आवाज़ सुनकर चेहरे की डिजिटल तस्वीर

मात्र आवाज़ सुनकर (जैसे फोन पर) किसी व्यक्ति की शक्ल सूरत की छवि बनाने की कोशिश हम सभी करते हैं, और अक्सर वह छवि वास्तविकता से मेल नहीं खाती। अब यही काम कंप्यूटर यानी कृत्रिम बुद्धि (एआई) से करवाने की कोशिश की गई है।

स्पीच-2-फेस, एक ऐसा कंप्यूटर है जो मानव मस्तिष्क के समान सोचता है। वैज्ञानिकों ने इस कंप्यूटर को इंटरनेट पर उपलब्ध लाखों वीडियो क्लिप्स दिखाकर प्रशिक्षित किया है।

इस डैटा की मदद से स्पीच-2-फेस ने ध्वनि संकेतों (यानी बोली गई बातों से मिल रहे संकेतों) और चेहरे के कुछ गुणधर्मों के बीच सम्बंध बनाना सीखा। इसके बाद कंप्यूटर ने ऑडियो क्लिप को सुनकर यह अनुमान लगाने की कोशिश की कि उस आवाज़ के पीछे शक्ल कैसी होगी और एक चेहरे का मॉडल तैयार किया।

शुक्र है कि अभी तक कृत्रिम बुद्धि यह तो पता नहीं लगा पाई है कि किसी व्यक्ति की आवाज़ के हिसाब से वो ठीक-ठीक कैसा दिखता होगा। आर्काइव्स नामक शोध पत्रिका में बताया गया है कि उक्त कंप्यूटर ने कुछ लक्षणों को चिंहित किया है जो व्यक्ति के लिंग, उम्र और धर्म व भाषा सम्बंधी सुराग देते हैं। अध्ययन के अनुसार स्पीच-2-फेस द्वारा निर्मित चेहरे तटस्थ भाव वाले थे और सम्बंधित व्यक्ति के चेहरे से मेल नहीं खाते थे। अलबत्ता, इन चित्रों से किसी व्यक्ति की लगभग आयु, जातीयता और लिंग की पहचान की जा सकती है।

वैसे, स्पीच-2-फेस बोलने वाले की भाषा को उसका चित्रण करने का प्रमुख आधार बनाता है। उदाहरण के लिए जब कंप्यूटर ने चीनी भाषा बोलते एशियाई व्यक्ति का ऑडियो सुना तो उसने एक एशियाई दिखने वाले आदमी का चित्र बनाया। लेकिन जब उसी आदमी ने एक अलग ऑडियो क्लिप में अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग किया तो कंप्यूटर ने एक गोरे आदमी का चित्र पेश कर दिया।

इस मॉडल में लिंग पूर्वाग्रह भी देखने को मिला। कंप्यूटर ने मोटी आवाज़ों (कम तारत्व) को पुरुष चेहरे के साथ जोड़ा और पतली आवाज़ों (उच्च तारत्व) को महिला के चेहरे के साथ। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह कृत्रिम बुद्धि प्रोग्राम आवाज़ों और उनसे सम्बद्ध चेहरों का एक औसत चित्रण ही कर पाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घातक हो सकती है कृत्रिम बुद्धि – तनिष्का वैद्य

बीते कुछ सालों में तकनीकी जगत में एक शब्द बड़ा आम हो गया है – ‘आर्टिफिशियल इंटेललिजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धि। हाल ही में चीन की सिन्हुआ समाचार एजेंसी पूरी दुनिया के लिए तब समाचार बन गई जब उसने अपने यहां समाचार पढ़ने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंट न्यूज़ एंकर (समाचार वाचक) का उपयोग किया। यह वाचक अंग्रेज़ी में खबरें पढ़ता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ऐसे एंकर 24X7 बिना थके या बिना छुट्टी लिए अपना काम करने में सक्षम है। इसमें वाइस रिकॉग्नीशन (वाणी पहचान) और खबरों के अनुरूप चेहरे के हाव-भाव बदलने के लिए मशीन लर्निंग का उपयोग किया गया है।

उक्त न्यूज़ एंकर से खबरें पढ़वाने के साथ ही पूरी दुनिया में एक बार फिर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नफे-नुकसान पर चर्चा तेज़ हो गई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बुद्धि ऐसी बुद्धिमत्ता है जो मशीनें सीखने की एक खास प्रक्रिया के तहत सीखती हैं। वे मशीनें धीरे-धीरे इस बुद्धिमत्ता को अपने में अंगीकार कर लेती हैं। इसके बाद मशीनें भी किसी मनुष्य की तरह अपेक्षित काम पूरी गंभीरता और बारीकी के साथ करने लगती हैं। चूंकि ये मशीनें कृत्रिम रूप से इसे ग्रहण करती हैं इसीलिए इन्हें कृत्रिम बुद्धिमान कहा जाता है। अलबत्ता, यह बहुत हद तक प्राकृतिक बुद्धि की तरह ही होती है।

