वायु प्रदूषण का नया अपराधी: मानव त्वचा

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा है। घर के बाहर वायु प्रदूषण के बारे में तो हम सजग हैं। लेकिन घर के अंदर की आब-ओ-हवा हमें सुरक्षित और स्वच्छ लगती है, क्योंकि हम यह मानकर चलते हैं कि हम (या हमारा शरीर) कोई प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। लेकिन साइंस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है हमारी त्वचा खतरनाक वायु प्रदूषक पैदा करने में भूमिका निभाती है।

वायुमंडलीय रसायनज्ञों और इंजीनियरों के एक दल ने पाया है कि मानव त्वचा पर मौजूद तैलीय पदार्थ ओज़ोन से क्रिया करके क्रियाशील मुक्त मूलक उत्पन्न करता है जो फिर घर के अंदर मौजूद कई कार्बनिक यौगिकों के साथ क्रिया करके खतरनाक प्रदूषक पैदा करते हैं।

सायप्रस इंस्टीट्यूट व मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री के वायुमंडलीय रसायनज्ञ जोनाथन विलियम्स और उनके साथियों ने चार-चार वयस्क प्रतिभागियों के तीन समूह बनाए, और उन्हें अलग-अलग दिनों में शयनकक्ष जितने बड़े एक जलवायु-नियंत्रित स्टेनलेस-स्टील कक्ष में पांच घंटे तक बिठाया। फिर, अत्यधिक संवेदनशील उपकरणों की मदद से कमरे की वायु में मौजूद कार्बनिक यौगिक और हाइड्रॉक्सिल मूलक का स्तर मापा। उन्होंने एक विशेष मास्क की मदद से प्रतिभागियों की श्वास वायु में मौजूद रसायन भी जांचे ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि कक्ष की वायु में हुए परिवर्तन उनकी सांस के कारण नहीं हुए थे।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों के साथ यही प्रयोग दोहराया लेकिन इस बार उन्होंने कक्ष में ओज़ोन डाली। ओज़ोन की मात्रा 35 पार्ट्स पर बिलियन (पीपीबी)) थी – हवाई जहाज़ के यात्री ओज़ोन की लगभग इतनी ही मात्रा के संपर्क में रहते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि त्वचा का तेल स्क्वैलीन ओज़ोन के साथ क्रिया करके ऐसे यौगिक बनाते हैं जो पुन: ओज़ोन के साथ क्रिया करके हाइड्रॉक्सिल मूलक नामक शक्तिशाली ऑक्सीकारक बनाते हैं। फिर ये मूलक घर के अंदर के फर्नीचर, घरेलू क्लीनर और यहां तक कि ताज़ा पके भोजन वगैरह जैसी चीज़ों से निकलने वाले अणुओं से क्रिया करके विषैले यौगिक बनाते हैं।

सामान्यत: वायुमंडल में हाइड्रॉक्सिल मूलक तब बनते हैं जब सूर्य का प्रकाश ओज़ोन को ऑक्सीजन परमाणुओं में तोड़ता है; ये ऑक्सीजन परमाणु पानी से क्रिया करके हाइड्रॉक्सिल मूलक बनाते हैं। वैसे (चाहे अंदर हो या बाहर) वायुमंडल में मौजूद हाइड्रॉक्सिल मूलक अपने आप में हानिकारक नहीं होते। कभी-कभी तो इन हाइड्रॉक्सिल मूलकों को ‘सफाईकर्ता’ भी कहा जाता है, क्योंकि ये हवा में मौजूद हाइड्रोकार्बन प्रदूषकों के साथ क्रिया करके उन्हें हटा देते हैं। लेकिन घर के अंदर इनकी उपस्थिति खतरनाक है, क्योंकि ये हवा में मौजूद कार्बनिक यौगिकों से क्रिया करके उन्हें ऐसे रसायनों में बदल देते हैं जो सांस सम्बंधी व हृदय रोगों का कारण बनते हैं।

अपने निष्कर्षों की पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने वायु कक्ष में मौजूद रसायनों की मात्रा का डैटा ऐसे कंप्यूटर मॉडल्स में डाला, जो दर्शा सकते हैं कि त्वचा के आसपास पैदा हुए रसायन हवा में कैसे फैलेंगे।

पाया गया कि घर के अंदर हाइड्रॉक्सिल मूलक स्थिति को विकट बना देते हैं। जहां ओज़ोन चुनिंदा रसायनों से क्रिया करती है, वहीं हाइड्रॉक्सिल मूलक इतने अधिक क्रियाशील होते हैं कि उनके द्वारा उत्पादित सभी प्रकार के रसायनों का अनुमान लगाना भी मुश्किल है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि तापमान, नमी और त्वचा से संपर्क की मात्रा जैसे कई कारक हैं जो इन मूलकों के निर्माण को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए यह समझने की कोशिश चल रही है कि हवा में नमी हाइड्रॉक्सिल मूलकों के निर्माण को कैसे प्रभावित करती है।

उक्त निष्कर्ष घरेलू सामानों जैसे परफ्यूम्स, डिओडोरेंट्स और क्लीनर्स में उपस्थित रसायनों के ऑक्सीकरण के दीर्घकालिक स्वास्थ्य प्रभावों पर सवाल उठाते हैं। अन्य शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि ओज़ोन की मात्रा हाइड्रॉक्सिल मूलकों के निर्माण को कैसे प्रभावित करती है, क्योंकि किसी धूप वाले दिन में, खुली खिड़कियों वाले घर में ओज़ोन का स्तर सिर्फ 20 पीपीबी के करीब होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग में योगदान को कैसे कम करें? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (ईपीए) के मुताबिक सन 1800 के आसपास शुरू हुई औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव गतिविधियों ने अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों (जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड) और सल्फर, फॉस्फोरस के यौगिकों व ओज़ोन का उत्सर्जन किया है। इसके कारण पृथ्वी की जलवायु बदल रही है।

खतरनाक वृद्धि

औद्योगिक क्रांति के बाद से वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में 40 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है – 18वीं शताब्दी में 280 पीपीएम से बढ़कर 2020 में 414 पीपीएम। और इन 200 वर्षों में अन्य ग्रीनहाउस गैसों का स्तर भी बढ़ा है।

1800 में भारत की आबादी 17 करोड़ थी, जो आज बढ़कर 140 करोड़ हो गई है। भारत में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत आज़ादी के बाद ही यानी 75 साल पहले हुई थी। जहां इसने गरीबी कम करने में मदद की, वहीं वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि भी की है।

खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की वेबसाइट बताती है कि भारत की ग्रामीण आबादी कुल आबादी का 70 प्रतिशत है, और उनका मुख्य काम कृषि है। इनसे हमें कुल 27.5 करोड़ टन खाद्यान्न मिलता है। भारत चावल, गेहूं, गन्ना, कपास और मूंगफली का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। इस लिहाज़ से यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि भारत यथासंभव अपने कृषि क्षेत्र के कार्बन पदचिन्ह को कम करने की कोशिश करे।

