सूक्ष्मजीव को ब्रेड बनाने के लिए पालतू बनाया था

ब भी मनुष्यों द्वारा पालतूकरण की बात होती है तो अक्सर पहला ख्याल गाय, कुत्तों या कुछ ऐसे ही अन्य जानवरों का आता है, खमीर यानी यीस्ट का नहीं। हाल ही में करंट बायोलॉजी में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि मनुष्यों ने यीस्ट (एक तरह की फफूंद) के विकास में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। ब्रेड बनाने में उपयोग की जाने वाली यीस्ट, सेक्रोमाइसेस सेरेविसे, पर मनुष्यों का चयनात्मक दबाव रहा। इसके फलस्वरूप इसका विकास दो भिन्न समूहों में हुआ – एक तरह के यीस्ट का उपयोग उद्योगों में बड़े पैमाने पर ब्रेड बनाने में किया जाता है और दूसरे तरह की यीस्ट का उपयोग पारंपरिक खमीरी ब्रेड बनाने में किया जाता है। उद्योगों में उपयोग किया जाने वाला यीस्ट जहां किण्वन की प्रक्रिया बहुत तेज़ी से करता है वहीं पांरपरिक खमीरी ब्रेड में प्रयुक्त यीस्ट में माल्टोज़ के चयापचय के लिए ज़िम्मेदार जीन की प्रतियां अधिक होती हैं – माल्टोज़ के चयापचय की प्रक्रिया किण्वन के बाद होती है जो आटे को ‘उठाने’ में मदद करती है।

फ्रेंच नेशनल रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर की वैकासिक आनुवंशिकीविद डेल्फीन सिकार्ड बताती हैं कि सदियों से सभी जगह ब्रेड बनाई और उपयोग की जाती रही है। लेकिन अब यीस्ट स्टार्टर (खमीर उठाने वाला घोल या सूखा खमीर) का बड़े पैमाने पर उद्योगों में उत्पादन किया जाना लगा है। सिकार्ड की टीम समझना चाहती थी कि इस बदलाव ने यीस्ट के विकास को किस तरह प्रभावित किया।

शोधकर्ताओं ने फ्रांस, बेल्जियम और इटली से खमीरी ब्रेड बनाने के लिए घरेलू स्तर पर उपयोग किए जाने वाले यीस्ट के 198 संस्करण, और स्टार्टर किट या अंतर्राष्ट्रीय यीस्ट संग्रह से औद्योगिक यीस्ट के 31 संस्करण प्राप्त किए। प्रत्येक नमूने में फ्लो साइटोमेट्री का उपयोग कर यीस्ट कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या पता की, और माइक्रोसेटेलाइट मार्कर विश्लेषण का उपयोग करके गुणसूत्र समूह की संख्या के आधार पर उनकी आनुवंशिक विविधता जांची। इसके बाद शोधकर्ताओं ने हाल ही में अनुक्रमित किए गए बेकरी यीस्ट के 17 संस्करण और अन्य एस. सेरेविसे यीस्ट के 1011 संस्करण का विश्लेषण किया। फिर इसका एक वंश वृक्ष (फाइलोजेनेटिक ट्री) तैयार किया और इस पर यीस्ट में गुणसूत्रों की प्रतियों की संख्या में विविधता दर्शाई।

उन्होंने पाया कि खमीरी ब्रेड के यीस्ट में उन जीन्स की प्रतियां काफी अधिक संख्या में थीं, जो उन प्रोटीन्स का कोड हैं जो माल्टोज़ और आइसोमाल्टोज़ शर्करा को तोड़ने वाले एंज़ाइम्स (माल्टेज़ और आइसोमाल्टेज़) का परिवहन करते हैं और उनका नियमन करते हैं। इनमें ये एंज़ाइम भी ज़्यादा मात्रा में मिले। वैसे तो जीन की प्रतियों की संख्या में घट-बढ़ कोशिकाओं के लिए हानिकारक हो सकती है, लेकिन शोधकर्ता बताते हैं कि संख्या में यह घट-बढ़ सख्त चयन के दबाव में त्वरित अनुकूलन में मदद कर सकती है। जैसे, उच्च-माल्टोज़ और आइसोमाल्टोज़ युक्त आटे (या मैदे) के विषाक्त पर्यावरण में तेज़ी से वृद्धि करने में।

शोधकर्ताओं ने पाया कि खमीरी ब्रेड के आटे जैसे कृत्रिम परिवेश (जिसमें कार्बन रुाोत के रूप में सिर्फ माल्टोज़ था) में उपरोक्त जीन्स की कम प्रतियों वाले यीस्ट की तुलना में अधिक प्रतियों वाले यीस्ट किण्वन के अंत में अधिक संख्या में मौजूद थे। चाहे मनुष्यों के चयन के कारण हो या यीस्ट के अनुकूलन के कारण, परिणाम यह रहा है कि अधिक प्रतियों वाले यीस्ट से खमीरी ब्रेड अच्छी बनने लगी।

इसी दौरान औद्योगिक बेकर्स ने उन यीस्ट को चुना जो अधिक तेज़ी से किण्वन करते थे। अध्ययन में खमीरी ब्रेड के यीस्ट की तुलना में औद्योगिक यीस्ट को एक ग्राम कार्बन डाईऑक्साइड बनाने में औसतन आधा घंटा कम लगा। औद्योगिक यीस्ट अधिक जटिल और देरी से टूटने वाली शर्करा माल्टोज़ और आइसोमाल्टोज़ की जगह ग्लूकोज़ के किण्वन को प्राथमिकता देते हैं।

चूंकि खमीरी यीस्ट स्टार्टर में अन्य सूक्ष्मजीव, जैसे लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और अन्य यीस्ट, भी होते हैं जो एस. सेरिविसे के सहायक होते हैं इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि एस. सेरेविसे के पालतूकरण में अन्य सूक्ष्मजीवों की क्या भूमिका है?

लेकिन सवाल है कि क्या यह वास्तव में यीस्ट का पालतूकरण है, या हमने प्रकृति में विद्यमान विविधता का फायदा लिया है, या यीस्ट हमारे दिए अनुकूल वातावरण में अच्छे से फल-फूल गया? औद्योगिक यीस्ट के त्वरित किण्वन के प्रमाण बताते हैं कि सभी जगह पाया जाने वाला एस. सेरेविसे किसी पेड़ की छाल, मिट्टी या अन्य माहौल में इस तरह नहीं पनपता जिस तरह यह इन परिस्थितियों में पनप सका।

सिकार्ड चिंता जताती हैं कि उद्योगों में ब्रेड बनाए जाने से यीस्ट की विविधता कम हो सकती है। लेकिन पिछले एक दशक, खासकर कोविड-19 महामारी के दौर में घर में ब्रेड बनाने का चलन बढ़ा है, तो उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में हम इस विविधता को बनाए रख सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घुड़दौड़ जीतने का गणित

