पी.एच.डी. में प्रकाशन की अनिवार्यता समाप्त करने का प्रस्ताव

हाल ही में शोधकर्ताओं की एक समिति ने सुझाव दिया है कि शोध छात्रों के लिए डॉक्टरेट की उपाधि मिलने के पहले अकादमिक जर्नल में पेपर प्रकाशित करने की अनिवार्यता को खत्म किया जाना चाहिए।

वर्तमान में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमानुसार भारत में किसी भी शोध छात्र को अपनी थीसिस जमा करने के पहले, किसी पत्रिका में एक पर्चा प्रकाशित करना और किसी सम्मेलन या सेमिनार में दो पर्चे प्रस्तुत करना ज़रूरी है।

पिछले साल यूजीसी ने इस अनिवार्यता को जांचने के लिए विज्ञान और मानविकी शोधकर्ताओं की एक समिति बनाई थी। समिति के अध्यक्ष पी. बलराम ने इस अनिवार्यता पर शंका ज़ाहिर करते हुए कहा कि अनिवार्यता के कारण निम्न गुणवत्ता वाले कई ऐसे जर्नल फल-फूल रहे हैं जो पैसा लेकर बिना किसी समीक्षा या संपादन के जल्दी ही शोध पत्र प्रकाशित कर देते हैं।

समिति का सुझाव है कि यूजीसी को अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहिए, विश्वविद्यालयों को पीएच.डी. के दौरान ही शोध छात्र की परीक्षा लेकर उसका मूल्यांकन करना चाहिए और मौखिक परीक्षा के दौरान शोध छात्र को अपनी थीसिस की पैरवी करना चाहिए। उम्मीद है कि यूजीसी इस सुझाव पर जून 2019 तक प्रतिक्रिया दे देगी।

सुझाव से सहमति जताते हुए नेशनल सेंटर फॉर बॉयोलॉजीकल साइंस, बैंगलोर के अकादमिक गतिविधियों के प्रमुख मुकुंद थत्तई कहते हैं कि उनके संस्थान में हर साल लगभग 25 प्रतिशत शोध छात्रों को पीएच.डी. डिग्री देरी से मिलती है क्योंकि वे प्रकाशन की अनिवार्यता को समय से पूरा नहीं कर पाते। खासकर जीव विज्ञान और गणित जैसे विषयों में पर्चा प्रकाशित करने में एक साल से भी अधिक समय लग जाता है।

वहीं इंस्टीट्यूट ऑफ मैथेमेटिकल साइंस, चेन्नई के गौतम मेनन का कहना है कि इस अनिवार्यता को खत्म कर देने से निम्न गुणवत्ता वाले शोध कार्य या प्रकाशन कम नहीं होंगे, कोई भी पक्षपाती समिति घटिया थीसिस को भी स्वीकार सकती है। प्रकाशन की अनिवार्यता में कम-से-कम किसी बाहरी समीक्षक द्वारा समीक्षा की निश्चितता होती है।

समिति के अध्यक्ष इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलौर के बॉयोकमिस्ट पी. बलराम का कहना है कि शोध पत्रों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना संस्थान की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। उनका कहना है कि सभी पर केंद्रीय नियम लागू करने से मुश्किलें होती हैं क्योंकि जैसे ही आप ऐसे नियम लागू करते हैं, लोग उनसे बचने के रास्ते निकाल लेते हैं। सुझाव पर यूजीसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://images.theconversation.com/files/146480/original/image-20161117-19361-1d8ojlz.jpg?ixlib=rb-1.1.0&q=45&auto=format&w=926&fit=clip

पाई (π) के कुछ रोचक प्रसंग – संकलन: ज़ुबैर

प्राथमिक कक्षाओं से ही वृत्त के क्षेत्रफल और परिधि मापन के लिए हमने पाई (π) का इस्तेमाल किया है। वास्तव में π किसी भी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात है। यह एक अपरिमेय संख्या है, इसलिए इसे निश्चित भिन्न के रूप में नहीं लिखा जा सकता। इसकी बजाय, यह एक अंतहीन भिन्न है और इसके दशमलव के बाद के अंकों में दोहराव नहीं होता।

लेकिन इस अपरिमेय संख्या की खोज कैसे की गई? अध्ययन के हज़ारों वर्षों के बाद भी क्या इस संख्या में अभी भी कोई रहस्य छिपा है? आइए इस संख्या के उद्गम पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि क्या आज भी यह अपने गर्भ में कुछ रहस्य छिपाए है।

  1. π और पाइलिश भाषा

p को सबसे अधिक संख्या तक याद रखने का रिकॉर्ड भारत में वेल्लोर के राजीव मीणा के नाम दर्ज है। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार उन्होंने 21 मार्च 2015 को π के दशमलव के बाद 70,000 अंक सुनाने का रिकॉर्ड बनाया है। इससे पहले यह रिकॉर्ड चीन के चाऊ लु के नाम दर्ज था जिन्होंने वर्ष 2005 में दशमलव के बाद 67,890 अंक मुंहज़बानी सुनाए थे।

निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: पाई के मान के अंकों की द्योतक है। प्रथम उदाहरण में पहले 10 अंकों का समावेश है जबकि दूसरे उदाहरण में पहले 31 अंक नज़र आते हैं।

1.        How I need a drink, alcoholic in nature, after the heavy lectures involving quantum mechanics!

2.         But a time I spent wandering in bloomy night;

Yon tower, tinkling chimewise, loftily opportune.

Out, up, and together came sudden to Sunday rite,

The one solemnly off to correct plenilune.

किसी ने तो इस शैली में 10,000 शब्दों का एक उपन्यास भी लिख डाला है।

एक अनधिकृत रिकॉर्ड अकीरा हरगुची के नाम पर भी दर्ज है जिन्होंने 2005 में π के मान को 1,00,000 दशमलव स्थानों तक और फिर हाल ही में एक वीडियो के माध्यम से 1,17,000 से भी अधिक दशमलव स्थानों तक प्रस्तुत कर दिखाया।

संख्या के प्रति कुछ उत्साही लोगों ने तो π के कई अंकों को याद करने के लिए मेमोरी एड्स का उपयोग किया है तो कई लोगों ने पाईफिलोलॉजी नेमोनिक तकनीक का इस्तेमाल कर इस संख्या को याद किया है। अक्सर, वे पद्यों का उपयोग करते हैं (जिसमें प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: π के अंकों से मेल खाती है)। इसे पाइलिश शैली भी कहा जाता है। ऐसे पद्यों के कुछ उदाहरण बॉक्स में देखिए।

2. अंकों में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि

π एक अनंत संख्या है, हम कभी भी इसके सारे अंकों का निर्धारण नहीं कर सकते। फिर भी, खोज के बाद से दशमलव स्थानों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है। 2000 ई.पू. में बेबीलोन के लोगों ने इसे ‘तीन सही एक बटा आठ’ के रूप में उपयोग किया, जबकि प्राचीन चीनी लोगों और ओल्ड टेस्टामेंट के रचयिता 3 के पूर्णांक का उपयोग करके खुश थे। 1665 में, आइज़ैक न्यूटन ने 16 दशमलव स्थानों तक π की गणना की। 1719 तक, फ्रांसीसी गणितज्ञ थॉमस फेंटेट डी लैगी ने 127 दशमलव स्थानों तक π की गणना की थी।

कंप्यूटरों के आने के बाद से π के ज्ञान में काफी सुधार हुआ। 1949 और 1967 के बीच, π के ज्ञात दशमलव स्थानों की संख्या 5,00,000 हो गई। पिछले वर्ष, स्विस कंपनी डेक्ट्रिस लिमिटेड के वैज्ञानिक पीटर ट्रूएब ने π के 2,24, 59,15,77,18, 361 अंकों की गणना के लिए एक विशेष कंप्यूटर प्रोग्राम का उपयोग किया।

3. हाथों से π की गणना करना

जो लोग पुरानी तकनीक से  की गणना करना चाहते हैं, वे एक स्केल, एक गोलाकार चूड़ी, धागे के एक टुकड़े की मदद से यह काम कर सकते हैं या चांदे और पेंसिल का इस्तेमाल कर सकते हैं। चूड़ी विधि की सफलता के लिए आवश्यक होगा कि चूड़ी एकदम गोलाकार हो, और सटीकता इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी परिधि पर धागे को कितनी सही तरह से लपेटा गया है। चांदे की मदद से वृत्त बनाकर उसका व्यास नापने में काफी निपुणता और सटीकता की आवश्यकता होती है।

ज़्यादा सटीक गणना ज्यामिति की मदद से की जा सकती है। इसमें एक वृत्त को पिज़्ज़ा की फांक की तरह कई खंडों में विभाजित किया जाता है। फिर, एक सीधी रेखा की लंबाई की गणना की जाती है जो हर एक खंड को समद्विबाहु त्रिभुज में बदल दे। सभी खंडों को जोड़ने पर π का अनुमान लगाया जाता है। जितनी अधिक फांक बनाएंगे, π का मान उतना ही सटीक होगा।

