अपने पुराने सिर को टोपी बनाए कैटरपिलर

क पतंगे का कैटरपिलर है जिसका सिर थोड़ा अजीब सा दिखता है – लगता है कि उसने हैट पहनी है। इसी वजह से इसका नाम पड़ा है पगला हैटरपिलर। और यह हैट बनी होती है उसके पुराने सिरों से।

दरअसल, उरबा लुगेन्स (Urabalugens) की इल्ली यानी कैटरपिलर जब वृद्धि करता है तो अन्य कीटों के समान यह भी अपनी त्वचा का प्रमोचन करता है और साथ में अपने बाह्य कंकाल का भी। ऐसा यह 13 बार तक करता है और अंत में प्यूपा में तबदील हो जाता है। फिर प्यूपा वयस्क कीट में कायांतरित हो जाता है।

चौथी बार के प्रमोचन के बाद यह अपने सिर की त्वचा व कंकाल अलग तो करता है लेकिन उसे छोड़ता नहीं। हर प्रमोचन के बाद पहले वाला सिर वहीं का वहीं बना रहता है और धीरे-धीरे सिरों की एक मीनार बन जाती है।

यह पतंगा मुख्य रूप से ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड में पाया जाता है। इसका एक नाम गम लीफ स्केलेटनाइज़र भी है। कारण यह है कि यह कैटरपिलर युकेलिप्टस की पत्तियों को इस तरह कुतरता है कि अंत में उनकी शिराओं का कंकाल ही बच जाता है।

क्वींसलैंड के अकशेरुकी संसाधन केंद्र मिनीबेस्ट वाइल्डलाइफ के एलन हेंडरसन का कहना है कि यह मीनारनुमा रचना सिर्फ सजावट की वस्तु नहीं है। यह मीनार कैटरपिलर की रक्षा भी करती है। कैटरपिलर इसकी मदद से शिकारियों को खदेड़ने का काम करता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://s3-assets.eastidahonews.com/wp-content/uploads/2020/08/09081156/haterpillar.jpg

चातक के अंडों-चूज़ों की परवरिश करते हैं बैब्लर – कालू राम शर्मा

क्षी जगत बड़ी विचित्रताओं से लबरेज है। जहां अधिकतर पक्षी घोंसला बनाने, अंडों को सेने व चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा स्वयं उठाते हैं, वहीं ऐसे भी पक्षी हैं जो यह काम दूसरे पक्षियों को सौंप देते हैं। ऐसे पक्षियों को घोंसला परजीवी कहते हैं। घोंसला परजीवियों में कोयल और पपीहे के अलावा चातक भी हैं।

चातक के बारे में किंवदंती है कि यह मानसून में स्वाति नक्षत्र का ही पानी पीता है। यह किंवदंती क्यों पड़ी होगी? मानसून के दौरान चातक का प्रजनन काल होता है। इस दौरान यह जोड़ा बांधता है। नर चातक मादा को लुभाने के लिए हवा में अठखेलियां करता है। हवा में उड़ते हुए यह पिहु-पिहु की आवाज़ निकालता है। इस दौरान इसकी चोंच आसमान की ओर खुली हुई होती है। ऐसा लगता है मानो यह बरसात की बूंदों को चोंच में ग्रहण कर रहा हो।

परजीवीपन का यह उदाहरण दुनिया भर की लगभग 80 पक्षी प्रजातियों में देखा गया है। इनमें से तीन पक्षी भारत में देखे गए हैं – कोयल, चातक (क्लैमेटर जर्कोबिनस) व पपीहा। चातक कोयल परिवार (cuculinae) का सदस्य है जो जो पेसेराइन (passerine) प्रजातियों के घोंसलों में अंडे देते हैं। चातक बैब्लर पक्षी यानी ‘सात भाई’ (Turdoidesaffinis) के घोंसलों में अंडे देता है। चातक के अंडों का रूप-रंग सात भाई पक्षियों के अंडों से काफी मेल खाता है।

चातक सामान्य मैना के आकार का पक्षी है जबकि पूंछ मैना की पूंछ से लंबी होती है। इसकी पीठ व पंख काले और पेट, छाती व गर्दन वाला हिस्सा सफेद होता है। सिर पर चोटी निकली होती है। काले पंखों में ऊपर की ओर एक अंडाकार सफेद पट्टा-सा होता है जो उड़ते वक्त साफ देखा जा सकता है। नर और मादा एक समान ही होते हैं।

चातक हमारे यहां का बारहमासी पक्षी नहीं है। यह अफ्रीका से भारत में मई के अंत में या जून के पहले सप्ताह में प्रवास करके आता है। इस दौरान यह यहां पर प्रजनन करता है।

चातक का जीव वैज्ञानिक नाम क्लैमेटर जर्कोबिनस है। प्रजनन विस्तार के अनुसार इसकी तीन उप प्रजातियां देखी गई है: क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस दक्षिण अफ्रिका व दक्षिणी ज़ांबिया में, क्लैमेटेर जर्कोबिनस पाइका सहारा के दक्षिण में उत्तर ज़ांबिया और मलावी, उत्तर-पश्चिम भारत से नेपाल और म्यांमार तक तथा क्लैमेटर जर्कोबिनस जैकोबिनस दक्षिण भारत, श्रीलंका, दक्षिण म्यांमार में प्रजनन करती हैं। चातक पक्षी की दो उप-प्रजातियां भारत में मिलती हैं। हमारे यहां जो चातक मानसून में दिखाई देता है वह क्लैमेटर जर्कोबिनस सेरेटस है। यह उप-प्रजाति मानसून में अफ्रीका से भारत में प्रजनन के लिए आती है। दूसरी छोटे आकार की जैकोबिनस श्रीलंका व दक्षिण भारत की स्थानीय उप-प्रजाति है।

चातक संपूर्ण भारत समेत पाकिस्तान, बांग्लादेश श्रीलंका तथा बर्मा में पाया जाता है। हिमालय में 8000 फीट की ऊंचाई तक देखा गया है। चातक अधिकतर घने वृक्षों व खुले जंगलों, कस्बों व गांवों की सीमा के भीतर बाग-बगीचों में दिखता है। इसे शहरों में पेड़ों पर भी देखा गया है। इनकी मौजूदगी एक से दूसरे पेड़ पर नर और मादा के बीच पकड़ा-पकड़ी के रूप में देखने को मिलती है। इस दौरान ये पिहू, पिहू… की आवाज़ करते हैं। इनकी आवाज़ को मैंने रात में भी सुना है। ये पूरी तरह से वृक्षवासी हैं जो झाड़ियों व ज़मीन पर कीड़ों को चुगने के लिए चंद पल के लिए उतरते हैं और फिर से उड़कर वृक्ष पर चले जाते हैं। चातक आम तौर पर कीटों व इल्लियों व बेरी फलों को खाते हैं।