सबसे पहले कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अवधारणा जॉन मैक्कार्थी ने 1956 में दी थी। उन्होंने इसके लिए एक नई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज भी बनाई थी जिसे उन्होंने लिस्प (लिस्ट प्रोसेसिंग) नाम दिया था। यह लैंग्वेज कृत्रिम बुद्धिमत्ता सम्बंधी अनुसंधान के लिए बनाई गई थी।

अब ऐसी मशीनों के साकार होने से यह बहस फिर से शुरू हो गई है कि इनका उपयोग किस हद तक किया जाना ठीक है और इसके क्या खतरे या चुनौतियां हो सकती हैं। आखिरकार ये हैं तो मशीनें ही, इनमें एक मनुष्य की तरह की भावनाएं कैसे आएंगी। ये हमारा काम ज़रूर आसान बना सकती हैं पर मानवीय भावनाएं नहीं होने के कारण ये किसी भी काम को करने से पहले गलत-सही का फैसला करने में असमर्थ रहेंगी और गलत कदम भी उठा सकती हैं।

इनमें तो भावनाओं की कोई जगह ही नहीं है। आजकल हम वैसे ही दुनिया और समाज से बेखबर अपने पड़ोस तो दूर, घर के लोगों से भी कटे-कटे से रहते हैं। ऐसे में मशीनी मानव हमें समाज से काटकर और भी अकेला बना देंगे। इससे नई पीढ़ी में मनुष्यता के गुणों का और भी ह्यास होगा। आजकल बहुसंख्य लोगों के पास मोबाइल है और कई लोग दिन-भर उस मोबाइल में लगे रहते हैं। बार-बार देखते हैं कि कहीं कोई ज़रूरी मेसेज तो नहीं आया। मोबाइल के माध्यम से हम दुनिया भर से जुड़े हैं परंतु अपने आस-पास क्या हो रहा है इसकी हमें खबर नहीं होती। कई लोग तो मोबाइल में इतने डूब जाते हैं कि पास वाले व्यक्ति की तकलीफ दिखाई तक नहीं देती। इस आभासी या वर्चुअल दुनिया में कहीं-ना-कहीं हम असल दुनिया को भूलते जा रहे हैं और इसके कारण हमारे अंदर की मनुष्यता खत्म होती जा रही है।

महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने भी कहा था कि अगर आर्टिफिशियल इंटेललिजेंट मशीनों को बनाया गया तो ये मानव सभ्यता को खत्म कर देंगी। जब एक बार मनुष्य आर्टिफिशयल इंटेलीजेंट यंत्र बना लेगा तो यह यंत्र खुद ही अपनी प्रतिलिपियां बना सकेंगे और ऐसा भी हो सकता है कि भविष्य में मनुष्य कम रह जाएं और मशीनी मानव उनके ऊपर राज करें। उनकी यह आशंका कहां तक सच होगी, यह तो फिलहाल नहीं कह सकते लेकिन मशीनी मानव हमारे मानवीय गुणों और संवेदनाओं के लिए यकीनन नुकसानदायक हैं।

पहले से ही खत्म होते रोज़गार के इस दौर में यह बेरोज़गारी बढ़ाने वाला एक और कदम साबित होगा। ऐसे यंत्रों के बनने से कई लोगों की नौकरियां भी चली जाएंगी क्योंकि इनकी उपयोगिता बढ़ने के साथ हर जगह ऐसी मशीनें लोगों की जगह लेती जाएंगी। जैसे-जैसे मशीनीकरण बढ़ेगा वैसे-वैसे काम करने के लिए लोगों की ज़रूरत कम होती जाएगी। बढ़ता मशीनीकरण बेरोज़गारी तो बढ़ाएगा ही साथ ही अपराध भी बढ़ाएगा। जब लोगों के पास करने को कोई ढंग का काम नहीं होगा तो वे रोज़ी-रोटी कमाने के लिए ज़ुर्म करेंगे। इससे पूरी दुनिया में अराजकता फैल सकती है।

अंतरिक्ष यान बनाने वाली दुनिया की मशहूर कंपनी स्पेस एक्स और टेस्ला के सीईओ इलोन मस्क भी मानते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध का मुख्य कारण आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस होगा। इस तरह लगता है कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस जितना मददगार है, लंबे समय में उतना ही ज़्यादा प्रलयकारी भी। अगर इसे सही तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया तो यह पूरी दुनिया में तबाही मचा सकता है। ऐसे यंत्र भले ही अभी हमारी भलाई के लिए बनाए जा रहे हों पर दीर्घावधि में यही सबसे ज़्यादा हानिकारक होने वाले हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बायोमेट्रिक पहचान भी चुराई जा सकती है

