आखिर हिमालय में कितने बांध बनेंगे? – भारत डोगरा

हिमालय क्षेत्र में बांध व पनबिजली उत्पादन का कार्य तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। विश्व की सबसे बड़ी पनबिजली निर्माण परियोजना को कुछ समय पहले चीन ने स्वीकृति दे दी है। इसका निर्माण तिब्बत क्षेत्र में ब्रह्मपुत्र नदी पर किया जाएगा जो भारत की सीमा से बहुत नज़दीक के क्षेत्र में होगा। इसकी क्षमता इससे पहले विश्व की सबसे अधिक क्षमता वाली पनबिजली परियोजना थ्री गॉर्जेस से भी तीन गुना अधिक होगी।

जहां एक ओर हिमालय क्षेत्र में बांध और पनबिजली निर्माण तेज़ी से बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर इनसे जुड़े खतरों व पर्यावरणीय दुष्परिणामों के बारे में बहुत सी जानकारी भी सामने आ रही है। हिमालय क्षेत्र अधिक भूकंपनीयता का क्षेत्र है। यहां की भू-संरचना में बांध निर्माण की दृष्टि से अनेक जटिलताएं हैं। निर्माण कार्य के दौरान होने वाली ब्लास्टिंग से भी यहां बहुत क्षति होती है। मलबे को ठिकाने लगाने में जो लापरवाही प्राय: बरती जाती है उससे समस्याएं और बढ़ जाती हैं।

वर्ष 2013 में उत्तराखंड में बहुत विनाशकारी बाढ़ आई थी जिसमें लगभग 6000 लोग मारे गए थे। उस समय कई लोगों ने कहा था कि पनबिजली परियोजनाओं की वजह से बाढ़ की क्षति बढ़ गई थी। इस विवाद के बीच सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन करवाया था। रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने बताया था कि कुछ पनबिजली व बांध परियोजनाओं के क्षेत्र में ही सबसे अधिक क्षति हुई है व मलबे को ठिकाने लगाने में इन परियोजनाओं के निर्माण के दौरान जो गलतियां हुईं वे भी बहुत महंगी सिद्ध हुईं।

इसके अतिरिक्त इस विशेषज्ञ समिति ने विशेष ध्यान इस ओर दिलाया था कि जो कंपनियां किसी परियोजना के निर्माण में करोड़ों रुपए कमाने वाली हैं, उन्हें ही उसकी लाभ व क्षति के मूल्यांकन की रिपोर्ट तैयार करवाने के लिए कहा जाता है। भला अपनी कमाऊ परियोजना के दुष्परिणामों या खतरों के बारे में कोई कंपनी पूरी सच्चाई क्योंकर उजागर करेगी?

इसके अतिरिक्त इस समिति ने कहा था कि एक-एक परियोजना का अलग-अलग आकलन पर्याप्त नहीं है, बल्कि इनके समग्र असर को समझना होगा। एक ही नदी पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर परियोजनाओं की ंखला बनाई जा रही है, तो नदी पर असर जानने के लिए इन सभी परियोजनाओं को समग्र रूप में ही देखना-परखना होगा। यदि एक ही परियोजना से जलाशय जनित भूकंपनीयता उत्पन्न हो सकती है, तो एक क्षेत्र में ऐसी अनेक परियोजनाओं का क्या असर होगा? पूरे हिमालय क्षेत्र में ऐसी हज़ारों परियोजनाओं का क्या असर होगा?

वर्ष 2013 की स्थिति पर विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि इस समय 3624 मेगावॉट क्षमता वाली 92 पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखंड में पूरी हो चुकी हैं। इसमें से 95 प्रतिशत क्षमता मात्र बड़ी व मध्यम परियोजनाओं में सिमटी है। रिपोर्ट में बताया गया था कि 3292 मेगावॉट की 38 अन्य परियोजनाओं पर कार्य चल रहा है। इनमें से 97 प्रतिशत क्षमता मात्र 8 बड़ी परियोजनाओं में निहित है।

दूसरी ओर, विशेषज्ञ समिति ने बताया था कि उत्तराखंड में कुल पनबिजली क्षमता का जो आकलन हुआ है, वह 27,039 मेगावॉट की 450 परियोजनाओं का है। सवाल यह है कि जब निर्मित व निर्माणाधीन 130 परियोजनाओं से ही इतने गंभीर खतरे व दुष्परिणाम सामने आए हैं तो 450 परियोजनाओं का कितना प्रतिकूल असर होगा। केवल टिहरी बांध परियोजना से ही लगभग एक लाख लोगों का विस्थापन हुआ था व कई गांव संकटग्रस्त हुए थे। इसके गंभीर खतरों को देखते हुए दो सरकारी विशेषज्ञ समितियों ने इस परियोजना को स्वीकृति देनेे से ही इंकार कर दिया था; इस इन्कार के बावजूद इस बांध को बनाया गया।

सवाल यह है कि आखिर हिमालय में कितनी पनबिजली परियोजनाएं व बांध बनाए जाएंगे और इन्हें बनाते हुए हिमालय की वहन क्षमता का ध्यान भी रखा जाएगा या नहीं? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सिंगल यूज़ प्लास्टिक का विकल्प खोजना बेहद ज़रूरी – अली खान

मौजूदा वक्त में सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल तेज़ी से बढ़ा है। आज यह जलवायु परिवर्तन की बहुत बड़ी वजह बन रहा है। इसी के मद्देनज़र सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल पर 1 जुलाई 2022 से देश भर में प्रतिबंध लगने जा रहा है। लेकिन, सबसे बड़ी चुनौती तो प्लास्टिक के विकल्प तलाशने को लेकर है।

इस संदर्भ में सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसई) की स्टेट ऑफ इंडियाज़ एन्वायरमेंट रिपोर्ट 2022 ने चौंकाने वाले तथ्य प्रस्तुत किए हैं। प्लास्टिक पर निर्भरता को देखते हुए यह प्रतिबंध लगाना इतना आसान नहीं होगा। वह भी तब जब इसका कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं खोजा जा सका है। रिपोर्ट में रोज़ाना निकलने वाले प्लास्टिक कचरे के आंकड़े शहरों की प्लास्टिक-निर्भरता को बखूबी बयां करते हैं। महानगरों की स्थिति तो और भी खराब है। भारत में रोज़ाना 25 हज़ार 950 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है। वायु प्रदूषण के साथ-साथ दिल्ली इस मामले में भी पहले नंबर पर है जहां रोजाना 689.8 टन प्लास्टिक कचरा निकल रहा है। कोलकाता (429.5 टन प्रतिदिन) दूसरे और चेन्नई (429.4 टन प्रतिदिन) तीसरे नंबर पर है।

