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पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सर्विस की हालिया रिपोर्ट में औसत सतही तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि दर्ज की गई है। 2023 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह झुलसा देने वाली गर्मी उस जलवायु से चिंताजनक प्रस्थान का संकेत देती है जिसमें हमारी सभ्यता विकसित हुई।
यह तो स्थापित है कि इस दीर्घकालिक वार्मिंग के प्रमुख दोषी जीवाश्म ईंधन हैं। लेकिन 2023 में हुई अतिरिक्त वृद्धि से वैज्ञानिक असमंजस में हैं। इस अतिरिक्त वृद्धि को मात्र जीवाश्म ईंधन दहन के आधार पर नहीं समझा जा सकता।
लगता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का एक कारक दो जलवायु पैटर्न के बीच अंतर है। 2020 से 2022 तक ला-नीना जलवायु पैटर्न रहा। इसके तहत प्रशांत महासागर की गहराइयों का ठंडा पानी सतह पर आ जाता है और वातावरण को ठंडा रखता है। लेकिन 2023 में ला नीना समाप्त हो गया और उसके स्थान पर एक अन्य पैटर्न एल नीनो प्रभावी हो गया जिसने प्रशांत महासागर पर गर्म पानी की चादर फैला दी और वातावरण गर्म होने लगा। आम तौर पर एल नीनो अपनी शुरुआत के एक वर्ष बाद वैश्विक तापमान पर असर दिखाता है। लेकिन इस बार 2023 में एल नीनो शुरू हुआ और इसी वर्ष असर दिखाने लगा। और तो और, प्रभाव एल नीनो क्षेत्र से दूर तक हुआ है – उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों से ऊपर तक।
2022 में हुए हुंगा टोंगा-हुंगा हपाई ज्वालामुखी विस्फोट को तापमान में वृद्धि का प्रमुख ज़िम्मेदार माना जा रहा था। यह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया था कि इस विस्फोट ने समताप मंडल में भारी मात्रा में जलवाष्प छोड़ी जिसकी वजह से वातावरण गर्म हुआ। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विस्फोट के साथ सल्फेट कण भी बिखरे होंगे और इन कणों ने प्रकाश को परावर्तित कर दिया होगा जिसके चलते वातावरण ठंडा हुआ होगा। गणनाओं के अनुसार इन सल्फेट कणों ने जलवाष्प द्वारा उत्पन्न वार्मिंग प्रभाव को काफी हद तक कम किया होगा। गणनाएं यह भी बताती हैं कि इन दो विपरीत घटनाओं के प्रभाव के चलते यह विस्फोट तापमान वृद्धि की दृष्टि से उदासीन ही रहा होगा।
2023 में अतिरिक्त तापमान वृद्धि की सर्वोत्तम व्याख्या शायद यह है कि वातावरण में प्रकाश अवरोधी प्रदूषण का स्तर कम हो गया है। इसका प्रमुख कारण स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का बढ़ता उपयोग है।
नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञानी तियानले युआन के अनुसार प्रदूषण में कमी, विशेषत: जहाजों द्वारा उत्सर्जित सल्फर कणों में कमी, ने अनजाने में प्रकाश को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करने वाले बादलों को कम किया है। उपग्रह अवलोकनों से पता चला है कि 2022 के बाद से इन बादलों में कमी आई है। सिर्फ इन बादलों का कम होना पिछले दशक में हुई तापमान वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।
प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन द्वारा नवंबर 2023 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रदूषण में कमी से तापमान में 0.27 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है, जबकि 1970 और 2010 के बीच प्रति दशक वृद्धि 0.18 डिग्री सेल्सियस ही रही थी। यह वृद्धि अभी तक गहरे समुद्र के तापमान में नहीं देखी गई है। इसकी मदद से दीर्घकालिक रुझानों की अधिक सटीक जानकारी मिल सकती है।
बहरहाल, पिछले वर्ष की इन गुत्थियों ने भविष्य के अनुमानों पर अनिश्चितता पैदा की है। इसके साथ ही एल नीनो अस्थायी रूप से वैश्विक तापमान को पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ा सकता है। लेकिन इस इन्तहाई गर्मी का उत्तरी महासागरों के तापमान में वृद्धि का रूप लेने में समय लगेगा और तभी पूरे विश्व के स्तर पर पेरिस सीमा का उल्लंघन होगा। फिर भी, दीर्घकालिक वार्मिंग पैटर्न की निरंतरता तब तक जारी रहेगी जब तक जीवाश्म ईंधन जलाना बंद नहीं हो जाता। यह निष्कर्ष कार्रवाई की ज़रूरत का आह्वान है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ticotimes.net/wp-content/uploads/2024/01/hottest-year.jpg
यहां दिए गए ग्राफ में साफ दिखता है कि वर्ष 2023 में धरती की सतह का औसत तापमान उद्योग पूर्व समय (1850-1900) के औसत तापमान से 1.48 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा। अर्थात यह पिछले 50 वर्षों में सबसे अधिक गर्म साल रहा है। ये आंकड़े युरोपीय संघ के कॉपरनिकस क्लायमेट चेंज सर्विस द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)
जलवायु परिवर्तन के कारण कुछ जीवों के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है। निरंतर बढ़ते तापमान की स्थिति में जीवित रहने के लिए वे निशाचर बन रहे हैं। हाल ही में ब्राज़ील के पेंटानल वेटलैंड्स में पाए जाने वाले सफेद होंठ वाले पेकेरी (Tayassu pecari) पर अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार आम तौर पर दिन के समय सक्रिय रहने वाला यह जीव अत्यधिक गर्मी के दौरान रात के समय अधिक गतिविधि करता पाया गया है।
बायोट्रॉपिका में प्रकाशित अध्ययन की सहलेखक मिशेला पीटरसन ने जलवायु परिवर्तन से जूझ रही प्रजातियों के लिए अनुकूलन विधि के रूप में इस प्रकार के व्यवहारिक लचीलेपन पर प्रकाश डाला है। अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 27 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में पेकेरी दोपहर के समय सबसे अधिक सक्रिय थे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, उनकी गतिविधि सुबह के समय होने लगी, और दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर, उनकी चरम सक्रियता सूर्यास्त के बाद देखी गई।
शोधकर्ताओं ने विशाल एंट-ईटर और चीतों जैसी अन्य प्रजातियों के व्यवहार में भी इसी तरह के बदलाव देखे हैं, जो जीवों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन का संकेत देते हैं। दूसरी ओर, लीडेन विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी विज्ञानी माइकल वेल्डुई के अनुसार इन परिवर्तनों के दीर्घकालिक प्रभाव पर अभी भी अनिश्चितता है तथा और अधिक शोध की आवश्यकता बनी हुई है।