घुड़दौड़ काफी लोकप्रिय खेल है और इसमें पैसा भी खूब लगता है। रेस जीतने के लिए घुड़सवार (जॉकी) और प्रशिक्षक घोड़े की पिछली दौड़ों के डैटा, घोड़ों के दौड़ने की क्षमता, वर्षों के अनुभव और अपने एहसास पर निर्भर करते हैं। लेकिन हाल ही में पेरिस के स्कूल फॉर एडवांस्ड स्टडीज़ ऑफ सोशल साइंसेज की गणितज्ञ एमैंडाइन एफ्टेलियन ने घुड़दौड़ के लिए घोड़ों द्वारा खर्च की गई ऊर्जा का गणितीय मॉडल तैयार किया है। मॉडल के अनुसार छोटी दूरी की दौड़ जीतने के लिए शुरुआत तो तेज़ रफ्तार के साथ करनी चाहिए लेकिन आखिर में तेज़ दौड़ने के लिए ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिए। उनका कहना है कि इस मॉडल की मदद से विभिन्न घोड़ों की क्षमता के मुताबिक उनके दौड़ने की रफ्तार बनाए रखने की रणनीति बनाई जा सकती है।

एफ्टेलियन 2013 से मनुष्यों की रेस के विश्व चैंपियन धावकों के प्रदर्शन का विश्लेषण कर रही थीं। उन्होंने देखा कि कम दूरी की दौड़ों में धावक तब जीतते हैं जब वे दौड़ की शुरुआत तेज़ रफ्तार से करते हैं और फिनिश लाइन की ओर बढ़ते हुए धीरे-धीरे अपनी रफ्तार कम करते जाते हैं। लेकिन मध्यम दूरी की दौड़ में धावक तब बेहतर प्रदर्शन करते हैं जब वे शुरुआत तेज़ रफ्तार से करते हैं, फिर स्थिर रफ्तार से दौड़ते हुए फिनिश लाइन की ओर बढ़ते हैं और फिनिश लाइन के करीब बहुत तेज़ दौड़ते हैं।

उन्होंने अपने मॉडल में दर्शाया था कि किस तरह जीतने की इन दो रणनीतियों में दो अलग-अलग तरीकों से मांसपेशियों को अधिकतम ऊर्जा मिलती हैं। पहली विधि एरोबिक है, जिसमें ऑक्सीजन की ज़रूरत होती है और दौड़ के दौरान ऑक्सीजन की आपूर्ति सीमित हो सकती है। दूसरी एनएरोबिक विधि है, जिसमें ऑक्सीजन की ज़रूरत तो नहीं होती लेकिन इस तरीके में ऐसे अपशिष्ट बनते हैं जिनसे थकान पैदा होती है।

एफ्टेलियन देखना चाहती थीं कि इनमें से कौन सी रणनीति घोड़ों के लिए बेहतर होगी। इसके लिए उनकी टीम ने फ्रेंच रेस के घोड़ों की काठियों (जीन) में लगे जीपीएस ट्रैकिंग डिवाइस से घोड़ों की वास्तविक गति और स्थिति का डैटा लिया और दर्जनों रेस के पैटर्न का अध्ययन किया। उन्होंने तीन तरह की दौड़ – 1300 मीटर की छोटी दौड़, 1900 मीटर की मध्यम दूरी दौड़, और 2100 मीटर की लंबी दौड़ – के लिए अलग-अलग मॉडल विकसित किए। मॉडल्स में दौड़ की अलग-अलग दूरियों के अलावा ट्रैक के घुमाव और उतार-चढ़ाव का भी ध्यान रखा।

प्लॉस वन में प्रकाशित परिणाम उन जॉकी को चकित कर सकते हैं जो आखिर में तेज़ दौड़कर रेस जीतने के लिए शुरुआत में घोड़े की रफ्तार पर काबू रखते हैं। मॉडल के अनुसार दौड़ की बेहतर शुरुआत बेहतर अंत देती है। लेकिन शुरू में बहुत तेज़ रफ्तार से अंत तक घोड़े निढाल भी हो सकते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि जीत का मामला, प्रशिक्षक और जॉकी या घोड़ों की कद-काठी और एरोबिक क्षमता भर का नहीं है। घोड़ों का व्यवहार भी महत्वपूर्ण है। जब तक घोड़े के मनोवैज्ञानिक व्यवहार को मॉडलों में शामिल नहीं किया जाएगा, मॉडल सही प्रदर्शन नहीं कर पाएंगे।

और सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या वास्तव में इन मॉडल्स की ज़रूरत है? घुड़दौड़ का असली मज़ा तो उसकी अनिश्चितता में ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शोध में लिंग और जेंडर को शामिल करने का संघर्ष

सुरक्षित दवाएं, उत्पाद और यहां तक कि पर्यावरण में उथल-पुथल उन शोधों का परिणाम हैं जिनमें सेक्स और जेंडर को शामिल नहीं किया गया था। इसी के मद्देनज़र युरोपीय आयोग, उसके द्वारा होराइज़न युरोप नामक कार्यक्रम के तहत वित्तपोषित समस्त अनुसंधान के लिए, साल 2021 से सेक्स और जेंडर विश्लेषण अनिवार्य कर देगा। अनुसंधान कार्यक्रमों से उम्मीद होगी कि वे अध्ययन की रूपरेखा तैयार करने से लेकर डैटा संग्रह और विश्लेषण तक के हर चरण में इन कारकों को ध्यान में रखें। यह नीति विशुद्ध गणित जैसे विषयों के अलावा सभी विषयों पर लागू होगी।

स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी की लोन्डा शीबिंजर की अध्यक्षता में 25 सदस्यीय समिति द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट शोधकर्ताओं का मार्गदर्शन करती है कि आर्थिक प्रबंधन से लेकर कृषि अनुसंधान तक सभी विषयों में इन कारकों को किस तरह शामिल किया जा सकता है। शीबिंजर बताती है कि सेक्स और जेंडर कारकों को शोध में ना शामिल होने के कारण हुई विफलताओं के परिणाम हमारे सामने हैं। जैसे, 1997 से 2001 के बीच अमरीकी बाज़ार से लगभग 10 दवाओं को वापस लिया गया था, जिनमें से आठ दवाएं पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए अधिक हानिकारक थीं। जब दवाएं नाकाम होती हैं तो धन की बरबादी के अलावा लोग पीड़ा झेलते है और जान तक गंवा देते हैं। इसलिए, शिबिंजर को लगता है कि कोशिका और जानवरों पर होने वाले परीक्षणों से लेकर मनुष्यों पर होने वाले क्लीनिकल परीक्षण तक, सभी में पुरुषों और महिलाओं का डैटा अलग-अलग लेना चाहिए और उनका अलग-अलग विश्लेषण करना चाहिए। शोध में उम्र और आनुवंशिक वंशावली देखना भी महत्वपूर्ण है, और गर्भवती महिलाओं पर असर को भी अलग से देखने की ज़रूरत है।

और उनके मुताबिक यह सिर्फ महिलाओं की बात नहीं है – इसका सम्बंध शोध के सही होने से भी है। उदाहरण के लिए, ऑस्टियोपोरोसिस (अस्थि-छिद्रता) की समस्या को अक्सर रजोनिवृत्त (मीनोपॉज़) होती महिलाओं की समस्या के रूप में देखा जाता है और पुरुष उपेक्षित रह जाते हैं।