4. π की खोज

प्राचीन बेबीलोन के लोगों को आज से लगभग 4000 साल पहले p जैसे एक अनुपात के अस्तित्व का पता था। 1900 ई.पू. से 1680 ई.पू. के बीच की एक बेबीलोनी तख्ती पर π की गणना 3.125 देखी गई है। 1650 ईसा पूर्व के प्रसिद्ध गणितीय दस्तावेज़, रिंद गणितीय पैपायरस, में p को 3.1605 दर्ज किया गया है। किंग जेम्स बाइबल में π की संख्या को क्यूबिट्स में दर्शाया गया है। क्यूबिट उस समय दूरी नापने की इकाई थी जो लगभग एक हाथ के बराबर होती थी। आर्किमिडीज़ (287-212 ई.पू.) ने पायथागोरस प्रमेय का उपयोग करके π की गणना की थी।

5. π का चिन्ह और नामकरण

वृत्त के एक स्थिरांक के रूप में स्थापित होने से पहले, गणितज्ञों को π की बात करते हुए काफी कुछ समझाना पड़ता था। पुरानी गणित की किताबों में π को निम्न वाक्य में व्यक्त किया जाता था: ‘quantitas in quam cum multiflicetur diameter, proveniet circumferencia’, अर्थात ‘वह संख्या, जिसमें वृत्त के व्यास का गुणा करने पर, परिधि प्राप्त होती है।’

यह संख्या तब काफी प्रचलित हुई जब स्विस बहुविद् लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में त्रिकोणमिति में इसका उपयोग किया। हालंकि इसका ग्रीक संकेत यूलर ने नहीं दिया था। π का पहला उल्लेख गणितज्ञ विलियम जोन्स ने 1706 में अपनी पुस्तक में किया था। जोन्स ने संभवत: π चिन्ह का इस्तेमाल वृत्त की परिधि को दर्शाने के लिए किया था।

देखा जाए तो π काफी अजीब संख्या है। गणितज्ञों ने समय-समय पर इस संख्या के कई रहस्यों पर से पर्दा उठाया है लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। जैसे, गणितज्ञ अभी भी नहीं जानते कि क्या π तथाकथित सामान्य संख्याओं के समूह में है यानी क्या π में विभिन्न अंकों की आवृत्ति बराबर है या क्या विभिन्न अंक इसमें बराबर बार प्रकट होते हैं। 2016 में आरकाइव्स में प्रकाशित शोध पत्र में पीटर ट्रूएब के अनुसार पहले 2.24 खरब अंकों में 0 से 9 अंकों की आवृत्ति देखें तो लगता है कि π एक सामान्य संख्या है। किंतु इस बात को गणितीय ढंग से प्रमाणित करके ही पक्का कहा जा सकता है।

6. बहुगुणी है π

अट्ठारवीं सदी के एक गणितज्ञ जोहान हाइरिश लैम्बर्ट ने π की अपरिमेयता का प्रमाण दिया था। आगे चलकर यह भी साबित किया गया कि यह न सिर्फ अपरिमेय है बल्कि ट्रांसेन्डेंटल भी है। गणित में ट्रांसेन्डेंटल संख्या का मतलब होता है कि वह किसी ऐसी समीकरण का उत्तर नहीं हो सकता जिसमें परिमेय संख्याएं हों।

7. π का विरोध

जहां एक ओर π को लेकर कई गणितज्ञ आसक्त हैं, वहीं दूसरी ओर इसको लेकर प्रतिरोध भी है। कुछ लोगों का तर्क है कि पाई एक व्युत्पन्न संख्या है, और टाऊ (t, दो π के बराबर) एक अधिक सहज अपरिमेय संख्या है।

τ मैनिफेस्टो के लेखक माइकल हार्टल के अनुसार τ सीधे तौर पर परिधि को त्रिज्या से जोड़ता है, जिसका अधिक गणितीय मूल्य है। τ त्रिकोणमितीय गणनाओं में भी बेहतर काम करता है, उदाहरण के तौर पार टाऊ/4 रेडियन वह कोण है जो वृत्त के एक चौथाई हिस्से को घेरता है।

8. π दिवस

1988 में, भौतिक विज्ञानी लैरी शॉ ने सैन फ्रांसिस्को स्थित विज्ञान संग्रहालय में π-दिवस की शुरुआत की। हर साल, 14 मार्च (3/14) π-दिवस मनाया जाता है। उद्देश्य गणित और विज्ञान में रुचि बढ़ाना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   http://www.historyof.net/wp-content/uploads/2012/05/asciipi.jpg

गणित की एक पुरानी पहेली सुलझाई गई

णितज्ञों को जो बातें परेशान करती हैं, वे कई बार बहुत विचित्र होती हैं। जैसे 64 साल पुरानी एक पहेली को ही लें। गणितज्ञों का सवाल था कि क्या हरेक संख्या को तीन संख्याओं के घन के जोड़ के रूप में लिखा जा सकता है। अर्थात, क्या हरेक संख्या k के लिए निम्न समीकरण लिखी जा सकती है:

x3 + y3 + z3 = k

यह सवाल वैसे तो एलेक्ज़ेण्ड्रिया के गणितज्ञ डायोफेंटस ने किया था और उक्त समीकरण को डायोफेंटाइन समीकरण कहते हैं। चुनौती यह है कि 1 से अनंत तक किसी भी संख्या (k) के लिए ऐसी तीन संख्याएं खोजें जो उक्त समीकरण को पूरा करें। जैसे यदि संख्या (k) 8 हो तो उसके लिए एक समीकरण निम्नानुसार होगी:

23 + 13 + (-1)3 = 8

आप देख ही सकते हैं कि x, y और z कोई भी संख्या (धनात्मक या ऋणात्मक) हो सकती है। विभिन्न संख्याओं के लिए खोज करते-करते गणितज्ञों को धीरे-धीरे पता चल गया कि सभी संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें लिखना संभव नहीं है। एक नियम यह पता चला कि यदि किसी संख्या में 9 का भाग देने पर शेष 4 या 5 रहे तो उसके लिए ऐसी समीकरण नहीं बन सकती। इस नियम के आधार पर 100 से कम की 22 संख्याएं बाहर हो जाती हैं। शेष 76 संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें बना ली गई हैं किंतु 2 संख्याओं ने गणितज्ञों को खूब छकाया है – 33 और 42।

अब ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के एंड्रयू बुकर ने 33 के लिए समीकरण बना ली है। उन्होंने एक कंप्यूटर सूत्रविधि विकसित की जो इस समीकरण को x, y और z  के मान 1016 तक लेकर समीकरण का हल निकाल सकती है। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि इसकी मदद से कंप्यूटर उन्हें 33 के लिए ऐसी डायोफेंटाइन समीकरण उपलब्ध करा देगी। कुछ सप्ताह की मेहनत के बाद जो समीकरण उन्हें मिली वह थी:

(8,866,128,975,287,528)3 + (-8,778,405,442,862,239)3 + (-2,736,111,468,807,040)3 = 33

बुकर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मज़ेदार बात यह रही कि उनकी पत्नी को समझ में नहीं आया कि वे इतने खुश क्यों हैं। शायद हममें से भी कई को यह खुशी समझ में नहीं आएगी। मगर 100 से कम की एक संख्या अभी बची है (42) और उम्मीद की जा सकती है कि जल्दी ही कोई और गणितज्ञ खुशी से उछलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :   https://d2r55xnwy6nx47.cloudfront.net/uploads/2019/03/Cube33-2880x1220_HP-2880×1220.jpg

 

विज्ञान कांग्रेस: भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का वक्तव्य

जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस में कई वक्ताओं ने दावे किए कि सारा आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राचीन भारत में पहले से ही उपलब्ध था। प्रस्तुत है भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा ऐसे अपुष्ट, मनगढ़ंत दावों पर सवाल उठाता और वैज्ञानिक दष्टिकोण की मांग करता वक्तव्य।

हाल ही में जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस के दौरान आंध्र प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति और कई अन्य लोगों द्वारा इन-विट्रो निषेचन (परखनली शिशु), स्टेम कोशिकाओं के ज्ञान और सापेक्षता एवं गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर टिप्पणियों ने वैज्ञानिक समुदाय को चौंका दिया है।

भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA), जो लगभग 1000 प्रख्यात वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों का एक निकाय है, स्पष्ट रूप से इस तरह के किसी भी दावे को अस्वीकार और रद्द करती है। यह बयान वैज्ञानिक प्रमाण और सत्यापन योग्य डैटा की तार्किक व्याख्या पर आधारित नहीं हैं। आईएनएसए कई अन्य ऐसे दावों को भी रद्द करता है जो मज़बूत प्रमाणों और तर्कों से रहित हैं, तथा बिना किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के किए गए हैं। विज्ञान तथ्यों पर भरोसा करता है और उसी के आधार पर उन्नति करता है। आईएनएसए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सत्यापन योग्य सबूतों के तार्किक तरीके से उपयोग की वकालत करता है। हाल ही में जारी किए गए वक्तव्य किसी भी वैज्ञानिक गहनता से दूर हैं और उन्हें सख्ती के साथ त्यागने और नज़रअंदाज़ करने की आवश्यकता है। काव्यात्मक कल्पनाओं को सुदूर अतीत की वैज्ञानिक प्रगति का द्योतक मानना निश्चित रूप से अस्वीकार्य है।