चातक का प्रजनन काल जून से अगस्त के दौरान होता है। यह दिलचस्प है कि परजीवी चातक ने अपने अंडों-चूज़ों की परवरिश का ज़िम्मा बैब्लर पक्षी को सौंप दिया है। बैब्लर को हिंदी में सात भाई व अंग्रेज़ी में सेवन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। आपने अपने आसपास सात भाई पक्षी को ज़रूर देखा होगा। सात भाई छह या अधिक के झुंड में रहते हैं। बैब्लर असम को छोड़कर पूरे भारत में पाए जाते हैं। ये सूखे खुले देहाती क्षेत्रों और कंटीले झाड़-झंखाड़ वाली जगहों में रहना पसंद करते हैं। ये झाड़ियों, बाग-बगीचों में भी देखने को मिलते हैं। आम तौर पर सात भाई ज़मीन पर ही फुदकते दिखते हैं। खतरा होने पर ही ये अपने झुंड के साथ थोड़ी दूरी की उड़ान भरते हैं। इनकी आवाज व्हिच, व्हिच, व्हिक, रि-रि-रि जैसी होती है। सात भाई झाड़ियों में घास-फूस का प्यालेनुमा घोंेसला बनाते हैं। इनके घोंसलों में चातक के अलावा भारतीय मूल का स्थाई निवासी पपीहा भी अंडे देता है।

घोंसला परजीविता प्रजनन की एक रणनीति है। घोंसला परजीवी पक्षी दूसरे के घोंसले में अंडे देकर परवरिश के झंझट से मुक्त हो जाते हैं। घोंसला बनाने, अंडों को सेहने व चूज़ों की देखभाल में काफी ऊर्जा खर्च होती है। चातक ने यह ज़िम्मेदारी बैब्लर को सौंप दी। ऐसा नहीं है कि परजीवी प्रजाति का पक्षी किसी भी पक्षी का घोंसला देखे और उसमें अंडे दे दे।

मादा बैब्लर घोंसला बनाकर अंडे देती है। इसी दौरान मादा चातक ताक में होती है और मौका देखकर उसके घोंसले में अंडे दे देती है। रोचक बात यह है कि परजीवी पक्षियों के अंडों का रंग-रूप मेज़बान पक्षी के अंडों से काफी मिलता-जुलता होता है। इतना ही नहीं परजीवी पक्षी का अपने मेज़बान पक्षी के घोंसला बनाने व अंडे देने के वक्त के साथ भी तालमेल दिखता है। जब मेज़बान पक्षी अंडे देगा उसी दौरान परजीवी पक्षी भी अंडे देगा। यह तालमेल जैव विकास की प्रक्रिया में कई पीढ़ियों में पनपा होगा।

मेज़बान पक्षी परजीवी पक्षी के चूज़ों के साथ किस प्रकार का बर्ताव करते हैं, यह शोध का विषय रहा है। चातक के अंडों से चूज़े निकलते हैं तो मेज़बान पक्षी का रवैया सौतेला नहीं होता। उल्टे मेज़बान पक्षी इन पराए चूज़ों का खासा ख्याल रखते हैं। चातक व बैब्लर के अंडों से निकले चूज़ों के अवलोकन से पता चला है कि बैब्लर चातक के चूज़ों की अधिक देखभाल करते हैं।

शोधकर्ताओं ने श्रीलंका में बैब्लर व चातक के चूज़ों के कुछ अवलोकन लिए। ज़मीन पर चातक पक्षी के चूज़े को बैब्लर के झुंड द्वारा चुगाते हुए देखा गया। वहां बैब्लर के चूज़े भी थे। यह भी देखा गया कि चातक का चूज़ा ज़्यादा उड़ भी नहीं पा रहा था। बैब्लर के चूज़े अधिक सक्रिय थे। प्रतीत हो रहा था कि चातक के चूज़ों की तुलना में उनकी अधिक वृद्धि हुई है। दिलचस्प अवलोकन यह भी था कि जंगली बैब्लर का झुंड चातक के चूज़े का खतरों से बचाव भी कर रहा था। कुल दस मिनट के अवलोकन में जंगली बैब्लर ने चातक के चूज़े को दो बार चुगाया।

इसी प्रकार का एक और अवलोकन किया गया। यह अवलोकन शाम के वक्त का है। नारियल के बगीचे में वयस्क जंगली बैब्लर के साथ अवयस्क चूज़े देखे गए। इस समूह में दो चूज़े चातक के भी थे। जंगली बैब्लर को उड़ते हुए देख चातक के चूज़े कुलांचे भरने लगे और उड़ने लगे। वे लगातार चुग्गे (भोजन) की मांग कर रहे थे। वे लंबी उड़ान भरकर शाखा पर बैठ नहीं पा रहे थे। इस दौरान भी जंगली बैब्लर्स चातक के चूज़ों का अधिक ख्याल रख रहे थे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://blog.nationalgeographic.org/wp-content/uploads/2018/04/PiedJacobins-Cuckoo-Clamator-jacobinus-being-fed-by-Jungle-Babbler-Turdoides-striata-Location-Jawai-Bandh-Rajsthan-India-Photographer-Shaurya-Shashwat-Shukla-720×467.jpg

एक छोटी-सी चिड़िया जानती है संख्याएं

छोटी से बादामी रंग की फुर्तीली हमिंगबर्ड लंबे प्रवास के लिए जानी जाती है। लेकिन हाल ही में इनकी एक और विशेषता का पता चला है। वे रसदार फूलों को क्रम अनुसार याद रखने की क्षमता भी रखती हैं। यानी वे यह पता लगा सकती हैं कि किस स्थान पर पहले फूल खिलने वाले हैं और कहां उसके बाद। वैसे तो संख्या क्रम की ऐसी समझ काफी सरल लगती है लेकिन यह एक जटिल कौशल है जिसकी मदद से हमिंगबर्ड को भरपूर मकरंद वाले फूलों के बीच आसान रास्ता याद करने में मदद मिलती है। शोधकर्ताओं को पहली बार किसी जंगली कशेरुकी जीव में इस क्षमता का पता चला है।  

प्रयोगशाला में प्रशिक्षित कई जीव, जैसे चूहे, गप्पी और बंदर चीज़ें गिन सकते हैं और यह भी समझ सकते हैं कि किसी क्रम में कोई चीज़ कहां फिट होती है। लेकिन प्राकृतिक स्थिति में इस क्षमता तथा इसके उपयोग के बारे में ज़्यादा कुछ मालूम नहीं था।

इसके लिए युनिवर्सिटी ऑफ सेंट एंड्रयूज़ की जीव विज्ञानी सुज़न हीली और उनके सहयोगियों ने हमिंगबर्ड (Selasphorusrufus) के नर को अध्ययन के लिए चुना। ये सिर्फ 8 सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनके भोजन के क्षेत्र अच्छी तरह से परिभाषित होते हैं और उन्हें अपने इलाके के भूगोल का भी अच्छा ज्ञान होता है। इसके अलावा ये पक्षी एक रसीले फूल से दूसरे तक जाने के लिए कार्यक्षम मार्ग का उपयोग करते हैं।

