लड़ते-लड़ते मछलियां जीन्स में तालमेल बैठाती हैं

मुक्केबाज़ी का मुकाबला देखते हुए किसी के मन में यह ख्याल नहीं आता कि इस वक्त लड़ाकों के दिमाग के जीन्स में क्या हो रहा है। लेकिन लड़ाकू मछलियों पर हुए ताज़ा अध्ययन से पता चला है कि मछलियों की कुश्ती के वक्त उनके मस्तिष्क के जीन्स तालमेल से काम करना शुरू और बंद करते हैं। हालांकि यह अभी स्पष्ट नहीं है कि ये जीन करते क्या हैं या वे लड़ाई को कैसे प्रभावित करते हैं, लेकिन संभावना है कि मनुष्यों में भी इसी तरह के बदलाव होते होंगे।

मोबब्बत हो या जंग, मनुष्यों सहित सभी जानवरों को हर परिस्थिति में अच्छा प्रदर्शन करना होता है लेकिन वे ऐसा कैसे कर पाते हैं इसका आणविक कारण अब तक एक रहस्य बना हुआ है। जापान के कितासातो विश्वविद्यालय के आणविक जीव विज्ञानी नोरिहिरो ओकाडा को टीवी पर सियामीज़ लड़ाकू मछलियों (बेट्टा स्प्लेंडेंस) की लड़ाई देखकर लगा कि ये मछलियां इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकती हैं। मूलत: थाईलैंड में पाई जाने वाली, गोल्ड फिश के आकार की इन मछलियां के पंख और पूंछ बहुत बड़े और चटख रंग के होते हैं। इन्हें खासकर एक्वेरियम में रखने के लिए पाला जाता है लेकिन इनके लड़ाकू स्वभाव के कारण एक्वेरियम में इन्हें अलग-अलग रखने की सलाह दी जाती है। ये मछलियां अपना इलाका बनाती हैं, और इनकी लड़ाई 1 घंटे से भी अधिक समय तक चल सकती है जिसमें ये एक-दूसरे पर वार करती हैं, काटती हैं और पीछा करती हैं। यहां तक कि हमारे पंजा लड़ाने की तरह ये जबड़ा लड़ाती हैं।

ओकाडा की टीम ने मछलियों की 17 विभिन्न कुश्तियों के लगभग 12 घंटे के वीडियो बनाकर विश्लेषण किया कि हर लड़ाई में क्या-क्या हुआ और कब हुआ। प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में वे बताते हैं कि लड़ाई जितनी अधिक लंबी होती है, मछलियों के व्यवहार में आपस में उतना ही अधिक तालमेल होता जाता है – उनके घूमने, वार करने और काटते समय भी। तालमेल की हद देखिए कि लगभग 80 मिनट की लड़ाई में हर दांव के बीच उन्होंने ‘परस्पर सहमति से’ विराम लिया। जब मछलियां एक-दूसरे से जबड़ा लड़ाती हैं तब मुकाबला 5 से 10 मिनट के लिए गहराता है, इस दांव में सांस रोकना पड़ता है और इसी से तय होता है कि कौन लंबे समय तक जबड़े का दांव जारी रख सकता है। 5-10 मिनट बाद ये मछलियां सांस लेने के लिए एक-दूसरे से अलग होती हैं और फिर भिड़ जाती हैं।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि व्यवहार में यह तालमेल आणविक स्तर पर भी होता है। शोधकर्ताओं ने 20 मिनट और 60 मिनट में पूरी होने वाली 5-5 कुश्तियों में, लड़ाई के पहले और बाद में देखा कि उस वक्त मछलियों के मस्तिष्क के कौन से जीन्स सक्रिय थे। टीम ने पाया कि 20 मिनट वाली लड़ाई में हर मछली में कुछ समान जीन्स, ‘इंटरमीडिएट एर्ली जीन’ ने काम करना शुरू किया था। ये जीन्स अन्य जीन्स को सक्रिय करने का काम करते हैं। 60 मिनट वाली लड़ाई में इन जीन्स के अलावा सैकड़ों अन्य जीन्स में समन्वय देखा गया। मछली के हर जोड़े में प्रत्येक जीन के सक्रिय होने का एक खास समय था जिससे लगता है कि मछली का परस्पर संपर्क इन परिवर्तनों का समन्वय करता है। अन्य अध्ययनों के अनुसार स्तनधारियों का परस्पर संपर्क मस्तिष्क गतिविधि में तालमेल बैठाता है। यह शोध इस बात को एक नया आयाम देता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर के अंडों का रहस्य सुलझा

पंद्रह साल पहले अमेरिकी प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जीवाश्म विज्ञानी मार्क नॉरेल को दक्षिणी मंगोलिया में प्रोटोसेराटॉप्स डायनासौर के कम से कम एक दर्जन भ्रूण फ्रोज़न अवस्था में मिले थे। लेकिन उनमें कुछ तो अजीब बात थी। ऐसा लगता था जैसे नन्हे डायनासौर अदृश्य अंडे के अंदर गुड़ी-मुड़ी होकर पड़े हैं। हर नन्हे डायनासौर के कंकाल के आसपास की चट्टान पर एक रहस्यमयी सफेद वलय थी। अब इतने समय के बाद नॉरेल और उनके साथियों ने इन वलय के रहस्य को सुलझा लिया है। ये वलय डायनासौर के अंडों की मुलायम खोल थीं।

इस रहस्य को सुलझाने के लिए नॉरेल और येल विश्वविद्यालय की आणविक पुराजीव विज्ञानी जैस्मिना वीमन ने मंगोलिया से प्राप्त 7.5 करोड़ साल पुराने प्रोटोसेराटॉप्स डायनासौर के जीवाश्मित अंडों के दो समूहों और 21.5 करोड़ वर्ष पुराने मुसासौरस के अंडों के एक समूह का एक नई तकनीक की मदद से विश्लेषण किया। उन्होंने अंडों को लेज़र प्रकाश में रखा और देखा कि लेज़र प्रकाश अंडों की सतह से टकराने पर कैसे बदलता है। इससे अंडों के खोल की रासायनिक संरचना के बारे में पता चला। यह तो हम जानते हैं कि आधुनिक मुलायम खोल वाले अंडों की आणविक संरचना सख्त खोल वाले अंडों की आणविक संरचना से अलग होती हैं। विश्लेषण में पता चला कि प्रोटोसेराटॉप्स और मुसासौरस, दोनों के अंडे के चारों ओर की वलय की संरचना मुलायम खोल वाले अंडों के समान थी।

