पिछले दिनों केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम संशोधन को लेकर काफी बहस चली है। इन परिवर्तनों में यह भी शामिल है कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास सम्बंधी अंश को विलोपित कर दिया जाएगा। इस निर्णय को लेकर देश भर के वैज्ञानिकों, विज्ञान शिक्षकों और विज्ञान से सरोकार रखने वाले नागरिकों ने एक अपील जारी की है। इस अपील पर अनिकेत सुले (मुंबई), राघवेंद्र गडग्कर (बैंगलुरु), एल.एस शशिधर (बैंगलुरु), टी.एन.सी. विद्या (बैंगलुरु), एनाक्षी भट्टाचार्य (चेन्नै), डॉ. इंदुमति (चेन्नै), अमिताभ पांडे (दिल्ली), राम रामस्वामि (दिल्ली), टी.वी. वेकटेश्वर (दिल्ली), अनिंदिता भद्रा (कोलकाता), सौमित्र बैनर्जी (कोलकाता), एस. कृष्णास्वामि (मदुरै), एन. जी. प्रसाद (मोहाली), और्नब घोष (पुणे), सत्यजित रथ (पुणे), श्रद्धा कुंभोजकर (पुणे), सुधा राजमणि (पुणे), वीनिता बाल (पुणे) सहित 1800 लोगों ने हस्ताक्षर किए हैं। प्रस्तुत है उस अपील का हिंदी रूपांतरण….
हमें ज्ञात हुआ है कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा मंडल (सीबीएससी) के उच्च व उच्चतर माध्यमिक कोर्स में व्यापक परिवर्तन का प्रस्ताव है। इन परिवर्तनों को पहले कोरोना महामारी के दौरान अस्थायी उपायों के रूप में लागू किया गया था और अब इन्हें तब भी जारी रखा जा रहा है जब स्कूल वापिस ऑफलाइन शैली में लौट रहे हैं। खास तौर से हम इस बात को लेकर चिंतित हैं कि कक्षा 10 के पाठ्यक्रम में से जैव विकास का डार्विनियन सिद्धांत हटाया जा रहा है, जैसा कि एनसीईआरटी की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी से पता चलता है (देखें: https://ncert.nic.in/pdf/BookletClass10.pdf पृष्ठ 21)।
शिक्षा के वर्तमान ढांचे में बहुत थोड़े से विद्यार्थी ही कक्षा 11 या 12 में विज्ञान को अपने अध्ययन की शाखा के रूप में चुनते हैं और उनमें से भी बहुत कम जीव विज्ञान को चुनते हैं।
लिहाज़ा, कक्षा 10 तक के पाठ्यक्रम में प्रमुख अवधारणाओं को हटा देने का मतलब है कि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या इस क्षेत्र के एक महत्वपूर्ण अंश से वंचित रह जाएगी। उद्वैकासिक जीव विज्ञान का ज्ञान व समझ न सिर्फ जीव विज्ञान के उप-क्षेत्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह अपने आसपास की दुनिया को समझने के लिए भी ज़रूरी है। विज्ञान के एक क्षेत्र के रूप में जैव विकास जैविकी का एक ऐसा क्षेत्र है, जिसका इस बात पर गहरा असर होता है कि हम समाजों और राष्ट्रों के समक्ष उपस्थित विभिन्न समस्याओं से कैसे निपटने का निर्णय करते हैं। ये समस्याएं चिकित्सा, औषधियों की खोज, महामारी विज्ञान, पारिस्थितिकी और पर्यावरण, से लेकर मनोविज्ञान तक से सम्बंधित हैं। जैव विकास हमारी इस समझ को भी प्रभावित करता है कि हम मनुष्यों और जीवन के ताने-बाने के साथ उनके सम्बंधों को किस तरह देखते हैं।
हालांकि हममें से कई लोग यह बात स्पष्ट रूप से नहीं जानते लेकिन तथ्य यह है कि प्राकृतिक वरण के सिद्धांत हमें कई महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने में मदद करते हैं, जैसे – कोई महामारी कैसे आगे बढ़ती है, या प्रजातियां क्यों विलुप्त हो जाती हैं।
जैव विकास की प्रक्रिया की समझ वैज्ञानिक मानसिकता और एक तर्कसंगत विश्वदृष्टि के निर्माण के लिए भी ज़रूरी है। जिस ढंग से श्रमसाध्य अवलोकनों और गहरी सूझ-बूझ ने डार्विन को प्राकृतिक वरण के सिद्धांत तक पहुंचने में मदद की थी, वह विद्यार्थियों को विज्ञान की प्रक्रिया और आलोचनात्मक सोच के महत्व के बारे में भी शिक्षित करता है। जो विद्यार्थी कक्षा 10 के बाद जीव विज्ञान नहीं पढ़ेंगे, उन्हें इस अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र से संपर्क से वंचित रखना शिक्षा की प्रक्रिया का मखौल होगा।
हम वैज्ञानिक, विज्ञान शिक्षक, विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में जुटे लोग और सरोकारी नागरिक स्कूली विज्ञान शिक्षा में ऐसे खतरनाक परिवर्तनों से असहमत हैं और मांग करते हैं कि जैव विकास के डार्विनियन सिद्धांत को माध्यमिक शिक्षा में बहाल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://m.timesofindia.com/thumb/msid-99786822,width-1200,height-900,resizemode-4/.jpg
पिछले वर्ष नवंबर के अंत में एआई आधारित एक ऐसा आविष्कार बाज़ार में आया जिसने शोध और शिक्षण समुदाय से जुड़े लोगों को चिंता में डाल दिया। ओपनएआई द्वारा जारी किया गया चैटजीपीटी एक प्रकार का विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) एल्गोरिदम है जिसे भाषा के विपुल डैटा से प्रशिक्षित किया गया है।
कई शिक्षकों व प्रोफेसरों का ऐसा मानना था कि छात्र अपने निबंध और शोध सार लेखन के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करके चीटिंग कर सकते हैं। छात्रों का कार्य मौलिक हो और उसमें शैक्षणिक बेईमानी न हो, इस उद्देश्य से कुछ विश्वविद्यालयों ने तो चैटजीपीटी आधारित टेक्स्ट को साहित्यिक चोरी की श्रेणी में रखा जबकि कई अन्य ने इसके उपयोग पर पूरी तरह प्रतिबंध ही लगा दिया। हालांकि युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग (यू.के.) जैसे कई विश्वविद्यालय ऐसे भी हैं जिन्होंने इस सम्बंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी नहीं किए हैं।
इस युनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर हांग यैंग चैटजीपीटी को पूरी तरह से प्रतिबंधित करने के पक्ष में नहीं हैं। यैंग के अनुसार इस तकनीक द्वारा लिखे गए काम का पता लगाना काफी मुश्किल है लेकिन छात्रों को अधुनातन टेक्नॉलॉजी से दूर रखना भी उचित नहीं है। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्हें ऐसी तकनीकों के साथ काम करना होगा। वे अभी इसका सही उपयोग करना नहीं सीखेंगे तो यकीनन पीछे रह जाएंगे। लिहाज़ा, इसे शिक्षण में एकीकृत करने का प्रयास तो किया ही जा सकता है। एक उदाहरण…
वायु प्रदूषण के शिक्षक के रूप में यैंग ने अपने छात्रों से कॉलेज परिसर में वायु-गुणवत्ता डैटा एकत्रित करने के लिए छोटे समूहों में काम करने कहा। डैटा विश्लेषण और व्यक्तिगत निबंध लिखने के लिए उन्हें सांख्यिकीय तरीकों का उपयोग करना था। इस काम में कई छात्र कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का आकलन करने के लिए उपयुक्त विधि खोजने में संघर्ष कर रहे थे। तब यैंग ने प्रोजेक्ट डिज़ाइन करने के लिए चैटजीपीटी का उपयोग करने का सुझाव दिया। इस मॉडल की मदद से उन्हें कार्बन डाईऑक्साइड निगरानी उपकरणों के लिए स्थान की पहचान करने से लेकर उपकरण स्थापित करने, डैटा एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने तथा परिणामों को प्रस्तुत करने के बेहतरीन सुझाव मिले।
इस प्रोजेक्ट में छात्र-वैज्ञानिकों ने विश्लेषण और निबंध लिखने का सारा काम किया लेकिन उन्होंने यह भी सीखा कि कैसे एलएलएम की मदद से वैज्ञानिक विचारों को तैयार किया जाता है और प्रयोगों की योजना बनाई जा सकती है। चैटजीपीटी की मदद से वे सांख्यिकीय परीक्षण करने तथा प्राकृतिक और मानव निर्मित परिसर में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तरों का विश्लेषण करने में काफी आगे जा पाए।
इस अभ्यास के बाद से यैंग ने मूल्यांकन के तरीकों में भी परिवर्तन किया ताकि छात्र शैक्षिक सामग्री को बेहतर ढंग से समझें और चोरी करने से बच सकें। निबंध लिखने की बजाय यैंग ने प्रोजेक्ट के निष्कर्षों को साझा करने के लिए छात्रों को 10 मिनट की मौखिक प्रस्तुति देने को कहा। इससे न केवल साहित्यिक चोरी की संभावना में कमी आई बल्कि मूल्यांकन प्रक्रिया अधिक संवादनुमा और आकर्षक हो गई।
हालांकि, चैटजीपीटी के कई फायदों के साथ नकारात्मक पहलू भी हैं। उदाहरण के तौर पर यैंग ने ग्रीनहाउस गैसों के व्याख्यान के दौरान चैटजीपीटी से जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित किताबों और लेखकों की सूची मांगी। इसी सवाल में उन्होंने नस्ल और भाषा के पूर्वाग्रह को रोकने के लिए खोज में “जाति और भाषा का ख्याल किए बगैर” जैसे शब्दों को भी शामिल किया। लेकिन फिर भी चैटजीपीटी के जवाब में सभी किताबें अंग्रेज़ी में थीं और 10 में से 9 लेखक श्वेत और 10 में से 9 लेखक पुरुष थे।
