सौभाग्यशाली थी, तो यह मकाम पाया: राजेश्वरी चटर्जी

संकलन: के. शशिकला

महिला वैज्ञानिकों की बात करें तो इक्कादुक्का नाम ही सामने आते हैं। एक कारण है कि सामाजिक असमानताओं और रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते बहुत कम महिलाएं उच्च शिक्षा हासिल कर पाती हैं, वह भी अक्सर तमाम संघर्षों से गुज़रते हुए।

दूसरा कारण यह है कि जो महिलाएं विज्ञान में शोधरत हैं, उनके बारे में लोगों को बहुत ही कम पढ़ने को मिलता है। इस कमी को पाटने का एक प्रयास किया था रोहिणी गोडबोले और राम रामस्वामी ने लीलावतीज़ डॉटर्स नामक पुस्तक में। इसमें भारत की सौ महिला वैज्ञानिकों के काम, विचार संघर्षों की गाथा है।

अगले कुछ अंकों में हम इस पुस्तक की कुछ जीवनियां आप तक पहुंचाएंगे।

मेरा जन्म जनवरी 1922 में एक प्रगतिशील और खुले विचारों वाले परिवार में हुआ था। मैं भले ही मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा न हुई हो, लेकिन हाथों में किताबें लेकर ज़रूर पैदा हुई थी! मेरा परिवार काफी बड़ा (संयुक्त) परिवार था, जो उन दिनों काफी आम बात थी। परिवार के सभी लोग काफी पढ़े-लिखे थे। यहां तक कि लड़कियां भी, और हमें हर उस गतिविधि में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था जो हमें पसंद थी या जिसमें हम भाग लेना चाहते थे। मेरी दादी, कमलम्मा दासप्पा, तत्कालीन मैसूर राज्य की सर्वप्रथम महिला स्नातकों में से एक थीं। वे महिलाओं की शिक्षा (women’s education), खासकर विधवा और परित्यक्त महिलाओं की शिक्षा, के लिए बहुत सक्रिय थीं। लड़कियों की शिक्षा (girls’ education) में मदद करने के लिए उन्होंने एक त्वरित स्कूल पाठ्यक्रम स्थापित करने की पहल की थी, जिसके तहत छात्राओं को 14 वर्ष की आयु तक अपना मैट्रिकुलेशन पूरी करने की इजाज़त थी। यह पाठ्यक्रम ‘महिला सेवा समाज’ द्वारा संचालित ‘विशेष अंग्रेज़ी स्कूल (Special English School)’ में चलाया गया था।

इस कोर्स के तहत मैंने और मेरे कुछ चचेरी-ममेरी बहनों ने पढ़ाई की। चूंकि मुझे अतीत की घटनाओं के बारे में पढ़ना और सीखना अच्छा लगता था, जो कि आज भी है, इसलिए स्कूल की पढ़ाई पूरी होने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए मैंने इतिहास (history) विषय करीब-करीब चुन ही लिया था। लेकिन चूंकि मुझे विज्ञान (science) और गणित (mathematics) भी अच्छा लगता था, इसलिए आखिरकार मैंने भौतिकी (physics) और गणित को आगे पढ़ाई के लिए चुना। हमारे घर में, कॉलेज और युनिवर्सिटी (university) जाना स्वाभाविक बात थी। मैं अपनी बीएससी (BSc) (ऑनर्स) और मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई के लिए मैसूर विश्वविद्यालय के बैंगलौर के सेंट्रल कॉलेज गई। इस पूरी पढ़ाई में मैंने हमेशा प्रथम श्रेणी हासिल की। और एमएससी के बाद भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science – IISc), बैंगलौर के तत्कालीन विद्युत प्रौद्योगिकी विभाग में नौकरी ले ली। मैंने विद्युत संचार (communication engineering) के क्षेत्र में एक शोध सहायक के रूप में काम किया।

द्वितीय विश्व युद्ध (World War II) के बाद भारत में अंग्रेज़ों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरित करने के लिए एक अंतरिम सरकार की स्थापना की गई थी। इस सरकार ने प्रतिभाशाली युवा वैज्ञानिकों (young scientists) को विदेश में अध्ययन करने के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की थी। मैंने इलेक्ट्रॉनिक्स (electronics) और इसके अनुप्रयोगों के क्षेत्र में ऐसी ही एक छात्रवृत्ति के लिए आवेदन किया था। 1946 में इस छात्रवृत्ति के लिए चयनित होने के बाद, मैं शीघ्र ही आगे की पढ़ाई के लिए एन आर्बर स्थित मिशिगन विश्वविद्यालय (University of Michigan) चली गई। तब मेरी उम्र 24-25 के आसपास ही थी। और तो और, मैं तब अविवाहित थी, लेकिन तब भी मेरे परिवार ने मेरे विदेश जाने पर कोई आपत्ति नहीं जताई! ध्यान रहे, यह आज से करीब 80 साल पहले की बात है! आज की कई युवा लड़कियां (young women), जो अपनी पसंद के कोर्स/विषय (courses/subjects) और करियर चुन सकती हैं, उन्हें शायद इस बात का अंदाज़ा न होगा कि उस समय महिलाओं को किस तरह के प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता था, यहां तक कि विदेशों में भी। 1920 या 30 के दशक तक पश्चिमी देशों के कई विश्वविद्यालय महिलाओं को प्रवेश नहीं देते थे। मैं वास्तव में बहुत भाग्यशाली थी कि मुझे इस तरह के भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा।