डायनासौर के अस्तित्व के शुरुआती दौर में मुसासौरस रहते थे इसलिए शोधकर्ताओं का अनुमान है कि शुरुआती डायनासौर मुलायम खोल वाले अंडे देते होंगे। लेकिन डायनासौर के अस्तित्व के अंतिम दौर यानी 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व जीवित रहे प्रोटोसेराटॉप्स के घोंसले से पता चलता है कि इस समय तक भी कुछ प्रजातियां मुलायम खोल वाले अंडे देती थीं, जबकि डायनासौर की अन्य प्रजातियां सख्त खोल वाले अंडे देने के लिए विकसित हो चुकी थीं।

संभवत: मुलायम खोल वाले अंडे देने वाले डायनासौर अंडों को ज़मीन में गाड़ते होंगे ताकि जब भारी-भरकम मां इन नाज़ुक अंडों पर बैठें तो वे दब कर टूट ना जाएं। ज़मीन में गाड़ने से अंडे सूखने से भी बचेंगे। अंडों को मादा डायनासौर द्वारा जमीन में गाड़ने से अंडों को कम गर्मी मिलती होगी जिससे उनका विकास धीमी गति से होता होगा। इसके चलते अंडों से निकलने वाले बच्चे ज़्यादा विकसित अवस्था में होते होंगे। अत: पालकों को नवजात की कम देखभाल करना पड़ती होगी। पूर्व में हुए अध्ययन बताते हैं कि डायनासौर के करीबी पंखों वाले सरीसृप टेरोसौर के शिशु अंडों से निकलने के तुरंत बाद उड़ने में सक्षम होते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बकरियों का पालतू गुण

करियां सख्तजान होती हैं। इन्होंने कोलंबस के साथ अटलांटिक महासागर की लंबी यात्राएं कीं और मेफ्लावर तीर्थ यात्रियों के साथ रहीं – इस दौरान सूखे और परजीवियों का सामना किया। हाल ही में एक शोध ने इनकी सहनशीलता की उत्पत्ति का खुलासा किया है। प्राचीन समय में कुछ हेराफेरी के ज़रिए इस पालतू प्रजाति (Capra aegagrushircus) में जंगली बकरी से एक जीन आया जो इसे कृमि संक्रमण से बचाता है। अन्य जीन्स के साथ जुड़कर इस जीन ने बकरी को सबसे पहला पालतू जानवर बनाने में मदद की। स्मिथसोनियन संस्थान के प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में मानव विज्ञानी पुरातत्वविद मेलिंडा ज़ेडर का कहना है कि इस खोज से पालतूकरण के शुरुआती दिनों में जंगली प्रजातियों के साथ परस्पर प्रजनन का महत्व स्पष्ट होता है।

कई शोधकर्ता मानते हैं कि बकरियां प्रथम पालतू पशु हैं। इन्हें लगभग 11 हज़ार साल पहले फर्टाइल क्रीसेंट में पालतू बनाया गया था। माना जाता है कि तुर्की और ईरान में मनुष्य ने सबसे पहले पालतू बकरियों के जंगली वंशज बेजोर को बाड़ों में पालना शुरू किया था। लेकिन तब से लेकर अब तक क्या हुआ यह एक रहस्य ही रहा है।

नॉर्थवेस्ट ए एंड एफ युनिवर्सिटी के पशु आनुवंशिकीविद ज़ियांग यू और एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने दुनिया भर की 88 पालतू बकरियों, 6 जंगली बकरी प्रजातियों और 4 बकरी जीवाश्मों के जीनोम की तुलना 131 अन्य पालतू, जंगली और प्राचीन बकरियों की पहले से उपलब्ध जीनोमिक जानकारी के साथ की। वे यह देखना चाहते थे जीनोम के कौन-से महत्वपूर्ण हिस्से से बकरी का पालतू बनना तय हुआ था।

ज़ियांग और उनके साथियों ने साइंस एडवांसेस में बताया है कि विशेष रूप से एक जीन MU6 महत्वपूर्ण है। आज लगभग हर पालतू बकरी में इस जीन का संस्करण मौजूद है। यह वेस्ट कॉकेशियन टुर नामक जंगली बकरी से आया है। संभवत: यह जीन संस्करण संभवत: परस्पर प्रजनन के ज़रिए 7200 साल पहले पालतू बकरी में पहुंचा था।

MU6 जीन आंत के अस्तर के एक प्रोटीन का कोड है। अन्य जंतुओं में यह प्रतिरक्षा तंत्र का हिस्सा है। यह देखने के लिए कि यह परजीवियों से रक्षा कर सकता है या नहीं, शोधकर्ताओं ने जंगली टुर के जीन संस्करण वाली और इसके अन्य संस्करणों वाली पालतू बकरियों के मल का विश्लेषण किया। देखा गया कि टुर संस्करण वाली बकरियों के मल में कृमियों के अंडों की संख्या बहुत कम थी। अर्थात जीन का टुर संस्करण कुछ सुरक्षा प्रदान करता है।

ज़ियांग कहते हैं कि यह बात समझ में आती है क्योंकि टुर काले समुद्र के तट पर रहती थी जहां का मौसम उमस वाला था, यहां परजीवियों के संक्रमण का खतरा अन्य जगहों की बकरियों से ज़्यादा था। आजकल की बकरियों का मूल स्थान दक्षिण-पश्चिम एशिया का सूखा क्षेत्र था।

कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि पालतू बनाने के लिए सबसे मूल्यवान कारक दूध का उत्पादन या शारीरिक बनावट होते हैं। लेकिन इस अध्ययन में यह पता चलता है कि शायद ज़्यादा महत्वपूर्ण यह था कि पालतू जानवर भीड़भाड़ वाली जगहों में जीवित रह सकें जहां पर संक्रमण का खतरा ज़्यादा होता है। ज़ियांग का कहना है कि स्वस्थ मवेशी पाने की इच्छा और टुर के इस जीन संस्करण के फायदों के चलते यह 1000 वर्षों में ही 60 प्रतिशत पालतू बकरियों में फैल गया।

