मधुमक्खियों में दूर तक संवाद

बेशक मधुमक्खियां हमारी तरह बोल नहीं सकतीं लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने पाया है कि उनमें भी लंबी दूरी का और बड़े पैमाने पर संवाद होता है। मधुमक्खियां आपस में मिलकर रसायनों की गंध के माध्यम से दूर-दूर मौजूद अपने अन्य साथियों को रानी मधुमक्खी की स्थिति के बारे में जानकारी देती हैं।

मधुमक्खियां फेरोमोन नामक रसायनों की मदद से आपस में संवाद करती हैं, जिसे वे अपने एंटीना के माध्यम से पहचानती हैं। रानी मधुमक्खी फेरोमोन्स जारी करके श्रमिक मधुमक्खियों को अपने पास बुलाती है। लेकिन फेरोमोन्स हवा में सीमित दूरी तक ही पहुंचते हैं। तो रानी का संदेश दूर के श्रमिकों तक कैसे पहुंचता है?

रानी मधुमक्खी के आसपास मंडराने वाली श्रमिक मधुमक्खियां भी नेसानोव नामक फेरोमोन जारी कर अन्यत्र मौजूद अपने साथियों को बुला सकती हैं। नेसानोव की गंध छोड़ने के लिए वे अपने पेट को थोड़ा ऊंचा उठाती हैं ताकि फेरोमोन स्रावित करने वाली ग्रंथियां हवा के संपर्क में आ जाएं। फिर अपने पंखों को फड़फड़ाकर वे गंध को पीछे की ओर भेजती हैं।

इस प्रक्रिया का खुलासा करने के लिए कोलेरैडो विश्वविद्यालय के कंप्यूटर विज्ञानी डियू माय गुयेन और उनके साथियों ने अध्ययन के लिए आम तौर पर पाई जाने वाली मधुमक्खियों (एपिस मेलिफेरा) की एक कॉलोनी को चुना। अध्ययन के लिए उन्होंने पिज़्ज़ा के डिब्बे के आकार का समतल क्षेत्र तैयार किया जिसकी छत पारदर्शी थी। इसमें मधुमक्खियां सिर्फ चल सकती थीं, उड़ नहीं सकती थीं। इसके एक कोने पर उन्होंने रानी मधुमक्खी को कैद कर दिया और दूसरी तरफ से श्रमिक मधुमक्खियों को छोड़ा और उनकी गतिविधियां कैमरे में रिकॉर्ड की। फिर कृत्रिम बुद्धि सॉफ्टवेयर की मदद से नेसानोव फेरोमोन जारी करने वाली मधुमक्खियों को ट्रैक किया।

शोधकर्ताओं ने पाया कि किसी श्रमिक मधुमक्खी द्वारा रानी की स्थिति पता कर लेने के बाद उन्होंने रानी मधुमक्खी के पास से एक-दूसरे को एक-समान दूरी पर व्यवस्थित रूप से कतारबद्ध करना शुरू कर दिया था, हरेक मधुमक्खी अपने पंख फड़फड़ा कर अपने पड़ोसी मधुमक्खी तक नेसानोव पहुंचाकर उसे ठीक से कतार में लगवा रही थी। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि इस तरह के सामूहिक संवाद का अवलोकन पहली बार मधुमक्खियों में किया गया है। यह संवाद मधुमक्खियों को रानी मधुमक्खी तक वापस पहुंचने में मदद करता है – जो एक अकेली मधुमक्खी द्वारा संभव नहीं है। देखा गया है कि मधुमक्खियां गंध की इस  शृंखला के द्वारा एक-दूसरे के बीच लगभग 6 सेंटीमीटर की दूरी रखती हैं। इससे लगता है कि किसी मधुमक्खी को फेरोमोन की एक निश्चित मात्रा प्राप्त होते ही वह अपना सारा काम छोड़कर खुद फेरोमोन स्रावित करने लगती है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन समतल स्थान में किया गया है जबकि वास्तव में मधुमक्खियां आगे-पीछे, ऊपर-नीचे कहीं भी हो सकती हैं। और तो और, अक्सर हवा और बारिश जैसे कारक उन्हें प्रभावित करते हैं, जो उनके संचार को और अधिक जटिल बनाते हैं। हालांकि सरलीकृत मॉडल से यह पता चलता है कि मधुमक्खियां कैसे खुद व्यवस्थित होती हैं, झुंड बनाती हैं। बहरहाल मधुमक्खियों के प्राकृतिक झुंडों का निरीक्षण करके देखना चाहिए कि क्या वास्तव में वे ऐसा करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वन्यजीवों से कोरोनावायरस फैलने की अधिक संभावना

कोविड महामारी के स्रोत का पता लगाने के प्रयास लगातार जारी हैं। हाल ही में सीएनएन द्वारा प्रसारित साक्षात्कार में एक प्रमुख वैज्ञानिक सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल के पूर्व निदेशक और वायरोलॉजिस्ट रॉबर्ट रेडफील्ड ने बिना किसी प्रमाण के दावा किया कि सार्स-कोव-2 वुहान की प्रयोगशाला से निकला है। साथ ही उन्होंने कहा कि यह मात्र एक निजी राय है। इसके दो दिन बाद कुछ अन्य लोगों (डबल्यूएचओ और चीन सरकार की टीम) ने वायरस के वन्यजीवों से फैलने की बात कही जिसकी शुरुआत चमगादड़ों से हुई है। इसमें भी कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं दिया गया।

गौरतलब है कि वुहान की प्रयोगशाला में किसी को भी ऐसा कोरोनावायरस नहीं मिला है जिसे बदलकर ज़्यादा फैलने वाला बनाया गया हो और फिर उसने बदलते-बदलते सार्स-कोव-2 जैसा रूप लेकर वहां किसी कर्मचारी को संक्रमित कर दिया हो। इसी तरह किसी को जंगली जीवों में कोरोनावायरस के प्रमाण भी नहीं मिले हैं जो एक से दूसरे जंतु में आगे बढ़ते-बढ़ते उत्परिवर्तित होकर सार्स-कोव-2 के समान हो गया हो और फिर मनुष्यों में प्रवेश कर गया हो।

अभी तक ये दोनों ही विचार प्रमाण-विहीन हैं और दोनों ही संभव हैं।

फिर भी इन दोनों विचारों के सही होने की संभावना बराबर नहीं है। देखा जाए तो प्रयोगशाला से वायरस के निकलने की कोई एक या शायद कुछ मुट्ठी भर घटनाएं हो सकती हैं जबकि वन्यजीवों से वायरस के फैलने के अनेकों अवसर होंगे।

रेडफील्ड की अटकल है कि किसी भी वायरस के लिए इतने कम समय में जीवों से मनुष्यों में प्रवेश करने की कुशलता हासिल करना बिना प्रयोगशाला के संभव नहीं है। लेकिन एक बार में इतनी बड़ी छलांग बहुत बड़ी बात होगी। स्वयं रेडफील्ड ने कहा है कि यह वायरस हमारी जानकारी में आने के कई महीनों पहले से प्रसारित हो रहा था। यानी मनुष्यों तक पहुंचने से पहले एक लंबी अवधि रही होगी जो इस वायरस के वन्यजीवों से फैलने का संकेत देती है।