अमेरिका (United States) में इंजीनियरिंग (engineering) में मास्टर्स करना और बाद में पीएचडी (PhD) के लिए काम करना बहुत ही खुशगवार रहा, और उस दौरान मैंने कई चीज़ें सीखीं। मैंने और भी ज़्यादा खुली सोच रखना और नए विचारों के प्रति ग्रहणशील होना सीखा। मैंने सीखा कि अगर हम मन में ठान लें तो कुछ भी हासिल करना असंभव नहीं है। मैंने कई नए दोस्त बनाए और उनमें से कुछ के साथ कई सालों तक संपर्क बनाए रखा है। 1949 में अपनी मास्टर्स डिग्री हासिल करने के बाद मैं वॉशिंगटन डीसी में नेशनल ब्यूरो ऑफ स्टैंडर्ड्स में आठ महीने के रेडियो फ्रीक्वेंसी मापन के व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए गई। सितंबर 1949 में, मैं बारबॉर छात्रवृत्ति (Barbour Scholarship) पर अपनी पीएचडी की पढ़ाई जारी रखने के लिए एन आर्बर वापस आ गई। वहां मेरे सलाहकार प्रोफेसर विलियम जी. डॉव थे, जिनका 1999 में 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया।

1953 में मैं भारत लौटी। यहां आकर मैं भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में शामिल हो गई, और एक सक्रिय शोध करियर शुरू किया। अपने परिवार के पूर्ण समर्थन के साथ, मैंने अपने एक सहकर्मी शिशिर कुमार चटर्जी से विवाह किया, और कई प्रोजेक्ट पर उनके साथ मिलकर काम भी किया। हमने अपना अधिकांश समय IISc के खूबसूरत माहौल में बिताया – या तो विभाग में या लायब्रेरी में। हमारी बेटी, जो अब अमेरिका में प्रोफेसर (professor in the US) है, ने अपना पूरा बचपन यहीं बिताया।

मेरे पति और मैं, हम दोनों कई प्रोजेक्ट लेते थे और हमने संयुक्त रूप से कई शोधपत्र (research papers) प्रकाशित किए। हमने कई कोर्सेस, ज़्यादातर विद्युत चुंबकीय सिद्धांत, इलेक्ट्रॉन ट्यूब सर्किट(electron tube circuits),  माइक्रोवेव तकनीक(microwave technology) और रेडियो इंजीनियरिंग (radio engineering)  के पढ़ाए और इन पर कई किताबें भी लिखीं। मेरा मुख्य योगदान मुख्यत: विमान और अंतरिक्ष यान(aircraft and spacecraft), में उपयोग किए जाने वाले एंटीना(antennas)  \ के क्षेत्र में रहा है। 1994 में शिशिर के निधन के बाद भी मैंने इन विषयों पर किताबें लिखना जारी रखा, और विज्ञान तथा विशेष रूप से इंजीनियरिंग में अपनी रुचि बनाए रखी। मैंने 20 पीएचडी छात्र और छात्राओं को उनके काम में मार्गदर्शन दिया। मेरे कई छात्र-छात्राएं अपने-अपने क्षेत्रों में प्रसिद्ध हुए हैं, और भारत और विदेशों में डायरेक्टर और प्रोफेसर बने।

कई पुरस्कार और सम्मान मुझे मिले हैं। इनमें बीएससी (ऑनर्स) में प्रथम रैंक के लिए मुम्मदी कृष्णराज वोडेयार पुरस्कार, एमएससी में प्रथम रैंक के लिए एम. टी. नारायण अयंगर पुरस्कार एवं वॉटर्स मेमोरियल पुरस्कार, इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल एंड रेडियो इंजीनियरिंग, यूके से सर्वश्रेष्ठ पेपर के लिए लॉर्ड माउंटबेटन पुरस्कार(Lord Mountbatten Award), इंस्टीट्यूशन ऑफ इंजीनियर्स से सर्वश्रेष्ठ शोध पत्र के लिए जे. सी. बोस मेमोरियल पुरस्कार और इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रॉनिक्स एंड टेलीकम्यूनिकेशन इंजीनियर्स के सर्वश्रेष्ठ शोध और शिक्षण कार्य के लिए रामलाल वाधवा पुरस्कार शामिल हैं। इन सबसे बढ़कर, मैंने अपने कुछ छात्र-छात्राओं और कई युवाओं का साथ और स्नेह कमाया है। मैंने इन सभी से बहुत कुछ सीखा है, मेरे कई विचारों में बड़े-बड़े बदलाव आए हैं!

IISc से रिटायरमेंट के बाद, मैंने सामाजिक कार्यक्रमों पर काम करना शुरू किया, मुख्यत: इंडियन एसोसिएशन फॉर वीमन्स स्टडीज़ (Indian Association for Women’s Studies) के साथ। तब मैंने जाना कि कितनी महिलाओं ने जीवन में आगे बढ़ने के लिए तमाम बाधाओं के बावजूद कितना संघर्ष किया है, जिनका सामना हम जैसे कुलीन वर्ग के लोगों को शायद ही कभी करना पड़ा हो। मेरा मानना है कि हम सौभाग्यशाली थे तो वैज्ञानिक और इंजीनियर का यह मकाम हमने हासिल किया। और ऐसे  वैज्ञानिक और इंजीनियर होने के नाते हमें अपने से कम सुविधा प्राप्त लोगों की, खासकर महिलाओं की, अपने पसंदीदा विषय में अध्ययन करने, काम करने और आगे बढ़ने में हर संभव मदद करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रोहिणी गोडबोले – लीलावती की एक बेटी