टीम को पालतू बकरियों में कई और जीन्स मिले हैं जिनका सम्बंध शायद बकरियों के दब्बू व्यवहार से हो लेकिन और शोध के बगैर कुछ कहा नहीं जा सकता।(स्रोत फीचर्स)

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सांपों की धींगामुश्ती: प्रणय या युद्ध – कालू राम शर्मा

स गर्मी का मौसम जब उतार पर होता है तब अक्सर दो सांपों का आपस में लिपटना हर किसी का ध्यान आकर्षित करता है। लगता है, दोनों लिपटते हुए नृत्य कर रहे हों।

सांपों द्वारा निर्मित ये दृश्य अक्सर अखबारों की सुर्खियां भी बनते हैं। एक अखबार के ब्यूरो चीफ ने मुझसे सांपों के बीच चलने वाली इस दिलचस्प लीला के बारे जानना चाहा। उन्होंने यह भी पूछा कि क्या यह सच है कि नर और मादा सांपों के बीच यह प्रणय लीला है? उनके पास आपस में लिपटे हुए दो विशाल सांपों का चित्र छपने के लिए आया था। वे उस चित्र का चंद पंक्तियों में कैप्शन देना चाह रहे थे। आम तौर पर इस घटना को नर और मादा का समागम समझा जाता है जो वाकई में मिथ्या है। यह तो दो प्रतिद्वंदी नर सांपों के बीच युद्ध है। दरअसल, धामन नामक सांप की प्रजाति (Ptyas mucosa) के नर सदस्यों के बीच यह दृश्य देखा जाना आम बात है।

धामन आम तौर पर खेतों, जंगलों, झाड़ियों में बहुतायत से पाया जाता है और चूहे खाता है। इसकी अधिकतम लंबाई 8 फीट तक हो सकती है। यह एक अत्यंत सक्रिय सांप है और प्रजनन काल में इसकी सक्रियता का बढ़ना स्वाभाविक ही है।

इस प्रकार के दृश्य अक्सर गर्मी के उतार और मानसून की बौछार के साथ शहरों व कस्बों के खुले मैदानों में अधिक दिखने लगते हैं। इसमें दो सांप रस्सी में एंठन की तरह लिपट जाते हैं। दोनों का सिर वाला हिस्सा ऊपर की ओर उठा होता है। दोनों एक दूसरे को पटखनी देने की जी-तोड़ कोशिश करते हैं। इस युद्ध में वे एक दूसरे से लिपटते हैं और अपने थूथन से एक दूसरे पर वार करते हैं। युद्ध लगभग घंटे भर तक चलता रहता है जब तक कि एक नर दूसरे को पटखनी न दे दे। इस युद्ध में जो सांप पस्त होकर ज़मीन पर गिर जाता है वह समझो हार चुका होता है। युद्ध में जीतने वाला नर सांप फिर आसपास मौजूद मादा के साथ समागम करता है। इसके बाद मादा धामन किसी सुरक्षित जगह पर 6 से 15 की संख्या में अंडे देती है।

सांपों में इस युद्ध को लेकर अधिक अध्ययन नहीं हुए हैं। अमेरिका में सांपों की कई प्रजातियों में यह व्यवहार देखने को मिलता है जिनमें इंडिगो स्नेक, रेटल स्नेक, और कॉटनमाउथ सांप प्रमुख हैं। इन प्रजातियों में मादाओं की तुलना में नर बड़े होते हैं। दो नरों की लड़ाई में वे ज़मीन के लंबवत खड़े होते हैं। इस दौरान सांप एक दूसरे को काटते नहीं।

त्रुटिवश धामन सांप में इस घटना को नर और मादा के समागम के रूप में समझा जाता है। लेकिन समागम की प्रक्रिया में नर और मादा इस तरह से आपस में खड़े होकर लिपटते नहीं हैं। नर सांप मादा के शरीर पर रेंगता है। कभी-कभी नर सांप मादा के सिर को दांतों से काटता है। माना जाता है कि यह काटना महज़ मादा के प्रति प्यार दर्शाना हो सकता है। सर्प विज्ञानी युद्ध और प्रणय की इन दोनों घटनाओं की बारीकियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

प्रजनन काल में नर सांपों के बीच शक्ति प्रदर्शन के लिए होने वाला युद्ध सर्प के दो परिवारों बोइडी व कोल्यूब्राोइडी की लगभग 70 प्रजातियों में देखा गया है। शोधकर्ताओं को क्रिटेशियस काल के बोइडी व कोल्यूब्राोइडी के साझा पूर्वजों में ऐसे व्यवहार के प्रमाण मिले हैं। हालांकि इस दिशा में अभी और सुराग हाथ लगना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

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चमगादड़ हमारे दुश्मन नहीं हैं

रावनी फिल्मों से लेकर सांस्कृतिक चित्रणों में चमगादड़ को हमेशा से एक निराधार भय से जोड़कर दिखाया गया है। और अब कोविड-19 महामारी का मुख्य रुाोत होने के कारण चमगादड़ और भी बदनाम हुए हैं। ऐसे में हो सकता है कि चमगादड़ों को खत्म करने के प्रयास किए जाएं। तब चमगादड़ों का संरक्षण करना कठिन हो जाएगा, साथ ही उनसे मिलने वाले महत्वपूर्ण लाभों की रक्षा करना भी मुश्किल हो जाएगा। संभावना तो यह भी है कि चमगादड़ों के खात्मे से नई परेशानियों खड़ी हो जाएं।

वास्तव में चमगादड़ों की कुछ रोगाणुओं के प्रति बहुत आक्रामक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है, जिसकी वजह से वायरस और भी घातक रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे में मनुष्यों में यदि इस तरह का कोई वायरस प्रवेश कर जाता है तो यह जानलेवा बन सकता है।

लेकिन यहां चमगादड़ों से मिलने वाले लाभों पर बात करना भी आवश्यक है। चमगादड़ हमारे जंगलों को पुनर्जीवित करते हैं और उर्वरक प्रदान करते हैं। ये 300 से अधिक प्रजातियों की फसलों का परागण करते हैं। ककाओ, कपास, मकई और अन्य पौधों को कीटों से बचाते हैं। कम विकसित देशों में कीटों का सफाया करते हैं। जब अमेरिका के कृषि क्षेत्रों में कीटों का सफाया करने वाले चमगादड़ों की संख्या में कमी हुई थी तब कृषि क्षेत्रों में वाइट-नोज़ सिंड्रोम से शिशु रुग्णता और मृत्यु दर में तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि कीटों से निपटने के लिए हानिकारक कीटनाशकों का छिड़काव बढ़ा था। चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले कीटनाशक प्रतिरोधी मच्छरों का भी भक्षण करते हैं।