शोध में इन कारकों को अपनाने में देरी को लेकर वे कहती हैं कि जागरूकता तो धीरे-धीरे बढ़ रही है लेकिन अधिकतर शोधकर्ता इस तरह का विश्लेषण करना अच्छी तरह नहीं जानते। इस सम्बंध में उनकी पहली रिपोर्ट 2013 में आई थी और अब यह दूसरी रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट का ज़ोर ना सिर्फ सेक्स और जेंडर पर है बल्कि उम्र, भौगोलिक स्थिति और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के प्रभाव भी शामिल किए गए हैं। दूसरा, जेंडर को सिर्फ स्त्री और पुरुष के रूप में न देखकर जेंडर-विविधता के पूरे परास को ध्यान में रखा गया है।

उनका कहना है कि शोधकर्ता इन विश्लेषणों में कई गलतियां करते हैं। सबसे बड़ी गलती तो यही है कि वे सेक्स, जेंडर और तबकों के आपसी सम्बंधों को अनदेखा करते हैं। दूसरी आम गलती यह है कि शोधकर्ता जन्मजात लिंग और सामाजिक जेंडर के बीच अंतर नहीं करते। यह समझना ज़रूरी है कि जेंडर पर जातीयता, आयु और संस्कृति का असर होता है। शोध में सही परिवर्ती चुनने, सही ढंग से डैटा जुटाने और अच्छी तरह विश्लेषण करना ज़रूरी है।

शीबिंजर का कहना है कि कुछ समकक्ष-समीक्षित पत्रिकाओं में सेक्स और जेंडर विश्लेषण की नीतियां हैं। लेकिन इंजीनियरिंग के जर्नलों में भी इस तरह की नीतियां होना चाहिए। एक बड़ी समस्या यह है कि विज्ञान और इंजीनियरिंग, और यहां तक कि चिकित्सा की कक्षाओं में भी इस तरह के विश्लेषण नहीं सिखाए जाते। इंजीनियरिंग में इस बात पर विचार ही नहीं किया जाता कि वृद्ध लोगों, खासकर महिलाओं की कमज़ोर हड्डियों के अध्ययन के लिए ‘क्रैश-टेस्ट डमी’ (मानव डमी) बनाई जाएं।

वैसे कुछ सकारात्मक उदाहरण भी सामने आए हैं। जैसे हारवर्ड विश्वविद्यालय और स्टैनफोर्ड में अब कंप्यूटर विज्ञान में एक कोर्स पढ़ाया जा रहा है। इसमें छात्रों को एल्गोरिद्म के साथ-साथ सामाजिक मुद्दों और परिणामों के बारे में सोचने के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है। जैसे, कोर्स में इस बात पर चर्चा की जाती है कि किसी एक समूह के लोगों को नज़रअंदाज़ करने पर कृत्रिम बुद्धि क्या और कितनी समस्याएं पैदा कर सकती है।

वर्तमान संदर्भ में वे बताती हैं कि कोरोनावायरस महामारी में लिंग और जेंडर के प्रभाव का विश्लेषण करना बहुत ज़रूरी है। कोविड-19 की एक केस स्टडी में उन्होंने पाया था कि वायरस के प्रति अलग-अलग लिंग के लोगों की प्रतिक्रिया में अंतर था, लेकिन इसमें जेंडर भी बहुत महत्वपूर्ण है। जैसा कि दिख रहा है, कोविड-19 से पुरुष अधिक मर रहे हैं, और ऐसा जेंडर सम्बंधी कायदों और व्यवहार के कारण है। उदाहरण के लिए, अधिक पुरुष धूम्रपान करते हैं और सामान्यत: हाथ कम धोते हैं। दूसरी ओर, स्वास्थ्य कार्यकर्ता अधिकतर महिलाएं होती हैं, वे वायरस के संपर्क में अधिक आ सकती हैं।

उन्होंने कुछ ऐसे अनुसंधान विषयों के बारे में भी बताया है जिनके बारे में जानकर लोगों को शायद आश्चर्य होगा कि इनमें भी सेक्स और जेंडर का विश्लेषण आवश्यक है? ये विषय सीधे-सीधे मनुष्यों से सम्बंध नहीं रखते। जैसे कुछ समुद्री जीवों का लिंग विश्लेषण करना बहुत महत्वपूर्ण है। कुछ जीवों में लिंग निर्धारण तापमान से होता है। यदि नर-मादा के अनुपात या उभयलिंगी में बहुत अंतर आएगा तो ये जीव विलुप्त हो जाएंगे। जैसे, एक अध्ययन में देखा गया कि ग्रेट बैरियर रीफ के उत्तरी भाग में 99 प्रतिशत कछुए मादा थे, जबकि अपेक्षाकृत ठंडे दक्षिणी भाग में सिर्फ 67 प्रतिशत कछुए मादा थे। इसलिए यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि वैश्विक तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) किस तरह से लिंग अनुपात को बदल रही है, ताकि हम पारिस्थितिक तंत्रों का बेहतर प्रबंधन कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

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महिलाएं भी शिकार करती थीं!

कुछ समय पहले दक्षिणी पेरू में 3925 मीटर की ऊंचाई पर स्थित विल्माया पटजक्सा नामक पुरातात्विक स्थल पर युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के रैन्डी हास और उनके साथियों को छ: कब्रगाहों में लगभग 9000 साल पुराने मानव अवशेष मिले थे। इनमें से दो कब्रों में पत्थर के औज़ार मिले थे जो शिकार में उपयोग किए जाते थे। लेकिन इनमें से भी एक कब्र काफी दिलचस्प थी; इसमें पत्थर के 20 फेंककर इस्तेमाल करने वाले औज़ार और ब्लेड शव की जांघ के ऊपरी हिस्से के पास करीने से रखे हुए थे। ऐसा लगता था जैसे ये कमर पर किसी पाउच में रखे गए हैं। औज़ारों को देखकर लगता था कि शव किसी प्रमुख शिकारी का होगा। और मान लिया गया कि वह पुरुष ही रहा होगा।

लेकिन एरिज़ोना विश्वविद्यालय के जैव-पुरातत्वविद् जिम वाटसन ने गौर किया कि हड्डियां पतली और हल्की हैं, इस आधार पर उनका अनुमान था यह कोई महिला होगी। और अब हाल ही में हुआ अध्ययन इस अनुमान की पुष्टि करता है कि वास्तव में यह शव महिला का ही है।

अब तक यह माना जाता रहा है कि प्राचीन शिकारी-संग्रहकर्ता समूहों में शिकार का काम पुरुष किया करते थे और महिलाएं संग्रह किया करती थीं। और शायद ही कभी उनकी इस लैंगिक भूमिका में अदला-बदली हुई होगी। वर्तमान में मौजूद शिकारी-संग्रहकर्ता समूहों पर हुए अध्ययनों ने इस मान्यता को और भी पुख्ता किया था; जैसे वर्तमान तंजानिया के हदजा समूह और दक्षिणी अफ्रीका के सैन समूहों में पुरुष बड़े जानवरों का शिकार करते हैं और महिलाएं कंद, फल, मेवे और बीज इकट्ठा करती हैं। लेकिन साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन इस मान्यता को चुनौती देता और बताता है कि हमेशा से महिलाएं शिकार में सक्षम थीं और वास्तव में करती भी थीं।