अरविन्द गुप्ता

रोहिणी गोडबोले का जन्म 1952 में पुणे के एक मध्यम वर्गीय महाराष्ट्रीयन परिवार में हुआ था। उनके प्रगतिशील परिवार में बौद्धिक गतिविधियों को हमेशा प्रोत्साहित किया जाता था। स्वयं उनकी मां ने तीन बेटियों के जन्म के बाद बी.ए. और एम.ए. किया और फिर बी.एड. करने के बाद पुणे के प्रतिष्ठित हुज़ूरपागा हाई स्कूल (Huzurpaga High School, Pune) (स्थापना 1884) में बतौर शिक्षक अपना कैरियर शुरू किया। उनके दादाजी ने मैट्रिकुलेशन से पहले अपनी बेटियों की शादी नहीं कराने का फैसला किया था। ज़ाहिर है, उनका परिवार लड़कियों के कैरियर को प्रोत्साहित करता था। रोहिणी की तीन बहनों में से एक डॉक्टर (Doctor) और बाकी दो विज्ञान शिक्षिका बनीं।

वैज्ञानिक (Scientist) बनना एक कैरियर विकल्प हो सकता है, यह विचार रोहिणी के दिमाग में काफी बाद में आया था। ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि उनकी कन्या शाला में सातवीं कक्षा तक केवल गृह-विज्ञान ही पढ़ाया जाता था। सातवीं कक्षा में राज्य प्रतिभा छात्रवृत्ति (State Talent Scholarship) के लिए तैयारी करते समय उन्होंने पहली बार भौतिकी (Physics), जीव विज्ञान (Biology), और रसायन विज्ञान (Chemistry) का अध्ययन किया, और वह भी अपने दम पर। वे यह छात्रवृत्ति पाने वाली अपने स्कूल की पहली छात्रा थीं।

फिर उन्होंने विज्ञान पत्रिकाएं (Science Magazines) पढ़ना, विज्ञान निबंध लेखन प्रतियोगिताओं में भाग लेना और पाठ्यपुस्तकों के बाहर की चीज़ें सीखना शुरू कीं। एक दिन उनकी बड़ी बहन नेशनल साइंस टैलेंट स्कालरशिप (National Science Talent Scholarship) का एक पर्चा लेकर घर आई। उस छात्रवृत्ति की पहली शर्त यह थी कि विजेता को मूल विज्ञान (Basic Science) का अध्ययन करना ज़रूरी होता था। इस छात्रवृत्ति की वजह से ही वे अपनी गर्मियों की छुट्टियां (एस. पी. कॉलेज, पुणे से भौतिकी में बीएससी करते हुए) आईआईटी दिल्ली (IIT Delhi) और आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में बिता पाई थीं।

उन्होंने बीएससी पूरी की और विश्वविद्यालय में शीर्ष स्थान प्राप्त किया। तब उन्हें बैंक ऑफ महाराष्ट्र (Bank of Maharashtra) से नौकरी का एक प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें लगभग उतना ही वेतन मिलता जितना उस समय उनके पिता कमाते थे। वैसा ही आलम आज आई.टी. (IT Industry) क्षेत्र द्वारा दिए जाने वाले वेतन का भी है, जो युवाओं को विज्ञान और अनुसंधान के क्षेत्र में जाने से रोकता है!! उन्होंने अनुसंधान की ओर पहला कदम तब उठाया जब वे आईआईटी मुंबई (IIT Bombay) से एमएससी कर रही थीं। वहां के कई प्रोफेसरों ने उन्हें किताबों से परे देखना और अपने सवालों के जवाब खुद खोजना सिखाया। जब वे एमएससी के दूसरे वर्ष में थीं, उस समय अमेरिकन युनिवर्सिटी विमेंस एसोसिएशन (American University Women’s Association) ने अमरीका में अध्ययन करने वाली छात्राओं के लिए एक छात्रवृत्ति की घोषणा की। उस छात्रवृत्ति को पाने के लिए किसी अमेरिकी विश्वविद्यालय (American University) में दाखिला लेना ज़रूरी था। उन्होंने पार्टिकल-फिज़िक्स (Particle Physics) में शोध करने के लिए स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय (Stony Brook University) में दाखिला लिया।

अपनी पीएचडी (PhD) पूरी करने के बाद वे भारत लौटीं। हालांकि उन्हें युरोप (Europe) में पोस्ट-डॉक्टरल शोध (Postdoctoral Research) के लिए नौकरी का प्रस्ताव मिला था, लेकिन विदेश में पांच साल बिताने के बाद वे घर लौटना चाहती थीं। अगर उन्होंने युरोप में आगे पढ़ाई की होती तो शायद उनकी ज़िंदगी बिल्कुल अलग मोड़ ले लेती।

बहरहाल, उन्हें अपने निर्णय का कोई मलाल नहीं हुआ। पीएचडी के बाद उन्होंने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (Tata Institute of Fundamental Research) में तीन सफल वर्ष बिताए और फिर मुंबई विश्वविद्यालय (University of Mumbai) में व्याख्याता के रूप में पढ़ाना शुरू किया। टाटा इंस्टीट्यूट में उनके सभी वरिष्ठ साथियों को लगा कि व्याख्याता का पद स्वीकार करने से उनका शोधकार्य समाप्त हो जाएगा। यह भारत में शोध संस्थानों (Research Institutes) और विश्वविद्यालयों के बीच के व्यापक अंतर को दर्शाता है।

इसका पहला अनुभव उन्हें तब हुआ जब उन्होंने विश्वविद्यालय में मकान पाने के लिए आवेदन किया। जहां टाटा इंस्टीट्यूट में शामिल होने के तुरंत बाद ही उन्हें मकान मिल गया था, वहीं मुंबई विश्वविद्यालय में उन्हें तमाम बेतुके सवालों के जवाब देने पड़े; जैसे कि क्या वे शादीशुदा हैं, उनके माता-पिता कहां रहते हैं वगैरह, वगैरह।  

