ग्लेशियरों के सिकुड़ने से हिम झीलें बढ़ती हैं

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

ग्लेशियर (Glaciers), पहाड़ों पर सघन रूप से जमी बर्फ के विशाल और मोटे आवरण होते हैं। ग्लेशियर गुरुत्वाकर्षण (gravity) और अपने स्वयं के वज़न के कारण खिसकते/ढहते रहते हैं; इस प्रक्रिया में रगड़ (friction) के चलते चट्टान (rock) टूट-फूट जाती हैं और मोरैन (Moraine) नामक मिश्रण में बदल जाती है। मोरैन में कमरे के आकार के बड़े-गोल पत्थरों (stones) से लेकर पत्थरों का बेहद महीन चूरा (rock flour) तक शामिल होते हैं। मोरैन ग्लेशियर के किनारों (edges) और अंतिम छोर पर जमा होता जाता है। 

जब बर्फ (ice) पिघलने से ग्लेशियर सिकुड़कर पीछे हटते हैं तो वहां बना विशाल और गहरा गड्ढा (depression) पानी (water) से भर जाता है। ग्लेशियर के अंतिम छोर पर जमा मोरैन (moraine) अक्सर झील (lake) बनने के लिए एक प्राकृतिक बांध (natural dam) के रूप में काम करता है। इस तरह बनीं ग्लेशियर झीलें (glacial lakes) रुकावट के रूप में काम करती हैं – वे पिघलती हुई बर्फ (meltwater) से आने वाले पानी के प्रवाह (water flow) को नियंत्रित करती हैं। ऐसा प्रवाह अनियंत्रित हो तो झीलों के नीचे की ओर रहने वाले समुदायों (communities) को मुश्किलें हो सकती हैं। 

आसमान से भी नीला 

ग्लेशियर झीलों (glacial lakes) का नीला रंग (blue color) काफी हैरतअंगेज़ हो सकता है। इसकी थोड़ी तुलना ऐसे स्वीमिंग पूल (swimming pool) से की जा सकती है जिसका पेंदा नीला पेंट किया गया हो। यह प्रभाव झील के पानी (lake water) में निलंबित पत्थरों के चूरे (rock flour) के महीन कणों द्वारा प्रकाश (light) के प्रकीर्णन (scattering) के कारण होता है। हिमालय क्षेत्र (Himalayan region) में भी फिरोज़ी रंग की कुछ ग्लेशियर झीलें (glacial lakes) देखने को मिलती हैं। 

शांत गुरुडोंगमार झील (Gurudongmar Lake) उत्तरी सिक्किम (North Sikkim) में समुद्र तल से 5430 मीटर की ऊंचाई (altitude) पर स्थित है, और यह दुनिया की सबसे ऊंची झीलों (highest lakes) में से एक है। मोरैन-बांध (moraine dam)-वाली इस झील से निकली जल धाराएं (water streams) आगे जाकर तीस्ता नदी (Teesta River) बनाती है। पैंगोंग त्सो झीलों (Pangong Tso) की 134 किलोमीटर की शृंखला (lake chain) है जो लद्दाख (Ladakh) और चीन (China) के बीच विवादित बफर ज़ोन (buffer zone) का हिस्सा है। सिक्किम (Sikkim) में समुद्र तल से लगभग 4300 मीटर की ऊंचाई (altitude) पर स्थित बहुचर्चित सामिति झील (Samiti Lake) कंचनजंगा (Kangchenjunga) के रास्ते में पड़ती है। 

बाढ़ का प्रकोप (Flooding) 

गर्माती दुनिया (Global Warming) का एक उल्लेखनीय परिणाम ग्लेशियरों का (pihalna) सिकुड़ना है, जो ग्लेशियर झीलों (glacial lakes) में पानी (water) में काफी इज़ाफा करता है। इससे इन झीलों (lakes) के मोरैन बांधों (moraine dams) के टूटने (breakage) की संभावना बढ़ जाती है और इसके परिणाम भयावह (disastrous) हो सकते हैं। 

सिक्किम की कई मोरैन-बांधित ग्लेशियर झीलों (moraine-dammed glacial lakes) में से एक है दक्षिणी ल्होनक झील (Southern Lhonak Lake)। इसने दिखा दिया है कि बढ़ते तापमान (temperature rise) के क्या परिणाम हो सकते हैं। दक्षिणी ल्होनक झील में तीन ग्लेशियरों (glaciers) का पानी जमा होता है। ग्लोबल वार्मिंग (global warming) के कारण इस झील का आयतन (volume) असामान्य रूप से तेज़ी से बढ़ा है। झील (lake) बहुत हाल ही में बनी है – 1962 में यह पहली बार उपग्रह चित्रों (satellite images) में दिखाई दी थी। 1977 में यह मात्र 17 हैक्टर में फैली थी और यह बढ़ती हुई झील तब से एक संभावित खतरे (threat) के रूप में देखी जा रही थी। 2017 तक, झील (lake) से लगातार पानी निकालने के लिए आठ इंच व्यास (diameter) वाले तीन पाइप (pipes) लगाए गए थे। लेकिन वे भी निहायत अपर्याप्त साबित हुए थे। 

2023 तक झील का क्षेत्रफल (area) 167 हैक्टर हो जाना था। पिछले साल हुई बारिश (rain) के कारण मोरैन बांध (moraine dam) टूट गया। परिणामस्वरूप झील (lake) के फटने से तीस्ता नदी (Teesta River) का जल स्तर (water level) छह मीटर बढ़ गया, और तीस्ता-III बांध (Teesta-III Dam) टूट गया और व्यापक पैमाने पर विनाश (devastation) हुआ। 

आईआईटी, रुड़की (IIT Roorkee) और अन्य वैज्ञानिकों (scientists) द्वारा इस झील से भविष्य में होने वाले विस्फोट (explosion) की मॉडलिंग (modeling) कर यह अनुमान लगाया गया है कि मोरैन में आई एक बड़ी दरार (crack) से इससे 12,000 घन मीटर प्रति सेकंड (cubic meters per second) से अधिक की गति से पानी (water) बह सकता है – इससे झील के नीचे की ओर बसी मानव बस्तियों (human settlements) के लिए स्थिति बहुत ही भयावह (severe) होने की संभावना है। इस पर सतत निगरानी (monitoring) आपदा न्यूनीकरण (disaster mitigation) में, और प्रकृति के इन रहस्यमय नीले चमत्कारों (mystical blue wonders) को समझने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन: कार्बन हटाने की बजाय उत्सर्जन घटाएं

जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विरुद्ध वैश्विक जंग में, वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 Removal) को हटाने की तकनीकों पर ध्यान बढ़ रहा है। लेकिन उभरते शोध से पता चलता है कि इन तकनीकों पर अत्यधिक निर्भरता हमारे ग्रह (Planetary Health) को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है। 

वर्ष 2015 में पेरिस समझौते (Paris Agreement) में वैश्विक तापमान वृद्धि (Global Warming) को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और यथासंभव 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया था। अधिकांश जलवायु मॉडल (Climate Models) का अनुमान है कि कार्बन हटाने की विभिन्न तकनीकों से तापमान कम तो होगा लेकिन पूर्व निर्धारित सीमा को पार कर जाएगा। 

अब बड़ा सवाल यह है कि इस सीमापार (1.5 डिग्री से अधिक) अवधि के दौरान क्या हो सकता है? नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित कार्ल-फ्रेडरिक श्लूसनर के नेतृत्व में किया गया एक नया अध्ययन संभावित परिणामों पर प्रकाश डालता है। यदि हम तापमान (Global Temperature) को वापस नीचे लाने में सफल हो भी जाएं, तब भी 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के प्रभाव गंभीर और दीर्घकालिक होंगे, जिससे आने वाले दशकों तक लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystems) दोनों पर असर पड़ेगा। 

तापमान में वृद्धि का खतरा (Temperature Rise Risks) 

तापमान में वृद्धि का मतलब है कि अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान सीमा (Temperature Threshold) को पार करना और फिर बाद में वैश्विक तापमान को कम करना। श्लूसनर के शोध में चेतावनी दी गई है कि इस तरह की वृद्धि से भीषण तूफान (Extreme Weather Events) और लू जैसी चरम मौसमी घटनाएं हो सकती हैं तथा जंगल और कोरल रीफ (Coral Reefs) जैसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश हो सकता है। 

इसके अलावा, तापमान वृद्धि से पृथ्वी के जलवायु तंत्र (Climate Systems) का नाकाबिले-पलट बिंदु तक पहुंचने का जोखिम बढ़ सकता है। मसलन, उच्च तापमान ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर (Greenland Ice Sheet) का ढहना या अमेज़ॉन वर्षावन (Amazon Rainforest) के अपरिवर्तनीय पतन शुरू कर सकता है। भले ही हम बाद में वैश्विक तापमान कम करने में कामयाब हो जाएं लेकिन उससे पहले ही काफी स्थायी नुकसान हो चुका होगा। 

