कारखानों से निकले अपशिष्ट, जल उपचार संयंत्रों द्वारा नदियों में छोड़े गए दूषित जल ने पूरी दुनिया की मिट्टी और पानी को टिकाऊ यौगिकों, जिन्हें PFAS कहते हैं, से दूषित कर दिया है। वैज्ञानिक और नीति निर्माता चिंतित थे कि नदियों और पेयजल में पाए जाने वाले ज़हरीले रसायनों से कैसे छुटकारा पाया जाए? एक उम्मीद थी कि PFAS बहकर समुद्र में जाएंगे और वहीं थमे रहेंगे। लेकिन पता चला है कि समुद्री फुहार के साथ PFAS वापस हवा में फेंका जा रहा है।
आम समझ है कि समंदर हर चीज़ को हमेशा के लिए अपने में समा लेगा। यह नया अध्ययन चेताता है कि समुद्र के बारे में हमें अपना रवैया बदलना होगा।
PFAS नॉनस्टिक बर्तनों से लेकर फायर फाइटिंग फोम जैसी चीज़ों में उपयोग किए जाते हैं। ये पानी, गर्मी और तेल के अच्छे प्रतिरोधी होते हैं और इसलिए इनका काफी उपयोग होता है। PFAS के रासायनिक आबंध बहुत मज़बूत होते हैं जिसके चलते इन्हें ‘टिकाऊ रसायन’ कहा जाता है। प्रयोगशाला में हुए अध्ययनों में पता चला है कि PFAS जानवरों के लीवर और प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचा सकते हैं, और जन्मजात विकृतियों और मृत्यु का कारण बन सकते हैं। मनुष्यों में ये कैंसर और जन्म के समय कम वज़न का कारण बनते हैं।
शोधकर्ता जानते थे कि किनारों पर आकर टूटती लहरों से बनी धुंध प्रदूषकों को समुद्र से वायुमंडल में स्थानांतरित कर सकती है। सफेद, झागदार बुलबुलों में न सिर्फ हवा होती है बल्कि उनमें रसायनों की सूक्ष्म बूंदें भी होती हैं। स्टॉकहोम युनिवर्सिटी के मैथ्यू साल्टर ने समुद्री फुहार सिमुलेटर की मदद से दर्शाया था कि एरोसॉल की बूंदों में समुद्री जल की तुलना में 62,000 गुना अधिक PFAS हो सकते हैं। लेकिन यह पता नहीं था कि PFAS-युक्त समुद्री एरोसॉल वायुमंडल में पहुंचते हैं।
यह पता करने के लिए साल्टर और उनके साथियों ने नॉर्वे के दो समुद्र तटों से 2018 से 2020 तक समय-समय पर हवा के नमूने एकत्रित किए। एकत्रित नमूनों में प्रयोगशाला में PFAS और सोडियम आयनों के स्तर की जांच की, जो समुद्री फुहार एरोसॉल में मुख्यत: पाए जाते हैं।
एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि नमूनों में PFAS की मात्रा सोडियम के स्तर के लगभग बराबर थी – जो इस बात का संकेत है कि ये दोनों ही हवा में समुद्री फुहार के माध्यम से आए थे।
शोधकर्ताओं का कहना है कि निष्कर्ष सुझाते हैं कि उनके नमूनों में PFAS की कुछ मात्रा समुद्री एरोसॉल के ज़रिए आई है। उनका अनुमान है कि 0.1 प्रतिशत से 0.4 प्रतिशत पीएफओएस (विशिष्ट तरह के PFAS) समुद्री स्प्रे एयरोसोल के ज़रिए हर साल वापस ज़मीन पर आ जाते हैं। चिंता की बात है कि हवाओं के ज़रिए PFAS सैकड़ों किलोमीटर दूर तक फैल सकते हैं और भोजन-पानी को दूषित कर सकते हैं। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि वास्तव में PFAS ग्लेशियरों, आइस कैप्स और केरिबू में कितने टिकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acz9890/abs/_20211220_on_wavescausetoxicforeverchemicalstoboomerangbacktoshore__main__istock-1299231577.jpg
जियोहेरिटेज
यानी भूवैज्ञानिक धरोहर
एक साधारण लेकिन वर्णात्मकशब्द
है जो महत्वपूर्ण वैज्ञानिक,
शैक्षिक, सांस्कृतिक और
सौंदर्य से भरपूर भूगर्भीय
स्थलों या क्षेत्रों पर
लागू होता है। यह
स्थल उन भूगर्भीय प्रक्रियाओं
के बारे में विचित्र
जानकारियां प्रदान करते हैं
जिसने भूवैज्ञानिक संरचनाओं
को जन्म दिया और
उनको प्रभावित किया
है। यह हमें पृथ्वी
के संरक्षण और विकास
के बारे में शिक्षित
करते हैं। इन मूलभूत
भूवैज्ञानिक विशेषताओं का
सांस्कृतिक और/या विरासती
महत्व भी हो सकता
है। संक्षिप्त में,
जियोहेरिटेज चट्टानों, मिट्टी
और भू-आकृतियों में
संरक्षित भूगर्भीय अतीत
की धरोहर है। धरोहर
का सिद्धांत वास्तव
में एक सांस्कृतिक निर्माण
है जो प्राकृतिक स्थलों
या क्षेत्रों और
उनके ऐतिहासिक उपयोग
से सम्बंधित होता
है। जियोहेरिटेज को
भी जैव विविधता और
सांस्कृतिक स्थलों के समान
संरक्षण मिलना चाहिए। यह
तो ज़ाहिर है कि
सभी भूविज्ञानी इस
बात से सहमत हैं
कि भूविज्ञान एक
दिलचस्प विषय है, लेकिन
पृथ्वी पर भूगर्भीय विशेषताओं
को आम जनता के
लिए आकर्षक बनाना भी
आवश्यक है जो पृथ्वी
की विशेषताओं के
महत्व से अनभिज्ञ हैं।
आम लोगों को यह
समझाना आवश्यक है जो
समय और आयाम के
भूवैज्ञानिक पैमाने के आदी
नहीं हैं।
जियोपार्क या भूवैज्ञानिक उद्यान
का सिद्धांत वर्ष
2000 में युरोप में विकसित
किया गया था। 2004 में,
यूनेस्को ने जियोपार्क्स को
एकीकृत भौगिलिक क्षेत्रों के
रूप में परिभाषित किया
जहां अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर भूवैज्ञानिक महत्व
के कुछ स्थलों और
भूदृश्यों को संरक्षण, शिक्षा
और सतत विकास की
समग्र अवधारणा के साथ
प्रबंधित किया जाता है।
दूसरे शब्दों में, जियोपार्क
स्थानीय लोगों की भागीदारी
के साथ भूवैज्ञानिक धरोहर
की रक्षा के लिए
बनाए गए स्थल होते
हैं। इन स्थलों को
आदर्श पारिस्थितिक पर्यटन
स्थल के रूप में
तैयार किया जाता है
ताकि जियोहेरिटेज का
संरक्षण हो सके और
इस क्षेत्र के समुदाय
को भी लाभ पहुंच
सके। इसलिए, यह
सतत विकास का एक
महत्वपूर्ण तरीका है। नवंबर
2015 में, यूनेस्को ने
इस सिद्धांत को
समर्थन दिया (http://www.globalgeopark.org/News/News/9979.htm)
और ‘यूनेस्को ग्लोबल
जियोपार्क्स नेटवर्क’ को
प्रमाणित करने और आधिकारिक
भागीदार (अर्थ साइंस फॉर
सोसाइटी, यूनेस्को; 7 जनवरी
2020 को पुन:प्राप्त) बनने
का निर्णय लिया। इसका
उद्देश्य प्रकृति के चमत्कारों
के बारे में जागरूकता
पैदा करना और लोगों
को इस पृथ्वी के
मोहक पहलुओं से जोड़ने
में मदद करना है।
वर्ष 2015 में, इंटरनेशनल युनियन
फॉर कंज़र्वेशन ऑफ
नेचर (आईयूसीएन) ने
एक संकल्प लिया जिसमें
भू-विविधता को प्राकृतिक
विविधता और प्राकृतिक धरोहर
के एक अभिन्न अंग
के रूप में स्वीकार
किया गया। इसके तहत
भू-विविधता और भू-संरक्षण
को भी जैव विविधता
और प्राकृतिक संरक्षण
का अभिन्न अंग माना
गया। वर्तमान में 44 देशों
में 169 यूनेस्को ग्लोबल
जियोपार्क हैं, जिसमें से
चीन में 41 जियोपार्क हैं।
वहीं भारत में एक
भी जियोपार्क नहीं
है।
जियोहेरिटेज संरक्षण के एक
अभिन्न अंग के रूप
में, भू-पर्यटन एक
स्थान के विशिष्ट भौगोलिक
विशेषता यानी उसके पर्यावरण,
सौंदर्य, संस्कृति और
स्थानीय लोगों के हितों
को बनाए रखता है
और उसमें वृद्धि भी
करता है। जियोपार्क्स न
सिर्फ पर्यटन को बढ़ावा
देते हैं बल्कि वे
उस राज्य को भी
वित्तीय संसाधन प्रदान करते
हैं जहां वे स्थित
हैं। इन स्थलों को
विकसित करने से इस
क्षेत्र के लोगों को
होटल, परिवहन, स्मारिका,
कलाकृति की दुकानों, आदि
के रूप में आजीविका
प्राप्त होती है। इसके
अलावा, जियोपार्क्स में
जियोहेरिटेज स्थल शोधकर्ताओं सहित
शिक्षार्थियों के लिए अत्यधिक
शिक्षाप्रद महत्व रखते हैं।
भू-पर्यटन में हम
क्षेत्र के भूवैज्ञानिक महत्व
पर ध्यान देते हैं
जिसमें भूविज्ञानियों और
पर्यटकों की वैज्ञानिक रूचि
को आकर्षण के मुख्य
विषय के रूप में
प्रस्तुत किया जाता है।
हम स्थानीय या राष्ट्रीय
स्तर पर प्रशासन का
भी ध्यान आकर्षित करते
हैं जिसमें भूविज्ञानियों की
सहमति से संरक्षित स्थलों
को परिभाषित करने,
बढ़ावा देने, व्यवस्थित करने
और रखरखाव के खर्चों
में सहायता देने के
लिए पर्याप्त कानूनी
ढांचा निर्धारित किया
जा सके।
जुलाई 2019 में, इंडियन नेशनल
ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड
कल्चर हेरिटेज (आईएनटीएसीएच) ने आंध्र प्रदेश
पर्यटन विभाग, पुरातत्व
और संग्रहालय विभाग
और विशाखापटनम मेट्रोपोलिटन
रीजन डेवलपमेंट अथॉरिटी
के साथ मिलकर लोगों
के बीच जियोहेरिटेज स्थलों
पर जागरूकता पैदा
करने के लिए अभियान
चलाया और उस क्षेत्र
में विभिन्न जियोपार्क्स को
विकसित करने का प्रस्ताव
रखा। आईएनटीएसीएच ने
भूगर्भीय रूप से महत्वपूर्ण
ऐसे कई स्थलों को
चिन्हित और उनका दस्तावेज़ीकरण
किया है जिन पर
संरक्षण अधिकारियों को
तत्काल ध्यान देने की
आवश्यकता है। यह भारतीय
भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई)
द्वारा तैयार और प्रकाशित
की गई बड़ी सूची
के अतिरिक्त हैं
जिसमें देशभर के 32 स्थलों
का दस्तावेज़ीकारण किया
गया है। हालांकि, 36वीं
अंतर्राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक कांग्रेस
2020 (जो स्थगित हो गई
है) के लिए तैयार
किए गए स्टेटस पेपर
में यह संख्या 40 हो
गई है। जीएसआई ने
26 भूवैज्ञानिक स्थलों की पहचान
राष्ट्रीय भूवैज्ञानिक स्मारकों
(एनजीएम) के रूप में
की है। एक राष्ट्रीय
संरक्षक के रूप में,
यह जीएसआई का बाध्य
कर्तव्य है कि वो
भारत के जियोहेरिटेज स्थलों
को या तो स्वयं
या राज्य सरकार के
उन अधिकारियों के
सहयोग से निरूपण और
रखरखाव का ध्यान रखें
जो इसके वास्तविक मूल्य
और भू-पर्यटन क्षमता
से आश्वस्त हैं। हालांकि,
जीएसआई इस कार्य के
लिए राष्ट्रीय संरक्षक
तो है ही लेकिन
ऐसे स्थलों की सुरक्षा
के लिए कानून की
अनुपस्थिति में एजेंसी खुद
को असहाय पाती है,
विशेष रूप से जब
इन स्थलों को स्थानीय
लोगों या फिर विकास
कार्य करने वाले आधिकारिक
ठेकेदारों द्वारा नष्ट कर
दिया जाता है। इनमें
से अधिकांश स्थल राजस्थान,
ओडिशा, कर्नाटक, आंध्र
प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु,
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड
और उत्तर प्रदेश में
स्थित हैं। भारत में
संरक्षित पहली भूवैज्ञानिक वस्तु
1951 में पाई गई जब
तमिलनाडु स्थित पेराम्बुर ज़िले
की जीवाश्मित लकड़ी
को एनजीएम घोषित किया
गया। तेलंगाना स्थित
