तनाव में कुछ कृमि स्वजाति-भक्षी बन जाते हैं

मिट्टी में रहने वाले कृमि एलोडिप्लोगैस्टर सुडौसी वैसे भी दैत्य के तौर पर जाने जाते हैं। साइज़ में ये अन्य सम्बंधित जीवों से लगभग दुगने बड़े होते हैं। लेकिन शोधकर्ताओं ने बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में बताया है कि भूखे होने पर तो ये वास्तव में हैवान बन जाते हैं। इनका मुंह बड़ा हो जाता है और ये तेज़ी से अपने साथियों को खाने लगते हैं।

अन्य नेमेटोड कृमियों में देखा गया था कि जब उन्हें बैक्टीरिया खाने को दिए जाते हैं तो उनका मुंह छोटा ही रहता है, और अन्य कीटों को खाने में उनकी कोई रुचि नहीं होती है। लेकिन जब उन्हें खाने के लिए अन्य कृमियों के लार्वा दिए जाते हैं तो उनका मुंह बड़ा हो जाता है और वे अपने बाकी साथियों को खाने लगते हैं, अपनी संतानों को छोड़कर।

हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ए. सुडौसी में इसी क्रम को दोहराने का प्रयास किया था। इसके लिए उन्होंने इन कृमियों को विभिन्न तरह के खाद्य पदार्थ खाने को दिए। लेकिन जब उन्होंने इन कृमियों को एक फफूंद (पेनिसिलियम कैमेम्बर्टी) खिलाई, जिसका उपयोग विभिन्न चीज़ (cheese) बनाने में किया जाता है, तो इसे खाकर इन कृमियों का मुंह बड़ा हो गया।

अन्य कृमियों में ऐसा नहीं होता। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि ऐसा करने में ए. सुडौसी को उनके जीन की अतिरिक्त जोड़ी ने सक्षम बनाया है। मुंह बड़ा होना उनमें तनाव के प्रति प्रतिक्रिया हो सकती है। ऐसा लगता है कि पेनिसिलियम कैमेम्बर्टी इन कृमियों को पर्याप्त पोषण नहीं देती है और स्वजाति भक्षण की यह क्षमता पोषण की क्षतिपूर्ति में उनकी मदद करती है। यानी बड़े जबड़े और मुंह के साथ इनमें से कम से कम कुछ कृमि तो उन परिस्थितियों में जीवित बच सकते हैं, जब अन्य नेमेटोड भूखे मर जाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पीठ पर ‘दीमक’ उगाकर धोखाधड़ी

शिकारियों से बचने या शिकार करने के लिए कई सारे जीव तरह-तरह से रूप बदलते हैं। इसी क्रम में शोधकर्ताओं ने रोव बीटल की एक नई प्रजाति की खोज की है जो वास्तविक दीमकों को मूर्ख बनाने के लिए अपनी पीठ पर दीमक की प्रतिकृति विकसित कर लेती है। यह प्रतिकृति इतनी सटीक होती है कि इसमें दीमकों के शरीर के विभिन्न हिस्से भी दिखाई देते हैं: इसमें तीन जोड़ी छद्म उपांग भी होते हैं जो वास्तविक दीमकों के स्पर्शक और टांगों जैसे लगते हैं।

जीव जगत में स्टेफायलिनिडे कुल की रोव बीटल्स वेष बदल कर छलने के लिए मशहूर हैं। मसलन, उनकी कुछ प्रजातियां सैनिक चींटियों की तरह वेश बदलकर उनके साथ-साथ चलती हैं और उनके अंडे और बच्चों को खा जाती हैं।

ऑस्ट्रेलिया के उत्तरी क्षेत्र में मिट्टी के नीचे पाई जाने वाली रोव बीटल की नई प्रजाति, ऑस्ट्रोस्पाइरेक्टा कैरिजोई, अपने उदर को बड़ा करके दीमक की नकल करती है। इसे फिज़ियोगैस्ट्री कहा जाता है। ज़ुओटैक्सा नामक पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि विकास ने इन बीटल्स के शरीर के ऊपरी हिस्से पर दीमक के समान सिर व बाकी सभी अंग, विकसित कर दिए हैं। बीटल का असली, बहुत छोटा सिर उसके छद्म वेश के नीचे छिपा रहता है।

इस छलावरण से बीटल दीमकों के समूह में पहचाने जाने से बच जाती हैं – हालांकि दीमक अंधी होती हैं, वे एक-दूसरे को स्पर्श से पहचानती हैं। दीमकों जैसी आकृति दीमक होने का ही एहसास देती है। दीमकों के समूह में जाकर ये बीटल उनका अद्वितीय उपचर्मीय हाइड्रोकार्बन मिश्रण भी सोख लेते हैं या इसी तरह के यौगिक स्वयं बनाने लगते हैं ताकि ऐसा पक्के में लगने लगे कि वे दीमक ही हैं।

चूंकि ए. कैरिजोई का मुंह छोटा होता है, इसलिए शोधकर्ताओं को लगता है कि वे दीमकों के अंडे या लार्वा खाने की बजाय उनसे भोजन मांगते हैं। श्रमिक दीमक भोजन के आदान-प्रदान (ट्रोफालैक्सिस) द्वारा भोजन या अन्य तरल अपने साथियों को खिलाते हैं। बीटल के इस छलावरण का मंतव्य साफ है, बस दीमक बनकर उनके समूह में बस जाओ और आराम से भोजन पाओ।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंथर गति घोंघा – स्लग – के गंभीर प्रभाव – हरेन्द्र श्रीवास्तव

बारिश के मौसम में आपने घरों के आसपास, बाग-बगीचों और खेतों में अक्सर जोंक जैसा दिखने वाला एक जीव अवश्य देखा होगा। चिपचिपे पदार्थ को अपने शरीर से स्रावित कर ज़मीन पर बेहद धीमी गति से रेंगते हुए इस जीव को देखकर अक्सर यह जिज्ञासा पैदा होती है कि आखिर ये कौन-सा अनोखा जीव है? प्राय: देखा गया है कि अधिकांश लोग अनुमान लगाते और मान लेते हैं कि यह जोंक है। क्या आपने कभी सोचा है कि वास्तव में यह कौन-सा जीव हो सकता है?

