बर्फ में दबा विशाल मछली प्रजनन क्षेत्र

रवरी 2021 में, एक बड़ा जर्मन शोध जहाज़ आरवी पोलरस्टर्न समुद्री जीवन का अध्ययन करने के लिए वेडेल सागर की ओर रवाना हुआ था। अध्ययन में वैज्ञानिकों को वेडेल सागर के नीचे मछलियों की सबसे बड़ी और घनी आबादी वाली प्रजनन कॉलोनी मिली है। अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्व में स्थित आइसफिश की यह कॉलोनी लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैली है जिसमें इनके अनगिनत घोंसले नियमित अंतराल पर बने हैं।

अल्फ्रेड वेगनर इंस्टीट्यूट के ऑटन पर्सर और उनके दल ने जब समुद्र सतह से आधा किलोमीटर नीचे, समुद्र के पेंदे के नज़दीक, वीडियो कैमरा और अन्य उपकरण डाले तो उन्हें वहां लगभग 75-75 सेंटीमीटर चौड़े हज़ारों आइसफिश के घोंसले दिखे। इन गोलाकार घोंसलों को वयस्क आइसफिश अपने पेल्विक फिन से बजरी और रेत को हटाकर बनाती हैं। हर घोंसले में एक वयस्क आइसफिश थी और प्रत्येक में 2100 तक अंडे थे।

सोनार तकनीक की मदद से पता लगा कि मछलियों के ये घोंसले सैकड़ों मीटर तक फैले हैं। उच्च विभेदन वाले वीडियो और कैमरों ने 12,000 से अधिक वयस्क आइसफिश (नियोपैगेटोप्सिस आयोना) को कैद किया।

लगभग 60 सेंटीमीटर लंबी यह आइसफिश अत्यधिक ठंडे वातावरण में रहने के लिए अनुकूलित है। ये एंटीफ्रीज़ किस्म के रसायनों (जो बर्फ बनने से रोकते हैं) का उत्पादन करती हैं। और इस इलाके में पानी में भरपूर ऑक्सीजन पाई जाती है जिसके चलते ये एकमात्र कशेरुकी जीव हैं जिनका रक्त हीमोग्लोबिन रहित रंगहीन होता है।

अपनी तीन यात्राओं के दौरान शोधकर्ताओं को आइसफिश के पास-पास स्थित 16,160 घोंसले दिखे। इनमें से 76 प्रतिशत घोंसलों की रक्षा एक-एक इकलौता नर कर रहा था। करंट बायोलॉजी जर्नल में शोधकर्ताओं ने अनुमान व्यक्त किया है कि यदि पूरे क्षेत्र में घोंसले इतनी ही सघनता से फैले होंगे तो लगभग 240 वर्ग किलोमीटर के दायरे में 6 करोड़ घोंसले होंगे। इनकी इतनी अधिक संख्या देखते हुए लगता है कि आइसफिश और उनके अंडे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र में प्रमुख भूमिका निभाते होंगे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वयस्क आइसफिश पानी की धाराओं की मदद से अंडे देने के लिए उचित जगह तलाशती होंगी, जहां का पानी जंतु-प्लवकों से समृद्ध होगा और जहां उनकी संतानों के लिए पर्याप्त भोजन मिलेगा। इसके अलावा, घोंसलों की सघनता शिकारियों से बचने में मदद करती होगी।

मछलियों की नई विशाल कॉलोनी मिलना वेडेल सागर को संरक्षित क्षेत्र बनाने का एक नया कारण है। हालांकि वेडेल सागर अब तक मछलियों के शिकार जैसी गतिविधि से सुरक्षित है, लेकिन इस सुरक्षित और पारिस्थितिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र को सुरक्षित बनाए रखने के लिए और प्रयास करने होंगे।

बहरहाल शोधकर्ता आइसफिश के प्रजनन और घोंसले बनाने सम्बंधी व्यवहार के बारे में अधिक जानने को उत्सुक व तैयार हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मनुष्य निर्मित पहला संकर पशु कुंगा

सीरिया के उम्म-अल-मारा खुदाई स्थल पर पुरातत्वविदों को 2006 में लगभग 3000 ईसा पूर्व के शाही कब्रगाहों के साथ गधे जैसे एक जानवर के अवशेष भी मिले थे। दफन की शैली को देखकर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह जानवर दुर्लभ ‘कुंगा’ होगा, जो कांस्य युगीन मेसोपोटामिया के अभिजात्य वर्ग के लिए अत्यधिक महत्व रखता था। लेकिन अब तक इस चौपाए की वास्तविक जैविक पहचान स्पष्ट नहीं हो सकी थी। अब, प्राप्त हड्डियों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि यह चौपाया दो प्रजातियों – एक नर जंगली गधे और पालतू मादा गधी – की संकर संतान थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में यह पहला मानव निर्मित संकर प्राणि है।

उस समय की कीलाक्षरी लिपि तख्तियों पर एक शक्तिशाली और नाटे कद के कुंगा का वर्णन यहां के अमीर और शक्तिशाली लोगों के पसंदीदा जानवर के तौर पर मिला है। यह ज्ञात प्रजातियों से अलग तरह का गधा था। इन तख्तियों पर पशुपालन के जटिल तरीकों के बारे में भी वर्णन मिलता है; इनमें अश्वों की दो अलग-अलग प्रजातियों का प्रजनन कराकर संकर जानवर तैयार करने का ज़िक्र है। ये तख्तियां बहुत विस्तार से जानकारी नहीं देती कि ये प्रजातियां कौन-सी थीं, और संकर संतान प्रजनन योग्य थी या नहीं। लेकिन इन पर अंकित संदेश से इतना पता चलता है कि संकर प्रजाति औसत गधों की तुलना में फुर्तीली थी।

पुरातत्वविदों को जब ये हड्डियां मिली तो वे किसी ज्ञात प्रजाति की नहीं लगीं। वैसे भी सिर्फ अवशेष देखकर यह पहचानना मुश्किल होता कि वे किस अश्व वंश की हैं, घोड़े की हैं या गधे की।

इन हड्डियों के दफन होने के स्थान और स्थिति के आधार पर पुरातत्वविदों का अनुमान था कि यह चौपाया यहां के लोगों के लिए पौराणिक महत्व रखता होगा और अवश्य ही कुंगा होगा। लेकिन वास्तव में यह कौन-सा जानवर है इसकी पुष्टि के लिए पुरातत्वविदों ने आनुवंशिकीविद ईवा-मारिया गीगल की सहायता ली। हड्डियां बहुत भुरभुरी स्थिति में थी। इसलिए गीगल और उनके दल ने इनके नाभिकीय डीएनए के विश्लेषण के लिए अत्यधिक संवेदनशील अनुक्रमण विधियों का उपयोग किया, और साथ ही उनके मातृ और पितृ वंश को भी देखा। कुंगा के डीएनए की तुलना आधुनिक घोड़ों, पालतू गधों और विलुप्त सीरियाई जंगली गधे सहित अन्य अश्व वंश के जानवरों के जीनोम से भी की गई।

साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि हड्डियां किसी एक अश्व प्रजाति की नहीं थी, बल्कि ये दो भिन्न प्रजातियों के संकरण की पहली पीढ़ी की संतान थी; जिसमें मादा पालतू गधा प्रजाति की और नर सीरियाई जंगली गधा प्रजाति का था।

मानव निर्मित संकर प्राणि का यह पहला दर्ज उदाहरण है। खच्चर (घोड़े और गधे का संकर) संभवतः अगला सबसे पुराना उदाहरण है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन कांस्य युगीन मेसोपोटामिया समाज की तकनीकी क्षमताओं को दर्शाता है और इन जानवरों को जीवित रखने के लिए आवश्यक संगठन और प्रबंधन तकनीकों के स्तर को भी दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)(स्रोत फीचर्स)

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बैक्टीरिया संक्रमित कीट सर्दियों में ज़्यादा सक्रिय रहते हैं

यूएस के जंगलों में किलनियों (टिक) के माध्यम से लाइम रोग फैलने का खतरा होता है। इस रोग के डर से कई लोग यह सोचकर सर्दियों तक अपनी जंगल यात्राएं टाल देते हैं कि सर्दियों में किलनियां गायब हो जाएंगी। अब तक लोगों को यही लगता था, लेकिन हाल ही में सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक में शोधकर्ताओं ने बताया है कि लाइम रोग फैलाने वाले सूक्ष्मजीवों से संक्रमित किलनियां जाड़ों में भी सक्रिय रहती हैं और रोग फैला सकती हैं। ऐसा लगता है कि इनकी सक्रियता में वृद्धि जलवायु परिवर्तन के चलते जाड़ों के घटते-बढ़ते तापमान के कारण आई है।

यूएस में, हर साल लगभग पौने पांच लाख लोग इस रोग की चपेट में आते हैं और पिछले 20 वर्षों में मामले तीन गुना बढ़े हैं। वैसे तो बोरेलिया बर्गडॉर्फेरी बैक्टीरिया जनित यह रोग फ्लू की तरह होता है, जिसमें त्वचा पर आंखनुमा (बुल-आई) लाल चकत्ते पड़ जाते हैं। लेकिन कुछ मामलों में यह मस्तिष्क, तंत्रिकाओं, हृदय और जोड़ों को भी प्रभावित करता है, जिससे गठिया या तंत्रिका क्षति जैसी समस्याएं होती है।

किलनियों और किलनी वाहित रोगों से निपटने के तमाम प्रयासों के बावजूद इसमें कमी नहीं आई है। डलहौज़ी विश्वविद्यालय की इको-इम्यूनोलॉजिस्ट लौरा फर्ग्यूसन ने इस पर ध्यान दिया।

तीन सर्दियों तक, फर्ग्यूसन और उनके साथियों ने जंगल से 600 काली टांगों वाली किलनियां (Ixodes scapularis) और उसकी सम्बंधी पश्चिमी काली टांगों वाली किलनियां (I. pacificus) पकड़ीं। हरेक किलनी को एक-एक शीशी में रखा। शीशियों पर ढक्कन लगे थे और पेंदे में पत्तियां बिछी थीं। इन शीशियों को सर्दियों में बाहर छोड़ दिया, जहां पर तापमान -18 डिग्री सेल्सियस से 20 डिग्री सेल्सियस तक रहा। चार महीनों बाद उन्होंने देखा कि इनमें से कौन-सी किलनियां जीवित बचीं और इनमें से कौन-सी किलनियां बी. बर्गडोर्फेरी से संक्रमित हैं। उन्होंने पाया कि लगभग 79 प्रतिशत संक्रमित किलनियां ठंड में जीवित बच गईं थीं, जबकि केवल 50 प्रतिशत असंक्रमित किलनियां जीवित बची थीं। चूंकि सर्दियों में संक्रमित किलनियों के बचने की दर काफी अधिक रही, इसलिए आने वाले वसंत के मौसम में लाइम रोग अधिक फैलने की संभावना लगती है।

इसके बाद शोधकर्ता देखना चाहती थीं कि सर्दियों के दौरान तापमान में घट-बढ़, जैसे बे-मौसम का गर्म दिन और अचानक आई शीत लहर, किलनियों को किस तरह प्रभावित करती है। यह देखने के लिए उन्होंने अपने अध्ययन में संक्रमित और असंक्रमित किलनियों को तीन अलग-अलग परिस्थितियों में रखा: एकदम ठंडे तापमान (जमाव बिंदु) पर, 3 डिग्री सेल्सियस तापमान पर और घटते-बढ़ते तापमान पर (जैसा कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने की संभावना जताई गई है)। किलनियों की गतिविधि की निगरानी के लिए एक इंफ्रारेड प्रकाश पुंज की व्यवस्था थी; यदि किलनियां जागेंगी और शीशी से बाहर निकलने की कोशिश करेंगी तो वे इस इंफ्रारेड पुंज को पार करेंगी और पता चल जाएगा।

अध्ययन में पाया गया कि घटते-बढ़ते तापमान में संक्रमित किलनियां सबसे अधिक सक्रिय थीं। वे सप्ताह में लगभग 4 दिन जागीं बनिस्बत असंक्रमित या स्थिर तापमान पर रखी गईं किलनियों के जो सप्ताह में 1 या 2 दिन ही जागीं। इसके अलावा, संक्रमित किलनियां शीत लहर के प्रकोप के बाद असंक्रमित किलनियों की तुलना में अधिक सक्रिय देखी गईं। इससे लगता है कि बी. बोरेलिया बैक्टीरिया किलनियों को अधिक सक्रिय और काटने के लिए आतुर करता है। सर्दियों का मौसम संक्रमित किलनियों को संक्रमण को फैलाने में मदद करता है।

आम तौर पर ऐसा माना जाता है कि जब अधिक ठंड पड़ती है तो कुछ नहीं होता, सब निष्क्रिय से रहते हैं। लेकिन इस अध्ययन से ठंड में भी रोग संचरण की संभावना लगती है। बहरहाल इस तरह के और अध्ययन करने की ज़रूरत है ताकि यह पता लगाया जा सके कि ऐसे मौसम रोग संचरण पर क्या असर डालते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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स्पिटलबग कीट का थूकनुमा घोंसला – हरेंद्र श्रीवास्तव

र्ष यदि आप ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं तो अक्सर खेतों-मेड़ों और सड़कों के किनारे उगी घास-फूस पर एक थूक अथवा झाग जैसी संरचना देखी होगी। ये झागनुमा रचना पौधों की पत्तियों, टहनियों और तनों पर मौजूद होती हैं। आखिर ये हैं क्या?