एक वैज्ञानिक निकाय के रूप में, आईएनएसए को भारत की वास्तुकला, खगोल विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन विज्ञान, गणित, धातुकर्म और इसी तरह के अन्य क्षेत्रों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी उपलब्धियों की समृद्ध परंपरा पर गर्व है। आईएनएसए विज्ञान के इतिहास में अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है और इस विषय में गंभीर शोध परियोजनाओं का समर्थन भी करता है। यहां तक कि इस विषय की एक लोकप्रिय शोध पत्रिका भी प्रकाशित करता है। अच्छी तरह से शोध की गई कई किताबें भी इन उपलब्धियों पर प्रकाशित हुई हैं। ये किताबें सभी के लिए मुक्त रूप से उपलब्ध हैं।

आईएनएसए ने इस तरह के किसी भी अपुष्ट विचार का समर्थन न तो किया है, न आज करता है और न ही आगे कभी करेगा चाहे वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर प्रस्तुत हों या किसी भी स्तर की प्रशासनिक प्रतिष्ठा रखने वाले व्यक्तियों द्वारा प्रस्तावित किए जाएं। मीडिया में तात्कालिक प्रचार के प्रलोभन के बावजूद, कल्पना और तथ्यों को अलग-अलग रखना ज़रूरी है।

आईएनएसए, सभी स्तरों पर सावधानी बरतने का आग्रह करता है और यह सुझाव देता है कि सार्वजनिक रूप से इस तरह के बयान देने से पहले जांच की वैज्ञानिक प्रक्रिया सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस तरह का परिश्रम जनता और छात्र समुदाय की सेवा होगी और इससे वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा और विकास प्रक्रिया को गति मिलेगी।

अपनी बात को दोहराते हुए, प्राचीन साहित्य को तथ्यों/प्रमाणों के तौर पर प्रस्तुत करने को अकादमी अनैतिक मानती है क्योंकि इन्हें किसी वैज्ञानिक विश्लेषण के अधीन नहीं किया जा सकता है। ऐसी प्रथाएं स्पष्ट रूप से अवांछनीय हैं। साहित्य के साथ-साथ विज्ञान में भी कल्पना का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इसके साथ भ्रम पैदा करना बिलकुल अवैज्ञानिक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.insa.nic.in/images/INSA-icon.png

भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ हफ्तों में इस बात पर महत्वपूर्ण चर्चा और बहस चली थी कि भारत में प्राचीन समय से अब तक विज्ञान और तकनीक का कारोबार किस तरह चला है। अफसोस की बात है कि कुछ लोग पौराणिक घटनाओं को आधुनिक खोज और आविष्कार बता रहे थे और दावा कर रहे थे कि यह सब भारत में सदियों पहले मौजूद था। इस संदर्भ में, इतिहासकार ए. रामनाथ (दी हिंदू, 15 जनवरी 2019) ने एकदम ठीक लिखा है कि भारत में विज्ञान के इतिहास को एक गंभीर विषय के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि अटकलबाज़ी की तरह। लेख में रामनाथ ने इतिहासकार डेविड अरनॉल्ड के कथन को दोहराया है। अरनॉल्ड ने चेताया था कि भले ही प्राचीन काल के ज्ञानी-संतों के पास परमाणु सिद्धांत जैसे विचार रहे होंगे मगर उनका यह अंतर्बोध विश्वसनीय उपकरणों पर आधारित आधुनिक विज्ञान पद्धति से अलग है।

ऐसा लगता है कि अंतर्बोध की यह परंपरा प्राचीन समय में न सिर्फ भारत में बल्कि अन्य जगहों पर भी प्रचलित थी। किंतु आज आधुनिक विज्ञान या बेकनवादी विधि (फ्रांसिस बेकन द्वारा दी गई विधि) पर आधारित विज्ञान किया जाता है। आधुनिक विज्ञान करना यानी सवाल करें या कोई परिकल्पना बनाएं, सावधानी पूर्वक प्रयोग या अवलोकन करें, प्रयोग या अवलोकन के आधार पर परिणाम का विश्लेषण करें, तर्कपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचें, अन्य लोगों द्वारा प्रयोग दोहरा कर देखे जाएं और निष्कर्ष की जांच की जाए, और यदि अन्य लोग सिद्धांत की पुष्टि करते हैं तो सिद्धांत या परिकल्पना सही मानी जाए। ध्यान दें कि नई खोज, नए सिद्धांत आने पर पुराने सिद्धांत में बदलाव किए जा सकते हैं, उन्हें खारिज किया जा सकता है।

1490 के दशक में, वास्को डी गामा, जॉन कैबोट, फर्डिनेंड मैजीलेन और अन्य युरोपीय खोजकर्ताओं के ईस्ट इंडीज (यानी भारत) आने के साथ भारत में आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति उभरना शुरु हुई। इनके पीछे-पीछे इंग्लैंड, फ्रांस और युरोप के कुछ अन्य हिस्सों के व्यापारी और खोजी आए। इनमें से कई व्यापारियों और पूंजीपतियों ने भारत और भारत के पर्यावरण, धन और स्वास्थ्य, धातुओं और खनिजों को खोजा और अपने औपनिवेशिक लाभ के लिए लूटना शुरू कर दिया। ऐसा करने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया। इसके अलावा, उनमें से कई जो समकालीन विज्ञान, प्रौद्योगिकी, कृषि और चिकित्सा विज्ञान का कामकाज करते थे, उन्होंने इस ज्ञान को यहां के मूल निवासियों में भी फैलाया।

यह औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत थी। इस विषय पर एक लेख इंडियन जर्नल ऑफ हिस्ट्री ऑफ साइंस के दिसंबर 2018 अंक में प्रकाशित हुआ था (https://insa.nic.in)। इस अंक के संपादन में आई.आई.एस.सी. बैंगलुरु के भौतिक विज्ञानी प्रो. अर्नब रायचौधरी और जेएनयू के प्रो.दीपक कुमार अतिथि संपादक रहे। प्रो. रायचौधरी विज्ञान इतिहासकार भी हैं और पश्चिम देशों के बाहर पश्चिमी विज्ञान: भारतीय परिदृश्य में निजी विचार पर उनका पैना विश्लेषण आज और भी ज़्यादा प्रासंगिक है। उनका यह विश्लेषण जर्नल ऑफ सोशल स्टडीज़ ऑफ साइंस के अगस्त 1985 के अंक में प्रकाशित हुआ था। प्रो. दीपक कुमार जे.एन.यू. के जाने-माने इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत में विज्ञान के इतिहास पर दो किताबें साइंस एंड दी राज (2006) और टेक्नॉलॉजी एंड दी राज (1995) लिखी हैं।

जर्नल के इस अंक का संपादकीय लेख डॉ. ए. के. बाग ने लिखा था। यह लेख विद्वतापूर्ण, अपने में संपूर्ण और शिक्षाप्रद है। डॉ. बाग भारत में प्राचीन और आधुनिक विज्ञान के इतिहासकार हैं। उन्होंने भारत-युरोप संपर्क और उपनिवेश-पूर्व और औपनिवेशिक भारत में आधुनिक विज्ञान की विशेषताओं का पता लगाया था। जर्नल के इस अंक में 30 अन्य लेख भी हैं जो इस बारे में बात करते हैं कि कैसे बंगाल पुनर्जागरण हुआ और ब्रिटिश भारत की पूर्व राजधानी कलकत्ता ने बंगाल (कलकत्ता/ढाका) को भारत में आधुनिक विज्ञान की प्रारंभिक राजधानी बनने में मदद की। वैसे तो विज्ञान से जुड़े अधिकतर लेख जे.सी. बोस, सी.वी. रमन, एस.एन. बोस, पी.सी. रे और मेघनाद साहा पर केंद्रित होते हैं। किंतु डॉ. राजिंदर सिंह ने इन तीन विभूतियों (सी.वी. रमन, एस.एन. बोस और एम.एन. साहा) के इतर प्रो. बी. बी. रे, डी. एम. बोस और एस .सी. मित्रा पर लेख लिखा है। डॉ. जॉन मैथ्यू द्वारा लिखित लेख: रोनाल्ड रॉस टू यू. एन. ब्राहृचारी: मेडिकल रिसर्च इन कोलोनियल इंडिया बताता है कि कैसे प्रो. ब्रहृचारी की दवा यूरिया स्टिबामाइन ने कालाज़ार नामक रोग से हज़ारों लोगों की जान बचाई थी। संयोग से, ब्रहृचारी ने भी 1936 में इंदौर में आयोजित 23वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में अपने अध्यक्षीय भाषण में इस बारे में बात की थी। ऑर्गेनिक केमिस्ट्स ऑफ प्री-इंडिपेंडेंस इंडिया नामक लेख में प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी का विशेष उल्लेख है। प्रो. सलीमुज़्ज़मान सिद्दीकी ने नीम के पेड़ से एज़ेडिरैक्टिन और सर्पगंधा से रेसरपाइन जैसी महत्वपूर्ण औषधियां पृथक की थीं। विभाजन के समय उन्हें पाकिस्तान आने का न्यौता मिला था। पहले उन्होंने पाकिस्तान आने से मना कर दिया था, लेकिन वर्ष 1951 में वे पाकिस्तान चले गए। वहां उन्होंने पाकिस्तान के सीएसआईआर और परमाणु ऊर्जा प्रयोगशालाएं शुरू करने में मदद की। साथ ही उन्होंने उत्कृष्ट कार्बनिक रसायन विज्ञान की शुरुआत भी की जो आज भी बढ़िया चल रहा है। इस तरह उन्हें एक नवोदित देश (पाकिस्तान) में विज्ञान की नींव रखने वाले की तरह याद जा सकता है।