भविष्य में सार्स और एबोला के जोखिम को कम करने के लिए चमगादड़ों को नुकसान पहुंचने से रोगों का खतरा बढ़ सकता है। पूर्व में इस तरह के असफल प्रयास पेरू, युगांडा, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में किए जा चुके हैं।          

लेकिन अभी भी यह सवाल बना हुआ है कि आने वाली महामारियों को कैसे रोका जा सकता है। चमगादड़ों के संरक्षण की आवश्यकता है, साथ ही उनके क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को कम करके संक्रमण से बचा जा सकता है। उदाहरण के लिए जंगलों के कम होने से फलभक्षी चमगादड़ों का प्रवास बांग्लादेश के खजूर के पेड़ों पर हुआ और देखते ही देखते वहां निपाह वायरस का संक्रमण शुरू हो गया। लेकिन अपने मूल निवास में रहते हुए चमगादड़ों द्वारा पालतू जानवरों में वायरस के फैलने की संभावना न के बराबर है।

ऐसे में बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक वास की बहाली से हम चमगादड़ों का संपर्क मनुष्यों और पालतू जानवरों से कम कर सकते हैं। इसके अलावा हम कृत्रिम आवास और देशी फलों के वृक्षों को विशेष रूप से उनके लिए लगा सकते हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके व्यापार को सीमित या समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। यह मनुष्यों से चमगादड़ों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क को रोकने का सबसे आसान तरीका है। 

सौभाग्य से हमारे पास इस तरह के वायरसों से निपटने के कुछ नए तरीके सामने आ रहे हैं। आधुनिक जीनोम अनुक्रमण विधियों से चमगादड़-वायरस सम्बंध के रहस्यमयी क्षेत्र में कुछ रास्ता साफ हुआ। हालांकि टीकों और आधुनिक तकनीकों पर काम करने के साथ यह भी आवश्यक है कि हम चमगादड़ों को संरक्षित करने, उनकी उपस्थिति को स्वीकार करने और उनसे मिलने वाले लाभों के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं ताकि स्वास्थ्यप्रद भविष्य संभव हो सके।(स्रोत फीचर्स)

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समय से पहले फूल खिला देते हैं भूखे भंवरे

फास्ट फूड हमारी भूख शांत करने में मदद करता है। ऐसा ही जुगाड़ भंवरे भी करते हैं। जब मादा भंवरे शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) से जागते हैं तो उन्हें अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए ढेर सारे पराग और मकरंद की ज़रूरत होती है। यदि भंवरे समय से पूर्व शीतनिद्रा से जाग जाते हैं तो पर्याप्त मात्रा में पराग जमा करने के लिए आसपास पर्याप्त फूल नहीं खिले होते हैं। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध बताता है कि भंवरों ने इस समस्या का विचित्र समाधान खोजा है – वे फूलों को जल्दी खिलाने के लिए पौधों की पत्तियों में छेद कर देते हैं और फूल वास्तव में निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले ही खिल उठते हैं।

ईटीएच ज़्यूरिच के शोधकर्ताओं ने भंवरों में पौधों की गंध के प्रति प्रतिक्रिया सम्बंधी एक अध्ययन के दौरान गौर किया था कि भंवरे पौधों की पत्तियों पर अर्ध-चंद्राकार छेद कर रहे हैं। पहले तो शोधकर्ताओं को लगा कि वे पत्तियों का रस चूस रहे हैं। लेकिन भंवरे पत्तियों पर इतनी देर नहीं ठहरे कि पर्याप्त रस ले सकें और ना ही वे पत्तियों का कोई हिस्सा अपनी कॉलोनी में ले गए।

विचित्र अवलोकन यह था कि जिन भंवरों की कॉलोनियों में कम भोजन उपलब्ध था उन्होंने पत्तियों में अधिक छेद किए थे। इसके आधार पर शोधकर्ता सोचने लगे कि कहीं ये छेद फूलों को जल्दी खिलाने के लिए तो नहीं किए जा रहे? यह तो पहले से पता है कि कुछ पौधों में क्षति या तनाव के चलते फूल जल्दी खिलते हैं। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कोई परागणकर्ता इस तरह से क्षति पहुंचाएगा।

माजरे को समझने के लिए वैकासिक जीव विज्ञानी मार्क मेशर और उनके साथियों ने ग्रीनहाउस में प्रयोग किया। पहले उन्होंने 3 तीन दिन से पराग से वंचित भंवरों को राई (ब्रौसिका निग्रा) के दस पौधों पर छोड़ा। उन्होंने पाया कि भवंरों ने हर पौधे में 5-10 छेद किए और इन पौधों में औसतन 17 दिन बाद फूल खिल गए जबकि जो पौधे भंवरों के संपर्क में नहीं आए थे उनमें औसतन 33 दिन बाद फूल खिले। टमाटर के पौधों पर दोहराने पर उनमें फूल सामान्य से 30 दिन पहले खिल गए।

इसी कड़ी के अगले अध्ययन के आधार पर लगता है कि भूख भवरों को पत्तियों में छेद करने को प्रेरित करती है क्योंकि पराग ले चुके भंवरों की तुलना में पराग से वंचित भंवरों ने पत्तियों में चार गुना अधिक छेद किए। और वसंत की शुरुआत में फूलों के खिलने के पहले, भंवरों ने पत्तियों में अधिक छेद किए लेकिन जैसे-जैसे वसंत आगे बढ़ा और अधिक पराग मिलने लगा तो भंवरों ने पत्तियों में कम छेद किए। यह विचित्र व्यवहार भंवरों की दो जंगली प्रजातियों में देखा गया।

क्या पत्तियों को होने वाली क्षति-मात्र ही पौधों को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पत्तियों में हू-ब-हू वैसे ही छेद बनाए जैसे भंवरे बनाते हैं। उन्होंने पाया कि सामान्य पौधों की तुलना में इन पौधों में जल्दी फूल आ गए, लेकिन भंवरों द्वारा छेद किए गए पौधों की तुलना में देर से फूल आए। इससे लगता है कि भंवरों की लार में ऐसे रसायन होते होंगे जो पौधे को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करते हैं।

