लगभग एक सदी पहले अमेरिकी जीव विज्ञानी हर्बर्ट स्पेंसर
जेनिंग्स ने तुरही के आकार के एक-कोशिकीय जीव स्टेंटर रोसेली पर एक प्रयोग किया
था। इस प्रयोग में जेनिंग्स ने इस जीव के आसपास तकलीफदेह कार्मीन पाउडर डाला था। बिहेवियर
ऑफ दी लोअर ऑर्गेनिज़्म्स नामक लेख में जेनिंग्स ने बताया था कि पावडर से बचने
के लिए यह जीव पहले तो पाउडर के चारों ओर अपने शरीर को मोड़ने की कोशिश करेगा। यदि
इससे काम न चले तो वह अपने सिलिया (सतह पर उपस्थित रोम) को उल्टा चलाकर पावडर के
कणों को दूर करने की कोशिश करेगा। यदि फिर भी नाकाम रहता है तो वह खुद को सिकोड़
लेगा और यदि ये सारे तरीके काम नहीं करते, तो वह
वहां से रुखसत हो जाएगा।
बाद में इन निष्कर्षों को दोहराया नहीं जा सका और इन्हें खारिज कर दिया गया।
लेकिन हाल ही में हार्वर्ड युनिवर्सिटी के शोधकर्ता जेरेमी गुणवर्दना और उनकी टीम
ने इसे फिर से दोहराने का निर्णय लिया। शोधकर्ताओं ने स्टेंटर रोसेली के व्यवहार
को सूक्ष्मदर्शी की मदद से देखकर रिकॉर्ड किया।
उन्होंने सबसे पहले जंतु के आसपास कार्मीन पावडर डाला, लेकिन
जंतु पर कोई असर नहीं हुआ। शोधकर्ता बताते हैं कि प्राकृतिक उत्पाद होने के चलते
कार्मीन की संरचना जेनिंग्स के समय से काफी बदल चुकी है। लिहाज़ा उन्होंने कार्मीन
की बजाय सूक्ष्म प्लास्टिक मोतियों का उपयोग किया। जैसा कि अनुमान था, स्टेंटर रोसेली ने प्लास्टिक मोतियों से बचने के लिए ठीक वैसा ही व्यवहार किया
जैसा कि जेनिंग्स ने बताया था। सारे जंतुओं के व्यवहार किसी विशेष क्रम में तो
नहीं थे लेकिन सांख्यिकीय विश्लेषण करने पर पता चला कि औसतन उनके निर्णय लेने की
प्रक्रिया एक समान है। इस एक-कोशिकीय जीव ने तैरकर भाग निकलने से पहले खुद को
मोड़ने,
सिलिया की गति की दिशा को बदलकर कणों को हटाने और सिकुड़ने
की क्रियाओं को चुना।
शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि यदि जीव खुद को सतह से अलग करने या सिकोड़ने के
चरण तक पहुंचता है तब इनमें से किसी एक को चुनने की संभावना बराबर होती है। इस
अध्ययन से पता चला कि स्टेंटर रोसेली के पास कोई मस्तिष्क तो नहीं है लेकिन फिर भी
पहले वे आसान उपाय करते हैं, उसके
बाद भी यदि आप उन्हें छेड़ते रहें तो वे कुछ और करने का निर्णय लेते हैं। यानी कोई
व्यवस्था है जिसकी बदौलत उकसावा देर तक जारी रहने पर वे ‘मन बदल लेते हैं’।
ये निष्कर्ष कैंसर अनुसंधान में काफी सहायक हो सकते हैं। साथ ही अपनी कोशिकाओं को लेकर हमारी समझ में भी बदलाव ला सकते हैं। कोशिकाएं एक जटिल पारिस्थितिक तंत्र में जीती हैं और वे मात्र अपने जीन्स द्वारा निर्धारित ढंग से काम नहीं करतीं। गुणवर्दना के अनुसार एक-कोशिकीय जीव, जो एक समय में इस धरती पर राज करते थे, हमारी सोच से भी कहीं अधिक जटिल हो सकते हैं। यह निष्कर्ष 5 दिसंबर की करंट बायोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://cdn.mos.cms.futurecdn.net/gb5cGi9DQDujRzqKim2Fi4-320-80.gif
मानव बसाहट से दूर होने के बावजूद अंटार्कटिका की
पारिस्थितिकी और जीवन मानव गतिविधियों से प्रभावित रहा है। जैसे व्हेल और सील के
अंधाधुंध शिकार के चलते वे लगभग विलुप्त हो गर्इं थीं। व्हेल और सील की संख्या में
कमी आने की वजह से क्रिल नामक एक क्रस्टेशियन जंतु की संख्या काफी बढ़ गई थी, जो उनका भोजन है। और अब, मानव गतिविधियों चलते तेज़ी से
हो रहा जलवायु परिवर्तन सीधे-सीधे अंटार्कटिका के जीवन को प्रभावित कर रहा है। इस
संदर्भ में प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित
अध्ययन कहता है कि जलवायु परिवर्तन से पेंगुइन की दो प्रजातियां विपरीत तरह से
प्रभावित हुई हैं: पेंगुइन की एक प्रजाति की संख्या में काफी वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है।
दरअसल,
लुइसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के माइकल पोलिटो और उनके साथी
अपने अध्ययन में यह देखना चाहते थे कि पिछली एक सदी में अंटार्कटिका की
पारिस्थितिकी में हुए मानव हस्तक्षेप के कारण पेंगुइन के मुख्य भोजन, अंटार्कटिका क्रिल, की संख्या किस तरह प्रभावित हुई है। चूंकि
मानवों ने कभी पेंगुइन का व्यावसायिक स्तर पर आखेट नहीं किया और क्रिल पेंगुइन का
मुख्य भोजन हैं इसलिए उन्होंने पेंगुइन के आहार में बदलाव से क्रिल की आबादी का
हिसाब लगाने का सोचा। और, चूंकि अंटार्कटिका में पिछले
50 सालों में गेन्टू पेंगुइन (पाएगोसेलिस पेपुआ) की आबादी में लगभग 6 गुना
वृद्धि दिखी है और चिनस्ट्रेप पेंगुइन (पाएगोसेलिस अंटार्कटिका) की आबादी