कई लोग अनुमान लगाते हैं कि ये किसी मनुष्य अथवा प्राणी की थूक है जिसके चलते इसका नाम कोयल थूक और सांप थूक भी पड़ गया। दरअसल यह झागनुमा संरचना एक कीट (स्पिटलबग कीट) द्वारा बनाया गया घोंसला है। हेमिप्टेरा वर्ग के इस कीट के अन्य नाम फ्रागहॉपर, स्पिट इन्सेक्ट और फिलिनस कीट वगैरह भी हैं।

मैंने अवलोकन के दौरान इस कीट के झागदार घोंसलों को गेंदे, तुलसी, गाजर घास और गुलाब आदि पौधों पर पाया है। यह कीट लगभग एक मीटर ऊंचे पौधों के तनों पर अपना आशियाना बनाता है। घोंसले बनाने की कला बेहद विशिष्ट है। ये स्पिटलबग कीट पहले पौधों के ज़ायलम जैसे ऊतकों में मौजूद कार्बोहाइड्रेट आदि पादप-रसों को चूसता है और फिर उसे अपने उदर में पाई जाने वाली ग्रन्थियों के रसों में मिश्रित कर शरीर के पश्च भाग से पौधे पर छोड़ता जाता है और इस तरह तैयार हो जाता है उसका एक शानदार कुदरती घर जिसमें वो प्रजनन करता है और अपने जीवन-चक्र की अवस्थाओं को पूरा करता है। इस कीट द्वारा बनाए गए घर को स्पिटलबग फोम कहा जाता है। यह कीट हरे, भूरे, नारंगी आदि कई रंगों में मिलता है जिसकी एशिया, अफ्रीका से लेकर अमेरिकी महाद्वीप तक विभिन्न प्रजातियां पाई जाती हैं।

इस कीट द्वारा निर्मित घोंसले में ताप और शीत सहन करने की विशेष क्षमता होती है। आप देखेंगे कि ये झागनुमा संरचना दोपहर की तेज़ धूप में भी नष्ट नहीं होती। मैंने सुबह से लेकर शाम तक स्पिटलबग के घोंसले का अवलोकन किया और पाया कि धूप इन्हें सुखा नहीं पाई। यह प्राकृतिक आशियाना इस जीव को शिकारी कीटभक्षी प्राणियों से भी सुरक्षा प्रदान करता है क्योंकि इस झागनुमा संरचना का स्वाद कीटभक्षियों को पसंद नहीं आता और इसमें छिपे रहने के कारण शिकारी इसे देख भी नहीं पाते।

वैसे तो स्पिटलबग जैसा नन्हा सा कीट पौधों को कोई विशेष नुकसान नहीं पहुंचाता लेकिन जब इनकी आबादी बढ़ जाती है तो इन्हें नाशी-कीट कहा जाता है। नियंत्रण हेतु पौधों पर पानी का तीव्र फुहारा फेंका जाता है जिससे स्पिटलबग फोम नष्ट हो जाते हैं। मादा कीट भोजन एवं सुरक्षा की दृष्टि से अनुकूल पौधों पर सैकड़ों अण्डे देती है और इन अण्डों से निम्फ निकलते हैं जो उन पौधों पर खूबसूरत घोंसले बनाते हैं।

स्पिटलबग को मैंने खेतों-मेड़ों पर घास-फूस व खरपतवारों पर अनेकों बार देखा है। आप भी अपने आसपास की वनस्पतियों, तितली, पक्षी, सरीसृपों आदि की गतिविधियों का अवलोकन करें क्योंकि पर्यावरण में घट रही प्राकृतिक घटनाओं और पौधों तथा जीव-जंतुओं की कुदरती गतिविधियों को जितना ज़्यादा देखेंगे-समझेंगे, उतना आनंद प्राप्त होगा और ज्ञान भी। (स्रोत फीचर्स)

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प्रजनन करते रोबोट!

कुछ वर्ष पहले युनिवर्सिटी ऑफ वर्मान्ट, टफ्ट्स युनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकली इंस्पायर्ड इंजीनियरिंग और हारवर्ड युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने अफ्रीकी नाखूनी मेंढक (ज़ेनोपस लाविस) की स्टेम कोशिकाओं से एक मिलीमीटर का रोबोट तैयार किया था। इसे ज़ेनोबॉट नाम दिया गया। प्रयोगों से पता चला कि ये छोटे-छोटे पिंड चल-फिर सकते हैं, समूहों में काम कर सकते हैं और अपने घाव स्वयं ठीक भी कर सकते हैं।

अब वैज्ञानिकों ने इन ज़ेनोबॉट में प्रजनन का एक नया रूप खोजा है जो जंतुओं या पौधों के प्रजनन से बिल्कुल अलग है। वैज्ञानिक बताते हैं कि मेंढकों में प्रजनन करने का एक तरीका होता है जिसका वे सामान्य रूप से उपयोग करते हैं। लेकिन जब भ्रूण से कोशिकाओं को अलग कर दिया जाता है तब वे कोशिकाएं नए वातावरण में जीना सीख जाती हैं और प्रजनन का नया तरीका खोज लेती हैं। मूल ज़ेनोबोट मुक्त स्टेम कोशिकाओं के ढेर बना लेते हैं जो पूरा मेंढक बना सकते हैं।

दरअसल, स्टेम कोशिकाएं ऐसी अविभेदित कोशिकाएं होती हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की कोशिकाओं में विकसित होने की क्षमता होती है। ज़ेनोबॉट्स बनाने के लिए शोधकर्ताओं ने मेंढक के भ्रूण से जीवित स्टेम कोशिकाओं को अलग करके इनक्यूबेट किया। आम तौर पर माना जाता है कि रोबोट धातु या सिरेमिक से बने होते हैं। लेकिन वास्तव में रोबोट का मतलब यह नहीं होता कि वह किस चीज़ से बना है बल्कि रोबोट वह है जो मनुष्यों की ओर से स्वयं काम कर दे।

अध्ययन में शामिल शोधकर्ता जोश बोंगार्ड के अनुसार यह एक तरह से तो रोबोट है लेकिन यह एक जीव भी है जो मेंढक की कोशिकाओं से बना है। बोंगार्ड बताते हैं कि ज़ेनोबॉट्स शुरुआत में गोलाकार थे और लगभग 3000 कोशिकाओं से बने थे और खुद की प्रतियां बनाने में सक्षम थे। लेकिन यह प्रक्रिया कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही हुई। ज़ेनोबॉट्स वास्तव में ‘काइनेटिक रेप्लिकेशन’ का उपयोग करते हैं जो आणविक स्तर देखा गया है लेकिन पूरी कोशिका या जीव के स्तर पर पहले नहीं देखा गया।             

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से विविध आकारों का अध्ययन किया ताकि ऐसे ज़ेनोबॉट्स बनाए जा सकें जो अपनी प्रतिलिपि बनाने में अधिक प्रभावी हों। सुपरकंप्यूटर ने C-आकार का सुझाव दिया। शोधकर्ताओं ने पाया कि यह C-आकार पेट्री डिश में छोटी-छोटी स्टेम कोशिकाओं को खोजकर उन्हें अपने मुंह के अंदर एकत्रित कर लेता था। कुछ ही दिनों में कोशिकाओं का ढेर नए ज़ेनोबॉट्स में परिवर्तित हो गया।