कार्बन हटाना: आसान काम नहीं (Carbon Removal Challenges) 

हालांकि, पेड़ लगाना या कार्बन कैप्चर (Carbon Capture) जैसे तरीके समाधान का हिस्सा हैं, लेकिन ये अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। श्लूसनर की टीम के अनुसार 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें वर्ष 2100 तक वायुमंडल से 400 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड (Gigaton CO2) हटाना होगा जो कि एक कठिन चुनौती होगी। 

यदि बड़े पैमाने पर कार्बन हटाना (Carbon Sequestration) संभव हो जाए, तो भी तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण होने वाले कुछ बदलाव स्थायी हो सकते हैं। बढ़ता समुद्र स्तर (Sea Level Rise), जलवायु क्षेत्रों में बदलाव और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान जारी रह सकते हैं, जिससे कृषि जैसे कारोबरों के लिए अनुकूलन करना कठिन हो जाएगा। 

नैतिक चिंताएं (Ethical Concerns) 

अध्ययन में उठाया गया एक और मुद्दा नैतिकता का है। एक बड़ा सवाल यह है कि तापमान में वृद्धि (Temperature Increase) के दौरान और उसके बाद जलवायु प्रभावों का खामियाजा कौन भुगतेगा। जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार कम आय वाले देश (Low-Income Nations) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। ये क्षेत्र पहले से ही इंतहाई मौसम और पर्यावरणीय क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, और तापमान में वृद्धि से उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी। 

उत्सर्जन रोकना आवश्यक है (Emission Reduction Necessary) 

लक्ष्य से अधिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि उत्सर्जन करने के बाद कार्बन डाईऑक्साइड हटाने पर। विशेषज्ञ सरकारों (Government Policies) और उद्योगों द्वारा उत्सर्जन में भारी कटौती करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। 

यू.के. ने हाल ही में अपने अंतिम कोयला-चालित बिजली संयंत्र (Coal Plants) को बंद किया है और अगले 25 वर्षों में कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियों (Carbon Capture and Storage) में 22 अरब पाउंड (करीब 230 अरब रुपए) का निवेश करने की घोषणा की है। आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों में लागू किए जा रहे इन प्रयासों का उद्देश्य जलवायु चुनौतियों का समाधान करते हुए रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाना है। 

अलबत्ता, ये केवल शुरुआती प्रयास हैं। वैश्विक नेताओं को, विशेष रूप से आगामी कोप 29 (COP29) शिखर सम्मेलन में, 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए उत्सर्जन में कटौती (Emission Reduction Targets) को प्राथमिकता देनी चाहिए। कार्रवाई में देरी करना और भविष्य में कार्बन हटाने पर निर्भर रहना एक जोखिम भरी रणनीति है जो लोगों और ग्रह दोनों के लिए विनाशकारी हो सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने के लिए काष्ठ तिज़ोरियां

वैसे तो इस बात पर आम सहमति है कि ग्लोबल वार्मिंग (global warming) से निपटने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) का उत्सर्जन कम करना सर्वोत्तम तरीका है, लेकिन कई लोग मानते हैं कि सिर्फ उत्सर्जन कम करने से बात नहीं बनेगी। कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल (atmosphere) से हटाकर भंडारित करना भी ज़रूरी होगा। 

इसी सिलसिले में कनाडा में 3775 साल पुराने संरक्षित लाल देवदार (red cedar) के लट्ठे की खोज ने जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के एक नए तरीके में रुचि उत्पन्न की है: लकड़ी की तिज़ोरियां (wood vaults)। इस तकनीक में लकड़ी को इस तरह दफनाया जाता है कि वह सड़कर वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड न छोड़े। गौरतलब है कि कार्बन डाईऑक्साइड ग्लोबल वार्मिंग में एक प्रमुख योगदानकर्ता है। 

यह विचार मैरीलैंड विश्वविद्यालय (University of Maryland) के जलवायु वैज्ञानिक निंग ज़ेंग (Ning Zeng) का है, जिनके अनुसार मिट्टी की परतों (soil layers) के नीचे दबा हुआ यह प्राचीन लट्ठा दर्शाता है कि कैसे लकड़ी को कम ऑक्सीजन (low oxygen) वाले वातावरण में रखा जाए तो उसका कार्बन अक्षुण्ण रहता है। ज़मीन के ऊपर पड़ी लकड़ियां जल्दी से सड़ जाती हैं, और कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होती है। लेकिन जब उसी लकड़ी को मिट्टी या कीचड़ के नीचे दफनाया जाता है, जहां ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती, तो वह बहुत धीरे-धीरे विघटित होती है और कार्बन सदियों तक कैद रहता है। 

ज़ेंग और उनके सहयोगियों का अनुमान है कि दुनिया भर में एक-दो बार इस्तेमाल की जा चुकी लकड़ी के 4.5 प्रतिशत बायोमास (biomass) को इस तरह दफनाने से वायुमंडल से सालाना 10 गीगाटन (gigaton) तक कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है। 

अलबत्ता, इस उपाय की प्रभाविता पर कुछ विशेषज्ञों को चिंता है। इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दबी हुई लकड़ी में कार्बन सदियों तक कैद रहता है या नहीं। अब तक, समुद्री मिट्टी (marine soil) के नीचे क्यूबेक लॉग का संरक्षण वैज्ञानिकों को उम्मीद देता है कि इसी तरह के परिणाम बड़े पैमाने पर प्राप्त किए जा सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अन्य किस्म की मिट्टियां भी ऐसी सुरक्षात्मक परिस्थितियां प्रदान कर सकती हैं। 

एक चिंता यह है कि कहीं यह तकनीक जंगलों को काटने की प्रेरणा न बन जाए, क्योंकि वह जैव विविधता (biodiversity) के लिए खतरे की घंटी होगी। एक और चुनौती पेड़ों को दफनाने की व्यावहारिकता और अर्थशास्त्र (economics) है। लकड़ी का उपयोग निर्माण कार्य, कागज़ और फर्नीचर (construction, paper, furniture) बनाने में किया जाता है, और इसे दफनाने से वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान सम्बंधित चिंताएं बढ़ सकती हैं। हालांकि, ज़ेंग का सुझाव है कि इन जोखिमों से बचने के लिए केवल बेकार लकड़ी को दफनाया जा सकता है। ज़ेंग के अनुसार, बेकार लकड़ी के ढेर आग का खतरा भी बन सकते हैं, इसलिए उन्हें दफनाने से कई लाभ मिलेंगे। 

अभी के लिए, काष्ठ तिज़ोरियां जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक लड़ाई में एक आशाजनक रणनीति दिख रही हैं। यद्यपि पर्यावरण सम्बंधी चिताओं के मद्देनज़र इस पर और शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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भूमध्य सागर सूखने पर जीवन उथल-पुथल हुआ था

अपने सुंदर समुद्र तटों के लिए लोकप्रिय भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व पूरी तरह से सूख गया था। ‘भूमध्यसागर लवणीयता संकट’ (Mediterranean salinity crisis) के रूप मशहूर इस घटना ने इस क्षेत्र में लगभग सभी समुद्री जीवन (marine life) को मिटा दिया और नमक की एक मोटी परत छोड़ दी। इसके परिणामस्वरूप क्षेत्र की जैव विविधता (biodiversity) गंभीर रूप से प्रभावित हुई। 

इस घटना के साक्ष्य पहली बार 1970 के दशक में उजागर हुए जब भूवैज्ञानिकों (geologists) ने समुद्र तल की खुदाई में बड़े पैमाने पर नमक जमा पाया। विशेषज्ञों के अनुसार, 60 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी की महाद्वीपीय प्लेटें खिसकने के कारण भूमध्य सागर अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) से अलग हो गया, जिसके बाद लगभग 6 लाख वर्षों में समुद्र सूख गया। नतीजतन, कोरल रीफ (coral reef) और मछली प्रजातियों से संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) लगभग नमक का बंजर रेगिस्तान बन गया। इस संकट ने समुद्री जीवन को काफी प्रभावित किया, भूमध्य सागर की जैव विविधता को हमेशा के लिए बदल डाला। 