इस तरह से मार्ग बनाने की क्षमता ने शोधकर्ताओं को काफी प्रभावित किया। क्या वे यूं ही एक लक्ष्य से दूसरे लक्ष्य की ओर जाते हैं या फिर वे यह काम एक क्रम में करते हैं? इसका पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने उत्तरी अमेरिका के पथरीले पहाड़ों में फीडर्स (भोजन के पात्र) रखे जिनमें मकरंद जैसा रस था। यह प्रयोग मई के महीने में किया गया जब हमिंगबर्ड्स उस क्षेत्र में आना शुरू करते हैं। शोधकर्ताओं ने देखा कि भोजन के लिए पक्षी एक विशेष फीडर का ही उपयोग करता है और अन्य पक्षियों से अपने इलाके की रक्षा भी करता है। ऐसे पक्षियों को पकड़कर चिंहित कर दिया गया। ऐसे 9 चिंहित पक्षियों को कृत्रिम फूल से भोजन प्राप्त करने का प्रशिक्षण दिया। कृत्रिम फूल और कुछ नहीं पीले फोम की एक चकती थी जिसके बीच में एक नली में मकरंद भरा था।

पक्षियों में संख्या क्रम की समझ को देखने के लिए शोधकर्ताओं ने 10 एक जैसे कृत्रिम फूलों को पंक्तिबद्ध किया। उन्होंने पहले फूल में रस डाला और देखा कि हमिंगबर्ड किस फूल की ओर जाते हैं। सभी पक्षी समान रूप से पहले फूल की तरफ ही गए। कभी-कभार वे अन्य फूलों को भी देख लेते थे कि कहीं उनमें रस तो नहीं है।

इसके बाद टीम ने फूलों को पुन:व्यवस्थित करना शुरू किया ताकि पक्षियों को न पता लग सके कि किस फूल में रस है। इसके बाद भी पक्षियों ने पंक्ति में पहला फूल चुना जिससे पता चलता है कि उनमें ‘पहले’ की समझ है। इसके बाद जब टीम ने पूरे प्रयोग को फिर से दोहराया और पंक्ति में, उदाहरण के लिए तीसरे फूल, में रस डाला। तब उन्होंने पाया कि सभी पक्षी सीधे तीसरे फूल की ओर जा रहे हैं। इससे पता चलता है कि वे पंक्ति में तीसरे फूल को पहचानते थे।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि हमिंगबर्ड्स में संख्या क्रम की समझ होती है और वे इसे कुशलता से भोजन की तलाश के लिए उपयोग करते हैं। वैसे यह प्रयोग इस संभावना को निरस्त नहीं करता कि भोजन की तलाश के लिए विभिन्न पक्षी विभिन्न रणनीतियों का उपयोग करते हों।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/Hummingbird_1280x720.jpg?itok=5f_MccOW

चमगादड़ 6.5 करोड़ वर्ष से वायरसों को गच्चा दे रहे हैं

भी तक सार्स-कोव-2 वायरस लगभग 1.5 करोड़ लोगों को बीमार कर चुका है लेकिन चमगादड़ों का ऐसे वायरसों के साथ जीने का काफी पुराना इतिहास रहा है। चमगादड़ परिवार की छह प्रजातियों के हालिया अनुक्रमित जीनोम से पता चला है कि वे पिछले 6.5 करोड़ वर्षों से वायरस को बड़ी चालाकी से गच्चा दे रहे हैं।

गौरतलब है कि विश्व में चमगादड़ों की 1400 से अधिक प्रजातियां हैं। ये 2 ग्राम से लेकर 1 कि.ग्रा. से भी अधिक वज़न के होते हैं। कुछ तो 41 वर्ष की उम्र तक जीते हैं जो उनके आकार के हिसाब से काफी अधिक है। इनमें कोरोनावायरस सहित सभी प्रकार के वायरस बिना किसी कुप्रभाव के पाए जाते हैं। चमगादड़ों के इस रहस्य की खोज करने के लिए वर्ष 2017 में एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने बैट 1k परियोजना की शुरुआत की थी। इस परियोजना के तहत चमगादड़ों की समस्त प्रजातियों के जीनोम का अनुक्रमण करने का लक्ष्य है। नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अब तक छह जीनोम का अध्ययन पूरा हो गया है। 

शोधकर्ताओं द्वारा इन नव अनुक्रमित जीनोम की तुलना 42 विभिन्न स्तनधारियों के जीनोम से की गई। उन्होंने पाया कि अनुमान के विपरीत चमगादड़ों के सबसे करीबी रिश्तेदार छछूंदर, लीमर या चूहे नहीं बल्कि इनके पूर्वज उन स्तनधारियों के भी पूर्वज हैं जो अंतत: घोड़े, पैंगोलिन, व्हेल और कुत्तों में विकसित हुए।

आगे विश्लेषण से पता चला है कि चमगादड़ कम से कम ऐसे 10 जीन्स को निष्क्रिय कर चुके हैं जो अन्य स्तनधारियों में संक्रमण के खिलाफ शोथ (इन्फ्लेमेशन) प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। इसके अलावा उनमें वायरस-रोधी जीन्स की अतिरिक्त प्रतियां और परिवर्तित रूप भी पाए गए जो रोगों के प्रति उनकी उच्च सहनशीलता की व्याख्या करते हैं। इसके साथ ही चमगादड़ों के जीनोम में पूर्व-वायरल संक्रमण से प्राप्त डीएनए के टुकड़े पाए गए जो वायरस की प्रतिलिपियां बनते समय चमगादड़ के जीनोम में जुड़ गए होंगे। वायरल डीएनए के इन टुकड़ों के अध्ययन के आधार पर टीम का कहना है कि अन्य स्तनधारियों की तुलना में चमगादड़ों में अधिक वायरल संक्रमण हुए हैं। इससे चमगादड़ों में वायरल संक्रमण को सहन करने और अधिक कुशलता से जीवित रहने की क्षमता उजागर होती है।

यह विश्लेषण चमगादड़ों में शिकार करने के तरीके के रूप में प्रतिध्वनि की मदद से स्थान-निर्धारण (इकोलोकेशन) की वैकासिक उत्पत्ति का खुलासा करने में भी सहायक हो सकता है। अगले वर्ष तक बैट 1k परियोजना के तहत 27 अन्य जीनोम अनुक्रमित करने की योजना है जिनमें प्रत्येक प्रजाति के एक चमगादड़ को लिया जाएगा। इस परियोजना की सह-संस्थापक और युनिवर्सिटी कॉलेज डबलिन की जीव विज्ञानी एमा टीलिंग इस परियोजना को जारी रखने के लिए वित्तीय सहायता प्राप्त करने की कोशिश कर रही हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/bat_1280p.jpg?itok=JO6m6ZGy

कुत्ते पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग करते हैं

कुत्ते अपनी सूंघने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध हैं लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि उनमें चुंबकीय कम्पास जैसी संवेदी प्रतिभा भी होती है। यह क्षमता उन्हें अपरिचित इलाकों में पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की मदद से छोटा रास्ता ढूंढने में मदद करती है।