बहरहाल शोधकर्ता इस बात पर हैरान हैं कि भंवरों में यह व्यवहार कैसे विकसित हुआ होगा। ऐसा लगता नहीं कि भंवरे यह युक्ति सीखते होंगे क्योंकि उनका कुल जीवन बहुत छोटा होता है। और यदि यह जन्मजात है तो समझना मुश्किल है कि उनमें यह शुरू कैसे हुआ। (स्रोत फीचर्स)

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किशोर कुत्तों का व्यवहार मानव किशोर जैसा

कुछ लोगों का अनुभव है कि जब उनके कुत्ते किशोरावस्था में पहुंचते हैं तो वे अचानक उनके हुक्म मानना बंद कर देते हैं। यह भी कहा जाता है कि किशोर उम्र के कुत्तों का व्यवहार शिशु, वयस्क या वृद्ध कुत्तों से भिन्न होता है। और अब बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि मानव किशोरों की तरह कुत्ते भी किशोरावस्था के दौरान अति संवेदनशील होते हैं।

न्यू कासल युनिवर्सिटी की जीव व्यवहार विज्ञानी लुसी एशर बताती हैं कि मनुष्यों के साथ कुत्तों के पिल्लों का लगाव बिल्कुल मानव शिशु जैसा होता है। लेकिन अधिकांश मालिकों को लगता है कि कुत्तों की उम्र 8 महीने की (श्वान-किशोरावस्था) होने पर उनके कुत्तों का व्यवहार बदल जाता है। मानव किशोरों की तरह किशोर कुत्ते भी अपने मालिकों की उपेक्षा और अवज्ञा करने लगते हैं। इस व्यवहार पर मालिक तरह-तरह की प्रतिक्रिया देते हैं: कुछ उन्हें सज़ा देते हैं, कुछ उपेक्षा करते हैं, तो कुछ उन्हें दूर भेज देते हैं।

किशोरावस्था कैसे कुत्तों का व्यवहार बदलती है, यह जानने के लिए एशर और उनकी टीम ने 70 कुत्तों पर नज़र रखी। अध्ययनकर्ताओं ने उनके मालिकों को उनके साथ लगाव और ध्यान खींचने वाले व्यवहार (जैसे मालिक से सटकर बैठना या किसी व्यक्ति के प्रति विशेष लगाव) और उपेक्षित होने पर व्यवहार (जैसे पीछे छूट जाने पर सिहरन या कंपकंपी) के आधार पर अंक देने को कहा। ये दोनों तरह के व्यवहार चिंता और भय के द्योतक हैं।जिन पिल्लों को दोनों में से किसी भी एक पैमाने पर अधिक अंक मिले थे उनकी किशोरावस्था भी जल्दी शुरू हुई (लगभग 5 माह की उम्र में) जबकि कम अंक वाले पिल्लों की किशोरावस्था 8 माह की उम्र यानी देर से शुरू हुई। यह देखा गया है कि जिन लड़कियों के अपने अभिभावकों से रिश्ते अच्छे नहीं होते उनकी किशोरावस्था जल्दी शुरू हो जाती है। मनुष्यों की तरह, जिन कुत्तों के उन्हें पालने वालों के साथ सम्बंध अच्छे नहीं थे उनके प्रजनन चक्र में अंतर आया। यह भी देखा गया कि जो किशोर कुत्ते अपने पालकों के विछोह से दुखी थे उन्होंने अपने पालकों की बात नहीं मानी जबकि अन्य व्यक्ति की बात मानी। यह व्यवहार मानव किशोरों की असुरक्षा की भावना से मेल खाता है।

एक अन्य अध्ययन में अध्ययनकर्ताओं ने अन्य 69 गाइड कुत्तों का 5 महीने और 8 महीने की उम्र के दौरान अध्ययन किया। उन्होंने उनके मालिक और एक अजनबी को उन्हें ‘बैठने’ का आदेश देने को कहा। सभी पिल्ले जब पूर्व-किशोरावस्था में थे, तब वे दोनों व्यक्तियों के आदेश पर तुरंत बैठ गए। लेकिन जब यही पिल्ले किशोरावस्था में पहुंचे तो ‘बार-बार’ उन्होंने अपने पालक का आदेश मानने से इन्कार किया जबकि अनजान व्यक्ति की बात मान ली। जिन कुत्तों का अपने मालिकों से सुरक्षात्मक रूप से लगाव नहीं था उन्होंने अजनबियों के आदेश अधिक माने। यह व्यवहार भी मानव किशोरों की याद दिलाता है।

285 गाइड कुत्तों पर किए गए एक अध्ययन के डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि अन्य उम्र की तुलना में किशोर कुत्तों को ‘प्रशिक्षित’ करना अधिक मुश्किल होता है।

टीम का मानना है कि किशोर कुत्तों और मानव किशोरों के व्यवहार में समानता को देखते हुए मनुष्यों में किशोरावस्था के अध्ययन के लिए कुत्ते अच्छे मॉडल हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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सांडा: मरुस्थलीय भोजन शृंखला का आधार – चेतन मिशर

सांडा पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पाई जाने वाली छिपकली है, जो मरुस्थलीय खाद्य शृंखला में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। परंतु आज अंधविश्वास और अवैध शिकार के चलते यह घोर संकट का सामना कर रही है।

सांडे का तेल, भारत के विभिन्न हिस्सों मे यौनशक्ति वर्धक एवं शारीरिक दर्द के उपचार के लिए अत्यधिक प्रचलित औषधि है। वैसे, इस तेल का कारगर होना एक अंधविश्वास मात्र है एवं इस तेल के रासायनिक गुण किसी भी अन्य जीव की चरबी के तेल के समान ही पाए गए हैं। इस अंधविश्वास के कारण इस जीव का बड़ी संख्या में अवैध शिकार किया जाता है, जिसके परिणाम स्वरूप सांडों की आबादी तेज़ी से घट रही है।