कंप्यूटर और इंटरनेट के बढ़ते उपयोग से आजकल लोगों की गोपनीय जानकारी स्मार्टफोन, कंप्यूटर या किसी अन्य जगह पर डिजिटल रूप में स्टोर रहती है। जहां एक ओर लोग इन जानकारियों को महफूज़ रखने के प्रयास में होते हैं वहीं दूसरी ओर हैकर इन जानकारियों तक पहुंचने के प्रयास में होते हैं।

आजकल डैटा या उपकरणों की सुरक्षा के लिए बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली का उपयोग किया जा रहा है। भारत में तो बड़े पैमाने पर बायोमेट्रिक पहचान प्रणाली आधार से नागरिकों की ज़रूरी जानकारी (बैंक अकाउंट, आयकर सम्बंधी सूचना वगैरह) को जोड़ा जा रहा है। किन्हीं भी दो व्यक्तियों की बायोमेट्रिक पहचान – फिंगरप्रिंट, चेहरा और आंखों की पुतली की संरचना – एक जैसी नहीं होती और ऐसा माना जाता है कि किसी व्यक्ति का फिंगरप्रिंट, चेहरा या आइरिस कोई चुरा नहीं सकता इसलिए उपकरणों और डैटा की सुरक्षा के लिए व्यक्ति की बायोमेट्रिक पहचान उपयोग करने का चलन बढ़ा है।

लेकिन हाल के शोध में पता चला है कि बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली को भी हैक किया जा सकता है।

बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली कितनी सुरक्षित है यह जांचने के लिए न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक एल्गोरिद्म बनाई है। यह एल्गोरिद्म ना सिर्फ जाली फिंगरप्रिंट बना लेती है बल्कि यह एक मास्टर एल्गोरिद्म है यानि एक ऐसा फिंगरप्रिंट तैयार करती है जो किसी भी फिंगरप्रिंट के लिए काम करता है। बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी भी ताले को खोलने के लिए एक मास्टर चाबी होती है। इस एल्गोरिद्म को डीपमास्टरप्रिंट नाम दिया है।

पहले चरण में विभिन्न फिंगरप्रिंट का विश्लेषण करके एल्गोरिद्म को फिंगरप्रिंट की विशेषता, उसकी बनावट के बारे में सीखना था। अगले चरण में एल्गोरिद्म ने कुछ मास्टर फिंगरप्रिंट के नमूने बनाए। फिर अलग-अलग सुरक्षा स्तर (निम्न, मध्यम और उच्च सुरक्षा स्तर) के फिंगरप्रिंट स्कैनर में इन मास्टर फिंगरप्रिंट की जांच की गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि मध्यम सुरक्षा स्तर पर स्कैनर हर 5 में से एक बार यानि 20 प्रतिशत मामलों में बेवकूफ बन गया था।

मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी के एरन रोश का कहना है स्मार्ट फोन जैसे उपकरणों का सुरक्षा स्तर निम्न होता है। इन उपकरणों में फिंगरप्रिंट स्कैनर का सेंसर बहुत छोटा होता है। इसलिए सेंसर द्वारा पूरा फिंगरप्रिंट एक साथ मैच करने की बजाए फिंगरप्रिंट के छोटे-छोटे हिस्सों को मैच किया जाता है। यदि ये टुकड़े मैच हो जाते हैं तो उपकरण खुल जाता है। इसिलिए ये उपकरण विशेष रूप से असुरक्षित हैं।

स्विटज़रलैंड स्थित आइडिएप रिसर्च इंस्टीट्यूट के सेबेस्टियन मार्शेल की टीम भी बायोमेट्रिक सुरक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए काम कर रही है। सेबेस्टियन मार्शेल का कहना है कि सोशल मीडिया, इंटरनेट पर लोगों द्वारा अपनी निजी तस्वीरें साझा किए जाने के कारण हैकर द्वारा बायोमेट्रिक पहचान तक पहुंचना आसान हो गया है। लेकिन लोगों की बायोमैट्रिक पहचान के साथ अन्य फैक्टर जैसे उनका रक्त प्रवाह, शरीर का तापमान या कुछ अंक वगैरह, जोड़कर डैटा को और अधिक सुरक्षित किया जा सकता है। पर ज़ाहिर है कि बायोमेट्रिक सुरक्षा अनुलंघनीय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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कृत्रिम बुद्धि के लिए पुरस्कार

र्ष 2018 का ट्यूरिंग पुरस्कार तीन शोधकर्ताओं को संयुक्त रूप से दिया गया है। ये वे शोधकर्ता हैं जिन्होंने कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वर्तमान प्रगति की बुनियाद तैयार की थी। गौरतलब है कि ट्यूरिंग पुरस्कार को कंप्यूटिंग का नोबेल पुरस्कार माना जाता है। एआई के पितामह कहे जाने वाले योशुआ बेन्जिओ, जेफ्री हिंटन और यान लेकुन को यह पुरस्कार एआई के एक उपक्षेत्र डीप लर्निंग के विकास के लिए दिया गया है। इन तीनों द्वारा बीसवीं सदी के अंतिम और इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में ऐसी तकनीकें विकसित की गई हैं जिनकी मदद से कंप्यूटर दृष्टि और वाणी पहचान जैसी उपलब्धियां संभव हुई हैं। इन्हीं के द्वारा विकसित तकनीकें ड्राइवर-रहित कारों और स्व-चालित चिकित्सकीय निदान के मूल में भी हैं।