में काफी कमी दिखी है इसलिए अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने इन दोनों प्रजातियों को
चुना। पिछली एक सदी के दौरान इन पेंगुइन का आहार कैसा था यह जानने के लिए
अध्ययनकर्ताओं ने म्यूज़ियम में रखे पेंगुइन के पंखों में अमीनो अम्लों में
नाइट्रोजन के स्थिर समस्थानिकों की मात्रा पता लगाई।
उन्होंने पाया कि शुरुआत में, 1900 के दशक में, जब क्रिल प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तो दोनों ही प्रजाति का मुख्य आहार क्रिल थे। लेकिन लगभग पिछले 50 सालों में, तेज़ी से बदलती जलवायु के चलते समुद्र जल के बढ़ते तापमान और बर्फ-आच्छादन में कमी से क्रिल की संख्या में काफी कमी हुई। तब गेन्टू पेंगुइन ने अपना आहार सिर्फ क्रिल तक सीमित ना रखकर मछली और श्रिम्प को भी आहार में शामिल कर लिया। लिहाज़ा वे फलती-फूलती रहीं। दूसरी ओर, चिनस्ट्रेप पेंगुइन ने अपने आहार में कोई परिवर्तन नहीं किया और विलुप्ति की कगार पर पहुंच गर्इं। शोधकर्ताओं का कहना है कि पेंगुइन का यह व्यवहार दर्शाता है कि विशिष्ट आहार पर निर्भर प्रजातियां जैसे चिनस्ट्रेप पेंगुइन पर्यावरणीय बदलाव के प्रभाव की चपेट में अधिक हैं और अतीत में हुए आखेट और हालिया जलवायु परिवर्तन ने अंटार्कटिक समुद्री खाद्य शृंखला को प्रभावित किया है। पिछले कुछ सालों में व्हेल और सील की आबादी में सुधार देखा गया है और यह देखना रोचक होगा कि इसका पेंगुइन की उक्त दो प्रजातियों पर कैसा असर होता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcRRwSJ0lSkYHgiyvM8u2JT-MbqHdfaPCZMQcGQvONirdocD_Dd9
सिंथेटिक जीव विज्ञानियों ने हाल ही में जेनेटिक इंजीनियरिंग
की मदद से एक ऐसा जीवाणु तैयार किया है जो पेड़-पौधों की तरह हवा से कार्बन
डाईऑक्साइड लेकर अपनी कोशिकाओं का निर्माण करता है। इसके आधार ऐसे सूक्ष्मजीव
तैयार किए जा सकते हैं जो कार्बन डाईऑक्साइड का उपयोग करके दवाइयों और अन्य उपयोगी
यौगिकों का निर्माण कर सकेंगे। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार सभी जीवों को दो
श्रेणियों में बांटा जा सकता है: स्वपोषी, जो
प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए अपनी कोशिकाओं का निर्माण करते हैं और परपोषी, जो बाहर से मिलने वाले भोजन के भरोसे रहते हैं।
सिंथेटिक जीव विज्ञानी लंबे समय से ऐसे पौधे और स्वपोषी बैक्टीरिया बनाने की
कोशिश कर रहे हैं जो पानी और कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से मूल्यवान रसायन और
र्इंधन का उत्पादन सकें। अन्य तरीकों की अपेक्षा यह तरीका सस्ता है। अभी तक हमारी
आंत में पाए जाने वाले परपोषी बैक्टीरिया ई.कोली को ही एथेनॉल और अन्य
वांछित उत्पाद बनाने के लिए तैयार किया जा सका है। लेकिन इन्हें शर्करा की खुराक
चाहिए।
इस्राइल स्थित वाइज़मैन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस के सिंथेटिक जीव विज्ञानी रॉन
मिलो और उनके सहयोगियों ने ई. कोली को स्वपोषी में बदलने के लिए इस
बैक्टीरिया के चयापचय के दो हिस्सों को फिर से तैयार किया: उसकी ऊर्जा प्राप्त
करने की विधि और उसका कार्बन का स्रोत।
शोधकर्ता सूक्ष्मजीव को प्रकाश संश्लेषण की क्षमता तो प्रदान नहीं कर पाए
लेकिन वे एक ऐसे एंज़ाइम का जीन डालने में कामयाब रहे जिससे बैक्टीरिया सबसे सरल
कार्बन यौगिक फॉर्मेट को पचाने में सक्षम हो गया। यह सूक्ष्मजीव इसके बाद फॉर्मेट
को ATP में बदल देता है जो कोशिकाओं के लिए ऊर्जा का काम करता है। ऊर्जा के इस स्रोत
के साथ सूक्ष्मजीव में तीन नए एंज़ाइम जोड़े जा सके जो कार्बन डाईऑक्साइड को शर्करा
और अन्य कार्बनिक अणुओं का उत्पादन करने में समर्थ बनाते हैं। शोधकर्ताओं ने
चयापचय में भूमिका निभाने वाले कई अन्य एंजाइम को नष्ट कर दिया ताकि बैक्टीरिया इस
नए तरीके पर ही निर्भर हो जाए।
हालांकि,
ये परिवर्तन शुरू में कारगर नहीं रहे क्योंकि शायद
बैक्टीरिया पोषक पदार्थों को अपने पुराने ढंग से इस्तेमाल कर रहा था। इसके लिए
शोधकर्ताओं ने परिवर्तित ई.कोली को नियंत्रित आहार पर रखा जिसमें ज़ायलोज़
नामक शर्करा के साथ फॉर्मेट और कार्बन डाईऑक्साइड थे। इससे सूक्ष्मजीवों को कम से
कम जीवित रहने और प्रजनन करने की गुंजाइश मिली।
इससे विकास की प्रक्रिया शुरू हुई। जो बैक्टीरिया कम ज़ायलोज़ में जीवित रह पाते, वे ज़्यादा विभाजन करते। शोधकर्ताओं ने ज़ायलोज़ की मात्रा में लगातार कमी की।
300 दिन और सैकड़ों पीढ़ियों के बाद ज़ायलोज़ को बिलकुल ही खत्म कर दिया गया। केवल वही
बैक्टीरिया बच गए जो स्वपोषी में तबदील हुए थे। सेल में प्रकाशित रिपोर्ट
के अनुसार इन बैक्टीरिया ने 11 नए आनुवांशिक परिवर्तन हासिल किए जिन्होंने उन्हें