मानसून के दौरान दिखाई देने वाला ये जीव दरअसल घोंघे की एक प्रजाति है। इसे स्लग (slug) कहते हैं और हिंदी में इसे मंथर के नाम से जाना जाता है। स्लग एक अकशेरुकी जीव है जिसे जोंक समझ बैठते हैं। घोंघे के बारे में लोगों की धारणा है कि वह अपनी खोल के भीतर बंद रहता है और जिसके शरीर पर एक कठोर कवच पाया जाता है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि हमने बचपन से ही नदी, तालाबों, पोखरों जैसे जलभराव क्षेत्रों में घोंघे का यही आकार एवं स्वरूप देखा है। विज्ञान की किताबों में भी अक्सर विद्यार्थियों को कवच वाले घोंघे के बारे में ही जानकारी दी जाती है, स्लग घोंघे के बारे में नहीं। लिहाज़ा लोग जानते ही नहीं कि बिना कवच के भी कोई घोंघा हो सकता है।

स्लग धरती पर जंतुओं के दूसरे सबसे बड़े संघ मोलस्का के अन्तर्गत गैस्ट्रोपॉड वर्ग के प्राणी हैं। आर्थ्रोपॉड्स के बाद मोलस्का ही जंतुओं का दूसरा सबसे बड़ा संघ है जिसमें 85 हज़ार से भी ज़्यादा प्रजातियां शामिल हैं। सामान्य तौर पर दिखाई देने वाले कठोर कवचयुक्त घोंघे के विपरीत स्लग एक ऐसा घोंघा है जिसके शरीर पर कोई कठोर खोल अथवा कवच जैसी संरचना नहीं पाई जाती है। इसलिए इसे कवच विहीन स्थलीय घोंघा कहते हैं। अंग्रेज़ी में इसे लैंड स्लग, गार्डन स्लग, लेदरलीफ स्लग आदि नामों से जाना जाता है। दुनिया भर में स्लग की हज़ारों प्रजातियां पाई जाती हैं। वैज्ञानिक शोधों के मुताबिक भारत में स्लग और स्थलीय घोंघो की 1400 से भी ज़्यादा प्रजातियां विभिन्न भौगोलिक पर्यावासों में फैली हुई हैं: पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर भारत, हिमालयी क्षेत्र वगैरह।

स्लग मुख्यत: रात में सक्रिय होते हैं। स्लग का शरीर बेहद नरम एवं मुलायम होने के साथ ही बहुत नम भी होता है। स्लग कड़ी धूप और तापमान के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं क्योंकि इन्हें अपने नरम ऊतकों के सूखने का खतरा बना रहता है। अत: अपने शरीर में नमी बनाए रखने हेतु ये ज़्यादा गर्म व शुष्क मौसम से बचने का प्रयास करते हैं। शरीर की नमी सूखने ना पाए, इसलिए ये पेड़ की छाल, पत्तियों के ढेर और ज़मीन पर गिरी लकड़ी जैसी जगहों पर छिप जाते हैं। यही कारण है कि स्लग वर्षा ऋतु में ही बाग-बगीचों, नर्सरी और खेतों की नम भूमि तथा पौधों पर दिखाई देते हैं। स्लग के सिर के अग्रभाग पर दो जोड़ी स्पर्शिकाएं पाई जाती हैं। ये स्पर्शिकाएं स्लग को गंध एवं प्रकाश का अनुमान लगाने में मदद करती हैं।

स्लग प्राय: काले, भूरे, हरे, पीले और स्लेटी रंगों में देखने को मिलते हैं। स्लग का प्रजनन काल मुख्यत: बारिश के मौसम में शुरू होता है। इनकी प्रजनन गतिविधियां भरपूर नमी और उच्च आर्द्रता वाले मौसम पर निर्भर करती हैं। यही कारण है कि मानसून के दौरान उच्च आर्द्रता वाले मौसम में प्रजनन के उपरांत इनकी संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी देखी जाती है। स्लग एक बार में औसतन 30-40 अंडे देते हैं। कुछ प्रजातियां एक बार में 80 से भी ज़्यादा अंडे दे सकती हैं।

ज़मीन पर चलते हुए ये अपने शरीर से एक बेहद चिपचिपा सा तरल पदार्थ छोड़ते जाते हैं जिस कारण से देखने में ये घिनौने प्रतीत होते हैं। दरअसल इस चिपचिपे द्रव से इन्हें ज़मीन की उबड़-खाबड़ सतह पर चलने में मदद मिलती है। इसी चिपचिपे पदार्थ की मदद से ये पौधों की टहनियों और पत्तियों पर भी बड़ी आसानी चलते जाते हैं। यह चिपचिपा पदार्थ शिकारियों से सुरक्षा करने में भी इनकी सहायता करता है।

स्लग का आहार वनस्पतियां और फफूंद हैं। स्लग पौधों की पत्तियां, बीजांकुर, कुकुरमुत्ते, फफूंद, सब्जि़यां, फल आदि खाते हैं। खतरा महसूस होने पर स्लग अपने बेहद लचीले शरीर को सिकोड़कर गोल और स्थिर कर लेते हैं। काले और भूरे रंगों वाले स्लग स्थिर एवं संकुचित अवस्था में आलू के छिलके की तरह दिखाई देते हैं इसलिए कभी-कभी इनके शिकारी और इंसान भी गच्चा खा जाते हैं।

स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में भी अहम भूमिका निभाते हैं। वातावरण के प्रति बेहद संवेदनशील होने के कारण ये बदलते मौसम एवं जलवायु के प्राकृतिक संकेतक हैं। स्लग प्राकृतिक खाद्य शृंखला के भी महत्वपूर्ण घटक हैं। कई प्रजाति के पक्षियों, सांपों, छिपकलियों, छोटे स्तनपायी जीवों एवं कुछ अकशेरुकी जंतुओं के लिए भी स्लग मुख्य आहार हैं। स्लग वातावरण से सड़ी-गली वनस्पतियों, कवकों तथा मृत कीटों के अवशेषों का भी सफाया करते हैं और पर्यावरण में पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण करते हैं। स्लग कई जंगली प्रजाति के जीवों को मैग्नीशियम, पोटेशियम और कैल्शियम जैसे पोषक तत्व उपलब्ध करवाते हैं।