वास्तव में एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए पुरानी किताबों और वेबसाइटों की जानकारी का उपयोग करने से हाशिए वाले समुदायों के प्रति पक्षपाती दृष्टिकोण नज़र आता है, जबकि वर्चस्वपूर्ण वर्ग की उपस्थिति बढ़ जाती है। मेटा कंपनी के गैलेक्टिका नामक एलएलएम को इसीलिए हटाया गया है क्योंकि यह नस्लवादी सामग्री उत्पन्न कर रहा था। गौरतलब है कि एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए उपयोग किया जाने वाला अधिकांश डैटा अंग्रेज़ी में है, इसलिए वे उसी भाषा में बेहतर प्रदर्शन करते हैं। एलएलएम का व्यापक उपयोग विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के अति-प्रतिनिधित्व को बढ़ा सकता है, और पहले से ही कम प्रतिनिधित्व वाले लोगों को और हाशिए पर धकेल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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गणितज्ञों को कई संख्याएं बहुत दिलचस्प लगती हैं जबकि कुछ संख्याएं नीरस लगती हैं। तो यह देखना दिलचस्प होगा कि गणितज्ञों को संख्याएं क्यों सरस और नीरस लगती हैं।
जैसे, पसंदीदा संख्या पूछे जाने पर गणित का कोई विद्यार्थी शायद पाई (π), या यूलर्स संख्या (e) या 2 का वर्गमूल कहे। लेकिन एक आम व्यक्ति के लिए कई अन्य संख्याएं दिलचस्प हो सकती हैं। जैसे सात समंदर, सातवां आसमान, सप्तर्षि में आया सात। तेरह को बदनसीब संख्या मानना उसे दिलचस्प बना देगा। चतुर्भुज में चार, या पंचामृत के चलते पांच को लोकप्रिय कहा जा सकता है।
इस संदर्भ में एक किस्सा मशहूर है। प्रसिद्ध गणितज्ञ गॉडफ्रे हैरॉल्ड हार्डी का ख्याल था कि 1729 एक नीरस संख्या है। वे इसी नंबर की टैक्सी में बैठकर अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे अपने गणितज्ञ साथी श्रीनिवास रामानुजन से मिलने पहंुचे और उन्हें बताया कि वे एक नीरस नंबर की टैक्सी में आए हैं। रामानुजन ने तत्काल इस बात खंडन करते हुए कहा था, “यह तो निहायत दिलचस्प संख्या है; यह वह सबसे छोटी संख्या है जिसे दो संख्याओं के घन के योग से दो तरह से व्यक्त किया जा सकता है (1729 = 123 + 13 = 103 + 93)।”
है ना मज़ेदार – 1729 जैसी संख्या भी दिलचस्प निकली। तो सवाल यह उठता है कि क्या कोई ऐसी संख्या है, जिसमें कोई दिलचस्प गुण न हो। लेकिन गणितज्ञों ने ऐसा तरीका खोज निकाला है जिसकी मदद से किसी भी संख्या के दिलचस्प गुणों का निर्धारण किया जा सकता है। और 2009 में किए गए अनुसंधान से पता चला कि प्राकृत संख्याओं (धनात्मक पूर्ण संख्याओं) को तो स्पष्ट समूहों में बांटा जा सकता है – रोमांचक और नीरस।
संख्या अनुक्रमों का एक विशाल विश्वकोश इन दो समूहों की तहकीकात को संभव बनाता है। गणितज्ञ नील स्लोअन के मन में ऐसे विश्वकोश का विचार 1963 में आया था। वे अपना शोध प्रबंध लिख रहे थे और उन्हें ट्री नेटवर्क नामक ग्राफ में विभिन्न मानों का कद नापना होता था। इस दौरान उनका सामना संख्याओं की एक शृंखला से हुआ – 0, 1, 8, 78, 944….। उस समय उन्हें पता नहीं था कि इस शृंखला की संख्याओं की गणना कैसे करें और वे तलाश रहे थे कि क्या उनके किसी साथी ने ऐसी शृंखला देखी है। लेकिन लॉगरिद्म या सूत्रों के समान संख्याओं की शृंखला की कोई रजिस्ट्री मौजूद नहीं थी। तो 10 वर्ष बाद स्लोअन ने पहला विश्वकोश प्रकाशित किया – ए हैण्डबुक ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस। इसमें लगभग 2400 शृंखलाएं थीं और गणित जगत में इसका भरपूर स्वागत किया गया।
आने वाले वर्षों में स्लोअन को कई शृंखलाएं प्रस्तुत की गईं और संख्या शृंखलाओं को लेकर कई शोध पत्र प्रकाशित हुए। इससे प्रेरित होकर स्लोअन ने अपने साथी साइमन प्लाउफ के साथ मिलकर 1995 में दी एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस प्रकाशित किया। इसका विस्तार होता रहा और फिर इंटरनेट ने आंकड़ों की इस बाढ़ को संभालना संभव बना दिया।
1996 में ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया ऑफ इंटीजर सिक्वेंसेस सामने आया जिसमें शृंखलाओं की संख्या को लेकर कोई पाबंदी नहीं थी। मार्च 2023 तक इसमें 3 लाख 60 हज़ार प्रविष्टियां थीं। इसमें कोई व्यक्ति अपनी शृंखला प्रस्तुत कर सकता है; उसे सिर्फ यह समझाना होगा कि वह शृंखला कैसे उत्पन्न हुई और उसमें दिलचस्प बात क्या है। यदि इन मापदंडों पर खरी उतरी तो उसे प्रकाशित कर दिया जाता है।
इस एनसायक्लोपीडिया में कुछ तो स्वत:स्पष्ट प्रविष्टियां हैं – जैसे अभाज्य संख्याओं की शृंखला (2, 3, 5, 7, 11…) या फिबोनाची शृंखला (1, 1, 2, 3, 5, 8, 13….)। किंतु ऐसी शृंखलाएं भी हैं – टू-बाय-फोर स्टडेड लेगो ब्लॉक्स की एक निश्चित संख्या (n) की मदद से एक स्थिर मीनार बनाने के तरीकों की संख्या। या ‘लेज़ी कैटरर्स शृंखला’ (1, 2, 4, 7, 11, 16, 22, 29,…) या किसी केक को n बार काटकर अधिकतम कितने टुकड़े प्राप्त हो सकते हैं।
यह एनसायक्लोपीडिया दरअसल सारी शृंखलाओं का एक संग्रह बनाने का प्रयास है। लिहाज़ा, यह संख्याओं की लोकप्रियता को आंकने का एक साधन भी बन गया है। कोई संख्या इस संग्रह में जितनी अधिक मर्तबा सामने आती है, उतनी ही वह दिलचस्प है। कम से कम फिलिप गुग्लिएमेटी का यह विचार है। अपने ब्लॉग डॉ. गौलू पर उन्होंने लिखा था कि उनके एक गणित शिक्षक ने दावा किया था कि 1548 में कोई विशेष गुण नहीं हैं। लेकिन ऑनलाइन एनसायक्लोपीडिया में यह संख्या 326 बार प्रकट होती है। थॉमस हार्डी ने जिस संख्या 1729 को नीरस माना था वह इस एनसायक्लोपीडिया में 918 बार नज़र आती है।
तो गुग्लिएमेटी सचमुच नीरस संख्याओं की खोज में जुट गए। यानी ऐसी संख्याएं जो एनसायक्लोपीडिया में या तो कभी नहीं दिखतीं या बहुत कम बार दिखती हैं। संख्या 20,067 की यही स्थिति पता चली। इस वर्ष मार्च तक यह वह सबसे छोटी संख्या थी जो एक भी शृंखला का हिस्सा नहीं थी। इसका कारण शायद यह है कि इस एनसायक्लोपीडिया में किसी भी शृंखला के प्रथम 180 पदों को शामिल किया जाता है। अन्यथा हर संख्या धनात्मक पूर्ण संख्याओं की सूची में तो आ ही जाएगी। इस लिहाज़ से देखा जाए तो संख्या 20,067 काफी नीरस लगती है जबकि 20,068 की 6 प्रविष्टियां मिलती हैं। वैसे यह कोई स्थायी अवस्था नहीं है। यदि कोई नई शृंखला खोज ली जाए, तो 20,067 का रुतबा बदल भी सकता है। बहरहाल, एनसायक्लोपीडिया संख्या की रोचकता का कुछ अंदाज़ तो दे ही सकता है।
वैसे बात इतने पर ही नहीं रुकती और यह एनसायक्लोपीडिया संख्याओं के अन्य गुणों की खोजबीन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है। लेकिन शायद वह गहन गणित का मामला है। (स्रोत फीचर्स)
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एक नोबेल पुरस्कार को छोड़ दें, तो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्राप्त होने वाले सम्मानों की चर्चा कम ही होती है। इस वजह से कई बार युवाओं की रुचि इस क्षेत्र में कम हो जाती है। आइए कुछ सम्मानों/पुरस्कारों पर नज़र डालते हैं।
राष्ट्रीय/राज्य स्तरीय सम्मान
मध्यप्रदेश सरकार विज्ञान और प्रौद्यागिकी में उत्कृष्ट काम के लिए राष्ट्रीय तथा राज्य स्तरीय सम्मान प्रदान करती है। सन 1982 में स्थापित ये पुरस्कार राष्ट्रीय स्तर पर आधारभूत विज्ञान, तकनीकी विकास और इंजीनियरिंग हेतु जवाहर लाल नेहरू तथा राज्य स्तर पर अभियांत्रिकी और प्रौद्योगिकी में योगदान के लिए डॉ. कैलाश नाथ काटजू तथा डॉ. लज्जा शंकर झा, समाज विज्ञान में योगदान हेतु डॉ. हरिसिंह गौर के नाम पर प्रदान किए जाते हैं।
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय की विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार परिषद (एनसीएसटीसी) विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों हेतु हर साल राष्ट्रीय विज्ञान दिवस (28 फरवरी) के अवसर पर राष्ट्रीय पुरस्कार प्रदान करती है।
इन पुरस्कारों का उद्देश्य विज्ञान को लोकप्रिय बनाने, आमजन में वैज्ञानिक अभिरुचि जगाने तथा संचार क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले लोगों और संस्थाओं को प्रोत्साहित करने तथा उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों को वित्तीय रूप से सहयोग देना होता है। इसके अंतर्गत निम्न श्रेणियों में सम्मान दिया जाता है:
1. प्रिंट मीडिया के माध्यम से विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार।
2. बच्चों के बीच विज्ञान और प्रौद्योगिकी को लोकप्रिय बनाना।