रिपोर्ट बताती है कि देश में पिछले तीन दशकों के दौरान प्लास्टिक के उपयोग में 20 गुना बढ़ोतरी हुई है। चिंता की बात यह है कि इसका 60 फीसदी हिस्सा सिंगल यूज़ प्लास्टिक का है। सीएसई की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 1990 में प्लास्टिक का उपयोग करीब नौ लाख टन था और वर्ष 2018-19 तक बढ़कर 1.80 करोड़ टन से ज़्यादा हो गया। यही नहीं, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का 60 फीसदी हिस्सा यानी लगभग 1.10 करोड़ टन अलग-अलग पैकेजिंग में इस्तेमाल किया जाता है। लगभग 30 लाख टन प्लास्टिक अन्य कार्यों में उपयोग होता है। 75 लाख टन से अधिक प्लास्टिक अलग-अलग तरह की परेशानी पैदा करता है।

लिहाज़ा, सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से रोकना होगा। और सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने के लिए इसका विकल्प खोजा जाना निहायत ज़रूरी है।

आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर व्यक्ति प्रति वर्ष औसत 11 किलोग्राम प्लास्टिक वस्तुओं का इस्तेमाल करता है। विश्व के लिए यह आंकड़ा प्रति व्यक्ति 28 किलोग्राम प्रति वर्ष है। देखा जाए तो आजकल लोग अपनी सहूलियत के तौर पर प्लास्टिक का अधिक से अधिक इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए, एक प्लास्टिक बैग अपने वज़न से कई गुना अधिक वज़न उठाने में सक्षम होता है। इसी वजह से लोग कपड़े और जूट के थैले की बजाय प्लास्टिक थैली को तरजीह देते हैं।

लेकिन, हमें यह समझना होगा कि सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल हमारे स्वास्थ्य को बहुत प्रभावित करता है। दरअसल, इससे ज़हरीले पदार्थ निकलते हैं, जो मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं। साथ ही, प्लास्टिक का इस्तेमाल जीव-जंतुओं के जीवन को भी खासा प्रभावित करता है। युनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया में प्लास्टिक के दुष्प्रभाव के कारण लगभग 10 करोड़ समुद्री जीव-जंतु प्रति वर्ष असमय काल के गाल में समा जाते हैं। यह सवाल स्वाभाविक है कि आखिर प्लास्टिक जीव-जंतुओं के जीवन को किस प्रकार प्रभावित करता है? बता दें कि प्लास्टिक की ज़्यादातर वस्तुएं एक बार उपयोग में लेने के बाद खुले में फेंक दी जाती हैं। ये इधर-उधर जमा होती रहती हैं और जब बारिश होती है तो ये पानी के बहाव के संग नदी-नालों से होकर समुद्र में चली जाती हैं। प्लास्टिक की वस्तुएं वर्षों तक समुद्र में पड़ी रहती हैं। इनसे धीरे-धीरे ज़हरीले पदार्थ निकलना शुरू हो जाते हैं जो जल को दूषित करते हैं। शोध से सामने आया है कि कई बार समुद्री जीव प्लास्टिक को भोजन समझकर निगल लेते हैं। यह प्लास्टिक उनकी सांस नली या फेफड़ों में फंस जाता है और वे बैमौत मारे जाते हैं।

आज यह सर्वविदित है कि प्लास्टिक प्रदूषण ने धरती की सेहत को बिगाड़ने का काम किया है। प्लास्टिक को पूरी तरह खत्म करना तो संभव नहीं है। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि इसके उपयोग को कम से कम किया जाए। साथ ही सरकारों को भी प्लास्टिक के विकल्प अतिशीघ्र तलाशने होंगे, ताकि प्लास्टिक के इस्तेमाल को कम किया जा सके। इसके अलावा, समूचे देश में एक ऐसी मुहिम चलाने की आवश्यकता है जो प्लास्टिक, और खासकर सिंगल यूज़ प्लास्टिक, के खतरों के प्रति आम लोगों में जागरूकता और चेतना पैदा कर सके। लोगों की व्यापक भागीदारी के बगैर प्लास्टिक प्रदूषण पर कारगर नियंत्रण संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन से अनुकूलन: बांग्लादेश से सबक

ह तो स्पष्ट है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन ने वैश्विक तापमान बढ़ा दिया है, जिससे पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र और मानव समाज पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस सिलसिले में, 28 फरवरी को आई एक रिपोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि ये प्रतिकूल प्रभाव और बदतर होंगे और इनके साथ अनुकूलन की तत्काल आवश्यकता है।

यह बात बांग्लादेश, या दक्षिणी विश्व के अन्य गरीब और असुरक्षित देशों और समुदायों, के लिए कोई नई बात नहीं है। ये इलाके एक दशक से अधिक समय से बदलती जलवायु के प्रभावों जैसे बाढ़ों, चक्रवातों और सूखों को झेल रहे हैं। नई बात यह है कि वैश्विक तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के बाद जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और अधिक गंभीर हो गए हैं। यानी 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के तहत किए जा रहे प्रयासों के बावजूद जलवायु परिवर्तन के प्रभावों, नुकसान और तबाही का युग शुरू हो गया है, जिसे टाला नहीं जा सकता।

 अब विश्व के हर हिस्से में हर दिन रिकॉर्ड तोड़ जलवायु प्रभाव दिख रहे हैं, और निकट भविष्य में ये और भयावह होंगे। हाल ही में जर्मनी में आई बाढ़, जिसमें लगभग 200 लोग मारे गए थे और न्यू जर्सी में ईदा तूफान के बाद आई बाढ़, जिसमें 30 से अधिक लोग मारे गए थे, कुछ उदाहरण हैं।

संदेश यह है कि वर्तमान नुकसान और तबाही से निपटने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन के प्रयास तेज़ करना होंगे। गरीब देश अपने दम पर ऐसा करने में असमर्थ हो सकते हैं। ऐसे में अमीर देशों को, भले ही प्रदूषण फैलाने के हर्जाने के तौर पर न सही, कम से कम एकजुटता की भावना से ही गरीब देशों की मदद करनी चाहिए।

रिपोर्ट में अनुकूलन को देश और दुनिया के स्तर पर संपूर्ण-समाज प्रयास बनाने की आवश्यकता पर भी प्रकाश डाला गया है। इस संदर्भ में बांग्लादेश से काफी कुछ सीखा जा सकता है, जो इन प्रभावों का सामना करने के लिए संपूर्ण-समाज प्रयास का तरीका अपना रहा है। बांग्लादेश ने अपने 16 करोड़ नागरिकों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए तैयार करना शुरू कर दिया है।