वे पार्टिकल फिज़िक्स में अपने पूर्व सहयोगियों और टाटा इंस्टीट्यूट के शोध छात्रों के सहयोग से अपना शोध कार्य जारी रख पाईं।

1995 में उन्होंने इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ साइंस (Indian Institute of Science), बैंगलोर में शोधकार्य और अध्यापन शुरू किया। उन्होंने हाई एनर्जी फिज़िक्स (High Energy Physics) के क्षेत्र में काम किया और उस क्षेत्र में काफी प्रसिद्धि भी कमाई। उन्होंने जिनेवा स्थित प्रयोगशाला सर्न (CERN, Geneva) के लार्ज हेड्रॉन कोलाइडर (Large Hadron Collider) में भौतिकी के सैद्धांतिक पहलुओं पर काम किया। जब उनकी और उनके एक युवा जर्मन सहकर्मी द्वारा की गई भविष्यवाणी सच निकली तो लोगों ने उसे ‘ड्रीस-गोडबोले प्रभाव’ (Drees-Godbole Effect) नाम दिया। उसके बाद उन्हें तमाम पुरस्कार और सम्मान (Awards and Recognition) मिले। अलबत्ता, उनका सबसे प्रिय पुरस्कार आईआईटी बॉम्बे (IIT Bombay) का डिस्टिंग्विश्ड एलम्नस अवार्ड (Distinguished Alumnus Award) था। इस पुरस्कार को पाने वाली पहली महिला होना उनके लिए विशेष रूप से संतोषजनक था। 2019 में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री (Padma Shri) से नवाज़ा।

इस दौरान उन्होंने एक जर्मन सहकर्मी के साथ 12 वर्षों तक वैवाहिक जीवन भी जीया हालांकि दो अलग-अलग महाद्वीपों में रहते हुए। लेकिन दोनों ने तब तक बच्चे न पैदा करने का फैसला किया जब तक कि दोनों को एक जगह नौकरी नहीं मिल जाती। 

लड़कियों और युवा महिलाओं की विज्ञान (Women in Science) और अनुसंधान (Research) में रुचि और जिज्ञासा बढ़ाने में मदद करना उन्हें अपनी एक अहम ज़िम्मेदारी महसूस होती थी। इसके तहत उन्होंने 100 भारतीय महिला वैज्ञानिकों (Indian Women Scientists) को उनके बचपन, उनकी विज्ञान यात्रा, उनके अनुभवों और संघर्षों को लिखने के लिए आमंत्रित किया। 2008 में ये संस्मरण लीलावती’स डॉटर्स (Leelavati’s Daughters) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। यह एक नायाब पुस्तक (Unique Book) है। पहली बार अदृश्य भारतीय महिला वैज्ञानिकों की अनूठी कहानियां लोगों को पढ़ने को मिलीं। इस पुस्तक का संपादन प्रो. रोहिणी गोडबोले और प्रो. रामकृष्ण रामस्वामी ने मिलकर किया और इसको इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Indian Academy of Sciences), बैंगलोर ने प्रकाशित किया। इस अनूठी पुस्तक के कुछ अध्यायों के अनुवाद (Translation) भी हुए और वे हिंदी में एकलव्य (Eklavya) द्वारा प्रकाशित पत्रिका शैक्षणिक संदर्भ, और मराठी के प्रतिष्ठित अखबार लोकसत्ता में प्रकाशित हुए। 

प्रो. रोहिणी गोडबोले से मिलने के मुझे कई अवसर मिले। उनके अकस्मात निधन से एक शून्य पैदा हुआ है। उनकी अनूठी पुस्तक लीलावती’स डॉटर्स का सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मानव-विज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्ता: पॉल फार्मर

त 21 फरवरी 2022 को पॉल फार्मर का 62 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। फार्मर एक डॉक्टर होने के साथ मानव-विज्ञानी और सामाजिक कार्यकर्ता थे जिन्होंने अपना जीवन स्वास्थ्य क्षेत्र में समानता के लिए समर्पित कर दिया था। ‘पार्टनर्स इन हेल्थ’ (पीआईएच) नामक एक गैर-मुनाफा संगठन, जो हैटी, पेरू और रवांडा जैसे कम आय वाले देशों में मुफ्त चिकित्सा सेवा प्रदान करता है, के सह-संस्थापक के रूप में उन्होंने संगठन के अनुभव के आधार पर टीबी और एचआईवी के इलाज के तौर-तरीकों पर वैश्विक दिशानिर्देशों को बदलवाने का काम किया। कोविड-19 महामारी के दौरान फार्मर और उनके सहयोगियों ने टीकों के एकाधिकार के विरुद्ध मोर्चा खोला और दर्शाया कि इसी एकाधिकार के चलते ही कम आय वाले देशों में केवल 10 प्रतिशत लोगों का पूर्ण टीकाकरण हो पाया है।

फार्मर ने 1990 में हारवर्ड मेडिकल स्कूल से मेडिकल डिग्री के साथ-साथ मानव-विज्ञान में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की और इसी युनिवर्सिटी में वैश्विक स्वास्थ्य और सामाजिक चिकित्सा के शिक्षण का काम किया। अमेरिका में एक बच्चे और हैटी में एक युवक के रूप में हुए अनुभवों ने उनके नज़रिए को आकार दिया। सामाजिक सिद्धांत, राजनीतिक सिद्धांत और ‘मुक्तिपरक धर्म शास्त्र’ के कैथोलिक दर्शन ने इसे और विस्तार दिया। इस अध्ययन ने उनका ध्यान गरीबों के व्यवस्थागत उत्पीड़न पर केंद्रित किया।   