3. लोकप्रिय विज्ञान और प्रौद्योगिकी साहित्य का अनुवाद।
4. नवीन और पारंपरिक तरीकों से विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार।
5. इलेक्ट्रॉनिक माध्यम में विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार।
विज्ञान फिल्म महोत्सव पुरस्कार
विज्ञान और प्रौद्योगिकी को अब प्रिंट माध्यम के अलावा कई अन्य माध्यमों से प्रचारित किया जाता है। इसी श्रेणी में इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के अंतर्गत फिल्में आती हैं। आजकल डॉक्यूमेंट्री तथा लघु फिल्मों के माध्यम से बड़े पैमाने पर यह कार्य किया जा रहा है। भारत सरकार की संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ द्वारा प्रति वर्ष विज्ञान फिल्मों को लेकर एक राष्ट्रीय महोत्सव आयोजित किया जाता है और विविध श्रेणियों में पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। इसके अंतर्गत डॉक्यूमेंट्री, डॉक्यू-ड्रामा और साइंस फिक्शन फिल्मों की श्रेणियां होती हैं।
विज्ञान परिषद
देश में वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार हेतु 1913 में स्थापित सबसे पुरानी संस्था विज्ञान परिषद, प्रयाग 100 सालों से भी अधिक समय से विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने का काम कर रही है। संस्था द्वारा अपने कामों को आमजन तक पहुंचाने और विज्ञान जागरूकता लाने के लिए विज्ञान नामक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन किया जाता है। इसी क्रम में परिषद द्वारा कई पुरस्कारों की भी स्थापना की गई है। परिषद द्वारा हर साल विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत शताब्दी सम्मान, लेखन-संपादन सम्मान, विज्ञान वाचस्पति सम्मान, डॉ. गोरख प्रसाद विज्ञान लेखन पुरस्कार, व्हिटेकर विज्ञान लेखन पुरस्कार, डॉ. रत्नकुमारी स्मृति पदक, प्रवीण शर्मा स्मृति सूचना प्रौद्योगिकी पुरस्कार, विज्ञान रत्न लक्ष्मण प्रसाद आविष्कार लेखन पुरस्कार, तुरशन पाल पाठक स्मृति बाल विज्ञान लेखन पुरस्कार, देवेन्द्र पाल वार्ष्णेय कृषि विज्ञान लेखन पुरस्कार, मोहम्मद खलील बाल विज्ञान लेखन पुरस्कार आदि प्रदान किए जाते हैं।
भारतीय विज्ञान कांग्रेस
कलकत्ता स्थित भारतीय विज्ञान कांग्रेस संस्था द्वारा सन 1965 से ही श्रेष्ठ भारतीय वैज्ञानिकों को सम्मानित किया जा रहा है। विविध प्रभागों के अंतर्गत ये पुरस्कार शतवार्षिक, स्मारक और व्याख्यान श्रेणी में दिए जाते हैं। विशेष रूप से युवा वैज्ञानिकों को प्रोत्साहित करने हेतु इसमें 32 साल तक के युवा वैज्ञानिकों को ही अवसर प्रदान किया जाता है।
शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश के सर्वोच्च सम्मानों में गिना जाने वाला पुरस्कार है शांति स्वरूप भटनागर सम्मान। विज्ञान के क्षेत्र में सर्वोच्च संस्था वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) द्वारा उल्लेखनीय एवं असाधारण अनुसंधान के लिए विभिन्न विषयों में ये सम्मान प्रदान किए जाते हैं। पुरस्कार का उद्देश्य विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उल्लेखनीय एवं असाधारण भारतीय प्रतिभा को सम्मानित करना रहता है। सीएसआईआर के संस्थापक निदेशक सर शांति स्वरूप भटनागर की स्मृति में ये पुरस्कार सन 1958 से प्रदान किए जा रहे हैं।
घनश्याम दास बिड़ला वैज्ञानिक शोध पुरस्कार
गैर-सरकारी स्तर पर देश के सबसे बड़े फाउंडेशन में से एक के. के. बिड़ला फाउंडेशन द्वारा घनश्याम दास बिड़ला की स्मृति में वैज्ञानिक शोधों के लिए पुरस्कार दिया जाता है। इसकी स्थापना सन 1991 में की गई थी। भारत में ही उत्कृष्ट शोध करने वालों को ये पुरस्कार वार्षिक रूप से प्रदान किए जाते हैं।
कलिंग पुरस्कार
विज्ञान संचार के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दिए जाने वाले पुरस्कारों में सर्वाधिक लोकप्रिय पुरस्कारों में से एक है कलिंग पुरस्कार। यह पुरस्कार उड़ीसा सरकार द्वारा युनेस्को को 1952 में उपलब्ध कराई गई एक बड़ी धनराशि से स्थापित कलिंग फाउण्डेशन ट्रस्ट द्वारा दिया जाता है। इसमें एक नया बिंदु जोड़ते हुए विजेता को अब रुचिराम साहनी पीठ भी प्रदान की जाने लगी है। हर दो वर्ष में यह पुरस्कार विश्व विज्ञान दिवस (10 नवंबर) के अवसर पर दिया जाता है।
ब्रेकथ्रू पुरस्कार
ब्रेकथ्रू सम्मान गूगल के सह संस्थापक सर्गेई ब्रिन, फेसबुक के सी.ई.ओ. मार्क जुकरबर्ग सहित कुछ अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों द्वारा साझा रूप से प्रदान किया जाता है। गणित (4 वर्ष में एक बार), भौतिकी (प्रति वर्ष) और लाइफ साइंस (प्रति वर्ष) के क्षेत्र में दुनिया भर में श्रेष्ठ काम करने वाले वैज्ञानिकों को इस पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। इसे ‘विज्ञान का आॅस्कर’ नाम से भी जाना जाता है।
नोबेल पुरस्कार
विज्ञान में अप्रतिम योगदान के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कार को कौन नहीं जानता। सन 1901 से दिए जा रहे इन पुरस्कारों की स्थापना डायनामाइट के आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल द्वारा की गई थी। आज यह सम्मान उनकी स्मृति में निर्मित नोबेल फाउण्डेशन द्वारा दिए जाते हैं।
इन पुरस्कारों द्वारा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्य करने वाले खोजियों, संचारकों और शोधार्थियों को सम्मानों के माध्यम से प्रोत्साहित किया जाता है। उम्मीद है इन सम्मानों के बारे में जानकर और अधिक युवा विज्ञान और प्रौद्योगिकी की ओर अग्रसर होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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आज हम ज्ञान उत्पन्न करने में लगे वैज्ञानिकों और इस ज्ञान
को लोगों तक पहुंचाकर संतुष्ट विज्ञान लेखकों के बीच बढ़ता विभाजन देख रहे हैं। हम
इस विभाजन को यह कहकर उचित ठहराते हैं कि आज का विज्ञान इतना जटिल हो गया है कि
वैज्ञानिकों के पास इसे आम जनता तक पहुंचाने का न तो समय है और न ही इसके संप्रेषण
का कौशल है तथा दूसरी ओर, विज्ञान लेखकों के पास ज्ञान
उत्पत्ति के न तो कोई अवसर हैं और न ही आवश्यक कौशल। हालांकि, यह कुछ हद तक सही हो सकता है लेकिन मेरी चिंता यह है कि वैज्ञानिक अपनी
ज़िम्मेदारी से बचने के लिए विज्ञान की कथित जटिलता का बहाना कर रहे हैं और इस
विभाजन को बेवजह बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहे हैं।
आदर्श रूप में, वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों के बीच किसी
प्रकार का विभाजन नहीं होना चाहिए। न तो वैज्ञानिकों को आम जनता के बीच विज्ञान के
संप्रेषण को पूरी तरह से विज्ञान लेखकों के भरोसे छोड़ना चाहिए और न ही विज्ञान
लेखक ज्ञान सृजन के कार्य को पूरी तरह से वैज्ञानिकों पर छोड़ सकते हैं। विज्ञान के
संप्रेषण का आनंद ज्ञान निर्माण का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए और ज्ञान
के सृजन का आनंद विज्ञान लेखन का एक महत्वपूर्ण प्रेरक बल होना चाहिए। अपने कार्य
का पूरा आनंद प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिकों को प्रभावी संप्रेषक बनना चाहिए। हम
यह बदलाव कैसे ला सकते हैं?
सबसे पहले,
वैज्ञानिकों में अच्छे लेखन की इच्छा होनी चाहिए। हमें लेखन
शैली को प्रतिष्ठा का विषय बनाना चाहिए। आश्चर्य की बात है कि ऐसा आम तौर पर होता
नहीं है।
सी.पी. स्नो की पुस्तक दी टू कल्चर्स की भूमिका में कैंब्रिज
युनिवर्सिटी में इंटेलेक्चुअल हिस्ट्री एंड इंग्लिश लिटरेचर के प्रोफेसर स्टीफन
कॉलिनी ने हमारी उलझन का बढ़िया वर्णन किया है:
“प्रायोगिक विज्ञान के कई
रूपों में लेखन वास्तव में कोई रचनात्मक भूमिका नहीं निभाता है: यह अपने आप में
खोज की प्रक्रिया नहीं होता, जैसा कि मानविकी में
होता है,
बल्कि किसी घटना के बाद की रिपोर्ट होता है जिसको लिख डालना
कहते हैं। परिणामों की प्रस्तुति में सटीकता, स्पष्टता, किफायत तो यकीनन आवश्यक हैं
लेकिन अपने निष्कर्षों को बोधगम्य तरीके से व्यवस्थित करने को कई शोध वैज्ञानिक एक
बोझ मानते हैं…शैली के लालित्य को एक पेशेवर आदर्श के रूप में विकसित नहीं किया
जाता,
न महत्व दिया जाता है, हालांकि इक्का-दुक्का वैज्ञानिक इसे पसंद कर सकते हैं।”
मैं सहमत हूं। लेकिन हमें विज्ञान की दुनिया में ऐसे सुधार करना चाहिए ताकि
कॉलिनी का विवरण सही न रहे।
कैसे?