कृषि विशेषज्ञों की मदद से किसान खेती में कुछ सराहनीय उपाय लाए हैं। जैसे उन्होंने खेतों में सौर पैनल लगाए हैं ताकि भूजल पंपों में डीज़ल का उपयोग कम से कम हो।

बेंगलुरु के एक स्वतंत्र पत्रकार सिबी अरासु कार्बन मैनेजमेंट पत्रिका में लिखते हैं, “जलवायु-अनुकूल कृषि आय के नए स्रोत प्रदान करती है और अधिक टिकाऊ है।” इससे भारत का सालाना कार्बन उत्सर्जन 4.5-6.2 करोड़ टन तक कम हो सकता है। सरकार और पेशेवर समूहों ने ग्रामीण किसानों की सौर पैनल लगाने में मदद की है ताकि पैसों की बचत हो और अधिक आमदनी मिल सके।

भारत के किसान न केवल चावल और गेहूं उगाते हैं बल्कि अन्य खाद्यान्न भी उगाते हैं। वर्ष 2020-21 के दौरान उन्होंने लगभग 12.15 करोड़ टन चावल और 10.90 करोड़ टन गेहूं उगाया था। वे अन्य खाद्यान्न जैसे मोटा अनाज, कसावा, और भी बहुत कुछ उगाते हैं। वे सालाना लगभग 1.2 करोड़ टन मोटा अनाज पैदा करते हैं। इसी तरह, प्रति वर्ष लगभग 2.86 करोड़ टन मक्का का उत्पादन होता है। प्रसंगवश यह भी देखा जा सकता है कि चावल की तुलना में बाजरा में अधिक प्रोटीन, वसा और फाइबर होता है। बाजरा में प्रोटीन 7.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 1.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 4.22 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है, जबकि चावल में प्रोटीन 2.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम, वसा 0.3 ग्राम प्रति 100 ग्राम और फाइबर 0.4 ग्राम प्रति 100 ग्राम होता है।

इस लिहाज़ से, हमारे आहार में चावल और गेहूं के इतर अधिक बाजरा शामिल करना हमारे लिए स्वास्थ्यकर होगा। और, चावल खाने से बेहतर है गेहूं खाना, क्योंकि गेहूं में अधिक प्रोटीन (13.2 ग्राम प्रति 100 ग्राम), वसा (2.5 ग्राम प्रति 100 ग्राम), और फाइबर (10.7 ग्राम प्रति 100 ग्राम) होता है।

एक साझा लक्ष्य

भारत में लगभग 20-39 प्रतिशत आबादी शाकाहारी है और लगभग 70 प्रतिशत आबादी मांस खाती है – मुख्यत: चिकन, मटन और मछली। भारत में कई नदियों और विशाल तट रेखा के चलते प्रचुर मछली संसाधन हैं। जूड कोलमैन द्वारा नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मछलियों में पोषक तत्व अधिक होते हैं और ये कार्बन पदचिन्ह को कम करने में मदद करते हैं। इस तरह से, किसान, मांस विक्रेता और मछुआरे सभी मिलकर हमारे कार्बन पदचिन्ह को कम करने में योगदान देंगे। हो सकता है हम दुनिया के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण बन जाएं। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दीपावली, पटाखे और प्रदूषण – सुदर्शन सोलंकी

दीपावली पर आतिशबाज़ी में अंधाधुंध पटाखे जलाए जाते है जिससे हमारे पर्यावरण को अत्यधिक नुकसान होता है। यही वजह है कि दीपावली के दौरान और इसके बाद वातावरण में प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है।

पटाखों में मुख्य रूप से सल्फर के यौगिक मौजूद होते हैं। इसके अतिरिक्त भी पटाखों में कई प्रकार के बाइंडर्स, स्टेबलाइज़र्स, ऑक्सीडाइज़र, रिड्यूसिंग एजेंट और रंग मौजूद होते हैं। रंग-बिरंगी रोशनी पैदा करने के लिए एंटीमनी सल्फाइड, बेरियम नाइट्रेट, एल्यूमीनियम, तांबा, लीथियम, स्ट्रॉन्शियम वगैरह मिलाए जाते हैं।

दीपावली का त्योहार अक्टूबर/नवंबर में आता है और इस समय भारत में कोहरे का मौसम रहता है। इस वजह से यह पटाखों से निकलने वाले धुएं के साथ मिलकर प्रदूषण के स्तर को और भी ज़्यादा बढ़ा देता है। पटाखों से निकलने वाले रसायन अल्ज़ाइमर तथा फेफड़ों के कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां का कारण बन सकते हैं। प्रदूषण का प्रभाव बड़ों की तुलना में बच्चों पर शीघ्र और ज़्यादा पड़ता है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक वायु प्रदूषण शरीर के हर अंग को नुकसान पहुंचा सकता है।

पटाखों में विभिन्न रंगों की रोशनी के लिए अलग-अलग रसायन मिलाए जाते हैं जो पर्यावरण व समस्त जीव जंतुओं को नुकसान पहुंचाते है।

 एल्युमिनियम का प्रदूषण त्वचा सम्बंधी रोग का कारण बनता है। सोडियम, मैग्नीशियम और ज़िंक का प्रदूषण मांशपेशियों को कमज़ोर करता है। कैडमियम रक्त की ऑक्सीजन वहन क्षमता को कम करता है, एनीमिया की संभावना बढ़ाता है। स्ट्रॉन्शियम कैल्शियम की कमी पैदा करके हड्डियों को कमज़ोर करता है। सल्फर सांस की तकलीफ पैदा करता है। और तांबा श्वसन नली में परेशानी पैदा करता है।

पटाखाजलाने का समय (मिनट में)PM 2.5 की मात्रा (माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर)
फुलझड़ी210,390
सांप की गोली364,500
हंटर बम328,950
अनार34,860
चकरी59,490
लड़ (1000 बम वाली)638,450

 वर्ष 2016 में पुणे के चेस्ट रिसर्च फाउंडेशन द्वारा अलग-अलग पटाखों से कितना प्रदूषण होता है इसका अध्ययन किया गया था। इसमें पाया गया था विभिन्न पटाखों को जलाने पर अलग-अलग मात्रा में 2.5 माइक्रॉन के कण (PM 2.5) उत्पन्न होते हैं। यह जानकारी तालिका में देखें।

जले हुए पटाखों के टुकड़ों से भूमि प्रदूषण की भी समस्या उत्पन्न होती है। पटाखों के कई टुकड़े बायोडीग्रेडेबल नहीं होते, जिस वजह से इनका निस्तारण आसानी से नहीं होता तथा समय बीतने पर ये और भी अधिक विषैले होते जाते हैं और भूमि को प्रदूषित करते हैं।

