जल संकट: प्रकृति का प्रकोप या मानव की महत्वाकांक्षा

देवेश शांडिल्य

विगत गर्मियों में बैंगलोर शहर सुर्खियों में रहा, कारण था जल संकट। अब, जहां-तहां से बाढ़ की खबरें आ रही हैं। यह बात विचारणीय है कि यह सूखे और बाढ़ का चक्र विगत कुछ वर्षों से काफी तेज़ी से घूम रहा है।

इस घटनाक्रम पर विचार करने पर शायद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सब प्रकृति का प्रकोप है। लॉकडाउन के दौरान जब मानव गतिविधियां सीमित हो गई थीं और मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कम हो गया था, तब हवा की गुणवत्ता, जो AQI द्वारा प्रदर्शित होती, में काफी सुधार देखा गया था। स्वच्छ जल की स्रोत, नदियों की TDS (जल में घुलित अशुद्धियों) की रीडिंग भी सुधर गई थी। प्रदूषण पर नियंत्रण लगते ही मानव को शुद्ध वायु और शुद्ध जल प्राप्त होने लगे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि नदियों को माता कहकर पूजने वाले ही उनके सबसे बड़े अपराधी हैं। आज हमें उनको पूजने से ज़्यादा उनको समझने की ज़रूरत है।

अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते मानव ने शहरों का डामरीकरण करना, कॉन्क्रीट के जंगल खड़े करना, हर तरफ सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इससे एक तरफ तो मानव सभ्यता काफी उन्नत हुई, हमने सुख के साधन बटोरे और यातायात को सुगम और सुलभ बनाया। वहीं दूसरी ओर, इनके कारण जो बरसात का जल मिट्टी के माध्यम से धरती में जाना था, वही अब सीमेंट और डामर की सड़कों से होता हुआ नालों के माध्यम से नदियों में जाता है। एक तरफ तो ऐसा अचानक जल भराव और साथ में उचित ड्रेनेज की कमी के कारण बाढ़ का रूप लेकर तबाही फैलाता है। वहीं दूसरी ओर, पानी के तुरंत बह जाने से और धरती में न समाने से भूजलस्तर में कमी के चलते सूखे के हालत बनते हैं।

तो क्या हम विकास और विकास-जनित विनाश के बीच कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकते जिससे संपूर्ण मानवता विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए संभावित विनाश से बच सके?

दरअसल, ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें ध्यान में रख कर योजनाएं बनाई जाएं और परियोजनाओं का क्रियान्वन किया जाए तो समाज के सभी वर्गों को ही नहीं, पर्यावरण को भी लाभ पहुंचेगा। अमीर उद्योगपति से लेकर गरीब गड़रिये तक तथा शहरी नागरिक से लेकर जंगल के जानवर तक लाभान्वित होंगे। अत: हमें योजना बनाते वक्त यह विचार करना चाहिए कि उसके क्रियान्वयन से किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं और कौन–कौन से लक्ष्य बिना अतिरिक्त व्यय और व्यवधान के प्राप्त हो सकते हैं।

ऐसे कई मॉडल उपलब्ध हैं। मसलन एक प्रयास बॉरो पिट्स (Borrow pits) का है। इसके तहत हाईवे बनाने के लिए सामग्री आसपास से ली जाती है और उसके कारण बने गड्ढे का उपयोग तालाब के रूप में किया जाता है। ये शिकागो और ओहायो में हाईवे के किनारे बनाए जाते हैं जिनमें मछली पालन आदि कार्य होते हैं।

भारत में भी नेशनल रोड एंड हाईवे डेवलपमेन्ट अथॉरिटी द्वारा अमृत सरोवर के नाम से यह काम किया जा रहा है। आगे हम एक ऐसे ही मॉडल की चर्चा करेंगे।

जब हम कोई निर्माण कार्य करते हैं जैसे सड़क, पुल या रेल की पटरी बिछाना आदि, तो उसमें हमें कई बार मिट्टी का भराव करना पड़ता है। इस मिट्टी का खनन अगर अनुशासित तरीके से किया जाए तो इसी खुदाई से आसपास के गांवों, तहसील या जंगल की शासकीय ज़मीन पर तालाबों का निर्माण हो सकता है। निर्माण कार्य के लिए मिट्टी भी उपलब्ध हो जाएगी और बिना किसी अतिरिक्त व्यय के तालाब भी तैयार हो जाएगा। यह अगर जंगल में बना तो वन्य प्राणियों को गर्मी के दिनों में पानी उपलब्‍ध कराएगा। तालाब शहरों के आसपास बनें तो वहां के भूजलस्तर में सुधार आएगा। गांव के आसपास बनने पर भूजलस्तर के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी क्योंकि गांव में जल केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मछली पालन तथा तालाब आधारित खेती (जैसे सिंघाड़ा, कमल) आदि आर्थिक गतिविधियों का भी आधार होता है। अर्थात ये तालाब न केवल राज्य की आय बल्कि व्यक्तिगत आय और भोजन सम्बंधित समस्या भी हल कर सकेगी।

जल की एक बूंद तो ऐसी पूंजी है जिसे कमाया नहीं जा सकता। ऐसे में इसका संरक्षण ही इसका निर्माण है।

उदाहरण के लिए यदि एक सड़क का निर्माण होता है, जिसकी लंबाई 100 मीटर, चौड़ाई 4 मीटर है तथा 16 सेंटीमीटर की गहराई तक पुरनी के लिए एक ही स्थान से मिट्टी खोदें, तोे वहां 64,000 लीटर क्षमता का गड्ढा या तालाब तैयार हो जाएगा।

एक गाय या भैंस साधारणत: 80-100 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करती है। तो हमारे पास 2 गाय अथवा 2 भैंस के लिए कम से कम 320 दिन का पानी हो गया। एक बकरी अथवा भेड़ लगभग 10 लीटर पानी उपयोग करती है तो यह 20 जानवरों के लिए 320 दिन का पानी होगा।

2010 के बाद से भारत में सड़क निर्माण की गति तेज़ हो गई है। 2014-15 में यह औसतन लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन और 2018-19 में 30 किलोमीटर प्रतिदिन थी। देश का लक्ष्य प्रतिदिन 40 किलोमीटर राजमार्ग बनाना है। जिनकी चौड़ाई 12 मीटर रहेगी। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम जल संग्रहण की कितनी क्षमता विकसित कर सकते थे या आज भी कर सकते हैं। और यह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट ही नहीं अपितु घर बनाते समय नींव में भरी जाने वाली मिट्टी के साथ भी छोटे पैमाने पर कर सकते हैं।

अत: केवल सड़क निर्माण के कार्य को थोड़े से अलग ढंग से करके सरकार सड़कों के माध्यम से न केवल उद्योगपतियों को मूलभूत अधोसंरचना उपलब्‍ध कराएगी, अपितु इसमें गांव की अर्थव्यवस्था का लाभांश भी सुनिश्चित करेगी। और इस तरह यह मानव सभ्यता से लेकर वन्य जीवन को लाभान्वित करेगा और सह-अस्तित्व का नया अध्याय आरम्भ होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायु प्रदूषण और हड्डियों की कमज़ोरी