भूविज्ञानी कॉन्स्टेन्टिना अगियादी और उनकी टीम द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययन ने इस विलुप्ति की घटना और उसके बाद की बहाली के बारे में नई जानकारी प्रदान की है। उन्होंने संग्रहालयों में उपलब्ध 1.2 करोड़ से 35 लाख वर्ष पुराने 23,000 से अधिक जीवाश्मों (fossils) का विश्लेषण किया, जिससे 1755 वंशों (genera) की 4903 प्रजातियों का पता चला जो कभी भूमध्य सागर में निवास करती थीं। इस शोध से एक गंभीर तस्वीर सामने आई है: जीवंत कोरल रीफ सहित लगभग 800 प्रजातियां (species) पूरी तरह से विलुप्त हो गईं। केवल सार्डीन और मैनेटिज़ (sardines and manatees) जैसी समुद्री स्तनधारियों (marine mammals) की केवल 86 प्रजातियां इस आपदा से बच पाईं। 

लगभग 50,000 वर्षों के बाद, टेक्टोनिक प्लेटों (tectonic plates) के विचरण ने भूमध्य सागर को अटलांटिक से फिर से जोड़ दिया और समुद्र का पानी सूखे हुए बेसिन में वापस बहने लगा। लगभग 2700 प्रजातियां इस क्षेत्र में पुनः आबाद हो गईं। हालांकि, वे सभी प्रजातियां वापस नहीं पनप सकीं जो पहले यहां रहा करती थीं। आजकल की प्रजातियों में नई प्रजातियां अधिक हैं, जैसे ग्रेट व्हाइट शार्क (great white shark), डॉल्फिन (dolphin) वगैरह। 

इस घटना ने जैव विविधता पैटर्न (biodiversity patterns) में भी दीर्घकालिक बदलाव किया। इस संकट से पहले, भूमध्य सागर के पूर्वी भाग में (आधुनिक लेबनान के पास) जैव विविधता सबसे अधिक थी। लेकिन पानी फिर से भर जाने के बाद जैव विविधता का केंद्र पश्चिमी छोर बन गया, जो आज भी कायम है। जैव विविधता के केंद्र में परिवर्तन के कारण अभी स्पष्ट नहीं हैं। 

बहरहाल, यह संकट एक केस स्टडी है जिससे यह समझा जा सकता है कि कैसे पारिस्थितिकी तंत्र चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों (extreme environmental changes) के बाद ढहते और बहाल होते हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन दुनिया भर के ऐसे क्षेत्रों पर और अधिक अध्ययनों को प्रेरित करेगा। विशेष रूप से मध्य यूरोप और मेक्सिको की खाड़ी (Gulf of Mexico) में यह समझने में मदद मिलेगी कि पिछले पर्यावरणीय बदलावों ने वैश्विक स्तर पर जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया था। (स्रोत फीचर्स) 

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टापुओं के चूहों के विरुद्ध वैश्विक जंग

वर्ष 1959 में, एक छोटे समुद्री पक्षी व्हाइट-फेस्ड स्टॉर्म पेट्रेल (White-faced Storm Petrel) को बचाने के एक प्रयास में न्यूज़ीलैंड के मारिया द्वीप (Maria Island) से चूहों का सफाया किया गया था। यह अनुभव कई टापुओं पर घुसपैठी चूहों को खत्म करने के एक वैश्विक अभियान (global campaign against rats) की प्रेरणा बना।

एक गैर-सरकारी संस्थान आइलैंड कंज़र्वेशन (Island Conservation) के अनुसार, पिछले पचास वर्षों में 666 द्वीपों से चूहों को खत्म करने के लिए 820 प्रयास (rat eradication efforts) किए गए हैं और सफलता लगभग 88 प्रतिशत रही है। गौरतलब है कि चूहे आम शहरी जीव (urban rats) हैं लेकिन टापुओं पर ये काफी विनाशकारी (destructive) हो जाते हैं। वास्तव में टापू जैसे अलग-थलग पारिस्थितिकी तंत्र (isolated ecosystems) जोखिमग्रस्त प्रजातियों के घर हैं, और चूहे इन टापुओं पर रहने वाले पक्षियों, स्तनपाइयों, उभयचरों और सरीसृपों की लगभग 75 प्रतिशत विलुप्ति (species extinction) के लिए ज़िम्मेदार हैं।

चूहों की तीन सबसे आम प्रजातियां, काला चूहा (Black Rat, Rattus rattus), ब्राउन या नॉर्वे चूहा (Brown Rat, R. norvegicus), और प्रशांत चूहा (Pacific Rat, R. exulans) इस उन्मूलन का लक्ष्य हैं। ये कृंतक (rodents), अक्सर जहाज़ों (ships) पर सवार होकर टापुओं पर पहुंच जाते हैं और तेज़ी से संख्यावृद्धि (rapid population growth) करते हैं। एक मादा चूहा एक साल में सैकड़ों-हज़ारों संतानों को जन्म दे सकती है।

गैलापागोस (Galapagos Islands) से लेकर अंटार्कटिका के दक्षिण जॉर्जिया द्वीप (South Georgia Island) तक उन्मूलन अभियान सफल रहे हैं। दक्षिण जॉर्जिया के टापुओं को चूहों से मुक्त (rat-free islands) करने के लिए 10 साल तक 135 करोड़ डॉलर का अभियान चला। इसमें हेलीकॉप्टर की मदद से 3000 टन ज़हरीला चारा (poison bait) फैलाया गया।

चूहों को खत्म करना चुनौतीपूर्ण (challenging task) कार्य है। उष्णकटिबंधीय द्वीपों (tropical islands) पर चूहे साल भर प्रजनन करते हैं और उन्हें प्रचुर मात्रा में भोजन उपलब्ध होता है। ऐसे में बार-बार प्रयास करने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, गैलापागोस के उत्तरी सीमोर द्वीप (North Seymour Island) पर प्रारंभिक अभियान के बाद चूहों की आबादी में फिर से इजाफा दिखा था, जिसके बाद उन्मूलन प्रयास फिर से शुरू करना पड़ा। आसपास चूहों की आबादी होने से या मानव निवास वाले द्वीपों पर पुन: घुसपैठ की संभावना अधिक होती है।

उन्मूलन प्रयासों का पैमाना बढ़ रहा है। 2019 तक उन्मूलन के लिए लक्षित द्वीपों का औसत क्षेत्रफल 1700 हेक्टर था, लेकिन टोंगा स्थित लेट आइलैंड (Late Island, Tonga) (11,600 हेक्टर) और गैलापागोस में फ्लोरियाना द्वीप (Floreana Island) (17,900 हेक्टर) जैसे बड़े द्वीप नए केंद्र (new eradication centers) बन गए हैं।

फिलहाल, सबसे बड़ा द्वीप उन्मूलन प्रयास दक्षिण जॉर्जिया द्वीप (South Georgia Island) (1,00,000 हेक्टर) पर हुआ है। हाल ही में, न्यूज़ीलैंड (New Zealand) ने एक योजना शुरू की है जिसका उद्देश्य 2050 तक पूरे देश को चूहों, फेरेट्स और पोसम (possums) जैसी प्रजातियों से छुटकारा (eradication plan) दिलाना है।

2019 के एक अध्ययन में पाया गया था कि अगले दशक में सिर्फ 169 द्वीपों से चूहों और अन्य घुसपैठी स्तनधारियों (invasive mammals) को खत्म करने से पृथ्वी की सबसे लुप्तप्राय प्रजातियों में से 111 को बचाया (species conservation) जा सकता है। इसका मतलब है कि द्वीपों को चूहों से मुक्त (rat-free islands) करने के प्रयास जैव विविधता संरक्षण (biodiversity conservation) को काफी प्रभावित कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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जीव-जंतुओं की रक्षा के बेहतर प्रयास चाहिए

भारत डोगरा

विभिन्न स्तरों पर विकट होती पर्यावरण की स्थिति ने मनुष्यों के स्वास्थ्य को बहुत प्रतिकूल  प्रभावित किया है। इस पर समझ बढ़ रही है, पर विकट होते पर्यावरणीय हालात से अन्य जीव-जंतुओं का जीवन संकटग्रस्त हो रहा है, उस पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा रहा है। 

डॉ. गैरार्डो सेबेलोस, डॉ. पॉल एहलरिच व अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक अध्ययन में बताया गया है कि यदि हर 10,000 प्रजातियों में से दो प्रजातियां 100 वर्षों में लुप्त हो जाएं तो इसे सामान्य जैसी स्थिति माना जा सकता है। पर यदि वर्ष 1900 के बाद की वास्तविक स्थिति को देखें तो इस दौरान सामान्य की अपेक्षा कशेरुकी प्रजातियों (vertebrate species) के लुप्त होने की गति 100 गुना तक बढ़ गई है। इस तरह जलवायु बदलाव (climate change), वन विनाश (deforestation) व प्रदूषण (pollution) बहुत बढ़ जाने के कारण विभिन्न प्रजातियों का लुप्त होना असहनीय हद तक बढ़ गया है। 