फार्मर द्वारा लिखी गई 12 किताबों और 200 से अधिक पांडुलिपियों से उनके कार्यों की सैद्धांतिक बुनियाद का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। उनका कहना था कि जानें बचाने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं होगी, बशर्ते कि हरेक जीवन को मूल्यवान माना जाए। उन्होंने सरकारों और दानदाताओं द्वारा अपनाए जाने वाले लागत-क्षमता विश्लेषण की आलोचना की है। जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारें और दानदाता जिस लागत-क्षमता विश्लेषण का इस्तेमाल करती हैं, उसकी फार्मर ने आलोचना की थी – खास तौर से उस स्थिति में जब किसी चिकित्सा टेक्नॉलॉजी को उन लोगों के लिए उपयुक्त मान लिया जाता है जो उसकी कीमत नहीं चुका सकते। उन्होंने जन स्वास्थ्य समुदाय के उन लोगों की भी आलोचना की जो सस्ते के चक्कर में गरीब देशों में एड्स मरीज़ों को स्वास्थ्य सेवा व देखभाल की बजाय एचआईवी रोकथाम पर ज़्यादा ज़ोर दे रहे थे। उस समय एचआईवी की दवाएं काफी महंगी थीं लेकिन फार्मर का तर्क था कि इनका महंगा होना ज़रूरी नहीं है। आगे चलकर नीतिगत बदलाव हुए और जेनेरिक दवाओं को मंज़ूरी दी गई और कीमतों में भारी गिरावट आई।       

सबके लिए स्वास्थ्य सेवा की पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए फार्मर ने कभी-कभी नियमों का उल्लंघन भी किया। दी न्यू यॉर्कर के अनुसार, 1990 के दशक में फार्मर और उनके सहयोगी जिम योंग किम ने अपने कार्यस्थल, ब्रिगहैम और बोस्टन के महिला अस्पताल, से बड़ी मात्रा में टीबी की दवाइयां पेरू के अपने रोगियों के इलाज के लिए गुपचुप भेज दी थीं। बाद में पीआईएच के एक दानदाता ने इनकी प्रतिपूर्ति कर दी थी। इसके कुछ वर्षों बाद फार्मर और किम ने डबल्यूएचओ के उस कार्यक्रम में मदद की थी जिसके तहत 2005 तक 30 लाख लोगों का एचआईवी/एड्स का इलाज किया जाना था। हालांकि उनका उद्देश्य हमेशा से स्वास्थ्य प्रणाली को पुनर्गठित करने का रहा लेकिन वे यह समझ चुके थे कि दानदाता समग्र स्वास्थ्य सेवा की बजाय ऐसे कार्यक्रमों को समर्थन देते हैं जो किसी एक रोग पर केंद्रित हों।       

पीआईएच का काम अन्य सहायता संगठनों से अलग रहा है। उन्होंने न केवल क्लीनिक बनाए बल्कि बल्कि उन्हें टिकाऊ बनाने के उद्देश्य से उन्हें सरकार द्वारा संचालित सेवाओं के अंदर खोला और स्थानीय कर्मचारियों को शामिल किया।

फार्मर ने रोगों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों को जाति, लिंग और गरीबी जैसे कारकों पर ध्यान देने को कहा जो विज्ञान से लाभ लेने की क्षमता को बाधित करते हैं। फार्मर ने यह भी बताया कि समता की बात को ध्यान में रखा जाए तो चिकित्सीय कार्यक्रम बेहतर तरीके से चलाए जा सकते हैं। अपने एक पेपर में वे बताते हैं कि कैसे पेरू स्थित उनकी टीम द्वारा मुफ्त तपेदिक उपचार के साथ मामूली मासिक वज़ीफा और भोजन प्रदान करने से 100 प्रतिशत लोग बीमारी से ठीक हो गए जबकि सिर्फ दवा देने से 56 प्रतिशत ही ठीक हो पाए थे।

फार्मर का राजनैतिक रुझान उनके गरीबी में बड़े होने के अनुभव से उपजा था। वे छह बच्चों में से एक थे और एक बस, एक नाव और एक तम्बू में रहा करते थे। 1988 में उनके टूटे पैर के उपचार के लिए कैशियर का काम करने वाली उनकी मां को अपना दो साल का वेतन लगाना पड़ा था। हालांकि, हारवर्ड मेडिकल इन्श्योरेंस से उनके अधिकांश खर्च की भरपाई हो गई थी, लेकिन फार्मर जानते थे कि इस तरह के चिकित्सा खर्च दुनिया भर में हर वर्ष 3 करोड़ लोगों को गरीबी में धकेल देते हैं।

फार्मर ने अपना करियर लोगों को यह समझाने में लगाया कि स्वास्थ्य सेवा एक मानव अधिकार है। उनको वैश्विक स्वास्थ्य के क्षेत्र में एक जानी-मानी शख्सियत के रूप में माना जाता है। उन्होंने अपने पीछे ऐसे शोधकर्ताओं की टीम छोड़ी है जो उनके मिशन को आगे ले जाने में सक्षम है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सुंदरलाल बहुगुणा: पर्यावरण व वन संरक्षक – भारत डोगरा


सुंदरलाल बहुगुणा (1927-2021)

योवृद्ध पर्यावरणविद और चिपको आंदोलन के अग्रणी सुंदरलाल बहुगुणा का 21 मई को 94 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। इसके दो हफ्ते पहले उन्हें कोविड-19 के चलते ऋषिकेश के एक अस्पताल में भर्ती किया गया था। जंगलों और नदियों को बचाने के उनके प्रयासों और मानव कल्याण में उनके महान योगदान के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा।