भारत में बड़ी संख्या में लोग अधेड़ उम्र से ही घुटने के दर्द (Knee Pain) जैसी समस्याओं से जूझते हैं। कुछ मामलों में तो लोग ठीक से चल भी नहीं पाते या चलते-चलते अक्सर गिर जाते हैं। दरअसल, यह अस्थिछिद्रता (Osteoporosis) नामक स्थिति है जिसमें हड्डियों का घनत्व (Bone Density) कम हो जाता है और वे भुरभरी हो जाती हैं। हल्की-सी टक्कर से उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। एक बड़ी समस्या यह है कि इस स्थिति पर तब तक किसी का ध्यान नहीं जाता जब तक कोई गंभीर चोट न लग जाए। यह दुनिया भर में 50 से ज़्यादा उम्र की लगभग एक तिहाई महिलाओं और 20 प्रतिशत पुरुषों को प्रभावित करती है। संभव है कि भारत के तकरीबन 6 करोड़ लोग अस्थिछिद्रता से पीड़ित हैं, लेकिन इसके सटीक आंकड़े जुटाना काफी मुश्किल है।

अस्थिछिद्रता के कई कारण होते हैं – जैसे हार्मोनल परिवर्तन (Hormonal Changes), व्यायाम की कमी (Lack of Exercise), मादक पदार्थों का सेवन (Substance Abuse) और धूम्रपान (Smoking)। लेकिन भारत में एक और कारक इसमें योगदान दे रहा है: वायु प्रदूषण (Air Pollution)।

अध्ययनों से पता चलता है कि उच्च प्रदूषण स्तर (High Pollution Levels) वाले क्षेत्रों में अस्थिछिद्रता का प्रकोप अधिक है। भारतीय शहर और गांव अपनी प्रदूषित हवा (Polluted Air) के लिए कुख्यात हैं, इसलिए शोधकर्ता धुंध (Smog) और भंगुर हड्डियों (Brittle Bones) के बीच जैविक सम्बंधों की जांच कर रहे हैं।

ऑस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis) शब्द 1830 के दशक में फ्रांसीसी रोगविज्ञानी जीन लोबस्टीन ने दिया था। तब से, वैज्ञानिकों ने हड्डियों की क्षति (Bone Damage) की प्रक्रिया और कई जोखिम कारकों (Risk Factors) की पहचान की है। 2007 में, नॉर्वे में किए गए एक अध्ययन ने पहली बार वायु प्रदूषण और हड्डियों के घनत्व में कमी (Bone Density Loss) के बीच सम्बंध का संकेत दिया था। इसके बाद विभिन्न देशों में किए गए शोध ने भी इस सम्बंध को प्रमाणित किया है।

2017 में इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन के डिडियर प्राडा और उनकी टीम ने उत्तर-पूर्वी यूएस के 65 वर्ष से अधिक उम्र के 92 लाख व्यक्तियों के डैटा विश्लेषण में पाया कि महीन कण पदार्थ (PM 2.5) और ब्लैक कार्बन के अधिक संपर्क (Exposure to Black Carbon) में रहने से हड्डियों के फ्रैक्चर (Bone Fractures) और अस्थिछिद्रता की दर में वृद्धि हुई। इसके बाद 2020 में किए गए शोध ने रजोनिवृत्त महिलाओं (Postmenopausal Women) में अस्थिछिद्रता के कारकों की फेहरिस्त में एक अन्य प्रमुख प्रदूषक, नाइट्रोजन ऑक्साइड (Nitrogen Oxides), को जोड़ा।

यूके में, लगभग साढ़े चार लाख लोगों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि अधिक प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वालों में फ्रैक्चर का जोखिम (Fracture Risk) 15 प्रतिशत अधिक था। इसी तरह, दक्षिण भारत के एक अध्ययन में पाया गया कि अधिक प्रदूषित गांवों (Polluted Villages) के निवासियों की हड्डियों में खनिज और हड्डियों का घनत्व काफी कम था।

चीन में भी वायु प्रदूषण (Air Pollution in China) और अस्थिछिद्रता के बीच सम्बंध देखा गया है। शैंडोंग प्रांत में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि थोड़े समय के लिए भी यातायात से सम्बंधित प्रदूषकों (Traffic-Related Pollutants) के संपर्क में आने से अस्थिछिद्रता जनित फ्रैक्चर (Osteoporosis-Induced Fractures) का खतरा बढ़ता है। एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रामीण निवासियों को भी इसी तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ता है।

फिलहाल, शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि प्रदूषक किस तरह से हड्डियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसमें एक प्रत्यक्ष कारक ज़मीन के निकट पाई जाने वाली ओज़ोन (Ground-Level Ozone) है, जो प्रदूषण के कारण पैदा होती है। यह विटामिन डी (Vitamin D) के उत्पादन के लिए आवश्यक पराबैंगनी प्रकाश को कम कर सकती है, जो हड्डियों के विकास (Bone Development) के लिए आवश्यक है। कोशिकीय स्तर पर, प्रदूषक से मुक्त मूलक (Free Radicals) बनते हैं जो डीएनए और प्रोटीन को नुकसान पहुंचाते हैं, सूजन (Inflammation) को बढ़ाते हैं और अस्थि ऊतकों के नवीनीकरण (Bone Tissue Renewal) में बाधा डालते हैं।

ये निष्कर्ष भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं, जहां 1998 से 2021 तक कणीय वायु प्रदूषण (Particulate Air Pollution) लगभग 68 प्रतिशत बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels) और कृषि अवशेषों (Agricultural Residue Burning) को जलाने के साथ-साथ चूल्हों पर खाना पकाने से समस्या बढ़ जाती है। आज भी कई भारतीय महिलाएं पारंपरिक चूल्हे (Traditional Stove Cooking) पर खाना बनाती हैं, जिससे उनकी हड्डियों की हालत खस्ता हो सकती है।

प्रदूषण और अस्थिछिद्रता के बीच इस सम्बंध से प्रदूषण कम करने (Pollution Control) के लिए प्रभावी कार्रवाई की आवश्यकता स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त, अस्थिछिद्रता के निदान (Osteoporosis Diagnosis) को बेहतर करना ज़रूरी है। अस्थि घनत्व की जांच (Bone Density Test) के लिए ज़रूरी DEXA स्कैनरों की भारी कमी है, जो महंगे हैं और मात्र बड़े शहरों में उपलब्ध हैं। समय पर समस्या का पता चलने से हड्डियों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। फिलहाल अस्थिछिद्रता से पीड़ित बहुत से लोग बिना निदान और इलाज (Osteoporosis Treatment) के तकलीफ झेलते हैं, जो वायु प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारकों (Environmental Factors) से और भी बढ़ जाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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स्वच्छ पानी के लिए बढ़ाना होगा भूजल स्तर

सुदर्शन सोलंकी

पानी की कमी (Water Scarcity) दुनिया की प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं (Environmental Issues) में से एक है। दुनिया की अधिकांश आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां पानी सीमित है या अत्यधिक प्रदूषित (Water Pollution) है। जल प्रदूषण (Water Contamination) स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है।

नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) में प्रकाशित एक अध्ययन ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि पानी की कमी पर शोध प्रमुखत: पानी की मात्रा पर केंद्रित होते हैं, जबकि पानी की गुणवत्ता (Water Quality) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों (Surface Water Sources) का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है।