तीन और लोगों के योगदान उल्लेखनीय हैं। उनमें से पहले हैं दो भारतीय पुलिस अधिकारी। सोढ़ी और कौर ने अपने लेख दी फॉरगॉटन पायोनियर्स ऑफ फिंगरप्रिंट साइंस: फालऑउट ऑफ कोलोनिएनिज़्म में दो भारतीय पुलिस अधिकारियों, अज़ीज़ुल हक और हेमचंद्र बोस के बारे में लिखा है। इन दोनों अधीनस्थ पुलिस कर्मियों ने कड़ी मेहनत और विश्लेषणात्मक पैटर्न विधि की मदद से फिंगरप्रिंटिंग को मानकीकृत किया था, लेकिन उनके काम का सारा श्रेय उनके बॉस पुलिस महानिरीक्षक एडवर्ड हेनरी ने ले लिया! अज़ीज़ुल हक ने 5 साल बाद अपने काम को राज्यपाल को फिर से प्रस्तुत किया। उन्हें 5,000 और बोस को 10,000 रुपए का मानदेय दिया गया।

दूसरा नाम है नैन सिंह रावत का। उन्होंने ताजिकिस्तान सीमा से लगे हिमालय से नीचे तक फैले पूरे हिमालयी पथ का सफर किया। इस सफर के दौरान उन्होंने सावधानीपूर्वक नोट्स लिए और उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ऊपरी रास्ते का नक्शा तैयार करने में मदद की। बाद में इससे सर्वे ऑफ इंडिया को काफी मदद मिली।

और तीसरा नाम है कलकत्ता के राधानाथ शिकधर का है। उन्होंने गणना करके पता लगाया था कि चोटी XV 29,029 फीट ऊंची है। यह हिमालय पर्वतमाला की सबसे ऊंची चोटी है, और विश्व की भी। हालांकि भारतीय स्थलाकृतिक सर्वेक्षण के प्रधान अधिकारी के नाम पर बाद में इस चोटी का नाम माउंट एवरेस्ट रख दिया गया। डॉ. बाग ने अपने संपादकीय लेख में इन दो खोजों का उल्लेख किया है और बताया है कि कैसे भारत सरकार ने नैन सिंह रावत और राधानाथ शिकधर के सम्मान में 2004 में डाक टिकट जारी किया।

यहां हमने जर्नल के कुछ ही लेखों पर प्रकाश डाला है। जर्नल का पूरा अंक भारत में आधुनिक विज्ञान के जन्म और विकास पर केंद्रित लेखों का संग्रह है। सारे लेख सावधानी पूर्वक किए गए शोध पर आधारित छोटे-छोटे और आसानी से पढ़ने-समझने योग्य हैं। और ये लेख विज्ञान की आदर्श शिक्षण और शोध सामग्री बन सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindu.com/sci-tech/science/wwnftu/article26037574.ece/alternates/FREE_660/20TH-SCISINP

परीक्षाएं: भिन्न-सक्षम व्यक्तियों के लिए समान धरातल – सुबोध जोशी

भिन्न सक्षम (दिव्यांग) परिक्षार्थियों की विशेष आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हें सभी प्रकार की लिखित परीक्षाओं में समान धरातल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भारत के मुख्य दिव्यांगजन आयुक्त द्वारा 23 नवंबर 2012 को एक आदेश जारी किया गया। इस आदेश के आधार पर केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (दिव्यांगता मामलों के विभाग) ने 26 फरवरी 2013 को विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए थे। लिखित परीक्षा आयोजित करने वाले सभी पक्षकारों के लिए इन दिशानिर्देशों का पालन अनिवार्य है। यह पूरे देश में सभी नियमित और प्रतियोगी (रोज़गार परीक्षाओं सहित) परीक्षाओं पर समान रूप से लागू होते हैं। इनका पालन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यकतानुसार टेक्नॉलॉजी और नए उपायों का उपयोग भी किया जाना चाहिए। (मेमोरेंडम के लिए देखें http://disabilityaffairs.gov.in/content/page/guidelines.php)

इन दिशानिर्देशों का पालन सुनिश्चित हो इसके लिए परीक्षा आयोजकों द्वारा आवेदन में आवश्यक जानकारी हेतु प्रावधान किया जाना चाहिए। दिव्यांग परीक्षार्थी की यह ज़िम्मेदारी है कि इनका लाभ लेने के लिए वह आवेदन में अपनी दिव्यांगता और विशेष आवश्यकताओं की पूरी जानकारी दे। आयोजकों को पूर्व तैयारी करनी चाहिए। जैसे, दिव्यांग परीक्षार्थी के लिए भूतल पर व्यवस्था करना, उपकरणों, विशेष प्रश्न पत्रों की व्यवस्था, लेखकों, वाचकों एवं प्रयोगशाला सहायकों के समूह बनाना आदि ।

दिशानिर्देशों में यहां तक कहा गया है कि लिखित परीक्षाओं के लिए पूरे देश में एकरूप नीति हो किंतु यह इतनी लचीली हो कि इसमें दिव्यांग परीक्षार्थियों की विशिष्ट व्यक्तिगत ज़रूरतों का ध्यान रखा जा सके। दिव्यांग परीक्षार्थी को परीक्षा देने का तरीका चुनने की आज़ादी दी गई है। इस हेतु वह ब्रेल, कंप्यूटर, बड़े अक्षरों या आवाज़ की रिकॉर्डिंग करने आदि तरीकों में से कोई भी विकल्प चुन सकता है। उसे एक दिन पहले कंप्यूटर की जांच करने की अनुमति होती है ताकि यदि हार्डवेयर या सॉफ्टवेयर सम्बंधी कोई समस्या हो तो उसे समय रहते दूर किया जा सके। उसे सहायक विशेष उपकरणों के इस्तेमाल की अनुमति है, जैसे बोलनेवाला कैल्कुलेटर, टेलर फ्रेम, ब्रेल स्लेट, अबेकस, ज्यामिति किट, नापने की ब्रेल टेप और संप्रेषण उपकरण।

40 प्रतिशत या अधिक दिव्यांगता वाला कोई भी परीक्षार्थी चाहे तो उसे  लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक की सुविधा दी जानी चाहिए। परीक्षार्थी अपनी पसंद का लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक ला सकता है या परीक्षा के आयोजकों से इनकी मांग कर सकता है। वह अलगअलग विषय के लिए अलगअलग लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक भी ले सकता है। इसके लिए परीक्षा के आयोजकों को विभिन्न स्तरों पर लेखकों, वाचकों और प्रयोगशाला सहायकों के समूह तैयार रखने चाहिए। परीक्षार्थी ऐसे समूह में से एक दिन पहले व्यक्तिगत भेंट कर चुनाव कर सकता है। लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक की शैक्षणिक योग्यता, उम्र आदि सम्बंधी कोई बंधन नहीं लगाया जा सकता। संभावित अनुचित तरीकों के इस्तेमाल को रोकने के लिए बेहतर निगरानी के इंतज़ाम होने चाहिए। दिव्यांग को अपना लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक बदलने का अधिकार भी है।

ऐसे सभी दिव्यांग परीक्षार्थियों को, जो लेखक की सुविधा नहीं लेते, तीन घंटे की परीक्षा में कम से कम एक घंटा अतिरिक्त समय दिया जा सकता है जो व्यक्तिगत ज़रूरत के आधार पर बढ़ाया भी जा सकता है। लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक की सुविधा लेनेवाले परीक्षार्थी को भी क्षतिपूरक समय के रूप में अतिरिक्त समय दिया जाना चाहिए।