हालांकि स्लग की पर्यावरण में महत्वपूर्ण भूमिका है लेकिन इनकी कई प्रजातियां आज कृषि एवं बागवानी के लिए बेहद हानिकारक कीट के रूप में गिनी जाती हैं। पिछले कुछ दशकों से स्लग दुनिया भर के सैकड़ों देशों में आक्रामक प्रजाति के तौर पर व्यापक रूप से फैल गए हैं जो अंकुरित पौधों, पत्तियों, फल-फूलों और सब्जि़यों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और आयात-निर्यात जैसी आर्थिक गतिविधियों के चलते स्लग की कई प्रजातियां अपने मूल स्थान से अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में पहुंचकर वहां की स्थानीय जैव विविधता के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। ज़ाहिर है जब वनस्पति या जीव-जंतु की कोई भी प्रजाति अपने मूल स्थान से नए क्षेत्रों में पहुंच जाए तो वे या तो उस वातावरण में जीवित नहीं रह पाती, या यदि किसी तरह उस नए वातावरण में ढल जाती हैं और वहां की स्थानीय प्रजातियों से प्रतिस्पर्धा करने लगती है जिस कारण पारिस्थितिक तंत्र में असंतुलन पैदा होना स्वाभाविक है। लैंटाना और गाजर घास इसके महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। स्लग की भी कई प्रजातियां एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में पहुंचकर आज कृषि एवं पर्यावरण के लिए हानिकारक साबित हो रही हैं। स्लग नए पारिस्थितिकी क्षेत्रों में इसलिए भी तेज़ी से फलते-फूलते हैं क्योंकि नई जगह पर उनका कोई बड़ा शिकारी नहीं होता।

स्लग पौधे के समस्त हिस्सों का उपभोग करते हैं। ये पत्तियों के बीच वाले भाग में छेद कर देते हैं और किनारे वाले भागों को कुतर देते हैं जिससे पौधे सूख जाते हैं। स्लग पौधों को तेज़ी से चट करते हैं जिसके चलते वनस्पतियों की कई प्रजातियों में काफी गिरावट आती है। यहां तक कि कई पौधों की प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर भी पहुंच जाती हैं और उन वनस्पतियों पर निर्भर जीव-जंतुओं का अस्तित्व भी संकट में पड़ जाता है। स्लग द्वारा स्रावित चिपचिपा पदार्थ भी पौधों की संरचना को नुकसान पहुंचाता है।

भारत में स्लग की तकरीबन 15 प्रजातियां गंभीर कृषि कीट के रूप में पहचानी गईं हैं जिनमें से कॉमन गार्डन स्लग या लेदरलीफ स्लग (लेविकौलिस अल्टे) और ब्राउन गार्डन स्लग (फीलिकौलिस अल्टे) लगभग पूरे देश में फैली हैं। पश्चिम बंगाल में मार्श स्लग (डेरोसिरास लीवे) एक नई खोजी गई आक्रामक स्लग प्रजाति है। आज कॉमन गार्डन स्लग भारत सहित दक्षिण एवं दक्षिण-पूर्वी एशिया के कई देशों में तेज़ी से फैल रहे हैं। भारत में कई सब्ज़ियों और फूलों को तेज़ी से नुकसान पहुंचाते देखा गया है। ये स्लग नर्सरी में सुगंधित एवं औषधीय पौधों के लिए अत्यन्त हानिकारक है। इसी तरह ब्राउन गार्डन स्लग मूली, बंदगोभी, ब्रोकोली और पत्तागोभी को नष्ट करता है। दक्षिण भारत में यह कॉफी, रबर, ताड़, केला और काली मिर्च के पौधों के लिए अत्यन्त नुकसानदायक है। अफ्रीका का मूल निवासी कैटरपिलर स्लग भारत में हाल में ही नई आक्रामक प्रजाति के रूप में रिपोर्ट किया गया है। एक अनुमान के मुताबिक कैटरपिलर स्लग के कारण वैश्विक अर्थव्यवस्था को प्रतिवर्ष 26 अरब डॉलर का घाटा होता है। लेविकौलिस हेराल्डी नामक एक नई विदेशी स्लग प्रजाति महाराष्ट्र में पहचानी गई है।

कई देशों में इन हानिकारक स्लग प्रजातियों को नियंत्रित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। आम तौर पर किसान अपने खेतों में स्लग की बढ़ती आबादी को रोकने हेतु नमक का छिड़काव करते हैं जो उनके शरीर की नमी को सोख लेता है लेकिन इससे मिट्टी के क्षारीय एवं लवणीय होने का खतरा है। स्लग प्राय: शुष्क जगहों से बचने का प्रयास करते हैं इसीलिए किसानों द्वारा इन्हें नियंत्रित करने के लिए सूखी राख का भी प्रयोग किया जाता है। साल में दो बार खेतों की गहरी जुताई करना भी स्लग से छुटकारा पाने का पर्यावरण अनुकूल तरीका है। जुताई से मिट्टी में मौजूद स्लग के अंडे नष्ट हो जाते हैं या मिट्टी से बाहर आकर शिकारियों द्वारा खा लिए जाते हैं। खेतों-क्यारियों की समय-समय पर निंदाई-गुड़ाई करते रहना भी स्लग को रोकने का एक कारगर उपाय है क्योंकि इससे स्लग के अंडे और स्लग को पोषण तथा आश्रय देने वाले खरपतवार पौधे नष्ट हो जाते हैं। कॉपर सल्फेट और ऑयरन फास्फेट भी स्लग को नष्ट करने में मददगार साबित हुए हैं।

स्लग नियंत्रण के उपायों में कृषि भूमि के आसपास पक्षियों एवं सांपो का संरक्षण शामिल करना होगा क्योंकि ये जंतु इनके प्राकृतिक शिकारी हैं और इनकी बढ़ती जनसंख्या पर लगाम लगाने में सक्षम हैं। कुछ किसानों और बागवानों द्वारा इन्हें हाथ से पकड़कर दूर किया जाता है जो एक सार्थक प्रयास है।