गौरतलब है कि जीवों का निशाचर व्यवहार दिन की गर्मी से राहत देता है लेकिन यह प्यूमा जैसे निशाचर शिकारियों का शिकार बनने का जोखिम भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त, रात की गतिविधि में परिवर्तन इन जीवों को भोजन स्रोतों का पता लगाने में भी मुश्किल पैदा कर सकता है। हालांकि, शोधकर्ता अभी भी इस व्यवहारिक समायोजन को एक स्थायी बदलाव के रूप में नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि संभवत: ये जीव अभी भी दिन की गतिविधि को प्राथमिकता दे रहे हों और केवल अत्यधिक गर्मी के दौरान रात में भोजन की तलाश का विकल्प अपना रहे हों।
कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि दिन के उजाले के आदी जीव संभव होने पर रात की गतिविधि से परहेज़ कर सकते हैं। पेकेरी की सुबह की गतिविधि में प्रारंभिक बदलाव इस ओर संकेत देता है कि वे रात की स्थितियों की तुलना में अधिक उपलब्ध रोशनी के साथ ठंडे तापमान को प्राथमिकता देते हैं।
इस दिशा में चल रहे अध्ययन जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जीवों के अनुकूलन की जटिलता पर ज़ोर देते हैं। यह वन्यजीवों के बदलते आवासों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए लचीलापन और संभावित चुनौतियों का भी संकेत देते हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/95772092-7381-4A2E-B630B7DA88205B24_source.jpg?w=1200
हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने पिछले 1,26,000 वर्षों में मानव गतिविधियों के कारण पक्षियों की विलुप्ति के चौंकाने वाले आंकड़े उजागर किए हैं। पूर्व में किए गए अनुमानों से आगे जाकर इस शोध ने लगभग 1500 पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे मनुष्यों को दोषी पाया है। यह आंकड़ा पूर्व अनुमानित संख्या से दुगना है जो पक्षियों की जैव विविधता पर मानव गतिविधियों के गहरे प्रभाव का संकेत देता है।
सदियों से ज़मीनें साफ करके, शिकार और बाहरी प्रजातियों को नए इलाकों में पहुंचाने जैसे मानवीय कारकों की वजह से पक्षियों की विलुप्ति होती रही है। यह प्रभाव विशेष रूप से द्वीपों जैसे अलग-थलग पारिस्थितिक तंत्रों में विनाशकारी रहा है और पक्षियों की 90 प्रतिशत ज्ञात विलुप्तियां ऐसे ही स्थानों पर होने की संभावना है। स्थिति को समझने में सबसे बड़ी चुनौती पक्षियों का हल्का वज़न और खोखली हड्डियां हैं जिनके कारण उनके अवशेषों का जीवाश्म के रूप में भलीभांति संरक्षण नहीं होता है। इसलिए पक्षी विलुप्ति के अधिकांश विश्लेषण लिखित रिकॉर्ड के आधार पर किए गए हैं जो पिछले 500 वर्षों से ही उपलब्ध हैं।
इस दिक्कत से निपटने के लिए, यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी के रॉब कुक और उनकी टीम ने 1488 द्वीपों में दस्तावेज़ीकृत विलुप्तियों, जीवाश्म रिकॉर्ड और अनुमानित अनदेखी विलुप्तियों के अनुमानों को जोड़कर कुल विलुप्तियों का एक व्यापक मॉडल तैयार किया। अनदेखी विलुप्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्होंने द्वीप के आकार, जलवायु और अलग-थलग होने की स्थिति जैसे कारकों के आधार पर प्रजातियों की समृद्धता का आकलन किया। उनका निष्कर्ष है कि मानवीय गतिविधियों के कारण प्लायस्टोसीन युग के अंतिम दौर के बाद से वैश्विक स्तर पर लगभग 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियां विलुप्त हुई हैं। अध्ययनकर्ताओं का मत है कि इनमें से आधे से अधिक पक्षियों को तो इंसानों ने देखा भी नहीं होगा और न ही उनके जीवाश्म बच पाए होंगे।
इस विलुप्ति में विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र के हवाई द्वीप, मार्केसस द्वीप और न्यूज़ीलैंड को सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ा जहां विलुप्त पक्षियों का लगभग दो-तिहाई हिस्सा केंद्रित था। अध्ययन से पता चलता है कि महाविलुप्ति की शुरुआत लगभग 700 वर्ष पूर्व हुई जब इन द्वीपों पर मनुष्यों का आगमन हुआ। इसके नतीजे में विलुप्त होने की दर में 80 गुना वृद्धि हुई।
शोध के ये परिणाम नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। कार्लस्टेड विश्वविद्यालय के फोल्मर बोकमा के अनुसार इन नुकसानों को समझकर अधिक प्रभावी जैव विविधता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। एडिलेड विश्वविद्यालय के जेमी वुड का कहना है कि इस अध्ययन ने दर्शाया है कि पक्षियों की विलुप्ति के अनुमान कम लगाए गए थे और वास्तविक स्थिति शायद इस अध्ययन के आकलन से भी ज़्यादा भयावह है। (स्रोत फीचर्स)
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हिमालय के बारे में एक बड़ी वैज्ञानिक सच्चाई यह है कि ये पर्वत बाहरी तौर पर कितने ही भव्य व विशाल हों, पर भू-विज्ञान के स्तर पर इनकी आयु अपेक्षाकृत कम है, इनकी प्राकृतिक निर्माण प्रक्रियाएं अभी चल रही हैं व इस कारण इनमें अस्थिरता व हलचल है। इस वजह से इनसे अधिक छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए, और जहां ऐसा करना निहायत ज़रूरी है वहां बहुत सावधानी के साथ करना चाहिए।
अत: यहां के विभिन्न निर्माणों के सम्बंध में भू-वैज्ञानिक प्राय: हमें याद दिलाते रहते हैं कि विभिन्न ज़रूरी सावधानियों को अपनाओ – आगे बढ़ने से पहले भूमि की ठीक से जांच करो, उतना ही निर्माण करो जितना ज़रूरी है, उसे अनावश्यक रूप से बड़ा न करो व अनावश्यक विस्तार से बचो। विशेष तौर पर भू-वैज्ञानिक व पर्यावरणविद कहते रहे हैं कि निर्माण में विस्फोटकों के उपयोग से बचें या इसे न्यूनतम रखें, वृक्ष-कटाई को न्यूनतम रखा जाए, प्राकृतिक वनों की भरपूर रक्षा की जाए। प्राकृतिक वनों की भरपाई नए वृक्षारोपण से नहीं हो सकती है। किसी बड़े निर्माण से पहले मलबे की सही व्यवस्था का नियोजन पहले करना होगा, उचित निपटान करना होगा। सबसे महत्वपूर्ण सावधानी यह रखनी होगी कि मलबा नदियों में न फेंके व हर तरह से सुनिश्चित करें कि नदियां सुरक्षित बनी रहें।