प्रदूषित (Polluted) होने के साथ ही जल स्रोत तेज़ी से अपनी ऑक्सीजन खो रहे हैं। इनमें नदियां (Rivers), झरने, झीलें (Lakes), तालाब, और महासागर (Oceans) भी शामिल हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, जब पानी में ऑक्सीजन का स्तर गिरता है, तो यह प्रजातियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है और पूरे खाद्य जाल (Food Chain) को बदल सकता है।

सेंट्रल वॉटर कमीशन (Central Water Commission) और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (Central Ground Water Board) के पुनर्गठन की कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कई प्रायद्वीपीय नदियों में मानसून (Monsoon) में तो पानी होता है, लेकिन मानसून के बाद इनके सूख जाने का संकट बना रहता है। देश के ज़्यादातर हिस्सों में भूजल (Groundwater) का स्तर बहुत नीचे चला गया है, जिसके कारण कई जगहों पर भूमिगत जल में फ्लोराइड (Fluoride), आर्सेनिक (Arsenic), आयरन (Iron), मरक्यूरी (Mercury) और यहां तक कि युरेनियम (Uranium) भी मौजूद है।

दुनिया भर में लगभग 1.1 अरब लोगों के पास पानी की पहुंच (Water Access) नहीं है, और कुल 2.7 अरब लोगों को साल के कम से कम एक महीने पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। अपर्याप्त स्वच्छता (Inadequate Sanitation) भी 2.4 अरब लोगों के लिए एक समस्या है – वे हैजा (Cholera) और टाइफाइड (Typhoid) जैसी बीमारियों और अन्य जल जनित बीमारियों (Waterborne Diseases) के संपर्क में हैं। हर साल बीस लाख लोग, जिनमें ज़्यादातर बच्चे शामिल हैं, सिर्फ डायरिया (Diarrhea) से मरते हैं।

बेंगलुरु (Bengaluru) जैसे बड़े शहर जल संकट (Water Crisis) से जूझ रहे हैं, जहां इस साल टैंकरों से पानी पहुंचाना पड़ा। दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को रोज़मर्रा के कामों के लिए भी पानी की किल्लत झेलनी पड़ती है। राजस्थान के कुछ सूखे इलाकों में तो हालात और भी खराब रहते हैं।

भारत, दुनिया में सबसे ज़्यादा भूजल का इस्तेमाल (Groundwater Usage) करने वाला देश है। प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भूजल स्रोत विभिन्न मानव गतिविधियों के कारण भी प्रदूषित होते हैं। और यदि एक बार भूजल प्रदूषित हो गया, तो उसे उपचारित (Treated) करने में अनेक वर्ष लग सकते हैं या उसका उपचार किया जाना संभव नहीं होता है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जाए। भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषण (Pollution) के खतरे से बचाकर ही उनका संरक्षण (Conservation) किया जा सकता है।

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) दुनिया भर में मौसम और बारिश के पैटर्न को बदल रहा है, जिससे कुछ इलाकों में बारिश में कमी और सूखा (Drought) पड़ रहा है और कुछ इलाकों में बाढ़ (Flooding) आ रही है। जल संरक्षण (Water Conservation) की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी कभी बाढ़, तो कभी सूखे का सामना करना पड़ सकता है। यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें, तो बाढ़ पर नियंत्रण के साथ ही सूखे से निपटने में भी बहुत हद तक कामयाब हो सकेंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि संचित वर्षा जल (Rainwater Harvesting) से भूजल स्तर भी बढ़ जाएगा और जल संकट से बचाव होगा। साथ ही स्वच्छ पेयजल (Clean Drinking Water) की उपलब्धता की स्थिति भी बेहतर हो जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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वन महज़ कार्बन सिंक नहीं हैं

सीमा मुंडोली

संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) के अनुसार हमारा ग्रह (पृथ्वी) तिहरे संकट से घिरा है – जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता का ह्रास और प्रदूषण। अब ज़रूरत है कि इन परस्पर जुड़ी चुनौतियों को संबोधित किया जाए ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां इस जीवनक्षम ग्रह पर जी सकें। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा संकट है जिस पर विश्व स्तर पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। इस संकट से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) में 195 सदस्य देशों द्वारा एक वैश्विक बाध्यकारी संधि (पेरिस संधि) अपनाई गई है। इसका लक्ष्य है औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखना।

जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में वनों की एक महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। जंगल वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर कार्बन सिंक के रूप में कार्य कर सकते हैं और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने में मदद करते हैं जिससे जलवायु परिवर्तन की दर धीमी पड़ती है। पेरिस समझौते के अनुच्छेद-5 में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण रोकने का महत्व स्पष्ट किया गया है; वन नहीं रहेंगे तो उनमें संचित कार्बन मुक्त हो जाएगा और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में योगदान देगा।

वर्तमान में, विश्व की कुल भूमि का 31 प्रतिशत हिस्सा वनों से आच्छादित है। इन वनों में थलीय-वनस्पतियों और थलचर जीव-जंतुओं, दोनों की समृद्ध जैव विविधता है। ये वन 80 प्रतिशत उभयचर, 75 प्रतिशत पक्षी और 68 प्रतिशत स्तनधारी प्रजातियों का घर हैं, और कहने की ज़रूरत नहीं कि ये 5,00,000 थलीय-वनस्पति प्रजातियों के घर भी हैं। वन मनुष्यों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं – वन 8.6 करोड़ हरित रोज़गार प्रदान करके आजीविका के साधन बढ़ाते हैं। वन 88 करोड़ लोगों, अधिकांश महिलाओं, के लिए जलाऊ लकड़ी के साथ-साथ कई अन्य गैर-काष्ठ वन उपज भी मुहैया कराते हैं। दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोग भोजन के लिए वन-स्रोतों पर निर्भर हैं।

प्राचीन काल से ही वनों ने मानव जीवन, आजीविका और खुशहाली को बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन उनके बेतहाशा उपयोग और दोहन से निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण दोनों हुए हैं। पिछले 10,000 वर्षों में हम पृथ्वी के एक तिहाई वन गंवा चुके हैं। इसमें से आधे वन तो सिर्फ पिछली शताब्दी में ही उजाड़े गए हैं। आज भी वनों का सफाया करने का प्रमुख कारण खेती के लिए ज़मीन बनाना है; हाल ही में तेल के लिए ताड़ और सोयाबीन जैसी वाणिज्यिक फसलें उगाने के लिए वनों को काटा गया है। पशु पालन और शहरीकरण के कारण भूमि आवरण में आए बदलाव भी वनों की कटाई के कारण हैं। 1980 के दशक में वनों की कटाई अपने चरम पर थी। लेकिन गनीमत है कि वैश्विक प्रयासों के चलते वनों की कटाई की गति मंद पड़ी है – हालांकि यह पूरी तरह रुकी नहीं है और आज भी कम से कम 1 करोड़ हैक्टर वन हर साल कट रहे हैं।

इनमें अधिकांश  उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों के समृद्ध जैव-विविधता वाले वन हैं। लेकिन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में वनों की भूमिका को पहचानने के बाद तो वनों की कटाई को रोकना तत्काल रूप से आवश्यक हो गया है।