हिंटन अपना समय गूगल और टोरोंटो विश्वविद्यालय को देते हैं, बेन्जिओ मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं और लेकुन फेसबुक के एआई वैज्ञानिक हैं तथा न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं। इन तीनों ने उस समय काम किया जब एआई के क्षेत्र में ठहराव आया हुआ था। तीनों ने खास तौर से ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम्स पर ध्यान केंद्रित किया जिन्हें न्यूरल नेटवर्क कहते हैं। ये ऐसे कंप्यूटर प्रोग्राम होते हैं जो डिजिटल न्यूरॉन्स को जोड़कर बनते हैं। वर्तमान एआई की बुनियाद के ये प्रमुख अंश हैं। इन तीनों शोधकर्ताओं ने दर्शाया था कि न्यूरल नेटवर्क अक्षर पहचान जैसे कार्य कर सकते हैं।

तीनों शोधकर्ताओं का ख्याल है कि एआई का भविष्य काफी आशाओं से भरा है। उनका कहना है कि शायद मनुष्य के स्तर की बुद्धि तो विकसित नहीं हो पाएगी लेकिन कृत्रिम बुद्धि मनुष्य के कई काम संभालने लगेगी। (स्रोत फीचर्स)

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चांद पर भेजा टाइम कैप्सूल

पिछले हफ्ते मानव इतिहास और सभ्यता की जानकारी से लैस अंतरिक्ष यान चांद की ओर रवाना हो गया। मानव इतिहास और सभ्यता को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने की ओर यह एक और कदम है। 3 करोड़ पृष्ठों की इस जानकारी को एक नैनोटेक डिवाइस में सहेजा गया है। उम्मीद है कि यह यान अप्रैल तक चांद पर उतर जाएगा।

आर्क मिशन फाउंडेशन के प्रोजेक्ट का उद्देश्य है कि इतने वर्षों में इंसानों ने जो भी जानकारी जुटाई है उसे आने वाले कई अरब वर्षों तक महफूज़ रखा जाए। चूंकि कागज़ी किताबों, चित्र जैसे रिकॉर्ड का समय के साथ नष्ट हो जाने का खतरा होता है इसलिए पृथ्वी और अंतरिक्ष में कई स्थानों पर डैटा सुरक्षित रखने के प्रयास किए जा रहे हैं। ल्यूनर लायब्रेरी इसी प्रयास में एक और कदम है। ल्यूनर लायब्रेरी नामक यह नैनोटेक डिवाइस 25 डिस्क से मिलकर बनी है। हर डिस्क की मोटाई 40 माइक्रॉन (1 से.मी. का 10 हज़ारवां अंश) है। इन डिस्क को बनाने में निकल धातु का उपयोग किया गया है।

मानव सभ्यता का लेखागार बने इस डिवाइस में किताबों के चित्र, फोटो, चित्रण, दस्तावेज़, विकीपीडिया (अंग्रेज़ी में), किताबें, वैज्ञानिक हैंडबुक, विविध भाषाओं के बारे में जानकारी और उनके अनुवाद सहेजे गए हैं। इसके अलावा इसमें इरुााइल के इतिहास और संस्कृति से जुड़े गीत, संदेश और बच्चों द्वारा बनाए गए चित्र भी हैं।

इस डिवाइस में आसानी से लेंस की मदद से पढ़े जा सकने वाले बड़े-बड़े अक्षर भी हैं और ऐसे भी अक्षऱ और फोटो हैं जिन्हें सूक्ष्मदर्शी की मदद से ही पढ़ा जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चीन अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने की तैयारी में

र्जा के जीवाश्म स्रोतों की समस्याओं से तो सभी परिचित हैं और यह भी भलीभांति पता है कि ये स्रोत जल्दी ही चुक जाएंगे। अत: दुनिया भर में सौर, पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा रुाोतों पर ध्यान केंद्रित हुआ है। सौर ऊर्जा के उपयोग की एक टेक्नॉलॉजी सौर फोटो वोल्टेइक सेल (पीवीसी) है। पीवीसी सौर ऊर्जा को सीधे बिजली में बदल देते हैं। अब चीन अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने की तैयारी कर रहा है।

अंतरिक्ष में ऐसे संयंत्र लगाने के कई लाभ हैं। जैसे ये संयंत्र सौर ऊर्जा को पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश से पहले ही ग्रहण कर लेते हैं जिसके चलते वातावरण में बिखरने से पहले ही उसका उपयोग हो सकता है। दूसरा प्रमुख फायदा यह है कि अंतरिक्ष में स्थापित संयंत्रों पर मौसम (बादल) का कोई असर नहीं पड़ेगा। अर्थात ये साल भर बिना रुकावट काम कर सकेंगे।

