शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के छह दशक – चक्रेश जैन

विख्यात वैज्ञानिक विक्रम साराभाई, जयंत नार्लीकर, एम. जी. के. मेनन, आसिमा चटर्जी, एम. एस. स्वामीनाथन, के. कस्तूरीरंगन और डी. बालसुब्रमण्यन भारत के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से नवाज़े जा चुके हैं। अब तक 535 वैज्ञानिकों का चयन किया गया है – 519 पुरुष और 16 महिलाएं।

1942 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की स्थापना के 16 वर्षों बाद 1958 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में मौलिक अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर की स्मृति में यह पुरस्कार शुरू किया गया था। डॉ. भटनागर को भारत में अनुसंधान प्रयोगशालाओं के संस्थापक के रूप में याद किया जाता है।

इस वर्ष पुरस्कार के छह दशक पूरे हो रहे हैं। यह पुरस्कार प्रति वर्ष 26 सितंबर को सीएसआईआर के स्थापना दिवस पर नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में प्रदान किया जाता है। प्रत्येक पुरस्कृत वैज्ञानिक को पांच लाख रुपए नकद, प्रशस्ति-पत्र और स्मृति चिन्ह प्रदान किए जाते हैं। पुरस्कार विज्ञान की 7 शाखाओं में दिया जाता है – जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, इंजीनियरिंग, गणित, चिकित्सा विज्ञान, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, वायुमंडल, महासागर एवं खगोल विज्ञान।

प्रथम भटनागर पुरस्कार भौतिक विज्ञान में डॉ. के. एस. कृष्णन को दिया गया था। उन्होंने नोबेल विजेता वैज्ञानिक सी. वी. रमन के साथ ‘रमन प्रभाव’ पर शोध किया था। भौतिक शास्त्र में 1958 से 2017 के दौरान 96 भौतिक वैज्ञानिकों को सम्मानित किया जा चुका है। चिकित्सा विज्ञान पुरस्कार की स्थापना 1961 में की गई और प्रथम पुरस्कार ह्मदय-रक्त संचार औषधि विज्ञान में विशेष योगदान के लिए डॉ. राम बिहारी अरोरा को प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के लिए 2017 तक 61 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। गणित विज्ञान में 1959 में पुरस्कार आरंभ हुआ और अभी तक 67 गणितज्ञ सम्मानित हो चुके हैं। प्रथम पुरस्कार नंबर थ्योरी में कार्य के लिए के. चन्द्रशेखर को मिला था।

इंजीनियरिंग विज्ञान में पुरस्कार 1960 में शुरु हुआ और पहला पुरस्कार नाभिकीय वैज्ञानिक एच. एन. सेठना को दिया गया। अभी तक यह सम्मान 77 व्यक्तियों को मिल चुका है। रसायन विज्ञान में पुरस्कार 1960 में स्थापित किया गया और टी. आर. गोविंदाचारी को सम्मानित किया गया। लगभग छह दशकों के दौरान 92 वैज्ञानिक यह सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। जीव विज्ञान विषय में 1960 में भटनागर पुरस्कार शुरू हुआ और प्रथम पुरस्कार वनस्पति विज्ञानी टी. एस. सदाशिवन को दिया गया। पुरस्कार की स्थापना से लेकर अभी तक 95 वैज्ञानिक सम्मानित हो चुके हैं। भू विज्ञान, वायुमंडल, महासागर और खगोल विज्ञान में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए 1972 में पुरस्कार आरंभ हुआ। प्रथम पुरस्कार के लिए चुने जाने का सम्मान प्रोफेसर के. नाहा को प्राप्त हुआ। अभी तक 47 वैज्ञानिकों को यह सम्मान मिल चुका है।

नौ वैज्ञानिक मध्यप्रदेश से

पुरस्कार की शुरुआत से लेकर अब तक सम्मानित 535 वैज्ञानिकों में से नौ वैज्ञानिक ऐसे हैं, जिनका किसी-न-किसी रूप में मध्यप्रदेश से सम्बंध रहा है। 1974 में प्लाज़्मा भौतिकी में विशेष योगदान के लिए पुरस्कृत डॉ. एम. एस. सोढ़ा देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर और बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति रह चुके हैं। डॉ. जे. जी. नेगी को 1980 में पृथ्वी विज्ञान में विशेष योगदान के लिए भटनागर पुरस्कार मिला था। नेगी ने अपने कैरियर की शुरुआत होल्कर साइंस कालेज, इंदौर से व्याख्याता के रूप में की थी। बाद में सीएसआईआर की हैदराबाद स्थित एनजीआरआई प्रयोगशाला में वैज्ञानिक नियुक्त रहे। डॉ. नेगी दो बार म. प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के महानिदेशक भी रह चुके हैं।

लेज़र विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. डी. डी. भवालकर मध्यप्रदेश के सागर में पैदा हुए और उन्होंने यहां के डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। उन्हें 1982 में इंदौर स्थित राजा रामन्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केंद्र का संस्थापक निदेशक नियुक्त किया गया। डॉ. भवालकर को 1984 में शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया गया। ग्वालियर में जन्मे डॉ. अजय कुमार सूद को 1990 में भौतिक विज्ञान में नैनो प्रौद्योगिकी में विशिष्ट शोधकार्य के लिए भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया। जबलपुर मेडिकल कालेज से चिकित्सा विज्ञान की उपाधि प्राप्त शशि वाधवा को चिकित्सा विज्ञान में शोध के लिए भटनागर पुरस्कार मिला। डॉ. गया प्रसाद पाल को 1993 में चिकित्सा विज्ञान में विशेष अनुसंधान के लिए पुरस्कृत किया गया। इंदौर में पैदा हुए डॉ. पाल ने यहां के एमजीएम मेडिकल कालेज से चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई की थी।

डॉ. राजीव लक्ष्मण करंदीकर को वर्ष 1999 में गणित में संभाविता सिद्धांत में शोध के लिए भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया था। उन्होंने इंदौर के होल्कर साइंस कालेज से गणित विषय में स्नातक शिक्षा ग्रहण की थी। डॉ. उमेश वाष्र्णेय ने ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की थी, जिन्हें 2001 में आणविक जीव विज्ञान में विशेष योगदान के लिए पुरस्कृत किया गया था। प्रो. विनोद कुमार सिंह भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजूकेशन एंड रिसर्च (आइसर) के संस्थापक निदेशक हैं, जिन्हें 2004 में रसायन विज्ञान में शोध के लिए भटनागर पुरस्कार के लिए चुना गया।