वन्यजीवों से वायरस के फैलने का विचार इस बात पर टिका है कि चीन में करोड़ों चमगादड़ हैं और उनका मनुष्यों समेत अन्य जीवों से खूब संपर्क होता है। अत:, वायरस के मनुष्यों में प्रवेश करने के कई मौके हो सकते हैं। मूल रूप में तो यह वायरस मनुष्यों में खुद की प्रतिलिपि तैयार करने में अक्षम होता है। लेकिन मनुष्यों को संक्रमित करने के पहले इसे विकसित होने के लाखों मौके मिले होंगे। गौरतलब है कि चमगादड़ अक्सर कई जीवों जैसे पैंगोलिन, बैजर, सूअर, एवं अन्य के संपर्क में आते हैं जिससे ये मौकापरस्त वायरस इन प्रजातियों को आसानी से संक्रमित कर देते हैं। चमगादड़ कॉलोनियों में रहते हैं इसलिए विभिन्न प्रकार के कोरोनावायरस के मिश्रण की संभावना होती है और उन्हें अपने जींस को पुनर्मिश्रित करने का पूरा मौका मिलता है। यहां तक कि एक अकेले चमगादड़ में भी विभिन्न कोरोनावायरस देखे गए हैं।

इन वायरसों को मेज़बानों के बीच छलांग लगाने के लिए कई महीनों का समय मिलता है। इसी दौरान वे उत्परिवर्तित भी होते रहते हैं। एक बार मनुष्यों में प्रवेश करने पर उन वायरस संस्करणों को वरीयता मिलती है जो मानव कोशिकाओं को संक्रमित करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने की क्षमता रखते हैं। जल्द ही वे कोशिकाओं को इस स्तर तक संक्रमित कर देते हैं कि लोग बीमार होने लगते हैं। तब जाकर एक नई बीमारी प्रकट होती है। यह वही अवधि होती है जिसे रेडफील्ड ने माना है कि वायरस प्रसारित होता रहा है।

वास्तव में हम कोरोनावायरस के विकास में यह घटनाक्रम देख भी रहे हैं। इसमें काफी तेज़ी से उत्परिवर्तन हो रहे हैं (E484K और 501Y जैसे) जो वायरस को और अधिक संक्रामक बनाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के वायरोलॉजिस्ट एडम लौरिंग के अनुसार ये परिवर्तन प्राकृतिक रूप से हो रहे हैं। जिसका कारण यह है कि वायरस को लाखों संक्रमित व्यक्तियों में उत्परिवर्तन के लाखों अवसर मिल रहे हैं।

तो किसे सही माना जाए? रेडफील्ड की प्रयोगशाला से रिसाव की परिकल्पना को जो मात्र एक संयोग पर निर्भर है? या फिर वन्यजीवों से प्रसारित होने की परिकल्पना को जिसे लाखों अवसर मिल रहे हैं? हालांकि दोनों ही संभव हैं लेकिन एक की संभावना अधिक मालूम होती है। इसीलिए, अधिकांश वैज्ञानिकों को वन्यजीवों के माध्यम से इस वायरस के फैलने के आशंका अधिक विश्वसनीय लगती है।

वायरस की उत्पत्ति का सवाल महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे किसी महामारी के शुरू होने की जानकारी मिल सकती है ताकि भविष्य में इस तरह की स्थितियों को रोका जा सके। आज भी कई रोग पैदा करने वाले वायरस हमारे बीच मौजूद हैं जो महामारी का रूप ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या ऑक्टोपस सपने देखते हैं?

क्टोपस सपने देखते हैं या नहीं, यह तो अभी पता नहीं चल पाया है लेकिन वैज्ञानिक इस गुत्थी को सुलझाने की ओर बढ़े हैं। आईसाइंस (iScience) में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि मनुष्यों की तरह ऑक्टोपस भी नींद की दो अवस्थाओं का अनुभव करते हैं -सक्रिय नींद और शांत नींद। लेकिन मनुष्यों और ऑक्टोपस, दोनों में इस दो अवस्था वाली नींद का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ होगा, क्योंकि ये दोनों जैव-विकास में लगभग 50 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग हो चुके थे।

फेडरल युनिवर्सिटी ऑफ रियो ग्रांड डो नोर्टे के सिडार्टा रिबेलियो और उनके साथियों ने इस अध्ययन में ऑक्टोपस इंसुलेरिस (Octopus insularis) प्रजाति के चार ऑक्टोपस का प्रयोगशाला के टैंक में सोते समय वीडियो बनाया। यह जांचने के लिए कि ऑक्टोपस सो रहे हैं या जाग रहे हैं, शोधकर्ताओं ने ऑक्टोपस को टैंक के बाहर से स्क्रीन पर जीवित केकड़ों का वीडियो दिखाया या रबर के हथौड़े से टैंक की दीवार पर हल्के से ठोंका और देखा कि क्या ऑक्टोपस में प्रतिक्रिया स्वरूप कोई हलचल हुई। देखा गया कि ‘शांत’ नींद के दौरान ऑक्टोपस की त्वचा की रंगत पीली थी, पुतलियां सिकुड़ गर्इं थी, वे शांत थे और उनके चूषक व भुजाओं के छोर हल्के-हल्के हिल रहे थे। लेकिन ‘सक्रिय नींद’ के दौरान उनकी त्वचा गहरे रंग की और कसी हुई थी, उन्होंने अपनी आंखें घुमाई और मांसपेशीय ऐंठन ने उनके चूषकों और शरीर को सिकोड़ दिया था।

ऑक्टोपस में लगभग 40 सेकंड लंबी सक्रिय नींद सामान्यत: एक लंबी शांत नींद के बाद आती है। हर 30-40 मिनट की शांत नींद के बाद उनमें सक्रिय नींद देखी गई। ऑक्टोपस में नींद की ये दो अवस्थाएं स्तनधारियों की नींद की दो प्रमुख अवस्थाओं के समान दिखती हैं। पहली, तीव्र नेत्र गति (या रेपिड आई मूवमेंट, REM) नींद। इस अवस्था में आंखें तेज़ी से घूमती हैं और सपने आते हैं। और दूसरी है ‘मंद-तरंग’ नींद। इस अवस्था में पूरे मस्तिष्क में विद्युत गतिविधि एक समान लय में चलती हैं। नींद की यह अवस्था मस्तिष्क में स्मृतियों को सहेजने और फालतू जानकारी हटाने में अहम मानी जाती है।