आदिलाबाद ज़िले के प्राणहिता-गोदावरी
घाटी में जीवाश्मित अंडे,
अंडे के छिलके, कंकाल
के अवशेष और मल
(230 Ma) के रूप में भारतीय
डायनासौर के बेहतरीन अवशेष
सुरक्षित पाए गए। इसी
तरह कोटा में पाए
गए यह अवशेष 190 Ma पुराने
जबकि गुजरात के जबलपुर,
बाघ और खेरा ज़िलों
के संग्रह 65 Ma पुराने
हैं। विश्व प्रसिद्ध मांसाहारी
राजसौरस नर्मडेनसिस नामक
टायरानोसौरस
रेक्स, मध्य
भारत के नर्मदा क्षेत्र
से सम्बंधित है।
भारतीय उपमहाद्वीप को
समृद्ध भूवैज्ञानिक धरोहर
से नवाज़ा गया है।
इन स्थलों को भूवैज्ञानिक
स्मारकों और भूवैज्ञानिक उद्यानों
के रूप में विकसित
करके हम पूरे विश्व
में भूवैज्ञानिक संपदा
को प्रदर्शित करने
में सबसे आगे हो
सकते हैं। दुर्भाग्य से,
इन स्थलों को भूवैज्ञानिक
स्मारकों के रूप में
घोषित किया जाना तो
दूर, प्रकृति के इन
चमत्कारों की सुरक्षा पर
भी बहुत कम ध्यान
दिया जा रहा है।
अधिकांश स्थल तो बिना
किसी सुरक्षा के उजाड़
पड़े हैं और ‘विकास’
कार्यों या फिर क्षति
पहुंचने के कारण यह
समय के साथ पूरी
तरह खत्म हो जाएंगी।
भारत के परिदृश्य के
संरक्षण में जियोहेरिटेज को
हमेशा से ही उपेक्षित
किया गया है।
सांस्कृतिक भवनों और जैव
विविधता को संरक्षित करने
के लिए पुरातात्विक एवं
ऐतिहासिक संरचना संरक्षण कानून
1958 और जैव विविधता कानून
2002 मौजूद हैं। लेकिन भूवैज्ञानिक
संरचनाओं के संरक्षण के
लिए ऐसा कोई कानून
नहीं है जो राष्ट्र
के प्राकृतिक धरोहर
को स्थापित कर सके।
यह स्थिति जीएसआई, भूवैज्ञानिक
अध्ययनों में भाग लेने
वाले अनुसंधान संस्थान
और एक सदी से
भी अधिक समय से
भूविज्ञान पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों जैसे बड़े संस्थाओं
के अस्तित्व में
रहने के बावजूद है।
भूवैज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण
जियोपार्क्स या जियोसाइट्स को
संरक्षित करने के प्रस्ताव
को विशुद्ध रूप से
अकादमिक कहकर खारिज कर
दिया जाता है। लोगों
को उनके जीवन और
उनके आसपास की चट्टानों,
जीवाश्मों और संसाधनों के
बीच घनिष्ठ सम्बंधों का
एहसास कराना आसान नहीं
है। यह एहसास कराना
तभी संभव हो सकता
है जब हम अपने
बच्चों को प्राथमिक कक्षाओं
तथा भूगर्भीय रूप
से मनोहर स्थलों के
आसपास रहने वाले ग्रामीणों
को ऐसी विशेषताओं के
महत्व से अवगत कराएंगे।
अब तक, जियोहेरिटेज संरक्षण
कानून लाने के सभी
प्रयास विफल रहे हैं।
2007 में, दो उत्साही भूविज्ञानियों
ने भारत के तत्कालीन
राष्ट्रपति को जियोहेरिटेज संरक्षण
की खेदजनक स्थिति से
काफी प्रभावित किया।
राष्ट्रपति की पहल पर,
भारत सरकार के पृथ्वी
विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस)
के सचिव को इस
मामले पर वैज्ञानिक चर्चा
शुरू करने के लिए
कहा। 26 फरवरी 2009 को
भारत सरकार ने राष्ट्रीय
विरासत स्थल आयोग विधेयक
प्रस्तुत किया। इस विधेयक
का मसौदा भारत सरकार
के पर्यटन, परिवहन
और संस्कृति मंत्रालय
को भेजा गया। बिना
किसी ठोस नतीजे के,
14 मार्च 2016 को पत्र सूचना
कार्यालय (पीआईबी) ने
ऑन-रिकॉर्ड बताया कि
2009 का विधेयक एक बार
फिर उच्च-स्तरीय समिति
को भेजा गया जहां
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण,
राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण, शहरी
विकास बोर्ड और पर्यावरण,
वन और जलवायु परिवर्तन
मंत्रालय, भारत सरकार से
परामर्श के बाद इस
विधेयक को खारिज करने
का निर्णय लिया गया
और 31 जुलाई 2015 को
इसे वापस ले लिए
गया। यहां यह बताना
आवश्यक है कि यह
पूरा मामला पृथ्वी विज्ञान
से सम्बंधित किसी
भी मंत्रालय को
नहीं भेजा गया जो
भूवैज्ञानिक धरोहरों के प्राकृतिक
संरक्षक हैं।
इंडियन सोसाइटी ऑफ अर्थ
साइंटिस्ट्स, लखनऊ ने भारतीय
राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए)
के तत्वावधान में
इंटरनेशनल युनियन ऑफ जियोलाजिकल
साइंसेज़ (आईयूजीएस) की
राष्ट्रीय समिति के साथ
संयोजन में नई दिल्ली
स्थित अकादमी के परिसर
में 6 और 7 अगस्त 2019 को
विचार मंथन सत्र का
आयोजन किया। जानकार और
सक्रीय भूविज्ञानियों की
टीम ने ‘कंज़रवेशन ऑफ
जियोहेरिटेज साइट्स एंड डेवलपमेंट
ऑफ जियोपार्क्स एक्ट-
2020’ नामक एक विस्तृत दस्तावेज़
तैयार किया। इस दस्तावेज़
में निम्नलिखित अध्याय
रखे गए: जियोहेरिटेज स्थलों
का संरक्षण, रखरखाव
और पहुंच, राष्ट्रीय
जियोहेरिटेज प्राधिकरण, प्राधिकरण
की वार्षिक योजना, बजट,
लेखा और ऑडिट, राज्य
जियोहेरिटेज बोर्ड्स, और
दंड एवं अपराध। इस
व्यापक दस्तावेज़ को
प्रधानमंत्री कार्यालय, सरकार
के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार
(पीएसए) और कई मंत्रालयों
को भेजा गया।
इस संदर्भ में विज्ञान
और प्रौद्योगिकी मंत्री
की ओर से जवाब
में बताया गया कि
एमओईएस, भारत सरकार के
सचिव जियोहेरिटेज से
सम्बंधित बैठकों का आयोजन
कर सकते हैं। इस
बैठक में खान मंत्रालय
(एमओएम), भारत सरकार के
प्रतिनिधि ने दावा किया
कि यह विषय एमओएम
के कार्यक्षेत्र में
आता है। 1 अप्रैल 2020 को
एमओएम के सचिव ने
एक आंतरिक टास्क ग्रुप
का गठन किया। इस
ग्रुप के सदस्यों की
वर्चुअल बैठक में विधेयक
के मूल मसौदे के
कुछ खंडों में संशोधन
किया गया जिसे पूर्व
में आईएनएसए की बैठक
में तैयार किया गया
था। इस नए विधेयक
को जियोहेरिटेज कंज़र्वेशन
और जियोपार्क्स डेवलपमेंट
बिल 2020 का नाम दिया
गया। पुनर्रीक्षण करने
वाली टास्क फोर्स को
सख्ती से आंतरिक रखा
गया। तभी से बिल
को अंतिम रूप देने
में कोई प्रगति नहीं
हुई है।
यह इंतज़ार काफी लंबा होता जा रहा है और विकास के नाम पर देश के कई भागों में जियोहेरिटेज स्थलों को नष्ट किया जा रहा है। पीएसए की अध्यक्षता में विश्वस्तरीय जीवाश्म भंडार/संग्रहालय स्थापित करने की महत्वकांक्षी योजना को एक साल से भी अधिक समय बीत चुका है लेकिन उसमें अभी तक कोई प्रगति नहीं हुई है। आईएनएसए में आयोजित आईयूजीएस राष्ट्रीय समिति द्वारा दिए गए सुझाव में जियोहेरिटेज स्थलों के संरक्षण और रखरखाव को संग्रहालय से सम्बंधित अभ्यास का अंश बनाया जाना चाहिए। अभी तक यह ज्ञात नहीं है कि इस सुझाव को संग्रहालय परियोजना की प्रस्तावित अधूरी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट में शामिल किया गया है या नहीं। इन मुद्दों पर देश में भू-आकृतियों और भूविज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने सहित भूवैज्ञानिक विशेषताओं की सुरक्षा और संरक्षण के हितों को ध्यान देना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : http://3.bp.blogspot.com/-7NxwEpUaqRU/VWQXp5DsY4I/AAAAAAAAB9w/n8JVC_k2A2I/s1600/geo%2Bmonuments%2Bindia.jpg
ग्लासगो में आयोजित जलवायु सम्मेलन में कई देशों ने ग्रीनहाउस
गैसों के उत्सर्जन में कटौती की घोषणा की है। यदि यह सभी देश इन घोषणाओं पर अमल
करते हैं तो 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के प्रमुख लक्ष्यों को पूरा किया जा सकता
है। एक नए विश्लेषण से पता चला है कि भारत,
चीन और अन्य देशों की
संशोधित प्रतिबद्धताएं इस सदी में तापमान की वृद्धि को 1.9 डिग्री सेल्सियस तक
सीमित कर सकती हैं। लेकिन मेलबोर्न युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक माल्टे
मायनसुआज़ेन को लगता है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए काफी काम करना होगा।
ब्रेकथ्रू इंस्टीट्यूट के जलवायु वैज्ञानिक
ज़ेके हौसफादर के अनुसार जलवायु के नए अनुमान हालिया अनुमानों से नीचे नहीं हैं।
अक्टूबर में जारी यू.एन. की रिपोर्ट में हालिया और पिछली प्रतिज्ञाओं को शामिल
किया गया है जिसमें लगभग 2 डिग्री सेल्सियस की अनुमानित वार्मिंग को ध्यान में
रखते हुए कार्बन स्थिरीकरण के साथ उत्सर्जन को संतुलित करते हुए नेट-ज़ीरो प्राप्त
करने की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया है। इसी तरह, इंटरनेशनल
एनर्जी एजेंसी (आईईए) की रिपोर्ट का अनुमान है कि वर्तमान प्रतिबद्धताएं वार्मिंग
को 1.8 डिग्री सेल्सियस तक सीमित कर देंगी। भारत और चीन की प्रतिबद्धताएं कुछ बड़े
बदलाव कर सकती हैं।
मायनसुआज़ेन और उनके सहयोगियों ने सम्मेलन
के शुरू होते ही राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत प्रतिज्ञाओं का संकलन किया। इनमें 2050
से 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं को भी शामिल किया गया
है। इनमें से कुछ लक्ष्य वित्तीय सहायता पर निर्भर हैं जबकि अन्य बिना किसी शर्त
के निर्धारित किए गए हैं। इन उत्सर्जन अनुमानों को जलवायु मॉडल में डालने पर
वार्मिंग के संभावित परिणाम पता चले हैं।
सम्मेलन के पहले की प्रतिज्ञाओं के आधार पर
इस सदी की वार्मिंग 1.5-3.2 डिग्री सेल्सियस के बीच अनुमानित थी। लेकिन नई
प्रतिज्ञाओं के आधार पर काफी संभावना 1.9 डिग्री सेल्सियस से कम वृद्धि की है। इन
में भारत का 2070 तक नेट-ज़ीरो का लक्ष्य प्राप्त करने,
चीन की नई जलवायु
प्रतिज्ञाएं और 2030 तक उत्सर्जन को कम करने के लिए 11 अन्य राष्ट्रीय प्रतिज्ञाएं
भी शामिल हैं।
इम्पीरियल कॉलेज लंदन के एक जलवायु
वैज्ञानिक जोएरी रोगेली के अनुसार यदि देश अपने वादों का पूरी तरह से पालन करते
हैं तब भी तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ने की काफी संभावना होगी क्योंकि कई
मामलों में स्पष्टता की कमी है। उदाहरण के लिए भारत ने यह स्पष्ट नहीं किया कि
नेट-ज़ीरो की प्रतिबद्धता केवल कार्बन डाईऑक्साइड के लिए है या सभी ग्रीनहाउस गैसों
पर लागू होती है।