सिर्फ 16 महिला वैज्ञानिक

भटनागर पुरस्कार की शुरुआत से लेकर अब तक केवल 16 महिला वैज्ञानिकों का चयन किया गया है। आसिमा चटर्जी, शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए चयनित पहली महिला वैज्ञानिक थीं। उन्हें 1961 में रसायन विज्ञान में यह सम्मान मिला था। अन्य 15 वैज्ञानिकों में अर्चना शर्मा (वर्ष 1975, जीव विज्ञान), इंदिरा नाथ (1983, चिकित्सा विज्ञान), रामन परिमाला (1987, गणित), मंजू रे (1989, जीव विज्ञान), सुदीप्ता सेनगुप्ता (1991, पृथ्वी, वायुमंडल, महासागर एवं खगोल विज्ञान), शशि वाधवा (1991, चिकित्सा विज्ञान), विजयलक्ष्मी रवींद्रनाथ (1996, चिकित्सा विज्ञान), सुजाता रामदुराई (वर्ष 2004, गणित), रमा गोविंदराजन (2007, इंजीनियरिंग विज्ञान), चारुसीता चक्रवर्ती (2009, रसायन विज्ञान), शुभा तोले (2010, जीव विज्ञान), संघमित्रा बंधोपाध्याय (2010, इंजीनियरिंग विज्ञान), मिताली मुखर्जी (वर्ष 2010, चिकित्सा विज्ञान), यमुना कृष्णन (2013, रसायन विज्ञान) और वी. अशोक वैद्य (2015, चिकित्सा विज्ञान) शामिल हैं।

वर्ष 2010 में चुने गए कुल 9 वैज्ञानिकों में से तीन महिला वैज्ञानिकों की सहभागिता से यह अनुमान व्यक्त किया गया था कि महिला वैज्ञानिकों की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी होगी। परंतु 2011, 2012 और 2014 में किसी भी महिला वैज्ञानिक का चयन नहीं हुआ। एक अध्ययन से पता चला है कि विज्ञान की विभिन्न विधाओं में स्थापित इस राष्ट्रीय पुरस्कार में महिलाओं ने जगह तो बनाई है, लेकिन अभी स्थिति चिंताजनक है।

राज्य सभा में नामजद वैज्ञानिकों में डॉ. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित व्यक्तियों में आसिमा चटर्जी और डॉ. के. कस्तूरीरंगन शामिल हैं। भटनागर पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिकों की सूची में मराठी और हिंदी के सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक और विज्ञान संचारक जयंत विष्णु नार्लीकर और लंबे समय से अंग्रेज़ी में नियमित रूप से विज्ञान विषय पर लिख रहे डी. बालसुब्रामण्यन शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इस वर्ष के इगनोबल पुरस्कार

विभिन्न वैज्ञानिक क्षेत्रों में हर साल इगनोबल पुरस्कार दिए जाते हैं। इगनोबल पुरस्कार उन शोध या अध्ययन को दिए जाते हैं जो सुनने में थोड़े हास्यापद लगते हैं किंतु उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं और इन्हें उतनी ही संजीदगी से किया जाता है।

इन पुरस्कार की शुरुआत एनल्स ऑफ इमप्रॉबेबल रिसर्च पत्रिका द्वारा की गई थी। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 10 क्षेत्रों में इगनोबल पुरस्कार दिए गए। वैसे इस वर्ष के पुरस्कार की थीम दी हार्ट थी किंतु अधिकांश पुरस्कार शरीर के कम शायराना अंगों पर शोध या अध्ययन के लिए दिए गए।

इस वर्ष चिकित्सा में पुरस्कार डॉक्टर की उस जोड़ी को दिया गया जिन्होंने साल 2016 में इस सवाल पर अनुसंधान किया था कि क्या रोलर कोस्टर की सवारी करने से किडनी स्टोन (पथरी) से निजात मिल सकती है। उन्होंने किडनी के त्रिआयामी मॉडल लिए और उन्हें डिस्नी के रोलर कोस्टर झूले की 20 सवारियां करवार्इं। उन्होंने पाया कि झूले के पिछले हिस्से में बैठने पर 64 प्रतिशत संभावना होती है कि स्टोन निकल जाए। जबकि आगे की सीट पर सवारी करने पर यह संभावना 17 प्रतिशत ही रहती है। तो सवारी का मज़ा भी और इलाज भी।

रिप्रोडक्टिव मेडिसिन में शोधकर्ताओं की एक तिकड़ी को यह पुरस्कार दिया गया है। उन्होंने 4 दशक पहले उनके ही द्वारा इजाद तकनीक से पुरुषों में रात के समय शिश्न में कितना इरेक्शन होता है का पता लगाया। उनकी यह तकनीक 100 प्रतिशत सटीक है।

चिकित्सा शिक्षा के लिए जापान के अकीरा होरिउची को पुरस्कार दिया गया। उन्होंने यह पता किया कि बैठेबैठे खुद की कोलानोस्कोपी कितनी सहजता और दक्षता से की जा सकती है। खुद पर प्रयोग करके उन्होंने पाया कि इसमें ज़्यादा परेशानी महसूस नहीं होती।

साहित्य का इगनोबल पुरस्कार उस टीम को मिला है जिन्होंने अपने अध्ययन में यह दर्शाया कि जटिल उत्पाद या मशीन का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग उसका मैनुएल नहीं पढ़ते।

ड्रायविंग में टक्कर के समय बात नोकझोंक या गालीगलौज तक पहुंच जाती है। ऐसा कितनी बार होता है, किन कारणों से हाता है और इसके प्रभाव को समझने के लिए शांति का इगनोबल पुरस्कार दिया गया।

अर्थ शास्त्र का पुरस्कार उस अध्ययन के लिए मिला जिसमें पता किया गया कि परेशान करने वाले बॉस के पुतले पर सुइयां चुभोने से लोग तनावमुक्त महसूस करते हैं या नहीं।

रसायन के लिए पुरस्कार उन शोधकर्ताओं को मिला जिन्होंने बताया कि थूक से चीज़ें चमकाने पर ज़्यादा चमकेंगी। उन्होंने 1800 साल पुरानी मूर्तियों को थूक और अलगअलग एल्कोहल क्लीनर से साफ किया। थूक की सफाई बेहतर थी।