यह तो पहले से अंदाज़ा था कि कुत्ते जैसे कई जानवर (और शायद इंसान भी) पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को महसूस कर सकते हैं। 2013 में चेक युनिवर्सिटी ऑफ लाइफ साइंसेज़, प्राग के संवेदना पारिस्थितिकीविद हाइनेक बर्डा और उनके साथियों ने बताया था कि कुत्ते मूत्र या मल त्याग करते समय खुद को उत्तर-दक्षिण में उन्मुख करते हैं। इससे उन्हें अपने इलाके को चिन्हित करने और पहचानने में मदद मिलती है। लेकिन स्थिर अवस्था में दिशा ज्ञान और चलते-फिरते दिशा निर्धारण में फर्क होता है।

इस बारे में अधिक पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने चार कुत्तों पर वीडियो कैमरा और जीपीएस ट्रैकर्स लगाए और उन्हें जंगल की सैर कराने ले गए। कुत्ते किसी गंध का पीछा करते हुए करीब 400 मीटर तक भागे। लौटकर आने में दो तरह के व्यवहार दिखे। पहला व्यवहार डब्ड ट्रैकिंग था। इसमें कुत्तों ने संभवत: गंध का पीछा करते हुए वापसी के लिए वही रास्ता अपनाया जिससे वे गए थे। दूसरा व्यवहार स्काउटिंग था जिसमें कुत्तों ने वापसी के लिए बिना मुड़े-पीछे देखे एकदम नया रास्ता लिया था।

अध्ययन में शोधकर्ताओं का ध्यान इस बात पर गया कि कुत्तों के स्काउटिंग व्यवहार में वापस आते समय कुत्ते बीच में रुके और रास्ता तय करने के पहले उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 20 मीटर दौड़े। लगता था कि इस तरह चुंबकीय क्षेत्र की सीध में आने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन इस बात को पक्के तौर पर कहने के लिए शोधकर्ताओं के पास पर्याप्त डैटा नहीं था।

इसलिए शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन 27 कुत्तों के साथ किया। लगभग 223 बार स्काउटिंग व्यवहार देखा गया। वापसी में कुत्तों ने औसतन 1.1 किलोमीटर की दूरी तय की। 223 बार में से 170 में कुत्ते मुड़ने के पहले रुके और उत्तर-दक्षिण दिशा में लगभग 20 मीटर तक दौड़े। जब कुत्तों ने ऐसा किया तो वे मालिक के पास अधिक सीधे रास्ते से पहुंचे। ये नतीजे ईलाइफ में पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

अध्ययन में कई सावधानियां बरती गई थीं। जैसे कुत्तों को किसी भी तरह मार्ग सम्बंधी संकेत नहीं मिलने दिया गया। कुत्तों को जंगल के अपरिचित स्थानों पर ले जाया गया। उनके मालिक कुत्तों के पलटने के पहले ही छिप गए। और वापसी के वक्त हवा का रुख उनके मालिकों की ओर से नहीं था यानी वे गंध की मदद से रास्ता तलाश नहीं कर सकते थे। शोधकर्ताओं का विचार है कि कुत्तों ने पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से सीध के आधार पर वापसी का मार्ग तय किया।

अन्य शोधक्रताओं का कहना है कि यह तय करना बहुत मुश्किल है कि यहां 100 फीसदी चुंबकीय-संवेदना ही काम कर रही है। अलबत्ता, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी कि कुत्ते चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग कर सकते हैं। हो सकता है कि यह एक प्राचीन क्षमता है जो लंबी दूरी तय करने वाले प्राणियों में पाई जाती है।

शोधकर्ता अब कुतों की कॉलर पर चुंबक बांध कर स्थानीय चुंबकीय क्षेत्र में बाधा पहुंचा कर फिर से इसी तरह के प्रयोग दोहराकर देखना चाहते हैं कि क्या इससे उनके मार्ग निर्धारण में बाधा आती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i0.wp.com/sciencenews18.com/wp-content/uploads/2020/07/Humans-use-maps-to-navigate-while-dogs-use-magnetic-field-to-do-so.png

डॉल्फिन साथियों से सीखती हैं शिकार का नया तरीका

गभग दस साल पहले पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की शार्क बे में वैज्ञानिकों का ध्यान बॉटलनोज़ डॉल्फिन (Tursiopsaduncus) के विचित्र व्यवहार की ओर गया था। उन्होंने देखा कि ये डॉल्फिन किसी मछली को विशाल घोंघों की खाली खोल के अंदर ले जाती हैं। जब मछली खोल के अंदर चली जाती है तो डॉल्फिन खोल को समुद्र की सतह पर लाती हैं और उसे ज़ोर-ज़ोर से हिलाती हैं जिससे मछली सीधे उनके खुले हुए मुंह में गिरती हैं। शिकार के इस तरीके, जिसे शेलिंग कहते हैं, से उन्हें निश्चित तौर पर भोजन मिलता है। और अब करंट बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि डॉल्फिन शिकार के लिए घोंघे की खोल का इस्तेमाल करने की तकनीक अपने दोस्तों से सीखती हैं।

बॉटलनोज़ डॉल्फिन द्वारा किसी खोल का उपयोग करना औज़ार के उपयोग का एक उदाहरण है। औज़ार की मदद से शिकार करने का उनका यह दूसरा ज्ञात उदाहरण है। 1997 में देखा गया था कि बॉटलनोज़ डॉल्फिन समुद्र के पेंदे में मछली पकड़ने के लिए समुद्री स्पंज को अपनी चोंच के ऊपर सुरक्षात्मक दस्ताने जैसे पहनती हैं।

वैसे तो वैज्ञानिकों ने शेलिंग का अवलोकन 10 साल पहले किया था लेकिन इस व्यवहार में वृद्धि 2011 में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में आई एक असामान्य समुद्री ग्रीष्म लहर के बाद देखी गई थी। बढ़े हुए तापमान के कारण समुद्री घोंघों सहित कई जीवों की मृत्यु हो गई। संभवत: डॉल्फिन ने घोंघों की इस मृत्यु का लाभ उठाया। इस घटना के अगले साल शेलिंग में ज़बर्दस्त वृद्धि देखी गई थी। इसने मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर की सोन्जा वाइल्ड और उनके साथियों को यह पता लगाने को प्रेरित किया कि युवा डॉल्फिन शेलिंग सीखती कैसे हैं।

साल 2007 से 2018 के बीच हुए खाड़ी सर्वेक्षण के दौरान शोधकर्ताओं का लगभग 5300 डॉल्फिन के समूह से सामना हुआ और जिसमें उन्होंने 1000 से अधिक डॉल्फिन की पहचान की। 19 ऐसी डॉल्फिन भी दिखीं जो तीन आनुवंशिक वंशावली की थी और 42 बार शेलिंग करते हुए पाई गर्इं थी।

यह जानने के लिए कि डॉल्फिन यह तकनीक कैसे सीखती हैं शोधकर्ताओं ने सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण किया। जिसमें उन्होंने आनुवंशिक सम्बंधों, पर्यावरणीय कारकों और डॉल्फिन किन जानवरों के साथ समय बिताना पसंद करती है का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि शेलिंग मां से सीखने की बजाए अपने मित्रों या साथियों से सीखा जाता है। वाइल्ड बताती हैं कि शेलिंग वयस्क डॉल्फिन करती हैं। जितना अधिक समय युवा डॉल्फिन किसी निपुण शेलर के साथ बिताती हैं उसके तकनीक सीखने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।