खुली किताब परीक्षा में भी ब्रेल या ईटेक्स्ट या स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर वाले कंप्यूटर पर पठन सामग्री उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसी तरह ऑनलाइन परीक्षा भी सुगम्य प्रारूप में होनी चाहिए। जैसे, वेबसाइट, प्रश्नपत्र और अन्य सभी पाठ्य पठन सामग्री मान्य अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप सुगम्य होना चाहिए। श्रवण बाधित परीक्षार्थियों के लिए व्याख्यात्मक प्रश्नों की जगह वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की व्यवस्था होनी चाहिए। दृष्टिबाधितों के लिए विज़ुअल इनपुट वाले प्रश्नों के स्थान पर वैकल्पिक प्रश्नों की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

ये दिशानिर्देश सभी परीक्षा आयोजकों को भेजे जा चुके हैं और उन्हें निर्देशित किया गया है कि इनके परिपालन की रपट दें। लेकिन विडंबना यह है कि परीक्षा संचालक इनकी अवहेलना कर रहे हैं और उल्टे दिव्यांग परीक्षार्थी को नियम दिखाने का कहते हैं। ऐसे में गिनेचुने परीक्षार्थी ही इनका थोड़ा लाभ ले पा रहे हैं जबकि अधिकांश इन लाभों  से वंचित ही हैं। इनमें परीक्षार्थी की कोई न्यूनतम या अधिकतम आयु भी निर्दिष्ट नहीं की गई है, जिसका अर्थ यह है कि छोटीसेछोटी परीक्षा से लेकर बड़ीसेबड़ी परीक्षा पर यह दिशानिर्देश लागू होने चाहिए । (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://www.khichdionline.com/wp-content/uploads/2015/05/Page2.jpg

पर्यावरण शिक्षा का एक अनोखा कार्यक्रम – डॉ. सुशील जोशी

पिछले दिनों लंबे अनशन के बाद डॉ. गुरुदास अग्रवाल का निधन हो गया। डॉ. अग्रवाल ने पर्यावरण संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण तथा गंगा की सुरक्षा के अलावा पर्यावरण शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया था। यहां प्रस्तुत रिपोर्ट डॉ. अग्रवाल के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से किशोर भारती एवं एकलव्य नामक दो संस्थाओं द्वारा 1987 में चलाए गए एक अनोखे पर्यावरण शिक्षा कार्यक्रम की बानगी प्रस्तुत करती है। एक ओर यह कार्यक्रम समाज के महत्वपूर्ण मुद्दों को शिक्षा में स्थान देने का एक प्रयास था, वहीं यह पर्यावरण के वैज्ञानिक अध्ययन की भी एक मिसाल है।

रासिया के लोग पेंच स्टाफ क्लब में एक विशेष जलसे में शामिल होने आए हैं। तीन बजे दोपहर का समय है। यह जलसा अजीब सा ही होने वाला है। परासिया और आसपास के क्षेत्र के पानी की गुणवत्ता पर रिपोर्ट पढ़ी जानी है। यानी पानी पीने के लिए व अन्य उपयोगों के लिए कितना उपयुक्त है। साथ ही साथ पेंच नदी की स्थिति पर भी एक रिपोर्ट पेश होगी। यह रिपोर्ट कोई सरकारी विभाग की ओर से नहीं बल्कि इस इलाके की उच्चतर माध्यमिक शालाओं और महाविद्यालय के विद्यार्थियों द्वारा प्रस्तुत होनी है। वे बताने वाले हैं कि परासिया, चांदामेटा, न्यूटन आदि के कुओं, झिरियों, हैंड-पम्पों आदि का पानी कैसा है?पीने योग्य है या नहीं?इस जलसे के शुरू होने से पहले सुबह से ही एक पोस्टर प्रदर्शनी पेंच स्टाफ क्लब के बरामदे में लगा दी गई थी जिसमें इस इलाके के पानी के बारे में मोटी-मोटी बातें चित्रित थीं। आखिर इन विद्यार्थियों को ये बातें पता कैसे चलीं? इसी बात का उत्तर हम यहां देने की कोशिश करेंगे।

इनमें से अधिकांश विद्यार्थी विज्ञान विषय लेकर 11 वीं कक्षा में पढ़ रहे थे। इनके सामने एक प्रस्ताव रखा गया। प्रस्ताव यह था कि ये अपने इलाके के पर्यावरण का वैज्ञानिक अध्ययन करें।

इसके लिए इन्हें ट्रेनिंग दी जाएगी। परन्तु पर्यावरण कोई छोटी-मोटी चीज़ तो है नहीं। वह तो बहुत बड़ी बात है और हमारे आसपास जो कुछ भी है या घटता है या उन चीज़ों के, घटनाओं के आपसी सम्बंध, सभी कुछ तो इसमें समाया हुआ है। इसलिए सोचा कि पर्यावरण के एक छोटे से हिस्से – पानी – से शुरुआत की जाए। दूसरी बात यह थी कि पानी का महत्व बहुत है। तीसरी बात यह थी कि पानी का अध्ययन करना आसान है बजाय किसी और चीज़ के, जैसे हवा या मिट्टी। शुरुआत तो हमेशा आसान से ही करते हैं।

यह प्रस्ताव देने वाली दो संस्थाएं थीं – बनखेड़ी की किशोर भारती और पिपरिया की एकलव्य। संभवत: पाठक इन दोनों ही संस्थाओं से वाकिफ हैं। मुख्य बात यह है कि दोनों ही शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव के लिए काम करती हैं। इन्होंने प्रस्ताव क्यों दिया?

पर्यावरण का आजकल बहुत हल्ला है और पर्यावरण शिक्षा का शोर भी शुरू हो चला है। देखा यह जा रहा है कि पर्यावरण के विषय में कोई कुछ भी कह दे, चल जाता है क्योंकि इसके व्यवस्थित अध्ययन की बात तो होती ही नहीं। कोई कह दे पेड़ कटने से बारिश नहीं हो रही तो भी ठीक और कोई कह दे शेर को बचाना पर्यावरण है तो भी ठीक। आखिर निर्णय के मापदंड क्या हों? होता यह है कि आम लोगों के सामने मात्र निष्कर्ष नारों के रूप में आते हैं, उनकी विधियां नहीं। निर्णय तो विधियों से होता है। इसलिए विधियां जाने बिना सिर्फ निष्कर्ष देखा जाए तो नारेबाज़ी ही होगी। इन विद्यार्थियों के सामने प्रस्ताव रखने का एक कारण तो यही था कि ये अध्ययन की इन विधियों को समझें।

दूसरा कारण। विज्ञान विषय पढ़ते हुए और प्रयोग करते हुए ऐसा होता है कि भई‘कोर्स’ में है तो करना है। अपने जीवन से कुछ जुड़ता नहीं। वही टाइट्रेशन, वही सूचक घोल, वही फिनॉफ्थलीन, वही ब्यूरेट, पिपेट कैसे उपयोगी काम में लग सकते हैं, यह भी इस प्रस्ताव की भावना थी।

तीसरा कारण था कि पर्यावरण शिक्षा की बातें खूब हो रही हैं। इसमें मुख्य उद्देश्य यह रहता है कि अन्य विषयों के समान पर्यावरण पर कुछ भाषण बच्चे सुनें। प्रस्ताव में यह निहित ही था कि पर्यावरण शिक्षा का एक वैकल्पिक मॉडल विकसित हो। इसके पीछे मान्यता यह थी कि पर्यावरण समझने के लिए पर्यावरण से मेल-जोल करना ज़रूरी है।

खैर, ये सब तो सैद्धांतिक बातें थीं और इन्हें कोई भी झाड़ सकता है। अब कुछ ठोस बात। सबसे पहले तो प्रशिक्षण। दिसंबर में इन विद्यार्थियों को एक सप्ताह का प्रशिक्षण दिया गया। इस दौरान इन्हें पानी के लगभग 10 परीक्षण सिखाए जाते थे। परीक्षणों की सूची बॉक्स में है। कुछ नमूने कृत्रिम रूप से तैयार किए गए ताकि परिणामों की जांच हो सके और कुछ प्राकृतिक नमूने लाए गए। कौन से परीक्षण सिखाए जाएं इसका निर्णय विभिन्न आधारों पर हुआ। उच्चतर माध्यमिक शालाओं के विद्यार्थी इन्हें कर पाएं, महत्वपूर्ण हों, रसायन एवं उपकरण वगैरह आसानी से उपलब्ध कराए जा सकें, प्रमुख रहे।

हरेक विद्यालय से 5 विद्यार्थी चुने गए और एक या दो अध्यापक प्रभारी बने। प्रत्येक विद्यार्थी को अपने क्षेत्र के पानी के दो स्रोतों से नमूने लाने थे। इनमें से एक स्रोत भूमिगत हो और दूसरा कोई अन्य। यह हर महीने हुआ। परन्तु सभी विद्यार्थी दसों परीक्षण नहीं करते थे। सभी विद्यार्थी अपने नमूने लाकर बेंच पर जमा देते थे। अब हरेक को दो-दो परीक्षण की ज़िम्मेदारी दी गई थी। हर विद्यार्थी सभी नमूनों पर उसे दिए गए दो परीक्षण करता था हालांकि उसको ट्रेनिंग सभी परीक्षणों के लिए दी गई थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि हर विद्यार्थी का हाथ दो परीक्षणों पर जम जाए और आंकड़े ज़्यादा विश्वसनीय हों। इस तरह से 6 महीनों तक लगातार परीक्षण का काम चला। ये मुख्यत: रासायनिक परीक्षण थे।