शोधकर्ताओं के अनुसार (PNAS जर्नल) आणविक जीवविज्ञान और कृत्रिम बुद्धि के इस संयोजन का उपयोग कई कार्यों में किया जा सकता है। इसमें महासागरों से सूक्ष्म-प्लास्टिक को एकत्रित करना, जड़ तंत्रों का निरीक्षण और पुनर्जनन चिकित्सा जैसे कार्य शामिल हैं।

इस तरह स्वयं की प्रतिलिपि निर्माण का शोध चिंता का विषय हो सकता है लेकिन शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि ये जीवित मशीनें प्रयोगशाला तक सीमित हैं और इन्हें आसानी से नष्ट किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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इस सहस्रपाद की वाकई हज़ार टांगें होती हैं

हस्रपाद (मिलीपीड) नाम के बावजूद सभी मिलीपीड के पैरों की संख्या हज़ार नहीं होती है। आम बोलचाल में इन्हें गिंजाई या कनखजूरा कहते हैं। अधिकांश प्रजातियों में पैरों की संख्या सौ से भी कम होती है। लेकिन अब, शोधकर्ताओं ने सहस्रपाद की एक ऐसी प्रजाति की खोजी है जिसके पैरों की संख्या उसके नाम से भी अधिक हो सकती है।

शोधकर्ताओं को सहस्रपाद की यह प्रजाति पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के एक रेगिस्तान में 60 मीटर गहराई में मिली है। शोधकर्ता खनन कंपनियों द्वारा अन्वेषण के लिए खोदे गए सुराखों में खास डिज़ाइन किए गए जाल (सड़ी-गली पत्तियों से भरे प्लास्टिक पाइप) डालकर गहराई में रहने वाले अकशेरुकी जीवों की खोज कर रहे थे।

इसे यूमिलीपीस पर्सेफोन नाम दिया है। यूमिलीपीस का मतलब है वास्तव में हज़ार पैरों वाली और पर्सेफोन नाम ग्रीक पौराणिक कथाओं की पाताल लोक की देवी से मिला है, जो कुछ समय के लिए ज़मीन के ऊपर आती है और वसंत का आगाज़ करती है।

क्रीमी रंग का यह सहस्रपाद एक मिलीमीटर से भी कम चौड़ा और लगभग 10 सेंटीमीटर लंबा है। अपने डील-डौल में यह ज़मीन के ऊपर रहने वाले सहस्रपादों की तुलना में बहुत छरहरा है। इसके कई सारे छोटे-छोटे पैर इसे चट्टान की छोटी-छोटी दरारों से गुज़रने की शक्ति देते हैं। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ता बताते हैं कि ई. पर्सेफोन की आंखें नहीं हैं, ये अपने बड़े एंटीना की मदद से दुनिया को भांपते हैं। और संभवत: कवक इनका भोजन होता है।

शोधकर्ताओं को इस स्थल से आठ ई. पर्सेफोन मिले हैं। यदि इनके पैर गिनें तो इनमें से दो वयस्क मादाएं ही सच्ची सहस्रपाद हैं; दो वयस्क नरों के पैरों की अधिकतम संख्या 778 और 818 है। दरअसल, किसी भी सहस्रपाद के पैरों की संख्या बदलती रह सकती है क्योंकि आर्थ्रोपोड (संधिपाद जंतु) अपने पूरे जीवन में शरीर में अतिरिक्त खंड विकसित करते रहते हैं। ई. पर्सेफोन शरीर के खंड सिकोड़ और फैला सकता है। इससे संभवत: छोटी दरारों में फिट होने और कठिन रास्तों पर चलने में मदद मिलती है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि ई. पर्सेफोन सतह की जलवायु गर्म और शुष्क होने के काफी पहले भूमिगत हो गए थे। (स्रोत फीचर्स)

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मैडागास्कर में मिली मेंढक की नई प्रजाति

मैडागास्कर जैव विविधता और खासकर उभयचरों की विविधता से समृद्ध देश है। लेकिन हाल के वर्षों में जो नई उभयचर प्रजातियां खोजी गई हैं उन्हें अप्रकट प्रजाति की क्षेणी में रखा जाता है क्योंकि ये दिखने में तो पहले से ज्ञात प्रजातियों से बहुत मिलती-जुलती होती हैं और इन्हें अलग प्रजाति मात्र डीएनए की तुलना के आधार पर माना गया है।

लेकिन हाल ही में लुसिआना स्टेट युनिवर्सिटी के शोधकर्ता कार्ल हटर ने मैडागास्कर के एंडेसिबी-मैनटेडिया नेशनल पार्क में एक ऐसी मेंढक प्रजाति खोजी  है जो अन्य मेंढकों से एकदम अलग दिखती है। मेडागास्कर के वर्षा-वन के ऊंचे क्षेत्रों में पाया गया यह मेंढक आकार में बहुत छोटा है। इसकी त्वचा मस्सेदार और आंखें चटख लाल रंग की हैं।

देखा जाए तो इस नई मेंढक प्रजाति का मिलना काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस इलाके को पहले ही काफी खंगाला जा चुका है। हटर और उनके सहयोगियों का सामना इस प्रजाति से पहली बार वर्ष 2015 में हुआ था। शोधकर्ताओं ने इस खोज को ज़ुओसिस्टेमेटिक्स एंड इवॉल्यूशन नामक जर्नल में प्रकाशित किया है और इस नई प्रजाति की विशिष्ट त्वचा को देखते हुए इसे गेफायरोमेंटिस मारोकोरोको (मलागासी भाषा में ऊबड़-खाबड़) नाम दिया है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि यह उभयचर एक अनूठी ध्वनि भी निकालता है। दो से चार पल्स के बाद एक लंबी ध्वनि इतनी मंद होती है कि कुछ मीटर दूर तक ही सुना जा सकता है। चूंकि इस निशाचर मेंढक की रहस्यमय प्रकृति भारी बारिश के बाद बाहर आने पर ही दिखती है, इसलिए इसके वर्गीकरण के लिए पर्याप्त नमूने और रिकॉर्डिंग एकत्रित करने में कई साल लगेंगे।

शोधकर्ताओं को लगता है कि यह प्रजाति विलुप्त होने के जोखिम में है क्योंकि इसे जंगल के सिर्फ चार टुकड़ों में पाया गया है, और जहां यह पाया गया है वहां झूम खेती (स्लेश एंड बर्न) का खतरा रहता है। (स्रोत फीचर्स)