वन वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन ने मई 2024 में ‘अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन: रुझान, खामियों और नवीन तरीकों की एक समीक्षा’ (International forest governance: A critical review of trends, drawbacks and new approaches) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन के अंतर्गत कानून, नीतियां और संस्थागत ढांचे (बाध्यकारी और स्वैच्छिक दोनों) शामिल हैं जो वैश्विक वनों का प्रशासन मुख्यत: संरक्षण और टिकाऊ प्रबंधन के उद्देश्य से करते हैं। उपरोक्त आकलन रिपोर्ट में 2010 के बाद के दशक में जिन रुझानों पर प्रकाश डाला गया है उनमें से एक है वन प्रशासन विमर्श का ‘जलवायुकरण’। रिपोर्ट के अनुसार इसने वन संरक्षण के लिए बाज़ार-चालित और तकनीकी प्रक्रियाओं को बढ़ावा दिया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके कारण वनों के आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक महत्व पर कम ध्यान या महत्व दिया जा रहा है।

वनों की कटाई से निपटने के लिए बाज़ार-आधारित विधियों में से एक का उदाहरण लेते हैं: Reducing Emissions from Deforestation and Forest Degradation in Developing Countries (REDD+) अर्थात विकासशील देशों में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण के कारण होने वाला उत्सर्जन कम करना। इसका विशिष्ट उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को थामना है। जो विकासशील देश निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को थामने के साथ-साथ वनों के सतत प्रबंधन के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें REDD+ के तहत इसके बदले भुगतान किया जाएगा। वन संरक्षित हो जाएंगे, और संरक्षण करने वाले देशों को विकास सम्बंधी गतिविधियों के लिए धन मिलेगा – यानी सबकी जीत (या आम के आम, गुठलियों के दाम)। खासकर पेरिस समझौते के बाद से, REDD+ को जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती से लड़ने में एक महत्वपूर्ण किरदार के रूप में देखा जा रहा है।

REDD+ पहली बार 2007 में प्रस्तावित किया गया था। तब से REDD+ के फायदे और इसके प्रतिकूल प्रभावों पर विभिन्न मत रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि REDD+ निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकने में अप्रभावी है। दूसरी ओर, कुछ लोगों का तर्क है कि REDD+ की सफलता सीमित इसलिए दिखती है क्योंकि इसे संपूर्ण राष्ट्र स्तर पर नहीं, बल्कि परियोजना-आधारित तरीके से लागू किया जा रहा है। चूंकि REDD+ एक वित्तीय प्रोत्साहन/प्रलोभन है, इसलिए इसकी आलोचना में एक तर्क यह दिया जाता है कि इससे मिलने वाला वित्तीय प्रोत्साहन वनों के अन्य अधिक मुनाफादायक इस्तेमाल का मुकाबला नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में तेल के लिए ताड़ बागानों और इमारती लकड़ी के बागानों के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई होती है। इन बागानों से इतना मुनाफा मिलता है कि REDD+ जैसी प्रणाली यहां काम नहीं करेगी।

बाज़ार-आधारित व्यवस्था के रूप में REDD+ पर विवाद का एक प्रमुख कारण देशज समुदायों पर इसका प्रभाव रहा है – विशेष रूप से सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में। एक तरफ तो REDD+ को इस तरह देखा जाता है कि यह देशज समुदायों को वित्तीय लाभ देगा जिससे वे अपनी विकास सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकेंगे। दुनिया भर के देशज समुदायों ने एक खुले पत्र में REDD+ के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया था। देशज लोगों और संगठनों के वक्तव्यों में कहा गया है कि इससे मिली वित्तीय मदद ने उन्हें टिकाऊ वन प्रबंधन और संरक्षण करने में मदद के अलावा स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल जैसी सुविधाएं स्थापित करने में भी मदद की है। लेकिन साथ ही, देशज समुदायों को जंगलों तक पहुंच और उन पर अपने अधिकार गंवाने का भी डर है। और तो और, उन्हें वहां से विस्थापित कर दिए जाने का डर भी है। उनकी आजीविका और निर्वाह काष्ठ और गैर-काष्ठ दोनों तरह के वन उत्पाद के निष्कर्षण पर निर्भर है। लेकिन REDD+ द्वारा लागू नियम इन समुदायों (की आजीविका) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। यह आशंका व्यक्त की गई है कि देशों के अंदर भी REDD+ से होने वाले लाभ, विशेषकर वित्तीय लाभ, अंततः कुछ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चले जाएंगे।

REDD+ जैसी बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था से असमान सत्ता संतुलन के बारे में भी चिंताएं उठती हैं। ग्लोबल नॉर्थ के विकसित देश, जो कार्बन के मुख्य उत्सर्जक और जलवायु परिवर्तन के प्रमुख योगदानकर्ता भी हैं, अपने अधिक धन के बल पर वन उपयोग की ऐसी शर्तें लागू कर सकते हैं जो विकासशील ग्लोबल साउथ के देशों और समुदायों के लिए हानिकारक होंगी। ग्लोबल साउथ के देशों के विभिन्न समूहों के लिए सत्ता का असमान वितरण व इसके प्रभाव भी चिंता का विषय हैं – अधिक राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक सामर्थ्य वाले देश ऐसी बाज़ार-केंद्रित व्यवस्था का फायदा उठा सकते हैं।

भारत उन शीर्ष दस देशों में से एक है जहां सबसे अधिक वन क्षेत्र है। भारत की वन स्थिति रिपोर्ट (State of Forest Report) 2021 के अनुसार, देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.71 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। इन वनों में अत्यंत समृद्ध जैव विविधता पनपती है, जिसमें कई ऐसी प्रजातियां हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती हैं यानी ये एंडेमिक हैं। भारत के वन 7.2 अरब टन कार्बन को भंडारित किए हुए हैं, और सरकार जलवायु परिवर्तन को कम करने में इन वनों के महत्व को स्वीकार करती है। भारत ने REDD से जुड़ी वार्ताओं में भाग लिया है और UNFCCC को राष्ट्रीय REDD+ रणनीति सौंपी भी है।

भारत के जंगल आदिवासियों के घर हैं, जो वनों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। इसके अलावा वनों की सीमाओं पर बसे कई गांव और ग्रामीण आबादी भी पूरी तरह या आंशिक रूप से वनों पर निर्भर हैं। इनकी संख्या कोई मामूली नहीं है – 30 करोड़ की आबादी वाले ऐसे 1,73,000 गांव अपनी ज़रूरतों के लिए वनों पर निर्भर हैं। यहां बसे समुदाय देश के सबसे गरीब समुदायों में से हैं और अक्सर उनकी आय का एकमात्र स्रोत वन उपज होती है। वन और वन उपज पर यह सामुदायिक निर्भरता REDD+ के उद्देश्य के आड़े आती है, जो निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकना चाहता है। इसलिए, जब वनों के ह्रास को रोकने के लिए REDD+ जैसी बाज़ार-आधारित व्यवस्था की बात होती है तो भारत की चिंताएं बाकी दुनिया की चिंताओं से भिन्न नहीं हैं – न्याय, समता और ऐसे उपायों की प्रभावशीलता की चिंताएं।