समारोह में पुरस्कार विजेताओं को आभार भाषण में सिर्फ 60 सेकंड बोलने की इज़ाजत थी। इससे लंबा होता तो वहां बैठी एक बच्ची कहने लगती, कृपया बस करें, मैं बोर हो रही हूं।

समारोह के अंत में दी ब्रोकन हार्ट ऑपेरा प्रस्तुत किया गया जिसके दौरान बच्चे मशीनी दिल बना रहे थे जिसे ऑपेरा के अंत में उन्होंने तोड़ दिया। और फिर जैसे ही हाउ केन यू मेन्ड ए ब्राकन हार्ट (तुम टूटा हुआ दिल कैसे जोड़ सकते हो) शुरु हुआ बच्चों ने उसे टूटे दिल को फिर जोड़ना शुरू कर दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अलग दुनिया का निर्माण किया न्यूटन ने – नरेंद्र देवांगन

जीवन में वैज्ञानिक व्यवहार अपनाने के लिए दो तत्व आवश्यक हैं विचार एवं तथ्य। विज्ञान की दृष्टि से तथ्य अपने आप में संपूर्ण नहीं होते और न ही मात्र विचार करना अपने आप में पूर्ण है। मानव सभ्यता के विकास के साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अधिक से अधिक जुड़ाव आनुभविक तथ्यों और तार्किक विचारों के सुंदर समन्वय से ही संभव हो पाया है।

विज्ञान के इतिहास पर एक सरसरी निगाह डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उपयुक्त प्रयोग एवं सिद्धांत, फिर उनके आधार पर प्रयोग और फिर दोबारा सिद्धांतों की विवेचना वैज्ञानिक पद्धति है। यह क्रम लगातार चलता रहता है

गैलीलियो पहले वैज्ञानिकविचारक थे, जिन्होंने अनुभव एवं तर्क के बीच समन्वय के महत्व को समझा। आनुभविक तथ्य एवं तार्किक विचारों का ऐतिहासिक संगम पीसा की तिरछी मीनार पर हुआ था, जब गैलीलियो ने मीनार के ऊपर से एक बड़े और एक बहुत छोटे पिंड को एक साथ गिराया था और वे दोनों एक साथ ज़मीन पर पहुंचे थे। तथ्य एवं विचारों के इस प्रभावशाली समन्वय ने उस समय तक प्रचलित अरस्तू की इस मान्यता को ध्वस्त कर दिया था कि भारी वस्तु ज़्यादा तेज़ गति से गिरती है। पर अधिकतर ऐतिहासिक मोड़ इतने सरल और निश्चित रूप से निर्धारित नहीं हो पाते।

यहां सत्रहवीं शताब्दी के दो महान विचारकों का उल्लेख प्रासंगिक होगा। पहले देकार्ते जिन्होंने तर्क और विवेक की राह अपनाई और दूसरे फ्रांसिस बेकन जिन्होंने प्रयोग या आविष्कार को अधिक महत्व दिया। दो महान वैज्ञानिकों का यह व्यक्ति वैशिष्ट¬ उस समय प्रचलित फ्रांसीसी और ब्रिटिश व्यवहारों या मान्यताओं का प्रतीक था। देकार्ते ने अपना अधिकतर वैज्ञानिक कार्य पलंग पर लेटेलेटे किया और बेकन के बारे में कहा जाता है कि 65 साल की उम्र में एक प्रयोग में मुर्गी के अंदर बर्फ भरते हुए उन्हें ठंड लग गई और इसके कुछ दिन बाद वे संसार से विदा हो गए।

न्यूटन के लिए देकार्ते और बेकन दोनों के ही उदाहरण आवश्यक एवं महत्वपूर्ण थे। न्यूटन को देकार्ते से प्रेरणा मिली कि प्रकृति सदा और हर जगह समान है और उसमें एकरूपता छिपी रहती है। सामान्य लोगों के लिए जीवन के तथ्य और सच्चाइयां विस्मयकारी होती हैं पर उनके पीछे छिपे सिद्धांतों की गूढ़ता के प्रति वे उदासीन रहते हैं। न्यूटन और सेब की कहानी तो सर्वविदित है। पर उनके द्वारा दिए गए गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत के पीछे गहन तार्किक विचारशीलता एवं गैलीलियो द्वारा किए गए प्रयोगों को आत्मसात कर एक सार्वभौमिक सच्चाई को अति अनुशासित व विलक्षण रूप से प्रकाशित कर पाने की उनकी क्षमता बिरली है।

न्यूटन द्वारा प्रेरित वैचारिक क्रांति के आधार में थी उनकी यह मान्यता कि जो नियम सामान्य आकार की वस्तुओं पर लागू होते हैं, वे वस्तुत: सार्वभौमिक हैं और हर छोटेबड़े किसी भी आकार या शक्ल के पदार्थ या पिंडों पर लागू होते हैं। इस विचार को आत्मसात करने के साथ ही न्यूटन ने अपनी ही एक नई दुनिया का निर्माण शुरू किया।

न्यूटन की इस दुनिया की तुलना युक्लिड के ज्यामितीय संसार से की जा सकती है। युक्लिड ने बिंदु, रेखा एवं तल (प्लेन) को परिभाषित करने के बाद कुछ स्वयंसिद्ध सिद्धांत प्रतिपादित किए, जिनका पालन बिंदुओं, रेखाओं और तलों के आपसी सम्बंधों के लिए अनिवार्य है। और यदि युक्लिड आज भी अपनी ज्यामितीय देन की वजह से माने जाते हैं तो इसलिए नहीं कि उनके नियम वास्तविक दुनिया से ग्रहण किए गए थे, वरन इसलिए कि युक्लिडीय संसार के तार्किक परिणाम हमारी वास्तविक दुनिया के ताले में चाबी की तरह फिट होते हैं।

न्यूटन ने अपनी वैचारिक दुनिया के नियमों को भौतिक संसार पर लागू किया। उन्होंने पदार्थों के न्यूनतम अंशों को, बिना परिभाषित किए, भौतिक दुनिया का आधार बनाया। न्यूटन का लेखन निर्मल जल की तरह स्पष्ट था पर वे तर्क को इलास्टिक की तरह खींचने के पक्ष में नहीं थे। वे अपने विरोधियों की कठिनाई को समझ सकते थे। पर जो वैज्ञानिक अपनी समस्या का हल अपने आप नहीं निकाल सकते थे, उनकी मदद करने में वे स्वयं को असमर्थ पाते थे।