वास्तव में देखा जाए तो मानव द्वारा पर्यावरण एवं जैव विविधता को नुकसान पहुंचाने के चलते ही स्लग की कुछ प्रजातियां कृषि और बागवानी के लिए हानिकारक साबित हुई हैं। हम मनुष्यों ने विदेशी पौधों एवं वन्य जीवों को दूसरे देशों से आयात किया और साथ में इन आक्रामक प्रजातियों को भी अपने खेतों तक पहुंचा दिया। किसानों द्वारा पक्षियों और सांपों को कीटनाशकों का उपयोग कर मार दिया गया जो स्लग के प्राकृतिक नियंत्रणकर्ता थे। कहीं ऐसा ना हो कि एक दिन स्लग हमारी खेती और अर्थव्यवस्था को चौपट कर दें। सरकार द्वारा प्रशिक्षण एवं जागरूकता कार्यक्रम आयोजित कर किसानों को स्लग के भावी खतरे के प्रति सचेत करना होगा। बंदरगाहों एवं हवाई अड्डों पर बाहरी देशों से आयातित वस्तुओं का निरीक्षण कर देश में विदेशी स्लग प्रजातियों के घुसपैठ को रोका जा सकता है। अत: इस बारे में नियम-कायदे बनाने चाहिए। स्लग पारिस्थितिकी तंत्र में मुख्य भूमिका निभाते हैं और वो भी इसी पर्यावरण के अभिन्न अंग है लेकिन जब वो मानवीय गतिविधियों के चलते अपने मूल भौगोलिक क्षेत्र से भटक जाते हैं, तब नए परितंत्र में वे कृषि एवं जैव विविधता के लिए संकट खड़ा करते हैं। आज ज़रूरत है कि हम खुद पर्यावरण के प्रति सचेत हों ताकि मानव, जैव विविधता एवं प्रकृति के बीच संतुलन बना रहे।(स्रोत फीचर्स)

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मधुमक्खियों की भूमिगत दुनिया

पको यह जानकर आश्चर्य होगा कि मधुमक्खियों की कई प्रजातियां अपना अधिकांश जीवन ज़मीन के नीचे बिताती हैं जहां वे छत्ते बनाती हैं। हाल ही में उन्नत एक्स-रे तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने भूमिगत मधुमक्खियों की गुप्त दुनिया को खोज निकाला है। अब वे इन छत्तों के निर्माण और मिट्टी की सेहत पर इनके प्रभाव को समझने का प्रयास कर रहे हैं।

लगभग 85 प्रतिशत मधुमक्खी प्रजातियां अपने छत्ते ज़मीन के नीचे बनाती हैं लेकिन इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि ये जटिल संरचनाएं कैसे बनाई जाती हैं। इनके अध्ययन के लिए छत्तों को खोदना पड़ता है। एक तरीका यह है कि छत्ते में टैल्कम पाउडर डालकर खुदाई की जाए ताकि छत्ते की दीवारें अलग चमकें। फिर मिट्टी की एक-एक परत हटाकर छत्ते का चित्र बनाते जाना होता है। एक अन्य तरीका यह रहा है कि मधुमक्खी को प्रयोगशाला में पालकर उसे भूमिगत छत्ता बनाने दिया जाए। लेकिन इन तकनीकों से घोंसलों के त्रि-आयामी आकार की केवल एक सीमित तस्वीर ही बन पाती है।

इनकी त्रि-आयामी संरचना को समझने के लिए स्वीडिश युनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज़ के मृदा वैज्ञानिक थॉमस केलर ने अस्पतालों में इस्तेमाल की जाने वाली सीटी स्कैनिंग तकनीक का उपयोग किया। इस तरह मधुमक्खियों की दो मुख्य प्रजातियों, खनिक मधुमक्खी (कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस) और स्वेद मधुमक्खी (लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम), के छत्तों का खुलासा किया गया। कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस एकाकी जीव है; हरेक मादा अपना घोंसला अकेले बनाती है, खुद ही पराग इकट्ठा करती है और छत्ता छोड़ने से पहले अंडे देती है। दूसरी ओर, लेज़ियोग्लॉसम मैलाचरम सामुदायिक रूप से प्रजनन करती है, कई पीढ़ियां साथ रहती हैं और यह समूह छत्ते को निरंतर विस्तार देता रहता है।

इन मधुमक्खियों का अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने स्विट्जरलैंड के घास के मैदानों की विभिन्न प्रकार की मिट्टियों का चयन किया। उन्होंने ज़मीन के भीतर 20 सेंटीमीटर चौड़े प्लास्टिक के पाइप डाले जहां मधुमक्खियां सक्रिय थीं और एक महीने बाद लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम इन पाइपों को बाहर निकालकर सीटी स्कैनर से छत्तों को स्कैन किया। शोधकर्ताओं ने पाया कि कोलीटस क्यूनीक्यूलैरियस का छत्ता सरल लंबवत था, जबकि लेज़ियोग्लोसम मैलाचरम का छत्ता कहीं अधिक जटिल था।

मधुमक्खियों की गतिविधियों का मिट्टी की संरचना पर महत्वपूर्ण प्रभाव दिखा। छत्तों में इल्लियों के लिए बनाए प्रकोष्ठ मिट्टी में उपस्थित अन्य छिद्रों (जैसे जड़ों या कृमियों द्वारा बनाए गए छिद्रों) की तुलना में कहीं अधिक टिकाऊ थे क्योंकि इन्हें पत्तियों और पंखुड़ियों का अस्तर लगाकर वॉटरप्रूफ किया गया था। एक सुराख तो 16 महीने के अध्ययन में महफूज़ रहा।

हालांकि इस प्रकार के अध्ययन के लिए बड़े सीटी स्कैनर का व्यापक स्तर पर उपयोग करना तो संभव नहीं है लेकिन आज की उन्नत तकनीकों की मदद से शोधकर्ता यह तो पता लगा ही सकते हैं कि क्या मधुमक्खियां अपने भूमिगत छत्ते की डिज़ाइन को मिट्टी की किस्म और जलवायु के अनुसार ढालती हैं। इसके अतिरिक्त, वे यह भी पता लगा सकते हैं कि क्या कुछ परिस्थितियां उनके प्रजनन में मददगार होती हैं। इस आधार पर इनके संरक्षण के प्रयास किए जा सकते हैं।

फिलहाल शोधकर्ताओं का उद्देश्य यह पता लगाना है कि खेतों की जुताई जैसी प्रथाएं मधुमक्खियों को कैसे प्रभावित करती हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन नीति निर्माताओं को जंगली मधुमक्खियों की आबादी को बढ़ावा देने सम्बंधी महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराएगा। (स्रोत फीचर्स)

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पतंगों की साइज़ के चमगादड़

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फिजी के दूर-दराज द्वीप वनुआ बालावु पर पतंगों की साइज़ के चमगादड़ों का नया आवास खोज निकाला है। इस अभियान में शोधकर्ताओं को न सिर्फ प्रशांत द्वीप में सबसे अधिक चमगादड़ आबादी (तकरीबन 2000 से 3000) वाली गुफा मिली है बल्कि विलुप्ति की ओर अग्रसर इस जीव को बचाने के प्रति कुछ आशा भी जगी है।