बेशक, जलवायु परिवर्तन से निपटने में वन महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वनों की रक्षा करने या वनों की कटाई को रोकने का एकमात्र कारण यही नहीं बन सकता। वनों से मिलने वाली अमूल्य पारिस्थितिक सेवाएं, वनों में पाई जाने वाली समृद्ध जैव विविधता, वनों पर निर्भर लाखों लोगों की आजीविका और निर्वहन भी वनों की रक्षा करने के लिए उतना ही महत्वपूर्ण कारण है। वन प्रशासन के जलवायुकरण और बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था का एक ही लक्ष्य है (वनों का संरक्षण), लेकिन यह एकल-लक्ष्य-उन्मुखी वन प्रशासन भारत या दुनिया भर के वनों और उस पर निर्भर समुदायों दोनों के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन को इस पहलू से अवगत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस समुद्र स्तर में वृद्धि को थाम सकते हैं

र्माती दुनिया का एक असर है हिमनदों और बर्फ की चादरों का पिघलना और इसके चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ना। एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि विशाल वायरस बर्फ पिघलने की गति को धीमा कर सकते हैं।

दरअसल, विशाल वायरस (न्यूक्लियोसाइटोप्लाज़्मिक लार्ज डीएनए वायरस) पूरी दुनिया की मिट्टी, नदियों और महासागरों में पाए जाते हैं। लेकिन आरहुस विश्वविद्यालय की लॉरा पेरिनी यह जानना चाहती थीं कि क्या विशाल वायरस बर्फीले ग्रीनलैंड में भी पाए जाते हैं। उन्होंने वहां की बर्फ के नमूने लेकर उनका जेनेटिक विश्लेषण किया। पता चला कि ये वायरस सैकड़ों सालों से यहां मौजूद हैं और यहां उगने वाली रंगीन शैवाल को संक्रमित कर रहे हैं। संभव है कि विशाल वायरस इन रंगीन शैवाल के फलने-फूलने और वृद्धि को सीमित कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि ये वायरस ग्रीनलैंड में रंगीन शैवाल को फैलने से रोकते हैं तो इससे बढ़ रहे समुद्र स्तर को धीमा करने में मदद मिल सकती है क्योंकि कुछ अध्ययन बताते हैं कि बर्फ पर पनपने वाली शैवाल का गहरा-काला रंग बर्फ के पिघलने को बढ़ाता है; उजली बर्फ पर शैवाल का गहरा रंग अधिक ऊष्मा सोखता है, नतीजतन बर्फ तेज़ी से पिघलती है।

ऐसे में विशाल वायरस द्वारा शैवाल को संक्रमित करने और इनकी वृद्धि सीमित करने से बर्फ पर फैले गहरे रंग में कमी आएगी, जिसके नतीजे में बर्फ के पिघलने की रफ्तार धीमी होगी।

लेकिन ऐसे उपायों की कुछ दिक्कतें भी दिखती हैं। एक तो यही ठीक से नहीं पता है कि ग्रीनलैंड की बर्फ पिघलाने में शैवाल वास्तव में कितना योगदान देती है, इसलिए शैवाल को फैलने से रोककर समुद्र स्तर बढ़ने में वाकई कितनी कमी लाई जा सकेगी इसका पक्का अंदाज़ा नहीं है। बर्फ को तेज़ी से पिघलाने में अन्य कारक भी ज़िम्मेदार हो सकते हैं; जैसे गर्माती जलवायु के कारण बर्फ के पिघलने से (गहरे रंग के) पानी के डबरे बन सकते हैं। ये डबरे भी अधिक ऊष्मा सोख सकते हैं और बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ा सकते हैं।

दूसरा, यह ज़रूरी नहीं कि शैवाल-नियंत्रण के इरादे से विशाल वायरस को फैलाना एक अच्छा विचार साबित हो क्योंकि शैवाल के अन्य कार्य भी हैं, जैसे कार्बन भंडारण। कार्बन भंडारण कर शैवाल जलवायु परिवर्तन के एक प्रमुख कारक से तो निजात दिलाते ही हैं।

तीसरा, जलवायु परिवर्तन के नुमाया लक्षणों को दबाने या थामने के उपाय वास्तविक समस्या को हल करने से ध्यान हटाते हैं। मर्ज़ को ठीक न कर उसके लक्षणों से निपटने के प्रयास समस्या को इतना भयावह कर सकते हैं कि हो सकता है मर्ज़ काबू से बाहर निकल जाए। (स्रोत फीचर्स)

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ग्रीष्म लहर के कारण ट्रेनों में विलम्ब की संभावना

ट्रेन में यात्रा करते समय, पटरियों की लयबद्ध “खट… खट” की ध्वनि एक सुपरिचित अनुभव से कहीं ज़्यादा चतुर इंजीनियरिंग का प्रमाण है। इस्पात से बनी ट्रेन की पटरियां तापमान बढ़ने पर फैलती हैं। करीब 550 मीटर की पटरी में, हर 5.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर एक इंच से अधिक की वृद्धि होती है। परंपरागत रूप से, इस फैलाव को समायोजित करने के लिए, पटरियां 12 से 15 मीटर के टुकड़ों में बिछाई जाती हैं और दो टुकड़ों के बीच छोटे-छोटे खाली स्थान छोड़े जाते हैं। ऐसे में जब भारी रेलगाड़ी पटरी पर से गुज़रती है तो हमको सुनाई देने वाली विशिष्ट आवाज़ (जबलपुर के दोदो पैसे या मराठी में कशा साठी, कुणा साठी) पटरियों के बीच इन छोटी जगहों के कारण होती है जिन्हें प्रसार को संभालने के लिए छोड़ा जाता है।

गर्मी बहुत अधिक हो तो पटरियों का प्रसार इन छोटी जगहों को भर देता है। ऐसे में पटरियां मुड़ सकती हैं और लहरदार हो सकती हैं; इसे ‘सन किंक’ कहा जाता है। ये सन किंक ट्रेन संचालन के लिए गंभीर जोखिम पैदा करते हैं। यदि रेलगाड़ियां ऐसी पटरियों पर चलती हैं तो वे बेपटरी हो सकती हैं, और गंभीर मामलों में सीधी पटरियां अचानक से खतरनाक रूप से मुड़ सकती हैं।

ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए, तापमान बढ़ने की स्थति में रेल सेवाएं ट्रेनों की गति धीमी कर देती हैं। कम गति का मतलब है पटरियों पर यांत्रिक तनाव कम होगा, जिससे बकलिंग की संभावना कम हो जाएगी। उदाहरण के लिए, जब पटरियों का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो अमेरिका में एमट्रैक अपनी ट्रेनों की गति को 128 किलोमीटर प्रति घंटे तक सीमित कर देता है। यह एहतियात हाल की ग्रीष्म लहर के दौरान एमट्रैक के नॉर्थईस्ट कॉरिडोर में हुई देरियों के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी।

इन सावधानियों से यह समझने में मदद मिलती है कि ग्रीष्म लहरें अक्सर ट्रेन की देरी का कारण क्यों बनती हैं। यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और रेलवे के बुनियादी ढांचे को टूट-फूट से बचाने के लिए यह एक आवश्यक कदम है। चूंकि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ रहे हैं, इसलिए रेल सेवाओं को बढ़ते तापमान से निपटने के लिए और भी कड़े उपाय अपनाने की आवश्यकता होगी।