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क्या प्राचीन भारत में पालतू घोड़े थे? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में फ्रांस की पॉल सेबेटियर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा नेचर पत्रिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार, लुडोविक ऑर्लेन्डो और उनके समूह ने ऐसे क्षेत्रों से 2,000 से अधिक घोड़ों की हड्डियों और दांतों के प्राचीन नमूने एकत्रित किए है जहां पालतू घोड़ों की उत्पत्ति की संभावना है। पालतू घोड़ों की उत्पत्ति के संभावित क्षेत्र युरोप के दक्षिण-पश्चिमी कोने का आइबेरियन प्रायद्वीप, युरेशिया की सुदूर पश्चिमी सीमा, एनाटोलिया (आधुनिक समय का तुर्की), और पश्चिमी युरेशिया और मध्य एशिया के घास के मैदानों को माना जाता है। टोसिन थॉम्पसन ने नेचर पत्रिका के 28 अक्टूबर 2021 के अंक में एक टिप्पणी में लिखा है, डॉ. ऑर्लेन्डो के दल ने इन क्षेत्रों से प्राप्त लगभग 270 नमूनों के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम का विश्लेषण कर लिया है, और साथ में पुरातात्विक जानकारी भी एकत्र कर ली है। इसके अलावा उन्होंने रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से घोड़ों के इन नमूनों की उम्र निर्धारित कर ली है (रेडियोधर्मी कार्बन-14 एक निश्चित दर से विघटित होता है)। इन मिले-जुले आंकड़ों की मदद से वे यह तय कर पाए कि लगभग 4200 ईसा पूर्व तक कई अलग-अलग तरह के घोड़ों की आबादियां युरेशिया के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थी।

घोड़े के पदचिन्ह

इसी तरह के एक अन्य आनुवंशिक विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि आधुनिक पालतू डीएनए प्रोफाइल वाले घोड़े पश्चिमी युरेशियन स्टेपीज़, विशेष रूप से वोल्गा-डॉन नदी क्षेत्र में रहते थे।

लगभग 2200-2000 ईसा पूर्व आते-आते ये घोड़े बोहेमिया (वर्तमान के चेक गणराज्य और युक्रेन), और मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किर्जिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान, ईरान तथा अफगानिस्तान) और मंगोलिया में फैल गए थे। इन देशों के प्रजनक इन घोड़ों को उन देशों को बेचने के लिए तैयार करते थे जहां इनकी मांग थी। इन देशों में लगभग 3300 ईसा पूर्व तक घुड़सवारी लोकप्रिय हो गई थी, और सेनाओं का गठन इनके आधार पर किया जाने लगा था – जैसे, मेसोपोटामिया, ईरान, कुवैत और “फर्टाइल क्रिसेंट” या फिलिस्तीन की सेनाओं में। थॉम्पसन ध्यान दिलाते हैं कि पहला स्पोक युक्त पहिए वाला रथ 2000-1800 ईसा पूर्व के आसपास बना था।

भारतीय कहानी

अब सवाल है कि भारत में घोड़े कब आए, और वे देशी थे या विदेशी? क्या घोड़े भारत के मूल निवासी थे? इसका उत्तर तो ‘ना’ लगता है। “वर्ल्ड एटलस” के अनुसार, भारत के मूल निवासी जानवर सिर्फ एशियाई हाथी, हिम तेंदुआ, गैंडा, बंगाल टाइगर, रीछ, हिमालयी भेड़िया, गौर बाइसन, लाल पांडा, मगरमच्छ और मोर व राजहंस हैं। वेबसाइट थॉटको (ThoughtCo) ने अपने लेख एशिया में पैदा हुए 11 घरेलू जानवरों में मृग, नीलगिरि तहर, हाथी, लंगूर, मकाक बंदर, गैंडा, डॉल्फिन, गेरियल मगरमच्छ, तेंदुआ, भालू, बाघ, बस्टर्ड (उड़ने वाला सबसे भारी पक्षी), गिलहरी, कोबरा और मोर को सूचीबद्ध किया है। इस तरह इन स्रोतों से साफ झलकता है कि घोड़ा भारत का मूल निवासी नहीं है। यह भारत में देशों के बीच अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के माध्यम से आया होगा। भारतीयों ने अपने पड़ोसी देशों के साथ अपने हाथियों, बाघों, बंदरों, पक्षियों का व्यापार किया होगा और अपने उपयोग के लिए घोड़ों का आयात किया होगा।

तो, भारत को अपने घोड़े कब मिले? विकिपीडिया बताता है कि उत्तर हड़प्पा सभ्यता स्थलों (1900 से 1300 ईसा पूर्व) से घोड़ों से सम्बंधित अवशेष और वस्तुएं मिली हैं, और इनसे ऐसा नहीं लगता कि हड़प्पा सभ्यता में घोड़ों ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके थोड़े समय बाद वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में स्थिति अलग दिखती है। (घोड़े के लिए संस्कृत शब्द अश्व है, जिसका उल्लेख वेदों और हिंदू ग्रंथों में मिलता है)। ये मोटे तौर पर उत्तर-कांस्य युग के अंत के समय के है।

साहित्यिक बहस

इस संदर्भ में दो हालिया किताबें भी काफी उल्लेखनीय हैं – इनमें से एक पुस्तक टोनी जोसेफ की है जिसका शीर्षक है प्रारंभिक भारतीय : हमारे पूर्वजों की कहानी और हम कहां से आए (Early Indians: The Story of our Ancestors and Where We Came From) है, और दूसरी पुस्तक यशस्विनी चंद्रा की है जिसका शीर्षक है घोड़े की कहानी (The Tale of the Horse) है। दिसंबर 2018 में फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित डॉ. जोसेफ का हालिया लेख भारत में “आर्यो” के प्रवास के प्रमाण की पड़ताल करता है। यह बताता है कि भारत में पाए जाने वाले घोड़े ऊपर बताए गए “स्तानों” से ही आए हैं। इसके अलावा, दी प्रिंट के 17 जनवरी 2021 के अंक में प्रकाशित डॉ. चंद्रा का लेख बताता है कि भारतीय मूल के घोड़े 8000 ईसा पूर्व तक लुप्त हो चुके थे।

बहस का सबसे स्पष्ट विश्लेषण आईआईटी गांधीनगर के इतिहासकार मिशेल डैनिनो के एक लेख में मिलता है। उन्होंने जर्नल ऑफ हिस्ट्री एंड कल्चर (सितंबर 2006) में दी हॉर्स एंड आर्यन डिबेट शीर्षक के अपने शोध पत्र में और पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एंश्यंट इंडिया (2014) में लिखा है कि पुरावेत्ता सैंडोर बोकोनी ने घोड़ों के दांतों के नमूनों का अध्ययन किया था। ये नमूने हड़प्पा-पूर्व काल के बलूचिस्तान, इलाहाबाद (2265-1480 ईसा पूर्व)) और चंबल घाटी (2450-2000 ईसा पूर्व) से थे। इनके अलावा उन्होंने कालीबंगन से प्राप्त ऊपरी दाढ़ों का भी अध्ययन किया था। उनका निष्कर्ष था कि ये पालतू घोड़ों के अवशेष थे। प्रोफेसर डैनिनो के इन शोध पत्रों ने भारत में पालतू घोड़ों के लेकर किए जा रहे परस्पर विरोधी दावों को विराम दे दिया है और हमें उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। 