अध्ययन में बताया गया है कि उक्त अनुमान लगाने में जो मान्यताएं अपनाई गई हैं, उस आधार से अनुमानित संख्या वास्तविकता से कम हो सकती है लेकिन अधिक नहीं। दूसरे शब्दों में, वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक गंभीर हो सकती है। मात्र एक प्रजाति के लुप्त होने से ऐसी शृंखलाबद्ध प्रक्रियाएं हो सकती हैं जिससे आगे कई प्रजातियां खतरे में पड़ जाएंगी। कई प्रजातियां लुप्त होने से मनुष्य के अपने जीवन की कई कठिनाइयां अप्रत्याशित ढंग से बढ़ सकती हैं, क्योंकि सभी तरह के जीवन एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। डॉ. पॉल एहलरिच ने अध्ययन पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि मनुष्य जिस डाल पर बैठा है, उसी को काट रहा है। 

विभिन्न जीव-जंतुओं का जीवन सबसे अधिक इस बात से जुड़ा है कि जिस जंगल (forest) में या समुद्र (ocean) में या नदी (river) में वे रहते हैं उसकी हालत कैसी है। चूंकि वन बहुत बड़े पैमाने पर काटे गए हैं व समुद्र, नदी समेत सारे जल स्रोतों का प्रदूषण बहुत बढ़ गया है व अनेक जल स्रोत सिमट गए हैं, अत: यह स्पष्ट है कि इन लाखों तरह के जीव-जंतुओं की समस्याएं बहुत बढ़ गईं हैं व इनमें से अनेक अब लुप्तप्राय (endangered species) हैं। इसके अतिरिक्त तरह-तरह के लालच में आकर मनुष्य ने अन्य जीवों का शिकार (hunting) भी बहुत किया है। अत्यधिक वायु प्रदूषण (air pollution) का भी जीवों, विशेषकर पक्षियों (birds), पर काफी प्रतिकूल असर पड़ा है। 

पिछले लगभग दो-तीन दशकों में फुटबॉल के मैदान जितने बड़े मछली मारक जहाज़ समुद्र में बेहद विनाशक उपकरणों से लैस होकर पहुंचते रहे हैं और ये जिस खास तरह की मछली (fish) को पकड़ना चाहते हैं, उसे पकड़ने की प्रक्रिया में वे लाखों अन्य समुद्री जीव-जंतुओं (marine species) को भी मार कर यों ही फेंकते रहे हैं। इन बेहद विनाशकारी तकनीकों (destructive technologies) के कारण हज़ारों किस्म के समुद्री जीव-जंतुओं के लिए भी अब अस्तित्व का खतरा उत्पन्न हो गया है। 

जो प्राकृतिक वन (natural forests) विविध तरह के जीवों के आश्रय स्थान रहे हैं वे बड़े पैमाने पर उजड़ रहे हैं। इनके स्थान पर जो नए वन लगाए जा रहे हैं वे व्यापारिक दृष्टि से लाभदायक प्रजातियों के प्लांटेशन (commercial plantations) की तरह हैं। उनमें वन्य जीवों (wildlife) को अपनी ज़रूरतों के अनुकूल आश्रय नहीं मिल पा रहा है। इससे एक ओर वे संकटग्रस्त हो रहे हैं तथा दूसरी ओर गांवों व खेतों में उत्पात करने की उनकी प्रवृत्ति बढ़ रही है। हाल के समय में अनेक गांवों में किसानों का अस्तित्व ही बंदर, नीलगाय (nilgai), हाथी (elephant), जंगली सूअर (wild boar) आदि के उत्पात के कारण संकट में आ गया है। प्राकृतिक वनों की रक्षा ज़रूरी है ताकि वन्य जीवों को प्राकृतिक आश्रय मिल सके। 

अनेक जल स्रोतों (water sources) के लुप्तप्राय होने, नदियों में पानी का बहाव कम होने या पूरी तरह सूख जाने के कारण बड़ी संख्या में जलीय जीव (aquatic species) तड़प कर मर चुके हैं। नदियों के बढ़ते प्रदूषण से भी बड़ी संख्या में जलीय जीव मारे गए हैं या संकटग्रस्त हुए हैं। नदियों पर बहुत से बांध व बैराज बनने के कारण अनेक मछलियों (fish species) के लिए प्रजनन-स्थल तक पहुंचने में बाधाएं उत्पन्न हो गई हैं। 

यदि वन्य व जलीय जीवों की रक्षा में स्थानीय गांववासियों का सहयोग प्राप्त किया जाए तो ये उपाय अधिक सफल होंगे। इस समय संरक्षित वन क्षेत्रों (protected forest areas) से गांववासियों के अधिकार छीनने या उन्हें विस्थापित करने की जो नीति अपनाई जा रही है वह अन्यायपूर्ण व अनुचित है। मौजूदा नीतियों व कानूनों में बदलाव ज़रूरी हैं ताकि वन्य व जलीय जीवों की रक्षा में बड़े पैमाने पर गांववासियों व विशेषकर आदिवासियों (tribals) की भागीदारी प्राप्त की जा सके। विश्व स्तर पर अनेक अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जब वन्य-जीव रक्षा के प्रयास आसपास के गांववासियों के सहयोग से होते हैं तब उनमें अधिक सफलता मिलती है। 

आज विश्व में जितने लोग हैं, लगभग उतनी ही संख्या में पालतू पशु (domestic animals) कृषि कार्य और बोझा ढोने के कार्य में लगे हुए हैं, अथवा उन्हें दूध, मांस, ऊन आदि प्राप्त करने के लिए पाला जा रहा है। कुछ देशों में तो इन पशुओं की संख्या मनुष्यों की संख्या से कहीं अधिक है। 

यदि मुर्गीपालन (poultry farming) को भी सम्मिलित कर मुर्गी व मिली-जुली प्रजाति के पक्षियों की संख्या देखी जाए (जिन्हें अंडे व मांस प्राप्त करने के लिए पाला जाता है) तो इनकी संख्या मनुष्यों की संख्या से तीन गुना अधिक है। 

दूध देने वाले पशु से कोई भावनात्मक सम्बंध न रखकर केवल उससे दूध देने वाली मशीन की तरह व्यवहार करना निश्चय ही उचित नहीं है, पर हकीकत में अनेक देशों में यही स्थिति देखी जा रही है। 

जिन पशुओं को केवल मांस प्राप्त करने के लिए पाला जा रहा है उसमें पशुओं के कष्ट कम करने के लिए खर्च करने को कोई तैयार नहीं है। एकमात्र उद्देश्य यह रह गया है कि इससे अधिकतम लाभ (maximum profit) प्राप्त कर लिया जाए। 

न्यू इंटरनेशनलिस्ट पत्रिका में पश्चिमी देशों में सूअर पालन (pig farming) पर गेल हार्डी ने लिखा है, “मादा सूअर को इतनी तंग जगह पर रखा जाता है कि वह अपनी गर्भावस्था के पूरे समय में एक कदम से ज़्यादा हिल नहीं पाती है। हवा और प्रकाश से वंचित उसे प्राय: अपनी गंदगी में ही लेटना पड़ता है।” मुर्गीपालन (poultry industry) के हालात के विषय में वे बताते हैं कि कुछ पक्षी अपना पूरा जीवन बेहद तंग पिंजरों में बिताने के बाद प्राकृतिक प्रकाश (natural light) पहली बार तभी देख पाते हैं जब उनका वध होने वाला होता है। मुर्गियों को ऐसे ठूंस कर रखा जाता है कि उनमें एक-दूसरे को जख्मी करने जैसे विकार पैदा हो जाते हैं। 

सूअर पालन पर एक पत्रिका ने हाल ही में इस व्यवसाय में लगे लोगों को सलाह दी है, “भूल जाओ कि सूअर एक पशु है। उसे फैक्ट्री में एक मशीन की तरह समझो।” वास्तव में पशु-पक्षियों के प्रति ऐसा व्यवहार बढ़ता जा रहा है। पृथ्वी पर दुख-दर्द कम करने का कोई भी अभियान तब तक अधूरा ही माना जाएगा जब तक उसमें पालतू पशुओं के दुख-दर्द कम करने के प्रयासों को समुचित ध्यान न दिया जाए। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ई-कचरा प्रबंधन: राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की भूमिका