उनका जन्म टिहरी गढ़वाल में गंगा किनारे एक गांव में हुआ था। जब वे स्कूली छात्र थे तब उनकी मुलाकात प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्रीदेव सुमन से हुई, जिन्होंने आगे चलकर कारावास के दौरान अपने जीवन का बलिदान कर दिया था। समाज के प्रति समर्पित उनके जीवन से बहुगुणा जी प्रेरित हुए और उन्होंने सुमन जी का अनुसरण करने का फैसला किया। वे गोपनीय ढंग से सुमन जी से सम्बंधित खबरें भेजने लगे, जिसके कारण उन्हें पुलिसिया कार्रवाई का सामना करना पड़ा। बचने के लिए वे लाहौर चले गए, लेकिन जब टिहरी साम्राज्य में स्वतंत्रता आंदोलन चरम पर था तब वे लौट आए।

पहले तो उन्हें टिहरी में प्रवेश नहीं करने दिया गया, लेकिन किसी तरह वे संघर्षों में शामिल हुए और आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

आज़ादी के बाद उन्होंने खुद को विभिन्न सामाजिक उद्देश्यों के लिए समर्पित कर दिया। अपनी निर्विवाद ईमानदारी और गहन समर्पण भाव के कारण उस समय वे गढ़वाल के सामाजिक-राजनीतिक दुनिया के उभरते हुए सितारे थे। उन्हें विमला नौटियाल जी के पिता की ओर से शादी का प्रस्ताव आया, लेकिन विमला जी तब तक सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी सरला बहन की शिष्या बन गर्इं थी और राजनीति की चमक-दमक से दूर ग्रामीणों की सेवा के प्रति समर्पित थीं। उन्होंने सुंदरलाल जी के सामने यह शर्त रखी कि वे उनसे शादी तभी करेंगी जब वे राजनीति की चमक-दमक छोड़ उनके साथ दूर-दराज़ के ग्रामीण क्षेत्र में लोगों की सेवा करने के लिए राज़ी होंगे।

सुंदरलाल जी इस बात पर राज़ी हो गए। शादी के बाद वे दोनों घनसाली के पास स्थित सिलयारा गांव में ग्रामीणों की सेवा करने के लिए बस गए। यह गांव बालगंगा नदी के निकट था। वहां उन्होंने सिलयारा आश्रम बसाया, जो सामाजिक गतिविधियों का प्रशिक्षण केंद्र बना। दोनों ने ही दृढ़ता से महात्मा गांधी को अपना मुख्य शिक्षक और प्रेरणा स्रोत माना।

चीन के आक्रमण के बाद गांधीवादी विनोबा भावे ने हिमालयी क्षेत्र में गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं से व्यापक स्तर पर सामाजिक कार्य करने का आह्वान किया था। तब विमला जी की सहमति से वे उत्तराखंड के कई हिस्सों, खासकर गढ़वाली क्षेत्र में अधिक यात्राएं करने लगे और आश्रम की बागडोर विमला जी ने संभाल ली। इन यात्राओं से सामाजिक और पर्यावरणीय सरोकारों में उनकी भागीदारी बढ़ी।

सुंदरलाल जी और विमला जी दोनों ही ने शराब विरोधी आंदोलनों और अस्पृश्यता को चुनौती देने वाले दलित आंदोलनों में भाग लिया। इस दौरान हेंवलघाटी जैसे क्षेत्र में कई युवा कार्यकर्ताओं के साथ उनके प्रगाढ़ सम्बंध बने। सत्तर के दशक के अंत में अद्वानी और सालेट जैसे जंगलों को बचाने के लिए हेंवलघाटी क्षेत्र में चिपको आंदोलन की शुरुआत की गई, जिसने लोगों में बहुत उत्साह पैदा किया। यह आंदोलन कांगर और बडियारगढ़ जैसे सुदूर जंगलों तक भी फैला, जहां सुंदरलाल बहुगुणा ने बहुत कठिन परिस्थितियों में घने वन क्षेत्र में लंबे समय तक उपवास किया। साथ ही साथ उन्होंने सरकार के वरिष्ठ लोगों के साथ संवाद बनाए रखा। खासकर, प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के मन में उनके लिए बहुत सम्मान था। उनके प्रयासों से बहुत बड़ी सफलता हासिल हुई – सरकार हिमालय क्षेत्र के एक बड़े इलाके में पेड़ों की कटाई रोकने के लिए तैयार हो गई।

इस सफलता के बाद उन्होंने जंगलों और पर्यावरण को बचाने में लोगों की भागीदारी का संदेश फैलाने के लिए भूटान और नेपाल सहित कश्मीर से लेकर कोहिमा तक हिमालयी क्षेत्र के एक बड़े हिस्से की बहुत लंबी और कठिन यात्रा की। कई चरणों में की गई इस यात्रा के दौरान उनकी जान पर कई बार खतरे आए, लेकिन वे रुके नहीं और अपनी यात्रा पूरी की।

उन्होंने पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ टिकाऊ आजीविका की सुरक्षा पर भी ज़ोर दिया। उन्होंने विस्थापन का पुरज़ोर विरोध किया और वन श्रमिकों को संगठित किया। उन्होंने कई रचनात्मक कार्य भी किए। जैसे, खत्म होते जंगलों को पुर्नजीवित करना और जैविक/प्राकृतिक/पारंपरिक खेती को बढ़ावा देना।

जल्द ही वे हिमालयी क्षेत्र में बांध परियोजनाओं द्वारा होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय हानि को रोकने के आंदोलन में गहन रूप से जुड़ गए, खासकर विशाल और अत्यधिक विवादास्पद टिहरी बांध परियोजना विरोधी आंदोलन से। उच्च-स्तरीय आधिकारिक रिपोर्टों द्वारा इसके हानिकारक प्रभावों की पुष्टि किए जाने के बावजूद इस परियोजना को बढ़ावा दिया जा रहा था। यह उनका यह बहुत लंबा और कठिन संघर्ष रहा। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपना आश्रम छोड़ दिया और विमला जी के साथ कई महीनों तक गंगा नदी के तट पर डेरा डाले रहे।