फिर भी, शोधकर्ता मनुष्यों और ऑक्टोपस की नींद में समानता देखने मे सावधानी बरत रहे हैं क्योंकि ऑक्टोपस और स्तनधारियों के मस्तिष्क की बनावट बहुत अलग-अलग है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि मनुष्यों में सपने आम तौर पर REM नींद के दौरान आते हैं, लेकिन ऑक्टोपस से तो यह नहीं पूछा जा सकता कि क्या वे सपने देख रहे हैं। फिर भी शोधकर्ताओं का अनुमान है कि जागते हुए जब वे कोई नई बात सीखते हैं तब उनकी त्वचा की रंगत और विभिन्न अवस्थाओं में सोते हुए त्वचा की रंगत की तुलना करके पता लगाया जा सकता है कि वे सपने देख रहे हैं या नहीं। यदि सपने नहीं भी देखते, तो भी यह तो माना जा सकता है कि वे इस दौरान कुछ तो अनुभव करते हैं। ऑक्टोपस कठिन चुनौतियां हल करने के लिए जाने जाते हैं – मर्तबान का ढक्कन हटाना या छद्मावरण बनाना। तो उनमें इस बात की जांच की जा सकती है कि नींद (या नींद में कमी) उनकी सीखने की क्षमता को कैसे प्रभावित करती है, जो उनकी स्मृतियों को ठीक से सहेजने में नींद की भूमिका स्पष्ट करेगी।

उनके मस्तिष्क में चलने वाली हलचल को इलेक्ट्रोड की मदद से मापा जाना चाहिए लेकिन यह मुश्किल होगा, क्योंकि वे शरीर पर लगी हर चीज़ को निकाल फेंकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कीटनाशकों के बदलते उपयोग का जीवों पर प्रभाव

रपतवार व फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट किसानों को अपने दुश्मन लगते हैं। इनका सफाया करने के लिए वे रासायनिक कीटनाशकों का उपयोग करते हैं। लेकिन ये रसायन सिर्फ दुश्मनों का सफाया नहीं करते बल्कि वे मधुमक्खियों, मछलियों और क्रस्टेशियन जैसे निर्दोष जीवों को भी नुकसान पहुंचाते हैं।

हाल ही में एक विशाल अध्ययन ने हाल के दशकों में अमेरिका के किसानों द्वारा कीटनाशकों के उपयोग में हुए बदलाव के चलते ऐसे प्रभावों में हुए परिवर्तनों का विश्लेषण किया है। देखा गया कि कीटनाशकों के उपयोग में आए बदलाव से पक्षियों और स्तनधारियों की स्थिति बेहतर रही, जबकि इससे परागणकर्ता जीव व जलीय अकशेरुकी जीव बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

खरपतवारों में खरपतवारनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध विकसित हो जाने से किसानों द्वारा इन रसायनों का उपयोग बढ़ा और इसके चलते भूमि पर उगने वाले पौधों में भी विषाक्तता का प्रभाव बहुत बढ़ गया।

पिछले कुछ दशकों में संयुक्त राज्य अमेरिका में कीटनाशकों के उपयोग की मात्रा में लगभग 40 प्रतिशत की कमी आई है। लेकिन इसके साथ अधिक शक्तिशाली और विषाक्त रसायनों का उपयोग बढ़ा है। उदाहरण के लिए पायरेथ्रॉइड्स अत्यधिक प्रभावी कीटनाशक समूह है। इनकी बहुत कम मात्रा भी अत्यधिक ज़हरीली होती है और ये तंत्रिका तंत्र को प्रभावित करते हैं। पूर्व में उपयोग किए जाने वाले कीटनाशक (जैसे ऑर्गेनोफॉस्फेट या कार्बेमेट) एक हैक्टर में कई किलोग्राम लगते थे, लेकिन पायरेथ्रॉइड्स की महज़ 6 ग्राम मात्रा पर्याप्त होती है।

पारिस्थितिकी-विषाक्तता विज्ञानी रॉल्फ शुल्ज़ और उनके साथियों ने वर्ष 1992 से 2016 तक स्वयं किसानों द्वारा कीटनाशकों के उपयोग के बारे में दी गई जानकारी के अमेरिकी भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण डैटा से शुरुआत की। फिर उन्होंने उपयोग किए गए सभी यौगिकों (381 रसायनों) के लिए अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (ईपीए) द्वारा निर्धारित विषाक्तता के स्तर (जितनी मात्रा में कोई पदार्थ या रसायन वनस्पतियों या वन्यजीवों को नुकसान पहुंचा सकता है) और खेतों में उपयोग किए गए प्रत्येक कीटनाशक की मात्रा की तुलना की और कुल प्रयुक्त विषाक्तता पता की।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार संभवत: पुराने कीटनाशकों के उपयोग में आई कमी के कारण 1992 से 2016 तक पक्षियों और स्तनधारियों के लिए कुल विषाक्तता में 95 प्रतिशत से अधिक की कमी आई है। मछलियों के लिए विषाक्तता स्तर में एक-तिहाई की कमी आई है। मछलियों के लिए विषाक्तता में होने वाली कमी का प्रतिशत कम दिखता है क्योंकि मछलियां पायरेथ्रॉइड्स के प्रति अधिक संवेदनशील हैं और खेतों में इनका उपयोग बढ़ा है। लेकिन पायरेथ्रॉइड्स की वजह से जलीय अकशेरुकी जीवों (जैसे प्लवक और कीट-लार्वा) के लिए विषाक्तता दुगनी हो गई है। इसके अलावा निओनिकोटिनॉइड्स कीटनाशक ने मधुमक्खियों और भौंरों जैसे परागणकर्ताओं के लिए विषाक्तता का जोखिम दुगना कर दिया है। इसी तरह के नतीजे एक छोटे अध्ययन में भी देखने को मिले थे, जिसके अनुसार इस बदलाव से कशेरुकी जीव कम प्रभावित हुए लेकिन अकशेरुकी जीवों को बहुत क्षति पहुंची है।

कुछ कीटनाशकों और प्रजातियों के लिए वास्तविक प्रभाव का अनुमान लगाना मुश्किल है, क्योंकि पौधों और जीवों को सिर्फ रसायन ही प्रभावित नहीं करते बल्कि मौसम या वर्ष का समय जैसे कई अन्य कारक भी होते हैं। यह देखने के लिए कि सिर्फ कीटनाशकों ने जलीय क्रस्टेशियन और कीटों को किस तरह प्रभावित किया, शोधकर्ताओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका की 231 झीलों और नदियों का विषाक्तता सम्बंधी डैटा खंगाला। जब इसकी तुलना उन्होंने उन क्षेत्रों के आसपास उपयोग किए गए कीटनाशकों की मात्रा के साथ की तो उन्होंने पाया कि इनके बीच काफी सम्बंध है।

जीवों के अलावा विषाक्तता से पौधे भी प्रभावित हुए हैं। 2004 के बाद से थलीय पौधों में खरपतवारनाशी रसायनों के कारण आई कुल विषाक्तता दुगनी हुई है। इस विषाक्तता को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान ग्लायफोसेट नामक खरपतवारनाशी का है। कुछ खरपतवारों ने ग्लायफोसेट के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया, और किसान उनके सफाए के लिए अधिकाधिक मात्रा में ग्लायफोसेट का छिड़काव करने लगे। इससे मेड़ों पर उगने वाले पौधों और उन पर आश्रित जीवों के लिए खतरा बढ़ गया।