हड़प्पा के अवशेष

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जांचना दिलचस्प होगा कि क्या हड़प्पा स्थलों में घोड़ों के कोई अवशेष, हड्डियां, दांत या खोपड़ियां हैं जिनका डीएनए अनुक्रमण किया जा सके, जैसा कि ऑरलैंडो के समूह ने युरेशियन नमूनों के लिए किया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या हम भय की स्थिति पैदा कर रहे हैं? – आर. उमाशंकर, के.एन. गणेशैया

रतपुर अभयारण्य के नाम से मशहूर कीलादू घाना राष्ट्रीय उद्यान, भरतपुर, राजस्थान के क्षेत्र में काम करने वाले पारिस्थितिकीविदों ने 1970 के दशक में स्थानीय निवासियों द्वारा मवेशियों को अनियंत्रित तरीके से चराने पर आपत्ति ज़ाहिर की थी। पारिस्थितिकीविदों का मानना था कि मवेशियों के चरने से अभयारण्य में जल राशियों के आसपास के क्षेत्र की घास से ढकी जगह भी नष्ट हो जाएगी। तब हज़ारों प्रवासी पक्षियों के लिए यह स्थान रहने योग्य नहीं रहेगा जिनके लिए यह अभयारण्य विश्व प्रसिद्ध है। मवेशियों के चरने के विरुद्ध पर्यावरण कार्यकर्ताओं के निरंतर विरोध और पर्यावरण विशेषज्ञों तथा वन प्रबंधकों की लगातार बयानबाज़ी ने राजस्थान सरकार को 1982 में मवेशियों के चरने पर औपचारिक रूप से प्रतिबंध लगाने पर मजबूर किया। सरकार के इस निर्णय को एक बड़ी सफलता के रूप में देखा गया जिसमें कार्यकर्ताओं और वैज्ञानिकों ने मिलकर एक पर्यावरणीय मुद्दे पर काम किया। हालांकि, इससे पहले कि इस कामयाबी के जश्न का शोर थमता, चराई पर इस प्रतिबंध ने एक और अप्रत्याशित आपदा को जन्म दे दिया।

चराई पर प्रतिबंध लगने से उस क्षेत्र की घास इतनी लंबी हो गई कि प्रवासी पक्षियों को जल राशियों के किनारों पर उतरने और पोषण के लिए भोजन तलाश करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप, पारिस्थितिकीविदों की अपेक्षा के विपरीत, अभयारण्य में प्रवासी पक्षियों की संख्या निरंतर घटती गई। तो क्या यह कहना उचित होगा कि इस मामले में विज्ञान असफल हुआ? शायद नहीं। जैसा कि माइकल लेविस ने कहा है (कंज़रवेशन सोसाइटी, 2003, 1, 1-21), भरतपुर अभयारण्य आपदा ‘अपर्याप्त रूप से जांचे-परखे सिद्धांतों पर आधारित मान्यताओं’ का मामला था। इसके अलावा, यह वैज्ञानिकों और वन प्रबंधकों के उतावलेपन का भी नतीजा था जो पर्याप्त तथ्य उपलब्ध न होने के बावजूद चेतावनी देने पर आमादा रहे।

वनों और जैव विविधता का ह्रास, प्रजातियों की विलुप्ति, जलवायु परिवर्तन, पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश, जेनेटिक पूल का क्षरण, प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अनिर्वहनीय उपयोग जैसे मुद्दे विशेष रूप से मीडिया और कार्यकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र बन गए हैं। वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञ समितियों द्वारा दिया गया कोई भी बयान यदि सही ढंग से और उपयुक्त डैटा के साथ व्यक्त नहीं किया जाता, तो पूरी संभावना होती है कि मीडिया इसे तोड़-मरोड़ कर और सनसनीखेज़ बनाकर पेश कर देगा। इस प्रक्रिया में, मूल संदेश का अर्थ आंशिक या पूर्ण रूप से विकृत कर दिया दिया जाता है या कोई सर्वथा नया संदेश ही बना दिया जाता है। इसका एक बेहतरीन उदाहरण नेचर पत्रिका (2004, 427, 145-148) में जलवायु परिवर्तन पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के आधार पर मानव-निर्मित आपदा की एक बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई तस्वीर में दिखा। इस रिपोर्ट में 1103 प्रजातियों के विश्लेषण के आधार पर दावा किया गया था कि जलवायु परिवर्तन के कारण अगले 50 वर्षों में इनमें से कुछ प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं। लेकिन यूके के मीडिया ने इस चेतावनी को बहुत गलत तरीके से प्रस्तुत करते हुए बताया कि: ‘पूरे विश्व की एक-तिहाई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ या ‘2050 तक दस लाख प्रजातियां’ विलुप्त हो सकती हैं। इस गलत रिपोर्टिंग की उत्पत्ति पता लगाने के लिए की गई एक समीक्षा से पता चला कि समस्या वास्तव में वैज्ञानिकों द्वारा प्रेस को जारी की गई सामग्री में उपयोग की गई भाषा में थी। इस घटना से पता चलता है कि यदि किसी वैज्ञानिक दावे को जनता या मीडिया तक ठीक तरह से सूचित न किया जाए तो विज्ञान और वैज्ञानिकों की विश्वसनीयता दांव पर लग सकती है।

वैज्ञानिक और विशेष रूप से जैव विविधता, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र के संरक्षण, जलवायु परिवर्तन आदि के क्षेत्र में काम कर रहे वैज्ञानिक अक्सर अपने निष्कर्षों के ग्रह के भविष्य और मनुष्यों के अस्तित्व पर निहितार्थ को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। उनके द्वारा दिए गए बयानों से लोगों में डर पैदा हो सकता है। वे ऐसा अनजाने में या जानबूझकर करते हैं ताकि नीति निर्माताओं और प्रशासन तंत्रो का ध्यान आकर्षित कर सकें और उन्हें तत्काल कार्रवाई के लिए प्रेरित कर सकें। लेकिन कई बार ऐसे बयानों की गुणवत्ता की जांच उस सख्ती से नहीं की जाती है जितनी विज्ञान की मांग होती है। यह अत्यंत आवश्यक है कि वैज्ञानिक सार्वजनिक बयानों पर गंभीरता से विचार करें ताकि उन पर सनसनी फैलाने का दोष न लगे। प्रजातियों के विलुप्त होने के दावे इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकते हैं।