वैसे तो यह विचार पर दशकों से सामने है और जापान व अमेरिका कोशिश करते रहे हैं कि इसका प्रोटोटाइप बना लें। लेकिन ऐसा संयंत्र काफी वज़नी होगा – वज़न लगभग 1000 टन तक हो सकता है। इतने वज़न को अंतरिक्ष में स्थापित करना इस विचार के क्रियांवयन के मार्ग में प्रमुख बाधा रही है।

चीन ने इसके एक समाधान की दिशा में काम करना शुरू कर दिया है। वह कोशिश कर रहा है कि अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा संयंत्र का 3-डी प्रिंटिंग कर लिया जाए। इस नई तकनीक का उपयोग करने पर एक साथ इतना वज़न ले जाने की ज़रूरत नहीं रहेगी।

चीन के सरकारी मीडिया ने रिपोर्ट किया है कि इस संयंत्र में फोटो वोल्टेइक सेल की मदद से सौर ऊर्जा को ग्रहण किया जाएगा और उसे माइक्रोवेव में बदल दिया जाएगा। फिर संयंत्र के एंटीना की मदद से ये माइक्रोवेव पृथ्वी पर स्थिति स्टेशन पर भेजी जाएंगी जहां इन्हें वापिस विद्युत में तबदील करके बिजली-चालित कारों को चलाने में उपयोग किया जाएगा।

अंतरिक्ष सौर ऊर्जा संयंत्र के विचार का परीक्षण करने के लिए मध्य चीन के चोंगक्विंग में एक प्रोजेक्ट का निर्माण भी शुरू हो चुका है। चीन को उम्मीद है कि 2021 से 2025 के बीच वह कई सारे छोटे या मध्यम आकार के संयंत्र पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर दूर की कक्षा में स्थापित करने में सफल होगा। (स्रोत फीचर्स)

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नाभिकीय संलयन क्रिया बच्चों का खेल है

12 वर्ष की उम्र में जैकसन ओस्वाल्ट ने अपने घर के एक कमरे में नाभिकीय अभिक्रिया सम्पन्न की। वह सबसे कम उम्र में नाभिकीय अभिक्रिया करने वाला बच्चा बन गया है। ओसवाल्ट ने एक ऐसी मशीन तैयार की है जिसमें प्लाज़्मा बनता है जिसके अंदर नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया होती है।

जनवरी 2018 में दी गार्जियन में ओस्वाल्ट के काम के बारे में बताया गया था। और इस फरवरी को दी ओपन सोर्स फ्यूज़र रिसर्च कंसोर्टियम (शौकिया तौर पर नाभिकीय अभिक्रिया करने वालों का समूह) ने ओसवाल्ट की इस उपलब्धि को मान्यता दी है।

कुछ लोग सिर्फ मज़े के लिए नाभिकीय अभिक्रिया को अंजाम देते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग नाभिकीय विखंडन की जगह संलयन अभिक्रिया करते हैं। नाभिकीय विखंडन में युरेनियम जैसे भारी नाभिक की ज़रूरत होती है जो दो नाभिकों में टूटता है और ऊर्जा मुक्त होती है। दूसरी ओर, संलयन में ड्यूटेरियम जैसे हाइड्रोजन समस्थानिक की ज़रूरत होती है जो आसानी से आपस में जुड़ सकें। जब दो हल्के नाभिक आपस में जुड़ते है तो एक भारी नाभिक बनता है, जिसका द्रव्यमान दोनो नाभिकों के कुल द्रव्यमान से कम होता है। द्रव्यमान में हुई कमी ऊर्जा के रूप में मुक्त होती है।

ओस्वाल्ट या अन्य शौकिया लोगों के रिएक्टर में चुम्बक की मदद से हाइड्रोजन के समस्थानिकों को निर्वात में बंद किया जाता है। फिर इसमें उच्च विद्युत धारा (लगभग 50,000 वोल्ट) तब तक दी जाती है जब तक नाभिक अत्यधिक गर्म होकर आपस में जुड़ने लगते हैं और हीलियम का नाभिक बनाते हैं। इसके परिणाम स्वरूप न्यूट्रॉन मुक्त होते है। इस मशीन को बनाने में ओस्वाल्ट को लगभग 7 लाख रुपए का खर्च आया।

घर पर संलयन की अभिक्रया करने का मतलब यह नहीं है कि इससे प्राप्त ऊर्जा अन्य काम में उपयोग की जा सकती है। इन रिएक्टर में संलयन की प्रक्रिया में जितनी ऊर्जा मुक्त होती है उससे ज़्यादा ऊर्जा रिएक्टर में संलयन की प्रक्रिया करवाने में खर्च हो जाती है। वैसे इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा बनाने में अभी तक किसी ने, यहां तक कि ऊर्जा विभाग ने, भी सफलता हासिल नहीं की है। और जिस पैमाने पर यह क्रिया होती है, वह किसी खतरे को भी जन्म नहीं देती।  (स्रोत फीचर्स)