इसके अलावा, कई घोषणाएं महज दिखावा भी हो सकती हैं। जैसे, ऑस्ट्रेलिया में जलवायु लक्ष्यों का दिखावा करने के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन के उपयोग में विस्तार किया जा रहा है। इसके अलावा, विकासशील देशों को कई योजनाओं हेतु वित्तीय सहायता की आवश्यकता होगी। फिर भी प्रतिज्ञाएं एक महत्वपूर्ण सुधार की द्योतक हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ukcop26.org/wp-content/uploads/2021/11/WLS_960x640.jpg
भरतपुर अभयारण्य के नाम से मशहूर कीलादू घाना राष्ट्रीय
उद्यान, भरतपुर, राजस्थान के क्षेत्र में काम करने वाले
पारिस्थितिकीविदों ने 1970 के दशक में स्थानीय निवासियों द्वारा मवेशियों को
अनियंत्रित तरीके से चराने पर आपत्ति ज़ाहिर की थी। पारिस्थितिकीविदों का मानना था
कि मवेशियों के चरने से अभयारण्य में जल राशियों के आसपास के क्षेत्र की घास से
ढकी जगह भी नष्ट हो जाएगी। तब हज़ारों प्रवासी पक्षियों के लिए यह स्थान रहने
योग्य नहीं रहेगा जिनके लिए यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध है। मवेशियों के चरने के
विरुद्ध पर्यावरण कार्यकर्ताओं के निरंतर विरोध और पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वन
प्रबंधकों की लगातार बयानबाज़ी ने राजस्थान सरकार को 1982 में मवेशियों के चरने पर
औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाने पर मजबूर किया। सरकार के इस निर्णय को एक बड़ी सफलता
के रूप में देखा गया जिसमें कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने मिलकर एक पर्यावरणीय
मुद्दे पर काम किया। हालांकि, इससे पहले कि इस कामयाबी के जश्न का शोर
थमता, चराई पर इस प्रतिबंध ने एक और अप्रत्याशित आपदा को जन्म दे
दिया।
चराई पर प्रतिबंध लगने से उस क्षेत्र की
घास इतनी लंबी हो गई कि प्रवासी पक्षियों को जल राशियों के किनारों पर उतरने और
पोषण के लिए भोजन तलाश करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके
परिणामस्वरूप, पारिस्थितिकीविदों की अपेक्षा के विपरीत, अभयारण्य
में प्रवासी पक्षियों की संख्या निरंतर घटती गई। तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस
मामले में विज्ञान असफल हुआ? शायद नहीं। जैसा कि माइकल लेविस ने कहा है
(कंज़रवेशन सोसाइटी, 2003,
1, 1-21), भरतपुर
अभयारण्य आपदा ‘अपर्याप्त रूप से जांचे-परखे सिद्धांतों पर आधारित मान्यताओं’ का
मामला था। इसके अलावा, यह वैज्ञानिकों और वन प्रबंधकों के उतावलेपन का भी नतीजा था
जो पर्याप्त तथ्य उपलब्ध न होने के बावजूद चेतावनी देने पर आमादा रहे।
वनों और जैव विविधता का ह्रास, प्रजातियों
की विलुप्ति, जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, जेनेटिक
पूल का क्षरण, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग जैसे
मुद्दे विशेष रूप से मीडिया और कार्यकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। वैज्ञानिकों
एवं विशेषज्ञ समितियों द्वारा दिया गया कोई भी बयान यदि सही ढंग से और उपयुक्त
डैटा के साथ व्यक्त नहीं किया जाता, तो पूरी संभावना होती है कि मीडिया इसे
तोड़-मरोड़ कर और सनसनीखेज़ बनाकर पेश कर देगा। इस प्रक्रिया में, मूल
संदेश का अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से विकृत कर दिया दिया जाता है या कोई सर्वथा
नया संदेश ही बना दिया जाता है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण नेचर पत्रिका (2004, 427, 145-148)
में जलवायु परिवर्तन पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर मानव-निर्मित आपदा की एक
बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई तस्वीर में दिखा। इस रिपोर्ट में 1103 प्रजातियों के
विश्लेषण के आधार पर दावा किया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अगले 50 वर्षों
में इनमें से कुछ प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। लेकिन यूके के मीडिया ने इस
चेतावनी को बहुत गलत तरीके से प्रस्तुत करते हुए बताया कि: ‘पूरे विश्व की एक-तिहाई
प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ या ‘2050 तक दस लाख प्रजातियां’ विलुप्त हो सकती
हैं। इस गलत रिपोर्टिंग की उत्पत्ति पता लगाने के लिए की गई एक समीक्षा से पता चला
कि समस्या वास्तव में वैज्ञानिकों द्वारा प्रेस को जारी की गई सामग्री में उपयोग
की गई भाषा में थी। इस घटना से पता चलता है कि यदि किसी वैज्ञानिक दावे को जनता या
मीडिया तक ठीक तरह से सूचित न किया जाए तो विज्ञान और वैज्ञानिकों की विश्वसनीयता
दांव पर लग सकती है।
वैज्ञानिक और विशेष रूप से जैव विविधता, प्राकृतिक
पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन आदि के क्षेत्र में काम कर
रहे वैज्ञानिक अक्सर अपने निष्कर्षों के ग्रह के भविष्य और मनुष्यों के अस्तित्व
पर निहितार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। उनके द्वारा दिए गए बयानों से लोगों
में डर पैदा हो सकता है। वे ऐसा अनजाने में या जानबूझकर करते हैं ताकि नीति
निर्माताओं और प्रशासन तंत्रो का ध्यान आकर्षित कर सकें और उन्हें तत्काल कार्रवाई
के लिए प्रेरित कर सकें। लेकिन कई बार ऐसे बयानों की गुणवत्ता की जांच उस सख्ती से
नहीं की जाती है जितनी विज्ञान की मांग होती है। यह अत्यंत आवश्यक है कि वैज्ञानिक
सार्वजनिक बयानों पर गंभीरता से विचार करें ताकि उन पर सनसनी फैलाने का दोष न लगे।
प्रजातियों के विलुप्त होने के दावे इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकते हैं।
1980 के दशक के बाद से, कुछ
प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा हर दशक में हज़ारों प्रजातियों के विलुप्त होने सम्बंधी
बयान आते रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध अमेरिकी जीवविज्ञानी ई. ओ. विल्सन
ने जैव विविधता संरक्षण का आव्हान करते हुए कहा था: ‘मानव गतिविधियों के कारण
प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया तेज़ी से जारी है,
यदि ऐसा चलता रहा तो
इस सदी के अंत तक आधी से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ (न्यू यॉर्क
टाइम्स सन्डे रिव्यू, 4 मार्च 2018;
https://eowilsonfoundation.org/the-8-millionspecies-wedont-know/)। मानवजनित गतिविधियों के कारण प्रजातियों
के विलुप्त होने की ऐसी उच्च दर की बात विश्वभर के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी दोहराते
रहे हैं ताकि जैव-विविधता संरक्षण के प्रयासों को गति मिल सके। हाल ही में
अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के संदर्भ में भारत में प्रकाशित हुए एक लेख में कहा
गया था: ‘वर्ष 2000 के बाद से हमने विश्व स्तर पर 7 प्रतिशत अछूते वनों को खो दिया
है, और हाल ही के आकलनों से संकेत मिलता है कि आने वाले दशकों
में 10 लाख से अधिक प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। हमारा देश भी इन
रुझानों का अपवाद नहीं है।’ (दी हिंदू,
5 जून 2021)। हालांकि
प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में संभावित वृद्धि से इन्कार तो नहीं किया जा
सकता है लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी उच्च दरों के दावों के समर्थन में
शायद ही कोई डैटा उपलब्ध है। यदि वास्तव में प्रजातियां इतनी उच्च दर से विलुप्त
हो रही हैं, तो पिछले कुछ दशकों के दौरान लाखों प्रजातियों को हमेशा के
लिए विलुप्त हो जाना चाहिए था। और यदि इनमें से एक अंश को ही सूचीबद्ध किया जाए तो
भी विलुप्त प्रजातियों की संख्या चंद हज़ार से अधिक तो होनी चाहिए थी। लेकिन हमारे
पास विश्व भर की ऐसी एक हज़ार प्रजातियों की सूची भी नहीं है जिन्हें पिछले कुछ
दशकों में निश्चित रूप से विलुप्त प्रजातियों की सूची में रखा जा सके। आईयूसीएन की
रेड लिस्ट वेबसाइट (https://www.iucn.org/sites/dev/files/import/downloads/species_extinction_05_2007.pdf),
के अनुसार ‘पिछले 500
वर्षों में मानव गतिविधियों ने 869 प्रजातियों को विलुप्त (या प्राकृतिक स्थिति
में गायब) होने के लिए मजबूर किया है।‘ ज़ाहिर है,
पिछले 50 वर्षों में
यह संख्या बहुत ही कम रही होगी! यानी हमारे दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास
डैटा ही नहीं है। यदि जनता के द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है, तो
वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिकों के रूप में हम खुद को कहां पर खड़ा पाते हैं?
यकीनन इस असहज स्थिति से बच निकलने का एक
रास्ता तो हमेशा रहता है। कहा जा सकता है कि ‘जब हमारे पास इस बात की पूरी जानकारी
नहीं है कि हमारे पास क्या है, तो हम यह कैसे बता सकते हैं कि हम क्या खो
रहे हैं?’ चलिए इसे सही मान लेते हैं। लेकिन विलुप्त होने की दर इतनी
अधिक बताई जा रही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान ‘ज्ञात और वर्णित प्रजातियों में
से कुछ सैकड़ा को तो विलुप्त हो ही जाना चाहिए था।’ लेकिन तथ्य यह है कि जैव
विविधता पर काम शुरू होने के पिछले चार दशकों के दौरान हमारे पास निश्चित रूप से
विलुप्त हो चुकी 100 प्रजातियों की भी सत्यापित सूची नहीं है। हालांकि, मीडिया
में अक्सर ऐसे सनसनीखेज़ दावे किए जाते रहे हैं कि आईयूसीएन के अनुसार, पिछले
दशक में, 160 प्रजातियां विलुप्त हुई हैं,
और इसके तुरंत बाद ही
एक पुछल्ला जोड़ दिया जाता है: हालांकि ‘अधिकांश प्रजातियां काफी लंबे समय से
विलुप्त हैं’ (https://www.lifegate.com/extinct-specieslist-decade-2010-2019)। दूसरे शब्दों में, विलुप्त
प्रजातियों के दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास कोई डैटा भी मौजूद नहीं है, और
यदि है भी तो जिन प्रजातियों को ‘संभवत: विलुप्त प्रजाति माना जा रहा था’ उनमें से
कई प्रजातियों के बारे में पता चल रहा है कि वे अभी मौजूद या जीवित हैं!!