स्वपोषी जीवन अपनाने में समर्थ बनाया। इससे पता चलता है कि जैव विकास कितना कारगर
हो सकता है।
पूर्व में वैज्ञानिकों ने ई.कोली को दवा वगैरह विभिन्न उपयोगी पदार्थ का उत्पादन करने में सक्षम बनाया है। यदि यही काम स्वपोषी ई.कोली से करवाया जा सके तो वे हवा और सौर उर्जा से निर्मित फॉर्मेट से एथेनॉल, दवाइयां, र्इंधन वगैरह बनाने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcS8wNfsMIPPV_LOJJNQqVgo4hjkXYyC_ljhucwBhaTK2TRc0nl3
हम मनुष्यों ने अपने शरीर
की जैविक विशेषताओं और उनकी कार्य-प्रणाली को समझने के लिए कई जंतुओं को मॉडल के
तौर पर उपयोग किया है। जैसे फल मक्खी (ड्रॉसोफिला) का अध्ययन कई जीन्स की पहचान
करने और यह जानने के लिए किया गया है कि उनमें होने वाले उत्परिवर्तनों के शारीरिक
और जैव-रासायनिक प्रभाव क्या होते हैं। सेनोरेब्डाइटिस एलेगेन्स नामक एक पारदर्शी
कृमि के कई जीन मनुष्यों के जीन की तरह कार्य करते हैं। चूहा, मूषक और खरगोश इनसे थोड़े उच्च स्तर के जानवर
हैं, जिन पर अध्ययन करके शरीर
की कार्य-प्रणाली को और बेहतर समझने मदद मिलती है। प्रयोगशाला में इन जानवरों को
पालना भी आसान होता है। इसके अलावा एक फायदा यह होता है कि इनका जीवनकाल छोटा होता
है जिसके चलते जन्म से लेकर युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु तक प्रत्येक चरण का अवलोकन छोटी-सी अवधि में किया जा
सकता है।
लेकिन जब मस्तिष्क या
तंत्रिका सम्बंधी कुछ कार्यों के बारे में जानने की बात आती है तब उपरोक्त मॉडल
जंतु उतने बेहतर साबित नहीं होते। जैसे – हम कैसे बोलते हैं, गाते हैं या अन्य भाषाओं और शब्दों को बोलते और
उनकी नकल करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों ने इन बातों को समझने के लिए हमारे करीबी
चिम्पैंज़ी पर अध्ययन किए लेकिन ज़्यादा सफलता नहीं मिली। इसी तरह के एक अध्ययन में
दो मनोवैज्ञानिकों सी. हेस और के. हेस ने एक मादा शिशु चिम्पैंज़ी (विकी) को गोद
लिया और अपने बच्चे की तरह पाला और उसे इंसानी भाषा बोलना सिखाने की कोशिश की।
लेकिन अफसोस कि विकी ‘मम्मा’, ‘पापा’, ‘अप’ और ‘कप’ बोलने की कोशिश करने के अलावा और
कुछ नहीं बोल पाई। इस कोशिश के दौरान धीरे-धीरे जबड़ों और होंठों को आकार देकर
बोलने की लाख कोशिश के बाद भी विकी इन शब्दों के अलावा और कुछ नहीं बोल पाई। इससे
लगता है कि विकी अपने तंत्रिका तंत्र और शारीरिक संरचना के दम पर सिर्फ
चिम्पैंज़ियों की ही आवाज़ निकाल सकती है, मनुष्य के बोलने की नकल नहीं कर सकती।
इसी तरह, एक अन्य वैज्ञानिक द्वय, गार्डनर दंपत्ति ने वाशो नामक चिम्पैंज़ी को अपने घर पर
पाला। वाशो का प्रदर्शन विकी से इस मायने में थोड़ा बेहतर रहा कि वह एक विदेशी भाषा
सीख सकी। यह विदेशी भाषा बोली जाने वाली भाषा नहीं बल्कि एक सांकेतिक भाषा थी –
अमेरिकन साइन लैंग्वेज (ASL)। वाशो ने अधिकतम 250 ASL संकेत सीखे और इसी सांकेतिक भाषा में कुछ सवालों के
जवाब भी दिए। इससे लगता है कि चिम्पैंज़ियों में बोलने सम्बंधी आवश्यक
शारीरिक-संरचनात्मक ‘हार्डवेयर’ तो अनुपस्थित है लेकिन भाषा सीखने सम्बंधी
‘सॉफ्टवेयर’ कुछ हद तक मौजूद है। और हम मनुष्यों में इसके लिए उपयुक्त ‘हार्डवेयर’
और ‘सॉफ्टवेयर’ दोनों हैं।
जंतु मॉडल
लिहाज़ा, जंतुओं पर अध्ययन करके मनुष्य कैसे बोलते हैं,
गाते हैं, विदेशी भाषा का उच्चारण करते और सीखते हैं, और इसी तरह की अन्य दिमागी गतिविधियों की
कार्यप्रणाली को समझने के लिए हमें जैव विकास में और पीछे जाना होगा। हमें यह
देखना होगा कि कौन-से अन्य जंतु इसी तरह की गतिविधियां करते हैं, उनके मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन गतिविधियों
के लिए ज़िम्मेदार है, और मानव मस्तिष्क
में इन समानताओं को पहचानना होगा। और इसके लिए सबसे बेहतर मॉडल जंतु हैं तोता,
मैना, फिंच, हमिंगबर्ड जैसे गायक
पक्षी (सॉन्गबर्ड)। हममें से कई लोग तोता पालते हैं और देखते हैं कि तोते ना सिर्फ
स्वयं अपनी भाषा में शब्दों का उच्चारण करते, पुकारते या अपनी प्रजाति के गीत गाते हैं बल्कि वे हमारी
भाषा के शब्दों और ध्वनियों की नकल करते हैं, दोहराते हैं और बात करने की भी कोशिश करते हैं। इससे लगता
है कि पक्षियों के मस्तिष्क में एक ऐसा हिस्सा है जो उनमें ना सिर्फ उनकी अपनी
प्रजातिगत भाषा (जो उन्हें अपने माता-पिता से वंशानुगत ढंग से मिलती है)
बोलने-गाने की क्षमता विकसित करने के लिए ज़िम्मेदार है बल्कि अन्य भाषाओं की नकल
करना सीखने के लिए भी ज़िम्मेदार है। इनसे हमें कुछ समझ और समांतर उदाहरण मिले हैं
जो हमारे बोलने, गाना सीखने की