कीटनाशकों का उपयोग कम करने के लिए मक्का की एक किस्म को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके उसमें कीटनाशक रसायन बीटी जोड़ा गया था। इसके चलते विषाक्त रसायनों का उपयोग कम होना था लेकिन देखा गया कि पिछले एक दशक में बीटी मक्का और सामान्य मक्का दोनों में डाली गई विषाक्तता में प्रति वर्ष 8 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।

शुल्ज़ को उम्मीद है कि ये नतीजे नीति निर्माताओं और अन्य लोगों को कीट और खरपतवार नियंत्रण की जटिलता पर और जंगली प्रजातियों को बेवजह होने वाली क्षति को कम करने के लिए सोचने में मदद करेंगे। अमेरिका में कीटनाशक के उपयोग के पैटर्न और विषाक्तता सम्बंधी डैटा से बाकी दुनिया को सबक लेना चाहिए, जहां कीट नियंत्रण के लिए पर्यावरण हितैषी तरीकों की बजाय कीटनाशकों का उपयोग किया जा रहा है।

कीटनाशक उपयोग सम्बंधी फैसले इस पर भी निर्भर करते हैं कि किसी समाज या समुदाय के लिए कौन-सी प्रजातियां महत्व रखती हैं। जैसे युरोपीय संघ में नियामकों ने नियोनिकोटिनॉइड्स के उपयोग को प्रतिबंधित कर दिया ताकि परागणकर्ताओं को नुकसान न हो। लेकिन संभवत: अब किसान अन्य कीटनाशकों का उपयोग करेंगे जो अन्य प्रजातियों को जोखिम में डाल सकता है, या पैदावार घट जाएगी और खाद्यान्न की कीमतें आसमान छूएंगी। (स्रोत फीचर्स)

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तीन अरब साल पहले आए थे एरोबिक सूक्ष्मजीव

हाल ही में विभिन्न कुलों के सूक्ष्मजीवों के आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला है कि ऑक्सीजन में सांस लेने वाले या कम से कम इसका उपयोग करने वाले सबसे पहले जीव 3.1 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। यह खोज इसलिए चौंकाती है क्योंकि पृथ्वी को ऑक्सीजनमय करने वाली महान ऑक्सीकरण घटना तो इसके लगभग 50 करोड़ वर्ष बाद शुरू हुई थी।

ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले प्रोटीनों का अस्तित्व में आना, ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीवों के उद्भव में एक महत्वपूर्ण कदम था। और अनॉक्सी जीवों से लदी पृथ्वी का अधिकांशत: ऑक्सी जीवों वाली पृथ्वी में परिवर्तित होना जीवन का एक अहम नवाचार था।

वैज्ञानिक इस बात से तो सहमत हैं कि पृथ्वी का प्रारंभिक वायुमंडल और महासागर ऑक्सीजन रहित थे। लेकिन ऐसे संकेत मिले हैं जो बताते हैं कि इस समय भी पृथ्वी पर कुछ मात्रा में तो ऑक्सीजन मौजूद थी। जैसे वैज्ञानिकों ने लगभग 3 अरब साल पहले के ऐसे खनिज भंडार खोजे हैं जो सिर्फ ऑक्सीजन की उपस्थिति में बन सकते थे। इसके अलावा कुछ साक्ष्य बताते हैं कि अपशिष्ट उत्पाद के रूप में ऑक्सीजन छोड़ने वाले सबसे पहले प्रकाश संश्लेषक जीव, सायनोबैक्टीरिया, भी 3.5 अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। वे इस ऑक्सीजन का उपयोग नहीं करते थे।

लेकिन इस पर आपत्ति यह है कि यदि ऑक्सीजन उत्पादक और उपयोगकर्ता इतनी जल्दी आए होते तो वे पूरी पृथ्वी पर तेज़ी से फैल गए होते, क्योंकि ऑक्सीजन का उपयोग भोजन से अधिक ऊर्जा प्राप्त करने में मदद करता है। लेकिन महान ऑक्सीकरण की घटना 2.4 अरब साल पूर्व से पहले शुरू नहीं हुई थी।

ताज़ा अध्ययन में वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के जैव-रसायनज्ञ डैन तौफीक और उनके साथियों ने केंद्रक-पूर्व जीवों के 130 कुलों के जीनोम का विश्लेषण किया। उन्होंने एक वंश वृक्ष बनाया जो लगभग 700 ऑक्सीजन निर्माता या उपयोगकर्ता एंज़ाइम्स पर आधारित था। इससे उन्होंने प्रोटीन में उत्परिवर्तन दर पता की और इसकी मदद से एक आणविक घड़ी तैयार की ताकि यह देखा जा सके कि प्रत्येक एंज़ाइम कब विकसित हुआ था। 130 कुलों में से सिर्फ 36 कुलों के विकसित होने का समय निर्धारित किया जा सका।

नेचर इकोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि 3 अरब से 3.1 अरब साल पहले ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले सूक्ष्मजीव कुलों में अचानक उछाल आया था। इस समय 36 कुल में से 22 कुल के सूक्ष्मजीव विकसित हुए जबकि 12 कुल के सूक्ष्मजीव इसके बाद और दो कुल के सूक्ष्मजीव इसके पहले अस्तित्व में आए थे। और इन्हीं सूक्ष्मजीवों से ऐसे सूक्ष्मजीव विकसित हुए जो ऑक्सीजन का उपयोग कर भोजन से अधिक ऊर्जा हासिल करने में सक्षम थे।

यदि यह बदलाव लगभग 3 अरब साल पहले आया था तो स्पष्ट है कि ऑक्सीजन का उपयोग करने वाले जीव तुरंत ही पूरी पृथ्वी पर नहीं फैले थे, बल्कि ऑक्सीजन के उपयोग की क्षमता छोटे-छोटे इलाकों में विकसित हुई थी जो धीरे-धीरे करोड़ों सालों के दरम्यान फैलती गई।

फिर भी कुछ लोगों का कहना है कि आणविक घड़ी से काल निर्धारण का विज्ञान अभी विकसित ही हो रहा है इसलिए घटनाओं का क्रम शायद सही हो सकता है, लेकिन घटनाओं का वास्तविक समय भिन्न हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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एक साथ रहकर भी पक्षी दो प्रजातियों में बंटे

र्जेंटीना के आइबेरा नेशनल पार्क में पिद्दी के आकार के पक्षियों की दो लगभग समान प्रजातियां साथ-साथ रहती हैं, एक ही तरह के बीज खाती हैं और एक ही तरह के स्थानों पर घोंसले बनाती हैं। वैसे तो ये प्रजातियां आपस में सफलतापूर्वक प्रजनन कर सकती हैं। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने पाया है कि ये प्रजातियां पीढ़ियों से आपस में प्रजनन नहीं कर रही हैं। और यह रुकावट कुछ मामूली से परिवर्तनों की वजह से है – पंखों के रंग और गीत में अंतर। यह अध्ययन आनुवंशिक रूप से काफी हद तक समान दो भिन्न प्रजातियों के बनने में व्यवहार की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है।