कुमार सिद्धार्थ

भारत में ई-कचरे (इलेक्ट्रॉनिक कचरा यानी पुराने लैपटॉप (old laptops) और सेल फोन (mobile phones), कैमरा और एसी (AC), टीवी और एलईडी लैंप (LED lamps) वगैरह) के प्रबंधन की तेज़ी से बढ़ती चुनौती से जुड़े पर्यावरणीय कानूनों (environmental laws) को मज़बूती प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल, NGT) प्रतिबद्ध है। हाल ही में अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव के नेतृत्व में एनजीटी ने ई-कचरा प्रबंधन रिपोर्टिंग की वर्तमान स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है। एनजीटी ने अपने पूर्व आदेशों का पालन न करने का दावा करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे (electronic waste) के उत्पादन और निस्तारण पर एक नई रिपोर्ट पेश करने के निर्देश दिए हैं। वहीं ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों का पालन न करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के खिलाफ की गई कार्रवाई का भी उल्लेख करने को कहा है। 

यह पहल ई-कचरे से निपटने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) और पारिस्थितिक अखंडता के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दा (environmental issue) है। 

देश में ई-कचरा प्रबंधन से जुड़े नियमों को लागू कराने में सीपीसीबी की भूमिका अहम है। ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों के पालन की निगरानी के साथ-साथ ई-कचरा प्रबंधन और निपटारा सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों हेतु भी सक्रिय पहल करने की ज़िम्मेदारी सीपीसीबी की है। एनजीटी ने सीपीसीबी को यह नई रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने के लिए 12 दिसंबर तक का वक्त दिया है, जिसमें समस्त राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ई-कचरे के उत्पादन (e-waste production), उपचार सुविधाओं, और मौजूदा खामियों पर विस्तृत डैटा (detailed data) शामिल होना चाहिए। 

देश में बढ़ते ई-कचरे पर एनजीटी ने 7 नवंबर, 2022 को निर्देश दिए थे कि ई-कचरे के मामले में सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board) और प्रदूषण नियंत्रण समितियां, सीपीसीबी द्वारा जारी रिपोर्ट का पालन करें। लेकिन तमाम ज़िम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन निर्देशों का अनुपालन ठीक से न करने पर एनजीटी ने असंतोष व्यक्त किया है। 

ई-कचरा जहां पर्यावरण (environment) के लिए खतरनाक होता है, वहीं मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। ई-कचरे के निपटान और तोड़फोड़ से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इनसे निकलने वाले तरल और रसायन सतही जल (surface water), भूजल (groundwater), मिट्टी और हवा में मिल सकते हैं। इनके ज़रिए ये जानवरों और फसलों में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसी फसलों के इस्तेमाल से मानव शरीर में घातक रसायन (hazardous chemicals) पहुंचने का खतरा होता है। इलेक्ट्रॉनिक सामान में लेड (lead), कैडमियम (cadmium), बैरियम (barium), भारी धातुएं व अन्य घातक रसायन होते हैं। 

सीपीसीबी द्वारा दिसंबर, 2020 में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 में भारत में 10,00,000 लाख टन से अधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 2017-18 में यह 25,325 टन और 2018-19 में 78,281 टन था। एक तथ्य यह भी है कि 2018 में केवल 3 फीसदी ई-कचरा एकत्र किया गया था, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 10 फीसदी था। मतलब साफ है कि देश में ई-कचरे को री-सायकल (recycle) करना तो दूर, इस कचरे की एक बड़ी मात्रा एकत्र ही नहीं की जा रही है। एक अन्य रिपोर्ट के आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में 2022 के दौरान 413.7 करोड़ किलोग्राम इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 

भारत में अभी तक राज्य सरकारों द्वारा मान्यता प्राप्त व पंजीकृत ई-कचरा री-सायक्लर 178 ही हैं। लेकिन भारत के ज़्यादातर ई-कचरा री-सायक्लर (e-waste recycler) ई-कचरे का रीसायक्लिंग नहीं कर पा रहे हैं और कुछ तो इसे खतरनाक तरीके से संग्रहित कर रहे हैं। इनमें से कई री-सायक्लर के पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता भी नहीं है। 

आंकड़े बताते हैं कि खतरनाक ई-कचरे को सुरक्षित रूप से संसाधित करने के लिए नए नियम (new regulations) आने के बावजूद, लगभग 80 प्रतिशत ई-कचरा अनौपचारिक सेक्टर (informal sector) द्वारा गलत तरीके से निपटान किया जा रहा है, जिससे प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे कई गुना बढ़ने की आशंका है। इतना ही नहीं इससे भूजल और मिट्टी भी प्रदूषित हो रही है। 

गौरतलब है कि दुनिया भर में प्रति वर्ष 2 से 5 करोड़ टन ई-कचरा पैदा होता है। जबकि वर्तमान में सिर्फ 12.5 फीसदी ई-कचरा रीसायकल हो रहा है। मोबाइल फोन (mobile phones) और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान में बड़ी मात्रा में सोना (gold) या चांदी जैसी कीमती धातुएं होती हैं। अमेरिका में प्रति वर्ष फेंके गए मोबाइल फोन में 3.82 अरब रुपए का सोना या चांदी होता है। ई-कचरे के रीसायक्लिंग (e-waste recycling) से ये धातुएं प्राप्त की जा सकती हैं। 10 लाख लैपटॉप के रीसायक्लिंग से अमेरिका के 3657 घरों में प्रयोग होने वाली बिजली जितनी ऊर्जा (energy) मिलती है। 

विश्व भर में ई-कचरे का वार्षिक उत्पादन 2.6 करोड़ टन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है, जो 2030 तक 8.2 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा। रीसायक्लिंग की कमी वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक उद्योग (electronics industry) पर भारी पड़ती है, और जैसे-जैसे उपकरण अधिक संख्या में, छोटे और अधिक जटिल होते जाते हैं, समस्या बढ़ती जाती है। वर्तमान में, कुछ प्रकार के ई-कचरे का रीसायक्लिंग और धातुओं को पुनर्प्राप्त करना एक महंगी प्रक्रिया है। 

हमें इस बढ़ती समस्या के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इससे निपटने के लिए सबके साथ की आवश्यकता है। राष्ट्रीय प्राधिकरणों, प्रवर्तन एजेंसियों (enforcement agencies), उपकरण निर्माताओं (device manufacturers), रीसायक्लिंग में जुटे लोगों, शोधकर्ताओं के साथ उपभोक्ताओं को भी इनके प्रबंधन और रीसायक्लिंग में योगदान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु परिवर्तन के साथ अनुकूलन

ज़ुबैर सिद्दिकी

कई दशकों से वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन (climate change) और उसके प्रभावों (climate change impacts) की चेतावनी देते आए हैं। ये प्रभाव अब हर जगह दिखने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में समुद्र स्तर (sea level rise) में हो रही वृद्धि और भीषण गर्मी (extreme heat) ने मानव जीवन और पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के साथ समुद्र तल में वृद्धि हो रही है और तटीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) और कटाव का खतरा बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर शहरों में अत्यधिक गर्मी (urban heat) जानलेवा साबित हो रही है। इससे निपटने का सबसे उचित तरीका तो कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) को सीमित करना और अपनी खपत को कम करना है लेकिन इसके साथ ही बदलती जलवायु के प्रति अनुकूलन (climate adaptation) भी महत्वपूर्ण है।

इसके लिए, नए-नए तरीकों और नवाचारों (innovation in climate adaptation) पर काम किया जा रहा है। बढ़ते समुद्र स्तर से निपटने के लिए तैरते शहरों (floating cities) और उभयचर घरों (amphibious homes) जैसी अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, वहीं भीषण गर्मी से राहत के लिए सुपरकूल सामग्री (supercooling materials) और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए नई एयर कंडीशनिंग तकनीकें (energy-efficient air conditioning) विकसित की जा रही हैं। इन उपायों का उद्देश्य उन्नत तकनीकों की मदद से आबादी को बाढ़ और अत्यधिक गर्मी जैसे खतरों से सुरक्षित करना है। आइए ऐसे कुछ नवाचारों और समाधानों पर चर्चा करें।

तटों की सुरक्षा और जलवायु अनुकूलन 

वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार वर्तमान उत्सर्जन की स्थिति में वर्ष 2100 तक समुद्र स्तर में एक मीटर से भी अधिक की वृद्धि (sea level rise prediction) हो सकती है, जिससे निचले तटीय क्षेत्रों की आबादी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी। इस समस्या से निपटने के लिए ‘क्लायमेटोपिया’ (Climatopia concept) का विचार काफी प्रासंगिक हो गया है। क्लायमेटोपिया शब्द दरअसल युटोपिया का रूपांतरण है जिसका मतलब होता है सबके लिए आदर्श कल्पनालोक। इन बस्तियों की कल्पना विशेष रूप से उन क्षेत्रों के लिए की जा रही है, जो कुछ वर्षों में जलमग्न हो सकते हैं। उच्च तकनीकी परियोजनाओं के जरिए इन बस्तियों में बाढ़ के प्रभावों को कम करने और ऊर्जा दक्षता (energy efficiency) बढ़ाने के उपाय के रूप में देखा जा रहा है।