क्षमता वगैरह पर प्रकाश डालते हैं।
इस संदर्भ में अमेरिकन
साइंटिस्ट (1970:58:669-673) में प्रकाशित
पीटर मार्लर का लेख पठनीय है (यह नेट पर उपलब्ध है)। बिल्ली हो या चिम्पैंज़ी,
सभी जानवर अपनी प्रजाति की भाषा (जैसे
घुरघुराना, इशारे) सीखने और सम्बंधित
ध्वनियां उत्पन्न करने की निहित क्षमता रखते हैं, लेकिन सॉन्गबर्ड और मनुष्य अन्य भाषाएं बोलने और सीखने की
क्षमता रखते हैं। सॉन्गबड्र्स लगभग पच्चीस करोड़ साल पहले अस्तित्व में आए थे जबकि
मनुष्यों का पदार्पण 20-30 लाख साल पूर्व
हुआ था।
अन्य जानवरों की तरह,
सॉन्गबर्ड भी अपनी भाषा प्रजाति के बड़े सदस्यों
द्वारा उत्पन्न आवाज़ों की नकल करके सीखते हैं। इसके लिए वे अपनी आवाज़ को इस तरह
परिवर्तित करते जाते हैं कि उनकी आवाज़ उन आवाज़ों से मेल खाए जो उन्होंने याद की
हैं। नवजात सॉन्गबर्ड बड़बड़ाने जैसी आवाज़ें निकालते हैं, जो कुछ हफ्तों के बाद उनकी अपनी प्रजाति की भाषा में तब्दील
हो जाती है। दूसरे शब्दों में, ये पक्षी-उपगीत
आगे चलकर मुकम्मल पक्षी-गीत बन जाते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह मनुष्य का नवजात
शिशु शुरुआत में कई तरह की आवाज़ें निकालता रहता है, जो आगे चलकर घर में बोली जाने वाली उसकी अपनी भाषा का रूप
ले लेती हैं।
2005 में प्लॉस बायोलॉजी
में एफ. नोटलबोम द्वारा प्रकाशित समीक्षा बताती है कि इसके पीछे मस्तिष्क के
अलग-अलग स्पष्ट हिस्सों, जिन्हें नाभिक
कहते हैं, का एक समूह होता है और
उनको जोड़ने वाले तंत्रिका मार्ग होते हैं। इस पूरी व्यवस्था को गीत-तंत्र या
गीत-नाभिक कहते हैं। हमिंगबर्ड (या तोते जैसे अन्य सॉन्गबर्ड) के मस्तिष्क में 7 अलग-अलग संरचनाएं होती हैं जो गाने के दौरान
सक्रिय होती हैं। इससे पता चलता है कि ये संरचनाएं भौतिक व कार्यात्मक वाणी-नाभिक
हैं। भाषा सीखने में सक्षम पक्षियों में उनके मस्तिष्क का अग्रभाग दो उप-पथों में
बंटा हुआ लगता है: पहला, सीखी हुई आवाज़ें
पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार क्रियाकारी हिस्सा और दूसरा एक लूप जो इन गीतों या
आवाज़ों में परिवर्तन की गुंजाइश पैदा करता है। हमारे मस्तिष्क के अग्रभाग की
संरचना भी इसी तरह की होती है।
इसी कड़ी में जापानी शोधकर्ता होंगदी वांग और उनके साथियों का एक दिलचस्प शोध पत्र प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने दो फिंच पक्षी, ज़ेब्राा फिंच (z) और ऑउल फिंच (o), के गीतों के पैटर्न और उनके गीत-नाभिक में अभिव्यक्त होने वाले जीन्स का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि दोनों प्रजातियों (z और o) के जीन के व्यवहार में लगभग 10 प्रतिशत अंतर था, जो उनके भिन्न प्रजाति गीत के लिए ज़िम्मेदार था। इसके बाद उन्होंने दोनों प्रजातियों के बीच प्रजनन करवा कर दो संकर प्रजातियां, zo और oz, विकसित कीं और उनके द्वारा गाए जाने वाले गीतों को रिकार्ड किया। उन्होंने पाया कि zo ने अपने माता-पिता दोनों की प्रजाति, ज़ेब्रा और आउल, के गीत गाए। इसी तरह oz ने भी दोनों प्रजातियों के गीत गाए। ऐसी अन्य प्रजातियों के बीच प्रजनन करवाकर इस बारे में बेहतर समझ बनाने में मदद मिल सकती है। लेकिन, मनुष्यों के साथ इस तरह के अध्ययन नहीं किए जा सकते। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/yqhr3y/article30062679.ece/alternates/FREE_660/24TH-SCIPARAKEET
नोबेल पुरस्कारों की
घोषणा के बाद हर बार की तरह इस बार के इगनोबेल पुरस्कार की भी घोषणा की गई। 1991 से हर वर्ष इगनोबेल पुरस्कार भी उन
वैज्ञानिकों को दिए जाते हैं जिनकी खोज पहले तो सबको हंसाती है और फिर गंभीर चिंतन
करने पर विवश करती है। इस वर्ष तस्मानिया में कार्यरत ऑस्ट्रेलिया के शोधार्थी को
इस खोज के लिए पुरस्कृत किया गया कि वॉम्बेट नामक जंतु की विष्ठा घनाकार (क्यूब)
क्यों होती है। पुरस्कार प्राप्त करने वाली पैट्रेशिया यंग और 5 साथियों को यह पुरस्कार भौतिकी में प्राप्त
हुआ।
विश्व के अनेक वैज्ञानिक
जंतुओं की विष्ठा पर शोध करके आंकड़े बटोरते हैं। उदाहरण के लिए कई बार वैज्ञानिकों
को डायनासौर्स की विष्ठा (कोप्रेलाइट) के 6 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म प्राप्त होते हैं। विष्ठा का बारीकी से अध्ययन करके
यह बताया जा सकता है कि वे मांसाहारी थे या शाकाहारी या सर्वाहारी थे और भोजन में
क्या खाते थे – फल-फूल खाते थे, घास खाते थे या छाल
खाते थे।
हाल ही में विष्ठा पर शोध
के लिए ‘इन विट्रो’ एवं ‘इन विवो’ की तर्ज़ पर एक नया शब्द गढ़ा गया है: ‘इन-फिमो’।
जब शोध टेस्ट ट्यूब, बीकर या पेट्री