उदाहरण के लिए, बांग्लादेश के धान वैज्ञानिकों ने धान की लवण-सहिष्णु किस्में विकसित की हैं। ये किस्में निजी कृषि व्यावसायियों द्वारा किसानों को बेची जा रही हैं। पारंपरिक किस्मों से महंगी होने के बावजूद निचले तटीय क्षेत्रों, जहां समुद्र का खारा पानी आ जाता है, के किसान इन्हें खरीद रहे हैं। लेकिन वैज्ञानिकों के प्रयास तटीय इलाकों में लवणता बढ़ने के सामने धीमे साबित हो रहे हैं। इसलिए अनुकूलन में तेज़ी लाने के लिए वैश्विक वैज्ञानिकों के सहयोग की आवश्यकता है।

बांग्लादेश ने सभी समस्याओं का समाधान नहीं किया है, लेकिन बाढ़ और चक्रवात से लोगों की जान बचाने में काफी प्रगति की है। एक दशक पूर्व बांग्लादेश में भीषण चक्रवात के कारण सैकड़ों-हज़ारों जानें जाती थीं लेकिन अब बांग्लादेश के पास संभवत: दुनिया का बेहतरीन चक्रवात चेतावनी और लोगों को स्थानांतरित करने के कार्यक्रम है। उपग्रह द्वारा चक्रवात की स्थिति पर नज़र रखने का तंत्र बेहतर हुआ है। साथ ही रेडियो, मोबाइल फोन और यहां तक कि स्वयंसेवकों द्वारा मेगाफोन के माध्यम से लोगों को पूर्व चेतावनी दी जाती है। हाई स्कूल के छात्रों को चक्रवात से मुस्तैदी से निपटने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। संवेदनशील क्षेत्रों के निकट आश्रय स्थल बनाए गए हैं और लोगों को इनकी जानकारी दी जाती है।

इन उपायों की प्रभावशीलता मई 2020 में दिखी जब यहां अम्फान नामक चक्रवात ने कहर बरपाया था। अम्फान चक्रवात में 30 से कम लोगों की जान गई थी और जिनकी जान गईं उनमें ज़्यादातर वे मछुआरे थे जो समुद्र से समय पर लौट नहीं पाए थे। बांग्लादेश के ऐसे प्रयास अन्य देशों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने में मदद कर सकते हैं; साथ ही कई मामलों में उसे अन्य देशों की मदद की ज़रूरत है। मामला व्यापक सहयोग का है। (स्रोत फीचर्स)

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साफ-सफाई की अति हानिकारक हो सकती है

स्वच्छता का एक नकारत्मक पहलू भी हो सकता है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि सफाई के लिए सुगंधित उत्पादों का उपयोग करने से लगभग उतने ही वायुवाहित सूक्ष्म कणों का उत्पादन होता है जितना शहर की एक व्यस्त सड़क पर होता है। और इन छोटे कणों के निरंतर संपर्क में रहने से सफाईकर्मियों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

कभी-कभी घरों, स्कूलों और कार्यालयों के अंदर का वातावरण बाहर के वातावरण से भी अधिक प्रदूषित हो सकता है। मोमबत्ती, धूप, सिगरेट जलाना स्थिति को और गंभीर बना सकते हैं। गैस स्टोव और खाना पकाने से भी हवा में हानिकारक कण उत्सर्जित होते हैं जो दमा और अन्य समस्याओं को जन्म देते हैं।

इसके अतिरिक्त, साफ-सफाई में उपयोग होने वाले उत्पादों से भी प्रदूषण होता है जिनमें उपस्थित वाष्पशील कार्बनिक यौगिक हवा में उपस्थित ओज़ोन के साथ क्रिया करते हैं और एयरोसोल में परिवर्तित हो जाते हैं। इन उत्पादों में मौजूद लिमोनीन तथा अन्य मोनोटरपीन इमारतों में उपस्थित ओज़ोन से अभिक्रिया कर परॉक्साइड, अल्कोहल और अन्य कणों में परिवर्तित होते हैं। ये कण फेफड़ों में गहराई तक प्रवेश कर दमा जैसी समस्याओं को जन्म दे सकते हैं। कुछ लोगों में ये कण दिल के दौरे और स्ट्रोक का कारण बन सकते हैं।

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने एक छोटे कमरे (50 क्यूबिक मीटर) का उपयोग किया। सुबह टरपीन आधारित क्लीनर से फर्श को 12-14 मिनट तक साफ किया गया। इसके बाद अत्याधुनिक उपकरणों की मदद से अगले 90 मिनट तक कमरे में अणुओं और कणों की निगरानी की गई।

एकत्रित डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने यह गणना की कि पोंछा लगाने वाला व्यक्ति आधे माइक्रॉन से छोटे कितने कण सांस में लेगा। एडवांसेस साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक व्यक्ति के शरीर में सांस के साथ प्रति मिनट एक अरब से 10 अरब नैनोपार्टिकल्स प्रवेश करेंगे। यह किसी व्यस्त सड़क के बराबर है।  

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने हाइड्रॉक्सिल और हाइड्रोपेरॉक्सिल जैसे रेडिकल्स (अल्पकालिक अणुओं) का भी पता लगाया जो आम तौर पर बाहरी (आउटडोर) वातावरण के कणों में पाए जाते हैं। ऐसे अणु कमरे के भीतर भी पाए गए जो मोनोटरपीन्स और ओज़ोन की क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं।

तो क्या किया जाए? पर्याप्त वेंटिलेशन एक अच्छा उपाय है लेकिन यह बाहर से खतरनाक ओज़ोन को भी अंदर आने का रास्ता देता है। इसके लिए एक्टिवेटिड कार्बन फिल्टर का उपयोग किया जा सकता है।

ओज़ोन स्तर को सीमित रखना भी एक उपाय हो सकता है। सफाई का काम सुबह-शाम करना उचित होगा क्योंकि इस समय वातावरण में ओज़ोन का स्तर काफी कम होता है। लिमोनीन और अन्य प्रकार के टरपीन आधारित उत्पादों के उपयोग को भी खत्म करना चाहिए। इसके अलावा, सफाई के कुछ घंटों बाद इन छोटे कणों का आकार बड़ा हो जाता है और वे भारी होकर नीचे बैठ जाते हैं। तब ये हानिरहित हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स) 

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डायनासौर का अंत वसंत ऋतु में हुआ था

हाल ही में जीवाश्म मछली की हड्डियों पर बारीकी से किए गए अध्ययन से डायनासौर की विलुप्ति के मौसम का पता चला है। 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व की महा-विलुप्ति का मौसम बता पाना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप से टकराने वाले 10 किलोमीटर विशाल क्षुद्रग्रह ने पृथ्वी पर तहलका मचा दिया था। इस टक्कर के कारण वायुमंडल में भारी मात्रा में धूल और गैसें भर गई थीं जिसकी वजह से एक लंबा जाड़ा शुरू हो गया था। कुछ जीव तो इस घटना के पहले दिन ही खत्म हो गए जबकि जलवायु में इतने भीषण परिवर्तन से डायनासौर सहित पृथ्वी की 75 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गईं।