न्यूटन की अपनी दुनिया जो अपरिचित अल्पतम कणों से बनी थी और जिसके द्वारा सब कुछ निर्मित हो सकता था चाहे वह सेब हो या चंद्रमा, अन्य ग्रह या सूर्य। न्यूटन के अनुसार इन सभी संगठनों के गति व्यवहार की मर्यादा एक ही है। न्यूटन ने इस बात को और आगे बढ़ाया और उनके अनुसार इन सब संगठनों के अंतर में बसे प्रत्येक अल्पतम अंश भी उनके द्वारा प्रतिपादित समन्वित नियमों का पालन करते थे। न्यूटन के अनुसार अगर वे वेगहीन हैं तो वेगहीन ही बने रहेंगे और यदि वे गतिशील हैं तो उनकी गतिशीलता वैसी ही बनी रहेगी, जब तक कि उनके ऊपर बाहरी बलों का प्रभाव न पड़े और इन सब बाहरी बलों में न्यूटन के अनुसार प्रमुखतम है वह बल, जिसके द्वारा प्रत्येक अल्पतम कण हर अन्य कण को अपनी ओर आकर्षित करता है। इस बल की शक्ति कणों के बीच की दूरी के वर्ग पर ही आधारित होती है और इस प्रकार नियमित होती है कि उनके बीच की दूरी दुगनी हो जाने पर उनके बीच का बल घटकर अपनी प्रारंभिक बल का चतुर्थांश रह जाएगा।

न्यूटन एक सशक्त गणितज्ञ थे और उनका एक मूलभूत निष्कर्ष था कि एक ठोस गोलक का व्यवहार अपने केंद्र पर अवस्थित एक वज़नी बिंदु की तरह होता है। न्यूटन ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए यह दिखा दिया कि ग्रहों के मार्गों का निश्चित निर्धारण किया जा सकता है और साथ ही यह भी कि ग्रह अपने निश्चित मार्ग पर घूमते हुए एक ब्राहृांडीय घड़ी का काम करते हैं। उन्होंने गणितीय कुशाग्रता एवं परम धैर्य का परिचय देते हुए ज्वारभाटों की, धूमकेतुओं की कक्षाओं की एवं अन्य ब्राहृांडीय पिंडों के गतिचक्र की विषद गणना की।

इस प्रकार न्यूटन ने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया जिसको एक नाविक से लेकर खगोल शास्त्री और समुद्र भ्रमण का शौकीन, सब पहचान सकते थे। और इस प्रकार न्यूटन की सैद्धांतिक दुनिया और वास्तविक दुनिया के बीच एक विलक्षण साम्य स्थापित होता चला गया। तीन शताब्दियों से अधिक समय के बाद भी ब्राहृांड की चमत्कारी दुनिया को सरलतम सिद्धांतों से बांध पाने की न्यूटन की बेजोड़ प्रतिभा आज भी वैज्ञानिक संसार के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

न्यूटन को विलक्षण अंतर्दृष्टि प्राप्त थी और वे विभिन्न तार्किक विकल्पों का दूध का दूध और पानी का पानीकी तरह उचित मूल्यांकन कर पाने में समर्थ थे। कुल मिलाकर संसार को न्यूटन की सबसे बड़ी देन प्रकृति के विस्मयकारी एवं चमत्कारी कार्यकलापों को कार्यकारणसम्बंधों में बांध पाना है। उनके सिद्धांतों की सार्वभौमिकता एवं सरलता उनकी सबसे बड़ी सफलता रही है। (स्रोत फीचर्स)

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टोकियो चिकित्सा परीक्षा: लड़कियों के अंक कम किए गए

ता चला है कि टोकियो मेडिकल विश्वविद्यालय में मेडिकल प्रवेश परीक्षा में लड़कियों के अंक व्यवस्थित रूप से कम किए गए ताकि उन्हें प्रवेश न मिल सके। महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की बातों के साथ इस प्रकार के भेदभाव को लेकर बहुत आक्रोश है।

दरअसल, वकीलों का एक दल इन आरोपों की जांच कर रहा था कि मेडिकल प्रवेश परीक्षा में शिक्षा मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी के पुत्र को प्रवेश दिलवाने के लिए अंकों में हेराफेरी की गई थी। जांच के दौरान पता चला कि उपरोक्त छात्र के अंक तो बढ़ाए ही गए बल्कि कई अन्य पुरुष अभ्यर्थियों के अंक भी बढ़ाए गए। एक मामले में तो 49 अंकों की बढ़ोतरी की गई।

वकीलों की समिति को यह हैरतअंगेज़ बात भी पता चली कि अंकों में इस तरह हेराफेरी की गई थी कि लड़कियों के मुकाबले लड़कों को ज़्यादा अंक मिलें ताकि लड़कियों को प्रवेश देना ही न पड़े। विश्वविद्यालय के अधिकारियों को लगता है कि लड़कियों को प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि शादी और बच्चे हो जाने के बाद वे यह व्यवसाय छोड़ देती हैं।

जांच में स्पष्ट हुआ कि उन लड़कों के भी अंक बढ़ाए गए थे जो इसी परीक्षा में पहले एक या दो बार अनुत्तीर्ण हो चुके थे। वहीं दूसरी ओर, तीन बार अनुत्तीर्ण हो चुके लड़कों और समस्त लड़कियों के अंक नहीं बढ़ाए गए। समिति अभी यह निर्धारित नहीं कर पाई है कि इस हेराफेरी में कितनी लड़कियों का नुकसान हुआ है किंतु लगता है कि यह कारस्तानी पिछले दस सालों से चल रही थी।

जहां विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने इस दुर्भाग्यपूर्ण भेदभाव के लिए क्षमा याचना की है वहीं यह भी कहा है कि उन्हें इसके बारे में पता नहीं था। समिति का मत है कि जिन लड़कियों के साथ भेदभाव हुआ है उनकी क्षतिपूर्ति की जानी चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

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भारतीय विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय में शोध – डॉ. नटराजन पंचापकेसन

