हाल ही में राष्ट्र संघ ने पहली अंतर्राष्ट्रीय सायबर अपराध (cyber crime) संधि को मंज़ूरी दे दी है। जैसा कि सर्वविदित है, आजकल काफी सारा कामकाज इंटरनेट (internet) के माध्यम से होता है और इसका दुरुपयोग करके कई अवैध कार्यों को अंजाम दिया जा रहा है। जहां एक ओर, इंटरनेट ने आर्थिक लेन-देन को सुगम बनाया है, वहीं इसने ऐसी गुंजाइश पैदा की है कि कुछ लोग अपने गलत इरादों को कार्यरूप दे सकें। इसी के चलते सायबर अपराधों की रोकथाम एक प्रमुख सरोकार के रूप में उभरा है और राष्ट्र संघ संधि इसी को संबोधित करने का एक साधन है।
राष्ट्र संघ ने 2017 में इस संधि को अंतिम रूप देने के लिए एक समिति का गठन किया था। तीन साल के विचार-विमर्श और न्यूयॉर्क में दो सप्ताह लंबे सत्र के बाद अंतत: सदस्यों ने सर्व सम्मति से राष्ट्र संघ सायबर अपराध निरोधक संधि को मंज़ूरी दे दी। अब इसे अनुमोदन के लिए आम सभा के समक्ष पेश किया जाएगा। ऐसा माना जा रहा है कि अनुमोदन के बाद यह संधि सायबर अपराधों से ज़्यादा कारगर ढंग से निपटने में मदद करेगी, खास तौर से मनी लॉन्ड्रिंग (money laundering) और बच्चों के विरूद्ध यौन अपराध (child exploitation) जैसे मामलों में।
आम तौर पर देशों ने इस संधि का स्वागत किया है। खास तौर से उन देशों के लिए यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव है जिनके पास अपना सायबर इंफ्रास्ट्रक्चर (cyber infrastructure) बहुत विकसित नहीं है क्योंकि संधि में ऐसे देशों के लिए तकनीकी मदद का प्रावधान है। लेकिन कई संगठन संधि के आलोचक भी हैं। इनमें मानव अधिकार संगठन और बड़ी टेक कंपनियां (tech companies) प्रमुख हैं।
विरोधियों का मत है कि इस संधि का दायरा बहुत व्यापक है और यह सरकारों को निगरानी (surveillance) को सख्त करने की छूट देने जैसा है। जैसे, संधि में यह व्यवस्था है कि यदि कोई अपराध होता है, जिसके लिए किसी देश के कानून में चार साल से अधिक कारावास का प्रावधान है, तो वह देश किसी अन्य देश के अधिकारियों से मांग कर सकता है कि वे उस अपराध से जुड़े इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य (electronic evidence) उपलब्ध कराएं। वह इंटरनेट सर्विस प्रदाताओं (internet service providers) से भी डेटा की मांग कर सकता है।
मानव अधिकार संगठन ह्यूमैन राइट्स वॉच ने कहा है कि यह निगरानी का एक बहुपक्षीय औज़ार है और एक मायने में दमन का कानूनी साधन है। इसका उपयोग पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, एलजीबीटी (LGBT) लोगों, स्वतंत्र चिंतकों वगैरह के खिलाफ राष्ट्रीय सरहदों के आर-पार हो सकता है। टेक कंपनियों के प्रतिनिधियों का कहना है कि यह संधि डिजिटल कामकाज (digital operations) और मानव अधिकारों के लिहाज़ से हानिकारक होगी।
दूसरी ओर, कई देशों का मत है कि इस संधि में मानव अधिकारों की सुरक्षा के लिए ज़रूरत से ज़्यादा प्रावधान जोड़े गए हैं। उदाहरण के लिए, रूस जो ऐतिहासिक रूप से इस मसौदे के लेखन का हिमायती रहा है, उसने कुछ दिन पहले यह शिकायत की है कि मसौदा मानव अधिकार सुरक्षा के प्रावधानों से लबरेज़ है। इसी तरह, अंतिम दौर में इरान ने कुछ ऐसी धाराओं को हटवाने का प्रयास किया जो ‘निहित रूप से गलत’ हैं। ऐसा एक पैरा था जिसमें यह कहा गया था कि “इस संधि की किसी भी बात की व्याख्या इस रूप में नहीं की जाएगी जिससे मानव अधिकारों तथा बुनियादी स्वतंत्रता के दमन” का आशय प्रकट हो। जैसे “अभिव्यक्ति, अंतरात्मा, मत, धर्म या आस्थाओं की आज़ादी”। विलोपन के इस प्रस्ताव के पक्ष में रूस, भारत, सूडान, वेनेज़ुएला, सीरिया, उत्तर कोरिया, लीबिया सहित 32 वोट पड़े जबकि विरोध में 102 वोट पड़े। 26 देशों ने मतदान में भाग नहीं लिया था। बहरहाल इस संधि को सर्व-सम्मति से पारित कर दिया गया। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.eff.org/files/issues/un-cybercrime-1b.jpg
यूएस में जनगणना हर 10 वर्ष में होती है। इसमें नागरिकों को यह आश्वासन दिया जाता है कि उनसे सम्बंधित आंकड़े गोपनीय (confidential) रहेंगे। लेकिन यह आश्वासन रस्सी पर चलने जैसा होता है – जितनी सशक्त प्रायवेसी (privacy) होगी, आंकड़ों की सटीकता (accuracy) उतनी ही कम होती जाएगी।
इनके बीच संतुलन बनाना विवाद का विषय बन गया है। आंकड़ों को अनाम बनाए रखने के लिए जिस तकनीक का उपयोग प्रस्तावित है, वह है डिफरेंशियल प्रायवेसी (differential privacy) और इसी के समर्थकों और विरोधियों के बीच विवाद चल रहा है। विरोधियों का मत है कि डिफरेंशियल प्रायवेसी जैसी तकनीक से महत्वपूर्ण आंकड़ों की विश्वसनीयता (reliability) प्रभावित हो सकती है। तो पहले यह देखते हैं कि डिफरेंशियल प्रायवेसी क्या है और कैसे काम करती है। इसे समझने के लिए हम टेक कंपनियों (tech companies) का उदाहरण लेंगे। ये कंपनियां अपने मकसद से उपयोगकर्ताओं की जानकारी एकत्रित करने के लिए मशहूर हैं।
आजकल ये कंपनियां अपने उत्पादों और सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए हमसे मिली जानकारी का अधिकाधिक उपयोग कर रही हैं। कंपनी के दृष्टिकोण से देखें तो यह काफी मददगार होता है। लेकिन उपभोक्ता की नज़र से देखें तो यह खतरनाक हो सकता है। उपभोक्ता का वैसे भी इस बात पर कोई नियंत्रण नहीं होता कि किस तरह की जानकारी जुटाई जा रही है। समस्या तब आएगी जब इन कंपनियों पर कोई सायबर हमला (cyber attack) सफल हो जाए और सारी संग्रहित सूचनाएं लीक हो जाएं। हाल ही में सोनी कंपनी के साथ ऐसा हो चुका है।
अर्थात उपभोक्ताओं और कंपनियों के बीच हितों का टकराव है। हितों के इसी टकराव के चलते डिफरेंशियल प्रायवेसी तकनीक का विकास हुआ है। डिफरेंशियल प्रायवेसी के चलते यह संभव हुआ है कि कंपनियां सूचनाएं एकत्रित करती रहें और उपभोक्ता की प्रायवेसी का उल्लंघन भी न हो। आप सोच रहे होंगे कि इतना सब तामझाम करने की बजाय हम सारे आंकड़ों को अनाम (anonymize) बनाकर काम क्यों नहीं चला सकते।
आंकड़ों के अनामीकरण का उपयोग उद्योगों में किया जाता रहा है, और यह सोचना सही है कि हम उपयोगकर्ताओं के आंकड़ों को पूरी तरह अनामीकृत कर सकते हैं। इसके लिए करना यह होगा कि हर आंकड़े में से व्यक्ति की पहचान करने वाले चिन्हों (आइडेंटिफायर्स) को हटा दिया जाए। आइडेंटिफायर सूचना के वे अंश होते हैं जिनकी मदद से यह पहचाना जा सकता है कि वह सूचना किस व्यक्ति-विशेष की है। अलबत्ता, आंकड़ा अनामीकरण की अपनी समस्याएं हैं।