दिल्ली में हर वर्ष सितंबर महीने के आखिर से दिल्ली व आसपास के क्षेत्रों में हवा की गुणवत्ता खराब होने लगती है क्योंकि इस समय हरियाणा और उत्तर प्रदेश में किसान पराली जलाते हैं। साथ ही यह समय आतिशबाज़ी का होता है। इसलिए दिल्ली सरकार ने पटाखों के उत्पादन, भंडारण, बिक्री और उपयोग पर पूरी तरह रोक लगा दी है। राजधानी दिल्ली में पिछले साल भी पटाखों की बिक्री और आतिशबाज़ी पर प्रतिबंध था किंतु उसके बावजूद लोगों ने पटाखे फोड़े थे। पिछले साल यानी वर्ष 2021 में दिवाली के अगले दिन दिल्ली का एयर क्वालिटी इंडेक्स 462 था जो कि पिछले 5 साल में सबसे बुरा था। एयर क्वालिटी इंडेक्स के 462 होने का मतलब है कि दिल्ली में हवा गंभीर से अधिक खतरनाक स्तर पर प्रदूषित थी।

प्रदूषण की समस्या को कम करने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) द्वारा हरित पटाखे बनाए गए हैं। हरित पटाखे दिखने, जलाने और आवाज़ में सामान्य पटाखों की तरह ही होते हैं पर इनके जलने से प्रदूषण कम होता है। अलबत्ता, लोगों में हरित पटाखों को लेकर भ्रम है कि ये पूरी तरह प्रदूषण मुक्त हैं, लेकिन अगर लोग हरित पटाखे अधिक जलाते हैं तो निश्चित ही त्योहारों के बाद प्रदूषण का स्तर बढ़ेगा।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) के अनुसार सरकार को सभी परिवारों के लिए पटाखे खरीदने की एक सीमा निर्धारित करनी चाहिए ताकि लोग एक तय सीमा से अधिक इन पटाखों का इस्तेमाल ना कर सकें। यह विडंबना है कि लोग पटाखों से होने वाले दुष्प्रभावों को जानने के बाद भी इनका उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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साल भर सूखा रहे तो क्या होगा?

दुनिया के कई हिस्से भयानक सूखे की मार झेल रहे हैं। और सूखे की परिस्थितियों में वनस्पतियों की प्रतिक्रिया जानने को लेकर किया गया हालिया अध्ययन बताता है कि सूखे की स्थिति जलवायु परिवर्तन को और बुरी तरह प्रभावित सकती है।

साल भर सूखे की हालत रहे तो वनस्पतियों की वृद्धि 80 प्रतिशत तक कम हो सकती है, जिसके चलते इनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता बहुत कम हो जाएगी। और घास के मैदानों में पौधों की कुल वृद्धि 36 प्रतिशत तक कम हो सकती है। वैसे लगभग 20 प्रतिशत अध्ययन क्षेत्रों की वनस्पति सूखे के बावजूद फलती-फूलती रही।

दरअसल तीन पारिस्थितिकीविद जानना चाहते थे कि शुष्क मौसम पौधों की उत्पादकता को कैसे प्रभावित करता है, खास कर घास के मैदानों और झाड़ियों वाले स्थानों पर क्योंकि ज़मीन के 40 प्रतिशत हिस्से पर तो यही हैं। इसके लिए उन्होंने एक प्रयोग – अंतर्राष्ट्रीय सूखा प्रयोग (आईडीई) – डिज़ाइन किया, जिसमें उन्होंने 139 अध्ययन स्थलों पर कृत्रिम सूखा पैदा किया और वनस्पतियों की वृद्धि को मापा। इनमें से कुछ अध्ययन स्थल ईरान और दक्षिण अमेरिका के कुछ हिस्सों में थे। अधिकतर अध्ययन क्षेत्र झाड़ी और घास के मैदानों में थे, जहां वर्षा को कृत्रिम रूप से रोकना आसान था।

इसके लिए उन्होंने 1 वर्ग मीटर के क्षेत्र को प्लास्टिक की शीट से ढंक कर वर्षा को अवरुद्ध किया; कितनी वृष्टि की ज़रूरत है, उसके अनुसार उन्होंने प्लास्टिक शीट के बीच जगह छोड़ी। औसतन वहां होने वाली सामान्य से आधे से भी कम वर्षा मिली। कंट्रोल के तौर पर हर अध्ययन स्थल एक वर्ग मीटर के क्षेत्र को खुला छोड़ा गया।

प्रत्येक स्थल पर दोनों भूखंडों में पौधों के प्रकार और संख्या का हिसाब रखा। एक साल तक सूखे की स्थिति बनाए रखने के बाद शोधकर्ताओं ने फिर से पौधों का सर्वेक्षण किया, दोनों तरह के भूखंडों के पौधों को काटा, सुखाया और तौला।

100 अध्ययन स्थल से प्राप्त परिणामों में देखा गया कि कुछ क्षेत्रों के छोटी घास के मैदानों को कृत्रिम सूखे से भारी क्षति पहुंची थी। पानी की कमी वाले क्षेत्र में पौधों की उत्पादकता में 88 प्रतिशत की कमी देखी गई।

इसके विपरीत, जर्मनी के एक समशीतोष्ण घास के मैदान में कृत्रिम सूखे से कोई खास फर्क नहीं पड़ा था (जर्मनी के अध्ययन स्थलों की जलवायु नम होती है और कम गंभीर सूखा पड़ता है)। कुल मिलाकर नम जलवायु वाले पौधों का प्रदर्शन बेहतर रहा, और झाड़ी वाले भूखंडों ने घास वाले भूखंडों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन किया। घास वाले भूखंडों की उत्पादकता में औसतन 36 प्रतिशत की कमी देखी गई — यह पूर्व अध्ययनों में देखी गई कमी से लगभग दुगनी है।

कई शोधकर्ता इस प्रयोग को चार या उससे अधिक वर्षों तक जारी रखना चाहते हैं। यह अतिरिक्त डैटा जलवायु मॉडल के अनुमानों को बेहतर करने में मदद कर सकता है, जो यह बता सकते हैं कि सूखा पड़ने पर झाड़ी और घास के मैदान कितनी कम कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित करेंगे। ये नतीजे पारिस्थितिकीविदों को यह अनुमान लगाने में भी मदद कर सकते हैं कि सूखे के दौरान कौन से पारिस्थितिक तंत्र सबसे अधिक जोखिम में होंगे। कम वनस्पति का मतलब होगा उन्हें खाने वाले वाले जानवरों के लिए कम भोजन, और इससे चलते इनके शिकारियों के लिए कम भोजन। कई पारिस्थितिक तंत्रों का स्वास्थ्य और उनकी जैव विविधता पौधों के उत्पादन पर निर्भर करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की प्रासंगिकता पर सवाल – डॉ. खुशालसिंह पुरोहित

पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि जब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कुछ करता ही नहीं है, तो क्यों ना उसे समाप्त कर दिया जाए। मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल, न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं अजीत कुमार की खंडपीठ कर रही है।

याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने न्यायालय को बताया कि कानपुर के चमड़ा उद्योग और गजरौला के शक्कर कारखाने की गंदगी शोधित हुए बिना गंगा नदी में गिर रही है; इस कारण सीसा, पोटेशियम व कई रेडियोसक्रिय पदार्थ गंगा नदी को प्रदूषित कर रहे हैं। गंगा के प्रदूषण को लेकर जो रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है वह आंखों में धूल झोंकने वाली है; जब जांच करानी होती है तब साफ पानी मिलाकर सैंपल भेज कर अच्छी रिपोर्ट तैयार करा ली जाती है जबकि गंदा पानी सीधे गंगा में गिरता रहता है।

सुनवाई के दौरान न्यायालय ने प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से पूछा कि आपकी भूमिका क्या है, कैसी निगरानी कर रहे हैं, आपके पास इस सम्बंध में कितनी शिकायतें पहुंची है और कितने पर कार्रवाई की गई है? बोर्ड के अधिवक्ता इस पर ठीक से जवाब नहीं दे पाए तो न्यायालय ने कहा कि जब आप ठीक से निगरानी नहीं कर रहे हो और कुछ कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं तो क्यों न बोर्ड को बंद कर दिया जाए?