प्राप्त कंकालों के लिंग निर्धारण के लिए शोधकर्ताओं ने एक नई विधि का उपयोग किया। उन्होंने पता लगाया कि दांत के एनेमल में एमिलोजेनिन नामक प्रोटीन का नर संस्करण मौजूद है या मादा। पाया गया कि 20 औज़ारों के साथ दफन शव महिला का था जिसकी उम्र 17-19 वर्ष के बीच होगी, औज़ारों के साथ मिली दूसरी कब्र पुरुष की थी जिसकी उम्र 25-35 वर्ष के बीच होगी। महिला कंकाल के दांतों में कार्बन और नाइट्रोजन के समस्थानिकों के अध्ययन से पता चला कि उसका आहार विशिष्ट शिकारी आहार था।

इन नतीजों से प्रेरित होकर शोधकर्ताओं ने अमेरिका के अन्य 107 पुरातात्विक स्थलों की 14,000 से 8000 वर्ष पुरानी 429 कब्रों की पुन: जांच की। शिकार करने वाले औज़ारों के साथ 10 महिलाओं और 16 पुरुषों की कब्र मिलीं। यह मेटा-विश्लेषण बताता है कि शुरुआत में शिकारी होने का आधार लैंगिक नहीं था।

लेकिन कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि किसी व्यक्ति की कब्र में औज़ारों के मिलने का हमेशा यह मतलब नहीं होता कि वे उनका उपयोग भी करते होंगे, जैसे दो मादा शिशुओं की कब्र में भी औज़ार पाए गए थे। हो सकता है कि नर शिकारी अपना दुख व्यक्त करने के लिए औज़ार समर्पित करते हों।

बहरहाल, यह शोध जेंडर भूमिकाओं सम्बंधी विमर्श में नया आयाम तो जोड़ता ही है।(स्रोत फीचर्स)

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संपूर्ण लॉकडाउन के विकल्प

दुनिया भर के कई देश/शहर कोरोनावायरस की दूसरी लहर और एक के बाद एक लगते जा रहे दोबारा लॉकडाउन से गुज़र रहे हैं। संभवत: यह महामारी आने वाले कुछ महीनों या सालों तक बनी रहने वाली है। ऐसे में आर्थिक, सामाजिक और मनौवैज्ञानिक क्षति पहुंचाने वाली संपूर्ण तालाबंदी की बजाय अन्य प्रभावी और स्थायी विकल्प तलाशने की ज़रूरत है।

इस डिजिटल युग में दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा डैटा कोविड-19 के प्रसार को रोकने में मदद कर सकता है। विभिन्न स्रोतों से जुटाए गए डैटा की मदद से कोविड-19 के ‘सुपरस्प्रेडर स्थानों’ को पहचाना जा सकता है ताकि हम पूरे शहर या देश में तालाबंदी करने की बजाय, तालाबंदी की अन्य निभने योग्य रणनीति बना सकें या सिर्फ उन स्थानों की तालाबंदी करें जहां से कोविड-19 के फैलने की संभावना अधिक है।

लोगों की तरह कुछ स्थान भी अधिक संक्रमण फैलाने वाले ‘सुपरस्प्रेडर्स स्थान’ हो सकते हैं। शहरों में लगातार कुछ ना कुछ गतिविधि होती रहती है। जैसे शहरों से होकर लोग गुज़रते हैं, आते-जाते हैं, मिलते हैं। इसलिए शहर मानव संपर्क और बीमारी फैलाने के केंद्र होते हैं। छोटी-बड़ी हर तरह की बीमारी को फैलने से रोकने के प्रबंधन के लिए शहरों में लोगों की सामूहिक गतिविधियों की रूपरेखा और शहरों में लोगों के आने-जाने और शहरों से गुज़रने के पैटर्न को पहचानना-समझना ज़रूरी है।

अच्छी बात यह कि इन सुपरस्प्रेडर स्थानों की पहचान के लिए हमारे पास मानव आवागमन का काफी डैटा है। हांगकांग, पेरिस और सिंगापुर जैसे शहरों में बेहतर शहरी और आवागमन योजना के लिए पहले से ही परिवहन डैटा का व्यवस्थित तरीके से विश्लेषण किया जाता रहा है। और अब राइड-शेयरिंग सेवाओं, इंटरनेट से जुड़े डिवाइसेस (जैसे स्मार्ट लैम्पपोस्ट और स्मार्ट फोन) पर ट्रैफिक ऐप, और स्थान को टैग करती हुई सोशल मीडिया पोस्ट से मानव आवागमन के पैटर्न, सामूहिक गतिविधि और महामारी वाली जगहों को चिंहित करने में मदद मिल सकती है।

फिर इस डैटा को कोविड-19 के प्रसार के ताज़ा आंकड़ों के आधार पर प्रोसेस किया जा सकता है। कोविड-19 के कुछ प्रभावी कारक भी पहचाने गए हैं। जैसे, खुली जगहों पर मेलजोल छोटे, बंद कमरों में मेलजोल की तुलना में कम जोखिम भरा है। मास्क पहनने और सामाजिक दूरी रखने की कारगरता से तो सभी सहमत हैं। बहरहाल कोविड-19 के प्रसार और मानव संपर्क की हमारी टूटी-फूटी समझ संक्रमण के फैलाव का विस्तृत नक्शा बनाने में हमारी प्रमुख चुनौती है।

इसलिए नए प्रमाण इकट्ठे किए जा रहे हैं ताकि संक्रमण की रोकथाम और नियंत्रण की योजनाएं बनाने, उन्हें परिष्कृत और सटीक करने के लिए स्थानीय सरकार और स्वास्थ्य विभागों के पास जानकारी उपलब्ध हो। इसके अलावा, शहरों की मानव गतिविधि और सामाजिक संपर्क वाले स्थानों को पहचानने वाले अनुसंधान कार्यों को बढ़ावा देने के लिए स्वस्थ वित्त-पोषण भी ज़रूरी है। शहरों को ऐसे स्रोत भी बनाने चाहिए जो मानव गतिविधि का डैटा जुटा सकें। इसके अलावा शहरों को, इस डैटा का सामाजिक हित के अनुसंधान में उपयोग करने के लिए कानूनी और तकनीकी व्यवस्था भी बनानी चाहिए।

मानव आवागमन और संपर्क के डैटा को कोविड-19 के डैटा के साथ जोड़कर सुपरस्प्रेडर स्थानों को पहचानकर नियंत्रित किया जा सकता है, और असुरक्षित लोगों के लिए बेहतर प्रबंधन किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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नमक से बढ़ जाती है मिठास!