फिर भी, चूंकि शिशु डॉल्फिन अपनी माताओं के साथ लगभग 30,000 घंटों से अधिक समय बिताते हैं, तो यह भी एक संभावना हो सकती है कि कुछ डॉल्फिन ने यह तकनीक अपनी मां से सीखी हो। ऐसा माना जाता है कि शेलिंग जैसे कौशल किसी असम्बंधित सदस्य से सीखने के लिए अधिक संज्ञानात्मक क्षमता की ज़रूरत होती हैं क्योंकि सीखने वाले और सिखाने वाले, दोनों को ‘सामाजिक रूप से सहिष्णु’ होना ज़रूरी है – विशेषकर शिकार के समय।

ये नतीजे बदलते पर्यावरण का सामना कर रहीं डॉल्फिन के अस्तित्व के लिए आशाजनक हो सकते हैं। जैसे पक्षियों की कुछ नवाचारी प्रजातियां नए आवास तलाशने में बेहतर होती हैं, उसी तरह हो सकता है कि शिकार के इस तरीके को अपना कर डॉल्फिन की संख्या और विविधता भी बढ़ जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Snapping_shrimp_1280x720.jpg?itok=xvBNujr1

घोड़ों के पक्षपाती चयन की जड़ें प्राचीन समय में

घोड़ों के बारे में भी कई मिथक हैं। जैसे कई घुड़सवार कहते हैं कि वे ‘तुनकमिजाज़’ घोड़ी की बजाय ‘अनुमान योग्य’ बधिया घोड़े पसंद करते हैं, जबकि वास्तव में दोनों के व्यवहार में कोई अंतर नहीं होता। और अब जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित एक नया अध्ययन बताता है कि संभवत: घोड़ों के प्रति हमारे पक्षपाती विचारों की जड़ें प्राचीन समय में हैं। सैकड़ों प्रचीन घोड़ों के कंकालों के डीएनए विश्लेषण के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि कांस्य युगीन युरेशियाई लोग नर घोड़ों को वरीयता देते थे।

संभवत: मनुष्य ने घोड़ों को पालतू बनाने का काम युरेशियन घास के मैदानों पर लगभग 5500 साल पहले किया था। उससे पहले शायद वे घोड़े का शिकार भोजन के लिए करते थे। शोधकर्ताओं को मनुष्यों के हज़ारों साल पुराने आवास स्थलों के पास से बड़ी संख्या में घोड़े दफन मिले थे। लेकिन सिर्फ हड्डियों को देखकर घोड़े के लिंग का पता लगाना मुश्किल था।

इसलिए पॉल सेबेटियर विश्वविद्यालय के पुरा-जीनोम वैज्ञानिक एन्तोन फेजेस और उनके साथियों ने 268 प्राचीन घोड़ों की हड्डियों के डीएनए का विश्लेषण किया। ये हड्डियां लगभग 40,000 ईसा पूर्व से 700 ईसवीं के दौरान की थीं जो युरेशिया के विभिन्न पुरातात्विक स्थलों से बरामद हुई थीं। इनमें से कुछ घोड़ों को सोद्देश्य दफनाया गया था, जबकि शेष अन्य को ऐसे ही कचरे के ढेर में छोड़ दिया गया था।

अध्ययन में शोधकर्ताओं को सबसे प्राचीन स्थलों पर मादा घोड़ों और नर घोड़ों की संख्या में संतुलन देखने को मिला जिससे लगता है कि शुरुआती युरेशियन मनुष्य दोनों लिंग के घोड़ों का समान रूप से शिकार करते थे। यहां तक कि बोटाई शिकारी-संग्रहकर्ता समुदाय, जो लगभग 5500 साल पहले मध्य एशिया में घोड़ों को पालतू बनाने वाले प्रथम लोग थे, भी घोड़ों के किसी एक लिंग को प्राथमिकता नहीं देते थे।

लेकिन लगभग 3900 साल पहले घोड़ों के चयन में भारी बदलाव आया। इस समय के बाद से, युरेशिया की कई संस्कृतियों की पुरातात्विक खोज में काफी संख्या में नर घोड़े मिले। मादा घोड़ों की तुलना में नर घोड़ों की संख्या तीन गुना अधिक थी। इनमें दोनों तरह के घोड़े थे – जिन्हें सोद्देश्य दफनाया गया था या यूं ही कचरे के ढेर में छोड़ दिया गया था। लेकिन नर घोड़े ही बहुतायत में क्यों? फेजेस का कहना है कि सामाजिक और टेक्नॉलॉजिकल परिवर्तनों के कारण मनुष्यों में एक खास ‘लिंग’ के प्रति झुकाव हुआ।

कांस्य युगीन कलाकृतियों में हमेशा पुरुषों को महिलाओं से अलग तरीके से विभूषित, चित्रित किया गया, और दफन किया गया है। जबकि ऐसा व्यवहार इसके पूर्व नवपाषाण युग में नहीं दिखाई देता। कई शोधकर्ता इन संकेतों की व्याख्या इस तरह करते हैं कि दूरस्थ जगहों पर व्यापार करने और धातु उत्पादन ने पुरुषों का वर्चस्व बढ़ाया जिसके कारण नई सामाजिक व्यवस्था बनी। जैसे-जैसे धातुकर्मियों, योद्धाओं और शासकों के बीच वर्ग विभाजन हुआ, पुरुषों और महिलाओं के बीच भेद भी बढ़ा। यदि समाज अधिक पुरुष-पक्षी हो तो संभव है कि वे इस तरह की धारणाओं को अपने वफादार घोड़ों पर भी लागू करेंगे – और मानने लगेंगे कि नर घोड़े अधिक शक्तिशाली या सक्षम होते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि एक संभावना यह भी हो सकती है कि मादा घोड़ों को प्रजनन के उद्देश्य से जीवित रखा गया हो और नर घोड़ों को छोड़ दिया गया हो जिसके कारण वे अधिक दिखाई देते हैं – खासकर प्राचीन कचरे के ढेरों में। इस पर फेजेस कहते हैं कि यदि ऐसा है तो (नदारद) मादा घोड़ों के अवशेष मानव बस्तियों के आसपास कहीं तो मिलना चाहिए, लेकिन वैज्ञानिक अब तक उन्हें खोज नहीं पाए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Bronze_Age_Horses_1280x720.jpg?itok=KvuIiV0i

एक झींगे की तेज़ गति वाली आंखें

क मामूली माचिस की तीली जितने बड़े स्नैपिंग झींगे (Alpheus heterochaelis) अपने जबड़ों को झटके से बंद करके ऊंची आवाज़ निकालने के लिए मशहूर हैं। इस आवाज़ के कंपन से उनका शिकार या शत्रु भौंचक्का रह जाता है। इन्हें पिस्तौल झींगा भी कहते हैं। और अब शोधकर्ताओं ने जबड़ों की इस रफ्तार से मेल खाती उनकी दृष्टि की भी खोज की है।

इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक जीवित मगर ठंड से अचेत झींगे की आंख में एक पतला विद्युत चालक तार चिपकाया और झिलमिलाते प्रकाश के जवाब में आंखों से उत्पन्न होने वाले विद्युत आवेगों को रिकॉर्ड किया। बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार स्नैपिंग झींगा अपनी आंखों में दृश्य को एक सेकंड में 160 बार तरोताज़ा करता है।

पानी में रहने वाले जीवों में यह अब तक देखी गई सबसे अधिक दृश्य-नवीनीकरण दर है। कबूतरों में यह प्रति सेकंड 143 है और मनुष्यों में केवल 60 प्रति सेकंड। इस मामले में मात्र दिन में उड़ने वाले कीट ही स्नैपिंग झींगे को टक्कर दे सकते हैं। दृश्य-नवीनीकरण का मतलब होता है रेटिना पर से एक छवि को मिटाकर दूसरी छवि का बनना।

अर्थात जो वस्तु हमें और अन्य कशेरुकी जीवों को धुंधली नज़र आती है वे स्नैपिंग झींगे को अलग-अलग छवियों के रूप में नज़र आती है। कारण यह है कि हमारी आंखों पर यदि बहुत तेज़ गति से छवियां बदलें, तो एक के मिटने से पहले ही दूसरी बनने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वे एक-दूसरे में व्यवधान पैदा करती हैं।

हाल तक शोधकर्ताओं का मानना था कि स्नैपिंग झींगे को अच्छे से दिखाई नहीं देता होगा क्योंकि उनके ऊपर कठोर हुड होता है जो उनकी आंखों को ढंके रहता है। यह हुड पारभासी होता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि यह प्रकाश को कितनी अच्छी तरह से पार जाने देता है। अब इस अध्ययन से यह पता चला है कि एक तेज़ शिकार पर हमला करना या फिर खुद शिकार होने से बचना इस झींगे के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। यह उनके लिए काफी महत्वपूर्ण भी है क्योंकि वे मटमैले पानी में रहते हैं जहां शिकारी का पता लगाना काफी मुश्किल होता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/TLDlPLTHCwg/maxresdefault.jpg

बहु-कोशिकीय जीवों का एक-कोशिकीय पूर्वज – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर जीवन के शुरुआती रूप की चर्चा करते हुए अमेरिका का स्मिथसोनियन संस्थान बताता है कि ऑक्सीजन रहित और मीथेन की अधिकता वाला वातावरण जंतुओं के जीवन के लिए उपयुक्त नहीं था। फिर भी इस वातावरण में ऐसे सूक्ष्मजीव रह सकते थे जो सूर्य के प्रकाश का सामना कर, इसकी मदद से जीवित रहने के लिए ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम थे।

पृथ्वी पर ऐसा वातावरण आज से लगभग 3.4 अरब साल पहले और पृथ्वी के अस्तित्व में आने के लगभग एक अरब साल बाद था। अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया में सूक्ष्मजीवों ने ऑक्सीजन नामक गैसीय गौण उत्पाद बनाया। इस ‘महान ऑक्सीकरण घटना’ की बदौलत इसके लगभग 2 अरब साल बाद ऑक्सीजन पृथ्वी की सतह का एक महत्वपूर्ण घटक बन गई और पृथ्वी जीवों के जीवन के अनुकूल हो गई।

इस ऑक्सीजन का बाहरी ऊर्जा के रूप में उपयोग करके जंतु कोशिकाएं अपने शारीरिक विकास और संख्या वृद्धि के लिए भोजन बना सकती हैं। लेकिन इसके लिए उनकी शारीरिक रचना और जीव विज्ञान में तबदीली की ज़रूरत थी (बहु-कोशिकता के उद्भव और उसकी ज़रूरत पर एक उत्कृष्ट सारांश टी. केवेलियर-स्मिथ द्वारा रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित किया गया है, इसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: https://doi.org/10.1098/rstb.2015.0476)। वे यह भी बताते है कि क्यों एक एक-कोशिकीय जीव (कोएनोफ्लैजिलेट) का उपयोग मनुष्य जैसे बहु-कोशिकीय जीवों के जैव विकास और विविधीकरण का अध्ययन करने के लिए एक मॉडल के रूप में किया जा सकता है। कोएनोफ्लैजिलेट जंतुओं के ऐसे सबसे करीबी जीवित रिश्तेदार हैं जो लगभग एक अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। कोएनोफ्लैजिलेट जंतुओं के सबसे करीबी रिश्तेदार माने जाते हैं। इनके अंडाकार शरीर पर एक चाबुक जैसा उपांग (कशाभ) होता है जिसके आधार पर एक कीप जैसी कॉलर होती है। इसलिए इन्हें कीप-कशाभिक भी कहते हैं। ये अकेले भी रहते हैं और कॉलोनियों में भी।

पिछले कुछ समय में हुए जीनोम अनुक्रमण के प्रयासों की बदौलत यह पता चला है कि कोएनोफ्लैजिलेट में भी कुछ ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं जिनके बारे में अब तक ऐसा लगता था कि ये सिर्फ बहुकोशिकीय जीवों में ही होती हैं। इनमें कोशिकाओं के बीच संदेशों का आदान-प्रदान, कोशिका से कोशिका के चिपकने की प्रवृत्ति वगैरह शामिल हैं।

त्रुटिसुधार

समय के साथ जंतु कोशिकाएं क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक (आरओएस) नामक अणु अधिक मात्रा में बनाने के लिए विकसित हुर्इं, ये अणु कई आवश्यक कोशिकीय गतिविधियों के लिए ज़रूरी होते हैं लेकिन इनका उच्च स्तर विषाक्तता पैदा करता है। आरओएस प्रतिरक्षा, तनाव प्रतिक्रिया और परिवर्धन जैसी प्रक्रियाओं में संकेतक अणु की एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा अधिक जटिलता के लिए ज़रूरी होता है कि जंतु के जीनोम के आकार में भी पर्याप्त वृद्धि हो। इसके साथ कोशिका में सभी कार्यों में भी वृद्धि होती है, जैसे डीएनए (विभिन्न अंगों की कोशिकाओं में मौजूद आनुवंशिक सामग्री), उसको संदेशवाहक आरएनए (mRNA) के रूप में लिप्यांतरित करना, और फिर tRNA की मदद से इन्हें कोशिकाओं में विशिष्ट प्रोटीन बनाने वाले अमीनो एसिड अनुक्रम में बदलना। tRNA की इस बढ़ी हुई संख्या (किसी सामान्य सूक्ष्मजीव में लगभग 50 से लेकर जंतुओं में सैकड़ों) का मतलब यह हुआ इन्हें कम से कम गलतियों के साथ सावधानीपूर्वक चुना जाना ज़रूरी है।