प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए देश में कई नियम-कानून और विशिष्ट एजेंसियां कार्य कर रही हैं। प्रदूषण नियंत्रण की सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारी एवं कर्मचारी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि कई बार राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में पूर्णकालिक अध्यक्ष के अभाव में प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारियों को उनके विभागीय दायित्व के अतिरिक्त प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष का कार्यभार सौंप दिया जाता हैं। ऐसी स्थिति में कई अधिकारी बोर्ड के लिए समय ही नहीं निकाल पाते हैं। कभी-कभी राज्य बोर्ड में संचालक मंडल के सदस्यों की नियुक्ति लंबे समय तक टलती रहती है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि दूसरे निगम-मंडलों की तुलना में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्रियाकलापों पर शासन और समाज स्तर पर ज़्यादा चर्चा नहीं हो पाती है।

पिछले दिनों एक सर्वेक्षण से पता चला था कि राज्य बोर्ड में कार्यरत अधिकांश कर्मचारियों को प्रदूषण नियंत्रण के ज़रूरी मानकों के इतिहास और उनके उद्देश्यों की जानकारी नहीं थी। संसदीय समिति की वर्ष 2008 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में विभिन्न राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में 77 प्रतिशत अध्यक्ष एवं 55 प्रतिशत सदस्य-सचिव अपने पदों पर कार्य करने की योग्यता नहीं रखते थे।

प्रदूषण पर रोक लगाने के उद्देश्य से बनाए गए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड बढ़ते प्रदूषण को रोकने में असफल रहे हैं। बोर्डों के गठन के बाद से औद्योगिक और नगरीय प्रदूषण के साथ ही कस्बाई प्रदूषण के आंकड़ों का ग्राफ निरंतर बढ़ता जा रहा है। इधर बोर्ड के अधिकारियों का ज़्यादातर प्रयास यह रहता है कि कारखाने में कुछ हो ना हो, कागज़ों पर प्रदूषण नियंत्रण में रहे। बोर्ड के पास भारी-भरकम अमला है, जिसमें कानून के हथियारों से लैस उच्च अधिकारी हैं; क्षेत्रीय अधिकारियों की फौज के साथ ही बड़ी संख्या में वैज्ञानिक हैं। प्रदूषण नियंत्रण में इन सबका कितना उपयोग हो रहा है इस पर चिंतन करने की आवश्यकता है। इस बात पर भी विचार आवश्यक है कि बोर्ड को उद्योगपतियों के हितों की रक्षा करनी है या देश के जनसामान्य को प्रदूषण मुक्त वातावरण उपलब्ध करवाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है।

कहा जाता है कि कुछ बोर्ड में औद्योगिक प्रदूषण की नियमित जांच का हाल यह है कि उद्योग में अफसरों के पहुंचने के पूर्व उनका प्रवास कार्यक्रम पहुंच जाता है। प्राय: ऐसे अवसर पर उद्योग में सब कुछ ठीक-ठाक पाया जाता है। प्राय: बोर्ड के अधिकारी उद्योग के रेस्ट हाउस या किसी होटल या रिसोर्ट में बैठकर जांच रिपोर्ट पूर्ण कर लेते हैं।

लगभग साढ़े तीन दशक पहले मेरे गृह नगर के प्रमुख पेयजल स्रोत को प्रदूषित करने वाले एक रसायन उद्योग के विरुद्ध लंबे समय तक अभियान चलाने का मुझे अवसर मिला था। अनेक स्तरों पर प्रतिकार का कोई ठोस प्रतिसाद नहीं मिला तो हमें सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा, जहां जनहित याचिका के माध्यम से जनता की व्यथा को अभिव्यक्ति दी और उसमें न्याय मिला। करीब पांच साल चले इस अभियान में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्कालीन अध्यक्ष और चंद अधिकारियों को छोड़ दें तो बोर्ड की तकनीकी राय हमेशा उद्योग के पक्ष में रहती थी।

अक्सर कहा जाता है कि जब देश में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एवं अन्य नियामक संस्थाएं नहीं थी, तब देश का पर्यावरण समृद्ध था, नदियां स्वच्छ थीं तथा वन और वन्य प्राणी भी सुरक्षित थे। आज प्रदूषण की ऐसी गंभीर स्थिति क्यों बनी? इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए किसी की तो ज़िम्मेदारी होगी। कई वर्षों के बाद यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की टिप्पणी देश के पर्यावरण के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि बोर्ड की कार्यपद्धति और क्रियाकलापों में हर स्तर पर पारदर्शिता लाई जाए। इसके लिए सरकार, जन प्रतिनिधि, पर्यावरण संगठन और जनसामान्य को सक्रियता से ठोस पहल करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

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ग्रीष्म लहर के जोखिम के प्रबंधन के पहलू – ज़ुबैर सिद्दिकी

मानव जनित जलवायु परिवर्तन ने ग्रीष्म लहर, दावानल और अचानक बाढ़ जैसी घटनाओं की संभावना को बढ़ाया है और इन्हें अधिक गंभीर बनाया है। इसका जन स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा है लेकिन इसे कम करके आंका गया है। अधिकांश देश इन आपदाओं से निपटने के लिए अग्रिम योजना बनाने, अनुकूलन के उपाय करने और साक्ष्य-आधारित जानकारी का उपयोग करके अपने लोगों की हिफाज़त मुकम्मल करने में नाकाम रहे हैं।

इस वर्ष भारत, पाकिस्तान, यूएसए, चीन और युरोप ने घातक ग्रीष्म लहर का सामना किया जिसने न सिर्फ ज़रूरी इंफ्रास्ट्रक्चर को नुकसान पहुंचाया बल्कि आपातकालीन सेवा को गंभीर रूप से प्रभावित किया। इस ग्रीष्म लहर से मरने वालों की संख्या पिछले वर्षों की तुलना में काफी अधिक रही। इसके अलावा कई लोगों को गंभीर बीमारियों का सामना करना पड़ा है।

