कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों से होने वाले गंभीर प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के बावजूद, सरकार द्वारा अधिसूचित मानक काफी हद तक कागज़ों तक ही सीमित हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारत कभी सख्त उत्सर्जन नियंत्रण व्यवस्था के तहत काम कर पाएगा?
प्राचीन बिजली उत्पादन के लिए स्वच्छ ईंधन के बढ़ते उपयोग से भारतीय ऊर्जा क्षेत्र में कोयले की भूमिका पर बहस छिड़ गई है। हालिया वर्षों में आर्थिक और नीतिगत परिवर्तनों के चलते बिजली उत्पादन में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी बढ़ी है। नतीजतन, कोयले की हिस्सेदारी धीरे-धीरे घटने की उम्मीद तो है लेकिन आने वाले कुछ समय तक कोयले के कुल उपयोग में वृद्धि होती रहेगी। इसके साथ ही ताप बिजली घरों से प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी जोखिम भी बरकरार रहेंगे।
भारत के बिजली उत्पादक इलाकों में तो प्रदूषण स्तर में निरंतर वृद्धि होती रही है। यह देखा गया है कि कोरबा और सिंगरौली जैसे इलाकों में ताप बिजली घर ज़्यादा हैं, वहां प्रदूषण स्तर भी ज़्यादा है। ताप बिजली घरों के उत्सर्जन और सम्बंधित समस्याओं को नियंत्रित करने के लिए उत्सर्जन मानकों का निर्धारण अनिवार्य है। यह ताप बिजली घरों (थर्मल पॉवर प्लांट, टीपीपी) के निकट रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका पर पड़ने वाले प्रभावों को कम करने के लिए ज़रूरी है।
वर्ष 2015 तक, टीपीपी के लिए उत्सर्जन मानक केवल कणीय पदार्थ यानी पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) के उत्सर्जन तक ही सीमित थे। फिर 7 दिसंबर 2015 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (एमओईएफसीसी) द्वारा पर्यावरण संरक्षण (संशोधन) नियम, 2015 के तहत इसमें कुछ परिवर्तन किए गए। इस संशोधित नियमावली में ताप बिजली घरों में पीएम के लिए कड़े मानक निर्धारित करने के अलावा सल्फर डाईऑक्साइड (SO2), नाइट्रस ऑक्साइड्स (NOx), पारा (Hg) उत्सर्जन और पानी की खपत को लेकर भी नए मानक निर्धारित किए गए और 1 जनवरी 2017 के बाद स्थापित सभी टीपीपी के लिए शून्य अपशिष्ट जल निकासी भी अनिवार्य कर दी गई। भारतीय कोयले में आम तौर पर सल्फर की मात्रा कम होती है, इसलिए SO2 उत्सर्जन के मानकों की ज़रूरत पर कुछ मतभेद रहे। हालांकि, शोध से प्राप्त निष्कर्षों के अनुसार SO2 से द्वितीयक पीएम का निर्माण होता है जो पीएम प्रदूषण में प्रमुख योगदान देता है। अत: SO2 उत्सर्जन पर अंकुश लगाना भी आवश्यक है। इन नियमों को सभी टीपीपी संयंत्रों पर दो साल के भीतर यानी दिसंबर 2017 तक लागू करना अनिवार्य किया गया था। इस अधिसूचना को जारी हुए 6 वर्ष बीत चुके हैं और अब इसकी ज़मीनी हकीकत की समीक्षा लाज़मी है।
पर्यावरणीय मानक ऊर्जा क्षेत्र को कैसे प्रभावित करते हैं?