दुर्भाग्यवश हिमालय में निर्माण कार्यों सम्बंधी इन सावधानियों को वैज्ञानिक पत्रों में चाहे जितना महत्व मिला हो, लेकिन ज़मीनी स्तर पर हाल में इनकी बड़े स्तर पर और बार-बार अवहेलना हुई है। इस स्थिति में अनेक वैज्ञानिकों व पर्यावरणविदों ने यह मांग की है कि विभिन्न निर्माण परियोजनाओं के पर्यावरणीय आकलन को मज़बूत किया जाए ताकि सावधानियों व चेतावनियों का पालन हो सके।
उत्तराखंड हिमालय में करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र बनेे अनेक तीर्थ स्थान हैं, जिनमें चार तीर्थस्थान या चार धाम (गंगोत्री, यमनोत्री, बद्रीनाथ, केदारनाथ) विशेषकर विख्यात हैं। इन चार धामों तक पहुंचने वाले, इन्हें जोड़ने वाले हाईवे को चौड़ा करने और हर मौसम में इनकी यात्रा सुनिश्चित करवाने वाली परियोजना बनाई गई। इसमें हाईवे को अत्यधिक चौड़ा करने व इसमें अनेक सुरंगें बनाने का प्रावधान था। इससे बहुत वृक्षों को काटना होता व हिमालय में अत्यधिक छेड़छाड़ होने पर पर्यावरण रक्षा के आधार पर विरोध हो सकता था। अत: इन निर्माणों को तेज़ी से आगे बढ़ाने वालों ने प्राय: यह प्रयास किया कि इस चारधाम हाईवे विस्तार को कई छोटे-छोटे भागों में बांटकर इसे पर्यावरणीय आकलन के दायरे से काफी हद तक बाहर कर लिया। ऊंचे हिमालय पहाड़ों में जो क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील हैं, अब उनकी रक्षा के लिए चल रहे प्रयास, वहां के वृक्षों की रक्षा के प्रयास भी अधिक कठिन हो गए। तिस पर अदालती स्तर पर हरी झंडी मिलने के बाद चारधाम हाईवे व सुरंगों के निर्माण कार्य और भी तेज़ी से आगे बढ़ने लगे।
यदि भू-वैज्ञानिकों की बात मानी जाती तो हाईवे को उतना ही चौड़ा किया जाता जितना कि बहुत ज़रूरी था, और इस तरह बहुत से पेड़ों को कटने से बचा लिया जाता और बहुत सी आजीविकाओं व खेतों की भी रक्षा हो जाती। यदि भू-वैज्ञानिकों की बात मानी जाती तो विस्फोटकों का उपयोग न्यूनतम होता, मलबे की मात्रा को न्यूनतम किया जाता व उसको सुरक्षित तौर पर ठिकाने लगाने की पूरी तैयारी की जाती। तब मलबा डालने से या अन्य कारणों से नदियों की कोई क्षति न होती, सुरंगों का निर्माण वहीं होता जहां बहुत ज़रूरी था तथा वह भी सारी सावधानियों के साथ। पर इन सब सावधानियों का उल्लंघन होता रहा व परिणाम यह हुआ कि यहां बड़ी संख्या में वृक्ष कटने लगे व भू-स्खलन व बाढ का खतरा बढ़ने लगा, नदियां अधिक संकटग्रस्त होने लगीं व अनेक प्राकृतिक जल-स्रोत नष्ट होने लगे व हाईवे के आसपास के गांवों में बहुत सी ऐसी क्षति होने लगी जिनसे बचा जा सकता था। सड़क पर होने वाले भूस्खलन तो बाहरी लोगों को नज़र भी आते थे, पर गांवों में होने वाली क्षति तो प्राय: सामने भी नहीं आ पाई।
इसी सिलसिले में सिल्कयारा की दुर्घटना हुई व एक बड़े व सराहनीय बचाव प्रयास के बाद ही इस सुरंग में फंसे 41 मज़दूरों को बचाया जा सका। इस बचाव प्रयास में तथाकथित ‘रैट माईनर्स’ यानी बहुत निर्धनता की स्थिति में रहने वाले खनिकों का विशेष योगदान रहा। इस हादसे के दौरान ही यह तथ्य सामने आया कि इस सुरंग निर्माण के दौर में पहले भी अनेक दुर्घटनाएं हो चुकी हैं लेकिन इसके बावजूद समुचित सावधानियां नहीं अपनाई गई थीं। दुर्घटना के बाद अन्य सुरंग-निर्माणों में सुरक्षा आकलन के निर्देश भी जारी किए गए। उम्मीद है कि इसका असर पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में भी होगा जहां हाल ही में उच्च स्तर पर अधिक सुरंग निर्माण पर जोर दिया गया था।
हिमालय क्षेत्र में अधिक तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों का स्वागत करना अच्छा लगता है, पर इसके लिए ऐसे तौर-तरीके नहीं अपनाने चाहिए जिनसे तीर्थ स्थान व उनके प्रवेश मार्ग ही संकटग्रस्त हो जाएं तथा पर्यावरण की बहुत क्षति हो जाए।
पर्यटक हिमालय के किसी सुंदर स्थान पर जाना चाहते हैं पर यदि विकास के नाम पर अत्यधिक निर्माण से उस स्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य ही नष्ट कर दिया जाए तो फिर यह विकास है या विनाश?
तीर्थ यात्रा तो वैसे भी आध्यात्मिकता से जुड़ी है, तो फिर तीर्थ स्थानों पर वाहनों का प्रदूषण, हेलीकॉप्टरों का शोर व वृक्षों का विनाश कैसे उचित ठहराया जा सकता है?
तीर्थ स्थानों व पर्यटन के संतुलित विकास से, विनाशमुक्त विकास से, स्थानीय लोगों की टिकाऊ आजीविकाएं जुड़ सकती हैं; वे पर्यटकों व तीर्थ यात्रियों के लिए हिमालय के तरह-तरह के स्वास्थ्य लाभ देने वाले खाद्य व औषधियां जुटा सकते हैं।
सामरिक दृष्टि से भी हिमालय क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण है और सड़कें व मार्ग सुरक्षित रहें, भूस्खलन व बाढ़ का खतरा न्यूनतम रहे यह सैनिकों के सुरक्षित आवागमन के लिए भी आवश्यक है।
और मुद्दा केवल चारधाम हाईवे का नहीं है बल्कि हिमालय का अधिक व्यापक मुद्दा है। यहां एक ओर सैकड़ों गांव ऐसे हैं जहां सड़क या मार्ग के अभाव में गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति या प्रसव-पीड़ा से गुज़र रही महिला को चारपाई पर या पीठ पर लाद कर मीलों चलना पड़ता है, जबकि अनावश्यक तौर पर चौड़ी सड़कों, अनगिनत सुरंगों के निर्माण व वृक्षों की कटाई से पर्यावरण की अत्यधिक क्षति होती है व जनजीवन संकटग्रस्त होता है, आपदाएं बढ़ती हैं।
अत: ज़रूरी है कि सड़क व हाईवे निर्माण में विशेषकर संतुलित, सुलझी हुई नीति अपनाई जाए जिससे लोगों की सुरक्षा बढ़े व पर्यावरण की रक्षा हो।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.youtube.com/watch?app=desktop&v=3TIW4NOEegQ
आजकल ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के गर्माने की बहुत बातें हो रहीं है। औद्योगीकरण के चलते हवा में कार्बन डाईऑक्साइड जैसी गैसों की मात्रा बढ़ी है, जिससे विश्व का औसत तापमान बढ़ता जा रहा है। यह एक बहुत ही धीमी रफ्तार से होने वाली प्रक्रिया है तथा तापमान में बदलाव भी बहुत थोड़ा-थोड़ा करके, एकाध डिग्री सेल्सियस से भी कम, होता है। हालांकि, इतने छोटे बदलाव से भी कई जगह अलग-अलग असर देखने को मिलते हैं। ये असर क्या हैं, उनके कारण पर्यावरण को क्या नुकसान हो रहे हैं या आगे क्या हो सकते हैं, यह जानने के लिए दुनिया में कई सारे वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।