यदि प्रोटीन के स्तर पर आनुवंशिक कोड की गलत व्याख्या हो जाए तो यह गलती कार्यात्मक विकार और रोगों को जन्म देगी। (उदाहरण के लिए, सही अमीनो एसिड के स्थान पर, एक ‘गलत’ अमीनो एसिड आ जाने से प्रोटीन की आकृति, आकार या घुलनशीलता बदल सकती है जिसके कारण लायनस पौलिंग के शब्दों में ‘आणविक रोग’ हो सकते हैं। यदि हीमोग्लोबिन में एक एमिनो एसिड बदल जाए तो एनीमिया हो सकता है। और यदि आंख के लेंस के प्रोटीन में एक गलत एमीनो एसिड आ जाए तो मोतियाबिंद हो सकता है।) गलत अमीनो एसिड वाला प्रोटीन बनने से रोकने के लिए कोशिकाओं में ऐसे एंज़ाइम होते हैं जो गलत अमीनो एसिड को हटाने में मदद करते हैं। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के राजन शंकरनारायणन और उनके साथियों का हालिया शोध, जंतु कोशिकाओं में एंज़ाइम की मदद से प्रूफ-रीडिंग के इसी पहलू पर केंद्रित है। यह शोध ईलाइफ पत्रिका के 28 मई, 2020 के अंक में प्रकाशित हुआ है। (जीनोमिक नवाचार ATD जीव जगत में बहुकोशिकता में होने वाले गलत रूपांतरणों को कम करता है, DOI: https: // doi. org / 10.7554 / eLife.58118)।

इस शोध के दिलचस्प शीर्षक ने मुझे डॉ. शंकरनारायणन से बात करने को उकसाया। उन्होंने मुझे जो समझाया वही यहां बता रहा हूं। उनके समूह को ATD नामक एक ऐसा जंतु विशिष्ट प्रूफ-रीडिंग एंज़ाइम मिला था जो थ्रेओनिन (T) नामक एमिनो एसिड के वाहक tRNA से (गलत) एमिनो एसिड एलेनिन (A) को हटा देता है। इस तरह सही प्रोटीन संश्लेषण बहाल होता है और कोशिका सामान्य तरीके से कार्य करती रहती है। वे आगे बताते हैं कि जंतु कोशिकाओं में ThrRS नामक एक अन्य एंज़ाइम भी होता है जो ATD की तरह ही कार्य करता है, लेकिन कोशिकाओं में उच्च आरओएस स्तर होने पर यह एंजाइम अपनी क्षमता खो देता है। जबकि ATD एंज़ाइम कोशिकाओं में आरओएस का उच्च स्तर होने पर भी सक्रिय बना रहता है।

शोधकर्ताओं द्वारा प्रयोगशाला में, मानव गुर्दे की कोशिकाओं और चूहों के भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं पर इन परिणामों की पुष्टि की गई थी। नई जीनोम एडिटिंग तकनीक, CRISPR-Cas9, का उपयोग करके कोशिकाओं से यह जीन हटाया गया, जिससे समूचा प्रोटीन गलत संश्लेषित हुआ और परिणामस्वरूप कोशिका की मृत्यु हो गई। और खास बात यह रही कि वे उपरोक्त परिघटना के पीछे के आणविक कारण को भी पहचान सके।

वे बताते हैं कि वास्तव में कि ATD रहित कोशिकाओं में थ्रेओनिन के स्थान पर कई जगह एलेनिन रख कर प्रोटीन बनाने की गलती हुई थी। शोधकर्ता अब आरओएस के उच्च स्तर वाले ऊतकों, जैसे वृषण और अंडाशय में ATD की विशिष्ट भूमिका की जांच करना चाहते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि जंतुओं में प्रोटीन के गलत संश्लेषण की समस्या के लिए ज़िम्मेदार tRNA के विशेष समूह की बढ़ी हुई संख्या से एक संभावना यह बनती है कि इनमें प्रोटीन संश्लेषण के अलावा अन्य कोई कार्य करने क्षमता भी विकसित हो सकती है। जैसे एपिजेनेटिक्स, प्रोग्राम्ड सेल डेथ (एपोप्टोसिस) और प्रजनन क्षमता भी। इनका विस्तार से परीक्षण करना उपयोगी हो सकता है।

विकास को आकार देना

अंत में एक सवाल यह उठता है कि क्या कोएनोफ्लैजिलेट जंतु मॉडल में प्रूफ-रीडर ATD मौजूद होता है और क्या यह इसी तरह काम करता है? इसका जवाब हां है, जैसा कि कुंचा और उनके साथी लिखते हैं: ‘एटीडी एक ऐसा एंज़ाइम है जो केवल जंतुओं में पाया जाता है। … आगे के अध्ययन में यह पता चला है कि ATD की उत्पत्ति लगभग 90 करोड़ साल पहले, कोएनोफ्लैजिलेट्स और जंतुओं के विकास के अलग-अलग दिशा में आगे बढ़ने के पहले, हुई थी। इससे लगता है कि इस एंज़ाइम ने जंतुओं के विकास को आकार देने में मदद की होगी।’ दूसरे शब्दों में कहें तो, ये स्पंज सरीखे एक-कोशिकीय जीव पृथ्वी के सभी जंतुओं के पूर्वज हैं, जिनमें हम मनुष्य भी शामिल हैं। कितना सादगीभरा विचार है!

तो पेड़-पौधों के बारे में क्या कहेंगे? वह एक अलग कहानी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/ejt2gk/article31989721.ece/ALTERNATES/FREE_960/05TH-SCIEVOLUTIONjpg

हमारा शरीर है सूक्ष्मजीवों का बगीचा – कालू राम शर्मा

ब हम स्वच्छता की बात करते हैं तो यही कहा जाता है कि हाथों की उंगलियों, नाखूनों व हाथों की लकीरों में सूक्ष्मजीव होते हैं। स्वच्छता का पैमाना मात्र इन सूक्ष्मजीवों से छुटकारा पाने का होता है। लोगों को लगता है कि सभी सूक्ष्मजीव रोग फैलाते हैं। लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। हमारे आसपास और हमारे शरीर के अंदर व त्वचा पर कईं सूक्ष्मजीव ऐसे होते हैं जो हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। बल्कि यह कहा जाए कि हमारी अच्छी सेहत के लिए इनका साथ होना ज़रूरी है, तो गलत न होगा।

हमारे शरीर में बड़ी तादाद में सूक्ष्मजीव बसते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन सूक्ष्मजीवों की संख्या हमारे शरीर की कुल कोशिकाओं से सवा गुना अधिक है। यह दिलचस्प है कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाओं में से आधी से ज़्यादा बैक्टीरिया कोशिकाएं हैं।

यह देखा गया है कि 500 से अधिक प्रजातियों के बैक्टीरिया हमारी आंत में पाए जाते हैं। सोचा जा सकता है कि विविधता केवल बाहरी वातावरण में ही नहीं, हमारी आहार नाल में भी है। विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीव जो हमारी आंत में पाए जाते हैं उनके समूह को माइक्रोबायोम कहा जाता है। दिलचस्प यह भी है कि हम जिस भोजन का सेवन करते हैं वह भी हमारी आहार नाल के माइक्रोबायोम को प्रभावित करता है।