अक्सर देखा गया है कि टीपीपी के लिए निर्धारित किए गए उत्सर्जन मानकों पर चर्चाओं में इस बात पर कोई चर्चा नहीं होती कि इनके अनुपालन के लिए क्या ठोस कदम उठाने होंगे। पहली बात तो यह कि निर्धारित मानकों के अनुसार टीपीपी संयंत्रों को नए प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) स्थापित करना होगा या पुराने उपकरणों में सुधार करने होंगे। इन उपकरणों का प्रकार संयंत्र के आकार, स्थान और आयु के साथ-साथ प्रयुक्त कोयले जैसे कई कारकों पर निर्भर करता है। इसके अलावा विभिन्न प्रकार के उत्सर्जन के लिए अलग-अलग पीसीई तकनीक का उपयोग करना होता है। लेकिन जब भी पीसीई की बात आती है तो सभी मानकों और उनके अनुपालन की जांच को निकासी गैस के डीसल्फराइज़ेशन (एफजीडी) का पर्याय मान लिया जाता जाता है। एफजीडी सभी पीसीई में सबसे महंगा और जटिल उपकरण है।
इसके अलावा, पीसीई को पूरी क्षमता से संचालित होने में भी काफी समय लगता है। उदाहरण के लिए, एफडीजी उपकरण को स्थापित करने के लिए दो वर्ष से अधिक और संयंत्र से जोड़ने के लिए दो से तीन महीने के समय की आवश्यकता होती है। यदि इसमें नियोजन और समय-चक्र का ध्यान न रखा जाए तो कई टीपीपी एक ही समय पर बंद करने पड़ सकते हैं और बिजली आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।
पीसीई के लिए पूंजीगत व्यय और संचालन लागत की आवश्यकता भी होती है जिसका असर उत्पादन लागत और शुल्क पर भी पड़ता है। ऐसे टीपीपी जिनके शुल्क ‘लागत-धन-मुनाफा’ के तहत निर्धारित किए गए हैं, उनके शुल्क में बदलाव की ज़िम्मेदारी सम्बंधित विद्युत नियामक आयोग (राज्य या केंद्र) पर आती है। दूसरी ओर, जिन टीपीपी के शुल्क प्रतियोगी बोली के माध्यम से निर्धारित किए गए हैं उनके शुल्क में बदलाव बिजली खरीद अनुबंध (पीपीए) की शर्तों के अनुसार किया जाता है। कानून में उक्त परिवर्तन बिजली अधिनियम, 2003 की धारा 62 और धारा 63 के तहत शुल्क निर्धारण के बाद हुआ है, जिसके चलते पर्यावरणीय मानकों के अनुपालन के लिए अतिरिक्त खर्च भी होते हैं। कानून में इस तरह के बदलाव के चलते शुल्क में होने वाली वृद्धि को उपभोगताओं पर डाला जा सकता है। उपभोक्ताओं और पूरे बिजली क्षेत्र पर प्रभाव के अंदेशे के बावजूद अभी तक अतिरिक्त व्यय और शुल्क को लेकर पर्याप्त स्पष्टता नहीं है।
इसके अलावा, संशोधित पर्यावरण मानकों का व्यापक स्तर पर सुचारु और समयबद्ध अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए बिजली क्षेत्र के हितधारकों और संस्थानों द्वारा सही समय पर कार्रवाई करना भी ज़रूरी होता है। उदाहरण के लिए, बिजली मंत्रालय (एमओपी) को समय रहते कानूनी बदलाव की घोषणा कर देनी चाहिए थी, बिजली नियामकों को समय पर क्षेत्र-व्यापी ढांचा तैयार कर लेना चाहिए था और केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) को भी आवश्यक बेंचमार्क अध्ययन पूरे कर लेने चाहिए थे। वैसे हाल में इनमें से कुछ मोर्चों पर कार्य होते नज़र आ रहे हैं लेकिन ये काफी सीमित हैं और बहुत विलम्ब से हुए हैं।