इसी प्रयास में वैज्ञानिकों ने यह देखा है कि तापमान वृद्धि का बड़ा असर उत्तरी ध्रुव के बर्फीले प्रदेशों पर हो रहा है। बड़े-बड़े हिमखण्ड पिघल रहे हैं। ये परिणाम तो प्रत्यक्ष नज़र आते हैं जिन्हें देखना काफी आसान और संभव है। किंतु समुद्र के पानी में जो बदलाव हो रहा है वह जानना काफी मुश्किल है। वैज्ञानिक उन प्रभावों को ढूंढने और मापने के नए-नए तरीके खोजते रहते हैं।
अन्य जगहों के मुकाबले आर्कटिक वृत्त के पास के समंदरों के बारे में इस तरह की जानकारी पाना तो और भी मुश्किल है। यहां के समंदर का पानी साल भर काफी ठंडा रहता है। और तो और, जाड़े के मौसम में कई जगह बर्फ जम जाती है। यह हुई ऊपरी हिस्से की बात। जैसे-जैसे हम समंदर की गहराई में जाते हैं, पानी का तापमान और कम होता जाता है। ज़्यादा गहराई में जाने पर कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जहां पानी साल भर पूरी तरह बर्फ के रूप में जमा होता है और कभी पिघलता नहीं है। इसे समंदर के अंदर का स्थायी तुषार (पर्माफ्रॉस्ट) कहते है।
वैज्ञानिकों को आशंका थी कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण इस पर्माफ्रॉस्ट पर असर हुआ है और उस के कुछ हिस्से पिघलने लगे हैं। परंतु जहां पहुंचना भी मुश्किल है, वहां इतनी गहराई में उतरकर कुछ नाप-जोख कर पाना लगभग असंभव है।
हाल ही में साइंटिफिक अमेरिकन में छपी एक रिपोर्ट में एक नई तकनीक का ज़िक्र है जिसकी बदौलत अब हमें पर्माफ्रॉस्ट की हालत के बारे में जानकारी मिलना संभव हो गया गया है। पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने का अध्ययन इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि यदि यह बर्फ पिघली तो इसमें कैद कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन वगैरह वातावरण में पहुंचकर ग्लोबल वार्मिंग को और बढ़ा देंगी।
तो क्या है यह तकनीक? हम लोग केबल टीवी से तो काफी परिचित है। अपने घर के टीवी तक लगाए गए केबल के ज़रिए हम बहुत सारे टीवी चैनल देख पाते हैं। सिर्फ टीवी ही नहीं बल्कि हर प्रकार के संचार संकेतों के प्रेषण के लिए केबल डाली जाती है, जैसे टेलीफोन, टेलीग्राफ, इंटरनेट के लिए। जिस तरह हमारे शहरों में सड़कों के किनारे ज़मीन में केबल डाली जाती है, उसी तरह दो शहरों के बीच या दो देशों के बीच भी केबल रहती है। अलबत्ता यह केबल थोड़ी अलग किस्म की होती है। उनमें तार की जगह प्रकाशीय रेशों (ऑप्टिकल फाइबर) के बहुत से तंतु होते हैं। दो देश ज़मीन से जुड़े हों तो उनके बीच इस तरह की केबल डाली जा सकती है। परंतु यदि हमें इंग्लैंड और अमरीका के बीच केबल डालनी है तो? उनके बीच तो अटलांटिक महासागर है। ये केबल अब समंदर के पानी के अंदर (अंडर-सी) बिछानी पड़ेगी।
इस तरह की अंडर-सी केबल पहली बार 1858 में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच इंग्लिश चैनल के आर-पार डाली गई थी। उस समय यह केबल टेलीग्राफ के लिए इस्तेमाल की जाती थी और वह काफी प्राथमिक स्तर की थी। अब इनमें काफी सुधार हुए हैं। दुनिया के सभी महासागरों में इस तरह की केबल डाली जा चुकी हैं। आजकल दुनिया का अधिकतर दूरसंचार इसी तरह के केबल द्वारा होता है।
अब स्कूल में पढ़े कुछ विज्ञान को याद करते हैं। हम जानते हैं कि प्रकाश किरण एक सीधी रेखा में चलती है, पर माध्यम बदलने पर यह अपनी दिशा बदल लेती है। इसे हम अपवर्तन कहते हैं। माध्यम का घनत्व बदलने से भी प्रकाश किरणें दिशा बदलती हैं। इसका सामान्य उदाहरण मरीचिका है – यह प्रभाव इस कारण होता है कि गर्मी के दिनों में ज़मीन के पास की हवा अधिक गरम होने की वजह से विरल (कम घनत्व वाली) होती है।
सैंडिया नेशनल लेबोरेटरी के वैज्ञानिकों ने ध्यान दिया कि आर्कटिक वृत्त के समुद्र के तले में कई केबल डली हुई हैं। उसमें से कुछ अलास्का के ब्यूफोर्ट सागर के तले पर मौजूद पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र से गुज़र रही है। उन्होंने अंदाज़ लगाया कि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो दबाव पड़ा होगा उससे अंदर के तंतुओं पर कुछ असर हुआ होगा। अत: उस जगह हमें प्रकाश किरण का अपवर्तन और विक्षेपण (यानी बिखराव) दिखाई देगा। उन्होंने केबल के असंख्य तंतुओं में से एक ऐसा तंतु चुना जिसका उपयोग नहीं हो रहा था। उसमें एक लेज़र बीम छोड़ा और यह नापने की कोशिश की कि बीम का कहां-कहां और कैसे अपवर्तन तथा विक्षेपण होता है। चूंकि पर्माफ्रॉस्ट के कारण केबल पर जो असर हुआ वह बहुत सूक्ष्म था; लेज़र बीम में होने वाला बदलाव भी न के बराबर रहा। परंतु चार साल के अथक प्रयासों के बाद वैज्ञानिक अपने मकसद में कामयाब रहे। अब अलास्का के समुद्र के अंडर-सी पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के बारे में हमें कई सारी महत्वपूर्ण जानकारी मिली है। अब यह तरीका अन्य जगह भी लागू किया जा सकता है।
केबल पर पड़ने वाला दबाव, केबल का तापमान आदि कारणों से प्रकाश के संचार पर असर होता है। अत: इस अनुसंधान से विकसित की गई तकनीक की बदौलत जहां-जहां भी अंडर-सी केबल हैं वहां के समुद्र तल के बारे में नई जानकारी पाना संभव हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://diplo-media.s3.eu-central-1.amazonaws.com/2022/10/submarinecables-apr.2023.png
पक्षियों के रोएंदार पंख उनके शरीर की ऊष्मा बिखरने नहीं देते और उन्हें गर्म बनाए रखते हैं। दूसरी ओर, चोंच उन्हें ठंडा रखती है, जब शरीर बहुत अधिक गर्म हो जाता है तो चोंच से ही ऊष्मा बाहर निकालती है। लेकिन जब ज़्यादा संवेदी ताप नियंत्रक (thermostat) की ज़रूरत होती है, तो वे अपनी टांगों से काम लेते हैं।
ऑस्ट्रेलिया में चौदह पक्षी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन में पता चला है कि पक्षी अपने पैरों में रक्त प्रवाह को कम-ज़्यादा करके शरीर की गर्मी को कम-ज़्यादा बिखेर सकते हैं।