अत्यधिक गर्मी से हीटस्ट्रोक यानी लू की संभावना तो जानी-मानी है। लेकिन वास्तव में गर्मी से होने वाली कई मौतें हृदय सम्बंधी दिक्कतों के कारण भी होती हैं।

होता यह है कि त्वचा को ठंडा रखने के लिए हृदय को ज़्यादा काम करना होता है ताकि त्वचा तक ज़्यादा खून पहुंचे और ठंडक पैदा हो। लेकिन साथ ही रक्तचाप को एक सीमा में रखना होता है। इसके लिए हृदय को अत्यधिक परिश्रम करना पड़ता है, चाहे शरीर का अंदरुनी तापमान बहुत अधिक न हो।

इसके अलावा तापमान के बढ़ने से सांस एवं गुर्दे की बीमारी, दुश्चिंता और हिंसक व्यवहार में वृद्धि होती है और साथ ही मृत शिशु जन्म, समयपूर्व प्रसव और जन्म के समय कम वज़न जैसी समस्याओं का जोखिम भी बढ़ता है। दावानल पर किए गए शोध अध्ययनों ने तो अत्यधिक गर्मी का सम्बंध बाल मृत्यु दर, श्वसन रोग और कैंसर जैसी समस्याओं में वृद्धि से दर्शाया है। इन हालिया अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि अभी तक गर्मी के करण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को काफी कम करके आंका गया है।

निम्न और मध्यम आय वाले कई देश अपर्याप्त वैश्विक सहयोग और वित्तीय क्षमता के चलते इस समस्या से निपटने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं। लेकिन कई अन्य देश पर्याप्त एवं स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद वैश्विक कार्यक्रमों को समर्थन देने या अनुकूलन के उपाय अपनाने में विफल रहे हैं। सरकारों द्वारा जलवायु परिवर्तन के तथ्य से इन्कार या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने और अपर्याप्त राजनैतिक इच्छाशक्ति ने जनता को वैज्ञानिक जानकारियों से मिल सकने वाले लाभों से वंचित रखा है। राजनेताओं ने भी स्वास्थ्य जोखिमों को कम करके बताया है। इसके अलावा कई नामचीन संगठनों और मीडिया घरानों ने भी गुणवत्तापूर्ण जानकारी देने की बजाय अवैज्ञानिक तथ्यों को प्रसारित किया। यह जानकारी लोगों को गर्मी से जूझने में मदद कर सकती थी।

वर्ष 2021 में दी लैंसेट में ऊष्मा-अनुकूलन से सम्बंधित लेखों की एक शृंखला प्रकाशित की गई थी। इन लेखों में गर्मी से होने वाली तकलीफ और हृदय पर पड़ने दबाव को कम करने के कई साक्ष्य-आधारित उपायों पर चर्चा की गई है। इसके लिए पानी में डुबकी लगाना, कपड़ों को भिगोना या पैरों को पानी में डालकर रखना और पंखों के उपयोग को शीतलन की प्रमुख रणनीतियों में शामिल किया गया था। वैसे ठंडा पानी पीकर भी हीटस्ट्रोक के जोखिम को कम किया जा सकता है लेकिन इससे शरीर के तापमान पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। ज़रूरत इस बात की है कि स्वास्थ्य कार्यकर्ता एवं संस्थाएं लोगों को ग्रीष्म लहर के खतरों और इससे बचाव के बारे में शिक्षित करें।

कई अध्ययनों ने अश्वेत और गरीब लोगों पर ग्रीष्म लहरों के असामान्य रूप से अधिक प्रभाव को दर्शाया है। हालात ऐसे हैं कि अत्यधिक गर्मी से सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोगों के पास खुद को बचाने के साधन भी नहीं हैं। विशेष रूप से, खुले आसमान के नीचे काम करने वाले श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। उन पर उच्च तापमान और खुले में काम करने का जोखिम निरंतर बढ़ता जा रहा है। इन श्रमिकों के लिए शीतलन व्यवस्थाओं तक पहुंच भी काफी दुर्गम है। इन परिस्थितियों में श्रमिकों की आजीविका को सुरक्षित करते हुए वैधानिक परिवर्तन करने की तत्काल आवश्यकता है।

कई वैश्विक फंडर्स जलवायु से सम्बंधित शोध अध्ययनों को प्राथमिकता दे रहे हैं। लेकिन इन अध्ययनों के आधार पर नीतिगत एवं सार्थक परिवर्तन के लिए आवश्यक राजनैतिक संवाद का अभाव स्पष्ट है।

वर्ष 2022 में ग्रीष्म लहर और दावानल के पूर्वानुमानों के बाद भी पर्याप्त योजनाएं तैयार नहीं की गईं। 28 जुलाई के दिन एक संकल्प पारित करके संयुक्त राष्ट्र महासभा ने स्वच्छ, स्वस्थ और टिकाऊ पर्यावरण तक पहुंच को सार्वभौमिक मानव अधिकार घोषित किया है। इस निर्णय के बाद जनता को नीति निर्माताओं से समुचित कार्रवाई की मांग करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विरोधाभास: स्वच्छ हवा से बढ़ता है तापमान

ह तो सर्वविदित है कि कोयला या पेट्रोल के दहन से ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है जो धरती का तापमान बढ़ाती हैं। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि प्रदूषण के कण सूर्य के प्रकाश को परावर्तित कर कुछ हद तक पृथ्वी को ठंडा रखने में योगदान देते हैं। प्रदूषण-नियंत्रण प्रौद्योगिकियों में प्रगति से इस प्रदूषण से निर्मित विषैले बादल और उनसे संयोगवश मिलने वाला यह लाभ कम होने लगा है।

उपग्रहों से प्राप्त जानकारी के अनुसार वैश्विक वायु प्रदूषण का पर्यावरणीय असर वर्ष 2000 की तुलना में 30 प्रतिशत तक कम हो गया है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह एक अच्छी खबर है क्योंकि वायुवाहित सूक्ष्मकण या एयरोसोल से प्रति वर्ष कई लाख लोग मारे जाते हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के लिहाज़ से देखा जाए तो यह एक बुरी खबर है। लीपज़िग युनिवर्सिटी के जलवायु वैज्ञानिक जोहानेस क्वास के अनुसार स्वच्छ हवा ने उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड से होने वाली कुल वार्मिंग को 15 से 50 प्रतिशत तक बढ़ा दिया है। यानी वायु प्रदूषण कम होने से तापमान में और अधिक वृद्धि हो रही है।  

ब्लैक कार्बन या कालिख जैसे एयरोसोल गर्मी को अवशोषित करते हैं। दूसरी ओर, परावर्तक सल्फेट और नाइट्रेट कण ठंडक पैदा करते हैं। ये गाड़ियों के एक्ज़ॉस्ट, जहाज़ों के धुएं और ऊर्जा संयंत्रों की चिमनियों से निकलने वाली प्रदूषक गैसों में पाए जाते हैं। इन प्रदूषकों को कम या खत्म करने के लिए उत्तरी अमेरिका और युरोप से लेकर विकासशील देशों में प्रौद्योगिकियां विकसित हुई हैं। इसके नतीजे में पहली बार वर्ष 2010 में चीन में वायु प्रदूषण में गिरावट शुरू हुई। इसके अलावा, हाल के वर्षों में सल्फर उत्सर्जित करने वाले जहाज़ों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध भी लगा है।