एक बड़ी समस्या यह है कि अनामीकरण की प्रक्रिया कंपनी के सर्वर (servers) पर की जाती है और यह कहना मुश्किल है कि इन सर्वर्स पर कितना भरोसा करें। और फिर यह मुद्दा भी है कि अनामीकरण में कम-ज़्यादा का क्या अर्थ होता है।
वर्ष 2006 में नेटफ्लिक्स (Netflix) ने नेटफ्लिक्स प्राइज़ नामक एक पुरस्कार की शुरुआत की थी। इस पुरस्कार के लिए विभिन्न टीम्स को एक एल्गोरिद्म (algorithm) का निर्माण करना था जो यह भविष्यवाणी कर सके कि कोई व्यक्ति किसी फिल्म की क्या रेंटिंग करेगा। इसमें मदद के लिए नेटफ्लिक्स ने एक डैटासेट उपलब्ध कराया था जिसमें 1700 फिल्मों के 10 करोड़ रेंटिंग्स दिए गए थे। ये रेटिंग्स 4,80,000 उपयोगकर्ताओं से प्राप्त हुए थे।
नेटफ्लिक्स ने आंकड़ा अनामीकरण की उपरोक्त प्रक्रिया की मदद ली थी। इसके तहत हर आंकड़े में से उपयोगकर्ता का नाम हटा दिया गया था और कुछ रेंटिंग की जगह झूठे रेंटिंग्स डाल दिए गए थे। लगता तो है कि आंकड़े काफी अनामीकृत हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। टेक्सास विश्वविद्यालय के दो कंप्यूटर वैज्ञानिकों – अरविंद नारायणन और विताली श्मतिकोव ने एक शोध पत्र में दावा किया था कि उन्होंने उपरोक्त ‘अनामीकृत’ आंकड़ों को इंटरनेट मूवी डैटाबेस (IMDb) के साधारण आंकड़ों के साथ जोड़कर देखा तो वे एक-एक व्यक्ति को पहचान पाए थे। IMDb डैटा सार्वजनिक रूप से उपलब्ध है।
इस तरह के हमले को लिंकेज अटैक (linkage attack) कहते हैं और यहां तथाकथित अनामीकृत आंकड़ों को गैर-अनामीकृत आंकड़ों के साथ जोड़कर व्यक्ति की पहचान उजागर की जा सकती है।
ऐसा ही एक अन्य उदाहरण है जो ज़्यादा परेशान करने वाला है। यह उदाहरण है गवर्नर विलियम वेल्ड का। 1990 के दशक में अमेरिका सरकार के समूह बीमा आयोग ने तय किया कि वह सरकारी कर्मचारियों के अस्पताल जाने से सम्बंधित आंकड़े सार्वजनिक कर देगा। आयोग ने आंकड़ों को अनामीकृत करने के लिए उनमें से व्यक्ति के नाम, पते तथा अन्य पहचान चिन्ह हटा दिए थे।
एक कंप्यूटर वैज्ञानिक नातन्या स्वीनी (Natanya Sweeney) ने यह दर्शाने का निर्णय लिया कि अनामीकरण की इस प्रक्रिया को उलटना कितना आसान है। उन्होंने उपरोक्त प्रकाशित स्वास्थ्य रिकॉर्ड को वोटर रजिस्ट्रेशन रिकॉर्ड (voter registration records) के साथ जोड़कर देखा। उन्होंने पाया कि इस डैटा में मात्र एक व्यक्ति ऐसा था जिसके निवास का ज़िप कोड, जिसका जेंडर और जिसकी जन्म तिथि गवर्नर से मेल खाते थे। इस तरह गवर्नर वेल्ड का स्वास्थ्य रिकॉर्ड सार्वजनिक रूप से उजागर हो गया था।
अपने अगले शोध पत्र में स्वीनी ने दावा किया कि 87 प्रतिशत अमरीकियों को मात्र तीन जानकारियों के आधार पर पहचाना जा सकता है: ज़िप कोड, जन्म तिथि और जेंडर।
स्पष्ट है कि आंकड़ा अनामीकरण उतना अनामीकारक नहीं है, जितना हम सोचते हैं। और यहीं डिफरेंशियल प्रायवेसी का प्रवेश होता है। डिफरेंशियल प्रायवेसी का एक फायदा यह बताया जाता है कि इसकी मदद से उपरोक्त किस्म के सायबर हमलों को नाकाम किया जा सकता है। इसे समझने के लिए हम एक अजीबोगरीब उदाहरण का सहारा लेंगे। जैसे, यह पता करना है कि कितने लोग नाक में उंगली डालते रहते हैं।
हम एक सर्वेक्षण करते हैं जिसमें मात्र एक सवाल पूछा गया है:
“क्या आप अपनी नाक में उंगली डालते हैं?
क – हां
ख – नहीं।”
इस सवाल के जो भी उत्तर मिलेंगे, उन्हें हम एक सर्वर पर संग्रहित कर लेंगे। लेकिन इसमें हम वास्तविक उत्तर को रिकॉर्ड करने की बजाय उसमें कुछ शोरगुल (नॉइज़) जोड़ देंगे।
मान लीजिए, सर्वेक्षण के एक उत्तरदाता अनीष का जवाब है ‘हां’। यहां डिफरेंशियल प्रायवेसी का एल्गोरिद्म यह है कि एक सिक्का उछाला जाएगा। यदि सिक्का चित गिरता है तो यह एल्गोरिद्म अनीष का वास्तविक जवाब सर्वर को भेज देगा। लेकिन यदि पट आता है तो सिक्का फिर से उछाला जाएगा। इस बार यदि चित आता है तो उत्तर के रूप में ‘नहीं’ भेजा जाएगा और पट आने पर वास्तविक उत्तर सर्वर में जाएगा।
ध्यान रखें कि डिफरेंशियल प्रायवेसी का एल्गोरिद्म चित-पट पर आधारित नहीं बल्कि कहीं अधिक जटिल हो सकता है। कुल मिलाकर एल्गोरिद्म आंकड़ों में नॉइज़ जोड़ने का काम करता है।
सर्वर पर जो आंकड़े आते हैं उनमें यह नॉइज़ शामिल होता है और इसलिए हम एक-एक व्यक्ति की सूचना प्राप्त नहीं कर सकते। हो सकता है कि अनीष का जवाब ‘हां’ रहा हो लेकिन रिकॉर्ड में वह ‘नहीं’ लिखा जाएगा। दरअसल लगभग 25 प्रतिशत संभावना है कि हमारा व्यक्तिगत आंकड़ा गलत होगा। यानी आप किसी व्यक्ति के जवाब को लेकर यकीनी तौर पर कुछ नहीं कह सकते और इस वजह से आप व्यक्तियों को लेकर फैसले नहीं सुना सकते। यह बात खास तौर पर अवैध या प्रतिबंधित गतिविधियों के बारे में महत्वपूर्ण है।
चूंकि आपको पता होता है कि नॉइज़ किस तरह से शामिल किया गया है और कैसे आंकड़ों में वितरित है, तो आप इसकी भरपाई करके काफी सटीकता से यह पता लगा सकते हैं कि किसी आबादी में कितने लोग नाक में उंगली डालते हैं, हालांकि एक-एक व्यक्ति के बारे में कुछ नहीं कह पाएंगे।
हमने अपने उदाहरण को सरल रखने के लिए सिक्का उछालने वाला एल्गोरिद्म लिया था, लेकिन वास्तव में डिफरेंशियल प्रायवेसी के एल्गोरिद्म में लाप्लेस वितरण का उपयोग किया जाता है। इस एल्गोरिद्म की मदद से आंकड़ों को एक बड़े परास में फैला दिया जाता है जिससे अनामीकरण में वृद्धि होती है।
डिफरेंशियल प्रायवेसी के इस संक्षिप्त परिचय के आधार पर हम समझ सकते हैं कि इस तकनीक की खूबी यह है कि यह व्यक्तिगत सूचना की प्रायवेसी सुनिश्चित करती है जबकि उस डैटासेट के समग्र परिणामों पर कोई असर नहीं डालती। अर्थात चाहे डिफरेंशियल प्रायवेसी तकनीक का इस्तेमाल किया जाए या न किया जाए, अंतिम परिणाम समान रहेगा।
लेकिन इसके साथ दिक्कत यह है कि इसका क्रियांवयन बहुत पेचीदा होता है और इसे आंकड़ों के विशाल भंडार पर ही लागू किया सकता है। तभी आंकड़ों की सटीकता से समझौता किए बगैर इसका उपयोग किया जा सकता है।
इसकी एक और कमज़ोरी यह है कि कतिपय संवेदनशील मामलों में आंकड़ों की सटीकता तो महत्वपूर्ण होती ही है, साथ में उन आंकड़ों से जुड़े नैतिक मूल्य भी महत्वपूर्ण होते हैं। जैसे, मतदाता आंकड़ों में नॉइज़ जोड़ना स्वीकार्य नहीं हो सकता, हालांकि अंतिम परिणाम शायद एक से हों। ऐसे मामलों में डिफरेंशियल प्रायवेसी शायद सर्वोत्तम विधि न हो। अब देखते हैं कि यूएस जनगणना के संदर्भ मे गोपनीयता बनाम सटीकता की बहस क्या है।