क्षुद्रग्रह टकराने के स्थान से 3500 किलोमीटर दूर (वर्तमान में उत्तरी डैकोटा में) टैनिस नामक स्थल पर एक सुनामीनुमा लहर ने नदी के पानी को बाहर फेंक दिया था जिसके चलते रास्ते की सारी तलछट, पेड़ और मृत जीवों का ढेर जमा हो गया था। हाल ही में उपसला युनिवर्सिटी की जीवाश्म विज्ञानी मिलेनी ड्यूरिंग ने वहां मिली प्राचीन हड्डियों का विश्लेषण किया है। ड्यूरिंग उस टीम का हिस्सा नहीं थीं जिसने टैनिस स्थल की खोज की थी।

उस टीम द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित शोधपत्र में जीवाश्मित मछलियों के गलफड़ों में फंसे कांच के छोटे कणों का वर्णन किया गया था। इस टकराव की तीव्रता इतनी अधिक थी कि इससे उत्पन्न मलबा वातावरण में काफी तेज़ी से फैला, क्रिस्टलीकृत हुआ और 15 से 20 मिनट बाद बरसने लगा। गलफड़ों में कांच के कणों की मौजूदगी से पता चलता है कि घटना के तुरंत बाद ही मछलियों की मृत्यु हो गई थी।

2017 में ड्यूरिंग ने उत्तरी डैकोटा के इस स्थल से मछलियों के छह जीवाश्म हासिल किए और शक्तिशाली एक्स-रे से इन की हड्डियों का अध्ययन किया। उन्होंने मछलियों के पंखों की अस्थि कोशिकाओं की परतों की छानबीन की जिनकी मोटाई मौसमों के अनुसार बदलती है। वसंत में ये परतें मोटी हो जाती हैं, गर्मियों में मज़बूती से बढ़ती हैं और ठंड में घटने लगती हैं।         

शोधकर्ताओं ने मछलियों की हड्डियों के कार्बन समस्थानिकों का भी मापन किया। गर्म महीनों में मछली जंतु-प्लवकों का सेवन करती थीं जो कार्बन-13 से भरपूर होते थे। पंख की हड्डियों की वसंत परतें इसी समस्थानिक से निर्मित हुई थीं। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मछली के विकास के पैटर्न और समस्थानिक डैटा इस बात का संकेत देते हैं कि ये छह मछलियां वसंत के मौसम में मारी गई थीं। अन्य मछली जीवाश्मों में पाई गई विकास परतों और कार्बन-ऑक्सीजन समस्थानिक के अनुपात से भी पता चलता है कि इन मछलियों की मृत्यु वसंत ऋतु के अंत या गर्मियों के मौसम में हुई थी।

क्षुद्रग्रह तो पृथ्वी से कभी-भी टकरा सकते हैं लेकिन उत्तरी गोलार्ध में वसंत के मौसम में इनका टकराना जीवों के लिए काफी हानिकारक रहा होगा। आम तौर पर इस मौसम जीव-जंतु अधिकांश समय खुले में और प्रजनन में बिताते हैं। यदि क्षुद्रग्रह ठंड के मौसम में गिरता तो शायद कहानी अलग होती। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी और मानवता को बचाने के लिए आहार – ज़ुबैर सिद्दिकी

लवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग जैसे शब्द अब हमारे लिए अनजाने नहीं हैं। बढ़ते हुए वैश्विक तापमान से निकट भविष्य में होने वाली समस्याओं के संकेत दिखने लगे हैं। इनको सीमित करने के लिए समय-समय पर सम्मेलन आयोजित होते रहे हैं। हाल ही में ग्लासगो में ऐसा सम्मेलन हुआ था। आम तौर पर इन सम्मेलनों में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, वनों की कटाई, पारिस्थितिक तंत्र आदि मुद्दे सुर्खियों में रहते हैं। लेकिन कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिन पर चर्चा नहीं होती है। हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने हमारे खानपान के तरीकों से पृथ्वी पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन किया है।    

तथ्य यह है कि विश्व में लगभग दो अरब लोग (अधिकांश पश्चिमी देशो में) अधिक वज़न या मोटापे से ग्रस्त हैं। इसके विपरीत करीब 80 करोड़ ऐसे लोग (अधिकांश निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में) भी हैं जिनको पर्याप्त पोषण नहीं मिल रहा है। 2017 में अस्वस्थ आहार से विश्व स्तर पर सबसे अधिक मौतें हुई थीं। राष्ट्र संघ खाद्य व कृषि संगठन के अनुसार जनसंख्या में वृद्धि और पश्चिमी देशों के समान अधिक से अधिक भोजन का सेवन करने के रुझान को देखते हुए अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मांस, डेयरी और अंडे के उत्पादन में लगभग 44 प्रतिशत वृद्धि ज़रूरी होगी।

यह स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण की भी समस्या है। गौरतलब है कि वर्तमान औद्योगीकृत खाद्य प्रणाली वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन के लगभग एक-चौथाई के लिए ज़िम्मेदार है। इसके लिए विश्व भर के 70 प्रतिशत मीठे पानी और 40 प्रतिशत भूमि का उपयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त इसके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस चक्र को बाधित करते हैं और नदियों तथा तटों को भी प्रदूषित करते हैं।

वर्ष 2019 में 16 देशों के 37 पोषण विशेषज्ञों, पारिस्थितिकीविदों और अन्य विशेषज्ञों के एक समूह – लैंसेट कमीशन ऑन फूड, प्लेनेट एंड हेल्थ – ने एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें पोषण और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए व्यापक आहार परिवर्तन का आह्वान किया गया है। लैंसेट समूह द्वारा निर्धारित आहार का पालन करने वाले व्यक्ति को लचीलाहारी कहा जाता है जो अधिकांश दिनों में तो पौधों से प्राप्त आहार लेता है और कभी-कभी थोड़ी मात्रा में मांस या मछली का सेवन करता है।

इस रिपोर्ट ने निर्वहनीय आहार पर ध्यान तो आकर्षित किया है लेकिन यह सवाल भी उठा है कि क्या यह सभी के लिए व्यावहारिक है। इस संदर्भ में कुछ वैज्ञानिक पोषण और आजीविका को नुकसान पहुंचाए बिना स्थानीय माहौल के हिसाब से पर्यावरणीय रूप से निर्वहनीय आहार का परीक्षण करने का प्रयास कर रहे हैं।