एटमॉस्फेरिक केमिस्ट्री एंड फिज़िक्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित पर्चे में उत्तरी अमेरिका और युरोप में एयरोसोल में गिरावट के संकेत दिए गए हैं लेकिन वैश्विक स्थिति नहीं उभरी है। क्वास और सहयोगियों का विचार था कि इस काम में नासा के उपग्रह टेरा और एक्वा सहायक सिद्ध हो सकते हैं। ये दोनों उपग्रह पृथ्वी पर आने वाले और बाहर जाने वाले विकिरण का हिसाब रखते हैं। इसकी सहायता से कई शोध समूहों को ग्रीनहाउस गैसों द्वारा अवरक्त ऊष्मा को कैद करने में वृद्धि की जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन एक्वा और टेरा पर लगे एक उपकरण ने परावर्तित प्रकाश में गिरावट दर्शाई। कुछ विशेषज्ञ परावर्तन में इस कमी के लिए कुछ हद तक एयरोसोल में कमी को ज़िम्मेदार मानते हैं।  

क्वास और उनके सहयोगियों ने इस अध्ययन में टेरा और एक्वा पर लगे उपकरणों का उपयोग करते हुए एक और अध्ययन किया। उन्होंने आकाश में कुहरीलेपन को रिकॉर्ड किया जो एयरोसोल की मात्रा को दर्शाता है। क्वास के अनुसार वर्ष 2000 से लेकर 2019 तक उत्तरी अमेरिका, युरोप और पूर्वी एशिया पर कुहरीलेपन में काफी कमी आई जबकि कोयले पर निर्भर भारत में यह बढ़ता रहा। गौरतलब है कि एयरोसोल न केवल स्वयं प्रकाश को परावर्तित करते हैं बल्कि बादलों में भी परिवर्तन कर सकते हैं। ये कण नाभिक के रूप में कार्य करते हैं जिस पर जलवाष्प संघनित होती है। प्रदूषण के कण बादल की बूंदों के आकार को छोटा करते हैं और उनकी संख्या में वृद्धि करते हैं जिससे बादल अधिक परावर्तक बन जाते हैं। ऐसे में यदि प्रदूषण को कम किया जाता है तो यह प्रभाव उलट जाता है। टीम ने पाया कि बादल की बूंदों की सांद्रता में कमी उन्हीं क्षेत्रों में आई है जहां एयरोसोल की मात्रा में गिरावट हुई है।    

कुछ अन्य अध्ययनकर्ताओं के अनुसार अभी सटीकता से नहीं बताया जा सकता कि एयरोसोल में कमी से ग्लोबल वार्मिंग में कितनी वृद्धि हुई है क्योंकि दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में विविधता इतनी अधिक है।

ज़ाहिर है कि समस्या का हल यह नहीं है कि वायु प्रदूषण को बढ़ावा दिया जाए। वायु प्रदूषण से हर वर्ष कई लोगों की जान जाती है। बल्कि आवश्यकता इस बात है कि वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों को कम करने के प्रयासों को गति दी जाए।

पूर्व-औद्योगिक समय की तुलना में पृथ्वी वर्तमान में 1.2 डिग्री सेल्सियस तक गर्म हो चुकी है और 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए उत्सर्जन में तेज़ी से कटौती की उम्मीद काफी कम है। इसलिए समाधान के रूप में कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि सोलर जियोइंजीनियरिंग के माध्यम से सल्फेट कणों को समताप मंडल में फैलाया जाए ताकि एक वैश्विक परावर्तक कुहरीलापन निर्मित हो जाए। इस विचार को लेकर काफी विवाद है लेकिन कुछ लोगों को लगता है कि इसे एक अंतरिम उपाय के रूप में देखा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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‘गीले कचरे’ से वेस्टलैंड का कायाकल्प – सुबोध जोशी

जिस तेज़ी से औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरे से भूमि को बेकार बनाया जा रहा है वह चिंता का विषय है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विश्व में भूमि एक सीमित संसाधन है यानी भूमि बढ़ाई नहीं जा सकती। सीमित होते हुए भी भूमि को वेस्टलैंड बनने देना या बेकार पड़े रहने देना गंभीर लापरवाही है।

वर्ष 2004 में आधिकारिक तौर पर हमारे देश के कुल क्षेत्रफल का 20 प्रतिशत से अधिक (करीब 6.3 करोड़ हैक्टर) क्षेत्र वेस्टलैंड के रूप चिंहित किया गया था। संभव है अब यह आंकड़ा बढ़ गया हो। वेस्टलैंड पर न तो खेती हो सकती है और न ही प्राकृतिक रूप से जंगल और वन्य जीव पनप पाते हैं। और न ही कोई अन्य उपयोगी कार्य हो पाता।

वेस्टलैंड अनेक कारणों से अस्तित्व में आती है। जिसमें प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों कारण शामिल हैं। उदाहरण के लिए बंजर भूमि, खनन उद्योग के कारण जंगलों का विनाश एवं परित्यक्त उबड़-खाबड़ खदानें, अकुशल या अनुचित ढंग से सिंचाई, अत्यधिक कृषि, जलभराव, खारा जल, मरुस्थल और रेत के टीलों का स्थान परिवर्तन, पर्वतीय ढलान, घाटियां, चारागाह का अत्यधिक उपयोग एवं विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन, औद्योगिक कचरे एवं मल निकासी का जमाव, मिट्टी का क्षरण, जंगलों का विनाश वगैरह।

तो सवाल है कि क्या वेस्टलैंड को उपजाऊ बनाया जा सकता है? इसका जवाब मध्य अमेरिका में कैरेबियाई क्षेत्र के एक देश कोस्टा रिका में हुए एक बहुत ही आसान किंतु अनोखे ‘प्रयोग’ के नतीजे में देखा जा सकता है। वास्तव में यह बीच में छोड़ दिया गया एक अधूरा प्रयोग था। इसके बावजूद लगभग दो दशकों बाद प्रयोग स्थल का दृश्य पूर्णतः बदल चुका था।

दरअसल वर्ष 1997 में दो शोधकर्ताओं के मन में एक विचार उपजा और उन्होंने एक जूस कंपनी से संपर्क कर उसके सामने एक प्रायोगिक परियोजना का प्रस्ताव रखा। इसके तहत एक नेशनल पार्क से सटे क्षेत्र की बेकार पड़ी भूमि पर कंपनी को संतरे के अनुपयोगी छिलके फेंकने थे और वह भी बिना किसी लागत के। कंपनी इस बंजर भूमि पर 12,000 टन बेकार छिलके डालने के लिए सहर्ष तैयार हो गई। उसने वहां 1000 ट्रक संतरे के छिलके डाल भी दिए। जल्द ही इसके नतीजे दिखाई देने लगे। संतरे के छिलके छः माह में काली मिट्टी में बदलने लगे। बंजर भूमि उपजाऊ बनने लगी। वहां जीवन पनपने लगा।