आम तौर पर, नई प्रजातियां तब बनती हैं जब किसी प्रजाति की आबादी या समूह के कुछ सदस्य नदी, पर्वत श्रेणी या अन्य किसी भौतिक बाधा के चलते शेष समूह से अलग-थलग हो जाते हैं। समय के साथ, इन दोनों समूह की आनुवंशिकी में, और उनके लक्षणों और व्यवहारों में बदलाव हो जाते हैं। यदि दोनों समूह में अलगाव लंबे समय तक बना रहे तो फिर ये समूह आपस में प्रजनन करने में सक्षम नहीं होते।

लेकिन जैसा कि कैपुचिनो बीज चुगने वाले पक्षियों की इन दो प्रजातियों के मामले में देखा गया है, कभी-कभी कोई भौतिक बाधा आए बिना भी, एक साथ रहते हुए एक प्रजाति दो भिन्न प्रजातियों में बंट सकती है।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी लियोनार्डो कैंपगना ने लगभग 20 साल पहले स्पोरोफिला कुल के दक्षिणी कैपुचिनो बीजभक्षी पक्षियों का अध्ययन शुरू किया था। अपने अध्ययन में वे जानना चाहते थे कि कैसे ये पक्षी 10 लाख सालों से भी कम समय में एक से 10 प्रजातियों में बंट गए। वर्ष 2017 में कैंपगना और उनके साथियों ने बताया था कि कैपुचिनो बीजभक्षी की 10 प्रजातियों के बीच सबसे बड़ा आनुवंशिक अंतर उनके मेलेनिन रंजक बनाने वाले जीन्स में होता है, जिससे लगता है कि नई प्रजाति के बनने में उनके पंखों के रंग की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।

इस अध्ययन में कैंपगना और कोलोरेडो विश्वविद्यालय की शीला टरबेक ने आइबेरा कैपुचिनो बीजभक्षी (स्पोरोफिला आइबेरैंसिस) और पीले पेट वाले कैपुचिनो बीजभक्षी (एस. हायपोक्सेंथा) पर ध्यान केंद्रित किया। इन दोनों प्रजातियों की मादाएं एकदम समान दिखती हैं। और दोनों ही प्रजातियां आइबेरा राष्ट्रीय उद्यान के एक ही हिस्से में रहती हैं, प्रजनन करती हैं, दाने चुगती हैं। इस तरह दोनों प्रजातियों के बीच आपस में संपर्क करने और संभवत: परस्पर प्रजनन करने के लिए पर्याप्त मौका है। दोनों प्रजातियों में जो मुख्य अंतर है वह यह है कि आइबेरा प्रजाति के नर के पेट का रंग रेतीला और गले का रंग काला होता है, जबकि एस. हायपोक्सेंथा प्रजाति के नर के पेट और गले का रंग लालिमा लिया पीला होता है। और दोनों प्रजाति के गीत में थोड़ा अंतर होता है।

यह देखने के लिए कि क्या वास्तव में दोनों प्रजातियां जंगल में एक-दूसरे के साथ प्रजनन नहीं करतीं, शोधकर्ताओं ने दोनों प्रजातियों के 126 पक्षियों पर पहचान चिन्ह लगाए। और इस तरह इन प्रजातियों के वयस्कों और 80 नवजातों की गतिविधियों पर नज़र रखी। हरेक पक्षी के डीएनए का नमूना भी लिया। आनुवंशिक विश्लेषण में पता चला कि वास्तव में ये दोनों प्रजातियां आपस में प्रजनन नहीं करती हैं। इससे ऐसा लगता है कि मादाएं अपने प्रजनन-साथी के चयन में किसी एक पंख या पेट के रंग और गीत को वरीयता देती हैं। और मादा के इस चयन या पसंद ने ही पक्षियों को दो अलग-अलग प्रजातियों में बांटा है।

दो प्रजातियों की एक जैसी लगने वाली मादाओं का अध्ययन करके यह पता लगाना मुश्किल है कि वे साथी का चयन किस आधार पर करती हैं। लेकिन कुछ पक्षियों पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि साथी चयन में मादा जिन लक्षणों को वरीयता देती हैं, उन लक्षणों का उपयोग नर अपने प्रतिद्वंद्वियों की पहचान करने में करते हैं। अक्सर, एक प्रजाति के नर को अन्य प्रजाति के नर की उपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अपनी ही प्रजाति या अपने जैसे दिखने वाले नर के साथ उनमें साथी के लिए प्रतिस्पर्धा होती है।

यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने दोनों प्रजातियों के नर की तरह दिखने वाले रंगीन मॉडल बनाए। फिर इन मॉडल नरों को दोनों प्रजातियों के वास्तविक नरों को दिखाया और इन मॉडल के प्रति उनकी प्रतिक्रिया देखी। मॉडल दिखाते समय उन्होंने दोनों प्रजातियों में से कभी किसी एक प्रजाति के पक्षीगीत की रिकॉर्डिंग बजाई तो कभी दूसरी की। साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि नरों ने उन मॉडल नरों पर सबसे अधिक प्रतिक्रिया दी जिनके पक्षीगीत और पेट का रंग, दोनों उनकी अपनी प्रजाति के नर से मेल खाता था। ज़ाहिर है नर पक्षियों ने मॉडल नरों को मादा साथी के लिए प्रतिस्पर्धी के रूप में देखा।

दोनों प्रजातियों का आनुवंशिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि उनके केवल तीन जीन क्षेत्र में कुल 12 जीन अलग थे जो उन्हें एक-दूसरे से अलग बनाते हैं। इनमें पंखों के रंग का जीन भी शामिल है। ये छोटे-छोटे आनुवंशिक और पेट के रंग के परिवर्तन कुछ मादाओं की पसंद बने, जिससे आगे जाकर दोनों प्रजातियां अलग हो गर्इं।

वैसे एक संभावना यह भी है कि आइबेरा और पीले पेट वाली कैपुचिनो बीजभक्षी प्रजातियां पूर्व में कभी किन्हीं अलग-अलग स्थानों पर विकसित हुई होंगी और केवल बाद में उनका आवास एक हो गया होगा।

देखा गया है कैपुचिनो बीजभक्षी की अन्य प्रजातियों के बीच अतीत में आपस में प्रजनन हुआ था इसलिए एक संभावना यह भी है कि अभी जो जीन संस्करण आइबेरा प्रजाति को अलग बनाता है वह उसमें पहले से मौजूद रहा हो उसके नए संयोजनों और फेरबदल से नई प्रजाति बन गई हो। ऐसे में किसी नए जीन के विकास की ज़रूरत नहीं पड़ी होगी और इसलिए इतनी जल्दी नई प्रजाति बन गई। पक्षी विज्ञानी लंबे समय से जानते हैं कि पक्षीगीत और पंखों का रंग प्रजातियों को अलग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अब यह अध्ययन दिखाता है कि ये चीज़ें जीनोमिक स्तर पर किस तरह दिखती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हाथी दांत से अफ्रीकी हाथी के वंशजों की कहानी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