यूएसजनगणना
हर दशक में की जाने वाली जनगणना के दौरान नागरिकों को आश्वस्त किया जाता है कि उनके द्वारा दिए गए जवाब गोपनीय रहेंगे अर्थात कोई नहीं जान पाएगा किसी व्यक्ति-विशेष ने क्या जवाब दिए थे। लेकिन यूएस सेंसस ब्यूरो के इस आश्वासन में एक अगर-मगर जुड़ा है। बहुत सशक्त गोपनीयता आंकड़ों की सटीकता को कम कर सकती है। यह मुद्दा खास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण हो गया क्योंकि सरकार ने 2020 की जनगणना में गोपनीयता-सुरक्षा की नई विधि शामिल की। इसकी वजह से जनांकिकीविदों के बीच यह चिंता फैली कि इसकी वजह से डैटा में घटियापन बढ़ेगा। जनगणना से प्राप्त डैटा अकादमिक अनुसंधान, संसदीय क्षेत्रों के निर्धारण और संघीय बजट के आवंटन की दृष्टि से महत्व रखता है। पुरानी विधि बनाम नई विधि के बीच बहस चलती रही, जब तक कि साइन्सएडवांसेस नामक शोध पत्रिका में एक अध्ययन प्रकाशित न हो गया। इस अध्ययन ने उपरोक्त चिंताओं के संदर्भ में स्वतंत्र आंकड़े प्रस्तुत किए। विशेषज्ञों का मत है कि इस पर्चे के निष्कर्ष 2030 की यूएस जनगणना में संशोधन करके मताधिकार सम्बंधी कानूनी मुद्दों को प्रभावित करेंगे।
जनगणना के आंकड़े शोधकर्ताओं और सरकार दोनों को देश में हो रहे जनांनिक परिवर्तनों को समझने में मदद करते हैं। ये आंकड़े सरकार को स्वास्थ्य, पोषण, आवास तथा इंफ्रास्ट्रक्चर जैसी चीज़ों को लेकर नियोजन में भी मदद करते हैं। यूएस जनगणना का प्रमुख संवैधानिक कारण यह है कि इसके आधार पर यूएस संसद में प्रांतवार सीटों का आवंटन किया जाता है। इसके लिए ज़रूरी होता है कि आपके पास सबसे छोटी मतदान इकाई तक के आंकड़े उपलब्ध हों ताकि वोटिंग राइट्स एक्ट, 1965 का समुचित क्रियांवयन हो सके।
जनांकिकीविद काफी समय से आंकड़ों की सटीकता और गोपनीयता के बीच संतुलन के महत्व को जानते आए हैं। उन्होंने 1990, 2000 और 2010 में इस्तेमाल की गई विधि के कारण उत्पन्न विकृतियों से तालमेल बनाना सीख लिया था। इन तीनों जनगणनाओं में जिस विधि का सहारा लिया गया था उसे अदला-बदली (swapping) कहते हैं।
साइन्स में एक लेख प्रकाशित हुआ है: “यूएस में गोपनीयता के नाम पर जनगणना के आंकड़ों को पर्दे में रखने का एक नया तरीका आया है। यह सटीकता को कैसे प्रभावित करेगा?” इसमें अलग-अलग जनगणना ब्लॉक्स के बाशिंदों के उम्र, नस्ल, जनजातीयता और पारिवारिक गुणधर्मों सम्बंधी जवाबों की परस्पर अदला-बदली की जाएगी ताकि उनकी गोपनीयता बनी रहे। ऐसे ब्लॉक्स की संख्या लगभग 1.1 करोड़ है और प्रत्येक की औसत आबादी 23 व्यक्ति है। इसके बाद इनके आंकड़ों को ज़्यादा बड़े क्षेत्र के डैटा के रूप में समेकित कर दिया जाएगा। शोधकर्ताओं का मत है कि ऐसी अदला-बदली उन व्यक्तियों को निशाना बनाती है, जिनके जनांकिक लक्षण निराले हैं और इनकी पहचान ज़्यादा आसानी से की जा सकती है। वैसे सेंसस ब्यूरो ने यह नहीं बताया है कि उसने इस विधि का उपयोग कितनी अधिक बार किया है।
2020 की जनगणना के संदर्भ में अधिकारियों ने माना कि अदला-बदली गोपनीयता सुनिश्चित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं है। अधिकारियों को लगता था कि कोई ज़िद्दी हैकर सेंसस के आंकड़ों को अन्य सार्वजनिक सूचनाओं के साथ जोड़कर व्यक्तियों की पहचान कर सकता है। जिसे हम पहले ही लिंकेज अटैक के रूप में परिभाषित कर चुके हैं।
लिहाज़ा, सेंसस ब्यूरो ने पूर्ण गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिए अदला-बदली के स्थान पर डिफरेंशियल प्रायवेसी को अपनाया है। इस तरीके में आंकड़ों में सांख्यिकीय नॉइज़ जोड़ दिया जाता है; अधिक संवेदनशील आंकड़ों में अधिक नॉइज़ डाला जाता है।
डिफरेंशियल प्रायवेसी का आंकड़ों की गुणवत्ता पर क्या असर होगा? इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं के एक समूह ने सेंसस ब्यूरो से निवेदन किया कि वह 2020 की जनगणना की नॉइज़युक्त मापन फाइल जारी कर दे। इस फाइल में मूल आंकड़ों पर डिफरेंशियल प्रायवेसी एल्गोरिद्म लागू करने के बाद के आंकड़े होते हैं।
काफी जद्दोजहद के बाद ब्यूरो ने 2010 की वह फाइल उपलब्ध करवाई जिसमें अदला-बदली का इस्तेमाल किया गया था और साथ ही वह फाइल दी जिसमें प्रायोगिक तौर पर 2010 के आंकड़ों पर डिफरेंशियल प्रायवेसी लागू की गई थी।
इन फाइलों का विश्लेषण करके हारवर्ड, न्यूयॉर्क और येल विश्वविद्यालय के शोधकर्ता यह तुलना कर पाए कि इन दो तरीकों का आंकड़ों की सटीकता पर क्या असर होता है। अध्ययन का नतीजा था कि डिफरेंशियल प्रायवेसी और अदला-बदली दोनों ही बड़ी आबादी (जैसे समूचे प्रांत) के संदर्भ में आंकड़ों की सटीकता बनाए रखने में बराबर कारगर हैं। लेकिन सेंसस ब्लॉक जैसी छोटी भौगोलिक इकाइयों के मामले में डिफरेंशियल प्रायवेसी ज़्यादा त्रुटियों को जन्म देती है। ये त्रुटियां खास तौर से हिस्पेनिक तथा बहु-नस्लीय आबादियों के लिए ज़्यादा होती हैं। कई बार तो त्रुटि का परिमाण किसी समूह की कुल आबादी से भी अधिक होता है। जैसे, तीन हिस्पेनिक बाशिंदों वाले ब्लॉक में डिफरेंशियल प्रायवेसी द्वारा शामिल किए गए शोर की वजह से हो सकता है कि बाशिंदों की संख्या शून्य हो जाए या छ: हो जाए।
एक मायने में अदला-बदली और डिफरेंशियल प्रायवेसी के बीच का अंतर दरअसल ब्लॉक स्तर पर नज़र आने लगता है। यह अंतर इन दो विधियों के एक मूल अंतर में निहित है। अदला-बदली के अंतर्गत किसी भी ब्लॉक की कुल और मतदान उम्र की आबादी को वैसा ही रखा जाता है। अर्थात यदि किसी ब्लॉक की जनसंख्या 23 है, तो अदला-बदली के बाद भी 23 ही रहेगी। इसके विपरीत डिफरेंशियल प्रायवेसी में ऐसी कोई गारंटी नहीं होती। इसमें जोड़ा गया नॉइज़ कुल जनसंख्या में भी परिवर्तन कर सकता है और कभी-कभी तो असंभव से आंकड़े निकल सकते हैं – जैसे बाशिंदों की ऋणात्मक संख्या या बगैर वयस्क के रह रहे बच्चे, या किसी ब्लॉक में मकान की अनुपस्थिति।
इस तरह की विसंगतियों से बचने के लिए सेंसस अधिकारी आंकड़े जारी करने से पहले इन विचित्र स्थितियों को समायोजित करते हैं। अलबत्ता, सुधार की यह प्रक्रिया नई विकृतियां पैदा कर सकती है।