इस बीच एक प्रतियोगी जूस कंपनी ने आपत्ति उठाते हुए अदालत में मुकदमा दायर कर दिया – कहना था कि छिलके डालकर वह कंपनी पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रही है। अदालत ने इस तर्क को स्वीकर करके जो फैसला सुनाया उसके कारण यह प्रायोगिक परियोजना बीच में ही रोकनी पड़ी। इसके बाद वहां और छिलके नहीं डाले जा सके। अगले 15 साल डाले जा चुके छिलके और यह स्थान एक भूले-बिसरे स्थान के रूप में पड़ा रहा।

फिर 2013 में जब एक अन्य शोधकर्ता अपने किसी अन्य शोध के सिलसिले में कोस्टा रिका गए तब उन्होंने इस स्थल के मूल्यांकन का भी निर्णय लिया। घोर आश्चर्य! वे दो बार वहां गए लेकिन बहुत खोजने पर भी उन्हें वहां वेस्टलैंड जैसी कोई चीज़ नहीं मिली। कभी बंजर रहा वह भू-क्षेत्र घने जंगल में तबदील हो चुका था और उसे पहचान पाना असंभव था।

इसके बाद, आसपास के क्षेत्र और उस नव-विकसित वन क्षेत्र का तुलनात्मक अध्ययन करने पर पता चला कि उस नव-विकसित वन क्षेत्र की मिट्टी कहीं अधिक समृद्ध थी और वृक्षों का बायोमास भी अधिक था। इतना ही नहीं, वहां वृक्षों की प्रजातियां भी अधिक थी। गुणवत्ता का यह अंतर एक ही उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है कि वहां अंजीर के एक पेड़ का घेरा इतना बड़ा था कि तीन व्यक्ति मिलकर हाथ से उसे बमुश्किल घेर पाते थे। और इतना सब कुछ जैविक कचरे की बदौलत सिर्फ 15-20 सालों में अपने आप हुआ था!

सोचने वाली बात है कि जब यह अधूरा प्रयास ही इतना कुछ कर गया तो यदि नियोजित ढंग से किया जाए तो अगले 25 सालों में कितनी वेस्टलैंड को सुधार कर प्रकृति, पारिस्थितिकी, पर्यावरण आदि को सेहतमंद बनाए रखने की दिशा में कार्य किया जा सकता है। जैविक कचरा (जिसे गीला कचरा कहते हैं) एक बेकार चीज़ न रहकर उपयोगी संसाधन हो जाएगा, विशाल मात्रा में उसका सतत निपटान संभव हो जाएगा, मिट्टी उपजाऊ होगी और वेस्टलैंड का सतत सुधार होता जाएगा। प्राकृतिक रूप से बेहतर गुणवत्तापूर्ण, जैव-विविधता समृद्ध घने जंगल पनपने लगेंगे। वन्य जीव भी ऐसी जगह पनप ही जाएंगे। वायु की गुणवत्ता सुधरना और वातावरण का तापमान घटना लाज़मी है। घने जंगल वर्षा को आकर्षित करेंगे। भू-जल भंडार और भूमि की सतह पर जल स्रोत समृद्ध होंगे। कुल मिलाकर पर्यावरण समृद्ध होगा।

चूंकि भारत एक कृषि प्रधान देश है, यहां बड़े पैमाने पर अनाजों, दालों, सब्ज़ियों और फलों की पैदावार और खपत होती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए घरों, खेतों, उद्योगों आदि से गीला कचरा प्रतिदिन भारी मात्रा में निकलता है जिसका इस्तेमाल वेस्टलैंड पुनरुत्थान में किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन को थामने में फफूंद की मदद

क्या यह संभव है मिट्टी में कुछ किस्म के कवक यानी फफूंद रोपकर पेड़ों को तेज़ी से वृद्धि करने में मदद दी जाए और फिर ये तेज़ी से वृद्धि करते पेड़ वातावरण से अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर जलवायु परिवर्तन को धीमा करें? नवगठित सोसाइटी फॉर दी प्रोटेक्शन ऑफ अंडरग्राउंड नेटवर्क्स (SPUN) के शोधकर्ता इस सवाल का जवाब पाने की कोशिश कर रहे हैं।

दरअसल SPUN के सह-संस्थापक व कवक विज्ञानी कॉलिन एवेरिल का यह प्रयास पूर्व में हुए एक अध्ययन से प्रेरित है। उस अध्यनन से पता चला था कि उचित कवक वनस्पतियों की वृद्धि को बढ़ा सकते हैं। जनवरी में इंटरनेशनल सोसायटी फॉर माइक्रोबियल इकॉलॉजी (ISME) के जर्नल में प्रकाशित एक पेपर में एवरिल और उनके साथियों ने बताया था कि युरोप के विभिन्न जंगलों में वृक्षों की वृद्धि दर में तीन गुना तक अंतर हो सकता है और यह अंतर उनके साथ उगने वाली फफूंद पर निर्भर करता है।

लेकिन सवाल यह है कि कितनी मात्रा में कवक पौधों को सुपरचार्ज कर सकते हैं? कंपनियां लंबे समय से जड़-फफूंद (माइकोराइज़ा) बेचती रही हैं जिसे बागवान जड़ों पर लगा सकते हैं। लेकिन इस तरह के व्यावसायिक मिश्रण विशिष्ट पेड़ प्रजातियों या स्थानों के लिए नहीं बनाए जाते, और इस बात के प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं कि वे सचमुच वृद्धि में मदद करते हैं। वृद्धि के लिए ज़रूरी है कि उचित स्थान पर उचित जीव जोड़े जाएं।

युनाइटेड किंगडम में वेल्स में जारी वृक्षारोपण प्रयोग इसी परिकल्पना का परीक्षण कर रहा है। 2021 के वसंत में दक्षिण-पश्चिमी वेल्स के एक विरान चारागाह में एवेरिल ने एक वानिकी कंपनी की मदद से 11 हैक्टर के क्षेत्र में 25,000 पेड़ लगाए। इसमें उन्होंने यू.के. की इमारती लकड़ी के वृक्ष सिटका स्प्रूस और कुछ स्थानीय पतझड़ी वृक्ष रोपे। इसके बाद आधे नवांकुरों की जड़ों में जड़-फफूंद जोड़ी जो इसी तरह के पुराने जंगल से प्राप्त की गई थी, यह कवक पौधों की जड़ों से जुड़कर पौधों को पोषक तत्व प्राप्त करने में मदद करती है। शोधकर्ता देखना चाहते हैं कि क्या कवक-युक्त पेड़ कवक-रहित पेड़ों की तुलना में तेज़ी से बढ़ते हैं और अधिक कार्बन अवशोषित करते हैं। इसी तरह का एक परीक्षण मेक्सिको के युकाटन में चल रहा है, और आयरलैंड में भी इसी तरह के परीक्षण की तैयारी है।