ऐसे विचारों में पानी पर आवास (water-based housing) या तैरते घर (floating homes), गेड़ियों (स्टिल्ट्स) पर बने घर और उभयचर आवास शामिल हैं। देखा जाए तो इनमें से कोई भी विचार नया नहीं है। जैसे पूर्व में पेरू की टिटिकाका झील में कृत्रिम द्वीप (artificial islands) और वियतनाम तथा नाइजीरिया में स्टिल्ट हाउस (stilt houses) बनाए गए हैं। उत्तर-पूर्वी भारत में ऐसे घर बहुतायत में बनते हैं। तैरते घरों के रूप में डल झील के शिकारे तो मशहूर हैं ही। एम्स्टर्डम के आइबर्ग क्षेत्र में उभयचर घरों की परियोजना काफी सफल रही है। फर्क इतना है कि आधुनिक क्लायमेटोपिया उच्च तकनीक वाले शहरों के रूप में उभर रहे हैं, जिनमें सौर पैनल (solar panels), स्वास्थ्य सेवाएं (health services), स्कूल और अन्य सुविधाएं शामिल हैं। हालांकि, इन डिज़ाइनों में भी चुनौतियां मौजूद हैं, और इन्हें लागू करते समय स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा।

क्लायमेटोपिया को तीन मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है:

1. पुनर्निर्मित भूमि (reclaimed land): तटीय क्षेत्रों में रेत और मिट्टी जमा करके नई भूमि बनाई जाती है। चीन में ओशियन फ्लावर आइलैंड (Ocean Flower Island) इसका एक उदाहरण है, लेकिन आवश्यक निवेश आकर्षित करने के बावजूद इस प्रकार की परियोजनाएं पर्यावरणीय प्रभाव (environmental impact) और स्थानीय समुदायों पर संभावित व्यवधान (local community disruption) के कारण विवादास्पद हो सकती हैं। 

2. उभयचर घर (amphibious homes): ये घर ज़मीन पर टिके होते हैं, लेकिन जल स्तर बढ़ने पर तैर सकते हैं। हालांकि, इसका एक नकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी परियोजनाएं लोगों को उच्च जोखिम वाले बाढ़ क्षेत्रों (flood-prone areas) में रहने के लिए प्रोत्साहित करेंगी। 

3. तैरते शहर (floating cities): ये शहर पूरी तरह से समुद्र या लैगून पर स्थित होते हैं और इन्हें इंटरलॉकिंग मॉड्यूलर प्रणाली (modular interlocking system) के साथ डिज़ाइन किया जाता है। मालदीव में 20,000 लोगों के निवास के लिए डिज़ाइन की गई फ्लोटिंग सिटी इसका एक उदाहरण है, लेकिन बड़े तूफानों (storm resilience) की स्थिति में इन शहरों की दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठते हैं। 

चुनौतियां 

क्लायमेटोपिया परियोजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे कितनी प्रभावी और सुरक्षित (effective and safe urban design) हैं। पुनर्निर्मित द्वीप (reclaimed islands) सबसे महंगे होते हैं और इनके निर्माण में समय भी अधिक लगता है। वहीं, उभयचर घरों की लागत अपेक्षाकृत कम होती है और वे आवश्यक सेवाओं तक आसान पहुंच प्रदान करते हैं। लेकिन समुद्री तूफानों और सुनामी (tsunamis) जैसी आपदाओं के दौरान इन डिज़ाइनों की स्थिरता पर संदेह बना रहता है। इसलिए सरकारों और योजनाकारों को इन परियोजनाओं की दीर्घकालिक व्यवहार्यता (long-term sustainability) का मूल्यांकन करना होगा।

इसके अलावा, इनके निर्माण से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा असर पड़ सकता है तथा भारी मात्रा में सामग्रियों के निष्कर्षण और परिवहन से कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) होता है। पुनर्निर्मित द्वीप जैव विविधता (biodiversity loss) को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जबकि तैरते शहर मौसम के पैटर्न (climate change) को बदल सकते हैं और समुद्री जीवों को प्रभावित कर सकते हैं। इन प्रभावों को कम करने के लिए सरकारों और शोधकर्ताओं को सतत विकास (sustainable development) प्रक्रियाओं का पालन करना और पारिस्थितिकीय आकलन को प्राथमिकता देनी होगी।

इन परियोजनाओं के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, क्लायमेटोपिया जैसी परियोजनाएं मुख्यतः अमीर लोगों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जिससे गरीब समुदायों के लिए इनका लाभ सीमित हो जाता है। इसके अतिरिक्त, इन परियोजनाओं के चलते पारंपरिक मछली पकड़ने और अन्य स्थानीय गतिविधियों पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। इसलिए, इन नवाचारों को सफल और न्यायसंगत बनाने के लिए सरकारों को सामाजिक न्याय (social justice) को प्राथमिकता देते हुए किफायती आवास (affordable housing) और जीवन-यापन के साधनों को भी इन परियोजनाओं का हिस्सा बनाना चाहिए।

गर्मी से निपटना

वैश्विक तापमान (global warming) में वृद्धि के कारण शहरों में अत्यधिक गर्मी महसूस की जा रही है, जिससे पानी की कमी (water scarcity), फसलों को नुकसान, और स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इस समस्या का समाधान करने के लिए, वैज्ञानिक नए-नए तरीकों पर काम कर रहे हैं जो बिजली की कम से कम खपत (energy efficiency) के साथ ठंडक प्रदान कर सकते हैं। इसमें अधिक कुशल एयर कंडीशनर (air conditioning) और विशेष सामग्री शामिल हैं जो बिना बिजली का उपयोग किए सतहों को ठंडा रख सकती हैं।

शीतलकों में परिवर्तन
पारंपरिक एयर कंडीशनर (traditional air conditioner) इमारत के अंदर से गर्मी को बाहर की ओर ले जाने के लिए एक गैसीय पदार्थ को संपीड़ित करते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा का उपयोग तो होता ही है, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) का भी उत्सर्जन होता है। इन्हें ऊर्जा-कुशल (energy efficient) बनाने के लिए, शोधकर्ता एक नई तकनीक ‘इलेक्ट्रोकैलोरिक’ कूलिंग (electrocaloric cooling) पर काम कर रहे हैं।
इस प्रक्रिया में, कुछ विशेष सिरेमिक सामग्री (ceramic material) का उपयोग किया जाता है। इन सामग्रियों में विद्युत क्षेत्र आरोपित करने पर पदार्थ का तापमान बढ़ जाता है। इसके बाद एक द्रव की मदद से उस गर्मी को बाहर ले जाया जाता है ताकि सिरेमिक पदार्थ का तापमान कम हो जाए यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसका उपयोग शीतलन उद्देश्यों (cooling purposes) के लिए किया जा सकता है।

सुपरकूल सामग्री
सुपरकूल सामग्री दरअसल बिजली का उपयोग किए बिना सतहों को ठंडा रखती है। वैसे तो अधिकांश सामग्री सूर्य की रोशनी (sunlight reflection) को परावर्तित करती हैं और इंफ्रारेड विकिरण (infrared radiation) का उत्सर्जन करती हैं। लेकिन सूपरकूल सामग्री ये दोनों ही कार्य अत्यंत कुशलता से करती हैं।
आम तौर पर हर सतह इंफ्रारेड तरंगें उत्सर्जित करती है जिन्हें वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) और जलवाष्प वगैरह सोख लेते हैं और वातावरण गर्म हो जाता है। सुपरकूल पदार्थ भी ऐसा ही करते हैं लेकिन वे जो इंफ्रारेड तरंगें छोड़ते हैं उनकी तरंग लंबाई उस परास में होती है जिन्हें वायुमंडल में सोखा नहीं जाता और वे अंतरिक्ष (space) में चली जाती हैं। लिहाज़ा वातावरण ठंडा रहता है। यह तकनीक शहरों में हवा के तापमान (urban temperature) को कम करने में भी मदद कर सकती है, जिससे शहरी क्षेत्र अधिक आरामदायक और एयर कंडीशनिंग पर कम निर्भर हो सकते हैं।

गौरतलब है कि पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक प्लास्टिक, धातुओं से लेकर पेंट और यहां तक कि लकड़ी को सुपरकूल सामग्री (supercool material) के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में सैल्मन मछली के शुक्राणुओं के डीएनए और जिलेटिन से बना एक सुपरकूल एरोजेल (supercool aerogel) तैयार किया गया है जो हवा के तापमान की तुलना में सतहों को 16 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा रख सकता है। इस सामग्री को तैयार करने में बायोडिग्रेडेबल सामग्री (biodegradable material) का उपयोग किया गया है इसलिए यह पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) भी है।