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ई-कचरे के विरुद्ध शुरू हुआ सार्थक अभियान – प्रमोद भार्गव

दुनिया भर में उपयोग करो और फेंको संस्कृति, जो कई टन कचरे को जन्म देती है, के विरुद्ध शंखनाद हो गया है। दरअसल पूरी दुनिया में इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा) बड़ी एवं घातक समस्या बन गया है। इससे निजात पाने के लिए युरोपीय संघ और अमेरिका के पर्यावरण संगठनों ने इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाने वाली कंपनियों की मनमानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। वे राइट-टु-रिपेयर यानी मरम्मत का अधिकार की मांग कर रहे हैं। इस अभियान के भारत समेत पूरी दुनिया में फैलने की उम्मीद है। भारत को तो विकसित देशों ने ई-कचरा का डंपिंग ग्राउंड माना हुआ है। इस कचरे को नष्ट करने के जैविक उपाय भी तलाशे जा रहे हैं, लेकिन इसमें अभी बड़ी सफलता नहीं मिली है।

अमेरिका एवं युरोप के कई देशों के पर्यावरण मंत्री कंपनियों को यह सुझा चुके हैं कि वे ऐसे इलेक्ट्रॉनिक उपकरण बनाएं, जो लंबे समय तक चलें और खराब होने पर उनकी मरम्मत की जा सके। भारत में भी कई गैर-सरकारी संगठनों ने आवाज़ बुलंद की है।

दुनिया के विकसित देश अपना ज़्यादातर कचरा भारतीय समुद्र में खराब हो चुके जहाज़ों में लादकर बंदरगाहों के निकट छोड़ जाते हैं। इससे भारतीय तटवर्ती समुद्रों में कचरे का अंबार लग गया है। इस ई-कचरे में कंप्यूटर, टीवी स्क्रीन, स्मार्टफोन, टैबलेट, फ्रिज, वॉशिंग मशीन, इंडक्शन कुकर, एसी और बैटरियां होते हैं। इस अभियान के बाद अमेरिका में 18 राज्य राइट-टु-रिपेयर कानून बनाने पर विचार कर रहे हैं।

एक शोध के मुताबिक 2004 में घरेलू कामकाज की 3.5 फीसदी इलेक्ट्रॉनिक मशीनें पांच साल बाद खराब हो रही थीं। 2012 में इनका अनुपात बढ़कर 8.3 प्रतिशत हो गया। रिसाइÏक्लग केंद्रों पर दस फीसदी से ज़्यादा ऐसे उपकरण आए, जो पांच साल से पहले ही खराब हो गए थे। कंप्यूटर, लेपटॉप, टैबलेट और मोबाइल के निरंतर नए-नए मॉडल आने और उनमें नई सुविधाएं उपलब्ध होने से भी ये उपकरण अच्छी हालत में होने के बावजूद उपयोग के लायक नहीं रह जाते। लिहाज़ा ई-कचरे की मात्रा लगातार बढ़ रही है। एक अनुमान के मुताबिक 2018 में दुनिया भर में पांच करोड़ टन ई-कचरा इकट्ठा हुआ। इस कचरे को एक जगह जमा किया जाए तो माउंट एवरेस्ट से भी ऊंचा पर्वत बन जाएगा अथवा 4500 एफिल टावर बन जाएंगे। ई-कचरा पैदा करने में भारत दुनिया का पांचवां बड़ा देश है। भारतीय शहरों में पैदा होने वाले ई-कचरे में सबसे ज़्यादा कंप्यूटर और उसके सहायक यंत्र होते हैं। ऐसे कचरे में 40 प्रतिशत सीसा और 70 प्रतिशत भारी धातुएं होती हैं। कई लोग इन्हें निकालकर आजीविका भी चला रहे हैं।       