दरअसल, एमओपी ने संशोधित पर्यावरण मानकों को कानूनी मान्यता 2018 में (अनुपालन की समय सीमा खत्म होने एक वर्ष बाद) दी थी। नियामक दिशानिर्देशों की कमी के कारण मुकदमेबाज़ी चली और देरी होती रही। इसके अलावा क्षेत्र के कई किरदारों ने भी निष्क्रियता या प्रतिकूल कार्रवाई दर्शाई। इसके अतिरिक्त, कई पर्यावरणीय मानकों को कमज़ोर किया गया और अनुपालन की समय सीमा को कई बार आगे बढ़ाया गया।
अधिसूचना के छह साल बाद
2021 के संशोधन से पहले टीपीपी को परिचालन जारी रखने के लिए 2019 (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र स्थित संयंत्र) या 2022 (अन्यत्र स्थित संयंत्र) तक पर्यावरण मानकों का पालन करना अनिवार्य था। ये मानक संयंत्रों की उम्र के आधार पर तय किए गए थे – 2004 से पूर्व, 2004 से 2016 के बीच और 2016 के बाद स्थापित संयंत्रों के लिए अलग अलग मानक निर्धारित किए गए थे। पर्याप्त बिजली आपूर्ति और समय सीमा को ध्यान में रखते हुए सीईए द्वारा एक समय-विभेदित क्रियांवयन योजना प्रस्तुत की गई। पीसीई क्रियांवयन की प्रगति को लेकर सीईए एक रिपोर्ट भी प्रकाशित करता है। यदि सब कुछ ठीक-ठाक चलता तो दिसंबर 2021 तक अधिकांश संयंत्रों में एफजीडी लग चुके होते। लेकिन, अफसोस, ऐसा नहीं हुआ।
सीईए देश की 209 गीगावॉट ताप क्षमता में से कुल 167 गीगावॉट क्षमता के संयंत्रों में एफजीडी की स्थिति की निगरानी करता है। अक्टूबर 2021 की रिपोर्ट के अनुसार लगभग आधी इकाइयों में एफजीडी स्थापित करने की समय सीमा निकल चुकी थी। इनमें से 40 प्रतिशत इकाइयां फिलहाल स्वीकृति के चरण में हैं जबकि 38 प्रतिशत के लिए निविदा आमंत्रण के नोटिस जारी किए गए हैं। चूंकि अधिकांश इकाइयों में एफजीडी स्थापित करने की प्रक्रिया अभी भी निर्माण-पूर्व चरण में है, और एफजीडी स्थापित करने में 36 महीनों का समय और लग सकता है, इसलिए 2017 की समय सीमा को 5 वर्ष बढ़ाकर 2022 कर दिया गया था। लेकिन वर्तमान स्थिति को देखते हुए 2022 तक भी एफजीडी स्थापना की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही है।
निगरानीशुदा 118 गीगावॉट क्षमता में ऐसी इकाइयां भी शामिल हैं जहां 2021 दिसंबर तक एफजीडी स्थापित करने का लक्ष्य था। इनमें से केवल 2 प्रतिशत में ही एफजीडी स्थापित किए गए हैं जबकि 38 प्रतिशत में जनवरी 2020 के बाद से कोई प्रगति देखने को नहीं मिली है। यह 2017 से पहले स्थापित संयंत्रों की बात है। अपेक्षा थी कि 2017 के बाद स्थापित संयंत्रों में संचालन शुरू होने की तारीख से ही एफजीडी/पीसीई स्थापित हो जाएंगे। अलबत्ता, 2017 के बाद स्थापित ओडिशा स्थित डार्लीपल्ली टीपीपी, राजस्थान स्थित सूरतगढ़ टीपीपी और तेलंगाना स्थित भद्राद्री टीपीपी बिना किसी पीसीई के बिजली उत्पादन कर रहे हैं। यह मानकों का उल्लंघन माना जा सकता है।