इस मामले में मेरे कुछ पसंदीदा विचार हैं। हमें सबसे पहले
तो भरपूर और अंधाधुंध तरीके से पढ़ना चाहिए। जब तक हम अच्छे-बुरे-भौंडे हर प्रकार
की रचनाएं नहीं पढ़ेंगे तब तक हम विवेकी पाठक और अच्छे लेखक नहीं बन सकते। हमें
कथा-साहित्य भी काफी मात्रा में पढ़ना चाहिए। कथेतर साहित्य की तुलना में
कथा-साहित्य बेहतर शैली प्रस्तुत करने के अलावा हमारी कल्पना करने की क्षमता को
विकसित करने में मदद करता है। विज्ञान में कल्पना का बहुत महत्व है; खासकर परिकल्पनाएं प्रस्तावित करने में, ख्याली
प्रयोगों में और अपने सिद्धांतों के निहितार्थों का अनुमान लगाने में। कल्पना तो
कौशल का एक महत्वपूर्ण घटक भी है जो नए-नए पाठकों की मानसिक दुनिया में प्रवेश
करने और जटिल वैज्ञानिक अवधारणाओं को समझने में उनकी मदद करने के लिए आवश्यक है।
अच्छा लेखन सीखने के लिए, हमें बेझिझक गाइडबुक्स का
भरपूर उपयोग करना चाहिए। हालांकि, हमारा उद्देश्य सिर्फ उनमें दी
गई सलाहों को पालन करना नहीं होना चाहिए। बल्कि हमें तो उन्हें पढ़कर, समझकर उनके उल्लंघन के प्रयोग करने चाहिए और नतीजे देखने चाहिए (ठीक वैसे ही
जैसे हम विज्ञान में कोई कंट्रोलशुदा प्रयोग करते हैं)।
लेखन के लिए अनगिनत गाइडबुक्स उपलब्ध हैं, लेकिन
यदि वास्तव में हमारा उद्देश्य उन्हें पढ़ना, समझना
और उल्लंघन का प्रयास करना है तो फिर कोई भी गाइडबुक उपयुक्त रहेगी। वैसे, मेरा सुझाव है कि शुरुआत स्ट्रंक और वाइट द्वारा लिखित दी एलीमेंट्स ऑफ
स्टाइल या फिर स्टीफन किंग द्वारा लिखित ऑन राइटिंग: ए मेमॉयर ऑफ दी
क्राफ्ट से करनी चाहिए। दोनों ही ‘पढ़ने और उल्लंघन’ के लिहाज़ से बढ़िया हैं।
लेकिन हमारे भीतर स्टीफन फ्राय का आत्मविश्वास भी ज़रूरी है जो कहते हैं कि
उन्होंने किंग की सलाह का पालन करने का प्रयास किया लेकिन “यह बिलकुल भी ठीक
नहीं है,
एक लेखक (यानी मैं) है और यदि लोगों को लगता है कि उसने
लेखन में अति कर दी है…. उसे अति आलंकारिक बनाया है, तो लगने दो, वे ऐसी किताब को पटक देंगे और
किसी और की किताब को उठा लेंगे।”
मेरी एक और ‘सलाह पुस्तक’ स्टीवन पिंकर की किताब दी सेंस ऑफ स्टाइल: दी
थिंकिंग पर्सन्स गाइड टू राइटिंग इन 21st सेंचुरी है। एक मनोवैज्ञानिक, भाषाविद
और शानदार लेखक होने के नाते, पिंकर ने न केवल लेखन पर सलाह
दी है बल्कि उस सलाह के पीछे का तर्क भी प्रस्तुत किया है, जिससे
सलाह की सकारण उपेक्षा का मार्ग भी खुला रहता है। वैज्ञानिकों को पिंकर के लेखन
दर्शन को आत्मसात करना चाहिए: ‘शैली से जीवन में सुंदरता पनपती है…किसी
साक्षर पाठक के लिए, एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है।‘
मुझे विशेष रूप से इतालवी हरफनमौला, उम्बर्टो इको द्वारा
लिखित हाउ टू राइट ए थीसिस (1997/2012) काफी पसंद आई। इको विशेष रूप से
उनके दार्शनिक उपन्यास दी नेम ऑफ दी रोज़ (1994) के लिए मशहूर हैं। पहली नज़र
में देखें तो इको की सलाह विशेष रूप से इंडेक्स कार्ड, नोटपैड
और इंटरलाइब्रेरी लोन के युग के मानविकी विज्ञान के छात्रों के लिए है। लेकिन मेरा
ऐसा मानना है कि इंटरनेट, वेब ऑफ साइंस और गूगल स्कॉलर
युग के प्राकृतिक वैज्ञानिकों को भी इसे पढ़ना चाहिए। ‘हाउ टू राइट ए थीसिस’
पर सलाह देने की आड़ में इको ने ‘शोध कैसे करें’ पर अधिक सलाह दी है।
हालांकि,
शैली और विषयवस्तु में से किसी एक को चुनना ज़रूरी नहीं है।
रिचर्ड डॉकिंस ने इस बात को अपनी हालिया पुस्तक बुक्स डू फर्निश ए लाइफ में
व्यक्त किया है। यह डॉकिंस की निहायत पठनीय पूर्व रचनाओं का संकलन है। आश्चर्यजनक
रूप से इसमें बड़ी संख्या में अन्य लोगों की पुस्तकों के लिए लिखी गई भूमिकाएं, प्रस्तावनाएं, उपसंहार और समीक्षाएं शामिल हैं। यह विधा
मुझे बहुत पसंद है क्योंकि यह उन सख्त नियमों से मुक्त है जो अक्सर अधिक तकनीकी
वैज्ञानिक लेखन पर लागू होते हैं। आम तौर पर ये नियम लेख की गुणवत्ता को अनावश्यक
रूप से कम करते हैं। इसलिए निबंध शैली के वैज्ञानिक लेखन को बेहतर बनाने का यह
बढ़िया तरीका हो सकता है, लेकिन बहुत कम देखने को मिलता
है।
दुर्भाग्य से, हम इस विधा की उपेक्षा इस गलत आधार पर करते
हैं कि यह किसी नए ज्ञान की द्योतक नहीं है। कई चयन एवं मूल्यांकन समितियों में
काम करते हुए मुझे इस बात ने काफी व्यथित किया है कि व्यक्ति का मूल्यांकन करते
समय इस विधा के सभी प्रकाशनों को दरकिनार कर दिया जाता है। और तो और, इसके साथ ही हम छात्रों के असाइनमेंट में निबंध प्रारूप की जगह बहु-विकल्पी
सवालों (MCQ)
को तरजीह देने लगे हैं। इसके परिणामस्वरूप, आज के छात्र किसी विषय पर उपलब्ध सारी जानकारी इकट्ठा करके एक निबंध तैयार
करने में बिलकुल भी आनंद नहीं लेते।
वैज्ञानिकों को लेखन के लिए अनुकरणीय उदाहरणों की ज़रूरत है। मेरी शिकायत रही
है कि वैज्ञानिक खराब लिखते हैं या पर्याप्त नहीं लिखते, लेकिन
सच्चाई यह है कि कई अनुकरणीय आदर्श मौजूद हैं। डॉकिंस की किताब दी ऑक्सफोर्ड
बुक ऑफ मॉडर्न साइंस राइटिंग (2008) ऐसे 394 उदाहरणों का एक प्रेरक संग्रह है
जिसमें मार्टिन रीस, फ्रांसिस क्रिक, फ्रेड
हॉयल,
जेरेड डायमंड, रैशेल कार्लसन, एडवर्ड ओ. विल्सन, फ्रीमैन डायसन, जे.बी.एस.
हाल्डेन,
जैकब ब्रोनोस्की, ओलिवर सैक्स, लेविस वोलपर्ट, कार्ल सेगन, जॉन
टायलर बोनर,
सिडनी ब्रेनर, जॉन मेनार्ड स्मिथ, डी’आर्ची थॉमसन, निको टिनबरगन, आर्थर
एडिंगटन,
पीटर मेडावर जैसे शानदार वैज्ञानिकों के आलेख शामिल हैं।
मेरे एक आदर्श हैं ज़्यां हेनरी फैबर (1823-1915)। फैबर एक फ्रांसीसी
कीटविज्ञानी,
प्रकृतिविद और एक उत्कृष्ट लेखक थे। उन्हें एक बेलेट्रिस्ट
(एक ऐसा व्यक्ति जो विशेष रूप से साहित्यिक और कलात्मक समालोचना पर निबंध लिखता है
जिनको मुख्य रूप से उनके सौंदर्यबोध के लिए रचा और पढ़ा जाता है), ‘विज्ञान कवि’ और ‘कीट विज्ञान का होमर’ कहा जाता है। जब मैं फैबर की रचना दी
बुक ऑफ इंसेक्ट्स को पढ़ता हूं, तब मेरे कानों में पिंकर के
शब्द गूंजने लगते हैं कि ‘…एक खस्ता वाक्य, एक आकर्षक रूपक, एक मज़ाकिया भटकाव, मुहावरों का उपयोग अत्यधिक प्रसन्नता देता है‘ और
लगता है कि मुझमें लिखने की चाह पैदा हो जाती है।
विज्ञान की संस्कृति को बदलने की ज़रूरत है ताकि यह संभव हो सके कि वैज्ञानिक न
केवल उच्च गुणवत्ता के शोध में योगदान दें बल्कि साथ ही बेहतर संचार के लिए समय दे
सकें और उससे आनंद भी प्राप्त कर सकें। व्यापक गैर-तकनीकी पाठकों के लिए लिखने का
काम तकनीकी पेपर लिखने के कार्य से काफी पहले शुरू हो जाना चाहिए, तकनीकी पेपर लिखने के साथ-साथ निरंतर चलते रहना चाहिए और तकनीकी पेपर का लेखन
कार्य पूरा होने के बाद भी लंबे समय तक जारी रहना चाहिए। हम पाएंगे कि प्राकृतिक
विज्ञान में भी,
‘लेखन की प्रक्रिया के दौरान सबसे रचनात्मक सोच किया जा सकता
है।’ मेरा तो निश्चित रूप से यही अनुभव रहा है।
तो फिर पेशेवर विज्ञान लेखकों की क्या भूमिका होनी चाहिए? हमें यह भय नहीं पालना चाहिए कि यदि वैज्ञानिक अच्छा लिखेंगे और आम जनता के
लिए लिखने लगेंगे तो वे पेशेवर विज्ञान लेखकों को खदेड़ देंगे। विज्ञान लेखकों की
भूमिका तो अत्यंत महत्वपूर्ण है, लेकिन मेरी इच्छा उनको भी
ज्ञान निर्माताओं के रूप में देखने की है। विज्ञान लेखकों का काम केवल रिपोर्टिंग
करने से कहीं ज़्यादा होना चाहिए। उनका काम वैज्ञानिकों की अस्पष्ट भाषा को
अंग्रेज़ी में या फिर किसी अन्य भाषा में अनुवाद करने से कहीं अधिक होना चाहिए।
यदि वैज्ञानिक जनता के बीच विज्ञान के संप्रेषण का काम अच्छे से करते हैं, तो विज्ञान लेखक अपने प्रयासों को नए ज्ञान के निर्माण पर केंद्रित कर सकते
हैं। देखा जाए तो विज्ञान लेखक पार्श्विक तुलना करने, विज्ञान
की प्रक्रिया को समझने तथा संभावित पूर्वाग्रहों और हितों के टकराव को समझने की
बेहतर स्थिति में होते हैं जिनको वैज्ञानिक, अंदरूनी
व्यक्ति होने के कारण, सही तरह से समझ नहीं सकते हैं। अत:
अस्त-व्यस्त गद्य में सुधार करने की अपेक्षा करने की बजाय, हमें
विज्ञान लेखकों को ज्ञान परिष्कारकों की भूमिका के तौर पर बढ़ावा देना चाहिए।
विज्ञान लेखकों को अपने लेखन में इतिहास, दर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र और विज्ञान की राजनीति को भी शामिल करना चाहिए। विज्ञान की संस्कृति में बदलाव लाना चाहिए ताकि विज्ञान लेखकों को प्रतिष्ठा मिल सके और उन्हें ज्ञान परिष्कारक के रूप में स्वीकार करके वैज्ञानिकों की श्रेणी में शुमार किया जाए। वैज्ञानिकों और विज्ञान लेखकों, दोनों को प्रभावी ढंग से ज्ञान का प्रसार करना चाहिए। इस तरह के सांस्कृतिक परिवर्तन विज्ञान के कामकाज की प्रक्रिया को अधिक समावेशी और लोकतांत्रिक बनाएंगे और विज्ञान की सीमाओं का भी विस्तार करेंगे। इसी परिवर्तन का एक हिस्सा यह भी होगा कि विज्ञान को एक जटिल और महंगी गतिविधि के रूप में पैकेजिंग से मुक्त करना है जिसमें केवल उच्च प्रशिक्षित और विशेषाधिकार प्राप्त लोग ही प्रवेश कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइंस (25 अगस्त 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://blog.writers.work/wp-content/uploads/2019/02/WW.FreelanceScience-01.png
हाल ही में शोध अध्ययनों का वित्तपोषण करने वाले चीन के दो
प्रमुख संस्थानों ने कदाचार की जांच करके कम से कम 23 ऐसे वैज्ञानिकों को दंडित
किया है जो ‘शोधपत्र कारखानों’ का उपयोग कर रहे थे। ‘शोधपत्र कारखाने’ मतलब ऐसे व्यवसायी जो मनमाफिक नकली डैटा और फर्ज़ी पांडुलिपियां तैयार करते
हैं। इन वैज्ञानिकों पर अस्थायी रूप से अनुदान आवेदन करने या अनुदान और पदोन्नति
पर रोक लगाकर दंडित किया गया है। ये सभी निर्णय पिछले वर्ष सितंबर में जारी की गई
नीति के तहत लिए गए हैं जिसका मुख्य उद्देश्य ‘शोधपत्र कारखानों’ और अन्य कदाचार से निपटना था।
वैसे कई शोधकर्ताओं को 2020 के पूर्व भी प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है जब कदाचार नीतियों में स्वतंत्र व्यवसायों सम्बंधित
उल्लंघनों को शामिल किया गया है जो शोधकर्ताओं को लेखन या डैटा बेचते हैं। कई
शोधकर्ता इस पहल को एक बड़े कदम के रूप में देखते हैं लेकिन विश्व के कई अन्य भागों
में अपनाए जाने वाले मानदंडों की तुलना में ये अभी भी पर्याप्त नहीं हैं। ब्रैडली
युनिवर्सिटी के पुस्तकालय तथा सूचना वैज्ञानिक और चीन में शोध कदाचार के
अध्ययनकर्ता ज़ियाओशियन चेन के अनुसार कई देशों में सरकारी अनुदान प्राप्त
प्रकाशनों में फर्ज़ी डैटा प्रकाशित करने को अपराध माना जाता है।
शोधकर्ताओं के अनुसार वैज्ञानिकों पर कार्रवाई करते हुए एक बड़ी समस्या को अभी
भी अनदेखा किया जा रहा है – ‘शोधपत्र कारखानों’ पर
किसी प्रकार की कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। इस विषय में नेशनल कमीशन ऑफ दी
पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (एनएचसी) और दी नेशनल नेचुरल साइंस फाउंडेशन ऑफ चाइना
(एनएसएफसी) ने अब तक कम से कम 23 शोधकर्ताओं पर प्रतिबंध लगाया है जो वैज्ञानिक
टेक्स्ट और डैटा प्रदान करने वाली सेवाओं का रुख करते हैं या फिर इस तरह के शोधपत्र
खरीदते या बेचते हैं।
चीन के शोधकर्ता अधिक शोध पत्र प्रकाशित करने के चक्कर में ‘शोधपत्र कारखानों’
से शोधपत्र या डैटा खरीदते हैं क्योंकि पदोन्नति के लिए प्रकाशन एक अनिवार्यता है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों कई वैज्ञानिक पत्रिकाओं ने बड़ी संख्या में शोध पत्र
अस्वीकृत किए हैं क्योंकि ऐसे आशंका थी कि वे ‘शोधपत्र कारखानों’ से निकले
है।
नेचर पत्रिका द्वारा जनवरी 2020 से इस वर्ष मार्च तक इस तरह के लगभग 370 शोध
पत्र वापस ले लिए गए हैं। इन सभी के लेखक चीनी अस्पतालों से सम्बंधित हैं। वर्तमान
में यह संख्या 665 हो चुकी है। गौरतलब है कि वैज्ञानिकों को पहले भी ‘शोधपत्र
कारखानों’ का उपयोग करने के लिए फटकार लगाई जा चुकी है लेकिन 2017 में एक बड़े
घोटाले के सामने आने के बाद से वैज्ञानिक समुदाय के बीच चिंता और अधिक बढ़ गई है। ट्यूमर
बायोलॉजी नामक जर्नल ने 107 शोध पत्रों को इस कारण से वापस ले लिया था क्योंकि
कई में फर्ज़ी समकक्ष समीक्षा रिपोर्ट का उपयोग किया था या ये ‘शोधपत्र कारखानों’
में तैयार हुए थे।
इन सभी घटनाओं के नतीजे में चीन के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी मंत्रालय द्वारा शोध
कार्यों में होने वाले उल्लंघनों और कदाचार से निपटने के लिए 2018 में कुछ नीतिगत
घोषणाएं की गई थीं। पिछले वर्ष जारी की गई न्यू रिसर्च मिसकंडक्ट पॉलिसी में पहली
बार स्पष्ट रूप से ‘शोधपत्र कारखानों’ का उल्लेख किया गया। इस नीति के तहत नियमों
के गंभीर उल्लंघनों को सार्वजनिक करने की बात कही गई।
शोध के लिए वित्तपोषण प्रदान करने वाले संस्थानों द्वारा हालिया कार्रवाइयों
से पता चलता है कि इस नीति को लागू किया जा रहा है। मार्च और जुलाई में, एनएसएफसी ने 13 कदाचार जांचों का विवरण प्रकाशित किया जिनमें से 6 मामले
‘शोधपत्र कारखानों’ से जुड़े थे। एक मामले में तो एक शोधकर्ता ने अपनी थीसिस के लिए
3700 डॉलर (लगभग 2.75 लाख रुपए) का भुगतान किया था। कुछ अन्य मामले समकक्ष समीक्षा
में धोखाधड़ी,
साहित्यिक-चोरी और फर्ज़ी डैटा के पाए गए। जून और सितंबर के
दौरान एनएचसी द्वारा ‘शोधपत्र कारखानों’ के उपयोग सहित कदाचार के लगभग 30 मामलों
की सूचना दी गई है।
‘शोधपत्र कारखानों’ का उपयोग करने वाले शोधकर्ताओं के लिए दंड के तौर पर फटकार से लेकर सात साल तक वित्तपोषण के लिए आवेदन देने और छह वर्षों तक पदोन्नति पर प्रतिबंध लगाया गया है। हिरोशिमा युनिवर्सिटी, जापान के चीनी शोधकर्ता फूटाओ हुआंग इन सज़ाओं को काफी कमज़ोर मानते हैं और खासकर अस्पतालों के संदर्भ में चीन की शैक्षणिक मूल्यांकन प्रणाली में बदलाव का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-02587-3/d41586-021-02587-3_19699540.jpg
एक एक डच सर्वेक्षण में लगभग आठ प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह
बात मानी है कि वर्ष 2017 से 2020 के बीच उन्होंने कम से कम एक बार मिथ्या डैटा या
मनगढ़ंत डैटा का उपयोग किया था। सर्वेक्षण में वैज्ञानिकों के नाम गोपनीय रखे गए
थे। लगभग 10 प्रतिशत से अधिक चिकित्सा और जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने भी डैटा
में इस तरह के हेर-फेर की बात स्वीकार की है। मेटाआर्काइव (MetaArxiv) प्रीप्रिंट में प्रकाशित इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने अक्टूबर 2020 से दिसंबर 2020 के
बीच नेदरलैंड के 22 विश्वविद्यालयों के लगभग 64,000 शोधकर्ताओं से संपर्क किया था, जिनमें से 6,813 ने उत्तर दिए थे।
वर्ष 2005 में यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ द्वारा इसी मुद्दे पर एक
अध्ययन किया गया था जिसमें बहुत कम वैज्ञानिकों ने माना था कि उन्होंने मिथ्या
डैटा का उपयोग किया है या डैटा गढ़ा है; अध्ययन में शामिल 3,000
वैज्ञानिकों में से 0.3 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात कबूली थी।
डच सर्वेक्षण की अध्ययनकर्ता गौरी गोपालकृष्णन का कहना है कि संभावना है कि
पूर्व अध्ययन में डैटा में हेर-फेर की बात स्वीकार करने वाले शोधकर्ताओं का
प्रतिशत कम आंका गया हो। क्योंकि पूर्व अध्ययनों में इस मुद्दे पर सवाल घुमा-फिरा
कर पूछे गए थे जबकि डच अध्ययन में सवाल सीधे-सीधे किए थे। और इसी कारण से अन्य
अध्ययनों के परिणामों से डच अध्ययन के परिणाम की तुलना करने में सावधानी रखनी
होगी। वैसे,
वर्ष 2001 में डच अध्ययन के तरीके से ही किए गए एक अन्य
अध्ययन में लगभग 4.5 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने माना था कि कम से कम एक बार उन्होंने
डैटा के साथ छेड़छाड़ की है।
डच सर्वेक्षण में 51 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने 11 ‘आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण’