आज ई-कचरा, जिसमें बड़ी मात्रा में प्लास्टिक के उपकरण भी शामिल हैं, नष्ट करना भारत व अन्य देशों के लिए मुश्किल हो रहा है। इसे जैविक रूप से नष्ट करने के उपाय तलाशे जा रहे हैं। इस कचरे का एक सकारात्मक पहलू सोना व अन्य उपयोगी धातुओं की उपस्थिति है। हाल ही में ऐपल कंपनी ने बेकार हो चुके कचरे को पुनर्चक्रित करके ई-कचरे से 264 करोड़ का सोना निकाला  है। इसके अलावा करीब 580 करोड़ का इस्पात, एल्यूमिनियम, ग्लास और अन्य धातुई तत्व निकालने में कामयाबी हासिल की है। ऐपल के इस रचनात्मक खुलासे के बाद अच्छा होगा कि हमारी सरकारें युवाओं को ई-कचरे से सोना एवं अन्य धातुएं निकालने का प्रशिक्षण दें और स्टार्टअप के तहत इस तरह के संयंत्र लगाने को प्रोत्साहित करें। इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उत्पादन और उनके नष्ट होने की प्रक्रिया निरंतर चलने वाली है, इसलिए यदि ये संयंत्र देश के कोने-कोने में लग जाते हैं तो इनके संचालन में कठिनाई आने वाली नहीं है। बेकार हो चुके उपकरणों के रूप में कच्चा माल स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएगा और पुनर्चक्रण के बाद जो सोना-चांदी, इस्पात, जस्ता, तांबा, पीतल, एल्यूमीनियम आदि धातुएं निकलेंगी उनके खरीददार भी स्थानीय स्तर पर ही मिल जाएंगे। वैसे भी ये धातुएं और इनसे बनी वस्तुएं रोज़मर्रा के जीवन में इतनी जरूरी हो गई हैं कि इनकी आवश्यकता बनी ही रहती है। इन संयंत्रों के लगने से धरती व जल प्रदूषित होने से बचेंगे। यदि कचरा बिना कोई उपचार किए धरती में गड्ढे खोदकर दफना दिया जाता है तो इससे खतरनाक गैसें निकलती हैं जो धरती और मानव स्वास्थ्य के लिए तो हानिकारक हैं ही, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिए भी हानिकारक है।

इलेक्ट्रॉनिक उपकरण विशेषज्ञों का मानना है कि औसतन एक स्मार्टफोन में 30 मिलीग्राम सोना होता है। साफ है, समस्या बने ई-कचरा पुनर्चक्रण में बड़े पैमाने पर युवाओं को रोज़गार मिलेगा और देश बड़े स्तर पर इस कचरे को नष्ट करने के झंझट से भी मुक्त होगा। इसलिए इस कचरे को रोज़गार उपलब्ध कराने वाले संसाधन के रूप में देखने की ज़रूरत है।

औसतन एक टन ई-कचरे के टुकड़े करके उसे यांत्रिक तरीके से पुनर्चक्रित किया जाए तो लगभग 40 किलो धूल या राख जैसा पदार्थ तैयार होता है। इसमें अनेक कीमती धातुएं रहती हैं। इन धातुओं के पृथक्करण की प्रक्रिया में हाथों से छंटाई, चुंबक से पृथक्करण, विद्युत-विच्छेदन, सेंट्रीफ्यूज और उलट परासरण जैसी तकनीकें शामिल हैं। लेकिन ये तरीके मानव शरीर और पर्यावरण को हानि पहुंचाने वाले हैं, इसलिए इस हेतु बायो-हाइड्रो मेटलर्जिकल तकनीक कहीं बेहतर है। इस तकनीक को अमल में लाते वक्त सबसे पहले बैक्टीरियल लीचिंग प्रोसेस का प्रयोग करते हैं। इसके लिए ई-कचरे को बारीक पीसकर उसे जीवाणुओं के साथ रखा जाता है। बैक्टीरिया में मौजूद एंज़ाइम कचरे में उपस्थित धातुओं को घुलनशील यौगिकों में बदल देते हैं। बायो-लीचिंग की विधि में जीवाणु कुछ विशेष धातुओं को अलग करने में मदद करते हैं। हालांकि ऐपल द्वारा ई-कचरे से सोना निकालने की जानकारी आने के पहले से ही कई प्रकार के जीवाणुओं और फफूंद का उपयोग प्रिटेंड सर्किट बोर्ड से सीसा, तांबा और टिन को अलग करने के लिए किया जाता रहा है।

यदि ई-कचरे को छीलन में बदलकर 5-10 ग्राम प्रति लीटर की सांद्रता में घोलकर कुछ खास बैक्टीरिया के साथ रखा जाए तो कुछ तांबा, जस्ता, निकल और एल्यूमीनियम 90 प्रतिशत से अधिक निकाले जा सकते हैं। इसी प्रकार से कुछ फफूंदों की मदद से 65 प्रतिशत तक तांबा और टिन अलग किए जा सकते हैं। इसके अलावा कचरे की छीलन की सांद्रता 100 ग्राम प्रति लीटर रखी जाए तो यही फफूंदें एल्यूमीनियम, निकल, सीसा और जस्ते में से भी 95 प्रतिशत धातु को अलग करने में सक्षम सिद्ध होती हैं। ये सभी उपयोगी धातुएं हैं।

