्ट पर चेंगडू एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नॉलॉजी माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट कॉर्पोरेशन नामक एक निजी संस्थान पिछले कुछ वर्षों से काम कर रहा है। चीन के अखबार पीपुल्स डेली के अनुसार अब यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है। चाइना डेली अखबार ने चेंगड़ू एयरोस्पेस कार्पोरेशन के निदेशक  वु चेन्फुंग के हवाले से लिखा है कि चीन सड़कों और गलियों को रोशन करने वाले बिजली खर्च को घटाना चाहता है। नकली चांद से 50 वर्ग कि.मी. के इलाके में रोशनी करने से हर साल बिजली में आने वाले खर्च में से 17.3 करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं। और आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्लैकआउट की स्थिति में राहत के कामों में भी सहायता मिलेगी। वु कहते हैं कि अगर पहला प्रोजेक्ट सफल हुआ तो साल 2022 तक चीन ऐसे तीन और चांद आसमान में स्थापित सकता है।

सवाल उठता है कि यह नकली चांद काम कैसे करेगा? चेंगडू एयरोस्पेस के अधिकारियों के मुताबिक यह नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर पृथ्वी पर भेजेगा। यह चांद हूबहू पूर्णिमा के चांद जैसा ही होगा मगर, इसकी रोशनी असली चांद से आठ गुना अधिक होगी। नकली चांद की रोशनी को नियंत्रित किया जा सकेगा। यह पृथ्वी से 500 कि.मी. की दूरी पर स्थित होगा। जबकि असली चांद की पृथ्वी से दूरी 3,80,000 कि.मी. है।

चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम से अमेरिका और रूस की बराबरी करना चाहता है और इसके लिए उसने ऐसी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनाई है। हालांकि चीन पहला ऐसा देश नहीं है जो नकली चांद बनाने की कोशिश में जुटा है, इससे पहले नब्बे के दशक में रूस और अमेरिका नकली चांद बनाने की असफल कोशिश कर चुके हैं लेकिन नकली चांद स्थापित करने की राह अभी भी इतनी आसान नहीं है क्योंकि पृथ्वी के एक खास इलाके में रोशनी करने के लिए इस मानव निर्मित चांद को बिलकुल निश्चित जगह पर रखना होगा, जो इतना आसान नहीं है।

चीन के इस प्रोजेक्ट पर पर्यावरणविदों ने सवाल उठाने शुरू किए हैं। उनका कहना है कि इस प्रोजेक्ट से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। दिन को सूरज और रात को नकली चांद के कारण वन्य प्राणियों का जीना दूभर हो जाएगा और वे खतरे में पड़ जाएंगे। पेड़पौधों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और प्रकाश प्रदूषण भी बढ़ेगा। कवियों को भी ऐसे चांद से परेशानी हो सकती है क्योंकि तब सवाल यह उठेगा कि बात असली चांद की जगह नकली की तो नहीं की जा रही है! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.aljazeera.com/mritems/imagecache/mbdxxlarge/mritems/Images/2018/10/19/997d55220b894c1c9fd97da8824cd716_18.jpg

मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है वायु प्रदूषण – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

मारे जीवन के लिए वायु की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना हम कुछ क्षण से अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते। परन्तु यह भी ज़रूरी है कि जिस हवा को हम सांस द्वारा ग्रहण करते हैं वह शुद्ध हो। विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों से युक्त हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए कई तरह से हानिकारक साबित होती है। आज औद्योगिक विकास के दौर में समयसमय पर नएनए कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं जिनकी चिमनियों से निकलने वाले धुएं से हमारा वायुमंडल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है। साथ ही स्वचालित वाहनों की बढ़ती संख्या ने वायुमंडल को प्रदूषित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार से प्रदूषित वायु में रहने के कारण लोग कई रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं।

पहले लोगों की धारणा थी वायु प्रदूषण के कारण सिर्फ हमारे फेफड़ों और हृदय को ही नुकसान पहुंचता है। परन्तु हाल में किए गए अध्ययनों एवं अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण फेफड़ों और हृदय के अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। ऐसा ही एक अध्ययन संयुक्त राज्य अमेरिका के येल विश्वविद्यालय तथा चीन के बेजिंग विश्वविद्यालय में कार्यरत शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किया गया है। इस अध्ययन से सम्बंधित एक शोध पत्र कुछ ही समय पूर्व नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक प्रदूषित वायु में रहता है तो उसके संज्ञान या अनुभूति ग्रहण करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। विशेष कर बुज़ुर्ग लोग वायु प्रदूषण से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। बहुत से बुज़ुर्ग तो बोलने में काफी कठिनाई अनुभव करते हैं।

वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट में कार्यरत वैज्ञानिकों के अनुसार जो लोग बहुत लंबे समय तक वायु प्रदूषण की चपेट में रहते हैं उनकी बोलने और गणितीय आकलन की क्षमता बहुत अधिक घट जाती है। इस प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों पर अधिक देखा गया है। इस अध्ययन में चीन में सन 2010 से 2014 के बीच 32,000 लोगों पर सर्वेक्षण किया गया था। उन पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रभावों का अध्ययन किया गया।

अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष क्या सिर्फ चीन पर लागू होता है? ग्रीनपीस इंडिया में कार्यरत सुनील दहिया के मुताबिक उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष भारत पर भी पूरी तरह लागू होता है क्योंकि चीन और भारत दोनों ही देशों में वायुप्रदूषण का स्तर लगभग एक समान है। भारत में सन 2015 में लगभग 25 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से हुई थी। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 28 प्रतिशत बच्चे वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी वायु प्रदूषण  का काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर लगभग 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण से उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से जूझ रहे हैं।

भारत के विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने नवम्बर 2017 में एक अध्ययन के आघार पर निष्कर्ष निकाला था कि अपने देश में रोगों के कारण होने वाली 30 प्रतिशत असमय मौतों का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है। भारत में वायु प्रदूषण की समस्या काफी चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार संसार के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 15 शहरो में से 14 शहर सिर्फ भारत में हैं तथा देश के अधिकांश क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है, वायु प्रदूषण में वृद्धि लगातार जारी है। यह समस्या अब सिर्फ नगरों या उद्योग प्रधान शहरों तक ही सीमित नहीं रह गई है। महानगरों से बहुत पीछे माने जाने वाले नगरों में भी वायु प्रदूषण का स्तर साल के अधिकांश समय खतरे की सीमा को पार कर जाता है। उदाहरण के तौर पर पटना में सन 2017 में हवा में लंबित घातक सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) की मात्रा निगरानी के कुल 311 दिनों में से सिर्फ 81 दिन ही स्वास्थ्य सुरक्षा की निर्धारित सीमा के भीतर पाई गई। पटना में पिछले वर्ष कुछ दिन तो ऐसे रहे जब पीएम 2.5 की हवा में उपस्थिति 600 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज़्यादा थी। प्रदूषण का यह स्तर भारत सरकार द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक से 15 गुना अधिक है।

बढ़ती बीमारियों पर होने वाले खर्च को कम करने के दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार को कुछ प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने सन 2017 में तैयार किए गए अपने प्रतिवेदन में ध्यान दिलाया था कि पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होने वाले खतरों की पहचान और उससे निपटने के उपाय किए बिना भारत गैर संक्रामक रोगों (जैसे हृदय रोग, सांस रोग, मधुमेह और कैंसर इत्यादि) की वृद्धि पर अंकुश लगाने में बिलकुल कामयाब नहीं हो सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के मुख्य कारक के तौर पर शराब, तम्बाकू, कम गुणवत्ता वाले आहार तथा शारीरिक परिश्रम की कमी की पहचान की है और इसके लिए प्रति व्यक्ति 1-3 डॉलर के खर्च को आवश्यक माना है। परन्तु विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि भारत में गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के कारकों में पर्यावरणीय जोखिम (जैसे वायु प्रदूषण) का भी आकलन आवश्यक है। साथ ही, स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक विकास की नीतियां भी पर्यावरणीय जोखिम को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://62e528761d0685343e1c-f3d1b99a743ffa4142d9d7f1978d9686.ssl.cf2.rackcdn.com/files/76660/area14mp/image-20150331-1274-o4mgdw.png

बिच्छू का ज़हर निकालने वाला रोबोट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चपन से ही माउद मकमल को पालतू जानवर के रूप में सांप और बिच्छू पालने का शौक था। बड़े होतेहोते यह शौक परवान चढ़ा। शोध के लिए उन्होंने बिच्छुओं को चुना। मकमल अब मोरक्को के किंगहसन केसाब्लांका विश्वविद्यालय में बिच्छू के ज़हर पर शोध कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने बिच्छू का ज़हर निकालने के लिए एक रोबोट बनाया है। रोबोट बनाने का विचार इसलिए आया क्योंकि चिकित्सकीय महत्व के कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक ग्राम बिच्छू के ज़हर की कीमत 4.5-5.50 लाख रुपए होती है। यानी यह दुनिया के सबसे महंगे द्रवों में से एक है।