गैर-मुनाफा संगठन कंज़र्वेशन इंटरनेशनल के नेतृत्व में किए गए इस अभियान में शोधकर्ता चमगादड़ों की गुफा तक स्थानीय लोगों की मदद से पहुंचे। यह एक गिरजाघर जितनी बड़ी कंदरा थी। यहीं उन्हें ठसाठस भरे म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ (एम्बालोनुरा सेमिकॉडैटा सेमीकॉडैटा) मिले।

इन चमगादड़ों के फर मुलायम, चॉकलेटी-भूरे रंग के होते हैं। ये चार सेंटीमीटर लंबे होते हैं और इनका वज़न अधिक से अधिक पांच ग्राम तक होता है। ये छोटे-छोटे कीटों को खाते हैं। मनुष्यों द्वारा प्रशांत महासागर पार करने और इन द्वीपों पर बसने से कुछ लाख साल पहले ये चमगादड़ उड़कर आए और यहां बस गए थे।

गौरतलब है कि प्रशांत द्वीप समूहों पर चमगादड़ों की 191 प्रजातियां ज्ञात हैं; इनमें कीटभक्षी चमगादड़ से लेकर पेड़ों पर लटकने वाले और फलाहारी उड़न-लोमड़ी चमगादड़ तक रहते हैं। इस क्षेत्र में लोग चमगादड़ों की विष्ठा (गुआनो) उर्वरक के तौर पर इकट्ठा करते हैं तथा भोजन के लिए उनका शिकार करते हैं। यहां तक कि सोलोमन द्वीप के लोग इनके दांतों का उपयोग पारंपरिक मुद्रा के रूप में भी करते हैं। इसके अलावा, कीटभक्षी चमगादड़ अपने आसपास के पारिस्थितिक तंत्र में फसल के कीटों और रोग फैलाने वाले मच्छरों को नियंत्रित करके महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

म्यान जैसी पूंछ वाले चमगादड़ किसी समय प्रशांत क्षेत्र में सबसे अधिक पाए जाने वाले स्तनधारियों में से थे, लेकिन अब इन पर विलुप्ति का संकट सबसे अधिक है। करीब सौ साल पहले तक ये गुआम से लेकर अमेरिकी समोआ तक पाए जाते थे। लेकिन आज महज चार उप-प्रजातियां माइक्रोनेशिया और फिजी के ही कुछ द्वीपों पर बची हैं और इनकी संख्या लगातार घट रही है।

चमगादड़ों के कुछ महत्वपूर्ण बसेरे अब पूरी तरह से चमगादड़ विहीन हो गए हैं। 2018 में वनुआ बालावु से लगभग 120 कि.मी. उत्तर-पश्चिम में तवेउनी द्वीप पर एक गुफा में लगभग 1000 ऐसे चमगादड़ मिले थे लेकिन 2019 तक जंगलों के सफाए के कारण चंद सैकड़ा ही बचे थे।

इस अभियान से जुड़ी संरक्षण विज्ञानी सितेरी टिकोका का कहना है कि वनुआ बालावु की गुफा में ऐसा भरा-पूरा चमगादड़ का बसेरा मिलना सुखद था; इसने इनके बचने की आशा को फिर से जगा दिया है। लेकिन तवेउनी की स्थिति से सबक लेना चाहिए, जहां हम देख चुके हैं कि सिर्फ एक वर्ष में ही स्थिति कितनी बदल सकती है। यदि हमने इनके संरक्षण के लिए ज़रूरी कदम तत्काल नहीं उठाए तो ये चमगादड़ पूरी तरह लुप्त हो जाएंगे। स्थानीय लोगों का सहयोग भी ज़रूरी है क्योंकि स्पष्ट है कि स्थानीय लोगों ने ही इस जगह, इन गुफाओं और चमगादड़ों की देखभाल की है और बचाए रखा है।(स्रोत फीचर्स)

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सिर्फ मनुष्य ही मोटे नहीं होते

मोटापे की समस्या हम मनुष्यों के लिए तो अब आम बात हो गई है। कई बार तो हमें सबसे मोटा प्राइमेट भी कहा जाता है और इसके लिए लंबे समय से वैज्ञानिक या तो हमारे उन जीन्स को दोष देते आए हैं जो हमें अधिक वसा संग्रहित करने में मदद करते हैं, या फिर हमारे मीठे और तले-भुने खाने की आदत को।

लेकिन यदि आप कांगो गणराज्य जाएंगे तो पाएंगे कि वहां चिम्पैंज़ी इतने मोटे होते हैं कि उन्हें पेड़ों पर चढ़ने में परेशानी होती है, या वर्वेट बंदर इतने मोटे मिलेंगे कि एक शाखा से दूसरी शाखा पर छलांग लगाते हुए वे हाफंने लगेंगे।

और अब गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों (छोटे माउस लीमर्स से लेकर हल्किंग गोरिल्ला तक) पर हुए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अतिरिक्त भोजन मिलने पर इन प्रजातियां में भी उतनी ही आसानी से वज़न बढ़ जाता है जितनी आसानी से हम मनुष्य मोटे हो जाते हैं।

कुछ वैज्ञानिकों का मानना था कि हमारी प्रजाति (होमो सैपिएन्स) ही मोटापे से ग्रसित है क्योंकि हमारे पूर्वज कैलोरी का भंडारण बहुत दक्षता से करने के लिए विकसित हुए थे। इस विशेषता से हमारे प्राचीन खेतिहर सम्बंधियों को अक्सर पड़ने वाले अकाल के समय इस संग्रहित वसा से मदद मिलती होगी। कहा यह गया कि इसी चीज़ ने हमें बाकी प्राइमेट्स से अलग किया।

लेकिन देखा जाए तो अन्य प्राइमेट भी मोटाते हैं। कांजी नामक बोनोबो वानर शोध-अनुसंधानों के दौरान केले, मूंगफली और अन्य व्यंजनों से पुरस्कृत होकर अपनी प्रजाति के औसत से तीन गुना अधिक वज़नी हो गया था। इसी प्रकार से, बैंकॉक की सड़कों पर अंकल फैटी नामक मकाक वानर भी इसी का उदाहरण है जो पर्यटकों द्वारा दिए गए मिल्कशेक, नूडल्स और अन्य जंक फूड खा-खाकर मोटा हो गया था; वज़न औसत से तीन गुना अधिक (15 किलोग्राम) था।