इसके अतिरिक्त,
संरक्षण
जीवविज्ञानियों द्वारा प्रजातियों को लाल सूची में डलवाकर डर का माहौल भी बनाया
जाता है ताकि प्रजातियों के संरक्षण की ओर ध्यान आकर्षित किया जा सके। हालांकि इस
कवायद के पीछे की भावना काफी प्रशंसनीय है लेकिन इसकी कार्य प्रणाली की जांच-परख
आवश्यक है। प्रजातियों की लाल सूची तैयार करने का कार्य आईयूसीएन और कई अन्य
एजेंसियों को सौंपा गया है जिन्होंने ऐसे कई मानदंड तैयार किए हैं जिनके आधार पर
प्रजातियों को खतरे की विभिन्न श्रेणियों (जैसे विलुप्त,
प्राकृतिक स्थिति में
विलुप्त, लुप्तप्राय, जोखिमग्रस्त आदि) में वर्गीकृत किया जा
सकता है (https://www.iucnredlist.org/resources/categories-and-criteria)। अलबत्ता,
खतरे के आकलन के लिए
आवश्यक डैटा प्राप्त करने के कष्टदायी कार्य के कारण सभी मानदंडों को पूरी तरह
लागू नहीं किया जाता है। इस प्रकार, ठोस डैटा की अनुपस्थिति में, ‘एहतियाती
सिद्धांत’ का सहारा लेते हुए, सख्त मानकों का पालन नहीं किया जाता और
प्रजातियों को लाल सूची या अन्य श्रेणियों में व्यक्तिपरक मूल्यांकन के आधार पर सूचीबद्ध
किया जाता है। कुछ वर्ष पहले, दक्षिण भारत के लाल-सूचिबद्ध औषधीय पौधों
की प्रजातियों के डैटा का उपयोग करते हुए हमने यह जानने का प्रयास किया कि क्या ये
पौधे वास्तव में लाल सूची से बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ (फैलाव में)
हैं और कम प्रजनन करते हैं (करंट साइंस,
2005, 88, 258-265)।
खोज के परिणाम आश्चर्यजनक थे: सांख्यिकीय दृष्टि से लाल-सूचीबद्ध प्रजातियां इस
सूची के बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ नहीं हैं और न ही वे अपनी
जनसंख्या संरचना में किसी प्रकार से कम हैं। हालांकि,
औषधीय पौधों की प्रजातियों
पर मंडराते खतरों को कम न आंकते हुए और यह मानते हुए कि संरक्षण प्रयासों के लिए
आमतौर पर अत्यधिक मेहनत और धन की आवश्यकता होती है,
क्या यह बेहतर नहीं
होगा कि उन प्रजातियों की सूची तैयार करने में सावधानी बरती जा जाए जिन्हें
‘वास्तव में’ संरक्षण की आवश्यकता है?
आइए अब हम ऐसे दावों के खतरों पर चर्चा करते हैं। ऐसे अपुष्ट दावों का इस्तेमाल नीति निर्माताओं और शासन तंत्र पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है ताकि वे जैव विविधता पर ध्यान दें। वे इसके लिए अपने लक्षित पाठकों/श्रोताओं के बीच भय की स्थिति (यह शब्द माइकल क्रेटन द्वारा जलवायु परिवर्तन सम्बंधी इसी नाम के एक उपन्यास से लिया गया है) बनाते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि चूंकि हमारे पास अपने दावे के समर्थन में ठोस डैटा नहीं है इसलिए भय की इस स्थिति का निर्वाह नहीं किया जा सकता! इस तरह की रणनीति उस उद्देश्य को ही परास्त कर सकती है जिसके लिए ये दावे किए (या रचे!!) जा रहे हैं। वास्तव में, एक असमर्थित और अस्थिर ‘भय की स्थिति’ बनाना लंबे समय में काफी खतरनाक है; और इस विषय में उन वैज्ञानिकों को गंभीर रूप से विचार-विमर्श करना चाहिए जो निर्वाह-योग्य भविष्य का ढोल आए दिन पीटते रहते हैं। ध्यान आकर्षित करने, धन जुटाने, नीति और शासन को प्रभावित करने के उत्साह में हम एक जवाबदेह मूल्यांकन और रिपोर्टिंग की परंपरा की बजाय जनता और मीडिया के बीच एक अस्थिर भय पैदा करने की जल्दबाज़ी में हैं। ऐसे समय में हम वैज्ञानिकों को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वैज्ञानिक समुदाय अपनी विश्वसनीयता ही खो दे। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख पूर्व में करंट साइंस (अंक 121, क्रमांक 1, 10 जुलाई 2021) में प्रकाशित हुआ था।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://timesofindia.indiatimes.com/img/68307032/Master.jpg
जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो में आयोजित महासम्मेलन के साथ ही
जलवायु परिवर्तन के लिए स्थापित कोश पर चर्चा बढ़ गई है। इस कोश की स्थापना वर्ष
2009 में कोपनहेगन में आयोजित जलवायु परिवर्तन के महासम्मेलन में की गई थी। इस
घोषणा के अनुसार विकासशील व निर्धन देशों की जलवायु सम्बंधी कार्रवाइयों में
सहायता के लिए सम्पन्न देशों को 2020 तक 100 अरब डॉलर के जलवायु परिवर्तन कोश की
स्थापना करनी थी।
इस कोश की वास्तविक प्रगति निराशाजनक रही है। इसके लिए उपलब्ध धनराशि इस समय
भी 100 अरब डॉलर वार्षिक से कहीं कम है। इतना ही नहीं, जहां
पूरी उम्मीद थी कि यह सहायता अनुदान के रूप में उपलब्ध होगी, वहां वास्तव में इस सहायता का मात्र लगभग 20 प्रतिशत ही अनुदान के रूप में
उपलब्ध करवाया गया व शेष राशि तरह-तरह के कर्ज़ के रूप में दी गई। यह एक तरह से
विश्वास तोड़ने वाली बात है। भला जलवायु परिवर्तन नियंत्रण के उपाय को ब्याज पर दिए
गए कर्ज़ से कैसे पाया जा सकेगा? आरोप तो यह भी है कि इसी कोश
से धनी देशों की अपनी परियोजनाओं को भी धन दिया जा रहा है।
इस तरह यह कोश इस समय बुरी तरह भटक गया है। अब यह मांग ज़ोर पकड़ रही है कि इसे
अपने मूल उद्देश्य के अनुरूप पटरी पर लाया जाए तथा विकासशील व निर्धन देशों के लिए
100 अरब डालर के वार्षिक अनुदान की व्यवस्था मूल उद्देश्य के अनुरूप की जाए।
इतना ही नहीं, अब इससे आगे यह मांग भी उठ रही है कि निकट
भविष्य में 100 अरब डॉलर की अनुदान राशि में और वृद्धि भी की जाए। यह मांग अफ्रीका
महाद्वीप के अनेक गणमान्य विशेषज्ञों व जलवायु परिवर्तन वार्ताकारों ने रखी है और
स्पष्ट किया है कि अकेले उनके अपने महाद्वीप की ही ज़रूरत इससे कहीं अधिक है।
तुलना के लिए यह देखा जा सकता है कि विश्व के अरबपतियों की कुल संपदा 13,000
अरब डालर है। यदि इस पर मात्र 2 प्रतिशत टैक्स भी जलवायु परिवर्तन सम्बंधी कार्यों
के लिए अलग से लगाया जाए तो इससे 260 अरब डॉलर उपलब्ध हो सकते हैं।
यदि विश्व के केवल 10 सबसे बड़े अरबपतियों की ही बात की जाए तो इनकी कुल संपदा
1153 अरब डॉलर है। इनमें से 4 सबसे बड़े अरबपति ऐसे हैं जिनकी संपदा 100-100 अरब
डॉलर से अधिक है।
केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वर्ष में मात्र शराब पर 252 अरब डॉलर खर्च
होते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका व युरोपीय संघ में सिगरेट पर 1 वर्ष में 210 अरब
डॉलर से अधिक खर्च होते हैं। इस तरह के अनाप-शनाप खर्च को देखते हुए जलवायु
परिवर्तन के लिए यह कोई बड़ी मांग नहीं है। जिस समस्या को सबसे बड़ी वैश्विक समस्या
माना जा रहा है उसके कोश के लिए 100 अरब डॉलर से कहीं अधिक की व्यवस्था की जानी
चाहिए।
यदि इस धन की व्यवस्था अनुदान के रूप में सुनिश्चित हो जाती है तो इससे ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को कम करने व जलवायु परिवर्तन के दौर में बढ़ने वाली आपदाओं व कठिनाइयों का सामना करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण कार्य हो सकते हैं। विशेषकर वनों की रक्षा, नए वृक्षारोपण, चारागाहों की हिफाज़त, मिट्टी व जल संरक्षण, प्राकृतिक खेती के क्षेत्र में ऐसे कार्य संभव हो सकते हैं। अक्षय ऊर्जा को सही ढंग से बढ़ावा दिया जा सकता है। किसानों की टिकाऊ आजीविका को अधिक मजबूत किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, टिकाऊ आजीविका की रक्षा व जलवायु परिवर्तन के संकट को कम करने के कार्य एक साथ बढ़ाए जा सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
हाल ही में आयोजित 26वें जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-26) में
लगभग 200 देशों ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को जल्द से जल्द खत्म करने और कोयले के
उपयोग को कम करने का अभूतपूर्व और ऐतिहासिक संकल्प लिया है। ग्लासगो में आयोजित 14
दिवसीय सम्मेलन में 196 देशों ने अगले वर्ष ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित करने के
लिए अधिक मज़बूत जलवायु योजनाएं तैयार करने की प्रतिबद्धता दिखाई है।
कॉप-26 में लिए गए संकल्पों के आधार पर अनुमान है कि इस सदी में वैश्विक
तापमान 2.4 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ेगा जबकि सम्मेलन से पहले 2.7 डिग्री सेल्सियस
का अनुमान था। बहरहाल, 2.4 डिग्री की वृद्धि भी गंभीर जलवायु
प्रभाव पैदा कर सकती है। यह पेरिस समझौते के तहत निर्धारित 1.5 डिग्री या 2 डिग्री
सेल्सियस के लक्ष्य से अधिक ही है।
ऐसा माना जा रहा है कि 2022 के अंत में नई योजनाओं को प्रस्तुत करने का मतलब
यह है कि 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य छोड़ा नहीं गया है। यह भी कहा जा रहा है
कि उनमें यह बात भी शामिल की जानी चाहिए कि यदि सरकारें अपने लक्ष्य को पूरा नहीं
कर पाती हैं तो वे जवाबदेह होंगी। कई देशों की वर्तमान योजनाएं अपर्याप्त हैं और
उन्हें मज़बूत करने की आवश्यकता है।
26 वर्षों से चली आ रही जलवायु वार्ता में ऐसा पहली बार हुआ है जब कोयला और
जीवाश्म ईंधन सब्सिडी का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है। गौरतलब है कि कोयला
दहन ग्लोबल वार्मिंग के प्रमुख कारणों में से एक है और कोयला, तेल एवं गैस पर विश्व स्तर पर प्रति वर्ष 5.9 ट्रिलियन डॉलर की सब्सिडी दी
जाती है।
ग्लासगो क्लाइमेट संधि के अंतिम मसौदे में सभी देशों ने अक्षम सब्सिडीज़ को
खत्म करने के प्रयासों में तेज़ी लाने के प्रति सहमति दिखाई। लेकिन अंतिम समय में
भारत के हस्तक्षेप ने कोयले के उपयोग सम्बंधी निर्णय को कमज़ोर कर दिया और कोयले के
उपयोग को “चरणबद्ध तरीके से खत्म” करने की बजाय “चरणबद्ध तरीके से कम” करने को ही
मंज़ूरी मिली। इस निर्णय में “नियंत्रित” कोयले को शामिल किया गया यानी कोयले का