सांडा के नाम से जाना जाने वाला यह सरीसृप वास्तव में भारतीय उपमहाद्वीप के शुष्क प्रदेशों में पाई जाने वाली एक छिपकली है। यह मरुस्थलीय छिपकली Agamidae वर्ग की एक सदस्य है तथा अपने मज़बूत एवं बड़े पिछले पैरों के लिए जानी जाती है। सांडा का अंग्रेजी नाम Spiny-tailed lizard है जो इसे इसकी पूंछ पर पाए जाने वाले कांटेदार शल्क के अनेक छल्लों की शृंखला के कारण मिला है।

विश्व भर में सांडे की 20 प्रजातियां पाई जाती हैं। यह उत्तरी अफ्रीका से लेकर मध्य-पूर्व के देशों एवं उत्तरी-पश्चिमी भारत के शुष्क तथा अर्धशुष्क प्रदेशों के घास के मैदानों में वितरित हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली इस प्रजाति का वैज्ञानिक नाम Saarahardiwickii है। यह मुख्यत: अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा भारत में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा एवं गुजरात के कच्छ ज़िले के शुष्क घास के मैदानों में पाई जाती है। कुछ शोध पत्रों के अनुसार सांडे की कुछ छोटी आबादियां उत्तर प्रदेश, उत्तरी कर्नाटक तथा पूर्वी राजस्थान में भी पाई जाती हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार सांडे का मरुस्थलीय आवास से बाहर वितरण मानवीय गतिविधियों का परिणाम हो सकता है क्योंकि वन्य जीव व्यापार में अनेकों जीवों को उनकी स्थानीय सीमाओं से बाहर ले जाया जाता है।

सांडे की भारतीय प्रजाति में नर (40 से 49 से.मी.) सामान्यत: आकार में मादा (34 से 40 से.मी.) से बड़े होते हैं तथा अपनी लंबी पूंछ के कारण आसानी से पहचाने जा सकते हैं। नर की पूंछ उसके शरीर की लंबाई के बराबर या अधिक एवं छोर पर नुकीली होती है जबकि मादा की पूंछ शरीर की लंबाई से छोटी तथा सिरे पर मोटी होती हैं।

पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान एवं कच्छ के नमक के मैदानों में पाई जाने वाली सांडे की आबादी में त्वचा के रंग में एक अंतर देखने को मिलता हैं। अक्सर पश्चिमी राजस्थान की आबादी में पूंछ के दोनों तरफ के शल्क में तथा पिछले पैरों की जांघों के दोनों ओर हल्का चमकीला नीला रंग देखा जाता है, परंतु कच्छ के नमक मैदानों की आबादी में ऐसा नहीं होता।

भारतीय सांडे को भारत में पाई जाने वाली एकमात्र शाकाहारी छिपकली माना जाता है। इनके मल के नमूनों की जांच के अनुसार वयस्क का आहार मुख्यत: वनस्पति, घास, एवं पत्तियों तक सीमित रहता है लेकिन शिशु सांडा वनस्पति के साथ कीटों, मुख्यत: भृंग, चींटी, दीमक, एवं टिड्डों, का सेवन भी करते हैं। बारिश में एकत्रित किए गए कुछ वयस्क सांडों के मल में भी कीटों का मिलना इनकी अवसरवादिता को दर्शाता है।

मरुस्थल में भीषण गर्मी के प्रभाव से बचने के लिए सांडे भी अन्य मरुस्थलीय जीवों के समान भूमिगत मांद में रहते हैं। सांडे की मांद का प्रवेश द्वार बढ़ते चंद्रमा के आकार समान होता है तथा यह अन्य मरुस्थलीय जीवों की मांद से अलग दिखाई पड़ती है। मांद अक्सर टेढ़ी-मेढ़ी, सर्पिलाकार तथा 2 से 3 मीटर गहरी होती है। मांद का आंतरिक तापमान बाहर की तुलना में काफी कम होता है।

यह छिपकली दिनचर होती है तथा मांद में आराम करते समय अपनी कांटेदार पूंछ से प्रवेश द्वार को बंद रखती हैं। रात के समय में अन्य जानवरों, विशेषकर परभक्षी जीवों, को रोकने के लिए प्रवेश द्वार को मिट्टी से बंद भी कर देती है।

मांद बनाना रेगिस्तान की कठोर जलवायु में जीवित रहने के लिए एक आवश्यक कौशल है। पैदा होने के कुछ ही समय बाद सांडे के शिशु मादा के साथ भोजन की तलाश के साथ-साथ मांद की खुदाई सीखना भी शुरू कर देते हैं। अन्य सरीसृपों के समान सांडे भी अत्यधिक सर्दी के समय दीर्घकाल के लिए शीतनिद्रा में चले जाते हैं। इस दौरान ये अपनी शरीर की चयापचय क्रिया को धीमी कर शरीर में संचित वसा पर ही जीवित रहते हैं। वैसे कच्छ के घास के मैदानों में शिशु सांडों को दिसम्बर-जनवरी में भी सक्रिय देखा गया हैं। इसका कारण कच्छ में सर्दियों में तापमान की गिरावट में अनियमितता हो सकता है।

सांडों का प्रजनन काल फरवरी से शुरू होता है और छोटे शिशुओं को जून-जुलाई तक घास के मैदानों में उछल-कूद करते देखा जा सकता है। वर्ष के सबसे गर्म समय में भी ये छिपकलियां दिनचर बनी रहती हैं। गर्मी के दिनों में तेज़ धूप खिलने पर ये दोपहर तक ही सक्रिय रहते हैं। यदि किसी दिन बादल छाए रहें तो शाम तक भी सक्रिय रहते हैं।

सांडा मरुस्थलीय खाद्य शृंखला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है तथा यह खाद्य पिरामिड के सबसे निचले स्तर पर आता हैं। शरीर में ग्लायकोजन और वसा की अधिक मात्रा के चलते ये रेगिस्तान में कई परभक्षी जीवों का प्रमुख भोजन हैं। सांडे को भूमि तथा हवा दोनों तरफ से परभक्षी खतरों का सामना करना पड़ता है। मरुस्थल में पाए जाने वाले परभक्षी जीवों की विविधता सांडों की बड़ी आबादी का ही परिणाम है। हैरियर और फाल्कन जैसे शिकारी पक्षियों को अक्सर इन छिपकलियों का शिकार करते देखा जा सकता है। बड़े शिकारी पक्षी ही नहीं, किंगफिशर जैसे छोटे पक्षी भी नवजात सांडों का शिकार करने से नहीं चूकते।