बहरहाल, डिफरेंशियल प्रायवेसी बेतरतीब नॉइज़ जोड़कर बेहतर नतीजे देती है, खास तौर से इसलिए कि इस नॉइज़ के सांख्यिकीय गुणधर्म सुस्पष्ट होते हैं। इसके चलते विकृतियों को संभालना अपेक्षाकृत आसान होता है जबकि अदला-बदली विधि में विकृतियां बहुत बेतरतीब होती हैं। लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का मत है कि यदि ऋणात्मक आंकड़ों को शून्य में तबदील कर दिया जाता है तो यह एक बड़ा नुकसान है।
यूएस सेंसस ब्यूरो 2030 की जनगणना की तैयारी कर रहा है। ऐसे में उपरोक्त निष्कर्ष डैटा की सटीकता और प्रायवेसी सुरक्षा की विधियों पर विचार-विमर्श की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं। एक तरीका यह हो सकता है कि सेंसस ब्यूरो थोड़े कम विस्तृत आंकड़े जारी करे। इसमें अनावश्यक रूप से सांख्यिकीय त्रुटियां जोड़ना नहीं पड़ेगा। लेकिन डैटा की बारीकियां सीमित करने से शोधकर्ताओं के लिए जनांकिक परिवर्तनों का विश्लेषण करना मुश्किल होगा और नीतिगत निर्णय प्रक्रिया भी बाधित होगी।
एक महत्वपूर्ण असर यह होगा कि विभिन्न सर्वेक्षण कार्य बाधित होंगे। किसी भी आबादी के प्रतिनिधिमूलक नमूने चुनने के लिए विस्तृत आंकड़े एक अनिवार्यता होती है। इन्हीं के आधार पर तय होता है कि क्या कोई नमूना समूची आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। और ऐसे अध्ययनों के दम पर सार्वजनिक नीतियों, आर्थिक नियोजन, सामाजिक कार्यक्रमों वगैरह का मार्गदर्शन होता है।
तो हमारे सामने डैटा की प्रायवेसी सुनिश्चित करने और सटीकता अक्षुण्ण रखने के बीच संतुलन बनाने की चुनौती है। उपरोक्त कारणों से इनके बीच संतुलन काफी महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://miro.medium.com/v2/resize:fit:786/format:webp/1*ZIHUABQCdmkT0bv6yx6oTw.png
भारत में हाथियों की आबादी करीब 25-30 हज़ार बची है। नतीजतन, इन्हें ‘लुप्तप्राय’ श्रेणि में रखा गया है। अनुमान है कि पहले हाथी जितने बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे, उसकी तुलना में आज ये उसके मात्र 3.5 प्रतिशत क्षेत्र में सिमट गए हैं – अब ये हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत के कुछ जंगलों और पश्चिमी एवं पूर्वी घाट के पहाड़ी जंगलों तक ही सीमित हैं।
विशेष चिंता का विषय उनके प्राकृतवास का छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंट जाना है: हाथियों को भोजन एवं आश्रय देने वाले वन मनुष्यों द्वारा विकसित भू-क्षेत्रों (रेलमार्ग, सड़कमार्ग, गांव-शहर वगैरह बनने) की वजह से खंडित होकर छोटे-छोटे वन क्षेत्र रह गए हैं। इस विखंडन से हाथियों के प्रजनन विकल्प भी सीमित हो सकते हैं। इससे आनुवंशिक अड़चनें पैदा होती हैं और आगे जाकर झुंड की फिटनेस में कमी आती है।
हाथियों का अपने आवास क्षेत्र में लगातार आवागमन उन्हें सड़कों और रेलवे लाइनों के संपर्क में लाता है। दरअसल, एक हथिनी के आवास क्षेत्र का दायरा लगभग 500 वर्ग किलोमीटर होता है, और टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अपने आवास में इतनी दूरी तय करते हुए उसकी सड़क या रेलवे लाइन से गुज़रने की संभावना (और इसके चलते दुर्घटना की संभावना) बहुत बढ़ जाती है।
सौभाग्य से, सभी हाथी-मार्गों (जिन रास्तों से वे आवागमन करते हैं) पर इस तरह के खतरे नहीं हैं। बांदीपुर, मुदुमलाई और वायनाड के हाथी गर्मियों में मौसमी प्रवास पर जाते हैं। वे पानी और हरी घास के लिए काबिनी बांध के बैकवाटर की ओर जाते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि तमिलनाडु और केरल के बीच हाथियों के 18 प्रवास-मार्ग मौजूद हैं।
इस समस्या का एक समाधान वन्यजीव गलियारे हैं – ये गलियारे मनुष्यों के साथ कम से कम संपर्क के साथ जानवरों को प्रवास करने का रास्ता देते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण उत्तराखंड का मोतीचूर-चिल्ला गलियारा है, जो कॉर्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यानों के बीच हाथियों के आने-जाने (और इस तरह जीन के प्रवाह) को सुगम बनाता है। हालांकि, मनुष्यों के साथ संघर्ष का खतरा तो हमेशा बना रहता है – हाथी कभी-कभी फसलों को खा जाते हैं, या सड़कों और रेल पटरियों पर आ जाते हैं।
ट्रेनकीरफ्तार
कनाडा में हुई एक पहल ने पशु-ट्रेन टकराव को कम करने का प्रयास किया है – इस प्रयास में ट्रेन के आने की चेतावनी देने के लिए पटरियों के किनारे विभिन्न स्थानों पर जल-बुझ लाइट्स और घंटियां लगाई गई थीं। ये लाइट्स और घंटियां ट्रेन के आने के 30 सेकंड पहले चालू हो जाती थीं – इन संकेतों का उद्देश्य जानवरों में इन चेतावनियों और ट्रेन आने के बीच सम्बंध बैठाना था।
चेतावनी प्रणाली युक्त और चेतावनी प्रणाली रहित सीधी और घुमावदार दोनों तरह की पटरियों पर कैमरों ने ट्रेन आने के प्रति जानवरों की प्रतिक्रियाओं को रिकॉर्ड किया। देखा गया कि बड़े जानवर, जैसे हिरण परिवार के एल्क और धूसर भालू चेतावनी प्रणाली विहीन ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 10 सेकंड पहले पटरियों से दूर चले जाते हैं, जबकि चेतावनी प्रणाली युक्त ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 17 सेकंड पहले। (यह अध्ययन ट्रांसपोर्टेशनरिसर्चजर्नल में प्रकाशित हुआ है।)
घुमावदार ट्रैक पर आती ट्रेन के प्रति प्रतिक्रिया कम दिखी, संभवत: कम दृश्यता के कारण। ऐसी जगहों पर, जानवर ट्रेन की आहट का आवाज़ से पता लगाते हैं। अलबत्ता, ट्रेन आ रही है या नहीं इसकी टोह आवाज़ से मिलना ट्रेन की तेज़ रफ्तार जैसे कारकों से काफी प्रभावित होती है।
कृत्रिमबुद्धि (एआई) कीमदद
हाथियों के आवास वाले जंगलों से गुज़रते समय इंजन चालक को कब ट्रेन की रफ्तार कम करनी चाहिए? भारतीय रेलवे के पास ऑप्टिकल फाइबर केबल का एक विशाल नेटवर्क है। ये केबल दूरसंचार और डैटा के आवागमन को संभव बनाते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से ट्रेन नियंत्रण के लिए संकेत भेजते हैं। हाल ही में शुरू की गई गजराज नामक प्रणाली में, इन ऑप्टिकल फाइबल केबल की लाइनों पर जियोफोनिक सेंसर लगाए गए हैं, जो हाथियों के भारी और ज़मीन को थरथरा देने वाले कदमों के कंपन को पकड़ सकते हैं।