इमारतों की ठंडी सतह  

सतहों को ठंडा रखने के लिए वैज्ञानिक सुपरकूल सामग्री से आगे बढ़कर कूल सामग्री (cool material) पर प्रयोग कर रहे हैं। ‘कूल सामग्री’ का उत्पादन आसान है और ये प्रभावी भी हैं। इन्हें भारी मात्रा में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित (reflect sunlight) करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। सुपरकूल सामग्रियों के विपरीत, कूल सामग्री को अत्यधिक परावर्तक (highly reflective) होना चाहिए, किसी विशिष्ट तरंग लंबाई का उत्सर्जन करने की चिंता नहीं की जाती है।

शोधकर्ता इमारतों की खड़ी सतहों (भवनों के अग्रभाग) (building facades) के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर रहे हैं। यह एक मुश्किल काम है क्योंकि खड़ी सतहें आकाश और ज़मीन दोनों की ओर उन्मुख होती हैं। इस वजह से ये गर्मियों में धरती से निकलने वाली गर्मी को सोख लेती हैं और ठंड में गर्मी को आकाश में बिखेर देती हैं। इसका समाधान भौतिक संरचना में मिला है। एक विशेष कोटिंग गर्मियों में आकाश की ओर गर्मी को बिखेरकर दीवारों को ठंडा कर सकती है, जबकि सर्दियों में यह धरती की ओर कम गर्मी बिखेरती है।

एक अन्य तरीका है इमारत की दीवारों के विशिष्ट हिस्सों पर सुपरकूल पेंट (supercool paint) का उपयोग करना है। इसमें खड़ी सतह को लहरदार बनाया जाता है। इस लहरदार (यानी कोरुगेटेड) सतह के आकाश की ओर उन्मुख हिस्सों पर परावर्तक पेंट (reflective paint) लगाया जाता है। जमीन की ओर उन्मुख सतहों पर ऐसी धातु का लेप किया जाता है जो गर्मी को कम सोखे। इस संयोजन से दीवार आसपास की हवा की तुलना में 2-3 डिग्री सेल्सियस ठंडी रही। 

इसके अलावा, धरती को ठंडा रखने के तरीकों पर भी विचार किया गया है। एक प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने एरिज़ोना में शॉपिंग सेंटर की पार्किंग में एक परावर्तक ‘ठंडा फुटपाथ’ (cool pavement) बनाया। यह हल्के रंग का फुटपाथ आसपास के गहरे रंग के फुटपाथ से 8 डिग्री सेल्सियस ठंडा था, और इसके ऊपर की हवा लगभग 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी थी। 

आकार बदलने वाली सामग्री 

ऑस्ट्रेलिया में, इंजीनियर प्रावस्था-बदल स्याही (‘फेज-चेंजिंग इंक’ / phase-changing ink) विकसित कर रहे हैं, जिसे तापमान के आधार पर इमारतों को ठंडा या गर्म रखने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस स्याही में नैनोकण (nanoparticles) होते हैं जो तापमान के साथ प्रावस्था बदलते हैं। ऊंचे तापमान पर इन कणों का संयोजन धातु की तरह व्यवहार करता है और गर्मी को परावर्तित (reflect heat) करता है। कम तापमान पर इनका संयोजन एक सुपरकंडक्टर की तरह व्यवहार करता है और गर्मी अपने अंदर आने देता है।

प्रयोगशाला से बाज़ार तक 

हालांकि ये प्रौद्योगिकियां (technologies) काफी आशाजनक हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश विकास के शुरुआती चरणों (early stages) में हैं। कुछ का परीक्षण केवल प्रयोगशालाओं या छोटे पैमाने पर किया गया है, इसलिए उनकी उपयोगिता को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। 

यह भी सवाल है कि ये प्रौद्योगिकियां अलग-अलग जलवायु (different climates) में कितनी अच्छी तरह काम करेंगी। उदाहरण के लिए, सुपरकूल सामग्री आर्द्र या बादल वाले वातावरण (humid environments) में कम प्रभावी हो सकती है, जहां वातावरण अधिक गर्मी को कैद करता है। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता आशावादी हैं। भले ही ये सामग्री हवा को अपेक्षा के अनुसार ठंडा न कर सकें, लेकिन वे इसे गर्म करने में भी योगदान नहीं देंगी। 

इसमें एक बड़ी चुनौती लोगों को इन नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। हल्की, अधिक परावर्तक छतों का उपयोग करने जैसे सरल परिवर्तन स्पष्ट लाभ प्रदान करने के बावजूद अभी तक व्यापक नहीं हुए हैं। फिर भी लॉस एंजेल्स सहित कई शहरों ने ठंडे फुटपाथ और अन्य शीतलन रणनीतियों (cooling strategies) को लागू करना शुरू कर दिया है। 

ऑस्ट्रेलिया में सिडनी की एक टीम ने दुनिया भर में 300 से अधिक परियोजनाओं में शीतलन सामग्री (cooling materials) का उपयोग किया है, जिसमें सऊदी अरब के रियाद में एक प्रमुख पहल भी शामिल है। 

इसका उद्देश्य शहर के तापमान को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना है। यह परियोजना अधिक आरामदायक शहरी वातावरण (urban environment) बनाने के लिए ठंडी और सुपरकूल सामग्रियों के संयोजन के साथ-साथ अधिक हरियाली का उपयोग करती है। ज़्यादा से ज़्यादा शहरों में इन नवाचारों के प्रयोग से हम यह समझ पाएंगे कि भीषण गर्मी से खुद को बचाने का सबसे बेहतर तरीका कौन-सा है। 

जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन (climate change) का प्रभाव बढ़ रहा है, चुनौतियों का सामना करने के लिए नवाचारों की आवश्यकता है। तैरते शहर, उभयचर घर और सुपरकूल सामग्री जैसे समाधान हमें जलवायु परिवर्तन के खतरों से सुरक्षित रख सकते हैं, लेकिन इन्हें सावधानीपूर्वक और टिकाऊ विकास (sustainable development) के सिद्धांतों के तहत लागू करना आवश्यक है। इन तकनीकों को लागू करने में सामाजिक न्याय और समानता (social justice and equity) पर भी ध्यान देना होगा, ताकि समाज के सभी वर्गों को इनका लाभ मिल सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वनों की बहाली केवल वृक्षारोपण से संभव नहीं

पेड़ों का अस्तित्व धरती पर लगभग 40 करोड़ वर्षों से है। तब से पेड़ कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर चुके हैं। चाहे वह उल्का की टक्कर हो या शीत युग, पेड़ धरती पर टिके रहे। लेकिन अब उन्हें खतरा इंसानों से है। कृषि (agriculture) के आगमन के बाद से, खेती और मवेशियों के लिए जगह बनाने के लिए बड़ी संख्या में जंगलों (forests) का सफाया किया गया है। पिछले 300 वर्षों में, लगभग 1.5 अरब हैक्टर जंगलों को नष्ट किया जा चुका है जो आज के कुल वन क्षेत्र का 37 प्रतिशत है। 

आम तौर पर यह माना जाता है कि जंगलों की क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण (tree plantation) करके की जा सकती है, और इसे सबसे सरल और सटीक समाधान के तौर पर देखा जाता है। पिछले कुछ दशकों में यह धारणा भी बनी है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) को कम करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, यह बात भी उतनी ही सच है कि बिना किसी ठोस योजना और जानकारी के सिर्फ पेड़ लगाना कई बार पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) को नुकसान पहुंचा सकता है। 

गौरतलब है कि कई वृक्षारोपण परियोजनाओं में सिर्फ एक प्रजाति के पेड़ लगाए जाते हैं, जिसे मोनोकल्चर (monoculture) कहा जाता है। यह पद्धति जैव विविधता (biodiversity) को कम करती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में सिर्फ एक प्रजाति के पौधे और उससे जुड़े वन्यजीव और सूक्ष्मजीव ही पनप पाते हैं। एक ही प्रजाति के पेड़ बीमारियों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे कोई बीमारी फैलने पर पूरे जंगल का सफाया हो सकता है। इसके अलावा, कई बार ऐसे पेड़ भी लगाए जाते हैं जो उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं होते, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है। 

वनों की बहाली में एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है। जैक रॉबिन्सन अपनी किताब ट्रीवाइल्डिंग (Treewilding) में बताते हैं कि जंगलों की बहाली के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना और वृद्धि करना भी ज़रूरी है। इसके लिए यह समझना भी आवश्यक है कि कौन-सी प्रजातियां किस क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं, और वे स्थानीय समुदायों (local communities) और वन्यजीवों से किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। हलांकि वनों की कटाई को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, लेकिन इसे कम करने और पौधारोपण को सही दिशा में ले जाने के लिए गहन शोध (research) और नियोजन ज़रूरी है। 