ये वानर अपवादस्वरूप मोटे हुए थे या इनमें भी मोटे होने की कुदरती संभावना होती है, यह जानने के लिए ड्यूक युनिवर्सिटी के जैविक नृविज्ञानी हरमन पोंटज़र ने चिड़ियाघरों, अनुसंधान केंद्रों और प्राकृतिक हालात में रहने वाले गैर-मानव प्राइमेट्स की 40 प्रजातियों के कुल 3500 जानवरों का प्रकाशित वज़न देखा और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि बंदी अवस्था (चिड़ियाघर वगैरह) में रखे गए कई जानवरों के वज़न औसत से अधिक थे। बंदी अवस्था में 13 प्रजातियों की मादा और छह प्रजातियों के नर जानवरों का वज़न प्राकृतिक की तुलना में औसतन 50 प्रतिशत अधिक था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने पश्चिमी आहार पाने वाले लगभग 4400 अमेरिकी वयस्कों (मनुष्यों)का वज़न देखा। तुलना के लिए नौ ऐसे समुदाय के वयस्कों का वज़न देखा जो भोजन संग्रह और शिकार करते हैं, या अपना भोजन खुद उगाते हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि कद को ध्यान में रखें तो अमेरिकी लोग इन समुदाय के लोगों से 50 प्रतिशत अधिक वज़नी हैं।

फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन ऑफ रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि हालांकि जेनेटिक कारणों से कुछ व्यक्तियों में मोटापे का खतरा बढ़ सकता है, लेकिन हमारा बज़न बढ़ना बाकी प्राइमेट्स से भिन्न नहीं है। पोंटज़र कहते हैं कि वज़न बढ़ने के पीछे कार्बोहाइड्रेट्स या किसी विशेष भोजन को दोष न दें। जंगली प्राइमेट अपने बंदी साथियों की तुलना में कहीं अधिक कार्बोहाइड्रेट खाते हैं, जबकि बंदी जानवर अधिक कैलोरी-अधिक प्रोटीन वाला भोजन खाते हैं। दोनों समूहों के दैनिक व्यायाम सम्बंधी गतिविधियों में अंतर के बावजूद दोनों समूह के जानवर प्रतिदिन समान मात्रा में कैलोरी खर्च करते हैं। इसलिए ऐसी बात नहीं है कि बंदी जानवर इसलिए मोटे हैं कि वे बस आराम से पड़े रहते हैं और खाते रहते हैं।

अध्ययन सुझाता है कि बंदी प्राइमेट मानव मोटापे को समझने के लिए अच्छे मॉडल हो सकते हैं, इनसे मोटापे के इलाज के नए तरीके खोजने में मदद मिल सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरल भी खेती करते हैं शैवाल की

बीगल नौका पर सवार होकर दक्षिणी प्रशांत महासागर से गुज़रते हुए डारविन इस सवाल से परेशान रहे थे: बंजर समुद्र में कोरल (मूंगा) फलते-फूलते कैसे हैं? इसे डारविन की गुत्थी भी कहा जाता है। और अब नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन ने हमें इसके जवाब के नज़दीक पहुंचा दिया है।

शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि कोरल पोषक तत्वों की प्रतिपूर्ति उन पर उगने वाली शैवाल को खाकर करते हैं। यह तो काफी समय से पता रहा है कि कोरल का उन एक-कोशिकीय शैवालों के साथ परस्पर लाभ का सम्बंध रहता है जो उन पर पनपते हैं और उन्हें अपना ‘घर’ मानते हैं। कोरल की पनाह में शैवाल समुद्र के कठिन वातावरण से सुरक्षा पाते हैं और कोरल के अपशिष्ट पदार्थों का उपयोग भोजन के रूप में करते हैं। बदले में ये शैवाल सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को भोज्य पदार्थों में बदलते हैं जिनका उपयोग वे स्वयं तथा अपने मेज़बान कोरल के पोषण हेतु करते हैं। इसके अलावा कोरल बहकर आने वाले जंतु-प्लवकों का भक्षण भी करते हैं।

लेकिन दुनिया भर में फैली विशाल कोरल चट्टानों का काम इतने भर से नहीं चलता। और सबसे बड़ी परेशानी यह है कि यहां नाइट्रोजन और फॉस्फोरस जैसे पोषक पदार्थों का अभाव होता है।

अलबत्ता, आसपास रहने वाले जीव-जंतु काफी मात्रा में अकार्बनिक नाइट्रोजन व फॉस्फोरस का उत्सर्जन करते हैं, जिसका उपभोग कोरल पर बसे शैवाल कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। तो साउथेम्पटन विश्वविद्यालय के यॉर्ग वाइडेलमैन को विचार आया कि क्या शैवाल ये पोषक तत्व अपने कोरल मेज़बानों को प्रदान करते हैं।

जानने के लिए वाइडेलमैन की टीम ने कोरल (शैवाल सहित) नमूनों को कुछ टंकियों में रखा जिनमें कोई भोजन नहीं था। इनमें से आधी टंकियों में उन्होंने ऐसे अकार्बनिक पोषक तत्व डाले जिनका उपयोग कोरल पर बसने वाली शैवाल ही कर सकती थी। पोषक तत्वों से रहित टंकियों में कोरल की वृद्धि रुक गई और 50 दिनों के अंदर उनके लगभग आधे शैवाल साथी गुम हो गए। लेकिन जिन टंकियों में शैवाल को भोजन मिला था उनमें कोरल की वृद्धि उम्दा रही।

यह तो पहले से पता था कि शैवाल प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए कोरल को ऊर्जा उपलब्ध कराते हैं लेकिन उक्त परिणामों से लगता है कि वे अकार्बनिक नाइट्रोजन और फॉस्फोरस को कोरल के लिए उपयुक्त रूप में बदल देते हैं। लेकिन वे ये पोषक तत्व कोरल को कैसे हस्तांतरित करते हैं, यह एक रहस्य ही बना रहा था।

विचार यह आया कि शायद कोरल इन शैवाल का भक्षण करते हैं। इसे समझने के लिए टीम ने यह हिसाब लगाया कि पोषक तत्वों की दी गई मात्रा से कोरलवासी शैवाल की आबादी में कितनी वृद्धि अपेक्षित है। फिर इसकी तुलना टंकियों में शैवाल कोशिकाओं की वास्तविक संख्या से की गई। इन कोशिकाओं की संख्या अपेक्षा से काफी कम थी। और तो और, जो कोशिकाएं नदारद थीं, उनके जितने नाइट्रोजन और फॉस्फोरस लगते, उतने ही कोरल को उतना बड़ा करने के लिए ज़रूरी थे। यानी कोरल्स शैवाल का शिकार कर रहे थे।