पक्षियों के शीतलक यानी उनकी चोंच और पैर में बेशुमार रक्तवाहिकाएं होती हैं और ये कुचालक पंखों से ढंकी नहीं होती हैं। इससे उन्हें गर्मी बढ़ने पर शरीर का तापमान कम करने में मदद मिलती है। इसलिए तोतों और उष्णकटिबंधीय जलवायु में रहने वाले अन्य पक्षियों की चोंच बड़ी और टांगें लंबी होती हैं।
लेकिन पक्षियों में ताप नियंत्रण से जुड़ी अधिकतर जानकारी प्रयोगशाला अध्ययनों पर आधारित थीं। सवाल था कि क्या प्राकृतिक परिस्थिति में यही बात लागू होती है? इसे जानने के लिए डीकिन विश्वविद्यालय की वैकासिक पारिस्थितिकीविद एलेक्ज़ेंड्रा मैकक्वीन ने प्राकृतिक आवासों में पक्षियों की ऊष्मीय तस्वीरें लीं।
ऊष्मा (अवरक्त) कैमरे की मदद से उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई वुड डक (Chenonetta jubata), बनफ्शी कीचमुर्गी (Porphyrio porphyrio), और बेमिसाल परी-पिद्दी (Malurus cyaneus) सहित कई पक्षी प्रजातियों की तस्वीरें लीं। तुलना के लिए उन्होंने हवा की गति, तापमान, आर्द्रता और सौर विकिरण भी मापा ताकि पक्षियों के शरीर की बाहरी सतह के तापमान की गणना कर सकें।
गर्मियों में, जब बाहर का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक होता है तो पक्षी शरीर की अतिरिक्त गर्मी को निकालने के लिए अपनी चोंच और टांगों दोनों का उपयोग करते हैं। सर्दियों में, जब बाहर का तापमान कम होता है, कभी-कभी 2.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो पक्षियों की चोंच तो गर्मी छोड़ती रहती है लेकिन उनकी टांगें ऊष्मा बिखेरना बंद कर देती हैं – उनके पैर ठंडे थे यानी उन्होंने पैरों में रक्त प्रवाह रोक (या बहुत कम कर) दिया था ताकि ऊष्मा का ह्रास कम रहे।
बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित ये निष्कर्ष ठीक ही लगते हैं, क्योंकि पक्षियों का अपनी चोंच की रक्त वाहिकाओं पर नियंत्रण कम होता है क्योंकि चोंच उनके मस्तिष्क के करीब होती है जहां निरंतर रक्त प्रवाह ज़रूरी है।
बहरहाल इस अध्ययन से यह समझने में मदद मिलती है कि ठंडी जलवायु में रहने वाले पक्षियों की चोंच छोटी क्यों होती है। साथ ही अनुमान है कि जैसे-जैसे वैश्विक तापमान बढ़ता जाएगा और पृथ्वी गर्म होती जाएगी तो संभव है कि वर्ष में बहुत अलग-अलग तापमान झेल रही पक्षी प्रजातियों की टांगें लंबी होती जाएंगी, जिनके रक्त प्रवाह और ऊष्मा के संतुलन पर पक्षी का अधिक नियंत्रण होता है।
फिलहाल उम्मीद है कि इस तरह के और भी अध्ययनों से यह बेहतर ढंग से समझने में मदद मिलेगी कि दुनिया भर के पक्षी जलवायु परिवर्तन से कैसे निपटेंगे। (स्रोत फीचर्स)
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विभिन्न कारणों से कई छोटी नदियों में पानी बहुत कम हो गया है और यदि उनकी स्थिति ऐसे ही बिगड़ती रही तो वे लुप्त हो जाएंगी। अत: समय रहते उन्हें नया जीवन देने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा ही एक प्रयास हाल ही में झांसी जिले में कनेरा नदी के मामले में किया गया। यह प्रशासन, पंचायतों व सामाजिक कार्यकर्ताओं का परस्पर सहयोगी प्रयास था जिसमें परमार्थ संस्था ने उल्लेखनीय योगदान दिया। यह संस्था बबीना ब्लाक के सरवा, भारदा, खरदा बुज़ुर्ग, पथरवाड़ा, दरपालपुर आदि गांवों में जल संरक्षण के लिए जागरूकता बढ़ाती रही है और विशेषकर महिलाओं ने ‘जल-सखी’ के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
यहां कनेरा नदी लगभग 19 कि.मी. तक बहती है जो आगे चलकर घुरारी नदी में मिलती है, और घुरारी आगे बेतवा में मिलती है। लगभग 20 वर्ष पहले कनेरा नदी में भरपूर पानी था, लेकिन धीरे-धीरे यह कम होता गया। हाल ही में इतना कम हो गया कि गांवों के भूजल-स्तर, सिंचाई, फसलों के उत्पादन आदि पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा।
इस स्थिति में पिस्ता देवी, पुष्पा देवी आदि जल-सखियों ने व परमार्थ संस्था के कार्यकर्ताओं ने लोगों को नदी को नया जीवन के प्रयासों के लिए जागृत किया। साथ ही में प्रशासन से व विशेषकर ज़िलाधिकारी से उत्साहवर्धक प्रोत्साहन भी प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप, नदी के बड़े क्षेत्र में गाद-मिट्टी हटाने का कार्य किया गया जिससे नदी की जल ग्रहण क्षमता बढ़ी। इस पर दो चेक डैम बनाए गए व आसपास बड़े स्तर पर वृक्षारोपण हुआ है। सरवा गांव के प्रधान ने बताया कि यदि पिचिंग का कार्य तथा एक और चेक डैम का कार्य हो जाए तो नदी की स्थिति बेहतर हो सकती है। वैसे अभी तक किए गए कार्य की बदौलत पहले की अपेक्षा कहीं अधिक किसान नदी से सिंचाई प्राप्त कर रहे हैं; नदियों में मछलियों के पनपने की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हो गई है; नदी में पानी अधिक होने से लगभग पांच गांवों के जल-स्तर में सुधार हुआ है; कुंओं में भी अब अधिक जल उपलब्ध है और पशुओं को अब वर्ष भर नदी के पानी से अपनी प्यास बुझाने का अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त आगे बहने वाली घुरारी नदी से अतिरिक्त मिट्टी-गाद हटा कर सफाई की गई है।
बरूआ नदी तालबेहट प्रखंड (ललितपुर जिला, उत्तर प्रदेश) में 16 कि.मी. तक बहती है और आगे जामनी नदी में मिलती है। इस पर पहले बना चेक डैम टूट-फूट गया था व खनन माफिया ने अधिक बालू निकालकर भी इस नदी की बहुत क्षति की थी। इस स्थिति में इसकी रक्षा हेतु समिति का गठन हुआ। नया चेक डैम बनाने के पर्याप्त संसाधन न होने के कारण यहां रेत भरी बोरियों का चेक डैम बनाने का निर्णय लिया गया।
लगभग 5000 बोरियां परमार्थ ने उपलब्ध करवाई। इन्हें गांववासियों, विशेषकर विजयपुरा की महिलाओं, ने रेत से भरा व नदी तक ले गए और वहां विशेष तरह से जमाया। इस तरह बिना किसी मज़दूरी या बड़े बजट के अपनी मेहनत के बल पर बोरियों का चेकडैम बनाया गया। इससे सैकड़ों किसानों को बेहतर सिंचाई प्राप्त हुई। जल-स्तर भी बढ़ा। गांववासियों व विशेषकर महिलाओं ने खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाही के लिए प्रशासन से संपर्क किया व प्रशासन ने इस बारे में कार्यवाही भी की। आपसी सहयोग से नदी के आसपास हज़ारों पेड़ लगाए गए। नदी में गंदगी या कूड़ा डालने के विरुद्ध अभियान चलाया गया। नदी पर एक घाट भी बनाया गया।