रॉबिन्सन यह भी कहते हैं कि वृक्षारोपण परियोजनाओं को स्थानीय ज्ञान (local knowledge) के आधार पर संचालित किया जाना चाहिए, जिससे न केवल पेड़ लगाए जाएं बल्कि उनकी देखभाल पर भी ध्यान दिया जाए। ऐसा करने से ही युवा पेड़ सही तरीके से बढ़ सकेंगे और दीर्घकालिक लाभ दे सकेंगे। इसमें एक विशेष बात यह है कि प्राकृतिक पुनर्जनन (natural regeneration) यानी किसी वन को अपने आप पुनः विकसित होने देना, जंगलों को बहाल करने का सबसे प्रभावी तरीका है। 

ग्रेट ग्रीन वॉल (Great Green Wall) जैसी कुछ वन बहाली परियोजनाएं काफी उपयोगी रही हैं। इस परियोजना में सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में 8000 किलोमीटर लंबी और 15 किलोमीटर चौड़ी पेड़ों की एक दीवार बनाने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य रेगिस्तान के फैलाव को रोकना, भूमि की गुणवत्ता सुधारना, और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करना है। इस परियोजना में अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं, लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है। 

इसी प्रकार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की गोंडवाना लिंक परियोजना (Gondwana Link project) 1000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पुराने जंगलों के बिखरे हुए टुकड़ों को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही है। इसका उद्देश्य उन प्रजातियों की रक्षा करना है जो जंगलों के इन छोटे-छोटे हिस्सों में फंसी हुई हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं। जब अलग-अलग क्षेत्रों की प्रजातियां एक-दूसरे के साथ संपर्क में आती हैं, तो उनकी जेनेटिक विविधता (genetic diversity) में सुधार होता है, जो उन्हें पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में मदद करता है। इस परियोजना के तहत 14,500 हैक्टर भूमि पर पेड़ लगाए जा चुके हैं, और इसे कार्बन क्रेडिट (carbon credit) या कर छूट के रूप में निवेशकों से वित्तीय सहायता प्राप्त हो रही है। 

रॉबिन्सन अपने काम में पारिस्थितिकी (ecology) को समझने के लिए एक नई तकनीक का भी उपयोग कर रहे हैं, जिसे इकोएकूस्टिक्स (ecoacoustics) कहा जाता है। यह विधि वन्यजीवों और पक्षियों की ध्वनियों का उपयोग करके जंगलों की संरचना और उसमें हो रहे परिवर्तनों को समझने का प्रयास करती है। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे जंगल पुनर्जीवित होते हैं, मिट्टी में छिपे हुए अकशेरुकी जीवों (invertebrates) की संख्या बढ़ती है, जिससे ‘जीवन की एक छिपी हुई ध्वनि’ उत्पन्न होती है। 

रॉबिन्सन की किताब ट्रीवाइल्डिंग पर्यावरण और वन पुनर्स्थापना (forest restoration) पर एक अद्भुत अध्ययन है। यह पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है कि जंगलों के संरक्षण (conservation) के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है जो पारिस्थितिकी, स्थानीय समुदायों, और विज्ञान के गहरे परस्पर सम्बंधों को समझ सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दक्षिण भारत में भी है फूलों की घाटी

डॉ. ओ. पी. जोशी

उत्तराखंड राज्य के चमौली ज़िले में गोविंदघाट के पास स्थित फूलों की घाटी विश्व प्रसिद्ध है। इसे अब नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार एक दूसरी सुंदर फूलों की घाटी सह्याद्री पर्वत माला के 900 से 1200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पठार के एक भाग में है। लाल लेटेराइट मिट्टी से बना यह पठार 1792 हैक्टर में फैला है एवं कास नामक गांव की बस्ती होने से इसे कास पठार (Kaas Plateau) कहा जाता है। कास पठार महाराष्ट्र के सतारा ज़िले से 23 किलोमीटर की दूरी पर एवं समुद्रतल से 1200 से 1240 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जुलाई 2012 में इसे यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों (UNESCO World Heritage Site) में शामिल किया गया था।

इस पठार पर 570 हैक्टर का क्षेत्र फूलों की अधिकता वाला है जिसे वन विभाग ने चार भागों में बांट रखा है। प्रत्येक भाग में लगभग एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पर्यटक नज़दीक जाकर फूलों को देख सकते हैं। पठार पर मिट्टी की सतह पतली होने से ज़्यादातर पौधे शाकीय प्रकृति के छोटे होते हैं। प्रत्येक भाग के चारों तरफ तारों की बागड़ है तथा वन विभाग के कर्मचारी सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं। मानसून (Monsoon Season) आने के साथ ही जुलाई में फूल खिलना प्रारम्भ हो जाते हैं। जुलाई से लेकर मध्य अक्टूबर तक बारिश एवं धूप जैसे मौसमी हालात के अनुसार फूल खिलने का क्रम आगे बढ़ता रहता है। सामान्यतः 15 से 20 दिनों में फूलों का रंग बदल जाता है एवं जिस रंग के फूल खिलते हैं उससे ऐसा लगता है मानो पठार पर प्रकृति ने रंगीन चादर फैलाई हो। सितंबर 10 से 25 तक का समय कास पठार की सुंदरता निहारने हेतु श्रेष्ठ बताया गया है (Best time to visit Kaas Plateau)।

एक अध्ययन अनुसार यहां पुष्पीय पौधों की 850 प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से 450 में जुलाई से सितंबर/अक्टूबर तक अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न रंगों के फूल खिलते हैं। गुलाबी, नीला-बैंगनी तथा पीला रंग क्रमशः बालसम (Balsam Flowers), कर्वी या कुरिंजी तथा स्मीथिया प्रजातियों के पौधों में फूल खिलने से पठार उन्हीं रंगों का नज़र आता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN – International Union for Conservation of Nature) ने यहां 624 प्रजातियों की सूची बनाई है जिनमें 39 स्थानिक (Endemic Species) हैं अर्थात यहीं पाई जाती हैं। संघ ने 32 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा बताया है जिनमें जलीय पौधा रोटेला तथा शाकीय सरपोज़िया मुख्य है। कोल्हापुर स्थित शिवाजी विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग के एक दल ने प्रो. एस. आर. यादव के नेतृत्व में 1792 हैक्टर में फैले पूरे कास पठार का लंबे समय तक सभी मौसम में अध्ययन कर बताया था कि वनस्पतियों (पुष्पीय व अन्य पौधे) की 4000 प्रजातियां यहां है। इसमें से 1700 ऐसी हैं जो यहां के अलावा दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती हैं। जून के महीने में खिलने वाला गुलाबी फूल का पौधा एपोनोजेटान सतारेंसिस (Aponogeton satarensis) मात्र यहीं पाया जाता है। कुरिंजी (Kurinji Flowers) की दो किस्में यहां ऐसी हैं जिनमें 7 वर्ष में एक बार फूल खिलते हैं। कीटभक्षी पौधे ड्रॉसेरा (Drosera) तथा यूट्रीकुलेरीया (Utricularia) भी यहां पाए जाते हैं।

कास पठार पर बसी इस फूलों की घाटी की प्रसिद्धि बढ़ने से मौसमी पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसे नियंत्रित करने हेतु प्रतिदिन 3000 दर्शकों को निर्धारित शुल्क लेकर प्रवेश की अनुमति दी जाती है (Tourist Regulations)। इको टायलेट्स बनाए गए हैं तथा प्लास्टिक उपयोग पर भी रोक है। पौधों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को नियंत्रित करने हेतु पेट्रोल-डीज़ल वाहनों के स्थान पर इलेक्ट्रिक वाहन (Electric Vehicles) बढ़ाए जा रहे हैं। आसपास के गांवों हेतु अलग से मार्ग बनाए जा रहे हैं तथा ग्रामीणों को गैस के सिलेंडर एवं धुआं रहित चूल्हे भी दिए गए हैं। यह विश्व धरोहर सस्ते पर्यटन स्थल में न बदले इस हेतु फार्म हाउस, होटल, बाज़ार, ऊर्जा निर्माण घर एवं पशुओं द्वारा चराई आदि को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने के प्रयास भी जारी है। भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है जहां जैव विविधता (Biodiversity Hotspot) भरपूर है एवं इसमें उत्तर तथा दक्षिण दोनों स्थानों की फूलों की घाटियों का बड़ा योगदान है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://en.wikipedia.org/wiki/Kas_Plateau_Reserved_Forest#/media/File:Kaas-7016.jpg