बहरहाल पटरियों की खट-खट ध्वनि कुछ लोगों के लिए मनमोहक हो सकती है, लेकिन यह भीषण गर्मी के दौरान रेल यात्रा को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक परिष्कृत इंजीनियरिंग की शानदार मिसाल भी है। अगली बार जब आप गर्मियों में ट्रेन में देरी का अनुभव करें, तो याद रखें कि यह आपको सुरक्षित रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)

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बढ़ता तापमान फफूंदों को खतरनाक बना सकता है

चीनी शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म हो रही है, फफूंद जन्य रोग मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकते हैं। अध्ययन के दौरान दो रोगियों में एक ऐसी फफूंद पाई गई जो पहले मनुष्यों को संक्रमित नहीं करती थी। इस फफूंद में न केवल दो आम फंफूद-रोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित हो गया था बल्कि उच्च तापमान के संपर्क में आने पर तीसरी दवा के प्रति भी जल्द प्रतिरोध विकसित हो गया, जिससे यह लगभग असाध्य हो गई।

आम तौर पर बैक्टीरिया या वायरस की तुलना में फफूंद मनुष्यों को कम ही बीमार करती है। मानव प्रतिरक्षा प्रणाली फफूंद से प्रभावी रूप से लड़ती है और शरीर का तापमान उन्हें पनपने भी नहीं देता है। लेकिन, पिछले कुछ समय में फफूंद संक्रमणों में वृद्धि हुई है जिसका एक कारण एचआईवी और प्रतिरक्षा-शामक दवाओं के कारण लोगों की कमज़ोर होती प्रतिरक्षा प्रणाली है। और अब, नए दवा प्रतिरोधी फफूंद संक्रमण सामने आए हैं जो काफी चिंताजनक है।

एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय फफूंद को मानव शरीर तापमान के प्रति अनुकूलित होने और दवा प्रतिरोध विकसित करने में मदद कर सकता है? इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 2009 से 2019 तक चीन के 96 अस्पतालों में रोगियों से नमूने एकत्र किए, जिसमें उन्होंने दो रोगियों में एक प्रकार की खमीर रोडोस्पोरिडियोबोलस फ्लुविएलिस (आर. फ्लुविएलिस) पाई। दोनों रोगी परस्पर असम्बंधित थे। ये गंभीर रूप से बीमार हुए थे और दवा प्रतिरोधी फफूंद से संक्रमित थे। बाद में इनकी मृत्यु हो गई।

फफूंद द्वारा स्तनधारियों को संक्रमित करने की क्षमता का पता लगाने के लिए, शोधकर्ताओं ने इसे कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले चूहों में इंजेक्ट किया। इससे चूहे बीमार हो गए, और कुछ फफूंद तो उत्परिवर्तित होकर अधिक आक्रामक भी हो गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि 37 डिग्री सेल्सियस (मानव शरीर का सामान्य तापमान) पर संवर्धित फफूंदों में उन फफूंदों की तुलना में 21 गुना तेज़ी से उत्परिवर्तन हुए जिन्हें 25 डिग्री सेल्सियस पर संवर्धित किया गया था। इसके अलावा, 37 डिग्री सेल्सियस पर फफूंद-रोधी दवा एम्फोटेरिसिन बी के संपर्क में आने वाली फफूंदों में प्रतिरोध भी अधिक तेज़ी से विकसित हुआ।

बहरहाल, वर्तमान परिस्थिति में इसके प्रभाव का सामान्यीकरण करना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी, लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस पैटर्न को समझने के लिए अधिक उच्च तापमान पर जांच करना होगा। हालांकि आर. फ्लुविएलिस से तत्काल मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा तो नहीं है, लेकिन ये परिणाम इस क्षेत्र में और अधिक शोध की आवश्यकता दर्शाते हैं।

चाइनीज़ अकेडमी ऑफ साइंसेज़ के माइक्रोबायोलॉजिस्ट लिंकी वांग के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग अधिक खतरनाक रोगजनक फफूंदों के विकसित होने में भूमिका निभा सकता है। ज़ाहिर है इस विषय में सतर्कता एवं अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु संकट पर कार्रवाई की तत्काल आवश्यकता

ई वर्षों से वैज्ञानिक वैश्विक तापमान में वृद्धि और पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस की ऊपरी सीमा को लेकर निरंतर चेतावनी देते आए हैं। हालिया स्थिति देखें तो पिछले 11 महीनों (जुलाई 2023 से मई 2024) का औसत तापमान निरंतर इस निर्धारित सीमा से ऊपर रहा है। युरोपीय संघ के कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस का दावा है कि पिछले महीने (मई 2024) का तापमान पूर्व-औद्योगिक औसत से 1.52 डिग्री अधिक था।

विश्व मौसम संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत संभावना है कि अगले पांच वर्षों में से कोई एक वर्ष ऐसा होगा जब औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगा जबकि 2015 में ऐसा होने की संभावना लगभग शून्य थी।

हालांकि, तापमान में इन अस्थायी उछालों का मतलब यह नहीं है कि हम हमेशा के लिए 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर गए हैं। पेरिस जलवायु समझौते का उद्देश्य दीर्घकालिक औसत तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखना है। इसमें यह स्पष्ट नहीं है कि वृद्धि के आकलन में समय का पैमाना क्या होगा।

संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने कहा है कि यदि हम जमकर काम करें तो 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा अभी भी हासिल की जा सकती है; ज़रूरत है ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए कड़ी मेहनत की।

1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने का सबसे उचित तरीका उत्सर्जन में भारी कटौती करना है। इसके लिए विशेषज्ञों का मत है कि वैश्विक उत्सर्जन 2025 तक चरम पर पहुंचकर कम होने लगना चाहिsए। इसे 2030 तक 42 प्रतिशत कम हो जाना चाहिए और 2050 तक नेट-ज़ीरो। फिलहाल तो हम इस मंज़िल से बहुत दूर हैं, क्योंकि वैश्विक स्तर पर हम हर साल लगभग 40 अरब मीट्रिक टन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित कर रहे हैं।

इस मामले में जलवायु विशेषज्ञ जिम स्की का मानना है कि कभी-कभार 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ना लगभग अपरिहार्य है। हालांकि, उचित प्रयासों से तापमान को इस सीमा से नीचे लाना संभव है। ऐसा न करने पर समुद्र का जलस्तर बढ़ने और कई प्रजातियों के विलुप्त होने जैसी अपरिवर्तनीय घटनाएं घट सकती हैं। इसके अलावा, 1.5 डिग्री सेल्सियस से थोड़ी भी वृद्धि छोटे द्वीप देशों और तटीय समुदायों के लिए बहुत गंभीर परिवर्तन ला सकती है। इसलिए, इस सीमा में किसी भी तरह की वृद्धि और उसकी अवधि को कम करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

बहरहाल, चुनौती तो वास्तव में बहुत बड़ी है, लेकिन अभी भी हमारे पास मौका है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए ग्रह को तभी सुरक्षित किया जा सकता है जब वैश्विक उत्सर्जन में तत्काल और पर्याप्त कमी की जाए। (स्रोत फीचर्स)

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कुछ देशों में गायब हुए ग्लेशियर