हाल के जल-संरक्षण कार्यों से टीकमगढ़ ज़िले (मध्य प्रदेश) के मोहनगढ़ ब्लॉक की बरगी नदी को नया जीवन मिला है। इन्हें आगे ले जाने में परमार्थ संस्था व उससे जुड़ी जल-सहेलियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसे कुछ जल-संरक्षण कार्य नाबार्ड की एक वाटरशेड परियोजना के अंतर्गत किए गए जिससे यहां नदी-नालों के बेहतर बहाव में भी सहायता मिली। इसके लिए नए निर्माण कार्य भी हुए व पुराने क्षतिग्रस्त कार्यों (जैसे चैक डैम आदि) की मरम्मत भी की गई।
इसी प्रकार से छतरपुर ज़िले (मध्य प्रदेश) में बछेड़ी नदी के पुनर्जीवन के भी कुछ उल्लेखनीय प्रयास हाल के समय में हुए हैं जिनमें स्थानीय प्रशासन, परमार्थ संस्था और पंचायत का सहयोग देखा गया। चेक डैमों की मरम्मत हुई, नए चेक डैम बनाए गए व वृक्षारोपण भी किया गया।(स्रोत फीचर्स)
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इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि भारत और दुनिया भर में पक्षियों की प्रजातियां और पक्षियों की संख्या तेज़ी से कम हो रही है। मानव गतिविधि जनित जलवायु परिवर्तन के अलावा, प्रदूषण, कीटनाशकों का उपयोग, सिमटते प्राकृतवास और शिकार इनकी विलुप्ति का कारण है। और अब इस बारे में भी जागरूकता काफी बढ़ रही है कि रात के समय किया जाने वाला कृत्रिम उजाला पक्षियों की कई प्रजातियों का बड़ा हत्यारा है।
साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित अपने एक लेख में नॉर्थ कैरोलिना के जोशुआ सोकोल ने इस नाटकीय प्रभाव का वर्णन किया है। 2001 में हुए 9/11 हमले की याद में न्यूयॉर्क शहर में दो गगनचुंबी प्रकाश स्तम्भ, ट्रायब्यूट इन लाइट, स्थापित किए गए हैं और पक्षियों की आबादी पर इनका प्रभाव पड़ रहा है। 11 सितंबर की रात में जब ये दो प्रकाश स्तम्भ ऊपर आकाश तक जगमगाते हैं तो ये फुदकी (warbler), समुद्री पक्षी (seabird), कस्तूर (thrush) जैसे हज़ारों प्रवासी पक्षियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसके साथ ही शाहीन बाज़ (peregrine falcons) जैसे शिकारी पक्षी प्रवासी पक्षियों के इस भ्रम का फायदा उठाने और उन्हें चट करने को तत्पर होते हैं।
लेख के अनुसार, 20 मिनट के भीतर ट्रायब्यूट इन लाइट प्रकाश स्तम्भ के आधे किलोमीटर के दायरे में करीब 16,000 पक्षी इकट्ठे हो जाते हैं; साल में एक बार होने वाला यह आयोजन दस लाख से अधिक पक्षियों को एक जगह इकट्ठा कर देता है।
और जब चिंतित पर्यवेक्षक देखते हैं कि इसके चलते वहां बहुत सारे पक्षी जमा हो रहे हैं, तो आयोजक रोशनी कम कर देते हैं। और अब, यहां मौसम विज्ञानियों द्वारा कुल वर्षा का अनुमान लगाने के लिए उपयोग की जाने वाली एक रडार-आधारित प्रणाली स्थापित है जिसका उपयोग 11 सितंबर को पक्षियों की गिनती करने के लिए भी किया जाता है। साथ ही, पूरे साल के दौरान पूरे महाद्वीप में प्रवासी पक्षियों की आवाजाही का अनुमान लगाने के लिए भी। लेख के अनुसार, 11 सितंबर का अध्ययन बताता है कि रात में शहरों की जगमगाती रोशनी का प्रवासी पक्षियों के उड़ान पथ पर क्या प्रभाव हो सकता है। “समय के साथ ट्रायब्यूट इन लाइट की रोशनी से भटककर मंडराते हुए पक्षियों की ऊर्जा (शरीर की चर्बी) चुक जाती है, जिस कारण वे शिकारियों के आसान लक्ष्य बन जाते हैं। और सबसे बुरी बात यह है कि वे पास की इमारतों की खिड़कियों से टकराकर गंभीर रूप से घायल हो सकते हैं या मर सकते हैं।”
लेख कहता है कि यह अच्छी बात है कि ये अध्ययन जारी हैं, क्योंकि पक्षियों की घटती संख्या चिंताजनक है। अकेले उत्तरी अमेरिका में, 1970 के बाद से 2019 तक पक्षियों की संख्या में 3 अरब से अधिक की कमी आई है।
भारत की बात करें तो वेदर चैनल (Weather Channel) नामक एक पोर्टल की रिपोर्ट है कि भारत की 867 पक्षी प्रजातियों में से 80 प्रतिशत प्रजातियों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आई है, और इनमें से 101 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ये नतीजे देश भर के 15,500 पक्षी निरीक्षकों द्वारा किए गए एक करोड़ से अधिक अवलोकनों के आधार पर दिए गए हैं।
दुनिया भर में पक्षियों की कम होती संख्या और विविधता का गंभीर प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर पड़ रहा है। पक्षियों से हमें मिलने वाला पहला लाभ (या यू कहें कि सेवा) है कीट नियंत्रण। अनुमान है कि पक्षीगण एक साल में तकरीबन 40-50 करोड़ टन कीट खा जाते हैं। शिकारियों के कुनबे में भी पक्षी महत्वपूर्ण हैं; वे शिकार कर चूहों जैसे कुतरने वाले जीवों की आबादी को नियंत्रित रखते हैं। लेकिन पक्षियों के लिए खेती में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशकों का असर बाकी किसी भी कारक से अधिक नुकसानदायक होगा।
कृषि के इतर भी पक्षी पौधों और शाकाहारियों, शिकार और शिकारियों का संतुलन बनाए रखते हैं, जिससे दलदल और घास के मैदान पनपते हैं। और ये दलदल और घास के मैदान वे प्राकृतिक एजेंट हैं जो कार्बन भंडारण करते हैं, जलवायु को स्थिर रखते हैं, ऑक्सीजन देते हैं और प्रदूषकों को पोषक तत्वों में बदलते हैं। यदि पक्षी न होते तो इनमें से कई पारिस्थितिक तंत्र अस्तित्व में ही नहीं होते।
और हालांकि हम तितलियों और मधुमक्खियों को सबसे महत्वपूर्ण परागणकर्ता मानते हैं, लेकिन कई ऐसे पौधे हैं जिनका परागण पक्षियों द्वारा होता है। जिन फूलों में गंध नहीं होती, और हमारे द्वारा भोजन या औषधि के रूप में उपयोग किए जाने वाले 5 प्रतिशत पौधों का परागण पक्षियों द्वारा होता है। इसके अलावा पक्षियों की बीज फैलाने में भी भूमिका होती है। जब पक्षी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, तो उनके द्वारा खाए गए बीज भी उनके साथ वहां पहुंच जाते हैं, जो मल त्याग से बाहर निकल वहां फैल जाते हैं। पक्षी नष्ट हो चुके पारिस्थितिकी तंत्र को फिर से जिलाते हैं (बीजों के माध्यम से), पौधों को समुद्र के पार भी ले जाते हैं और वहां के भूदृश्य को बदल सकते हैं। न्यूज़ीलैंड के एक करोड़ हैक्टर में फैले जंगल में से 70 प्रतिशत जंगल पक्षियों द्वारा फैलाए गए बीजों से उगा है।