भले ही उनका यह लंबा संघर्ष उच्च जोखिम वाले बांध बनने से न रोक सका, लेकिन बेशक उनके इस संघर्ष ने इन महत्वपूर्ण मुद्दों के प्रति दूर-दूर तक जागरूकता फैलाई।

सुंदरलाल बहुगुणा जी भारत के कई हिस्सों और यहां तक कि विदेशों में भी वन संरक्षण और पर्यावरण संघर्ष के एक प्रेरणा स्रोत बन कर उभरे। जैसे, पश्चिमी घाट क्षेत्र के वनों को बचाने के लिए छेड़े गए अप्पिको आंदोलन के वे एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत थे। उन्हें महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में आमंत्रित किया गया और पर्यावरणीय मुद्दों पर व्यापक तौर पर उनकी राय ली गई। उन्हें पद्मविभूषण सहित कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा गया।

अपनी आजीविका के लिए उन्होंने आजीवन हिंदी और अंग्रेज़ी में अंशकालिक पत्रकार और लेखक के रूप में काम किया। उनके साक्षात्कारों के अलावा उनके लेख और रिपोर्ट कई प्रमुख समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। विमला जी ने मुझे बताया कि उनके पूर्व में प्रकाशित लेखन के कम से कम दो संग्रह छपकर आने वाले हैं।

उन्होंने भूदान आंदोलन और हिमालयी क्षेत्र में टिकाऊ आजीविका और पर्यावरण संरक्षण के संयोजन के साथ एक वैकल्पिक विकास रणनीति विकसित करने जैसे कई रचनात्मक कार्यों में योगदान दिया।

उन्होंने अपने जीवन के आखिरी दिन देहरादून में अपनी बेटी के घर बिताए। पिछले वर्ष जब मैंने सुंदरलाल जी और विमला जी की जीवनी लिखी, और अपनी पत्नी मधु के साथ उन्हें यह पुस्तक भेंट करने के लिए देहरादून गया तो वे कमज़ोर होने के बावजूद बातचीत करने के लिए बड़े उत्सुक और खुश थे। उनकी बेटी माधुरी और विमला जी द्वारा उनकी बहुत देखभाल की जा रही थी।

यहां यह भी याद रखना महत्वपूर्ण होगा कि सत्तर सालों के साथ के दौरान उनकी पत्नी विमला जी ने उनके सभी प्रयासों में साथ और योगदान दिया। वे सभी संघर्षों, बाधाओं और उपलब्धियों में हमेशा साथ रहे। वे अपने पीछे विमला जी और एक बेटी माधुरी और दो बेटे राजीव और प्रदीप छोड़ गए हैं। पर्यावरण संरक्षण और लोगों की टिकाऊ आजीविका के लिए काम करते रहना ही उनके लिए हमारी सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्रटज़ेन: ओज़ोन ह्रास की जागरूकता के प्रणेता

त 28 जनवरी को पॉल जे. क्रटज़ेन ने 87 वर्ष की आयु में इस दुनिया से रुखसती ले ली। क्रटज़ेन ने ही हमें इस बात से अवगत कराया था कि वायुमंडल में मौजूद प्रदूषक पृथ्वी की ओज़ोन परत को क्षति पहुंचाते हैं। इस काम के लिए उन्हें 1995 में दो अन्य शोधकर्ताओं के साथ रसायन विज्ञान के नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। पृथ्वी पर जैविक, रासायनिक और भूगर्भीय गतिविधियों पर मनुष्य के वर्चस्व के मद्देनज़र इस युग के लिए उन्होंने एक नया शब्द ‘एंथ्रोपोसीन’ गढ़ा था। ।

वर्ष 2000 में मेक्सिको में हुए एक सम्मेलन में क्रटज़ेन ने सबसे पहले एंथ्रोपोसीन शब्द का उपयोग किया था और बताया था कि हम ‘एंथ्रोपोसीन युग’ में रह रहे हैं। इस शब्द को तुरंत ही लोगों ने अपना लिया, और इस शब्द ने कई विषयों में बहस छेड़ दी।

पृथ्वी पर एंथ्रोपोसीन युग (या मानव वर्चस्व का युग) की शुरुआत बीसवीं सदी के मध्य से मानी जाती है, जब से मनुष्यों ने पृथ्वी पर मौजूद संसाधनों का अंधाधुंध दोहन शुरू किया। इस विचार के ज़रिए क्रटज़ेन ने पृथ्वी की जलवायु परिवर्तन की स्थिति और पर्यावरणीय दबावों पर अपनी चिंता जताई थी।

क्रटज़ेन का जन्म 1933 में एम्स्टर्डम में हुआ था। सिविल इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल करने के बाद 1960 के दशक में उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्रामर के रूप में काम करते हुए स्टॉकहोम विश्वविद्यालय से मौसम विज्ञान का अध्ययन किया। स्नातक शिक्षा के दौरान उन्होंने अपने प्रोग्रामिंग और वैज्ञानिक कौशल दोनों का उपयोग कर समताप मंडल का एक कंप्यूटर मॉडल बनाया था। वायुमंडल में विभिन्न ऊंचाइयों पर ओज़ोन के वितरण समझाते हुए उन्होंने पाया कि नाइट्रोजन के ऑक्साइड्स ओज़ोन को क्षति पहुंचाने वाली अभिक्रियाओं में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते हैं। 1970 के दशक की शुरुआत में जब सुपरसोनिक विमानों द्वारा उत्सर्जित नाइट्रोजन ऑक्साइड्स के स्तर पर चर्चा शुरू हुई, तब क्रटज़ेन ने पाया कि मानवजनित उत्सर्जन समताप मंडल में मौजूद ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचाता है। उसी समय दो अन्य शोधकर्ता मारियो जे. मोलिना और एफ. शेरवुड रॉलैंड ने पाया था कि प्रणोदक, विलायकों और रेफ्रिजरेंट के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले क्लोरीन युक्त यौगिक भी ओज़ोन परत के ह्रास में योगदान देते हैं। 1985 में वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिक के ऊपर ओज़ोन परत में एक ‘सुराख’ पाया था।