खानपान से होने वाला उत्सर्जन

खाद्य उत्पादन से होने वाला ग्रीनहाउस उत्सर्जन इतना अधिक है कि वर्तमान दर पर सभी राष्ट्र गैर-खाद्य उत्सर्जन को पूरी तरह खत्म भी कर देते हैं तब भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित नहीं किया जा सकता है। खाद्य प्रणाली उत्सर्जन का 30 से 50 प्रतिशत हिस्सा तो केवल जंतु सप्लाई चेन से आता है। इसके अतिरिक्त कुछ विशेषज्ञों के अनुसार 2050 तक शहरीकरण और जनसंख्या वृद्धि के कारण भोजन सम्बंधी उत्सर्जन में 80 प्रतिशत तक वृद्धि होने की सम्भावना है।

यदि सभी लोग अधिक वनस्पति-आधारित आहार का सेवन करने लगें और अन्य सभी क्षेत्रों से उत्सर्जन को रोक दिया जाए तो वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लक्ष्य को पूरा करने की 50 प्रतिशत उम्मीद होगी। यदि भोजन प्रणाली में व्यापक बदलाव के साथ आहार में भी सुधार किया जाता है तो यह संभावना बढ़कर 67 प्रतिशत हो जाएगी।

अलबत्ता, ये निष्कर्ष मांस उद्योग को नहीं सुहाते। 2015 में यूएस कृषि विभाग की सलाहकार समिति ने आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों में संशोधन करते समय शोधकर्ताओं के हस्तक्षेप के चलते पर्यावरणीय पहलू को भी शामिल करने पर विचार किया था। लेकिन उद्योगों के दबाव के कारण इस विचार को खारिज कर दिया गया। फिर भी इस मुद्दे पर लोगों का ध्यान तो गया।

यूके-आधारित वेलकम संस्थान द्वारा वित्तपोषित EAT-लैंसेट कमीशन ने एक मज़बूत केस प्रस्तुत किया। पोषण विशेषज्ञों ने संपूर्ण खाद्य पदार्थों से बना एक बुनियादी स्वस्थ आहार तैयार किया जिसमें कार्बन उत्सर्जन, जैव-विविधता हानि और मीठे पानी, भूमि, नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस के उपयोग को शामिल किया गया। इस प्रकार से टीम ने आहार की पर्यावरणीय सीमाएं निर्धारित की। टीम के अनुसार इन पर्यावरणीय सीमाओं का उल्लंघन करने का मतलब इस ग्रह को मानव जाति के लिए जीवन-अयोग्य बनाना होगा।

इस आधार पर उन्होंने एक विविध और मुख्यतः वनस्पति आधारित भोजन योजना तैयार की है। इस योजना के तहत औसत वज़न वाले 30 वर्षीय व्यक्ति के लिए 2500 कैलोरी प्रतिदिन के आहार के हिसाब से एक सप्ताह में 100 ग्राम लाल मांस खाने की अनुमति है। यह एक आम अमेरिकी की खपत से एक-चौथाई से भी कम है। यह भी कहा गया है कि अत्यधिक परिष्कृत खाद्य पदार्थ (शीतल पेय, फ्रोज़न फूड और पुनर्गठित मांस, शर्करा और वसा) के सेवन से भी बचना चाहिए।

आयोग का अनुमान है कि इस प्रकार के आहार के ज़रिए पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचाए बिना 10 अरब लोगों को अधिक स्वस्थ भोजन दिया जा सकता है। कई वैज्ञानिकों ने EAT-लैंसेट द्वारा तैयार किए गए आहार प्लान की सराहना की है। लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या यह आहार कम संसाधन वाले लोगों के लिए भी पर्याप्त पोषण प्रदान करेगा। जैसे वाशिंगटन स्थित ग्लोबल एलायंस फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रिशन के टाय बील का निष्कर्ष है कि यह आहार 25 वर्ष से ऊपर की आयु के व्यक्ति के लिए आवश्यक जिंक का 78 प्रतिशत और कैल्शियम का 86 प्रतिशत ही प्रदान करता है और प्रजनन आयु की महिलाओं को आवश्यक लौह का केवल 55 प्रतिशत प्रदान करता है।

इन आलोचनाओं के बावजूद, यह आहार पर्यावरण सम्बंधी चिंताओं को केंद्र में रखता है। रिपोर्ट के प्रकाशन के बाद विश्व भर के जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक इस आहार को सभी तरह के लोगों के लिए व्यावहारिक बनाने पर अध्ययन कर रहे हैं।

समृद्ध आहार

कई पोषण शोधकर्ता जानते हैं कि अधिकांश उपभोक्ता आहार सम्बंधी दिशानिर्देशों का पालन नहीं करते। कई वैज्ञानिक लोगों को यह संदेश देने के कारगर तरीके तलाश रहे हैं। कुछ पोषण वैज्ञानिक स्कूलों में बगैर हो-हल्ले के एक निर्वहनीय आहार का परीक्षण कर रहे हैं, जिसमें मौसमी सब्ज़ियों और फ्री-रेंज मांस (जिन जंतुओं को दड़बों में नहीं रखा जाता) जैसे पारंपरिक और निर्वहनीय खाद्य की खपत को बढ़ावा दिया जाता है।

इस कार्यक्रम में प्राथमिक विद्यालय के 2000 छात्रों के स्कूल लंच का विश्लेषण करने के लिए कंप्यूटर एल्गोरिदम का उपयोग किया गया है। जिससे उन्हें आहार को अधिक पौष्टिक और जलवायु के अनुकूल बनाने के तरीकों के सुझाव मिले, जैसे मांस की मात्रा को कम करके फलियों और सब्ज़ियों की मात्रा में वृद्धि। शोधकर्ताओं ने बच्चों और उनके अभिभावकों को लंच में सुधार की सूचना दी लेकिन उनको इसका विवरण नहीं दिया गया। इसकी ओर बच्चों ने भी ध्यान नहीं दिया और पहले के समान भोजन की बर्बादी भी नहीं हुई। इस कवायद के माध्यम से शोधकर्ता बच्चों में टिकाऊ आहार सम्बंधी आदतें विकसित करना चाहते हैं जो आगे भी जारी रहें। वैसे यह आहार EAT-लैंसेट से काफी अलग है। यह EAT-लैंसेट आहार को स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर तैयार करने के महत्व को रेखांकित करता है।

इसी तरह से कुछ शिक्षाविद और रेस्तरां भी कम आय वाली परिस्थिति में मुफ्त आहार का परीक्षण कर रहे हैं। इस संदर्भ में जॉन हॉपकिंस युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के शोधकर्ताओं ने इस तरह का आहार लेने वाले 500 लोगों का सर्वेक्षण किया और पाया कि 93 प्रतिशत लोगों ने इस आहार को काफी पसंद किया। देखा गया कि प्रत्येक मुफ्त आहार की कीमत 10 अमेरिकी डॉलर है जो वर्तमान में यूएस फूड स्टैम्प द्वारा प्रदान की जाने वाली राशि का पांच गुना है। इससे पता चलता है कि यदि आप आहार में व्यापक बदलाव करें तो पर्यावरण पर एक बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं लेकिन इसमें सांस्कृतिक और आर्थिक बाधाएं रहेंगी।