2021 के संशोधन के बाद वैसे तो इन समय सीमाओं का कोई महत्व नहीं रह गया है। अब टीपीपी को आसपास की आबादी और प्रदूषण के स्तर तथा संयंत्र की सेवानिवृत्ति की नियत तारीख के आधार पर तीन श्रेणियों – ए, बी और सी – में वर्गीकृत किया गया है। इस संशोधन में पर्यावरण क्षतिपूर्ति नामक एक दण्ड भी शामिल किया गया है जिसका भुगतान टीपीपी द्वारा किया जाएगा। यह दण्ड मानकों के उल्लंघन की अवधि के आधार पर 0.05 रुपए से 0.20 रुपए प्रति युनिट विद्युत होगा। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) ने यह तो स्पष्ट किया है कि इस दण्ड की वसूली उपभोक्ताओं से नहीं की जा सकती लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि क्या यह एक रोकथाम के उपाय के रूप में काम करेगा। उल्लंघन की स्थिति में भी उत्पादकों को स्थिर लागत तो मिलती ही रहेगी जिससे वे ब्याज अदायगी करते रहेंगे और इक्विटी पर लाभ प्राप्त करते रहेंगे। तकनीकी रूप से, टीपीपी जब तक जुर्माने का भुगतान करते रहेंगे तब तक वे बिना पीसीई के अपना काम करना जारी रख सकेंगे। आपूर्ति में स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए वितरण कंपनियां भी इनसे बिजली खरीद जारी रख सकती हैं। यदि बड़े पैमाने पर उल्लंघन की स्थिति आई, तो चिंता का विषय होगा क्योंकि ऐसी सभी इकाइयों को बंद करना तो संभव नहीं होगा।
टीपीपी को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत करने के लिए अप्रैल 2021 में एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था जो बार-बार समय सीमाओं के उल्लंघन करती रही और अभी तक हमारे सामने टीपीपी की श्रेणी के बारे कोई अधिकारिक जानकारी नहीं है। लिहाज़ा टीपीपी को अनुपालन की समय-सीमा और दण्ड की जानकारी न होने का एक बहुत सुविधाजनक बहाना मिल गया है। देखा जाए तो वर्तमान स्थापित क्षमता का लगभग 23 गीगावॉट ए श्रेणी में आता है जिस पर सबसे अधिक दण्ड है। बी श्रेणी में भी लगभग 23 गीगावॉट है और शेष 163 गीगावॉट सी श्रेणी में है जिन पर सबसे कम दण्ड है। यानी अधिकांश पीसीई-रहित संयंत्र सबसे कम दण्ड की श्रेणी में आते हैं, इसलिए अधिकांश संयंत्रों के लिए जुर्माना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है।
जवाबदेह कौन?
मानकों के उल्लंघन पर की जाने वाली आवश्यक कार्रवाई और पर्यावरणीय मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी को एक से दूसरे किरदार के बीच उछाला जाता रहा है। मानकों को अधिसूचित करने (या न करने) से ऐसा लगता है कि इन्हें लागू करने के लिए ज़िम्मेदार बिलकुल भी गंभीर नहीं हैं।
जैसे, एमओपी और सीईए ने खुद होकर कार्रवाई करने से अक्सर कन्नी काटी है। लागत और प्रौद्योगिकी की बेंचमार्किंग, मानकों का जल्दी अनुपालन करने वाली इकाइयों की समस्याओं और तालमेल के लिए आवश्यक संयंत्र-बंदी जैसे मुद्दों को सही समय पर संबोधित नहीं किया गया। फरवरी 2019 में सीईए ने मोटे तौर पर एफजीडी की मोटी-मोटी लागत के बेंचमार्किंग का काम किया और फरवरी 2020 में जाकर केवल एफजीडी के लिए प्रौद्योगिकी चयन की जानकारी प्रस्तुत की। यहां तक कि एमओपी द्वारा सीईआरसी को पीसीई से सम्बंधित लागतों को पारित करने की अनुमति मई 2018, यानी दिसंबर 2017 की प्रारंभिक समय सीमा समाप्त होने के बाद दी गई। और तो और, 2021 का