डिश जैसे कांच के बर्तन में होता है तो उसे ‘इन विट्रो’ कहते हैं और जब प्रयोग
जीवित प्राणी में होता है तो ‘इन विवो’। ‘फिमो’ शब्द लेटिन भाषा के शब्द ‘फिमस’ से
लिया गया है जिसका मतलब ‘गोबर’ है।
विष्ठा की बातें करना
अधिकांश लोगों को बेकार लग सकता है। कुछ एक बीमारी के प्रकरणों में तो डॉक्टर ने
भी आपसे मल के नमूने एकत्रित कर प्रयोगशाला में टेस्ट करने भेजे ही होंगे। इसलिए
कुछ वैज्ञानिकों के लिए विष्ठा या मल से प्राप्त आंकड़े सोने की खदान हो सकते हैं।
पैट्रेशिया यंग अटलांटिक
जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में जानवरों में तरल पदार्थ यांत्रिकी का
अध्ययन करती हैं। वे उन वैज्ञानिकों में से नहीं है जो झक सफेद एप्रन पहनकर
साफ-सुथरी प्रयोगशाला में काम करते हैं। वे चिड़ियाघर पहुंचकर वॉम्बेट को घनाकार
विष्ठा करते देखना चाहती थीं और वे देखते ही तुरंत ही समझ गई कि इस प्राणी की आंत
में तरल यांत्रिकी की कोई परेशानी है जिसे वह अध्ययन कर बता सकती हैं।
यंग ने इससे पहले शरीर के
अनेक तरल पदार्थों जैसे लिम्फ, रक्त, मूत्र और विष्ठा पर अध्ययन किया है। पर वॉम्बेट
की विष्ठा के घनाकार आकार से वे आश्चर्य चकित थी। विष्ठा दो मुख्य आकृतियों में
त्यागी जाती है। पहले समूह में वे जंतु आते हैं जिनमें बेलनाकार विष्ठा त्यागी
जाती है। इस समूह में मानव, कुत्ते एवं
बिल्ली परिवार हैं। एक दूसरा समूह हिरण, बकरी तथा खरगोश का है जिनमें विष्ठा गोल आकार (मिंगनी) की होती हैं। वॉम्बेट
में हमें तीसरा आकार – घन – देखने को मिलता है।
कौन है वॉम्बेट?
ये ऑस्ट्रेलिया के चार
पैर वाले नाटे कद के तगड़े भालू जैसे दिखने वाले मार्सुपियल्स हैं (जिनके बच्चे
पैदा होने के बाद कुछ अवधि के लिए पेट पर स्थिति एक थैली में विकसित होते हैं)।
सिर के अगले सिरे से लेकर पूंछ तक की लंबाई 1 मीटर के करीब होती है। कुतरने वाले जंतुओं जैसे सामने के
बड़े दांत और शक्तिशाली पंजों से ये जमीन में बहुत फैली हुई सुरंग जैसा बिल बनाते
हैं। निशाचर होने के कारण ये जंगलों में अक्सर दिखते तो नहीं है परंतु इनकी विष्ठा
को पहचानकर इनकी मौजूदगी का आभास हो जाता है। ये शाकाहारी जंतु हैं और पत्तियां,
घास, जड़ें तथा छाल खाते हैं। इनके जबड़ों में केनाइन दांत अनुपस्थित रहते हैं तथा ये
अन्य घास खाने वाले जंतुओं की तरह जुगाली भी करते हैं।
मादा वॉम्बेट प्रजनन काल
में केवल एक बच्चे को जन्म देती है। मात्र 21 दिनों तक बच्चादानी में पलकर बच्चे अविकसित अवस्था में ही
शरीर से बाहर निकल आते हैं पर मादा उन्हें बाकी के सात महीने पेट से लगी थैली में
रखकर पालती है। वहीं ये वॉम्बेट मां का दूध चाटकर बड़े होते हैं।
विचित्र विष्ठा
विष्ठा पर शोध करने वाली
यंग को तुरंत समझ आ गया कि शरीर की बनावट एवं कार्यिकी के आधार पर घनाकार विष्ठा
सही नहीं है और अत्यंत दुर्लभ मामला है। समुद्री घोड़ा (सी हार्स नामक मछली) की दुम
के अलावा जंतुओं में वर्गाकार या घनाकार संरचना देखने को ही नहीं मिलती है। सूर्य,
पृथ्वी, चंद्रमा और अन्य ग्रह भी गोलाकार ही हैं। आखिरकार पहेली को
सुलझाने के लिए दुर्घटना में मरे दो वॉम्बेट की आंत निकालकर यंग के पास भेजी गईं।
वॉम्बेट की आंत सभी शाकाहारी जानवरों के समान ही लंबी थी। 19 फीट लंबी आंत का अंतिम 5 फीट का आकार असामान्य रूप से बेलनाकार ना होकर घनाभ था।
अमाशय से लुगदी के समान भोजन जब आंत में आता था तो लसलसा व नरम गूंथे हुए आटे के
समान होता है और अंतिम 5 फीट में पहुंचने
से पूर्व भी वह नरम एवं बेलनाकार ही होता है। परंतु अन्तिम पांच फीट में आंत इस
विष्ठा को 2न्2 सेंटीमीटर के घन में बदल देती है।
सवाल था कि आंत कैसे इन
घनों को कम घर्षण करते हुए शरीर से त्यागती है और अगर विष्ठा को निकालने वाला बल
एक समान रूप से न लगे तो क्या होगा? प्रश्नों के उत्तर के लिए वैज्ञानिकों ने एक जुगत लगाई। उन्होंने वॉम्बेट के
आंत के आकार जैसा एक गुब्बारा लिया और आंत के अन्दर फिट कर दिया। आंत के घन बनाने
वाले हिस्सों पर निशान बनाए गए। हवा भरने पर गुब्बारे ने वही आकार लिया जो आंत की
दीवारों का था। अब यह देखा गया कि विष्ठा आगे बढ़ने के दौरान पूरी आंत एक जैसी है
या नहीं। वैज्ञानिकों ने पाया कि आंत के अंतिम 5 फीट की लंबाई में सारे ऊतक एक जैसे नहीं है। आंत में कुछ
हिस्सा नरम है तो कुछ कठोर है और खिंचता नहीं है। जब आंत विष्ठा को मल द्वार की ओर
भेजने के लिए सिकुड़ती है तो पूरी लंबाई में समान रूप से कार्य नहीं कर पाती है।
आंत के कुछ भाग में विष्ठा को आगे बढ़ा दिया जाता है और कुछ में नहीं। इससे किनारों
वाले टुकड़े घनाकार बनते हैं।