पक्षियों के अलावा अनेकों सरीसृप भी रेगिस्तान में इस उच्च ऊर्जावान खाद्य स्रोत को प्राप्त करने का अवसर नहीं गंवाते। थार रेगिस्तान में विषहीन दोमुंहा सांप (Red sand-boa) अक्सर सांडे को मांद से बाहर खदेड़ते हुए देखा जा सकता है। दोमुंहे द्वारा मांद में हमला करने पर सांडे के पास अपने पंजों से ज़मीन पर मज़बूत पकड़ बनाने एवं मांद के संकरेपन के अलावा अन्य कोई सुरक्षा उपाय नहीं होता। हालांकि सांडे को मांद से बाहर निकालना बिना हाथ पैर वाले जीव के लिए आसान काम नहीं होता लेकिन यह प्रयास व्यर्थ नहीं है क्योंकि एक सफल शिकार का इनाम ऊर्जा युक्त भोजन होता है। शाम को सक्रिय होने वाली मरु-लोमड़ी भी अक्सर सांडे को मांद से खोदकर शिकार करते देखी जा सकती है।

परभक्षी जीवों की ऐसी विविधता के कारण सांडे ने भी जीवित रहने के लिए सुरक्षा के कई तरीके विकसित किए हैं। हालांकि इसके पास कोई आक्रामक सुरक्षा प्रणाली तो नहीं हैं परंतु इसका छलावरण, फुर्ती एवं सतर्कता इसके प्रमुख सुरक्षा उपाय हैं। इसकी त्वचा का रंग रेत एवं सूखी घास के समान होता है जो आसपास के परिवेश में अच्छी तरह घुल-मिल जाता है।

यदि छलावरण काम नहीं करता, तो शिकारियों से बचने के लिए यह अपनी गति पर निर्भर रहता है। सांडा की पीछे की टांगें मज़बूत तथा उंगलियां लंबी होती हैं जो इसे उच्च गति प्राप्त करने में मदद करती है। इसके अलावा, यह छिपकली भोजन की तलाश के दौरान बेहद सतर्क रहती है, विशेष रूप से जब शिशुओं के साथ हो। वयस्क छिपकली आगे के पैरों के बल सर को ऊपर उठाकर, धनुषाकार पूंछ के साथ आसपास की हलचल पर नज़र रखती है। सांडा अक्सर अपने बिल के निकट ही खाना ढूंढते हैं और मामूली-सी हलचल से ही खतरा भांप कर निकट की मांद मे भाग जाते हैं।

सांडे अक्सर समूहो में रहते हैं तथा अपनी मांद एक-दूसरे से निश्चित दूरी पर ही बनाते हैं। प्रजनन काल में अक्सर नरों को मादाओं के लिए मुकाबला करते देखा जा सकता है। नर अपने इलाके को लेकर सख्त क्षेत्रीयता प्रदर्शित करते हैं तथा अन्य नर के प्रवेश पर आक्रामक व्यवहार दिखाते हैं।

अवैध शिकार एवं खतरे

अलबत्ता, मनुष्यों से सांडा को बचाने में छलावरण, गति और सतर्कता पर्याप्त प्रतीत नहीं होती हैं। सांडे के इलाकों में इनके अंधाधुंध शिकार की घटनाएं अक्सर सामने आती रहती हैं। इस छिपकली को पकड़ने के लिए शिकारी भी कई तरीके इस्तेमाल करते हैं। सबसे सामान्य तरीके में सांडे की मांद में गरम पानी भरकर या मांद को खोदकर उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया जाता है।

एक अन्य तरीके में शिकारी सांडे की मांद के प्रवेश द्वार पर एक रस्सी का फंदा लगा देते हैं तथा उसके दूसरे छोर को छोटी लकड़ी के सहारे ज़मीन में गाड़ देते हैं। जब सांडा अपनी मांद से बाहर निकलता है तो फंदा उसके सिर से निकलते हुए पैरों तक आ जाता हैं तथा जैसे ही सांडा वापस मांद में जाने की कोशिश करता है, फंदा उसके शरीर पर कस जाता है। फिर सांडे को पकड़कर उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ दी जाती है ताकि वह भाग न सके।

सांडे को भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची 2 में रखा गया है, जो इसके शिकार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है। यह जंगली वनस्पतियों और जीवों की लुप्तप्राय प्रजातियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संधि के परिशिष्ट द्वितीय में शामिल है। हालांकि वन्य जीवों के व्यापार के मुद्दे पर कार्यरत संस्था ट्राफिक की एक रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में 1997 से 2001 के बीच सांडों की सभी प्रजातियों के कुल व्यापार में भारतीय सांडे का हिस्सा का मात्र दो प्रतिशत था, लेकिन इस प्रजाति को क्षेत्रीय स्तर पर शिकार के गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारतीय सांडे का छोटा हिस्सा इसके कम शिकार का द्योतक नहीं है, अपितु इसकी अधिक स्थानीय खपत दर्शाता है।

हाल ही में बैंगलुरु के कोरमंगला क्षेत्र से पकड़े गए कुछ शिकारियों के अनुसार सांडे के मांस एवं रक्त की स्थानीय स्तर पर यौनशक्ति वर्धक के रूप में अत्यधिक मांग है। पकड़े गए गिरोह का सम्बंध राजस्थान के जैसलमेर ज़िले से था, जहां पर सांडे अभी भी बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस तरह के गिरोहों का नेटवर्क कितना फैला हुआ है, कोई नहीं जानता। आम जन में जागरूकता की कमी एवं अंधविश्वास के कारण सांडों को अक्सर कई स्थानीय बाज़ारों में खुले बिकते भी देखा जाता है। प्रशासन की सख्ती के साथ-साथ आम जनता में जागरूकता सांडों के सुरक्षित भविष्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। अन्यथा भारतीय चीते के समान यह अनोखा प्राणी भी जल्द ही किताबों व डॉक्यूमेंटरी में सिमटकर रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चोरनी चींटियां अन्य चींटियों के बच्चे खाती हैं