संशोधन और समय सीमा आगे बढ़ाने का मामला जनवरी 2021 में संयंत्र के स्थान विशिष्ट उत्सर्जन मानकों पर सीईए के पेपर से प्रभावित था। सीईए ने सल्फर डाईऑक्साइड उत्सर्जन मानकों की समीक्षा जून 2021 में की और इन मानकों का अनुपालन करने के लिए 10 से 15 वर्ष की समय-सीमा पर अड़ा रहा। तर्क यह दिया गया कि SO2 के निम्न स्तर वाले क्षेत्रों के संयंत्रों के लिए सख्त समय सीमा निर्धारित करने की ज़रूरत नहीं है। हालांकि, इस स्पष्टीकरण में यह ध्यान नहीं रखा गया कि सल्फर डाईऑक्साइड उत्सर्जन द्वितीयक पीएम का निर्माण करता है। सीईए का यह मत और साथ में विलम्ब से लिए जाने वाले निर्णय और मानकों में ढील देने का आग्रह एजेंसियों की गंभीरता पर सवाल खड़े करता है।
अनुपालन में उत्पादकों ने काफी देरी की है। जब दिसंबर 2017 की प्रारंभिक समय सीमा प्रभावी थी तब उत्पादक सम्बंधित एसआरसी के साथ एफजीडी स्थापना के शुरुआती कार्यों को टालते रहे। उदाहरण के लिए, ललितपुर पॉवर जनरेशन कंपनी और नाभा पॉवर ने अपने एसईआरसी के समक्ष याचिकाएं नवंबर 2017 और जनवरी 2018 में जाकर दायर कीं। दूसरी समय सीमा के मामले में भी यही तरीका जारी रहा और समय सीमाएं गुज़रती रहीं। दरअसल संशोधित समय सीमा के अनुसार दिसंबर 2019 तक 16 गीगावॉट में एफजीडी स्थापित हो जाना चाहिए थे जो केवल 1 गीगावॉट में ही हो पाया है। इसके अलावा नवनिर्मित टीपीपी को शुरुआत से ही पीसीई के साथ संचालित होना चाहिए था। ऐसा नहीं हुआ और 2016 के बाद स्थापित संयंत्र बिना पीसीई के चलते रहे।
हालांकि आपूर्ति में कमी और लागत में अस्पष्टता जैसे कारकों से इन मानकों पर अमल थोड़ा मुश्किल रहा होगा लेकिन नियामकों के ढुलमुल रवैये ने भी हालात बिगाड़े। हालांकि मानकों का सम्बंध पर्यावरण से है लेकिन बिजली क्षेत्र पर भी इनका काफी प्रभाव पड़ता है। केंद्रीय और राज्य नियामकों को चाहिए था कि वे शट-डाउन के दौरान राजस्व की हानि, क्रियांवयन के पूंजीगत और परिचालन खर्च, और उपभोक्ताओं के लिए आपूर्ति और शुल्क पर प्रभाव जैसी चुनौतियों का पूर्वानुमान करके उन्हें संबोधित करते। हालांकि, 2015 के संशोधन को 2018 में जाकर कानूनी मान्यता दी गई लेकिन इसमें समुचित नियामक ढांचे के साथ स्पष्ट दिशानिर्देश शामिल नहीं थे। नियामक अनिश्चितता के चलते 2015 का संशोधन मुकदमेबाज़ी और अन्य समस्याओं में उलझा रहा और इस कारण देरी होती रही। यहां तक कि प्रारंभिक सिद्धांतत: मंज़ूरियां भी 2019 में सीईआरसी टैरिफ नियमों के साथ ही दी गईं। केंद्रीय स्तर पर स्पष्टता के कुछ प्रयास किए गए। इनमें 2019 में किया गया संशोधन और टैरिफ नियमों में बदलाव, और अतिरिक्त लागतों के टैरिफ प्रभावों और क्षतिपूर्ति को संबोधित करने वाला आदेश हैं। ये बदलाव सकारात्मक हैं लेकिन 2015 के संशोधन के पूरे पांच वर्ष बाद देखने को मिले। इनमें अभी भी जल्दी अनुपालन करने वालों को कोई प्रोत्साहन नहीं हैं। अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि पीसीई लागत की वसूली की अनुमति पीसीई की स्थापना के बाद ही दे दी जाए या फिर पर्यावरणीय मानकों को पूरा करने के बाद दी जाए। अभी तो यह भी स्पष्ट नहीं है कि 2021 संशोधन का कोई नियामिकीय प्रभाव पड़ेगा या नहीं।