इसके साथ-साथ कॉलेज के दो छात्रों द्वारा दो तरह के परीक्षण और किए गए। पहला, पेंच नदी का जैविक अध्ययन और पानी के कुछ नमूनों का बैक्टीरिया परीक्षण। वैसे अच्छा होता यदि बैक्टीरिया परीक्षण सभी नमूनों का हो पाता। परन्तु यह थोड़ा मुश्किल परीक्षण है।

इस तरह से क्षेत्र के जल रुाोतों के बारे में रासायनिक व जैविक जानकारी एकत्रित हुई। पर एक और आयाम इसमें जुड़ना अभी बाकी था। इस जानकारी की लोगों के दैनिक अनुभवों से तुलना। यह देखना ज़रूरी था कि इस वैज्ञानिक जानकारी का लोगों के अनुभवों से क्या तालमेल है। इसके लिए एक सर्वेक्षण किया गया। ऐसे दस-दस परिवारों से जानकारी प्राप्त की गई जो इन जल रुाोतों का उपयोग करते हैं।

अब आगे बढ़ने से पहले थोड़ा सा उस इलाके की परिस्थिति को समझ लें जहां यह काम हुआ। परासिया, चांदामेटा और न्यूटन ये तीन पड़ोसी शहर छिंदवाड़ा ज़िले में हैं और पेंच नदी की घाटी में बसे हुए हैं। आसपास पश्चिम कोयला क्षेत्र की कोयला खदानें हैं। काफी पुरानी खदानें हैं। इस क्षेत्र में खेती न के बराबर होती है। खदानों के कारण यहां का पानी समस्या मूलक है और खदान व यातायात के कारण हवा की हालत भी अच्छी नहीं है। जाड़े के दिनों में सुबह-सुबह यदि परासिया की पहाड़ी से न्यूटन शहर ऊपर से देखा जाए तो धुएं से बना एक मैदान नजर आता है जिस पर एक मित्र का कहना है कि इस ‘मैदान’ पर उनकी जीप चलाने की इच्छा कई बार हुई।

ये जानकारी इकट्ठी होने के साथ-साथ एक और बात हो रही थी। ये विद्यार्थी पानी को ध्यान से देख रहे थे, उसके ‘सम्पर्क’ में आ रहे थे, प्रश्न कर रहे थे और धीरे-धीरे पर्यावरण के अन्य अंगों पर भी सोच रहे थे। यही तो थी पर्यावरण जागरूकता! खैर, जब 6 महीने यह काम चल चुका तो ज़रूरत थी इसे व्यवस्थित करने की, समेकित करने की और लोगों के बीच प्रस्तुत करने की। इसके लिए एक कार्यशाला आयोजित की गई किशोर भारती में। कार्यक्रम में जुड़े सारे विद्यार्थी, प्रभारी शिक्षक और पर्यावरण से जुड़े कुछ कार्यकर्ता इस सात दिवसीय कार्यशाला में शामिल हुए।

किए गए परीक्षण

1. पी.एच.

2. अम्लीयता

3. क्षारीयता

4. कठोरता – ज्यादा कठोरता होने से साबुन के साथ झाग नहीं बनते और दाल पकने में परेशानी होती है।

5. क्लोराइड – पानी के स्वाद पर असर पड़ता है।

6. फ्लोराइड – पानी में फ्लोराइड कम होने से हड्डियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता, ज्यादा फ्लोराइड होने पर फ्लोरोसिस बीमारी हो सकती है।

7. लौह – ज्यादा होने पर पाचन क्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

8. घुलित आक्सीजन – इसससे पानी के कई अन्य गुणों का पता चलता है।

9. परमेंग्नेट मांग – इससे पानी में कार्बनिक अशुद्धियों का पता चलता है।

10. कोलीफार्म परीक्षण- कोलीफार्म एक प्रकार के बैक्टीरिया होते हैं, जो मनुष्य की आंत में पाए जाते है। पानी के प्राकृतिक रुाोत में इनका पाया जाना यह सूचित करता है कि यह स्रोत मल द्वारा प्रदूषित है।

 

इस कार्यशाला में पहला काम तो यह हुआ कि सारी जानकारी व आंकड़ों के आधार पर रिपोर्ट तैयार की गई। रिपोर्ट, पांच भागों में तैयार हुई। दूसरा काम हुआ कि रिपोर्ट के आधार पर पोस्टर प्रदर्शनी बनाई गई। इसके अलावा विभिन्न विषयों पर चर्चाएं हुर्इं। इनमें पर्यावरण की समझ, जंगल, जल चक्र, पानी व हवा प्रदूषण, उद्योगों से स्वास्थ्य का रिश्ता, भोपाल गैस कांड आदि प्रमुख थे। ऐसे भाषण तो यहां-वहां सुनने को मिल ही जाते हैं। इन विषयों पर कोई भी कुछ भी कह सकता है। फिर यहां क्या खास हुआ?खास यह हुआ कि सुनने वाले स्वयं का कुछ अनुभव लेकर बैठे थे। कोई बात सुनकर वे चुप नहीं रहते थे। वे पूछते थे कि कैसे पता किया, किस आधार पर कह रहे हैं, यदि अमुक बात सही है तो उससे जोड़कर देखते थे कि और क्या-क्या बातें सही होंगी। यही तो महत्वपूर्ण है। कोई कुछ भी कहे, आपके पास वह हुनर हो जिससे आप दूध को दूध, पानी को पानी पहचान सकें।

अब हम चलें वापिस 12 जुलाई पर। प्रदर्शनी सुबह से ही लगा दी गई थी। विद्यार्थी भाग-भागकर अपना काम आंगतुकों को समझा रहे थे। कितना अच्छा लग रहा था। विद्यार्थी अपनी प्रयोगशाला के निष्कर्षों को आम लोगों को बता रहे थे। आम लोग शायद पहली बार उत्सुक थे कि उनके बच्चों ने स्कूल की प्रयोगशाला में क्या किया। एक और बात वहां हो रही थी। पहले से ही शहर में यह घोषणा कर दी गई थी कि लोग यदि चाहें तो अपने साथ पानी का नमूना लेते आएं, उसकी जांच करके परिणाम तुरंत दे दिए जाएंगे। कई लोग शीशियों में पानी भरकर लाए थे। प्रदर्शनी के बीच में सब तामझाम जमा था। सामने ही विद्यार्थी प्रयोग करके बता रहे थे – पानी कितना कठोर है, उसमें कितना क्लोराइड है आदि। साथ ही यह भी कि क्या करना होगा। विज्ञान की विधियां सार्वजनिक हो रहीं थीं।

तीन बजे आम सभा हुई। बाकी तो भाषण वगैरह होते ही हैं। सभा में कई प्रमुख व्यक्तियों ने भाग लिया। सबसे प्रभावशाली हिस्सा था विद्यार्थियों द्वारा रिपोर्ट पढ़ी जाना। आशा बन रही थी कि अपने इलाके के पर्यावरण की नियमित जांच उस इलाके की शैक्षणिक संस्थाएं कर सकती हैं। यह काम उन्हीं प्रयोगशालाओं में हो सकता है जहां सामान्यतया ऊपर से निरर्थक, अप्रासंगिक से दिखने वाले प्रयोग किए जाते हैं। क्या यही पर्यावरण शिक्षा का एक मॉडल नहीं हो सकता?

खैर, जहां तक किशोर भारती और एकलव्य के प्रस्ताव का सवाल था वह तो यहीं खत्म हुआ। परन्तु एक बार शुरू होने पर ऐसी प्रक्रियाएं रुकती हैं क्या? इन शिक्षकों और विद्यार्थियों में कुछ बदल गया था। कुछ और करने की इच्छा बन चुकी थी। क्या करें? इन लोगों ने मिलकर एक समूह की स्थापना की है –‘नीर’! इस नाम का सम्बंध इस समूह की उत्पत्ति से है, न कि आगे की योजनाओं से। आगे की योजनाएं तो अभी बन रही हैं। पूरे कार्यक्रम की बात तो हो गई पर यह तो बताया ही नहीं कि विद्यार्थियों की रिपोर्टों से क्या निष्कर्ष निकला। वास्तव में वह उतना महत्वपूर्ण भी नहीं है। वह ज़रूर महत्वपूर्ण है परासिया क्षेत्र के लोगों के लिए। परन्तु कार्यक्रम की मूल भावना वे रिपोर्ट बनाना नहीं बल्कि विद्यार्थियों और अन्य लोगों मे पर्यावरण के प्रति सजगता पैदा करना है। साथ ही साथ यह बात बताना भी कि ये सारे निष्कर्ष कुछ विधियों पर आधारित होते हैं और इनकों जांचा जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

किए गए परीक्षण

1. पी.एच.