ऐसा उपयोग जिसके साथ कार्बन को अवशोषित करके भंडारण की व्यवस्था हो।
सम्मेलन में लिए गए निर्णयों से जलवायु कार्यकर्ताओं को काफी निराशा हुई है।
सम्मेलन में 2030 तक उत्सर्जनों को आधा करने का निर्णय लिया जाना था जो 1.5 डिग्री
सेल्सियस तक तापमान में वृद्धि को सीमित करने के लिए आवश्यक है। लेकिन विशेषज्ञों
के अनुसार एक ही सम्मेलन से अत्यधिक उम्मीद रखना उचित नहीं है। यह निर्णय पर्याप्त
तो नहीं हैं लेकिन यह एक प्रक्रिया है जिसकी शुरुआत में कुछ अच्छे परिणाम देखने को
मिले हैं। 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य काफी कमज़ोर डोरी से टंगा है लेकिन अच्छी
बात है कि यह आज भी जीवित है।
एक अच्छी बात यह भी है कि कई देशों ने माना है कि उनकी योजनाएं संतोषप्रद नहीं
हैं और वादा किया है कि वे अगले वर्ष अधिक बेहतर योजनाओं के साथ शामिल होंगे
जिसमें 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि के लक्ष्य को ध्यान में रखा जाएगा।
इस सम्मेलन में वित्त सम्बंधी पिछले संकल्पों की भी चर्चा रही। उच्च-आय वाले
देशों द्वारा कम-आय वाले देशों को 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर की वित्तीय
सहायता के वादे को पूरा करने में अभी 2 वर्ष का समय और लगेगा। देशों ने इस विषय
में खेद व्यक्त करते हुए बताया कि 2019 में 80 अरब डॉलर ही प्रदान किए गए हैं और
उसमें से भी एक चौथाई राशि तो जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन बैठाने के लिए थी।
अगले तीन वर्षों में एक नई योजना तैयार करने पर भी सहमति बनी है जिसमें 2025 के
बाद जलवायु वित्त लक्ष्यों पर चर्चा की जाएगी।
पिछले कई सम्मेलनों में उत्सर्जन में कटौती की चर्चा में अनदेखा किए गए
अनुकूलन के मुद्दे को भी उठाया गया। इस बार, उच्च-आय
वाले देशों ने 2025 तक अनुकूलन वित्त को दोगुना करते हुए प्रति वर्ष 40 अरब डॉलर
करने का निर्णय लिया है और भविष्य की वार्ताओं में भी वैश्विक अनुकूलन लक्ष्य पर
काम करने के लिए भी सहमत हुए हैं।
सम्मेलन में 77 विकासशील देशों के एक समूह और चीन द्वारा “नुकसान और
क्षतिपूर्ति” के मुद्दे के लिए वित्तीय सहायता की मांग के प्रस्ताव स्वीकृति नहीं
मिल सकी। यदि इस प्रस्ताव को मान लिया जाता तो यह समुद्र के बढ़ते स्तर और इन्तहाई
मौसम जैसे प्रभावों के लिए उच्च-आय वाले देशों से कम-आय वाले देशों को वित्तीय
क्षतिपूर्ति के क्षेत्र में पहला कदम होता। फिर भी देशों ने जलवायु परिवर्तन के
प्रतिकूल प्रभावों से जुड़े नुकसान और क्षतिपूर्ति के लिए वित्त के विषय में चर्चा
जारी रखने का वादा किया है।
देशों ने पेरिस समझौते के महत्वपूर्ण तकनीकी नियमों पर भी स्पष्टीकरण किए हैं
जो पहली वैश्विक जलवायु संधि के समय से अबूझ रहे हैं। ऐसा एक मुद्दा “वैश्विक
कार्बन बाज़ार” का है। देशों के लिए नए कार्बन लक्ष्यों के लिए “सामान्य समय-सीमा”
की समस्या को भी हल किया गया। उत्सर्जन में कटौती की रिपोर्टिंग में पारदर्शिता
नियमों की समस्या को भी हल किया गया।
इस सम्मेलन के शुरुआत में देशों ने वनों की कटाई को रोकने, कोयले के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण को रोकने, तेल और गैस की नई परियोजनाओं को रोकने और शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन पर अंकुश लगाने के लिए स्वैच्छिक रूप से सौदे किए। सम्मेलन में भारत ने 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन की घोषणा की। ऑस्ट्रेलिया और सऊदी अरब सहित कई देशों नें भी नेट-ज़ीरो लक्ष्य को प्राप्त करने की घोषणा की है। इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान विश्व उत्सर्जन का लगभग 90 प्रतिशत नेट-ज़ीरो लक्ष्य में शामिल हो गया है। अगला जलवायु सम्मेलन मिस्र में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2021/11/CLIMATE-SUMMIT-5.jpg
हाल ही में वैज्ञानिकों के एक संघ ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट ने
बताया है कि लॉकडाउन के चलते कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में आई गिरावट इस वर्ष के
अंत तक वापस अपने पुराने स्तर पर पहुंच सकती है। रिपोर्ट का अनुमान है कि जीवाश्म
ईंधन के जलने से कार्बन उत्सर्जन बढ़कर 36.4 अरब टन हो जाएगा जो पिछले वर्ष की
तुलना में 4.9 प्रतिशत अधिक है। चीन और भारत में कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए
शोधकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि यदि सरकारें कोई ठोस कदम नहीं उठातीं तो यह
उत्सर्जन अगले वर्ष नए सिरे से बढ़ना शुरू हो जाएगा।
रिपोर्ट में भूमि-उपयोग में परिवर्तन – जैसे सड़कों के लिए जंगल कटाई या
चारागाह को जंगल में तबदील करना – की वजह से उत्सर्जन के नए अनुमान भी प्रस्तुत
किए गए हैं। हालांकि, जीवाश्म ईंधनों के उपयोग में वृद्धि जारी
है लेकिन पिछले एक दशक में भूमि-उपयोग में परिवर्तन से उत्सर्जन में कमी के चलते
कुल उत्सर्जन थमा रहा है। अलबत्ता, विशेषज्ञों के अनुसार
भूमि-उपयोग के रुझानों में काफी अनिश्चितता बनी रहती है और कुछ भी तय करना जल्दबाज़ी
होगी।
ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के मुताबिक 2020 में लॉकडाउन के चलते जीवाश्म ईंधनों
से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में 5.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी। एक अन्य संगठन
कार्बन मॉनीटर का अनुमान थोड़ी अधिक गिरावट का था।
वैज्ञानिकों को उत्सर्जन में वापिस कुछ हद तक वृद्धि की तो उम्मीद थी लेकिन यह
अटकल का मामला था कि कितनी और किस दर से यह वृद्धि होगी। खास तौर से सवाल यह था कि
लड़खड़ाती अर्थव्यवस्थाएं हरित ऊर्जा में कितना निवेश करेंगी।
इस विषय में कार्बन मॉनीटर के अनुसार लॉकडाउन खुलने के बाद से ऊर्जा की मांग
में वृद्धि को जीवाश्म ईंधनों से ही पूरा किया जा रहा है। वैज्ञानिकों का ऐसा
अनुमान है कि आने वाले वर्ष में उत्सर्जन और बढ़ेगा।
जलवायु परिवर्तन पर सरकारों की समिति के ग्लासगो सम्मेलन (कॉप 26) में पहले ही
राष्ट्रीय,
कॉर्पोरेट और वैश्विक स्तर पर कई महत्वपूर्ण संकल्प लिए जा
चुके हैं। इस सम्मेलन में भारत सहित कई देशों ने एक समयावधि में नेट-ज़ीरो उत्सर्जन
का वादा किया है। सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया है जो ग्रीनहाउस गैसों का प्रमुख स्रोत है।
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अंतर सरकारी पैनल का अनुमान है कि 2015
के पैरिस जलवायु समझौते में तय किए गए लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पूरी
दुनिया को 2030 तक अपने उत्सर्जनों को लगभग आधा करना होगा ताकि वैश्विक तापमान में
वृद्धि को औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखा जा सके। लेकिन
यह लक्ष्य काफी कठिन लग रहा है। हालांकि, अक्षय-उर्जा तकनीकों का
उपयोग तो बढ़ रहा है लेकिन आशंका है कि बिजली की मांग को पूरा करने में प्रमुख रूप
से अक्षय ऊर्जा का उपयोग होने में लंबा समय लगेगा।
इस रिपोर्ट में ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक संयुक्त राज्य अमेरिका, युरोपीय संघ,
भारत और चीन के रुझानों का स्वतंत्र रूप से विश्लेषण करके
बताया गया है कि उत्सर्जन अपने महामारी-पूर्व स्तर पर लौट रहा है। अमेरिका और
युरोपीय संघ में जहां महामारी के पहले जीवाश्म-ईंधन का उपयोग कम होने लगा था वहां
2021 में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के तेज़ी से बढ़ने का अनुमान है लेकिन यह 2019
से 4 प्रतिशत नीचे है। भारत में इस वर्ष कार्बन उत्सर्जन में 12.6 प्रतिशत वृद्धि
की संभावना है। विश्व के सबसे बड़े उत्सर्जक चीन ने महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था
को बढ़ाने के लिए कोयले का पुन:उपयोग शुरू कर दिया।
रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि इस वर्ष चीन द्वारा जीवाश्म-ईंधन उत्सर्जन चार
प्रतिशत बढ़कर 11.1 अरब टन हो जाएगा जो महामारी-पूर्व के स्तर से 5.5 प्रतिशत अधिक
है।
रिपोर्ट में कुछ सकारात्मक पहलू भी बताए गए हैं। इसमें 23 ऐसे देशों का ज़िक्र किया गया है जिनका उत्सर्जन कुल वैश्विक उत्सर्जन का लगभग एक-चौथाई है। ये वे देश हैं जिन्होंने महामारी के पूर्व एक दशक से अधिक के समय में अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साथ-साथ जीवाश्म-ईंधन जनित उत्सर्जन पर अंकुश लगाया है। देखा जाए तो आज हमारे पास तकनीक है और पता है कि क्या करना है। मुद्दा निर्णय लेने और उसके कार्यान्वयन का है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-021-03036-x/d41586-021-03036-x_19825822.jpg
ग्लासगो में आयोजित 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन
सम्मेलन (कॉप-26) के शुरुआती दिनों में विश्व भर के राजनेताओं द्वारा जलवायु
परिवर्तन से निपटने के लिए कई घोषणाएं की गईं। इन घोषणाओं में चरणबद्ध तरीके से
कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को वित्तीय सहायता बंद करने से लेकर वनों की कटाई पर
प्रतिबंध लगाना तक शामिल थे। नेचर पत्रिका ने इस वार्ता में अब तक लिए गए
निर्णयों और संकल्पों पर शोधकर्ताओं के विचार जानने के प्रयास किए हैं।
मीथेन उत्सर्जन
वार्ता के पहले सप्ताह में मीथेन उत्सर्जन को रोकने के प्रयासों पर चर्चा हुई
जो कार्बन डाईऑक्साइड के बाद जलवायु को सबसे अधिक प्रभावित करती है। 100 से अधिक
देशों ने वर्ष 2030 तक वैश्विक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करने का संकल्प
लिया।
वैसे,
वैज्ञानिकों का मानना है कि 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 50