क हालिया घटना में स्लोवेनिया और वेनेज़ुएला अपने सभी हिमनद (ग्लेशियर)) को खोने वाले पहले देश बन गए हैं। मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के कारण हुई यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना एक बड़े वैश्विक संकट की ओर संकेत देती है जिसकी चपेट में कई अन्य देश भी आ सकते हैं।

कुछ रिपोर्टों के अनुसार वेनेज़ुएला अपने सभी हिमनदों को गंवाने वाला पहला देश हो सकता है। कुछ शोध अध्ययनों से तो पता चलता है कि शायद स्लोवेनिया तीस साल पहले इस त्रासदी से गुज़र चुका था।

हिमनद बर्फ की नदियां होती हैं। वास्तव में हिमनद की परिभाषा में यह शामिल है कि उसके बर्फ में गति होती हो और दरारें उपस्थिति हों, और दोनों ही स्लोवेनिया के ग्लेशियर के अवशेषों में दशकों से नदारद हैं।

गौरतलब है कि हिमनदों का पिघलना जलवायु परिवर्तन के सबसे नुमाया प्रभावों में से एक है। आइसलैंड जैसे आर्कटिक देशों में भी ग्लेशियर गायब हुए हैं। स्लोवेनिया और वेनेज़ुएला में हिमनदों गायब होना महत्वपूर्ण है क्योंकि 18वीं सदी के बाद से यह पहला मामला है जब किसी देश ने अपने हिमनदों को पूरी तरह से खो दिया हो। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल के अनुसार, इस सदी के अंत तक दुनिया के 18-36 प्रतिशत हिमनद गायब होने की संभावना है जिसका मुख्य कारण ग्लोबल वार्मिंग है।

जलवायु विज्ञानी मैक्सिमिलियानो हेरेरा के अनुसार देश का आखिरी हिमनद ला कोरोना का क्षेत्रफल दिसंबर तक सिर्फ 0.02 वर्ग कि.मी. रह गया था। इस क्षति का वेनेज़ुएला पर गंभीर प्रभाव पड़ा है, क्योंकि हिमनद पर्यावरण और जल आपूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसे एक राष्ट्रीय त्रासदी और ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभावों और जलवायु सम्बंधित चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है।

इसी तरह, स्लोवेनिया के हिमनद, खास तौर पर स्कुटा और ट्रिग्लव, दशकों से घट रहे हैं। दोनों ही 20वीं सदी के अंत में 0.1 वर्ग कि.मी. से छोटे रह गए थे। उनके छोटे आकार और कम ऊंचाई ने उन्हें जलवायु के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील बना दिया, जिसके कारण वे अंतत: गायब हो गए।

इन देशों में हिमनदों के खत्म होने के असर कहीं ज़्यादा हैं। इनकी पिघलती बर्फ समुद्र के स्तर को बढ़ाती है, जिससे दुनिया भर के तटीय क्षेत्र प्रभावित होते हैं। हिमनदों का इस तरह से खात्मा अन्य लैटिन अमेरिकी देशों के लिए भी एक चेतावनी है। हिमनदों को जल स्रोतों के तौर पर उपयोग करने वाले कोलंबिया, इक्वाडोर, पेरू और बोलीविया जैसे देशों को हिमनदों के सिकुड़ने से गंभीर सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का सामना करना पड़ सकता है। मेक्सिको का अंतिम हिमनद, ग्रान नॉर्टे भी विलुप्त होने की कगार पर है; अनुमान है कि 2026 से 2033 के बीच यह अपना हिमनद दर्जा खो देगा तथा 2045 तक पूरी तरह लुप्त हो जाएगा।

हिमनदों का इस तरह गायब होते जाना जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध सामूहिक कार्रवाई का आव्हान है और तत्काल वैश्विक प्रयासों की ज़रूरत को रेखांकित करता है। (स्रोत फीचर्स)

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धंसती भूमि: कारण और परिणाम (1) – हिमांशु ठक्कर

व्यापकता

पिछले महीने जब यह खबर आई कि तटीय और भीतरी शहरों सहित चीन के आधे से अधिक प्रमुख शहर ज़मीन में धंसते चले जा रहे हैं, तो कई लोगों को यह दुनिया के किसी सुदूर कोने में होने वाली कोई मामूली-सी घटना लगी। लेकिन यह घटना न केवल व्यापक और चिंताजनक है, बल्कि भारत समेत दुनिया के कई हिस्सों के लिए प्रासंगिक भी है। यहां तक कि हमारे यहां कुछ जगहों पर स्थिति बदतर भी हो सकती है। लेकिन पहले यह समझ लेते हैं कि यह खबर किस बारे में थी।

नेचर एंड साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि चीन के तटीय और भीतरी शहरों समेत लगभग आधे प्रमुख शहर भूमि धंसाव का सामना कर रहे हैं। यह आकलन चीन के 20 लाख से अधिक आबादी वाले 82 शहरों के अध्ययन पर आधारित है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2120 तक चीन के तटीय शहरों के 10 प्रतिशत निवासी, यानी इन शहरों के 5.5 से 12.8 करोड़ लोग समुद्र तल से नीचे रह रहे होंगे, और बाढ़ों तथा अन्य अपूरणीय क्षति का सामना कर रहे होंगे। चीन के प्रमुख शहरों का 16 प्रतिशत क्षेत्र प्रति वर्ष 10 मि.मी. की तीव्र दर से धंसता जा रहा है। वहीं, लगभग 45 प्रतिशत क्षेत्र प्रति वर्ष 3 मि.मी. से अधिक की मध्यम दर से धंस रहा है। प्रभावित शहरों में राजधानी बीजिंग भी शामिल है।

शोधकर्ताओं ने उपग्रहों के रडार पल्स का उपयोग उपग्रह और ज़मीन के बीच की दूरी में परिवर्तन को मापने के लिए किया ताकि यह पता किया जा सके कि 2015 से 2022 के बीच इनके बीच की दूरी कैसे बदली। इस सूची में अधिकतर गैर-तटीय शहर शामिल हैं, जैसे कुनमिंग, नैन्निंग और गुइयांग। ये शहर अत्यधिक घनी आबादी वाले या औद्योगिक शहर नहीं हैं, फिर भी ये उल्लेखनीय धंसाव का सामना कर रहे हैं।

अन्य देश भी

ज़मीन के धंसाव की समस्या सिर्फ चीन तक सीमित नहीं है। जकार्ता इतनी तेज़ी से धंस रहा है कि इंडोनेशिया एक नए शहर को राजधानी बनाने पर विचार कर रहा है। जकार्ता के कुछ हिस्से एक दशक में एक मीटर से अधिक धंस गए हैं। फरवरी 2024 में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में पाया गया था कि दुनिया भर की लगभग 63 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर निरंतर धंसाव का खतरा है। इंडोनेशिया सबसे अधिक प्रभावित देशों में से एक है। वर्तमान में दुनिया के 44 मुख्य तटीय शहर इस समस्या से जूझ रहे हैं, और इनमें से 30 शहर एशिया में स्थित हैं।