र्ष 2017, गुरुत्वाकर्षण और खगोल भौतिकी के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए काफी रोमांचक रहा। अगस्त में लीगो समूह ने घोषणाएं कीं। लीगो समूह में हैनफोर्ड और लिविंगस्टन (यूएसए) के अलावा पीसा (इटली) स्थित समूह भी शामिल हैं। लीगो का पहला अवलोकन एक ब्लैक होल के विलय का था। दूसरा अवलोकन दो न्यूट्रॉन तारों के विलय का था। दूसरे अवलोकन की सूचनाएं ऐसे उपकरणों को प्रेषित की गई थीं जो विद्युत चुम्बकीय तरंगों के विभिन्न हिस्सों (रेडियो तरंगों, गामा तरगों, और प्रकाशीय तरंगों) के विभिन्न क्षेत्रों के प्रति संवेदनशील थे। आश्चर्यजनक रूप से, ये उपकरण भी घटना को देखने में सक्षम थे। इस तरह मिलेजुले डैटा की मदद से न्यूट्रॉन तारों के विलय का बेहतर विवरण प्राप्त हुआ। जैसा कि स्टीफन हॉकिंग ने बीबीसी को दिए गए अपने अंतिम साक्षात्कार में कहा था: हम अपनी आंखों या सही मायनों में अपने कानों को अभी मसल ही रहे हैं, क्योंकि गुरुत्वाकर्षण तरंगों की आवाज़ ने हमें अभी जगाया है।

यह लगभग ऐसा था जैसे प्रकृति ने खुद इस क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिकों की हिचकिचाती सोच की पुष्टि कर दी हो। यह एहसास कुछ हद तक वैसा ही था जैसा तब हुआ था जब 1965 में पेन्ज़ियास और विल्सन ने ब्राहृांडीय सूक्ष्म तरंग पृष्ठभूमि विकिरण (सीएमबीआर) की खोज की थी। इस खोज के साथ गैमोव, एल्फर और हरमन के वे परिणाम अचानक सही साबित हो गए थे जिन्हें अटकलबाज़ी माना जा रहा था।

न्यूट्रॉन तारों की खोज 1967 में बर्नेल और हेविश ने की थी। चूंकि ये तारे नियमित समयअंतराल पर ऊर्जापुंज (पल्स) उत्सर्जित कर रहे थे इसलिए उन्हें पल्सरनाम दिया गया। हम अभी भी विस्तार से पल्स उत्सर्जन की क्रियाविधि नहीं समझ पाए हैं। हालांकि, 50 साल बाद हम यह समझ गए हैं कि उनका आपस में विलय कैसे होता है।

2015 में, ब्लैक होल विलय ने विश्वेश्वरा के ब्लैक होल के क्वासीनॉर्मल मोड्स की गणना को सही साबित कर दिया था। जिस समय उन्होंने ये गणनाएं की थीं उससमय तक कोई भी ब्लैक होल के अस्तित्व में विश्वास तक नहीं करता था।

वास्तव में गुरुत्वाकर्षण तरंग के विस्थापन प्रोटॉन के आकार की तुलना में बहुत छोटे होते हैं। इसलिए जो कुछ हम देख पा रहे हैं, उसे लेकर हमारे अंदर बेचैनी उत्पन्न हो रही है। वैसे, रेडियो, प्रकाशीय और उच्च ऊर्जा संकेतों का एक साथ अवलोकन इस बात की पुष्टि करता है कि न्यूट्रॉन तारों के विलय के दौरान गुरुत्व तरंगें निर्मित होती हैं और वास्तव में, अब हमारे पास ब्राहृांड को देखने के लिए एक नया झरोखा है।

2015 के परिणाम (जिसके परिणामस्वरूप नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था) केवल लीगो समूह के थे, किंतु 2017 के परिणाम लीगो और वर्गो समूह के संयुक्त परिणाम थे। इसने अंतरिक्ष में उक्त घटना स्थल को अधिक सटीकता से परिसीमित करने में मदद की।

आने वाले कुछ वर्षों में भारत भी उम्मीद करेगा कि उसके पास स्वयं का लिगो (इंडिगो) हो और वह भी इस संयुक्त उपक्रम का हिस्सा बने। गुरुत्वाकर्षण तरंगों की खोज स्पष्ट रूप से अधिकांश लोगों के लिए अवलोकन का एक नया झरोखा है।

एक समानांतर विकास में, पुणे स्थित इंटर युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (आईयूसीएए) और बैंगलुरू में रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट (आरआरआई) तथा अन्य कुछ अन्य स्थानों के भारतीय वैज्ञानिक, दुनिया भर के हज़ारों शोधकर्ताओं के साथ मिलकर गुरुत्वाकर्षण तरंगों के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आईयूसीएए में, नार्लीकर ने शुरुआत से ही गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। धुरंधर और उनके सहयोगियों ने सिग्नल के लिए कुछ टेम्पलेट्स के उपयोग का विचार दिया, जिनकी मदद से तमाम शोर को अलग किया जा सकता था। ऑस्ट्रेलिया और यूएसए के संस्थानों के साथ भी सहयोग था। आरआरआई में, बाला अय्यर और उनके समूह ने गुरुत्वाकर्षण समीकरणों के समाधान के अध्ययन के लिए न्यूटनउपरांत विधियों का उपयोग करके तारों के विलय के परिणामों की गणना की। अय्यर को फ्रांस में डामौर और उनके समूह के साथ काम करने का मौका मिला। मैं उनके कुछ छात्रों का थीसिस परीक्षक था। मैं मासूमियत से सोचता (चिंता करता) था कि इन छात्रों को नौकरियां कहां मिलेंगी? परंतु ये वैज्ञानिक तो अब भारत में चल रहे प्रयासों के केंद्र में हैं। दी इंटरनेशनल सेंटर फॉर थिएरेटिकल साइंस अब इस क्षेत्र में एक प्रमुख केंद्र बन गया है। तरुण सौरादीप ने आईयूसीएए, पुणे समूह के साथसाथ पूरे भारत के लिए गुरुत्वाकर्षण तरंगों के अनुसंधान और इंडिगो की स्थापना का ज़िम्मा उठाया है। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में खगोल भौतिकी और सामान्य सापेक्षता में कुछ सक्रिय कार्यकर्ता हैं जिनमें से कई आईयूसीएए का दौरा कर चुके हैं। अतीत में वैज्ञानिक अनुसंधान में विश्वविद्यालयों ने एक प्रमुख भूमिका निभाई है। हालांकि, स्वतंत्रता के बाद उनका महत्व तेज़ी से कम हो रहा है। पश्चिम में, खासकर ब्रिाटेन और यूएसए में, विश्वविद्यालय शिक्षण और अनुसंधान दोनों में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। भारत में ऐसा क्यों नहीं है?