पेट पर भारी

फिलहाल शोधकर्ता कम या मध्यम आय वाले देशों में भविष्य का आहार खोजने का प्रयास कर रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बाधा यह पता लगाना है कि इन देशों के लोग वर्तमान में कैसे भोजन ले रहे हैं। देखा जाए तो भारत के लिए यह जानकारी काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि वैश्विक भूख सूचकांक में 116 देशों में भारत का स्थान 101 है। और तो और, यहां अधिकांश बच्चे ऐसे हैं जो अपनी काफी दुबले हैं।

इस मामले में उपलब्ध डैटा का उपयोग करते हुए आई.आई.टी. कानपुर के फूड सिस्टम्स वैज्ञानिक अभिषेक चौधरी, जो EAT-लैंसेट टीम का हिस्सा भी रहे हैं, और उनके सहयोगी स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के वैभव कृष्णा ने भारत के सभी राज्यों के लिए आहार डिज़ाइन तैयार करने के लिए स्थानीय पानी, उत्सर्जन, भूमि उपयोग और फॉस्फोरस एवं नाइट्रोजन उपयोग के पर्यावरणीय डैटा का इस्तेमाल किया। इस विश्लेषण ने एक ऐसे आहार का सुझाव दिया जो पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा करता है, खाद्य-सम्बंधी उत्सर्जन को 35 प्रतिशत तक कम करता है और अन्य पर्यावरणीय संसाधनों पर दबाव भी नहीं डालता है। लेकिन आवश्यक मात्रा में ऐसा भोजन उगाने के लिए 35 प्रतिशत अधिक भूमि की आवश्यकता होगी या उपज बढ़ानी होगी। इसके अलावा भोजन की लागत 50 प्रतिशत अधिक होगी।

भारत ही नहीं स्वस्थ और टिकाऊ आहार अन्य स्थानों पर भी महंगा है। EAT-लैंसेट द्वारा प्रस्तावित विविध आहार जैसे नट, मछली, अंडे, डेयरी उत्पाद आदि को लाखों लोगों तक पहुंचाना असंभव है। यदि खाद्य कीमतों के हालिया आंकड़ों (2011) को देखा जाए तो इस आहार की लागत एक सामान्य पौष्टिक भोजन की लागत से 1.6 गुना अधिक है।

कई अन्य व्यावहारिक दिक्कतों के चलते फिलहाल वैज्ञानिकों को कम और मध्यम आय वाले देशों में पर्यावरण संरक्षण से अधिक ध्यान पोषण प्रदान करने पर देना चाहिए। वर्तमान में एक समिति के माध्यम से EAT-लैंसेट के विश्लेषण पर एक बार फिर विचार किया जा रहा है।

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि गरीब देशों में वहनीय आहार की खोज समुदायों और किसानों के साथ मिलकर काम करने से ही संभव है। खाद्य प्रणाली से जुड़े वैज्ञानिकों को लोगों को बेहतर आहार प्रदान करने के लिए स्थानीय परिस्थितियों से तालमेल बनाने के तरीके खोजने की भी आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तेज़ी से पिघलने लगे हैं ग्लेशियर – सुदर्शन सोलंकी

पृथ्वी पर करीब 2 लाख ग्लेशियर (हिमनद) हैं। किंतु अब ग्लोबल वार्मिंग एवं बढ़ते प्रदूषण के कारण दुनिया भर के ग्लेशियरों का पिघलना तेज़ी से बढ़ रहा है। पॉट्सडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट चेंज इंपैक्ट में जलवायु प्रोफेसर एंडर्स लेवरमान का कहना है कि पिछले 100 सालों में दुनिया के समुद्र तल में 35 फीसदी इजाफा ग्लेशियरों के पिघलने की वजह से हुआ है।

जर्नल दी क्रायोस्फियर में प्रकाशित शोध के अनुसार बर्फ अब 65 प्रतिशत ज़्यादा तेज़ी से पिघल रही है। 1994 से 2017 के बीच 28 लाख करोड़ टन बर्फ पिघल चुकी है। किलिमंजारो पहाड़ों की बर्फ 1912 के बाद से 80 प्रतिशत से अधिक पिघल गई है। भारत में गढ़वाल हिमालय में ग्लेशियर के तेज़ी से पिघलने के आधार पर वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश मध्य और पूर्वी हिमालय के ग्लेशियर 2035 तक गायब हो सकते हैं।

कुछ समय पूर्व ही अंटार्कटिका में दुनिया का सबसे बड़ा हिमखंड ‘ए-76′ टूट कर अलग हुआ है। इसका कुल क्षेत्रफल 4320 वर्ग किलोमीटर है। यह हिमखंड अंटार्कटिका में मौजूद ग्लेशियर रोने आइस शेल्फ के पश्चिमी हिस्से से टूटकर वेडेल सागर में गिरा है।

शोधकर्ताओं के अनुसार तेज़ी से बर्फ पिघलने के कारण समुद्र का जल स्तर तेज़ी से बढ़ रहा है, जिसके कारण पूरी दुनिया पर बड़ा संकट आ रहा है। ग्लेशियरों के पिघलने से दुनिया के उन लोगों पर असर पड़ेगा जिनके लिए ग्लेशियर ही पानी का प्रमुख स्रोत हैं। इससे अकेले दक्षिण-पूर्व एशिया में ही 70 करोड़ लोगों के जीवन पर असर पड़ेगा। हिमालय के ग्लेशियर आस-पास रहने वाले 25 करोड़ लोगों और ऐसी नदियों को पानी देते हैं जो करीब 1.65 अरब लोगों के लिए भोजन, ऊर्जा और कमाई का साधन है।

नेदरलैंड्स की डेल्फ्ट युनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलॉजी के हैरी जोकोलारी के अनुसार ज़्यादातर लोग इस बात का महत्व नहीं समझते कि बर्फ की विशाल संरचनाएं कितनी ज़रूरी हैं। एक स्वस्थ ग्लेशियर गर्मी में थोड़ा पिघलता है और सर्दियों में और बड़ा बन जाता है। इसका मतलब है कि लोगों को जब पानी की ज़्यादा ज़रूरत होती है तो उन्हें ग्लेशियर से पानी मिलता है।

प्रमुख शोधकर्ता व लीड्स विश्वविद्यालय के प्रो. थॉमस स्लेटर का अनुमान है कि समुद्री जल स्तर में हर एक सेंटीमीटर की वृद्धि से करीब एक लाख लोग विस्थापित होंगे। इसके साथ ही प्राकृतवासों व वन्य जीवों पर भी खतरा है।