प्रतिशत तक की कमी करने का संकल्प बेहतर होता। फिर भी, वे 30
प्रतिशत को भी एक अच्छी शुरुआत के रूप में देखते हैं। शोध से पता चला है कि उपलब्ध
तकनीकों का उपयोग करके मीथेन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने से वर्ष 2100 तक वैश्विक
तापमान में 0.5 डिग्री सेल्सियस की कमी आ सकती है।
गौरतलब है कि यूएस संसद में जलवायु के मुद्दे से जूझ रहे अमेरिकी राष्ट्रपति
ने ग्लासगो सम्मलेन में तेल और गैस उद्योगों द्वारा मीथेन उत्सर्जन को रोकने के
लिए नए नियमों की घोषणा की है। यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी द्वारा प्रस्तावित
नियमों के मुताबिक कंपनियों को 2005 की तुलना में आने वाले दशक में मीथेन उत्सर्जन
में 74 प्रतिशत तक कमी करना होगी। ऐसा हुआ तो 2035 तक लगभग 3.7 करोड़ टन मीथेन
उत्सर्जन रोका जा सकेगा। यह अमेरिका में यात्री वाहनों और वाणिज्यिक विमानों से
होने वाले वार्षिक कार्बन उत्सर्जन के बराबर है।
भारत का नेट-ज़ीरो लक्ष्य
भारत की ओर से प्रधानमंत्री द्वारा वर्ष 2070 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन की
घोषणा उत्साह का केंद्र रही। वैसे भारत द्वारा निर्धारित समय सीमा कई अन्य देशों
से दशकों बाद की है और घोषणा में यह भी स्पष्ट नहीं है कि भारत केवल कार्बन
डाईऑक्साइड उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिए प्रतिबद्ध है या इसमें अन्य ग्रीनहाउस
गैसें भी शामिल हैं। फिर भी यह काफी महत्वपूर्ण घोषणा है और अमल किया जाए तो अच्छे
परिणाम मिल सकते हैं।
वैसे सालों बाद नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के संकल्पों को लेकर वैज्ञानिकों का मत है
इस तरह के दीर्घकालिक वादे करना तो आसान होता है लेकिन इन्हें पूरा करने के लिए
अल्पकालिक निर्णय लेना काफी कठिन होता है। लेकिन भारत के संकल्प में निकट-अवधि के
मापन योग्य लक्ष्य शामिल किए गए हैं। उदाहरण के लिए भारत ने 2030 तक देश की बिजली
का 50 प्रतिशत अक्षय संसाधनों के माध्यम से प्रदान करने और कार्बन डाईऑक्साइड
उत्सर्जन को एक अरब टन कम करने का वादा किया है। फिर भी इन लक्ष्यों को परिभाषित
और उनके मापन की प्रकिया पर सवाल बना हुआ है।
कुछ मॉडल्स से ऐसे संकेत मिलते हैं कि यदि सभी देशों द्वारा नेट-ज़ीरो संकल्पों
को लागू किया जाए तो 50 प्रतिशत संभावना है कि ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस
या उससे कम तक सीमित किया जा सकता है।
जलवायु वित्त
वित्तीय क्षेत्र के 450 से अधिक संगठन जैसे बैंक, फंड
मेनेजर्स और बीमा कंपनियों ने 45 देशों में अपने नियंत्रण में 130 ट्रिलियन
अमेरिकी डॉलर के फंड को ऐसे क्षेत्रों में निवेश करने का निर्णय लिया है जो 2050
तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए प्रतिबद्ध हैं। हालांकि संस्थानों ने अभी तक इन
लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कोई अंतरिम लक्ष्य या समय सारणी प्रस्तुत नहीं की
है।
सरकारों ने स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश की भी घोषणा की है। यूके, पोलैंड,
दक्षिण कोरिया और वियतनाम सहित 40 देशों ने घोषणा की है
2030 तक (बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के लिए) या 2040 तक (वैश्विक स्तर पर) कोयला बिजली
संयंत्रों को चरणबद्ध रूप से समाप्त किया जाएगा और नए कोयला आधारित बिजली
संयंत्रों के लिए सरकारी धन के उपयोग पर रोक लगाई जाएगी।
एक दिक्कत यह है कि ऐसी घोषणाओं को आम तौर पर सरकारों द्वारा अनदेखा कर दिया
जाता है। उदाहरण के लिए 2009 में निम्न और मध्यम आय वाले देशों को 2020 तक जलवायु
वित्त के तौर पर वार्षिक 100 अरब डॉलर देने के वचन को पूरा करने में सरकारें विफल
रही हैं। रिपोर्ट के अनुसार इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अभी 2 वर्ष का समय
और लगेगा और 70 प्रतिशत वित्त तो कर्ज़ के रूप में दिया जाएगा। ऐसे कर्ज़ों के
पीछे कई शर्तें छिपी रहती हैं।
निर्वनीकरण पर रोक
सम्मेलन में 130 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों को होने वाली क्षति और
भूमि-क्षरण को रोकने का संकल्प लिया है। ब्राज़ील, डेमोक्रेटिक
रिपब्लिक ऑफ कांगो और इंडोनेशिया (जहां दुनिया के 90 प्रतिशत जंगल हैं) ने भी इस
संकल्प पर हस्ताक्षर किए हैं। गौरतलब है कि ऐसे संकल्प पहली बार नहीं लिए गए हैं।
2014 में न्यूयॉर्क डिक्लेरेशन ऑफ फॉरेस्ट में लगभग 200 से अधिक देशों, कंपनियों,
देशज समूहों और अन्य गठबंधनों ने 2020 तक वनों की कटाई दर
को आधा करने और 2030 तक इसे पूरी तरह खत्म करने का आह्वान किया था। इसमें जैव
विविधता को होने वाली क्षति को धीमा करने और अंततः उसको उलटने के लिए संयुक्त
राष्ट्र का लंबे समय से चला आ रहा संकल्प भी शामिल है। लेकिन बिना किसी आधिकारिक
निगरानी के यह निरर्थक ही है। शोधकर्ताओं के अनुसार एक प्रवर्तन तंत्र के बिना इन
लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव है।
इसके अलावा, उच्च आय वाले देशों के एक समूह ने 2021 और 2025 के बीच वन संरक्षण के लिए 12 अरब डॉलर का सरकारी वित्त प्रदान करने का संकल्प लिया था लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया था कि यह धन राशि कैसे प्रदान की जाएगी। कनाडा, अमेरिका, यूके और युरोपीय संघ सहित कई देशों के संयुक्त वक्तव्य में बताया गया कि सरकारें “निजी क्षेत्र के साथ मिलकर काम करेंगी” ताकि “बड़े स्तर पर बदलाव के लिए निजी स्रोतों से धन मिल सके।” ज़ाहिर है, वित्त मुख्य रूप से ऋण के रूप में दिया जाएगा। फिर भी, ये निर्णय काफी आशाजनक हैं। पिछले कुछ जलवायु सम्मेलनों और इस वर्ष ग्लासगो में प्रकृति और वनों पर काफी चर्चाएं हुई हैं। इससे पहले की बैठकों में जैव विविधता पर बात नहीं होती थी। संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता और जलवायु को अलग-अलग चुनौतियों के रूप में देखता था। इन विषयों पर चर्चा भविष्य के लिए काफी महत्वपूर्ण हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.dw.com/image/59812388_101.jpg
अक्षय उर्जा की ओर बढ़ने में सबसे बड़ी वित्तीय बाधा जीवाश्म
ईंधनों को मिलने वाली सब्सिडी है। हर वर्ष, दुनिया
भर की सरकारें जीवाश्म ईंधनों की कीमत कम रखने के लिए लगभग 5 खरब डॉलर खर्च करती
हैं। यह नवीकरणीय उर्जा पर किए जाने वाले खर्च से तीन गुना अधिक है। इसे खत्म करने
के संकल्पों के बाद भी स्थिति बदली नहीं है।
वैसे,
इस तरह के परिवर्तन लाना असंभव नहीं है। जिनेवा स्थित एक शोध
समूह ग्लोबल सब्सिडीज़ इनिशिएटिव (जीएसआई) के अनुसार 2015 से 2020 के बीच लगभग 53
देशों ने अपनी जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में सुधार किया है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी
(आईए) ने 2021 में जारी रिपोर्ट में कहा है कि नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन के लिए
आने वाले वर्षों में सभी सरकारों को जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना होगा।
सब्सिडी के प्रकार
आम तौर पर जीवाश्म ईंधन पर दो प्रकार की सब्सिडी दी जाती हैं। पहली, उत्पादन सब्सिडी जिसमें कर में छूट से कोयला, तेल, या गैस की उत्पादन लागत में कमी होती है। यह पश्चिमी देशों में अधिक देखने को
मिलती हैं। आयल चेंज इंटरनेशनल, कनाडा के विश्लेषक ब्रॉनवेन
टकर के अनुसार यह सब्सिडी बुनियादी ढांचा स्थापित करने में उपयोगी होती है।
दूसरी उपभोग सब्सिडी होती हैं जो उपयोगकर्ताओं के लिए ईंधन के दामों में कमी
करती हैं। पेट्रोल पंपों पर दाम बाज़ार दर से कम रखे जाते हैं। यह सब्सिडी आम तौर
पर कम आय वाले देशों में अधिक देखने को मिलती है जहां लोग खाना पकाने के लिए
स्वच्छ ईंधन का खर्च नहीं उठा सकते हैं। मध्य पूर्व के देशों में इन सब्सिडीज़ को
लोगों को प्राकृतिक संसाधनों से लाभान्वित करने के रूप में देखा जाता है।
आईए और आर्गेनाईज़ेशन फॉर इकॉनॉमिक कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) का अनुमान
है कि विश्व के 90 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन की आपूर्ति करने वाली 52 उन्नत और उभरती
हुई अर्थव्यवस्थाओं ने 2017 से 2019 के बीच औसतन 555 अरब अमेरिकी डॉलर की सब्सिडी
प्रदान की है। हालांकि, 2020 में कोविड-19 महामारी के दौरान कम
ईंधन खपत और गिरते दामों के कारण यह 345 अरब डॉलर रही।
लेकिन कई संगठन सब्सिडी का अनुमान लगाने की प्रक्रिया से असहमत हैं। एक बड़ी
जटिलता यह है कि जीवाश्म ईंधन के कुछ सार्वजनिक फंडिंग में सब्सिडी और गैर-सब्सिडी
दोनों के तत्व मौजूद हैं। फिर भी पिछले वर्ष नवंबर में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर
सस्टेनेबल डेवलपमेंट (आईआईएसडी) ने सभी सार्वजनिक फंडिंग को ध्यान में रखते हुए
अनुमान लगाया है कि केवल G20 समूह के देशों ने 2017 से
2019 के बीच प्रति वर्ष 584 अरब डॉलर की सब्सिडी दी है जो ओईसीडी-आईए के विश्लेषण
से काफी अधिक है। इनमें सबसे बड़े सब्सिडी प्रदाताओं में चीन, रूस,
सऊदी अरब और भारत शामिल हैं।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि जीवाश्म ईंधनों की छिपी हुई लागत जैसे वायु
प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग पर उनके प्रभाव को अनदेखा करना भी एक प्रकार की
सब्सिडी है। पिछले माह जारी एक रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश ने इन सभी
को ध्यान में रखते हुए 2020 में कुल जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी की गणना 59 खरब डॉलर की
है जो वैश्विक जीडीपी का 9 प्रतिशत है।
सब्सिडी बंद करना कठिन क्यों?