र्ष 2008 में नामीबिया के तट पर खनन करने वाले मजदूरों ने मिट्टी में दफन एक खजाना खोज निकाला था – एक व्यापारिक पुर्तगाली जहाज़ बोम जीसस। वर्ष 1533 में भारत की यात्रा पर निकला यह जहाज़ दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। जहाज़ में सोने-चांदी के सिक्कों के अलावा अन्य मूल्यवान सामग्री भरी थी। लेकिन पुरातत्वविदों और जीव विज्ञानियों की एक टीम के लिए तो बोम जीसस का सबसे कीमती खज़ाना था 100 से अधिक हाथी दांत, जो अफ्रीकी हाथी दांत का अब तक का सबसे बड़ा पुरातात्विक जानकारी का भंडार था।

हाथी दांत का आनुवंशिक और रासायनिक विश्लेषण करने पर हाथियों की उन नस्लों का पता लगा है जो कई अलग-अलग समूहों में पश्चिम अफ्रीका में सदियों पूर्व विचरण करते थे। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार वैज्ञानिकों का मानना है कि यह अध्ययन अफ्रीका के हाथियों की 500 वर्ष पुरानी आबादी और हाथी दांत व्यापार सम्बंधी बहुमूल्य जानकारी दे रहा है।

लगभग 500 वर्षों तक समुद्र की तलछट में दबे रहने के बावजूद हाथी दांत अविश्वसनीय रूप से अच्छी तरह से संरक्षित थे। जब जहाज़ समुद्र में डूबा तो डिब्बों में हाथी दांत के ऊपर जमी तांबे और सीसे की सिल्लियों ने हाथी दांतों को समुद्र में नीचे धकेल दिया और वे मिट्टी में धंस कर नष्ट होने से बच गए। यह भी अनुमान है कि अटलांटिक के इस क्षेत्र से ठंडा महासागरीय प्रवाह भी चलता है, जिसने डीएनए के संरक्षण में मदद की होगी।

44 हाथी दांत के डीएनए के अध्ययन में पाया गया कि ये हाथी दांत घास के मैदानों की प्रजाति (लोक्सोडोंटा अफ्रीकाना) की बजाय अफ्रीकी जंगली हाथियों (लोक्सोडोंटा साइक्लोटिस) के थे।

पहले से ज्ञात आबादियों के डीएनए से तुलना करके टीम ने निर्धारित किया कि बोम जीसस से प्राप्त हाथी दांत पश्चिम अफ्रीका में कम से कम 17 अलग-अलग आनुवंशिक समूहों के हाथियों के थे, जिनमें से केवल चार वर्तमान में मौजूद हैं। हाथी दांत में पाए गए कार्बन और नाइट्रोजन के समस्थानिकों ने इन हाथियों के आवास के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध कराई है।

भोजन और पानी के माध्यम से कार्बन और नाइट्रोजन ताउम्र हाथी दांत में जमा होते रहते हैं। कार्बन और नाइट्रोजन के विभिन्न समस्थानिकों की सापेक्ष मात्रा इस बात का संकेत है कि किसी हाथी ने अपना अधिकांश समय किसी वर्षा-वन में बिताया है या किसी शुष्क घास के मैदान में। बोम जीसस के हाथी दांत के समस्थानिकों से पता चला कि ये हाथी जंगलों और घास के मैदानों के मिश्रित प्रकार के आवास में रहते थे।

परंतु वैज्ञानिक शोध परिणाम से बहुत हैरान थे क्योंकि उनका अनुमान था कि वनों में रहने वाले हाथी 20वीं सदी में पहली बार जंगल से घास के मैदानों में आए थे। लेकिन परिणाम बता रहे थे कि अफ्रीकी हाथी तो दोनों आवासों में विचरते रहे हैं। आवास की जानकारी संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

बोम जीसस से प्राप्त हाथी दांत 16वीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप से हाथी दांत के व्यापार की तस्वीर चित्रित करते हैं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि पुर्तगाली जहाज़ पर लादे गए ये हाथी दांत विभिन्न बंदरगाहों से आए थे या किसी एक ही जगह से। भविष्य में ऐतिहासिक बंदरगाह वाले स्थानों से प्राप्त प्रमाण हाथी आवास की जानकारी के रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सटीक और भरोसेमंद खबर के लिए इनाम तो बनता है

र्ष 2020 में, सोशल मीडिया के माध्यम से फैलने वाली भ्रामक खबरों, लाइक्स वगैरह में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। परिमाम हैं ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में वृद्धि। यहां तक कि जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कार्रवाइयों और टीकाकरण अभियानों का भी काफी विरोध हुआ है। इस विषय में सोशल मीडिया कंपनियों ने झूठी खबरों को हटाने और भ्रामक खबरों को चिंहित करने के कुछ प्रयास किए हैं। जहां फेसबुक और इंस्टाग्राम अपने उपयोगकर्ताओं को आपत्तिजनक पोस्ट की शिकायत करने का मौका देते हैं, वहीं ट्विटर किसी भी पोस्ट को री-ट्वीट करने से पहले अच्छी तरह पढ़ने की सलाह देता है।

सोशल मीडिया पर झूठी खबरों से निपटने के लिए कंपनियों द्वारा अपने एल्गोरिदम में सुधार लाने को लेकर चर्चाएं चल रही हैं लेकिन यह बात चर्चा से नदारद है कि इस बात पर कैसे असर डाला जाए कि लोग क्या साझा करना चाहते हैं। देखा जाए तो विश्वसनीयता के लिए कोई स्पष्ट और त्वरित प्रोत्साहन नहीं है। जबकि तंत्रिका वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को उसके पोस्ट पर ‘लाइक’ मिलता है तो उसका अहंकार तुष्ट होता है और इससे उसके फॉलोअर्स की संख्या बढ़ती है जिसके आधार पर उसे कुछ अन्य उपलब्धियां भी मिल सकती हैं।

आम तौर पर सोशल मीडिया में यदि किसी पोस्ट की पहुंच अधिक होती है तो लोग वैसे ही पोस्ट करना पसंद करते हैं। पेंच यही है कि झूठी खबरें विश्वसनीय खबरों की तुलना में 6-20 गुना अधिक तेज़ी से फैलती हैं। इसका संभावित कारण उस सामग्री की ओर लोगों का आकर्षण है जो उनकी वर्तमान धारणाओं की पुष्टि करती है। और तो और, यह भी देखा गया है कि लोग उन जानकारियों को भी साझा करने से नहीं हिचकते जिन पर वे खुद भरोसा नहीं करते हैं। एक प्रयोग के दौरान जब लोगों को उनके राजनीतिक जुड़ाव के अनुरूप, लेकिन झूठी, खबर दिखाई गर्इं तो 40 प्रतिशत लोगों ने इसे साझा करने योग्य समझा जबकि उनमें से मात्र 20 प्रतिशत लोगों को लगता था कि खबर सच है।