1980 के दशक के बाद से, कुछ प्रमुख वैज्ञानिकों द्वारा हर दशक में हज़ारों प्रजातियों के विलुप्त होने सम्बंधी बयान आते रहे हैं। उदाहरण के लिए, प्रसिद्ध अमेरिकी जीवविज्ञानी ई. ओ. विल्सन ने जैव विविधता संरक्षण का आव्हान करते हुए कहा था: ‘मानव गतिविधियों के कारण प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया तेज़ी से जारी है, यदि ऐसा चलता रहा तो इस सदी के अंत तक आधी से अधिक प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी’ (न्यू यॉर्क टाइम्स सन्डे रिव्यू, 4 मार्च 2018; https://eowilsonfoundation.org/the-8-millionspecies-wedont-know/)। मानवजनित गतिविधियों के कारण प्रजातियों के विलुप्त होने की ऐसी उच्च दर की बात विश्वभर के प्रसिद्ध जीवविज्ञानी दोहराते रहे हैं ताकि जैव-विविधता संरक्षण के प्रयासों को गति मिल सके। हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के संदर्भ में भारत में प्रकाशित हुए एक लेख में कहा गया था: ‘वर्ष 2000 के बाद से हमने विश्व स्तर पर 7 प्रतिशत अछूते वनों को खो दिया है, और हाल ही के आकलनों से संकेत मिलता है कि आने वाले दशकों में 10 लाख से अधिक प्रजातियां हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगी। हमारा देश भी इन रुझानों का अपवाद नहीं है।’ (दी हिंदू, 5 जून 2021)। हालांकि प्रजातियों के विलुप्त होने की दर में संभावित वृद्धि से इन्कार तो नहीं किया जा सकता है लेकिन यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी उच्च दरों के दावों के समर्थन में शायद ही कोई डैटा उपलब्ध है। यदि वास्तव में प्रजातियां इतनी उच्च दर से विलुप्त हो रही हैं, तो पिछले कुछ दशकों के दौरान लाखों प्रजातियों को हमेशा के लिए विलुप्त हो जाना चाहिए था। और यदि इनमें से एक अंश को ही सूचीबद्ध किया जाए तो भी विलुप्त प्रजातियों की संख्या चंद हज़ार से अधिक तो होनी चाहिए थी। लेकिन हमारे पास विश्व भर की ऐसी एक हज़ार प्रजातियों की सूची भी नहीं है जिन्हें पिछले कुछ दशकों में निश्चित रूप से विलुप्त प्रजातियों की सूची में रखा जा सके। आईयूसीएन की रेड लिस्ट वेबसाइट (https://www.iucn.org/sites/dev/files/import/downloads/species_extinction_05_2007.pdf), के अनुसार ‘पिछले 500 वर्षों में मानव गतिविधियों ने 869 प्रजातियों को विलुप्त (या प्राकृतिक स्थिति में गायब) होने के लिए मजबूर किया है।‘ ज़ाहिर है, पिछले 50 वर्षों में यह संख्या बहुत ही कम रही होगी! यानी हमारे दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास डैटा ही नहीं है। यदि जनता के द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है, तो वस्तुनिष्ठ वैज्ञानिकों के रूप में हम खुद को कहां पर खड़ा पाते हैं?   

यकीनन इस असहज स्थिति से बच निकलने का एक रास्ता तो हमेशा रहता है। कहा जा सकता है कि ‘जब हमारे पास इस बात की पूरी जानकारी नहीं है कि हमारे पास क्या है, तो हम यह कैसे बता सकते हैं कि हम क्या खो रहे हैं?’ चलिए इसे सही मान लेते हैं। लेकिन विलुप्त होने की दर इतनी अधिक बताई जा रही है कि पिछले कुछ दशकों के दौरान ‘ज्ञात और वर्णित प्रजातियों में से कुछ सैकड़ा को तो विलुप्त हो ही जाना चाहिए था।’ लेकिन तथ्य यह है कि जैव विविधता पर काम शुरू होने के पिछले चार दशकों के दौरान हमारे पास निश्चित रूप से विलुप्त हो चुकी 100 प्रजातियों की भी सत्यापित सूची नहीं है। हालांकि, मीडिया में अक्सर ऐसे सनसनीखेज़ दावे किए जाते रहे हैं कि आईयूसीएन के अनुसार, पिछले दशक में, 160 प्रजातियां विलुप्त हुई हैं, और इसके तुरंत बाद ही एक पुछल्ला जोड़ दिया जाता है: हालांकि ‘अधिकांश प्रजातियां काफी लंबे समय से विलुप्त हैं’ (https://www.lifegate.com/extinct-specieslist-decade-2010-2019)। दूसरे शब्दों में, विलुप्त प्रजातियों के दावों का समर्थन करने के लिए हमारे पास कोई डैटा भी मौजूद नहीं है, और यदि है भी तो जिन प्रजातियों को ‘संभवत: विलुप्त प्रजाति माना जा रहा था’ उनमें से कई प्रजातियों के बारे में पता चल रहा है कि वे अभी मौजूद या जीवित हैं!!

इसके अतिरिक्त, संरक्षण जीवविज्ञानियों द्वारा प्रजातियों को लाल सूची में डलवाकर डर का माहौल भी बनाया जाता है ताकि प्रजातियों के संरक्षण की ओर ध्यान आकर्षित किया जा सके। हालांकि इस कवायद के पीछे की भावना काफी प्रशंसनीय है लेकिन इसकी कार्य प्रणाली की जांच-परख आवश्यक है। प्रजातियों की लाल सूची तैयार करने का कार्य आईयूसीएन और कई अन्य एजेंसियों को सौंपा गया है जिन्होंने ऐसे कई मानदंड तैयार किए हैं जिनके आधार पर प्रजातियों को खतरे की विभिन्न श्रेणियों (जैसे विलुप्त, प्राकृतिक स्थिति में विलुप्त, लुप्तप्राय, जोखिमग्रस्त आदि) में वर्गीकृत किया जा सकता है (https://www.iucnredlist.org/resources/categories-and-criteria)। अलबत्ता, खतरे के आकलन के लिए आवश्यक डैटा प्राप्त करने के कष्टदायी कार्य के कारण सभी मानदंडों को पूरी तरह लागू नहीं किया जाता है। इस प्रकार, ठोस डैटा की अनुपस्थिति में, ‘एहतियाती सिद्धांत’ का सहारा लेते हुए, सख्त मानकों का पालन नहीं किया जाता और प्रजातियों को लाल सूची या अन्य श्रेणियों में व्यक्तिपरक मूल्यांकन के आधार पर सूचीबद्ध किया जाता है। कुछ वर्ष पहले, दक्षिण भारत के लाल-सूचिबद्ध औषधीय पौधों की प्रजातियों के डैटा का उपयोग करते हुए हमने यह जानने का प्रयास किया कि क्या ये पौधे वास्तव में लाल सूची से बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ (फैलाव में) हैं और कम प्रजनन करते हैं (करंट साइंस, 2005, 88, 258-265)। खोज के परिणाम आश्चर्यजनक थे: सांख्यिकीय दृष्टि से लाल-सूचीबद्ध प्रजातियां इस सूची के बाहर की प्रजातियों की तुलना में दुर्लभ नहीं हैं और न ही वे अपनी जनसंख्या संरचना में किसी प्रकार से कम हैं। हालांकि, औषधीय पौधों की प्रजातियों पर मंडराते खतरों को कम न आंकते हुए और यह मानते हुए कि संरक्षण प्रयासों के लिए आमतौर पर अत्यधिक मेहनत और धन की आवश्यकता होती है, क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उन प्रजातियों की सूची तैयार करने में सावधानी बरती जा जाए जिन्हें ‘वास्तव में’ संरक्षण की आवश्यकता है?        