एक बड़ी समस्या तो परिभाषा की है। G7 और G20
देशों ने अकार्यक्षम जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को खत्म करने का वादा तो किया है लेकिन
उन्होंने इस जुम्ले को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया है। कुछ देशों का तो दावा
है कि वे सब्सिडी देते ही नहीं हैं जिसे खत्म किया जाए। एक उदाहरण यूके का है जो
जीवाश्म ईंधन के उपयोग पर कुछ टैक्स को छोड़ देता है और सीधे अपने तेल और गैस
उद्योग का फंडिंग करता है।
इसके अलावा,
प्रत्येक राष्ट्र के पास जीवाश्म ईंधन पर सब्सिडी देने के
अपने कारण हैं जो अक्सर उनकी औद्योगिक नीतियों से जुड़े हैं। उत्पादन सब्सिडी को
हटाने में तीन मुख्य बाधाएं हैं। पहली, जीवाश्म ईंधन कंपनियां
राजनैतिक रूप से शक्तिशाली हैं। दूसरा, लोगों की नौकरी जाने का
खतरा। और तीसरा,
यह चिंता कि ऊर्जा की बढ़ती कीमतों से आर्थिक विकास में कमी
और मुद्रास्फीति में तेज़ी आ सकती है।
वैसे,
इन सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। जैसे जीवाश्म ईंधन
कंपनियों को धन न देकर उसका उपयोग उर्जा की बढ़ती कीमतों के प्रभावों की भरपाई के
लिए किया जा सकता है। जीएसआई के अनुसार फिलीपींस, इंडोनेशिया, घाना और मोरक्को ने सब्सिडी हटाने की क्षतिपूर्ति करने के लिए नगद हस्तांतरण
और शिक्षा निधि और गरीब परिवारों को स्वास्थ्य बीमा जैसी सहायता प्रदान की है।
इसके साथ ही सरकार को जीवाश्म ईंधन श्रमिकों को वैकल्पिक रोज़गार खोजने में मदद की
भी योजना बनाना चाहिए।
ऊर्जा सब्सिडी को हटाने के लिए राजनैतिक झिझक को दूर करने का एक तरीका यह है
कि समर्थन जारी रखा जाए किंतु उसे हरित ऊर्जा को बढ़ावा देने से जोड़ दिया जाए।
जीवाश्म ईंधन उद्योगों को नवीकरणीय उर्जा के क्षेत्र में कदम रखना चाहिए। उदाहरण
के लिए,
डेनमार्क की ओर्स्टेड नामक एक सरकारी कंपनी जीवाश्म ईंधन से
विश्व की सबसे बड़ी नवीकरणीय उर्जा उत्पादक में परिवर्तित हुई है।
इसके अतिरिक्त, तेल की कम कीमतों के दौरान खपत सब्सिडीज़ को
हटाना एक अच्छा विचार है। आईआईएसडी के अनुसार, तेल का
आयात करने वाले देश भारत ने तेल की कम कीमतों का लाभ उठाते हुए 2014 से 2019 के
बीच तेल और गैस सब्सिडी काफी कम कर दी है।
तेल की कम कीमतों ने सऊदी अरब को अपने भारी सब्सिडी वाले घरेलू जीवाश्म ईंधन
और बिजली की कीमतों में वृद्धि करने में मदद की। इस देश ने 2016 से ईंधन की कीमतों
में धीरे-धीरे वृद्धि करके काफी तेज़ी से विकास किया है। इसने कम आय वाले परिवारों
को नगद मदद प्रदान करके मूल्य वृद्धि के प्रभावों को कुछ हद तक कम कर दिया है।
हालांकि,
कोविड-19 महामारी के मद्देनज़र कुछ कदम वापिस ले लिए गए हैं।
यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि जलवायु नीतियां कम आय वाले समुदायों को नुकसान न
पहुंचाएं। जब 2019 में इक्वेडोर ने तेज़ी से ईंधन कर में वृद्धि की तो नागरिकों के
व्यापक विरोध ने सरकार को पुन: सब्सिडी शुरू करने को मजबूर किया। जब भारत ने
एलपीजी गैस के लिए अपनी सब्सिडी को कम किया तो उम्मीद थी कि ग्रामीण आबादी को खाना
पकाने के लिए मुफ्त एलपीजी सिलिंडर देकर ऊंची कीमतों की भरपाई हो जाएगी।
जलवायु परिवर्तन पर प्रभाव
आईआईएसडी की जुलाई की रिपोर्ट के अनुसार, 32
देशों में खपत सब्सिडी को हटाने से वर्ष 2025 तक उनके ग्रीनहाउस उत्सर्जन में औसतन
6 प्रतिशत की कमी आएगी। यह वर्ष 2018 की संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट से भी मेल
खाती है जिसमें जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने से 2020 से 2030 तक
वैश्विक उत्सर्जन में 1 प्रतिशत से 11 प्रतिशत की कमी आ सकती है। इसका सबसे बड़ा
प्रभाव मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में होगा। इस कमी की भरपाई नवीकरणीय उर्जा के
उपयोग को प्रोत्साहित करके की जा सकती है।
इंटरनेशनल रिन्यूएबल एनर्जी एजेंसी (आईआरईएनए) की एक रिपोर्ट के अनुसार
ऊर्जा-क्षेत्र की 634 अरब डॉलर सब्सिडी में से लगभग 70 प्रतिशत जीवाश्म ईंधन, 20 प्रतिशत अक्षय उर्जा, 6 प्रतिशत जैव ईंधन और 3
प्रतिशत परमाणु उर्जा के लिए है। इस प्रकार का असंतुलन पेरिस जलवायु लक्ष्यों को
प्राप्त करने में एक बड़ी बाधा है।
आईआरईएनए ने अपनी रिपोर्ट में एक खाका भी पेश किया है कि 2050 तक वैश्विक
तापमान में वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लिए वैश्विक उर्जा सब्सिडी
में किस तरह के परिवर्तन करना होंगे।
परिवर्तन की संभावनाएं
ग्लासगो,
यूके में नवंबर में होने वाले जलवायु शिखर सम्मलेन COP26 से पहले इतालवी राष्ट्रपति ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध तरीके से
समाप्त करने का विचार रखा है। इसी तरह इस वर्ष जनवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति
बाइडेन ने जीवाश्म ईंधन सब्सिडी में कटौती करने के कार्यकारी आदेश जारी किए हैं
जिनका अनुमोदन संसद द्वारा होने के बाद ही लागू होंगे। रूस अभी भी जीवाश्म ईंधन पर
निर्भर है इसलिए वह लगभग 2060 तक कार्बन तटस्थ होने की कोशिश करेगा।
कुछ जलवायु अधिवक्ताओं ने उत्सर्जन में कमी के नाम पर नई टेक्नॉलॉजी के लिए नई
सब्सिडी के खिलाफ चेतावनी दी है। उदाहरण के लिए, ‘ब्लू’
हाइड्रोजन के लिए सब्सिडी का विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। गौरतलब है कि ‘ब्लू’
हाइड्रोजन वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीवाश्म ईंधन से हाइड्रोजन बनाई
जाती है और इसके उप-उत्पाद के रूप में उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड को एक जगह
संग्रहित कर दिया जाता है। विशेषज्ञों के अनुसार जीवाश्म ईंधन कंपनियां भारी-भरकम
सब्सिडी प्राप्त करने के लिए ऐसी परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं।
G20 और G7 शिखर सम्मलेन के दौरान, छोटे देशों के समूह काफी समय से सब्सिडी सुधार पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 2019 में कोस्टा रिका, फिजी, आइसलैंड, न्यूज़ीलैंड और नॉर्वे द्वारा शुरू की गई व्यापार और जलवायु परिवर्तन पर एक पहल का उद्देश्य जीवाश्म ईंधन सब्सिडी को समाप्त करना और सदस्य देशों के बीच पर्यावरणीय वस्तुओं के व्यापार की बाधाओं को दूर करना है। वैसे ये देश सब्सिडी देने वाले बड़े देश तो नहीं हैं लेकिन इनके द्वारा इस तरह के निर्णय अन्य देशों के लिए मिसाल कायम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.greenpeace.org/usa/wp-content/uploads/2021/02/GP0STPXHV_Medium_res.jpg
प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से ऑक्सीजन उत्सर्जन की क्षमता के कारण पेड़ों को पृथ्वी के फेफड़े कहा जाता है। शहरी क्षेत्रों की वायु गुणवत्ता काफी खराब हो गई है जिसके मानव-जीवन पर भी प्रभाव पड़ रहे हैं। ऑक्सीजन स्पा या कृत्रिम ऑक्सीजन वातावरण को वायु प्रदूषण के विकल्प के रूप में पेश किया जा रहा है। इस पृष्ठभूमि में, शहरी क्षेत्रों में वृक्षों के आवरण को बढ़ाने के समर्थन में आवाज़ें उठ रही हैं ताकि ऑक्सीजन की उपलब्धता बढ़ सके। वायु प्रदूषकों को दूर करने के लिए वृक्षों की संख्या बढ़ाना तो तार्किक विचार है लेकिन अधिक वृक्ष लगाकर ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि करके वायु की गुणवत्ता में सुधार करने के विचार के अधिक विश्लेषण की आवश्यकता है। इस संदर्भ में एक सवाल यह उभरता है – विभिन्न वृक्ष प्रजातियों द्वारा कितनी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है और इसका मापन कैसे किया जाए? वायुमंडलीय शोधकर्ताओं के अनुसार वायुमंडल की ऑक्सीजन सांद्रता में काफी समय से कोई बदलाव नहीं आया है। इसके अलावा, स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र समुद्री और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र की तुलना में ऑक्सीजन का उत्पादन कम करते हैं। वैसे भी, शहरी पेड़ों या शहरी हरियाली के कई अन्य फायदे भी हैं, तो क्या हमें वास्तव में शहरी वृक्षों से ऑक्सीजन उत्पादन के बारे में चिंता करने की ज़रूरत है?
यह लेख मूलत: करंट साइंस (सितंबर 2021) में प्रकाशित हुआ था। सुरेश रमणन एस. केन्द्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान, झांसी तथा अन्य तीन लेखक केन्द्रीय शुष्क भूमि अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।
वायु प्रदूषण, खराब वायु गुणवत्ता और कणीय
पदार्थ (पीएम2.5,
पीएम10) की उच्च सांद्रता कुछ ऐसे सामान्य जुम्ले हैं जो
अक्सर सुर्खियों में रहते हैं। समाचार पत्रों में ऑक्सीजन बार, ऑक्सीजन सिलिंडर और ऑक्सीजन स्पा के बारे में भी लेख देखने को मिलते हैं। औद्योगिक
क्रांति और शहरीकरण ने वायु गुणवत्ता को खराब कर दिया है जिसका मनुष्यों पर भी
गंभीर प्रभाव हुआ है। वायु प्रदूषण की समस्या को लेकर कोई विवाद नहीं है। लेकिन
वायु प्रदूषण के विकल्प के रूप में ऑक्सीजन स्पा या कृत्रिम ऑक्सीजन वातावरण की
पेशकश पर बहस निरंतर जारी है। ऑक्सीजन स्पा के विचार पर अभी तक पेशेवर चिकित्सक
किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं। दूसरी ओर, पर्यावरणविद
वायु प्रदूषण से सम्बंधित समस्याओं के समाधान के रूप में अधिक से अधिक पेड़ लगाने
और शहरों में हरित आवरण बढ़ाने पर ज़ोर दे रहे हैं। वृक्षारोपण के समर्थक अक्सर इस
कथन का उपयोग करते हैं – “पेड़ हमें ऑक्सीजन देते हैं और हमें जीने के लिए ऑक्सीजन
ज़रूरी है।”
1970 के दशक में भी, वायुमंडलीय हवा में ऑक्सीजन की
कमी पर काफी अस्पष्टता थी। वॉलेस स्मिथ ब्रोकर का कहना है कि यदि सभी प्रकार के
जीवाश्म ईंधनों के भंडार को जला भी दिया जाए तब भी वायुमंडल में ऑक्सीजन के घटने
की कोई संभावना नहीं है। साथ ही, अपने लेख में उन्होंने यह भी
बताया है कि मानवजनित गतिविधियों के कारण जलीय पारिस्थितिक तंत्र में ऑक्सीजन (घुलित
ऑक्सीजन) की कमी होने की काफी संभावना है। वे कहते हैं, “ऐसे
सैकड़ों अन्य तरीके हैं जिनसे हम ऑक्सीजन आपूर्ति में मामूली-सा नुकसान करने से
पहले अपनी संतानों के भविष्य को खतरे में डाल सकते हैं।” वायुमंडल में ऑक्सीजन की
मात्रा 21 प्रतिशत है जिसमें अधिक बदलाव नहीं आया है। लगभग 2.5 अरब वर्ष पहले
स्थिति अलग थी;
उस समय का वातावरण ऑक्सीजन रहित था। भूवैज्ञानिकों और
वायुमंडलीय शोधकर्ताओं ने उस समय का अंदाज़ दिया है जब पृथ्वी के वायुमंडल में
ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि हुई थी। इस घटना को ग्रेट ऑक्सीजनेशन इवेंट (महा-ऑक्सीकरण
घटना) का नाम दिया गया है। इस क्षेत्र में ज़्यादा स्पष्टता के लिए शोधकर्ता आज भी
काम कर रहे हैं।
ग्रेट ऑक्सीजनेशन इवेंट की समयावधि पर अनिश्चितता के बावजूद, वैज्ञानिकों के बीच इस बात पर सहमति है कि स्थलीय के साथ-साथ समुद्री स्वपोषी
जीवों से (प्रकाश संश्लेषण द्वारा) मुक्त ऑक्सीजन ने ग्रह पर जीवन को आकार दिया
है। एक पर्यावरण समर्थक की दलील है कि वायु प्रदूषण से निपटने का ज़्यादा प्रभावी
तरीका वृक्षारोपण है। कई अध्ययनों में इस बात का मापन करके साबित किया गया है कि
पेड़ सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), कण पदार्थों
(PM10) और ओज़ोन (O3) को हवा में से हटा सकते हैं। पेड़ों द्वारा कार्बन