पुनर्चक्रण के लिए भौतिक-रासायनिक और ऊष्मा आधारित तकनीकें भी उपलब्ध हैं, किंतु जैविक तकनीक की तुलना में इनकी सफलता कम आंकी गई है। हालांकि भारत में ई-कचरे के पुनर्चक्रण के संयंत्र दिल्ली, मेरठ, बैंगलुरू, मुबंई, चैन्नई और फिरोज़ाबाद में लगे हुए हैं, लेकिन जिस पैमाने पर ई-कचरा पैदा होता है, उसे देखते हुए ये संयंत्र ऊंट के मुंह में ज़ीरे के समान हैं। इसलिए ई-कचरे के पुनर्चक्रण संयंत्र लगाने की जबावदेही ई-कचरा उत्पादन कंपनियों को भी सौंपने की ज़रूरत है। यदि पुनर्चक्रण के ये संयंत्र स्थान-स्थान पर स्थापित कर दिए जाते हैं तो कचरे का निपटारा तो होगा ही, कच्चे माल की कीमत कम होने से वस्तुओं के दाम भी कमोबेश सस्ते होंगे। साथ ही पृथ्वी, जल और वायु प्रदूषण मुक्त रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सामान्य तापमान पर अतिचालकता

तिचालकता एक ऐसा गुण है जिसे सामान्य परिस्थितियों यानी सामान्य तापमान और दबाव पर पाने की जद्दोजहद वर्षों से जारी है। कारण यह है कि अतिचालकता यानी सुपर कंडक्टिविटी की स्थिति में पदार्थ विद्युत के बहने में कोई रुकावट पैदा नहीं करता और विद्युत बगैर किसी नुकसान के बहती रह सकती है। इसका मतलब होगा कि बिजली के उपयोग की दक्षता में भारी वृद्धि होगी। मगर अब तक कतिपय पदार्थों में अतिचालकता अत्यंत कम तापमान (शून्य से 83 डिग्री कम तापमान) पर ही हासिल की जा सकी थी, जो व्यावहारिक दृष्टि से बहुत उपयोगी नहीं है।

अब वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-भौतिक शास्त्री रसेल हेमले ने दावा किया है कि उन्होंने अपेक्षाकृत सामान्य तापमान पर अति-चालकता का अवलोकन किया है। इस सम्बंध में उनका शोध पत्र फिजि़कल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित होने जा रहा है। हेमले की टीम ने घोषणा की है कि उन्होंने लेंथेनम नामक धातु का एक सुपरहाइड्राइड तैयार किया था जिसका अणु सूत्र LaH10 है। जब वे अत्यंत उच्च दबाव (लगभग 20 लाख वायुमंडलीय दाब के बराबर) पर इस पदार्थ के साथ प्रयोग कर रहे थे तो उन्होंने देखा कि 7 डिग्री सेल्सियस पर अचानक उसके विद्युत प्रतिरोध में कमी आई। इस तरह की अचानक गिरावट को पदार्थ में अतिचालकता उभरने के एक लक्षण के रूप में माना जाता है।

हालांकि लेंथेनम सुपरहाइड्राइड में अतिचालकता 7 डिग्री सेल्सियस पर हासिल हुई थी किंतु दबाव अकल्पनीय रूप से अधिक था। तो आज भी यह अतिचालकता व्यावहारिक रूप से कोई मायने नहीं रखती मगर शोधकर्ताओं का कहना है कि उन्होंने तापमान सम्बंधी मनोवैज्ञानिक बाधा पार कर ली है, जो एक बड़ी उपलब्धि है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सेल्फी एलर्ट ऐप देगा जानलेवा सेल्फी की चेतावनी

सेल्फी लेना अब संक्रामक बीमारी बनती जा रही है। सेल्फी के कारण काफी मौतें हो रही हैं। इससे बचाव के लिए अमेरिका व भारत के वैज्ञानिक एक सेल्फी एलर्ट ऐप तैयार कर रहे हैं, जो खतरनाक पोज़ देने वालों को चेतावनी देगा कि इससे मौत हो सकती है। पेनसिल्वेनिया, अमेरिका के पिट्सबर्ग में कारनेगी मेलन विश्वविद्यालय में शोध कर रहे हेमनाक लांबा यह ऐप बना रहे हैं। वहीं दिल्ली के इंद्रप्रस्थ सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान के प्रोफेसर पोन्नुरंगम कुमारगुरू भी कुछ इसी तरह के ऐप पर काम कर रहे हैं। सेल्फी के दौरान अब तक सबसे अधिक मौतें भारत में ही हुई हैं और यह आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है।

हेमनाक लांबा बताते हैं कि उनकी टीम ने इसके लिए एक एल्गोरिदम विकसित की है, जो आंकड़ों और तथ्यों के आधार पर लोगों को यह बता सकेगी कि कौन-सा स्थान खतरनाक है? इस ऐप के माध्यम से खतरनाक स्थानों पर सेल्फी के लिए पहुंचने वालों के मोबाइल फोन से घंटी बज जाएगी, जिससे यह पता चल जाएगा कि जहां वे पहुंचने वाले हैं वह स्थान खतरनाक है। टीम का दावा है कि देश, समय और परिस्थिति के आधार पर खतरनाक सेल्फी की पहचान और एलर्ट से सम्बंधित शोधों में 70 प्रतिशत से अधिक सफलता मिली है और शीघ्र ही वे इस ऐप को लॉन्च कर सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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