ह काफी हैरत की बात है कि जब आप किसी मीठे खाद्य पदार्थ में नमक डालते हैं तो उसकी मिठास और बढ़ जाती है। और अब हाल ही में वैज्ञानिकों ने मिठास में इस वृद्धि का कारण खोज निकाला है।   

भोजन के स्वाद की पहचान हमारी जीभ की स्वाद-कलिकाओं में उपस्थित ग्राही कोशिकाओं से होती है। इनमें टी1आर समूह के ग्राही दोनों प्रकार के मीठे, प्राकृतिक या कृत्रिम शर्करा, के प्रति संवेदनशील होते हैं। शुरू में वैज्ञानिकों का मानना था कि टी1आर को निष्क्रिय कर दिया जाए तो मीठे के प्रति संवेदना खत्म हो जाएगी। लेकिन 2003 में देखा गया कि चूहों में टी1आर के जीन को ठप करने पर भी उनमें ग्लूकोज़ के प्रति संवेदना में कोई कमी नहीं आई। इस खोज से पता चला कि चूहों और संभवत: मनुष्यों में मिठास की संवेदना का कोई अन्य रास्ता भी है। 

इस मीठे रास्ते का पता लगाने के लिए टोकियो डेंटल जूनियर कॉलेज के कीको यासुमत्सु और उनके सहयोगियों ने सोडियम-ग्लूकोज़ कोट्रांसपोर्टर-1 (एसजीएलटी1) नामक प्रोटीन पर ध्यान दिया। एसजीएलटी1 शरीर के अन्य हिस्सों में ग्लूकोज़ के साथ काम करता है। गुर्दों और आंत में, एसजीएलटी1 ग्लूकोज़ को कोशिकाओं तक पहुंचाने के लिए सोडियम का उपयोग करता है। यह काफी दिलचस्प है कि यही प्रोटीन मीठे के प्रति संवेदनशील स्वाद-कोशिकाओं में भी पाया जाता है।  

इसके बाद शोधकर्ताओं ने स्वाद कोशिकाओं से जुड़ी तंत्रिकाओं की प्रक्रिया का पता लगाने के लिए ग्लूकोज़ और नमक के घोल को बेहोश टी1आर-युक्त चूहों की जीभ पर रगड़ा। यानी इस घोल में एसजीएलटी1 की क्रिया के लिए ज़रूरी सोडियम था। पता चला कि नमक की उपस्थिति होने से चूहों की तंत्रिकाओं ने अधिक तेज़ी से संकेत प्रेषित किए बजाय उन चूहों के जिनके टी1आर ग्राही ठप कर दिए गए थे और सिर्फ ग्लूकोज़ दिया गया था। गौरतलब है कि सामान्य चूहों ने भी चीनी-नमक को ज़्यादा तरजीह दी लेकिन ऐसा केवल ग्लूकोज़ के साथ ही हुआ, सैकरीन जैसी कृत्रिम मिठास के साथ नहीं।

यह भी पता चला है कि जो पदार्थ एसजीएलटी1 की क्रिया को बाधित करते हैं, वे टी1आर विहीन चूहों में ग्लूकोज़ संवेदना को खत्म कर देते हैं। इससे यह पता लगता है कि एसजीएलटी1 ग्लूकोज़ की छिपी हुई संवेदना का कारण हो सकता है। संभावना है कि इससे टी1आर विहीन चूहों में ग्लूकोज़ की संवेदना बनी रही और सामान्य चूहों में मीठे के प्रति संवेदना और बढ़ गई। एक्टा फिज़ियोलॉजिका में शोधकर्ताओं ने संभावना व्यक्त की है कि शायद यह निष्कर्ष मनुष्यों के लिए भी सही है।

शोधकर्ताओं ने मीठे के प्रति संवेदनशील तीन प्रकार की कोशिकाओं के बारे में बताया है। पहली दो या तो टी1आर या एसजीएलटी1 का उपयोग करती हैं जो शरीर को प्राकृतिक और कृत्रिम शर्करा में अंतर करने में मदद करते हैं। एक अंतिम प्रकार टी1आर और एसजीएलटी1 दोनों का उपयोग करती हैं और वसीय अम्ल तथा उमामी स्वादों को पकड़ती हैं। लगता है, इनकी सहायता से कैलोरी युक्त खाद्य पदार्थों का पता चलता है।(स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान प्रकाशन में सरनेम, उपनाम का अड़ंगा

पंजीकरण करना, फॉर्म भरना, ई-मेल अकांउट खोलना या अनुदान के लिए आवेदन करना, ये काम अधिकांश लोगों के लिए आसान हो सकते हैं, लेकिन कुछ लोगों के लिए नहीं।

इंडोनेशियाई लोगों की तरह दुनिया के कई समुदाय के लोगों का सिर्फ नाम होता है, उपनाम नहीं। लेकिन वेबसाइट के माध्यम से कोई भी फॉर्म भरते वक्त या आवेदन करते वक्त आवेदक के लिए उपनाम भरना ज़रूरी रखा जाता है, जब तक उपनाम ना लिखो तब तक फॉर्म सबमिट नहीं किया जाता। इन हालात में, फॉर्म में उपनाम की खानापूर्ति के लिए कई लोग दोबारा अपना नाम, ‘NA’ (लागू नहीं), ‘NULL’ (निरंक) या ऐसा ही कोई शब्द भर देते हैं।

अनुसंधान अनुदान पाने के लिए, फेलोशिप आवेदन के समय, स्नातक कार्यक्रमों में दाखिले के वक्त या किसी शोधपत्र के प्रकाशन में कई वैज्ञानिकों को भी इन्हीं स्थितियों का सामना करना पड़ता है। फार्म भरे जाने के बाद वैज्ञानिकों को संस्थानों और पत्रिका के संपादकों को ई-मेल लिखकर अपने नाम-उपनाम की इस स्थिति को स्पष्ट करना पड़ता है। लेकिन कभी वे स्पष्ट करना भूल जाते हैं तो उन्हें भेजे पत्र में उपनाम की जगह भी उनका नाम ही लिख दिया जाता है या ‘Dear NULL’ या ‘Dear NA’ से सम्बोधित किया जाता है। वह भी तब जब इन वैज्ञानिकों का आवेदन स्पैम मानकर डैटाबेस से विलोपित न कर दिया जाए।

इस मुश्किल की वजह से कई इंडोनेशियाई वैज्ञानिकों के कुछ ही शोधपत्र अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो पाए हैं या वे कुछ ही सम्मेलनों में शामिल हो पाते हैं। लेकिन वैज्ञानिक समुदाय अब तक इस मुद्दे से पूरी तरह से वाकिफ नहीं है। यह समस्या सिर्फ इंडोनेशियाई वैज्ञानिकों के साथ नहीं है बल्कि एशिया के कई वैज्ञानिक भी ऐसी मुश्किलों का सामना करते हैं। जैसे दक्षिण भारतीय लोग उपनाम के विकल्प के रूप में पिता का नाम लगाते हैं; जापानी, कोरियाई और चीनी वैज्ञानिकों का नाम नामुनासिब तरीके से छोटा कर दिया जाता है, जो भ्रम पैदा करता है।

इन अजीबो-गरीब सम्बोधनों से बचने के लिए कई इंडोनेशियाई वैज्ञानिक अपना पारिवारिक नाम (उपनाम) तय करने को मजबूर हो जाते हैं या कई एशियाई वैज्ञानिक पश्चिमी नामों को अपना लेते हैं। या ई-मेल अकाउंट खोलने जैसे कामों में परिवार के किसी सदस्य का नाम इस्तेमाल कर लेते हैं। लेकिन इस तरह वैज्ञानिकों के लिए सही नाम के साथ अपना वैज्ञानिक रिकॉर्ड बनाना मुश्किल है। लोग नकली उपनामों को असली मानकर दस्तावेज़ या प्रमाण पत्र में लिख देते हैं। जब तक वैज्ञानिक स्थिति स्पष्ट करते हैं तब तक दस्तावेज़ों पर वह नाम छप चुका होता है और उन्हें गलत नाम वाले दस्तावेज़ स्वीकार करने पड़ते हैं। जैसे-जैसे डिजिटल दुनिया हावी हो रही है और लिंक्डइन और रिसर्चगेट जैसी ऑनलाइन सेवाएं शक्तिशाली हो रही हैं, एकल नाम वाले वैज्ञानिक दौड़ में पिछड़ते जा रहे हैं।