मनीला, हो-ची-मिन्ह सिटी, न्यू ऑरलियन्स और बैंकॉक भी यही जोखिम झेल रहे हैं। ईरान की राजधानी तेहरान के कुछ हिस्से हर साल 25 सें.मी. तक धंस रहे हैं, जहां करीब 1.3 करोड़ लोग रहते हैं। नेदरलैंड इस तथ्य के लिए प्रसिद्ध है कि यहां की लगभग 25 प्रतिशत भूमि समुद्र सतह से नीचे चली गई है। अनुमान है कि वर्ष 2040 तक दुनिया की लगभग 20 प्रतिशत आबादी धंसावग्रस्त भूमि पर रह रही होगी।

ढाका एक ऐसे शहर का उदाहरण है जिसने बाढ़ आने की आवृत्ति बढ़ने के बाद यह पता लगाना शुरू किया कि यह शहर धंस रहा है। वर्तमान में, तेज़ी से फैल रहे इस शहर में भूमि धंसाव और इसके प्रभावों पर आंकड़े नदारद हैं। बड़े पैमाने पर भूजल दोहन के कारण भूजल स्तर हर वर्ष 2-3 मीटर तक गिर रहा है। वर्तमान में 87 प्रतिशत पानी की आपूर्ति भूजल से होती है, और यह कहा जा रहा है कि भूजल की बजाय सतही जल से आपूर्ति लेना आवश्यक हो गया है। लेकिन ऐसा करना मुश्किल है क्योंकि सतह पर मौजूद अधिकतर पानी प्रदूषित है।

उपग्रह डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि 2010 के बाद से मेक्सिको की खाड़ी में समुद्र जल स्तर में वृद्धि वैश्विक औसत दर से दुगनी हुई है। पृथ्वी पर कुछ अन्य स्थानों पर भी ऐसी ही वृद्धि दर देखी गई है, जैसे कि युनाइटेड किंगडम के नज़दीकी नॉर्थ सी में।

पिछली एक सदी का ज्वार उठने का डैटा और हाल ही का ऊंचाई मापने का (अल्टीमेट्री) डैटा, दोनों इस बात का खुलासा करते हैं कि 2010-22 के दौरान यू.एस. पूर्वी तट और मेक्सिको की खाड़ी के तट पर समुद्र स्तर में तेज़ी से वृद्धि हुई है। इस प्रकार, 2010 के बाद से, समुद्र के स्तर में वृद्धि या सापेक्ष भूमि धंसाव बहुत ही असामान्य और अभूतपूर्व है। समुद्र सतह में हो रही तेज़ी से वृद्धि दर तो समय के साथ कम हो जाएगी, किंतु हाल के वर्षों में जल स्तर में जो वृद्धि हो चुकी है वह तो बनी रहेगी।

टेक्सास के गैल्वेस्टन में समुद्र का जलस्तर असाधारण दर से बढ़ा है — 14 वर्षों में 8 इंच। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तेज़ी से धंसती ज़मीन के कारण और बढ़ गया है। यहां 2015 के बाद से कम से कम 141 बार उच्च ज्वार के कारण बाढ़ आई है, और वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इनकी आवृत्ति और बढ़ेगी।

संयुक्त राज्य अमेरिका में, 45 राज्यों में 44,000 वर्ग कि.मी. से अधिक भूमि सीधे तौर पर धंसाव से प्रभावित हुई है; इसमें से 80 प्रतिशत से अधिक मामले तो भूजल दोहन से जुड़े हैं। शोध से पता चला है कि धंसती ज़मीन और समुद्र के बढ़ते स्तर के कारण न्यूयॉर्क, बोस्टन, सैन फ्रांसिस्को और मायामी सहित 32 अमेरिकी तटीय शहरों के पांच लाख से अधिक लोग बाढ़ों का सामना करेंगे।

भारत में भूमि धंसाव

भारत में, भूमि धंसाव की व्यापक तस्वीर पेश करने और धंसाव के कारणों को बताने के लिए हमारे पास व्यवस्थित निगरानी या जानकारी की कमी है। हालांकि, यह देखते हुए कि भारत दुनिया में भूजल का सबसे बड़ा उपयोगकर्ता है और यहां भूजल उपयोग लगातार बढ़ता जा रहा है, और यह देखते हुए कि पिछले 4 दशकों से भूजल अब तक भारत की जीवन रेखा रहा है, भारत में धंसाव के संभावित आयाम चिंताजनक हैं। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बांध निर्माता भी रहा है और संभवत: वर्तमान का सबसे बड़ा बांध निर्माता है। देश भर में धंसाव की निगरानी और मापन तुरंत शुरू करना ज़रूरी है। हमें डेल्टा क्षेत्रों में धंसाव पर बांधों के प्रभाव का भी आकलन करना चाहिए।

जैसा कि ऊपर बताया गया है नदियों के ऊपर बने बांधों में फंसी गाद की मात्रा और इस कारण डेल्टा क्षेत्रों तक नहीं पहुंच रही गाद को देखते हुए डेल्टा क्षेत्रों की स्थिति हमारे लिए चिंता का विषय होनी चाहिए।

भारत में हाल के दिनों में धंसाव की सबसे प्रसिद्ध घटना उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ में हुई थी। यहां धंसाव में अन्य कारकों के अलावा निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना की भूमिका होने का संदेह है, लेकिन यह मुद्दा अनसुलझा है।

भूमि धंसाव की कई घटनाएं हुई हैं। सबसे हालिया घटनाएं मई 2024 में रामबन और डोडा ज़िलों में और अब संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र के जम्मू और कश्मीर के उधमपुर में हुई हैं। इन घटनाओं के लिए सड़कों और रेलवे सुरंगों के लिए पहाड़ियों को काटने और विस्फोट करने, पनबिजली परियोजनाओं के प्रसार सहित कई कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है।

अप्रैल 2024 में राजस्थान में भूमि धंसने की दो बड़ी घटनाएं हुई थीं, जिन्होंने भूगर्भशास्त्रियों और आम लोगों दोनों को चिंता में डाल दिया। दोनों ही घटनाएं रेगिस्तानी ज़िलों में हुईं, जिससे इन दोनों घटनाओं के बीच सम्बंध होने की आशंका बढ़ गई। 16 अप्रैल, 2024 को बीकानेर ज़िले की लूणकरणसर तहसील के सहजरासर गांव में डेढ़ बीघा जमीन धंस गई। उस समय यात्रियों से भरी एक ट्रेन वहां से गुज़र रही थी, लेकिन धंसती ज़मीन की चपेट में आने से बाल-बाल बच गई। धंसाव से करीब 70 फीट गहरा गड्ढा बन गया था। ग्रामीणों के अनुसार अब यह गड्ढा करीब 80-90 फीट गहरा हो गया है।

दूसरी घटना 6 मई 2024 को बाड़मेर ज़िले के नागाणा गांव में हुई। यहां ज़मीन में करीब डेढ़ किलोमीटर लंबी दो दरारें पड़ गई थीं। थार रेगिस्तान में हुई इन दो घटनाओं पर भूगर्भीय टीम ने अन्य कारणों के साथ भूजल दोहन को ज़िम्मेदार ठहराते हुए अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट प्रशासन को सौंप दी है। उपग्रह तस्वीरों, जल दोहन के आंकड़ों और अन्य तकनीकी सूचनाओं के आधार पर एक विस्तृत रिपोर्ट आने वाली है।

इससे स्पष्ट है कि हमें काफी अध्ययन करने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

लेख के दूसरे अंक में इस परिघटना के कारणों व समाधान की चर्चा करेंगे।

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