यह तो हुई टंकियों की बात। इस परिघटना को प्रकृति में देखने के लिए टीम ने हिंद महासागर के चागोस द्वीपसमूह में कोरल चट्टानों की वृद्धि का अवलोकन किया। यहां के कुछ द्वीपों पर समुद्री पक्षियों का घनत्व काफी अधिक है। और पक्षियों की बीट में ऐसे अकार्बनिक पोषक पदार्थ होते हैं जिनका उपयोग शैवाल सीधे-सीधे कर सकते हैं लेकिन कोरल नहीं कर सकते। तीन वर्षों की अवधि में टीम ने देखा कि पक्षियों के अधिक घनत्व वाले द्वीपों पर कोरल की वृद्धि कम घनत्व वाले द्वीपों की अपेक्षा दुगनी थी। इसके अलावा, पक्षियों के उच्च घनत्व वाले द्वीपों के तटवर्ती कोरल में नाइट्रोजन का एक ऐसा रूप भी पुन: दिखने लगा था जो पक्षियों की बीट में तो होता है लेकिन जंतु-प्लवकों में नहीं। अर्थात यह ज़रूर शैवालों के ज़रिए कोरल को मिला होगा।

पूरे मामले की सबसे मज़ेदार बात यह है कि इस अध्ययन में एक सजीवों के बीच के जटिल जैविक सम्बंध की खोज करने के लिए वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों और प्रकृति में प्रत्यक्ष अवलोकनों का सुंदर मिला-जुला इस्तेमाल किया है।(स्रोत फीचर्स)

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गर्माते समुद्र पेंगुइन का प्रजनन दूभर कर सकते हैं

म्परर पेंगुइन अच्छी तरह जमी हुई समुद्री बर्फ वाले इलाकों में ही प्रजनन और अपने बच्चों का पालन-पोषण करते हैं। उनके प्रजनन क्षेत्रों के आसपास की बर्फ पिघल कर टूटने लगे तो वे स्थान बदल लेते हैं लेकिन इससे उनका प्रजनन प्रभावित होता है। कम्युनिकेशंस अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित रिपोर्ट बताती है कि हाल ही में जलवायु परिवर्तन के चलते अंटार्कटिका के आसपास के समुद्र गर्म होने से मौसम के पहले ही बर्फ टूटने लगी है, जिसके कारण पेंगुइन अपने प्रजनन स्थल से पलायन कर गए हैं।

ब्रिटिश अंटार्कटिका सर्वेक्षण लगभग पिछले 15 सालों से उपग्रह द्वारा अंटार्कटिका में पेंगुइन बस्तियों की निगरानी कर रहा है। पिछले साल रिमोट सेंसिंग विशेषज्ञ और भूगोलविद पीटर फ्रेटवेल और उनके साथियों ने अक्टूबर के अंत में कुछ स्थानों पर समुद्री बर्फ टूटते हुए देखी थी। एम्परर पेंगुइन प्रजनन के लिए इन स्थानों पर मार्च-अप्रैल में पहुंचते हैं। अगस्त-सितंबर के बीच उनके अंडों से चूज़े निकलते हैं और दिसंबर और जनवरी तक इनके पंख विकसित हो पाते हैं। यदि चूज़ों के परिपक्व होने के पहले ही समुद्री बर्फ टूट जाएगी तो बच्चे डूब जाएंगे या फ्रीज़ हो जाएंगे। यानी अक्टूबर में बर्फ का बिखरना पेंगुइन के लिए निश्चित खतरा होगा।

हुआ भी वही। उपग्रह चित्रों से पता चलता है कि जब 2022 में समुद्री बर्फ टूटी तो अक्टूबर के अंत में पेंगुइन की एक बस्ती ने वह स्थान छोड़ दिया था। दिसंबर की शुरुआत में पेंगुइन के तीन अन्य समूह वहां से चले गए। सिर्फ सुदूर उत्तर में स्थित रोथ्सचाइल्ड द्वीप पर एक बस्ती बची रही और सफलतापूर्वक अपने चूज़ों को पाल पाई।

ऐसा अनुमान है कि अंटार्कटिका में एम्परर पेंगुइन के कुल प्रजनन जोड़े करीब 2,50,000 हैं। पिछले साल बेलिंगशॉसेन में लगभग 10,000 जोड़े प्रभावित हुए थे। वैसे तो यह आपदा उतनी बड़ी नहीं लगती। पेंगुइन की उम्र 20 साल होती है तो इनमें से अधिकांश पेंगुइन अगले साल फिर प्रजनन कर लेंगी। लेकिन लगातार ऐसी स्थिति रही तो हालात मुश्किल होंगे। मौजूदा परिस्थितियों के आधार पर फ्रेटवेल का अनुमान है कि यह साल भी पांचों बस्तियों के लिए उतना ही बुरा होगा। पूर्व में भी समुद्री बर्फ की स्थिति बदलने के चलते ऐसी स्थितियां बनी हैं जब पेंगुइन के लिए प्रजनन मुश्किल हुआ है। कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है, और कार्बन उत्सर्जन समुद्र के गर्माने में बड़ा योगदान देता है। हालात इसी तरह बदलते रहे तो यह पूरा का पूरा क्षेत्र ही पेंगुइन के लिए अनुपयुक्त हो जाएगा और उन्हें अपने लिए वैकल्पिक स्थान ढूंढना भी मुश्किल हो जाएगा। संभव है कि अगले कुछ वर्षों में उनकी कॉलोनियां विलुप्त हो जाएंगी।

यदि हम कार्बन उत्सर्जन को तत्काल कम करते हैं तो पेंगुइन के लिए महफूज़ बचे स्थान सलामत रहेंगे। साथ ही इस क्षेत्र में मछली पकड़ने पर रोक लगाकर पेंगुइन के लिए पर्याप्त भोजन संरक्षित रखा जा सकता है और पर्यटन को कम करके उनके लिए तनावमुक्त माहौल सुनिश्चित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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फल मक्खियां झूला झूलने का आनंद लेती हैं!