इसका एक कारण देश में अनुसंधान का निम्न स्तर हो सकता है। हालांकि, विश्वविद्यालय औसत से भी कम प्रतीत होते हैं। इसके दो व्यापक कारण हैं: एक प्रशासनिक और दूसरा शैक्षणिक। बहुत कम विश्वविद्यालयों में दूरगामी योजनाएं बनाने के लिए कोई समूह है। अक्सर कुलपति विश्वविद्यालय के बाहर से आता है और थोड़ीबहुत जानकारी के साथ ही विश्वविद्यालय के संकाय में से अपनी टीम चुनता है। लंबे समय के लिए योजनाएं बनाने में मदद करने के लिए बहुत कम संकायों के पास आवश्यक दृष्टि होती है। इसके परिणामस्वरूप निरंतरता नहीं बन पाती और एक कुलपति का पांच वर्ष का कार्यकाल मानकों को सुधारने या बनाए रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। यदि समय पर हों और निष्पक्ष रूप से हों, तो भी नियुक्तियां लॉटरी की तरह होती हैं, जिनमें चयन उस समय उपलब्ध उम्मीदवारों में से करना होता है। दूसरा कारण शिक्षण पद्धति है, जो छात्र को उस स्तर पर जानकारी देने पर ज़ोर देती है जो उसकी उपलब्धियों से बहुत दूर है। इसके साथ, ट्यूटोरिअल वगैरह के लिए अपर्याप्त समय का नतीजा यह होता है कि अधिकांश छात्र लगभग रटने को मजबूर हो जाते हैं। छात्रों को कभी भी संतुष्टि और खुशी का अनुभव नहीं होता, जो कुछ नया समझने और इसे अपने वैश्विक दृष्टिकोण में जोड़ने से आता है। यहां तक कि आंतरिक रूप से आयोजित की जाने वाली परीक्षाएं भी वर्णनात्मक प्रश्नों पर आधारित होती हैं जिनके उत्तर देने के लिए याददाश्त से उत्तर तेज़ी से निकालने पड़ते हैं। परिणामस्वरूप हमें ऐसे छात्र मिलते हैं, जो अक्सर अंत में जाकर शिक्षक (स्कूलों से लेकर कॉलेजों के सभी स्तरों पर) बनते हैं और अपने शिक्षकों की तरह ही काम करते हैं।

इसे कैसे बदलें? मेरे विचार में हम आईआईटी जैसे संस्थानों से सबक ले सकते हैं। प्रत्येक संकाय के लिए एक गवर्निंग बॉडी हो ताकि नीतियों को निरंतरता और दिशा मिल सके। आदर्श रूप से विभागों या संकाय के डीन या प्रमुख को यह नेतृत्व प्रदान करना चाहिए। हालांकि, अधिकांश विश्वविद्यालयों में प्रमुख की नियुक्ति के लिए वरिष्ठता का मापदंड होता है जिसके चलते उनमें नेतृत्व करने के गुण सीमित होते हैं। इस मामले में आईयूसीएए आदर्श होगा जहां बढ़िया गवर्निंग बॉडी के साथ अच्छा कार्यकारी प्रमुख होता है। निदेशक को पश्चिमी विशेषज्ञों की एक अंतर्राष्ट्रीय समिति का सहयोग प्राप्त था। दिल्ली में इंटर युनिवर्सिटी एक्सेलेरेटर सेंटर (आईयूएसी) में संयुक्त राज्य अमेरिका के सक्रिय एनआरआई थे जो सलाह देने के साथ उनकी मदद भी कर रहे थे। अब बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? यूजीसी, विश्वविद्यालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार या विज्ञान अकादमियां?

वास्तव में, यूजीसी ने उपरोक्त मुद्दों पर पहले से ही कुछ अच्छा काम किया है। वास्तविकता तो यह है कि यूजीसी द्वारा इंटरयुनिवर्सिटी सेंटर (आईयूसीएए) की स्थापना की बदौलत ही विश्वविद्यालयों के मेरे जैसे लोग भी ब्राहृांड विज्ञान, गुरुत्वाकर्षण तरंगों, अष्टेकर वेरिएबल्स और क्वांटम गुरुत्वाकर्षण के क्षेत्र में शामिल हो पाए थे। 1980 के दशक के अंत में पुणे में स्थापित आईयूसीएए की अध्यक्षता नार्लीकर ने की थी, जिसने केंद्र के भवन को डिज़ाइन करने के लिए प्रसिद्ध वास्तुकार चाल्र्स कोरिया को राज़ी किया था। यह विज्ञान और प्रौद्योगिकी के साथ उदार कलाओं का संयोजन था। यूजीसी के एक अन्य केंद्र आईयूएसी के साथ भी मैंने काम किया है। इसका नेतृत्व आईआईटी कानपुर के एक परमाणु भौतिक विज्ञानी गिरिजेश मेहता कर रहे थे। इन केंद्रों की स्थापना के लिए, यूजीसी के तत्कालीन उपाध्यक्ष रईस अहमद को संसद में यूजीसी अधिनियम संशोधन करवाना पड़ा था। यूजीसी के अध्यक्ष बनने पर यश पाल ने भी वास्तव में कई चीज़ों को आगे बढ़ाया। इन दो और इंदौर में तीसरे केंद्र के कारण ही आज विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिक विशेषज्ञों से चर्चा कर सकते हैं और नवीनतम प्रगति जान सकते हैं। उनके प्रवास पूरा खर्च यूजीसी केंद्र वहन करता है।