एआई-आधारित प्रणाली इन सेंसर से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करती है और प्रासंगिक जानकारियां निकालती है – जैसे आवागमन की आवृत्ति और कंपन की अवधि। यदि हाथी-जनित विशिष्ट कंपन का पता चलता है, तो उस क्षेत्र के इंजन ड्राइवरों को तुरंत अलर्ट भेजा जाता है, और ट्रेन की रफ्तार कम कर दी जाती है। ऐसी प्रणालियां फिलहाल उत्तर पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार क्षेत्र में लगाई गई हैं, जहां पूर्व में कई दुर्घटनाएं हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sanctuarynaturefoundation.org/uploads/Article/1586787578209_railway-minister-urged-1920×599.jpg
1957 में पहले कृत्रिम उपग्रह के प्रक्षेपण के बाद पृथ्वी की कक्षा, खासकर लो अर्थ ऑर्बिट (LEO), में उपग्रहों की भरमार हो गई है; अब तक तकरीबन 14,450 उपग्रह पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में छोड़े जा चुके हैं।
लेकिन ये सभी उपग्रह हमेशा सक्रिय या ‘जीवित’ नहीं रहते। अपनी तयशुदा उम्र या काम के बाद वे ‘मर’ जाते हैं। बेकार पड़ चुके उपग्रहों को वहां से हटाना होता है वरना वे अंतरिक्ष में बढ़ रही उपग्रहों की भीड़ और मलबे को और बढ़ाएंगे। इसलिए पृथ्वी की भूस्थैतिक कक्षा में स्थापित उपग्रहों को धक्का देकर अधिक ऊंचाई की ‘कब्रस्तान कक्षा’ में भेज दिया जाता है, हालांकि इस तरह अंतरिक्ष में मलबा तो बरकरार ही रहता है। वहीं पृथ्वी की करीबी कक्षा में स्थापित उपग्रहों को धीमा किया जाता है। रफ्तार धीमी पड़ने पर ये पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं, और जलकर नष्ट हो जाते हैं। लेकिन जलकर नष्ट होने से इनमें से एल्यूमीनियम ऑक्साइड और अन्य धातु कण वायुमण्डल में फैल जाते हैं, जो खतरा साबित हो सकते हैं।
जियोफिज़िकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 250 किलोग्राम का एक उपग्रह वायुमण्डल में जलने पर करीब 30 किलोग्राम एल्यूमीनियम ऑक्साइड छोड़ता है। पाया गया है कि वर्ष 2022 में उपग्रहों को इस तरह ठिकाने लगाने के चलते वायुमण्डल में एल्यूमीनियम ऑक्साइड की मात्रा में 29.5 प्रतिशत (17 मीट्रिक टन) की वृद्धि हुई है। भविष्य में उपग्रह प्रक्षेपण की योजना के आधार पर अनुमान है कि वायुमण्डल में प्रति वर्ष करीब 360 मीट्रिक टन एल्यूमीनियम ऑक्साइड की वृद्धि होगी। नतीजतन ओज़ोन परत को क्षति पहुंचेगी।
इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए क्योटो युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने लकड़ी का उपग्रह, लिग्नोसैट (LignoSat), बनाया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि लिग्नोसैट पारंपरिक उपग्रहों में इस्तेमाल की जाने वाली धातुओं की तुलना में अधिक टिकाऊ और कम प्रदूषणकारी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि अपना काम समाप्त कर जब यह पृथ्वी पर वापस आएगा तो इसकी लकड़ी पूरी तरह से जल जाएगी और केवल जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड वायुमण्डल में मुक्त होगी। लकड़ी से उपग्रह बनाने का जो एक और फायदा दिखाई देता है वह है कि यह अंतरिक्ष के पर्यावरण को झेल सकता है और रेडियो तरंगों को अवरुद्ध नहीं करता है, जिसके चलते एंटीना को इसके अंदर लगाया जा सकता है।
घनाकार लिग्नोसैट की लंबाई-चौड़ाई-ऊंचाई लगभग 10-10 सेंटीमीटर है। इसका ढांचा मैग्नोलिया लकड़ी का बनाया गया है। इस पर सौर पैनल, सर्किट बोर्ड और सेंसर लगाए गए हैं जिनकी मदद से लकड़ी पर पड़ रहे दबाव, तापमान, भू-चुंबकीय बलों और विकिरण को मापा जाएगा। साथ ही साथ इससे रेडियो सिग्नल भेजने और प्राप्त करने की क्षमता का परीक्षण भी किया जाएगा। इसकी तख्तियों को जोड़ने के लिए गोंद या स्क्रू की बजाय लकड़ी जोड़ने की पारंपरिक जापानी विधि से एल्यूमीनियम के फ्रेम में कसा गया है।
लिग्नोसैट को इस साल सितम्बर में प्रक्षेपित किया जाएगा। उपग्रह की लकड़ी की तख्तियां वास्तविक परिस्थितियों में कितना कारगर रहती हैं यह तो कक्षा में पहुंचकर काम शुरू करने के बाद ही अच्छे से स्पष्ट होगा। यदि सफल रहा तो भावी अंतरिक्ष मिशनों में लकड़ी के उपयोग की संभावना बढ़ सकती है।
हालांकि लिग्नोसैट जलने पर मात्र जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड ही छोड़ता है लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड की समस्याओं से भी हम भलीभांति अवगत हैं। इसलिए बड़े पैमाने पर लकड़ी-उपग्रहों के उपयोग के पर्यावरणीय असर का आकलन भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)
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जानलेवा सैन्य हथियारों की स्वायत्तता इन दिनों गहन विचार मंथन और चर्चाओं के दौर से गुज़र रही है। कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों के सृजन को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभियान शुरू हुआ है। जुलाई 2023 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा कृत्रिम बुद्धि निर्देशित हथियारों के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक मंथन किया गया था। विचार मंथन का दौर अभी थमा नहीं है। इसी साल के उत्तरार्द्ध में संयुक्त राष्ट्र महासभा में कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों पर विभिन्न कोणों से नज़र डालने के लिए बैठक होगी। लेकिन इस बैठक के पहले अप्रैल में ऑस्ट्रिया में एक सम्मेलन आयोजित हो चुका है।
कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों की तुलना रासायनिक, जैविक और परमाणु हथियारों से की जाए तो ये हथियार खतरनाक होने के पैमाने पर एक कदम आगे निकल गए हैं। हाल के वर्षों में दुनिया की बड़ी सैन्य ताकतों ने जानलेवा स्वायत्त हथियारों को मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया है। यही मुद्दा विचार मंथन का विषय है। रक्षा वैज्ञानिक, विधिवेत्ता, रोबोट विज्ञान के अध्येता, सैन्य योजनाकार और नैतिकतावादी जानलेवा स्वायत्त हथियारों के विभिन्न मुद्दों पर बहस में जुट गए हैं।
जानलेवा स्वायत्त हथियारों पर प्रतिबंध के संदर्भ में नैतिक कारण भी अहम हैं। यह सवाल सहज रूप से किया जा सकता है कि युद्ध के मैदान में किसी भी अनैतिक गतिविधि के लिए एक मशीन को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? इस सवाल का कोई तर्क आधारित उत्तर किसी के पास नहीं है और यही कारण है कि इन हथियारों पर प्रतिबंध की मांग उठी है। नैतिक कारणों पर गंभीरता से गौर करें तो एक और बात जोड़ना लाज़मी है। क्या किसी मशीन द्वारा जीवन और मृत्यु का फैसला करना नैतिक रूप से स्वीकार्य है?
कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से हो रहा है। इनमें हीट सीकिंग मिसाइलें और प्रेशर ट्रिगर बारूदी सुरंगें भी सम्मिलित हैं। हाल के वर्षों में चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और इस्राइल जैसे देशों ने युद्ध के मैदान में इन हथियारों की तैनाती को प्राथमिकता दी है। भारत ने स्वायत्त हथियारों पर अनुसंधान का समर्थन किया है।
सेना में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल जिन कुछ कार्यों के लिए किया जा सकता है, उनमें रसद और आपूर्ति प्रबंधन, डैटा विश्लेषण, खु़फिया जानकारियां जुटाने, सायबर ऑपरेशन और हथियारों की स्वायत्त प्रणाली सम्मिलित है। इनमें सबसे ज़्यादा विवादित हथियारों की स्वायत्त प्रणाली है।
क्याहैंस्वायत्तहथियार
इसके तहत वे हथियार आते हैं, जो अपने आप कार्य करने में सक्षम हैं; इन्हें मनुष्य की ज़रूरत नहीं पड़ती।
इंटरनेशनल कमेटी ऑफ दी रेड क्रॉस की परिभाषा के अनुसार स्वायत्त हथियार ऐसे हथियार हैं, जो मानवीय हस्तक्षेप के बिना लक्ष्य का चुनाव और इस्तेमाल करते हैं। वास्तव में स्वायत्त हथियार सेंसर और सॉफ्टवेयर से संचालित होते हैं। इनका इस्तेमाल उन इलाकों में किया जाता है, जहां बहुत कम आबादी होती है। दरअसल जानलेवा स्वायत्त हथियार अपने लक्ष्य की पहचान के लिए एल्गोरिदम का इस्तेमाल करते हैं।
हथियारों की यह प्रणाली ‘प्रक्षेपास्त्र प्रतिरक्षा प्रणाली’ से लेकर एक लघु ड्रोन के रूप में हो सकती है। इन हथियारों का लड़ाई के दौरान इस्तेमाल करने के कारण एक नया शब्द ईजाद किया गया है, जिसे ‘लीथल ऑटोनामस वेपन’ कहा जा रहा है। इन हथियारों का इस्तेमाल ज़मीन से लेकर अंतरिक्ष तक में किया जा सकता है, पानी पर अथवा पानी के नीचे भी किया जा सकता है। विशेषज्ञों का विचार है कि जानलेवा स्वायत्त हथियारों के सृजन में प्रौद्योगिकी की अहम भूमिका है। वस्तुत: प्रौद्योगिकी हथियारों को रफ्तार, बचाव और अन्य प्रकार की विशेषताओं से युक्त और कारगर बनाने में भूमिका निभाती है।
प्रौद्योगिकी के प्रसंग में कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी, बर्कले के कंप्यूटर अध्येता और कृत्रिम बुद्धि से सृजित हथियारों के विरोधी स्टुअर्ट रसेल का सोचना है कि किसी सिस्टम के लिए इंसान का पता लगाकर उसे मारने की प्रौद्योगिकी क्षमता का विकास सेल्फ ड्राइविंग कार विकसित करने से कहीं अधिक आसान है।
वास्तव में पूछा जाए तो ये हथियार अब विज्ञान कथाओं के काल्पनिक भवन से बाहर निकल कर वास्तविक रूप में लड़ाई के मैदान में नज़र आ रहे हैं। इनका धीरे-धीरे विस्तार हो रहा है।
जहां एक ओर कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों की ज़ोरदार वकालत की गई है, वहीं दूसरी ओर इन्हें भारी विरोध और तीखी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है। आलोचकों के अनुसार ये हथियार बहुत महंगे हैं। इनका रचनात्मकता से ज़रा भी सरोकार नहीं है। भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं है। जवाबदेही का सवाल ही नहीं उठता। एक अध्ययन में बताया गया है कि इन हथियारों के इस्तेमाल से बेरोज़गारी बढ़ेगी।
दूसरी ओर, ऐसे हथियारों की ज़ोरदार वकालत कर रहे लोगों का कहना है कि ये अत्यधिक उन्नत कार्यों को सम्पादित करने में पूरी तरह सक्षम हैं। युद्ध के दौरान मनुष्य से होने वाली त्रुटियों में कमी आएगी। ये त्वरित फैसला करने में सक्षम हैं। कुल मिलाकर, ये हथियार सटीक साबित हुए हैं और हर पल उपलब्ध हैं। इस प्रकार के हथियारों ने नए आविष्कारों और नवाचारों को भी जन्म देने में भूमिका निभाई है। पारम्परिक हथियारों की तुलना में इनसे कम नुकसान पहुंचता है, नागरिक कम हताहत होते हैं।
हाल के वर्षों में छिड़े युद्धों में कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों का इस्तेमाल किया गया है। इसका एक उदाहरण रूस और यूक्रेन के बीच लड़ाई है, जिसमें एआई ड्रोन का इस्तेमाल भी किया गया है। अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने ‘रेप्लिकेटर’ कार्यक्रम के तहत लघु हथियारयुक्त स्वायत्त वाहनों का बेड़ा तैयार किया है। इसके अलावा, प्रायोगिक पनडुब्बियां और जहाज़ बनाए हैं, जो स्वयं को चलाने के लिए कृत्रिम बुद्धि छवि का उपयोग कर सकते हैं। स्वायत्त हथियार एक मॉडल विमान के आकार का हो सकता है। इनका मूल्य लगभग पचास हज़ार डॉलर आंका गया है।
स्वायत्त हथियार प्रणालियों का समर्थन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला, सैन्य स्तर पर फायदे और दूसरा, नैतिक औचित्य। अमेरिकी सेना के एक अधिकारी का मानना है कि युद्ध क्षेत्रों से मनुष्यों को हटाकर रोबोट का इस्तेमाल करने के नैतिक फायदे हो सकते हैं।
जुलाई 2015 में कृत्रिम बुद्धि पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिभागी राष्ट्रों ने मानवीय नियंत्रण से परे स्वायत्त हथियारों पर रोक लगाने का आव्हान करते हुए एक खुला पत्र जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि कृत्रिम बुद्धि में मानवता को फायदा पहुंचाने की क्षमताएं हैं, लेकिन अगर कृत्रिम बुद्धि निर्देशित हथियारों की स्पर्धा शुरू हो जाती है तो एआई की प्रतिष्ठा धूमिल पड़ सकती है। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में टेस्ला कंपनी के संस्थापक एलन मस्क भी शामिल हैं। दरअसल स्वायत्त हथियार प्रणालियों के कुछ विरोध न केवल उत्पादन और तैनाती बल्कि इन पर रिसर्च, विकास और परीक्षण पर भी पाबंदी लगाना चाहते हैं।
रक्षा विज्ञान के दस्तावेज़ों में स्वायत्तता को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया गया है। रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति के अनुसार स्वायत्त हथियार ऐसे हथियार हैं, जो स्वतंत्र रूप से लक्ष्यों का चुनाव और आक्रमण करने में सक्षम हैं। हारवर्ड लॉ स्कूल की मानव अधिकार अधिवक्ता बोनी डॉचेर्टी ने स्वायत्तता को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है: ह्युमैन-इन-दी-लूप (निर्णय शृंखला में मानव शामिल); ह्युमैन-ऑन-दी-लूप (निर्णय शृंखला पर मानव) और तीसरा ह्युमैन-आउट-ऑफ-दी-लूप (मानव निर्णय शृंखला के बाहर) हैं। ‘निर्णय शृंखला में मानव शामिल’ श्रेणी में हथियारों की कार्रवाई इंसान द्वारा की जाती है, लेकिन लोगों को कहां और कैसे सम्मिलित किया जाना चाहिए, यह विचार मंथन का मुद्दा है। ‘निर्णय शृंखला पर मानव’ में एक मनुष्य किसी कार्रवाई को रद्द कर सकता है। ‘मानव निर्णय शृंखला के बाहर’ श्रेणी में कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं है। अनुसंधानकर्ताओं और सैन्य विज्ञान के जानकारों ने सैद्धांतिक तौर पर पहले प्रकार पर सहमति ज़ाहिर की है।