क्यों वॉम्बेट घनाकार विष्ठा बनाते हैं? इसका सबसे प्रचलित कारण यह माना जाता है कि इससे वे अपने अधिकार क्षेत्र (इलाके) की निशानदेही कर सकते हैं। घनाकार विष्ठा लुढ़केगी भी नहीं और लंबे समय तक गंध के ज़रिए अधिकार क्षेत्र का विज्ञापन भी करती रहेगी। किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। यद्यपि विष्ठा की गंध अधिकार क्षेत्र को जताती है पर जहां-जहां वॉम्बेट अपना जीवन व्यतीत करते हैं वह सूखा क्षेत्र होता है। आंत का आखरी भाग हमेशा भोजन से पानी की हर बूंद को सोखकर शरीर में पानी की कमी को पूरा करने की कोशिश करता है। चिड़ियाघर में जहां इन्हें भरपूर पानी मिलता है घनाकार विष्ठा के किनारे अक्सर गोलाकार होने लगते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://pbs.twimg.com/media/CwU80iFUkAAVsAG?format=jpg&name=900×900 https://www.environment.nsw.gov.au/-/media/OEH/Corporate-Site/Topics/Animals-and-plants/Native-animals/bare-nosed-wombat-vombatus-ursinus-156737.jpg?h=585&w=810&hash=BE47564E15EB45745C268188BA296A5BAF082A55
अब तक हुए कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हम
मनुष्य आम तौर पर उच्च तारत्व (या आवृत्ति) वाली ध्वनियों यानी तीखी आवाज़ों, जैसे
सीटी की आवाज़ के साथ किसी ऊंची जगह की कल्पना करते हैं। और अब बायोलॉजी लेटर्स
में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि कुत्ते भी ऐसा ही करते हैं। शोधकर्ताओं के
अनुसार यह अध्ययन इस बात को समझने में मदद कर सकता है कि क्यों हम कुछ आवाज़ों को
खास भौतिक लक्षणों से जोड़कर देखते हैं।
दरअसल कई अध्ययन इस बात की ओर इशारा करते
हैं कि हम उच्च तारत्व की ध्वनियों के साथ ऊंचाई,
उजली या छोटी वस्तुओं
की कल्पना करते हैं। लेकिन अब तक वैज्ञानिक आवाज़ के साथ इनके जुड़ाव के कारण की कोई
तार्किक व्याख्या नहीं कर पाए हैं। जैसे अध्ययन कहते हैं कि संभवत: ध्वनि और स्थान, आकार
या रंग आदि का यह जुड़ाव अनुभव से बना है। उदाहरण के तौर पर चूहे और पक्षियों जैसे
छोटे जीव आम तौर पर तीखी (पतली) आवाज़ निकालते हैं जबकि भालू जैसे बड़े जानवर भारी
(निम्न तारत्व वाली) आवाज़ें निकालते हैं। या यह भी हो सकता कि यह सम्बंध इसलिए बन
गया कि अंग्रेजी में ‘हाई’ और ‘लो’ शब्दों का इस्तेमाल आवाज़ और ऊंचाई दोनों के लिए
होता है।
युनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स की जीव व्यवहार
विज्ञानी ऐना कोर्ज़ेनिवोस्का और उनके साथियों का कुत्तों पर किया गया एक अध्ययन इस
बात को और समझने में मदद कर सकता है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 101 कुत्तों को एक
गेंद के ऊपर-नीचे जाने का एनीमेशन दिखाया और कभी-कभी गेंद की गति के साथ ध्वनियां
सुनाई गर्इं। कभी गेंद के ऊपर जाने के साथ ध्वनि का तारत्व बढ़ता और नीचे आने के
साथ कम होता या, कभी इसके विपरीत होता। 64 प्रयोगों के बाद उन्होंने पाया कि
जब गेंद के ऊपर जाने के साथ तारत्व बढ़ता है तो
कुत्तों ने गेंद को 10 प्रतिशत अधिक वक्त तक देखा। इससे लगता है कि जानवर
आवाज़ का तारत्व बढ़ने को ऊंचे स्थान से जोड़कर देखते हैं। इस निष्कर्ष के आधार पर
शोधकर्ताओं का अनुमान है कि आवाज़ के प्रकार के साथ स्थान का सम्बंध भाषा की वजह से
नहीं बल्कि जन्मजात होता है और पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होता है।
बर्मिंगहैम युनिवर्सिटी के संज्ञान
विज्ञानी मार्कस पर्लमेन का कहना है कि इस अध्ययन की डिज़ाइन तो उचित है लेकिन
संभावना है कि कुछ अन्य कारक भी नतीजों पर असर डाल रहे हों। जैसे प्रयोग के दौरान
कुत्तों के मालिक नज़दीक बैठे थे, हो सकता है गेंद के ऊपर जाने और उसके साथ
उच्च तारत्व वाली आवाज़ बजने के वक्त अनजाने में उन्होंने कुत्तों को कुछ संकेत दिए
हों। या हो सकता है कि कुत्तों के मालिकों ने पहले कभी कुत्तों को आवाज़ पर प्रतिक्रिया
देने के लिए प्रशिक्षित किया हो।
लिहाज़ा,
पर्लमैन का सुझाव है
कि एक अन्य अध्ययन किया जाना चाहिए जिसमें कुत्ते के मालिक ऐसी भाषा बोलते हों
जिसमें ध्वनि के तारत्व को स्थान सम्बंधी शब्द से संबोधित ना किया जाता हो, जैसे
फारसी। फारसी भाषा में उच्च तारत्व की आवाज़ को पतली आवाज़ और निम्न तारत्व की आवाज़
को मोटी आवाज़ कहते हैं।
बहरहाल इस सम्बंध की व्याख्या के लिए आगे और विस्तार से अध्ययन करने की आवश्कता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/dog_1280p_0.jpg?itok=XXaw0X8a
टेट्रॉडोटॉक्सिन ज़हर पफरफिश का घातक हथियार है। यह ज़हर ऐसा
खतरनाक तंत्रिका विष है कि एक अकेली पफरफिश में मौजूद इसकी मात्रा दर्जनों