डाईऑक्साइड (CO2) और अन्य गैसों को हटाना स्वाभाविक लग सकता है लेकिन पेड़ों की भी कुछ सीमाएं
होती हैं। इस संदर्भ में पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों के बीच भिन्नता होती है।
वायु प्रदूषकों के विभिन्न स्तरों का पेड़ों की वृद्धि यानी चयापचय (प्रकाश
संश्लेषण और श्वसन दोनों) पर प्रभाव पड़ सकता है। यह अलग-अलग प्रजातियों की तनाव
सहन करने की क्षमता पर निर्भर करता है।
तकनीकी रूप से, वायु प्रदूषण वास्तव में हवा में अवांछनीय, हानिकारक गैसों और पदार्थों का जुड़ना है जो या तो प्राकृतिक रूप से या फिर
मानव-जनित गतिविधियों के माध्यम से आते हैं। शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता
कभी-कभी इतनी खराब हो जाती है जो श्वसन के लिए अनुपयुक्त होती है। जैसा कि पहले भी
बताया गया है कि वायुमंडलीय ऑक्सीजन की सांद्रता में तो कोई बदलाव नहीं आया है
लेकिन कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), SO2 और अन्य प्रदूषकों के शामिल
होने से यह अनुपयुक्त हो गई है। कुछ अध्ययनों में शहरी क्षेत्रों में ऑक्सीजन की
सांद्रता में कमी का उल्लेख हुआ है। हालांकि इस संदर्भ में काफी अनिश्चितता है, लेकिन वायु प्रदूषकों को दूर करने के लिए पेड़ों की संख्या में वृद्धि और
स्थानीय स्तर पर ऑक्सीजन की सांद्रता को बढ़ाकर वायु की गुणवत्ता में सुधार करना एक
तर्कसंगत विचार है। इससे एक सवाल उठता है: पेड़ों की विभिन्न प्रजातियों द्वारा
कितनी ऑक्सीजन का उत्पादन होता है और उसकी मात्रा कैसे नापी जाती है? यह सवाल शोध का विषय बना हुआ है।
प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन
प्रकाश संश्लेषण एक जैव रासायनिक प्रक्रिया है जो पृथ्वी पर जीवन यापन के लिए
ऊर्जा प्रदान करती है। इस प्रक्रिया के दौरान, ऑक्सीजन
एक सह-उत्पाद के रूप में मुक्त होती है जिसने ग्रह के जैव विकास के इतिहास को ही
बदल दिया है। इसी प्रकार, पौधों में प्रकाशीय श्वसन की
प्रक्रिया उनकी वृद्धि और विकास को सुनिश्चित करती है। इसलिए प्रकाश संश्लेषण और
श्वसन ऐसी महत्वपूर्ण प्रक्रियाएं हैं जिन्होंने शोधकर्ताओं को काफी उलझाया है।
विभिन्न स्वपोषी जीवों में प्रकाश संश्लेषण और श्वसन दर के मापन के प्रयास आज भी
पादप कार्यिकी में अनुसंधान का प्रमुख विषय है। पादप कार्यिकी अनुसंधान में यह
माना जाता है कि पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर गैस विनिमय की दर, यानी CO2 और O2 प्रवाह,
के बराबर होती है। अत: ओटो वारबर्ग जैसे शुरुआती शोधकर्ताओं
ने पौधों में प्रकाश संश्लेषण दर की मात्रा निर्धारित करने के लिए गैस विनिमय दर
के मापन का प्रयास किया था।
1937 में पृथक्कृत क्लोरोप्लास्ट से प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन मापन का प्रयास
किया गया था। इसी प्रकार के एक प्रयोग के माध्यम से, मेहलर
और ब्राउन ने ऑक्सीजन के समस्थानिक (18O2) का उपयोग करके यह साबित
किया था कि प्रकाश संश्लेषण के दौरान मुक्त ऑक्सीजन पानी के अणु के विभाजन से
प्राप्त होती है। 1980 के दशक में प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन मापन पर अन्य
महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं।
वैज्ञानिक दृष्टि से, ऑक्सीजन मापन का कार्य दो
स्थितियों में किया जाता है – एक जलीय (तरल माध्यम) में और दूसरा गैसीय माध्यम
में। मीठे पानी के अलावा समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में घुलित ऑक्सीजन मापन के लिए
भी काफी प्रभावी तरीके हैं। हालांकि, प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन
उत्सर्जन और मीठे पानी में घुलित ऑक्सीजन के बीच काफी अंतर होता है। कई शोधकर्ताओं
ने प्रकाश संश्लेषी ऑक्सीजन के मापन के लिए कई विधियां और उपकरण विकसित किए हैं।
कई प्रयासों के बावजूद कुछ सवाल अनुत्तरित हैं। उदाहरण के लिए, जर्नल ऑफ प्लांट फिज़ियोलॉजी में प्रकाशित एक शोध पत्र पर
टिप्पणी में होलोवे फिलिप्स ने कहा था कि पिछले 20 वर्षों में सजीवों में in vivo (यानी स्वयं जीव के अंदर) ऑक्सीजन प्रवाह सम्बंधी अनुसंधानों में गिरावट आई है।
एक अन्य शोध कार्य में एकीकृत बायोसेंसर का उपयोग करके ऑक्सीजन की रियल-टाइम
इमेजिंग का भी प्रयास किया गया लेकिन यह अध्ययन पौधे से अलग की गई पत्तियों पर
किया गया था।
कुल मिलाकर,
ऐसा लगता है कि स्वपोषी जीवों द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन के
आकलन के लिए उपलब्ध विभिन्न तरीकों में से प्रत्येक के कुछ फायदे हैं तो कुछ
नुकसान भी हैं। इस विषय में 100 वर्षों से अधिक समय से चल रहे अनुसंधान के बाद भी
अनिश्चितता बनी हुई है। अर्थात शहरी पेड़ों के ऑक्सीजन उत्पादन के अनुमानों के बारे
में थोड़ा संदेह रखना ठीक है।
वृक्षों में ऑक्सीजन उत्पादन
ऐसे अध्ययन भी हुए हैं जो पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा (कभी-कभी तो
धन के रूप में) निर्धारित करते हैं। पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा
निर्धारित करने के लिए व्यापक रूप से दो तरीके अपनाए जाते हैं:
(i)
शुद्ध प्राथमिक उत्पादकता (नेट प्राइमरी प्रोडक्टिविटी या
एनपीपी) का मापन एक पोर्टेबल प्रकाश संश्लेषी यंत्र की मदद से किया जाता है। इसकी
मदद से यह पता चल जाता है कि पत्ती ने एक निश्चित समय में कितनी कार्बन डाईऑक्साइड
का अंगीकरण किया है। इसके आधार पर मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा (पत्ती के प्रति इकाई
क्षेत्रफल) की गणना की जाती है।
(ii) कार्बन के स्थिरीकरण के आधार
पर मुक्त ऑक्सीजन की मात्रा निर्धारित करने के एक अनुभवजन्य समीकरण का उपयोग भी
किया जा सकता है।
दोनों ही तरीके श्वसन प्रक्रिया के दौरान ऑक्सीजन खपत को ध्यान में रखते हुए
एक पेड़ द्वारा उत्सर्जित ऑक्सीजन की नेट मात्रा निर्धारित करते हैं। इन दोनों ही विधियों
में व्यापक अंतर है। पहली विधि में कुल ऑक्सीजन उत्पादन की मात्रा एक विशिष्ट
समयावधि की ज्ञात होती है क्योंकि उसका मापन पत्तियों की वास्तविक संख्या और
पत्तियों की अन्य विशेषताओं (जैसे वाष्पोत्सर्जन दर, रंध्री
प्रवाह,
अंत: कोशिकीय CO2 सांद्रता और अन्य
मापदंडों) पर निर्भर करता है। और दूसरी विधि पेड़ द्वारा उस समय तक उत्पादित कुल
ऑक्सीजन का मापन करती है क्योंकि यह अतीत में स्थिरीकृत कार्बन पर निर्भर है। इस
विधि में यह भी माना जाता है कि कार्बन स्थिरीकरण की उच्च मात्रा का मतलब यह है कि
कुल ऑक्सीजन उत्पादन भी अधिक है। इसके अलावा, अनुभवजन्य
पद्धति का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि इसमें पेड़ की प्रकृति, उसकी
विकास दर,
वृक्ष की बनावट और पत्ती के क्षेत्रफल आदि का ध्यान नहीं
रखा जाता है। उदाहरण के तौर पर, अनुभवजन्य समीकरण के आधार पर
कैज़ोरीना जैसे तेज़ी से बढ़ने वाले पेड़ों का ऑक्सीजन उत्पादन भी अधिक होता है।
वास्तव में,
किसी पेड़ द्वारा अपने अब तक के जीवन काल में उत्सर्जित
ऑक्सीजन की बजाय ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता का अनुमान लगाना अधिक महत्व रखता है।
गंभीर मुद्दा: समय की ज़रूरत
प्रकाश संश्लेषण और प्रकाश श्वसन दर मापन के वैज्ञानिक प्रयास सदियों पुराने
हैं। शोधकर्ता सटीक और अचूक अनुमान लगाने के तरीकों पर काम कर रहे हैं। कुछ
अध्ययनों को छोड़कर पेड़ों से उत्सर्जित ऑक्सीजन या ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता अब तक
वैज्ञानिक सवाल नहीं रहा है। हालांकि, तरीकों पर सहमति के अभाव
के चलते,
ऑक्सीजन उत्सर्जन या उत्पादन के आधार पर पेड़ों के मूल्यांकन
को लेकर सवाल उठाए जाते रहे हैं। लेकिन इस विषय पर विशेष रूप से ध्यान देने की
ज़रूरत है क्योंकि कुछ वृक्ष प्रजातियों की उच्च ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता को लेकर
गलत सूचनाएं व्याप्त हैं।
खास तौर पर बंगाल फ्लाईओवर परियोजना से सम्बंधित मुकदमे को देखा जा सकता है।
स्थानीय प्रशासन ने पुलों के निर्माण के लिए 356 पेड़ों को काटने का प्रस्ताव रखा
था। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्सर्जित करने के आधार पर
पेड़ों के महत्व का विचार पेश किया। बाद में शीर्ष अदालत में इसी विचार के आधार पर
कृष्णा-गोदावरी सड़क परियोजना के लिए 2940 पेड़ों को काटने की अनुमति नहीं दी गई।
आम तौर पर,
पेड़ों की क्षतिपूर्ति उनकी इमारती लकड़ी और जैव-पदार्थ मान
के आधार पर की जाती है। इस मान को या तो वृद्धि समीकरणों या उपज तालिकाओं और
कभी-कभी वास्तविक जैव-पदार्थ मापन के आधार पर निर्धारित किया जाता है। भारतीय
संदर्भ में पेड़ों के कुल वर्तमान मूल्य का अनुमान लगाने से लिए अधिक व्यवस्थित
विधियों का उपयोग भी किया जा रहा है।
वास्तव में विवाद पेड़ों के मूल्यांकन की पद्धति का नहीं बल्कि ऑक्सीजन के
स्रोत के रूप में उनकी उपयोगिता के आधार पर मूल्यांकन का है। देखा जाए तो शहरी
पेड़ों या शहरी हरियाली के कई अन्य लाभ भी हैं, तो
क्या हमें वास्तव में शहरी पेड़ों द्वारा ऑक्सीजन उत्पादन की चिंता करने की ज़रूरत
है?
इसके साथ ही, क्या पेड़ों द्वारा मुक्त
ऑक्सीजन वास्तव में हमारी सांस की हवा की गुणवत्ता में सुधार करती है? यह सवाल इसलिए उभरकर सामने आता है क्योंकि हमारे समक्ष ऐसे अध्ययन हैं जिनमें
यह बताया गया है कि शहरी क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता SO2, PM2.5 या PM10 जैसे प्रदूषकों के कारण खराब हुई है, लेकिन
इस बात का समर्थन करने के लिए पर्याप्त अध्ययन नहीं हैं कि शहरी क्षेत्रों में
ऑक्सीजन सांद्रता आसपास हरियाली वाले क्षेत्रों की तुलना में कम है।
इसी तरह, भारत में ऐसी मान्यता है कि कुछ वृक्षों जैसे बरगद (फायकस बेंगालेंसिस), पीपल (फायकस रिलीजिओसा), नीम (एज़ाडिरेक्टा इंडिका) आदि में उच्च ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता होती है। इस विषय में अधिक वैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता है ताकि शहरी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में कुछ वृक्ष प्रजातियों के प्रभुत्व को रोका जा सके। हाल ही में, शोधकर्ता शहरी क्षेत्रों की हरियाली और शहरी वनों का उपयोगिता मूल्य बढ़ाने के लिए पेड़ों में विविधता की हिमायत कर रहे हैं। इसके अलावा, शहरी क्षेत्रों में रोपण के लिए वृक्ष प्रजातियों को उनकी उपयोगिता के आधार पर प्राथमिकता देने का विचार कई परिस्थितियों में भ्रामक हो सकता है। क्योंकि ऐसा कोई भी चयन स्थान-विशिष्ट होना चाहिए न कि हर जगह के लिए एक-सा। अच्छा तो यह होगा कि शहरी वृक्षारोपण कार्यक्रमों में स्थानीय वृक्ष प्रजातियां पहली पसंद हों, जब तक किसी प्रजाति का खास तौर से PM2.5 निवारण या ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता जैसे उपयोगिता मूल्यों के आधार पर सुव्यवस्थित मूल्यांकन न हो जाए। (स्रोत फीचर्स)
यह लेख मूलत: करंट साइन्स (सितंबर 2021) में प्रकाशित हुआ था। सुरेश रमणन एस. केन्द्रीय कृषि वानिकी अनुसंधान संस्थान, झांसी तथा अन्य तीन लेखक केन्द्रीय शुष्क भूमि कृषि अनुसंधान संस्थान से सम्बद्ध हैं।
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://wiki.nurserylive.com/uploads/default/original/2X/3/3bb4636ee45a843ce874be470ed7d988530fa535.jpg