आइए अब हम ऐसे दावों के खतरों पर चर्चा करते हैं। ऐसे अपुष्ट दावों का इस्तेमाल नीति निर्माताओं और शासन तंत्र पर दबाव बनाने के लिए किया जाता है ताकि वे जैव विविधता पर ध्यान दें। वे इसके लिए अपने लक्षित पाठकों/श्रोताओं के बीच भय की स्थिति (यह शब्द माइकल क्रेटन द्वारा जलवायु परिवर्तन सम्बंधी इसी नाम के एक उपन्यास से लिया गया है) बनाते हैं। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात तो यह है कि चूंकि हमारे पास अपने दावे के समर्थन में ठोस डैटा नहीं है इसलिए भय की इस स्थिति का निर्वाह नहीं किया जा सकता! इस तरह की रणनीति उस उद्देश्य को ही परास्त कर सकती है जिसके लिए ये दावे किए (या रचे!!) जा रहे हैं। वास्तव में, एक असमर्थित और अस्थिर ‘भय की स्थिति’ बनाना लंबे समय में काफी खतरनाक है; और इस विषय में उन वैज्ञानिकों को गंभीर रूप से विचार-विमर्श करना चाहिए जो निर्वाह-योग्य भविष्य का ढोल आए दिन पीटते रहते हैं। ध्यान आकर्षित करने, धन जुटाने, नीति और शासन को प्रभावित करने के उत्साह में हम एक जवाबदेह मूल्यांकन और रिपोर्टिंग की परंपरा की बजाय जनता और मीडिया के बीच एक अस्थिर भय पैदा करने की जल्दबाज़ी में हैं। ऐसे समय में हम वैज्ञानिकों को एक वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि वैज्ञानिक समुदाय अपनी विश्वसनीयता ही खो दे। (स्रोत फीचर्स)

यह लेख पूर्व में करंट साइंस (अंक 121, क्रमांक 1, 10 जुलाई 2021) में प्रकाशित हुआ था।

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कृत्रिम बुद्धि करेगी चिम्पैंज़ी की करतूतों की निगरानी

श्चिम अफ्रीका के चिम्पैंज़ी ताड़ के फल से गिरी निकालने के लिए एक युक्ति इस्तेमाल करते हैं – फल को एक सपाट पत्थर पर रखकर दूसरे पत्थर का हथौड़े की तरह इस्तेमाल करते हुए फल पर मारते हैं, ताकि उसकी बाहरी सख्त खोल चटक जाए।

अब तक वैज्ञानिकों को चिम्पैंज़ी के इस औज़ार के बारे में अधिक जानने के लिए चिम्पैंजियों की घंटों लंबी रिकॉर्डिंग को निहारना पड़ता जिसमें हफ्तों लग जाते थे। अब इस काम में कृत्रिम बुद्धि मदद कर सकती है, जो चिम्पैंजि़यों के वीडियो फुटेज में से सही क्लिप को ढूंढ सकती है।

युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की प्राइमेटोलॉजिस्ट सुज़ाना कार्वाल्हो और उनके साथियों ने चिम्पैंज़ी के दो व्यवहारों का अध्ययन किया: फल से गिरी निकालना और नगाड़ेबाज़ी (चिम्पैंज़ी द्वारा हाथों या पैरों से पेड़ की सहारा जड़ों को पीटना।) वैज्ञानिकों के अनुसार ये दोनों व्यवहार प्राइमेट्स में सीखने की प्रक्रिया और संवाद को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा इन हरकतों के दौरान आवाज़ भी उत्पन्न होती है, यानी शोधकर्ता दृश्य के साथ-साथ ध्वनि से भी कंप्यूटर मॉडल को प्रशिक्षित कर सकते हैं।

उक्त मॉडल को गिरी निकालने का व्यवहार समझाने के लिए शोधकर्ताओं ने लगभग 40 घंटे की और ड्रमिंग के लिए लगभग 10 घंटे लंबी वीडियो रिकॉर्डिंग का इस्तेमाल किया। ड्रमिंग की क्लिप खास तौर से उग्र व्यवहार की थी जिसे “बट्रेस ड्रमिंग” कहा जाता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि अलग-अलग चिम्पैंज़ी-समूहों में ड्रमिंग का तरीका अलग-अलग हो सकता है।

पहले तो शोधकर्ताओं ने ऑडियो और वीडियो की कोडिंग के ज़रिए कंप्यूटर को प्रशिक्षित किया। वीडियो में जहां-जहां चिम्पैंज़ी थे उनके आसपास चौकोर दायरा खींचा और उनमें वे क्या गतिविधि कर रहे हैं उसे लिखा। इस तरह उन्होंने कंप्यूटर को सिखाया कि क्या देखना है और क्या अनदेखा करना है। कभी-कभी चिम्पैंज़ी नज़र नहीं आते थे। इसलिए शोधकर्ताओं ने ध्वनि से पहचानने के लिए भी प्रशिक्षित किया।

जब कंप्यूटर का प्रशिक्षण पूरा हो गया तो शोधकर्ताओं ने उसका परीक्षण किया। उन्होंने उसे दोनों व्यवहारों के ऐसे वीडियो दिखाए जो उसने पहले कभी नहीं देखे थे। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार कंप्यूटर ने गिरी निकालने के व्यवहार 77 प्रतिशत और नगाड़ेबाज़ी का व्यवहार 86 प्रतिशत बार सही-सही पहचाना।

शोधकर्ताओं ने इस कंप्यूटर के ज़रिए पता किया कि चिम्पैंज़ी गिरी निकालने और नगाड़ेबाज़ी जैसे व्यवहार में कितना वक्त बिताते हैं, और नर और मादा में कोई अंतर है क्या। उम्मीद है कि नए मॉडल को अन्य प्रजातियों और अन्य व्यवहारों की निगरानी के लिए भी प्रशिक्षित किया जा सकेगा। यह भी देखा जा सकता है कि कोई एक चिम्पैंज़ी कौशल कैसे विकसित करता है। फुटेज का विश्लेषण यह समझने में मदद कर सकता है कि जलवायु परिवर्तन और आवास की क्षति प्राइमेट्स के व्यवहार को कैसे प्रभावित कर रहे हैं। संभावनाएं तो अपार हैं। (स्रोत फीचर्स)

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