(क्यूआरपी) में से कम से कम एक की बात भी स्वीकारी – जैसे शोध की अपर्याप्त योजना
के साथ काम करना,
या जानबूझकर पांडुलिपियों या अनुदान प्रस्तावों का निष्पक्ष
आकलन न करना। आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण को डैटा में हेर-फेर, साहित्यिक चोरी वगैरह की तुलना में कम बुरा माना जाता है।
आपत्तिजनक अनुसंधान आचरण कबूल करने वालों में पीएच.डी. छात्रों, पोस्टडॉक और जूनियर फैकल्टी के होने की संभावना ज़्यादा थी लेकिन डैटा में
हेर-फेर और डैटा गढ़ने की बात स्वीकार करने का कोई उल्लेखनीय सम्बंध इस बात से नहीं
दिखा कि शोधकर्ता अपने करियर के किस मुकाम पर थे। अलबत्ता, पूर्व
अध्ययनों में पाया गया था कि जो शोधकर्ता अपने करियर के मध्य स्तर पर हैं उनकी
तुलना में जूनियर शोधकर्ता ऐसे आचरणों में कम लिप्त होते हैं।
कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि डैटा मिथ्याकरण के इन आंकड़ों पर सावधानी से
विचार किया जाना चाहिए। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में शोध
दुराचार,
नैतिकता और पूर्वाग्रह का अध्ययन करने वाले डेनियल फेनेली
ने 2009 में एक मेटा-विश्लेषण किया था जिसमें लगभग दो प्रतिशत शोधकर्ताओं ने
मिथ्या डैटा,
डैटा गढ़ने या उसमें हेर-फेर करने की बात स्वीकार की थी।
इसके अलावा,
डच अध्ययन में यह भी स्पष्ट नहीं है कि पिछले तीन वर्ष में
ऐसा करने की बात कबूलने वाले शोधकर्ताओं ने वास्तव में ऐसा कितनी बार किया, उनके कितने शोधपत्रों में परिवर्तित डैटा था और क्या उन्होंने वह काम प्रकाशित
किया था। अनुसंधान दुराचार होते रहते हैं, लेकिन
ये हो रहे हैं इसका पता लगाना और इन्हें साबित करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा
अनुसंधान संस्थान भी इन मुद्दों पर पारदर्शिता नहीं दर्शाते।
गोपालकृष्णन और उनके साथियों ने इसी सर्वेक्षण के डैटा का उपयोग कर ज़िम्मेदार अनुसंधान आचरण की पड़ताल करता हुआ एक अन्य अध्ययन मेटाआर्काइव प्रीप्रिंट में प्रकाशित किया है। अध्ययन में पाया गया कि 99 प्रतिशत वैज्ञानिक आम तौर पर साहित्यिक चोरी से बचते हैं, 97 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने हितों के टकराव का खुलासा किया और 94 प्रतिशत वैज्ञानिक प्रकाशन से पहले पांडुलिपि में त्रुटियों की जांच करते हैं। लगभग 43 प्रतिशत शोधकर्ताओं ने ही कहा कि वे प्रयोग सम्बंधी प्रोटोकॉल पहले से पंजीकृत करते हैं, 47 प्रतिशत वैज्ञानिक ही मूल डैटा उपलब्ध कराते हैं, और 56 प्रतिशत वैज्ञानिक ही व्यापक शोध रिकॉर्ड रखते हैं। गोपालकृष्णन का कहना है कि डैटा में हेर-फेर जैसे अनुसंधान दुराचार पर बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है, लेकिन अनुसंधान में लापरवाही को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। हमें एक ऐसे माहौल की ज़रूरत है जहां गलतियों को अपराध न माना जाए, आचरण ज़िम्मेदारीपूर्ण हो, और धीमी गति से लेकिन अच्छी गुणवत्ता वाले शोध पर अधिक ध्यान दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/metaresearch_1280p.jpg?itok=22Wnx4RP
पिछले दिनों सेल प्रेस रिव्यू में विज्ञान और समाज
शीर्षक के अंतर्गत एक पर्चा छपा था – दी एंड ऑफ बॉटनी। यह पर्चा संयुक्त
रूप से अर्जेंटाइना के वनस्पति संग्रहालय के जार्ज वी. क्रिसी, लिलियाना कैटीनास, मारिया एपीडोका और मिसौरी वनस्पति उद्यान
के पीटर सी. हॉच द्वारा लिखा गया है। इस पर्चे का शीर्षक वाकई चौंका देने वाला है
और हमें वनस्पति विज्ञान के वर्तमान यथार्थ से रू-ब-रू कराता है।
मैं स्वयं वनस्पति शास्त्र का शिक्षक रहा हूं। यह पर्चा पढ़ते हुए मुझे विक्रम
विश्वविद्यालय की वानस्पतिकी अध्ययन शाला में स्नातकोत्तर शिक्षा (1977-78) के
अपने दिन याद आ गए। 1982 तक वहीं मैं शोध छात्र भी रहा। बॉटनी डिपार्टमेंट में
एम.एससी. की कक्षाएं खचाखच भरी होती थीं। वनस्पति विज्ञान के प्रतिष्ठित
प्राध्यापकों द्वारा अध्यापन किया जाता था। फिर गिरावट का एक ऐसा दौर आया कि
विद्यार्थी लगातार कम होते चले गए। अध्यापकों की नई भर्ती हुई नहीं और जो थे वे एक
के बाद एक रिटायर होते गए। और वर्तमान में यहां एक ही स्थायी प्राध्यापक है। और
विभाग आज वनस्पति शास्त्र विषय लेने वाले विद्यार्थियों को तरसता है।
मुख्य विषय वनस्पति विज्ञान की उपेक्षा वर्तमान में एक विश्वव्यापी चिंता का
कारण बन चुकी है। इस स्थिति के लिए ज़िम्मेदार कारण कमोबेश वैश्विक हैं। दूसरी ओर, इसकी उप-शाखाएं (जैसे बायो-टेक्नोलॉजी, मॉलीक्यूलर
बायोलॉजी,
एनवायरमेंटल साइंस और माइक्रोबायोलॉजी आदि) फल-फूल रही हैं।
दुख की बात तो यह है कि इन तथाकथित नए प्रतिष्ठित विषयों को पढ़ाने वाले, चलाने वाले प्राध्यापक मूल रूप से वनस्पति विज्ञान के विद्यार्थी ही रहे हैं।
वैसे यह पर्चा अमेरिका के संदर्भ में लिखा गया है लेकिन समस्या अमेरिका तक
सीमित नहीं है,
दुनिया भर में यही स्थिति है। वनस्पति विज्ञान के कई
प्राध्यापक भी सामान्य पौधों तक को पहचानने में असमर्थ हैं। यह जानते हुए भी कि
पेड़-पौधे जीवन का आधार हैं, हम इस संकट तक कैसे पहुंचे, इसके कारण क्या हैं? इस परिस्थिति को बदलने के लिए
हम क्या कर सकते हैं? ऐसे ही कुछ सवाल उक्त पर्चे में उठाए गए
हैं जिनका उल्लेख यहां किया जा रहा है।
इस पर्चे में एक विधेयक की भी बात है जिसका शीर्षक है ‘दी बॉटेनिकल साइंस एंड
नेटिव प्लांट मटेरियर रिसर्च रीस्टोरेशन एंड प्रमोशन एक्ट’ जिसे ‘बॉटनी विधेयक’ भी
कहा जा रहा है। यह उन चेतावनियों का नतीजा है जो यूएस नेशनल पार्क सर्विसेज़ एंड
ब्यूरो आफ लैंड मैनेजमेंट जैसे संस्थानों द्वारा समय-समय पर दी गई थीं। इन
संस्थानों का कहना है कि उन्हें वर्तमान में ऐसे वनस्पति शास्त्री पर्याप्त संख्या
में नहीं मिल रहे हैं जो घुसपैठी पौध प्रजातियों, जंगल
की आग के बाद पुन:वनीकरण और आधारभूत भूमि प्रबंधन के क्षेत्र में मदद कर सकें।
विधेयक का उद्देश्य वनस्पति शास्त्र में शोध और विज्ञान क्षमता को बढ़ावा देना
और स्थानीय पौध सामग्री की मांग बढ़ाना है। बिल में त्वरित कार्रवाई की ज़रूरत बताई
गई है क्योंकि अगले कुछ वर्षों में सेवा निवृत्ति के चलते तथा नई भर्ती के अभाव
में यूएस अपने आधे से भी अधिक विशेषज्ञ वनस्पति शास्त्री गंवा देगा। यह टिप्पणी
यूं तो विशेषकर यूएस के लिए है, पर कमोबेश यही स्थिति सारी
दुनिया में है।
बॉटनी शब्द आठवीं शताब्दी के दौरान होमर द्वारा इलियड में दिया गया था। यह
धीरे-धीरे पूरे रोमन साम्राज्य में फैला और इसका व्यावहारिक महत्व रेनेसां काल में
काफी बढ़ा। बॉटनी ने आधुनिक विज्ञान में लीनियस और डारविन के विचारों को बढ़ावा देने
में मदद की और कई महान प्रकृतिविदों ने मिलकर 19वीं से लेकर 20वीं शताब्दी तक इसे
स्थापित किया। लेकिन इन 2700 वर्षों में पहली बार यह शब्द विलोप के खतरे से जूझ
रहा है। इसके लिए जाने-अनजाने स्वयं इससे जुड़े लोग ही ज़िम्मेदार हैं।
एक उदाहरण देखिए। वर्ष 2017 में शेनजेन में संपन्न हुए एक अंतर्राष्ट्रीय
सम्मेलन में दुनिया भर के लगभग 700 से अधिक वैज्ञानिकों ने भाग लिया था। यहां 14
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वनस्पति शास्त्रियों द्वारा वनस्पति विज्ञान पर एक
घोषणा प्रस्तुत की गई। जिसमें सात योजनाबद्ध प्राथमिकताएं बताई गई थीं। लेकिन
घोषणा के मजमून में बॉटनी शब्द कहीं नहीं था; इसका
स्थान पादप विज्ञान ने ले लिया था।
वनस्पति विज्ञान का ह्यास
वनस्पति विज्ञान के उपविषयों के प्रसार स्वीकार्य हैं, परंतु
एक असंतुलित दृष्टिकोण अपनाने से गड़बड़ी होती है। आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान जैसे विषय वर्गीकरण विज्ञान एवं
आकारिकी जैसे विषयों पर हावी हो जाते हैं। वस्तुत:, इन तथाकथित उच्च श्रेणी के
विषयों ने वनस्पति विज्ञान की बहुआयामी प्रकृति को तार-तार कर दिया है। गौरतलब है