जो छात्र हाल ही में पीएचडी प्राप्त करके अपने संस्थानों में वापस गए थे (जैसे नेपाल का मेरा छात्र), उन्होंने इन केंद्रों का दौरा किया और वहां वरिष्ठ संकाय द्वारा उन्हें सलाह भी दी गई। वहां कुछ ने टेलीस्कोप डैटा के साथ काम करना भी सीख लिया। टीआईएफआर के नेशनल सेंटर फॉर रेडियो एस्ट्रोफिज़िक्स के पुणे में होने से मदद मिलती है। गोविंद स्वरूप हमेशा विश्वविद्यालयों को याद दिलाते रहते हैं कि छात्रों और शिक्षकों को विषय और डैटा विश्लेषण के बारे में सीखने के लिए भेजें। दिल्ली विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों को इस तरह की मदद से काफी फायदा हुआ। आईयूएसी में, प्रत्येक परियोजना में विश्वविद्यालयोंकॉलेजों के शिक्षकों को शामिल करना होता था। आईयूएसी अनुप्रयोगों के लिए परमाणु वैज्ञानिकों को परिचित कर रहा है पहले संघनित पदार्थ भौतिकी में और अब जीव विज्ञान में। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के बीच इन अंतरविश्वविद्यालयीन केंद्रों के प्रभाव को और मज़बूत करने की आवश्यकता है।

हमें कचरा निपटान, नदी की सफाई, नरवाई जलाने जैसी खराब कृषि प्रथाओं, आदि के लिए अंतर्विषयक परियोजनाओं के लिए उपकेंद्र स्थापित करना चाहिए। हम इन क्षेत्रों में भारतीय विज्ञान संस्थान, आईआईटी आदि में विशेषज्ञता विकसित कर रहे हैं। अपने कैरियर के दौरान कई शिक्षक अपनी पीएचडीसमस्याओं में रुचि खो देते हैं, जिनका महत्व अब खत्म हो गया है। कुछ ही सामाजिक हितों की समस्याओं पर ध्यान देते हैं।

अंत में, अकादमियों और समितियों की भूमिका जुड़ाव और संबद्धता की समझ उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण है। दी एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया और दी इंडियन एसोसिएशन फॉर जनरल रिलेटिविटी एंड ग्रेविटेशन ने एक समावेशी तरीके से मेरी रुचि के क्षेत्रों में उपयोगी भूमिका निभाई है। विश्वविद्यालय और कॉलेज में पी. सी. वैद्य और ए. के. रायचौधरी जैसे सक्षम शिक्षकों की उपस्थिति काफी प्रेरणादायक थी। उच्च ऊर्जा और परमाणु भौतिकी समूहों की वार्षिक या द्विवार्षिक बैठकें भी बेहद उपयोगी और कामकाजी थीं। ए. एस. दिवातिया, बी. एम. उदगांवकर और अन्य द्वारा स्थापित भारतीय भौतिकी संघ काफी महत्वाकांक्षी था, लेकिन वह अपने अमेरिकी समकक्ष की तरह विकसित नहीं हो पाया। मैं विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से अनुदान की भूमिका का भी ज़िक्र करना चाहूंगा, जिसमें प्रयोगात्मक काम के अलावा दिल्ली में एस्ट्रोपार्टिकल भौतिकी में सैद्धांतिक कार्य के लिए भी एक बड़ा अनुदान (सौजन्य एन. मुकुंदा) दिया गया। राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी (एनआईआरएफ) की हालिया रिपोर्ट में कई विश्वविद्यालयों के बारे में सकारात्मक बातें कही गई हैं। हालांकि, अभी रास्ता काफी लंबा है। प्रतिभा को तलाशने और पोषित करने की बेहतर क्षमता के अलावा, सभी अनुसंधान संस्थानों और विश्वविद्यालयों के बीच और अधिक सहयोग की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कंप्यूटर और संस्कृत भाषा – प्रतिका गुप्ता

ह बात आम बातचीत में अक्सर उभरती है कि संस्कृत कंप्यूटर के लिए सबसे उपयुक्त भाषा है और इसे वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। इस बात का काफी समर्थन किया जा रहा है। यहां तक कि कुछ प्रदेशों की सरकारों ने बच्चों के लिए संस्कृत भाषा अनिवार्य विषय कर दिया है।

कंप्यूटर एक मशीन है जो निर्देशों पर काम करती है। इसके लिए निर्देश लिखने में किसी भाषा का उपयोग किया जाता है। कंप्यूटर उस भाषा में लिखे निर्देशों को पढ़ता है और उन्हीं निर्देशानुसार काम करता है। इसलिए इन निर्देशों को सटीकता से लिखा जाना ज़रूरी है।

कंप्यूटर उपयुक्त भाषा

कंप्यूटर की भाषा संदर्भमुक्त होनी चाहिए। संदर्भमुक्त भाषा यानी किसी निर्देश, वाक्य या शब्द का अर्थ संदर्भ पर आधारित ना हो। हम जो भाषा बोलते उसमें कई बार किसी वाक्य या शब्द का अर्थ इससे निकालते हैं कि वे किस बारे में कहा जा रहा है (जैसे सोना, हवा में उड़ना, उसको चमका देना वगैरह)। मशीन के लिए संदर्भ समझकर उस हिसाब से निर्देश लागू करना मुश्किल है और इसमें गड़बड़ियों की संभावना ज़्यादा है। इसलिए भाषा ऐसी हो जिसका अर्थ समझने के लिए किसी संदर्भ का उपयोग ना करना पड़े। सिर्फ वाक्य ही अपने आप में पूरा और एकमेव अर्थ व्यक्त करे। अर्थात एक वाक्य का एक ही अर्थ होना चाहिए।

कंप्यूटर जब निर्देशों को पढ़ता है तो पूरा वाक्य एक साथ पढ़कर मतलब समझने की बजाय उसे तोड़ता है। उसके वाक्य विन्यास को पढ़ता है और अर्थ निकालता है। भाषा ऐसी होना चाहिए कि उसके वाक्यों को तोड़ने पर उसका अर्थ ना बदले। कंप्यूटर इसे आसानी से पढ़कर निर्देशित कार्य कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की मदद से सामान्य भाषा की बातों को इस रूप में बदला जाएगा जिसे कंप्यूटर समझ सके। यह काम इंसानों को करना होगा। अत: कंप्यूटर की भाषा सीखने में आसान होनी चाहिए ताकि कोई भी इसे सीख सके और काम कर सके।

कंप्यूटर की भाषा की एक विशेषता यह भी होगी उस भाषा के अक्षर मेमोरी में कम जगह घेरते हों। ज़्यादा जगह मतलब ज़्यादा कीमत। और ज़्यादा जगह घेरने वाली भाषा कार्य को पूरा करने का समय भी बढ़ा सकती है।