अब ज़रूरत है कि विज्ञान संस्कृति संवेदी बने। लेखकों की पहचान के लिए नाम की बजाय ORCID (ओपन रिसर्चर एंड कॉन्ट्रीब्यूटर) कोड जैसी विशिष्ट पहचान प्रणाली हो; पुष्टिकरण ई-मेल में सरनेम का आग्रह न हो; और अकादमिक जगहों पर उपनाम देना अनिवार्य ना हो।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 से जुड़े मिथक

वैसे तो यहां जिन मिथकों की चर्चा की गई है, वे मूलत: संयुक्त राज्य अमेरिका के सोशल मीडिया पर किए गए शोध और अन्य जानकारियों पर आधारित हैं। लेकिन थोड़े अलग रूप में ये भारत के सोशल मीडिया में भी नज़र आ जाते हैं।

कोरोनावायरस महामारी के साथ-साथ विश्व एक और महामारी से लड़ रहा है जिसे ‘इंफोडेमिक’ का नाम दिया गया है। इस ‘सूचनामारी’ के चलते लोग रोग की गंभीरता को कम आंकते हैं और सुरक्षा के उपायों को अनदेखा करते हैं। यहां इस महामारी से सम्बंधित कुछ मिथकों पर चर्चा की गई है।

मिथक 1: नया कोरोनावायरस चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है

चूंकि इस वायरस का सबसे पहला संक्रमण चीन में हुआ था, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने बिना किसी सबूत के यह दावा कर दिया कि इसे चीन की प्रयोगशाला में तैयार किया गया है। हालांकि अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने इन सभी दावों को खारिज करते हुए कहा है कि न तो यह मानव निर्मित है और न ही आनुवंशिक फेरबदल से बना है। साइंटिफिक अमेरिकन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार चीनी वायरोलॉजिस्ट शी ज़ेंगली और उनकी टीम द्वारा इस वायरस के डीएनए अनुक्रम की तुलना गुफावासी चमगादड़ों में पाए जाने वाले कोरोनावायरसों से करने पर कोई समानता नज़र नहीं आई। इस वायरस के प्रयोगशाला में तैयार न किए जाने पर ज़ेंगली ने एक विस्तृत आलेख साइंस पत्रिका में प्रकाशित भी किया है। गौरतलब है कि ट्रम्प ने ज़ेंगली की प्रयोगशाला पर वायरस विकसित करने का इल्ज़ाम लगाया था। इस मुद्दे पर स्वतंत्र जांच की मांग को देखते हुए चीन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के शोधकर्ताओं को भी आमंत्रित किया है। लेकिन सबूत के आधार पर यही कहा जा सकता है कि सार्स-कोव-2 को प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया गया है।

मिथक 2: उच्च वर्ग के लोगों ने ताकत और मुनाफे के लिए वायरस को जानबूझकर फैलाया है

जूडी मिकोविट्स नामक एक महिला ने सोशल मीडिया पर 26 मिनट की षडयंत्र-सिद्धांत आधारित फिल्म ‘प्लानडेमिक’ और अपने ही द्वारा लिखित एक किताब में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शियस डिसीज़ के निर्देशक एंथोनी फौसी और माइक्रोसॉफ्ट के सह-संस्थापक बिल गेट्स पर इल्ज़ाम लगाया है कि उन्होंने इस बीमारी से फायदा उठाने के लिए अपनी ताकत का उपयोग किया है। यह वीडियो कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर 80 लाख से अधिक लोगों ने देखा।

साइंस और एक अन्य वेबसाइट politifact ने जांच करने के बाद इस दावे को झूठा पाया। हालांकि इस वीडियो को अब सोशल मीडिया से हटा लिया गया है लेकिन इससे स्पष्ट है कि गलत सूचनाएं बहुत तेज़ी से फैलती हैं।                          

मिथक 3: कोविड-19 सामान्य फ्लू के समान ही है

महामारी के शुरुआती दिनों से ही राष्ट्रपति ट्रम्प ने बार-बार दावा किया कि कोविड-19 मौसमी फ्लू से अधिक खतरनाक नहीं है। लेकिन 9 सितंबर को वाशिंगटन पोस्ट ने ट्रम्प के फरवरी और मार्च में लिए गए साक्षात्कार की एक रिकॉर्डिंग जारी की जिससे पता चलता है कि वे (ट्रम्प) जानते थे कि कोविड-19 सामान्य फ्लू से अधिक घातक है लेकिन इसकी गंभीरता को कम करके दिखाना चाहते थे।

हालांकि कोविड-19 की मृत्यु दर का सटीक आकलन तो मुश्किल है लेकिन महामारी विज्ञानियों का विचार है कि यह फ्लू की तुलना में कहीं अधिक है। फ्लू के मामले में टीकाकरण या पूर्व संक्रमण के कारण कई लोगों में कुछ प्रतिरोधक क्षमता तो है, जबकि अधिकांश विश्व ने अभी तक कोविड-19 का सामना ही नहीं किया है। ऐसे में कोरोनावायरस सामान्य फ्लू के समान तो नहीं है।

मिथक 4: मास्क पहनने की ज़रूरत नहीं है

हालांकि सीडीसी और डब्ल्यूएचओ द्वारा मास्क के उपयोग पर प्रारंभिक दिशानिर्देश थोड़े भ्रामक थे लेकिन अब सभी मानते हैं कि मास्क का उपयोग करने से कोरोनावायरस को फैलने से रोका जा सकता है। काफी समय से पता रहा है कि मास्क का उपयोग किसी संक्रमण को फैलने से रोकने में काफी प्रभावी है। अब तो यह भी स्पष्ट है कि कपड़े से बने मास्क भी कारगर हैं। फिर भी कई साक्ष्यों के बावजूद कुछ लोगों ने मास्क को नागरिक स्वतंत्रता का उल्लंघन बताते हुए पहनने से इन्कार कर दिया।

मिथक 5: हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन एक प्रभावी उपचार है

फ्रांस में किए गए एक छोटे अध्ययन के आधार पर सुझाव दिया गया कि मलेरिया की दवा हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उपयोग इस बीमारी के इलाज में प्रभावी हो सकता है। इसकी व्यापक आलोचना और इसके प्रभावी न होने के साक्ष्य के बावजूद ट्रम्प और अन्य लोगों ने इसे जारी रखा। फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने भी शुरुआत में अनुमति देने के बाद ह्रदय सम्बंधी समस्याओं के जोखिम के कारण इसे नामंज़ूर कर दिया। कई अध्ययनों से पर्याप्त साक्ष्य मिलने के बाद भी ट्रम्प ने इस दवा का प्रचार जारी रखा।