दुनिया भर में संरक्षण के लिए काम करने वाली संस्था एनडेन्जर्ड स्पीशीज़ इंटरनेशनल का कहना है कि “कुछ पक्षियों को मुख्य (कीस्टोन) प्रजाति माना जाता है क्योंकि पारिस्थितिकी तंत्र में उनकी उपस्थिति (या अनुपस्थिति) अन्य प्रजातियों को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती है।” उदाहरण के लिए, कठफोड़वा पेड़ों में कोटर बनाते हैं जिनका उपयोग बाद में कई अन्य प्रजातियों द्वारा किया जाता है। डोडो के विलुप्त होने के बाद यह पता चला कि एक पेड़, जिसके फल डोडो का प्रमुख भोजन थे, के बीज डोडो के पाचन तंत्र से गुज़रे बिना अंकुरित होने में असमर्थ थे – डोडो का पाचन तंत्र बीज के आवरण को गला देता था और अंकुरण को संभव बनाता था।
पक्षी जो दूसरी भूमिका निभाते हैं वह है सफाई का काम। यह तो हम जानते हैं कि गिद्ध एक घंटे के भीतर मृत जानवर तक पहुंच जाते हैं, और फिर उसके पूरे शरीर और सभी अवशेषों का निपटान कर देते हैं। यही कार्य यदि जंगली कुत्तों या चूहों पर छोड़ दिया जाए तो शव (या अवशेष) के निपटान में कई दिन लग सकते हैं, जिससे सड़न और बीमारी फैल सकती है। बर्डलाइफ इंटरनेशनल पोर्टल का अनुमान है कि भारत में गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण जंगली कुत्तों की आबादी 55 लाख तक बढ़ गई है, जिसके कारण रेबीज़ के मामले बढ़ गए हैं, और 47,300 लोगों की मौत हो गई है।
पारिस्थितिकी को बनाए रखने में इतनी सारी भूमिकाएं होने के साथ ही पक्षी इस तरह अनुकूलित हैं कि वे लंबा प्रवास कर अपने माकूल स्थानों पर जाते हैं। इस तरह, ठंडे उत्तरी ध्रुव के अरबों पक्षी सर्दियों के लिए दक्षिण की ओर प्रवास करते हैं, और फिर मौसम बदलने पर वापस घर की ओर उड़ जाते हैं। और हालांकि इस प्रवासन की अपनी कीमत (जोखिम) और मृत्यु की आशंका होती है, लेकिन ये पैटर्न प्रजनन मौसम में फिट बैठता है और संख्या बरकरार रहती है।
लेकिन रात के समय पक्षियों के उड़ान पथ पर चमकीली रोशनियां और जगमगाते शहर पक्षियों के दिशाज्ञान को प्रभावित करते हैं और भ्रम पैदा करते हैं। इसके चलते ऊर्जा की बर्बादी होती है, भिड़ंत होती है और समूह टूटता है – और शिकारियों के मज़े होते हैं। रात के समय दूर के शहर से आने वाली रोशनी भी आकाशगंगा की रोशनी का भ्रम दे सकती है और पक्षियों के दिशा बोध को बिगाड़ सकती है। पक्षियों में चमकदार रोशनी के प्रति जो रहस्यमयी आकर्षण होता है, वह पक्षियों को तेज़ रोशनी वाली खिड़की के शीशों की ओर जाने को उकसाता है!
यह कोई हालिया घटना नहीं है। वर्ष 1880 में, साइंटफिक अमेरिकन ने अपने एक लेख में बताया था कि रात की रोशनी में पक्षी उलझ जाते थे। लाइटहाउस के प्रकाश का पक्षियों पर प्रभाव जानने के उद्देश्य से हुए एक अध्ययन में सामने आया था कि इससे दस लाख से अधिक पक्षी प्रभावित हुए और इसके चलते ढेरों पक्षी मारे गए।
न्यूयॉर्क में ट्रायब्यूट इन लाइट का अनुभव नाटकीय रूप से उस क्षति की विकरालता को सामने लाता है जो रात की प्रकाश व्यवस्था से पक्षियों की आबादी को होती है। साइंटिफिक अमेरिकन का एक लेख बताता है कि अब रात के समय अत्यधिक तीव्र प्रकाश वाले क्षेत्रों के मानचित्र बनाने के लिए उपग्रह इमेजिंग का, और पक्षियों व उनकी संख्या को ट्रैक करने के लिए रडार का उपयोग नियमित रूप से किया जाता है। इस तरह, अमेरिका में उन शहरों की पहचान की जा रही है जिनकी रोशनी का स्तर प्रवासी पक्षियों को प्रभावित करने की सबसे अधिक संभावना रखता है। इसके अलावा बर्डकास्ट नामक एक कार्यक्रम महाद्वीप-स्तर पर मौसम और रडार डैटा को एक साथ रखता है और मशीन लर्निंग का उपयोग करके ठीक उन रातों का पूर्वानुमान लगाता है जब लाखों प्रवासी पक्षी अमेरिकी शहरों के ऊपर से उड़ेंगे।
यह जानकारी पक्षियों के संरक्षण के प्रति जागरूक समूहों को उनके उड़ान पथ में पड़ने वाले शहरों से प्रकाश तीव्रता नियंत्रित करने वगैरह की पैरवी करने में सक्षम बनाती है। उनके ये प्रयास प्रभावी भी रहे हैं – न्यूयॉर्क शहर ने एक अध्यादेश पारित किया है जिसके तहत प्रवासन के मौसम में इमारतों को रोशनी बंद करनी होती है। इस जागरूकता का प्रचार दर्जनों अन्य शहरों में भी जारी है।
यह एक ऐसा आंदोलन है जिसे दुनिया भर में जड़ें फैलाने की ज़रूरत है, ताकि एक ऐसे महत्वपूर्ण अभिकर्ता को संरक्षित किया जा सके जो पारिस्थितिकी को व्यवस्थित रखता है और एक ऐसी त्रासदी से बचा जा सके जो पृथ्वी को टिकाऊ बनाए रखने के अन्य प्रयासों पर पानी फेर सकती है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.squarespace-cdn.com/content/v1/5e4dcfa1e504ff32ed1f51b4/1585146667639-4976XJ85Q8SEIL4XSNZK/light-pollution-x.png
दुबई में चल रहे जलवायु सम्मेलन (कॉप-28) के संदर्भ में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हम पेरिस समझौते (2015) के लक्ष्य की दिशा में कारगर प्रगति कर रहे हैं। पेरिस समझौते में पृथ्वी के औसत तापमान में वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व तापमान से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने का लक्ष्य रखा गया था। यह सम्मेलन इस प्रगति का मूल्यांकन करने का औपचारिक अवसर है।
वैसे तो विभिन्न सरकारें निवेश में वृद्धि एवं नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत अपनाने के साथ जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास कर रही हैं, लेकिन ये प्रयास काफी धीमी गति से हो रहे हैं। अब तक की प्रगति पर एक नज़र डालते हैं और देखते हैं कि पेरिस समझौते के सपने को जीवित रखने के लिए क्या करना होगा।
बढ़तेतापमानकीहकीकत
स्थिति काफी गंभीर है। पिछले एक दशक में ग्लोबल वार्मिंग की गति तेज़ हुई है। वर्ष 2022 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.3 डिग्री अधिक रहा था और एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2023 में औसत तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.4 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहेगा। यह स्थिति एक दशक से भी कम समय में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचने का संकेत देती है। इसके अलावा उष्णकटिबंधीय प्रशांत क्षेत्र में चल रहे एल-नीनो प्रभाव वगैरह कम समय में तापमान पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं।