शिकारियों को पंगु कर सकती है और मार सकती है। और यदि कोई मनुष्य पफरफिश का मांस
खा ले तो पंगु हो सकता है। लेकिन टॉक्सिकॉन पत्रिका में प्रकाशित ताज़ा
अध्ययन बताता है कि यह ज़हर स्वयं पफरफिश में सर्वथा अलग उद्देश्य की पूर्ति करता
है: यह पफरफिश को तनाव-मुक्त रखता है।
टेट्रॉडोटॉक्सिन (TTX) दरअसल एक तंत्रिका विष है। टाइगर पफरफिश (Takifugu
rubripes) स्वयं TTX नहीं बनातीं बल्कि अपने आहार में शामिल बैक्टीरिया द्वारा बनाए गए TTX को अपने अंगों और त्वचा में जमा करके रखती है। प्रयोगशाला में देखा गया है कि
जिन पफरफिश के आहार में बदलाव किया गया उन्होंने अपनी विषाक्तता खो दी थी।
विकसित होती पफरफिश को TTX किस तरह प्रभावित करता है यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में एक
महीने तक कुछ युवा पफरफिश के आहार में शुद्ध TTX मिलाया। अध्ययन में
पाया गया कि TTX रहित आहार वाली पफरफिश की तुलना में TTX युक्त आहार वाली
पफरफिश 6 प्रतिशत अधिक लंबी और 24 प्रतिशत अधिक भारी थीं। इसके अलावा वे कम
आक्रामक थीं और एक-दूसरे के पिछले पिच्छ को कम कुतर रहीं थीं।
वृद्धि की दर और आक्रामकता, दोनों
पर तनाव का असर होता है। इसलिए शोधकर्ताओं ने पफरफिश में तनाव सम्बंधी दो हार्मोन
का भी अध्ययन किया: रक्त में कॉर्टिसोल और मस्तिष्क में कॉर्टिकोट्रॉपिन-रीलीज़िंग
हार्मोन। पाया गया कि जिन पफरफिश को TTX नहीं दिया गया था उनमें इन हार्मोन्स का
स्तर अधिक था। यानी वे अधिक तनावग्रस्त थीं।
अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि इन मछलियों में TTX ना सिर्फ शिकारियों से बचने या उन्हें दूर रखने का काम करता है बल्कि युवा पफरफिश के स्वस्थ विकास के लिए भी ज़रूरी होता है। कुछ अन्य अध्ययन बताते हैं कि TTX से रहित युवा पफरफिश घातक और जोखिमपूर्ण निर्णय लेती हैं। फिलहाल यह अस्पष्ट है कि TTX पफरफिश में तनाव कैसे कम करता है। (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/pufferfish_1280p_0.jpg?itok=oxf2eSuu
वैसे तो छछूंदर ज़मीन में तेज़ी से बिल बनाने के लिए जानी जाती
हैं, लेकिन अब पता चला है कि उनके चलने का तरीका भी अन्य चौपाया
जानवरों से अलग है। कुत्ता या बिल्ली जैसे अन्य रीढ़धारी चौपाया जानवरों के पैर
चलते वक्त उनके शरीर के नीचे रहते हैं। लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित
अध्ययन बताता है कि छंछूदर चलते वक्त अपने आगे के दो पैर सामने की ओर फैलाए रखती
है, जिससे चलते वक्त बिल की दीवारों से टकराने की संभावना कम
रहती है।
छछूंदर कैसे चलती हैं यह देखने के लिए शोधकर्ताओं ने एक्स-रे मशीन के साथ एक हाई स्पीड कैमरा जोड़ा और उसकी मदद से प्लास्टिक सुरंग में चलती एक ईस्टर्न छछूंदर (Scalopus aquaticus) की चाल को रिकॉर्ड किया। वीडियो का अध्ययन करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि चलते समय छछूंदर के पैर हमेशा सामने की ओर फैले रहते हैं और उनका बाकी का शरीर इनके पीछे रहता है। दरअसल आगे बढ़ने के लिए छछूंदर अपनी छठी उंगली या फाल्स थंब (हथेली के पास उभरी उंगली समान रचना) को ज़मीन पर टेकती हैं और इसकी मदद से अपने शरीर को आगे बढ़ाती हैं, बिलकुल उसी तरह जिस तरह लाठी टेककर चलने वाला व्यक्ति आगे बढ़ता है। इस तरीके से चलने में ज़मीन के साथ कम-से-कम संपर्क बनता है, वैसे ही जैसे तेज़ दौड़ते व्यक्ति के पैर पलभर के लिए ही ज़मीन पर पड़ते हैं। इस तरह की चाल पैर सामने फैलाए रखने में मदद करती है। चूंकि संकरे बिल में चलते वक्त मुड़े हुए अंगों के साथ बिल की दीवारों से टकराने की संभावना रहती है, जिससे बिल नष्ट हो सकता है इसलिए सामने की ओर पैर फैले होने से दीवारों से टकराने से की संभावना कम हो जाती है और बिल सलामत रहता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि बिल में रहने वाले छछूंदर जैसे जीवों के चलने के तरीकों को समझ कर, बेहतर बचाव और राहत रोबोट डिज़ाइन करने में मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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काले-नारंगी पंखों वाली मोनार्क तितली देखने में काफी सुंदर
लगती है। एक ज़हरीले पौधे (मिल्कवीड) का सेवन करके यह तितली ज़हरीली हो जाती है और
अपने रंग-रूप से संभावित शिकारियों को आगाह कर देती है कि वह ज़हरीली है। लेकिन एक
ज़हरीले आहार के प्रति प्रतिरक्षा विकसित करना काफी हैरानी की बात है। बात जीन्स पर
टिकी है। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं की दो स्वतंत्र टीमों ने एक फल मक्खी
(ड्रॉसोफिला) में तीन प्रकार के आनुवंशिक परिवर्तन करके इस गुत्थी को सुलझाने की