एमओईएफसीसी द्वारा 2015 का संशोधन सही दिशा में एक कदम था जो कई अध्ययनों, विशेषज्ञों और सार्वजनिक परामर्शों पर आधारित था। यह अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ भी मेल खाता था। लेकिन इसके बाद से ही कई हितधारकों ने इसको कमज़ोर करने और विलम्ब से लागू करने का प्रस्ताव दिया जिसे एमओएफसीसी ने चुपचाप स्वीकार भी कर लिया। एमओएफसीसी ने सर्वोच्च्य न्यायालय में अपने हलफनामे में बिजली मंत्रालय की अलग-अलग समय पर क्रियांवयन योजना प्रस्तुत की और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए 2019 तथा बाकी राज्यों के लिए 2022 की नई समय सीमा को स्वीकार कर लिया। इसके बावजूद, 2021 में नए संशोधन और नई समय सीमा का निर्धारण किया गया। यह सर्वोच्च्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हलफनामे का उल्लंघन था। जहां तक नियमों के अनुपालन की बात है, राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (पीसीबी) निगरानी और जवाबदेही सुनिश्चित करवाने के लिए ज़िम्मेदार हैं जो इसे निभाने में ढील बरतते रहे। उदाहरण के तौर पर, 1 जनवरी 2017 के बाद शुरू किए गए संयंत्रों को नए मानदंडों का पालन करना था लेकिन उन्होंने आज तक पीसीई स्थापित नहीं किए हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड्स द्वारा एकत्रित उत्सर्जन सम्बंधी डैटा अभी तक सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है। इससे यह पता लगाना भी मुश्किल हो गया है कौन-से संयंत्र मानकों का पालन कर रहे हैं।
पर्यावरणीय मानकों के प्रति अस्पष्टता और सम्बंधित लोगों की लापरवाही 2021 के संशोधन में भी देखी जा सकती है। ऐसे में नई समय सीमा के उल्लंघन की भी काफी संभावना है।
भावी चुनौतियां
पर्यावरण संरक्षण (संशोधन) नियम, 2015 के छह वर्ष बाद संस्थागत प्रक्रियाओं और वास्तविक क्रियांवयन दोनों में बहुत कम प्रगति हुई है। सीमित कार्रवाइयां, 2021 के संशोधन में नज़र आ रहा पुन:निर्धारण, मानकों को और अधिक कमज़ोर करने और समय सीमा को एक दशक पीछे धकेलने के प्रयासों को देखते हुए लगता है कि इन मानकों के क्रियांवयन और टीपीपी के आसपास गंभीर प्रदूषण की समस्या को संबोधित करने के प्रति गंभीरता नहीं है। नियामकों द्वारा पीसीई की स्थापना पर ध्यान न देना संदेह को और बढ़ाता है। दरअसल, उत्सर्जन नियंत्रण मात्र उपकरण स्थापित करने से नहीं होगा बल्कि तभी संभव है जब प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों का उचित उपयोग किया जाए।
महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कोयला संयंत्रों को लेकर गंभीर प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के बावजूद क्या भारत सख्त उत्सर्जन नियंत्रण व्यवस्था को अपना पाएगा? (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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