जलवायु मॉडलों का अनुमान है कि 2100 तक तापमान में औद्योगिक-पूर्व स्तर से 2.4-2.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होगी। इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर तत्काल अंकुश लगाने की आवश्यकता स्पष्ट है।
देरीकेपरिणाम
काफी लंबे समय से विशेषज्ञ जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दों पर जल्द से जल्द कार्रवाई करने पर ज़ोर देते रहे हैं। तीन दशक पहले, 1992 में वैश्विक नेताओं ने तेज़ी से बदल रही जलवायु को नियंत्रित करने के लिए प्रतिबद्धता जताई थी। लेकिन हालिया रुझानों से पता चलता है कि उत्सर्जन की मौजूदा दर पांच वर्षों के भीतर वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ा देगी।
तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रहने की 50 प्रतिशत संभावना बनाए रखने के लिए 2034 तक उत्सर्जन में सालाना 8 प्रतिशत की कमी करनी होगी, जो कि कठिन लगती है। तुलना के लिए, 2020 में महामारी के दौरान उत्सर्जन में मात्र 7 प्रतिशत की कमी देखी गई थी जब कामकाज लगभग ठप था।
कार्बनहटानेकामामला
उत्सर्जन को लेकर इस तरह की ढिलाई को देखते हुए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार करने से बचने के लिए विशेषज्ञ वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड को हटाने की वकालत करते हैं। इसे ऋणात्मक उत्सर्जन भी कहा जा रहा है। इसके लिए प्राकृतिक तरीके (जैसे जंगल लगाना या समुद्रों में ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड को सोखना) तथा औद्योगिक तरीके भी शामिल हैं। लेकिन जलवायु मॉडल वातावरण से कार्बन हटाने के तरीकों की मापनीयता और प्रभाविता को लेकर अनिश्चित हैं। और तो और, ऐसे किसी भी उपाय के साइड इफेक्ट भी होंगे।
इसके अलावा, इन समाधानों को लागू करने के लिए पर्याप्त निवेश और गहन शोध की आवश्यकता होगी, जिसकी संभावित लागत खरबों डॉलर तक हो सकती है। विशेषज्ञों के अनुसार यदि इस तकनीक का उपयोग किया जाता है तो वैश्विक तापमान को महज़ 0.1 डिग्री सेल्सियस कम करने में 22 ट्रिलियन डॉलर खर्च होंगे। यह लागत पिछले साल विश्व भर की सरकारों और व्यवसायों द्वारा किए गए वार्षिक जलवायु व्यय से लगभग 16 गुना अधिक है। बेहतर तो यही होगा कि उत्सर्जन पर लगाम कसी जाए। फिर भी कई विशेषज्ञों का मत है कि कार्बन हटाने का उपाय अपनाना होगा।
उत्सर्जनपरअंकुश
महामारी के दौरान जीवाश्म ईंधन से होने वाले वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में कमी के बाद अब यह बढ़कर 37.2 अरब टन प्रति वर्ष के नए शिखर पर पहुंच गया है। दूसरी ओर, तमाम चुनौतियों के बावजूद नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन भी तेज़ी से बढ़ रहा है और दुनिया भर में पर्याप्त निवेश भी आकर्षित कर रहा है। इससे शायद जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम हो।
अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के अनुसार आने वाले वर्षों में वार्षिक जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन चरम पहुंच जाएगा जिसके बाद 2030 तक घटकर 35 अरब टन वार्षिक रह जाएगा। 2015 के स्तर से सालाना 7.5 अरब टन सालाना की यह कमी एक बड़े परिवर्तन की द्योतक है।
स्वच्छबिजली
वैश्विक तापमान को कम रखने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए बिजली ग्रिड में व्यापक परिवर्तन की आवश्यकता है। इसके लिए पारेषण व वितरण लाइनों का समन्वय बिजली उत्पादन की नई परियोजनाओं के साथ करना होगा। इस तरह से स्वच्छ ऊर्जा से संचालित एक संशोधित ग्रिड उत्सर्जन को आधा कर सकती है।
अलबत्ता, इसमें कई चुनौतियां हैं। इसके लिए नवीकरणीय और कम उत्सर्जन वाले ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता 2050 तक लगभग 77 ट्रिलियन टेरावाट घंटे सालाना तक बढ़ाते हुए 2040 तक कोयला, गैस और तेल को लगभग पूरी तरह से समाप्त करना होगा। बड़ी चुनौती भारी उद्योग, विमानन, परिवहन, कृषि और खाद्य प्रणालियों जैसे क्षेत्र हैं। इसके अलावा, मीथेन जैसी अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से निपटना भी महत्वपूर्ण होगा।
ज़िम्मेदारियांऔरवित्तीयनिवेश
ऐतिहासिक रूप से औद्योगिक राष्ट्र ही अधिकांश ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के ज़िम्मेदार रहे हैं। अब चीन और भारत जैसे विकासशील देशों का उत्सर्जन बढ़ रहा है। वैसे, चीन स्वच्छ ऊर्जा के क्षेत्र में गहन प्रयास कर रहा है, फिर भी ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दें, तो अन्य कम आय वाले देशों में काम काफी धीमी गति से चल रहा है।
गौरतलब है कि हाल के वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में काफी वृद्धि हुई है, लेकिन भविष्य की वित्तीय प्रतिबद्धता स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने में तेज़ी और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए आवश्यक है।
निवेशमेंवृद्धि
पिछले कुछ वर्षों में वैश्विक जलवायु निवेश में वृद्धि हुई है। वर्ष 2021 में 1.1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश वर्ष 2022 में 1.4 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया। जलवायु सम्बंधी खर्च को 2035 तक लगभग 11 ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ाने की आवश्यकता है।
सालाना 1 ट्रिलियन डॉलर की प्रत्यक्ष जीवाश्म ईंधन सब्सिडी सहित विभिन्न स्रोतों से धन का नए ढंग से आवंटन एक अच्छा विकल्प है। लेकिन कमज़ोर समुदायों पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों के कारण इन सब्सिडीज़ को खत्म करना एक बड़ी चुनौती है। इस महत्वपूर्ण परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिए विशेषज्ञ ठोस तथा तत्काल प्रयास और राजनीतिक दृढ़ संकल्प पर ज़ोर देते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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