2. अम्लीयता

3. क्षारीयता

4. कठोरता ज्यादा कठोरता होने से साबुन के साथ झाग नहीं बनते और दाल पकने में परेशानी होती है।

5. क्लोराइड पानी के स्वाद पर असर पड़ता है।

6. फ्लोराइड पानी में फ्लोराइड कम होने से हड्डियों का विकास ठीक से नहीं हो पाता, ज्यादा फ्लोराइड होने पर फ्लोरोसिस बीमारी हो सकती है।

7. लौह ज्यादा होने पर पाचन क्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ता है।

8. घुलित आक्सीजन इसससे पानी के कई अन्य गुणों का पता चलता है।

9. परमेंग्नेट मांग इससे पानी में कार्बनिक अशुद्धियों का पता चलता है।

10. कोलीफार्म परीक्षणकोलीफार्म एक प्रकार के बैक्टीरिया होते हैं, जो मनुष्य की आंत में पाए जाते है। पानी के प्राकृतिक रुाोत में इनका पाया जाना यह सूचित करता है कि यह स्रोत मल द्वारा प्रदूषित है।

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :https://www.eklavya.in/gallery/photos-communitymenu/category/5-hoshangabad-science-teaching-programme

 

संपूर्ण व्यक्ति ही मौजूदा समस्याएं सुलझा सकता है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइन्स पत्रिका के 6 जुलाई 2018 के अंक में फिज़ियोलॉजिस्ट डॉ. रॉबर्ट रूटबर्नस्टाइन का आलेख कुछ इस तरह शुरू होता है यदि आपने कभी भी कोई चिकित्सीय सेवा ली है तो संभावना है कि आप कला से भी लाभांवित हुए हैं। स्टेथोस्कोप का आविष्कार फ्रांसीसी बांसुरी वादकचिकित्सक रेने लाइनेक ने किया था। उन्होंने ह्मदय की धड़कन को संगीत की संकेतलिपि में रिकॉर्ड किया था।

डॉ. रॉबर्ट रूटबर्नस्टाइन कहते हैं कि कैसे पाठ्यक्रम में मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन को शामिल करने से बेहतर वैज्ञानिक तैयार होते हैं। उन्होंने उच्च शिक्षा बोर्ड और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन के वर्कफोर्स द्वारा जारी की गई हालिया रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें सिफारिश की गई है कि विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित और चिकित्सा के साथ मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन का एकीकरण होना आवश्यक है।

वैकासिक जीव विज्ञानी कॉनराड वैडिंगटन के अनुसार दुनिया की गंभीर समस्याओं का हल सिर्फ एक संपूर्ण व्यक्ति द्वारा ही किया जा सकता है, न कि उन लोगों द्वारा जो सार्वजनिक रूप से खुद को महज़ एक तकनीकी विशेषज्ञ या वैज्ञानिक या कलाकार से अधिक कुछ और मानने से इंकार करते हैं।और यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ इंजीनियरिंग के अध्यक्ष प्रोफेसर चाल्र्स वेस्ट कहते हैं, “समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थशास्त्र और संचार यानी उदार कला और सामाजिक विज्ञान की बातों की समझ के बिना इंजीनियरिंग सिस्टम की बुद्धिमत्तापूर्ण कल्पना, डिज़ाइन या उसका असरदार इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।

भारतीय स्नातक

भारत में, लगभग 3345 कॉलेजों और संस्थानों से हर साल 15 लाख से अधिक इंजीनियर निकलते हैं। अफसोस की बात है कि इनमें से अधिकांश को नौकरी नहीं मिलती। मारिया थार्मिस ने पिछले साल इकॉनॉमिक टाइम्स में लिखा था कि पिछले तीन दशकों में भारत के आईटी उद्योग में तेज़ी से हुए विकास और इस क्षेत्र में पैसे, रुतबे और विदेश जाने के अवसरों के चलते हज़ारों छात्र इंजीनियरिंग में प्रवेश ले रहे हैं। इन छात्रों में ज़्यादातर छात्र अपने मातापिता द्वारा प्रेरित किए जाते हैं। यही हाल मेडिकल कॉलेजों का है। मातापिता बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए उन्हें इस क्षेत्र में भेजना चाहते हैं। भारत में हर साल करीब 1700 मेडिकल कॉलेजों से 52,000 डॉक्टर (एमबीबीएस) निकलते हैं। 6.3 लाख से अधिक छात्र प्रीमेडिकल प्रवेश परीक्षा देते हैं। इनमें से अच्छीखासी तादाद में छात्र डोनेशन के रूप में मोटी रकम भरकर निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पा लेते हैं। यहां भी पालकों का दबाव काफी हावी रहता है। ज़्यादातर डॉक्टरों, खासकर गांवों और छोटे कस्बों के डॉक्टरों की काबिलियत से हम सब वाकिफ हैं।

और जब बात मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन की आती है तो इनमें से ज़्यादातर लोग तो अज्ञानी ही होते हैं। ये वे लोग नहीं हैं जिन्हें डॉ. वैडिंगटन ने संपूर्ण व्यक्ति कहा है।

चूक कहां हुई?

कमी स्कूल स्तर पर है। पिछले सात दशकों से केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों ने स्कूलों के पाठ्यक्रम के साथ खिलवाड़ करके, उनके बजट में कमी करके, कोटा सिस्टम के तहत अयोग्य शिक्षकों की भर्ती करके (जो स्कूल आना तक ज़रूरी नहीं समझते), सिलेबस के साथ मनमानी करके और ऐसे अनगिनत हस्तक्षेप करके स्कूली तंत्र को काफी बर्बाद किया है। प्रथम संस्था जैसे शिक्षा विश्लेषणकर्ताओं का कहना है कि सरकारी स्कूलों की हालत इतनी खराब है कि आठवीं कक्षा का छात्र पांचवीं के सवाल हल नहीं कर पाता और पांचवीं का छात्र तीसरी कक्षा के सवालों के जवाब नहीं दे पाता। लोग अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं जो वास्तव में नोट छापने की मशीनें हैं। इन स्कूलों की फीस व अन्य खर्चे उठाना निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के बूते के बाहर है।

इस तंत्र ने और इसके साथ ही स्नातक होने के बाद एक अच्छी नौकरी और नियमित आय की ज़रूरत ने मिलकर हमारी शिक्षा प्रणाली को बर्बाद कर दिया है। इसी के चलते कोचिंग सेंटर पैदा हुए जिन्हें राजनैतिक संपर्क वाले लोग चलाते हैं। ये माध्यमिक कक्षाओं से ही बच्चों को भर्ती कर लेते हैं और उन्हें अजीबोगरीब व पेचीदा पाठ्यक्रम का पाठ पढ़ाते हैं ताकि वे इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की प्रवेश परीक्षा पास कर लें। न तो इन कोचिंग सेंटरों में और न ही इन स्कूलों में किसी भी स्तर पर मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन पढ़ाया जाता है। जो लोग इन मशीनी शिक्षण कारखानों से सफलतापूर्वक बाहर निकलते हैं वे एनआईटी, आईआईटी या मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश पा लेते हैं, लेकिन सामाजिक कौशल के बगैर। अब वह समय आ गया है कि स्कूल प्रणाली को सुधारा जाए और मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन जैसे विषयों को शुरुआत से ही स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।

इस कमी को ध्यान में रखते हुए आईआईटी, बिट्स पिलानी, मणिपाल एकेडमी ऑफ हायर एजुकेशन और कुछ अन्य संस्थाओं ने पहले कुछ सेमेस्टर में कोर पाठ्यक्रमशुरू करने की पहल की है। इस कोर्स में छात्रों को भाषा, साहित्य, मानविकी और सामाजिक विज्ञान, कला और शिल्प, और डिज़ाइन जैसे विषय पढ़ाए जाएंगे। खुशी की बात है कि कई आईआईटी में अब प्रोद्योगिकी और विज्ञान के अलावा मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन विषयों के भी विभाग हैं और ये विषय पढ़ाए जाते हैं और इन पर शोध किए जाते हैं। (इसका एक सुंदर उदाहरण है इस वर्ष आईआईटी हैदराबाद में दीक्षांत समारोह में पहनी जानी वाली पोशाक का डिज़ाइन इकात (बंधेज) शैली में किया गया था, जिसमें स्थानीय बुनकरों द्वारा तैयार किए गए गाउन का उपयोग किया गया था।) आईआईटी और बिट्स के ये कोर पाठ्यक्रम कुछ मददगार साबित हो सकते हैं। इसी प्रकार वेल्लोर में क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज के स्नातक डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्र में एक वर्ष अनिवार्य रूप से बिताना होता है। जिससे उनकी समुदाय और उसकी ज़रूरतों, उसकी क्षमताओं के बारे में समझ बनती है और समझदारी पैदा होती है। आईटी कंपनियां अपने प्रशिक्षुओं को जेनेरिक और स्ट्रीम लर्निंग के साथसाथ सामाजिक कौशल पर महीने भर का प्रशिक्षण देती हैं। पर अन्य तकनीकी और चिकित्सा संस्थानों का क्या हाल है?