कृत्रिम बुद्धि से निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों के मामले में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि युद्ध के मैदान में इनके बेहतर प्रदर्शन का पता लगाना बेहद कठिन कार्य है क्योंकि किसी भी देश की सेना इस प्रकार की सूचनाओं का सार्वजनिक तौर पर खुलासा नहीं करती। सैन्य अधिकारी केवल इतना ही बताते हैं कि इस प्रकार के डैटा अथवा सूचनाओं का उपयोग स्वायत्त और गैर-स्वायत्त प्रणालियों के बेंचमार्क अध्ययन में किया जाता है।
परमाणु हथियारों के मामले में ‘साइट निरीक्षण’ और ‘न्यूक्लियर मटेरियल’ के ऑडिट के लिए एक अच्छी तरह से स्थापित निगरानी व्यवस्था है, लेकिन कृत्रिम बुद्धि जनित हथियारों के मामले में तथ्यों को छिपाना या बदलना बेहद आसान है।
सितंबर में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित सम्मेलन में ऐसे कुछ गंभीर मुद्दों पर विचार और निर्णय करने के लिए एक कार्य समूह गठित किए जाने के अच्छे आसार हैं। (स्रोत फीचर्स)
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एक हालिया उपलब्धि में कृत्रिम बुद्धि (एआई) द्वारा प्रबंधित स्वचालित प्रयोगशालाओं की एक टीम ने ऐसे पदार्थ की खोज करने में सफलता प्राप्त की है जो अत्यंत कार्य-कुशलता से लेज़र उत्पन्न करता है। साइंस जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस विशिष्ट उपलब्धि से लगता है कि एआई संचालित प्रयोगशालाएं अनुसंधान के कुछ क्षेत्रों में मानव वैज्ञानिकों को पछाड़ सकती हैं, खासकर वे ऐसी खोज कर सकती हैं जो मनुष्यों की नज़रों से चूक गई हों।
दरअसल, नए अणु और सामग्री बनाने के पारंपरिक तरीके अक्सर धीमे और श्रम-साध्य होते हैं। शोधकर्ताओं को कई विधियों से और अभिक्रिया की कई स्थितियों में प्रयोग करना पड़ता है, प्रत्येक चरण में नए यौगिकों के साथ वही परीक्षण दोहराना पड़ता है और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए उनकी क्षमता का मूल्यांकन करना होता है।
पिछले दशक से इनमें से कई तरह की अभिक्रियाओं को दोहराने का काम रोबोट्स ने संभाल लिया है। मसलन 2015 में, इलिनॉय युनिवर्सिटी के रसायनज्ञ मार्टिन बर्क द्वारा छोटे अणुओं के संश्लेषण के लिए एक स्वचालित प्रणाली शुरू की गई थी। इस प्रणाली में एआई को शामिल करने से फीडबैक लूप तैयार किया जा सका जिससे नई विशेषता वाले यौगिकों का डैटा भविष्य के संश्लेषण प्रयासों का मार्गदर्शन कर सकता है।
इस आधार पर, बर्क और टोरंटो विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ एलन असपुरु-गुज़िक ने समन्वित रूप से काम करने वाली स्व-चालित प्रयोगशालाओं के नेटवर्क की कल्पना की। उन्होंने कई प्रयोगशालाओं – दक्षिण कोरिया के इंस्टीट्यूट फॉर बेसिक साइंस, ग्लासगो विश्वविद्यालय, ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी (यूबीसी) और जापान की क्यूशू युनिवर्सिटी की प्रयोगशाला – को जोड़ा। प्रत्येक प्रयोगशाला की संश्लेषण की प्रक्रिया में अपनी विशेषज्ञता थी। लक्ष्य था अत्यधिक शुद्ध लेज़र प्रकाश उत्सर्जित करने में सक्षम कार्बनिक यौगिकों की खोज करना। इससे उन्नत किस्म के डिस्प्ले और दूरसंचार तंत्र स्थापित करने में मदद मिलेगी।
सबसे पहले ग्लासगो और यूबीसी प्रयोगशालाओं ने थोड़ी मात्रा में आधारभूत सामग्री का निर्माण किया। फिर इन्हें बर्क और असपुरु-गुज़िक की टीमों को भेजा गया, जहां रोबोट ने इन पदार्थों से विभिन्न संयोजन (मिश्रण) बनाए। इन संभावित उत्सर्जकों को टोरंटो प्रयोगशाला भेजा गया, जहां अन्य रोबोट ने उनके प्रकाश उत्सर्जक गुणों का मूल्यांकन किया। सबसे अच्छे प्रदर्शन करने वाले उत्सर्जकों को यूबीसी भेजा गया, जहां यह पता किया गया कि बड़े पैमाने पर उपयोग के लिए इन पदार्थों का संश्लेषण और शोधन कैसे किया जाएगा, और फिर इन्हें व्यावहारिक लेज़रों में परिवर्तित करने और उसके परीक्षण के लिए क्यूशू विश्वविद्यालय भेजा गया।
इस पूरी प्रक्रिया को क्लाउड-आधारित एआई प्लेटफॉर्म द्वारा संचालित किया गया था, जिसे मुख्य रूप से टोरंटो और दक्षिण कोरिया की टीमों द्वारा विकसित किया गया है। इस प्लेटफॉर्म ने प्रत्येक प्रयोग से सीखा और अगली पुनरावृत्तियों में फीडबैक को शामिल किया, जिससे एक कुशल और फुर्तीली शोध प्रक्रिया विकसित हुई।
इस सहयोगी प्रयास से 621 नए यौगिक तैयार हुए, जिनमें 21 ऐसे थे जो अत्याधुनिक लेज़र उत्सर्जकों से मेल खाते थे और एक तो ऐसा था जो किसी भी अन्य ज्ञात कार्बनिक पदार्थ की तुलना में अधिक कुशलता से नीले रंग की लेज़र रोशनी उत्सर्जित करता था।
गौरतलब है कि हाल ही में मिली सफलता एआई-संचालित प्रयोगशाला अनुसंधान में एकमात्र सफलता नहीं है। पिछले साल, मिलाद अबुलहसानी की प्रयोगशाला ने रिकॉर्ड-सेटिंग फोटोल्यूमिनेसेंस के साथ नैनोकणों का निर्माण किया था।
एआई के क्षेत्र में भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए बर्क को उम्मीद है कि स्वचालन और एआई में प्रगति वैश्विक स्तर पर अधिक प्रयोगशालाओं को सहयोग करने में सक्षम बनाएगी। इस तरह की साझेदारी वैज्ञानिकों को ढर्रा कार्यों से मुक्त करेगी, ताकि वे अनुसंधान के अधिक जटिल और रचनात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकें। (स्रोत फीचर्स)
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डैल-ई और चैटजीपीटी जैसे जनरेटिव एआई (नया निर्माण करने में सक्षम) नवाचारों को विकसित करने वाली कंपनी ओपनएआई ने हाल ही में अपना नया उत्पाद ‘सोरा’ जारी किया है। यह एक ऐसा एआई मॉडल है जो टेक्स्ट से वीडियो निर्माण करने के लिए तैयार किया गया है। कल्पना करें तो यह कुछ ऐसा है कि आप कोई संगीत वीडियो या विज्ञापन देख रहे हैं लेकिन इनमें से कुछ भी वास्तविक दुनिया में मौजूद नहीं है। यही कमाल सोरा ने कर दिखाया है।
इस अत्याधुनिक कृत्रिम बुद्धि साधन को इनपुट के तौर पर तस्वीरें या संक्षिप्त लिखित टेक्स्ट दिया जाता है और वह उसे एक मिनट तक लंबे वीडियो में बदल देता है। कल्पना कीजिए कि एक महिला रात में शहर की एक हलचल भरी सड़क पर आत्मविश्वास से चल रही है, और आसपास जगमगाती रोशनी और पैदल लोगों की भीड़ है। सोरा द्वारा तैयार किए वीडियो में उसकी पोशाक से लेकर सोने की बालियों की चमक तक, हर बारीक से बारीक विवरण सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है। कुछ नमूने देखने के लिए इन लिंक्स पर जाएं:
गौरतलब है कि ओपनएआई द्वारा 15 फरवरी को सोरा को जारी करने की घोषणा की गई है लेकिन फिलहाल इसे परीक्षण के लिए कुछ चुनिंदा कलाकार समूहों तथा ‘रेड-टीम’ हैकर्स के उपयोग तक ही सीमित रखा गया है। इस परीक्षण का उद्देश्य इस नवीन और शक्तिशाली तकनीक के सकारात्मक अनुप्रयोगों और संभावित दुरुपयोग दोनों का पता लगाना है।
सोरा की मदद से ऐसे वीडियो निर्मित करना बहुत आसान है। केवल एक साधारण निर्देश से यह ऐसे दृश्य उत्पन्न कर सकता है जिन्हें बनाने के लिए व्यापक संसाधनों और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। फिल्मों में कहानी सुनाने से लेकर विज्ञापनों में आभासी यथार्थ के अनुभवों में क्रांति लाने तक, सोरा से रचनात्मक संभावनाओं की पूरी दुनिया खुलती है।
लेकिन ओपनएआई को इस शक्तिशाली साधन को जारी करने के साथ बड़ी ज़िम्मेदारी भी निभानी है। हालांकि कंपनी सोरा की क्षमताओं के नैतिक निहितार्थों को ध्यान में रखते हुए सावधानी से आगे बढ़ रही है, फिर भी इस साधन के नैतिक और ज़िम्मेदार उपयोग पर चर्चा को बढ़ावा देना ज़रूरी है।
ऐसी दुनिया में जहां यथार्थ और सिमुलेशन के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है, सोरा मानवीय सरलता और कृत्रिम बुद्धि की असीमित क्षमता के प्रमाण के रूप में उभरा है। बहरहाल, हम जिस उत्सुकता से इसके सार्वजनिक रूप से जारी होने का इंतज़ार कर रहे हैं उससे एक बात तो निश्चित है कि वीडियो के ज़रिए कहानी सुनाने का भविष्य पहले जैसा नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)
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अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।
नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।
पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।
यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)
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आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से होने वाली आसानियों और मिलने वाली सहूलियतों से तो हम सब वाकिफ हैं। लेकिन इसे विकसित करने वाले वैज्ञानिक इससे जुड़े संकट और चिंताओं से भलीभांति अवगत हैं। एआई से जुड़ी ऐसी ही एक चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि विशाल भाषा मॉडल (LLM) नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को कायम रख सकते हैं।
वैसे तो वैज्ञानिकों की कोशिश है कि ऐसा न हो। इसके लिए उन्होंने इन मॉडल्स को ट्रेनिंग देने वाली टीम में विविधता लाने की कोशिश की है ताकि मॉडल को प्रशिक्षित करने वाले डैटा में विविधता हो, और पूर्वाग्रह-उन्मूलक एल्गोरिद्म बनाए हैं। सुरक्षा के लिए उन्होंने ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार की है जो चैटजीपीटी जैसे एआई मॉडल को हैट स्पीच जैसी गतिविधियों/वक्तव्यों में शामिल होने से रोकती है।
दरअसल यह चिंता तब सामने आई जब क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट क्रेग पीयर्स यह जानना चाह रहे थे कि चैटजीपीटी के मुक्त संस्करण (चैटजीपीटी 3.5) में अघोषित नस्लीय पूर्वाग्रह कितना साफ झलकता है। मकसद चैटजीपीटी 3.5 के पूर्वाग्रह उजागर करना नहीं था बल्कि यह देखना था कि इसे प्रशिक्षित करने वाली टीम पूर्वाग्रह से कितनी ग्रसित है? ये पूर्वाग्रह हमारी हमारी भाषा में झलकते हैं जो हमने विरासत में पाई है और अपना बना लिया है।
यह जानने के लिए उन्होंने चैटजीपीटी को चार शब्द देकर अपराध पर कहानी बनाने को कहा। अपराध कथा बनवाने के पीछे कारण यह था कि अपराध पर आधारित कहानी अन्य तरह की कहानियों की तुलना में नस्लीय पूर्वाग्रहों को अधिक आसानी से उजागर कर सकती है। अपराध पर कहानी बनाने के लिए चैटजीपीटी को दो बार कहा गया – पहली बार में शब्द थे ‘ब्लैक’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’ (छुरा), और ‘पुलिस’ और दूसरी बार शब्द थे ‘व्हाइट’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’, और ‘पुलिस’।
फिर, चैटजीपीटी द्वारा गढ़ी गई कहानियों को स्वयं चैटजीपीटी को ही भयावहता के 1-5 के पैमाने पर रेटिंग देने को कहा गया – कम खतरनाक हो तो 1 और बहुत ही खतरनाक कहानी हो तो 5। चैटजीपीटी ने ब्लैक शब्द वाली कहानी को 4 अंक दिए और व्हाइट शब्द वाली कहानी को 2। कहानी बनाने और रेटिंग देने की यह प्रक्रिया 6 बार दोहराई गई। पाया गया कि जिन कहानियों में ब्लैक शब्द था चैटजीपीटी ने उनको औसत रेटिंग 3.8 दी थी और कोई भी रेटिंग 3 से कम नहीं थी, जबकि जिन कहानियों में व्हाइट शब्द था उनकी औसत रेटिंग 2.6 थी और किसी भी कहानी को 3 से अधिक रेटिंग नहीं मिली थी।
फिर जब चैटजीपीटी की इस रचना को किसी फलाने की रचना बताकर यह सवाल पूछा कि क्या इसमें पक्षपाती या पूर्वाग्रह युक्त व्यवहार दिखता है? तो उसने इसका जवाब हां में देते हुए बताया कि हां यह व्यवहार पूर्वाग्रह युक्त हो सकता है। लेकिन जब उसे कहा गया कि तुम्हारी कहानी बनाने और इस तरह की रेटिंग्स देने को भी क्या पक्षपाती और पूर्वाग्रह युक्त माना जाए, तो उसने इन्कार करते हुए कहा कि मॉडल के अपने कोई विश्वास नहीं होते हैं, जिस तरह के डैटा से उसे प्रशिक्षित किया गया है यहां वही झलक रहा है। यदि आपको कहानियां पूर्वाग्रह ग्रसित लगी हैं तो प्रशिक्षण डैटा ही वैसा था। मेरे आउटपुट (यानी प्रस्तुत कहानी) में पूर्वाग्रह घटाने के लिए प्रशिक्षण डैटा में सुधार करने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी मॉडल विकसित करने वालों की होनी चाहिए कि डैटा में विविधता हो, सभी का सही प्रतिनिधित्व हो, और डैटा यथासम्भव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/13BDED0B-EF1B-44F1-97CF1C152C4BA7AB_source.jpg?w=900
हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए ‘crib (पालना)’ और ‘ball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।
शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढ़ने, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।
फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर सम्बंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से सम्बंधित हैं।
फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोड़ियों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।
मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीज़ों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीज़ों को दर्शा सकता है।
हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।
इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें छूने-पकड़ने, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-00288-1/d41586-024-00288-1_26685816.jpg?as=webp