क्सर चींटियां खाने के सामान में चुपके से घुस जाती हैं और उसका नाश कर डालती हैं। लेकिन चींटियों के घर में भी चोरी होती है। खसखस के आकार की चोरनी चींटी (थीफ एंट), अपने से बड़ी चींटियों के बच्चों को अपना भोजन बनाती है। इकॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि अन्य चींटी प्रजातियों को चोरनी चींटियों की इस हरकत की इतनी भारी कीमत चुकानी पड़ती है, कि पूरी खाद्य शृंखला तहस-नहस हो जाती है।

उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका में चोरनी चींटियों की कई प्रजातियां हैं। अधिकांश भूमिगत रहती हैं। ये चींटियां बड़ी चींटियों की बांबी में सुरंग बनाती हैं और अपने से 24 गुना तक बड़ी अन्य चींटियों के बच्चे चुराकर खा जाती हैं। वे वयस्क चींटियों को दूर रखने के लिए उन पर ज़हरीला विष छिड़क देती हैं।

चोरनी चींटियों के काफी संख्या में मौजूद होने के बावजूद, उनके छोटे आकार और भूमिगत रहने के कारण वे अधिकतर वैज्ञानिकों के द्वारा उपेक्षित ही रही हैं। युनिवर्सिटी ऑफ सेंट्रल फ्लोरिडा के छात्र लियो ओहयामा देखना चाहते थे कि जब ये चोरनी चींटियां न हों तो क्या होगा? इसके लिए उन्होंने स्टेट पार्क की रेतीली मिट्टी में 18-18 वर्ग मीटर के 20 प्लॉट तैयार किए। इनमें से 10 प्लॉटों में 14 महीनों तक हर महीने प्लास्टिक ट्यूब में कीटनाशक युक्त चारा रखा। इस ट्यूब के निचले भाग में ऐसी जाली लगाई गई थी कि बड़ी चींटियां इस छेद से अंदर ना जा पाएं।

उन्होंने पाया कि कीटनाशक युक्त भोजन रखने से चोरनी चींटियों की संख्या में 71 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों की संख्या में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई। उन्होंने यह भी पाया कि अध्ययन के दूसरे वर्ष में मई और जून के दौरान, जब चींटियों की संख्या सबसे अधिक होती है, चोरनी चींटियों की संख्या में 82 प्रतिशत की कमी आई और बड़ी चींटियों में 65 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

ऐसा लगता है कि चोरनी चींटियां कुछ ही प्रजातियों को अधिक लक्ष्य करती हैं। क्योंकि जब चोरनी चींटियों की संख्या में कमी आई थी तब पिरामिड चींटी (Dorymyrmexbureni) की संख्या लगभग दुगनी हो गई थी, जबकि निशाचर चींटियों (Nylanderiaarenivaga) की श्रमिक चींटियों की संख्या में 98 प्रतिशत वृद्धि हुई थी। ओहयामा का कहना है कि ये नतीजे बताते हैं कि ये शिकार की गतिविधियां अत्यधिक जटिल हैं और लंबे समय में विकसित हुई होंगी और इस दौरान कुछ चींटियों ने बचाव के तरीके भी विकसित किए होंगे।

युनिवर्सिटी ऑफ कॉनकॉरिडा के समुदाय पारिस्थितिकीविद ज़्यां-फिलिप लेसार्ड का सुझाव है कि इस प्रयोग को लंबे समय तक करके देखना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ये प्रभाव लंबे समय तक बने रहते हैं। इसके अलावा अध्ययन में सिर्फ चींटियों की संख्या, जो काफी बदलती रहती है, की बजाय कॉलोनी के घनत्व को देखना चाहिए था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कॉम्ब जेली का जाड़ों का भोजन उन्हीं के बच्चे

स्थानीय स्तर पर समुद्री अखरोट के नाम से विख्यात कंघे जैसे आकार वाली गिजगिजिया या कॉम्ब जेली (Mnemiopsisleidyi) जीव मूलत: उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक महासागर की वासी है। लेकिन हाल के दशकों में मालवाहक जहाज़ों के बेलास्ट पानी (जहाजों को स्थिर रखने के लिए भरे गए पानी) में सवार होकर ये युरोपीय सागरों में फैल गई हैं। बाल्टिक सागर के पश्चिमी हिस्से में गर्मियों के आखिर में इनकी आबादी में उछाल आता है और ये मछलियों के अंडे और लार्वा और छोटे क्रस्टेशियन जीवों सहित समुद्री खाद्य शृंखला के आधार जीवों का खाकर सफाया कर डालती है। लेकिन सर्दियों के लिए जमा करके रखने हेतु भी इन्हें ढेर सारा भोजन चाहिए। कम्युनिकेशन बॉयोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार उस समय इनके भोजन का सबसे बड़ा स्रोत उनकी अपनी संतानें होती हैं।

डेनमार्क के नज़दीक फ्योर्ड क्षेत्र में इनके अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि ज़रूरत पड़ने पर वयस्क कॉम्ब जेली अपनी ही प्रजाति के लार्वा को खा लेते हैं। इन अवलोकनों के बाद शोधकर्ताओं ने कॉम्ब जेली पर प्रयोगशाला में अध्ययन किया और वहां भी उन्हें यही परिणाम मिले।

गर्मियों में अपनी ही संतानों को खाने की उनकी यह प्रवृत्ति इस रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकती है कि क्यों गर्मियों के अंत में कॉम्ब जेली इतने अधिक लार्वा पैदा करती है, जबकि आने वाले जाड़े में इन लार्वा के जीवित बचने की संभावना भी नहीं होती। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि गर्मियों के अंत में बड़ी संख्या में लार्वा का भक्षण वयस्क कॉम्ब जेली को 2-3 हफ्ते का पोषण उपलब्ध कराता है। इस तरह उन्हें सर्दियों में 80 दिनों तक जीवित रहने के लिए पर्याप्त भोजन का भंडार मिल जाता है।

हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि वे पूरी तरह से इस ऊर्जा संतुलन को समझ नहीं पाए हैं। क्योंकि एक ओर तो वयस्क कॉम्ब जेली को लार्वा पैदा करने में बहुत ऊर्जा लगती है, और ये लार्वा सर्दियों में जीवित भी नहीं रह पाते। दूसरी ओर, ये लार्वा खाद्य शृंखला के निचले स्तर से काफी सारा भक्षण करके इन वयस्कों के लिए भोजन का स्रोत बन जाते हैं, जो वयस्कों को जाड़ों में काम आता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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