दुनिया में बोली जाने वाली समस्त भाषाएं (प्राकृतिक भाषाएं) संदर्भ आधारित हैं। यानी वाक्यों या शब्दों का अर्थ संदर्भ से निकलता है। इसलिए भाषा सम्बंधी गड़बड़ियों से बचने के लिए, कुछ वैज्ञानिकों का मत बना कि कंप्यूटर के लिए कृत्रिम भाषा बनाई जाए।

संस्कृत भाषा

संस्कृत भी एक प्राकृतिक भाषा है। ये ऐसी पहली भाषा मानी जाती है जिसके व्याकरण को सुव्यवस्थित तरीके से लिपिबद्ध किया गया था। इसके भाषा के नियमों को व्यवस्थित करने का काम  पाणिनी ने किया था। व्याकरण को लिखने में पाणिनी ने सहायक प्रतीकोंका उपयोग किया था। जिसमें शब्दों या वाक्यों के अर्थ में दोहरापन कम से कम करने के लिए शब्दों में नए प्रत्यय लगाए।

संस्कृत भाषा वाक्य के लगभग हर हिस्से में विभक्तियों का उपयोग करती है। यहां तक की किसी व्यक्ति, जगह के नाम के अंत में भी विभक्ति का सम्बंधित रूप का होता है। जिससे पता चलता है कि वह वाक्य में कर्ता है या कर्म। इसलिए संस्कृत में शब्द का स्थान इतना महत्वपूर्ण नहीं है। यदि किसी वाक्य में तीन शब्द हैं तो उन्हें लिखने के 6 संभावित क्रम होंगे (जैसे बुद्धम् शरणम् गच्छामि, इसे बुद्धम् गच्छामि शरणम् या शऱणम् गच्छामि बुद्धम् लिखा जा सकता है)। इसी तरह किसी वाक्य में 4 शब्द हैं तो उसको 24 संभावित क्रमों में लिखा जा सकता है। और इनमें से किसी भी तरीके से लिखने पर उस वाक्य का अर्थ नहीं बदलता। विभक्ति के उपयोग से सीमित शब्दों में वाक्य पूरा हो जाता है। पर सिर्फ संस्कृत ही ऐसी अकेली भाषा नहीं है ऐसी और भी भाषाएं हैं। जैसे लैटिन की यही स्थिति है।

संस्कृत और कंप्यूटर

फिलहाल संस्कृत देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इसमें स्वर या व्यंजन मेमोरी में स्टोर होने के लिए 2 बाइट की जगह लेते हैं। स्वर या व्यंजनों से मिलकर बने अक्षर 4 से 8 बाइट तक की जगह घेरते हैं। जबकि लैटिन में एक अक्षर एक बाइट की जगह लेता है। उदाहरण के तौर पर लैटिन में लिखे Sanskritमें 8 अक्षर हैं इसे स्टोर करने में 8 बाइट लगेंगे। वहीं देवनागरी में संस्कृतलिखने में 18 बाइट लगेंगे। यानि संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा बनाने से मेमोरी में स्टोरेज बढ़ेगा जो शायद कंप्यूटर के निर्देश पूरे करने में लगने वाले समय को बढ़ा दे और कंप्यूटर की लागत को भी।

कंप्यूटर की भाषा सीखनेसमझने में सरल होनी चाहिए। किंतु दुनिया में बहुत ही कम लोग हैं जो संस्कृत भाषा का उपयोग करते हैं, बोलचाल में तो शायद उतने भी नहीं करते।

संस्कृत में वाक्यों या शब्दों के संदर्भ आधारित होने की संभावना कम है पर एक प्राकृतिक भाषा होने के नाते संस्कृत पूरी तरह से संदर्भ मुक्त भाषा नहीं है। इन बातों को देखते हुए तो संस्कृत कंप्यूटर के लिए इतनी उपयुक्त भाषा नहीं लगती।

कैसे उठी संस्कृत की बात

80 के दशक में वैज्ञानिक कंप्यूटर के लिए बेहतर कृत्रिम भाषा बनाने जुटे हुए थे। जिसमें बोलचाल की भाषा की अस्पष्टताएं ना हो। कंप्यूटर के लिए कुछ कृत्रिम भाषाएं जैसे कोबोल, लिस्प, सी पहले ही बन चुकीं थी। इस संदर्भ में अमरीकी कंप्यूटर वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में एक पेपर प्रकाशित किया। इस पेपर में उन्होंने प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर उपयोग करने के बारे में लिखा। इसमें उन्होंने संस्कृत को केस स्टडी के रूप में लिया। उन्होंने बताया कि कैसे संस्कृत का ढांचा बेहतर है और संस्कृत भाषा नियमबद्ध है और ये नियम स्पष्ट हैं। ये नियम कृत्रिम भाषा के नियमों के काफी करीब हैं। चूंकि संस्कृत में शब्दों के स्थान बदलने से उसके अर्थ पर फर्क नहीं पड़ता इसलिए कंप्यूटर में वाक्यों को तोड़ने और उसे क्रम में जमाने की समस्या कम आएगी। उन्होंने प्राचीन व्याकरण लिखने वालों के तरीकों का अध्ययन किया और ये सुझाव दिया कि प्राकृतिक भाषाओं को कंप्यूटर की भाषा के लिए उपयोग किया जा सकता है। किंतु इस पेपर की सिर्फ कुछ बातों को लिया गया और यह मान लिया गया कि संस्कृत सबसे उपयुक्त भाषा है।

यदि इस शोरगुल के चलते संस्कृत को कंप्यूटर की भाषा के तौर पर इस्तेमाल किया भी जाए तो क्या यह इतना आसान होगा? वर्तमान में एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने के लिए ही बेहतर सॉफ्टवेयर नहीं हैं तो पूरे मौजूदा तंत्र को संस्कृत भाषा के तंत्र में बदलना क्या आसान होगा? संस्कृत भाषा को जानने वाले लोग कम बहुत कम हैं। क्या इतने बड़े पैमाने पर नए लोगों को भाषा सिखाने, प्रोग्राम, सॉफ्टवेयर बनाने के लिए पर्याप्त समूह जुटा पाएंगे?(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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