उन्नति की राह

अफसोस की बात है कि केंद्रीय उच्च शिक्षा मंत्रालय उदार कला और मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन के महत्व को नहीं समझता। इसका एक चौंकाने वाला उदाहरण है कि चार तकनीकी संस्थानों और एक प्रस्तावित ग्रीन फील्ड संस्थान को उत्कृष्ट संस्थान के तौर पर चिंहित किया गया है। देखने वाली बात यह है कि एक भी मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन सम्बंधी विश्वविद्यालय या संस्थान उत्कृष्ट नहीं माना गया! सरकार किसे उत्कृष्ट मानती है और पेशेवर विद्वान किसे उत्कृष्ट मानते हैं, इसमें फर्क है। 

इस विसंगति को देखते हुए एक सुझाव है। क्यों न कुछ ग्रीन फील्ड संस्थान टेक्नॉलॉजीआधारित विषयों की बजाय मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन पर केंद्रित हों? और नए संस्थान खोलने की बजाय बेहतर होगा कि ट्रस्ट स्थापित करके मानविकी, कला, शिल्प और डिज़ाइन को उत्प्रेरित व प्रोत्साहित किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/1sgf16/article24666121.ece/alternates/FREE_660/12TH-SCIMEDCAMP

विज्ञान में लिंगभेद उजागर करने की पहल

अकादमिक सभाओं, पत्रिका के संपादक मंडल या अन्य अकादमिक पदों पर पुरुषों की अधिक भागीदारी वाले स्थानो को पुरुषअड्डे कहा जाने लगा है। इन स्थानों को पुरुषअड्डे कहना लिंगभेद उजागर करने का एक तरीका है। लिंगभेद उजागर करने की दिशा में एक ओर पहल हुई है। जर्मन कैंसर रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा आयोजित सभा में आमंत्रित वक्ताओं में 28 में से 23 महिला वक्ता हैं।

जर्मन कैंसर रिसर्च सेंटर की जीव वैज्ञानिक और एक्ज़ेक्यूटिव वीमेन्स इनीशिएटिव की अध्यक्ष उर्सुला क्लिंगमुलर फ्रंटियर्स इन कैंसर रिसर्च मीटिंग की आयोजक हैं। सभा का उद्देश्य दुनिया भर में काम कर रहे अच्छे शोधकर्ताओं को सामने लाना है।क्लिंगमुलर का कहना है कि हमने उन महिलाओं को आमंत्रित किया है जो इस क्षेत्र में अग्रणी काम कर रही हैंयहां महिलापुरुष वक्ता का अनुपात आम तौर पर आयोजित सभाओं के एकदम विपरीत है। वैसे हमने पुरुषों को भी आमंत्रित किया है।

उनका कहना है कि उन्हें खुशी होगी यदि पहली नज़र में वक्ताओं के नामों की सूची देखकर किसी को कुछ अटपटा या असामान्य ना लगे। 9 से 12 अक्टूबर तक चलने वाले इस आयोजन के लिए लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है और अब तक लगभग 250 प्रतिभागी पंजीकरण करवा चुके है। लोग वक्ताओं से प्रभावित हैं।

इस आयोजन पर प्रिंसटन विश्वविद्यालय की तंत्रिका विज्ञानी येल निव का कहना है कि यह कोशिश अकादमिक सभाओं के आयोजकों और वहां उपस्थित लोगों में लिंगभेद के प्रति जागरूकता ला सकती है। निव ने 2016 में नशे का तंत्रिका विज्ञान पर आयोजित एक सम्मेलन के अनुभव साझा करते हुए बताया कि उन्होंने वक्ताओं की जो सूची तैयार की थी उसमें उन्होंने पाया कि सूची में एक भी महिला नहीं है। उसके बाद फिर से सूची तैयार की जिसमें महिला वक्ताओं को शामिल किया। उन्होंने पहले बनाई सूची पर फिर गौर किया और पाया कि आमंत्रित पुरुष वक्ताओं में से कुछ शोधकर्ता जानेमाने तो थे मगर सम्मेलन के विषय से सम्बंधित नहीं थे। वहीं बाद में जिन महिलाओं को जोड़ा गया उनके शोधकार्य सम्मेलन के विषय से सम्बंधित थे। उनके लिए यह मज़ेदार एहसास था। निव का मत है कि लैंगिक असंतुलन पर सवाल उठाना मात्र इसलिए सही नहीं है कि आयोजक लिंगसमानता के मुद्दे पर विचार करें बल्कि इसलिए भी है कि इससे हमारे अध्ययन बेहतर होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/conference_16x9.jpg?itok=u2cEg1C-

जेंडर समानता के लिए वैज्ञानिकों की पहल

हाल ही में न्यूरोसाइंटिस्ट रोज़र कीविट को एक जर्नल के संपादक मंडल का सदस्य बनने का न्यौता मिला। उन्होंने उस मंडल के सदस्यों में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात देखा। मंडल में 21 पुरुष और 3 महिला सदस्य थे। लिंग अनुपात में इतने अंतर को कारण बताते हुए उन्होंने मंडल का सदस्य बनने से इंकार कर दिया। रोज़र कीविट कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में जूनियर फैकल्टी हैं और उन वैज्ञानिकों में से है जो पेशेवर क्षेत्र में महिलाओं की कम उपस्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अवसरों को अस्वीकार करते रहे हैं।

अक्सर अकादमिक सभाओं में वक्ता, संपादक मंडल के सदस्यों या अन्य अकादमिक पदों पर पुरुषों की तुलना में महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम होती है। इन जगहों पर किन्हें आमंत्रण देना है, यह तय करने वाले एकदो ही व्यक्ति होते हैं। इन जगहों को पुरुषोचित कहा जाने लगा है। ट्विटर व अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से वैज्ञानिक अब महिलापुरुष के अनुपात में अंतर के प्रति आवाज़ उठाने लगे हैं। कुछ वेबसाइट (जैसे Bias Watch Neuro और All Male Panels) इस समस्या को उजागर करते हैं। और इसी का नतीजा है कि पिछले कुछ सालों में इन क्षेत्रों में लिंग भेद दर्शाने के लिए वैज्ञानिक उन्हें मिलने वाले अवसरों को अस्वीकार कर रहे हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जोनाथन इसेन ने सबसे पहले, साल 2014 में पुरुष प्रधान संस्थाओं में शामिल होने से इंकार कर दिया था। उसके बाद से उन्होंने कई पुरुषप्रधान मीटिंग्स के बारे में अपने ब्लॉग में लिखना शुरू किया। 

विज्ञान के क्षेत्र में लिंग असमानता के मामले में जागरूकता आई है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुरासमुद्र वैज्ञानिक हीदर फोर्ड और उनके साथियों ने साल 2014 से 2016 के दौरान होने वाली सभी अमेरिकन जियोफिज़िकल मीटिंग्स में महिलापुरुष वक्ताओं का अनुपात देखा। उन्होंने पाया कि पुरुषों के मुकाबले महिला वक्ता बहुत कम थी।

यू बायोम की संपादकीय निदेशक सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक एलिज़ाबेथ बिक का कहना है कि उन्होंने सभाओं और अन्य जगहों पर वक्ताओं के तौर पर आमंत्रित लोगों में महिलाओं का अनुपात पहले से बेहतर देखा है, खास तौर से सूक्ष्मजीव विज्ञान के क्षेत्र में। उन्होंने इस क्षेत्र में में काम करने वाली महिलाओं की सूची भी प्रकाशित की है ताकि पुरुषप्रधानता की समस्या ना हो। फिर भी कई सभाओं में एक भी महिला की भागीदारी देखने को नहीं मिलती और ना ही वे सभाएं इसमें कोई बदलाव करना चाहती। अलबत्ता, कुछ बोर्ड व सभाएं इस तरह का असंतुलन बताए जाने पर स्वीकार करते हैं और बदलाव भी करते हैं।

जोनाथन इसेन का कहना है कि एकएक व्यक्ति के स्तर पर इसे हल नहीं किया जा सकता है। संस्थाओं, विभागों, समाज, और पत्रिकाओं को मिलकर ही इस समस्या को सुलझाना होगा। कीविट का कहना है कि संपादक मंडल में महिलाओं की ज़्यादा भागीदारी से जर्नल को ही फायदा होगा। यदि आपका संपादक मंडल एकरस होगा तो आपके द्वारा प्रकाशित शोधपत्रों में भी एकरसता होगी, जो विज्ञान की दृष्टि से अच्छा नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/static/sys-images/Guardian/Pix/pictures/2015/3/17/1426579244110/4928df36-33f3-4cad-81e8-138870068f51-2060×1549.jpeg?width=300&quality=85&auto=format&fit=max&s=7c3b57eefe04dc6a2585b1de38454399