च्चे हों या बड़े झूला झूलने में मज़ा सबको आता है। और अब, हालिया अध्ययन से लगता है कि इसका मज़ा फल मक्खियां भी लेती हैं। एक अध्ययन में देखा गया है कि कुछ फल मक्खियां खुद से बार-बार चकरी जैसे गोल-गोल घूमते ‘झूले’ पर चढ़ रही थीं, जिससे लगता है कि उन्हें झूला झूलना अच्छा लग रहा था।

बायोआर्काइव्स प्रीप्रिंट में प्रकाशित यह अध्ययन अकशेरूकी जीवों में खेलकूद या मनोरंजन के प्रमाण भी देता है और कीटों में लोकोमोटर खेल का पहला उदाहरण है। लोकोमोटर खेल वे खेल होते हैं जिसमें स्वयं खिलाड़ी के शरीर में हरकत होती है जैसे दौड़ना, कूदना या झूलना। वैसे पूर्व में मधुमक्खियों को वस्तु के साथ खेल, और ततैया और मकड़ियों को सामाजिक खेल खेलते देखा गया है।

दरअसल कुछ साल पहले कॉन्सटेन्ज़ युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी वुल्फ हटरॉथ ने देखा था कि एक बत्तख तेज़ बहती नदी में बहते हुए कुछ दूरी बहने के बाद उड़कर लौटती और फिर बहकर नीचे चली जाती। वे सोचने लगे कि वह ऐसा व्यवहार क्यों करती है और क्या मक्खियां (या कीट) भी ऐसा करते हैं।

यह देखने के लिए हटरॉथ और उनके साथी टिलमन ट्रिफान ने चकरी जैसा घूमने वाला झूला बनाया। फिर उन्होंने प्रयोगशाला में में नर फल मक्खियों (ड्रॉसोफिला मेलानोगास्टर) को कूदकर झूले पर चढ़ने का मौका दिया। उन्होंने देखा कि कुछ फल मक्खियों ने झूले को नज़रअंदाज़ किया लेकिन कुछ फल मक्खियों का व्यवहार ऐसा था मानो वे डिज़्नीलैंड में हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों के एक समूह ने अपने दिन का 5 प्रतिशत या उससे अधिक समय झूले पर बिताया। और जब उन्होंने दो झूले रखे जो बारी-बारी घूमते थे तो कुछ फल मक्खियां उन झूलों पर चली जाती थीं जो घूम रहे होते थे। और एक मक्खी तो थोड़ी देर झूला झूलती, फिर उससे उतर जाती और फिर वापस थोड़ा और झूलने चली जाती थी।

शोधकर्ता बताते हैं कि फल मक्खियों को स्थान के बारे में अच्छी समझ होती हैं, इसलिए यदि उन्हें गोल घूमना पसंद नहीं आएगा तो वे झूले की सवारी नहीं करेंगी, जैसा कि कुछ ने किया भी। लेकिन अधिकतर मक्खियां ऐसी थीं जिन्होंने न तो झूले का लुत्फ उठाया, न परहेज किया। इसलिए ऐसा लगता है कि (कम से कम कुछ) मक्खियां झूले पर सवारी का आनंद ले रही थीं।

बहरहाल, शोधकर्ता पक्के तौर पर यह कहने में झिझक रहे हैं कि मक्खियां को झूलने में मज़ा आता है क्योंकि वे अभी यह नहीं जान पाए हैं कि मक्खियां ऐसा क्यों करती हैं।

शोधकर्ता इस व्यवहार में शामिल तंत्रिका तंत्र को समझना चाहते हैं। इससे यह समझने में मदद मिल सकती है कि मक्खियों (या किसी अन्य जीव) को लोकोमोटर खेल से क्या फायदा हो सकता है? इस तरह के खेल व्यवहार का महत्व क्या है? क्या यह किसी भी चीज़ के लिए अच्छा है? वगैरह।(स्रोत फीचर्स)

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छत्ता निर्माण की साझा ज्यामिति

हाल ही में मधुमक्खियों और ततैयों पर किए गए एक अध्ययन से आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जैव विकास की राह में 18 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग रास्तों पर चल पड़ने के बावजूद मधुमक्खियों और ततैयों दोनों समूहों ने छत्ता निर्माण की जटिल ज्यामितीय समस्या से निपटने के लिए एक जैसी तरकीब अपनाई है।

गौरतलब है कि मधुमक्खियों और ततैयों के छत्ते छोटे-छोटे षट्कोणीय प्रकोष्ठों से मिलकर बने होते हैं। इस प्रकार की संरचना में निर्माण सामग्री कम लगती है, भंडारण के लिए अधिकतम स्थान मिलता है और स्थिरता भी रहती है। लेकिन रानी मक्खी जैसे कुछ सदस्यों के लिए बड़े आकार के प्रकोष्ठ बनाना होता है और उनको समायोजित करना एक चुनौती होती है। यदि कुछ प्रकोष्ठ का आकार बड़ा हो जाए तो ये छत्ते में ठीक से फिट नहीं होंगे और छत्ता कमज़ोर बनेगा।

मामले की छानबीन के लिए ऑबर्न विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने मधुमक्खी और ततैया की कई प्रजातियों के छत्तों का विश्लेषण किया और पाया कि दोनों जीव इस समस्या के समाधान के लिए एक जैसी तरकीब अपनाते हैं। यदि छोटे और बड़े प्रकोष्ठ की साइज़ में अंतर बहुत अधिक न हो तो वे बीच-बीच में थोड़े विकृत मध्यम आकार के षट्कोणीय प्रकोष्ठ बना देते हैं। यदि आकार का अंतर अधिक हो तो वे बीच-बीच में प्रकोष्ठों की ऐसी जोड़ियां बना देते हैं जिनमें से एक प्रकोष्ठ पांच भुजाओं वाला और दूसरा सात भुजाओं वाला होता है।

शोधकर्ताओं ने इसका एक गणितीय मॉडल भी तैयार किया जो बड़े और छोटे षट्कोणों के आकार में असमानता के आधार पर बता सकता है कि प्रकोष्ठों की साइज़ में कितना अंतर होने पर पंचभुज व सप्तभुज प्रकोष्ठों की कितनी जोड़ियां लगेंगी। अत: भले ही मधुमक्खियों और ततैयों ने स्वतंत्र रूप से षट्कोणीय प्रकोष्ठों से छत्ता बनाने की क्षमता विकसित की हो लेकिन लगता है कि वे इन्हें बनाने के लिए एक जैसे गणितीय सिद्धांतों का उपयोग करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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