कि आणविक जीव विज्ञान, सूक्ष्मजीव विज्ञान, जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसे विषय वनस्पति विज्ञान की बुनियाद के बिना अधूरे हैं।
उदाहरण के लिए,
पदानुक्रम के किसी भी स्तर पर कोई भी जैविक परियोजना बिना
वैज्ञानिक नाम के पूरी नहीं होती।
प्राकृतिक इतिहास के संग्रह खतरे में
हर्बेरिया तथा अन्य प्राकृतिक इतिहास के संग्रहों का रख-रखाव संग्रहालयों तथा
विश्वविद्यालयों द्वारा किया जाता है। ऐसे संग्रह समाज के लिए अमूल्य हैं। ये जैव
विविधता और इसके वितरण को समझने की नींव बनाते हैं। हर्बेरिया पौधों की फीनॉलॉजी
(ऋतुचक्र) के अध्ययन के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इनके आधार पर परागण के
इतिहास और शाकाहारियों के असर का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान पौधों में पाए
जाने वाले स्टोमेटा की तुलना किसी हर्बेरिया के स्पेसिमेन से करके यह देखा जा सकता
है कि उनमें स्टोमेटा की संख्या में कितना बदलाव आया है। इनसे यह भी पता लगाया जा
सकता है कि प्रजातियां जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से कैसे तालमेल बैठाती हैं।
दुखद बात यह है कि प्राकृतिक इतिहास के ये संग्रह और सम्बंधित संस्थान तेज़ी से
बंद हो रहे हैं। दुर्भाग्य से बजट का अभाव इनके बंद होने के लिए ज़िम्मेदार है। इस
तरह के नकारात्मक सामाजिक परिणामों को व्यापक रूप से पत्र-पत्रिकाओं और संपादकों, यहां तक कि लोकप्रिय मीडिया ने भी व्यक्त किया है।
प्राकृतिक इतिहास संग्रह पर मंडराते इन वैश्विक खतरों का वनस्पति विज्ञान पर
गहरा प्रभाव पड़ा है क्योंकि कई वनस्पति अनुसंधान परियोजनाओं को हर्बेरिया आदि की
आधारभूत आवश्यकता होती है। यहां तक कि आणविक और पारिस्थितिकी विज्ञान सहित अधिकांश
जैविक अनुसंधान जीवों की सही-सही पहचान पर निर्भर करता है। प्राकृतिक इतिहास संग्रह
में जीवों के नमूनों (वाउचर) का संरक्षण आवश्यक है।
वनस्पति विज्ञान के क्षरण का एक और कारण वर्तमान में शोध पत्रों के महत्व को
आंकने का तरीका भी है। आजकल यह देखा जाता है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने
अन्य शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में किया है। इसके चलते आणविक जीव विज्ञान या
सूक्ष्मजीव अनुसंधान की तुलना में वनस्पति विज्ञान के शोध पत्रों को कमतर आंका
जाता है।
वनस्पति विज्ञान में घटती रुचि का एक कारण कुछ गलतफहमियां भी हैं। उदाहरण के
लिए एक विचार प्रचलित है कि वर्गीकरण विज्ञान (टेक्सॉनॉमी) मूलत: एक विवरणात्मक
शाखा है,
जिसमें केवल अवलोकन होते हैं। यह गलतफहमी का एक स्पष्ट
उदाहरण है। वास्तव में वर्गीकरण विज्ञान में विवरणों की आवश्यकता तो होती है लेकिन
साथ ही सिद्धांत,
तथा आनुभविक और ज्ञान की मीमांसा की गहनता भी ज़रूरी होती
है। यह परिकल्पना आधारित होता है और इसमें मैदानी तथा प्रयोगशालाई विशेषज्ञता
ज़रूरी होती है।
तस्वीर कैसे बदल सकती है
इस समस्या का संभावित समाधान दो-तरफा है। पहला विज्ञान की वर्तमान संस्कृति का
रोना न रोते हुए यह सोचना होगा कि व्यक्तिगत तौर पर वनस्पति शास्त्री क्या कर सकते
हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक व्यक्तियों के रूप में क्या करते हैं इस पर न अटकते हुए
यह सोचना होगा कि विज्ञान की संस्कृति क्या कर सकती है।
व्यक्तिगत स्तर पर इस हेतु कुछ प्रयास किए जा सकते हैं, जैसे –
वनस्पति
विज्ञान शब्द का सम्मान करना और इसके निंदात्मक प्रयोग को अस्वीकार करना।
इस
क्षेत्र में जोखिमपूर्ण लेकिन नई ज़मीन तोड़ने वाले काम करना, जबकि फिलहाल यह फैशन में नहीं है।
असंतुलित
दृष्टिकोण को चुनौती देना। यह स्वीकार करना कि समकक्ष समीक्षित शोध पत्र काम के
मूल्यांकन का प्रमुख आधार हैं।
शोध
कार्य के मूल्यांकन में उल्लेखों की गिनती की विधि को अस्वीकार करना।
प्राकृतिक
इतिहास संग्रह का मूल्य समझना बहुत ज़रूरी है।
विज्ञान की संस्कृति के संदर्भ में भी कई कदम उठाए जा सकते हैं, जैसे –
सरकारों
को ऐसे कानून और नीतियां बनानी चाहिए जो वनस्पति विज्ञान के कद को बढ़ा सकें।
वैज्ञानिक
समुदायों को प्राकृतिक इतिहास के महत्व को समझना होगा और उन तरीकों को बदलना होगा
जिनसे वैज्ञानिक अनुसंधान के नतीजों का मूल्यांकन विभिन्न एजेंसियों द्वारा किया
जाता है।
जीव-स्तर
पर काम करने वाले वैज्ञानिकों के लिए रोज़गार के अवसर बढ़ाना होंगे।
प्राकृतिक
संग्रह को बोझ के रूप में नहीं बल्कि वैज्ञानिक अनुसंधान को प्रोत्साहित करने और
जैव विविधता का संरक्षण करने की संपदा के रूप में देखना होगा।
इसी
तरह फंडिंग एजेंसियों को उन मापदंडों में विविधता लानी होगी जिनके आधार पर वित्त
प्रदान करने के निर्णय किए जाते हैं। वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान के महत्व को
पहचानना और विज्ञान की अन्य शाखाओं के लिए इसके मूल्य और प्राकृतिक इतिहास संग्रह
का समर्थन करना ज़रूरी है।
विश्वविद्यालय
स्तर पर वनस्पति विज्ञान के पाठ्यक्रमों को प्रोत्साहित करना और फैकल्टी को इस तरह
संतुलित करना कि उन पाठ्यक्रम को पढ़ाने और वनस्पति विज्ञान में अनुसंधान करने में
सक्षम वैज्ञानिकों की पर्याप्त संख्या हो।
वैज्ञानिक
पत्रिकाओं के संपादकों को वनस्पति विज्ञान की जीव-स्तर की पांडुलिपियों के खिलाफ
संभावित पूर्वाग्रह से बचना होगा और बिब्लियोमेट्रिक्स के आधार पर अपनी पत्रिकाओं
का महत्व स्थापित करने की प्रवृत्ति से बचना होगा।
विज्ञान
अकादमियों को अपने घटकों को बॉटनी पर चर्चा हेतु प्रोत्साहित करना होगा।
मीडिया
में आम जनता के लिये वनस्पति विज्ञान का कवरेज बढ़ाना। जिसमें पौधों के बारे में
हमारे ज्ञान और समाज में उनके महत्व और प्राकृतिक इतिहास संग्रह की प्रासंगिकता और
पौधों तथा अन्य जीवों की पहचान करने में सक्षम व्यक्तियों को महत्व देना शामिल है।
शिक्षकों
को हमारे युवाओं के बीच जीवन के अंतर-सम्बंधों की भूमिका और मानव के अस्तित्व के
लिए पौधों के महत्व और जैव विविधता के महत्व को समझाना होगा।
कुल मिलाकर पूरी दुनिया में वनस्पति विज्ञान के अध्यापन की मौजूदा स्थिति बहुत ही खराब है; हम सबके जीवन से सीधे तौर पर जुड़े इस विषय की महत्ता को पुन: स्थापित करने के लिए अभी से युद्ध स्तर पर गंभीर प्रयास करने होंगे। तभी कुछ अच्छे नतीजों की आशा की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i2.wp.com/www.botany.one/wp-content/uploads/2020/12/EndOfBotany.jpg?resize=780%2C520&ssl=1
एक अध्ययन से पता चला है कि वैज्ञानिक साहित्य में कंप्यूटर
प्रोग्राम द्वारा रचे गए बेमतलब शोध पत्रों की संख्या काफी अधिक है। यदि प्रकाशकों
द्वारा कार्यवाही की जाती है तो 200 से अधिक शोध पत्र हटाए जा सकते हैं।
यह मुद्दा सबसे पहले तब सामने आया जब 2005 में तीन पीएचडी छात्रों ने शोध पत्र
बनाने वाला SCIgen नामक सॉफ्टवेयर तैयार किया।
वे बताना चाहते थे कि कुछ सम्मेलनों में अर्थहीन पेपर भी स्वीकार किए जाते हैं। यह
सॉफ्टवेयर बेतरतीब शीर्षकों, शब्दों और चार्ट्स के माध्यम
से शोध आलेख तैयार करता है। मानव पाठक इसकी निरर्थकता को बहुत ही आसानी से पकड़
सकते हैं।
वर्ष 2012 तक कंप्यूटर वैज्ञानिक सिरिल लेबे ने SCIgen की मदद से तैयार किए गए 85 नकली पत्रों का पता लगाया था जो
IEEE द्वारा प्रकाशित किए जा चुके
हैं। इसके अलावा एक अन्य प्रकाशक स्प्रिंगर द्वारा भी कई नकली शोध पत्र प्रकाशित
किए गए हैं। हालांकि, ये लेख या तो वापस ले लिए गए या हटा दिए गए
हैं। फिर भी लेबे ने एक वेबसाइट शुरू की है जिसमें कोई भी पेपर या शोध पत्र अपलोड
कर सकता है और पता लगा सकता है कि यह SCIgen की मदद से तैयार किया गया है या नहीं। स्प्रिंगर ने भी ऐसे पत्रों का पता
लगाने के लिए SciDetect नामक सॉफ्टवेयर तैयार किया
है।
इन कूट-रचित पर्चों का पता लगाने के लिए पहले तो लेबे ने SCIgen की शब्दावली के विशिष्ट शब्दों