विकास के दौरान सूक्ष्मजीवों ने सहभोजी रिश्ता कायम किया। बिना सूक्ष्मजीवों के मानव का अस्तित्व संकट में हो सकता है। इस कहानी में जीवाणुओं ने भी अहम भूमिका अदा की। बायफिडोबैक्टीरिया इनमें से एक है।

जन्म के बाद शिशु जब मां का दूध पीता है तो उसे पचाने वाले बायफिडोबैक्टीरिया आहार नाल में पनपने लगते हैं। ये शर्कराओं को पचाने का लाभदायक काम करते हैं जो शरीर की वृद्धि में सहायक होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, कुछ बैक्टीरिया भोजन में वनस्पति रेशों को पचाने में भूमिका अदा करते हैं जो हमारी आंत के लिए अहम होते हैं। रेशे हमें अधिक वज़नी होने से बचाते हैं। साथ ही मधुमेह, दिल की बीमारी व कैंसर के खतरों से भी बचाते हैं।

आहार नाल का माइक्रोबायोम रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है। इतना ही नहीं, नए अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि आहार नाल का माइक्रोबायोम केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को भी नियंत्रित करता है।

जन्म के पूर्व शिशु की आहार नाल सूक्ष्मजीवों से रहित होती है। सामान्य प्रसव के दौरान शिशु योनि मार्ग से गुज़रते हुए सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आता है और मुंह के रास्ते ये उसकी आंत में प्रवेश कर जाते हैं। हालिया शोध बताते हैं कि सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं की आहार नाल में सूक्ष्मजीव विविधता सामान्य जन्म लेने वाले शिशुओं से कम होती है। जो बच्चे सामान्य प्रसव (योनि मार्ग से प्रसव) से जन्म लेते हैं उन शिशुओं की आंत में लैक्टोबेसिलस, प्रेवोटेला, बायफिडोबैक्टीरियम, बैक्टेरॉइड्स और एटोपोबियम पाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में नहीं पाए जाते। सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में मुख्य रूप से क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल, .कोलीस्ट्रोप्टोकोकाई जैसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होने लगता है उसकी आहार नाल के माइक्रोबायोम की विविधता बढ़ती जाती है। यह देखा गया है कि जिनकी आहार नाल में माइक्रोबायोम की विविधता अधिक होती है, वे अधिक स्वस्थ रहते हैं।

बायफिडोबैक्टीरियम अचल किस्म के ग्राम-पाज़िटिव बैक्टीरिया हैं, जिनमें अनॉक्सी श्वसन होता है। सन 1900 के दौरान हेनरी टिसियर ने नजवात शिशु के मल में बायफिडोबैक्टीरिया देखा था। इसके ठीक बाद टिसियर के साथी मेचनीकोव का ध्यान टिसियर द्वारा खोजे गए बैक्टीरिया की ओर गया। मेचनीकोव तब किण्वित दूध पर काम कर रहे थे। मेचनीकोव पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि दही, छांछ जैसी चीज़ें हमारी सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। मेचनीकोव ने किण्वित दूध को प्रोबायोटिक कहा। इसका अर्थ है ऐसे खाद्य पदार्थ जिसमें कुछ सूक्ष्मजीव होते हैं जो हमारे शरीर को भोजन पचाने में मदद करते हैं, तंत्रिका तंत्र को मजबूत करते हैं और हमें तंदुरुस्त व दीर्घायु बनाते हैं। इसी शोध के लिए मेचनीकोव को 1908 में नोबल पुरस्कार मिला था।

स्तनपान करने वाले शिशुओं में बायफिडोबैक्टीरिया की किण्वक व अम्लीय प्रकृति और मानव पोषण और पेट के स्वास्थ्य के बीच लाभदायक सम्बंध को काफी पहले पहचान लिया गया था और यह प्रचारित भी खूब हो रहा था। प्रोबायाटिक आहार का जितना महत्व आज है उतना ही तब भी हुआ करता था। हालांकि बायफिडोबैक्टीरिया के साथ ही अन्य स्ट्रेप्टोकोकस, एंटरोकोकस, यीस्ट और अन्य सूक्ष्मजीवों ने भी प्रोबायोटिक के इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचा। इसके बाद इस पर व्यापक अध्ययन हुए। न केवल मनुष्यों में बल्कि इसके बेहतर प्रभावों को पालतू पशुओं में भी पहचाना गया और प्रोबायोटिक संस्कृति को अपनाया जाने लगा।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 2007 में ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट (एचएमपी) की स्थापना मानव कल्याण के लिए माइक्रोबायोम के प्रभाव का अध्ययन करने और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के मकसद से की गई थी ताकि विशिष्ट बीमारियों में इनकी भूमिका को रेखांकित किया जा सके। परियोजना के पहले चरण में सूक्ष्मजीवों के प्रकार (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) के संदर्भ में डैटाबेस तैयार किया गया जो शरीर के पांच विशिष्ट हिस्सों पर केंद्रित था – त्वचा, मुखगुहा, श्वसन मार्ग, आहार नाल व मूत्र-जनन मार्ग। परियोजना का लक्ष्य यह समझना था कि शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले सूक्ष्मजीवों की जेनेटिक संरचना में बदलाव करके इन्हें कैसे लाभदायक सूक्ष्मजीवों में बदला जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि इस परियोजना को भारत में भी प्रारंभ किया जा चुका है। भारतीय लोगों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे त्वचा, लार, रक्त व मल में सूक्ष्मजीवों के वास का अध्ययन किया जा रहा है। यह देशव्यापी अध्ययन है जिसमें केंद्र सरकार ने 150 करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस अध्ययन में भारत की 32 जनजातियों को भी शामिल किया गया है। 

इस परियोजना में सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण करने के लिए मानव जीनोम परियोजना द्वारा विकसित डीएनए सिक्वेंसिंग का इस्तेमाल किया गया है।

दरअसल, मानव एक जीव ही नहीं है बल्कि वह एक पारिस्थितिकी तंत्र भी है। इसमें इन सारे सूक्ष्मजीवों के जीनोम मौजूद हैं जिसे माइक्रोबायोम कहते हैं। ऐसे अनेक काम हैं जो हमारे जीनोम में अंकित नहीं है। इन कार्यों को हम माइक्रोबायोम की मदद से करते हैं। हर सूक्ष्मजीव अपना-अपना काम करता है और पूरे इकोसिस्टम में योगदान देता है। वैसे यह दिलचस्प है कि जो सूक्ष्मजीव हमारी आहार नाल में बसते हैं वे हमारे जीनोम से कुछ जीनों का इस्तेमाल अपनी कार्यप्रणाली के लिए करते हैं। दरअसल, सूक्ष्मजीवों व मानव के बीच का यह रिश्ता साझेदारी व सहयोग का है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं। जैसे हमारे द्वारा जिस कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं हो पाता है उन्हें ये सूक्ष्मजीव पचाते हैं या विटामीन बी का संश्लेषण हमारी आंत के बैक्टीरिया ही करते हैं। और आंत में जिस भोजन का पाचन होता है उसका फायदा ये सूक्ष्मजीव भी उठाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.holganix.com/hubfs/Microbes-small.jpg