देखा जाए तो सोशल मीडिया पर आमजन को अधिक आकर्षित करने वाली जानकारियों को वरीयता मिलती है, भले ही वह कम गुणवत्ता वाली ही क्यों न हो। लेकिन कंपनियों के पास अभी तक विश्वसनीय और सटीक जानकारियों को मान्यता देने के लिए कुछ नहीं है। कोई ऐसी प्रणाली अपनाने की ज़रूरत है जिसमें विश्वसनीयता और स्पष्टता को पुरस्कृत किया जाए। यह प्रणाली मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति के साथ सटीक बैठती है जिसमें वे उन कार्यों को महत्ता देते हैं जिससे कोई इनाम या मान्यता मिले। इससे अन्य लोग भी विश्वसनीय सामग्री की ओर बढ़ेंगे।

पारितोषिक प्रणाली कई देशों में अन्य संदर्भों में काफी प्रभावी रही है। स्वीडन में गति सीमा का पालन करने वाले ड्राइवरों को पुरस्कृत किया गया जिससे औसत गति में 22 प्रतिशत की कमी आई। दक्षिण अफ्रीका में एक स्वास्थ्य-बीमा कंपनी ने अपने ग्राहकों को सुपरमार्केट से फल या सब्ज़ियां खरीदने, जिम में कसरत करने या मेडिकल स्क्रीनिंग में भाग लेने पर पॉइंट्स देना शुरू किए। वे इन पॉइंट्स को कुछ सामान खरीदने के लिए उपयोग कर सकते हैं और इस उपलब्धि को वे एक तमगे के तौर पर अपने साथियों और सहयोगियों से साझा भी कर सकते हैं। ऐसा करने से उनके व्यवहार में बदलाव आया और अस्पताल के चक्कर भी कम हुए।

सोशल मीडिया पर इस तरह की प्रणाली लागू करने में सबसे बड़ी चुनौती जानकारियों की विश्वसनीयता के आकलन करने की है। इसमें एक तरीका ‘ट्रस्ट’ बटन शामिल करना हो सकता है जिसमें यह दर्शाया जा सके कि किसी पोस्ट को कितने लोगों ने विश्वसनीय माना है। इसमें यह जोखिम तो है कि लोग इसके साथ खिलवाड़ करने लगेंगे लेकिन इससे लोगों को अपनी बात कहने का एक और रास्ता मिल जाएगा और यह सोशल मीडिया कंपनियों के व्यापार मॉडल के अनुरूप भी होगा। इसमें लोग विश्वसनीयता के महत्व पर अधिक ज़ोर देंगे। उपरोक्त अध्ययन में एक यह बात सामने आई कि जब लोगों से किसी एक वक्तव्य की सत्यता विचार करने का आग्रह किया गया तो झूठी खबरों को साझा करने की संभावना भी कम हो गई।

उपयोगकर्ताओं द्वारा मूल्यांकन के काफी सकारात्मक उदाहरण मौजूद हैं। ऑनलाइन खरीददारी वेबसाइट अमेज़न पर ऐसे समीक्षकों को अमेज़न वाइन प्रोग्राम के तरह इनाम दिया जाता है जिनकी समीक्षा से लोगों को किसी उत्पाद की पहचान करने में सहायता मिली हो। इसमें एक अच्छी बात यह भी सामने आई कि अधिक संख्या में लोगों द्वारा की गई समीक्षा पेशेवर लोगों द्वारा की गई समीक्षा से मेल खाती है।

विकिपीडिया भी एक ऐसा उदाहरण है जिसमें लोगों द्वारा किसी जानकारी की विश्वसनीयता का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान में सोशल मीडिया कंपनियों ने फैक्ट-चेकर की टीम तैयार की है जो भ्रामक खबरों पर ‘ट्रस्ट’ बटन को हटा सकते हैं और विश्वसनीय खबरों पर ‘गोल्डस्टार’ दे सकते हैं। इसमें विश्वसनीयता में निरंतर उच्च रैंक प्राप्त करने वालों को ‘विश्वसनीय उपभोक्ता’ के बैज से सम्मानित किया जा सकता है।

वैसे, कुछ लोगों का मानना है कि सटीक जानकारी को बढ़ावा देने के लिए पारितोषिक अधिकतम लाइक्स एल्गोरिदम और भ्रामक जानकारी को बढ़ावा देने की मानवीय प्रवृत्ति के खिलाफ पर्याप्त नहीं है। लेकिन इस प्रणाली को आज़माने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। और सोशल मीडिया पर इस तरह का एक स्वस्थ माहौल बनाने के लिए नेटवर्क वैज्ञानिकों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों और अर्थशास्त्रियों के साथ अन्य लोगों के सहयोग की भी आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

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गुबरैला बताएगा स्थानीय निवासियों की पहचान

दि जीवविज्ञानी यह जानना चाहते हैं कि किसी स्थान के निवासी जीव कौन-से हैं, तो इसके लिए जल्द ही शमल गुबरैले इसमें सहायक हो सकते हैं। इन गुबरैलों की विशेषता है कि ये अपना पोषण काफी हद तक अन्य जंतुओं की विष्ठा से प्राप्त करते हैं। हाल ही में हुए अध्ययन में इन गुबरैलों की आंत में स्तनधारी जीवों के डीएनए पाए गए हैं, जो जैव-विविधता को सूचीबद्ध करने में मदद कर सकते हैं।

पर्यावरणीय डीएनए (eDNA) से किसी क्षेत्र की जैव-विविधता पता करने का विचार कुछ ही दशक पुराना है। इसमें वैज्ञानिक धूल, मिट्टी और विशेषकर पानी में जीवों के शरीर की त्वचा के अवशेष, म्यूकस और शरीर के अन्य तरल पदार्थ खोजते हैं। फिर इन नमूनों में वे पहचानने योग्य डीएनए ढूंढते हैं ताकि पता किया जा सके कि उस क्षेत्र में कौन-से जंतु रहते हैं।

समुद्री वैज्ञानिकों ने eDNA तकनीक का अधिक उपयोग किया है क्योंकि डीएनए पानी में कई दिनों तक बना रह सकता है और धूल या मिट्टी की तुलना में पानी से डीएनए आसानी से और अधिक मात्रा में निकाला जा सकता है। लेकिन भूमि पर eDNA तकनीक (या डीएनए बारकोडिंग) का उपयोग कम ही हो पाता है। वैसे कुछ वैज्ञानिक जोंक और मच्छरों की आंतों के रक्त से उनके मेज़बान जीवों का डीएनए पता करने की कोशिश करते हैं। दिक्कत यह है कि जोंक का इलाका बहुत सीमित होता है और मच्छरों को पकड़ना अक्सर मुश्किल होता है।