मिथक 6: ‘ब्लैक लाइव्ज़ मैटर’ प्रदर्शन के कारण संक्रमण में वृद्धि हुई है

अमेरिका में पुलिस द्वारा जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद मई-जून में अश्वेत अमरीकियों के विरुद्ध हिंसा के खिलाफ बड़े स्तर पर लोगों ने सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया। कई लोगों ने दावा किया कि इन प्रदर्शनों में भीड़ जमा होने से कोरोनावायरस के मामलों में वृद्धि हुई। लेकिन नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनोमिक रिसर्च द्वारा अमेरिका के 315 बड़े शहरों में हुए विरोध प्रदर्शनों के एक विश्लेषण से ऐसे कोई प्रमाण नहीं मिले हैं जिससे यह कहा जा सके कि इन प्रदर्शनों के कारण कोविड-19 मामलों में वृद्धि हुई है या अधिक मौतें हुई हैं। वास्तव में प्रदर्शन करने वाले लोगों में संचरण का जोखिम बहुत कम था और अधिकांश प्रदर्शनकारियों ने मास्क का उपयोग किया था।

मिथक 7: अधिक परीक्षण के कारण कोरोनावायरस मामलों में वृद्धि हुई है

राष्ट्रपति ट्रम्प ने यह दावा किया कि अमेरिका में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों का कारण परीक्षण में हो रही वृद्धि है। यदि यह सही है तो परीक्षणों में पॉज़िटिव परिणामों के प्रतिशत में कमी आनी चाहिए थी। लेकिन कई विश्लेषणों ने इसके विपरीत परिणाम दर्शाए हैं। यानी वृद्धि वास्तव में हुई है।  

मिथक 8: संक्रमण फैलेगा तो झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त की जा सकती है

महामारी की शुरुआत में यूके और स्वीडन ने झुंड प्रतिरक्षा के तरीके को अपनाया। इस तकनीक में वायरस को फैलने दिया जाता है जब तक आबादी में झुंड प्रतिरक्षा विकसित नहीं हो जाती है। लेकिन इस दृष्टिकोण में एक बुनियादी दोष है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि झुंड प्रतिरक्षा हासिल करने के लिए 60 से 70 प्रतिशत लोगों का संक्रमित होना आवश्यक है। कोविड-19 की उच्च मृत्यु दर को देखते हुए झुंड प्रतिरक्षा प्राप्त करते-करते करोड़ों लोग मारे जाते। इसी कारण इस महामारी में यूके की मृत्यु दर सबसे अधिक है। यूके और स्वीडन में लोगों की जान और अर्थव्यवस्था का भी काफी नुकसान हुआ। देर से ही सही, यू.के. सरकार ने इस गलती में सुधार किया और लॉकडाउन लागू किया।

मिथक 9: कोई भी टीका असुरक्षित होगा और कोविड-19 से अधिक घातक होगा

एक ओर वैज्ञानिक निरंतर टीका विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं, वहीं ये चिंताजनक रिपोर्ट्स भी सामने आ रही हैं कि शायद कई लोग इसे लेने से इन्कार कर देंगे। संभावित टीके को साज़िश के रूप में देखा जा रहा है। प्लानडेमिक फिल्म में तो यह भी दावा किया गया है कि कोविड-19 का टीका लाखों लोगों की जान ले लेगा। साथ ही यह दावा भी किया गया है कि पहले भी टीकों ने लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। लेकिन तथ्य यह है कि टीकों ने करोड़ों जानें बचाई हैं। यदि उपरोक्त दावा सही है, तो अलग-अलग चरणों में परीक्षण के दौरान लोगों की मौत हो जानी चाहिए थी। टीका-विरोधी समूहों द्वारा प्रस्तुत एक अन्य साज़िश-सिद्धांत में तो कहा गया है कि बिल गेट्स एक गुप्त योजना बना रहे हैं जिसके तहत टीकों के माध्यम से लोगों में माइक्रोचिप लगा दी जाएगी। इससे इतना तो स्पष्ट है कि टीके के निरापद होने की बात पर अत्यधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है, अन्यथा ऐसी बातों को तूल मिलेगा।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सपनों का विश्लेषण करते एल्गोरिदम

म में से कई लोगों को अजीबो-गरीब सपने आते हैं। मनोविज्ञानी इन सपनों का विश्लेषण करके मरीज़ को तनाव की स्थिति से उबरने में मदद करते हैं। और अब, शोधकर्ताओं ने एक ऐसा एल्गोरिदम विकसित किया है जो सपनों का विश्लेषण कर मरीज़ों के तनाव और मानसिक समस्या का कारण पहचानने में मदद कर सकता है।

वैसे तो सपनों के आधार पर निष्कर्ष निकालना प्राचीन काल से चला आ रहा है। लेकिन आजकल के अधिकांश मनोविज्ञानी ‘सातत्य परिकल्पना’ के तहत मानते हैं कि सपने हमारे जागते जीवन की निरंतरता होते हैं। वे सपनों को अलग-अलग वर्गों में छांटते हैं और उनमें किसी तरह का पैटर्न देखने की कोशिश करते हैं। इसमें समय लगता है। इस समय को घटाने के लिए नोकिया बेल लैब के कंप्यूटेशनल सोशल साइंटिस्ट लुसा मारिया एइलो और उनके साथियों ने एक एल्गोरिदम तैयार किया है। इस एल्गोरिदम की मदद से उन्होंने 24,000 से अधिक सपनों का विश्लेषण किया। इन सपनों के विवरण उन्होंने सपनों के सार्वजनिक डैटाबेस DreamBank.net से लिए थे।

यह एल्गोरिदम सपनों के विवरणों की भाषा को छोटे-छोटे हिस्सो में तोड़ता है: पैराग्राफ को वाक्यों में, वाक्यों को वाक्यांश में, और वाक्यांश को शब्दों में। फिर, हर शब्द का एक-दूसरे से सम्बंध पता करने के लिए एक वृक्ष बनाता है। वृक्ष का प्रत्येक शब्द एक पत्ती और शब्दों को जोड़ने वाली शाखाएं व्याकरण के नियम दर्शाती हैं। एल्गोरिदम इन शब्दों को अलग-अलग वर्गों में बांटता है (जैसे लोग या जानवर) और उन्हें सकारात्मक या नकारात्मक भावनाओं से जोड़ता है। शब्दों के बीच आक्रामक, दोस्ताना या लैंगिक सम्बंध भी देखे जाते हैं।

फिर, मनोविज्ञानियों के बीच लोकप्रिय एक कोडिंग प्रणाली का उपयोग कर एल्गोरिदम हर सपने के लिए स्कोर की गणना करता है, जैसे आक्रामकता का औसत, या नकारात्मक और सकारात्मक भावनाओं का अनुपात। रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मनोविज्ञानियों द्वारा दिए गए स्कोर और एल्गोरिदम द्वारा दिए गए स्कोर 76 प्रतिशत मेल खाते थे।