का सहारा लिया। फ्रांस के एक अन्य वैज्ञानिक ने SCIgen रचित पर्चों में प्रमुख वैयाकरणिक तत्वों का पता लगाने का
काम किया। पिछले महीने ही दोनों ने डायमेंशन डैटाबेस में मौजूद लाखों पर्चों में
ऐसे वाक्यांशों की खोज की है। इस अध्ययन में उन्होंने 243 ऐसे लेख पाए जो पूर्ण या
आंशिक रूप से SCIgen की मदद से तैयार किए गए थे।
ये लेख 2008 से 2020 के दौरान प्रकाशित किए गए हैं और मुख्य रूप से कंप्यूटर साइंस
क्षेत्र के जर्नल, सम्मेलनों, प्रीप्रिंट
साइट्स में छपे हैं। इनमें से कुछ तो ओपन-एक्सेस जर्नल में प्रकशित हुए हैं। 46
पर्चों को वेबसाइटों से वापस ले लिया या हटा दिया गया है। पिछले वर्ष वैज्ञानिकों
ने 20 अन्य पेपर्स को भी हटाया है जो MATHgen (गणित) और SBIR प्रपोज़ल जनरेटर द्वारा रचे गए
थे।
गौरतलब है कि SCIgen की मदद से तैयार किए गए अधिकांश नवीनतम पेपर चीन (64 प्रतिशत) और भारत (22
प्रतिशत) के शोधकर्ताओं द्वारा लिखे गए हैं। कुछ लेखकों ने बताया कि उनका नाम उनसे
पूछे बगैर शामिल किया गया है। लेकिन कई लेख वास्तविक संदर्भ सूची के साथ प्रस्तुत
किए गए हैं। लगता है कि वैज्ञानिकों की प्रकाशन-प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ऐसा किया
गया है।
SCIgen रचित दो ऐसे पेपर्स का पता
लगा है जिन्हें IEEE ने वापस नहीं लिया है। इसी
तरह स्प्रिंगर का भी एक पेपर वापस नहीं लिया गया है जिसमें कुछ भाग MATHgen द्वारा रचित है। इस पड़ताल से
कुछ प्रकाशक बहुत चिंतित हैं क्योंकि इससे यह भी पता चलता है कि इन सभी पेपर्स की
विशेषज्ञ समीक्षा के दौरान ये पेपर्स पकड़े नहीं जा सके थे। यानी इस प्रक्रिया के
साथ भी समझौता हुआ था।
SCIgen की मदद रचित सबसे अधिक
सामग्री को प्रकाशित करने वालों में स्विस ट्रांस टेक पब्लिकेशन्स (57), भारत स्थित ब्लू आईज़ इंटेलिजेंस इंजीनियरिंग एंड साइंस पब्लिकेशन (BEIESP, 54) और फ्रांस स्थित अटलांटिस
प्रेस (39) है। ट्रांस टेक और अटलांटिस ने लेखों को वापस लेते हुए इस पर जांच करने
की बात कही है जबकि BEIESP का
कहना है कि वह मूल सामग्री पर आधारित पेपर गहन समकक्ष समीक्षा और सभी तरह की जांच
के बाद ही प्रकाशित करता है।
एक अध्ययन में पता चला है कि समकक्ष समीक्षा के पहले पेपर साझा करने वाले एक
सर्वर (SSRN), पर भी SCIgen रचित 16 लेख प्रकाशित हुए हैं
जिनकी जांच जारी है। ऐसे में वैज्ञानिकों को अपारदर्शी तरीकों से शोध पत्रों को
प्रकाशित करने को लेकर काफी चिंता है। उदाहरण के लिए IEEE ने तो अपनी वेबसाइट से ऐसे शोध पत्रों को तो हटा लिया है
और अन्य प्रकाशकों को औपचारिक तौर पर ऐसे पत्र हटाने के संदेश भी दिए हैं। SSRN सर्वर से कुछ पेपर्स तो बिना
किसी रिकॉर्ड के हटा दिए गए हैं।
वैसे तो SCIgen की मदद से तैयार किए गए पेपर्स की संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है लेकिन इस तरह के पेपर्स का प्रकाशित होना वैज्ञानिक प्रकाशन की परंपरा के लिए काफी खतरनाक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-021-00733-5/d41586-021-00733-5_18989362.jpg
मार्च 2020 में मिशिगन विश्वविद्यालय की कैंसर विज्ञानी रेशमा
जग्सी ने कोविड-19 महामारी के महिला वैज्ञानिकों के काम पर पड़ने वाले प्रतिकूल
प्रभाव के बारे में पूर्वानुमान लगाते हुए एक राय लिखी थी। डैटा न होने के कारण संपादकों
ने इस राय को प्रकाशित करने से मना कर दिया था। लेकिन इसके बाद से कई टिप्पणीकार
यही बात दोहराते आए हैं। अब अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों से स्पष्ट हो गया है कि
कोविड-19 महामारी में पहले से व्याप्त असमानताएं और बढ़ गर्इं हैं, इस दौर ने महिला वैज्ञानिकों के लिए नई चुनौतियां खड़ी की हैं। खासकर जिन
महिला वैज्ञानिकों के बच्चे हैं उन्होंने अपना अनुसंधान कार्य करते रहने के लिए
अतिरिक्त संघर्ष किया है।
कुछ विषयों में किए गए अध्ययन के डैटा से पता चलता है कि कोरोना महामारी के
शुरुआती महीनों में भेजे गए प्रीप्रिंट्स, पांडुलिपियों, और प्रकाशित शोधपत्रों में महिला लेखकों की संख्या में कमी आई है। 20,000
शोधकर्ताओं पर वैश्विक स्तर पर किए गए सर्वेक्षण में पाया गया है कि इस दौरान
पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में माता-वैज्ञानिकों के अनुसंधान कार्यों के घंटों में
33 प्रतिशत अधिक की कमी आई है। मई 2020 से जुलाई 2020 तक हुए सर्वेक्षण में यह भी
पाया गया कि माता-वैज्ञानिकों ने पिता-वैज्ञानिकों की तुलना में अधिक घरेलू
दायित्व निभाए और बच्चों की देखभाल करने में अधिक समय बिताया।
लेकिन इस दौरान थोड़ी सकारात्मक बातें भी दिखीं। एक फंडिंग एजेंसी ने महामारी
के दौरान बढ़ी लैंगिक असमानता को पहचाना और उसमें सुधार के प्रयास किए। दरअसल, फरवरी 2020 में केनेडियन स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान ने कोविड-19 सम्बंधी शोध
कार्यों के लिए अनुदान की पेशकश की थी, जिसमें एजेंसी ने
शोधकर्ताओं को प्रस्ताव भेजने के लिए महज़ 8 दिन की मोहलत दी थी। यह कनाडा में
तालाबंदी के पहले की बात है। लेकिन उन्होंने देखा कि प्राप्त प्रस्तावों में से केवल
29 प्रतिशत प्रस्ताव ही महिला शोधकर्ताओं द्वारा भेजे गए थे, यह संख्या पूर्व में भेजे जाने वाले प्रस्तावों की संख्या से लगभग सात प्रतिशत
कम थी।
संख्या में इतना अंतर देखने के बाद संस्थान के इंस्टीट्यूट ऑफ जेंडर एंड हेल्थ
की निदेशक कारा तेनेनबॉम को लगा कि हमने कहीं कुछ गलती कर दी है। इसीलिए जब
संस्थान ने दो महीने बाद कोविड-19 शोध कार्यों के लिए दोबारा प्रस्ताव मंगाए तो
उन्होंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा को 8 दिन से बढ़ाकर 19 दिन कर दी और दस्तावेज़ी
कार्रवाइयां भी कम कर दीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में
के अनुसार दूसरे दौर में महिलाओं द्वारा भेजे गए प्रस्तावों की संख्या बढ़कर 39
प्रतिशत हो गई थी।
संस्थान द्वारा मांगे गए प्रस्तावों के संदर्भ में लावल युनिवर्सिटी की
स्वास्थ्य शोधकर्ता होली विटमैन अपना अनुभव बताती हैं, “जब
पहली बार मैंने प्रस्ताव भेजने की समय सीमा महज़ 8 दिन देखी तो मैंने सोचा कि दो
बच्चों और अपनी स्वास्थ्य स्थिति के साथ इतने कम समय में अनुदान के लिए देर रात तक
बैठकर प्रस्ताव लिखना और भेजना संभव नहीं है। लेकिन जब अनुदान के लिए दोबारा
प्रस्ताव मांगे गए तो प्रस्ताव लिखने के लिए पर्याप्त समय था, जिसमें अंतत: मुझे अनुदान मिला भी।”
महामारी के दौर में अधिकांश शोधकर्ताओं के शोध कार्य के घंटों में कमी आई।
ताज़ा अध्ययन बताते हैं कि पालक-शोधकर्ताओं, खासकर
माता-शोधकर्ताओं के काम के घंटों में बहुत कमी आई है। पिता की तुलना में माताओं ने
बच्चे की देखभाल और गृहकार्य करने में अधिक समय बिताया। इस संदर्भ में सान्ता
क्लारा युनिवर्सिटी की रॉबिन नेल्सन बताती हैं कि पिछले साल की तुलना में
कोरोनाकाल में उनके काम के घंटे घटकर आधे हो गए हैं क्योंकि उनके दो बच्चे अब घर
पर होते हैं। कुछ शोधकर्ता अन्य की तुलना में अधिक बाधाओं में काम कर रहे हैं।
इसलिए हमें अब अनुदान की प्रक्रिया, समय सीमा, नीतियों आदि पर सवाल उठाने चाहिए।
बोस्टन विश्वविद्यालय के इकॉलॉजिस्ट रॉबिन्सन फुलवाइलर का कहना है कि विश्वविद्यालयों और फंडिंग एजेंसियों को वैज्ञानिकों को यह बताने का भी विकल्प देना चाहिए कि कोविड-19 ने उनके काम में किस तरह की बाधा डाली या प्रभावित किया। इसके अलावा नियोक्ताओं को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी शोधकर्ताओं को ठीक-ठाक झूलाघर जैसी सुविधाएं मिलें। फुलवाइलर और अन्य माता-वैज्ञानिकों ने प्लॉस बायोलॉजी में इस तरह की व कई अन्य सिफारिशें की हैं। कोरोनाकाल में और स्पष्ट होती असमानता को अब दूर करने के प्रयास करने का वक्त है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0212NID_Mother_Child_online.jpg?itok=KtvdvK2V