क्रटज़ेन 1970-1980 के दशक में ओज़ोन ह्रास पर होने वाली सार्वजनिक बहसों में काफी सक्रिय रहे। 1980 में उन्होंने जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री में निदेशक का पदभार संभाला। वे पृथ्वी के वायुमंडल की सुरक्षा के लिए निवारक उपायों को ध्यान में रखकर गठित एक जर्मन संसदीय आयोग के सदस्य भी थे। इस आयोग द्वारा वर्ष 1989 में प्रकाशित रिपोर्ट ने वातावरण और जलवायु नीतियों का प्रारूप बनाने को दिशा दी। क्रटज़ेन ने 1987 में मॉन्ट्रियल संधि की नींव रखने में मदद की, जिसके तहत हस्ताक्षरकर्ता देश ओज़ोन-क्षयकारी पदार्थों के इस्तेमाल को धीरे-धारे कम करते हुए खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। इस संधि के तहत हानिकारक क्लोरीन यौगिकों पर प्रतिबंध लगा, सुपरसोनिक विमान सीमित हुए। नतीजतन, ओज़ोन परत में अब कुछ सुधार दिखाई दे रहे हैं।

नाभिकीय जाड़े के बारे में सर्वप्रथम आगाह करने वाले क्रटज़ेन ही थे। 1970 के दशक में वे कोलोरेडो स्थित नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक रिसर्च के लिए काम कर रहे थे, तभी उन्होंने यूएस नेशनल ओशेनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के साथ मिलकर समताप मंडलीय अनुसंधान कार्यक्रम की शुरुआत की थी। इसी समय उनकी रुचि निचले वायुमंडल (क्षोभमंडल) और जलवायु परिवर्तन के रसायन विज्ञान को जानने में बनी, और उन्होंने तब वायु प्रदूषण के स्रोतों की पड़ताल की। उन्होंने पाया कि अधिकतर ऊष्णकबंधीय इलाकों में वायु प्रदूषण का स्रोत कृषि और वनों की कटाई से निकलने वाले बायोमास का अत्यधिक उपयोग है। और उन्होंने बताया कि क्षोभमंडल में इस अत्यधिक प्रदूषण का प्रभाव ऊष्णकटिबंधीय इलाकों और दक्षिणी गोलार्ध में अधिक दिखता है, जहां अन्य मानवजनित प्रदूषण (जैसे जीवाश्म र्इंधन का उपयोग) उत्तरी औद्योगिक देशों की तुलना में कम था।

इसने क्रटज़ेन को आग के तूफानों का अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया, जो नाभिकीय युद्ध के कारण शुरू हो सकते हैं। ऐसी आग से निकलने वाले धुएं में उपस्थित कार्बन-कण सूर्य के प्रकाश से ऊष्मा अवशोषित करते हैं, और धुएं को ऊपर उठाते हैं। इस तरह यह धुंआ पृथ्वी के ऊपर लंबे समय तक बना रहेगा और पृथ्वी की सतह को ठंडा करेगा। 1982 में उन्होंने जॉन बर्क के साथ लिखे एक लेख ‘ट्वाइलाइट एट नून’ (दोपहर में धुंधलका) में नाभिकीय शीतकाल के बारे में चेताया था। इसी से प्रेरित होकर सोवियत संघ के प्रमुख मिखेल गोर्बाचेव ने 1987 में अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के साथ परमाणु हथियार-नियंत्रण समझौते पर हस्ताक्षर किए थे।

वर्ष 2000 में औपचारिक सेवानिवृत्ति के बाद क्रटज़ेन ने अपना काम जारी रखा। 2006 में उन्होंने जिओइंजीनियरिंग में अनुसंधान का आव्हान किया; उनका कहना था कि यदि उत्सर्जन थामने के प्रयास असफल रहे तो यही एकमात्र विकल्प बचेगा। ऐसे एक विकल्प पर विचार हुआ था: सल्फर डाइऑक्साइड को समताप मंडल में छोड़ा जाए, जो वहां सल्फेट में परिवर्तित हो जाएगी। ये सल्फेट कण पृथ्वी को सूरज से बचाएंगे और ग्रीनहाउस प्रभाव का मुकाबला करेंगे। क्रटज़ेन इस विचार के समर्थक नहीं थे, लेकिन वे इस तरह के प्रयोग करके देखना चाहते थे। आज, कुछ लोग इस विचार पर काम कर रहे हैं, तो कुछ अन्य इसे उत्सर्जन पर नियंत्रण की दिशा से भटकाव मानते हैं।

क्रटज़ेन एक रचनात्मक वैज्ञानिक और जोशीले व्यक्ति थे। कई वैज्ञानिक और सार्वजनिक बहसों में मानवजनित चुनौतियों को वे सामने लाए। कोविड-19 महामारी भी एंथ्रोपोसीन-जनित है। क्रटज़ेन की अपेक्षा होती कि हम विज्ञान, समाज और पृथ्वी को लेकर ज़्यादा ज़िम्मेदारी से काम करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।