अप्रैल में पेड़ों को मापने पर पता चला कि कवक-युक्त पौधे कवक-रहित पौधों की तुलना में तेज़ी से बढ़ रहे हैं। हालांकि अभी यह अध्ययन जारी है और एक और वर्ष के अवलोकन के बाद आंकड़े प्रकाशित करने की योजना है। आगे ऐसे ही परीक्षण अन्य वृक्षों पर भी किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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जलवायु परिवर्तन मीथेन उत्सर्जन में और वृद्धि करेगा

FILE – A woman carries a bucket on her head as she wades through floodwaters in the village of Wang Chot, Old Fangak county, Jonglei state, South Sudan on Nov. 26, 2020. A petition to stop the revival of the 118-year-old Jonglei Canal project in South Sudan, started by one of the country’s top academics, is gaining traction in the country, with the waterway touted as a catastrophic environmental and social disaster for the country’s Sudd wetlands. (AP Photo/Maura Ajak, File)

रती को गर्म करने के मामले में मीथेन भी कार्बन डाईऑक्साइड से कुछ कम नहीं है। मीथेन पृथ्वी के बढ़ते तापमान में एक तिहाई वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है। वर्ष 2006 लेकर अब तक मीथेन उत्सर्जन में 7 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह काफी हैरानी की बात है कि महामारी के दौरान तेल और गैस उत्पादन में कमी के बावजूद पिछले दो वर्षों में यह वृद्धि सबसे अधिक देखने को मिली है। तो यह मीथेन कहां से आई?

शोधकर्ताओं का ख्याल है कि इसका स्रोत उष्णकटिबंधीय वेटलैंड्स (नमभूमि) के सूक्ष्मजीव हैं। और बुरी बात यह है कि जलवायु परिवर्तन के कारण वर्षा में वृद्धि इसे बढ़ा रही है।

अधिकांश जलवायु वैज्ञानिक सहमत हैं कि 2006 के बाद मीथेन के स्तर में वृद्धि के लिए जीवाश्म ईंधन ज़िम्मेदार नहीं हैं। कारण? यह देखा गया है कि वायुमंडलीय मीथेन में कार्बन के हल्के आइसोटोप यानी कार्बन-12 की मात्रा काफी अधिक हो गई है। इसीलिए सूक्ष्मजीवों को इस मीथेन के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है। ये सूक्ष्मजीव उन रासायनिक  क्रियाओं को तरजीह देते हैं जिनमें कार्बन के हल्के समस्थानिक (कार्बन-12) का इस्तेमाल होता है और इस प्रकार से इनके द्वारा उत्पन्न मीथेन पहचानी जा सकती है।

हालांकि कार्बन के इस समस्थानिक के आधार पर यह नहीं बताया जा सकता कि ये सूक्ष्मजीव नमभूमि के हैं, भराव स्थलों के हैं या मवेशियों की आंत के। लेकिन उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में तेज़ जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए कई शोधकर्ताओं का मानना है कि इन क्षेत्रों में पशुपालन और भराव स्थल का मिला-जुला असर 2006 के बाद मीथेन में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार है।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मीथेन की मात्रा में तीव्र वृद्धि को देखते हुए शोधकर्ताओं को किसी अन्य स्रोत की भी आशंका थी। शोधकर्ताओं ने दक्षिण सूडान स्थित सड के दलदली क्षेत्र का का अध्ययन जापान के ग्रीनहाउस गैसेस ऑब्ज़रवेशन सेटेलाइट की मदद से किया जो मीथेन द्वारा अवशोषित अवरक्त प्रकाश की मात्रा का मापन करता है।

इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि सड क्षेत्र 2019 के बाद से मीथेन उत्सर्जन का हॉटस्पॉट बन गया है जो प्रति वर्ष 1.3 करोड़ टन अतिरिक्त मीथेन वातावरण में उड़ेल रहा है। यह मात्रा कुल वैश्विक मीथेन उत्सर्जन के 2 प्रतिशत से भी अधिक है।

इसके अलावा हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक अन्य अध्ययन में भी इसी प्रकार के नतीजे सामने आए हैं। यदि इन परिणामों को अमेज़ॉन और उत्तर में स्थित जंगलों से होने वाले उत्सर्जन के साथ जोड़ा जाए तो मीथेन की मात्रा में अधिकांश अतिरिक्त वृद्धि की व्याख्या हो जाती है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जलवायु परिवर्तन मीथेन उत्सर्जन की गति को निर्धारित कर सकता है। पूर्व में शोधकर्ताओं ने 2010 से 2019 तक पूर्वी अफ्रीका के मीथेन उत्सर्जन को हिंद महासागर के तापमान पैटर्न से जोड़कर देखा था। ऐसा अनुमान है कि लगातार बढ़ते तापमान के चलते अधिक लंबी अवधियों तक, और अधिक वर्षा होगी। यदि ऐसा हुआ तो सड के क्षेत्र से अधिक मीथेन उत्सर्जन होगा जो वातावरण को अधिक गर्म करेगा और वर्षा में भी वृद्धि होगी। यह एक पॉज़िटिव फीडबैक लूप की तरह चलता रहेगा। एक बड़ी चुनौती इस फीडबैक लूप को नियंत्रित करना है।

शोधकर्ताओं ने पिछले दो वर्षों में मीथेन उत्सर्जन में उछाल की अन्य संभावित व्याख्याएं प्रस्तुत करने के प्रयास किए हैं। एक कारण यह लगता है कि वाहनों के कम चलने के कारण मीथेन का विनाश कम हुआ है। कार्बन डाईऑक्साइड कई सदियों तक वातावरण में बनी रहती है। इसके विपरीत मीथेन 12-13 वर्ष ही टिकती है जिस दौरान वातावरण में मौजूद हाइड्रॉक्सिल (OH) मूलक उसे हवा से हटा देते हैं। ये OH रेडिकल जीवाश्म ईंधन से पैदा होने वाले नाइट्रोजन ऑक्साइड्स से उत्पन्न होते हैं। महामारी के दौरान यातायात और उद्योगों में जीवाश्म ईंधन के कम उपयोग से नाइट्रोजन ऑक्साइड्स की मात्रा कम हुई, नतीजतन OH की कमी हुई और मीथेन को टिकने का मौका मिला। अलबत्ता, हारवर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के मॉडल के अनुसार महामारी के दौरान OH में कमी का मीथेन पर बहुत ही कम प्रभाव पड़ा है।

गौरतलब है कि 2021 में 100 से अधिक देशों ने ग्लोबल मीथेन संकल्प पर हस्ताक्षर किए थे जिसका उद्देश्य 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को 30 प्रतिशत तक कम करना था। कई वैज्ञानिकों ने तो हवा से मीथेन को हटाने का प्रस्ताव भी रखा है। लेकिन ये प्रयास वेटलैंड से निकलने वाले उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं कर सकते। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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