शोधकर्ताओं के अनुसार यह एल्गोरिदम मनोविज्ञानियों को असामान्य सपनों की पहचान करने में मदद कर सकता है, जिनसे मरीज़ के तनाव या मानसिक समस्या का कारण पता लगाया जा सकता है। एल्गोरिदम स्वस्थ व्यक्ति के सपनों के औसत स्कोर से मरीज़ों के सपनों के स्कोर की तुलना करके असामान्य सपनों की पहचान करता है। इसके अलावा, एल्गोरिदम यह भी बताता है कि अलग-अलग लिंग, आयु या मन:स्थिति के सपने किस तरह अलग-अलग होते हैं।

इस सम्बंध में हारवर्ड विश्वविद्यालय के रॉबर्ट स्टिकगोल्ड का कहना है कि यह तकनीक उपयोगी साबित हो सकती है। लेकिन विभिन्न जनांकिक समूहों के अपने सपनों का वर्णन करने के तरीके में अंतर के होने के कारण, सपनों में अंतर दिख सकते हैं। जैसे, ज़रूरी नहीं कि महिलाएं सपने में पुरुषों से अधिक भावनाओं का अनुभव करती हों, लेकिन वे सपनों को बताते वक्त अधिक भावुक शब्दों का उपयोग कर सकती हैं। इसलिए सपनों और सपनों के वर्णन में फर्क पहचानने की ज़रूरत है। स्टिकगोल्ड यह भी कहते हैं कि सपने देखने वाले के बारे में जाने बिना सपनों को जीवन से जोड़ना मुश्किल है। एइलो इससे सहमत हैं और मानते हैं कि यह एल्गोरिदम चिकित्सकों के मददगार औज़ार के रूप में काम करेगा, उनकी जगह नहीं लेगा।(स्रोत फीचर्स)

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99.9 प्रतिशत मार दिए, चिंता तो 0.1 प्रतिशत की है – डॉ. सुशील जोशी

जकल साबुन, हैंड सेनिटाइज़र्स, कपड़े धोने के डिटर्जेंट, बाथरूम-टॉयलेट साफ करने के एसिड्स, फर्श साफ करने, बर्तन साफ करने, सब्ज़ियां धोने के उत्पादों वगैरह सबके विज्ञापनों में एक महत्वपूर्ण बात जुड़ गई है। वह बात यह है कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत जम्र्स को मारते हैं। मज़ेदार बात यह है कि सारे उत्पाद जादुई ढंग से 99.9 प्रतिशत जम्र्स को ही मारते हैं। और तो और, ये विज्ञापन आपको यह भी सूचित करते हैं कि ये कोरोनावायरस को भी मार देते हैं।

मेरा ख्याल है कि काफी लोग बहुत खुश होंगे कि चलो, अब जम्र्स से छुटकारा मिलेगा और खुशी-खुशी इनमें से कोई उत्पाद खरीद लेंगे। विज्ञापनों का मकसद इसी के साथ पूरा हो जाता है। दरअसल, ऐसे विज्ञापनों के दो मकसद होते हैं – पहला प्रत्यक्ष मकसद होता है उस उत्पाद विशेष की बिक्री को बढ़ाना। लेकिन दूसरा मकसद भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है – उस श्रेणी के उत्पादों की ज़रूरत की महत्ता को स्थापित करना। जैसे, गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन उस क्रीम विशेष की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश तो करते ही हैं, गोरेपन को एक वांछनीय गुण के रूप में भी स्थापित करते हैं। तो जर्म-नाशी उत्पादों के विज्ञापन जर्म-नाश के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

इन जर्म-नाशी उत्पादों के 99.9 प्रतिशत के दावों पर संदेह नहीं करेंगे, हालांकि वह अपने आप में एक मुद्दा है। मेरी चिंता तो उन बचे हुए 0.1 प्रतिशत जम्र्स की है जिन्हें ये उत्पाद इकबालिया रूप से नहीं मार पाते। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। कोरोनावायरस समेत सारे वायरस निर्जीव कण होते हैं, इसलिए मारने की बात ही बेमानी है। मरे हुए को क्या मारेंगे? लेकिन मान लेते हैं कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत कोरोनावायरस को भी मार डालेंगे और 0.1 प्रतिशत को बख्श देंगे। सवाल है कि ये 0.1 प्रतिशत क्या करेंगे। इन 0.1 प्रतिशत का हश्र देखने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में लौटना होगा।

एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन नामक एंटीबायोटिक औषधि की खोज 1928 में की थी और 1941 में इसका उपयोग एक दवा के रूप में शुरू हुआ। 1942 में पहला पेनिसिलीन-प्रतिरोधी बैक्टीरिया खबरों में आ चुका था। डीडीटी से तो काफी लोग परिचित हैं। यह भी सभी जानते हैं कि मलेरिया मच्छर के काटने से फैलता है। मलेरिया पर नियंत्रण की एक प्रमुख रणनीति यह थी कि मच्छरों का सफाया कर दिया जाए। डीडीटी के छिड़काव से मच्छर तेज़ी से मरते थे। लेकिन कुछ ही वर्षों में स्पष्ट हो गया कि डीडीटी मच्छरों को मारने में असमर्थ हो गया है। मच्छरों में डीडीटी के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो गया था।

प्रतिरोधी जीवों का यह मसला आज एक महत्वपूर्ण समस्या है। चाहे जम्र्स हों, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट हों, रोगवाहक मच्छर हों, हर तरफ प्रतिरोधी जीव नज़र आ रहे हैं। सवाल है कि प्रतिरोध पैदा कैसे होता है।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध का कारण क्या है? बैक्टीरिया का जीवन चक्र और प्रत्येक पीढ़ी का समय मिनटों और घंटों में होता है। और जब इस तरह की बैक्टीरिया कॉलोनी को एंटीबायोटिक दवा से उपचारित किया जाता है तो कॉलोनी का सफाया (99.9 प्रतिशत!) हो जाता है। लेकिन कॉलोनी में कभी-कभी संयोगवश म्यूटेशन उत्पन्न हो जाता है या उनमें एकाध बैक्टीरिया ऐसा होता है (0.1 प्रतिशत) जो उस एंटीबायोटिक से अप्रभावित रहता है। 99.9 प्रतिशत तो मर गए लेकिन वे 0.1 प्रतिशत संख्या वृद्धि करते रहते हैं, बल्कि प्रतिस्पर्धा के अभाव में और तेज़ी से संख्या वृद्धि करते हैं। इसकी वजह से ऐसी संतति पैदा होती है जो एंटीबायोटिक की प्रतिरोधी होती है। धीरे-धीरे दवा-प्रतिरोधी गुण वाले बैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करके कॉलोनी पर हावी हो जाते हैं। यह एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी किस्म है। उसी एंटीबायोटिक से इन्हें मारने की कोशिश में सफलता कम या नहीं मिलेगी। इस प्रक्रिया के चलते हमारे द्वारा खोजे गए कई एंटीबायोटिक निष्प्रभावी हो चुके हैं। एंटीबायोटिक-प्रतिरोध की समस्या को स्वास्थ्य जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या माना गया है।

यही हाल डीडीटी का भी हुआ था और विभिन्न कीटनाशकों (पेस्टिसाइड्स) का भी। और अब हम घर-घर पर, सतह-सतह पर यही प्रयोग दोहराने को तत्पर हैं। सोचने वाली बात यह है कि यदि एक साथ इतने सारे जर्म-नाशी निष्प्रभावी हो गए तो क्या होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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