बिच्छू मकड़ियों के नज़दीकी रिश्तेदार हैं। इनका शरीर खंडों वाला, टांगें जोड़ वाली तथा शरीर का बाह्य भाग कठोर आवरण से ढंका रहता है। कठोर आवरण कवच का कार्य करता है तथा रेगिस्तानी बिच्छुओं को असहनीय गर्मी तथा शत्रुओं के हमले से बचाता है।

बिच्छुओं में शिकार को ज़हर से मारने के लिए टेलसन होता है। टेलसन बिच्छू के पूंछ का छोटे रोमों से आच्छादित अंतिम सिरा होता है। डंक के साथ टेलसन में दो विष ग्रंथिया भी होती हैं। बिच्छू का ज़हर विभिन्न प्रकार के प्रोटीन का मिश्रण होता है। प्रत्येक बिच्छू प्रजाति में प्रोटीन अलग प्रकार के होते हैं। बिच्छू शिकार के अनुसार ज़हर में प्रोटीनों की मात्रा तथा प्रकार बदल भी सकते हैं। मतलब एक चूहे या टिड्डे को मारने के लिए ज़हर की मात्रा एवं प्रकार में बदलाव किया जा सकता है। बिच्छू की अधिक ज़हरीली प्रजातियों में अल्फा तथा बीटा स्कॉर्पियान नामक दो प्रोटीन ज्ञात किए गए हैं। ये दोनों प्रोटीन संवेदनशील सोडियम एवं पोटेशियम चैनलों को अवरूद्ध कर तंत्रिका तंत्र को आघात पहुंचाते हैं।

बिच्छू को पालना बेहद आसान है पर बिच्छू का ज़हर निकालना बेहद ही कठिन है। ज़हर निकालने के लिए बिच्छू को चिमटे से पकड़कर टेबल पर टेप से चिपका दिया जाता है। टेलसन के अंतिम सिरे पर उपस्थित डंक को एक छोटी टयूब में रखा जाता है और इलेक्ट्रोड से 12 वोल्ट का करंट दिया जाता है। उत्तेजना में डंक से ज़हर की बूंदें निकलती हैं। टयूब में आई बूंदों को तुरंत ही फ्रीज़ कर दिया जाता है।

मकमल की टीम ने बिच्छू से ज़हर निकालने के लिए लेब या फील्ड में उपयोग में लाए जा सकने वाले हल्के व वहनीय रोबोट VE.4 का निर्माण किया है। रोबोट की बनावट ऐसी है कि बिच्छू से ज़हर निकालते समय उसे चोट भी नही पहुंचती। VE.4 रोबोट में बिच्छू का एक चेम्बर होता है तथा पूंछ वाले हिस्से को दबाए रखने के लिए दो क्लिप की सहायता ली जाती है। चेम्बर के दरवाज़े से केवल पूंछ बाहर आ सकती है बिच्छू नहीं। पूंछ के अंतिम सिरे टेलसन के नीचे एक ट्यूब में ज़हर को एकत्रित किया जा सकता है। चेम्बर के ऊपर एक ख्र्कक़् स्क्रीन होती है जो बिच्छू की लंबाई के अनुसार चेम्बर तथा पूंछ के प्लेटफार्म को लंबा या छोटा कर सकती है। रिमोट कंट्रोल से कार्य करने के लिए एक इन्फ्रारेड सेन्सर भी होता है। जैसे ही बिच्छू को चेम्बर में डालकर पूंछ को सीधा किया जाता है, रिमोट कंट्रोल का बटन दबाने से दो क्लिप में करंट से बिच्छू का ज़हर ट्यूब में आ जाता है।

बिच्छू के ज़हर का उपयोग लूपस एवं रूमेटाइड ऑर्थराइटिस जैसे असाध्य रोगों में किया जाता है। कई वैज्ञानिक ज़हर का उपयोग इम्यूनोसप्रेसेन्ट्स, एंटीमलेरियल दवाई और कैंसर रिसर्च में कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :https://www.dailymail.co.uk/sciencetech/article-4661774/Robots-milking-scorpions-deadly-venom.html