कोशिश की है।
वास्तव में मिल्कवीड पौधा कार्डिएक
ग्लाइकोसाइड नामक यौगिक का उत्पादन करता है,
जो कोशिकाओं के अंदर
और बाहर आयनों के उचित प्रवाह को नियंत्रित करने वाले आणविक पंपों को बाधित करता
है। इस पौधे का सेवन करने वाली मोनार्क तितली और अन्य जीवों में इन पंपों का ऐसा
संस्करण विकसित हुआ है कि इन जीवों पर इस रसायन का गलत असर नहीं पड़ता।
मिल्कवीड खाने वाले विभिन्न जीवों में क्या
समानता है, इसे समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीव
विज्ञानी नोहा वाइटमन और उनके सहयोगियों ने मोनार्क तितली समेत 21 कीटों के आणविक
पंप के जीन का मिलान किया। शोधकर्ताओं को तीन उत्परिवर्तन मिले जो इस प्रोटीन पंप
के तीन एमीनो एसिड्स को बदल देते हैं। कीट परिवार में इन परिवर्तनों को देखकर टीम
ने यह अनुमान लगाया कि ये एमीनो एसिड परिवर्तन किस क्रम में हुए थे। यह क्रम
महत्वपूर्ण लगता है। उन्होंने जीन-संपादन तकनीक की मदद से उन परिवर्तनों को
क्रमबद्ध ढंग से फल मक्खियों में करने की कोशिश की।
नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार मोनार्क तितली के पूर्वजों में उत्पन्न एक उत्परिवर्तन जब फल मक्खियों में किया गया तो वह मिल्कवीड के प्रति थोड़ी प्रतिरोधी हुई। लेकिन जब उसमें एक और उत्परिवर्तन किया गया तो फल मक्खी और अधिक सुरक्षित हो गई। इसके बाद तीसरा उत्परिवर्तन करने पर तो फल मक्खी मोनार्क तितली की तरह मिल्कवीड पर बखूबी पनपने लगी। और तो और, मोनार्क तितली की तरह फल मक्खियों ने खुद के शरीर में भी कुछ विष संचित रखा जो तितली को शिकारियों से बचाता है। (स्रोत फीचर्स)
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ज़्यादातर गिलहरियां ठंड के मौसम के लिए अपने घोसलों में पहले से
भोजन की व्यवस्था करके रखती है और सर्दियां अपने घोसले में ही बिताती हैं। लेकिन
यू.एस. मिडवेस्ट में पाई जाने वाली तेरह धारियों वाली एक गिलहरी (Ictidomys
tridecemlineatus)
ऐसा करने की बजाय ठंड बढ़ने पर शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) में चली जाती है। इसकी
शीतनिद्रा की अवधि लगभग आठ महीने की होती है जो प्राणि जगत में सबसे लंबी अवधि है।
और वैज्ञानिकों ने अब यह पता लगा लिया है कि वह भोजन-पानी के बगैर इतनी लंबी
शीतनिद्रा कैसे कर पाती है।
शीतनिद्रा करने वाले भालू जैसे अन्य जीवों
की तरह हाइबरनेशन के दौरान गिलहरी के दिल की धड़कन,
चयापचय प्रक्रिया और
शरीर का तापमान नाटकीय रूप से बहुत कम हो जाते हैं। इस दौरान गिलहरी अपनी प्यास को
दबाए रखती है, जिसका एहसास होने पर वे शीतनिद्रा की अवस्था से जाग सकती
हैं। लेकिन वे अपनी प्यास पर काबू कैसे रख पाती हैं?
इस बात का पता लगाने
के लिए शोधकर्ताओं ने दर्जनों गिलहरियों के रक्त सीरम को जांचा। सीरम रक्त के तरल
अंश को कहते हैं। उन्होंने गिलहरियों को तीन समूहों में बांटा। एक समूह में
गिलहरियां सक्रिय अवस्था में थीं, दूसरे समूह की गिलहरियां मृतप्राय
शीतनिद्रा की अवस्था थीं, जिसे तंद्रा कहते हैं और तीसरे समूह की
गिलहरियां शीतनिद्रा और सक्रियता के बीच की अवस्था में थीं।
सामान्य तौर पर मनुष्यों सहित सभी जानवरों
में प्यास का एहसास सीरम गाढ़ा होने पर होता है। येल विश्वविद्यालय की लीडिया
हॉफस्टेटर और साथियों द्वारा किए गए इस अध्ययन में शीतनिद्रा अवस्था की गिलहरियों
में सीरम कम गाढ़ा पाया गया जिसके उन्हें प्यास का एहसास नहीं हुआ और वे सोती रहीं।
यहां तक कि शोधकर्ताओं द्वारा जगाए जाने पर भी इन गिलहरियों ने एक बूंद भी पानी नहीं
पिया। लेकिन जब शोधकर्ताओं ने उनके सीरम की सांद्रता बढ़ाई तो उन्होंने पानी पिया।
इसके बाद शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि
शीतनिद्रा के दौरान गिलहरियों का सीरम इतना पतला कैसे हो जाता है? उनका
अनुमान था कि शीतनिद्रा में जाने के पहले गिलहरियां ढेर सारा पानी पीकर अपने खून
को पतला रखती होंगी। लेकिन सर्दियों में गिलहरियों द्वारा शीतनिद्रा अवस्था में
जाने की पूर्व-तैयारी के वक्त बनाए गए वीडियो में दिखा कि आश्चर्यजनक रूप से इस
दौरान तो गिलहरियों ने सामान्य से भी कम पानी पिया।
रासायनिक जांच में पता चला कि वे अपने रक्त में सीरम की सांद्रता पर नियंत्रण सोडियम जैसे इलेक्ट्रोलाइट और ग्लूकोज़ और यूरिया जैसे अन्य रसायनों को हटाकर करती हैं। वे इन्हें शरीर में अन्यत्र कहीं (संभवत:) मूत्राशय में एकत्रित करती हैं। यह अध्ययन करंट बॉयोलॉजी नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/ScienceSource_SS22019116-1280X720.jpg?itok=Dx_oT41L