लंदन की क्वीन मैरी युनिवर्सिटी की आणविक जीव विज्ञानी रोज़ी ड्रिंकवाटर ने डीएनए-समृद्ध शमल गुबरैलों के साथ परीक्षण करने का विचार बनाया। स्कारेबैडी कुल के ये अकशेरुकी जीव अन्य जानवरों के मल पर निर्भर होते हैं। शमल गुबरैले अंटार्कटिका को छोड़कर हर महाद्वीप पर पाए जाते हैं और ये रेगिस्तान से लेकर जंगलों जैसी हर जगह पर रह सकते हैं।

ड्रिंरकवाटर और उनके साथियों ने बोर्नियो के जंगल से कैथार्सियस जीनस के अंगूठे की साइज़ के 24 शमल गुबरैलों को पकड़ा, और उनकी आंत में मिले डीएनए का अनुक्रमण किया। फिर शोधकर्ताओं ने इसकी तुलना बोर्नियो के जंगली जानवरों के जीनोम से की। बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में शोधकर्ताओं ने बताया है कि आंत से प्राप्त डीएनए दढ़ियल सूअर, सांभर, मंटजेक (एक किस्म का हिरन), छोटा कस्तूरी मृग, साही और उस इलाके में पाए जाने वाले अन्य सभी जानवरों के डीएनए से मेल खाते हैं। उन्होंने एक दुर्लभ धारीदार उदबिलाव के डीएनए की भी पहचान की लेकिन इसका अनुक्रमण इतना स्पष्ट नहीं था कि इसकी पुष्टि की जा सके। इसके अलावा उन्हें आंत में प्रचुर मात्रा में मानव डीएनए भी मिले जो ‘चारा’ खिलाने वाले लोगों के नहीं थे; संभवत: ये डीएनए निकट स्थित ताड़ के बागानों में काम करने वाले लोगों के थे। इन परिणामों से लगता है कि शमल गुबरैलों की मदद से eDNA तकनीक का पानी के अलावा अन्यत्र भी इस्तेमाल किया जा सकेगा।

वैसे अभी इस अध्ययन की समकक्ष-समीक्षा की जानी बाकी है, और विभिन्न स्थानों और गुबरैलों के लिए इस तरीके की पुष्टि होना भी बाकी है। फिर भी शमल गुबरैले eDNA तकनीक में मददगार साबित हो सकते हैं।

अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक यह तरीका अच्छा तो है, लेकिन इसके लिए काफी गुबरैलों की अनावश्यक बलि चढ़ानी पड़ेगी। बेहतर होगा कि इसकी बजाय मिट्टी या तलछट आधारित गैर-हिंसक eDNA तकनीकें विकसित की जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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भारतीय बाघों में अंत:जनन के खतरे

ह सही है कि दुनिया भर में बिल्ली कुल की विभिन्न उप-प्रजातियों की अपेक्षा भारतीय बाघ में सबसे अधिक आनुवंशिक विविधता दिखती है, लेकिन नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ (एनसीबीएस), बैंगलोर द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन बताता है कि इनके सीमित और घटते आवास के कारण इनकी आबादी छोटे-छोटे हिस्सों में बंटती जा रही है। इस वजह से इनमें अंत:जनन की स्थिति बन सकती है और इनकी विविधता में कमी आ सकती है।

सेंटर की आणविक पारिस्थितिकी विज्ञानी डॉ. उमा रामकृष्णन बताती हैं कि जैसे-जैसे मानव आबादी फैली, पृथ्वी पर उसके हस्ताक्षर भी बढ़े। इंसानी गतिविधियों ने बाघ और उनके आवास को प्रभावित किया है, और उनके आवागमन को बाधित किया है। इसके चलते बाघ अपने संरक्षित क्षेत्र में ही सिमट गए हैं और वे केवल अपने ही क्षेत्र के अन्य बाघों के साथ प्रजनन कर पाते हैं, जिससे एक समय ऐसा आएगा जब बाघ अपने ही रिश्तेदारों के साथ प्रजनन कर रहे होंगे।

हम नहीं जानते कि यह अंत:जनन उनके स्वास्थ्य और उनके जीवित रहने की क्षमता को किस तरह प्रभावित करेगा लेकिन यह तो स्पष्ट है कि आबादी में आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होगी भविष्य में जीवित रहने की संभावना भी उतनी बढ़ेगी। अध्ययन के अनुसार बाघ का छोटे-छोटे इलाकों में बंटा होना उनकी आनुवंशिक विविधता में कमी लाकर भविष्य में उन्हें विलुप्ति की कगार पर पहुंचा सकता है।

हालांकि वर्तमान में बाघ के संरक्षण पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है लेकिन फिर भी हमें उनके वैकासिक इतिहास और जीनोमिक विविधता के बारे में बहुत कम जानकारी है। विश्व के 70 प्रतिशत बाघ भारत में पाए जाते हैं। इस दृष्टि से भारतीय बाघ की आनुवंशिक विविधता को समझना दुनिया भर में बाघ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।

एनसीबीएस के इस तीन-वर्षीय अध्ययन में शोधकर्ताओं ने टाइगर की जीनोमिक विविधता और इस विविधता को पैदा करने वाली प्रक्रिया के बारे में समझ प्रस्तुत की है। इसमें उन्होंने 65 बाघों के पूरे जीनोम का अनुक्रमण किया, और आनुवंशिक विविधता में विभाजन का पता लगाया, अंत:जनन के संभावित प्रभाव देखे, जनसांख्यिकीय इतिहास पता किया और स्थानीय अनुकूलन के संभावित चिंहों की जांच की। अध्ययन में पाया गया कि अब कई बाघ आबादियों में विविधता में कमी आई है। और बाघ की अधिक आबादी किन्हीं-किन्हीं जगहों पर सीमित हो गई है जो उनमें अंत:जनन की संभावना बढ़ाती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए हमें बाघ के विभिन्न आवासों के बीच सुचारु संपर्क गलियारे बनाने होंगे ताकि उनका आवागमन क्षेत्र बढ़ सके। इसके अलावा उनके लिए उचित संरक्षित आवास बनाने चाहिए – जैसे उनके आवास क्षेत्रों में घनी आबादी वाली बस्तियां या अत्यधिक मानव गतिविधियां ना हों।

उत्तर-पूर्व भारत में पाए जाने वाले बाघ अन्यत्र पाए जाने वाले बाघों से सर्वथा भिन्न हैं। अत: हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि क्यों कुछ बंगाल बाघों में अंत:जनन की स्थिति बनी है। पिछले 20,000 वर्षों में बाघ की उप-प्रजातियों के बीच जो अलगाव पैदा हुए हैं वे बढ़ते मानव प्रभावों और एशिया महाद्वीप में हो रहे जलवायु सम्बंधी परिवर्तनों के कारण हुए हैं।

इसके अलावा शोधकर्ताओं का सुझाव है कि बाघ के जनसंख्या प्रबंधन और संरक्षण नीतियों में आनुवंशिक विविधता की जानकारी भी शामिल होनी चाहिए। उम्मीद है कि इससे भारतीय बाघ के संरक्षण मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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