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन की स्टेट ऑफ ग्लोबल क्लाइमेट रिपोर्ट 2020 से पता चला है कि 2020 इतिहास का सबसे गर्म वर्ष था। नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (एनओएए) के नेशनल सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल इंफॉर्मेशन (एनसीईआई) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2021 इतिहास का छठा सबसे गर्म वर्ष था। रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष तापमान 20वीं सदी के औसत तापमान से 0.84 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा दर्ज किया गया था। स्पष्ट है पृथ्वी अब तेज़ी से गर्म होती जा रही है जिसका असर ग्लेशियरों पर हो रहा है।

आईपीसीसी की रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि हम ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकने में सफल हो जाएं और दुनिया के तापमान में बढ़त को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक पर सीमित कर दिया जाए तब भी एशिया के ऊंचे पर्वतों के ग्लेशियर अपनी एक तिहाई बर्फ खो सकते हैं।

पहाड़ों के ऊपर उड़ने वाली धूल तेज़ी से बर्फ को पिघला रही है, क्योंकि धूल में सूरज की रोशनी अवशोषित हो जाती है जिसकी वजह से बढ़ी गर्मी के कारण बर्फ पिघलने लगती है। ग्लेशियरों का कम होना बढ़ते वैश्विक तापमान के सबसे भयावह परिणामों में से एक है।

ग्लेशियरों के पिघलने से समुद्र तल में वृद्धि होती है जिससे तटीय क्षरण बढ़ता है। इसके साथ ही साथ उग्र तटीय तूफान पैदा होते रहते हैं क्योंकि समुद्री तापमान में वृद्धि होती है और गर्म हवाएं बहुत तेज़ रफ्तार से चलती हैं, जिससे समुद्री बर्फ और ग्लेशियर पिघलते हैं और महासागर गर्म होते हैं।

समुद्र की धाराएं दुनिया भर में मौसम व समुद्री जीव-जंतुओं को प्रभावित करती हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से जैव विविधता को नुकसान पहुंचता है और जीव-जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियां खत्म होने लगती हैं। इसके अलावा ग्लेशियरों के पिघलने से दीर्घावधि में ताज़े पानी की मात्रा में कमी आ सकती है। साथ ही समुद्र के किनारे बसे शहरों के जलमग्न होने का खतरा भी है।

इस संकट को देखते हुए पर्यावरण व विकास सम्बंधी नीतिगत परिवर्तनों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी से उपजता मेडिकल कचरा – अली खान

कोरोना महामारी का खतरा लगातार कम हो रहा है, मगर इससे पैदा हुआ मेडिकल कचरा पूरी दुनिया के लिए एक बड़ी समस्या बन चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी दी है कि कोरोना महामारी से निपटने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चिकित्सा उपकरणों से इंसान और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा पैदा हो रहा है। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, वैश्विक कोविड महामारी के दौरान जमा हुए हज़ारों टन अतिरिक्त कचरे ने कचरा प्रबंधन प्रणाली पर गंभीर दबाव डाला है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मौजूदा अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में सुधार की सख्त ज़रूरत है।

डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, कोरोना महामारी के परिणामस्वरूप 2 लाख टन से भी अधिक मेडिकल कचरा जमा हो गया है। इसमें से अधिकांश प्लास्टिक के रूप में है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि मार्च 2020 से नवंबर 2021 के बीच चिकित्सा कर्मियों की सुरक्षा के लिए लगभग 1.5 अरब पीपीई किट का निर्माण व वितरण किया गया था। इनका वजन लगभग 87,000 टन है। गौर करने वाली बात यह है कि यह मात्रा केवल संयुक्त राष्ट्र की एक प्रणाली के तहत वितरित उपकरणों की है; वास्तविक संख्या और मात्रा इससे कहीं अधिक है।‌ डब्ल्यूएचओ के मुताबिक, इन उपकरणों और सुरक्षा किटों का अधिकांश भाग कचरे का हिस्सा बन गया। और तो और, निजी इस्तेमाल के लिए फेस मास्क इन अनुमानों में शामिल नहीं हैं।

इसके अलावा दुनिया भर में 14 करोड़ जांच किट प्रदान किए गए हैं, जिनमें 2600 टन प्लास्टिक और 7,31,000 लीटर केमिकल अपशिष्ट जमा होने का जोखिम है।

ध्यान दें कि कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में देश और दुनिया के कोने-कोने से स्वास्थ्य विभाग की गंभीर लापरवाहियां भी सामने आई थीं। देश में स्वास्थ्य विभाग की सबसे बड़ी लापरवाही कोरोना सैंपल लेने के बाद वीटीएम के वेस्टेज के निस्तारण की बजाय इसे प्रयोगशालाओं के बाहर खुले में फेंकने के रूप में सामने आई थी। यह सचमुच चिंताजनक थी। स्वास्थ्य विभाग द्वारा कोविड-19 की जांच में करोड़ों की संख्या में नमूने लिए गए। इन नमूनों में इस्तेमाल होने वाली वीटीएम का निस्तारण नहीं किया गया या इसे खुले में फेंका गया या कूड़े के ढेर में डाल दिया गया। इसका उचित निस्तारण बेहद ज़रूरी था। बता दें कि कोरोना के सैंपल आम तौर पर वायरल ट्रांसपोर्ट मीडियम यानी वीटीएम नामक लिक्विड में रखे जाते हैं। रिसाव से बचने के लिए इसे अच्छी तरह से पैक किया जाता है। इसके उपयोग के बाद मजबूत प्लास्टिक बैग के साथ निस्तारण किया जाना ज़रूरी होता है। दरअसल, वीटीएम का निस्तारण जैविक कचरे के हिसाब से करना होता है, लेकिन उदासीनता के चलते ऐसा नहीं हो पाया।

दरअसल, महामारी से पहले भी डब्ल्यूएचओ ने चेताया था कि एक-तिहाई स्वास्थ्य देखभाल केंद्र अपने कचरे का निपटान करने में सक्षम नहीं हैं। डब्ल्यूएचओ ने पीपीई के सोच-समझकर उपयोग, कम पैकेजिंग, इनके निर्माण में जैव-विघटनशील सामग्री के इस्तेमाल सहित कई उपायों का आह्वान किया है जो कचरे की मात्रा को कम करेंगे।

हज़ारों टन अतिरिक्त चिकित्सा कचरे ने अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को प्रभावित किया है और यह स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिए खतरा है। इस संदर्भ में डब्ल्यूएचओ ने लोगों की जागरूकता पर भी बल दिया है। डबल्यूएचओ की जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य इकाई की तकनीकी अधिकारी डॉ. मार्गरेट मोंटगोमरी ने कहा है कि जनता को जागरूक उपभोक्ता भी बनना चाहिए। उन्होंने पीपीई किट के संदर्भ में कहा कि लोग ज़रूरत से ज़्यादा पीपीई किट पहन रहे हैं। डबल्यूएचओ का कहना है कि इस तरह के लगभग 87,000 टन मेडिकल किट बेकार हो गए हैं। दुनिया भर में संक्रमण की रोकथाम के लिए मास्क, पोशाकों, टीकों, जांच उपकरणों, सेनिटाइज़र आदि का अभूतपूर्व मात्रा में उत्पादन हुआ है। डबल्यूएचओ की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड से सम्बंधित अतिरिक्त कचरा चिकित्साकर्मियों और लैंडफिल के आसपास रहने वाले लोगों के लिए स्वास्थ्य और पर्यावरणीय जोखिम पैदा करता है। लिहाज़ा, दुनिया भर में मेडिकल कचरे के सुरक्षित निपटारे और पुनर्चक्रण के लिए नई तकनीकों एवं संसाधनों में निवेश की आवश्यकता है। अस्पतालों और प्रशासन के स्तर पर सक्रियता के साथ नागरिकों को जागरूक करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि मेडिकल कचरे में हो रहे लगातार इजाफे पर अंकुश लगाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अमेज़न के जंगलों में पारा प्रदूषण

पेरू स्थित अमेज़न वर्षावन जैव विविधता से समृद्ध और अछूते वनों के रूप में जाने जाते हैं। 55 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले इन जंगलों में विभिन्न प्रजातियों के जीव-जंतु और वनस्पति पाई जाती हैं। लेकिन इसी जंगल में एक ऐसा ज़हरीला रहस्य छिपा है जो जैव विविधता के लिए खतरा बना हुआ है। हालिया शोध के अनुसार जंगल में ज़हरीले पारे का स्तर काफी अधिक है।

काफी समय से इन जंगलों में सोने का अवैध खनन किया जाता रहा है। इस खनन प्रक्रिया में भारी मात्रा में पारे का उपयोग किया जाता है जो सोना प्राप्त होने के बाद वाष्प के रूप में वातावरण में पहुंच जाता है। युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया की जैव-रसायनज्ञ जैकी गेर्सन के अनुसार पारे की अत्यधिक मात्रा अब खाद्य जाल (फूड वेब) में प्रवेश कर चुकी है।       

गौरतलब है कि हाल के वर्षों में कोयला दहन को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण के स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है जो मस्तिष्क व प्रजनन तंत्र के लिए काफी हानिकारक है। वास्तव में सोना निष्कर्षण में पारे का उपयोग एक सस्ता विकल्प है जिसमें पारे को अयस्क के घोल के साथ मिश्रित करने पर पारा सोने के साथ चिपक जाता है। इसके बाद पारे और सोने के मिश्रण को गर्म किया जाता है ताकि पारा वाष्प के रूप में अलग हो जाए।

इस तकनीक की मदद से पेरू के छोटे पैमाने के खनिकों ने मादरे दी दियोस नदी के किनारे के एक लाख हैक्टर से अधिक जंगल को उबड़-खाबड़ मैदान में बदल दिया है। वैज्ञानिकों ने पास के पोखरों और नदियों में पारे का पता लगाया है जिसने मछलियों को दूषित किया है। इन मछलियों का सेवन लोगों द्वारा किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूर्व में किए गए अध्ययन में वनों की कटाई वाले क्षेत्र मादरे दी दियोस नदी के आसपास की मिट्टी में काफी कम स्तर में पारा पाया गया था। वैज्ञानिक यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहे थे कि बाकी पारा जाता कहां है।

इसका पता लगाने के लिए गेर्सन और उनके साथियों ने खनन के लिए निर्वनीकृत दो क्षेत्रों, खनन क्षेत्र से 50 किलोमीटर दूर के जंगल, और खनन क्षेत्र पर स्थित जंगल का अध्ययन किया। उन्होंने यहां से वर्षा जल, मिट्टी और पेड़ों की पत्तियों के नमूने एकत्रित किए। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार खदानों के आसपास के वनों में पारे की मात्रा 15 गुना अधिक थी (प्रति वर्ग मीटर मिट्टी में 137 माइक्रोग्राम) जो युरोप और उत्तरी अमेरिका के कोयला बिजली संयंत्रों के आसपास की मिट्टी की तुलना में काफी अधिक और चीन के औद्योगिक क्षेत्र के पारे के स्तर के बराबर है।  

इससे पता चलता है कि जंगल के पेड़ पारा-सोख्ता का काम कर रहे हैं। पत्तियां पारा मिश्रित धूल में से पारे की वाष्प को सोख लेती हैं। पत्तियों के गिरने या वर्षा से यह धातु मिट्टी में प्रवेश कर जाती है। वृक्षों के चंदोबे से प्राप्त पानी में लोस एमिगोस में अन्य स्थानों से दुगना पारा मिला।

इन नतीजों से यह भी लगता है कि पत्तियां और मिट्टी ज़हरीले पारे को अपने अंदर सोखकर इसके दुष्प्रभावों को कम करती है। इस तरह से वृक्षों में कैद पारे से वहां के लोगों और वन्यजीवों के लिए आम तौर पर कोई जोखिम नहीं होता है।     

फिर भी हवा में उड़ता पारा पानी में पहुंचकर जलीय बैक्टीरिया के संपर्क में आने पर मिथाइल मर्करी में परिवर्तित होकर घातक रूप ले सकता है। यह पारा जीव जंतुओं की कोशिकाओं में प्रवेश कर खाद्य जाल का हिस्सा बन जाता है। शोधकर्ताओं को वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। सान्गबर्ड की तीन प्रजातियों में 12 गुना अधिक पारा पाया गया। इसी तरह 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षी में इतना अधिक पारा मिला जो उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त है। ज़ाहिर है यह फूड वेब में पारे के शामिल होने का संकेत देता है। (स्रोत फीचर्स)

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वृद्धावस्था में देखभाल का संकट और विकल्प – ज़ुबैर सिद्दिकी

विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।

यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।

कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।

लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएंगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।      

हालांकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।

मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।       

2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और व्यस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने व्यस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है। 

वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएं हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।

यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।  

भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।

महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।      

घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।

इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है – वहां केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहां वे पैदा हुए थे। लेकिन वहां भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएं अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।   

इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएं प्रदान करने तक हो सकती हैं।

एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।

यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आंकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।

कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ती ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालांकि, जापान ने जो समस्याएं एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएं अभी भी मौजूद हैं।

एक रोचक तथ्य यह है कि जहां 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।  

हालांकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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